update 1
इस दर्दनाक अंत के बाद घरवालों ने चन्दर भैया की शादी दुबारा करा दी और जो नई दुल्हन आई वो बहुत ही काइयाँ निकली! रितिका उसे एक आँख नहीं भाति थी और हमेशा उसे डाँटती रहती| बस कहने को वो उसकी माँ थी पर उसका ख्याल जरा भी नहीं रखती थी| मैं अब बड़ा होने लगा था और रितिका के साथ हो रहे अन्याय को देख मुझे उस पर तरस आने लगता| मैं भरसक कोशिश करता की उसका मन बस मेरे साथ ही लगा रहे तो कभी मैं उसके साथ खेलता, कभी उसे टॉफी खिलाता और अपनी तरफ से जितना हो सके उसे खुश रखता| जब वो स्कूल जाने लायक हुई तो उसकी रूचि किताबों में बढ़ने लगी| जब भी मैं पढ़ रहा होता तो वो मेरे पास चुप चाप बैठ जाती और मेरी किताबों के पन्ने पलट के उनमें बने चित्र देख कर खुश हो जाया करती| मैंने उसका हाथ पकड़ के उसे उसका नाम लिखना सिखाया तो उन अक्षरों को देख के उसे यकीन ही नहीं हुआ की उसने अभी अपना नाम लिखा है| अब चूँकि घर वालों को उसकी जरा भी चिंता नहीं थी तो उन्होंने उसे स्कूल में दाखिल नहीं कराया पर वो रोज सुबह जल्दी उठ के बच्चों को स्कूल जाते हुए देखा करती| मैंने घर पर ही उसे A B C D पढ़ना शुरू किया और वो ख़ुशी-ख़ुशी पढ़ने भी लगी| एक दिन पिताजी ने मुझे उसे पढ़ाते हुए देख लिया परन्तु कुछ कहा नहीं, रात में भी जब हम खाना खाने बैठे तो उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं की| मुझे लगा शायद पिताजी को मेरा रितिका को पढ़ाना अच्छा नहीं लगा| अगली सुबह में स्कूल में था तभी मुझे पिताजी और रितिका स्कूल में घुसते हुए दिखाई दिए| मैं उस समय अपनी क्लास से निकल के पानी पीने जा रहा था और पिताजी को देख मैं उनकी तरफ दौड़ा| पिताजी ने मुझसे हेडमास्टर साहब का कमरा पूछा और जब मैंने उन्हें बताया तो बिना कुछ बोले वहाँ चले गए| पिताजी को स्कूल में देख के डर लग रहा था| ऐसा लग रहा था जैसे वो यहाँ मेरी कोई शिकायत ले के आये हैं और मैं मन ही मन सोचने लगा की मैंने पिछले कुछ दिनों में कोई गलती तो नहीं की? मैं इसी उधेड़-बुन में था की पिताजी मुझे हेडमास्टर साहब के कमरे से निकलते हुए नज़र आये और बिना कुछ बोले रितिका को लेके घर की तरफ चले गए| जब मैं दोपहर को घर पहुँचा तो रितिका बहुत खुश लग रही थी और भागती हुई मेरे पास आई और बोली; "चाचू... दादा जी ने मेरा स्कूल में दाखिला करा दिया!" ये सुनके मुझे बहुत अच्छा लगा और फिर इसी तरह हम साथ-साथ स्कूल जाने लगे| रितिका पढ़ाई में मुझसे भी दो कदम आगे थी, मैंने जो झंडे स्कूल में गाड़े थे वो उनके भी आगे निकल के अपने नाम के झंडे गाड़ रही थी| स्कूल में अगर किन्हीं दो लोगों की सबसे ज्यादा तारीफ होती तो वो थे मैं और रितिका| जब में दसवीं में आया तब रितिका पाँचवीं में थी और इस साल मेरी बोर्ड की परीक्षा थी| मैं मन लगाके पढ़ाई किया करता और इस दौरान हमारा साथ खेलना-कूदना अब लगभग बंद ही हो गया था| पर रितिका ने कभी इसकी शिकायत नहीं की बल्कि वो मेरे पास बैठ के चुप-चाप अपनी किताब से पढ़ा करती| जब मैं पढ़ाई से थक जाता तो वो मेरे से अपनी किताब के प्रश्न पूछती जिससे मेरे भी मन थोड़ा हल्का हो जाता| दसवीं की बोर्ड की परीक्षा अच्छी गई और अब मुझे उसके परिणाम की चिंता होने लगी| पर जब भी रितिका मुझे गुम-सुम देखती वो दौड़ के मेरे पास आती और मुझे दिलासा देने के लिए कहती; "चाचू क्यों चिंता करते हो? आप के नंबर हमेशा की तरह अच्छे आएंगे| आप स्कूल में टॉप करोगे!" ये सुन के मुझे थोड़ी हँसी आ जाती और फिर हम दोनों क्रिकेट खेलने लगते| आखिरकार परिणाम का दिन आ गया और मैं स्कूल में प्रथम आया| परिणाम से घर वाले सभी खुश थे और आज घर पर दवात दी गई| रितिका मेरे पास आई और बोली; "देखा चाचू बोला था ना आप टॉप करोगे!" मैंने हाँ में सर हिलाया और उसके माथे को चुम लिया| फिर मैंने अपनी जेब से चॉकलेट निकाली और उसे दे दी| चॉकलेट देख के वो बहुत खुश हुई और उछलती-कूदती हुई चली गई|ग्यारहवीं में मेरे मन साइंस लेने का था परन्तु जानता था की घर वाले आगे और पढ़ने में खर्चा नहीं करेंगे और ना ही मुझे कोटा जाने देंगे| इसलिए मैंने मन मार के कॉमर्स ले ली और फिर पढ़ाई में मन लगा लिया| स्कूल में मेरे दोस्त ज्यादा नहीं थे और जो थे वो सब के सब मेरी तरह किताबी कीड़े! इसलिए सेक्स आदि के बारे में मुझे कोई ज्ञान नहीं मिला और जो थोड़ा बहुत दसवीं की बायोलॉजी की किताब से मिला भी उसमें भी जान सुखी रहती की कौन जा के लड़की से बात करे? और कहीं उसने थप्पड़ मार दिया तो सारी इज्जत का भाजी-पाला हो जायेगा| इसी तरह दिन गुज़रने लगे और मैं बारहवीं में आया और फिर से बोर्ड की परीक्षा सामने थी| खेर इस बार भी मैंने स्कूल में टॉप किया और इस बार तो पिताजी ने शानदार जलसा किया जिसे देख घर के सभी लोग बहुत खुश थे| जलसा ख़तम हुआ तो अगले दिन से ही मैंने कॉलेज देखने शुरू कर दिए| कॉलेज घर से करीब ४ घंटे दूर था तो आखिर ये तय हुआ की मैं हॉस्टल में रहूँगा पर हर शुक्रवार घर आऊँगा और संडे वापस हॉस्टल जाना होगा| जब ये बात रितिका को पता चली तो वो बेचारी बहुत उदास हो गई|
मैं: क्या हुआ ऋतू? (मैं रितिका को प्यार से ऋतू बुलाया करता था|)
रितिका: आप जा रहे हो? मुझे अकेला छोड़ के?
मैं: पागल... मैं बस कॉलेज जा रहा हूँ ... तुझसे दूर थोड़े ही जाऊँगा? और फिर मैं हर फ्राइडे आऊँगा ना|
रितिका: आपके बिना मेरे साथ कौन बात करेगा? कौन मेरे साथ खेलेगा? मैं तो अकेली रह जाऊँगी?
मैं: ऐसा नहीं है ऋतू! सिर्फ चार दिन ही तो मैं बहार रहूँगा ... बाद में फिर घर आ जाऊँगा|
रितिका: पक्का?
मैं: हाँ पक्का ... प्रॉमिस करता हूँ|
रितिका को किया ये ऐसा वादा था जिसे मैंने कॉलेज के तीन साल तक नहीं तोडा| मैं हर फ्राइडे घर आ जाया करता और संडे दोपहर हॉस्टल वापस निकल जाता| जब मैं घर आता तो रितिका खुश हो जाया करती और संडे दोपहर को जाने के समय फिर दुखी हो जाय करती थी|
इस दर्दनाक अंत के बाद घरवालों ने चन्दर भैया की शादी दुबारा करा दी और जो नई दुल्हन आई वो बहुत ही काइयाँ निकली! रितिका उसे एक आँख नहीं भाति थी और हमेशा उसे डाँटती रहती| बस कहने को वो उसकी माँ थी पर उसका ख्याल जरा भी नहीं रखती थी| मैं अब बड़ा होने लगा था और रितिका के साथ हो रहे अन्याय को देख मुझे उस पर तरस आने लगता| मैं भरसक कोशिश करता की उसका मन बस मेरे साथ ही लगा रहे तो कभी मैं उसके साथ खेलता, कभी उसे टॉफी खिलाता और अपनी तरफ से जितना हो सके उसे खुश रखता| जब वो स्कूल जाने लायक हुई तो उसकी रूचि किताबों में बढ़ने लगी| जब भी मैं पढ़ रहा होता तो वो मेरे पास चुप चाप बैठ जाती और मेरी किताबों के पन्ने पलट के उनमें बने चित्र देख कर खुश हो जाया करती| मैंने उसका हाथ पकड़ के उसे उसका नाम लिखना सिखाया तो उन अक्षरों को देख के उसे यकीन ही नहीं हुआ की उसने अभी अपना नाम लिखा है| अब चूँकि घर वालों को उसकी जरा भी चिंता नहीं थी तो उन्होंने उसे स्कूल में दाखिल नहीं कराया पर वो रोज सुबह जल्दी उठ के बच्चों को स्कूल जाते हुए देखा करती| मैंने घर पर ही उसे A B C D पढ़ना शुरू किया और वो ख़ुशी-ख़ुशी पढ़ने भी लगी| एक दिन पिताजी ने मुझे उसे पढ़ाते हुए देख लिया परन्तु कुछ कहा नहीं, रात में भी जब हम खाना खाने बैठे तो उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं की| मुझे लगा शायद पिताजी को मेरा रितिका को पढ़ाना अच्छा नहीं लगा| अगली सुबह में स्कूल में था तभी मुझे पिताजी और रितिका स्कूल में घुसते हुए दिखाई दिए| मैं उस समय अपनी क्लास से निकल के पानी पीने जा रहा था और पिताजी को देख मैं उनकी तरफ दौड़ा| पिताजी ने मुझसे हेडमास्टर साहब का कमरा पूछा और जब मैंने उन्हें बताया तो बिना कुछ बोले वहाँ चले गए| पिताजी को स्कूल में देख के डर लग रहा था| ऐसा लग रहा था जैसे वो यहाँ मेरी कोई शिकायत ले के आये हैं और मैं मन ही मन सोचने लगा की मैंने पिछले कुछ दिनों में कोई गलती तो नहीं की? मैं इसी उधेड़-बुन में था की पिताजी मुझे हेडमास्टर साहब के कमरे से निकलते हुए नज़र आये और बिना कुछ बोले रितिका को लेके घर की तरफ चले गए| जब मैं दोपहर को घर पहुँचा तो रितिका बहुत खुश लग रही थी और भागती हुई मेरे पास आई और बोली; "चाचू... दादा जी ने मेरा स्कूल में दाखिला करा दिया!" ये सुनके मुझे बहुत अच्छा लगा और फिर इसी तरह हम साथ-साथ स्कूल जाने लगे| रितिका पढ़ाई में मुझसे भी दो कदम आगे थी, मैंने जो झंडे स्कूल में गाड़े थे वो उनके भी आगे निकल के अपने नाम के झंडे गाड़ रही थी| स्कूल में अगर किन्हीं दो लोगों की सबसे ज्यादा तारीफ होती तो वो थे मैं और रितिका| जब में दसवीं में आया तब रितिका पाँचवीं में थी और इस साल मेरी बोर्ड की परीक्षा थी| मैं मन लगाके पढ़ाई किया करता और इस दौरान हमारा साथ खेलना-कूदना अब लगभग बंद ही हो गया था| पर रितिका ने कभी इसकी शिकायत नहीं की बल्कि वो मेरे पास बैठ के चुप-चाप अपनी किताब से पढ़ा करती| जब मैं पढ़ाई से थक जाता तो वो मेरे से अपनी किताब के प्रश्न पूछती जिससे मेरे भी मन थोड़ा हल्का हो जाता| दसवीं की बोर्ड की परीक्षा अच्छी गई और अब मुझे उसके परिणाम की चिंता होने लगी| पर जब भी रितिका मुझे गुम-सुम देखती वो दौड़ के मेरे पास आती और मुझे दिलासा देने के लिए कहती; "चाचू क्यों चिंता करते हो? आप के नंबर हमेशा की तरह अच्छे आएंगे| आप स्कूल में टॉप करोगे!" ये सुन के मुझे थोड़ी हँसी आ जाती और फिर हम दोनों क्रिकेट खेलने लगते| आखिरकार परिणाम का दिन आ गया और मैं स्कूल में प्रथम आया| परिणाम से घर वाले सभी खुश थे और आज घर पर दवात दी गई| रितिका मेरे पास आई और बोली; "देखा चाचू बोला था ना आप टॉप करोगे!" मैंने हाँ में सर हिलाया और उसके माथे को चुम लिया| फिर मैंने अपनी जेब से चॉकलेट निकाली और उसे दे दी| चॉकलेट देख के वो बहुत खुश हुई और उछलती-कूदती हुई चली गई|ग्यारहवीं में मेरे मन साइंस लेने का था परन्तु जानता था की घर वाले आगे और पढ़ने में खर्चा नहीं करेंगे और ना ही मुझे कोटा जाने देंगे| इसलिए मैंने मन मार के कॉमर्स ले ली और फिर पढ़ाई में मन लगा लिया| स्कूल में मेरे दोस्त ज्यादा नहीं थे और जो थे वो सब के सब मेरी तरह किताबी कीड़े! इसलिए सेक्स आदि के बारे में मुझे कोई ज्ञान नहीं मिला और जो थोड़ा बहुत दसवीं की बायोलॉजी की किताब से मिला भी उसमें भी जान सुखी रहती की कौन जा के लड़की से बात करे? और कहीं उसने थप्पड़ मार दिया तो सारी इज्जत का भाजी-पाला हो जायेगा| इसी तरह दिन गुज़रने लगे और मैं बारहवीं में आया और फिर से बोर्ड की परीक्षा सामने थी| खेर इस बार भी मैंने स्कूल में टॉप किया और इस बार तो पिताजी ने शानदार जलसा किया जिसे देख घर के सभी लोग बहुत खुश थे| जलसा ख़तम हुआ तो अगले दिन से ही मैंने कॉलेज देखने शुरू कर दिए| कॉलेज घर से करीब ४ घंटे दूर था तो आखिर ये तय हुआ की मैं हॉस्टल में रहूँगा पर हर शुक्रवार घर आऊँगा और संडे वापस हॉस्टल जाना होगा| जब ये बात रितिका को पता चली तो वो बेचारी बहुत उदास हो गई|
मैं: क्या हुआ ऋतू? (मैं रितिका को प्यार से ऋतू बुलाया करता था|)
रितिका: आप जा रहे हो? मुझे अकेला छोड़ के?
मैं: पागल... मैं बस कॉलेज जा रहा हूँ ... तुझसे दूर थोड़े ही जाऊँगा? और फिर मैं हर फ्राइडे आऊँगा ना|
रितिका: आपके बिना मेरे साथ कौन बात करेगा? कौन मेरे साथ खेलेगा? मैं तो अकेली रह जाऊँगी?
मैं: ऐसा नहीं है ऋतू! सिर्फ चार दिन ही तो मैं बहार रहूँगा ... बाद में फिर घर आ जाऊँगा|
रितिका: पक्का?
मैं: हाँ पक्का ... प्रॉमिस करता हूँ|
रितिका को किया ये ऐसा वादा था जिसे मैंने कॉलेज के तीन साल तक नहीं तोडा| मैं हर फ्राइडे घर आ जाया करता और संडे दोपहर हॉस्टल वापस निकल जाता| जब मैं घर आता तो रितिका खुश हो जाया करती और संडे दोपहर को जाने के समय फिर दुखी हो जाय करती थी|