यह कैसा मोड़-1

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(Yah Kaisa Modh-1)

प्रेषक : विजय पण्डित

सिनेमा हॉल में महक का हाथ मेरे हाथ के ऊपर आ गया। मुझे एक झटका सा लगा। मैंने धीरे से महक की तरफ़ देखा। उसकी बड़ी बड़ी आँखें मेरी तरफ़ ही घूर रही थी। फिर उसने बलपूर्वक मेरा हाथ मेरी सीट पर ही गिरा लिया ताकि एकदम कोई देख ना सके। मेरे शरीर में सनसनी सी फ़ैलने लगी थी। कुछ देर तक हम दोनों एक दूसरे के हाथ को दबाते रहे फिर उसका हाथ मेरी जाँघों पर सरक आया।

मेरा लण्ड सख्त होने लगा था। थोड़ी देर तक तो उसका हाथ मेरी जांघों को सहलाता रहा, दबाता रहा, फिर धीरे से उसने अपना हाथ मेरे लण्ड की तरफ़ बढा दिया।

उसका हाथ का स्पर्श पाते ही मेरे शरीर में एक मीठी सी तरंग चलने लगी। मुझे उसके कोमल हाथों का स्पर्श बहुत अच्छा लगा। मेरा लण्ड सख्त हो गया था। वो उसे ऊपर से ही धीरे धीरे दबाने लगी। मैंने अपना हाथ उसके हाथ के ऊपर रख दिया और उसे जोर से अपने लण्ड पर दबा दिया।

तभी इन्टरवल हो गया, उसने धीरे से अपना हाथ खींच लिया। मैंने देखा उसके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान थी।

"कुछ ठण्डा पियोगी?"

"हाँ, ठण्डा ही ठीक रहेगा।"

वहाँ वेटर को मैंने ठण्डा लाने को कहा। यूँ तो हॉल में कुछ खाने की मनाही थी पर कॉफ़ी, ठण्डा वगैरह चलता था। महक कहने को तो मेरी बड़ी बहन थी. ताऊ जी लड़की थी, एम.ए. में प्रवेश लिया था। उसकी एक सखी भी थी शिखा. तेज-तर्रार, तीखे नयन नक्श वाली. गोरी चिट्टी. दुबली पतली और लम्बी. मुझे बहुत पसन्द थी वो. खास कर जब वो मुझे देख कर अपनी एक आँख धीरे से दबा

देती थी। उसे देख कर कर मेरी नसों में बिजली सी दौड़ जाती थी।

मूवी फिर से शुरू हो गई थी। मुझे लगा कि वो फिर से मेरा लण्ड पकड़ेगी. पर ऐसा नहीं हुआ। मैंने ही धीरे से उसकी सीट में अपना हाथ डाल दिया और धीरे-धीरे उसकी नरम चिकनी जांघें दबाने सहलाने लगा। उसने यूँ तो कोई विरोध नहीं किया पर शायद वो नहीं चाह रही थी कि मैं कुछ करूँ। मैंने कोशिश करके उसकी चूत की तरफ़ हाथ बढाया। जैसे ही उसकी चूत की दरार पर हाथ लगा, उसने जल्दी से मेरा हाथ खींच कर हटा दिया।

फिर बारी आई उसके मम्मों की. मैंने सीट के पीछे हाथ डाल कर उसके कंधों से हाथ नीचे सरका कर उसके मुलायम से उरोज को दबा दिया। उसने कोई विरोध नहीं किया। मैंने धीरे धीरे उसे खूब दबाया। पर जब निप्पल मसला तो वो मेरा हाथ उस पर से हटाने लगी, धीरे से आवाज आई- श्स्स्स्स. ऐसे नहीं.

मेरा हाथ उसने हटा दिया। फिर उसने मुझे उरोज नहीं दबाने दिया। जब हम दोनों सिनेमा हॉल से बाहर निकले तब तक तो मैं उसका दीवाना हो चुका था।

अब तो मुझे वो बाजार ले जाती थी, मुझे यूनिवरसिटी ले जाती थी. नोट्स लेने के लिये पूरा शहर घुमा देती थी। मेरा तो गाड़ी का सारा पेट्रोल यूँ ही समाप्त हो जाता था। कुछ करने के चक्कर में मैं उसके घर का चक्कर लगाता रहता था कि जाने कब वो अकेली मिल जाये और मैं मनमानी करूँ।

एक दिन मुझे ऐसा मिल ही गया, मैं घर में चला आया। पर मेरा बैड-लक. शिखा वहाँ पहले से ही मौजूद थी। दोनों में कुछ झड़प सी हो रही थी। मैं ध्यान से सुनने लगा.

बातें मेरे बारे में ही थी।

"जब तू रोहित को चूतिया बनाती है तो कोई बात नहीं. अब मैं नोट्स मांग रही हूँ तो बड़े भाव दिखा रही है? खूब खर्चा कराती है उसका. मेरा काम करा देगी तो तेरा क्या बिगड़ जायेगा. भाड़ में जा तू. साली. हरामी. रण्डी."

"तू होगी कुतिया छिनाल."

उनका झगड़ा देख कर मैं जल्दी से कमरे से बाहर आ गया और बरामदे में खड़ा हो गया। तभी शिखा तनतनाती हुई निकली। मुझे देख कर वो ठिठक गई।

मुझे देख कर उसने मुझे छेड़ने के लिये अपनी बाईं आँख धीरे से दबाई- क्या हाल है रोहित?

"बस तुझे देख लिया तो मन खुश हो गया।"

फिर उसने चुपके से पीछे देखा और बोली- ऐ रोहित. शाम को आठ बजे. वो गार्डन में आ जाना. तेरा इन्तजार करूँगी !

मैं एकदम चकरा सा गया. मुझे बुलाया उसने !

"कौन सा गार्डन.? वो झील के पास जो है. वो वाला ?"

"हाँ हाँ वही. देख जरूर आना.!"

कहकर वो लपक कर बाहर चली गई। अब महक घर में अकेली थी। मैंने महक के कमरे की तरफ़ देखा. अरे वाह बहुत मस्ती करेंगे।

मैं जल्दी से अन्दर चला आया.

'अरे आओ रोहित. वो अभी शिखा आई थी।"

"हाँ बाहर दिखी थी."

"घर में तो कोई नहीं है ना?"

"नहीं, पर मुझे तो जाना है !"

"चली जाना. पर कुछ मजा तो कर ले.!"

"बाद में भैया. अभी मूड नहीं है."

पर मैंने उसकी कमर थाम कर उसे चूम लिया। वो अपने आप को छुड़ाने लगी। मैंने उसके चूतड़ दबा दिए।

"अरे वाह. महक. मजा आ गया।"

वो बचती रही पर मैंने उसके उरोज पकड़ कर दबा ही दिये. उसने मुझे धक्का दे दिया- क्या कर रहा है. यह भी कोई तरीका है. अरे मैं तेरी बहन हूँ.

मेरे मन को एक धक्का सा लगा। यह क्या कह रही है? आज बहन हो गई और उस दिन. मेरा चेहरा लटक गया।

"सॉरी महक. माफ़ कर देना यार"

"देख, समझा कर. अभी मौका नहीं है. पापा आने वाले है यार. अभी तू जा."

मुझे कुछ समझ में नहीं आया। पर मैंने वहाँ से जाने में ही भलाई समझी। घर लौट कर मैं बहुत ही अनमने भाव से अपने बिस्तर पर लेट गया। दिल उलझता गया. ऐसा मैंने क्या कर दिया. ये तो चल ही रहा था। मुझे पता नहीं कब नींद आ गई।

उठा तो शाम के पांच बज रहे थे। चाय पी कर मैं स्नान के लिये चला गया। कुछ समझ में नहीं आया तो मैं टीवी खोल कर कोई अंग्रेजी मूवी लगा कर बैठ गया।

इसी बीच मैंने भोजन भी कर लिया। फिर याद आया कि आठ बजे बालिका वधू सीरियल आने वाला है।

तभी फोन आया.

"कौन?"

"अरे बुद्धू ! मैं शिखा हूँ. क्या कर रहा है यार?"

"ओफ़्फ़ोह ! सॉरी यार. मेरे दिमाग से निकल ही गया था। अभी आता हूँ. बस पांच मिनट. तब तक मेरी तरफ़ कोई स्नेक या ठण्डा ले लेना।"

मैंने जल्दी से अपनी जीन्स पहनी और बाईक पर लपका। ठीक आठ बजे तो मैं वहाँ पहुँच ही गया था। मैंने स्टेण्ड पर शिखा के बाईक के पास अपनी बाइक रख दी.

शिखा स्टेण्ड के बाहर खड़ी मेरा इन्तजार रही थी।

"मुझे देख . मैं यहाँ दस मिनट से तेरा इन्तजार कर रही हूँ." उसने कोल्ड ड्रिंक की बोतल दुकान पर लौटाते हुये कहा।

बीस रुपये मैंने दुकान वाले को दे दिये।

"कोई और होता तो वो मेरा इन्तजार कर रहा होता।"

"क्या करूँ यार. आज तो महक ने मुझे बहुत बुरी तरह से डांट दिया। मैं तो डिस्टर्ब हो गया था।"

"वो महक. रहने दे. साला तू तो मरता है उस पर. चल वहाँ ऊपर गार्डन में चलते हैं."

"अरे चुप यार. वो मेरी बहन है.!"

"बहन है. लौड़ा है बहन. चल वहाँ बैठते हैं !"

मैं उसकी गाली सुन कर सन्न सा रह गया. यह कहानी आप HotSexStory.xyz पर पढ़ रहे हैं।

"कोई काम है तुझे या यूँ ही गालियाँ सुनाने के लिये बुलाया है मुझे.?

"तुझे उसने घनचक्कर बना रखा है. साले को नौकर बना कर तुझे चूतिया बनाती है !"

अब बहुत हो गया शिखा. मैं तो तेरे खातिर चला आया था पर तू तो.!"

"उसने तेरा लण्ड पकड़ा था ना सिनेमा हॉल में."

मुझे झटका सा लगा. यह कैसे जानती है?

"ऐ क्या बात है? बता ना. तू ऐसा क्यों बोलती है?"

"देख रोहित, तू तो मुझे अच्छा लगता है. मुझसे यह सब सहन नहीं होता है."

"पर वो लण्ड वाली बात.?"

"मुझे कैसे मालूम है.? अरे मेरी सभी सहेलियों को मालूम है. तुझे पता है कि तेरा उसने लण्ड पकड़ा. तुझे दीवाना बना दिया. तूने उसकी ब्रा को खूब मसला. उसकी चूची को नहीं. तू बड़ा खुश हुआ. चूत पर हाथ लगाया तो उसने झटक दिया ना.?"

"उफ़्फ़्फ़, शिखा तुम तो सब जानती हो. पर दबाई तो चूची ही थी।"

"अपना हाथ ला."

शिखा ने धीरे से अपना हाथों में मेरा हाथ लिया और अपनी आँखें बन्द करके जोर की सांस ली और मेरे हाथ को अपनी चूची पर रख दिया।

उफ़्फ़्फ़ ! मांसल उरोज. कुछ नरम से, बीच में कड़े से. निपल सधे हुये. कड़े से.

फिर उसने हाथ हटा दिया. फिर धीरे से बोली- ऐसे ही थे क्या?

"नहीं. ओह बिल्कुल नहीं. ये तो बहुत ही सुन्दर और और."

उसने रुई भरी हुई अपनी पेडेड ब्रा तुम्हें दबाने दी थी। जानते हो. महक कितना हंस रही थी उस दिन."

"पर वो ऐसा क्यूँ करेगी.?"

"तुम्हें अपने से बांधे रखने के लिये. हममें से बहुत सी लड़कियाँ सीधे साधे लड़कों को इसी तरह फ़ंसा कर रखती हैं. ताकी वो अपना सारा काम उनसे करवा सकें. समय बेसमय खर्चा करवा सके. उनकी महंगी चीजें, ब्रा. अन्डर गारमेन्ट खरीदवा सकें. बस उसे उल्लू का पठ्ठा बना कर अपना सारा काम नौकरों जैसा करवा सकें।"

मेरी आँखों में आँसू आ गये. मन रो पड़ा. मैं तो उसे जाने क्या समझा था.

शिखा ने अपने रुमाल से मेरे आँसू पोंछ डाले. और मेरा चेहरा नीचे झुका कर मेरे गालों को चूमने लगी।

बस बस शिखा अब बस करो. अब नहीं. अब चलें क्या?

"रोहित. प्लीज गलत ना समझो. मैं वैसी नहीं हूँ. मैं तो तुम से."

"काम करवाना चाहती हो ना.? अरे पगली कह कर तो देखो, मेरे साथ फ़्लर्ट करने की आवश्यकता नहीं है. अरे यार मेरी तो वैसे ही जान हाजिर है।"

शिखा ने बड़े प्यार से अपने हाथ से मेरा हाथ पकड़ कर अपने कोमल उरोजों पर रख दिया और लम्बी सांस भर कर बोली- ये तुम्हारे हैं रोहित. खूब दबाओ. खूब मसलो. मुझे प्यार करो यार. मुझे मस्त कर दो !

शिखा के शिखर जैसे उरोज मैंने दबा दिये. उसके मुख से एक मीठी सी सीत्कार निकल गई. उसका हाथ रोहित के लण्ड पर चला गया। बहुत उफ़ान पर था. उसने जीन्स की जिप खींच कर खोल दी. चड्डी के एक कोने से लण्ड को खींच कर

बाहर निकाल लिया और उसे घिसने लगी।

"रोहित कैसा लग रहा है?"

"आह. सच में शिखा. तुम तो बहुत प्यारी हो. प्यार करने लायक."

"कब चोदोगे मुझे? मेरी मुनिया पानी से भीग गई है."

"यह तो गार्डन है. किसी ने देख लिया तो बड़ी बदनामी होगी."

"तो फिर.?"

"मौका तलाशते हैं. किसी होटल में चलें.?"

"अरे हाँ. मेरी सहेली का एक होटल है वहाँ वो लंच के बाद आ जाती है. उसके पति फिर लंच पर चले जाते हैं. वहाँ देखती हूँ.

कहानी जारी रहेगी।

विजय पण्डित
 
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