Hindi Xkahani - प्यार का सबूत

अध्याय - 139
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एकाएक ही मन में उथल पुथल सी मच गई थी। भाभी के लिए पहले भी फ़िक्र थी लेकिन अब और भी ज़्यादा होने लगी थी। एक बेचैनी सी थी जो बढ़ती ही जा रही थी। मैंने फ़ैसला कर लिया कि कल सुबह मैं चंदनपुर जाऊंगा और भाभी को वापस ले आऊंगा।

अब आगे....


अगली सुबह।
नहा धो कर और नए कपड़े पहन कर मैं चाय नाश्ता करने नीचे आया। मुझे नए कपड़ों में देख मां और बाकी लोग मुझे अलग ही तरह से देखने लगे। मुझे अजीब तो लगा लेकिन मैं किसी से बिना कुछ बोले कुर्सी पर बैठ गया। थोड़ी ही देर में कुसुम मेरे लिए नाश्ता ले आई।

"क्या बात है, आज मेरा बेटा राज कुमारों की तरह सजा हुआ है।" मां ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा_____"कहीं बाहर जा रहा है क्या तू?"

"हां मां।" मैंने सामान्य भाव से कहा____"मैं चंदनपुर जा रहा हूं, भाभी को लेने।"

"क..क्या??" मां जैसे उछल ही पड़ीं____"ये क्या कह रहा है तू?"

"सच कह रहा हूं मां।" मैंने कहा____"लेकिन आप इतना हैरान क्यों हो रही हैं? क्या आप नहीं चाहतीं कि भाभी वापस हवेली आएं?"

"ह....हां चाहती हूं।" मां ने खुद को सम्हालते हुए कहा____"लेकिन तू इस तरह अचानक से तैयार हो कर आ गया इस लिए हैरानी हुई मुझे। तूने बताया भी नहीं कि तू रागिनी बहू को लेने जाने वाला है?"

"हां जैसे मैं आपको बता देता तो आप मुझे खुशी से जाने देतीं।" मैंने हौले से मुंह बनाते हुए कहा_____"आपसे पहले भी कई बार कह चुका हूं कि भाभी को वापस लाना चाहता हूं लेकिन हर बार आपने मना कर दिया। ये भी नहीं बताया कि आख़िर क्यों? इस लिए मैंने फ़ैसला कर लिया है कि आज चंदनपुर जाऊंगा ही जाऊंगा और शाम तक भाभी को ले कर वापस आ जाऊंगा।"

"क्या तूने इस बारे में पिता जी से पूछा है?" मां ने मुझे घूरते हुए कहा____"अगर नहीं पूछा है तो पूछ लेना उनसे। अगर वो जाने की इजाज़त दें तभी जाना वरना नहीं।"

"मुझे समझ नहीं आ रहा कि आख़िर आप भाभी को वापस लाने से मना क्यों करती हैं?" मैंने झल्लाते हुए कहा_____"क्या आपको अपनी बहू की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है? क्या आप नहीं चाहतीं कि वो हमारे साथ इस हवेली में रहें?"

"फ़िज़ूल की बातें मत कर।" मां ने नाराज़गी से कहा____"शांति से नाश्ता कर और फिर पिता जी से इस बारे में पूछ कर ही जाना।"

मैंने बहस करना उचित नहीं समझा इस लिए ख़ामोशी से नाश्ता किया और फिर हाथ मुंह धो कर सीधा बैठक में पहुंच गया। बैठक में पिता जी, गौरी शंकर और किशोरी लाल बैठे हुए थे।

"अच्छा हुआ तुम यहीं आ गए।" पिता जी ने मुझे देखते ही कहा_____"हम तुम्हें बुलवाने ही वाले थे। बात ये है कि आज तुम्हें शहर जाना है। वहां पर जिनसे हम सामान लाते हैं उनका पिछला हिसाब किताब चुकता करना है। हम नहीं चाहते कि देनदारी ज़्यादा हो जाए जिसके चलते वो लोग सामान देने में आना कानी करने लगें। इस लिए तुम रुपए ले कर जाओ और आज तक का सारा हिसाब किताब चुकता कर देना। हमें गौरी शंकर के साथ एक ज़रूरी काम से कहीं और जाना है, इस लिए ये काम तुम्हें ही करना होगा।"

"मुझे भी कहीं जाना है पिता जी।" मैंने झिझकते हुए कहा____"लेकिन आप कहते हैं तो मैं शहर में सबका हिसाब किताब कर दूंगा उसके बाद वहीं से निकल जाऊंगा।"

"कहां जाना है तुम्हें?" पिता जी के चेहरे पर शिकन उभर आई थी।

"चंदनपुर।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"भाभी को लेने जा रहा हूं।"

मेरी बात सुन कर गौरी शंकर ने फ़ौरन ही मेरी तरफ देखा और फिर पलट कर पिता जी की तरफ देखने लगा। पिता जी पहले से ही मेरी तरफ देख रहे थे। मेरी बात सुन कर वो कुछ बोले नहीं, किंतु चेहरे पर सोचो के भाव उभर आए थे।

"ठीक है।" फिर उन्होंने गहरी सांस ले कर कहा____"अगर तुम चंदनपुर जाना चाहते हो तो ज़रूर चले जाना लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना कि अगर समधी साहब बहू को भेजने से मना करें तो तुम उन पर दबाव नहीं डालोगे।"

"जी ठीक है।" मैंने सिर हिला दिया।

पिता जी ने मुंशी किशोरी लाल को इशारा किया तो वो उठ कर पैसा लेने चला गया। कुछ देर बाद जब वो आया तो उसके हाथ में एक किताब थी और पैसा भी। किताब को उसने पिता जी की तरफ बढ़ा दिया। पिता जी ने किताब खोल कर हिसाब किताब देखा और फिर एक दूसरे कागज में लिख कर मुझे कागज़ पकड़ा दिया। इधर एक छोटे से थैले में पैसा रख कर मुंशी जी ने मुझे थैला पकड़ा दिया।

मैं खुशी मन से अंदर आया और मां को बताया कि पिता जी ने जाने की इजाज़त दे दी है। मां मेरी बात सुन कर हैरान सी नज़र आईं किंतु बोली कुछ नहीं। जब मैं जीप की चाभी ले कर जाने लगा तो उन्होंने बस इतना ही कहा कि भीमा को साथ ले जाना। ख़ैर कुछ ही देर में मैं भीमा को साथ ले कर जीप से शहर की तरफ जा निकला।

आज काफी दिनों बाद मुझे कुछ अच्छा सा महसूस हो रहा था। ये सोच कर खुशी हो रही थी कि दो महीने बाद भाभी से मिलूंगा। मुझे यकीन था कि जैसे मैं उन्हें बहुत याद कर रहा था वैसे ही उन्हें भी मेरी याद आती होगी। जैसे मुझे उनकी फ़िक्र थी वैसे ही उन्हें भी मेरी फ़िक्र होगी। एकाएक ही मेरा मन करने लगा कि काश ये जीप किसी पंक्षी की तरह आसमान में उड़ने लगे और एक ही पल में मैं अपनी प्यारी सी भाभी के पास पहुंच जाऊं।

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चंदनपुर गांव।
चारो तरफ खेतों में हरियाली छाई हुई थी। यदा कदा सरसो के खेत भी थे जिनमें लगे फूलों की वजह से बड़ा ही मनमोहक नज़ारा दिख रहा था। पेड़ पौधों और ऊंचे ऊंचे पहाड़ों से घिरा हुआ गांव बड़ा ही सुन्दर लगता था। मैं इस सुंदर नज़ारे देखते हुए जीप चला रहा था। मन में तरह तरह के ख़याल बुनते हुए कुछ ही समय में मैं भाभी के घर पहुंच गया।

घर के बाहर बड़ी सी चौगान में जीप खड़ी हुई तो जल्दी ही घर के अंदर से कुछ लोग निकल कर बाहर आए। भाभी के चाचा की लड़की कंचन और मोहिनी नज़र आईं मुझे। उनके पीछे उनका बड़ा भाई वीर सिंह और चाची का भाई वीरेंद्र सिंह भी नज़र आया। मुझ पर नज़र पड़ते ही सबके चेहरे खिल से गए। उधर कंचन की जैसे ही मुझसे नज़रें चार हुईं तो वो एकदम से शर्मा गई। पहले तो मुझे उसका यूं शर्मा जाना समझ न आया किंतु जल्दी ही याद आया कि पिछली बार जब मैं आया था तो उसको और उसकी छोटी भाभी को मैंने नंगा देख लिया था। कंचन इसी वजह से शर्मा गई थी। मैं इस बात से मन ही मन मुस्कुरा उठा।

"अरे! वैभव महाराज आप?" वीर सिंह उत्साहित सा हो कर बड़ी तेज़ी से मेरी तरफ बढ़ा। मेरे पैर छू कर वो सीधा खड़ा हुआ फिर बोला____"धन्य भाग्य हमारे जो आपके दर्शन हो गए। यकीन मानिए आज सुबह ही हम लोग आपके बारे में चर्चा कर रहे थे।"

"कैसे हैं महाराज?" वीरेंद्र सिंह ने भी मेरे पांव छुए, फिर बोला____"आपने अचानक यहां आ कर हमें चौंका ही दिया। ख़ैर आइए, अंदर चलते हैं।"

मैं वीरेंद्र के साथ अंदर की तरफ बढ़ चला। उधर वीर सिंह मेरे साथ आए भीमा को भी अंदर ही बुला लिया। कुछ ही पलों में मैं अंदर बैठके में आ गया जहां बड़ी सी चौपार में कई सारे पलंग बिछे हुए थे। वीर सिंह ने झट से पलंग पर गद्दा बिछा दिया और फिर उसके ऊपर चादर डाल कर मुझे बैठाया।

कंचन और मोहिनी पहले ही घर के अंदर भाग गईं थी और सबको बता दिया था कि मैं आया हूं। एकाएक ही जैसे पूरे घर में हलचल सी मच गई थी। कुछ ही समय में घर के बड़े बुजुर्ग भी आ गए। सबने मेरे पांव छुए, वीरेंद्र सिंह फ़ौरन ही पीतल की एक परांत ले आया जिसमें मेरे पैरों को रखवा कर उसने मेरे पांव धोए। ये सब मुझे बड़ा अजीब लगा करता था लेकिन क्या कर सकता था? ये उनका स्वागत करने का तरीका था। आख़िर मेरे बड़े भैया की ससुराल थी ये, उनका छोटा भाई होने के नाते मैं भी उनका दामाद ही था। बहरहाल, पांव वगैरह धोने के बाद घर की बाकी औरतों ने मेरे पांव छुए। उसके बाद जल्दी ही मेरे लिए जल पान की व्यवस्था हुई।

भैया के ससुर और चाचा ससुर दोनों दूसरे पलंग पर बैठे थे और मुझसे हवेली में सभी का हाल चाल पूछ रहे थे। इसी बीच जल पान भी आ गया। भीमा चौपार की दूसरी तरफ एक चारपाई पर बैठा था। उसके लिए भी जल पान आ गया था जिसे वो ख़ामोशी से खाने पीने में लग गया था। काफी देर तक सब मुझे घेरे बैठे रहे और मुझसे दुनिया जहान की बातें करते रहे। सच कहूं तो मैं इन सारी बातों से अब ऊब सा गया था। मेरा मन तो बस भाभी को देखने का कर रहा था। दो महीने से मैंने उनकी सूरत नहीं देखी थी।

बातों का दौर चला तो दोपहर के खाने का समय हो गया। खाना खाने की इच्छा तो नहीं थी लेकिन सबके ज़ोर देने पर मुझे सबके साथ बैठना ही पड़ा। घर के अंदर एक बड़े से हाल में हम सब बैठे खाने लगे। घर की औरतें खाना परोसने लगीं। मैं बार बार नज़र घुमा कर भाभी को देखने की कोशिश करता लेकिन वो मुझे कहीं नज़र ना आतीं। ऐसे ही खाना पीना ख़त्म हुआ और मैं फिर से बाहर बैठके में आ गया। कुछ देर आराम करने के बाद मर्द लोग खेतों की तरफ जाने लगे। भैया के ससुर किसी काम से गांव तरफ निकल गए।

"महाराज, आप यहीं आराम करें।" वीरेंद्र ने कहा____"हम लोग खेतों की तरफ जा रहे हैं। अगर आप बेहतर समझें तो हमारे साथ खेतों की तरफ चलें। आपका समय भी कट जाएगा। हम लोग तो अब शाम को ही वापस आएंगे।"

"लेकिन शाम होने से पहले ही मुझे वापस जाना है वीरेंद्र भैया।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"आप भी जानते हैं कि काम के चलते कहां किसी के पास कहीं आने जाने का समय होता है। वैसे भी गांव में अस्पताल और विद्यालय का निर्माण कार्य चालू है जो मेरी ही देख रेख में हो रहा है। इस लिए मुझे वापस जाना होगा। मैं तो बस भाभी को लेने आया था यहां। आप कृपया सबको बता दें कि मैं भाभी को लेने आया हूं।"

मेरी बात सुनते ही वीरेंद्र सिंह के चेहरे के भाव बड़ी तेज़ी से बदले। थोड़ी दुविधा और चिंता में नज़र आया वो मुझे। कुछ देर तक जाने क्या सोचता रहा फिर बोला____"ये आप क्या कह रहे हैं महाराज? आप रागिनी को लेने आए हैं? क्या दादा ठाकुर ने इसके लिए आपको भेजा है?"

"उनकी इजाज़त से ही आया हूं मैं।" मुझे उसकी बात थोड़ी अजीब लगी____"लेकिन आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?"

"देखिए इस बारे में मैं आपसे ज़्यादा कुछ नहीं कह सकता।" वीरेंद्र सिंह ने कहा____"कुछ देर में पिता जी आ जाएंगे तो आप उनसे ही बात कीजिएगा। ख़ैर मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

वीरेंद्र सिंह इतना कह कर चला गया और इधर मैं मन में अजीब से ख़यालात लिए बैठा रह गया। मेरे लिए ये थोड़ी हैरानी की बात थी कि वीरेंद्र ऐसा क्यों बोल गया था? इसके पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था कि मैं भाभी को लेने आऊं और ये लोग ऐसा बर्ताव करते हुए इस तरह की बातें करें। मुझे समझ न आया कि आख़िर ये माजरा क्या है? ख़ैर क्या कर सकता था? वीरेंद्र के अनुसार अब मुझे भाभी के पिता जी से ही इस बारे में बात करनी थी इस लिए उनके आने की प्रतिक्षा करने लगा।

अभी मैं प्रतीक्षा ही कर रहा था कि तभी अंदर से कुछ लोगों के आने का आभास हुआ मुझे तो मैं संभल कर बैठ गया। कुछ ही पलों में अंदर से वीरेंद्र सिंह की पत्नी वंदना और वीर सिंह की पत्नी गौरी मेरे सामने आ गईं। उनके पीछे मोहिनी और भाभी की छोटी बहन कामिनी भी आ गई।

"लगता है हमारे वैभव महाराज को सब अकेला छोड़ कर चले गए हैं।" वंदना ने मुस्कुराते हुए कहा____"इसी लिए यहां अकेले बैठे मक्खियां मार रहे हैं।"

"क्या करें भाभी मक्खियां ही मारेंगे अब।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"यहां मक्खियां भी तो बहुत ज़्यादा हैं। ख़ैर आप अपनी सुनाएं और हां आपका बेटा कैसा है? हमें भी तो दिखाइए उस नन्हें राज कुमार को।"

मेरी बात सुन कर सब मुस्कुरा उठीं। वंदना भाभी ने मोहिनी को अंदर भेजा बेटे को लाने के लिए। सहसा मेरी नज़र कामिनी पर पड़ी। वो अपलक मुझे ही देखे जा रही थी। जैसे ही मेरी नज़रें उससे टकराईं तो उसने झट से अपनी नज़र हटा ली। मुझे उसका ये बर्ताव अजीब लगा। आम तौर पर वो हमेशा मुझसे कोषों दूर रहती थी। मुझसे कभी ढंग से बात नहीं करती थी। मुझे भी पता था कि वो थोड़ी सनकी है और गुस्से वाली भी इस लिए मैं भी उससे ज़्यादा उलझता नहीं था। किंतु आज वो खुद मेरे सामने आई थी और जिस तरह से अपलक मुझे देखे जा रही थी वो हैरानी वाली बात थी।

बहरहाल, थोड़ी ही देर में मोहिनी नन्हें राज कुमार को ले के आई और उसे मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैंने उस नाज़ुक से बच्चे को अपनी गोद में ले लिया और उसे देखने लगा। बड़ा ही प्यारा और मासूम नज़र आ रहा था वो। मैंने महसूस किया कि वो रंगत में अपनी मां पर गया था। एकदम गोरा चिट्ठा। फूले फूले गाल, बड़ी बड़ी आंखें, छोटी सी नाक और गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ। मैंने झुक कर उसके माथे पर और उसके गालों को चूम लिया। मुझे बच्चों को खिलाने का अथवा दुलार करने का कोई अनुभव नहीं था इस लिए मुझसे जैसे बन रहा था मैं उसे पुचकारते हुए दुलार कर रहा था। सहसा मुझे कुछ याद आया तो मैंने अपने गले से सोने की चैन उतार कर उसे पहना दिया।

"ये छोटा सा उपहार तुम्हारे छोटे फूफा जी की तरफ से।" फिर मैंने उसके गालों को एक उंगली से सहलाते हुए कहा____"हम चाहते हैं कि तुम बड़े हो कर अपने अच्छे कर्मों से अपने माता पिता का और अपने खानदान का नाम रोशन करो। ऊपर वाला तुम्हें हमेशा स्वस्थ रखे और एक ऊंची शख्सियत बनाए।"

कहने के साथ ही मैंने उसे फिर से चूमा और फिर वापस मोहिनी को पकड़ा दिया। उधर गौरी और वंदना भाभी ये सब देख मुस्कुरा रही थीं।

"वैसे क्या नाम रखा है आपने अपने इस बेटे का?" मैंने पूछा तो वंदना भाभी ने कहा____"शैलेंद्र....शैलेंद्र सिंह।"

"वाह! बहुत अच्छा नाम है।" मैंने कहा____"मुझे बहुत खुशी हुई इसे देख कर।"

"वैसे आप बहुत नसीब वाले हैं महाराज।" गौरी भाभी ने कहा____"और वो इस लिए क्योंकि इसने आपको नहलाया नहीं वरना ये जिसकी भी गोद में जाता है उसे नहलाता ज़रूर है।"

"हा हा हा।" मैं ठहाका लगा कर हंसा____"अच्छा ऐसा है क्या?"

"हां जी।" गौरी भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"ये शैतान किसी को भी नहीं छोड़ता। जाने कैसे आपको बचा दिया इसने?"

"अरे! भई मैंने इसके लिए रिश्वत में उपहार जो दिया है इसे।" मैंने कहा____"उपहार से खुश हो कर ही इसने मुझे नहीं नहलाया।"

"हां शायद यही बात हो सकती है।" दोनों भाभियां मेरी बात से हंस पड़ीं।

"अच्छा हुआ आप आ गए महाराज।" वंदना भाभी ने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"हमें भी आपके दर्शन हो गए।"

"आपके आने से एक और बात अच्छी हुई है महाराज।" गौरी भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"इतने दिनों में हमने पहली बार अपनी ननद रानी के चेहरे पर एक खुशी की झलक देखी है। वरना हम तो चाह कर भी उनके चेहरे पर खुशी नहीं ला पाए थे।"

"क्या आप मेरी भाभी के बारे में बात कर रही हैं?" मैं उत्साहित सा पूछ बैठा।

"और नहीं तो क्या।" गौरी भाभी ने पहले की ही तरह मुस्कराते हुए कहा____"और भला हम किसके बारे में बात करेंगे आपसे? हम आपकी भाभी के बारे में ही आपको बता रहे हैं।"

"कैसी हैं वो?" मैं एकदम से व्याकुल सा हो उठा_____"और....और ये आप क्या कह रही हैं कि आप लोग उन्हें खुश नहीं रख पाए? मतलब आपने भाभी को दुखी रखा यहां?"

"हाय राम! आप ये कैसे कह सकते हैं महाराज?" गौरी भाभी ने हैरानी ज़ाहिर की_____"हम भला अपनी ननद को दुखी रखने का सोच भी कैसे सकते हैं?"

"तो फिर वो खुश क्यों नहीं थीं यहां?" मैंने सहसा फिक्रमंद होते हुए पूछा_____"अपनों के बीच रह कर भी वो खुश नहीं थीं, ऐसा कैसे हो सकता है? वैसे कहां हैं वो? मुझे अपनी भाभी से मिलना है। उनका हाल चाल पूछना है। कृपया आप या तो मुझे उनके पास ले चलें या फिर उन्हें यहां ले आएं।"

मेरी बात सुन कर गौरी और वंदना भाभी ने एक दूसरे की तरफ देखा। आंखों ही आंखों में जाने क्या बात हुई उनकी। उधर मोहिनी और कामिनी चुपचाप खड़ी मुझे ही देखे जा रहीं थी। ख़ास कर कामिनी, पता नहीं आज उसे क्या हो गया था?

"क्या हुआ?" उन दोनों को कुछ बोलता न देख मैंने पूछा____"आप दोनों कुछ बोल क्यों नहीं रहीं हैं? मुझे अपनी भाभी से अभी मिलना है। एक बात और, मैं यहां उन्हें लेने आया हूं इस लिए उनके जाने की तैयारी भी कीजिए आप लोग। अगर मेरी भाभी यहां खुश नहीं हैं तो मैं उन्हें एक पल भी यहां नहीं रहने दूंगा।"

"अरे! आप तो खामखां परेशान हो गए वैभव महाराज।" वंदना भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"हम दोनों तो बस आपसे मज़ाक में ऐसा कह रहे थे। सच तो ये है कि आपकी भाभी यहां खुश हैं। उन्हें किसी बात का कोई दुख नहीं है।"

"भाभी के बारे में इस तरह का मज़ाक कैसे कर सकती हैं आप?" मैं एकदम से आवेश में आ गया____"क्या आपको ज़रा भी एहसास नहीं है कि उनकी क्या हालत है और वो कैसी दशा में हैं?"

मेरी आवेश में कही गई बात सुनते ही दोनों भाभियों का हंसना मुस्कुराना फ़ौरन ही ग़ायब हो गया। उन्हें भी पता था कि मैं किस तरह का इंसान था। दोनों ने फ़ौरन ही मुझसे माफ़ी मांगी और फिर कहा कि वो मेरी भाभी को भेजती हैं मेरे पास। वैसे तो बात बहुत छोटी थी किंतु मेरी नज़र में शायद वो बड़ी हो गई थी और इसी वजह से मुझे गुस्सा आ गया था। ख़ैर दोनों भाभियां अंदर चली गईं और उनके पीछे मोहिनी तथा कामिनी भी चली गई।

चौपार के दूसरी तरफ चारपाई पर भीमा बैठा हुआ था जिसने हमारी बातें भी सुनी थी। मैंने उसे बाहर जाने को कहा तो वो उठ कर चला गया। वैसे भी उसके सामने भाभी यहां मुझसे नहीं मिल सकतीं थीं। ख़ैर थोड़ी ही देर में वंदना भाभी उन्हें ले कर आ गईं। भाभी को देखते ही मैं चौंक पड़ा।

भाभी को सलवार कुर्ते में देख मैं अवाक् सा रह गया था। दुपट्टे को उन्होंने अपने सिर पर ले रखा था और बाकी का हिस्सा उनके सीने के उभारों पर था। उधर भाभी को मेरे पास छोड़ कर वंदना भाभी वापस अंदर चली गईं। अब बैठके में सिर्फ मैं और भाभी ही थे।

मुझे उम्मीद नहीं थी कि मैं भाभी को यहां सलवार कुर्ते में देखूंगा। मेरे मन में तो यही था कि वो अपने उसी लिबास में होंगी, यानि विधवा के सफेद लिबास में। ख़ैर ये कोई बड़ी बात नहीं थी क्योंकि अक्सर शादी शुदा बेटियां अपने मायके में सलवार कुर्ता भी पहना करती हैं।

मैंने देखा भाभी सिर झुकाए खड़ीं थी। चेहरे पर वैसा तेज़ नहीं दिख रहा था जैसा इसके पहले देखा करता था मैं। लेकिन मैंने महसूस किया कि उनके चेहरे पर थोड़े शर्म के भाव ज़रूर थे। ऐसा शायद इस लिए क्योंकि वो अपने देवर के सामने अपने मायके में सलवार कुर्ते में थीं।

"प्रणाम भाभी।" एकाएक ही मुझे होश आया तो मैंने उठ कर उनके पैर छुए।

शायद वो किसी सोच में गुम थीं इस लिए जैसे ही उनके पांव छू कर मैंने प्रणाम भाभी कहा तो वो एकदम से चौंक पड़ी और साथ ही दो क़दम पीछे हट गईं। उनके इस बर्ताव से मुझे तनिक हैरानी हुई किंतु मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।

"क्या हुआ भाभी?" उन्हें चुप देख मैंने पूछा____"आपने मेरे प्रणाम का जवाब नहीं दिया? क्या मेरे यहां आने से आपको ख़ुशी नहीं हुई?"

"न...नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।" उन्होंने झट से मेरी तरफ देखते हुए धीमें स्वर में कहा____"मुझे अच्छा लगा कि तुम यहां आए। हवेली में सब कैसे हैं? मां जी और पिता जी कैसे हैं?"

"सब ठीक हैं भाभी।" मैंने गहरी सांस ली____"लेकिन वहां आप नहीं हैं तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता। आपको पता है, मैं पिछले एक महीने से आपको वापस लाने के लिए मां से आग्रह कर रहा था लेकिन हर बार वो मुझे यहां आने से मना कर देती थीं। मेरे पूछने पर यही कहती थीं कि आपको कुछ समय तक अपने माता पिता के पास रहने देना ही बेहतर है। मजबूरन मुझे भी उनकी बात माननी पड़ती थी लेकिन अब और नहीं मान सका मैं। दो महीने हो गए भाभी, किसी और को आपकी कमी महसूस होती हो या नहीं लेकिन मुझे होती है। मुझे अपनी प्यारी सी भाभी की हर पल कमी महसूस होती है। मुझे इस बात की कमी महसूस होती है कि मेरे काम के बारे में सच्चे दिल से समीक्षा करने वाली वहां आप नहीं हैं। मुझे ये बताने वाला कोई नहीं है कि मैं आपकी उम्मीदों पर खरा उतर पा रहा हूं या नहीं। बस, अब और मुझसे बर्दास्त नहीं हुआ इस लिए कल रात ही मैंने फ़ैसला कर लिया था कि सुबह यहां आऊंगा और आपको ले कर वापस हवेली लौट आऊंगा। आप चलने की तैयारी कर लीजिए भाभी, हम शाम होने से पहले ही यहां से चलेंगे।"

"ज़ल्दबाज़ी में कोई फ़ैसला मत लो।" भाभी ने पहले की भांति ही धीमें स्वर में कहा____"और वैसे भी मेरी अभी इच्छा नहीं है वापस हवेली जाने की। मैं अभी कुछ समय और यहां अपने माता पिता और भैया भाभी के पास रहना चाहती हूं। मुझे खेद है कि तुम्हें अकेले ही वापस जाना होगा।"

"य...ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" मैंने चकित भाव से उन्हें देखा____"सच सच बताइए क्या आप सच में मेरे साथ नहीं जाना चाहती हैं? क्या सच में आप अपने देवर को इस तरह वापस अकेले भेज देंगी?"

"तुम्हारी खुशी के लिए मैं ज़रूर तुम्हारे साथ चल दूंगी वैभव।" भाभी ने गंभीरता से कहा____"किंतु क्या तुम सच में नहीं चाहते कि तुम्हारी ये अभागन भाभी कुछ समय और अपने माता पिता के पास रह कर अपने सारे दुख दर्द भूली रहे?"

"ऐसा मत कहिए भाभी।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"अगर वाकई में यहां रहने से आप अपने दुख दर्द भूल जाती हैं तो मैं बिल्कुल भी आपको चलने के लिए मजबूर नहीं करूंगा। मैं तो यही चाहता हूं कि मेरी भाभी अपने सारे दुख दर्द भूल जाएं और हमेशा खुश रहें। अगर मेरे बस में होता तो आपकी तरफ किसी दुख दर्द को आने भी नहीं देता लेकिन क्या करूं....ये मेरे बस में ही नहीं है।"

"खुद को किसी बात के लिए हलकान मत करो।" भाभी ने कहा____"मैं अच्छी तरह जानती हूं कि तुमसे जो हो सकता है वो तुम करते हो। ख़ैर छोड़ो ये सब, तुम बताओ अब कैसा महसूस करते हो? मेरा मतलब है कि क्या अब तुम ठीक हो? सरोज मां कैसी हैं और....और रूपा कैसी है? उसे ज़्यादा परेशान तो नहीं करते हो ना तुम?"

"उससे तो एक महीने से मुलाक़ात ही नहीं हुई भाभी।" मैंने कहा____"असल में समय ही नहीं मिला। एक तो खेतों के काम, ऊपर से अब गांव में अस्पताल और विद्यालय भी बन रहा है तो उसी में व्यस्त रहता हूं। बहुत दिनों से आपकी बहुत याद आ रही थी। मां की वजह से यहां आ नहीं पाता था। मैं देखना चाहता था कि आप कैसी हैं और क्यों आप वापस नहीं आ रही हैं? क्या मुझसे कोई ख़ता हो गई है जिसके चलते....।"

"ऐसी कोई बात नहीं है।" भाभी ने मेरी तरफ अपलक देखते हुए कहा____"तुमसे कोई ख़ता नहीं हुई है और अगर हो भी जाएगी तो मैं उसके लिए तुम्हें खुशी से माफ़ कर दूंगी।"

"क्या सच में आप मेरे साथ नहीं चलेंगी?" मैंने जैसे आख़िरी कोशिश की____"यकीन मानिए आपके बिना हवेली में बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता।"

"जब अच्छा न लगे तो रूपा के पास चले जाया करो।" भाभी ने कहा____"तुमसे ज़्यादा दूर भी नहीं है वो।"

"सबकी अपनी अपनी अहमियत होती है भाभी।" मैंने कहा____"जहां आप हैं वहां वो नहीं हो सकती।"

"क्यों भला?" भाभी ने नज़र उठा कर देखा।

"आप अच्छी तरह जानती हैं।" मैंने उनकी आंखों में देखा।

इस बार भाभी कुछ न बोलीं। बस मेरी तरफ अपलक देखती रहीं। तभी बाहर से किसी के आने का आभास हुआ तो वो जल्दी से पलटीं और अंदर चली गईं। मैं असहाय सा बैठा रह गया। कुछ ही पलों में बाहर से एक औरत अंदर आई। मुझे देखते ही उसने झट से अपना चेहरा घूंघट कर के छुपा लिया और अंदर की तरफ चली गई।​
 
अध्याय - 140
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इस बार भाभी कुछ न बोलीं। बस मेरी तरफ अपलक देखती रहीं। तभी बाहर से किसी के आने का आभास हुआ तो वो जल्दी से पलटीं और अंदर चली गईं। मैं असहाय सा बैठा रह गया। कुछ ही पलों में बाहर से एक औरत अंदर आई। मुझे देखते ही उसने झट से अपना चेहरा घूंघट कर के छुपा लिया और अंदर की तरफ चली गई।

अब आगे....


कुछ देर मैं यूं ही बैठा रहा और भाभी के बारे में सोचता रहा। उसके बाद मैं उठा और बाहर आया। भीमा बाहर सड़क के पास खड़ा था। मैंने उसे आवाज़ दे कर अंदर बुला लिया।

शाम होने में अभी क़रीब दो ढाई घंटे का समय था इस लिए मैं आराम से पलंग पर लेट गया। भीमा भी दूसरी तरफ चारपाई पर लेट गया था। इधर मैं आंखें बंद किए भाभी से हुई बातों के बारे में सोचने लगा। जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कुछ बदला बदला सा है। भाभी का बर्ताव भी मुझे कुछ बदला हुआ और थोड़ा अजीब सा लगा था। इसके पहले वो अक्सर मुझे छेड़तीं थी, मेरी टांग खींचतीं थी और तो और मेरी हेकड़ी निकाल कर आसमान से सीधा ज़मीन पर ले आतीं थी किंतु आज ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आया था। उनके चेहरे पर कोई खुशी, कोई उत्साह, कोई चंचलता नहीं थी। अगर कुछ थी तो सिर्फ गंभीरता। उनकी आवाज़ भी धींमी थी।

मुझे लगा शायद वो अपने मायके में होने की वजह से अपने देवर से खुल कर बात नहीं कर पा रहीं थी। हां, ज़रूर यही बात होगी वरना भाभी मेरे सामने इतनी असामान्य नहीं हो सकती थीं। बहरहाल मैंने अपने ज़हन से सारी बातों को झटक दिया और आराम से सोने की कोशिश करने लगा मगर काफी देर गुज़र जाने पर भी मुझे नींद न आई। मन में एक खालीपन और एक बेचैनी सी महसूस हो रही थी।

एकाएक ही मुझे एहसास हुआ कि शाम होने से पहले मुझे वापस अपने गांव जाना है। जैसे आया था वैसे ही वापस जाना होगा मुझे। बड़ी खुशी के साथ और बड़ी उम्मीद के साथ मैं अपनी प्यारी सी भाभी को लेने आया था लेकिन भाभी खुद ही जाने को राज़ी नहीं थीं और मैं उन्हें चलने के लिए मजबूर भी नहीं कर सकता था। कुछ ही पलों में मेरी सारी खुशी और सारा उत्साह बर्फ़ की मानिंद ठंडा पड़ गया था।

मैं आंखें बंद किए ये सब सोच ही रहा था कि तभी मेरे कानों में पायल छनकने की आवाज़ें पड़ीं। कोई अंदर से आ रहा था जिसके पैरों की पायल छनक रही थी। मैंने करवट ली हुई थी इस लिए मैं देख नहीं सकता था कि कौन आ रहा है। पायल की छनकती आवाज़ एकाएक बंद हो गईं। मैंने महसूस किया कि मेरे क़रीब ही पायलों का छनकना बंद हुआ है।

"लगता है जीजा जी सो गए हैं।" तभी किसी की मधुर किंतु बहुत ही धींमी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे बोलने वाले ने किसी दूसरे से ऐसा कहा था_____"अब क्या करें? क्या हमें जीजा जी को जगाना चाहिए? वैसे दीदी ने कहा है कि हम इन्हें परेशान न करें।"

"मुझे अच्छी तरह पता है कि इन महापुरुष को इतना जल्दी यहां नींद नहीं आने वाली।" ये दूसरी आवाज़ थी। आवाज़ धीमी तो थी लेकिन लहजा थोड़ा कर्कश सा था।

मैं फ़ौरन ही पहचान गया कि ये आवाज़ भाभी की छोटी बहन कामिनी की है। मुझे हैरानी हुई कि कामिनी इस वक्त यहां क्यों आई होगी, वो भी मेरे क़रीब? उसका और मेरा तो छत्तीस का आंकड़ा था। कभी सीधे मुंह बात नहीं करती थी वो। हालाकि इसमें उसका नहीं मेरा ही दोष था क्योंकि शुरुआत से ही मेरी हवस भरी नज़रों का उसी ने सामना किया था। उसे मेरी आदतों से और मेरी हरकतों से सख़्त नफ़रत थी।

"धीरे बोलिए दीदी।" पहले वाली ने धीमें स्वर में उससे कहा____"जीजा जी सुन लेंगे तो नाराज़ हो जाएंगे।"

"मुझे फ़र्क नहीं पड़ता।" कामिनी ने जैसे लापरवाही से कहा_____"वैसे भी मैं इनकी नाराज़गी से थोड़े ना डरती हूं।"

"हां हां समझ गई मैं।" पहले वाली आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। मैं उसकी आवाज़ से उसको पहचानने की कोशिश में लगा हुआ था। अरे! ये तो कंचन थी। भैया के चाचा ससुर की बेटी। बहरहाल उसने आगे कहा____"पर अब क्या करना है? वापस चलें?"

"तू जा।" कामिनी ने उससे कहा____"मैं देखती हूं इन्हें और हां अंदर किसी को कुछ मत बताना। ख़ास कर दीदी को तो बिल्कुल भी नहीं। पहले तो वो अपने देवर का पक्ष लेतीं ही थी किंतु अब तो कहना ही क्या। ख़ैर तू जा अब।"

कामिनी की इन बातों के बाद कंचन चली गई। उसके पायलों की छम छम से मुझे पता चल गया था। इधर अब मैं ये सोचने लगा कि कामिनी क्या करने वाली है? मैं पहले से ही उसके इस बर्ताव से हैरान था किंतु अब तो धड़कनें ही बढ़ गईं थी मेरी। बहरहाल, मैं आंखें बंद किए चुपचाप लेटा रहा और उसकी तरफ से किसी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करने लगा। इसके लिए मुझे ज़्यादा देर प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। मैंने महसूस किया कि वो पीछे से घूम कर मेरे सामने की तरफ आई और मेरे सामने वाले पलंग पर बैठ गई। मेरी धड़कनें ये सोच कर धाड़ धाड़ कर के बजने लगीं कि जाने ये आफ़त अब क्या करने वाली है?

"ज़्यादा नाटक करने की ज़रूरत नहीं है।" इस बार उसकी आवाज़ स्पष्ट रूप से मेरे कानों में पड़ी_____"मुझे अच्छी तरह पता है कि आप सो नहीं रहे हैं। अब चुपचाप अपना नाटक बंद कर के आंखें खोल लीजिए, वरना इंसान को गहरी नींद से जगाना भी मुझे अच्छी तरह आता है।"

ये तो सरासर धमकी थी, वो भी मेरे जैसे सूरमा को। मैं उसकी इस धमकी पर मन ही मन मुस्कुरा उठा। हालाकि उससे डरने का तो सवाल ही नहीं था लेकिन मैं नहीं चाहता था कि कोई तमाशा हो जाए। दूसरी वजह ये भी थी कि मैं उसके बर्ताव से हैरान था और जानना चाहता था कि आख़िर वो किस मकसद से मेरे पास आई थी?

"लीजिए सरकार, हमने अपनी आंखें खोल दी।" मैंने आंखें खोल कर उसकी तरफ देखते हुए उठ कर बैठ गया, फिर बोला_____"आप इतनी मोहब्बत से हमें जाग जाने को कह रहीं हैं तो हमें उठना ही पड़ेगा। कहिए, क्या चाहती हैं आप हमसे? प्यार मोहब्बत या फिर कुछ और?"

"हद है, आप कभी नहीं सुधरेंगे।" कामिनी ने मुझे घूरते हुए कहा____"जब देखो वही छिछोरी हरकतें।"

"आप भी कीजिए।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"यकीन मानिए, बहुत मज़ा आएगा।"

कामिनी ने मुझे खा जाने वाली नज़रों से देखा। पलक झपकते ही उसका चेहरा तमतमाया गया सा नज़र आया। ऐसी ही थी वो। ऐसा नहीं था कि उसे मज़ाक पसंद नहीं था लेकिन मेरा उससे मज़ाक करना बिल्कुल पसंद नहीं था। उसके ज़हन में ये बात बैठ चुकी थी कि मैं हर लड़की को सिर्फ भोगने के लिए ही अपने मोह जाल में फंसाता हूं।

"उफ्फ! इतनी मोहब्बत से हमें मत देखिए सरकार।" मैंने उसे और गरमाया_____"वरना एक ही पल में ढेर हो जाएंगे हम।"

"क्यों करते हैं ऐसी गन्दी हरकतें?" उसने जैसे अपने गुस्से को बड़ी मुश्किल से दबाते हुए मुझसे कहा____"क्या आप कभी किसी से सभ्य इंसानों जैसी बातें नहीं कर सकते?"

"अब ये तो सबका अपना अपना सोचने का नज़रिया है सरकार।" मैंने कहा____"आपको मेरी बातें सभ्य नहीं लगती जबकि यही बातें दूसरों को सभ्य लगती हैं। प्यार मोहब्बत की चाशनी में डूबी हुई लगती हैं। आपको नहीं लगती हैं तो इसका मतलब ये है कि या तो आपका ज़ायका ख़राब है या फिर आपकी समझदानी में ही गड़बड़ी है।"

"मतलब आप स्पष्ट रूप से ये कह रहे हैं कि मेरे पास दिमाग़ नहीं है?" कामिनी ने इस बार गुस्से से मेरी तरफ देखा____"और मैं किसी की बातों का मतलब ही नहीं समझती हूं?"

"क्या आप मुझसे झगड़ा करने ही आईं थी?" मैंने विषय को बदलने की गरज से इस बार थोड़ा गंभीरता से कहा____"अगर झगड़ा ही करने आईं थी तो ठीक है मैं तैयार हूं लेकिन यदि किसी और वजह से आईं थी तो सीधे मुद्दे की बातों पर आइए। वैसे मैं हैरान हूं कि जो लड़की मुझे अपना कट्टर दुश्मन समझती है वो मुझसे गुफ़्तगू करने कैसे आई है?"

कामिनी ने इस बार फ़ौरन कुछ ना कहा। उसने सबसे पहले अपने गुस्से को काबू किया और आंखें बंद कर के गहरी गहरी सांसें ली। नीले रंग का कुर्ता सलवार पहन रखा था उसने। दुपट्टे से उसने अपने सीने के उभारों को पूरी तरह से ढंक रखा था। ऐसा हमेशा होता था, मेरे सामने आते ही वो कुछ ज़्यादा ही चौकन्नी हो जाती थी।

"अब कुछ बोलिए भी।" मैंने कहा____"मैं बड़ी शिद्दत से जानना चाहता हूं कामिनी देवी आज मेरे सामने कैसे बैठी हैं और मुझसे इतनी मोहब्बत से बातें क्यों कर रही हैं?"

"आप फिर से शुरू हो गए?" उसने मुझे घूरा।

"अगर आप बड़ी मोहब्बत से शुरू हो जातीं तो हम रुके रहते।" मैंने हौले से मुस्कुराते हुए कहा____"ख़ैर बताइए आज सूरज किस दिशा से उगा है चंदनपुर में?"

"क्या आप सच में दीदी को लेने आए हैं?" उसने जैसे मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया और पूछा।

"क्या आपको कोई शक है इसमें?" मैंने कहा____"वैसे आप भी हमारे साथ चलतीं तो क़सम से आनन्द ही आ जाता।"

"किसी कीमत पर नहीं।" कामिनी ने दृढ़ता से कहा____"आपके साथ तो किसी जन्म में कहीं नहीं जाऊंगी मैं।"

"वाह! इतनी शिद्दत से मोहब्बत आप ही कर सकती हैं मुझसे।" मैं मुस्कुराया।

"ये मोहब्बत नहीं है।" उसने घूरते हुए कहा____"बल्कि...।"

"नफ़रत है?" उसकी बता काट कर मैंने उसकी बात पूरी की_____"जानता हूं मैं लेकिन शायद आप ये नहीं जानती कि नफ़रत और मोहब्बत का जन्म एक ही जगह से होता है....दिल से। अब दिल से नफ़रत कीजिए या मोहब्बत, ये तो पक्की बात है ना कि किसी न किसी भावना से आपने मुझे अपना बना ही रखा है।"

"अपने मन को बहलाने के लिए ख़याल अच्छा है।" कामिनी ने कहा____"ख़ैर मैं आपको ये बताने के लिए आई थी कि दीदी को हम लोग अब नहीं भेजेंगे। वो यहीं रहेंगी, हमारे साथ।"

"क...क्या मतलब?" मैं एकदम से चौंक पड़ा____"ये क्या कह रही हैं आप?"

"वही जो आपने सुना है।" कामिनी ने स्पष्ट रूप से कहा____"भैया ने आपसे स्पष्ट रूप में इसी लिए नहीं कहा क्योंकि वो शायद संकोच कर गए थे लेकिन सच यही है कि दीदी अब यहीं रहेंगी। आपको अकेले ही वापस जाना होगा।"

"अरे! भला ये क्या बात हुई?" मैं बुरी तरह हैरान परेशान सा बोल पड़ा____"माना कि भाभी का ये मायका है और वो यहां जब तक चाहे रह सकती हैं लेकिन इसका क्या मतलब हुआ कि वो अब यहां से नहीं जाएंगी?"

"बस नहीं जाएंगी।" कामिनी ने अजीब भाव से कहा____"वैसे भी जिनसे उनका संबंध था वो तो अब रहे नहीं। फिर भला हम कैसे उन्हें इस दुख के साथ जीवन भर उस हवेली में विधवा बहू बन कर रहने दें? आपको शायद पता नहीं है कि पिता जी ने दीदी का फिर से ब्याह कर देने का फ़ैसला किया है। आप तो जानते ही है कि दीदी की अभी उमर ही क्या है जो वो आपके भाई की विधवा बन कर सारी ज़िंदगी दुख और कष्ट में गुज़ारें।"

कामिनी की बातें किसी पिघले हुए शीशे की तरह मेरे कानों में अंदर तक समाती चली गईं थी। मेरे दिलो दिमाग़ में एकाएक ही हलचल सी मच गई थी। मन में तरह तरह के ख़यालों की आंधी सी आ गई थी।

"अगर ये मज़ाक है।" फिर मैंने सख़्त भाव से कहा____"तो समझ लीजिए कि मुझे इस तरह का घटिया मज़ाक बिल्कुल भी पसंद नहीं है। आप भाभी के बारे में ऐसी बकवास कैसे कर सकती हैं?"

"ये बकवास नहीं है जीजा जी।" कामिनी ने कहा____"हकीक़त है हकीक़त। मैं मानती हूं कि आप अपनी भाभी के बारे में इस तरह की बातें नहीं सुन सकते हैं लेकिन खुद सोचिए कि क्या आप यही चाहते हैं कि मेरी दीदी अपना पहाड़ जैसा जीवन विधवा बन कर ही गुज़ारें? क्या आप यही चाहते हैं कि उनके जीवन में कभी खुशियों के कोई रंग ही न आएं? क्या आप यही चाहते हैं कि वो जीवन भर अकेले दुख दर्द में डूबी रहें?"

"नहीं नहीं।" मैं झट से बोल पड़ा____"अपनी भाभी के बारे में मैं ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकता। मैं तो....मैं तो यही दुआ करता हूं कि उनकी ज़िंदगी में पहले जैसी ही खुशियां आ जाएं जिससे मेरी भाभी का चेहरा फिर से पूर्णिमा के चांद की तरह चमकने लगे। मैं तो चाहता हूं कि मेरी भाभी के होठों पर हमेशा खुशियों से भरी मुस्कान सजी रहे। उनके जीवन में दुख का एक तिनका भी कभी न आए।"

"अगर आप सच में ऐसा चाहते हैं।" कामिनी ने कहा____"तो फिर आपको इस बात से कोई एतराज़ अथवा कष्ट नहीं होना चाहिए कि उनका फिर से कहीं ब्याह हो जाए। आप भी समझने की कोशिश कीजिए कि उनके जीवन में इस तरह की खुशियां तभी आ सकती हैं जब हमेशा के लिए उनके बदन से विधवा का लिबास उतार दिया जाए और उन्हें किसी की सुहागन बना दिया जाए। पिता जी भी ये नहीं सह पा रहे हैं कि उनकी बेटी इतनी सी उमर में विधवा हो कर सारा जीवन दुख और कष्ट में ही व्यतीत करने पर मज़बूर हैं।"

सच कहूं तो मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मैं एकाएक आसमान से ज़मीन पर आ गिरा था। भाभी का फिर से ब्याह करने का कोई सोचेगा इस बारे में तो मैंने अब तक कल्पना ही नहीं की थी। सच ही तो कह रही थी कामिनी कि उनकी ज़िंदगी में खुशियां तभी आ सकती हैं जब उनका फिर से ब्याह कर दिया जाए और उन्हें किसी की सुहागन बना दिया जाए। सच ही तो था, एक विधवा के रूप में भला वो कैसे खुश रह सकती थीं? असल खुशियां तो तभी मिलती हैं जब इंसान का जीवन खुशियों के रंगों से भरा हो। एक विधवा के जीवन में सफेद रंग के अलावा दूसरा कोई रंग भरा ही नहीं जा सकता था?

मेरे मनो मस्तिष्क में धमाके से होने लगे थे। पहली बार मैं इस तरीके से सोचने पर मजबूर हुआ था। पहली बार इतनी गहराई से सोचने का मानों अवसर मिला था। अचानक ही मेरे मन में एक ख़याल बिजली की तरह आ गिरा....भाभी का फिर से ब्याह हो जाएगा, यानि वो किसी की पत्नी बन जाएंगी। उसके बाद उनसे मेरा कोई रिश्ता नहीं रह जाएगा। आज वो मेरी भाभी हैं लेकिन ब्याह के बाद वो किसी और के रिश्ते में बंध जाएंगी। हवेली की बहू और हवेली शान हमेशा के लिए किसी दूसरे के घर की शान बन जाएगी।

एक झटके में जैसे मैं वास्तविकता के धरातल पर आ गया जिसके एहसास ने मुझे अंदर तक हिला डाला। एक झटके में भाभी का प्यार और स्नेह मुझे अपने से दूर होता नज़र आने लगा। उनका वो छेड़ना, वो टांगे खींचना और एक झटके में मेरी हेकड़ी निकाल देना ये सब कभी न भुलाई जा सकने वाली याद सा बनता महसूस हुआ। पलक झपकते ही आंखों के सामने भाभी का सुंदर चेहरा उभर आया...और फिर अगले ही पल एक एक कर के वो हर लम्हें उभरने लगे जिनमें मेरी उनसे मुलाक़ातों की तस्वीरें थीं। जब भैया जीवित थे तब की तस्वीरें। भाभी तब सुहागन थीं, बहुत सुंदर और मासूम नज़र आतीं थी वो। फिर एकदम से तस्वीरें बड़ी तेज़ी से बदलने लगीं और कुछ ही पलों में उस वक्त की तस्वीर उभर आई जब कुछ देर पहले मैंने उन्हें देखा था।

एक झटके में मुझे अपनी कोई बहुत ही अनमोल चीज़ खो देने जैसा एहसास हुआ। मेरे अंदर भाभी को खो देने जैसी पीड़ा उभर आई। मैं एकदम से दुखी और उदास सा हो गया। मेरी आंखें अनायास ही बंद हो गईं और ना चाहते हुए भी आंखों की कोर से आंसू का एक कतरा छलक गया। मैंने हड़बड़ा कर जल्दी से उसे पोंछ लिया। मैं नहीं चाहता था कि कामिनी मेरी आंख से निकले आंसू के उस कतरे को देख ले।

"क्या हुआ जीजा जी?" सहसा कामिनी की आवाज़ से मैं चौंका____"आप एकदम से चुप क्यों हो गए? क्या मैंने कुछ ग़लत कह दिया है आपसे?"

"नहीं ऐसी कोई बात नहीं है।" मैंने खुद को सम्हालते हुए कहा____"आपने भाभी के बारे में जो भी कहा वो एकदम से उचित ही कहा है। मुझसे अच्छी तो आप हैं कामिनी जो अपनी दीदी की खुशियों के बारे में इतना कुछ सोच बैठी हैं। एक मैं हूं जो अब तक यही समझ रहा था कि मैं अपनी भाभी को खुश रखने के लिए बहुत कुछ कर रहा हूं। हैरत की बात है कि मैं कभी ये सोच ही नहीं पाया कि एक औरत को असल खुशी तभी मिल सकती है जब उसका सम्पूर्ण जीवन खुशियों के अलग अलग रंगों से भर जाए और ऐसा तो तभी हो सकता है ना जब उस औरत का फिर से कहीं ब्याह हो जाए। आज मुझे अपनी ग़लती का एहसास हो गया है और इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद भी देता हूं कि आपने मुझे इस सत्य का एहसास कराया। आपके पिता जी ने अपनी बेटी की खुशी के लिए बहुत ही उम्दा कार्य करने का फ़ैसला लिया है। मुझे अपनी भाभी के लिए इस बात से बहुत खुशी हो रही है। ईश्वर से यही प्रार्थना करता था कि वो उन्हें हमेशा खुश रखें तो अब ऐसा हो जाने से वो वाकई में खुश ही रहेंगी।"

कामिनी मेरी तरफ ही देखे जा रही थी। उसके चेहरे पर थोड़े हैरानी के भाव भी उभर आए थे। शायद उसे मुझसे ऐसी गंभीर बातों की उम्मीद नहीं थी। वो तो यही समझती थी कि मैं एक बहुत ही ज़्यादा बिगड़ा हुआ लड़का हूं जिसे किसी की भावनाओं से अथवा किसी के दुख दर्द से कोई मतलब ही नहीं होता है।

"वैसे इतनी बड़ी बात हो गई और किसी ने मुझे बताया तक नहीं।" फिर मैंने कहा____"मुझे अब समझ आ रहा है कि क्यों हर बार मां मुझे भाभी को लेने आने से मना कर रहीं थी। आते समय पिता जी ने भी यही कहा था कि अगर यहां पर आप लोग भाभी को मेरे साथ भेजने से मना करें तो मैं इसके लिए किसी पर दबाव नहीं डालूंगा। इसका मतलब तो यही हुआ कि मां और पिता जी को भी इस बारे में पता है। यानि वो भी जानते हैं कि आपके पिता जी भाभी का फिर से ब्याह कर देना चाहते हैं?"

"इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।" कामिनी ने कहा____"पर आपकी बातों से तो यही लगता है कि उन्हें इस बारे में पता है।"

"हां लेकिन मुझे ये समझ नहीं आ रहा कि उन्होंने इस बारे में मुझे क्यों कुछ नहीं बताया?" मैंने उलझन पूर्ण भाव से कहा____"अगर वो उसी समय मुझे बता देते तो भला क्या हो जाता?"

कामिनी के पास जैसे मेरे इस सवाल का कोई जवाब नहीं था। वो भी सोच में पड़ गई थी। कुछ देर तक हमारे बीच ख़ामोशी ही रही। मुझे बहुत अजीब महसूस हो रहा था। एकदम से अब मुझे पराएपन का एहसास होने लगा था।

"मैंने हमेशा आपके साथ ग़लत बर्ताव किया है कामिनी।" फिर मैंने गंभीरता से कहा____"हमेशा आपको परेशान किया है, इसके लिए माफ़ कर दीजिएगा मुझे।"

"अरे! ये क्या कह रहे हैं आप?" कामिनी एकदम से चौंकी____"देखिए आप इस तरह मुझसे माफ़ी मत मांगिए।"

"मेरी एक विनती है आपसे।" मैंने उसकी तरफ देखा____"मैं अपनी भाभी को आख़िरी बार देख लेना चाहता हूं। क्या आप उन्हें यहां भेज देंगी? देखिए मना मत करना।"

"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" कामिनी के चेहरे पर हैरानी और उलझन जैसे भाव उभर आए____"अच्छा ठीक है, मैं जा कर दीदी को आपकी ये बात बता देती हूं।"

"उन्हें सिर्फ बताना ही नहीं है।" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"उनसे कहना कि उनका देवर उनसे आख़िरी बार मिलना चाहता है।"

कामिनी ठीक है कहते हुए उठी और अंदर चली गई। इधर मैं दुखी मन से बैठा जाने क्या क्या सोचने लगा। मुझे इस बात की तो खुशी थी कि भाभी का किसी से ब्याह हो जाएगा तो वो हमेशा खुश रहेंगी लेकिन अब इस बात का बेहद दुख भी हो रहा था कि मैं अब हमेशा के लिए अपनी भाभी को खो दूंगा। मेरे बदले हुए जीवन में उनका बहुत योगदान था। आज मैं बदल कर यहां तक पहुंचा था तो इसमें भाभी का भी बहुत बड़ा हाथ था। वो हमेशा मुझे अच्छा इंसान बनने के लिए ज़ोर देती थीं। हमेशा मेरा मार्गदर्शन करतीं थी। मेरे माता पिता को तो उनके जैसी बहू पाने पर हमेशा से गर्व था ही किंतु मुझे भी उनके जैसी भाभी पाने पर नाज़ था।

काश! विधाता ने बड़े भैया का जीवन नहीं छीना होता तो आज मैं अपनी भाभी को खो नहीं रहा होता। पहले अनुराधा और अब भाभी, दोनों को ही खो दिया मैंने। एकाएक ही मेरे अंदर तीव्र पीड़ा उठी। मेरा मन रो देने का करने लगा। मैंने बड़ी मुश्किल से अपने जज़्बातों को रोका और भाभी के आने का इंतज़ार करने लगा।

आख़िर मेरी मुराद पूरी हुई और भाभी आ गईं। वही गंभीर चेहरा, कोई खुशी नहीं, कोई उत्साह नहीं। आंखों में सूनापन और होठों पर रेगिस्तान के जैसा सूखापन। वो आईं और मेरे सामने खड़ी हो गईं। मेरा जी किया कि मैं एक झटके से उनसे लिपट जाऊं और किसी बच्चे की तरफ फूट फूट कर रो पड़ूं। उनसे लिपट पड़ने से तो खुद को रोक लिया मैंने लेकिन आंखों को बगावत करने से न रोक सका। मेरे लाख रोकने के बाद भी जज़्बातों की आंधी ने आंखों से आंसुओं को छलका ही दिया। मैंने महसूस किया कि मेरी आंखों से आंसू छलका देख भाभी तड़प सी उठीं थी।

"क...क्या हुआ तुम्हें?" फिर उन्होंने झट से फिक्रमंद हो कर पूछा____"तुम...तुम रो क्यों रहे हो? क्या कामिनी ने तुम्हें कुछ कहा है?"

"नहीं नहीं।" मेरे अंदर हुक सी उठी, खुद को सम्हालते हुए बोला____"उन्होंने कुछ नहीं कहा मुझे।"

"तो फिर तुम इस तरह रो क्यों रहे हो?" भाभी बहुत ज़्यादा चिंतित नज़र आने लगीं____"क्या हुआ है तुम्हें? बताओ मुझे, तुम्हारी आंखों से आंसू क्यों बह आए हैं?"

"ये मेरा कहना नहीं माने भाभी।" मेरी आवाज़ लड़खड़ा गई____"मेरे मना करने पर भी आंखों से छलक ही गए।"

"अरे! ये कैसी बातें कर रहे हो तुम?" भाभी अभी भी चिंतित थीं____"सच सच बताओ आख़िर बात क्या है?"

"एक तरफ ये जान कर बेहद खुशी हुई कि आपके पिता जी फिर से आपका ब्याह करना चाहते हैं ताकि आप वास्तव में खुश रहने लगें।" मैंने कहा_____"दूसरी तरफ मुझे इस बात का दुख होने लगा है कि जब आपकी किसी से शादी हो जाएगी तो आप मेरी भाभी नहीं रह जाएंगी। आपको भाभी नहीं कह सकूंगा मैं। कह भी कैसे सकूंगा? आपसे भाभी का रिश्ता ही कहां रह जाएगा फिर? पहले बड़े भैया को खो दिया और अब अपनी भाभी को भी खो देने वाला हूं। यही सोच कर रोना आ गया था भाभी। समझ में नहीं आ रहा कि आपको मिलने वाली खुशियों के लिए खुश होऊं या हमेशा के लिए अपनी प्यारी सी भाभी को खो देने का शोक मनाऊं।"

"एकदम पागल हो तुम?" भाभी ने कांपती आवाज़ में कहा____"तुमसे ये किसने कहा कि मैं किसी से शादी करने को तैयार हूं?"

"क...क्या मतलब??" मैं भाभी की बात सुन कर बुरी तरह उछल पड़ा, फिर झट से बोला____"म....मतलब...ये क्या कह रही हैं आप? मुझसे कामिनी ने तो यही बताया है कि आपके पिता जी ने आपका फिर से ब्याह करने का फ़ैसला कर लिया है।"

"अरे! वो झूठ बोल रही थी तुमसे।" भाभी ने कहा____"सच यही है कि मैं किसी से शादी नहीं करने वाली। मैं दादा ठाकुर की बहू थी, हूं और हमेशा रहूंगी।"

"क...क्या सच में??" मैं जैसे खुशी से नाच उठा, किंतु फिर मायूस सा हो कर बोला_____"लेकिन भाभी आपकी खुशियों का क्या? आख़िर ये तो सच ही है ना कि एक औरत को असल खुशियां तभी मिलती हैं जब वो किसी की सुहागन हो।"

"मिलती होंगी।" भाभी ने जैसे लापरवाही से कहा____"लेकिन मुझे ऐसी खुशियां नहीं चाहिए जिसकी वजह से मेरा देवर अपनी भाभी को खो दे और दुखी हो जाए।"

"नहीं भाभी, मैं अपनी खुशी के लिए आपका जीवन बर्बाद करने का सोच भी नहीं सकता।" मैंने संजीदा हो कर कहा_____"मुझे सच्ची खुशी तभी मिलेगी जब मेरी प्यारी भाभी सचमुच में खुश रहने लगेंगी। इस लिए आप मेरे बारे में मत सोचिए और अपने पिता जी की बात मान कर फिर से शादी कर लीजिए। आप जहां भी रहेंगी मैं आपको भाभी ही मानूंगा और हमेशा आपकी खुशियों की कामना करूंगा।"

भाभी मेरी तरफ अपलक देखने लगीं। उनकी आंखें नम हो गईं थी। चेहरे पर पीड़ा के भाव नुमायां हो उठे थे। फिर जैसे उन्होंने खुद को सम्हाला।

"एक बात पूछूं तुमसे?" फिर उन्होंने अजीब भाव से कहा।

"आपको इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है।" मैंने अधीरता से कहा।

"सच सच बताओ कितना चाहते हो मुझे?" भाभी ने अपलक मेरी तरफ देखते हुए पूछा।

"हद से ज़्यादा।" मैंने जवाब दिया____"अपनी भाभी की खुशी के लिए कुछ भी कर सकता हूं मैं। आपको पहले भी बताया था कि आपकी अहमियत और आपका मुकाम बहुत ख़ास और बहुत ऊंचा है मेरी नज़र में।"

"ये तो तुम अभी मेरा दिल रखने के लिए बोल रहे हो।" भाभी ने अपलक मेरी तरफ देखते हुए ही कहा____"लेकिन रूपा से शादी हो जाने के बाद तो भूल ही जाओगे मुझे।"

"आप जानती हैं कि ऐसा नहीं हो सकता।" मैंने दृढ़ता से कहा____"बता ही चुका हूं कि आपकी अहमियत अलग है। जहां आप हैं वहां कोई नहीं हो सकता।"

"क्या तुम्हें नहीं लगता कि ये ग़लत है?" भाभी ने कहा____"तुम्हें अपनी भाभी को इतनी अहमियत नहीं देनी चाहिए, बल्कि रूपा को देनी चाहिए। वो तुमसे बेहद प्रेम करती है। क्या नहीं किया है उसने तुम्हारे लिए। उसके प्रेम और त्याग का ईमानदारी से तुम्हें फल देना चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे उसने तुम्हें दिया है।"

"मैंने कब इससे इंकार किया है भाभी?" मैंने कहा____"यकीन मानिए, उसके साथ कभी कोई नाइंसाफी नहीं करूंगा। किंतु यहां पर बात आपकी अहमियत की हुई थी तो ये सच है कि आपकी अहमियत मेरे लिए बहुत अहम है।"

मेरी बात सुन कर भाभी कुछ देर मुझे देखती रहीं। फिर जैसे उन्होंने इस बात को दरकिनार किया और कहा____"अच्छा अब तुम आराम करो। मैं तुम्हारे लिए चाय बना कर भेजवाती हूं। अगर रुकना नहीं है तो शाम होने से पहले पहले चले जाना।"

उनकी बात पर मैंने सिर हिलाया। उसके बाद वो चली गईं। उनके जाने के बाद मुझे थोड़ी राहत सी महसूस हुई। पलंग पर मैं फिर से लेट गया और उनसे हुई बातों के बारे में सोचने लगा।

कुछ ही देर में वंदना भाभी चाय ले कर आईं। अभी मैंने उनसे चाय ली ही थी कि ससुर जी यानी भाभी के पिता जी भी आ गए। वंदना भाभी अंदर से उनके लिए भी चाय ले आईं। भीमा को उन्होंने पहले ही दे दिया था। चाय पीते समय ही भाभी के पिता जी से बात चीत हुई। उसके बाद मैं जाने के लिए उठ गया। सब घर वालों ने आ कर मेरे पांव छुए और मुझे विदाई के रूप में पैसे दिए। उसके बाद मैं और भीमा जीप में बैठ कर चल पड़े। आते समय भाभी को नहीं देख पाया था मैं।​
 
अध्याय - 141
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कुछ ही देर में वंदना भाभी चाय ले कर आईं। अभी मैंने उनसे चाय ली ही थी कि ससुर जी यानी भाभी के पिता जी भी आ गए। वंदना भाभी अंदर से उनके लिए भी चाय ले आईं। भीमा को उन्होंने पहले ही दे दिया था। चाय पीते समय ही भाभी के पिता जी से बात चीत हुई। उसके बाद मैं जाने के लिए उठ गया। सब घर वालों ने आ कर मेरे पांव छुए और मुझे विदाई के रूप में पैसे दिए। उसके बाद मैं और भीमा जीप में बैठ कर चल पड़े। आते समय भाभी को नहीं देख पाया था मैं।

अब आगे....


पूरे रास्ते मैं ख़ामोश और उदास रहा। मन मस्तिष्क में जाने कैसे कैसे ख़यालों का मायाजाल सा उमड़ा हुआ था। शुक्र था कि भीमा जीप चला था वरना यकीनन कहीं न कहीं दुर्घटना हो जाती मुझसे। आख़िर एक घंटे बाद जब हवेली में आ कर जीप रुकी तो मैं ख़यालों से बाहर आया।

हवेली के अंदर आया तो मां चाची आदि लोग नज़र आए मुझे किंतु मैंने किसी से कोई बात नहीं की। मां मेरे इस बर्ताव से फिक्रमंद हो उठीं थी लेकिन उन्होंने मुझसे कुछ कहा नहीं। इधर मैं अपने कमरे में आया और कपड़े बदल कर पलंग पर लेट गया।

मेरे मन में इस बात की नाराज़गी उभर आई थी कि भाभी के बारे में इतनी बड़ी बात हो गई है और मां ने इस बारे में मुझे बताया तक नहीं था। पिछले एक महीने से मैं भाभी को वापस लाने की बात कह रहा था उनसे लेकिन हर बार उन्होंने यही कह कर मुझे वहां जाने से मना कर दिया था कि भाभी को अपने माता पिता के पास कुछ समय तक रहने दूं। बड़े भैया की मौत के बाद वो पहली बार ही अपने मायके गईं थी इस लिए जब तक उनका मन अपने माता पिता के पास रहने का करे तब तक वो वहीं रहें।

माना कि ये जायज़ वजह थी मुझे वहां जाने से रोकने की लेकिन भाभी के पिता जी उनका फिर से ब्याह करने का फ़ैसला कर चुके हैं ये बात मुझसे छुपाने का क्या मतलब था? क्या वो ये सोचती थीं कि मैं भाभी का कहीं ब्याह नहीं होने दूंगा? अरे! हवेली में सबसे ज़्यादा मुझे अपनी भाभी की खुशियों की फ़िक्र थी, तो भला मैं कैसे उनका कहीं ब्याह न होने देता? माना कि अपनी भाभी को हमेशा के लिए खो देने का दुख होता लेकिन ये दुख उनकी खुशियों से बढ़ कर नहीं हो सकता था।

मैं इस बारे में जितना सोचता जा रहा था उतना ही मेरे अंदर मां के प्रति नाराज़गी बढ़ती जा रही थी। ज़हन में एक ही सवाल बार बार गूंज रहा था कि उन्होंने मुझसे इतनी बड़ी बात आख़िर क्यों छुपाई?

अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी खुले दरवाज़े पर अभी अभी आईं मां पर मेरी नज़र पड़ी। कुछ पलों तक वो मुझे दरवाज़े पर ही खड़ी देखती रहीं उसके बाद वो अंदर दाख़िल हुईं और मेरे पास आ कर पलंग के किनारे बैठ गईं।

"क्या हुआ तुझे?" फिर उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए फिक्रमंदी से पूछा____"चंदनपुर से आया और किसी से कोई बात तक नहीं की तूने, क्यों?"

"आप जाएं मां।" मेरी नाराज़गी होठों से बाहर आ गई____"मुझे इस वक्त किसी से कोई बात नहीं करना।"

"अरे! क्या हुआ?" मां ने पूछा____"ऐसा क्यों कह रहा है तू कि किसी से बात ही नहीं करना?"

"मुझे आपसे बिल्कुल भी ये उम्मीद नहीं थी मां।" मैं एक झटके में उठ कर बैठ गया____"आपने भाभी के बारे में इतनी बड़ी बात मुझसे क्यों छुपाई? क्या मेरा इतना भी हक़ नहीं है कि मैं उनके बारे में कुछ जान सकूं? क्यों मां...आपने क्यों छुपाया मुझसे?"

"अच्छा तो तू उसके बारे में नाराज़ है?" मां जैसे अभी तक अंजान बनी हुईं थी, बोलीं____"वो तो मैंने इस लिए नहीं बताया था कि कहीं तू गुस्सा ना हो जाए। इतना तो मैं जानती ही हूं कि तू अपनी भाभी को कितना मानता है और उसके प्रति कितना संवेदनशील है। अगर तुझे ये बताती कि उसके पिता उसका फिर से ब्याह करना चाहते हैं तो तू ये बात सुन कर गुस्सा हो जाता। बस इसी लिए नहीं बताया तुझे। ख़ैर ये सब छोड़ और ये बता तुझे ये बात किसने बताई?"

"भाभी की बहन कामिनी ने।" मैंने कहा____"उसने मुझे जब ये सब बताया तो मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन ही ग़ायब हो गई थी। मुझे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि ऐसी कोई बात हो सकती है।"

"फिर?" मां ने बड़ी उत्सुकता से पूछा____"मेरा मतलब है कि उसके बाद तूने क्या कहा और क्या तेरी रागिनी से मुलाक़ात हुई?"

"कामिनी से इतनी बड़ी बात सुनने के बाद मैं भला कैसे अपनी भाभी से न मिलता?" मैंने उखड़े हुए भाव से कहा।

"अच्छा।" मां के चेहरे पर एकाएक बेचैनी उभर आई, बोलीं____"तो जब तू अपनी भाभी से मिला तो क्या तूने उससे भी पूछी थी ये बात?"

"भला क्यों न पूछता मैं उनसे?" मैंने हांथ झटकते हुए कहा____"जब वो मेरे सामने आईं तो मैंने उनसे पूछा इस बारे में लेकिन मां, सच कहूं तो उन्हें देखते ही मुझे रोना आ गया था।"

"अरे! ये क्या कह रहा है तू?" मां ने एकदम से हैरानी ज़ाहिर की____"उसे देख कर तुझे रोना क्यों आ गया था?"

"जब उनकी बहन कामिनी ने मुझे उनकी शादी होने वाली बात बताई।" मैंने कहा____"तो मुझे ये सोच के रोना आ गया था कि अब वो मेरी भाभी नहीं रह जाएंगी। मैं हमेशा के लिए बड़े भैया की तरह अपनी भाभी को भी खो दूंगा।"

"हम्म्म्म।" मां ने पूछा____"फिर क्या हुआ?"

मैंने संक्षेप में मां को सब कुछ बता दिया। सारी बातें सुनने के बाद मां किसी सोच में डूबी नज़र आने लगीं।

"तो तेरी भाभी ने कहा कि उसकी बहन झूठ बोल रही थी तुझसे?" फिर मां ने कहा____"जबकि तेरी भाभी किसी से शादी नहीं करने वाली?"

"हां मां।" मैंने कहा____"लेकिन मैंने उनसे कह दिया है कि वो हम सबकी खुशी के लिए अपनी खुशियों को ठोकर न मारें। फिर से शादी हो जाने के बाद उनकी ज़िंदगी में खुशियां ही खुशियां आ जाएंगी। मैंने उनसे साफ कह दिया है कि मुझे भी इस बात से खुशी होगी कि वो किसी से ब्याह कर के अब अपने जीवन में खुश रहेंगी।"

"सही कहा।" मां ने गहरी सांस ली____"अभी उस बेचारी की उमर ही क्या है। इतना लंबा जीवन विधवा बन के गुज़ारना बहुत ही कठिन होता उसके लिए। इसी लिए तो तेरे पिता जी ने भी उसके पिता जी से कह दिया है कि वो अपनी बेटी का फिर से ब्याह कर दें। हम भी तो नहीं चाहते कि वो जीवन भर विधवा का जीवन बिताए और हमेशा अंदर ही अंदर घुटती रहे, तड़पती रहे।"

"मैंने तो उनसे कह दिया है मां कि वो भले ही किसी से शादी कर लेंगी लेकिन मैं तब भी उन्हें अपनी भाभी ही मानूंगा।" मैंने अधीरता से कहा____"और हमेशा उनकी खुशियों की कामना करूंगा। वैसे मां, ये तो उनकी बदकिस्मती ही थी जो उन्हें इतनी कम उमर में विधवा हो जाना पड़ा। काश! ऊपर वाला बड़े भैया को अपने पास न बुलाता तो आज भी वो इसी हवेली में आपकी बहू और मेरी सबसे प्यारी भाभी बनी रहतीं। मैं तो उन्हें कभी भुला ही नहीं सकूंगा मां, क्या आप उन्हें भुला पाएंगी?"

"वो बहू के रूप में मिली थी हमें तो ये हमारे लिए गौरव की बात थी बेटा।" मां ने संजीदा हो कर कहा____"हमारी हवेली की शान थी वो। दूर दूर तक जहां भी लोग तेरे पिता जी के सामने तारीफ़ के रूप में उसकी चर्चा करते थे तो उनका सीना गर्व से फूल जाता था। वो सभ्य थी, सुशील थी, संस्कारी थी और ईश्वर की भक्ति करने वाली थी। मुझे तो अब भी यकीन नहीं होता कि उसके जैसी नेक दिल औरत के साथ ऊपर वाले ने ऐसा घोर अन्याय किया है। क्यों मेरे बेटे को अपने पास बुला कर उसने हम सबको दुखी कर दिया?"

"खुद को सम्हालिए मां।" मैंने अधीरता से कहा____"आप तो जानती हैं कि ऊपर वाले की मर्ज़ी के आगे किसी का कोई ज़ोर नहीं चलता। बड़े भैया के गुज़र जाने का दुख अभी भी सीने में हैं और अब भाभी के इस तरह जाने का भी हो गया।"

"इस हवेली में रहने वालों पर मानों ग्रहण सा लगा हुआ है बेटा।" मां ने सहसा दुखी भाव से कहा____"जो गुज़र गए उनका दुख तो असहनीय था ही लेकिन जिन्होंने हमारे प्यार, स्नेह और भरोसे का खून किया उसकी पीड़ा शायद ही कभी मिटेगी। ख़ैर तू आराम कर, मैं जा रही हूं अब।"

कहने के साथ ही मां उठीं और कमरे से चली गईं। उनके जाने के बाद मैं पलंग पर लेट गया और फिर से इन्हीं सब बातों के बारे में सोचने लगा। क़रीब आधे घंटे बाद कुसुम कमरे में मुझे बुलाने आई। शाम हो चुकी थी और चाय का समय हो गया था इस लिए मैं उसके साथ ही नीचे आ गया।

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‌‌रूपा को आज कल अपने घर वालों का बड़ा ही प्यार और स्नेह मिल रहा था। सबने उसे जैसे अपनी पलकों पर बैठा लिया था। इस सबसे रूपा बहुत खुश थी। हर वक्त उसके चेहरे पर ताज़े खिले हुए गुलाब जैसी ताज़गी बनी रहती थी। यूं तो घर का कोई भी सदस्य उसे कोई काम करने के लिए नहीं कहता था लेकिन तब भी वो सबके साथ खुशी खुशी काम में लगी रहती थी। एक लंबे समय के बाद वो अपने घर वालों के साथ खुशी से इतना घुल मिल कर रह रही थी। वरना इसके पहले तो सबने उससे किनारा ही कर लिया था।

रूपचंद्र हर रोज़ अपनी बहन से मिलता था और उससे उसका हाल चाल पूछता था। वो उसे ये भी बताता था कि आज कल वो वैभव के साथ ही ज़्यादातर रहता है और अस्पताल तथा विद्यालय के निर्माण कार्य की देख रेख करता है। रूपचंद्र अच्छी तरह समझ रहा था कि उसकी बहन अपने होने वाले पति यानि वैभव से पुनः मिलने के लिए और उससे ढेर सारी बातें करने के लिए बेक़रार होगी लेकिन उसे भी पता था कि काम की व्यस्तता के चलते दोनों का मिलना फिलहाल संभव नहीं है। दूसरी बात ये भी थी कि बार बार वैभव से अपनी बहन से मिलने की बात कहने में उसे बेहद संकोच भी लगता था। हालाकि अपनी बहन की खुशी के लिए वो कुछ भी कर सकता था लेकिन उसे भी पता था कि फिलहाल हालात ऐसे नहीं हैं।

रूपा के घर वाले अब ये बात समझ चुके थे कि उनके परिवार का भला वास्तव में रूपा की ही वजह से संभव हो सका है। रूपा का वैभव से प्रेम करना वाकई में नियति का ही लेख था वरना दोनों परिवारों के बीच जिस तरह के हालात बन चुके थे उसके चलते कोई भी ये कल्पना नहीं कर सकता था कि इतना कुछ होने के बाद कभी दोनों परिवार फिर से एक हो सकेंगे। यानि दादा ठाकुर की कृपा मिलने में सिर्फ और सिर्फ रूपा का और उसके प्रेम का ही महत्वपूर्ण योगदान था।

रात हो चुकी थी। खाना पीना करने के बाद रूपा अपने कमरे में आ कर बिस्तर पर लेट चुकी थी। कमरे की छत पर मध्यम गति से चल रहे पंखे को वो अपलक देखे जा रही थी। जैसे घूमते हुए पंखे में अचानक ही वैभव का अक्श नज़र आने लगा था उसे जिसको वो अपलक देखे जा रही थी।

वैभव से मिले काफी दिन हो गए थे। दिन तो ख़ैर सबके साथ काम में व्यस्त होने की वजह से कट ही जाता था लेकिन जैसे ही रात होती थी और वो अपने कमरे में अकेली होती थी तो बस वैभव के ही बारे में सोचने लगती थी। जाने कितने ही प्रकार के ख़याल उसके मन में उभरते जिसकी वजह से कभी वो अनायास ही मुस्कुरा उठती तो कभी एकदम से उदास सी हो जाती। कभी ऐसा भी होता कि एकदम से उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव उभर आते। अनुराधा का इस तरह से गुज़र जाना अभी तक भुला नहीं पाई थी वो। यूं तो उसकी अनुराधा से कभी मुलाक़ात नहीं हुई थी और ना ही कभी उससे बातें हुईं थी इसके बावजूद उससे जाने कैसा जुड़ाव और लगाव महसूस करने लगी थी वो। शायद सच्चे दिल से किसी को अपना समझ लेने का एहसास था ये जो अभी तक उसके दिलो दिमाग़ से निकल नहीं सका था।

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"अरे! तू सोई नहीं अब तक?" सुलोचना देवी गुसलखाने से निवृत हो कर आईं और जब उन्होंने रागिनी को खुली आंखों से किसी सोच में डूबा हुआ देखा तो पूछा____"आख़िर क्या सोच रही है मेरी बेटी? अपनी मां को नहीं बताएगी क्या?"

रागिनी जब से अपनी ससुराल से यहां आई थी तब से वो अपनी मां के कमरे में पलंग पर उनके साथ ही सोती थी। ऐसा नहीं था कि उसके लिए कोई कमरा खाली नहीं था बल्कि वो तो कई थे लेकिन ये सुलोचना देवी की ही इच्छा थी कि उनकी बेटी उनके साथ ही रहे। लगभग दो महीने हो चुके थे। इन दो महीनों में रागिनी ने अपनी मां को सब कुछ बता दिया था जो कुछ उसकी ससुराल में हुआ था। अपनी बेटी के विधवा हो जाने से सुलोचना देवी बहुत ज़्यादा दुखी हो गईं थी। शुरुआत में तो उनकी हालत गंभीर हो गई थी जिसके चलते उन्हें इलाज़ के लिए शहर ले जाना पड़ा था। बहरहाल, अब सब बेहतर और सामान्य हो गया था।

"क्या वैभव के बारे में सोच रही है?" रागिनी उनके पूछने पर भी जब चुप ही रही तो सुलोचना देवी ने पलंग पर लेटने के बाद फिर से पूछा____"मुझे भी तो बता कि आख़िर उससे क्या बातें हुईं थी तेरी?"

रागिनी ख़यालों की दुनिया से बाहर आई। उसने एक लंबी सांस ले कर छोड़ा और फिर अपनी मां को गंभीरता से सब कुछ बता दिया। सारी बातें सुनने के बाद सुलोचना देवी उसकी तरफ करवट ले कर उसे ग़ौर से देखने लगीं।

"जितना कुछ उसके बारे में तूने अब तक मुझे बताया है।" फिर उन्होंने कहा____"और आज जिस तरह से वो तेरी शादी वाली बात सुन कर दुखी हो कर रो पड़ा था उससे साफ ज़ाहिर होता है कि वो तुझे कितना मानता है और तेरी कितनी फ़िक्र करता है। मुझे पूरा यकीन है कि अगर उसे कामिनी के द्वारा ये पता चल जाता कि तेरी शादी असल में उसी से करने की बात हुई है तो वो इस बात से इंकार नहीं करता। मैं मानती हूं कि उसे थोड़ा झटका लगता लेकिन जब वो खुद अकेले में इस बारे में सोचता और जब सब उसे समझाते तो उसे समझ में आ जाता कि ऐसा होना ग़लत नहीं है।"

"आप सब बेवजह उस बेचारे के ऊपर ये रिश्ता थोप रहे हैं मां।" रागिनी ने आहत भाव से कहा____"और साथ ही मेरे ऊपर भी। मैं आपको बता चुकी हूं कि ना मैंने कभी उसके बारे में भूल से भी ऐसा सोचा है और ना ही उसने कभी मेरे बारे में ऐसा कुछ सोचा है। मैं उसे अपना देवर ही नहीं बल्कि उसे छोटा भाई भी मानती आई हूं। उधर वो मुझे अपनी भाभी मानता है और अपने माता पिता से कहीं ज़्यादा मेरी इज्ज़त करता है। मैं सपने में भी उसे किसी धर्म संकट में नहीं डाल सकती और आप सबसे भी यही कहती हूं कि आप लोग भी उस बेचारे को ऐसे किसी धर्म संकट में मत डालिए। मेरे और उसके बीच हमेशा एक पवित्र रिश्ता रहा है, जिसे मैं कलंकित नहीं करना चाहती और मुझे यकीन है कि वो भी ऐसा नहीं करना चाहेगा।"

"मैं तेरी पवित्र भावनाओं को अच्छी तरह समझती हूं रागिनी।" सुलोचना देवी ने कहा____"मुझे हमेशा से ही तुझ पर नाज़ रहा है और साथ ही इस बात का गर्व भी रहा है कि ईश्वर ने मुझे तेरे जैसी नेक विचारों वाली बेटी दी है।"

"तो बस, इसे यहीं तक रहने दीजिए मां।" रागिनी ने कहा____"अगर आप सच में मेरी भावनाओं को समझती हैं तो ये भी समझिए कि ऐसा करना अथवा ऐसा सोचना तक मेरे लिए पाप करने जैसा है।"

"पाप तो तब होता है बेटी जब पवित्र रिश्तों के साथ कोई दुष्कर्म करने का सोचे।" सुलोचना देवी ने जैसे तर्क़ दे कर समझाते हुए कहा____"जबकि यहां तो ऐसा कोई कर ही नहीं रहा है फिर ये पाप कैसे हो गया? वैभव के साथ जब तेरी शादी हो जाएगी तो तुम दोनों पति पत्नी जैसे पवित्र रिश्ते में बंध जाओगे। अगर तुम ये सोचती हो कि वैभव तुम्हारा देवर है और तुम्हें उसके बारे में ऐसा नहीं सोचना चाहिए तो ये मौजूदा वक्त में भले ही उचित है किंतु इसे पाप नहीं कह सकते। अपने देवर से ऐसी परिस्थिति में ब्याह कर लेना किसी भी तरह से ग़लत नहीं है, वो भी तब जबकि तुम इस वक्त विधवा की स्थिति में हो। ऐसे न जाने कितने ही उदाहरण मिल जाएंगे जहां ऐसी परिस्थिति में देवर और भाभी का आपस में विवाह कर के उसे उचित बताया गया है। इस लिए तुझे इस बारे में ऐसा कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।"

"आप अब भी नहीं समझ रही हैं मां।" रागिनी ने बेबस भाव से कहा____"मैं आपकी इन बातों से इंकार नहीं कर रही हूं कि देवर भाभी का ऐसी स्थिति में विवाह नहीं हो सकता। मैं तो सिर्फ ये कहना चाहती हूं कि मेरे और उसके बीच एक पवित्र भावनाओं वाला रिश्ता है जिसे बदलना और उसे खंडित करना मेरे लिए बहुत ही ज़्यादा मुश्किल और आहत कर देने वाली बात है। मैंने हमेशा उसे अपने देवर और अपने छोटे भाई की नज़र से देखा है। एकदम से उसको पति की नज़र से देखना मेरे लिए नामुमकिन है, शर्मिंदगी भरा है। आप मेरी इन बातों को समझने का प्रयास कीजिए मां।"

"मैं बखूबी समझती हूं मेरी बच्ची।" सुलोचना देवी ने बड़े स्नेह भाव से कहा____"तभी तो मुझे हमेशा तुझ पर नाज़ रहा है लेकिन बेटी ये भी सच है कि हमें जीवन के हर क़दम पर समझौते करने पड़ते हैं। कभी खुशी से तो कभी मज़बूरी से। दुनिया के कोई भी माता पिता ये नहीं चाह सकते कि उनकी बेटी जो इतनी कम उमर में विधवा हो गई हो वो जीवन भर विधवा बन कर ही रहे और जीवन भर दुख सहे। वो ये भी नहीं चाह सकते कि उनकी बेटी हर चीज़ के लिए किसी दूसरे की मोहताज़ बनी रहे और वो किसी से अपने दुख दर्द न बांट सके। जब इस दुनिया में इस तरह के दुख दर्द से दूर रहने का कोई उपाय पहले से ही मौजूद हो तो समझदार इंसान को मूर्खतापूर्ण फ़ैसला नहीं लेना चाहिए और ना ही ये सोचना चाहिए कि ऐसा करने से ये हो जाएगा या वो हो जाएगा...या फिर ऐसा करने से शर्मिंदगी होगी। बेटी, जब एक नया रिश्ता बनता है तो उस रिश्ते के साथ नए एहसास और नई भावनाएं भी जन्म लेने लगती हैं जो ना तो ग़लत होती हैं और ना ही उनसे हमें शर्मिंदगी होती है। क्या कभी पति पत्नी के रिश्ते में भी शर्मिंदगी होती है किसी को?"

"बहुत मुश्किल है मां।" रागिनी बेबस और बेचैन भाव से बोली____"सबसे पहले तो मेरे लिए ऐसा सोचना ही शर्मिंदगी भरा है, दूसरे मैं ये किसी भी कीमत पर नहीं चाहती कि वैभव मेरे बारे में एक पल के लिए भी ग़लत सोच ले। वो मेरी बहुत इज्ज़त करता है। उसने कभी मेरी तरफ ग़लत नीयत से नहीं देखा, जबकि वो इस मामले में बहुत बदनाम रहा है। एक और बात, मैं हमेशा उसके सामने सिर उठा कर उससे पेश आई हूं। इस लिए मैं ये हर्गिज़ नहीं चाहती कि ऐसी किसी बात से मुझे उसके सामने शर्मिंदा होना पड़े अथवा मैं उससे नज़रें न मिला सकूं। आप ये समझ लीजिए मां कि अगर उसने एक पल के लिए भी मेरे बारे में ग़लत सोच लिया तो मेरे लिए ऐसी बात हो जाएगी कि ये ज़मीन फटे और मैं उसमें समा जाऊं।"

"तुझे ऐसा कहने की ज़रूरत नहीं है मेरी बच्ची।" सुलोचना देवी का मन द्रवित सा हो गया____"मैं अच्छे से समझती हूं तेरे मन की बात और तेरी भावनाएं। मैं तुझे इसके लिए मजबूर नहीं करूंगी, लेकिन मेरे एक सवाल का जवाब दे मुझे।"

"जी पूछिए।" रागिनी ने धीमें से कहा।

"मान ले।" सुलोचना देवी ने कहा____"मान ले अगर वैभव को इस रिश्ते के बारे में पता चल जाए और वो तुझसे ब्याह करने को भी राज़ी हो जाए तो क्या तब भी तू इस रिश्ते से इंकार करेगी?"

सुलोचना देवी का ये सवाल सुन कर रागिनी फ़ौरन कुछ बोल ना सकी। अपनी मां को अपलक देखने लगी थी वो। कुछ ऐसे अंदाज़ में जैसे उन्होंने कोई अजीब बात कह दी हो।

"क्या हुआ?" जब रागिनी ख़ामोशी से उन्हें ही देखती रही तो सुलोचना देवी पूछ बैठीं____"चुप क्यों है? जवाब दे।"

"वैभव इस रिश्ते के लिए कभी राज़ी नहीं हो सकता।" रागिनी ने बड़े आत्म विश्वास से कहा____"और मुझे उस पर पूर्ण विश्वास है। वो मेरे बारे में कभी ऐसा नहीं सोच सकता।"

"इंसान हमेशा वक्त और हालात के सामने घुटने टेक देता है।" सुलोचना देवी ने कहा____"हो सकता है कि तेरा विश्वास अपनी जगह पर सही हो लेकिन तुझसे वैभव के बारे में इधर का जो कुछ जाना समझा है उससे मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि वो वही करेगा जिसमें तेरी खुशी हो और जिससे हमेशा तू खुश रहे। इतना तो अब तक वो भी समझ ही चुका है कि तू हमेशा उसी सूरत में खुश रह सकती है जब तेरा फिर से ब्याह हो जाए और तू फिर से सुहागन बन जाए। वो बच्चा नहीं है जिसे इतनी भी समझ न हो कि एक औरत के जीवन में उसके पति का क्या महत्व होता है। पति है तो औरत हर हाल में खुश और संतुष्ट रहती है। वैभव जैसा लड़का जो तुझे हर कीमत पर खुश देखना चाहता है और तुझे खुश रखने के लिए इतने जतन करता है वो यकीनन तुझसे शादी करने के लिए भी राज़ी हो जाएगा। मुझे इस बात का भी यकीन है कि शादी के बाद वो तुझे हमेशा खुश भी रखेगा।"

रागिनी इस बार कुछ बोल ना सकी। शायद उसे कुछ सूझा ही नहीं कि अब क्या कहे? अपनी मां द्वारा सुनी गई इन बातों से उसे बड़ा अजीब सा महसूस हो रहा था। समूचे जिस्म में झुरखुरी होने लगी थी।

"ख़ैर छोड़।" सुलोचना देवी ने जाने क्या सोच कर गहरी सांस ली और फिर सीधा लेट कर बोलीं____"अब शांति से सो जा। सोचने के लिए अभी बहुत समय है तेरे पास।"

कहने के साथ ही सुलोचना देवी ने रागिनी की तरफ पीठ कर के दूसरी तरफ करवट ले ली। इधर रागिनी के मन में एकाएक मानों उथल पुथल सी मच गई थी। बड़े अजीब अजीब से ख़याल उसके मन में उभरने लगे थे जिनसे पीछा छुड़ाने की उसने नाकाम कोशिश की। अपनी मां की तरह उसने भी उनकी तरफ पीठ कर के करवट ले ली और फिर आंख बंद कर के सोने का प्रयास करने लगी। बड़ी मुश्किल से उसकी आंख लगी।​
 
अध्याय - 142
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"क्या हुआ?" सुगंधा देवी ने कमरे में आने के बाद दादा ठाकुर की तरफ देखते हुए पूछा____"क्या सोचने में लगे हुए हैं?"

दादा ठाकुर अपने कमरे में पलंग पर अधलेटे से थे और किसी सोच में डूबे हुए थे। सुगंधा देवी की बात पर उनका ध्यान भंग हुआ।

"कुछ नहीं, बस ऐसे ही।" दादा ठाकुर ने जैसे बात को टालते हुए कहा____"आप बताएं कि बेटे से बात हुई आपकी? चंदनपुर में क्या हुआ इसके बारे में उसने कुछ बताया आपसे?"

"हां बात हुई उससे।" सुगंधा देवी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"पहले तो बड़ा नाराज़ दिखाई दिया था और उसी नाराज़गी में हमसे पूछ भी रहा था कि हमने उससे उसकी भाभी के ब्याह के बारे में पहले क्यों नहीं बताया था?"

"अच्छा।" दादा ठाकुर के चेहरे पर थोड़े फिक्रमंदी के भाव उभर आए____"फिर आपने क्या कहा उससे?"

सुगंधा देवी ने अपनी रेशमी साड़ी को अपने बदन से निकाल कर उसे अलमारी के पास दीवार में दिख रही लकड़ी की खूंटी पर टांग दिया। उसके बाद वो पलट कर पलंग के पास आईं। दादा ठाकुर अपने सवाल के जवाब के लिए उन्हीं की तरफ अपलक देखे जा रहे थे।

"कहना क्या था।" फिर उन्होंने पलंग पर उनके बगल से लेटते हुए कहा____"उसको बताना पड़ा कि क्यों हमने उससे ये बात छुपाई थी।"

"आपने उससे पूछा नहीं कि चंदनपुर में उन लोगों से उसकी क्या बातें हुईं हैं?" दादा ठाकुर ने उत्सुक भाव से पूछा____"इतना तो हम जानते हैं कि सच का पता उसे वहां पर चल ही गया होगा किंतु अब हम ये जानना चाहते हैं कि सच जानने के बाद उसने वहां पर कोई हंगामा तो नहीं किया?"

"नहीं हंगामा नहीं किया उसने।" सुगंधा देवी ने कहा____"और कहीं न कहीं हमें उससे ये उम्मीद भी थी क्योंकि ये कोई ऐसी बात तो थी नहीं जिसके चलते उसे अपनी भाभी के ब्याह होने से कोई एतराज़ होता। हमने उसे अपनी भाभी की फ़िक्र करते और उसको उसके दुख से उबारने के लिए जाने कैसे कैसे प्रयास करते देखा था। ज़ाहिर है अगर वो अपनी भाभी को हमेशा खुश होते हुए ही देखना चाहता है तो वो ये भी समझता ही होगा कि एक औरत हमेशा किस तरीके से खुश रह सकती है? ऐसे में जब उसे अपनी भाभी के फिर से ब्याह होने की बात पता चलेगी तो उसे इससे एतराज़ नहीं होगा और जब एतराज़ ही नहीं होगा तो वो कोई हंगामा क्यों करेगा?"

"हम्म्म्म ये तो सही कहा आपने।" दादा ठाकुर ने सिर हिलाया____"ख़ैर तो उसने क्या बताया आपको? हम वो सब कुछ जानना चाहते हैं जो वहां पर उसने सुना और फिर जो कुछ उसने कहा।"

सुगंधा देवी ने सारी बातें क्रम से बता दीं। सारी बातें सुनने के बाद दादा ठाकुर के चेहरे पर सोचो के भाव उभर आए। इधर सुगंधा देवी कुछ देर तक उन्हें देखती रहीं।

"क्या लगता है आपको?" फिर उन्होंने उनकी तरफ ही देखते हुए पूछा____"इन सब बातों के बाद क्या नतीजा निकलेगा? हमारा मतलब है कि हमारी बहू ने वैभव से जो कुछ कहा क्या वही उसका फ़ैसला होगा? दूसरी बात उसको अभी पूरे सच का पता नहीं चला है।"

"रागिनी बहू का चरित्र बहुत ही उत्तम रहा है सुगंधा।" दादा ठाकुर ने कहा____"और इस बात से हमें उस पर हमेशा से गर्व भी रहा है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि उसके जैसी उत्तम चरित्र वाली औरत इतना जल्दी इस बात को स्वीकार नहीं कर सकती। ज़ाहिर सी बात है कि जिसे अब तक वो अपना देवर और छोटा भाई ही मानती आई है उसको अचानक से अपने पति की नज़र से देखने लगना उसके लिए बेहद ही मुश्किल होगा। शायद इसी लिए उसने वैभव को सच नहीं बताया है।"

"हम भी ऐसा ही समझते हैं।" सुगंधा देवी ने गंभीरता से कहा____"और सच कहें तो यही सोच कर हमें चिंता भी होती है कि क्या रागिनी अपने देवर से ब्याह करने को राज़ी होगी?"

"हम मानते हैं कि ये इतना आसान नहीं है।" दादा ठाकुर ने कहा____"और इसके लिए ना हम कोई ज़ोर ज़बरदस्ती करना चाहते हैं और ना ही उसके माता पिता। हमने उसके माता पिता को साफ शब्दों में कह दिया था कि इस रिश्ते के लिए वो अपनी बेटी पर किसी भी तरह का दबाव नहीं डालेंगे। उसको सिर्फ यही बताएंगे कि हम सब ऐसा करने की इच्छा रखते हैं। उसकी तरफ से रिश्ते को मंजूरी मिलने के बाद ही हम ये ब्याह करेंगे।"

"बात तो ठीक है आपकी।" सुगंधा देवी ने कहा____"लेकिन रागिनी ने तो वैभव को अपना फ़ैसला सुना दिया है कि वो किसी से ब्याह नहीं करेगी बल्कि हमेशा वो उसकी भाभी ही बनी रहेगी।"

"उम्मीद पर ही दुनिया क़ायम है सुगंधा।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"हम भी उम्मीद लगाए रहेंगे। हमें यकीन है कि एक दिन हमारी बहू इस रिश्ते को स्वीकार कर लेगी। इतना तो वो भी जानती है कि हम उसे हमेशा खुश ही देखना चाहते हैं। हमारे द्वारा ऐसे रिश्ते की बात जानने के बाद वो ये भी समझने की कोशिश करेगी कि हम ऐसा क्यों चाहते हैं? देर से ही सही लेकिन उसको समझ आ ही जाएगा कि वैभव से उसका ब्याह करवाने के पीछे हमारी मंशा सिर्फ ये नहीं है कि हम ज़बरदस्ती उसको किसी की पत्नी बनाने पर तुले हैं बल्कि ऐसा करने के पीछे एक सच्ची भावना ये है कि हम उसके जैसी संस्कारवान बहू को खोना भी नहीं चाहते हैं। ख़ैर मौजूदा समय में भले ही उसके अंदर द्वंद सा छिड़ा होगा लेकिन हमें यकीन है कि उसको एक दिन हमारे अंदर की सच्ची भावनाओं का एहसास हो जाएगा और वो समझ जाएगी कि हम उसके बारे में ऐसा कर के ग़लत नहीं कर रहे हैं।"

"हम तो ऊपर वाले से यही प्रार्थना करते हैं कि वो जल्द से जल्द इस बात को समझ जाए।" सुगंधा देवी ने कहा____"उसके बाद हम उसको फिर से सुहागन बना कर इस हवेली में ले आएं। आपको पता है हम एक एक दिन गिन रहे हैं कि कितने दिन हो गए हैं उसे गए हुए। इस हवेली में वो नहीं है तो बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता है हमें।"

"फ़िक्र मत कीजिए।" दादा ठाकुर ने कहा____"हमारी बहू इसी हवेली में आएगी और नई नवेली दुल्हन बन के आएगी। उसके बाद फिर से इस हवेली में रौनक आ जाएगी। आपको पता है हमने ख़ास तौर पर अपनी समधन जी से गुज़ारिश की थी कि वो अपनी बेटी को समझाएं और इस रिश्ते को स्वीकार करने के लिए उसे मनाएं।"

"क्या आपको लगता है कि सुलोचना जी के समझाने का असर होगा रागिनी पर?" सुगंधा देवी ने आशंकित भाव से पूछा।

"फ़ौरन तो नहीं होगा और ये आप भी जानती हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन हमें यकीन है कि उनके समझाने का असर धीरे धीरे ज़रूर होने लगेगा। समधन जी भी तो अपनी बेटी का भला ही चाहती हैं। उन्हें भी एहसास है कि उनकी बेटी सबसे ज़्यादा हमारे ही यहां खुश रहेगी और हमेशा वो एक रानी की तरह रहेगी।"

"ईश्वर करे ऐसा ही हो।" सुगंधा देवी ने कहा____"रागिनी बहू इस रिश्ते को स्वीकार कर ले तो फिर हम भी अपने बेटे को वास्तविकता बता दें और फिर उसे इसके लिए राज़ी करें। वैसे क्या आपको लगता है कि हमारा बेटा अपनी भाभी से ब्याह करने को राज़ी होगा?"

"सच कहें तो हमें सबसे ज़्यादा चिंता रागिनी बहू की तरफ से ही है।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैभव के मामले में हमें इतनी फ़िक्र नहीं है।"

"ऐसा आप कैसे कह सकते हैं?" सुगंधा देवी के माथे पर शिकन उभर आई____"कहीं आप ये तो नहीं सोच रहे हैं कि हमारे बेटे के मन में अपनी भाभी के प्रति पहले से ही ऐसी वैसी भावना रही होगी?"

"नहीं सुगंधा।" दादा ठाकुर ने मजबूती से इंकार में सिर हिलाया____"हम मानते हैं कि वैभव का चरित्र बेहद ही निम्न स्तर का रहा है लेकिन हमें यकीन है कि वो इतने भी गिरे हुए चरित्र का नहीं हो सकता था कि वो अपनी ही भाभी के बारे में कभी ग़लत सोच ले।"

"तो फिर ऐसा आपने किस आधार पर कहा था?" सुगंधा देवी ने पूछा।

"उसका अपनी भाभी के प्रति इतनी फ़िक्र करने के आधार पर।" दादा ठाकुर ने कहा____"और सबसे ज़्यादा उसके मर्द होने के आधार पर। आप भी जानती हैं कि मर्द और औरत में बहुत फ़र्क होता है। औरत, कभी कोई बात खुले दिल से इतना जल्दी स्वीकार नहीं करती है जबकि मर्द कर लेता है। औरत शर्म और संकोच की वजह से पहल नहीं करती जबकि मर्द हमेशा पहले पहल करता है। रागिनी जैसी औरत से हम ऐसी ही उम्मीद करते हैं जबकि वैभव से नहीं। वो हमेशा ही इस मामले में बहुत आगे रहा है। हालाकि अपनी भाभी के प्रति ऐसा सोचना भले ही उसके लिए भी मुश्किल हो लेकिन अंततः वो फ़ौरन ही इस बात को समझ लेगा कि अगर सब ऐसा ही चाहते हैं और अगर ऐसा करने से उसकी भाभी का जीवन संवर सकता है तो ठीक है। हमें यकीन है कि वैभव जब रागिनी बहू को भाभी की जगह एक पत्नी की नज़र से देखेगा तो उसे इस बात को स्वीकार कर लेने में रागिनी बहू की तरह ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा।"

"पता नहीं आप क्या क्या अंदाज़े लगाए जा रहे हैं।" सुगंधा देगी ने कहा____"क्या आप ये भूल गए कि अभी अभी वो उस लड़की के सदमे से उबरा है जिसे वो बहुत ज़्यादा चाहता था। क्या ये सचमुच इतना आसान नज़र आता है आपको कि वो एकदम से अपनी भाभी के साथ ब्याह करने को तैयार हो जाएगा?"

"हम मानते हैं कि वो उस लड़की की वजह से गहरे सदमे में चला गया था।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन रूपा ने अपने प्रेम और स्नेह के द्वारा उसको उस सदमे से निकाल लिया है। दूसरी बात, आप ही से हमें ये भी पता चला था कि हमारे बेटे को सदमे से बाहर निकालने वाली सिर्फ रूपा ही बस नहीं थी बल्कि हमारी रागिनी बहू भी थी। उसको अच्छा इंसान बनने के लिए उस पर ज़ोर डालने वाली हमारी बहू ही थी।"

"आप कहना क्या चाहते हैं?" सुगंधा देवी एकाएक बीच में ही बोल पड़ीं।

"यही कि इंसान के जीवन में इंसानी भावनाओं का बहुत महत्व होता है।" दादा ठाकुर ने कहा____"ये भावनाएं ही होती हैं जो इंसान को क्या से क्या बना देती हैं। हमारा बेटा आज उन भावनाओं की वजह से ही ऐसा बना हुआ है।"

"बहुत अजीब बातें कर रहे हैं आप।" सुगंधा देवी ने गहरी सांस ली।

"हां हो सकता है।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैसे हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि कुल गुरु की भविष्यवाणी क्या थी? याद कीजिए, उनके अनुसार हमारे बेटे की दो पत्नियां होंगी। उसकी पहली पत्नी तो यकीनन रूपा ही थी। दूसरी के बारे में हमें नहीं पता था किंतु अनुराधा के रूप में हमें उसका भी पता चला। ये अलग बात है कि उस बेचारी के साथ ऐसा भयानक हादसा हो गया। उसके गुज़र जाने से वैभव की दूसरी पत्नी का स्थान रिक्त नज़र आया लेकिन तभी हमें अपनी बहू रागिनी का ख़याल आ गया। स्पष्ट है कि वो रागिनी ही है जो वैभव की दूसरी पत्नी बनेगी। अब अगर हम कुल गुरु की भविष्यवाणी को सच मान कर चलें तो हमें इस बात का भी यकीन कर ही लेना चाहिए रागिनी बहू इस रिश्ते को यकीनन स्वीकार करेगी। थोड़ी देर ज़रूर लग सकती है लेकिन अंततः वो वैभव की पत्नी ज़रूर बनेगी।"

सुगंधा देवी को भी एहसास हुआ कि कुल गुरु की भविष्यवाणी के अनुसार वास्तव में ऐसा हो सकता है। इस बात का एहसास होते ही उनके चेहरे पर खुशी की चमक उभर आई। बहरहाल थोड़ी देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद दोनों ही सोने का प्रयास करने लगे।

✮✮✮✮

सुबह हुई।
एक नया दिन शुरू हुआ।
चाय नाश्ता कर के मैं सीधा उस जगह पर आ गया जहां पर अस्पताल और विद्यालय का निर्माण कार्य चल रहा था। रूपचंद्र पहले से ही वहां मौजूद था। मुझे देखते ही वो मेरे पास आया।

"कल कहां चले गए थे तुम?" उसने पूछा____"सब ठीक तो है ना?"

"हां, वो असल में कल मैं भाभी को लेने चंदनपुर चला गया था।" मैंने कहा____"इसी लिए यहां नहीं आ पाया था।"

"ओह! तो क्या तुम रागिनी दीदी को ले आए वहां से?" रूपचंद्र ने उत्सुक भाव से पूछ्ते हुए कहा____"काफी समय हो गया उन्हें देखे हुए। आज दोपहर को तुम्हारे साथ हवेली चलूंगा दीदी से मिलने के लिए।"

"ज़रूर चलना।" मैंने थोड़ा उदास भाव से कहा____"लेकिन हवेली में तुम्हें भाभी नहीं मिलेंगी।"

"अरे! ऐसा क्यों?" रूपचंद्र चौंका____"कुछ हुआ है क्या? मेरा मतलब क्या वो मुझसे नाराज़ हैं?"

"नहीं ऐसी बात नहीं है।" मैंने कहा____"बात ये है कि मैं उन्हें लेने ज़रूर गया था लेकिन वो मेरे साथ नहीं आईं। उनके घर वालों ने भेजने से मना कर दिया था।"

"ये क्या कह रहे हो तुम?" रूपचंद्र ने हैरानी ज़ाहिर की____"उनके घर वालों ने उन्हें भेजने से भला क्यों मना कर दिया? जहां तक मेरा अनुमान है उन्हें यहां से गए लगभग दो महीना हो चुका है। अब तो उन्हें भेज ही देना चाहिए था उन लोगों को।"

मैंने रूपचंद्र की इस बात पर आगे कुछ नहीं कहा। असल में कुछ समझ ही नहीं आया कि उससे अब क्या कहूं? मेरे मन में भाभी के ब्याह वाली बातें गूंजने लगीं थी और इस वजह से मेरा मन थोड़ा मायूस और उदास सा हो गया था। शायद रूपचंद्र को भी इसका आभास हो गया था।

"क्या हुआ?" फिर उसने मेरी तरफ गौर से देखते हुए पूछा____"तुम ठीक तो हो ना? तुम्हें देख के ऐसा लग रहा है जैसे किसी बात से मायूस या उदास हो।"

"ऐसी कोई बात नहीं है।" मैंने बात को टालने की गरज से कहा____"मैं ठीक हूं।"

"नहीं तुम ठीक नहीं लग रहे।" रूपचंद्र थोड़ा गंभीर हो कर बोला____"कोई बात ज़रूर है जिसके चलते तुम ऐसे नज़र आ रहे हो। तुम मुझे बता सकते हो यार। अब भला मुझसे किस बात का पर्दा? मेरी बहन से भले ही तुम्हारा ब्याह होने में अभी समय है लेकिन मैं अभी से तुम्हें अपना बहनोई मानता हूं। तुम्हारा साला हूं मैं, इस लिए तुम मुझसे बेझिझक हो कर अपने अंदर की बात बता सकते हो।"

रूपचंद्र की बात सुन कर मैं उसकी तरफ देखने लगा। उसकी आंखों में मुझे सच्चाई नज़र आई। वो बड़े ही अपनेपन से देखे जा रहा था मुझे। इसमें कोई शक नहीं कि वो मुझे दिल से अपना बहनोई मान चुका था लेकिन जाने क्यों मैं अभी भी इस रिश्ते से झिझक रहा था।

"समझ गया।" जब मैं कुछ न बोला तो रूपचंद्र ने सहसा निराश भाव से कहा____"मैं समझ गया वैभव कि तुम अभी भी मुझ पर और मेरे घर वालों पर पूरी तरह भरोसा नहीं करते हो। तभी तो तुम मुझसे अपने अंदर की बात बताने के लिए झिझक रहे हो। ख़ैर कोई बात नहीं, मैं समझ सकता हूं। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। असल में हम लोग वाकई में ऐसे नहीं हैं जिन पर इतना जल्दी तुम भरोसा करने लगो।"

"ऐसी बात नहीं है रूपचंद्र।" मैंने एकाएक उसकी आंखें नम होते देखा तो उसके कंधे पर हाथ रख कर बोल पड़ा____"मुझे तुम पर और तुम्हारे घर वालों पर पूर्ण भरोसा है। अगर ऐसा न होता तो आज हमारे बीच ऐसे दोस्ताना संबंध न होते। ख़ैर तुम जानना चाहते हो ना कि मैं किस वजह से मायूस और उदास सा हूं तो सुनो।"

कहने के साथ ही मैंने एक गहरी सांस ली और फिर बोला____"बात दरअसल ये है कि भाभी के माता पिता उनका फिर से ब्याह कर देना चाहते हैं। ज़ाहिर है वो नहीं चाहते कि उनकी बेटी सारी ज़िंदगी विधवा बन कर बिताए और दुख दर्द सहे। बात भी सही है, मैं खुद भी यही चाहता हूं कि मेरी भाभी अपने जीवन में हमेशा खुश रहें। इसके पहले मुझे आभास नहीं हुआ था लेकिन अब समझ चुका हूं कि एक औरत अपने जीवन में तभी खुश रह सकती है जब उसका भी कोई अपना हो। अपने के रूप में सबसे बढ़ कर उसका पति ही होता है। हां रूपचंद्र, एक औरत का पति चाहे जैसा भी हो, अगर वो इस संसार में जीवित रहता है तो औरत पूर्ण होती है और यही पूर्णता उसके खुश और संतुष्ट होने की वजह बनती है। मेरी भाभी का पति तो ईश्वर को प्यारा हो चुका है और वो विधवा हो चुकी हैं। मैं या मेरे घर वाले उन्हें खुश करने के लिए भले ही चाहे लाख जतन करें लेकिन उन्हें सच्ची खुशी नहीं दे सकते। यही बात मुझे अब समझ आई है। चंदनपुर में जब मुझे पता चला कि उनके माता पिता उनका फिर से ब्याह कर देना चाहते हैं तो पहले तो मुझे धक्का सा लगा किंतु भाभी से बात करने के बाद समझ आया कि उनके माता पिता उनके लिए जो करना चाहते हैं वो वास्तव में उचित है।"

"तो क्या दीदी फिर से ब्याह करने को तैयार हैं?" रूपचंद्र ने पूछा____"क्या तुम्हारी उनसे इस संबंध में बातें हुईं थी?"

"बात तो हुई थी।" मैंने कहा____"लेकिन वो यही कह रही थीं कि वो किसी से शादी नहीं करेंगी। वो दादा ठाकुर की बहू थीं, हैं और हमेशा रहेंगी।"

"उनकी इस बात का क्या मतलब हुआ?" रूपचंद्र जैसे उलझ सा गया____"क्या ये कि वो जीवन भर विधवा ही बनी रहेंगी और हवेली में तुम्हारे माता पिता की बहू बन कर रहेंगी?"

"ऐसा वो मेरी वजह से कह रहीं थी।" मैंने गहरी सांस ली____"असल में मैं उन्हें देख कर और ये सोच कर दुखी हो गया था कि अगर सच में उनके माता पिता उनका ब्याह कहीं कर देंगे तो ब्याह के बाद वो मेरी भाभी नहीं रह जाएंगी। अपने भैया की तरह मैं हमेशा के लिए अपनी भाभी को भी खो दूंगा। मेरी इसी बात से शायद उन्होंने ये कहा था कि वो किसी से ब्याह नहीं करेंगी। हालाकि मैंने उनसे कह दिया है कि वो मेरे खातिर अपना जीवन बर्बाद न करें। मैं ख़ुद भी नहीं चाहता कि मेरी भाभी का जीवन मेरी वजह से वीरान और बेरंग बना रहे।"

"बिल्कुल सही कहा तुमने।" रूपचंद्र ने कहा____"ख़ैर उसके बाद क्या हुआ? मेरा मतलब है कि क्या तुम्हें लगता है कि दीदी तुम्हारी बात मान कर ब्याह करने को राज़ी हो जाएंगी?"

"भाभी को खोने का दुख तो रहेगा रूपचंद्र।" मैंने संजीदा भाव से कहा____"लेकिन मैं दिल से चाहता हूं कि भाभी अपने माता पिता की बात मान कर फिर से ब्याह करने को राज़ी हो जाएं। यार मैं अपनी भाभी को हमेशा खुश देखना चाहता हूं। विधवा के लिबास में जब भी उन्हें देखता था तो बहुत पीड़ा होती थी। ये सोच कर और भी ज़्यादा तकलीफ़ होती थी कि उन्हें इतनी कम उमर में विधवा हो जाना पड़ा और अब जीवन भर उन्हें इस सबके लिए दुखी ही रहना पड़ेगा।"

मैं इतना कह कर चुप हुआ तो इस बार रूपचंद्र कुछ न बोला। वो ख़ामोशी से मुझे ही देखे जा रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो किसी सोच में डूब गया था।

"अच्छा एक बात बताओ।" फिर उसने सोचो से बाहर आ कर मुझसे पूछा____"क्या तुमने दीदी के माता पिता से पूछा नहीं कि वो उनका ब्याह कहां और किससे करना चाहते हैं?"

"नहीं।" मैंने इंकार में सिर हिलाया____"असल में इतना कुछ सुनने के बाद मुझे उनसे ये पूछने का ख़्याल ही नहीं आया। वैसे भी ये पूछने का अब मतलब भी क्या था? ये तो उनकी मर्ज़ी की बात है कि वो अपनी बेटी का ब्याह कहां और किससे करना चाहते हैं?"

"यानि तुम्हें इस बारे में कुछ पता नहीं है?" रूपचंद्र ने अपलक मेरी तरफ देखते हुए कहा____"वैसे दादा ठाकुर को पता ही होगा इस बारे में। क्या तुमने पूछा नहीं उनसे?"

"चंदनपुर से आने के बाद मां से पूछा था।" मैंने कहा____"असल में मैं तब तक समझ चुका था कि इस बारे में मेरे माता पिता को पहले से ही पता था।"

"क..क्या मतलब??" रूपचंद्र चौंका____"भला उन्हें कैसे पता था और तुम ये बात कैसे समझ गए थे?"

"असल में जब भी मैं मां से भाभी को वापस लाने की बात करता था तो वो मुझे चंदनपुर जाने से मना कर देती थीं।" मैंने बताया____"पूछने पर यही कहती थीं कि बड़े भैया की मौत के बाद वो पहली बार ही अपने माता पिता के घर गईं है इस लिए उन्हें वहां पर कुछ समय के लिए रहने दूं। ख़ैर कल जब मैं चंदनपुर गया और वहां मुझे इस बारे में पता चला तो ये समझ गया कि क्यों हर बार मां मुझे चंदनपुर जाने से मना कर देती थीं। यानि भाभी के ब्याह वाली बात उन्हें पहले से ही पता थी और मुझसे इस लिए छुपाया कि कहीं मैं इस बात से गुस्सा ना हो जाऊं या फिर चंदनपुर में हंगामा करने ना पहुंच जाऊं।"

"हम्म्म्म।" रूपचंद्र ने कुछ सोचने के बाद कहा____"तो जब तुम ये समझ गए थे कि ये बात तुम्हारी मां को पहले से ही पता थी तो क्या फिर तुमने उनसे पूछा नहीं कि रागिनी दीदी के माता पिता उनका ब्याह कहां और किससे करने वाले हैं?"

"वैसे तो मैंने उनसे ये बात पूछी नहीं।" मैंने उलझनपूर्ण भाव से कहा____"लेकिन समझ सकता हूं कि मां को ये बात भला क्यों पता होगी? सीधी सी बात है कि भाभी के माता पिता जहां चाहेंगे वहां अपनी बेटी का ब्याह करेंगे। इस बारे में वो हमें बताना क्यों ज़रूरी समझेंगे?"

"क्यों नहीं समझेंगे?" रूपचंद्र ने जैसे तर्क़ दिया____"रागिनी दीदी अभी भी हवेली की बहू हैं। अब अगर उनकी बहू का फिर से कहीं ब्याह होगा तो उनकी मर्ज़ी के बिना तो होगा नहीं। भले ही वो विधवा हैं लेकिन हैं तो अब भी वो उनकी ही बहू।"

"तुम कहना क्या चाहते हो?" मैं जैसे उलझ सा गया।

"यही कि दादा ठाकुर को अच्छी तरह पता है कि उनकी बहू का ब्याह कहां और किससे होने वाला है।" रूपचंद्र ने पूरे आत्मविश्वास से कहा____"और ये बात तुम्हारी मां को भी पता है और तुम्हें इस लिए नहीं बताया क्योंकि तुमने पूछा ही नहीं।"

"बड़ी अजीब बातें कर रहे हो तुम?" मैं रूपचंद्र की बात से चकित सा हो गया था। मुझे उससे ऐसी बातों की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। मुझे बड़ा अजीब भी लगा, इस लिए पूछा____"तुम्हारी इन बातों से मुझे ऐसा क्यों लग रहा है जैसे तुम भी इस बारे में जानते हो, है ना?"

"मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूंगा वैभव।" रूपचंद्र ने खुद को सम्हालते हुए कहा____"तुमने बिल्कुल सही कहा, मुझे इस बारे में सचमुच पता है लेकिन....।"

"लेकिन???"

"बताऊंगा नहीं।" उसने अजीब भाव से कहा____"बल्कि यही कहूंगा कि या तो तुम अपने माता पिता से पूछो या फिर खुद ही सच का पता लगाओ।"

"भला ये क्या बात हुई?" मैं हैरान होने के साथ साथ बुरी तरह चकरा भी गया____"अगर तुम्हें पता है तो तुम खुद क्यों नहीं बता सकते मुझे?"

"मुझे ग़लत मत समझना वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन इस बारे में मैं तुम्हें कुछ नहीं बता सकता।"

मैं मूर्खों की तरह देखता रह गया उसे। रूपचंद्र के चेहरे पर खेद पूर्ण भाव थे। कुछ देर वो ख़ामोशी से मुझे देखता रहा उसके बाद मेरे कंधे पर हल्के से हाथ की थपकी देने के बाद चला गया। मुझे समझ ना आया कि अब ये क्या चक्कर है?​
 
अध्याय - 143
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"मुझे ग़लत मत समझना वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन इस बारे में मैं तुम्हें कुछ नहीं बता सकता।"

मैं मूर्खों की तरह देखता रह गया उसे। रूपचंद्र के चेहरे पर खेद पूर्ण भाव थे। कुछ देर वो ख़ामोशी से मुझे देखता रहा उसके बाद मेरे कंधे पर हल्के से हाथ की थपकी देने के बाद चला गया। मुझे समझ ना आया कि अब ये क्या चक्कर है?

अब आगे....


रसोई में रागिनी अपनी भाभी वंदना का खाना बनाने में हाथ बंटा रही थी। यूं तो घर में उसे कोई भी काम करने के लिए नहीं कहता था लेकिन उसे खुद ही अच्छा नहीं लगता था कि वो बैठ के सिर्फ खाना खाए। पहले भी उसे काम करना बेहद पसंद था और आज भी वो खाली बैठना पसंद नहीं करती थी।

कुछ समय पहले तक सब ठीक ही था लेकिन फिर एक दिन उसके ससुर यानि दादा ठाकुर यहां आए। उन्होंने उसके पिता से उसके ब्याह के संबंध में जो भी बातें की उसके बारे में जान कर उसे बड़ा झटका लगा था। पहले तो ये बात उसे अपनी भाभी वंदना ने ही बताया और फिर रात में उसकी मां ने बताया। रागिनी के लिए वो सारी बातें ऐसी थीं कि उसके बाद से जैसे उसका हंसना मुस्कुराना ही बंद हो गया था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उसके ससुर उसका फिर से ब्याह करने की चर्चा करने उसके पिता के पास आए थे। बात अगर सिर्फ इतनी ही होती तो कदाचित उसे इतना झटका नहीं लगता किंतु झटके वाली बात ये थी कि उसके ससुर उसका ब्याह उसके ही देवर से करने की बात बोले थे।

रागिनी के लिए ये बात किसी झटके से कम नहीं थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसके ससुर ऐसा कैसे चाह सकते थे और उसके खुद के पिता भी उनकी इस बात को मंजूरी कैसे दे सकते थे? अब क्योंकि वो खुद किसी से इस बारे में कुछ कह नहीं सकती थी इस लिए अंदर ही अंदर वो इस बात से परेशान हो गई थी। दो तीन दिन तक यही आलम रहा लेकिन फिर उसकी मां के समझाने पर वो थोड़ा सामान्य होने लगी थी। हालाकि अंदर से वो अभी भी बेचैन थी।

वैभव को उसने देवर के साथ साथ हमेशा ही अपना छोटा भाई समझा था। वो अच्छी तरह जानती थी कि वैभव कैसे चरित्र का लड़का है इसके बाद भी वो ये समझती थी कि वैभव ने कभी उसे ग़लत नज़र से नहीं देखा था। हालाकि ये सिर्फ उसका सोचना ही था क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी के अंदर की बात पूर्ण रूप से नहीं जान रहा होता है, ये तो बस उसका विश्वास था।

"अब इतना भी मत सोचो रागिनी।" वंदना ने उसे ख़ामोशी से काम करते देखा तो बोल पड़ी____"तुम भी अच्छी तरह समझती हो कि तुम्हारे ससुर जी और तुम्हारे पिता जी तुम्हारी भलाई के लिए ही ऐसा चाहते हैं। सच कहूं तो इस रिश्ते के लिए किसी को भी कोई आपत्ति नहीं है। तुम्हें पता है, तुम्हारे भैया से हर रोज़ मेरी इस बारे में बात होती है। उनका भी यही कहना है कि तुम्हारा वैभव के साथ ब्याह कर देने का फ़ैसला बिल्कुल भी ग़लत नहीं है। देवर से भाभी का ब्याह हो जाना कोई ग़लत नहीं है। ऐसा तो हमेशा से होता आया है।"

"मैं दुबारा ब्याह करने से इंकार नहीं कर रही भाभी।" रागिनी ने गंभीर भाव से कहा____"मैं सिर्फ ये कह रही हूं कि वैभव से ही क्यों? जिसे अब तक मैं अपने देवर के साथ साथ अपना छोटा भाई समझती आई हूं उसे एकदम से पति की नज़र से कैसे देखने लगूं? आप लोगों ने तो कह दिया लेकिन आप लोग ये नहीं समझ रहे हैं कि इस बारे में मैं क्या महसूस करती हूं।"

"ऐसा नहीं है रागिनी।" वंदना ने कहा____"हम सबको एहसास है कि इस रिश्ते के बारे में तुम इस समय कैसा महसूस करती होगी। तुम्हारी जगह मैं होती तो मेरा भी यही कहना होता लेकिन जीवन में हमें इसके अलावा भी कई सारी बातें सोचनी पड़ती हैं। तुम्हारा कहना है कि वैभव से ही क्यों? यानि तुम्हें वैभव से ब्याह करने में आपत्ति है, जबकि नहीं होनी चाहिए। ऐसा इस लिए क्योंकि तुम उसके बारे में पहले से ही सब कुछ जानती हो। तुम जानती हो कि वो तुम्हारी कितनी इज्ज़त करता है और कितनी फ़िक्र करता है। तुम्हीं ने बताया था कि वो तुम्हारे होठों पर मुस्कान लाने के लिए क्या क्या करता रहता है। सोचने वाली बात है रागिनी कि जो व्यक्ति तुम्हारी खुशी के लिए इतना कुछ करता हो और तुम्हें इतना चाहता हो उससे ब्याह करने से इंकार क्यों? किसी दूसरे व्यक्ति से ब्याह करने का सोचती हो तो बताओ क्या वो व्यक्ति वैभव की तरह तुम्हें मान सम्मान देगा? क्या वो वैभव की तरह तुम्हें चाहेगा और क्या उसके घर वाले तुम्हें अपने घर की शान बना लेंगे?"

रागिनी कुछ बोल ना सकी किंतु चेहरे से स्पष्ट नज़र आ रहा था कि उसके मन में बहुत कुछ चल रहा था। वंदना कुछ देर तक उसे देखती रही।

"मैं जानती हूं कि तुमने अपने जीवन में कभी किसी लड़के का ख़याल भी अपने मन में नहीं लाया था।" फिर उसने रागिनी के दोनों कन्धों को पकड़ कर बड़े स्नेह से कहा____"तुम्हारे जीवन में जो आया वो सिर्फ तुम्हारा पति ही था। यही वजह है कि तुम किसी और के बारे में ऐसा सोचना ही नहीं चाहती, ख़ास कर वैभव के बारे में। तुम भी जानती हो कि शादी से पहले लड़का लड़की एक दूसरे के लिए अजनबी ही होते हैं। दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति कई तरह की आशंकाएं रहती हैं। ख़ास कर लड़की ये सोच कर परेशान हो जाती है कि जाने कैसा होगा उसका होने वाला पति और फिर आगे जाने क्या होगा? लेकिन जब दोनों की शादी हो जाती है और दोनों साथ रहने लगते हैं तो मन की सारी आशंकाएं अपने आप ही दूर होती चली जाती हैं। एक वक्त ऐसा आता है जब दोनों को एक दूसरे से बेहद लगाव हो जाता है और फिर दोनों को ये भी लगने लगता है जैसे वो दोनों एक दूसरे के लिए ही बने थे। तुम्हारे लिए तो सबसे अच्छी बात यही है कि तुम अपने होने वाले पति के बारे में पहले से ही सब कुछ जानती हो। सबसे बड़ी बात ये जानती हो कि वो तुम्हें कितना चाहता है और तुम्हारी कितनी फ़िक्र करता है। एक औरत को इससे ज़्यादा और क्या चाहिए होता है? भूल जाओ कि तुम वैभव की भाभी हो या वैभव तुम्हारा देवर है। मन में सिर्फ ये रखो कि वो एक ऐसा लड़का है जिससे तुम्हारा ब्याह होना है।"

"यही तो नहीं कर पा रही भाभी।" रागिनी ने जैसे आहत हो कर कहा____"उसके बारे में एक पल में सब कुछ भूल जाना आसान नहीं है। मेरा तो ये सोच कर हृदय कांप जाता है कि जब उसे सच का पता चलेगा तो क्या सोचेगा वो मेरे बारे में? अगर उसने एक पल के लिए भी मेरे बारे में ग़लत सोच लिया तो कैसे नज़रें मिला पाऊंगी उससे?"

"ऐसा सिर्फ तुम सोचती हो रागिनी।" वंदना ने कहा____"ऐसा भी तो हो सकता है कि वो तुम्हारे बारे में ऐसा कुछ सोचे ही नहीं बल्कि ये सोच ले कि वो कितना किस्मत वाला है जो उसके जीवन में तुम जैसी लड़की पत्नी के रूप में मिलने वाली है। आख़िर तुम्हारी अच्छाईयां और तुम्हारी खूबियों के बारे में तो उसे पता ही है। मुझे पूरा यकीन है कि जब उसे इस सच का पता चलेगा तो वो सपने में भी तुम्हारे बारे में ग़लत नहीं सोचेगा। बल्कि यही सोचेगा कि अब वो पूरे हक़ से और पूरी आज़ादी के साथ तुम्हें खुश रखने का प्रयास कर सकेगा। हां रागिनी, जितना कुछ तुमने उसके बारे में मुझे बताया है उससे मैं पूरे यकीन के साथ कह सकती हूं कि वैभव इस रिश्ते को ख़ुशी से स्वीकार करेगा और ब्याह के बाद तुम्हें बहुत खुश रखेगा।"

रागिनी के समूचे बदन में झुरझूरी सी दौड़ गई। उसे बड़ा अजीब लग रहा था। चेहरे पर अभी भी पहले जैसी गंभीरता और उदासी छाई हुई थी।

"एक बार अपने सास ससुर के बारे में भी सोचो रागिनी।" वंदना ने कुछ सोचते हुए कहा____"तुम्हीं बताया करती थी ना कि वो दोनों तुम्हें बहू नहीं बल्कि अपनी बेटी मानते हैं और तुम्हें अपनी हवेली की शान समझते हैं। इसी से ज़ाहिर होता है कि वो तुम्हें कितना चाहते हैं। वैभव से तुम्हारा ब्याह करवा देने के पीछे उनकी यही भावना है कि तुम हमेशा उनकी बेटी बन कर उनकी हवेली की शान ही बनी रहो और साथ ही फिर से सुहागन बनने के बाद एक खुशहाल जीवन जियो। मानती हूं कि इतनी कम उमर में तुम्हें विधवा बना कर ऊपर वाले ने तुम्हारे साथ अच्छा नहीं किया है लेकिन मैं ये भी मानती हूं कि तुम बहुत भाग्यशाली हो जो तुम्हें इतने अच्छे सास ससुर मिले हैं जो सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे हितों के बारे में सोचते हैं। वरना मैंने ऐसे भी लोग देखे और सुने हैं जो अपनी बहू के विधवा हो जाने पर उसे नौकरानी बना कर सारा जीवन उसे दुख देते रहते हैं। शायद यही सब पिता जी ने और तुम्हारे भैया ने भी सोचा होगा। माना कि तुम्हारे सास ससुर ऐसे नहीं हैं लेकिन कोई भी माता पिता ये नहीं चाहते कि उनकी बेटी विधवा के रूप में जीवन भर कष्ट सहे। तुम्हारा फिर से ब्याह करने की बात तुम्हारे अपने सास ससुर ने की है। ज़ाहिर है वो भी ऐसा नहीं चाहते और फिर जब उन्होंने यहां आ कर पिता जी से इस रिश्ते की बात कही तो पिता जी भी झट से मान गए थे। इस डर से नहीं कि तुम्हारा क्या होगा बल्कि इस खुशी में कि अपनी बेटी का जिस तरह से भला वो खुद चाहते थे वैसा उनकी बेटी के सास ससुर खुद ही चाहते हैं। तुम्हीं सोचो कि आज के युग में ऐसे महान सास ससुर कहां मिलते हैं जो अपनी बहू के बारे में इतना कुछ सोचें?"

"हां ये तो आप सही कह रही हैं।" रागिनी ने सिर हिलाते हुए धीमें से कहा____"इस मामले में मेरे सास ससुर बहुत अच्छे हैं। उन्होंने कभी भूल से भी किसी तरह का मुझे कोई कष्ट नहीं दिया। इतना कुछ हो जाने के बाद भी उन्होंने मुझे किसी बात का ताना नहीं मारा बल्कि मेरे दुख से दुखी हो कर हमेशा मुझे अपने सीने से लगाए रखा था।"

"इसी लिए तो कहती हूं रागिनी कि तुम बहुत भाग्यशाली हो।" वंदना ने कहा____"पूर्व जन्म में तुमने ज़रूर बहुत अच्छे कर्म किए थे जिसके चलते इस जन्म में तुम्हें इतने अच्छे सास ससुर मिले हैं। पति में भी कोई ख़राबी नहीं थी, वो तो उन बेचारे की किस्मत ही ख़राब थी जिसके चलते ऊपर वाले ने उन्हें अपने पास बुला लिया। तुम्हारे देवर के बारे में तुमसे बेहतर कौन जान सकता है? सच तो ये है कि तुम्हारे ससुराल में हर कोई बहुत अच्छा है। इस लिए मैं तो यही कहूंगी कि तुम अब कुछ भी मत सोचो, ईश्वर ने तुम्हारी खुशियां छीनी थी तो उसने फिर से तुम्हें खुशियां देने के लिए इस तरह का रिश्ता भेज दिया है। इसे ख़ुशी ख़ुशी क़बूल करो और वैभव के साथ जीवन में आगे बढ़ जाओ।"

अभी रागिनी कुछ कहने ही वाली थी कि तभी रसोई में कामिनी आ गई। उसने बताया कि पिता जी और भैया खेतों से आ गए हैं और हाथ मुंह धोने के बाद जल्दी ही बरामदे में खाना खाने के लिए आ जाएंगे। कामिनी की इस बात के बाद वंदना और रागिनी जल्दी जल्दी थाली सजाने की तैयारी करने लगीं।

✮✮✮✮

रूपचंद्र के जाने के बाद मेरे मन में विचारों का जैसे बवंडर सा उठ खड़ा हुआ था। वो तो चला गया था लेकिन मुझे उलझा गया था। मैं सोचने लगा था कि आख़िर कौन से सच की बात कर रहा था वो और तो और वो ख़ुद क्यों नहीं बता सकता था? आख़िर ऐसा कौन सा सच होगा जिसे मैं अपने माता पिता से ही जान सकता था?

दोपहर तक मैं इसी तरह विचारों में उलझा रहा और मजदूरों को काम करते हुए देखता रहा। उसके बाद मैं खाना खाने के लिए मोटर साईकिल में बैठ कर हवेली की तरफ चल पड़ा। मन ही मन फ़ैसला कर लिया कि मौका मिलते ही मां से पूछूंगा कि अभी ऐसा क्या है जिसे उन्होंने मुझे नहीं बताया है?

हवेली पहुंचा तो देखा पिता जी खाना खाने बैठ चुके थे। मुंशी किशोरी लाल भी बैठा हुआ था। मुझे आया देख मां ने मुझे भी हाथ मुंह धो कर बैठ जाने के लिए कहा। मैं फ़ौरन ही हाथ मुंह धो के आया और कुर्सी पर बैठ गया। कुसुम और कजरी खाना परोसने लगीं। खाना खाने के दरमियान हमेशा की ही तरह ख़ामोशी रही। पिता जी को खाते वक्त बातें करना बिल्कुल भी पसंद नहीं था।

खाना पीना कर के जब पिता जी और मुंशी जी चले गए तो मैंने मां की तरफ देखा। मुझे पिता जी और मुंशी जी की तरह कुर्सी से उठ कर न गया देख मां समझ गईं कि कोई बात है जिसके चलते मैं अभी भी कुर्सी पर बैठा हुआ था।

"क्या हुआ बेटा?" मां ने मेरे क़रीब आ कर बड़े स्नेह से कहा____"भोजन तो कर चुका है तू, फिर बैठा क्यों है? आराम नहीं करना है क्या तुझे?"

"आराम बाद में कर लूंगा मां।" मैंने कहा____"इस वक्त मुझे आपसे कुछ जानना है और उम्मीद करता हूं कि आप मुझे सब कुछ सच सच बताएंगी।"

मेरी बात सुन कर मां मेरी तरफ बड़े ध्यान से देखने लगीं। कजरी तो जूठे बर्तन उठा कर चली गई थी लेकिन कुसुम मेरी बात सुन कर ठिठक गई थी और उत्सुक भाव से हमारी तरफ देखने लगी थी।

"क्या जानना चाहता है तू?" इधर मां ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"तेरी भाभी के बारे में तो मैंने तुझे कल ही बता दिया था, फिर अब क्या जानना चाहता है?"

"वही जो आपने नहीं बताया।" मैंने मां की तरफ ध्यान से देखते हुए कहा____"और मुझे लगता है कि अभी भी आपने मुझसे कुछ छुपा रखा है।"

"अपने कमरे में जा।" मां ने गहरी सांस ले कर कहा____"मैं आती हूं थोड़ी देर में।"

"ठीक है।" मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा____"जल्दी आइएगा।"

कहने के साथ ही मैं तो अपने कमरे की तरफ चला गया किंतु पीछे मां एकदम से परेशान हो उठीं थी। कुछ पलों तक जाने वो क्या सोचती रहीं फिर खुद को सम्हालते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ चलीं। जल्दी ही वो कमरे में पहुंच गईं। कमरे में पिता जी पलंग पर आराम करने के लिए लेट चुके थे। कमरे में आते ही मां ने कमरे का दरवाज़ा बंद कर दिया। ये देख पिता जी के चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे।

"क्या हुआ?" वो पूछ ही बैठे____"आपको भोजन नहीं करना क्या?"

"बाद में कर लेंगे।" उन्होंने पिता जी के क़रीब जा कर कहा____"इस वक्त एक समस्या हो गई है।"

"स...समस्या??" पिता जी चौंके____"ये क्या कह रही हैं आप?"

"लगता है हमारे बेटे को शक हो गया है।" मां ने चिंतित भाव से कहा____"अभी अभी वो हमसे कोई बात जानने की बात कह रहा था और ये भी कह रहा था कि हमने अभी भी उससे कुछ छुपाया है।"

"क्या उसने स्पष्ट रूप से आपसे ऐसा कुछ कहा है?" पिता जी ने पूछा____"क्या आपको लगता है कि वो रागिनी बहू के बारे में आपसे जानने की बात कह रहा था?"

"पता नहीं।" मां ने कहा____"लेकिन जिस अंदाज़ में बोल रहा था उससे तो यही लगता है कि वो रागिनी बहू के बारे में ही जानना चाहता है।"

मां की इस बात पर पिता जी फ़ौरन कुछ ना बोले। उनके चेहरे पर सोचने वाले भाव उभर आए थे। मां बेचैनी से उन्हें ही देखे जा रहीं थी।

"क्या सोचने लगे आप?" फिर उन्होंने कहा____"कुछ बोल क्यों नहीं रहे हैं? हमने उसे कमरे में जाने को कह दिया है और ये भी कहा है कि आते हैं थोड़ी देर में। ज़ाहिर है वो हमारी प्रतीक्षा करेगा। समझ में नहीं आ रहा कि अगर उसने रागिनी बहू के बारे में ही पूछेगा तो क्या बताएंगे उसे?"

"हमें लगता है कि सच बताना ही पड़ेगा उसे।" पिता जी ने गहरी सांस ले कर कहा____"इस बात को ज़्यादा समय तक उससे छुपा के भी नहीं रख सकते। वैसे भी जो कुछ उसे बताया गया है उससे वो परेशान और दुखी ही होगा। इस लिए बेहतर है कि उसे सच ही बता दिया जाए।"

"क्या आपको लगता है कि सच जानने के बाद वो चुप बैठेगा?" मां ने कहा____"पहले ही वो अनुराधा की मौत हो जाने से टूट सा गया था और बड़ी मुश्किल से उसके सदमे से बाहर आया है। अगर उसे ये बात बताएंगे तो जाने क्या सोच बैठे वो और फिर जाने क्या करने पर उतारू हो जाए?"

"हम मानते हैं कि उसको सच बताना ख़तरा मोल लेने जैसा है।" पिता जी ने कहा____"लेकिन एक दिन तो उसे बताना ही पड़ेगा इस सच को। वैसे हमारा ख़याल है कि अगर आप उसे बेहतर तरीके से समझाएंगी तो शायद वो समझ जाएगा। आप उसे ये भी बता सकती हैं कि ये सब कुल गुरु की भविष्यवाणी के अनुसार ही हो रहा है।"

"कुल गुरु का नाम लेंगे तो वो भड़क जाएगा।" मां ने झट से कहा____"पहले भी वो अपने बड़े भाई की भविष्यवाणी वाली बात से उन पर बिगड़ गया था।"

"तो फिर आप उसे समझाइएगा कि इसी में सबका भला है।" पिता जी ने कहा____"ख़ास कर उसकी भौजाई का। अगर वो चाहता है कि उसकी भौजाई हमेशा खुश रहे और इसी हवेली में रहे तो उसे इस रिश्ते को स्वीकार करना ही होगा।"

पिता जी की इस बात पर मां कुछ देर तक उन्हें देखतीं रहीं। इतना तो वो भी समझती थीं कि एक दिन सच का पता वैभव को चलेगा ही तो बेहतर है आज ही बता दिया जाए। वैसे उन्हें यकीन था कि अपनी भाभी की ख़ुशी के लिए उनका बेटा ज़रूर इस रिश्ते को स्वीकार कर लेगा।

"ठीक है फिर।" मां ने जैसे निर्णायक अंदाज़ से कहा____"हम जा कर उसे सच बता देते हैं। अब जो होगा देखा जाएगा।"

✮✮✮✮

मैं पलंग पर लेटा बड़ी शिद्दत से मां का इंतज़ार कर रहा था। मन में तरह तरह के ख़याल उभर रहे थे जिसकी वजह से मेरी बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। तभी खुले दरवाज़े पर मां नज़र आईं। उन्हें देखते ही मैं उठ कर बैठ गया। उधर वो कमरे में दाख़िल हो कर मेरे पास आईं और पलंग पर बैठ गईं। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंची हुई थीं।

"आने में बड़ी देर लगा दी आपने?" मैंने व्याकुल भाव से कहा____"ख़ैर अब बताइए कि मुझसे और क्या छुपाया है आपने?"

"मैं तुझे सच बता दूंगी।" मां ने कहा____"लेकिन उससे पहले मैं तुझसे कुछ पूछना चाहती हूं। मैं चाहती हूं कि मैं तुझसे जो भी पूछूं उसका तू पूरी ईमानदारी से सच सच जवाब दे।"

"बिल्कुल दूंगा मां।" मैंने एकदम दृढ़ हो कर कहा____"आप पूछिए, मैं आपको वचन देता हूं कि आप जो कुछ भी मुझसे पूछेंगी मैं उसका सच सच जवाब दूंगा।"

"ठीक है।" मां ने एक लंबी सांस ली____"मैं तुझसे ये जानना चाहती हूं कि तू अपनी भाभी के बारे में क्या सोचता है?"

"य...ये कैसा सवाल है मां?" मैंने हैरानी से उन्हें देखा____"आप अच्छी तरह जानती हैं कि मेरी नज़र में भाभी की क्या अहमियत है। वो इस हवेली की शान हैं। उनके जैसी बहू और भाभी हमारे पास होना बड़े गौरव की बात है।"

"ये मैं जानती हूं।" मां ने कहा____"मैं तुझसे इसके अलावा जानना चाहती हूं। जैसे कि, क्या तू चाहता है कि तेरी भाभी हमेशा इस हवेली की शान बनी रहे? क्या तू चाहता है कि तेरी भाभी अपने जीवन में हमेशा खुश रहे?"

"मुझे समझ नहीं आ रहा कि आप ये कैसे सवाल कर रही हैं?" मैंने थोड़ा परेशान हो कर कहा____"आप अच्छी तरह जानती हैं कि ऐसा इस हवेली में हर कोई चाहता है।"

"मैं हर किसी की नहीं।" मां ने कहा____"बल्कि तेरी बात कर रही हूं। तू अपनी बता कि तू क्या चाहता है?"

"सबकी तरह मैं भी यही चाहता हूं कि मेरी भाभी हमेशा खुश रहें।" मैंने कहा____"उनके जीवन में कभी कोई दुख न आए। भैया के गुज़र जाने के बाद मेरी यही कोशिश थी कि मैं हर वक्त उनके चेहरे पर मुस्कान ला सकूं।"

"सिर्फ इतना ही?" मां ने अजीब भाव से मेरी तरफ देखा।

"और क्या मां?" मैंने कहा____"हम सबसे जितना हो सकता है उतना ही तो कर सकते हैं। काश! इससे ज़्यादा कुछ करना मेरे बस में होता तो मैं वो भी करता उनकी खुशी के लिए।"

"क्या तुझे लगता है कि तेरे बस में सिर्फ इतना ही था?" मां ने बड़े ध्यान से मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"अगर मैं कहूं कि तू उसकी खुशी के लिए और भी बहुत कुछ कर सकता है तो क्या तू करेगा?"

"बिल्कुल करूंगा मां।" मैंने झट से कहा____"अगर मुझे पता चल जाए कि जिस चीज़ से भाभी खुश हो जाएंगी वो दुनिया के फला कोने में है तो यकीन मानिए मैं उस कोने में जा कर वो चीज़ ले आऊंगा और भाभी को दे कर उन्हें खुश करूंगा। अब इससे ज़्यादा क्या कहूं?"

"क्या तू उसकी खुशी के लिए कुछ भी कर सकता है?" मां ने जैसे मुझे परखा।

"हां, अगर मेरे बस में हुआ तो कुछ भी कर जाऊंगा।" मैंने पूरी दृढ़ता से कहा____"आज मैं जो कुछ भी हूं उसमें मेरी भाभी का बहुत बड़ा हाथ है मां। इस लिए अपनी भाभी को खुश करने के लिए कुछ भी कर सकता हूं लेकिन अब शायद ऐसा नहीं कर सकूंगा क्योंकि उनके माता पिता उनका फिर से कहीं ब्याह करने का फ़ैसला कर चुके हैं। अब वो ना आपकी बहू रहेंगी और ना ही मेरी भाभी। इस हवेली से हमेशा के लिए उनका नाता टूट जाएगा।"

"क्या तू चाहता है कि तेरी भाभी कहीं न जाए और इसी हवेली में बहू बन कर रहे?" मां ने पूछा।

"मैं अपने स्वार्थ के लिए उनका जीवन बर्बाद नहीं कर सकता मां।" मैंने सहसा गंभीर हो कर कहा____"उनके लिए यही बेहतर है कि उनका फिर से ब्याह हो जाए ताकि वो अपने पति के साथ जीवन में हमेशा खुश रह सकें।"

"अगर वो फिर से सुहागन बन कर इस हवेली में आ जाए तो क्या वो खुश नहीं रहेगी?" मां ने धड़कते दिल से कहते हुए मेरी तरफ देखा।

"य...ये क्या कह रही हैं आप?" मैं एकदम से चकरा सा गया____"ऐसा भला कैसे हो सकता है?"

"क्यों नहीं हो सकता?" मां ने जैसे तर्क़ दिया____"अगर तू उसे ब्याह करके इस हवेली में ले आएगा तो क्या वो फिर से खुश नहीं हो जाएगी?"

तीव्र झटका लगा मुझे। ऐसा लगा जैसे आसमान से मैं पूरे वेग से धरती पर आ गिरा था। हैरत से आंखें फाड़े मैं देखता रह गया मां को। उधर वो भी चहरे पर हल्के घबराहट के भाव लिए मेरी तरफ ही देखे जा रहीं थी।

"क...क्या हुआ?" फिर उन्होंने कहा____"क्या तू अपनी भाभी की खुशी के लिए उससे ब्याह नहीं कर सकता?"

"य...ये आप क्या बोल रही हैं मां?" मैं सकते जैसी हालत में था____"आप होश में तो हैं? आप ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं?"

"वक्त और हालात इंसान को और भी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देते हैं बेटा।" मां ने जब देखा कि मैं उनकी इस बात से भड़का नहीं हूं तो उन्होंने राहत की सांस लेते हुए कहा____"तुझे बताने की ज़रूरत नहीं है कि रागिनी हमारे लिए क्या मायने रखती है। तू भी जानता है और मानता भी है कि इस हवेली में उसके रहने से हम सब कैसा महसूस करते हैं? ये तो उस बेचारी की बदकिस्मती थी कि उसे इतनी कम उमर में विधवा हो जाना पड़ा लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या हम उसे ऐसे ही सारी जिंदगी यहां रखेंगे और उसे दुख सहता देखेंगे? नहीं बेटा, ऐसा ना हम चाह सकते हैं और ना ही तू। यही सब बातें मैं और तेरे पिता जी अक्सर अकेले में सोचते थे। तब हमने फ़ैसला किया कि हम अपनी बहू को हमेशा खुश रखने के लिए उसका फिर से ब्याह करेंगे। हम ये भी चाहते थे कि वो हमेशा हमारी ही बहू बन कर इस हवेली में रहे और ऐसा तो तभी संभव होगा जब उसका ब्याह हम अपने ही बेटे से यानि तुझसे करें।"

"बड़ी अजीब बातें कर रही हैं आप।" मैंने चकित भाव से कहा____"आप सोच भी कैसे सकती हैं कि मैं अपनी भाभी से ब्याह करने का सोच भी सकता हूं? मैं उनकी बहुत इज्ज़त करता हूं और मेरे लिए वो किसी देवी की तरह पूज्यनीय हैं।"

"मैं जानती हूं बेटा।" मां ने सिर हिलाते हुए कहा____"और उसके प्रति तेरी भावनाओं को भी समझती हूं लेकिन तुझे भी समझना होगा कि ज़रूरत पड़ने पर सबकी भलाई के लिए हमें ऐसे भी काम करने पड़ते हैं जिसे करने के लिए पहली नज़र में हमारा दिल नहीं मानता।"

"लेकिन मां वो मेरी भाभी हैं।" मैंने पुरज़ोर भाव से कहा____"उनके बारे में ऐसा सोचना भी मेरे लिए गुनाह है।"

"देवर का भाभी से ब्याह होना ऐसी बात नहीं है बेटा जिसे समाज मान्यता नहीं देता।" मां ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"दुनिया में ऐसा पहले भी हुआ है और आगे भी ज़रूरत पड़ने पर होता रहेगा। इस लिए तू इस बारे में व्यर्थ की बातें मत सोच। तू जानना चाहता था न कि मैंने तुझसे अभी और क्या छुपाया है तो वो यही है। असल में जब मैंने और तुम्हारे पिता जी ने रागिनी का फिर से ब्याह करने का सोच लिया और ये भी सोच लिया कि हम उसका ब्याह तुझसे ही करेंगे तो हमने इस बारे में सबसे पहले रागिनी के पिता जी से भी चर्चा करने का सोच लिया था। कुछ दिन पहले तेरे पिता जी चंदनपुर गए थे समधी जी से इस बारे में बात करने। जब उन्होंने रागिनी के पिता जी से इस बारे में चर्चा की तो वो भी इस रिश्ते के लिए खुशी खुशी मान गए। उन्हें तो इसी बात से खुशी हुई थी कि हम उनकी बेटी की भलाई के लिए इतना कुछ सोचते हैं।"

मैं अवाक सा देखता रह गया मां को। एकाएक ही मेरे मन मस्तिष्क में धमाके से होने लगे थे। अचानक ही ज़हन में वो बातें गूंजने लगीं जो चंदनपुर में कामिनी से हुईं थी और फिर भाभी से हुईं थी। भाभी का उदास और गंभीर चेहरा मेरी आंखों के सामने उजागर हो गया। उनकी बातें मेरे कानों में गूंजने लगीं।​
 
अध्याय - 144
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मैं अवाक सा देखता रह गया मां को। एकाएक ही मेरे मन मस्तिष्क में धमाके से होने लगे थे। अचानक ही ज़हन में वो बातें गूंजने लगीं जो चंदनपुर में कामिनी से हुईं थी और फिर भाभी से हुईं थी। भाभी का उदास और गंभीर चेहरा मेरी आंखों के सामने उजागर हो गया। उनकी बातें मेरे कानों में गूंजने लगीं।

अब आगे....


ऊपर वाले का खेल भी बड़ा अजब होता है। वो अक्सर कुछ ऐसा कर देता है जिसकी हम इंसान कल्पना भी नहीं किए होते। मैंने सपने में भी कभी ये नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब मुझे अपनी ही भाभी से ब्याह करना होगा। अपनी उस भाभी से जिनके प्रति मेरे मन में आदर और सम्मान तो था ही किंतु एक श्रद्धा भाव भी था। एक वक्त था जब मैं उनके रूप सौंदर्य से सम्मोहित हो कर विचलित होने लगता था। मुझे डर लगने लगता था कि कहीं इस वजह से मुझसे कोई अनर्थ न हो जाए। यही वजह थी कि मैं हमेशा उनसे दूर दूर ही रहा करता था। उसके बाद कुछ ऐसा हो गया जिसने हम सबको हिला कर ही रख दिया।

बड़े भैया गुज़र गए और मेरी भाभी विधवा हो गईं। उन्हें विधवा के लिबास में देख कर हम सब दुखी हो जाते थे। मेरे अंदर ऐसा बदलाव आया कि उसके बाद कभी मेरे मन में उनके प्रति कोई ग़लत ख़याल नहीं उभरा। इसके बाद वक्त कुछ ऐसा आया कि मेरे अंदर का वो वैभव ही ख़त्म हो गया जो सिर्फ अय्याशियों में ही मगन रहता था।

"मैं अपनी रागिनी जैसी बेटी को नहीं खोना चाहती बेटा।" सहसा मां की इस आवाज़ से मैं चौंक कर ख़यालों से बाहर आया। उधर मां भारी गले से कह रहीं थी____"मैं उसे हमेशा के लिए इस हवेली की शान ही बनाए रखना चाहती हूं। उसे खुश देखना चाहती हूं। इस लिए मैं तेरे आगे हाथ जोड़ती हूं कि तू उससे ब्याह करने के लिए हां कह दे।"

"म...मां।" मैंने हड़बड़ा कर मां के हाथों को थाम लिया____"ये क्या कर रही हैं आप? हाथ जोड़ कर अपने बेटे को पापी मत बनाइए।"

"तो मान जा न मेरे लाल।" मां ने नम आंखों से मुझे देखा____"रागिनी से ब्याह करने के लिए हां कह दे।"

"क्या भाभी को भी पता है इस बारे में?" मैंने मां से पूछा।

"हां, उसके माता पिता ने उसे भी सब बता दिया होगा।" मां ने कहा।

"तो क्या वो तैयार हैं इस रिश्ते के लिए?" मैंने हैरानी से उन्हें देखा।

"जब वो तैयार हो जाएगी तो उसके पिता संदेश भिजवा देंगे तेरे पिता जी को।" मां ने कहा____"या फिर वो स्वयं ही यहां आएंगे ख़बर देने।"

"इसका मतलब भाभी इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हैं अभी।" मैंने कहा____"और मुझे यकीन है कि वो तैयार भी नहीं होंगी। मेरी भाभी ऐसी नहीं हैं जो ऐसे रिश्ते के लिए हां कह देंगी।"

"और अगर उसने हां कह दिया तो?" मां ने कहा____"तब तो तू उससे ब्याह करेगा ना?"

"आप बेवजह उनके ऊपर इस रिश्ते को थोप रही हैं मां।" मैंने हताश भाव से कहा____"उन पर ऐसा ज़ुल्म मत कीजिए आप लोग।"

"इस वक्त भले ही तुम्हें या रागिनी को ये ज़ुल्म लग रहा है।" मां ने अधीरता से कहा____"लेकिन मुझे यकीन है कि ब्याह के बाद तुम दोनों इस रिश्ते से खुश रहोगे।"

मुझे समझ ना आया कि क्या कहूं अब? बड़ी अजीब सी परिस्थिति बन गई थी। मुझे तो अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि इतने दिनों से मेरे माता पिता ये सब सोच रहे थे और इतना ही नहीं ऐसा करने का फ़ैसला भी कर चुके थे। हैरत की बात ये कि मुझे इस बात की भनक तक नहीं लगने दी थी।

"ऐसे चुप मत बैठ बेटा।" मां ने मुझे चुप देखा तो कहा____"मुझे बता कि अगर रागिनी इस रिश्ते के लिए मान जाती है तो तू उसके साथ ब्याह करेगा ना?"

"मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा मां।" मैंने हैरान परेशान भाव से कहा____"इस वक्त इस बारे में मैं आपसे कुछ नहीं कहूंगा। मुझे सोचने के लिए समय चाहिए।"

"ठीक है तुझे सोचने के लिए जितना समय चाहिए ले ले।" मां ने कहा____"लेकिन ज़्यादा समय भी मत लगाना।"

"एक बात बताइए।" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"क्या इस बारे में गौरी शंकर को पता है?"

"हां।" मेरी उम्मीद के विपरीत मां ने जब हां कहा तो मैं हैरान रह गया।

मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि इस बारे में सबको पता है लेकिन मुझे ही पता नहीं था। अचानक मुझे रूपा का ख़याल आया तो मैंने मां से कहा____"फिर तो रूपा को भी पता होगा ना इस बारे में?"

"नहीं।" मां ने एक बार फिर मुझे हैरान किया_____"उसको अभी इस बारे में नहीं बताया गया है।"

"ऐसा क्यों?" मैं पूछे बगैर न रह सका।

"असल में हम चाहते थे कि पहले तुम और रागिनी दोनों ही इस रिश्ते के लिए राज़ी हो जाओ।" मां ने कहा____"उसके बाद ही रूपा को इस बारे में बताएंगे। हम जानते हैं कि रूपा एक बहुत ही अच्छी लड़की है, बहुत समझदार है वो। जब उसे इस बारे में बताएंगे तो वो इस बात की गहराई को समझेगी। ख़ास कर रागिनी के बारे में सोचेगी। यही सब सोच कर हमने सिर्फ गौरी शंकर को इस बारे में बता रखा है।"

"बड़े आश्चर्य की बात है।" मैंने गहरी सांस ली____"इतना कुछ सोचा हुआ था आप दोनों ने और मुझसे छुपा के रखा, क्यों?"

"डरते थे कि कहीं तू इस बारे में जान कर नाराज़ ना हो जाए।" मां ने कहा____"दूसरी वजह ये भी थी कि तू अनुराधा की वजह से इस हालत में भी नहीं था कि तू शांति से इस बारे में सुन सके।"

मां के मुख से अनुराधा का नाम सुन कर मेरे अंदर एकाएक टीस सी उठी। आंखों के सामने उसका मासूम चेहरा चमक उठा। पलक झपकते ही मेरे चेहरे पर पीड़ा के भाव उभर आए। सीने में दर्द जाग उठा। फ़ौरन ही आंखें बंद कर के मैंने उस दर्द को जज़्ब करने की कोशिश में लग गया।

"क्या रूपचंद्र को भी इस बारे में बताया था पिता जी ने?" फिर मैंने खुद को सम्हालते हुए पूछा।

"नहीं तो।" मां ने हैरानी ज़ाहिर की____"लेकिन तू ऐसा क्यों कह रहा है?"

"क्योंकि आज वो मुझसे कुछ अजीब सी बातें कर रहा था।" मैंने कहा____"जब मैंने पूछा तो कहने लगा कि वो खुद मुझे कुछ नहीं बता सकता लेकिन हां इस बारे में मैं अपने माता पिता से पूछ सकता हूं।"

"अच्छा तो इसी लिए तू वहां से आते ही मुझसे इस बारे में ऐसा कह रहा था?" मां को जैसे अब समझ आया था____"ख़ैर हो सकता है कि गौरी शंकर ने अपने घर में इस बात का ज़िक्र किया हो जिसके चलते उसे भी इस बारे में पता चल गया होगा।"

"फिर तो रूपा को भी पता चल ही गया होगा।" मैंने जैसे संभावना ब्यक्त की।

"नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।" मां ने मजबूती से इंकार में सिर हिला कर कहा____"तेरे पिता जी ने गौरी शंकर से स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वो इस बारे में रूपा को पता न चलने दें।"

"और ऐसा कब तक रहेगा?" मैंने पूछा।

"उचित समय आने पर उसे भी बता दिया जाएगा।" मां ने पलंग से उतर कर कहा____"फिलहाल हमें चंदनपुर से तेरी भाभी के राज़ी होने की ख़बर की प्रतीक्षा है। उसकी हां के बाद ही हम रूपा को इस बारे में बताएंगे।"

कहने के साथ ही मां मुझे आराम करने का बोल कर कमरे से चली गईं। वो तो चली गईं थी लेकिन मुझे सोचो के भंवर में फंसा गईं थी। मैं बड़ी अजीब सी दुविधा और परेशानी में पड़ गया था।

✮✮✮✮

"आपको क्या लगता है काका?" रूपचंद्र ने गौरी शंकर से मुखातिब हो कर कहा____"सच जानने के बाद वैभव की क्या प्रतिक्रिया होगी?"

"कुछ कह नहीं सकता।" गौरी शंकर ने गहरी सांस ले कर कहा____"लेकिन तुम्हें उससे ऐसे बात नहीं करनी चाहिए थी। तुम्हें समझना चाहिए था कि अभी अभी वो उस लड़की के सदमे से बाहर आया है। ऐसे में उसके सामने इस तरह की बातें करना उचित नहीं था।"

"मैं मानता हूं काका कि उचित नहीं था।" रूपचंद्र ने कहा____"इसी लिए मैंने अपने मुख से उसको सच नहीं बताया।"

"हां लेकिन उसके मन में सच जानने की जिज्ञासा तो डाल ही दी थी ना तुमने।" गौरी शंकर ने कहा____"ऐसे में वो ये सोच कर नाराज़ हो जाएगा कि उसके माता पिता ने उससे कोई सच छुपा के रखा। उसकी नाराज़गी हम सबके लिए भारी पड़ सकती है।"

"आप बेवजह ही इतना ज़्यादा सोच रहे हैं काका।" रूपचंद्र ने कहा____"जबकि मुझे पूरा यकीन है कि ऐसा कुछ नहीं होगा। वैसे भी मुझे लगता है कि उसके मन में सच जानने की उत्सुकता डाल कर मैंने अच्छा ही किया है। इसी बहाने अब वो अपने माता पिता से सच जानने का प्रयास करेगा। उसके माता पिता को भी उसे सब कुछ सच सच बताना ही पड़ेगा। मेरा ख़याल है कि जब वो वैभव को सच बताएंगे तो उसके साथ ही उसे परिस्थितियों का भी एहसास कराएंगे। वो उसे समझाएंगे कि वो जो कुछ भी करना चाहते हैं उसी में सबका भला है, ख़ास कर उसकी भाभी का। इतना तो वो लोग भी जानते हैं कि वैभव अपनी भाभी को कितना मानता है और उनकी ख़ुशी के लिए कुछ भी कर सकता है।"

"शायद रूप ठीक कह रहा है गौरी।" ललिता देवी ने कहा____"मानती हूं कि उसे सच बताने का ये सही वक्त नहीं था लेकिन अब जो हो गया उसका क्या कर सकते हैं? वैसे भी मुझे पूर्ण विश्वास है कि अगर वैभव को सच का पता उसकी अपनी मां के द्वारा चलेगा तो ज़्यादा बेहतर होगा। ठकुराईन बहुत ही प्यार से अपने बेटे को इस सबके बारे में समझा सकती हैं और वैभव भी उनकी बातों को शांत मन से सुन कर समझने की कोशिश करेगा।"

"ललिता सही कह रही है।" फूलवती ने कहा____"मेरा भी यही मानना है कि वैभव की मां इस बारे में अपने बेटे को बहुत अच्छी तरह से समझा सकती हैं और उसे अपनी भाभी से ब्याह करने के लिए मना भी सकती हैं।"

"अगर ऐसा हो जाए तो अच्छा ही है।" गौरी शंकर ने कहा____"मैं आज शाम को दादा ठाकुर से मिलने हवेली जाऊंगा और ये जानने का प्रयास करूंगा कि इस बारे में उन्होंने वैभव से बात की है या नहीं?"

"इस बारे में तो मैं खुद ही पता कर लूंगा काका।" रूपचंद्र ने झट से कहा____"कुछ देर में वैभव वापस काम धाम देखने आएगा तो मैं किसी बहाने उससे इस बारे में पता कर लूंगा।"

"हां ये भी ठीक है।" गौरी शंकर ने कहा____"लेकिन उससे कुछ भी पूछने से पहले ये ज़रूर परख लेना कि उसकी मानसिक अवस्था कैसी है? ऐसा न हो कि वो तुम्हारे द्वारा कुछ पूछने पर बिगड़ जाए।"

"फ़िक्र मत कीजिए काका।" रूपचंद्र ने कहा____"मैं इस बात का अंदाज़ा लगा लेने के बाद ही उससे इस बारे में बात करूंगा।"

कुछ देर और इसी संबंध में उनकी बातें हुईं उसके बाद दोनों औरतें अंदर चली गईं जबकि रूपचंद्र और गौरी शंकर पलंग पर लेट कर आराम करने लगे। दोनों चाचा भतीजे खाना खा चुके थे।

✮✮✮✮

मैं हवेली से आराम करने के बाद वापस उस जगह पर आ गया था जहां पर अस्पताल और विद्यालय का निर्माण कार्य चल रहा था। सारे मज़दूर और मिस्त्री भी अपने अपने घरों से लाया हुआ खाना खा चुके थे और अब फिर से काम पर लग गए थे। निर्माण कार्य बड़े उत्साह से और बड़ी तेज़ गति से चल रहा था।

मैं देवी मां के मंदिर के पास ही एक पेड़ के पास रखी एक लकड़ी की कुर्सी पर बैठा हुआ था। मेरी नज़रें ज़रूर लोगों पर टिकी हुईं थी लेकिन मेरा मन कहीं और ही उलझा हुआ था। बार बार ज़हन में मां की बातें गूंजने लगती थीं और मैं ना चाहते हुए भी उन बातों के बारे में सोचने लगता था।

मैंने सपने में भी ये उम्मीद अथवा कल्पना नहीं की थी कि ऐसा भी कभी होगा। बार बार आंखों के सामने भाभी का उदास और गंभीर चेहरा उजागर हो जाता था। मैं सोचने पर मजबूर हो जाता कि क्या इसी वजह से कल भाभी इतना उदास और गंभीर नज़र आ रहीं थी? मतलब उन्हें भी इस रिश्ते के बारे में पता चल चुका था और इसी लिए वो मेरे सामने इतनी उदास अवस्था में खड़ी बातें कर रहीं थी।

अचानक ही मेरे मन में सवाल उभरा कि अगर उन्हें पहले से ही इस बारे में पता था तो उन्होंने कल मुझसे इस बारे में कुछ कहा क्यों नहीं? वो उदास तथा गंभीर ज़रूर थीं लेकिन मुझसे सामान्य भाव से ही बातें कर रहीं थी, ऐसा क्यों? अपने इन सवालों का जवाब मैं सोचने लगा। जल्दी ही जवाब के रूप में मेरे ज़हन में सवाल उभरा____'क्या वो उस समय मेरे मन की टोह ले रहीं थी?'

जवाब के रूप में ज़हन में उभरा ये सवाल ऐसा था जिसने मेरे समूचे जिस्म में झुरझुरी सी पैदा कर दी। मैं सोचने लगा कि क्या सच में वो ये देखना चाहती थीं कि मेरे मन में क्या है?

अचानक मेरे मन में ख़याल उभरा कि क्या वो मुझसे ब्याह करने के लिए राज़ी हो गई होंगी? इस ख़याल के एहसास ने एक बार फिर से मेरे समूचे जिस्म में झुरझुरी सी पैदा कर दी। मेरे मन में फिर से सवाल उभरा कि क्या सचमुच मेरी भाभी मुझसे यानि अपने देवर से शादी करने का सोच सकती हैं?

मैं अपने मन में उभरते सवालों और ख़यालों के चलते एकाएक बुरी तरह उलझ गया था। मुझे पता ही न चला कि कब वक्त गुज़रा और रूपचंद्र आ कर मेरे पास ही खड़ा हो गया था। होश तब आया जब उसने मेरा कंधा पकड़ कर मुझे हिलाया।

"क्या हुआ भाई?" रूपचंद्र ने मुस्कुराते हुए एकाएक मज़ाकिया भाव से पूछा____"मेरी बहन के अलावा और किसके ख़यालों में खोए हुए हो तुम?"

"न...नहीं तो।" मैं बुरी तरह बौखला गया, खुद को सम्हालते हुए कहा____"ऐसी तो कोई बात नहीं है। तुम बताओ कब आए?"

"मुझे आए हुए तो काफी समय हो गया।" रूपचंद्र ने मुझे बड़े ध्यान से देखते हुए कहा____"तुम्हारे पास ही खड़ा था और ये देखने में लगा हुआ था कि तुम बैठे तो यहीं पर हो लेकिन तुम्हारा मन जाने कहां था। मैं सही कह रहा हूं ना?"

"ह...हां वो मैं कुछ सोच रहा था।" मैंने काफी हद तक खुद को सम्हाल लिया था____"मैं सोच रहा था कि जब हमारे गांव में अस्पताल और विद्यालय बन कर तैयार हो जाएंगे तो लोगों को बहुत राहत हो जाएगी। ग़रीब लोग सहजता से इलाज़ करा सकेंगे। उनके बच्चे विद्यालय में पढ़ने लगेंगे तो उनके बच्चों का जीवन और व्यक्तित्व काफी निखर जाएगा।"

"ये तो तुमने बिल्कुल सही कहा।" रूपचंद्र ने सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा है कि तुम ये सब नहीं सोच रहे थे।"

रूपचंद्र की इस बात पर मैं चकित भाव से उसे देखने लगा। उधर वो भी कम्बख़्त मुझे ही देखे जा रहा था। कोई और परिस्थिति होती तो मैं हर्गिज़ उससे नज़रें चुराने वाला नहीं था लेकिन इस वक्त मैंने ख़ुद महसूस किया कि मेरी हालत उससे कमज़ोर है।

"मेरी बात का बुरा मत मानना वैभव।" फिर उसने थोड़ा संजीदा हो कर कहा____"असल में जिस तरह तुम यहां बैठे कहीं खोए हुए थे उससे मैं समझ गया था कि तुम्हें वो सच पता चल चुका है जिसे मैं खुद तुम्हें नहीं बता सकता था। ख़ैर, अगर सच में ही तुम्हें सच का पता चल चुका है तो तुम्हें मुझसे कुछ भी छुपाने की ना तो ज़रूरत है और ना ही मुझसे नज़रें चुराने की।"

मुझे समझ ना आया कि क्या कहूं उससे? बड़ा अजीब सा महसूस करने लगा था मैं। सबसे ज़्यादा मुझे ये सोच कर अजीब लगने लगा था कि वो और उसके घर वाले क्या सोच रहे होंगे इस रिश्ते के बारे में।

"ऐसे उतरा हुआ चेहरा मत बनाओ यार।" रूपचंद्र ने मेरे कंधे को हल्के से दबाते हुए जैसे दिलासा दी____"अब तुम्हारे और हमारे बीच कुछ भी पराया नहीं है। तुम्हारा दुख हमारा दुख है और तुम्हारा सुख हमारा सुख है। तुमसे ही सब कुछ है, तुम जो भी करोगे उसका हम पर भी असर होगा। इस लिए व्यर्थ का संकोच छोड़ दो और जो भी मन में हो खुशी मन से साझा करो। एक बात मैं तुम्हें बता देना चाहता हूं कि मैं और मेरे घर वालों को अब किसी भी बात से कोई एतराज़ नहीं है। यूं समझो कि तुम्हारी खुशी में ही हम सबकी खुशी है। अब इससे ज़्यादा क्या कहूं?"

"मतलब तुम्हें या तुम्हारे घर वालों को इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मेरे माता पिता मेरा ब्याह तुम्हारी बहन के साथ साथ मेरी ही भाभी से कर देना चाहते हैं?" मैंने जैसे एक ही सांस में सब कह दिया।

"सच कहूं तो पहली बार जब इस बारे में काका से पता चला था तो हम सबको थोड़ा बुरा लगा था।" रूपचंद्र ने गंभीर हो कर कहा____"लेकिन काका ने जब इस रिश्ते के संबंध में पूरी बात विस्तार से बताई तो हम सबको एहसास हुआ कि ऐसा होना कहीं से भी ग़लत नहीं है। पहले भी तो तुम अनुराधा से ब्याह करना चाहते थे। हमें अनुराधा से भी कोई समस्या नहीं थी, ये तो फिर भी तुम्हारी अपनी भाभी हैं। अगर तुम्हारे द्वारा उनका जीवन संवर सकता है और वो अपने जीवन में हमेशा खुश रह सकती हैं तो ये अच्छी बात ही है।"

"बात तो ठीक है रूपचंद्र।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"लेकिन अपनी भाभी से ब्याह करने की बात सोच कर ही मुझे बड़ा अजीब सा लगता है। तुम तो जानते हो कि सबको मेरे चरित्र के बारे में पता है और इस वजह से लोगों को जब ये पता चलेगा कि मेरे माता पिता मेरा ब्याह तुम्हारी बहन के साथ साथ अपनी ही बहू से कर देना चाहते हैं तो जाने वो लोग क्या क्या सोच बैठेंगे। मुझे अपने ऊपर लोगों द्वारा खीचड़ उछाले जाने पर कोई एतराज़ नहीं होगा लेकिन अगर लोग मेरी भाभी के चरित्र पर कीचड़ उछालने लगेंगे तो मैं बर्दास्त नहीं कर सकूंगा। तुम अच्छी तरह जानते हो कि मेरी भाभी का चरित्र गंगा मैया की तरह स्वच्छ और पवित्र रहा है। ये उनकी बदकिस्मती ही थी कि उनके पति गुज़र गए और वो विधवा हो गईं, लेकिन मैं ये हर्गिज़ सहन नहीं करूंगा कि लोग इस रिश्ते के चलते उनके चरित्र पर सवाल उठाने लगें।"

"लोग तो भगवान पर भी कीचड़ उछाल देते हैं वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"इंसानों की तो बात ही मत करो। मैं तो यही कहूंगा कि तुम लोगों के बारे में मत सोचो बल्कि सिर्फ अपनी भाभी के बारे में सोचो। उनकी ज़िंदगी संवारने के बारे में सोचो। अगर तुम्हें भी लगता है कि तुमसे ब्याह हो जाने के बाद उनका जीवन संवर जाएगा और वो खुश रहने लगेंगी तो तुम इस रिश्ते को स्वीकार कर लो। सच कहूं तो मैं भी चाहता हूं कि उनका जीवन संवर जाए। विधवा के रूप में इतना लंबा जीवन गुज़ारना बहुत ही कठिन होगा उनके लिए।"

"और तुम्हारी बहन का क्या?" मैंने धड़कते दिल से उससे पूछा____"पहले भी अनुराधा की वजह से उसने खुद को समझाया था और अब फिर से वही किस्सा? पहले तो मैंने अपनी मूर्खता के चलते उसके साथ नाइंसाफी की थी लेकिन अब जान बूझ कर कैसे उसके साथ अन्याय करूं? आख़िर और कितना उसे अपने प्रेम के चलते समझौता करना पड़ेगा?"

"मेरी बहन के बारे में तुम्हारा ऐसा सोचना ही ये साबित करता है कि तुम्हें उसके प्रेम का और उसकी तकलीफ़ों का एहसास है।" रूपचंद्र ने कहा____"और सच कहूं तो तुम्हारे मुंह से अपनी बहन के लिए ये फिक्रमंदी देख कर मुझे बहुत अच्छा लगा है। लेकिन तुम शायद अभी भी मेरी बहन को अच्छे से समझे नहीं हो। अगर समझे होते तो ये भी समझ जाते कि उसे इस रिश्ते से भी कोई समस्या नहीं होगी। जैसे उसने अनुराधा को ख़ुशी ख़ुशी क़बूल कर लिया था वैसे ही अब वो रागिनी दीदी को भी ख़ुशी से क़बूल कर लेगी।"

"तुम्हारी बहन बहुत महान है रूपचंद्र।" मैंने सहसा संजीदा हो कर कहा____"इतना कुछ होने के बाद भी उसके दिल से मेरे प्रति उसका प्रेम नहीं मिटा। अनुराधा की मौत के बाद जब मैं गहरे सदमे में चला गया था तो उसने जिस तरह से मुझे उसके दुख से निकाला उसे शब्दों में बयान नहीं कर सकता मैं। मेरे लिए उसने जितना त्याग और जितना समझौता किया है उतना इस संसार में दूसरा कोई नहीं कर सकता। मैं इस जन्म में ही नहीं बल्कि अपने हर जन्म में उसका ऋणी रहूंगा। अक्सर सोचता हूं कि मेरे जैसे इंसान के नसीब में ऊपर वाले ने इतनी अच्छी लड़कियां क्यों लिखी थी? भला मैंने अपने जीवन में कौन से ऐसे अच्छे कर्म किए थे जिसके चलते मुझे रूपा और अनुराधा जैसी प्रेम करने वाली लड़कियां नसीब हुईं?"

"ऊपर वाले की लीला वही जाने वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"हम इंसान तो बस यही कह सकते हैं कि ये सब किस्मत की ही बातें हैं। ख़ैर छोड़ो और ये बताओ कि अब क्या सोचा है तुमने? मेरा मतलब है कि क्या तुम अपनी भाभी से ब्याह करने के लिए राज़ी हो?"

"सच कहूं तो मुझे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा भाई।" मैंने बेचैन भाव से कहा____"जब से मां के द्वारा इस सच का पता चला है तब से मन में यही सब चल रहा है। कल तक मुझे इस बारे में कुछ भी पता नहीं था और शायद यही वजह थी कि कल चंदनपुर में मैं अपनी भाभी से बात भी कर सका था। मगर अब ये सब जानने के बाद उनसे बात करने की तो दूर उनसे नज़रें मिलाने की भी हिम्मत नहीं कर पाऊंगा। जाने क्या क्या सोच रहीं होंगी वो मेरे बारे में?"

"मुझे लगता है कि तुम बेकार में ही ये सब सोच रहे हो।" रूपचंद्र ने कहा____"मैं ये मानता हूं कि उनको भी इस रिश्ते के बारे में सोच कर तुम्हारी तरह ही अजीब लग रहा होगा लेकिन यकीन मानों देर सवेर वो भी इस रिश्ते को स्वीकार कर लेंगी। उनके घर वाले उन्हें भी तो समझाएंगे कि उनके लिए क्या सही है और क्या उचित है।"

थोड़ी देर रूपचंद्र से और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद मैं उसे यहीं रहने का बोल कर अपने खेतों की तरफ निकल गया। रूपचंद्र से इस बारे में बातें कर के थोड़ा बेहतर महसूस करने लगा था मैं।​
 
अध्याय - 145
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थोड़ी देर रूपचंद्र से और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद मैं उसे यहीं रहने का बोल कर अपने खेतों की तरफ निकल गया। रूपचंद्र से इस बारे में बातें कर के थोड़ा बेहतर महसूस करने लगा था मैं।

अब आगे....


हवेली के बाहर गांव के कुछ लोग आए हुए थे। दादा ठाकुर बैठक से निकल कर बाहर आ गए थे। उनके साथ मुंशी किशोरी लाल भी था। गांव के लोग अक्सर अपनी समस्या ले कर दादा ठाकुर के पास हवेली आ जाया करते थे। गांव वालों की समस्या दूर करने के लिए दादा ठाकुर हमेशा तत्पर रहते थे।

"प्रणाम दादा ठाकुर।" सामने खड़े लोगों में से एक आदमी ने अपने हाथ जोड़ कर जब ये कहा तो बाकी लोगों ने भी हाथ जोड़ कर अपना सिर झुकाया। जवाब में दादा ठाकुर ने हाथ उठा कर सबको शांत किया।

"कहिए आप लोगों को क्या परेशानी है?" फिर उन्होंने हमेशा की तरह उनसे पूछा____"बेझिझक हो कर हमें अपनी समस्या बताएं। हमसे जो हो सकेगा आप लोगों के लिए करेंगे।"

"आप बहुत दयालू हैं दादा ठाकुर।" एक दूसरे व्यक्ति ने अधीरता से कहा____"हमारे भगवान हैं आप। आपके रहते भला हमें किस बात की समस्या हो सकती है? हमारी भलाई के लिए आप इस गांव में अस्पताल बनवा रहे हैं। हमारे बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए गांव में विद्यालय बनवा रहे हैं। आप सच में बहुत महान हैं दादा ठाकुर।"

"हम तो सिर्फ माध्यम हैं भाईयो।" दादा ठाकुर ने कहा____"सच तो ये है कि ये जो कुछ भी बन रहा है वो आप लोगों के ही भाग्य से बन रहा है।"

"हमारे भाग्य विधाता तो आप ही हैं दादा ठाकुर।" एक अन्य ने कहा____"ये सब आपकी ही कृपा से हमें मिलने वाला है। आपने हमेशा हमारा भला चाहा है और हमेशा हमारे दुख दर्द को दूर करने का प्रयास किया है। आप सच में हमारे लिए देवता हैं।"

"अरे! ऐसा कुछ नहीं है।" दादा ठाकुर ने कहा____"आप लोगों की दुआओं से ऊपर वाले ने हमें इस क़ाबिल बनाया है कि हम आप लोगों के लिए कुछ करने में सफल होते हैं। वैसे आप लोगों की जानकारी के लिए हम ये बताना चाहते हैं कि इस गांव में अस्पताल और विद्यालय बनवाने का विचार हमारा नहीं था बल्कि हमारे बेटे वैभव का था। उसी ने हमसे ज़ोर दे कर कहा था कि गांव के लोगों की भलाई के लिए हमें अपने गांव में अस्पताल और विद्यालय बनवाना चाहिए। हमें भी उसका ये सुझाव अच्छा लगा इस लिए हमने सरकार को पत्र भेजा और इसके लिए मंजूरी प्राप्त की।"

"छोटे कुंवर की जय हो....छोटे कुंवर की जय हो।" दादा ठाकुर की बात सुनते ही एक के बाद सब खुशी से जयकारा लगाने लगे। ये देख दादा ठाकुर ने फिर से हाथ उठा कर सबको शांत कराया।

"हमें माफ़ कर दीजिए दादा ठाकुर।" एक ने थोड़ा दुखी हो कर कहा____"हम छोटे कुंवर के बारे में अब तक जाने क्या क्या सोचते रहे थे जबकि वो तो हमारी भलाई के लिए इतना कुछ कर रहे हैं।"

"आप लोगों को हमसे माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है।" दादा ठाकुर ने कहा____"हम समझते हैं कि आप लोग उसके बारे में जो कुछ सोचते थे वो अपनी जगह उचित ही था किंतु अब आप लोगों को हम इस बात का यकीन दिलाते हैं कि जिस तरह अब तक हम आप लोगों का दुख दर्द समझते आए हैं उसी तरह आपके छोटे कुंवर भी आप लोगों का दुख दर्द समझेंगे।"

"दादा ठाकुर की जय हो।" एक बार फिर से सब के सब जयकारा लगाने लगे____"छोटे कुंवर की जय हो।"

"अब से आप लोग अपने छोटे कुंवर के सामने भी अपनी समस्याएं रख सकते हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"वो आप लोगों की समस्याओं को वैसे ही दूर करने की कोशिश करेंगे जैसे अब तक हम करते आए हैं।"

दादा ठाकुर की इस बात को सुन कर सबके चेहरे खिल उठे। वो सब एक दूसरे को देखते हुए अपनी खुशी का इज़हार करते नज़र आए।

"ख़ैर अब आप लोग बताएं कि इस वक्त हम आप लोगों के लिए क्या कर सकते हैं?" दादा ठाकुर ने उन सबकी तरफ देखते हुए पूछा।

दादा ठाकुर के पूछने पर सब अपनी अपनी समस्याएं बताने लगे। ज़्यादातर लोगों की समस्याएं पैसा ही था। ग़रीब लोग थे वो जिनके पास अपनी आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पैसे नहीं होते थे। घर का कोई सदस्य बीमार पड़ जाता था तो इलाज़ के लिए पैसा नहीं होता था। बहुत तो कर्ज़े से परेशान थे। खेतों में फसल उगा कर भी वो अपना कर्ज़ नहीं चुका पाते थे। बहुत से ऐसे थे जो कई बार दादा ठाकुर से कर्ज़ ले चुके थे और दादा ठाकुर उनके कर्ज़ को माफ़ भी कर चुके थे। इस चक्कर में वो दुबारा दादा ठाकुर से कर्ज़ मांगने पर हद से ज़्यादा संकोच करते थे। ऐसी नौबत आने पर वो दूसरे गांव के साहूकारों से कर्ज़ ले लेते थे। दूसरे गांव के साहूकार दादा ठाकुर जैसे नेक दिल नहीं थे। वो कर्ज़ वसूलने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे।

बहरहाल, दादा ठाकुर ने मुंशी किशोरी लाल को हुकुम दिया कि वो अंदर से पैसा ले कर आएं और जिनको जितनी ज़रूरत हो दे दें। किशोरी लाल ने फ़ौरन ही अमल किया। पैसा मिल जाने पर वो सब लोग बड़ा खुश हुए और फिर जयकारा लगाते हुए खुशी खुशी चले गए।

गांव वालों को गए हुए अभी थोड़ा ही समय हुआ था कि हाथी दरवाज़े से एक जीप अंदर दाख़िल होती नज़र आई। कुछ ही पलों में वो जीप हवेली के पास आ कर रुकी। जीप से महेंद्र सिंह अपने छोटे भाई ज्ञानेंद्र सिंह के साथ नीचे उतरे।

"आइए मित्र।" दादा ठाकुर ने हल्की सी मुस्कान होठों पर सजा कर महेंद्र सिंह से कहा और फिर उनको साथ ले कर ही अंदर बैठक में आ गए।

"कल परसों से आपसे मिलने का सोच रहे थे हम।" बैठक में एक कुर्सी पर बैठने के बाद महेंद्र सिंह ने कहा____"लेकिन व्यस्तता के चलते आ ही नहीं पाए।"

"हां काम धाम के चलते व्यस्तता तो रहती ही है मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर कहिए कैसे आना हुआ यहां?"

कहने के साथ ही उन्होंने नौकरानी को आवाज़ दे कर बुलाया और फिर उसे सबके लिए जल पान लाने के लिए कहा।

"कोई विशेष बात तो नहीं है ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"बस उड़ती हुई कुछ बातें हमने सुनी हैं जिसकी पुष्टि के लिए आपसे मिलने चले आए।"

"उड़ती हुई बातें?" दादा ठाकुर के माथे पर शिकन उभरी____"ये क्या कह रहे हैं आप?"

"मानते हैं कि आपको ये सुन कर अजीब लगा होगा।" महेंद्र सिंह ने कहा____"लेकिन बात क्योंकि सफ़ेदपोश से संबंधित थी इस लिए हम उसे नज़रअंदाज़ नहीं कर सके।"

महेंद्र सिंह की इस बात से दादा ठाकुर के साथ साथ किशोरी लाल भी चौंका। उधर दादा ठाकुर के चेहरे पर एक ही पल में कई तरह के भाव उभरे और फिर लोप होते नज़र आए।

"बड़ी दिलचस्प बात है।" फिर उन्होंने खुद को सम्हालते हुए कहा____"ख़ैर बताइए, कैसी बातें सुनी हैं आपने जो सफ़ेदपोश से संबंधित थी?"

"यही कि सफ़ेदपोश को पकड़ लिया गया है।" महेंद्र सिंह ने कहा____"क्या वाकई में ये बात सच है ठाकुर साहब?"

महेंद्र सिंह की इस बात से दादा ठाकुर फ़ौरन कुछ बोल ना सके। असल में उन्हें फ़ौरन कुछ सूझा ही नहीं कि क्या कहें? उन्हें ये सोच कर भी हैरानी हुई कि सफ़ेदपोश के पकड़े जाने वाली बात कैसे फैल गई? उन्हें समझ न आया कि इस संबंध में वो महेंद्र सिंह को क्या जवाब दें? वो ये भी जानते थे कि सच को उनसे छुपाना भी उचित नहीं है लेकिन ये भी सच था कि सफ़ेदपोश का सच बताना भी उनके लिए बहुत मुश्किल कार्य था। भला वो ये कैसे बताते कि सफ़ेदपोश कोई और नहीं बल्कि उनका अपना ही छोटा भाई जगताप था और उसकी मौत के बाद सफ़ेदपोश का नक़ाब उसकी पत्नी ने पहन लिया था। वो ये कैसे बताते कि उनके भाई और भाई की पत्नी ने ही ये सब किया था जिसका पता चलने के बाद उनकी ही क्या बल्कि उनकी पत्नी और बेटे की भी हालत बहुत ख़राब हो गई थी।

"क्या बात है ठाकुर साहब?" उन्हें एकदम से ख़ामोश हो गया देख महेंद्र सिंह ने सहसा फिक्रमंद हो कर पूछा____"आप अचानक से ख़ामोश क्यों हो गए हैं? सब ठीक तो है ना?"

तभी बैठक में नौकरानी दाख़िल हुई। उसके हाथ में एक ट्रे था जिसमें उसने सबके लिए नाश्ता रखा हुआ था। उसने ट्रे को सबके बीच रखी टेबल पर रखा और फिर एक एक कर के सबकी तरफ प्लेटें बढ़ा दी। उसके बाद वो चली गई।

"हम जानते हैं कि इस बारे में आपको सच न बताना बहुत ही अनुचित होगा मित्र।" दादा ठाकुर ने गहन गंभीर भाव से कहा____"लेकिन यकीन मानिए हमारे लिए सच बताना बहुत ही ज़्यादा मुश्किल है।"

"ये क्या कह कर रहे हैं आप?" महेंद्र सिंह के साथ साथ उनका भाई ज्ञानेंद्र सिंह भी चकित भाव से देखने लगा दादा ठाकुर को। इधर महेंद्र सिंह ने कहा____"आपकी इन बातों से ऐसा लगता है जैसे सब ठीक नहीं है। हमें बताइए मित्र कि आख़िर ऐसी क्या बात हो गई है जिसके चलते आप अचानक से ही इस वक्त इतने गंभीर और हताश से नज़र आने लगे हैं?"

"अगर आप सच में सच्चे दिल से हमें अपना मित्र मानते हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"तो हमसे सफ़ेदपोश के बारे में मत पूछिए। बस इतना जान लीजिए कि सफ़ेदपोश के पकड़े जाने वाली बात सच है।"

महेंद्र सिंह और उनका भाई ज्ञानेंद्र सिंह भौचक्के से देखते रह गए उन्हें। चेहरों पर कई तरह के भाव आते जाते नज़र आए। इधर दादा ठाकुर के चेहरे पर भी गहन गंभीरता और अवसाद के भाव उभरे हुए थे।

"अगर आप ऐसा ही चाहते हैं तो ठीक है।" महेंद्र सिंह ने फिर गहरी सांस लेते हुए गंभीरता से कहा____"हम बिल्कुल भी आपसे उसके बारे में जानने का प्रयास नहीं करेंगे और ना ही आपको किसी भी तरह से परेशान और हताश होते हुए देख सकते हैं।"

"आपका बहुत बहुत धन्यवाद मित्र।" दादा ठाकुर ने राहत की लंबी सांस ले कर कहा____"हम आपको बता नहीं सकते कि आपकी इन बातों से हमें कितनी राहत मिली है।"

"आपको धन्यवाद कहने की ज़रूरत नहीं ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने अपनेपन से कहा____"आप हमारे मित्र हैं और मित्र का तो धर्म ही यही होता है कि वो हर परिस्थिति में अपने मित्र के कुशल मंगल की ही कामना करे और उसका भला चाहे। इस लिए हम बस यही चाहते हैं कि आप और आपसे जुड़े हर व्यक्ति हमेशा खुश रहें। आपसे अब बस इतना ही जानना चाहते हैं कि सफ़ेदपोश के पकड़े जाने के बाद क्या हर तरह के ख़तरे से मुक्ति मिल गई है?"

"सबसे बड़ा ख़तरा उसी से था मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"अतः जब वो पकड़ा गया तो उसके ख़तरे से भी मुक्ति मिल गई। एक बात और...आपको भी अब रघुवीर के हत्यारे को कहीं खोजने की ज़रूरत नहीं है। ऐसा इस लिए क्योंकि सफ़ेदपोश ही असल में रघुवीर का हत्यारा था।"

"ओह! ये तो सच में हैरत की बात है।" महेंद्र सिंह ने कहा____"आपने पहले भी इसी बात की आशंका व्यक्त की थी। ख़ैर जो भी हो, अच्छी बात यही हुई कि अब सब कुछ ठीक हो चुका है। एक लंबे समय से जो घटनाक्रम चल रहा था आख़िर उसमें अब पूर्ण विराम लग गया। उम्मीद है आगे भविष्य में किसी के भी साथ ऐसा नहीं होगा।"

"हम इंसानों की चाहत तो यही होती है मित्र।" दादा ठाकुर ने गंभीरता से कहा____"लेकिन आप भी जानते हैं कि ऐसा होता नहीं है। ऊपर बैठा विधाता हम इंसानों के साथ कोई न कोई खेल खेलता ही रहता है।"

"हां ये तो सही कह रहे हैं आप।" महेंद्र सिंह ने सिर हिला कर कहा____"हर चीज़ का कर्ता धर्ता तो वही है लेकिन कभी कभी वो अन्याय भी कर बैठता है। किसी मासूम और निर्दोष का जीवन छीन कर उसके चाहने वालों पर दुखों का पहाड़ गिरा बैठता है वो।"

"क्या कर सकते हैं मित्र।" दादा ठाकुर ने बेचैन भाव से कहा____"विधाता पर किसी का ज़ोर कहां चलता है किसी का?"

कुछ देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद महेंद्र सिंह अपने छोटे भाई के साथ चले गए। दादा ठाकुर वापस बैठक में आ कर अपने सिंहासन पर बैठ गए।

"किशोरी लाल जी।" फिर उन्होंने किशोरी लाल से मुखातिब हो कर पूछा____"क्या लगता है आपको, हमने महेंद्र सिंह को सफ़ेदपोश के बारे में ना बता कर ठीक किया है अथवा ग़लत?"

"इस बारे में मैं आपसे क्या कहूं ठाकुर साहब?" किशोरी लाल ने उलझन पूर्ण भाव से कहा____"वैसे मैं तो यही समझता हूं कि आपने अपने हिसाब से ये अच्छा ही किया है लेकिन...!"

"लेकिन??"

"आप भी जानते हैं कि हर व्यक्ति के सोचने का अपना अपना नज़रिया होता है।" किशोरी लाल ने कहा____"आपने उन्हें सफ़ेदपोश के बारे में ना बता कर ठीक किया, ये आपके हिसाब से ठीक था लेकिन यही बात उनके नज़रिए में उन्हें एक दूसरा ही अर्थ समझा गई होगी। माना कि वो आपके मित्र हैं और आपकी मानसिक अवस्था को अच्छे से समझते हैं लेकिन कहीं न कहीं वो ये भी सोच सकते हैं कि मित्र होने के बाद भी आपने उन्हें सफ़ेदपोश के बारे में क्यों नहीं बताया?"

"आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"हम भी इस बारे में ऐसा ही सोचते हैं लेकिन क्या करें? ये हमारी मजबूरी थी कि हम उन्हें सफ़ेदपोश का सच नहीं बता सकते थे। हम नहीं चाहते थे कि वो सच जानने के बाद हम में से किसी के भी बारे में ग़लत धारणाएं बना लें। वैसे सच तो हमने आपको भी नहीं बताया, क्या आप भी हमारे बारे में ऐसा ही सोचते हैं?"

"बिल्कुल भी नहीं।" किशोरी लाल ने मजबूती से इंकार में सिर हिला कर कहा____"यकीन मानिए, मैं आपके बारे में ऐसा कुछ भी नहीं सोचता क्योंकि मैं आपकी मजबूरी को बखूबी समझता हूं। इस दुनिया में सबके जीवन में इस तरह की कोई न कोई मजबूरी हो ही जाती है जिसके बारे में वो किसी दूसरे को बता नहीं सकता।"

"हम्म्म्म।" दादा ठाकुर ने कुछ सोचते हुए कहा____"वैसे हैरानी की बात है कि सफ़ेदपोश को पकड़ लिए जाने वाली बात इस तरह फैल गई है जबकि हमें यही लगता था कि ऐसा होना संभव नहीं है। इस बात से अब हमें ये भी आभास हो रहा है कि महेंद्र सिंह को सफ़ेदपोश का सच भी पता चल गया होगा।"

"ये क्या कह रहे हैं आप?" किशोरी लाल के चेहरे पर हैरत के भाव उभर आए____"भला ऐसा कैसे हो सकता है?"

"सीधी सी बात है किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने कहा____"अगर सफ़ेदपोश के पकड़े जाने की बात उड़ती हुई महेंद्र सिंह के कानों तक पहुंची है तो उन्होंने अपने तरीके से इस बारे में पता भी किया होगा। अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि जिसने ये अफवाह उड़ाई हो उसे ये भी न पता हो कि सफ़ेदपोश असल में कौन था?"

"बात तो सही है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने चकित भाव से कहा____"लेकिन क्या ज़रूरी है कि अफवाह उड़ाने वाले को सफ़ेदपोश का सच भी पता रहा होगा? ऐसा भी तो हो सकता है कि उसे सिर्फ इतना ही पता चल पाया हो कि सफ़ेदपोश पकड़ लिया गया है। जब आपके साथ रहते हुए मुझे खुद ही सच का पता नहीं है तो इस बारे में बाहर किसी को कैसे पता हो सकता है?"

"हां ये भी ठीक कहा आपने।" दादा ठाकुर ने ग़ौर से किशोरी लाल की तरफ देखा____"लेकिन हम ये बात नहीं मान सकते कि आपको सच का पता नहीं चल सका है अब तक?"

"ठ..ठाकुर साहब।" किशोरी लाल एकदम से झेंपते हुए बोला____"ये क्या कह रहे हैं आप?"

"तो अब आप भी हमसे झूठ बोलने लगे?" दादा ठाकुर ने सहसा गंभीर हो कहा____"आपसे ये उम्मीद नहीं थी हमें।"

"गुस्ताख़ी माफ़ ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने फ़ौरन ही हाथ जोड़ते हुए कहा____"लेकिन यकीन मानिए, मुझे पूरी तरह से अब भी सच का पता नहीं है। मुझे बस शक है कि सफ़ेदपोश कौन हो सकता है।"

"तो फिर बताइए।" दादा ठाकुर ने कहा____"हमें बताइए कि किस पर और क्यों शक है आपको?"

"उसी रात शक हुआ था मुझे।" किशोरी लाल ने कहा____"जिस रात आप और छोटे कुंवर सफ़ेदपोश के पकड़े जाने की ख़बर सुन कर हवेली से गए थे। आप और छोटे कुंवर तो चले गए थे लेकिन मुझे देर से पता चला था। ख़ैर उसके बाद जब मझली ठकुराईन अपनी बेटी का पता करने उनके कमरे में गईं और फिर एकदम से ग़ायब ही गईं तो मैं समझ गया कि कुछ गड़बड़ है। मैं समझ गया था कि कुसुम बिटिया शायद अपने कमरे में नहीं थीं और इसी लिए उन्हें खोजने के चलते मझली ठकुराईन भी हवेली से ग़ायब हो गईं हैं। उसके बाद जब मैंने आपके और छोटे कुंवर के साथ उन दोनों को भी आया देखा और साथ ही आप सबकी ऐसी हालत देखी तो मेरा शक यकीन में बदलने लगा। हालाकि दिल तब भी नहीं मान रहा था क्योंकि ऐसी उम्मीद ही नहीं कर सकता था मैं। उसके बाद जिस तरह से हवेली में आप सब गुमसुम से नज़र आने लगे थे उससे मुझे ये लगने लगा था कि हो न हो ऐसा इसी लिए होगा क्योंकि कुसुम बिटिया ही सफ़ेदपोश के रूप में पकड़ी गई रही होगी। उसके बाद जब आपने मेरे पूछने पर मुझे इस बारे में पूछने से मना कर दिया तो यकीन हो गया कि जो मैं अनुमान लगा रहा था वो सच है। बस इतना ही जानता हूं मैं। हालाकि अभी भी मुझे यह लगता है कि कुसुम बिटिया वो हो ही नहीं सकती हैं।"

किशोरी लाल की इन बातों के बाद दादा ठाकुर फ़ौरन कुछ बोल ना सके। उनके चेहरे पर सोचो के भाव नुमायां हो उठे थे। इधर किशोरी लाल भी धड़कते दिल के साथ उन्हें देखे जा रहा था।

"ख़ैर छोड़िए इन बातों को।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"चलिए ज़रा वहां का काम धाम भी देख लें। उसके बाद वहीं से कुंदनपुर (मेनका चाची का मायका) चले जाएंगे।"

"कु...कुंदनपुर???" किशोरी लाल के माथे पर शिकन उभरी____"वहां कोई ख़ास काम है क्या ठाकुर साहब?"

"हां ऐसा ही कुछ समझ लीजिए।" दादा ठाकुर ने कुछ सोचते हुए कहा____"चलिए चलते हैं।"

कहने के साथ ही वो अपने सिंहासन से उठ गए तो किशोरी लाल ने भी अपनी कुर्सी छोड़ दी। कुछ ही देर में दादा ठाकुर तैयार होने के बाद हवेली से बाहर आ गए। उन्होंने शेरा को जीप लाने का हुकुम दिया। कुछ देर में जब शेरा जीप ले आया तो दादा ठाकुर उसमें बैठ गए और उनके साथ किशोरी लाल भी। उसके बाद उनके कहने पर शेरा ने जीप को आगे बढ़ा दिया।​
 
अध्याय - 146
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रूपा अपनी मां ललिता देवी के साथ जीप में बैठी सरोज के घर पहुंची। जीप को गौरी शंकर का केशव नाम का एक नौकर चला कर लाया था। बहरहाल जीप सरोज के घर के बाहर रुकी तो दोनों मां बेटी जीप से नीचे उतर आईं। ललिता देवी केशव को जीप में ही बैठे रहने का बोल कर रूपा के साथ दरवाज़े की तरफ बढ़ीं।

रूपा कई दिनों से अपनी मां को सरोज के घर चलने को कह रही थी। उसने अपनी मां को सब कुछ बता दिया था। ललिता देवी उसके मुख से सब कुछ जान कर बड़ा हैरान हुई थी और फिर उसे ये सोच कर रोना आ गया था कि उसने अब तक अपनी उस बेटी को दुख दिया था जिसके अंदर हर किसी के लिए सिर्फ और सिर्फ प्रेम की ही भावना थी। सरोज उसकी बेटी की कुछ नहीं लगती थी इसके बावजूद उसने उसको अपनी मां कहा और एक बेटी का फर्ज़ निभाया। ये सोच कर ही ललिता देवी का सीना गर्व से फूल उठा था और फिर उसने रूपा को अपने कलेजे से लगा लिया था। बहरहाल काम की व्यस्तता के चलते आज ही वो अपनी बेटी के साथ यहां आ पाई थी।

रूपा ने दरवाज़े की शांकल बजाई तो कुछ ही पलों में सरोज ने दरवाज़ा खोला। बाहर रूपा के साथ एक औरत को खड़ा देख उसके चेहरे पर सोचने वाले भाव उभर आए थे, ये अलग बात है कि रूपा को देखते ही उसका मुरझाया चेहरा खिल उठा था और उसकी आंखें नम सी हो गईं थी।

"कैसी हैं मां?" सरोज को देखते ही रूपा ने बड़े ही अपनेपन से कहा____"अपनी बेटी को अंदर आने को नहीं कहेंगी आप?"

"अरे! क्यों नहीं कहूंगी भला?" सरोज ने झट से कहा____"तुझे देख के मेरे अंदर इतनी खुशी भर गई कि तुझे अंदर आने के लिए कहना ही भूल गई मैं। आ जा बेटी, जल्दी से आ कर मेरे कलेजे से लग जा। बहुत दिन हो गए तुझे देखे हुए। बहुत याद आ रही थी तेरी।"

"मुझे भी आपकी बहुत याद आ रही थी मां।" रूपा ने झट से अंदर आ कर सरोज के गले से लग कर कहा_____"कई दिनों से मां से कह रही थी कि मुझे अपनी मां से मिलना है और उनका हाल चाल पूछना है।"

ललिता देवी इस अद्भुत नज़ारे को देखने में जैसे खो ही गई थी। उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी आंखों में आंसू भर आए और फिर छलक भी पड़े। उधर सरोज ने जोरों से रूपा को अपने कलेजे से लगा लिया था। ना चाहते हुए भी उसकी सिसकियां छूट गईं थी।

"तुझे अपने कलेजे से लगा लिया तो ऐसा लग रहा है जैसे मैंने अपनी अनू को कलेजे से लगा लिया है।" सरोज ने रुंधे गले से कहा____"अब जा कर ठंडक मिली है मेरे कलेजे को।"

"चलिए अब रोइए मत।" रूपा ने सरोज से अलग हो कर कहा____"आप जानती हैं ना कि मैं अपनी मां की आंखों में आंसू नहीं देख सकती।"

"अरे! कहां रो रही हूं मैं?" सरोज झट आंचल से अपने आंसू पोंछते हुए जबरन मुस्कुराई____"ये तो खुशी के आंसू हैं। मेरी बेटी जो मिलने आई है मुझसे।"

"अगर ऐसा है तो फिर ठीक है।" रूपा ने मुस्कुराते हुए कहा____"अच्छा अब आप इनसे मिलिए। ये मेरी मां हैं....ललिता देवी।"

"प्रणाम बहन जी।" सरोज ने ललिता की तरफ देखते हुए झट से हाथ जोड़ कर उसे प्रणाम किया तो जवाब में ललिता देवी ने भी हाथ जोड़ लिए।

"सच कहती हूं बहन।" फिर उसने अधीरता से कहा____"आज अपनी आंखों से आप दोनों मां बेटी का ये मिलन देख कर धन्य सी हो गई हूं मैं। काश! ऐसा प्रेम और ऐसी ममता मेरे भी सीने में होती तो मैं कभी अपनी बेटी को दुख देने का न सोचती।"

"ऐसी बातें मत कहिए मां।" रूपा ने पलट कर अपनी मां से कहा____"जो हुआ उसे भूल जाइए। मैं तो अब इसी बात से खुश हूं कि मुझे मेरे इस एक ही जन्म में दो दो मां मिल गई हैं। मैं चाहती हूं मेरी दोनों माएं खुश रहें और मुझ पर अपनी ममता लुटाती रहें।"

"बहुत नेक दिल बिटिया है आपकी।" सरोज ने कहा____"बिल्कुल मेरी बेटी अनू के जैसी है ये। तभी तो ये मुझे एक पल के लिए भी मायूस या दुखी नहीं होने देती। अक्सर सोचती हूं कि अगर ये मेरी बेटी बन कर न आई होती तो क्या होता मेरा? मैं तो हर वक्त अपनी बेटी के वियोग में ही घुटती रहती थी लेकिन इसने आ कर जादू किया और मेरे ठहर गए जीवन को फिर से चलायमान कर दिया।"

"मैंने इसे जन्म ज़रूर दिया है लेकिन इसके बावजूद मैं इसे कभी समझ नहीं सकी बहन।" ललिता देवी ने कहा____"इसने वैभव से प्रेम किया जिसके चलते मैंने हमेशा इसे कोसा और दुख दिया। मुझसे बेहतर तो आप हैं जो इसे समझती हैं और इस पर अपनी ममता लुटाती हैं।"

"हे भगवान! पता नहीं आप दोनों ये कैसी बातें ले कर बैठ गईं हैं?" रूपा ने जैसे तुनक कर झूठी नाराज़गी दिखाई____"अरे! कोई और बात कीजिए जिससे किसी को कोई दुख तकलीफ़ न हो।"

रूपा की ये बात सुन कर ललिता देवी और सरोज दोनों ही मुस्कुरा उठीं। तभी दूसरे वाले दरवाज़े से भागता हुआ अनूप आ गया। उसके एक हाथ में खिलौना था। आंगन में रखी चारपाई पर अपनी मां के अलावा एक अन्य अंजान औरत को देख वो एकदम से ठिठक गया। एकाएक उसकी नज़र रूपा पर पड़ी तो उसके चेहरे पर खुशी के भाव उभर आए।

"अले! दीदी तुम आ दई।" अनूप ने अपनी तोतली भाषा में खुशी ज़ाहिर की, फिर सहसा चेहरे पर अजीब से भाव ला कर कहा____"ना मुधे तुमथे बात न‌ई कलना।"

"अरे! ये क्या कह रहा है मेरा बेटू।" रूपा झट से उसके क़रीब जा कर बड़े प्रेम भाव से बोली____"भला मुझसे क्यों बात नहीं करेगा मेरा बेटू...हां?"

"त्योंती तुम पता न‌ई तहां तली द‌ई थी?" अनूप ने मुंह फुलाए कहा____"त्या तुम मेली अनू दीदी तो धूधने द‌ई थी?"

अनूप की ये बात सुनते ही रूपा की आंखें भर आईं। उसके अंदर ये सोच कर हुक सी उठी कि इतना छोटा होने पर भी वो अब तक अपनी अनू दीदी को भूल नहीं पाया है, बड़ों की तो बात ही क्या थी।

"अले! त्या हुआ तुमतो?" रूपा को चुप देख उसने एकाएक मासूम सी शक्ल बना कर पूछा____"तुम लो त्यों ल‌ई हो? त्या अनू दीदी न‌ई मिली तुमे?"

रूपा ने झपट कर उसे अपने गले से लगा लिया। उसके जज़्बात बुरी तरह मचल उठे थे। उसने अपने जज़्बातों को तो काबू कर लिया था लेकिन आंखें छलक पड़ने से रोक न सकी थी। उधर चारपाई पर बैठी ललिता देवी और सरोज की भी आंखें छलक पड़ीं थी। ललिता देवी ने आज पहली बार ऐसा दृश्य देखा था और उसे आत्मा की गहराई से महसूस किया था। उसे एकदम से एहसास हुआ कि वाकई में अनू के जाने से इस घर में दोनों मां बेटों की क्या हालत रही होगी।

"अले! मत लो दीदी।" उधर अनूप की आवाज़ वातावरण में गूंजी____"न‌ई तो मैं भी लो दूंगा।"

"नहीं, मेरा बेटू बिल्कुल नहीं रोएगा।" रूपा ने झट से उसे अपने से अलग कर के कहा____"मेरा बेटू बहुत अच्छा है ना। अच्छा देखो, मैं अपने सबसे अच्छे बेटू के लिए क्या लाई हूं।"

रूपा की बात सुन अनूप बड़ी उत्सुकता से देखने लगा। रूपा ने अपने कुर्ते को थोड़ा सा उठा कर अपनी कमर से एक छोटी सी थैली निकाली। थैली की गांठ खोल कर उसने उसमें से कागज़ में लिपटा हुआ कुछ निकाला। अनूप बहुत ही ज़्यादा उत्सुकता से उसे देखे जा रहा था। इधर सरोज भी नम आंखों से देख रही थी। रूपा ने जल्दी ही कागज़ को चारो तरफ से खोल दिया। कागज़ के खुलते ही उसमें जो कुछ नज़र आया उसे देख जहां अनूप खुशी से उछल पड़ा वहीं सरोज की आंखों से आंसू का एक कतरा छलक गया।

"अले अले! ये तो दुल है औल नम्तीन भी।" अनूप मारे ख़ुशी के उछलते हुए बोल पड़ा____"ये थब मेले लिए लाई ओ ना दीदी? दो दल्दी थे दो मुधे।"

"हां ये लो।" रूपा ने सारा का सारा ही उसे पकड़ाते हुए कहा____"ये मैं अपने बेटू के लिए ही लाई हूं। मुझे पता था कि मेरा बेटू मुझसे गुड़ मांगेगा इस लिए ले आई थी मैं।"

अनूप कुछ ज़्यादा ही खुश हो गया था। उसकी मनपसंद चीज़ जो मिल गई थी उसे। खिलौने को उसने पहले ही ज़मीन पर फेंक दिया था और अब गुड़ नमकीन लिए आंगन के एक तरफ बनी पट्टी पर बैठ कर खाने लगा था। ये सारा मंज़र देख ललिता देवी को अपनी बेटी पर अत्यधिक लाड़ आ रहा था। उसे ये सोच कर आत्मिक खुशी हो रही थी कि उसकी बेटी सिर्फ अपनों का ही नहीं बल्कि दूसरों का भी दुख दर्द समझती थी और उस दुख दर्द को दूर करने का प्रयत्न भी करती थी। आज के युग में कहां लोगों के अंदर ऐसी पवित्र भावनाएं होती है?

"ये बस खेलता ही रहता है मां या पढ़ता भी है?" रूपा ने सरोज के पास आ कर पूछा।

"शुरू शुरू में एक दो दिन इसने पढ़ाई की थी।" सरोज ने बताया____"उसके बाद फिर से खेल में लग गया। मैंने जब इसे पढ़ने को कहा तो कहने लगा जब रूपा दीदी आएगी तो पढूंगा। मैं तो अनपढ़ गंवार हूं। उसके पहाड़े में क्या लिखा है मुझे कुछ पता ही नहीं है। तूने जो कुछ उसे पढ़ाया था और सिखाया था उसे भी भूल गया होगा वो।"

"कोई बात नहीं मां।" रूपा ने कहा____"अभी बच्चा ही तो है। आपको पता है, हमारे गांव में विद्यालय बन रहा है। अगले साल से ये उसी विद्यालय में पढ़ने जाया करेगा।"

"देखा आपने बहन जी।" सरोज ने ललिता देवी से कहा____"मेरी ये बेटी जाने क्या क्या करने का सोच रखी है। इसे कैसे समझाऊं कि मैं एक बहुत ही मामूली किसान की औरत हूं। हमारे जैसे लोगों के लिए पढ़ाई लिखाई शोभा नहीं देती बल्कि हमारा धर्म है बड़े लोगों की ज़मीनों पर मेहनत मज़दूरी करना और उनकी सेवा करना।"

"हां तो ठीक है ना।" रूपा ने कहा____"आप अपना धर्म निभाते रहना लेकिन मेरा भाई किसी के भी यहां मेहनत मज़दूरी नहीं करेगा। वो खूब पढ़ेगा लिखेगा और फिर एक दिन बहुत ही क़ाबिल इंसान बनेगा।"

"देख रही हैं आप बहन जी।" सरोज ने ललिता देवी से कहा____"आप ही समझाइए इसे कि ये सब हम जैसों को शोभा नहीं देता।"

"नहीं बहन जी।" ललिता देवी ने कहा____"इस बात पर तो मैं भी यही कहूंगी कि रूपा सही कह रही है। युग बदल रहा है, समय बदल रहा है और इस लिए समय के साथ साथ लोगों की विचारधारा भी बदलनी चाहिए। छोटे बड़े का लिहाज करना, समाज के नियमों का पालन करना और साथ ही अच्छे संस्कार रखना बहुत ही अच्छी बात है लेकिन बदलते समय के साथ व्यक्ति का शिक्षित होना भी बेहद महत्वपूर्ण है। हमारे समय में तो ये सब सोचता भी नहीं था कोई लेकिन जब हमें भी शिक्षा का महत्व समझ आया तो हमने भी शिक्षित होना ज़रूरी समझा। इसी तरह बाकी सबको भी समझना चाहिए। मैंने सुना है कि छोटे छोटे कस्बों में भी आज कल हर कोई शिक्षा के पीछे भाग रहा है। ज़ाहिर है वो सब भी समझते हैं कि आज के युग में शिक्षा का क्या महत्व है।"

सरोज को समझ ना आया कि क्या कहे। ख़ैर उसके बाद काफी देर तक तीनों एक दूसरे से बातें करती रहीं। इस बीच सरोज जब सबके लिए चाय बनाने जाने लगी तो रूपा ने उसे रोक दिया और खुद चाय बना कर ले आई। ललिता देवी काफी हद तक सरोज से घुल मिल गईं थी। सरोज को भी बहुत अच्छा महसूस हो रहा था कि वो अपनी बेटी के साथ उससे मिलने और उसका हाल चाल पूछने आई थी।

कुछ समय बाद ललिता देवी ने सरोज से जाने की इजाज़त मांगी और फिर ये कह कर चलने लगी कि वो फिर से किसी दिन समय निकाल कर आएगी। ललिता देवी ने सरोज से भी कहा कि वो उसके घर आ जाया करें। बहरहाल, रूपा और ललिता देवी एक एक कर के सरोज से गले मिलीं और फिर जीप में बैठ कर चली गईं। सरोज उन्हें तब तक देखती रही जब तक कि जीप उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गई।

✮✮✮✮

मैं भुवन के साथ खेतों पर था। धूप तो खिली हुई थी लेकिन दिन ढलने की वजह से ठंड का असर होने लगा था। रूपचंद्र से हुई बातों के बाद मैं और भी उलझ गया था। मैं बहुत कोशिश करता था कि मेरे मन में भाभी से ब्याह होने वाली बातें ना आएं लेकिन ऐसा हो नहीं रहा था। भुवन के साथ मैं खेतों पर कोई न कोई काम करने के बहाने खुद को बहलाने की कोशिश करता रहा था लेकिन मन था कि कमबख़्त बार बार वहीं जा कर अटक जाता था।

कुछ समय बाद मैं वापस मकान में आया और बाहर ही एक चारपाई रख कर बैठ गया। अभी कुछ ही पल गुज़रे थे कि तभी मेरी नज़र सुनील और चेतन पर पड़ी। वो दोनों मेरी तरफ ही चले आ रहे थे। इतने समय बाद दोनों को देख कर मैं थोड़ा चौंक सा गया था। मन में अचानक से ये ख़याल भी उभर आया कि आज ये दोनों यूं खुले आम मेरी तरफ क्यों चले आ रहे हैं? क्या इन्हें सफ़ेदपोश का डर नहीं है?

मैं सोचने लगा कि जिस तरह ये दोनों निडरता से चले आ रहे थे उससे तो यही लगता है जैसे अब इन्हें सफ़ेदपोश का डर नहीं है। अगर ऐसा ही है तो क्या इसका मतलब ये हो सकता है कि दोनों को सफ़ेदपोश के पकड़े जाने का पता चल चुका है? पर सवाल है कि कैसे? जब बाकी किसी को उसके पकड़े जाने का पता नहीं है तो इन दोनों को कैसे हो सकता है? मैं ये सब सोच ही रहा था कि वो दोनों मेरे पास ही आ गए।

"तुम दोनों नमूने आज यहां कैसे भटकते हुए आ गए?" मैंने दोनों को बारी बारी से देखते हुए पूछा____"तुम्हारे उस आका को पता चला तो क़यामत आ जाएगी तुम दोनों के ऊपर।"

"क़यामत आनी है तो अभी आ जाए भाई।" चेतन ने आहत भाव से कहा____"बेटीचोद फ़क़ीरों जैसी ज़िंदगी हो गई है हमारी। उसके डर से मारे मारे फिर रहे हैं हम और एक वो है कि मादरचोद जाने कहां ग़ायब हो गया है?"

"अरे! ये कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हो तुम?" मैंने थोड़ी हैरानी से पूछा____"बताओ तो कि आख़िर हुआ क्या है और आज यहां कसे?"

"जान हथेली पर रख के आए हैं यार।" सुनील ने कहा____"साला बहुत डर डर के भटक लिए, अब और नहीं। अब तो सोच लिया है कि चाहे वो हमारी जान ही क्यों न ले ले लेकिन अब उसके डर से कहीं छिपने नहीं जाएंगे। तुम्हें पता है हम दोनों के घर वालों का कितना बुरा हाल है? हम तो डर के मारे जी ही रहे हैं वो लोग भी ऐसे ही जी रहे हैं। एक तो हमारे ऊपर मंडराने वाले ख़तरे का डर, दूसरे हमारी वजह से कुछ हो जाने का डर। इसी लिए भाई, हम दोनों ने सोच लिया है कि वो चाहे आज ही हमें मार दे लेकिन अब हम उसके डर से अपने घर वालों से दूर नहीं रहेंगे।"

मैं समझ गया कि इन दोनों को सफ़ेदपोश के पकड़े जाने का पता नहीं है। होता भी कैसे? सफ़ेदपोश के पकड़े जाने की ख़बर किसी को दी ही नहीं गई थी। बहरहाल, मैं सोचने लगा कि अब इनका क्या किया जाए? सफ़ेदपोश के पकड़े जाने का सच बता नहीं सकता था लेकिन मैं ये भी नहीं चाहता था कि वो दोनों सफ़ेदपोश के डर से ही जिएं।

"आज के बाद तुम दोनों को अपने आका से डरने की ज़रूरत नहीं है।" मैंने कहा____"और ना ही उसके डर से कहीं छिपने की ज़रूरत है। बेफ़िक्र हो कर अपने अपने घर जाओ और बिल्कुल वैसे ही बिना डर के अपने घर वालों के साथ रहो जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं था।"

"भाई ये तुम क्या कह रहे हो?" चेतन की आंखें फैली____"क्या तुम हमारी मौत का प्रबंध कर रहे हो?"

"अबे ऐसा कुछ नहीं है।" मैंने कहा____"बल्कि सच कह रहा हूं।"

"लेकिन सफ़ेदपोश का क्या?" सुनील बोल पड़ा।

"अभी तो बड़ा डींगें मार रहे थे कि अब और नहीं।" मैंने घूरते हुए कहा___"फिर अब क्या हुआ? सालो एक तरफ तो कहते हो कि चाहे आज ही मौत आ जाए तुम लोग अब छिप के नहीं रहोगे, दूसरी तरफ उसके डर से गांड़ भी फट रही है तुम दोनों की।"

"मौत से किसे डर नहीं लगता यार?" चेतन ने कहा____"सच कहता हूं भाई, मां चुद गई है इतने समय से ऐसी जिंदगी जीते जीते। अब तो बस यही दिल करता है कि थोड़ी सी शांति मिल जाए।"

"अबे कहा तो मैंने कि आराम से अपने अपने घर जाओ और अपने घर वालों के साथ खुशी खुशी रहो।" मैंने कहा____"अब तुम लोगों के साथ कोई कुछ नहीं करेगा। यूं समझ लो कि सफ़ेदपोश का अंत हो चुका है।"

"क्या सच में?" दोनों बुरी तरह चौंके।

"हां सच में।" मैंने कहा____"उसका एक तरह से अंत ही हो चुका है। ख़ुद सोचो कि महीने भर से तुम दोनों को वो कहीं नज़र क्यों नहीं आया? मतलब साफ है कि उसका किस्सा ख़त्म हो चुका है।"

"वैसे सच कहूं भाई तो हमें भी अब यही आभास होने लगा था।" सुनील ने कहा____"साला इतना समय गुज़र गया मगर एक दिन भी वो हमें नहीं मिला और ना ही किसी माध्यम से उसका संदेश हम तक पहुंचा है। इस वजह से अब हमें भी यही आभास होने लगा था कि वो साला कहीं मर खप गया होगा और इसी लिए हम दोनों यहां चले भी आए हैं।"

"अच्छा किया जो चले आए।" मैंने कहा____"तुम दोनों अब बेफ़िक्र हो जाओ और खुशी खुशी अपने घर वालों के साथ रहते हुए अपनी अपनी ज़िम्मेदारी निभाओ।"

"वो तो अब हम निभाएंगे ही भाई।" चेतन ने कहा____"हमारे ना रहने पर हमारे घर वाले बहुत परेशान और चिंतित थे। हालात बहुत बिगड़ गए हैं। अब हमें सब कुछ सम्हालना है। बहुत हुआ ये लुका छिपी का खेल। हमने इस सब के चक्कर में तुम्हारे विश्वास को भी तोड़ा और तुम्हारे साथ गद्दारी भी की। सच तो ये है कि सच्चे दोस्त के नाम पर कलंक हो चुके हैं हम। हर वक्त यही ख़याल आता है कि जिस दोस्त की वजह से हम दोनों की पहचान थी और जिसकी वजह से हम वो सब सहजता से पा लेते थे जो अपने दम पर कभी पा ही नहीं सकते थे उसके साथ हमने क्या किया है।"

"भूल जाओ सब कुछ।" मैंने कहा____"मैं जानता हूं कि तुम दोनों ने ये सब अपनी मर्ज़ी से नहीं किया है। ख़ैर अब सब ठीक हो चुका है इस लिए अगर तुम लोग वास्तव में मुझे अपना समझते हो तो जो मैं कहता हूं वही करो।"

"बिल्कुल भाई।" सुनील ने अधीरता से कहा____"हम पहले भी तुम्हारा कहा मानते थे और अभी भी तुम्हारा कहा मानेंगे। तुम जो कहोगे वही करेंगे हम।"

"ठीक है।" मैंने दोनों को बारी बारी से देखते हुए कहा____"मेरा तुम दोनों से यही कहना है कि अब से तुम दोनों कोई भी ग़लत काम नहीं करोगे। एक अच्छे इंसान बनोगे और अच्छे इंसानों की ही तरह अपने घर परिवार की ज़िम्मेदारी निभाओगे। अब से कभी किसी की बहू बेटी पर नीयत ख़राब नहीं करोगे बल्कि सबके बारे में अच्छा ही सोचोगे और अच्छा ही आचरण करोगे।"

"अब से हम ऐसा ही करेंगे भाई।" सुनील ने सिर हिलाते हुए कहा____"इतना कुछ होने के बाद अब हमें भी एहसास हो गया है कि ग़लत तो ग़लत ही होता है और ग़लत कर्म करने का बहुत बुरा परिणाम भी भोगना पड़ता है। इस लिए हम दोनों ने यही फ़ैसला किया था कि सब कुछ ठीक हो जाने के बाद हम तुम्हारी ही तरह अच्छे इंसान बनेंगे। आज तुमने भी हमें यही सब करने को कह दिया है तो यकीन मानो अब से हमारा लक्ष्य एक अच्छा इंसान बनना ही रहेगा।"

"बहुत बढ़िया।" मैंने कहा____"अब जाओ और अपने घर वालों से मिलो। वो सब तुम लोगों के लिए बहुत चिंतित होंगे। बाकी कभी किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझसे बोल देना।"

मेरी बात सुन कर दोनों की आंखें भर आईं। दोनों झपट कर मुझसे लिपट गए। मैंने भी दोनों की पीठ थपथपाई। कुछ देर बाद वो दोनों चले गए। उनके जाने के बाद मैं सोचने लगा कि चलो इनका भी बुरा वक्त टल गया और अब से ये दोनों भी एक अच्छा इंसान बनने की राह पर चल पड़े हैं। ख़ैर कुछ देर मैं वहीं बैठा रहा और फिर भुवन को बता कर अपनी मोटर साईकिल से हवेली की तरफ चल पड़ा।​
 
अध्याय - 147
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मेरी बात सुन कर दोनों की आंखें भर आईं। दोनों झपट कर मुझसे लिपट गए। मैंने भी दोनों की पीठ थपथपाई। कुछ देर बाद वो दोनों चले गए। उनके जाने के बाद मैं सोचने लगा कि चलो इनका भी बुरा वक्त टल गया और अब से ये दोनों भी एक अच्छा इंसान बनने की राह पर चल पड़े हैं। ख़ैर कुछ देर मैं वहीं बैठा रहा और फिर भुवन को बता कर अपनी मोटर साईकिल से हवेली की तरफ चल पड़ा।

अब आगे....


शाम को जब मैं अपने खेतों से वापस हवेली आ रहा था तभी अपने घर के बाहर खड़ा रूपचंद्र मिल गया मुझे। ऐसा प्रतीत हवा जैसे वो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था। उसके हाथ देने पर मैंने अपनी मोटर साईकिल उसके सामने आ कर रोक दी।

"मैं तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था वैभव।" मेरे रुकते ही उसने कहा____"असल में तुमसे एक ज़रूरी बात करनी थी।"

"हां कहो।" मैंने कहा।

"यार मैं कई दिनों से देख रहा हूं कि मेरी बहन रूपा कुछ उदास सी रहती है।" रूपचंद्र ने थोड़ा झिझक के साथ कहा____"और मैं जानता हूं कि उसकी उदासी की वजह क्या है। यकीनन वो तुम्हारे लिए उदास है। शायद उसे बहुत याद आती है तुम्हारी। इस लिए मेरा तुमसे ये कहना है कि एक बार मिल लो उससे।"

रूपचंद्र के मुख से ये बात सुन कर मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हुआ। हालाकि मैं जानता था कि रूपचंद्र अब पहले जैसा नहीं रहा था और अब वो सिर्फ अपनी बहन को खुश देखना चाहता था किंतु उसका इस बारे में एकदम से इस तरह खुल कर बात करना मुझे बड़ा अजीब सा लगा था।

"क्या हुआ?" मुझे ख़ामोशी से कुछ सोचते देख उसने पूछा____"तुम क्या सोचने लगे?"

"न...नहीं, कुछ नहीं बस ऐसे ही।" मुझे समझ ना आया कि क्या कहूं।

"कल सुबह मैं तुम्हें यहीं पर मिलूंगा अपनी बहन के साथ।" उसने कहा____"तुम उसे अपने साथ ले जाना। तब तक तुम्हारी ग़ैर मौजूदगी में मैं वहां का काम धाम देखता रहूंगा।"

"ठीक है।" मैंने सिर हिलाया और फिर मोटर साईकिल को आगे बढ़ा दिया।

सारे रास्ते मैं रूपचंद्र और उसकी बहन के बारे में सोचते हुए हवेली पहुंचा। गुसलखाने से हाथ मुंह धोने के बाद मैं बरामदे में मां के पास बैठ गया। मां ने कुसुम को आवाज़ दे कर मेरे लिए चाय लाने को कहा।

मां ने मुझसे मेरा और मेरे काम के बारे में पूछा तो मैंने उन्हें बता दिया। इस बीच कुसुम चाय ले कर आ गई। मैंने कुसुम से चाय लेते हुए चाची के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो अपने कमरे में हैं।

जब से मेनका चाची के बारे में वो सब पता चला था तब से वो कुछ बुझी बुझी सी रहने लगीं थी। कहने को तो हम सब सामान्य ही रहने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अंदर का हाल अभी भी थोड़ा जुदा था। पहले जैसी बात नहीं रह गई थी। रिश्ते तो अब भी वही थे लेकिन उनमें एक खोखलापन सा महसूस होने लगा था।

मेरे माता पिता भी खुद को सामान्य बनाए रखने की पूरी कोशिश करते थे और इसके लिए वो पहले की ही तरह कुसुम और मेनका चाची से बातें करते थे लेकिन पहले जैसी आत्मिक खुशी नज़र नहीं आती थी।

बहरहाल, चाय पीने के बाद मैं मेनका चाची के कमरे की तरफ बढ़ गया। वैसे तो रोज़ ही मैं उन्हें देखता था और उनसे थोड़ी बहुत बातें कर लेता था जोकि स्पष्ट रूप से औपचारिक ही लगती थीं।

ख़ैर मैं चाची के कमरे के पास पहुंचा। दरवाज़े पर दस्तक दी तो अंदर से आवाज़ आई कि आ जाओ। मैं दरवाज़ा खोल कर अंदर दाख़िल हो गया। नज़र चाची पर पड़ी जो अपने पलंग पर उठ कर बैठ गईं थी। मुझ पर नज़र पड़ते ही उनके चेहरे पर कई तरह के भाव उभरते नज़र आए।

"ओह! वैभव तुम हो?" फिर वो अपने होठों पर मुस्कान सजाने का प्रयास करती हुई बोलीं____"आओ आओ बैठो मेरे पास।"

"क्या हुआ चाची?" मैं पलंग पर उनके बगल से बैठते हुए पूछा____"शाम ढल गई और आप अभी तक अपने कमरे में हैं? आपकी तबीयत तो ठीक है ना?"

"तबीयत तो ठीक है वैभव।" चाची ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"बस अंदर का हाल ठीक नहीं है।"

"ऐसा क्यों कह रही हैं आप?" मैंने फिक्रमंदी से पूछा।

"हर वक्त हर पल मुझे अपने और तुम्हारे चाचा द्वारा किए गए गुनाह याद आते रहते हैं।" चाची ने संजीदा हो कर कहा____"और फिर मुझे ये एहसास कराते हुए दुखी करते रहते हैं कि कितने बुरे थे हम। मेरे जेठ और मेरी जेठानी ने हमें सगे माता पिता की तरह प्यार और स्नेह दिया और हमने क्या किया? उनके प्यार और स्नेह को ठोकर मार कर उनके साथ इतना बड़ा छल किया?"

"आप कब तक इन बातों को लिए बैठी रहेंगी चाची?" मैंने उनका कोमल हाथ अपने हाथों में ले कर कहा____"जो गुज़र गया उस पर अब मिट्टी डालिए और पहले की तरह ही सबसे मिलिए और सबके साथ हंसिए बोलिए।"

"यही तो नहीं कर पा रही मैं।" चाची ने हताश हो कर कहा____"किसी से नज़रें मिलाने की हिम्मत ही नहीं होती। ख़ुद को चोर और अपराधी महसूस करती हूं मैं। हर वक्त अंदर से कोई चीख चीख कर कहता है कि मेनका कितनी बड़ी पापिन है तू।"

"हर कोई अपने जीवन में कोई न कोई पाप अथवा अपराध करता है चाची।" मैंने जैसे समझाते हुए कहा____"इस दुनिया में दूध का धुला हुआ कोई नहीं है। मैंने भी अपराध किए हैं, मैंने भी पाप किए हैं और मुझे तो मेरे पापों के लिए सज़ा भी मिल चुकी है। जिसे दिल की गहराइयों से प्रेम किया उसको हमेशा के लिए खो चुका हूं। एक ऐसी निर्दोष और मासूम की हत्या का मुजरिम बन बैठा हूं जिसे मुझसे प्रेम करने और मुझसे ब्याह करने की चाहत के चलते मार डाला गया। आज भी अपने अपराधों के एहसास से मन व्यथित होता है लेकिन फिर भी सबकी खुशी के लिए सब कुछ भूल जाने की कोशिश करता रहता हूं। आप भी सब कुछ भूल जाइए चाची। मुझे अपनी वही चाची चाहिए जो बहुत प्यारी हैं, बहुत सुंदर हैं और जो मुझे अपने बेटे की तरह प्यार करती हैं।"

"व...वैभव...मेरे बेटे।" चाची ने भावावेश में आ कर मुझे अपने गले से लगा लिया और फिर सिसक उठीं।

मैंने भी उन्हें पकड़ कर खुद से लिपटा लिया। कुछ देर तक चाची मुझसे लिपटी सिसकती रहीं फिर अलग हुईं। उनकी आंखें रोने सिसकने से सुर्ख हो गईं थी और चेहरा दुख और संताप से व्यथित दिख रहा था।

"क्या अब भी मुझे अपनी सबसे प्यारी चाची समझते हो तुम?" फिर उन्होंने बड़ी मासूमियत से मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"क्या तुम्हें मेरे चेहरे में कोई पापिन नज़र नहीं आती?"

"बिल्कुल भी नहीं।" मैंने कहा____"बल्कि मुझे तो पहले की ही तरह अपनी चाची सबसे प्यारी, सबसे सुंदर और मुझे सबसे ज़्यादा प्यार करने वाली ही नज़र आती हैं।"

"मेरी क़सम खा कर कहो कि ये सच्चे दिल से कह रहे हो तुम।" चाची ने मेरा हाथ अपने सिर पर रख कर कहा____"मेरी क़सम खा कर कहो कि तुम ऐसा सिर्फ मेरा दिल रखने के लिए नहीं कह रहे हो।"

"हां मैं आपकी क़सम खा कर कहता हूं कि मैंने जो भी कहा है वो सच्चे दिल से कहा है।" मैंने कहा____"आप अब भी मेरी वही चाची हैं जो सबसे प्यारी हैं और जो मुझे अपने बेटे की तरह बहुत प्यार करती हैं।"

"ओह! वैभव। मेरा सबसे अच्छा बेटा।" चाची ने खुश हो कर एक बार फिर से मुझे अपने सीने से छुपका लिया। एक बार फिर से उनकी सिसकियां निकल गईं और उनकी आंखें छलक पड़ीं।

"चलिए अब इस तरह से रोइए मत।" मैंने उन्हें खुद से अलग कर के और उनके आंसू पोंछते हुए बड़े स्नेह भाव से कहा____"और मुझसे वादा कीजिए कि अब से आप मेरी प्यारी सी चाची को रुलाएंगी नहीं।"

मेनका चाची की आंख से फिर से आंसू का एक कतरा छलक गया। उन्होंने बड़ी ही ममता से देखा मुझे और फिर मुस्कुराते हुए अपने आंसू पोछने लगीं।

"अब चलिए, कमरे में इस तरह अकेले मत बैठिए।" मैंने कहा____"आपको पता है आपके बिना आज कल ये हवेली शोख और चंचल सी नज़र नहीं आती। इसे फिर से महकाइए, खुद भी खुश रहिए और दूसरों को भी खुशियां दीजिए।"

आख़िर मेरे ऐसा कहने पर चाची के चेहरे पर पहले जैसी रौनक लौटती सी नज़र आई। कुछ ही देर में मैं उन्हें ले कर बाहर आ गया। मां अब भी बरामदे में एक कुर्सी पर बैठी हुईं थी। निर्मला काकी और उसकी बेटी रसोई में थीं। मेनका चाची आ कर मां के पास ही बैठ गईं। मैं ये सोच कर अपने कमरे की तरफ चला गया कि मेरे रहते शायद चाची खुल कर अपनी जेठानी से बातें न कर सकें।

✮✮✮✮

अगले दिन।
सुबह नाश्ता कर के मैं हवेली से निकला। मुझे याद आ गया था कि आज मुझे रूपा से मिलना है और रूपचंद्र के अनुसार मुझे उसे अपने साथ कहीं ले जाना है। इस लिए मैं जीप ले कर हवेली से निकला। मन में रूपा से मिलने की हल्की खुशी तो थी किंतु बार बार ज़हन में भाभी का भी ख़याल आ जाता था। कल रात भी मैं उन्हीं के बारे में सोचता रहा था।

जब मैं जीप से रूपचंद्र के घर के सामने पहुंचा तो देखा रूपचंद्र वहीं मोड़ के किनारे पर पेड़ के पास अकेला खड़ा था। ज़ाहिर है मेरे आने का इंतज़ार कर रहा था वो।

"बस दो मिनट रुको मैं अभी आता हूं। वो मेरे पास आ कर बोला और फिर बिना मेरा कोई जवाब सुने वो लगभग दौड़ता हुआ अपने घर की तरफ चला गया।

कुछ देर बाद जब वो वापस आया तो उसके साथ रूपा भी थी। उसका चेहरा एकदम से खिला हुआ नज़र आ रहा था। ज़ाहिर है मुझसे मिलने और मेरे साथ कहीं अकेले जाने के एहसास से ही वो ख़ुश हो गई थी।

"मेरी बहन का ख़याल रखना वैभव।" रूपा जब जीप में बैठ गई तो रूपचंद्र ने मुझसे कहा____"और हां सम्हल कर जाना। वैसे दोपहर तक आ जाओगे ना?"

"हां।" मैंने सिर हिलाया और जीप को आगे बढ़ा दिया।

सच कहूं तो ये सब मेरे लिए बहुत ही अजीब था। शायद ही कहीं ऐसा हुआ होगा कि ब्याह से पहले ही लड़की का भाई अपनी बहन को उसके होने वाले पति के साथ यूं भेजा होगा, और तो और उसके बाकी घर वालों को भी इससे कोई आपत्ति नहीं हुई होगी।

"देखा।" कुछ दूर आते ही मैंने रूपा से कहा____"मैंने कहा था ना कि तुम्हारा भाई ख़ुद ही समझ जाएगा और फिर बिना तुम्हारे कुछ कहे ही वो तुम्हें मुझसे मिलाने का जुगाड़ कर देगा।"

"हां।" रूपा ने खुशी से मुस्कुराते हुए कहा____"मेरे भैया बहुत अच्छे हैं लेकिन मैं ये चाहती थी कि तुम ही हमारे मिलने का कोई जुगाड़ करते।"

"यार मैं कैसे करता?" मैंने कहा____"तुम्हारे भैया जितनी हिम्मत नहीं है मुझमें। वैसे मानना पड़ेगा, तुम्हारा भाई है बड़े कमाल का। मतलब कि अपनी बहन को इस तरह मेरे साथ अकेले ही भेज दिया।"

"हां तो इसमें ग़लत क्या है?" रूपा ने अपने भाई का पक्ष ले कर कहा____"उन्हें अपनी बहन पर और उसके प्रेम पर पूरा भरोसा है। इससे भी बड़ी बात ये कि उन्हें अपनी बहन की खुशियों का ख़याल है इसी लिए उन्होंने बिना मेरे कुछ कहे ही मेरा हाल समझ लिया और फिर तुम्हारे साथ भेज दिया।"

"हां बिल्कुल।" मैंने कहा____"ख़ैर ये बताओ कि कहां चलना चाहती हो तुम?"

"जहां मेरा साजन मुझे ले जाना चाहे।" रूपा ने बड़े प्रेम भाव से मेरी तरफ देखा।

"ओह! ऐसा क्या?" मैं मुस्कुराया।

"हां जी।" रूपा भी मुस्कुराई।

"ठीक है।" मैंने कहा____"तो सबसे पहले हम चलेंगे अनुराधा से मिलने। फिर अपने मकान में थोड़ा समय गुज़ारेंगे और उसके बाद सरोज काकी के घर ले चलूंगा तुम्हें।"

"हां ऐसा ही करते हैं।" रूपा ने कहा____"वैसे एक दिन मैं मां के साथ गई थी मां (सरोज) से मिलने।"

"अच्छा कब?" मैं उसकी इस बात से चौंका और साथ ही ये सोच कर हैरान भी हुआ कि उसकी मां भी उसके साथ गई थी।

"दो दिन पहले।" रूपा ने बताया____"असल में मैं मां (सरोज) से मिलना चाहती थी और उनका हाल चाल जानना चाहती थी। अपनी मां से जब इस बारे में सब कुछ बताया तो वो बड़ा खुश हुईं और खुद भी मां से मिलने की इच्छा कर बैठीं।"

"तो सरोज काकी से मिलने के बाद तुम्हारी मां को कैसा लगा था?" मैंने पूछा।

"बहुत अच्छा लगा था उन्हें।" रूपा ने उत्साहित भाव से कहा____"जब हम वापस आने लगे तो रास्ते में मां मुझसे कह रहीं थी कि तेरी मां (सरोज) तो तुझे तेरी सगी मां से भी ज़्यादा प्यार करती हैं।"

"ओह! और?"

"और क्या? वो बहुत खुश थीं।" रूपा ने कहा____"ख़ास कर इस बात से कि मैंने उनके (सरोज) दुख दर्द को अपने दुख दर्द की तरह समझा और फिर उनकी इस तरह से देख भाल की। फिर ये भी कहा कि अब जब मैंने उन्हें अपनी मां माना ही है तो बेटी की तरह हमेशा अपना फर्ज़ भी निभाऊं। शायद इसी के चलते वो अपनी बेटी के दुख से निजात पा सकें।"

"हम्म्म्म।"

"फिर उन्होंने ये भी कहा कि मेरा जब भी मन करे तो मैं अपनी दूसरी मां के घर जा सकती हूं।" रूपा ने आगे कहा____"और वहां जा कर अपनी दूसरी मां को बेटी जैसा लाड़ प्यार दे सकती हूं।"

"चलो ये तो अच्छी बात हुई ना।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"इसी बहाने तुम घर से भी निकल सकती हो और मुझसे भी मिल सकती हो।"

"हां।" रूपा ने कहा____"लेकिन लगता है कि तुम्हें मुझसे मिलने की ज़रा भी चाहत नहीं रहती है।"

"अरे! ऐसा क्यों कह रही हो तुम?" मैं एकदम से चौंका।

"क्यों न कहूं?" रूपा ने तुनक कर कहा____"अगर तुम्हें चाहत होती तो तुम मुझसे मिलने का खुद ही कोई जुगाड़ करते। इतने दिनों में एक दिन भी मुझे अपनी सूरत नहीं दिखाई तुमने। वैसे तो बड़ा कहते थे कि अब से मैं तुम्हारी हर दुख तकलीफ़ का ध्यान रखूंगा।"

"यार माफ़ कर दो इस बात के लिए।" मैंने सच में खेद प्रकट किया____"लेकिन यकीन मानों इसके लिए मैं तुम्हारे भाई से कहने की हिम्मत ही नहीं कर सका था। पता नहीं क्यों लेकिन अब मुझे तुम्हारे भाई से इस मामले में बहुत ज़्यादा झिझक होती है बात करने में। मैं तो ये सोच कर हैरान होता हूं कि तुम्हारा भाई कैसे इतनी सहजता से तुम्हारे मामले में मुझसे बातें कर लेता है?"

"वो इस लिए क्योंकि वो अपनी बहन को बहुत प्यार करते हैं।" रूपा ने बड़े गर्व के साथ कहा____"अपनी बहन को खुश करने के लिए वो कुछ भी बिना संकोच के कर सकते हैं।"

"हां ये बात तो मैं अब समझ चुका हूं।" मैंने सिर हिला कर कहा____"तुम्हारा भाई वाकई तुम्हारी ख़ुशी के लिए कुछ भी कर सकता है।"

"काश! मेरा महबूब भी मुझे ऐसा ही प्यार करता और मेरी खुशी के लिए कुछ भी करता।" रूपा ने मायूसी ज़ाहिर की।

"तो तुम ये समझती हो कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूछा।

"अगर करते हो तो सबूत दो।" रूपा ने भी मेरी तरफ देखते हुए कहा।

मैंने दो पल सोचा और जीप को सड़क पर रोक दिया। रूपा मेरे ऐसा करते ही चौंकी। पलक झपकते ही उसके चेहरे पर घबराहट के भाव उभर आए। शायद ये सोच कर कि कहीं उसकी बातों से मैं नाराज़ तो नहीं हो गया?

रूपा घबराए हुए भाव से अपलक मुझे ही देखे जा रही थी। इधर मैंने जीप रोकने के बाद उसकी तरफ देखा। दिलो दिमाग़ में हलचल सी मच गई थी। मैं थोड़ा उसकी तरफ खिसका और फिर दोनों हाथों में उसके चेहरे को ले लिया। दो पल उसकी आंखों में बड़े प्रेम से देखा। फिर झुक कर पहले उसके माथे को चूमा और फिर उसके सुर्ख़ होठों को अपने होठों की गिरफ़्त में ले लिया। मेरे ऐसा करते ही रूपा का जिस्म कांप सा गया किंतु उसने कोई विरोध नहीं किया।

मैं बहुत ही आहिस्ता से और बड़े ही प्रेम भाव से उसके शहद जैसे मीठे होठों को चूमने चूसने लगा। रूपा कुछ ही पलों में जैसे दूसरी दुनिया में पहुंच गई। मैं क़रीब एक मिनट तक उसके होठों को चूमता चूसता रहा उसके बाद उससे अलग हो गया।

रूपा की सांसें इतने में ही भारी हो गईं थी और आनंद की अनुभूति के चलते उसकी आंखें बंद हो गईं थी। जैसे ही उसे ये आभास हुआ कि मैंने उसे दूर कर दिया है तो उसने अपनी आंखें खोल कर मुझे देखा।

"अपने प्यार का यही सबूत दे सकता हूं।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए थोड़ा गंभीर भाव से कहा____"बाकी मुझे नहीं पता कि प्यार का इसके अलावा भी कोई सबूत दिया जाता है। हां अगर तुम्हें पता हो तो बता दो, मैं वो भी कर के दिखा दूंगा।"

"तुम्हें कुछ भी साबित करने की ज़रूरत नहीं है मेरे दिलबर।" रूपा ने दीवानावार सी हो कर कहा____"मैं तो बस तुमसे मज़ाक कर रही थी।"

"हो सकता है कि तुमने मज़ाक किया हो।" मैंने उसी गंभीरता से कहा____"लेकिन मैं अच्छी तरह समझता हूं कि मुझे सच में तुम्हारे प्रेम की कद्र करनी चाहिए और तुमसे वैसा ही प्यार करना चाहिए जैसा मैं अनुराधा से करता था। मेरा यकीन करो, मेरे दिल में तुम्हारे लिए भी प्रेम जैसे ही जज़्बात जन्म ले चुके हैं और इस बात का भी यकीन करो कि आगे चल कर ये जज़्बात और भी गहरे हो जाएंगे। तुम जैसी प्रेम की पुजारन के साथ रहने पर भी अगर मेरे दिल में तुम्हारे लिए प्रेम न जन्मे तो ये ऊपर वाले का क़हर ही समझा जाएगा।"

"बस कुछ मत कहो।" रूपा ने एकदम से मेरा चेहरा थाम लिया____"तुम्हारी इस दीवानी के लिए यही काफी है कि उसका महबूब उसको अपना समझता है और उसे अपनी बना लेना चाहता है।"

"मेरे जीवन के हर ज़र्रे पर तुम्हारा हक़ है।" मैंने कहा____"तुम्हें एक बात बताना चाहता हूं। मेरे माता पिता मेरा ब्याह तुम्हारे साथ साथ रागिनी भाभी से भी करना चाहते हैं। ये बात तुम्हारे घर वालों को भी पता है।"

"य...ये क्या कह रहे हो तुम?" रूपा ने एकदम से चकित हो कर कहा।

"हां रूपा।" मैंने कहा____"मुझे कल ही अपनी मां से इस बात का पता चला है। वैसे तुम्हारे भाई को तो मुझसे भी पहले ये बात पता थी। उसी ने संकेत दे कर इस बात का एहसास कराया था मुझे और फिर मैंने अपनी मां से पूछा। तब मुझे इस बात का पता चला कि पिता जी भाभी के साथ मेरा ब्याह कर देना चाहते हैं। इसी लिए उन्होंने पहले तुम्हारे काका गौरी शंकर को बताया था और फिर उन्होंने भाभी के पिता जी से भी बात की थी।"

"ये तो बड़े ही आश्चर्य की बात है।" रूपा ने आश्चर्य से आंखें फैलाए कहा____"तो क्या दीदी के पिता जी मान गए इस रिश्ते के लिए? और क्या दीदी भी मान गईं हैं? वैसे मुझे ये समझ नहीं आया कि तुम्हारे पिता जी ऐसा क्यों करना चाहते हैं?"

"अपनी बहू का जीवन संवारने के लिए और उन्हें खुशियां देने के लिए।" मैंने कहा____"हालाकि इसके लिए वो भाभी का ब्याह कहीं और भी करवा सकते थे लेकिन ऐसा वो इस लिए करना चाहते हैं क्योंकि वो भाभी को बहुत चाहते हैं और चाहते हैं कि भाभी हमेशा उनकी बहू के रूप में उनकी हवेली में ही रहें। अब क्योंकि वो भाभी को विधवा के रूप में दुखी भी नहीं देख सकते इस लिए उन्होंने उन्हें खुशियां देने के लिए और उनका जीवन फिर से संवारने के लिए उनका ब्याह मुझसे कर देने का निर्णय लिया। कल मां भी मुझसे यही सब कह रहीं थी और मुझसे भी पूछ रहीं थी कि क्या मैं अपनी भाभी को इस तरीके से खुश होते नहीं देखना चाहता? सच कहूं तो कल से इस बारे में सोच सोच कर मैं बड़ी दुविधा और परेशानी में हूं। हालाकि भाभी ये रिश्ता मुश्किल ही है कि स्वीकार करेंगी लेकिन मैं ये भी समझता हूं कि अंततः उन्हें अपने सास ससुर के प्रेम भाव के सामने झुकना ही पड़ेगा और फिर उन्हें ये रिश्ता स्वीकार करना पड़ेगा। अपने माता पिता की खुशी और इच्छा के लिए मुझे भी इस रिश्ते को स्वीकार करना पड़ेगा लेकिन इस सबके बीच मैं तुम्हें किसी भी कीमत नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। मेरे जीवन में तुम्हारी अहमियत भी उतनी ही है जितनी की अनुराधा की। सच कहूं तो मुझ पर सबसे ज़्यादा हक़ ही अब तुम्हारा है रूपा। इसी लिए मैं तुम्हारी इजाज़त के बाद ही इस रिश्ते को स्वीकार करूंगा, अन्यथा नहीं।"

रूपा गहन गंभीरता से मेरी बातें सुन रही थी। मैं जब ये सब बोल कर चुप हो गया तो वो एकदम से चौंकी और फिर मेरी तरफ ग़ौर से देखने लगी। इधर मेरी धड़कनें एकाएक ही बढ़ चलीं थी।

"कल रात से मैं इस सबके बारे में सोचता आ रहा हूं।" जब वो मेरी तरफ देखने लगी तो मैंने फिर से कहा____"एक तरफ जहां इस बात से मैं दुविधा और परेशानी में फंस गया हूं कि आख़िर अब क्या करूं तो वहीं दूसरी तरफ बार बार तुम्हारे बारे में भी सोचता हूं कि मैं अब तुम्हारे साथ कोई भी अन्याय नहीं करना चाहता। मेरे लिए तुमने क्या कुछ नहीं किया है और क्या कुछ नहीं सहा है। इतने पर भी अगर तुम्हारे साथ अन्याय ही होता रहा तो ऊपर वाला मुझे कभी माफ़ नहीं करेगा। मैं सच कहता हूं रूपा, मैं अब तुम्हारे साथ कोई अन्याय नहीं कर सकता। मेरी मुकम्मल ज़िंदगी पर अब सिर्फ तुम्हारा ही हक़ है। तुम्हारा जो भी फ़ैसला होगा वही करूंगा मैं।"

"एक समय ऐसा आया था जब मैंने तुम पर सिर्फ अपना ही हक़ समझ लिया था।" रूपा ने गहरी सांस ले कर कहा____"किसी और लड़की से तुम्हारे प्रेम संबंध का जान कर बहुत तकलीफ़ हुई थी मुझे। जब तुम मिले थे तो तुमसे इस बारे में जाने क्या क्या कह गई थी मैं लेकिन फिर जल्द ही समझ आ गया था कि प्रेम में हक़ जैसी कोई बात ही नहीं होती। अगर कुछ होता है तो वो है...सिर्फ प्रेम। पहले यही समझी थी कि अनुराधा के चलते मेरा प्रेम बंट जाएगा लेकिन जल्दी ही समझ आ गया था कि प्रेम कभी नहीं बंटता, बल्कि वो तो और भी ज़्यादा बढ़ता ही रहता है। जब प्रेम का असल मर्म समझ गई तो सब कुछ ठीक हो गया। जिस लड़की के प्रति जलन पैदा हुई थी उसी लड़की के प्रति प्रेम और स्नेह पैदा हो गया। इन सब बातों को कहने का सिर्फ एक ही मतलब है मेरे साजन कि मैं जिससे प्रेम करती हूं उस पर ना हक़ जताना चाहती हूं और ना ही किसी तरह का प्रतिबंध लगाना चाहती हूं। मैं तो अपने दिलबर की दीवानी हूं। अपने दिलबर को सिर्फ प्रेम करूंगी। वो जैसा चाहेगा वैसे ही खुश रहूंगी।"

"र...रूपा।" उसकी बातें मेरी आत्मा तक को झकझोर गईं। जज़्बात बुरी तरह मचल उठे।

उसकी दीवानगी देख और उसकी बातें सुन कर मेरी आंखें भर आईं। मैंने झपट कर उसे अपने सीने से लगा लिया। अपने आपको आज सबसे ज़्यादा खुश किस्मत इंसान होने का एहसास हो रहा था मुझे। कैसी अद्भुत लड़की थी वो। शायद ग़लती से कलियुग में पैदा हो गई थी।

"मुझे इसी तरह प्रेम से अपने सीने से लगा लिया करोगे तो तुम्हारी इस प्रेम दिवानी को बड़ा सुकून मिल जाया करेगा।" मेरे कानों में उसकी रुंधी हुई सी आवाज़ पड़ी____"अपने देवता के होठों को चूम लेने दिया करोगे तो मुझे तृप्ति मिल जाया करेगी। बोलो मेरे साजन, इतना तो करने दोगे न मुझे?"

"ऐसा क्यों कहती हो रूपा?" मैं बहुत ही ज़्यादा तड़प उठा____"मेरे तन और मन पर ही नहीं बल्कि मेरे वजूद के हर ज़र्रे पर तुम्हारा अधिकार है....मेरी रूपा का अधिकार है। मैं चाहता हूं कि मेरी रूपा मुझे ऐसे ही प्रेम करे और हमेशा मुझे धन्य करती रहे। मैं ये भी चाहता हूं कि मेरी रूपा मुझे भी अपनी तरह प्रेम करना सिखाए ताकि मैं भी उसका दीवाना हो कर उससे ऐसे ही प्रेम करूं।"

मेरी ये बातें सुन कर रूपा सिसकते हुए और भी जोरों से मुझसे लिपट गई। ऐसा लगा जैसे वो मुझसे एक पल के लिए भी दूर नहीं होना चाहती थी। मेरा भी उसे खुद से अलग करने का कोई इरादा नहीं था। एक अलग ही एहसास, एक अलग ही सुकून मिल रहा था मुझे।​
 
अध्याय - 148
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"अरे‌ वाह! किसी के ख़यालों में खोई हुई हैं क्या मेरी ननद रानी?" वंदना ने रागिनी को अपलक एक जगह शून्य में घूरते हुए देखा तो मज़ाकिया लहजे से पूछा____"ज़रा मुझे भी तो बताओ कि आज कल वो कौन है जो ख़यालों में आ कर मेरी प्यारी सी रागिनी को तंग करता है?"

वंदना की ये बातें सुनते ही रागिनी पहले तो चौंक ही पड़ी किंतु फिर खुद को सम्हालते हुए बोली____"ऐसी कोई बात नहीं है भाभी। आप क्यों बेवजह इस तरह मुझे छेड़ती हैं?"

"अरे! मैं कहां छेड़ रही हूं?" वंदना ने रागिनी के दोनों कन्धों पर हाथ रख कर बड़े स्नेह भाव से कहा____"क्या सच में तुम्हें ऐसा लगा है?"

रागिनी कुछ पलों तक अपनी भाभी को अपलक देखती रही, फिर थोड़ा गंभीरता से बोली____"मैं सिर्फ इस सोच में डूबी हुई थी कि इंसानों की किस्मत कितनी अजीब हुआ करती है। वक्त और हालात कितने बेरहम हुआ करते हैं जिसके चलते इंसान कितना बेबस और लाचार हो जाया करता है।"

"हां मानती हूं ये बात।" वंदना ने सामान्य भाव से कहा____"लेकिन ये भी मानती हूं कि कभी कभी इंसानों की किस्मत तारों की तरह भी चमक उठती है। कभी कभी वक्त और हालात इंसानों के लिए सबसे बड़े मरहम भी बन जाते हैं। उस मरहम से जब इंसान का इलाज़ होता है तो इंसान को अपना जीवन एकाएक बड़ा ही ख़ूबसूरत लगने लगता है।"

"क्या आप ये कहना चाहती हैं कि इस समय वक्त और हालात मेरे लिए मरहम ले कर आए हैं?" रागिनी ने अजीब भाव से पूछा____"जिसके चलते मुझे अपना जीवन बड़ा ही सुन्दर लगने लगेगा?"

"बिल्कुल।" वंदना ने कहा____"और ये बात तुम भी अच्छी तरह समझती हो रागिनी। हां ये हो सकता है कि तुम समझते हुए भी उसको मानना नहीं चाहती हो। एक बात हमेशा याद रखो कि वक्त इंसान को अपने अच्छे और बुरे का चुनाव करने के लिए सिर्फ एक ही मौका देता है। इस समय तुम्हारे सामने यही स्थिति है। मेरा तुमसे यही कहना है कि अपनी खुशी के लिए न सही लेकिन अपने सास ससुर की खुशी के लिए इस मौके को थाम लो। ऐसे सास ससुर किसी औरत को बड़ी ही किस्मत से मिलते हैं जो अपनी बहू को बहू नहीं बल्कि अपनी बेटी समझते हों और उसे बेटी की ही तरह प्यार और स्नेह देते हों। यूं तो सास ससुर मुझे भी मिले हैं लेकिन तुम भी जानती हो कि मेरे सास ससुर ने कभी मुझे बेटी कह कर नहीं पुकारा। हालाकि ऐसा भी नहीं है कि वो मुझे प्यार अथवा स्नेह नहीं देते हैं लेकिन औरत को अपने सास ससुर के मुख से बेटी सुनने में जो आनंद और सुकून मिलता है वो बहू सुनने में नहीं मिलता।"

रागिनी को समझ ना आया कि क्या कहे? इस बात को तो वो भी स्वीकार करती थी कि उसके सास ससुर वास्तव में बहुत अच्छे हैं और इसका उसे हमेशा ही गर्व रहा है।

"इंसान को कभी कभी अपने लिए स्वार्थी भी बन जाना चाहिए।" उधर वंदना ने फिर कहा____"इसी में उसका भला होता है। मैं ये नहीं कहती कि तुम जो सोचती हो वो ग़लत है किंतु हां मैं ये ज़रूर कहूंगी कि तुम ज़रूरत से ज़्यादा ही इस रिश्ते के बारे में सोच रही हो। तुम्हारा मन साफ है और तुम्हारा चरित्र भी बहुत पवित्र है, ये बहुत ही अच्छी बात है लेकिन क्या फ़ायदा मन के साफ होने का और चरित्र के पवित्र होने का जब उसकी वजह से तुम्हारे अपने तुम्हें खुशी से अपना जीवन जीते हुए ही न देख सकें?"

"आप ये कैसी बातें कर रहीं हैं भाभी" रागिनी के समूचे जिस्म में झुरझुरी सी हुई____"क्या आप ये कह रही हैं कि मैं अपनों को खुश नहीं देखना चाहती?"

"मैंने ऐसा नहीं कहा।" वंदना ने कहा____"बल्कि ये कहा है कि क्या फ़ायदा उस साफ मन का और पवित्रता का जिसकी वजह से तुम्हारे अपने तुम्हें खुशी से अपना जीवन जीते हुए न देख सकें। तुम्हारे अपने तभी खुश होंगे जब तुम अपने जीवन से खुश होगी।"

"मैं ये सब समझती हूं भाभी।" रागिनी ने अधीरता से कहा____"लेकिन हर बार मेरा मन इसी सोच पर आ कर अटक जाता है कि कैसे इस रिश्ते को अपनाऊं? कैसे अपने देवर को एक पति की नज़र से देखने लगूं? कैसे उसको पति के रूप में अपने मन में बैठाऊं? जब ये सब ख़याल मन में आते हैं तो जैसे द्वंद सा छिड़ जाता है।"

"द्वंद तो तब भी छिड़ता है रागिनी जब किसी लड़की का पहली बार किसी से ब्याह होता है और उसे किसी को अपना पति मानना होता है।" वंदना ने जैसे समझाते हुए कहा____"हर नया रिश्ता शुरू शुरू में अजीब सा ही एहसास कराता है लेकिन फिर उसी रिश्ते से लगाव होने में देर भी नहीं लगती। रिश्ते की डोर में जब दो इंसान बंध जाते हैं तो उसके साथ ही वो उस रिश्ते के एहसास से भी बंध जाते हैं। पति पत्नी के रिश्ते का एहसास कैसा होता है क्या ये भी बताने की ज़रूरत है तुम्हें?"

रागिनी कुछ बोल ना सकी। उसके मन में विचारों का बवंडर सा चल पड़ा था। वंदना उसकी फितरत से अच्छी तरह वाक़िफ थी इस लिए उसने इससे ज़्यादा आगे कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। उसने रागिनी के बाएं गाल को बड़े स्नेह से सहलाया और फिर पलट कर चली गई। घर के पीछे अमरूद के पेड़ के पास खड़ी रागिनी मन में ख़यालों के जाने कितने ही विचार लिए अपनी भाभी को जाता देखती रही।

✮✮✮✮

मैं और रूपा जीप से अपने मकान में पहुंचे। उन सब बातों के बाद अब हम दोनों को बहुत ही अच्छा महसूस हो रहा था। रूपा सच में बहुत अद्भुत लड़की थी और मैं इस बात पर गर्व कर रहा था कि ऐसी अद्भुत लड़की मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनने वाली है, या ये कहूं कि बन ही चुकी है।

जीप से उतर कर हम दोनों अनुराधा के विदाई स्थल पर पहुंचे। उस जगह पर पहुंचते ही हम दोनों भावुक हो गए। पलक झपकते ही मानों सारी बातें और सारी यादें ताज़ा सी हो गईं। एक तरफ जहां मेरा मन भारी हो गया वहीं दूसरी तरफ रूपा की जाने क्या सोच कर आंखें नम हो गईं।

"एक दिन वक्त की गर्द में ये जगह ग़ायब सी हो जाएगी।" मैंने अधीरता से कहा____"मैं नहीं चाहता कि ऐसा हो, इस लिए मैंने फ़ैसला किया है कि इस जगह पर एक अच्छा सा चबूतरा बनवाऊंगा जिससे ये जगह हमेशा मेरी आंखों को नज़र आती रहे।"

"सिर्फ चबूतरा नहीं।" रूपा ने भारी गले से कहा____"बल्कि उस चबूतरे के ऊपर अगर मंदिरों जैसा गोल गुम्बद भी हो तो ज़्यादा अच्छा होगा। उससे चबूतरे में छांव रहेगी जिसके चलते मेरी गुड़िया को धूप में तपना नहीं पड़ेगा।"

"ओह! हां सही कहा तुमने।" मैंने उसकी तरफ प्रशंसा की द्रष्टि से देखते हुए कहा____"तुमने बिल्कुल सही बात कही है। अगर चबूतरे के ऊपर कुछ नहीं होगा तो सचमुच मेरी अनुराधा को धूप लगेगी, बारिश के दिनों में वो भीगेंगी भी और ठंड के दिनों में उसे ठंड भी लगेगी। तुमने बहुत ही अच्छा सुझाव दिया है मुझे। मैं अब वैसा ही चबूतरा बनवाऊंगा जिसके ऊपर मंदिरों की तरह गुम्बद हो।"

काफी देर तक हम दोनों उस जगह पर बैठे रहे। मकान में चौकीदारी करने वाले लोग थे जो हमें आया देख एकदम से मुस्तैद से नज़र आने लगे थे। ख़ैर हम दोनों उठे और फिर जीप में बैठ कर सरोज काकी के घर की तरफ चल पड़े। रूपा ख़ामोश थी। उसके चेहरे पर गंभीरता के भाव थे। शायद उसके मन में अब भी अनुराधा के ही ख़याल थे।

कुछ ही देर में मैंने जीप को सरोज काकी के घर के बाहर रोका। घर के बाहर अनूप और मालती की छोटी लड़की खेल रही थी। हमें आया देख वो दोनों जैसे खेलना भूल गए थे। रूपा को देखते ही अनूप का चेहरा खिल उठा था। वो अपनी तोतली भाषा में दीदी आई दीदी आई कह कर खुशियां मनाने लगा था।

रूपा जल्दी ही अनूप के पास पहुंची और उसको दुलार करने लगी। घर का दरवाज़ा खुला हुआ था इस लिए हम सब अंदर दाखिल हो गए। अंदर सरोज काकी अपनी देवरानी मालती के पास बैठी बातें कर रही थी। हमें आया देख वो दोनों बड़ा खुश हुईं। रूपा आगे बढ़ कर सरोज काकी से गले मिली और फिर मालती से भी।

"अब तो किसी बात की परेशानी नहीं है ना काकी?" मैंने मालती से मुखातिब हो कर पूछा____"सब ठीक है ना अब?"

"हां छोटे कुंवर।" उसने कहा____"आपकी कृपा से सब ठीक है। घर मिल गया, ज़मीनें मिल गईं तो अब परेशानी जैसी कोई बात नहीं रही।"

"चलो फिर तो अच्छी बात है।" मैंने कहा।

रूपा ने तब तक एक चारपाई बरामदे में बिछा दी थी। ठंड का मौसम शुरू हो चुका था इस लिए धूप नहीं थी आंगन में। मैं चारपाई पर बैठ गया था जबकि सरोज के ज़ोर देने पर रूपा उसके पास ही बैठ गई थी। उधर मालती मेरे लिए पानी और गुड़ ले आई।

क़रीब एक घंटे तक मैं वहां रहा। उसके बाद मैंने रूपा को चलने का इशारा किया। समय धीरे धीरे बढ़ रहा था। मैंने रूपचंद्र से कहा था कि मैं रूपा को दोपहर तक वापस ले आऊंगा। अतः सरोज काकी से इजाज़त ले कर मैं और रूपा वहां से चल पड़े।

"अभी तो दोपहर होने में समय है।" रूपा ने रास्ते में मुझसे कहा____"क्यों न हम लोग वापस मकान में ही चलें।"

"वहां पर क्या करेंगे?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"वैसे भी वहां चौकीदारी करने वाले लोग हैं। अगर हम वहां रुके और उन्हें मकान से कहीं जाने को कहा तो वो ग़लत सोच बैठेंगे हमारे बारे में।"

"पहले भी तो हम दोनों उस मकान में अकेले ही रहते थे।" रूपा ने कहा____"क्या तब नहीं सोचते रहे होंगे?"

"तब की बात और थी।" मैंने कहा____"क्योंकि तब उन्हें भी पता था कि मेरी मानसिक हालत ठीक नहीं थी और तुम मेरे साथ इसी लिए वहां रहने आई थी।"

"साफ साफ कह दो ना कि मेरे साथ वक्त नहीं बिताना चाहते हो।" रूपा ने हौले से मुंह बना कर कहा____"बहाना बनाने की ज़रूरत नहीं है तुम्हें।"

"क्या सच में तुम्हें ऐसा लगता है कि मैं तुमसे बहाना बनाऊंगा?" मैंने हैरानी से उसे देखा____"अच्छा ठीक है हम वहीं चलते हैं। मैं अपनी रूपा को बस खुश देखना चाहता हूं।"

"सच कह रहे हो?" रूपा ने एकदम से खुश हो कर पूछा।

मैंने हां में सिर हिला दिया। कुछ ही पलों में जीप मकान में पहुंच कर रुकी। चौकीदारी करने वाले लोग झट से बाहर आ गए। वो दो ही लोग थे जबकि बाकी दो सरोज के खेतों पर थे। मैंने दोनों को कुएं से पानी भर लाने को कहा और रूपा को ले कर लकड़ी की चारदीवारी के अंदर आ गया।

"काश! यहां दूध होता।" रूपा ने मकान के अंदर आ कर कहा____"तो मैं तुम्हारे लिए चाय बना देती।"

"अरे! इसकी कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने कहा____"वैसे भी सरोज काकी के यहां तो हमने पी ही थी चाय।"

"फिर क्या करें?" रूपा ने मासूम सी शक्ल बना कर मेरी तरफ देखा।

"जो तुम्हारा दिल करे करो।" मुझे भी जैसे कुछ समझ नहीं आ रहा था इस लिए यही बोला।

"सच में??" रूपा ने सहसा मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखा तो मैं एकदम से चौंका।

"ऐसे मत देखो वरना मेरे अंदर पहले वाला वैभव जाग जाएगा।" मैंने उसे घूरते हुए कहा____"और मैं अब ये किसी भी कीमत पर नहीं चाहता कि वो जागे।"

"हाय! मेरे वैभव को क्यों अंदर ही अंदर मार देने पर तुले हो तुम?" रूपा ने कहा____"वैसे सच कहती हूं मुझे तुम्हारा पहले वाला रूप और अंदाज़ ज़्यादा पसंद था।"

"तुम्हें पता है मैंने उन दोनों से पानी लाने को क्यों कहा है?" मैंने कहा____"वो इस लिए ताकि पानी का पूरा मटका तुम्हारे ऊपर उड़ेल सकूं। ठंड के मौसम में जब पानी से नहा जाओगी तो अकल ठिकाने लग जाएगी तुम्हारी।"

"तो ऐसा बोलो ना कि मुझे पानी से भींगा हुआ देखना चाहते हो।" रूपा ने शरारत से मुस्कुराते हुए कहा____"बहाना बनाने की क्या ज़रूरत है तुम्हें। एक काम करो, कुएं के पास ले चलो मुझे और वहां जी भर के पानी से भिंगा लेना मुझे।"

"हद है।" मैंने उसे घूरा____"कुछ भी अनाप शनाप बोले जा रही हो।"

तभी बाहर से आवाज़ आई। शायद वो लोग पानी ले आए थे। मैं और रूपा बाहर आए। रूपा ने मेरे लिए गिलास में भर कर पानी दिया मुझे जिसे ले कर मैं पीने लगा। मेरे बाद रूपा ने भी पिया। उधर दोनों चौकीदार शायद ज़रूरत से ज़्यादा समझदार थे इस लिए बिना मेरे कुछ कहे ही चले गए।

"तो रागिनी दीदी से तुम्हारे ब्याह की लग्न कब बनने वाली है?" मैं बाहर ही तखत पर बैठ गया तो रूपा ने मुझसे पूछा।

"पता नहीं।" मैंने कहा____"अभी तो भाभी की स्वीकृति मिलना बाकी है। जब तक वो राज़ी नहीं होंगी तब तक ये रिश्ता आगे नहीं बढ़ने वाला। वैसे मुझे यकीन है कि भाभी इस रिश्ते को स्वीकृति नहीं देंगी।"

"पर मुझे ऐसा नहीं लगता।" रूपा ने कहा____"मैं ये मानती हूं कि उनके लिए इस रिश्ते को स्वीकार करना आसान नहीं होगा लेकिन अंततः उन्हें राज़ी होना ही पड़ेगा। ऐसा मैं इस लिए कह रही हूं क्योंकि जानती हूं कि वो अपने सास ससुर की भावनाओं को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकतीं हैं।"

"मैं ये तो चाहता था कि उनका जीवन संवर जाए और वो फिर से पहले की तरह खुश रहने लगें।" मैंने अधीरता से कहा____"लेकिन ऐसी कल्पना कभी नहीं की थी कि एक दिन मुझे उनके साथ ब्याह भी करना पड़ेगा। सच कहूं तो मुझे अभी भी इस बात का यकीन नहीं हो रहा है।"

"इंसान के जीवन में ऐसा ही तो होता है।" रूपा ने कहा____"हम जिस चीज़ की कल्पना भी नहीं किए होते वही हो जाया करता है। क्या तुमने इस बात की कल्पना की थी कि तुम एक दिन इस तरह से बदल जाओगे अथवा तुम्हें किसी लड़की से प्रेम हो जाएगा? लेकिन तुम्हारी कल्पना से परे ऐसा हुआ और इस बात का तुम्हारे साथ साथ हम सब भी यकीन कर चुके हैं। ज़ाहिर है यही अवस्था रागिनी दीदी से तुम्हारे ब्याह की भी है। मुझे भी दो बहनों का सुख मिलना था इस लिए मेरी छोटी बहन गई तो अब बड़ी बहन मिल जाएगी। वैसे एक बात कहूं...पता नहीं क्यों, लेकिन अब दीदी को ले कर फिर से नए नए ख़्वाब बुनने से डर लग रहा है मुझे।"

"कैसा डर?" मैंने उसे देखा।

"पहले अनुराधा को ले कर हसीन ख़्वाब बुने थे मैंने।" रूपा ने एकाएक संजीदा हो कर कहा____"लेकिन मेरी बदकिस्मती ने मेरे ख़्वाब पूरे नहीं होने दिए और अब रागिनी दीदी को ले कर ख़्वाब बुनूंगी तो मेरी बदकिस्मती कहीं उन्हें भी न मुझसे छीन ले।"

कहने के साथ ही रूपा का गला रुंध गया। इधर उसकी ये बातें सुन कर मेरी रूह भी कांप गई। पलक झपकते ही सन्नाटे जैसी स्थिति में आ गया था मैं। भले ही ऐसा होना संभव न हो लेकिन फिर भी इस बात के एहसास से एक ख़ौफ सा महसूस हुआ। आंखों के सामने अनुराधा का चेहरा चमक उठा और साथ ही पेड़ से लटकती उसकी भयानक लाश....खून से लथपथ।

"न...नहीं।" मैं हड़बड़ा कर बोल पड़ा____"ऐसा कुछ नहीं होगा रूपा। मेरी भाभी के साथ ऐसा कुछ नहीं होगा। तुम बेवजह ऐसे ख़याल अपने मन में मत लाओ यार।"

"मुझे माफ़ कर दो मेरे साजन।" रूपा एकदम से सिसक उठी____"मैंने जान बूझ कर ये नहीं कहा और ना ही मैंने जान बूझ कर ऐसा सोचा है। वो तो....वो तो जाने कैसे अचानक से मेरे मन में ये ख़याल उभर आया था?"

"कोई बात नहीं।" मैंने उसको शान्त करने के लिए खुद से छुपका लिया____"मैं जानता हूं कि तुम उनके बारे में ऐसा जान बूझ कर नहीं सोच सकती। मैं भी नहीं सोचना चाहता। उनसे ये रिश्ता हो चाहे ना हो लेकिन मेरी ऊपर वाले से यही प्रार्थना है कि वो हमेशा सलामत रहें और हमेशा खुश रहें।"

"ऐसा ही होगा मेरे दिलबर।" रूपा ने दृढ़ता से कहा____"वो हमेशा हमारे साथ रहेंगी और हमेशा खुश रहेंगी। तुम उनसे ब्याह करोगे और उन्हें ढेर सारी खुशियां दोगे। मैं भी अपनी दीदी को बहुत सारा प्यार करूंगी। पहले भी उनके बारे में मैंने बहुत सुना था कि वो बहुत ही नेक दिल वाली हैं इस लिए मेरी यही इच्छा है कि ऐसी नेकदिल औरत को कभी कोई दुख नहीं होना चाहिए।"

माहौल थोड़ा संजीदा सा हो गया था। कुछ देर और हम लोग वहां बैठे रहे उसके बाद जीप में बैठ कर चल दिए। दोपहर होने वाली थी, अतः मैंने जीप की रफ़्तार बढ़ा दी। जल्दी ही मैं रूपा को लिए उसके घर पहुंच गया। मेरे द्वारा हार्न दिए जाने पर रूपचंद्र जल्दी ही घर से बाहर निकला और भागता हुआ आया। उसके आने से पहले ही रूपा जीप से उतर गई थी। रूपचंद्र ने आ कर मुझे धन्यवाद कहा और फिर रूपा को ले कर चला गया। उसके जाने के बाद मैं भी हवेली की तरफ चल पड़ा।​
 
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