Hindi Xkahani - प्यार का सबूत

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हैलो दोस्तो, मैं एक बार फिर से आप सभी के समक्ष एक नई कहानी लेकर हाज़िर हुआ हूं। उम्मीद करता हूं कि इस बार देवनागरी में लिखी हुई ये कहानी आप सभी को पसंद आएगी। आप सभी का साथ एवं सहयोग मेरे लिए बेहद अनिवार्य है क्योंकि बिना आप सबके सहयोग और प्रोत्साहन के कहानी को अपने अंजाम तक पहुंचाना मेरे लिए मुश्किल ही होगा। इस लिए अपना साथ और सहयोग बनाए रखियेगा और साथ ही कहानी के प्रति अपनी प्रतिक्रिया भी देते रहिएगा।

आवश्यक सूचना
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यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है। कहानी में मौजूद किसी भी पात्र या किसी भी घटना से किसी के भी वास्तविक जीवन का कोई संबंध नहीं है। कहानी में दिखाया गया समस्त कथानक सिर्फ और सिर्फ लेखक की अपनी कल्पना है जिसका उद्देश्य फक़त अपने पाठकों का मनोरंजन करना है।
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[color=rgb(51,]☆ प्यार का सबूत ☆
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[color=rgb(0,]अध्याय - 01[/color]



[color=rgb(0,]फागुन का महीना चल रहा था और मैं अपने गांव की सरहद से दूर अपने झोपड़े के बाहर छाव में बैठा सुस्ता रहा था। अभी कुछ देर पहले ही मैं अपने एक छोटे से खेत में उगी हुई गेहू की फसल को अकेले ही काट कर आया था। हालांकि अभी ज़्यादा गर्मी तो नहीं पड़ रही थी किन्तु कड़ी धूप में खेत पर पकी हुई गेहू की फसल को काटते काटते मुझे बहुत गर्मी लग आई थी इस लिए आधी फसल काटने के बाद मैं हंसिया ले कर अपने झोपड़े में आ गया था।[/color]
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कहने को तो मेरे पास सब कुछ था और मेरा एक भरा पूरा परिवार भी था मगर पिछले चार महीनों से मैं घर और गांव से दूर यहाँ जंगल के पास एक झोपड़ा बना कर रह रहा था। जंगल के पास ये ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा मुझे दिया गया था बाकी सब कुछ मुझसे छीन लिया गया था और पंचायत के फैसले के अनुसार मैं गांव के किसी भी इंसान से ना तो कोई मदद मांग सकता था और ना ही गांव का कोई इंसान मेरी मदद कर सकता था।

आज से चार महीने पहले मेरी ज़िन्दगी बहुत ही अच्छी चल रही थी और मैं एक ऐसा इंसान था जो ज़िन्दगी के हर मज़े लेना पसंद करता था। ज़िन्दगी के हर मज़े के लिए मैं हर वक़्त तत्पर रहता था। मेरे पिता जी गांव के मुखिया थे और गांव में ही नहीं बल्कि आस पास के कई गांव में भी उनका नाम चलता था। किसी चीज़ की कमी नहीं थी। पिता जी का हर हुकुम मानना जैसे हर किसी का धर्म था किन्तु मैं एक ऐसा शख़्स था जो हर बार उनके हुकुम को न मान कर वही करता था जो सिर्फ मुझे अच्छा लगता था और इसके लिए मुझे शख़्त से शख़्त सज़ा भी मिलती थी लेकिन उनकी हर सज़ा के बाद मेरे अंदर जैसे बेशर्मी और ढीढता में इज़ाफ़ा हो जाता था।

ऐसा नहीं था कि मैं पागल था या मुझ में दुनियादारी की समझ नहीं थी बल्कि मैं तो हर चीज़ को बेहतर तरीके से समझता था मगर जैसा कि मैंने बताया कि ज़िन्दगी का हर मज़ा लेना पसंद था मुझे तो बस उसी मज़े के लिए मैं सब कुछ भूल कर फिर उसी रास्ते पर चल पड़ता था जिसके लिए मुझे हर बार पिता जी मना करते थे। मेरी वजह से उनका नाम बदनाम होता था जिसकी मुझे कोई परवाह नहीं थी। घर में पिता जी के अलावा मेरी माँ थी और मेरे भैया भाभी थे। बड़े भाई का स्वभाव भी पिता जी के जैसा ही था किन्तु वो इस सबके बावजूद मुझ पर नरमी बरतते थे। माँ मुझे हर वक़्त समझाती रहती थी मगर मैं एक कान से सुनता और दूसरे कान से उड़ा देता था। भाभी से ज़्यादा मेरी बनती नहीं थी और इसकी वजह ये थी कि मैं उनकी सुंदरता के मोह में फंस कर उनके प्रति अपनी नीयत को ख़राब नहीं करना चाहता था। मुझ में इतनी तो गै़रत बांकी थी कि मुझे रिश्तों का इतना तो ख़याल रहे। इस लिए मैं भाभी से ज़्यादा ना बात करता था और ना ही उनके सामने जाता था। जबकि वो मेरी मनोदशा से बेख़बर अपना फ़र्ज़ निभाती रहतीं थी।

पिता जी मेरे बुरे आचरण की वजह से इतना परेशान हुए कि उन्होंने माँ के कहने पर मेरी शादी कर देने का फैसला कर लिया। माँ ने उन्हें समझाया था कि बीवी के आ जाने से शायद मैं सुधर जाऊं। ख़ैर एक दिन पिता जी ने मुझे बुला कर कहा कि उन्होंने मेरी शादी एक जगह तय कर दी है। पिता जी की बात सुन कर मैंने साफ़ कह दिया कि मुझे अभी शादी नहीं करना है। मेरी बात सुन कर पिता जी बेहद गुस्सा हुए और हुकुम सुना दिया कि हम वचन दे चुके हैं और अब मुझे ये शादी करनी ही पड़ेगी। पिता जी के इस हुकुम पर मैंने कहा कि वचन देने से पहले आपको मुझसे पूछना चाहिए था कि मैं शादी करुंगा की नहीं।

घर में एक मैं ही ऐसा शख्स था जो पिता जी से जुबान लड़ाने की हिम्मत कर सकता था। मेरी बातों से पिता जी बेहद ख़फा हुए और मुझे धमकिया दे कर चले गए। ऐसा नहीं था कि मैं कभी शादी ही नहीं करना चाहता था बल्कि वो तो एक दिन मुझे करना ही था मगर मैं अभी कुछ समय और स्वतंत्र रूप से रहना चाहता था। पिता जी को लगा था कि आख़िर में मैं उनकी बात मान ही लूंगा इस लिए उन्होंने घर में सबको कह दिया था कि शादी की तैयारी शुरू करें।

घर में शादी की तैयारियां चल रही थी जिनसे मुझे कोई मतलब नहीं था। मेरे ज़हन में तो कुछ और ही चल रहा था। मैंने उस दिन के बाद से घर में किसी से भी नहीं कहा कि वो मेरी शादी की तैयारी ना करें और जब मेरी शादी का दिन आया तो मैं घर से ही क्या पूरे गांव से ही गायब हो गया। मेरे पिता जी मेरे इस कृत्य से बहुत गुस्सा हुए और अपने कुछ आदमियों को मेरी तलाश करने का हुकुम सुना दिया। इधर भैया भी मुझे खोजने में लग गए मगर मैं किसी को भी नहीं मिला। मैं घर तभी लौटा जब मुझे ये पता चल गया कि जिस लड़की से मेरी शादी होनी थी उसकी शादी पिता जी ने किसी और से करवा दी है।

एक हप्ते बाद जब मैं लौट कर घर आया तो पिता जी का गुस्सा मुझ पर फूट पड़ा। वो अब मेरी शक्ल भी नहीं देखना चाहते थे। मेरी वजह से उनकी बदनामी हुई थी और उनका वचन टूट गया था। उन्होंने पंचायत बैठाई और पंचायत में पूरे गांव के सामने उन्होंने फैसला सुनाते कहा कि आज से वैभव सिंह को इस गांव से हुक्का पानी बंद कर के निकाला जाता है। आज से गांव का कोई भी इंसान ना तो इससे कोई बात करेगा और ना ही इसकी कोई मदद करेगा और अगर किसी ने ऐसा किया तो उसका भी हुक्का पानी बंद कर के उसे गांव से निकाल दिया जाएगा। पंचायत में पिता जी का ये हुकुम सुन कर गांव का हर आदमी चकित रह गया था। किसी को भी उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। हालांकि इतना तो वो भी समझते थे कि मेरी वजह से उन्हें कितना कुछ झेलना पड़ रहा था।

पंचायत में उस दिन पिता जी ने मुझे गांव से निकाला दे दिया था। मेरे जीवन निर्वाह के लिए उन्होंने जंगल के पास अपनी बंज़र पड़ी ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा दे दिया था। वैसे चकित तो मैं भी रह गया था पिता जी के उस फैसले से और सच कहूं तो उनके इस कठोर फैसले को सुन कर मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन ही गायब हो गई थी मगर मेरे अंदर भी उन्हीं का खून उबाल मार रहा था इस लिए मैंने भी उनके फैसले को स्वीकार कर लिया। हालांकि मेरी जगह अगर कोई दूसरा ब्यक्ति होता तो वो ऐसे फैसले पर उनसे रहम की गुहार लगाने लगता मगर मैंने ऐसा करने का सोचा तक नहीं था बल्कि फैसला सुनाने के बाद जब पिता जी ने मेरी तरफ देखा तो मैं उस वक़्त उन हालात में भी उनकी तरफ देख कर इस तरह मुस्कुराया था जैसे कि उनके इस फैसले पर भी मेरी ही जीत हुई हो। मेरे होठो की उस मुस्कान ने उनके चेहरे को तिलमिलाने पर मजबूर कर दिया था।

अच्छी खासी चल रही ज़िन्दगी को मैंने खुद गर्क़ बना लिया था। पिता जी के उस फैसले से मेरी माँ बहुत दुखी हुई थी किन्तु कोई उनके फैसले पर आवाज़ नहीं उठा सकता था। उस फैसले के बाद मैं घर भी नहीं जा पाया उस दिन बल्कि मेरा जो सामान था उसे एक बैग में भर कर मेरा बड़ा भाई पंचायत वाली जगह पर ही ला कर मेरे सामने डाल दिया था। उस दिन मेरे ज़हन में एक ही ख़याल आया था कि अपने बेटे को सुधारने के लिए क्या उनके लिए ऐसा करना जायज़ था या इसके लिए कोई दूसरा रास्ता भी हो सकता था?

पिता जी के फैसले के बाद मैं अपना बैग ले कर उस जगह आ गया जहां पर मुझे ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा दिया गया था। एक पल में जैसे सब कुछ बदल गया था। राज कुमारों की तरह रहने वाला लड़का अब दर दर भटकने वाला एक भिखारी सा बन गया था मगर हैरानी की बात थी कि इस सब के बावजूद मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था। ज़िन्दगी एक जगह ठहर ज़रूर गई थी लेकिन मेरे अंदर अब पहले से ज़्यादा कठोरता आ गई थी। थोड़े बहुत जो जज़्बात बचे थे वो सब जैसे ख़ाक हो चुके थे अब।

जंगल के पास मिले उस ज़मीन के टुकड़े को मैं काफी देर तक देखता रहा था। उस बंज़र ज़मीन के टुकड़े से थोड़ी ही दूरी पर जंगल था। गांव यहाँ से चार किलो मीटर दूर था जो कि घने पेड़ पौधों की वजह से दिखाई नहीं देता था। ख़ैर मैंने देखा कि ज़मीन के उस टुकड़े में बहुत ही ज़्यादा घांस उगी हुई थी। पास में कहीं भी पानी नहीं दिख रहा था। इस तरफ आस पास कोई पेड़ पौधे नहीं लगे थे। हालांकि कुछ दूरी पर जंगल ज़रूर था मगर आज तक मैं उस जंगल के अंदर नहीं गया था।

ज़मीन के उस टुकड़े को कुछ देर देखने के बाद मैं उस जंगल की तरफ चल पड़ा था। जंगल में पानी की तलाश करते हुए मैं इधर उधर भटकने लगा। काफी अंदर आने के बाद मुझे एक तरफ से पानी बहने जैसी आवाज़ सुनाई दी तो मेरे चेहरे पर राहत के भाव उभर आए। उस आवाज़ की दिशा में गया तो देखा एक नदी बह रही थी। बांये तरफ से पानी की एक बड़ी मोटी सी धार ऊपर चट्टानों से नीचे गिर रही थी और वो पानी नीचे पत्थरों से टकराते हुए दाहिनी तरफ बहने लगता था। अपनी आँखों के सामने पानी को इस तरह बहते देख मैंने अपने सूखे होठों पर जुबान फेरी और आगे बढ़ कर मैंने उस ठंडे और शीतल जल से अपनी प्यास बुझाई।

जंगल से कुछ लकड़ियां खोज कर मैंने उन्हें लिया और जंगल से बाहर अपने ज़मीन के उस टुकड़े के पास आ गया। अभी तो दिन था इस लिए कोई समस्या नहीं थी मुझे किन्तु शाम को यहाँ रहना मेरे लिए एक बड़ी समस्या हो सकती थी इस लिए अपने रहने के लिए कोई जुगाड़ करना बेहद ज़रूरी था मेरे लिए। मैंने ज़मीन के इस पार की जगह का ठीक से मुआयना किया और जो लकड़ियां मैं ले कर आया था उन्हीं में से एक लकड़ी की सहायता से ज़मीन में गड्ढा खोदना शुरू कर दिया। काफी मेहनत के बाद आख़िर मैंने चार गड्ढे खोद ही लिए और फिर उन चारो गड्ढों में चार मोटी लकड़ियों को डाल दिया। उसके बाद मैं फिर से जंगल में चला गया।

शाम ढलने से पहले ही मैंने ज़मीन के इस पार एक छोटा सा झोपड़ा बना लिया था और उसके ऊपर कुछ सूखी घास डाल कर उसे महुराईन के ब‌उडे़ से कस दिया था। झोपड़े के अंदर की ज़मीन को मैंने अच्छे से साफ़ कर लिया था। मेरे लिए यहाँ पर आज की रात गुज़ारना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं था। हालांकि मैं चाहता तो आज की रात दूसरे गांव में भी कहीं पर गुज़ार सकता था मगर मैं खुद चाहता था कि अब मैं बड़ी से बड़ी समस्या का सामना करूं।

मेरे पास खाने के लिए कुछ नहीं था इस लिए रात हुई तो बिना कुछ खाए ही उस झोपड़े के अंदर कच्ची ज़मीन पर सूखी घास बिछा कर लेट गया। झोपड़े के दरवाज़े पर मैंने चार लकड़ियां लगा कर और उसमे महुराईन का ब‌उड़ा लगा कर अच्छे से कस दिया था ताकि रात में कोई जंगली जानवर झोपड़े के अंदर न आ सके। मेरे लिए अच्छी बात ये थी कि चांदनी रात थी वरना घने अँधेरे में यकीनन मेरी हालत ख़राब हो जाती। ज़िन्दगी में पहली बार मैं ऐसी जगह पर रात गुज़ार रहा था। अंदर से मुझे डर तो लग रहा था लेकिन मैं ये भी जानता था कि अब मुझे अपनी हर रात ऐसे ही गुज़ारनी है और अगर मैं डरूंगा तो कैसे काम चलेगा?

रात भूखे पेट किसी तरह गुज़र ही गई। सुबह हुई और एक नए दिन और एक न‌ई किस्मत का उदय हुआ। जंगल में जा कर मैं नित्य क्रिया से फुर्सत हुआ। पेट में चूहे दौड़ रहे थे और मुझे कमज़ोरी का आभास हो रहा था। कुछ खाने की तलाश में मैं उसी नदी पर आ गया। नदी का पानी शीशे की तरह साफ़ था जिसकी सतह पर पड़े पत्थर साफ़ दिख रहे थे। उस नदी के पानी को देखते हुए मैं नदी के किनारे किनारे आगे बढ़ने लगा। कुछ दूरी पर आ कर मैं रुका। यहाँ पर नदी की चौड़ाई कुछ ज़्यादा थी और पानी भी कुछ ठहरा हुआ दिख रहा था। मैंने ध्यान से देखा तो पानी में मुझे मछलियाँ तैरती हुई दिखीं। मछलियों को देखते ही मेरी भूख और बढ़ ग‌ई।

नदी में उतर कर मैंने कई सारी मछलियाँ पकड़ी और अपनी शर्ट में उन्हें ले कर नदी से बाहर आ गया। अपने दोस्तों के साथ मैं पहले भी मछलियाँ पकड़ कर खा चुका था इस लिए इस वक़्त मुझे अपने उन दोस्तों की याद आई तो मैं सोचने लगा कि इतना कुछ होने के बाद उनमे से कोई मेरे पास मेरा हाल जानने नहीं आया था। क्या वो मेरे पिता जी के उस फैसले की वजह से मुझसे मिलने नहीं आये थे?

अपने पैंट की जेब से मैंने माचिस निकाली और जंगल में ज़मीन पर पड़े सूखे पत्तों को समेट कर आग जलाई। आग जली तो मैंने उसमे कुछ सूखी लकड़ियों रख दिया। जब आग अच्छी तरह से लकड़ियों पर लग गई तो मैंने उस आग में एक एक मछली को भूनना शुरू कर दिया। एक घंटे बाद मैं मछलियों से अपना पेट भर कर जंगल से बाहर आ गया। गांव तो मैं जा नहीं सकता था और ना ही गांव का कोई इंसान मेरी मदद कर सकता था इस लिए अब मुझे खुद ही सारे काम करने थे। कुछ चीज़ें मेरे लिए बेहद ज़रूरी थीं इस लिए मैं अपना बैग ले कर पैदल ही दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला।

"वैभव।" अभी मैं अपने अतीत में खोया ही था कि तभी एक औरत की मीठी आवाज़ को सुन कर चौंक पड़ा। मैंने आवाज़ की दिशा में पलट कर देखा तो मेरी नज़र भाभी पर पड़ी।

चार महीने बाद अपने घर के किसी सदस्य को अपनी आँखों से देख रहा था मैं। संतरे रंग की साड़ी में वो बहुत ही खूबसूरत दिख रहीं थी। मेरी नज़र उनके सुन्दर चेहरे से पर जैसे जम सी गई थी। अचानक ही मुझे अहसास हुआ कि मैं उनके रूप सौंदर्य में डूबा जा रहा हूं तो मैंने झटके से अपनी नज़रें उनके चेहरे से हटा ली और सामने की तरफ देखते हुए बोला____"आप यहाँ क्यों आई हैं? क्या आपको पता नहीं है कि मुझसे मिलने वाले आदमी को भी मेरी तरह गांव से निकला जा सकता है?"

"अच्छी तरह पता है।" भाभी ने कहा_____"और इस लिए मैं हर किसी की नज़र बचा कर ही यहाँ आई हूं।"
"अच्छा।" मैंने मज़ाक उड़ाने वाले अंदाज़ से कहा____"पर भला क्यों? मेरे पास आने की आपको क्या ज़रूरत आन पड़ी? चार महीने हो गए और इन चार महीनों में कोई भी आज तक मुझसे मिलने या मेरा हाल देखने यहाँ नहीं आया फिर आप क्यों आई हैं आज?"

"मां जी के कहने पर आई हूं।" भाभी ने कहा___"तुम नहीं जानते कि जब से ये सब हुआ है तब से माँ जी तुम्हारे लिए कितना दुखी हैं। हम सब बहुत दुखी हैं वैभव मगर पिता जी के डर से हम सब चुप हैं।"

"आप यहाँ से जाओ।" मैंने एक झटके में खड़े होते हुए कहा____"मेरा किसी से कोई रिश्ता नहीं है। मैं सबके लिए मर गया हूं।"
"ऐसा क्यों कहते हो वैभव?" भाभी ने आहत भाव से मेरी तरफ देखा____"मैं मानती हूं कि जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ है वो ठीक नहीं हुआ है लेकिन कहीं न कहीं तुम खुद इसके लिए जिम्मेदार हो।"

"क्या यही अहसास कराने आई हैं आप?" मैंने कठोर भाव से कहा____"अब इससे पहले कि मेरे गुस्से का ज्वालामुखी भड़क उठे चली जाओ आप यहाँ से वरना मैं भूल जाऊंगा कि मेरा किसी से कोई रिश्ता भी है।"

"मां ने तुम्हारे लिए कुछ भेजवाया है।" भाभी ने अपने हाथ में ली हुई कपड़े की एक छोटी सी पोटली को मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा____"इसे ले लो उसके बाद मैं चली जाऊंगी।"

"मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए।" मैंने शख्त भाव से कहा___"और हां तुम सब भी मुझसे किसी चीज़ की उम्मीद मत करना। मैं मरता मर जाउंगा मगर तुम में से किसी की शकल भी देखना पसंद नहीं करुंगा। ख़ास कर उनकी जिन्हें लोग माता पिता कहते हैं। अब दफा हो जाओ यहाँ से।"

मैने गुस्से में कहा और हंसिया ले कर तथा पैर पटकते हुए खेत की तरफ बढ़ गया। मैंने ये देखने की कोशिश भी नहीं की कि मेरी इन बातों से भाभी पर क्या असर हुआ होगा। इस वक़्त मेरे अंदर गुस्से का दावानल धधक उठा था और मेरा दिल कर रहा था कि सारी दुनिया को आग लगा दूं। माना कि मैंने बहुत ग़लत कर्म किए थे मगर मुझे सुधारने के लिए मेरे बाप ने जो क़दम उठाया था उसके लिए मैं अपने उस बाप को कभी माफ़ नहीं कर सकता था और ना ही वो मेरी नज़र में इज्ज़त का पात्र बन सकता था।

गुस्से में जलते हुए मैं गेहू काटता जा रहा था और रुका भी तब जब सारा गेहू काट डाला मैंने। ये चार महीने मैंने कैसे कैसे कष्ट सहे थे ये सिर्फ मैं और ऊपर बैठा भगवान ही जनता था। ख़ैर गेहू जब कट गया तो मैं उसकी पुल्लियां बना बना कर एक जगह रखने लगा। ये मेरी कठोर मेहनत का नतीजा था कि बंज़र ज़मीन पर मैंने गेहू उगाया था। आज के वक़्त में मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं थी। चार महीने पहले जो कुछ था भी तो उससे ज़रूरी चीज़ें ख़रीद लिया था मैंने और ये एक तरह से अच्छा ही किया था मैंने वरना इस ज़मीन पर ये फसल मैं तो क्या मेरे फ़रिश्ते भी नहीं उगा सकते थे।

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☆ प्यार का सबूत ☆
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अध्याय - 02

अब तक,,,,

गुस्से में जलते हुए मैं गेहू काटता जा रहा था और रुका भी तब जब सारा गेहू काट डाला मैंने। ये चार महीने मैंने कैसे कैसे कष्ट सहे थे ये सिर्फ मैं और ऊपर बैठा भगवान ही जनता था। ख़ैर गेहू जब कट गया तो मैं उसकी पुल्लियां बना बना कर एक जगह रखने लगा। ये मेरी कठोर मेहनत का नतीजा था कि बंज़र ज़मीन पर मैंने गेहू उगाया था। आज के वक़्त में मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं थी। चार महीने पहले जो कुछ था भी तो उससे ज़रूरी चीज़ें ख़रीद लिया था मैंने और ये एक तरह से अच्छा ही किया था मैंने वरना इस ज़मीन पर ये फसल मैं तो क्या मेरे फ़रिश्ते भी नहीं उगा सकते थे।

अब आगे,,,,,

गेंहू की पुल्लियां बना कर मैंने एक जगह रख दिया था। ज़मीन का ये टुकड़ा ज़्यादा बड़ा नहीं था। मुश्किल से पच्चीस किलो गेहू का बीज डाला था मैंने। घर वालोें के द्वारा भले ही कष्ट मिला था मुझे मगर ऊपर वाला ज़्यादा तो नहीं पर थोड़ी बहुत मेहरबान ज़रूर हुआ था मुझ पर। जिसकी वजह से मैं इस ज़मीन पर फसल उगाने में कामयाब हो पाया था।

आस पास के गांव के लोगों को भी पता चल गया था कि ठाकुर प्रताप सिंह ने अपने छोटे बेटे को गांव से निकाल दिया है और उसका हुक्का पानी बंद करवा दिया है। सबको ये भी पता चल गया था कि गांव के हर ब्यक्ति को शख्ती से कहा गया था कि वो मुझसे किसी भी तरह से ताल्लुक न रखें और ना ही मेरी कोई मदद करें। ये बात जंगल के आग की तरह हर तरफ फ़ैल गई थी जिसकी वजह से दूसरे गांव वाले जो मेरे पिता को मान सम्मान देते थे उन्होंने मुझसे बात करना बंद कर दिया था। हालांकि मेरे पिता जी ने दूसरे गांव वालों को ऐसा करने के लिए नहीं कहा था किन्तु वो इसके बावजूद उनके ऐसे फैसले को अपने ऊपर भी ले लिए थे।

दुनिया बहुत बड़ी है और दुनिया में तरह तरह के लोग पाए जाते हैं जो अपनी मर्ज़ी के भी मालिक होते हैं। कहने का मतलब ये कि दूसरे गांव के कुछ लोग ऐसे भी थे जो चोरी छिपे मेरे पास आ जाया करते थे और मेरी मदद करते थे। उन्हीं में से एक आदमी था मुरारी सिंह।

मुरारी सिंह मेरी ही बिरादरी का था किन्तु उसकी हैसियत मेरे बाप जैसी नहीं थी। अपने खेतों पर वो भी काम करता था और रात में देसी दारु हलक के नीचे उतार कर लम्बा हो जाता था। उसके अपने परिवार में उसकी बीवी और दो बच्चे थे। एक लड़की थी जिसका नाम अनुराधा था और लड़के का नाम अनूप था। उसकी लड़की अनुराधा मेरी ही उम्र की थी। हल्का सांवला रंग जो कि उसकी सुंदरता का ही प्रतीक जान पड़ता था।

मुरारी के ज़ोर देने पर मैं किसी किसी दिन उसके घर चला जाया करता था। वैसे तो मुझ में नशा करने वाला कोई ऐब नहीं था किन्तु मुरारी के साथ मैं भी बीड़ी पी लिया करता था। वो मुझसे देसी दारु पीने को कहता तो मैं साफ़ इंकार कर देता था। बीड़ी भी मैं तभी पीता था जब वो मेरे पास झोपड़े में आता था। उसके घर में मैं जब भी जाता था तो उसकी बीवी अक्सर मेरे बाप के ऐसे फैसले की बातें करती और उसकी बेटी अनुराधा चोर नज़रों से मुझे देखती रहती थी। अगर मैं अपने मन की बात कहूं तो वो यही है कि मुरारी की लड़की मुझे अच्छी लगती थी। हालांकि उसके लिए मेरे दिल में प्यार जैसी कोई भावना नहीं थी बल्कि मुझे तो हमेशा की तरह आज भी ज़िन्दगी के हर मज़े से लेने से ही मतलब है। प्यार व्यार क्या होता है ये मैं समझना ही नहीं चाहता था।

इन चार महीनों में मुझे एक ही औरत ने मज़ा दिया था और वो थी खुद मुरारी की बीवी सरोज किन्तु ये बात उसके पति या उसकी बेटी को पता नहीं थी और मैं भला ये चाह भी कैसे सकता था कि उन्हें इसका पता चले। मुरारी ने मेरी बहुत मदद की थी। मुझे तो पता भी नहीं था कि ज़मीन में कैसे खेती की जाती है।

शुरुआत में तो मैं हर रोज़ उस बंज़र ज़मीन पर उगी घास को ही हटाने का प्रयास करता रहा था। हालांकि मेरे ज़हन में बार बार ये ख़याल भी आता था कि ये सब छोंड़ कर शहर चला जाऊं और फिर कभी लौट के यहाँ न आऊं मगर फिर मैं ये सोचने लगता कि मेरे बाप ने मुझे यहाँ पर ला पटका है तो एक बार मुझे भी उसे दिखाना है कि मैं यहां क्या कर सकता हूं। बस इसी बात के चलते मैंने सोच लिया था कि अब चाहे जो हो जाये किन्तु मैं इस बंज़र ज़मीन पर फसल उगा कर ही दम लूंगा। शुरुआत में मुझे बहुत मुश्किलें हुईं थी। दूसरे गांव जा कर मैं कुछ लोगों से कहता कि मेरी उस ज़मीन पर हल से जुताई कर दें मगर कोई मेरी बात नहीं सुनता था। एक दिन मुरारी कहीं से भटकता हुआ मेरे पास आया और उसने मुझे उस बंज़र ज़मीन पर पसीना बहाते हुए और कुढ़ते हुए देखा तो उसे मुझ पर दया आ गई थी।

मुरारी ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रख कर कहा था छोटे ठाकुर मैं जानता हूं कि आस पास का कोई भी आदमी तुम्हारी मदद करने नहीं आता है क्यों कि वो सब बड़े ठाकुर के तलवे चाटने वाले कुत्ते हैं लेकिन मैं तुम्हारी मदद ज़रूर करुंगा।

उसी शाम को मुरारी अपने बैल और हल ले कर मेरे पास आ गया और उसने उस बंज़र ज़मीन का सीना चीरना शुरू कर दिया। मैं उसके साथ ही चलते हुए बड़े ग़ौर से देखता जा रहा था कि वो कैसे ज़मीन की जुताई करता है और कैसे हल की मुठिया पकड़ कर बैलों को हांकता है। असल में मैं इस बात से तो खुश हो गया था कि मुरारी मेरी मदद कर रहा था लेकिन मैं ये भी नहीं चाहता था कि उसके इस उपकार की वजह से उस पर किसी तरह की मुसीबत आ जाए। इस लिए मैं बड़े ग़ौर से उसे हल चलाते हुए देखता रहा था। उसके बाद मैंने उससे कहा कि वो मुझे भी हल चलाना सिखाये तो उसने मुझे सिखाया। आख़िर एक दो दिन में मैं पक्का हल चलाने वाला किसान बन गया। उसके बाद मैंने खुद ही अपने हाथ से अपने उस बंज़र खेत को जोतना शुरू कर दिया था।

ज़मीन ज़्यादा ठोस तो नहीं थी किन्तु फिर भी वैसी नहीं बन पाई थी जिससे कि उसमे फसल उगाई जा सके। मुरारी का कहना था कि अगर बारिश हो जाये तो उम्मीद की जा सकती है। मुरारी की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गया था कि इस ज़मीन को पानी कहां से मिले? भगवान को तो अपनी मर्ज़ी के अनुसार ही बरसना था। इधर ज़मीन की परत निकल जाने से मैं दिन भर मिट्टी के डेलों से घास निकालता रहता। ऐसे ही एक हप्ता गुज़र गया मगर पानी का कहीं से कोई जुगाड़ बनता नहीं दिख रहा था। पानी के बिना सब बेकार ही था। उस दिन तो मैं निराश ही हो गया था जब मुरारी ने ये कहा था कि गेंहू की फसल तभी उगेगी जब उसको भी कम से कम तीन बार पानी दिया जा सके। यहाँ तो पानी मिलना भी भगवान के भरोसे ही था।

एक दिन मैं थका हारा अपने झोपड़े पर गहरी नींद में सो रहा था कि मेरी नींद बादलों की गड़गड़ाहट से टूट गई। झोपड़े के दरवाज़े के पार देखा तो धूप गायब थी और हवा थोड़ी तेज़ चलती नज़र आ रही थी। मैं जल्दी से झोपड़े के बाहर निकला तो देखा आसमान में घने काले बादल छाये हुए थे। हर तरफ काले बादलों की वजह से अँधेरा सा प्रतीत हो रहा था। बादलों के बीच बिजली कौंध जाती थी और फिर तेज़ गड़गड़ाहट होने लगती थी। ये नज़ारा देख कर मैं इस तरह खुश हुआ जैसे विसाल रेगिस्तान में मेरे सूख चुके हलक को तर करने के लिए पानी की एक बूँद नज़र आ गई हो। भगवान ने मुझ पर दया करने का निर्णय किया था। मेरा दिल कर कर रहा था कि मैं इस ख़ुशी में उछलने लगूं।

थोड़ी ही देर में हवा और तेज़ हो गई और फिर आसमान से मोटी मोटी पानी की बूंदें ज़मीन पर टपकने लगीं। हवा थोड़ी तेज़ थी जिससे मेरा झोपड़ा हिलने लगा था। हालांकि मुझे अपने झोपड़े की कोई परवाह नहीं थी। मैं तो बस यही चाहता था कि आज ये बादल इतना बरसें कि संसार के हर जीव की प्यास बुझ जाये और जैसे भगवान ने मेरे मन की बात सुन ली थी। देखते ही देखते तेज़ बारिश शुरू हो गई। बारिश में भीगने से बचने के लिए मैं झोपड़े के अंदर नहीं गया बल्कि अपने उस जुते हुए खेत के बीच में आ कर खड़ा हो गया। दो पल में ही मैं पूरी तरह भीग गया था। बारिश इतनी तेज़ थी कि सब कुछ धुंधला धुंधला सा दिखाई दे रहा था। मैं तो ईश्वर से यही कामना कर रहा था कि अब ये बारिश रुके ही नहीं।

उस दिन रात तक बारिश हुई थी। मेरे जुते हुए खेत में पानी ही पानी दिखने लगा था। मेरी नज़र मेरे झोपड़े पर पड़ी तो मैं बस मुस्कुरा उठा। बारिश और हवा की तेज़ी से वो उलट कर दूर जा कर बिखरा पड़ा था। अब बस चार लकड़ियां ही ज़मीन में गड़ी हुई दिख रही थीं। मुझे अपने झोपड़े के बर्बाद हो जाने का कोई दुःख नहीं था क्यों कि मैं उसे फिर से बना सकता था किन्तु बारिश को मैं फिर से नहीं करवा सकता था। ईश्वर ने जैसे मेरे झोपड़े को बिखेर कर अपने पानी बरसाने का मुझसे मोल ले लिया था।

बारिश जब रुक गई तो रात में मुरारी भागता हुआ मेरे पास आया था। हाथ में लालटेन लिए था वो। मेरे झोपड़े को जब उसने देखा तो मुझसे बोला कि अब रात यहाँ कैसे गुज़ार पाओगे छोटे ठाकुर? उसकी बात पर मैंने कहा कि मुझे रात गुज़ारने की कोई चिंता नहीं है बल्कि मैं तो इस बात से बेहद खुश हूं कि जिस चीज़ की मुझे ज़रूरत थी भगवान ने वो चीज़ मुझे दे दी है।

मुरारी मेरी बात सुन कर बस मुस्कुराने लगा था फिर उसने कहा कि कल वो मेरे लिए एक अच्छा सा झोपड़ा बना देगा किन्तु आज की रात मैं उसके घर पर ही गुज़ारूं। मैं मुरारी की बात सुन कर उसके साथ उसके घर चला गया था। उसके घर पर मैंने खाना खाया और वहीं एक चारपाई पर सो गया था। मुरारी ने कहा था कि आज तो मौसम भी शराबी है इस लिए वो बिना देसी ठर्रा चढ़ाये सोयेगा नहीं और उसने वही किया भी था।

ऐसा पहली बार हुआ था कि मैं रात में मुरारी के घर पर रुक रहा था। ख़ैर रात में सबके सोने के बाद मुरारी की बीवी चुपके से मेरे पास आई और मुझे हल्की आवाज़ में जगाया उसने। चारो तरफ अँधेरा था और मुझे तुरंत समझ न आया कि मैं कहां हूं। सरोज की आवाज़ जब फिर से मेरे कानों में पड़ी तो मुझे अहसास हुआ कि मैं आज मुरारी के घर पर हूं। ख़ैर सरोज ने मुझसे धीरे से कहा कि आज उसका बहुत मन है इस लिए घर के पीछे चलते हैं और अपना काम कर के चुप चाप लौट आएंगे। सरोज की इस बात से मैंने उससे कहा कि अगर तुम्हारी बेटी को पता चल गया तो वो कहीं हंगामा न खड़ा कर दे इस लिए ये करना ठीक नहीं है मगर सरोज न मानी इस लिए मजबूरन मुझे उसके साथ घर के पीछे जाना ही पड़ा।

घर के पीछे आ कर मैंने सरोज से एक बार फिर कहा कि ये सब यहाँ करना ठीक नहीं है मगर सरोज पर तो जैसे हवश का बुखार चढ़ गया था। उसने ज़मीन में अपने घुटनों के बल बैठ कर मेरे पैंट को खोला और कच्छे से मेरे लिंग को निकाल कर उसे सहलाने लगी। मेरी रंगों में दौड़ते हुए खून में जल्दी ही उबाल आ गया और मेरा लिंग सरोज के सहलाने से तन कर पूरा खड़ा हो गया। सरोज ने फ़ौरन ही मेरे तने हुए लिंग को अपने मुँह में भर लिया और उसे कुल्फी की तरह चूसने लगी। मेरे जिस्म में मज़े की लहर दौड़ने लगी जिससे मैंने अपने दोनों हाथों से सरोज के सिर को पकड़ा और उसके मुँह में अपने लिंग को अंदर तक घुसाते हुए अपनी कमर को आगे पीछे हिलाने लगा। सरोज जिस तरह से मेरे लिंग को अपने मुंह में डाल कर चूस रही थी उससे पलक झपकते ही मैं मज़े के सातवें आसमान में उड़ने लगा था।

मज़े की इस तरंग की वजह से मेरे ज़हन से अब ये बात निकल चुकी थी कि ये सब करते हुए अगर मुरारी ने या उसकी लड़की अनुराधा ने हमें देख लिया तो क्या होगा। कोई और वक़्त होता और कोई और जगह होती तो मैं सरोज के साथ तरीके से मज़े लेता मगर इस वक़्त बस एक ही तरीका था कि सरोज का घाघरा उठा कर उसकी योनि में अपने लिंग को घुसेड़ कर धक्के लगाने शुरू कर दूं।

सरोज ने मेरे मना करने के बावजूद मेरे लिंग को जी भर के चूसा और फिर खड़ी हो कर अपने घाघरे को अपने दोनों हाथों से ऊपर उठाने लगी। उसकी चोली में कैद उसके भारी भरकम खरबूजे चोली को फाड़ कर बाहर आने को बेताब हो रहे थे। मुझसे रहा न गया तो मैंने अपने दोनों हाथ बढ़ा कर उन्हें पकड़ लिया और ज़ोर ज़ोर से मसलने लगा जिससे सरोज की सिसकारियां शांत वातावरण में फ़ैल ग‌ईं।

सरोज के खरबूजों को मसलने के बाद मैंने उसे पलटा दिया। वो समझ गई कि अब उसे क्या करना था इस लिए वो अपने घाघरे को कमर तक चढा कर पूरी तरह नीचे झुक गई जिससे उसका पिछवाड़ा मेरे सामने मेरे लिंग के पास आ गया। मैंने लिंग को अपने एक हाथ से पकड़ा और उसकी योनि में सेट कर के कमर को आगे कर दिया। मेरा लिंग उसकी दहकती हुई योनि में अंदर तक समाता चला गया। सरोज ने एक सिसकी ली और अपने सामने की दीवार का सहारा ले लिया ताकि वो आगे की तरफ न जा सके।

ऐसे वक़्त में तरीके से काम करना ठीक नहीं था इस लिए मैंने सरोज की योनि में अपना लिंग उतार कर धक्के लगाने शुरू कर दिए। मैंने सरोज की कमर को अच्छे से पकड़ लिया था और तेज़ तेज़ धक्के लगाने शुरू कर दिए थे। मेरे हर धक्के पर थाप थाप की आवाज़ आने लगी तो मैंने धक्के इस अंदाज़ से लगाने शुरू कर दिए कि मेरा जिस्म उसके पिछवाड़े पर न टकराए। उधर झुकी हुई सरोज मज़े से आहें भरने लगी थी। हालांकि उसने अपने एक हाथ से अपना मुँह बंद कर लिया था मगर इसके बावजूद उसके मुख से आवाज़ निकल ही जाती थी। तेज़ तेज़ धक्के लगाते हुए मैं जल्दी से अपना पानी निकाल देना चाहता था मगर ऐसा हो नहीं रहा था। इस वक़्त मेरे लिए मेरी ये खूबी मुसीबत का सबब भी बन सकती थी मगर मैं अब क्या कर सकता था?

सरोज कई दिनों की प्यासी थी इस लिए तेज़ धक्कों की बारिश से वो थोड़ी ही देर में झड़ कर शिथिल पड़ गई मगर मैं वैसे ही लगा रहा। थोड़ी देर में वो फिर से मज़े में आहें भरने लगी। आख़िर मुझे भी आभास होने लगा कि मैं भी अपने चरम पर पहुंचने वाला हूं इस लिए मैंने और तेज़ धक्के लगाने शुरू कर दिए मगर तभी सरोज आगे को खिसक गई जिससे मेरा लिंग उसकी योनि से बाहर आ गया। मुझे उस पर बेहद गुस्सा आया और मैं इस गुस्से में उससे कुछ कहने ही वाला था कि उसने कहा कि झुके झुके उसकी कमर दुखने लगी है तो मैंने उसकी एक टांग को ऊपर उठा कर खड़े खड़े सम्भोग करने के लिए कहा तो उसने वैसा ही किया। एक हाथ से उसने दीवार का सहारा लिया और फिर अपनी एक टांग को हवा में उठाने लगी। मैंने उसकी उस टांग को एक हाथ से पकड़ लिया और फिर आगे बढ़ कर उसकी योनि में अपने लिंग को डाल दिया।

एक बार फिर से तेज़ धक्कों की शुरुआत हो चुकी थी। सरोज की सिसकिया फिर से फ़िज़ा में गूंजने लगी थीं जिसे वो बड़ी मुश्किल से रोंक पा रही थी। कुछ ही देर में सरोज का जिस्म कांपने लगा और वो फिर से झड़ गई। झड़ते ही उसमे खड़े रहने की शक्ति न रही इस लिए मुझे फिर से अपने लिंग को उसकी योनि से बाहर निकालना पड़ा किन्तु इस बार उसने नीचे बैठ कर मेरे लिंग को अपने मुँह में भर लिया था और मुझे इशारा किया कि मैं उसके मुँह में ही अपना पानी गिरा दूं। सरोज के इशारे पर मैं शुरू हो गया। कुछ देर मैं उसके मुख में ही धीरे धीरे धक्के लगाता रहा उसके बाद सरोज ने मेरे लिंग को पकड़ कर हिलाना शुरू कर दिया जिससे थोड़ी ही देर में मैं मज़े की चरम सीमा पर पहुंच गया और सरोज के मुख में ही अपना सारा पानी गिरा दिया जिसे उसने सारा का सारा हलक के नीचे उतार लिया। उसके बाद हम जिस तरह दबे पाँव आये थे उसी तरह दबे पाँव घर के अंदर भी चले आए।

अभी मैं अपनी चारपाई पर आ कर चुप चाप लेटा ही था कि अंदर कहीं से कुछ गिरने की आवाज़ आई तो मेरी रूह तक काँप ग‌ई। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि कहीं किसी को हमारे इस कर्म काण्ड का पता तो नहीं चल गया? उस रात यही सोचते सोचते मैं सो गया था। दूसरे दिन मैं उठा तो मेरी नज़र मुरारी की लड़की अनुराधा पर पड़ी। वो मेरी चारपाई के पास ही हाथ में चाय से भरा एक स्टील का छोटा सा गिलास लिए खड़ी थी। मैंने उठ कर उससे चाय का गिलास लिया तो वो चुप चाप चली गई।

मुरारी से मेरी पहचान को इतना समय हो गया था और मैं उसके घर भी आता रहता था किन्तु इतने दिनों में आज तक अनुराधा से मेरी कोई बात नहीं हो पाई थी। वो अपनी माँ से ज़्यादा सुन्दर थी। उसका साँवला चेहरा हमेशा सादगी और मासूमियत से भरा रहता था। मैं जब भी उसे देखता था तो मेरी धड़कनें थम सी जाती थी मगर उससे कुछ बोलने के लिए मेरे पास कोई वजह नहीं होती थी। उसकी ख़ामोशी देख कर मेरी हिम्मत भी जवाब दे जाती थी। हालांकि उसका छोटा भाई अनूप मुझसे बड़े अच्छे से बात करता था और मेरे आने पर वो खुश भी हो जाता था। ऐसा इस लिए क्योंकि मेरे आने से जब उसकी माँ मुझे नमकीन और बिस्कुट नास्ते में देती तो मैं उसे भी खिलाता था।

चाय पीते हुए मैं अनुराधा की तरफ भी देख लेता था। वो रसोई के पास ही बैठी हंसिया से आलू काट रही थी। मेरी नज़र जब भी उस पर पड़ी थी तो मैं उसे अपनी तरफ ही देखते हुए पाया था। हमारी नज़रें जब आपस में टकरा जातीं तो वो फ़ौरन ही अपनी नज़रें झुका लेती थी किन्तु आज ऐसा नहीं था। आज जब हमारी नज़रें मिलती थीं तो वो अजीब सा मुँह बना लेती थी। पहले तो मुझे उसका यूं मुँह बनाना समझ में न आया किन्तु फिर एकदम से मेरे ज़हन में कल रात वाला वाक्या उभर आया और फिर ये भी याद आया कि जब मैं और सरोज अपना काम करके वापस आये थे तो किसी चीज़ के गिरने की आवाज़ आई थी।

मेरे दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से ये ख़याल उभरा कि कहीं रात में अनुराधा को हमारे बारे में पता तो नहीं चल गया? मैं चारपाई पर जैसे ही लेटने लगा था वैसे ही किसी चीज़ के गिरने की आवाज़ आई थी। हालांकि रात में हर तरफ अँधेरा था और कुछ दिख नहीं रहा था मगर अनुराधा का इस वक़्त मुझे देख कर इस तरह से मुँह बनाना मेरे मन में शंका पैदा करने लगा था जो कि मेरे लिए अच्छी बात हरगिज़ नहीं थी। इन सब बातों को सोचते ही मेरे अंदर घबराहट उभरने लगी और मुझे अनुराधा के सामने इस तरह चारपाई पर बैठना अब मुश्किल लगने लगा। मैंने जल्दी से चाय ख़त्म की और चारपाई से उठ कर खड़ा हो गया। मुरारी मुझे कहीं दिख नहीं रहा था और ना ही उसकी बीवी सरोज मुझे दिख रही थी। मैंने अनुराधा से पूछने का सोचा। ये पहली बार था जब मैं उससे कुछ बोलने वाला था या कुछ पूछने वाला था। मैंने उससे उसके पिता के बारे में पूछा तो उसने कुछ पल मुझे देखा और फिर धीरे से कहा कि वो दिशा मैदान को गए हैं।

"ठीक है फिर।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए संतुलित स्वर में कहा____"उनसे कहना कि मैं चाय पी कर अपने खेत पर चला गया हूं।"
"क्या मैं आपसे कुछ पूछ सकती हूं?" मैं अभी दरवाज़े की तरफ बढ़ा ही था कि पीछे से उसकी आवाज़ सुन कर ठिठक गया और फिर पलट कर धड़कते हुए दिल से उसकी तरफ देखा।

"हां पूछो।" मैंने अपनी बढ़ चुकी धड़कनों को किसी तरह सम्हालते हुए कहा।
"वो कल रात आप और मां।" उसने अटकते हुए लहजे से नज़रें चुराते हुए कहा____"कहां गए थे अँधेरे में?"

उसके पूछने पर मैं समझ गया कि कल रात किसी चीज़ के गिरने से जो आवाज़ हुई थी उसकी वजह अनुराधा ही थी। किन्तु उसके पूछने पर मेरे मन में सवाल उभरा कि क्या उसने हमें वो सब करते हुए देख लिया होगा? इस ख़्याल के साथ ही मेरी हालत ख़राब होने लगी।

"वो मुझे नींद नहीं आ रही थी।" फिर मैंने आनन फानन में उसे जवाब देते हुए कहा____"इस लिए बाहर गया था किन्तु तुम ये क्यों कह रही हो कि मैं और तुम्हारी माँ कहां गए थे? क्या काकी भी रात में कहीं गईं थी?"

"क्या आपको उनके जाने का पता नहीं है?" उसने अपनी आंखें सिकोड़ते हुए पूछा तो मेरी धड़कनें और भी तेज़ हो ग‌ईं।
"मुझे भला कैसे पता होगा?" मैंने अपने माथे पर उभर आए पसीने को महसूस करते हुए कहा____"अँधेरा बहुत था इस लिए मैंने उन्हें नहीं देखा।"
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 03
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अब तक,,,,

"वो मुझे नींद नहीं आ रही थी।" फिर मैंने आनन फानन में उसे जवाब देते हुए कहा____"इस लिए बाहर गया था किन्तु तुम ये क्यों कह रही हो कि मैं और तुम्हारी माँ कहां गए थे? क्या काकी भी रात में कहीं गईं थी?"

"क्या आपको उनके जाने का पता नहीं है?" उसने अपनी आंखें सिकोड़ते हुए पूछा तो मेरी धड़कनें और भी तेज़ हो ग‌ईं।
"मुझे भला कैसे पता होगा?" मैंने अपने माथे पर उभर आए पसीने को महसूस करते हुए कहा____"अँधेरा बहुत था इस लिए मैंने उन्हें नहीं देखा।"

अब आगे,,,,,

मेरी बात सुन कर अनुराधा मुझे ख़ामोशी से देखने लगी थी। उसका अंदाज़ ऐसा था जैसे वो मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही हो और साथ ही ये पता भी कर रही हो कि मैं झूठ बोल रहा हूं या सच? उसके इस तरह देखने से मुझे मेरी धड़कनें रूकती हुई सी महसूस हुईं। जीवन में पहली बार मैं किसी लड़की के सामने अंदर से इतना घबराया हुआ महसूस कर रहा था। ख़ैर इससे पहले कि वो मुझसे कुछ और कहती मैं फौरन ही पलट कर दरवाज़े से बाहर निकल गया। पीछे से इस बार उसने भी मुझे रोकने की कोशिश नहीं की थी।

मुरारी के घर से मैं तेज़ तेज़ क़दमों से चलते हुए सीधा जंगल की तरफ निकल गया। मेरे कानों में अभी भी अनुराधा की बातें गूंज रही थीं और मैं ये सोचे जा रहा था कि क्या सच में उसे पता चल गया है या वो मुझसे ये सब पूछ कर अपनी शंका का समाधान करना चाहती थी? मैं ये सब सोचते हुए किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच सका, किन्तु मेरे मन में ये ख़याल ज़रूर उभरा कि अगर उसने सच में देख लिया होगा या फिर उसे पता चल गया होगा तो मेरे लिए ये ठीक नहीं होगा क्यों कि अनुराधा अब मेरे दिमाग में घर कर चुकी थी और मैं उसे किसी भी कीमत पर भोगना चाहता था। अगर उसे इस सबका पता चल गया होगा तो मेरी ये मंशा कभी पूरी नहीं हो सकती थी क्यों कि उस सूरत में मेरे प्रति उसके ख़याल बदल जाने थे। उसके मन में मेरे प्रति यही छवि बन जानी थी कि मैं एक निहायत ही गिरा हुआ इंसान हूं जिसने उसकी माँ के साथ ग़लत काम किया था।

जंगल में पहुंच कर मैं नित्य क्रिया से फ़ारिग हुआ और फिर नहा धो कर वापस अपने खेत पर आ गया था। मेरे दिमाग़ से अनुराधा का ख़याल और उसकी बातें जा ही नहीं थी और हर गुज़रते पल के साथ मेरे अंदर एक बेचैनी सी बढ़ती जा रही थी जो अब मुझे परेशान करने लगी थी। मेरा मन अब किसी भी काम में नहीं लग रहा था। जाने कितनी ही देर तक मैं अपने खेत के पास बैठा इन ख़यालों में डूबा रहा था।

"छोटे ठाकुर।" एक जानी पहचानी आवाज़ को सुन कर मैंने पलट कर आवाज़ की दिशा में देखा। मुरारी सिंह मेरी तरफ बढ़ा चला आ रहा था और उसी ने ज़ोर की आवाज़ देते हुए कहा था____"आज क्या तुमने तय कर लिया है कि सारी फसल काट कर और उसे गाह कर उसका सारा अनाज झोपड़े में रख लेना है?"

मुरारी की बातें सुन कर मैंने चौंक कर अपने हाथों की तरफ देखा। मेरे हाथ में गेहू की पुल्लियों का एक गट्ठा था जिसे मैं रस्सी से बाँध रहा था। गुज़र चुके दिनों की याद में मैं इस क़दर खो गया था कि मुझे पता ही नहीं चला कि मैं वर्तमान में क्या कर रहा था। मैंने खेत में चारो तरफ नज़र घुमाई तो देखा मैंने गेहू की सारी पुल्लियों को रस्सी से बाँध बाँध कर एक जगह इकठ्ठा कर लिया था। मुझे अपने द्वारा किये गए इस काम को देख कर बड़ी हैरानी हुई। फिर मुझे याद आया कि आज घर से भाभी आईं थी और मैं उनसे बात करते हुए बेहद गुस्सा हो गया था। गुस्से में मैंने जाने क्या क्या कह दिया था उन्हें। मुझे अहसास हुआ कि मुझे इस तरह उनसे गुस्से में बात नहीं करनी चाहिए थी। आख़िर उनकी तो कोई ग़लती नहीं थी।

वैसे हक़ीक़त ये थी कि मुझे गुस्सा भी इस बात पर आ गया था कि इन चार महीनों में मेरे घर का कोई भी सदस्य मुझसे मिलने नहीं आया था और ना ही ये देखने आया था कि घर गांव से निकाले जाने के बाद मैं किस तरह से यहाँ जी रहा हूं। भाभी ने ये कह दिया कि माँ मेरे लिए बहुत दुखी हैं तो क्या उससे मुझे संतुष्टि मिल जाएगी? मेरे माँ बाप को तो जैसे कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता था कि मैं यहाँ किस हाल में हूं। अपने मान सम्मान को बढ़ाने के लिए कोई फैसला करना बहुत आसान होता है लेकिन अगर यही फैसला खुद उनके लिए होता और वो खुद ऐसी परिस्थिति में होते तब पता चलता कि कैसा महसूस होता है। सारी दुनियां मुझे बुरा कहे मगर मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था। मेरे अंदर तो माँ बाप के लिए नफ़रत में जैसे और भी इज़ाफ़ा हो गया था।

इन चार महीनों में मैं इतना तो सीख ही गया था कि मुसीबत में कोई किसी का साथ नहीं देता। सब साले मतलब के रिश्ते हैं और मतलब के यार हैं। जब मेरे अपनों का ये हाल था तो गैरों के बारे में क्या कहता? मेरे दोस्तों में से कोई भी मेरे पास नहीं आया था। जब भी ये सोचता था तो मेरे अंदर गुस्से का ज्वालामुखी धधक उठता था और मन करता था कि ऐसे मतलबी दोस्तों को जान से मार दूं।

"क्या हुआ छोटे ठाकुर?" मुरारी ने मुझे ख़यालों में गुम देखा तो इस बार वो थोड़ा चिंतित भाव से पूछ बैठा था____"आज क्या हो गया है तुम्हें? कहां इतना खोये हुए हो?"

"काका देशी है क्या तुम्हारे पास?" मैंने गेहू के गट्ठे को एक बड़े गट्ठे के पास फेंकते हुए मुरारी से पूछा तो वो हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए बोला____"देशी??? ये क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर? क्या आज देशी चढ़ाने का इरादा है?"

"मुझे समझ आ गया है काका।" मैंने मुरारी के पास आते हुए कहा____"कि दुनिया में कोई भी चीज़ बुरी नहीं होती, बल्कि देशी जैसी चीज़ तो बहुत ही अच्छी होती है। अगर तुम्हारे पास है तो लाओ काका। आज मैं भी इसे पिऊंगा और इसके नशे को महसूस करुंगा।"

"छोटे ठाकुर।" मुरारी मुझे बड़े ध्यान से देखते हुए बोला____"आख़िर बात क्या है? कुछ हुआ है क्या?"
"क्या तुम्हें लगता है काका कि कुछ हो सकता है?" मैंने फीकी सी मुस्कान में कहा____"अपने साथ तो जो होना था वो चार महीने पहले ही हो चुका है। अब तो बस ये फसल गाह लूं और अपने बाप को दिखा दूं कि उसने मुझे तोड़ने का भले ही पूरा प्रबंध किया था मगर मैं ज़रा भी नहीं टूटा बल्कि पहले से और भी ज़्यादा मजबूत हो गया हूं।"

मुरारी मेरे मुख से ऐसी बातें सुन कर हैरान था। ऐसा नहीं था कि उसने ऐसी बातें मेरे मुख से पहले सुनी नहीं थी किन्तु आज वो हैरान इस लिए था क्योंकि आज मेरी आवाज़ में और मेरे बोलने के अंदाज़ में भारीपन था। मेरे चेहरे पर आज उसे एक दर्द दिख रहा था।

"ऐसे क्या देख रहे हो काका?" मैंने मुरारी के कंधे पर अपना हाथ रख कर कहा____"देशी हो तो निकाल कर दो न मुझे। यकीन मानो काका आज तुम्हारी देशी पीने का बहुत मन कर रहा है।"

"छोटे ठाकुर।" मुरारी ने संजीदगी से कहा____"अभी तो नहीं है मेरे पास लेकिन अगर तुम सच में पीना चाहते हो तो मैं घर से ले आऊंगा।"
"अरे तो तुम्हें क्या लगा काका?" मैंने मुरारी से दो कदम पीछे हटते हुए कहा____"मैं क्या तुमसे मज़ाक कर रहा हूं? अभी जाओ और घर से देशी लेकर आओ। आज हम दोनों साथ में बैठ कर देशी शराब पिएँगे।"

मुरारी मेरी बातों से अचंभित था और मेरी तरफ ऐसे देख रहा था जैसे कि मैं एकदम से पागल हो गया हूं। ख़ैर मेरे ज़ोर देने पर मुरारी वापस अपने घर की तरफ चला गया। वो तेज़ तेज़ क़दमों से चला जा रहा था और उसे जाता देख मेरे होठों पर मुस्कान उभर आई थी। इस वक़्त सच में मेरे अंदर एक द्वन्द सा चल रहा था। एक आग सी लगी हुई थी मेरे अंदर जो मुझे जलाये जा रही थी और मैं चाहता था कि ये आग और भी ज़्यादा भड़के। मेरे दिलो दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से विचारों का बवंडर घूमे जा रहा था।

मुरारी के जाने के बाद मैं अपने झोपड़े की तरफ आ गया। आज बहुत ज्यादा मेहनत की थी मैंने और अब मुझे थकान महसूस हो रही थी। जिस्म से पसीने की बदबू भी आ रही थी इस लिए मैंने सोचा कि नहा लिया जाये ताकि थोड़ी राहत महसूस हो। मिट्टी के दो बड़े बड़े मटके थे मेरे पास जिनमे पानी भर कर रखता था मैं और एक लोहे की बाल्टी थी। मैंने एक मटके से बाल्टी में पानी भरा और झोपड़े के पास ही रखे एक सपाट पत्थर के पास बाल्टी को रख दिया। उसके बाद मैंने अपने जिस्म से बनियान और तौलिये को उतार कर उस सपाट पत्थर के पास आ गया।

पानी से पहले मैंने हाथ पैर धोये और फिर लोटे में पानी भर भर कर अपने सिर पर डालने लगा। मिट्टी के मटके का पानी बड़ा ही शीतल था। जैसे ही वो ठंडा पानी मेरे जिस्म पर पड़ा तो मुझे बेहद आनंद आया। हाथों से अच्छी तरह जिस्म को मला मैंने और फिर से लोटे में पानी भर भर कर अपने सिर पर डालने लगा। बाल्टी का पानी ख़त्म हुआ तो मटके से और पानी लिया और फिर से नहाना शुरू कर दिया। नहाने के बाद थोड़े बचे पानी से मैंने कच्छा बनियान धोया और गन्दा पानी फेंक कर बाल्टी को झोपड़े के पास रख दिया। गीले कच्छे बनियान को मैंने वहीं एक तरफ झोपड़े के ऊपर फैला कर डाल दिया।

नहाने के बाद अब मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था। दिन ढलने लगा था और शाम का धुंधलका धीरे धीरे बढ़ने लगा था। नहाने के बाद मैंने दूसरा कच्छा बनियान पहन लिया और ऊपर से पैंट शर्ट भी। अभी मैं कपड़े पहन कर झोपड़े से बाहर आया ही था कि मुरारी आ गया।

मुरारी देशी शराब के दो ठर्रे ले कर आया था। मुरारी के बड़े उपकार थे मुझ पर और मैं हमेशा सोचता था कि अगर वो न होता तो क्या मैं इस बंज़र ज़मीन पर अकेले फसल उगा पाता? बेशक मैंने बहुत मेहनत की थी मगर खेत में हल चलाना और बीज बोना उसी ने सिखाया था मुझे। उसके बाद जब गेहू की फसल कुछ बड़ी हुई तो उसी की मदद से मैंने खेत को पानी से क‌ई बार सींचा था। सिंचाई के लिए कोई नशीन तो थी नहीं इस लिए उसकी बैल गाडी ले कर मैं जंगल जाता और जंगल के अंदर मौजूद उस नदी से ड्रमों में पानी भर कर लाता था। नदी से ड्रमों में पानी भर कर लाता और फिर उस पानी को अपने खेत में डालता था। किसी किसी दिन मुरारी इस काम में मेरा साथ देता था। उसके अपने भी खेत थे जिनमे वो ब्यस्त रहता था। किसी किसी दिन उसकी बीवी सरोज भी आ जाया करती थी और थोड़ी बहुत मेरी मदद कर देती थी। हालांकि उसके आने का प्रयोजन कुछ और ही होता था।

मुरारी के इन उपकारों के बारे में जब भी मैं सोचता तो मुझे अपने उस काम की याद आ जाती जो मैं उसकी बीवी के साथ करता था। हालांकि मैं उसकी बीवी के साथ जो भी करता था उसमे उसकी बीवी की भी बराबर रज़ामंदी होती थी किन्तु इसके बावजूद मुझे अपने अंदर एक ग्लानि सी महसूस होती थी और उस ग्लानि के लिए मैं ईश्वर से माफ़ी भी मांगता था।

मुरारी की बेटी अनुराधा से मैं बहुत कम बात करता था। उस दिन के हादसे के बाद मैं उसके सामने जाने से ही कतराने लगा था। हालांकि उस हादसे के बाद उसने कभी मुझसे उस बारे में कुछ नहीं पूछा था बल्कि अब तो ऐसा भी होता था कि अगर मैं मुरारी के साथ उसके घर जाता तो वो मुझे देख कर हल्के से मुस्कुरा देती थी। जब वो हल्के से मुस्कुराती थी तो मेरे मन के तार एकदम से झनझना उठते थे और दिल में जज़्बातों और हसरतों का तूफ़ान सा खड़ा हो जाता था मगर फिर मैं खुद को सम्हाल कर उसके सामने से हट जाता था। अनुराधा को अब तक जितना मैंने जाना था उसका सार यही था कि वो एक निहायत ही शरीफ लड़की थी जिसमे सादगी और मासूमियत कूट कूट कर भरी हुई थी।

मुरारी का घर गांव के एकांत में बना हुआ था जहां पर उसके खेत थे। मुरारी का एक भाई और था जिसका घर गांव में बना हुआ था। अनुराधा ज़्यादातर घर में ही रहती थी या फिर अपने माँ बाप और भाई के साथ खेतों पर काम करने चली जाती थी। मैं उसके बारे में हमेशा सोचता था कि गांव में ऐसी लड़की मेरे जैसे हवस के पुजारियों से अब तक कैसे बची हुई थी?

"छोटे ठाकुर।" मुरारी की आवाज़ से मैं ख़यालों से बाहर आया____"तुम्हारे लिए अलग से देशी का एक ठर्रा ले कर आया हूं और घर से चने भी भुनवा कर लाया हूं। वैसे मैं तो ऐसे ही पी लेता हूं इसे।"

"तो मैं भी ऐसे ही पी लूंगा इसे।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"काकी को क्यों परेशान किया चने भुनवा कर?"
"क्या बात करते हो छोटे ठाकुर।" मुरारी ने बुरा सा मुँह बनाया____"ये चने तो मैंने अनुराधा बिटिया से भुनवाये हैं। तुम्हारी काकी तो ससुरी मेरी सुनती ही नहीं है कभी।"

"ऐसा क्यों काका?" मुरारी की इस बात से मैंने पूछा____"काकी तुम्हारी क्यों नहीं सुनती है?"
"अब तुमसे क्या बताऊं छोटे ठाकुर?" मुरारी ने देशी ठर्रे का ढक्कन खोलते हुए कहा____"उम्र में मुझसे छोटे हो और रिश्ते में मेरे भतीजे भी लगते हो इस लिए तुमसे वो सब बातें नहीं कह सकता।"

"उम्र में मैं छोटा हूं और रिश्ते में तुम्हारा भतीजा भी लगता हूं।" मैंने फिर से मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन दारू तो पिला ही रहे हो ना काका? क्या इसके लिए तुमने सोचा कुछ? जबकि बाकी चीज़ों के लिए तुम मुझे उम्र और रिश्ते का हवाला दे रहे हो।"

"बात तो तुम्हारी ठीक है छोटे ठाकुर।" मुरारी ने देशी शराब को एक गिलास में उड़ेलते हुए कहा____"लेकिन इसकी बात अलग है और उसकी अलग।"
"अरे! क्या इसकी उसकी लगा रखे हो काका?" मैंने कहा____"हमारे बीच क्या रिश्ता है उसको गोली मारो। मैं तो बस इतना जानता हूं कि आज के वक़्त में मेरा तुम्हारे सिवा कोई नहीं है। इन चार महीनो में जिस तरह से तुमने मेरा साथ दिया है और मेरी मदद की है उसे मैं कभी नहीं भुला सकता। इस लिए तुम मेरे लिए हर रिश्ते से बढ़ कर हो।"

"तुम कुछ ज़्यादा ही मुझे मान दे रहे हो छोटे ठाकुर।" मुरारी ने एक दूसरे गिलास में देशी को उड़ेलते हुए कहा____"जब कि सच तो ये है कि मैंने जो कुछ किया है उसमे मेरा भी कोई न कोई स्वार्थ था।"

"सबसे पहले तो तुम मुझे छोटे ठाकुर बोलना बंद करो काका।" मैंने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"मुझे इस शब्द से नफ़रत हो गई है। तुम जब भी मुझे इस नाम से बुलाते हो तो मुझे इस नाम से जुड़ा हर रिश्ता याद आ जाता है, जो मुझे तकलीफ देने लगता है। इस लिए अब से तुम मुझे सिर्फ वैभव बुलाओगे।"

"मैं तुम्हें नाम से कैसे बुला सकता हूं छोटे ठाकुर?" मुरारी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"अगर कहीं से बड़े ठाकुर को इस बात का पता चल गया तो वो मेरी खाल उधेड़वा देंगे।"

"ऐसा कुछ नहीं होगा काका।" मैंने शख्त भाव से कहा____"अगर होना होता तो पहले ही हो जाता। तुम्हें क्या लगता है तुम्हारे उस बड़े ठाकुर को क्या ये पता नहीं होगा कि तुम मेरी मदद करते हो? उसे ज़रूर पता होगा। वो अपने आदमियों के द्वारा मेरी हर पल की ख़बर रखता होगा लेकिन उसने आज तक तुम्हारे या तुम्हारे परिवार के साथ कुछ नहीं किया। इस लिए इस बात से बेफिक्र रहो और हां अगर वो ऐसा करेगा भी तो मैं तुम्हारे सामने तुम्हारी ढाल बन कर खड़ा हो जाउंगा। उसके बाद मैं भी देखूगा कि तुम्हारा वो बड़ा ठाकुर क्या उखाड़ लेता है।"

"अपने पिता से इतनी नफ़रत ठीक नहीं है छोटे ठाकुर।" मुरारी मेरी बातें सुन कर थोड़ा सहम गया था____"माना कि उन्होंने ये सब कर के अच्छा नहीं किया है मगर उनके ऐसा करने के पीछे भी कोई न कोई वजह ज़रूर होगी।"

"तुम मेरे सामने उस इंसान की तरफदारी मत करो काका।" मैंने गुस्से से कहा____"वो मेरा कोई नहीं है और ना ही मेरी नज़र में उसकी कोई अहमियत है। सोचा था कि आज तुम्हारे साथ देशी पिऊंगा और तुमसे अपने दिल की बातें करुंगा मगर तुमने मेरा मूड ख़राब कर दिया। ले जाओ अपनी इस शराब को।"

"छोटे ठाकुर।" मुरारी ने भय और आश्चर्य से बोला ही था कि मैं गुस्से से उबलते हुए चीख पड़ा____"ख़ामोश! अपना ये सामान समेटो और चले जाओ यहाँ से। मुझे किसी की ज़रूरत नहीं है। तुम सब उस घटिया इंसान के तलवे चाटने वाले कुत्ते हो। चले जाओ मेरी नज़रों के सामने से।"

मुझे इस वक़्त इतना गुस्सा आ गया था कि मैं खुद आवेश में कांपने लगा था। मुरारी मेरा ये रूप देख कर बुरी तरह घबरा गया था। मैं मिट्टी के बने उस छोटे चबूतरे से उठा और अँधेरे में ही जंगल की तरफ चल पड़ा। इस वक़्त मैं नफ़रत और गुस्से की आग में बुरी तरह जलने लगा था। मेरा मन कर रहा था कि सारी दुनिया को आग लगा दूं।

मैं तेज़ी से जंगल की तरफ बढ़ता जा रहा था। मैं खुद नहीं जानता था कि इस वक़्त मैं अँधेरे में जंगल की तरफ क्यों जा रहा था। मैं तो बस इतना सोच पा रहा था कि अपने इस गुस्से से मैं किसी का खून कर दूं?

मैं जंगल में अभी दाखिल ही हुआ था कि मेरे कानों में मुरारी की आवाज़ पड़ी। वो पीछे से मुझे आवाज़ें लगा रहा था। उसकी आवाज़ से साफ़ पता चल रहा था कि वो भागते हुए मेरी तरफ ही आ रहा है किन्तु मैं उसकी आवाज़ सुन कर भी रुका नहीं बल्कि जंगल में आगे बढ़ता ही रहा। हालांकि रात अभी नहीं हुई थी किन्तु शाम घिर चुकी थी और शाम का धुंधलका छा गया था। जंगल में तो और भी ज़्यादा अँधेरा दिख रहा था।

"रूक जाओ छोटे ठाकुर।" मुरारी की आवाज़ मुझे अपने एकदम पास से सुनाई दी। मैं उसे दिख तो नहीं रहा था किन्तु ज़मीन पर सूखे पत्तों पर मेरे चलने की आवाज़ हो रही थी जिससे वो अंदाज़े से मेरे पास आ गया था।

"छोटे ठाकुर रुक जाओ।" मुरारी हांफते हुए बोला____"मुझे माफ़ कर दो। मैं कसम खा के कहता हूं कि आज के बाद बड़े ठाकुर का ज़िक्र ही नहीं करुंगा और ये भी यकीन मानो कि मैं औरों की तरह उनके तलवे चाटने वाला कुत्ता नहीं हूं।"

"मैंने तुम्हें मना किया था ना कि मुझे छोटे ठाकुर मत कहो।" मैंने पलट कर गुस्से में मुरारी का गला पकड़ लिया और गुर्राते हुए बोला____"मगर तुम्हारे भेजे में मेरी ये बात अब तक नहीं घुसी। तुम्हें बताया था ना कि मुझे इस नाम से ही नफ़रत है? मेरा बस चले तो मैं अपने नाम से जुड़े हर नाम को मिट्टी में मिला दूं।"

"माफ़ कर दो वैभव।" मुरारी मेरे द्वारा अपना गला दबाये जाने से अटकते हुए स्वर में बोला____"आज के बाद मैं तुम्हें उस नाम से नहीं बुलाऊंगा।"

मुरारी के ऐसा कहने पर मैंने झटके से उसके गले से अपना पंजा खींच लिया। मुरारी ने फ़ौरन ही अपने दोनों हाथों से अपने गले को सहलाना शुरू कर दिया। उसकी साँसें चढ़ी हुई थी।

"अब चलो वैभव।" फिर मुरारी ने अपनी उखड़ी हुई साँसों को सम्हालते हुए कहा____"यहां से चलो। इस वक़्त यहाँ पर रुकना ठीक नहीं है। चलो हम साथ में बैठ कर देशी का लुत्फ़ उठाएंगे। क्या अपने काका की इतनी सी बात भी नहीं मानोगे?"

मुरारी की इन बातों से मेरे अंदर का गुस्सा शांत होने लगा और मैं चुप चाप जंगल से बाहर की तरफ वापस चल दिया। मेरे चलने पर मुरारी भी मेरे पीछे पीछे चल दिया। कुछ ही देर में हम दोनों वापस मेरे झोपड़े पर आ ग‌ए। झोपड़े पर लालटेन जल रही थी। मैं आया और चुप चाप मिट्टी के उसी चबूतरे पर बैठ गया जिसमे मैं पहले बैठा था। गुस्सा गायब हुआ तो मुझे अहसास हुआ कि मैंने मुरारी से जो कुछ भी कहा था और उसके साथ जो कुछ भी किया था वो बिल्कुल ठीक नहीं था। मुझे अपनी ग़लती का बोध हुआ और मुझे अपने आप पर शर्मिंदगी होने लगी। मुरारी रिश्ते और उम्र में मुझसे बड़ा था और सबसे बड़ी बात ये कि ऐसे वक़्त में सिर्फ उसी ने मेरा साथ दिया था और मैंने उसका ही गिरहबान पकड़ लिया था।

"मुझे माफ़ कर दो काका।" फिर मैंने धीमे स्वर में मुरारी से कहा____"मैंने गुस्से में तुम्हारे साथ ठीक नहीं किया। मेरी इस ग़लती के लिए मुझे जो चाहो सजा दे दो।"

"नहीं वैभव नहीं।" मुरारी ने मेरी तरफ बड़े स्नेह से देखते हुए कहा___"तुम्हें माफ़ी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं अच्छी तरह समझता हूं कि ऐसे वक़्त में तुम्हारी मनोदशा ही ऐसी है कि तुम्हारी जगह अगर कोई भी होता तो यही करता। इस लिए भूल जाओ सब कुछ और इस देशी का मज़ा लो।"

"तुम सच में बहुत अच्छे हो काका।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"इतना कुछ होने के बाद भी तुम मेरे पास बैठे हो और सब कुछ भूल जाने को कह रहे हो।"
"अब छोड़ो भी इस बात को।" मुरारी ने अपना गिलास उठाते हुए कहा____"चलो उठाओ अपना गिलास और अपनी नाक बंद कर के एक ही सांस में पी जाओ इसे।"

"नाक बंद कर के क्यों काका?" मैंने ना समझने वाले अंदाज़ से पूछा____"क्या इसे नाक बंद कर के पिया जाता है?"
"हा हा हा हा नहीं वैभव।" मुरारी ने हंसते हुए कहा____"नाक बंद कर के पीने को इस लिए कह रहा हूं क्योंकि इसकी गंध बहुत ख़राब होती है। अगर पीते वक़्त इसकी गंध नाक में घुस जाये तो इंसान का कलेजा हिल जाता है और पहली बार पीने वाला तो फिर इसे पीने का सोचेगा भी नहीं।"

"अच्छा ऐसी बात है।" मैंने समझते हुए कहा____"फिर तो मैं अपनी नाक बंद कर के ही पियूंगा इसे मगर मेरी एक शर्त है काका।"
"कैसी शर्त वैभव?" मुरारी ने मेरी तरफ सवालिया निगाहों से देखा।
"शर्त ये है कि अब से हमारे बीच उम्र और रिश्ते की कोई बात नहीं रहेगी।" मैंने अपना गिलास उठा कर कहा____"हम दोनों एक दूसरे से हर तरह की बातें बेझिझक हो कर करेंगे। बोलो शर्त मंजूर है ना?"

"अगर तुम यही चाहते हो।" मुरारी ने मुस्कुराते हुए कहा____"तो ठीक है। मुझे तुम्हारी ये शर्त मंजूर है। अब चलो पीना शुरू करो तुम।"
"आज की ये शाम।" मैंने कहा____"हमारी गहरी दोस्ती के नाम।"

"दोस्ती??" मुरारी मेरी बात सुन कर चौंका।
"हां काका।" मैंने कहा____"अब जब हम एक दूसरे से हर तरह की बातें करेंगे तो हमारे बीच दोस्ती का एक और रिश्ता भी तो बन जायेगा ना?"
"ओह! हां समझ गया।" मुरारी धीरे से हँसा और फिर गिलास को उसने अपने अपने होठों से लगा लिया।
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[color=rgb(51,]☆ प्यार का सबूत ☆[/color]
[color=rgb(0,]अध्याय - 04[/color]
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[color=rgb(65,]अब तक,,,,,[/color]

[color=rgb(44,]"अगर तुम यही चाहते हो।" मुरारी ने मुस्कुराते हुए कहा____"तो ठीक है। मुझे तुम्हारी ये शर्त मंजूर है। अब चलो पीना शुरू करो तुम।"
"आज की ये शाम।" मैंने कहा____"हमारी गहरी दोस्ती के नाम।"

"दोस्ती??" मुरारी मेरी बात सुन कर चौंका।
"हां काका।" मैंने कहा____"अब जब हम एक दूसरे से हर तरह की बातें करेंगे तो हमारे बीच दोस्ती का एक और रिश्ता भी तो बन जायेगा ना?"
"ओह! हां समझ गया।" मुरारी धीरे से हँसा और फिर गिलास को उसने अपने अपने होठों से लगा लिया।[/color]

[color=rgb(65,]अब आगे,,,,,,[/color]

शाम पूरी तरह से घिर चुकी थी और हम दोनों देशी शराब का मज़ा ले रहे थे। मैं तो पहली बार ही पी रहा था इस लिए एक ही गिलास में मुझ पर नशे का शुरूर चढ़ गया था मगर मुरारी तो पुराना पियक्कड़ था इस लिए अपनी पूरी बोतल को जल्दी ही डकार गया था। देशी शराब इतनी कड़वी और बदबूदार होगी ये मैंने सोचा भी नहीं था और यही वजह थी कि मैंने मुश्किल से अपना एक गिलास ख़त्म किया था और बाकी बोतल की शराब को मैंने मुरारी को ही पीने के लिए कह दिया था।

"लगता है तुम्हारा एक ही गिलास में काम हो गया वैभव।" मुरारी ने मुस्कुराते हुए कहा____"समझ सकता हूं कि पहली बार में यही हाल होता है। ख़ैर कोई बात नहीं धीरे धीरे आदत पड़ जाएगी तो पूरी बोतल पी जाया करोगे।"

"पूरी बोतल तो मैं भी पी लेता काका।" मैंने नशे के हल्के शुरूर में बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"मगर ये ससुरी कड़वी ही बहुत है और इसकी दुर्गन्ध से भेजा भन्ना जाता है।"

मेरी बात सुन कर मुरारी ने पहले मेरी वाली बोतल को एक ही सांस में ख़त्म किया और फिर मुस्कुराते हुए नशे में बोला____"शुरु शुरू में इसकी दुर्गन्ध की वजह से ही पीना मुश्किल होता है वैभव लेकिन फिर इसके दुर्गन्ध की आदत हो जाती है।"

मैने देखा मुरारी की आँखें नशे में लाल पड़ गईं थी और उसकी आँखें भी चढ़ी चढ़ी सी दिखने लगीं थी। नशा तो मुझे भी हो गया था किन्तु मैंने एक ही गिलास पिया था। स्टील के गिलास में आधा गिलास ही शराब डाला था मुरारी ने। इस लिए नशा तो हुआ था मुझे लेकिन अभी होशो हवास में था मैं।

"अच्छा काका तुम किस स्वार्थ की बात कर रहे थे उस वक़्त?" मैंने भुने हुए चने को मुँह में डालते हुए पूछा।
"मैंने कब बात की थी भतीजे?" मुरारी ने नशे में पहली बार मुझे भतीजा कह कर सम्बोधित किया।

"क्या काका लगता है चढ़ गई है तुम्हें।" मैंने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"तभी तो तुम्हें याद नहीं कि तुमने उस वक़्त मुझसे क्या कहा था।"
"अरे! इतने से मुझे नहीं चढ़ती भतीजे।" मुरारी ने मानो शेखी से कहा____अभी तो मैं दो चार बोतल और पी सकता हूं और उसके बाद भी मुझे नहीं चढ़ेगी।"

"नहीं काका तुम्हें चढ़ गई है।" मैंने मुरारी की आँखों में झांकते हुए कहा____"तभी तो तुम्हें याद नहीं है कि तुमने उस वक़्त मुझसे क्या कहा था। जब तुम शुरू में मेरे पास आये थे और मेरी बातों पर तुमने कहा था कि मेरी मदद भी तुमने अपने स्वार्थ की वजह से ही किया है। मैं वही जानना चाहता हूं।"

"लगता है सच में चढ़ गई है मुझे।" मुरारी ने अजीब भाव से अपने सिर को झटकते हुए कहा____"तभी मुझे याद नहीं आ रहा कि मैंने तुमसे ऐसा कब कहा था? कहीं तुम झूठ तो नहीं बोल रहे हो मुझसे?"

"क्या काका मैं भला झूठ क्यों बोलूंगा तुमसे?" मैं उसके बर्ताव पर मुस्कुराये बग़ैर न रह सका था_____"अच्छा छोड़ो उस बात को और ये बताओ कि काकी तुम्हारी क्यों नहीं सुनती है? याद है ना तुमने ये बात भी मुझसे कही थी और जब मैंने तुमसे पूछा तो तुम मुझे उम्र और रिश्ते की बात का हवाला देने लगे थे?"

"हो सकता है कि मैंने कहा होगा भतीजे।" मुरारी ऐसे बर्ताव कर रहा था जैसे परेशान हो गया हो___"साला कुछ याद ही नहीं आ रहा मुझको। लगता है आज ये ससुरी कुछ ज़्यादा ही भेजे में चढ़ गई है।"

"तुम तो कह रहे थे कि दो तीन बोतल और पी सकते हो।" मैंने कहा____"ख़ैर छोडो मैं जानता हूं कि तुम्हें ये बात भी अब याद नहीं होगी। अच्छा हुआ कि मैंने थोड़ा सा ही पिया है वरना तुम्हारी तरह मुझे भी कुछ याद नहीं रहता।"

"मुझे याद आ गया भतीजे।" मुरारी ने एक झटके से कहा____"तुम सच कहे रहे थे। मैंने तुमसे सच में कहा था कि तुम्हारी काकी ससुरी मेरी सुनती ही नहीं है। अब याद आ गया मुझे। देखा मुझे इतनी भी नहीं चढ़ी है।"

"तो फिर बताओ काका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"आख़िर काकी तुम्हारी सुनती क्यों नहीं है?"
"अभी से सठिया गई है बुरचोदी।" मुरारी ने गाली देते हुए कहा____"एक तो वैसे भी बेटीचोद कभी मौका नहीं मिलता और अगर कभी मिलता भी है तो देती नहीं है मादरचोद।"

"वो तुम्हें क्या नहीं देती है काका?" मैं समझ तो गया था मगर मैं जान बूझ कर मुरारी से पूछा रहा था।
"वो अपनी बुर नहीं देती महतारीचोद।" मुरारी जैसे भन्ना गया था____"लेकिन आज तो मैं उसकी बुर ले के ही रहूंगा भतीजे। मैं भी देखता हूं कि आज वो बेटीचोद कैसे अपनी चूत मारने को नहीं देती मुझे। साली को ऐसे रगडू़ंगा कि उसकी बुर का भोसड़ा बना दूंगा।"

"अगर ऐसा करोगे काका।" मैंने मन ही मन हंसते हुए कहा____"तो काकी घर में शोर मचा देगी और फिर सबको पता चल जाएगा कि तुम उसके साथ क्या कर रहे हो।"
"मुझे कोई परवाह नहीं उसकी।" मुरारी ने हाथ को झटकते हुए कहा____"साला दो महीना हो गया। उस बुरचोदी ने अपनी बुर को दिखाया तक नहीं मुझे। आज नहीं छोड़ूंगा उसे। दोनों तरफ से बजाऊंगा मादरचोद को।"

"और अगर तुम्हारी बेटी अनुराधा को पता चल गया तो?" मैंने मुरारी को सचेत करने की गरज़ से कहा____"तब क्या करोगे काका? क्या तुम अपनी बेटी की भी परवाह नहीं करोगे?"
"तो क्या करू वैभव?" मुरारी ने जैसे हताश भाव से कहा____"उस बुरचोदी को भी तो मेरे बारे में सोचना चाहिए। पहले तो बड़ा हचक हचक के चुदवाती थी मुझसे। साली रंडी न घर में छोड़ती थी और ना ही खेतों में। मौका मिला नहीं कि लौड़ा निकाल के भर लेती थी अपनी बुर में।"

मुरारी को सच में देशी शराब का नशा चढ़ गया था और अब उसे इतना भी ज्ञान नहीं रह गया था कि इस वक़्त वो किससे ऐसी बातें कर रहा था। उसकी बातों से मैं जान गया था कि उसकी बीवी सरोज दो महीने से उसे चोदने को नहीं दे रही थी। दो महीने पहले उससे मेरे जिस्मानी सम्बन्ध बने थे और तब से वो मुरारी को अपनी बुर तक नहीं दिखा रही थी। मैं मुरारी की तड़प को समझ सकता था। इस लिए इस वक़्त मैं चाहता था कि वो किसी तरह अपने दिमाग़ से सरोज की बुर का ख़याल निकाल दे और अपने अंदर की इन भावनाओं को थोड़ा शांत करे।

"मैं मानता हूं काका कि काकी को तुम्हारे बारे में भी सोचना चाहिए।" फिर मैंने मुरारी काका से सहानुभूति वाले अंदाज़ में कहा____"आख़िर तुम अभी जवान हो और काकी की छलकती जवानी देख कर तुम्हारा लंड भी खड़ा हो जाता होगा।"

"वही तो यार।" मुरारी काका ने मेरी बात सुन कर झटके से सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन वो बुरचोदी समझती ही नहीं है कुछ। मैंने तो बच्चे होने के बाद उसे पेलना बंद ही कर दिया था मगर उस लंडचटनी को तो बच्चे होने के बाद भी लंड चाहिए था। इस लिए जब भी मौका मिलता था चुदवा लेती थी मुझसे। शुरू शुरू में तो मुझे उस रांड पर बहुत गुस्सा आता था मगर फिर जब उसने मेरा लंड चूसना शुरू किया तो कसम से मज़ा ही आने लगा। बस उसके बाद तो मैं भी उस बुरचोदी को दबा के पेलने लगा था।"

मैं मुरारी काका की बातों को सुन कर मन ही मन हैरान भी हो रहा था और हंस भी रहा था। उधर मुरारी काका ये सब बोलने के बाद अचानक रुक गया और खाली बोतल को मुँह से लगाने लगा। जब खाली बोतल से देशी शराब का एक बूँद भी उसके मुख में न गया तो खिसिया कर उसने उस बोतल को दूर फेंक दिया और दूसरी बोतल को उठा कर मुँह से लगा लिया मगर दूसरी बोतल से भी उसके मुख में एक बूँद शराब न गई तो भन्ना कर उसने उसे भी दूर फेंक दिया।

"महतारीचोद ये दोनों बोतल खाली कैसे हो गईं?" मुरारी काका ने नशे में झूमते हुए जैसे खुद से ही कहा____"घर से जब लाया था तब तो ये दोनों भरी हुईं थी।"
"कैसी बात करते हो काका?" मैंने हंसते हुए कहा____"अभी तुमने ही तो दोनों बोतलों की शराब पी है। क्या ये भी भूल गए तुम?"

"उस बुरचोदी के चक्कर में कुछ याद ही नहीं रहा मुझे।" मुरारी काका ने सिर को झटकते हुए कहा____"वैभव, आज तो मैं उस ससुरी को पेल के रहूंगा चाहे जो हो जाए।"

"दारु के नशे में कोई हंगामा न करना काका।" मैंने मुरारी काका के कंधे पर हाथ रख कर समझाते हुए कहा____"तुम्हारी बेटी अनुराधा को पता चलेगा तो क्या सोचेगी वो तुम्हारे बारे में।"

"अनुराधा?? मेरी बेटी???" मुरारी काका ने जैसे सोचते हुए कहा____"हां मेरी बेटी अनुराधा। तुम नहीं जानते वैभव, मेरी बेटी अनुराधा मेरे कलेजे का टुकड़ा है। एक वही है जो मेरा ख़याल रखती है, पर एक दिन वो भी मुझे छोड़ कर अपने ससुराल चली जाएगी। अरे! लेकिन वो ससुराल कैसे चली जाएगी भला?? मैं इतना सक्षम भी तो नहीं हूं कि अपनी फूल जैसी कोमल बेटी का ब्याह कर सकूं। वैसे एक जगह उसके ब्याह की बात की थी मैंने। मादरचोदों ने मुट्ठी भर रूपिया मांगा था मुझसे जबकि मेरे पास दहेज़ में देने के लिए तो फूटी कौड़ी भी नहीं है। खेती किसानी में जो मिलता है वो भी कर्ज़ा देने में चला जाता है। नहीं वैभव, मैं अपनी बेटी के हाथ पीले नहीं कर पाऊंगा। मेरी बेटी जीवन भर कंवारी बैठी रह जाएगी।"

मुरारी काका बोलते बोलते इतना भावुक हो गया कि उसकी आवाज़ एकदम से भर्रा गई और आँखों से आँसू छलक कर कच्ची ज़मीन पर गिर पड़े। मुरारी काका भले ही नशे में था किन्तु बातों में वो खो गया था और भावुक हो कर रो पड़ा था। उसकी ये हालत देख कर मुझे भी उसके लिए थोड़ा बुरा महसूस हुआ।

"क्या तुम मेरे लिए कुछ कर सकोगे वैभव?" नशे में झूमते मुरारी ने अचानक ही मेरी तरफ देखते हुए कहा____"अगर मैं तुमसे कुछ मांगू तो क्या तुम दे सकते हो मुझे?"

"क्या हुआ काका?" मैं उसकी इस बात से चौंक पड़ा था____"ये तुम क्या कह रहे हो मुझसे?"
"क्या तुम मेरे कहने पर कुछ कर सकोगे भतीजे?" मुरारी ने लाल सुर्ख आँखों से मुझे देखते हुए कहा____"बेताओ न वैभव, अगर मैं तुमसे ये कहूं कि तुम मेरी बेटी अनुराधा का हाथ हमेशा के लिए थाम लो तो क्या तुम थाम सकते हो? मेरी बेटी में कोई कमी नहीं है। उसका दिल बहुत साफ़ है। उसको घर का हर काम करना आता है। ये ज़रूर है कि वो तुम्हारी तरह किसी बड़े बाप की बेटी नहीं है मगर मेरी बेटी अनुराधा किसी से कम भी नहीं है। क्या तुम मेरी बेटी का हाथ थाम सकते हो वैभव? बताओ न वैभव...!"

मुरारी काका की इन बातों से मैं एकदम हैरान रह गया था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मुरारी काका अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथ में देने का कैसे सोच सकता है? मैं ये तो जानता था कि दुनिया का हर बाप अपनी बेटी को किसी बड़े घर में ही ब्याहना चाहता है ताकि उसकी बेटी हमेशा खुश रहे मगर अनुराधा के लिए मैं भला कैसे सुयोग्य वर हो सकता था? मुझ में भला ऐसी कौन सी खूबी थी जिसके लिए मुरारी ऐसा चाह रहा था? हलांकि अनुराधा कैसी थी ये मुरारी को बताने की ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि मैं खुद जानता था कि वो एक निहायत ही शरीफ लड़की है और ये भी जानता था कि उसमे कोई कमी नहीं है मगर उसके लिए जीवन साथी के रूप में मेरे जैसा औरतबाज़ इंसान बिलकुल भी ठीक नहीं था। जहां तक मेरा सवाल था तो मैं तो शुरू से ही अनुराधा को अपनी हवश का शिकार बनाना चाहता था। ये अलग बात है कि मुरारी के अहसानों के चलते और खुद अनुराधा के साफ चरित्र के चलते मैं उस पर कभी हाथ नहीं डाल पाया था।

"तुम चुप क्यों हो वैभव?" मुझे ख़ामोश देख मुरारी ने मुझे पकड़ कर हिलाते हुए कहा____"कहीं तुम ये तो नहीं सोच रहे कि मेरे जैसा ग़रीब और मामूली इंसान तुम्हारे जैसे बड़े बाप के बेटे से अपनी बेटी का रिश्ता जोड़़ कर अपनी बेटी के लिए महलों के ख़्वाब देख रहा है? अगर ऐसा है तो कोई बात नहीं भतीजे। दरअसल काफी समय से मेरे मन में ये बात थी इस लिए आज तुमसे कह दिया। मैं जानता हूं कि मेरी कोई औका़त नहीं है कि तुम जैसे किसी अमीर लड़के से अपनी बेटी का रिश्ता जोड़ने की बात भी सोचूं।"

"ऐसी कोई बात नहीं है काका।" मैंने इस विषय को बदलने की गरज़ से कहा____"मैं अमीरी ग़रीबी में कोई फर्क नहीं करता और ना ही मुझे ये भेदभाव पसंद है। मैं तो मस्तमौला इंसान हूं जिसके बारे में हर कोई जानता है कि मैं कैसा हूं और किन चीज़ों का रसिया हूं। तुम्हारी बेटी में कोई कमी नहीं है काका मगर ख़ैर छोड़ो ये बात। इस वक़्त तुम सही हालत में नहीं हो। हम कल इस बारे में बात करेंगे।"

मेरी बात सुन कर मुरारी ने मेरी तरफ अपनी लाल सुर्ख आँखों से देखा। उसकी चढ़ी चढ़ी आंखें मेरे चेहरे के भावों का अवलोकन कर रहीं थी और इधर मैं ये सोच रहा था कि क्या उस वक़्त मुरारी काका अपने इसी स्वार्थ की बात कह रहा था? आख़िर उसके ज़हन में ये ख़याल कैसे आ गया कि वो अपनी बेटी का रिश्ता मुझसे करे? उसने ये कैसे सोच लिया था कि मैं इसके लिए राज़ी भी हो जाऊंगा?

मैंने मुरारी को उसके घर ले जाने का सोचा और उससे उठ कर घर चलने को कहा तो वो घर जाने में आना कानी करने लगा। मैंने उसे समझा बुझा कर किसी तरह शांत किया और फिर मैंने एक हाथ में लालटेन लिया और दूसरे हाथ से उसे उठाया।

पूरे रास्ते मुरारी झूमता रहा और नशे में बड़बड़ाता रहा। आख़िर मैं उसे ले कर उसके घर आया। मैंने घर का दरवाज़ा खटखटाया तो अनुराधा ने ही दरवाज़ा खोला। मेरे साथ अपने बापू को उस हालत में देख कर उसने मेरी तरफ सवालिया निगाहों से देखा तो मैंने उसे धीरे से बताया कि उसके बापू ने आज दो बोतल देशी शराब चढ़ा रखी है इस लिए उसे कोई भी ना छेड़े। अनुराधा मेरी बात समझ गई इस लिए चुप चाप एक तरफ हट गई जिससे मैं मुरारी को पकड़े आँगन में आया और एक तरफ रखी चारपाई पर उसे लेटा दिया। तब तक सरोज भी आ गई थी और आ कर उसने भी मुरारी का हाल देखा।

"ये नहीं सुधरने वाले।" सरोज ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"इस आदमी को ज़रा भी चिंता नहीं है कि जवान बेटी घर में बैठी है तो उसके ब्याह के बारे में सोचूं। घर में फूटी कौड़ी नहीं है और ये अनाज बेच बेच कर हर रोज़ दारू चढा लेते हैं।" कहने के साथ ही सरोज मेरी तरफ पलटी____"बेटा तुम इनकी संगत में दारू न पीने लगना। ये तुम्हें भी अपने जैसा बना देंगे।"

अनुराधा वहीं पास में ही खड़ी थी इस लिए सरोज मुझे बेटा कह रही थी। सरोज की बात पर मैंने सिर हिला दिया था। ख़ैर उसके बाद सरोज के ही कहने पर मैंने खाना खाया और फिर लालटेन ले कर मैं वापस अपने खेत की तरफ चल पड़ा। सरोज ने मुझे इशारे से रुकने के लिए भी कहा था मगर मैंने मना कर दिया था।

मुरारी के घर से मैं लालटेन लिए अपने खेत की तरफ जा रहा था। मेरे ज़हन में मुरारी की वो बातें ही चल रही थीं और मैं उन बातों को बड़ी गहराई से सोचता भी जा रहा था। आस पास कोई नहीं था। मुरारी का घर तो वैसे भी उसके गांव से हट कर बना हुआ था और मेरा अपना गांव यहाँ से पांच किलो मीटर दूर था। दोनों गांवों के बीच या तो खेत थे या फिर खाली मैदान जिसमे यदा कदा पेड़ पौधे और बड़ी बड़ी झाड़ियां थी। पिछले चार महीने से मैं इस रास्ते से रोज़ाना ही आता जाता था इस लिए अब मुझे रात के अँधेरे में किसी का डर नहीं लगता था। ये रास्ता हमेशा की तरह सुनसान ही रहता था। वैसे दोनों गांवों में आने जाने का रास्ता अलग था जो यहाँ से दाहिनी तरफ था और यहाँ से दूर था।

मैं हाथ में लालटेन लिए सोच में डूबा चला ही जा रहा था कि तभी मैं किसी चीज़ की आवाज़ से एकदम चौंक गया और अपनी जगह पर ठिठक गया। रात के सन्नाटे में मैंने कोई आवाज़ सुनी तो ज़रूर थी किन्तु सोच में डूबा होने की वजह से समझ नहीं पाया था कि आवाज़ किसकी थी और किस तरफ से आई थी? मैंने खड़े खड़े ही लालटेन वाले हाथ को थोड़ा ऊपर उठाया और सामने दूर दूर तक देखने की कोशिश की मगर कुछ दिखाई नहीं दिया। मैंने पलट कर पीछे देखने का सोचा और फिर जैसे ही पलटा तो मानो गज़ब हो गया। किसी ने बड़ा ज़ोर का धक्का दिया मुझे और मैं भरभरा कर कच्ची ज़मीन पर जा गिरा। मेरे हाथ से लालटेन छूट कर थोड़ी दूर लुढ़कती चली गई। शुक्र था कि लालटेन जिस जगह गिरी थी वहां पर घांस उगी हुई थी वरना उसका शीशा टूट जाता और ये भी संभव था कि उसके अंदर मौजूद मिट्टी का तेल बाहर आ जाता जिससे आग उग्र हो जाती।

कच्ची ज़मीन पर मैं पिछवाड़े के बल गिरा था और ठोकर ज़ोर से लगी थी जिससे मेरा पिछवाड़ा पके हुए फोड़े की तरह दर्द किया था। हालांकि मैं जल्दी से ही उठा था और आस पास देखा भी था कि मुझे इतनी ज़ोर से धक्का देने वाला कौन था मगर अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं दिया। मैंने जल्दी से लालटेन को उठाया और पहले आस पास का मुआयना किया उसके बाद मैं ज़मीन पर लालटेन की रौशनी से देखने लगा। मेरा अनुमान था कि जिस किसी ने भी मुझे इस तरह से धक्का दिया था उसके पैरों के निशान ज़मीन पर ज़रूर होने चाहिये थे।

मैं बड़े ग़ौर से लालटेन की रौशनी में ज़मीन के हर हिस्से पर देखता जा रहा था किन्तु ज़मीन पर निशान तो मुझे तब मिलते जब ज़मीन पर हरी हरी घांस न उगी हुई होती। मैं जिस तरफ से आया था उस रास्ते में बस एक छोटी सी पगडण्डी ही बनी हुई थी जबकि बाकी हर जगह घांस उगी हुई थी। काफी देर तक मैं लालटेन की रौशनी में कोई निशान तलाशने की कोशिश करता रहा मगर मुझे कोई निशान न मिला। थक हार कर मैं अपने झोपड़े की तरफ चल दिया। मेरे ज़हन में ढेर सारे सवाल आ कर तांडव करने लगे थे। रात के अँधेरे में वो कौन था जिसने मुझे इतनी ज़ोर से धक्का दिया था? सवाल तो ये भी था कि उसने मुझे धक्का क्यों मारा था? वैसे अगर वो मुझे कोई नुक्सान पहुंचाना चाहता तो वो बड़ी आसानी से पहुंचा सकता था।

सोचते सोचते मैं झोपड़े में आ गया। झोपड़े के अंदर आ कर मैंने लालटेन को एक जगह रख दिया और फिर झोपड़े के खुले हुए हिस्से को लकड़ी से बनाये दरवाज़े से बंद कर के अंदर से तार में कस दिया ताकि कोई जंगली जानवर अंदर न आ सके। इन चार महीनों में आज तक मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ था और ना ही यहाँ रहते हुए किसी जंगली जानवर से मुझे कोई ख़तरा हुआ था। हालांकि शुरू शुरू में मैं यहाँ अँधेरे में अकेले रहने से डरता था जो कि स्वभाविक बात ही थी मगर अभी जो कुछ हुआ था वो थोड़ा अजीब था और पहली बार ही हुआ था।

झोपड़े के अंदर मैं सूखी घांस के ऊपर एक चादर डाल कर लेटा हुआ था और यही सोच रहा था कि आख़िर वो कौन रहा होगा जिसने मुझे इस तरह से धक्का दिया था? सबसे बड़ा सवाल ये कि धक्का देने के बाद वो गायब कहां हो गया था? क्या वो मुझे किसी प्रकार का नुकसान पहुंचाने आया था या फिर उसका मकसद कुछ और ही था? मैं उस अनजान ब्यक्ति के बारे में जितना सोचता उतना ही उलझता जा रहा था और उसी के बारे में सोचते सोचते आख़िर मेरी आँख लग गई। मैं नहीं जानता था कि आने वाली सुबह मेरे लिए कैसी सौगा़त ले कर आने वाली थी।

सुबह मेरी आँख कुछ लोगों के द्वारा शोर शराबा करने की वजह से खुली। पहले तो मुझे कुछ समझ न आया मगर जब कुछ लोगों की बातें मेरे कानों में पहुंची तो मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन ही हिल गई। चार महीनों में ऐसा पहली बार हुआ था कि मेरे आस पास इतने सारे लोगों का शोर मुझे सुनाई दे रहा था। मैं फ़ौरन ही उठा और लकड़ी के बने उस दरवाज़े को खोल कर झोपड़े से बाहर आ गया।

बाहर आ कर देखा तो क़रीब बीस आदमी हाथों में लट्ठ लिए खड़े थे और ज़ोर ज़ोर से बोल रहे थे। उन आदमियों में से कुछ आदमी मेरे गांव के भी थे और कुछ मुरारी के गांव के। मैं जैसे ही बाहर आया तो उन सबकी नज़र मुझ पर पड़ी और वो तेज़ी से मेरी तरफ बढ़े। कुछ लोगों की आंखों में भयानक गुस्सा मैंने साफ़ देखा।

 

[color=rgb(51,]☆ प्यार का सबूत ☆[/color]
[color=rgb(0,]अध्याय - 05[/color]
[color=rgb(255,]----------☆☆☆---------[/color]



[color=rgb(147,]अब तक,,,,,[/color]

[color=rgb(41,]सुबह मेरी आँख कुछ लोगों के द्वारा शोर शराबा करने की वजह से खुली। पहले तो मुझे कुछ समझ न आया मगर जब कुछ लोगों की बातें मेरे कानों में पहुंची तो मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन ही हिल गई। चार महीनों में ऐसा पहली बार हुआ था कि मेरे आस पास इतने सारे लोगों का शोर मुझे सुनाई दे रहा था। मैं फ़ौरन ही उठा और लकड़ी के बने उस दरवाज़े को खोल कर झोपड़े से बाहर आ गया।

बाहर आ कर देखा तो क़रीब बीस आदमी हाथों में लट्ठ लिए खड़े थे और ज़ोर ज़ोर से बोल रहे थे। उन आदमियों में से कुछ आदमी मेरे गांव के भी थे और कुछ मुरारी के गांव के। मैं जैसे ही बाहर आया तो उन सबकी नज़र मुझ पर पड़ी और वो तेज़ी से मेरी तरफ बढ़े। कुछ लोगों की आंखों में भयानक गुस्सा मैंने साफ़ देखा।[/color]

[color=rgb(147,]अब आगे,,,,,[/color]

"ये सब क्या है?" मैंने अपनी तरफ बढ़े चले आ रहे आदमियों को देखते हुए ऊंची आवाज़ में किन्तु अंजान बनते हुए कहा____"आज तुम लोग यहाँ पर क्यों जमा हो रखे हो?"
"देखो तो।" मेरी तरफ बढ़ रहे आदमियों में से एक ने दूसरे से कहा____"देखो तो कैसे भोला बन रहा है ये। इतना बड़ा काण्ड करने के बाद भी कहता है कि हम लोग यहाँ क्यों जमा हो रखे हैं?"

"अब इसे हम बताएंगे कि इसने जो किया है उसका अंजाम क्या होता है।" दूसरे आदमी ने अपने लट्ठ को हवा में उठाते हुए कहा____"बड़े ठाकुर का बेटा है तो क्या ये किसी की जान ले लेगा?"

"मारो इसे।" तीसरा आदमी ज़ोर से चीखा____"और इतना मारो कि इसके जिस्म से इसके प्राण निकल जाएं।"
"देखो तुम लोग अपनी हद पार कर रहे हो।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"तुम लोग जो समझ कर यहाँ मेरी जान लेने आये हो वैसा कुछ नहीं किया है मैंने।"

"तुम्हीं ने मेरे भाई मुरारी की बेरहमी से हत्या की है।" एक आदमी मेरे एकदम पास आते हुए ज़ोर से चीखा_____"तुम्हारे अलावा कल रात कोई नहीं गया था वहां। तुमने ही मेरे भाई की हत्या की है और अब हम तुम्हें भी ज़िंदा नहीं छोडेंगे।"

"मैं भला मुरारी काका की हत्या क्यों करुगा?" मैं अंदर से तो बेहद हैरान था कि मुरारी काका की हत्या हो गई है किन्तु अब इस बात से भी हैरान था कि उसकी हत्या का आरोप ये लोग मुझ पर लगा रहे थे इस लिए बोला____"आख़िर मेरी उनसे दुश्मनी ही क्या थी? तुम सब जानते हो कि चार महीने पहले मेरे बाप ने मुझे घर और गांव से निष्कासित कर दिया था। उसके बाद से मैं यहाँ सबसे अलग हो कर अकेले रह रहा हूं। ऐसे बुरे वक़्त में जब किसी ने भी मेरी कोई मदद नहीं की थी तब मुरारी काका ने ही मेरी मदद की थी। वो न होते तो मैं कब का भूखों मर जाता। जो इंसान मेरे लिए फ़रिश्ते जैसा है उसकी हत्या मैं क्यों करुंगा?"

"क्योंकि तुम उसकी बेटी को अपनी हवश का शिकार बनाना चाहते थे।" उस आदमी ने चीखते हुए कहा जो मुरारी का भाई जगन था____"मैं जानता हूं कि बड़े ठाकुर का ये सपूत गांव की किसी भी लड़की या औरत को अपना शिकार बनाने से नहीं चूकता। बड़े ठाकुर ने तुम्हे गांव से निकाल दिया था इस लिए तुम अपनी हवश के लिए किसी लड़की या औरत का शिकार बनाने के लिए तड़पने लगे और जब मेरा भाई ऐसे वक़्त में तुम्हारी मदद करने आया तो तुमने उसी की बेटी को अपना शिकार बनाने का सोच लिया। मैं अपनी भतीजी को अच्छी तरह जानता हूं। वो ऐसी वैसी लड़की नहीं है और ये बात तुम भी समझ गए थे इसी लिए जब तुम्हारी दाल किसी भी तरह से नहीं गली तो तुमने मेरे भाई की ये सोच कर हत्या कर दी कि अब कोई तुम्हारे रास्ते में नहीं आएगा मगर तुम भूल गए कि तुम्हारे रास्ते की दीवार बन कर मुरारी का भाई भी खड़ा हो सकता है।"

"तुम पता नहीं ये क्या बकवास पेले जा रहे हो जगन काका।" मैंने इस बार गुस्से में कहा____"मैं ये मानता हूं कि चार महीने पहले तक मैं ऐसा इंसान था जो अपनी हवश के लिए किसी लड़की या औरत को अपना शिकार बनाता था मगर जब से यहाँ आया हूं तब से मैं वैसा नहीं रहा। भगवान जानता है कि मैंने मुरारी की बेटी को कभी ग़लत नज़र से नहीं देखा। मैं इतना भी गिरा हुआ नहीं हूं कि जो मुझे अपने घर में दो वक़्त की रोटी दें उन्हीं के घर को बर्बाद कर दूं।"

मुरारी के छोटे भाई का नाम जगन सिंह था और वो भी अपने भाई मुरारी की तरह ही खेती बाड़ी करता था। मुरारी की हत्या के बाद वो अपने गांव के कुछ आदमियों को ले कर सुबह सुबह ही मेरे झोपड़े पर आ गया था। मुरारी की हत्या की ख़बर जंगल के आग की तरह फैलती हुई मेरे गांव तक भी पहुंच गई थी। पिता जी को जब इस ख़बर के बारे में पता चला होगा तो उन्होंने अपने कुछ आदमियों को यहाँ भेज दिया होगा। हालांकि ऐसा मेरा सिर्फ अनुमान ही था।

इधर मैं जगन को समझा रहा था कि मैंने मुरारी की हत्या नहीं की है मगर वो मानने को तैयार ही नहीं था किन्तु बाकी लोग मेरी बातें सुन कर सोच में ज़रूर पड़ गए थे और यही वजह थी कि उन लोगों का गुस्सा ठंडा हो गया था। जाते जाते जगन मुझे धमकी दे कर गया था कि अब अगर मैंने मुरारी के घर में क़दम भी रखा तो वो मुझे जान से मार देगा।

जगन के साथ उसके आदमी चले गए थे और उनके जाने के बाद मेरे गांव के लोग भी बिना मुझसे कुछ बोले चले गए। मैं ये सोच कर बेहद परेशान हो गया था कि जब मैंने मुरारी की हत्या की ही नहीं है तो उसकी हत्या का आरोप मेरे सिर पर क्यों लगा रहा था जगन?

जगन से मेरी एक दो बार मुलाकात हुई थी और वो मुझे अपने बड़े भाई मुरारी की तरह ही भला आदमी लगता था। हालांकि वो गांव में अपने बीवी बच्चों के साथ रहता था किन्तु मुरारी के यहाँ उसका आना जाना था और आना जाना हो भी क्यों न? दोनों भाईयों के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी बल्कि काफी अच्छा ताल मेल था दोनों के बीच।

मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रात में सोने के बाद जब सुबह मेरी आँख खुलेगी तो मुझे इतना बड़ा झटका लगेगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मुरारी की हत्या किसने की होगी और क्यों की होगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि मुरारी मेरी मदद करता था तो मेरे बाप ने उसे मरवा दिया हो। तभी मुझे याद आया कि कल रात जब मैं खा पी कर मुरारी के घर से चला था तो रास्ते में किसी ने मुझे ज़ोर का धक्का मारा था। मैंने उस ब्यक्ति को खोजा भी था मगर ना तो वो खुद मिला था मुझे और ना ही उसका कोई निशान मिला था मुझे। इतना तो मैं भी समझ रहा था कि मुरारी की हत्या रात में ही किसी वक़्त की गई थी मगर सवाल था कि किसने की थी उसकी हत्या? क्या उसी ब्यक्ति ने जिसने रास्ते में मुझे धक्का दिया था? आख़िर कौन था वो रहस्यमयी ब्यक्ति? क्या वो मेरे बाप का कोई आदमी था?

मुरारी की हत्या के बारे में सुन कर मैं उसके घर जाना चाहता था मगर जगन ने मुझे धमकी दी थी कि अगर मैं उसके घर गया तो वो मुझे जान से मार देगा। मेरी आँखों के सामने सहसा मुरारी का चेहरा उभर आया। शुरू से ले कर अब तक का उसके साथ गुज़रा हुआ हर लम्हा याद आने लगा मुझे। एक वही था जिसने ऐसे वक़्त में मेरी इतनी मदद की थी और इतना ही नहीं अपने घर ले जा कर मुझे खाना भी खिलाता था। क्या ऐसे इंसान की मौत की वजह सिर्फ और सिर्फ मैं था? क्या उसकी हत्या किसी ने मेरी मदद करने की वजह से की थी? मुरारी के बारे में सोचते सोचते मेरी आँखें भर आईं। मैंने मन ही मन ईश्वर से पूछा कि ऐसा क्यों किया उस नेक इंसान के साथ?

झोपड़े के बाहर माटी के चबूतरे में बैठा मैं मुरारी के ही बारे में सोच रहा था। मुरारी की हत्या से मैं बुरी तरह हिल गया था और ये सोचने पर मजबूर भी हो गया था कि उसकी हत्या किस वजह से और किसने की होगी? आख़िर किसी की मुरारी से ऐसी क्या दुश्मनी हो सकती थी जिसके तहत उसकी इस तरह से हत्या कर दी गई थी?

मुझे एहसास हुआ कि मुरारी की इस अकस्मात हत्या से मैं बुरी तरह घिर गया हूं। मुरारी का भाई जगन और उसके गांव वाले सब मुझे ही मुरारी का हत्यारा कह रहे थे जबकि ये तो मैं ही जानता था कि मैं मुरारी की हत्या करने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। मुझे एहसास हुआ कि एकाएक ही मैं कई सारी मुश्किलों में पड़ गया था।

मेरे ज़हन में ये भी ख़याल उभर रहे थे कि मुमकिन है कि मुरारी की हत्या मेरे बाप ने करवाई हो। मुरारी का मेरी इस तरह से मदद करना उसे शुरू से ही पसंद न रहा हो और जब उसके सब्र का बांध टूट गया तो उसने अपने आदमियों के द्वारा इस तरह से उसकी हत्या करवा दी हो कि उसकी हत्या का सारा इल्ज़ाम मेरे ही सिर पर आ जाए। इन ख़यालों से मैं फिर ये भी सोचता कि क्या मेरा बाप सच में ऐसा कर सकता है? क्या वो इस तरह से मुझे ऐसी मुश्किल में डालने का सोच सकता है? मैं ये तो मानता था कि मेरा बाप अपनी बदनामी को नहीं सह सकता किन्तु मेरा दिल इस बात को मानने से कतरा रहा था कि कोई बाप अपने बेटे को इतने संगीन अपराध में फंसा देगा। अब सोचने वाली बात थी कि अगर मेरे बाप ने मुरारी की हत्या नहीं करवाई थी तो किसने की उसकी हत्या और क्यों की?

मुरारी की इस प्रकार हुई हत्या से क्या उसकी बीवी और उसके बच्चे भी यही समझ रहे होंगे कि मैंने ही मुरारी की हत्या की है? मेरा दिल कह रहा था कि वो मेरे बारे में ऐसा नहीं सोच सकते थे क्योकि इतना तो वो भी सोचेंगे कि मैं भला मुरारी की हत्या क्यों करुंगा? दूसरी बात अगर वो ऐसा सोचते तो यकीनन वो मेरे पास आते और मेरा गिरेहबान पकड़ कर मुझसे पूछते कि मैंने ऐसा क्यों किया है? मतलब साफ़ था कि वो मेरे बारे में ऐसा नहीं सोच रहे थे या फिर ऐसा हो सकता था कि मुरारी के भाई जगन ने उन्हें मेरे पास आने ही न दिया हो। मुझे मेरा ये विचार ज़्यादा सही लगा और अब मुझे लग रहा था कि मुझे मुरारी के घर जा कर सरोज से मिलना चाहिए। आख़िर इतना तो मुझे भी पता होना चाहिए कि सरोज और उसकी बेटी अनुराधा मेरे बारे में क्या सोचती हैं?

जगन की धमकी के बावजूद मैंने फैसला कर लिया कि मैं मुरारी के घर जाउंगा। मैं सरोज से चीख चीख कर कहूंगा कि मैंने उसके पति की हत्या नहीं की है बल्कि कोई और ही है जिसने उसके पति की हत्या कर के उसका सारा इल्ज़ाम मुझ पर थोप दिया है।

अपने अंजाम की परवाह किये बिना मैं अपने झोपड़े से मुरारी के घर की तरफ चल दिया। मैं जानता था कि इस वक़्त उसके घर में उसके गांव वाले भी मौजूद होंगे और खुद जगन भी होगा जो मुझे वहां पर देखते ही मुझे जान से मारने की कोशिश करेगा। मुझे अपने अंजाम की अब कोई परवाह नहीं थी बल्कि मैं तो अब ये फैसला कर चूका था कि खुद पर लगे इस हत्या के इल्ज़ाम को अपने सर से हटाऊंगा और ये भी पता करुंगा कि मुरारी की हत्या कर के किसने मुझे फंसाया है?

झोपड़े से निकल कर मैं अभी कुछ दूर ही बढ़ा था कि मुझे अपने दाहिने तरफ से एक बग्घी आती हुई दिखी। मैं दूर से ही उस बग्घी में बैठे अपने बाप को पहचान गया था। अपने बाप को बग्घी में बैठ कर अपनी तरफ आते देख मेरे अंदर की नफ़रत उबाल मारने लगी और मेरी मुट्ठिया कस ग‌ईं। चार महीने बाद ये दूसरा अवसर था जब मेरे घर का कोई सदस्य मेरी तरफ आ रहा था। पहले भाभी आईं थी और अब खुद मेरा बाप आ रहा था। अपने बाप को देख कर मेरे मन में एक ही सवाल उभरा कि जिसने खुद मुझे घर गांव से निष्कासित किया था और जिसने पूरे गांव वालों को भी ये हुकुम दिया था कि कोई मुझसे किसी भी तरह का राब्ता न रखे वरना उसे भी मेरी तरह घर गांव से निकाल दिया जायेगा तो ऐसा फैसला सुनाने वाला खुद क्यों अपने कानून को तोड़ कर मेरे पास आ रहा था?

मेरे बाप की बग्घी अभी थोड़ी दूर ही थी और मैं कुछ पलों के लिए अपनी जगह पर रुक गया था किन्तु फिर मैं उस तरफ से अपनी नज़र हटा कर फिर से आगे बढ़ चला। अभी मैं कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि मेरे कानो में मुंशी चंद्रकांत की आवाज़ पड़ी। वो मुझे रुकने को कह रहा था मगर मैंने उसकी आवाज़ को अनसुना कर दिया। जब मैं न रुका तो वो तेज़ तेज़ आवाज़ें लगाते हुए मुझे रुकने को बोलने लगा। मेरे धमनियों में मेरे बाप का ही खून दौड़ रहा था जो मुंशी जैसे ऐरे गैरे की आवाज़ को नज़रअंदाज़ कर के आगे बढ़ा ही जा रहा था। असल में मैं चाहता था कि मेरा बाप खुद मुझे आवाज़ लगा कर रुकने को कहे। पता नहीं क्यों पर मैं चाहता था कि मेरा बाप खुद झुके और मुझे रुकने को कहे।

कहते हैं ना कि इंसान अपनी औलाद के आगे हार जाता है और मुझ जैसी औलाद हो तो हारने में ज़रा भी विलम्ब नहीं होता। अब ये मेरी बेशर्मी थी या खूबी इससे मुझे कोई मतलब नहीं था। जब मैं मुंशी की आवाज़ों पर नहीं रुका तो आख़िर मजबूरन मेरे बाप को खुद आवाज़ लगानी पड़ी और मैं यही तो चाहता था। अपने बाप की आवाज़ सुन कर मैं रुक गया और गर्दन घुमा कर उस तरफ देखा। बग्घी अब मेरे पास ही आ गई थी। आज चार महीने बाद मैं अपने बाप की सूरत देख रहा था। जिन आँखों में देखने की किसी में भी हिम्मत नहीं होती थी उन आँखों से मैं बराबर अपनी आँखें मिलाये खड़ा था।

"छोटे ठाकुर।" बग्घी में मेरे आप के नीचे बैठे मुंशी ने अपनी बत्तीसी दिखाते हुए कहा____"मैं कितनी देर से आपको आवाज़ें लगा रहा था और आप थे कि सुन ही नहीं रहे थे।"

"मैं तलवे चाटने वाले कुत्तों की नहीं सुनता।" मैंने शख़्त भाव से जब ये कहा तो मुंशी एकदम से हड़बड़ा गया।
"इतना कुछ होने के बाद भी तुम्हारी अकड़ नहीं गई?" ठाकुर प्रताप सिंह ने थोड़ा शख़्त भाव से कहा____"ख़ैर, कहा जा रहे थे?"

"आपसे मतलब?" मैंने अकड़ दिखाते हुए दो टूक भाव से कहा____"मेरी मर्ज़ी है। मैं जहां चाहूं अपनी मर्ज़ी से जा सकता हूं मगर चिंता मत करिये इस जन्म में मैं उस गांव में हरगिज़ नहीं जाऊंगा जिस गांव से चार महीने पहले मुझे निकाल दिया गया था।"

"ईश्वर जानता है कि हमने तुम्हें हर वो चीज़ दी थी जिसकी तुमने ख़्वाइश की थी।" ठाकुर प्रताप सिंह ने शांत लहजे में कहा____"हम आज तक समझ नहीं पाए कि हमने ऐसा क्या कर दिया था जिसके लिए तुमने हमारी इज्ज़त को उछालने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी? तुमने कभी ठंडे दिमाग़ से सोचा ही नहीं कि तुम जो करते थे वो कितना ग़लत था?"

"क्या यही सुनाने आये हैं यहाँ?" मैंने लापरवाही से कहा___"और अगर यही सुनाने आये हैं तो जान लीजिये कि मुझे आपका ये भाषण सुनने की ज़रा सी भी ख़्वाइश नहीं है।"

"क्या तुमने कभी ये सोचा है?" ठाकुर प्रताप सिंह ने पहले की भाँति ही शांत लहजे में कहा____"कि तुम्हारे इस रवैये से तुम्हारे माता पिता के दिल पर क्या गुज़रती है? हमने हमेशा तुम में अपनी छवि देखी थी और हमेशा यही सोचा था कि हमारे बाद हमारी बागडोर तुम ही सम्हाल सकोगे। तुम्हारे बड़े भाई में हमने कभी ऐसी खूबी नहीं देखी। हालांकि उससे हमें कभी कोई शिकायत नहीं रही है। उसने कभी भी तुम्हारी तरह हमें शर्मिंदा नहीं किया और ना ही गांव समाज में हमारी इज्ज़त पर दाग़ लगाया है मगर इसके बावजूद उसमे वो बात नहीं दिखी हमें जिससे की हम ये सोच सकें कि हमारे बाद वो हमारी बागडोर सम्हाल सकता है। तुमसे हमने बहुत सारी उम्मीदें लगा रही थी मगर तुमने हमेशा हमारी उम्मीदों पर पानी ही फेरा है।"

"इन बड़ी बड़ी बातों से आप इस बात पर पर्दा नहीं डाल सकते कि आपने क्या किया है।" मैंने कठोर भाव से कहा____"आपने अपनी ही औलाद को यहाँ मरने के लिए छोड़ दिया और ये ख़्वाहिश रखी कि आपके ऐसा करने से मैं खुश हो जाऊंगा मगर आपको ज़रा भी अंदाज़ा नहीं है कि आपके ऐसा करने से मेरे अंदर आपके प्रति कितनी नफ़रत भर चुकी है। ठाकुर प्रताप सिंह आप सिर पटक मर जाइये मगर मेरे दिल में आपके लिए अब कोई जगह नहीं हो सकती। आज चार महीने हो गए और मुझे जन्म देने वालों ने एक पल के लिए भी यहाँ आ कर ये देखने की कोशिश नहीं की कि मैं यहाँ ज़िंदा बचा हूं या भूखों मर गया हूं? जाइये ठाकुर साहब जाइये... मैं अब आपका बेटा नहीं रहा। मैं आप सबके लिए मर चुका हूं।"

पता नहीं क्या हो गया था इस वक़्त मुझे? मैं ऐसे अल्फ़ाज़ में और ऐसे लहजे में अपने बाप से बातें कर रहा था जिसके बारे में शायद कोई बाप सोच भी नहीं सकता था। मेरी बातें सुन कर मेरा बाप मुझे इस तरह देखता रह गया था जैसे मैं कोई अजूबा था। उनके नीचे बैठे मुंशी की तो आश्चर्य से आँखें ही फटी पड़ी थी।

"छोटे ठाकुर।" फिर मुंशी ने हकलाते हुए पड़ा____"ये आपने अच्छा नहीं किया। आपको अपने ही पिता जी से इस तरह बातें नहीं करनी चाहिए थी।"
"मैंने कहा था न मुंशी।" मैंने मुंशी चंद्रकांत की तरफ क़हर भरी नज़रों से देखते हुए कहा____"कि मैं तलवे चाटने वाले कुत्तों की नहीं सुनता। इस लिए अपनी जुबान बंद रख तू और ले जा यहाँ से अपने ठाकुर साहब को।"

"आज तुमने हमारा बहुत दिल दुखाया है लड़के।" ठाकुर प्रताप सिंह ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"हम ये मानते हैं कि हमने तुम्हें ऐसी सज़ा दे कर अच्छा नहीं किया था किन्तु उस समय तुमने काम ही ऐसा किया था कि हम अपना आप खो बैठे थे और फिर गुस्से में हमने वैसा फैसला सुना दिया था। बाद में हमें भी एहसास हुआ था कि हमने वैसा फैसला सुना कर बिल्कुल भी ठीक नहीं किया था किन्तु फैसला सुनाने के बाद फिर कुछ नहीं हो सकता था। अगर हम ऐसा करने के बाद फिर से पंचायत बुला कर अपना फैसला बदलते तो लोग क्या कहते हमें? यही कहते न कि ठाकुर ने अपने बेटे के लिए अपना फैसला बदल दिया? लोग कहते कि अगर यही फैसला हमने किसी और के लिए सुनाया होता तो क्या हम अपना फैसला बदल देते? हम तुम्हारे अपराधी हैं और हमें पूरी तरह से एहसास है कि हमने तुम्हें घर गांव से निष्कासित करके ग़लत किया था लेकिन यकीन मानो तुम्हें अपने से दूर कर के हम भी कभी खुश नहीं रहे। तुम्हारे सामने भी सिर्फ इसी लिए नहीं आये कि गांव के लोग तरह तरह की बातें करने लगेंगे? वो यही कहेंगे कि हमने खुद ही अपने फैसले का पालन नहीं किया और पुत्र मोह में तुम्हारे पास पहुंच गए? गलतियां हर इंसान से होती है बेटे। इस धरती पर कोई भगवान नहीं है जिससे कभी कोई ग़लती हो ही नहीं सकती। ख़ैर छोड़ो ये सब बातें, और हां तुम्हें पूरा हक़ है हमसे नफ़रत करने का। हम तो यहाँ सिर्फ इस लिए आये हैं क्योंकि हम नहीं चाहते कि तुम किसी और मुसीबत में पड़ जाओ। हमें भी मुरारी की हत्या के बारे में पता चल गया है और हमें यकीन है कि तुमने उसकी हत्या नहीं की है।"

"चार महीनों से मैं जिन मुसीबतों को झेल रहा हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"उससे इतना तो सक्षम हो ही गया हूं कि अब हर तरह की मुसीबतों का सामना खुद ही कर सकूं। इस लिए मेरे लिए फ़िक्र करने की आपको कोई ज़रूरत नहीं है।"

"एक बात और भी है जो हम तुम्हें खुद बताने आये हैं।" ठाकुर प्रताप सिंह ने मेरी बातों को जैसे नज़र‌अंदाज़ करते हुए कहा____"और वो ये कि सभी गांव वालों का कहना है कि हम तुम्हें अपने इस फैसले से आज़ाद करके वापस बुला लें। इस लिए कल सभी गांव वालों के सामने पंचायत बैठेगी और उस पंचायत में सबकी रज़ामंदी से ये फैसला होगा कि तुम पर से सारी पाबंदियां हटा कर तुम्हें वापस बुला लिया जाए।"

"अगर आप ये सोचते हैं कि आपकी इस बात से मैं खुश हो जाऊंगा।" मैंने सपाट लहजे में कहा_____"तो ग़लत सोचते हैं आप। मैं पहले ही बता चूका हूं कि अब इस जन्म में मैं उस गांव में हरगिज़ नहीं जाऊंगा जिस गांव से आपने मेरा हुक्का पानी बंद कर के निकाल दिया था। अब यही मेरा घर है और यही मेरी कर्म भूमि है। जब तक साँसें चलेंगी यहीं रहूंगा और फिर इसी धरती की गोद में हमेशा के लिए सो जाऊंगा।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" कहने के साथ ही ठाकुर प्रताप सिंह ने मुंशी से कहा_____"चलिए मुंशी जी अब हम यहाँ एक पल के लिए भी नहीं रुकना चाहते।"
"पर ठाकुर साहब??" मुंशी ने कुछ कहना ही चाहा था कि मेरे बाप ने हाथ उठा कर उसे चुप करा दिया।

उसके बाद मेरे बाप की बग्घी वापस मुड़ी और जिधर से आई थी उधर ही चली गई। अपने बाप की हसरतों को अपने पैरों तले कुचल कर मुझे एक अजीब सी शान्ति मिली थी। मैं खुद भी जानता था कि मेरे बाप से मेरी आज की ये मुलाक़ात उस तरीके से तो बिलकुल भी ठीक नहीं थी जिस तरीके से मैं उनसे पेश आया था किन्तु ग़लत ही सही मगर इससे मुझे आत्मिक सुकून ज़रूर मिला था।

ठाकुर प्रताप सिंह के जाते ही मैं भी मुरारी के घर की तरफ बढ़ चला। सारे रास्ते मैं अपने बाप से हुई बातों के बारे में सोचता रहा और मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब मुरारी के घर के सामने पहुंच गया। मेरा ध्यान तो तब टूटा जब अचानक से ही किसी ने आ कर मेरा गिरेहबान पकड़ कर ज़ोर से चिल्लाया। मैंने हड़बड़ा कर सामने देखा तो पाया कि मेरा गिरेहबान पकड़ कर चिल्लाने वाला कोई और नहीं बल्कि मुरारी का भाई जगन था।

"तेरी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की?" जगन मेरा गिरेहबान पकड़े गुस्से में चीखा____"मैंने तुझसे कहा था न कि अगर तूने मेरे भाई के घर में क़दम भी रखा तो तुझे जान से मार दूंगा?"

जगन ने जिस तरह से मेरा गिरेहबान पकड़ कर गुस्से में मुझसे ये कहा था उससे मेरी झांठें तक सुलग गईं थी। एक तो मैंने कुछ किया नहीं था ऊपर से ये कुछ ज़्यादा ही उछल रहा था। मैंने एक झटके में अपना गिरेहबान उससे छुड़ाया और उसके दुबले पतले जिस्म को दोनों हाथों से ऊपर उठा कर पूरी ताकत से ज़मीन पर पटक दिया। कच्ची किन्तु ठोस ज़मीन पर गिरते ही जगन की चीख निकल गई और वो दर्द से कराहने लगा।

"अपनी औका़त में रह समझा?" फिर मैंने गुस्से में उसका गिरेहबान पकड़ कर उठाते हुए कहा___"वरना जो मैंने किया ही नहीं है वो अब तेरे साथ कर दूंगा और तू मेरी झाँठ का बाल तक नहीं उखाड़ पाएगा । जब मैंने कह दिया कि मैंने मुरारी काका को नहीं मारा तो मान लेना चाहिए था ना कि नहीं मारा मैंने उन्हें। साले तुझसे ज़्यादा मुझे मुरारी काका की इस तरह से हुई हत्या का दुःख है और तू होता कौन है मुझ पर इल्ज़ाम लगाने वाला?"

मेरे गुस्से को देख कर जगन ढीला पड़ गया था। वैसे भी वो दस आदमियों के बल पर ही उस वक़्त इतना ताव में उछल रहा था वरना उसकी कोई औका़त नहीं थी कि ठाकुर प्रताप सिंह के खानदान के किसी भी सदस्य से वो ऊंची आवाज़ में बात कर सके। जगन को जब मैंने वहां मौजूद लोगों के सामने ही इस तरह उठा कर ज़मीन पर दे मारा था तो किसी ने चूं तक नहीं किया था। वो सब जानते थे कि आज मैं भले ही ऐसे हालात में था किन्तु मैं आज भी वही था जो पहले हुआ करता था।

मैंने जब देखा कि वहां मौजूद हर आदमी एकदम से चुप हो गया है तो मैंने जगन को धक्का दे कर अपने से दूर किया और मुरारी काका के घर के अंदर दाखिल हो गया। अंदर आया तो देखा सरोज काकी और अनुराधा एक कोने में बुत बनी बैठी हुई थीं। दोनों की आँखें रोने से लाल सुर्ख पड़ गईं थी। अनुराधा का छोटा भाई भी सरोज के पास ही दुबका बैठा हुआ था।

मुरारी काका की लाश को ज़मीन में ही अर्थी पर लिटा कर सफ़ेद कपडे़ से ढंक दिया गया था। उस लाश के चलते पूरे घर में मरघट जैसा सन्नाटा छाया हुआ था। सरोज काकी और अनुराधा के आँसू रो रो कर सूख चुके थे। हालांकि किसी किसी वक़्त वो दोनों फिर से हिचकियां ले कर रोने लगतीं थी। मैं ख़ामोशी से आगे बढ़ा और मुरारी काका की लाश के पास बैठ गया।

मैंने लाश से सफेद कपड़ा हटा कर देखा तो एक पल के मेरी रूह तक काँप ग‌ई। मुरारी काका की गर्दन आधे से ज़्यादा कटी हुई थी और वहां से अभी भी खून रिस रिस कर नीचे अर्थी पर गिर रहा था। हत्यारे ने मुरारी काका की गर्दन पर किसी तेज़ धार वाले हथियार से एक ही वार किया था जिससे उनकी गर्दन आधे से ज़्यादा कट गई थी। गर्दन का ये हाल देख कर कोई भी कह सकता था कि मुरारी काका को उस वक़्त तड़पने का मौका भी ना मिला होगा और गले पर वार होते ही उनकी जीवन लीला समाप्त हो गई होगी।

मुरारी काका की इस निर्मम हत्या को देख कर मैं ये सोचने लगा था कि जिस किसी ने भी उनकी इस तरह से हत्या की थी वो बहुत ही बेरहम रहा होगा और ज़रा भी नहीं चाहता रहा होगा कि उसके वार से मुरारी काका बच जाएं। मैं सोचने लगा कि मुरारी काका जैसे साधारण इंसान का भला ऐसा कौन दुश्मन हो सकता है जिसने उनकी इतनी बेरहमी से हत्या कर दी थी?

मैने मुरारी काका के चेहरे पर वापस कपड़ा डाला और उठ कर खड़ा हो गया। कुछ देर सोचने के बाद मैं पलटा और सरोज काकी की तरफ देखा। वो मुझे देख कर और भी ज़्यादा सिसकियां ले ले कर रोने लगी थी। यही हाल अनुराधा और उसके भाई का भी था।

"ये सब कैसे हुआ काकी?" मैंने गंभीर भाव से सरोज काकी से कहा____"कल रात तो मैंने खुद ही मुरारी काका को चारपाई पर लेटाया था और फिर खा पी कर यहाँ से जब गया था तब तक तो वो बिलकुल ठीक ही थे। फिर ये सब कब और कैसे हुआ?"

"हमें तो खुद ही नहीं पता चला कि उनके साथ ये सब कब हुआ था बेटा?" सरोज काकी ने सिसकते हुए कहा____"रात में तुम्हारे जाने के बाद मैंने एक बार उन्हें खाना खाने के लिए उठाने की कोशिश की थी मगर वो नशे में थे और गहरी नींद में सो गए थे इस लिए मेरे उठाने पर भी नहीं उठे। उसके बाद हम सबने खाना खाया और फिर सोने चले गए थे कमरे में। सुबह आँख खुली तो देखा वो अपनी चारपाई पर नहीं थे। मैंने सोचा शायद सुबह सुबह दिशा मैदान के लिए निकल गए होंगे। कुछ देर में मैं और अनुराधा भी दिशा मैदान के लिए घर से निकले। घर के पीछे की तरफ आये तो देखा वो घर के पीछे महुआ के पेड़ के पास खून से लथपथ पड़े थे। हम दोनों की तो डर के मारे चीखें ही निकल गई थी। बस उसके बाद तो बस रोना ही रह गया बेटा। सब कुछ लुट गया हमारा।"

कहने के साथ ही काकी हिचकियां ले कर रोने लगी थी। उसके साथ अनुराधा भी रोने लगी थी। इधर मैं ये सोच रहा था कि रात के उस वक़्त नशे की हालत में मुरारी काका घर के पीछे कैसे आएंगे होंगे? क्या वो खुद चल कर आये थे या फिर नशे ही हालत में उन्हें कोई और उठा कर घर के पीछे ले गया था? लेकिन सवाल ये है कि अगर कोई और ले गया था तो काकी या अनुराधा को इसका पता कैसे नहीं चला? सबसे बड़ी बात ये कि क्या उस वक़्त घर का दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था? मुरारी काका की हालत ऐसी नहीं थी कि वो खुद चल कर घर के पीछे तक जा सकें।
 

[color=rgb(51,]☆ प्यार का सबूत ☆[/color]
[color=rgb(0,]अध्याय - 06[/color]
[color=rgb(255,]----------☆☆☆---------[/color]


[color=rgb(226,]अब तक,,,,,[/color]

[color=rgb(41,]कहने के साथ ही काकी हिचकियां ले कर रोने लगी थी। उसके साथ अनुराधा भी रोने लगी थी। इधर मैं ये सोच रहा था कि रात के उस वक़्त नशे की हालत में मुरारी काका घर के पीछे कैसे आएंगे होंगे? क्या वो खुद चल कर आये थे या फिर नशे ही हालत में उन्हें कोई और उठा कर घर के पीछे ले गया था? लेकिन सवाल ये है कि अगर कोई और ले गया था तो काकी या अनुराधा को इसका पता कैसे नहीं चला? सबसे बड़ी बात ये कि क्या उस वक़्त घर का दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था? मुरारी काका की हालत ऐसी नहीं थी कि वो खुद चल कर घर के पीछे तक जा सकें।[/color]

[color=rgb(226,]अब आगे,,,,,[/color]

मेरा सिर चकराने लगा था मगर कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मुझे याद आया कि कल रात जब मैं यहाँ से अपने झोपड़े के लिए निकला था तो रास्ते में मैं किसी आवाज़ को सुन कर रुक गया था और फिर कुछ देर में मुझे किसी ने ज़ोर का धक्का मारा था। मेरे मन में सवाल उभरा कि क्या उस अंजान ब्यक्ति का मुरारी काका की हत्या से सम्बन्ध हो सकता है? आख़िर कौन था वो और उस वक़्त वो वहां पर क्या करने गया था? इसके पहले तो कभी ऐसा कुछ नहीं घटित हुआ था फिर कल रात ही ऐसा क्यों हुआ था?

मुरारी काका की हत्या उसी अंजान ब्यक्ति ने की थी ऐसा मेरा अनुमान था बांकी कोई और मेरे ज़हन में नहीं आ रहा था किन्तु सबसे बड़ा सवाल यही था कि वो अंजान और रहस्यमय ब्यक्ति था कौन?

"क्या किसी ने पुलिस में इसकी रिपोर्ट की?" फिर मैंने दिमाग़ से सारी बातों को झटकते हुए काकी से पूछा____"अब तक तो पुलिस को यहाँ पर आ जाना चाहिए था और इस मामले को उसे अपने हाथ में ले लेना चाहिए था।"

"जगन कुछ लोगों को ले कर रपट लिखवाने तो गया था।" सरोज काकी ने कहा____"पर एक घंटा हो गया और अभी तक पुलिस का दरोगा नहीं आया । क्या हम इनकी अर्थी को यहाँ पर ऐसे ही रखे रहेंगे?"

"अगर जगन काका ने थाने में रिपोर्ट की होगी तो दरोगा ज़रूर आएगा काकी।" मैंने कहा____"थोडी देर इंतज़ार करो।"
"और कितना इंतज़ार करें बेटा?" सरोज काकी ने दुखी भाव से कहा____"इतनी देर तो हो गई मगर अभी तक कोई पुलिस वाला नहीं आया। मैं सब समझती हूं। हम गरीबों की कोई सुनने वाला नहीं है। जिसने मेरे मरद की हत्या की है उसने दरोगा को रूपिया खिला दिया होगा। तभी तो दरोगा अभी तक नहीं आया। मेरे मरद के हत्यारे का कोई पता नहीं लगाएगा और ना ही उसे कोई सज़ा देगा।"

"ऐसा नहीं होगा काकी।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"अगर पुलिस मुरारी काका के हत्यारे का पता नहीं लगाएगी तो मैं खुद उनके हत्यारे का पता लगाऊंगा।"

"नहीं बेटा।" सरोज काकी ने झट से कहा____"तुम इस झमेले में मत पड़ो। मैं नहीं चाहती कि इस लफड़े की वजह से तुम पर कोई मुसीबत आ जाए। वैसे भी मेरा मरद तो अब मुझे वापस मिलेगा नहीं। धीरे धीरे सब भुला देंगे कि मेरे मरद के साथ क्या हुआ था।"

"मैं किसी लफड़े से नहीं डरता काकी।" मैंने गर्मजोशी से कहा____"मैं मुरारी काका के हत्यारे का पता लगा के रहूंगा, क्योंकि उनकी हत्या के लिए मुझ पर भी इल्ज़ाम लगाया गया है। इस लिए मैं हर कीमत पर ये पता कर के रहूंगा कि मुरारी काका की इस तरह से हत्या किसने की है और उनकी हत्या में मुझे किसने फंसाया है?"

सरोज काकी और अनुराधा मेरी बातें सुन कर मेरी तरफ देखती रह गईं थी। उसके बाद सरोज काकी ने मुझसे इस बात के लिए माफ़ी मांगी कि मुरारी काका की हत्या की वजह से उसके देवर जगन ने मुझे उल्टा सीधा बोला था।

मैं सरोज काकी के घर में करीब एक घंटे तक रहा मगर कोई पुलिस वाला नहीं आया। ये देख कर मैं सोच में पड़ गया था कि कहीं सरोज काकी की बातें सच तो नहीं हैं? क्या सच में हत्यारे ने पुलिस को रूपिया खिला दिया होगा और मुरारी काका की हत्या के इस मामले को दबा दिया होगा? मेरे मन में सवाल उभरा कि ऐसा कौन कर सकता है? हत्या जैसा संगीन अपराध करने के बाद ऐसा कौन है जो पुलिस को इस हत्या की जांच करने से ही रोक दे? अगर सच में ऐसा ही था तो ऐसा काम कोई साधारण आदमी नहीं कर सकता था। ज़रूर कोई ऐसा ब्यक्ति होगा जिसका दबदबा पुलिस और कानून पर है। जहां तक मैं जानता था ऐसा इंसान आस पास के गांव में कोई नहीं था तो फिर कौन हो सकता है?

मैं ये सोच ही रहा था कि एकदम से मेरे दिमाग़ की बत्ती जल उठी और मेरे ज़हन में जो नाम उभर कर आया वो नाम खुद मेरे बाप का था___ठाकुर प्रताप सिंह। आस पास के गांवों में एक मेरा बाप ही ऐसा था जिसका दबदबा पुलिस पर ही नहीं बल्कि शहर के बड़े बड़े लोगों पर भी था। मेरे मन में सवाल उभरा कि क्या ऐसा करने वाला शख़्स मेरा बाप ही हो सकता है? वो बड़ी आसानी से मुरारी की हत्या के मामले को पुलिस के द्वारा दबा सकते थे। अब सवाल ये था कि उन्होंने मुरारी की हत्या क्यों करवाई होगी? अगर उन्हें मुरारी से कोई समस्या थी तो वो मुरारी काका को पहले अपने तरीके से समझा बुझा सकते थे जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ था। अगर हुआ होता तो मुरारी काका मुझसे इस बात का ज़िक्र ज़रूर करते।

मैं बुरी तरह उलझ कर रह गया था और किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा था। अभी मैं इन सब बातों को सोच ही रहा था कि तभी बाहर से जगन कुछ लोगों के साथ अंदर आया और मेरे सामने आ कर खड़ा हो गया।

"देख लिया छोटे ठाकुर?" जगन ने अजीब भाव से कहा____"सुबह मैं अपने भाई की रपट लिखाने के लिए थाने गया था और दरोगा को सब कुछ बताया भी था, किन्तु देख लो सुबह से दोपहर हो गई और दरोगा अभी तक नहीं आया। इसका मतलब तो तुम भी खूब समझते होगे छोटे ठाकुर।"

"कहना क्या चाहते हो तुम?" मैंने कठोर भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा।
"मैं कहना कुछ नहीं चाहता छोटे ठाकुर।" जगन ने अपना एक हाथ झटकते हुए कहा____"मगर समझ में सबके आ रहा है कि इसका मतलब क्या है। तुम मेरे भाई की तरह मेरी भी हत्या कर दो मगर मैं ये चीख चीख कर कहूंगा कि तुमने ही मेरे भाई की हत्या की है और तुम्हारे पिता ठाकुर प्रताप सिंह ने तुम्हें मेरे भाई की हत्या के जुर्म से बचाने के लिए थाने में दरोगा को रूपिया खिला दिया है। अगर ऐसा न होता तो दरोगा यहाँ बहुत पहले ही आ चुका होता।"

"तुम्हें जो सोचना है सोचते रहो।" मैंने जगन से कहा___"मैं और मेरा भगवान जानता है कि मैंने मुरारी काका की हत्या नहीं की है। इसके बावजूद अगर तुम और तुम्हारे गांव वाले इस हत्या का दोषी मुझे मानते हैं तो मैं वादा करता हूं तुमसे कि मुरारी काका के असल हत्यारे का पता मैं खुद लगाऊंगा।"

कहने के साथ ही मैं दरवाज़े की तरफ बढ़ा तो पीछे से जगन ने कहा___"मैं अब और अपने भाई की लाश को इस तरह यहाँ नहीं रख सकता। दरोगा को आना होता तो कब का आ जाता। इस लिए मैं अपने भाई का अब अंतिम संस्कार करने जा रहा हूं। बाद में अगर दरोगा आया और उसने कोई लफड़ा किया तो उसके जिम्मेदार भी तुम ही होगे।"

मैं जगन से बिना मतलब की बहस नहीं करना चाहता था इस लिए बिना कुछ बोले ही मैं मुरारी काका के घर से निकल कर अपने खेत की तरफ चला गया। रास्ते में मैं यही सोच रहा था कि अगर सच में थाने के दरोगा को हत्यारे ने रूपिया खिला कर इस मामले को दबा दिया होगा तो क्या मैं खुद इतनी आसानी से मुरारी के हत्यारे का पता लगा पाऊंगा? क्योंकि उस सूरत में संभव था कि मेरे लिए खुद कोई बड़ी मुसीबत हो जाए। हत्यारा किसी भी हाल में नहीं चाहेगा कि मैं उसका पता लगाऊं और उसे सबके सामने लाऊं। इसके लिए वो कुछ भी कर सकता था मेरे साथ। इसका मतलब ये हुआ कि अगर मैं मुरारी के हत्यारे का पता लगाता हूं तो मुझे खुद बहुत ही ज़्यादा सतर्क और सावधान रहना होगा।

मैं यही सब सोचते हुए अपने झोपड़े के करीब पंहुचा ही था कि मेरी नज़र आसमान की तरफ जाते हुए भीषण धुएं पर पड़ी। सामने कुछ पेड़ थे इस लिए ठीक से कुछ दिख नहीं रहा था मगर इतने भयंकर धुएं को देख कर मेरे मन में बुरे बुरे ख़याल आने लगे और फिर एकदम से मेरे मस्तिष्क में बिजली की तरह ख़याल आया कि ये धुआँ कहीं मेरी गेहू की फसल जलने का तो नहीं? ये ख़याल दिमाग़ में आते ही मैं तेज़ी से खेत की तरफ दौड़ पड़ा और जैसे ही मेरी नज़र मेरे खेत के उस भाग पर पड़ी जिस भाग पर मैंने गेहू की पुल्लियों का गड्ड जमा किया था मेरे होश उड़ गए।

चार महीने में अपनी जी जान लगा कर जिस फसल को मैंने उगाया था वो भयानक आग की लपटों में घिरी धू धू कर के जल रही थी और मैं सिर्फ देखने और तड़पने के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। अपनी इतनी मेहनत से उगाई गई फसल को मैं पत्थर की मूरत बना बस देखे जा रहा था। एक तरफ मेरी फसल जल रही थी और दूसरी तरफ मेरा दिल मेरा जिस्म जलने लगा था। इस भयानक मंज़र को देख कर जैसे मेरे अंदर से मेरे प्राण ही निकल गए थे। वो फसल मेरा प्राण ही तो थी जिसे मैंने पिछले चार महीनों में अपना खून पसीना बहा कर उगाया था और वही फसल मेरी आँखों के सामने जल कर ख़ाक होती जा रही थी। मेरा जी चाहा कि मैं दहाड़ें मार कर रोना शुरू कर दूं और जिसने भी ये किया था उसे भी इसी आग में डाल कर ख़ाक में मिला दूं।

सूखी हुई गेहू की फसल को जल कर ख़ाक होने में ज़रा भी वक़्त नहीं लगा। आसमान तक उठता हुआ आग और धुआँ धीरे धीरे शांत पड़ता चला गया मगर अब मेरे अंदर उससे भी ज़्यादा आग जलने लगी थी। मैं किसी भी कीमत पर उस इंसान को खोज लेना चाहता था जिसने मुझसे अपनी दुश्मनी मेरी फसल को जला कर निकाली थी किन्तु सबसे पहला सवाल तो यही था कि किसने किया था ये सब? आख़िर मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था जो किसी ने मेरे साथ ऐसा किया था? अगर किसी की मुझसे कोई दुश्मनी ही थी तो सामने आ कर मुझसे मुकाबला करता। यूं कायरों की तरह फसल जला कर कौन सी मर्दानगी दिखाई थी उसने?

किसी हारे हुए जुवांरी की तरह बेबस और लाचार सा मैं खेत के किनारे पर ही बैठ गया। अपनी मेहनत को इस तरह जल कर ख़ाक में मिलते देख मेरी आँखों से आँसू छलक पड़े। ऊपर बैठे भगवान से मैंने मन ही मन पूछा कि इस फसल ने किसी का क्या बिगाड़ा था प्रभू? अगर किसी का कुछ बिगड़ा था तो मुझसे बोलता। फिर ऐसा क्यों करवाया तुमने?

जाने कितनी ही देर तक मैं बेजान सा वहीं पर बैठा रहा। इन चार महीनों से मैं अपनी उस फसल के सहारे ही तो यहाँ रह रहा था मगर अब ना तो कोई सहारा बचा था और ना ही कोई मकसद। दिलो दिमाग़ तो जैसे कुंद सा पड़ गया था। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मुझे इस तरह से बर्बाद करने वाला कौन था और उसने ऐसा क्यों किया था?

अपनी आंखों में दहकते हुए अंगारे और अंदर गुस्से का जवालामुखी भड़काये मैं उठा और पलट कर झोपड़े की तरफ बढ़ चला। अभी कुछ क़दम ही आगे बढ़ा था कि मेरी नज़र दूर से आते हुई एक बग्घी पर पड़ी। बग्घी में बैठे हुए दो इंसानों को मैंने अच्छी तरह पहचान लिया। चार महीने बाद अब ये क्यों हो रहा था? मेरे घर परिवार का कोई सदस्य क्यों मेरी तरफ बढ़ा चला आ रहा था। सच कहूं तो अपने घर परिवार के लोगों से इतनी नफ़रत हो गई थी मुझे कि अब मैं उनमे से किसी की भी शक्ल नहीं देखना चाहता था। इस वक़्त मैं नहीं चाहता था कि मेरे घर का कोई सदस्य मेरे गुस्से का शिकार हो जाये पर कदाचित होनी को कौन टाल सकता था? थोड़ी ही देर में वो बग्घी मेरे झोपड़े के पास आ कर रुकी और बग्घी में बैठे मेरे घर के दोनों सदस्य बग्घी से उतर कर मेरे सामने आ ग‌ए। उन दोनों सदस्यों में एक मेरी माँ थी और दूसरा मेरा बड़ा भाई ठाकुर अभिनव सिंह।

"ये क्या हालत बना रखी है तुमने मेरे बेटे?" माँ ने तड़प कर मुझसे कहा____"चल घर चल। मैं तुझे लेने आई हूं।"
"माफ़ करना मैं ठाकुर खानदान के किसी भी सदस्य को नहीं जानता।" मैंने अपने गुस्से को किसी तरह काबू करते हुए शख़्त भाव से कहा____"और ना ही अब कभी जानना चाहता हूं। इस लिए बेहतर होगा कि आप लोग यहाँ से चले जाएं।"

"ये तू किस लहजे में बात कर रहा है वैभव?" मेरे भाई ने शख़्त भाव से कहा____"अपने से बड़ों का आदर करना आज भी नहीं आया तुझे।"
"और आगे भी मुझसे किसी आदर की उम्मीद मत रखना।" मैंने भाई की आँखों में आँखें डाल कर कहा____"अगर अपने इज्ज़त सम्मान की इतनी ही परवाह है तो यहाँ नहीं आना चाहिए आपको।"

"तुझे मैंने मना किया था ना कि तू इससे कोई बात नहीं करेगा?" माँ ने भाई को डांटते हुए कहा____"तू भी अपने बाप की तरह इज्ज़त और सम्मान का झूठा टोकरा लिए फिरता है। किसी दिन सोचा है कि अपने छोटे भाई को एक बार देख आंऊ कि वो किस हाल में है?" कहने के साथ ही माँ ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तू इसकी बातों पर ध्यान मत दे बेटा। तू मेरे साथ घर चल। तू नहीं जानता कि जब से तू यहाँ आया है तब से मेरी क्या हालत थी? ठाकुरों के गुरूर के आगे किसी का बस नहीं चलता। वो ये नहीं समझ सकते कि उनके द्वारा ऐसा करने से एक माँ पर क्या गुज़रती है? तू अब घर चल बेटा। मैं अब और तुझे यहाँ नहीं रहने दूंगी।"

"सुना है औलाद पर अपने माता पिता का कर्ज़ होता है।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"जिसे औलाद को चुकाना पड़ता है। बाप ने तो औलाद को कर्ज़ चुकाने का अवसर ही नहीं दिया बल्कि घर गांव से निष्कासित कर के खुद ही अपना कर्ज़ वसूल कर लिया है। अब रह गया माता का कर्ज़ तो तुम मेरी जान मांग लो माता श्री, मैं ख़ुशी से अपनी जान दे दूंगा मगर ये वैभव सिंह उस हवेली की दहलीज़ पर अब कभी अपने क़दम नहीं रखेगा....इस जनम में तो हरगिज़ भी नहीं।"

"ये तू क्या कह रहा है मेरे लाल?" माँ की आँखों से आँसू बह चले____"इतना कठोर कैसे हो सकता है मेरा खून? नहीं नहीं तू ऐसा नहीं कर सकता। तू अभी और इसी वक़्त मेरे साथ घर चलेगा।"

"मैंने तो ये सोच लिया था माता श्री।" मैंने सपाट लहजे से ही कहा____"कि अपने बाप की इज्ज़त और खोखले गुरूर को एक दिन मिट्टी में मिला दूँगा मगर अब ऐसा नहीं करुंगा। जानती हैं क्यों? क्योंकि ऐसा ना कर के अब मैं अपनी माता का क़र्ज़ भी चुकाऊंगा। अब हमारे बीच कुछ नहीं रह गया। इस लिए जाइये माता श्री। आपके खानदान का वंश चलाने के लिए आपका एक बेटा तो है ही।"

मैने ये कहा ही था कि माँ ने आगे बढ़ कर मेरे गाल पर खींच के एक थप्पड़ रसीद कर दिया, फिर रोते हुए बोलीं____"बेशरम, ऐसी बातें सोच भी कैसे सकता है तू?

माँ ने मुझे थप्पड़ मार दिया था और थप्पड़ मार कर खुद सिसकने लगीं थी। उनके थप्पड़ मार देने से मेरे अंदर जो आग जल रही थी वो और भी ज़्यादा भड़क उठी थी जिसे मैंने बड़ी ही मुश्किल से सम्हाला। मेरा बड़ा भाई मुझे इस तरह देख रहा था जैसे वो मुझे कच्चा चबा जाएगा। हालांकि मुझे उसके इस तरह देखने से घंटा कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था किन्तु माँ के थप्पड़ पर और उनकी बात पर मैं बोला कुछ नहीं। उधर कुछ देर सिसकने के बाद माँ ने मेरी तरफ करुण भाव से देखा।

"एक मैं ही नहीं बल्कि सारा गांव ये समझता है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हे इस तरह गांव से निष्कासित कर के ठीक नहीं किया था।" माँ ने कहा____"और ये बात खुद ठाकुर साहब भी कबूल करते हैं कि उन्होंने ऐसा कर के ग़लत किया था मगर अपने फैसले को तुरंत ही बदल देना उनके बस में नहीं था। उस दिन के बाद से उनके चेहरे का तेज़ जैसे बुझ ही गया है। वो अपने फैसले के लिए दुखी हो गए थे और जिस इंसान को मैंने हमेशा गर्व से अपना सर उठाए ही देखा था उस इंसान को अपने उस फैसले के बाद से बेहद थका हुआ और बेबस सा देखा है मैंने। तू ये समझता है कि इतने महीनों में कोई तुझे देखने नहीं आया तो तू ग़लत समझता है बेटे। मुझे उनसे कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी थी और उन्होंने तेरी सुरक्षा का पूरा प्रबंध कर दिया था जिससे कि यहाँ अकेले रहते हुए तुझ पर कोई मुसीबत न आए। जब तू यहाँ रात में अपने इस झोपड़े पर सो जाता था तो तेरी सुरक्षा के लिए तेरे पिता जी गुप्त रूप से अपने आदमियों को यहाँ पहरे पर लगा देते थे।"

मां की बातें सुन कर मैं मन ही मन बुरी तरह चौंका। मेरे अंदर जल रही आग मुझे ठंडी पड़ती महसूस हुई और मैं सोचने पर मजबूर हो गया था कि क्या सच में ऐसा ही था या माँ मुझे घर ले जाने के लिए मुझसे ये सब झूठी बातें कह रहीं थी?

"मां बाप कभी भी अपनी औलाद का बुरा नहीं सोचते बेटा।" मुझे ख़ामोश देख कर माँ ने बड़े प्यार से कहा____"औलाद चाहे जैसी भी हो वो अपने माँ बाप के लिए अपनी जान से भी ज़्यादा प्यारी होती है। माँ बाप अगर औलाद पर किसी तरह की शख़्ती करते हैं तो उसके पीछे अपनी औलाद के लिए भलाई की भावना ही छिपी होती है। मैं तुझसे किसी बात के लिए शिकायत नहीं कर रही बेटा, बल्कि तुझे वो दिखाने का प्रयास कर रही हूं जो तुझे कभी दिखा ही नहीं।" कहने के साथ ही माँ आगे बढ़ी और मेरे चेहरे को अपने हाथों से सहलाते हुए कहा____"मैं चाहती हूं कि मेरा बेटा सब कुछ भुला कर अपनी माँ के साथ घर चले। तू नहीं जानता कि तेरे बिना वो घर वो हवेली कितनी वीरान लगती है। तूने उस दिन अपनी भाभी को गुस्से में दुत्कार दिया था जिससे वो घर आ कर बहुत रोई थी और दो दिनों तक खाना नहीं खाया था उसने। किसी को सज़ा देना बहुत आसान होता है बेटा मगर किसी को प्यार दे कर उसे खुश रखना बहुत ही मुश्किल होता है।"

मां की बातें बिजली बन कर मेरे दिल को चीरती जा रही थी और मेरे दिलो दिमाग़ को जैसे झकझोरती भी जा रहीं थी। मेरे अंदर विचारों की आँधियां सी चलने लगीं थी जिसे रोक पाना मेरे बस में नहीं था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ये एकदम से मुझे क्या होने लगा था। मेरे दिल में तो अपने घर परिवार के सदस्यों की शक्ल तक देखने की हसरत बाकी नहीं रही थी और उनके लिए गुस्सा और नफ़रत ही भरा हुआ था किन्तु अब मेरे अंदर से वो गुस्सा और वो नफ़रत बड़ी तेज़ी से गायब होती जा रही थी। मेरे दिलो दिमाग़ में जैसे एक द्वन्द सा चलने लगा था और मैं पूरी कोशिश कर रहा था कि इस द्वन्द से खुद को आज़ाद कर लूं मगर मैं अपनी इस कोशिश में कामयाब नहीं हो पा रहा था।

"मैं जानती हूं मेरे बेटे कि जो कुछ हुआ है उससे तेरे दिल में हम सभी के लिए गुस्सा और नफ़रत भर गई है।" मेरी ख़ामोशी को देख माँ ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"यही वजह थी कि तूने उस दिन अपनी भाभी से गुस्से में बात की और उसे दुत्कार दिया था। उसके बाद जब तेरे पिता जी आये तो तूने उनसे भी ऐसी बातें की जो शायद ही आज तक किसी बेटे ने अपने पिता से की हों। तेरा गुस्सा और तेरी नाराज़गी जायज़ थी बेटा लेकिन अक्सर ऐसा होता है कि हम गुस्से में बहुत कुछ ऐसा बोल जाते हैं जिसके लिए बाद में हमें बेहद पछतावा होता है। इसी लिए बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि बिना सोचे समझे और बिना सच को जाने कभी भी ऐसी बातें नहीं बोलनी चाहिए क्योंकि जब बाद में हमें असलियत का पता चलता है तो हम खुद की ही नज़रों से गिर जाते हैं। मैं नहीं चाहती कि मेरे बेटे को ऐसा दिन देखना पड़े। ख़ैर छोड़ ये सब बातें और चल मेरे साथ। मैं तुझसे वादा करती हूं कि अब से वही होगा जो तू कहेगा।"

"आप जाइये मां।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा। इस वक़्त मेरा ज़हन एकदम से शांत सा हो गया था। ये अलग बात थी कि कोई चीज़ बड़ी शिद्दत से मेरे दिलो दिमाग़ को हिलाये दे रही थी। इस लिए कुछ सोच कर मैंने कहा_____"मैं शाम को आ जाऊंगा।"

"शाम को नहीं बेटे।" माँ ने ब्याकुल भाव से कहा____"तू अभी मेरे साथ ही घर चलेगा। मैं तुझे लिए बिना यहाँ से नहीं जाऊंगी।"
"ज़िद मत कीजिये मां।" मैंने बेचैन लहजे में कहा____"मैंने कह दिया ना कि शाम को आ जाऊंगा तो आ जाऊंगा। अभी आप जाइये।"

मेरे ऐसा कहने पर माँ मेरी तरफ बड़े ग़ौर से देखने लगीं। जैसे परख रही हों कि मेरी बातों में कोई सच्चाई है या मैं यूं ही उन्हें जाने को कह रहा था? मैं उन्हीं को देख रहा था। ख़ैर कुछ देर मेरे चेहरे के भावों को पढ़ने के बाद माँ ने कहा____"ठीक है मैं जा रही हूं लेकिन अगर तू शाम को घर नहीं आया तो सोच लेना। अपनी इस माँ का मरा हुआ मुँह देखेगा तू।"

ये कहते हुए माँ की आँखें एक बार फिर से भर आईं थी जिन्हें उन्होंने अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछा और फिर पलट कर बग्घी की तरफ बढ़ ग‌ईं। उनके पीछे पीछे मेरा बड़ा भाई भी चल पड़ा था। उसने दूसरी बार मुझसे कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं समझी थी।

मां और भाई के जाने के बाद मैं वहीं अपने झोपड़े के बाहर बने माटी के चबूतरे पर बैठ गया था। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी वक़्त आ जायेगा जब मेरे अंदर का गुस्सा और नफ़रत इस तरह से छू मंतर हो जाएगी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये कोई ईश्वर का चमत्कार था या मेरी माँ की बातों का गहरा असर पड़ा था मुझ में?

मैंने माँ को इस लिए वापस भेज दिया था ताकि मैं अकेले में बैठ कर उनकी बातों के बारे सोच सकूं और फिर उस सब के बारे में भी सोच सकूं जिसके बारे में सोचने की कभी ज़रूरत ही नहीं समझी थी मैंने।

किसी ने सच ही कहा है कि वैसा कभी नहीं होता जैसा हम चाहते हैं बल्कि अक्सर वही होता है जैसा ईश्वर चाहता है और ईश्वर जो चाहता है उसका हम इंसान कभी तसव्वुर भी नहीं कर सकते। ईश्वर के खेल बड़े निराले हैं। सब कुछ उसके हाथ में है। सब कुछ उसके बस में है। वो असंभव को संभव और संभव को असंभव बना देने की क्षमता रखता है। भला मैं ये कल्पना कहां कर सकता था कि जिस परिवार से मैं नफ़रत करता था और जिस घर की दहलीज़ पर इस जनम में न जाने की मैं सोच के बैठ गया था आज उन्हीं लोगों के लिए मेरे अंदर मौजूद गुस्सा और नफ़रत को पलक झपकते ही इस तरह से काफूर हो जाना था।

देर से ही सही किन्तु इंसान इस बात को समझ ही जाता है कि परिवर्तन इस दुनिया का नियम है। एक जैसा वक़्त कभी नहीं रहता। आज अगर बुरा वक़्त है तो कल अच्छा वक़्त भी आ जाएगा। ख़ैर माँ की बातों का गहरा असर हुआ था मुझ पर। सच ही तो कहा था उन्होंने कि इंसान गुस्से में अक्सर ऐसी बातें बोल जाता है जिसके लिए बाद में उसे पछताना पड़ता है। मेरे ज़हन में एक एक कर के वो सब बातें उभरने लगीं जो मैंने सबसे पहले भाभी से कही थीं और फिर पिता जी से।

पिता जी से मैंने जिस तरीके से बातें की थी वैसी बातें संसार का कोई भी बेटा अपने पिता से नहीं कर सकता था। इंसान के दिल को तो ज़रा सी बातें भी चोट पहुंचा देती हैं जबकि मैंने तो पिता जी से ऐसी बातें की थी जो यकीनन उनके दिल को ही नहीं बल्कि उनकी आत्मा तक को घायल कर गईं होंगी। सारी ज़िन्दगी मैंने गलतियां की थी और यही सोचता था कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूं वो सब अच्छा ही है किन्तु जब एक ग़लती मेरे पिता जी से हुई तो मैंने क्या किया?? उनकी एक ग़लती के लिए मैंने घर के हर सदस्य से नाता तोड़ लिया और उनके प्रति अपने दिल में गुस्सा और नफ़रत भर कर यही सोचता रहा कि एक दिन मैं उन सबकी इज्ज़त को मिट्टी में मिला दूंगा। भला ये कैसा न्याय था? मैं खुद जो कुछ करूं वो सब सही माना जाए और कोई दूसरा अगर कुछ करे तो वो दुनिया का सबसे ग़लत मान लिया जाए?

जाने कितनी ही देर तक मैं इस तरह के विचारों के चक्रव्यूह में फंसा रहा उसके बाद गहरी सांस ले कर उठा और मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया। मुझे याद आया कि जगन ने उस वक़्त अपने भाई का अं‌तिम संस्कार करने की बात कही थी। मुरारी काका जैसे इंसान के अंतिम संस्कार पर मुझे भी जाना चाहिए था। आख़िर बड़े़ उपकार थे उनके मुझ पर।
 
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 07
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अब तक,,,,,

पिता जी से मैंने जिस तरीके से बातें की थी वैसी बातें संसार का कोई भी बेटा अपने पिता से नहीं कर सकता था। इंसान के दिल को तो ज़रा सी बातें भी चोट पहुंचा देती हैं जबकि मैंने तो पिता जी से ऐसी बातें की थी जो यकीनन उनके दिल को ही नहीं बल्कि उनकी आत्मा तक को घायल कर गईं होंगी। सारी ज़िन्दगी मैंने गलतियां की थी और यही सोचता था कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूं वो सब अच्छा ही है किन्तु जब एक ग़लती मेरे पिता जी से हुई तो मैंने क्या किया?? उनकी एक ग़लती के लिए मैंने घर के हर सदस्य से नाता तोड़ लिया और उनके प्रति अपने दिल में गुस्सा और नफ़रत भर कर यही सोचता रहा कि एक दिन मैं उन सबकी इज्ज़त को मिट्टी में मिला दूंगा। भला ये कैसा न्याय था? मैं खुद जो कुछ करूं वो सब सही माना जाए और कोई दूसरा अगर कुछ करे तो वो दुनिया का सबसे ग़लत मान लिया जाए?

जाने कितनी ही देर तक मैं इस तरह के विचारों के चक्रव्यूह में फंसा रहा उसके बाद गहरी सांस ले कर उठा और मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया। मुझे याद आया कि जगन ने उस वक़्त अपने भाई का अं‌तिम संस्कार करने की बात कही थी। मुरारी काका जैसे इंसान के अंतिम संस्कार पर मुझे भी जाना चाहिए था। आख़िर बड़े़ उपकार थे उनके मुझ पर।

अब आगे,,,,,


मैं मुरारी काका के घर से थोड़ी दूर ही था कि मुझे बाएं तरफ काफी सारे लोग दिखाई दिए। मैं समझ गया कि वो सब लोग मुरारी काका की अर्थी ले कर उस जगह पर उनका अंतिम संस्कार करने आये हैं। ये देख कर मैं भी उसी तरफ मुड़ कर चल दिया। थोड़ी ही देर में मैं उन लोगों के पास पहुंच गया। मुरारी काका के गांव के कुछ लोग मुरारी काका के खेतों से कुछ दूरी पर ही लकड़ी की चिता तैयार कर चुके थे और अब उस चिता पर मुरारी काका के शव को रखने जा रहे थे। सरोज काकी और अनुराधा एक कोने में खड़ी ये सब देख कर अपने आंसू बहा रहीं थी।

मुझे देख कर वहां मौजूद लोगों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की अलबत्ता जगन ने ज़रूर मुझे घूर कर देखा था। ख़ैर अंतिम संस्कार की सारी विधियां निपट जाने के बाद मुरारी काका की चिता को मुरारी काका के बेटे के द्वारा आग लगवा दिया गया। देखते ही देखते आग ने अपना उग्र रूप दिखाना शुरू कर दिया और मुरारी काका की चिता के चारो तरफ फैलने लगी।

मुरारी काका के गांव के कुछ और लोग भी आते दिखाई दिए जिनके हाथो में तुलसी की सूखी लकड़ियां थी। यहाँ जो लोग मौजूद थे उनके हाथों में भी तुलसी की सूखी लकड़ियां थी। असल में तुलसी की ये सूखी लकड़ियां मरने वाले की जलती चिता पर अर्पण कर के लोग दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। हर आदमी अपनी स्वेच्छा और क्षमता अनुसार तुलसी की छोटी बड़ी लकड़ियां घर से ले कर आता है और फिर तुलसी की सात लकड़ियां जोड़ कर जलती चिता पर दूर से फेंक कर अर्पण कर देता है। मेरे पास तुलसी की लकड़ी नहीं थी इस लिए मैंने कुछ ही दूरी पर दिख रहे आम के पेड़ से सूखी लकड़ी तोड़ी और उससे सात लड़की तोड़ कर बनाया। यहाँ ये मान्यता है कि अगर किसी के पास तुलसी की लकड़ी नहीं है तो वो आम की सात लकड़ियां बना कर भी जलती चिता पर अर्पण कर सकता है। जब सब गांव वालों ने जलती चिता को सत लकड़ियां दे दी तो मैंने भी आगे बढ़ कर आम की उन सात लकड़ियों को एक साथ जलती चिता पर उछाल दिया और फिर मुरारी काका के जलते शव को प्रणाम किया। मन ही मन मैंने भगवान से उनकी आत्मा की शान्ति के लिए दुआ भी की।

काफी देर तक मैं और बाकी लोग वहां पर रहे और फिर वहां से अपने अपने घरों की तरफ चल दिए। जगन और उसके कुछ ख़ास चाहने वाले वहीं रह गए थे। जगन के कहने पर सरोज काकी भी अपने दोनों बच्चों को ले कर चल दी थी।

मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि कल तक जिस मुरारी काका से मैं मिलता रहा था और हमारे बीच अच्छा खासा सम्बन्ध बन गया था आज वही इंसान इस दुनिया में नहीं है। मेरे ज़हन में हज़ारो सवाल थे जिनका जवाब मुझे खोजना था। आख़िर किसने मुरारी काका की इस तरह से हत्या की होगी और क्यों की होगी? मुरारी काका बहुत ही सीधे सादे और साधारण इंसान थे। उनकी किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी। वो देशी शराब ज़रूर पीते थे मगर गांव में किसी से भी उनका मन मुटाव नहीं था।

मैं समझ नहीं पा रहा था कि ऐसे इंसान की हत्या कोई क्यों करेगा? क्या किसी ने महज अपने शौक के लिए मुरारी की हत्या की थी या उनकी हत्या करने के पीछे कोई ऐसी वजह थी जिसके बारे में फिलहाल मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था? मुरारी काका के जाने के बाद उनकी बीवी और उनके दोनों बच्चे जैसे अनाथ हो गए थे। अनुराधा तो जवान थी और मुरारी काका उसका ब्याह करना चाहते थे किन्तु उसका भाई अभी छोटा था। मुरारी काका को अनुराधा के बाद दो बच्चे और हुए थे जो छोटी उम्र में ही ईश्वर को प्यारे हो गए थे।

मुरारी काका के इस तरह चले जाने से सरोज काकी के लिए अपना घर चलाना यकीनन मुश्किल हो जाना था। हालांकि मुरारी काका का छोटा भाई जगन ज़रूर था किन्तु वो अपने परिवार के साथ साथ सरोज काकी के परिवार की देख भाल नहीं कर सकता था। जगन को दो बेटियां और एक बेटा था। उसकी दोनों बेटियां बड़ी थी जो कुछ सालों बाद ब्याह के योग्य हो जाएंगी। लड़की ज़ात पलक झपकते ही ब्याह के योग्य हो जाती है और पिता अगर सक्षम न हो तो उसके लिए अपनी बेटियों का ब्याह करना एक चुनौती के साथ साथ चिंता का सबब बन भी जाता है।

सारे रास्ते मैं यही सब सोचता रहा और फिर झोपड़े में पहुंच कर मैंने अपने कपड़े उतारे और उन्हें पानी से धोया। नहा धो कर और दूसरे कपड़े पहन कर मैं झोपड़े के अंदर आ कर बैठ गया। मुरारी काका की हत्या के बाद से मैं एक सूनापन सा महसूस करने लगा था। मेरे ज़हन में ख़याल उभरे कि ये कैसा समय था कि एक तरफ मुरारी काका की इस तरह अकस्मात हत्या हो जाती है और दूसरी तरफ मेरे परिवार के लोग मुझे वापस घर ले जाने के लिए मेरे पास आते हैं। माँ ने तो साफ कह दिया था कि आज अगर मैं शाम को घर नहीं गया तो मैं उनका मरा हुआ मुँह देखूंगा।

मैं गहरी सोच में डूब गया था और ये सोचने लगा था कि ये दोनों बातें क्या महज एक इत्तेफ़ाक़ हैं या इसके पीछे कोई ख़ास वजह थी? मेरे परिवार वाले इस समय ही मेरे पास क्यों आये जब मेरे ताल्लुकात मुरारी काका से इस क़दर हो गए थे? पहले भाभी फिर पिता जी और फिर माँ और बड़ा भाई। ऐसे समय पर ही क्यों आये जब मुरारी काका की हत्या हुई? चार महीने हो गए मुझे यहाँ आये हुए किन्तु आज से पहले मेरे घर का कोई सदस्य मुझे देखने नहीं आया था तो फिर ऐसे समय पर ही क्यों आये ये लोग?

एक तरफ मुरारी काका का छोटा भाई जगन मुझे अपने भाई का हत्यारा बोल रहा था और दूसरी तरफ पिछली रात एक अंजान और रहस्यमयी शख्स मुझे धक्का दे कर गायब हो जाता है तो वहीं दूसरे दिन पिता जी मुझसे मिलने आ जाते हैं। पिता जी के जाने के बाद आज माँ बड़े भाई के साथ आ गईं थी। ये सब बातें इतनी सीधी और स्वाभाविक नहीं हो सकतीं थी। कहीं न कहीं इन सब बातों के पीछे कोई न कोई ख़ास बात ज़रूर थी जिसका मुझे इल्म नहीं हो रहा था।

मेरे ज़हन में कई सारे सवाल थे जिनका जवाब मुझे चाहिए था। एक सीधे सादे इंसान की हत्या कोई क्यों करेगा? पिछली रात मुझे धक्का देने वाला वो रहस्यमयी शख्स कौन था? क्या मुरारी काका की हत्या से उसका कोई सम्बन्ध था? चार महीने बाद ऐसे वक़्त पर ही मेरे घर के लोग मुझसे मिलने क्यों आये थे? क्या ठाकुर प्रताप सिंह ने मुरारी की हत्या करवाई होगी किन्तु उनकी बातें और फिर माँ की बातें मेरे ज़हन में आते ही मुझे मेरा ये विचार ग़लत लगने लगता था।

मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि जगन ने मुझ पर मुरारी काका की हत्या का आरोप लगाया था और जिस वजह से लगाया था वो हालांकि बचकाना तो था किन्तु सोचने वाली बात थी कि वो ये कैसे सोच सकता था कि मैं महज इतनी सी बात पर उसके भाई की हत्या कर दूँगा? दूसरी बात जगन को किसने बताया कि कल रात मैं मुरारी के घर गया था? क्या सरोज काकी ने बताया होगा उसे? पर सरोज काकी ने उससे ये तो नहीं कहा होगा कि मैंने ही उसके मरद की हत्या की है। मतलब ये जगन के अपने ख़याल थे कि मैंने ही उसके भाई की हत्या की है।

क्या जगन खुद अपने भाई की हत्या नहीं कर सकता? मेरे ज़हन में अचानक से ये ख़याल उभरा तो मैं इस बारे में गहराई से सोचने लगा किन्तु मुझे कहीं से भी ये नहीं लगा कि जगन अपने भाई की हत्या कर सकता है। क्योंकि दोनों भाईयों के बीच कोई बैर जैसी भावना नहीं थी। अगर ऐसी कोई बात होती तो मुरारी काका मुझसे इस बारे में ज़रूर बताते। मैंने इन चार महीनों में कभी भी दोनों भाईयों के बीच ऐसी कोई बात होती नहीं देखी थी जिससे कि मैं शक भी कर सकता कि जगन अपने भाई की हत्या कर सकता है।

मुरारी काका की हत्या मेरे लिए एक न सुलझने वाली गुत्थी की तरह हो गई थी और इस बारे में सोचते सोचते मेरा सिर फटने लगा था। अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि मुझे अपने झोपड़े के बाहर किसी की हलचल सुनाई दी। मैंने ठीक से ध्यान लगा कर सुना तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कोई चल कर मेरे झोपड़े की तरफ ही आ रहा हो। मैं एकदम से सतर्क हो गया। सतर्क इस लिए हो गया क्योंकि पिछली रात एक रहस्यमयी शख़्स ने मुझे ज़ोर का धक्का दिया था इस लिए हो सकता था कि इस वक़्त वो मुझे यहाँ अकेले देख कर मेरे पास किसी ग़लत इरादे से आया हो। मैं फ़ौरन ही उठा और झोपड़े के अंदर ही एक कोने में रखे लट्ठ को हाथ में ले कर झोपड़े से बाहर आ गया।

झोपड़े से बाहर आ कर मैंने इधर उधर नज़र घुमाई तो देखा मेरी ही उम्र के दो लड़के मेरे पास आते दिखे। चार क़दम की दूरी पर ही थे वो और मैंने उन दोनों को अच्छी तरह पहचान लिया। वो मेरे ही गांव के थे और मेरे दोस्त थे। एक का नाम चेतन था और दूसरे का सुनील। उन दोनों को इस वक़्त यहाँ देख कर मेरी झांठें सुलग गईं।

"कैसा है वैभव?" दोनों मेरे पास आ गए तो उनमे से चेतन ने मुझसे कहा।
"महतारीचोद तमीज़ से बात कर समझा।" गुस्से में मैंने झपट कर चेतन का गिरहबान पकड़ कर गुर्राया था_____"अपनी औकात मत भूल तू। तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरा नाम लेने की?"

चेतन को मुझसे ऐसी उम्मीद सपने में भी नहीं थी। उसने तो ये सोचा था कि उन दोनों के आने से मैं खुश हो जाऊंगा और उन दोनों को अपने गले लगा लूंगा मगर उन दोनों को क्या पता था कि ठाकुर वैभव सिंह को अब दोस्तों से कितनी नफ़रत हो गई थी।

"ये तू क्या कर रहा है वैभव?" सुनील ने हैरत से आंखें फाड़ कर मुझसे ये कहा तो मैंने खींच कर एक लात उसके गुप्तांग पर जमा दिया जिससे उसकी चीख निकल गई और वो मारे दर्द के अपना गुप्तांग पकड़े दोहरा होता चला गया।

"भोसड़ीवाले।" फिर मैंने गुस्से में फुँकारते हुए उससे कहा____"दुबारा मेरा नाम लिया तो तेरी बहन को खड़े खड़े चोद दूंगा।" कहने के साथ ही मैं चेतन की तरफ पलटा____"अगर तुम दोनों अपनी सलामती चाहते हो तो अपना कान पूँछ दबा कर यहाँ से दफा हो जाओ।"

"हम तो तुझसे मिलने आये थे वैभव आआह्ह्ह्।" चेतन ने ये कहा ही था कि मैंने घुटने का वार उसके पेट में ज़ोर से किया तो उसकी चीख निकल गई।

"मादरचोद।" फिर मैंने उसके चेहरे पर घू़ंसा मारते हुए कहा____"बोला न कि मेरा नाम लेने की हिम्मत मत करना। तुम सालों को मैंने पालतू कुत्तों की तरह पाला था और तुम दोनों ने क्या किया? इन चार महीनों में कभी देखने तक नहीं आये मुझे। अगर मुझे पहले से पता होता कि मेरे पाले हुए कुत्ते इतने ज़्यादा बेवफ़ा निकलेंगे तो पहले ही तुम दोनों का खून कर देता।"

"हमे माफ़ कर दो वैभव।" सुनील ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"हम आना तो चाहते थे लेकिन बड़े ठाकुर साहब के डर से नहीं आये कि कहीं वो हमें भी तुम्हारी तरह गांव से निष्कासित न कर दें।"

"इसका मतलब तो यही हुआ न कि तुम दोनों ने सिर्फ अपने बारे में ही सोचा।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"क्या यही थी तुम दोनों की दोस्ती? थू है तुम दोनों पर। अभी के अभी यहाँ से दफा हो जाओ वरना तुम दोनों की इतनी बार गांड मारुंगा कि हगना मुश्किल हो जाएगा।"

"माफ़ कर दे यार।" चेतन बोला____"अब आ तो गए हैं ना हम दोनों।"
"तेरी माँ को चोदूं मादरचोद।" मैंने चेतन को एक और घूंसा जड़ते हुए कहा____"यहां आ कर क्या मुझ पर एहसान किया है तूने? कान खोल कर सुन लो तुम दोनों। आज के बाद तुम दोनों कभी मुझे अपनी शकल न दिखाना वरना घर में घुस कर तुम दोनों की माँ बहन को चोदूंगा। अब दफा हो जाओ यहाँ से।"

दोनों ने पहली बार मुझे इतने गुस्से में देखा था और उन्हें ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि मैं दोनों पर इतना ज़्यादा क्रोधित हो जाऊंगा। दोनों बुरी तरह सहम गए थे और जब मैंने ये कहा तो दुबारा उन दोनों में बोलने की हिम्मत न हुई।

चेतन और सुनील जा चुके थे। पता नहीं क्यों उन दोनों को देख कर इतना गुस्सा आ गया था मुझे? शायद इस लिए कि इन चार महीनों में मुझे पता चल गया था कि कौन मेरा चाहने वाला था और कौन नहीं। सच कहूं तो अब दोस्ती जैसे शब्द से नफ़रत ही हो गई थी मुझे।

दोनों के जाने के बाद मैं कुछ देर तक दोस्तों के बारे में ही सोचता रहा। दोपहर से ज़्यादा का समय हो गया था और अब मुझे भूख लग रही थी। आज से पहले मैं या तो मुरारी के घर में खाना खा लेता था या फिर जंगल में जा कर उसी नदी से मछलियाँ पकड़ कर और फिर उन्हें भून कर अपनी भूख मिटा लेता था। मुरारी काका की हत्या हो जाने से मैं मुरारी काका के घर खाना खाने के लिए नहीं जा सकता था। हालांकि मैं अगर जाता तो सरोज काकी अनुराधा से बनवा कर ज़रूर मुझे खाना देती मगर ऐसे वक़्त में मुझे खुद उसके यहाँ खाना खाने के लिए जाना ठीक नहीं लग रहा था। इस लिए मैं उठा और जंगल की तरफ बढ़ गया।

रास्ते में मैं सोच रहा था कि अब ऐसे वक़्त में मुझे क्या करना चाहिए? यहाँ पर मैं दो वजहों से रुका हुआ था। एक तो बंज़र ज़मीन पर फसल उगा कर मैं अपने बाप को दिखाना चाहता था और दूसरे मुरारी काका की वजह से क्योंकि उनसे मेरे अच्छे ताल्लुक बन गए थे। हालांकि एक वजह और भी थी और वो ये कि सरोज काकी से मुझे शारीरिक सुख मिलता था और कहीं न कहीं ये बात भी सच ही थी कि मैं उसकी बेटी अनुराधा को भी हासिल करना चाहता था।

मैं अक्सर सोचता था कि मैं अनुराधा के साथ शख्ती से पेश क्यों नहीं आ पाता? चार महीने पहले तक तो ऐसा था कि मैं जिस लड़की या औरत को चाह लेता था उसे किसी न किसी तरह हासिल कर ही लेता था और फिर उसे भोगता था मगर अनुराधा के मामले में मेरी कठोरता जाने कहां गायब हो जाती थी और उसके लिए एक कोमल भावना आ जाती थी। यही वजह थी कि चार महीने गुज़र जाने के बाद भी मेरे और अनुराधा के बीच की दूरी वैसी की वैसी ही बनी हुई थी जैसे चार महीने पहले बनी हुई थी।

आज शाम को मुझे घर भी जाना था क्योकि मैं माँ को बोल चुका था कि मैं शाम को आऊंगा मगर सच कहूं तो घर जाने की अब ज़रा भी हसरत नहीं थी मुझे। मुरारी काका और उसके घर से एक लगाव सा हो गया था मुझे। उसके घर में अनुराधा के हाथ का बना खाना मैं अक्सर ही खाता रहता था। चूल्हे में उसके हाथ की बनी सोंधी सोंधी रोटियां और आलू भांटा का भरता एक अलग ही स्वाद की अनुभूति कराता था। अनुराधा का चोर नज़रों से मुझे देखना और फिर जब हमारी नज़रें आपस में मिल जातीं तो उसका हड़बड़ा कर अपनी नज़रें हटा लेना। जब वो हलके से मुस्कुराती थी तो उसके दोनों गालों पर हलके से गड्ढे पड़ जाते थे। मैं जानता था कि घर लौटने के बाद फिर मैं मुरारी काका के घर इस तरह नहीं जा पाऊंगा और अनुराधा जैसी बेदाग़ चीज़ मेरे हाथ से निकल जाएगी।

मुझे याद आया कि कल रात मुरारी काका मुझसे अपनी बेटी का हाथ थामने की बात कह रहे थे। कल रात वो देशी शराब के नशे में थे और शराब के नशे में अक्सर इंसान सच ही बोलता है तो क्या मुरारी काका सच में यही चाहते थे कि मैं उनकी बेटी का हाथ हमेशा के लिए थाम लूं? क्या मुझे सच में मुरारी काका की इस इच्छा को मान लेना चाहिए? अनुराधा में कोई कमी नहीं थी। उसकी मासूमियत और उसकी सादगी उसका सबसे बड़ा गहना थी। उसके मासूम चेहरे को देख कर कभी कभी मेरे ज़हन में ये ख़याल भी आ जाता था कि उसके लिए कितना ग़लत सोचता हूं मैं। दुनिया में क्या लड़कियों और औरतों की कमी है जो मैं उस मासूम को दाग़दार करने की हसरत पाले बैठा हूं? ये ख़याल भी एक वजह थी कि मैं अनुराधा के क़रीब ग़लत इरादे से जा नहीं जा पाता था।

मुरारी काका एक ग़रीब इंसान थे और मैं एक बड़े और उच्च कुल का नालायक चिराग़। अब तो मुझे घर वापस लौटना ही था क्योकि माँ ने धमकी दी थी कि अगर शाम तक मैं घर नहीं गया तो मुझे उनका मरा हुआ मुँह देखना पड़ेगा। इस लिए जब मैं घर चला जाऊंगा तो मैं एक बार फिर से बड़े बाप का बेटा बन जाऊंगा और मुमकिन है कि मेरे माता पिता अनुराधा के साथ मेरा ये रिश्ता पसंद न करें। ऐसे में मैं कैसे मुरारी काका की इच्छा को पूरा कर पाऊंगा। हालांकि सबसे बड़ा सवाल तो अभी यही था कि क्या मैं खुद ये चाहता हूं कि अनुराधा का हाथ मैं हमेशा के लिए थाम लूं? मुझे एहसास हुआ कि ये सब इतना आसान नहीं था क्योंकि इसमें मेरे पिता जी के मान सम्मान का सवाल था और उनसे ज़्यादा मेरा सवाल था कि मैं खुद क्या चाहता हूं?

जंगल के अंदर उस नदी में पहुंच कर मैंने कुछ मछलियाँ पकड़ी और उन्हें वहीं भून कर खाया। अब कुछ राहत महसूस हो रही थी मुझे। मैं जंगल से निकल कर वापस झोपड़े पर आ गया। मेरी फसल जल कर ख़ाक हो गई थी और अब मेरे यहाँ रुकने की कोई वजह भी नहीं रह गई थी। शाम को घर लौटना मेरी मज़बूरी बन गई थी वरना मैं तो घर जाना ही नहीं चाहता था। असल में मैं ये चाहता था कि इस समय मैं जिन परिस्थितियों में था उससे बाहर निकल आऊं और ऐसा तभी हो सकता था जब मैं मुरारी काका के हत्यारे का पता लगा लूं और जगन के साथ साथ उसके गांव वालों को भी दिखा दूं कि मैं मुरारी काका का हत्यारा नहीं था।

इस वक़्त मुरारी काका के घर जाना उचित नहीं था क्योंकि उनके घर में इस वक़्त मातम सा छाया होगा। हालांकि मेरे वहां जाने से सरोज काकी या अनुराधा को कोई समस्या नहीं होनी थी किन्तु मैं नहीं चाहता था कि अगर जगन वहां पर हो और उसने मुझसे कुछ उल्टा सीधा बोला तो मेरे द्वारा कोई बवाल मच जाए। इस लिए मैंने सोचा कि एक दो दिन बाद जाऊंगा क्योंकि तब तक घर का माहौल कुछ ठीक हो जाएगा। दूसरी बात मुझे सरोज काकी से ये भी बताना होगा कि अब से मैं झोपड़े में नहीं रहूंगा बल्कि अपने घर पर ही रहूंगा।

झोपड़े में पड़ा मैं सोच रहा था कि जगन के रिपोर्ट लिखवाने पर भी थाने से दरोगा नहीं आया था जबकि हत्या जैसे मामले में दरोगा को फ़ौरन ही आना चाहिए था और मुरारी की हत्या के मामले को अपने हाथ में ले कर उसकी छानबीन शुरू कर देनी चाहिए थी मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। मुरारी काका की लाश को दोपहर तक घर में ही रखा गया था उसके बाद उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया था। मतलब साफ़ था कि हत्यारे ने दरोगा को घूंस दे कर हत्या के इस मामले को दबा दिया था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कौन ब्यक्ति हो सकता है जिसकी पहुंच पुलिस के दरोगा तक है और वो हत्या जैसे गंभीर मामले को भी दबा देने की कूवत रखता है?

मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अगर मुझे मुरारी के हत्यारे का पता लगाना है तो मुझे खुद पुलिस के दरोगा की तरह इस मामले की छानबीन करनी होगी। आख़िर मुझे भी तो इस हत्या से अपने ऊपर लगे इल्ज़ाम को हटाना था। इस ख़याल के साथ ही मैं एक झटके में उठा और झोपड़े से बाहर निकल आया। बाहर आ कर मैंने झोपड़े के पास ही रखे अपने लट्ठ को उठाया और मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा। मैंने सोच लिया था कि हत्या के इस मामले की मैं खुद बारीकी से जांच करुंगा।

मुरारी काका के घर के सामने पेड़ के नीचे बने एक चबूतरे पर कुछ लोग बैठे बातें कर रहे थे। उन लोगों के साथ मुरारी काका का छोटा भाई जगन भी था। मुझे देख कर सब के सब चुप हो गए और चबूतरे से उतर कर ज़मीन पर खड़े हो ग‌ए। जगन की नज़र मुझ पर पड़ी तो उसने घूर कर देखा मुझे।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 08
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अब तक,,,,

मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अगर मुझे मुरारी के हत्यारे का पता लगाना है तो मुझे खुद पुलिस के दरोगा की तरह इस मामले की छानबीन करनी होगी। आख़िर मुझे भी तो इस हत्या से अपने ऊपर लगे इल्ज़ाम को हटाना था। इस ख़याल के साथ ही मैं एक झटके में उठा और झोपड़े से बाहर निकल आया। बाहर आ कर मैंने झोपड़े के पास ही रखे अपने लट्ठ को उठाया और मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा। मैंने सोच लिया था कि हत्या के इस मामले की मैं खुद बारीकी से जांच करुंगा।

मुरारी काका के घर के सामने पेड़ के नीचे बने एक चबूतरे पर कुछ लोग बैठे बातें कर रहे थे। उन लोगों के साथ मुरारी काका का छोटा भाई जगन भी था। मुझे देख कर सब के सब चुप हो गए और चबूतरे से उतर कर ज़मीन पर खड़े हो ग‌ए। जगन की नज़र मुझ पर पड़ी तो उसने घूर कर देखा मुझे।

अब आगे,,,,,


जगन को अपनी तरफ इस तरह घूरते देख कर मेरे ज़हन में ये बात आई कि मुझे इस तरह सबकी मौजूदगी में मुरारी काका के घर के अंदर नहीं जाना चाहिए क्योंकि ऐसे में वहां मौजूद सभी लोगों के मन में ग़लत सोच पैदा हो सकती थी। जगन तो वैसे भी सबके सामने मुझसे कह ही चुका था कि मैं उसकी भतीजी अनुराधा को अपनी हवश का शिकार बनाना चाहता था और इसी लिए अपने रास्ते के कांटे मुरारी काका की हत्या कर दी है।

"मुझे माफ़ कर दो जगन काका क्योंकि मैंने तुम पर हाथ उठाया था उस समय।" फिर मैंने जगन के सामने जा कर उससे कहा____"हालाँकि जिस तरह का आरोप तुमने मुझ पर लगाया था और जिस तरीके से मेरे चरित्र को उछाला था उस तरह में मेरी जगह कोई भी होता तो वो तुम पर ऐसे ही हाथ उठा देता।"

मेरी बातें सुन कर जगन कुछ न बोला। वहां पर मौजूद लोगों में से भी कोई कुछ न बोला। वो इस तरह अपनी अपनी जगह पर खड़े हुए थे जैसे उन्हें डर हो कि अगर वो मेरे सामने इस तरह खड़े न रहेंगे तो मैं उन सबका खून कर दूंगा।

"मैं मानता हूं जगन काका कि मेरा चरित्र अब से पहले अच्छा नहीं था।" जगन के साथ साथ सभी को ख़ामोश देख मैंने फिर से कहा____"और मैं ये भी मानता हूं कि मैंने अब से पहले गांव की न जाने कितनी ही बहू बेटियों की इज्जत के साथ खेला है मगर अब ऐसा नहीं रहा मैं। मैं जानता हूं कि अगर मैं ये बात अपना सर पटक पटक के भी कहूंगा तो तुम लोग मेरी बात का यकीन नहीं करोगे मगर तुम्हारे यकीन न करने से ना तो सच्चाई बदल जाएगी और ना ही मुझ पर कोई फ़र्क पड़ेगा।"

इतना कहने के बाद मैं सांस लेने के लिए रुका। मेरे चुप होते ही वातावरण में ख़ामोशी छा गई। सभी के चेहरों पर ऐसे भाव उभर आये थे जैसे अब वो मेरे आगे बोलने का शिद्दत से इंतज़ार करने लगे हों।

"ग़लतियां हर इंसान से होती हैं।" सबकी तरफ एक एक नज़र डालते हुए मैंने कहा____"इस धरती पर कोई भगवान नहीं है जिससे कभी कोई ग़लती ही न हो। मुझसे बहुत सी गलतियां हुईं जिसके लिए आज मुझे कुछ ही सही मगर पछतावा ज़रूर है। मेरे पिता ने मुझे उन्हीं गलतियों की वजह से गांव से निष्कासित किया और आज मैं पिछले चार महीने से यहाँ हूं। इन चार महीनों में अगर मैंने किसी की बहू बेटी की इज्ज़त ख़राब की हो तो बेझिझक तुम लोग मेरा सर काट डालो।"

अपनी बात कहने के बाद मैंने सबकी तरफ देखा। वहां मौजूद सभी लोग एक दूसरे की तरफ ऐसे देखने लगे थे जैसे आँखों से ही एक दूसरे से पूछ रहे हों कि तुम में से क्या किसी की बहू बेटी के साथ इस ठाकुर के लड़के ने कुछ किया है? आँखों से पूछे गए सवाल का जवाब भी आँखों से ही मिल गया उन्हें।

"तुमने मुझ पर इल्ज़ाम लगाया था जगन काका कि मैं तुम्हारी भतीजी अनुराधा को अपनी हवश का शिकार बनाना चाहता हूं।" मैंने जगन की तरफ देखते हुए कहा____"अगर सच में ऐसा होता तो क्या अब तक तुम्हारी भतीजी मेरा शिकार न हो गई होती? जब अब तक किसी ने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ लिया था तो तुम्हारी भतीजी का जब मैं शिकार कर लेता तो तुम में से कोई मेरा क्या बिगाड़ लेता? इस पर भी अगर तुम्हें यकीन नहीं है तो जा कर अपनी भतीजी से पूछ लो काका। चार महीने से मैं इस घर में आता जाता हूं और इन चार महीनों में अगर मैंने कभी भी तुम्हारी भतीजी को ग़लत नज़र से देखा हो तो वो तुम्हें ज़रूर बताएगी और फिर तुम मेरा सर काटने के लिए आज़ाद हो।"

मेरी इन बातों को सुन कर जगन ने एक गहरी सांस ली। उसके चेहरे पर बेचैनी जैसे भाव उभरे। उसने नज़र उठा कर वहां मौजूद सभी लोगों को देखा और फिर मेरी तरफ ख़ामोशी से देखने लगा।

"मुरारी काका मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे जगन काका।" मैंने जगन काका के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"मेरे बुरे वक़्त में सिर्फ उन्होंने ही मेरा साथ दिया था। उनके घर का नमक खाया है मैंने। मेरे दिल में उनके लिए मरते दम तक जगह रहेगी। जिस इंसान ने मेरे लिए इतना कुछ किया उस इंसान की अगर मैं हत्या करुंगा तो मुझे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। हवश ने मुझे इतना भी अँधा नहीं कर दिया है कि मैं अपने ही फ़रिश्ते की बेरहमी से हत्या कर दूं।"

"मुझे छोटे ठाकुर पर विश्वास है जगन।" वहां मौजूद लोगों में से एक आदमी ने जगन से कहा____"इन्होंने सच में मुरारी की हत्या नहीं की है और ना ही तुम्हारी भतीजी पर इनकी नीयत ग़लत है। अगर ऐसा होता तो तुम्हारी भतीजी खुद सबको बताती कि इन्होंने उसके साथ ग़लत किया है।"

"मैं किशोर की बातों से सहमत हूं जगन।" एक दूसरे आदमी ने कहा____"छोटे ठाकुर ने कुछ नहीं किया है। तुमने बेवजह ही इन पर इतने गंभीर आरोप लगाये थे।"

एक के बाद एक आदमी जगन से यही सब कहने लगा था जिसे सुन कर जगन ने फिर से एक गहरी सांस ली। उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसे भी ये बात समझ आ गई थी कि मैं वैसा नहीं हूं जैसा वो समझ रहा था।

"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" फिर जगन ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई जो मैंने तुम पर ये इल्ज़ाम लगाये थे। मुझे माफ़ कर दो।"

"माफी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है जगन काका।" मैंने जगन काका के जुड़े हुए हाथों को पकड़ते हुए कहा____"क्योंकि तुमने वही किया है जो ऐसे वक़्त में और ऐसी परिस्थिति में करना चाहिए था। ख़ैर छोड़ो ये सब। मैं यहाँ ये बताने आया था कि अब से मेरा वनवास ख़त्म हो गया है और अब से मैं अपने घर में ही रहूंगा किन्तु मैं ये वादा करता हूं कि जिस किसी ने भी मुरारी काका की हत्या की है उसका पता मैं लगा के रहूंगा और फिर उसे सज़ा भी दूंगा।"

"छोटे ठाकुर।" जगन ने कहा____"मैं तो यही कहूंगा कि तुम अब इस झमेले में न पड़ो। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी जान को कोई ख़तरा हो जाए। वैसे भी मेरा भाई तो अब चला ही गया है।"

"नहीं जगन काका।" मैंने दृढ़ता से कहा____"मुझे अपनी जान की कोई परवाह नहीं है। मेरे लिए अब ये जानना बेहद ज़रूरी हो गया है कि मुरारी काका की हत्या किसने और किस वजह से की है और बात सिर्फ इतनी ही नहीं है बल्कि मुझे लगता है कि जिस किसी ने भी मुरारी काका की हत्या की है उसी ने मेरी फसल भी जलाई है।"

"फसल जलाई है???" जगन तो चौंका ही था किन्तु मेरी ये बात सुन कर वहां मौजूद बाकी लोग भी बुरी तरह चौंका थे, जबकि जगन ने हैरानी से कहा____"ये तुम क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर? तुम्हारी फसल जला दिया किसी ने??"

"हां काका।" मैंने गंभीरता से कहा____"आज सुबह जब मैं यहाँ से वापस अपने खेत की तरफ गया तो मैंने देखा कि गेहू की पुल्लियों का जो गड्ड बना के रखा था मैंने उसमे भीषण आग लगी हुई थी। अपनी मेहनत को जल कर राख होते देखता रह गया था मैं। भला मैं कैसे उस आग को बुझा सकता था? ख़ैर इतना कुछ होने के बाद अब ये सोचने का विषय हो गया है कि मेरी गेहू की फसल को आग किसने लगाईं और अगर किसी ने ये सब मुझसे अपनी दुश्मनी निकालने की वजह से किया है तो उसने फसल को ही क्यों जलाया? वो अपनी दुश्मनी मुझसे भी तो निकाल सकता था?"

"बड़ी हैरत की बात है छोटे ठाकुर।" जगन ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"भला ऐसा कौन कर सकता है?"
"यही तो पता करना है काका।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"एक तरफ मुरारी काका की हत्या का मामला और दूसरी तरफ मेरी फसल को जला देने का मामला। ये दोनों ही मामले ऐसे हैं जिनके बारे में फिलहाल कुछ भी समझ में नहीं आ रहा कि ऐसा किसी ने क्यों किया है?"

जगन काका से थोड़ी देर और कुछ बातें करने के बाद मैं घर के अंदर की तरफ दाखिल हो गया। मैंने महसूस कर लिया था कि जगन काका के ज़हन में जो मेरे प्रति नाराज़गी थी वो काफी हद तक दूर हो चुकी थी। हालांकि मेरे ज़हन में ये ख़याल अब भी उभरता था कि मुरारी काका की हत्या क्या जगन ने की होगी? माना कि दोनों भाइयों के बीच कोई मन मुटाव या बैर जैसी भावना नहीं थी किन्तु कोई अपने अंदर कैसी भावना छुपाये बैठा है इसका पता किसी को कैसे चल सकता है? कहने का मतलब ये कि हो सकता है कि जगन के मन में अपने बड़े भाई की ज़मीन हड़पने का इरादा पहले से ही रहा हो जिसके लिए उसने अवसर देख कर अपने भाई की हत्या कर दी और हत्या के इस मामले में मुझे बड़ी सफाई से फंसा दिया हो।

अगर सोचा जाए तो ये ख़याल अपनी जगह तर्क संगत ही था। ज़र जोरु और ज़मीन होती ही ऐसी है जिसके लिए इंसान कुछ भी कर सकता है। जगन के लिए ये सुनहरा अवसर था अपने भाई की हत्या करने का और अपने भाई की हत्या में मुझे फंसा देने का। उसे अच्छी तरह पता था कि मैं कैसा आदमी हूं और आज कल कैसे हालात में हूं। उसे ये भी पता था कि मुरारी काका से मेरा गहरा ताल्लुक बन गया था और मेरा उनके घर आना जाना भी था। मेरे चरित्र का फायदा उठा कर ही उसने अपने भाई की हत्या की होगी और उस हत्या का इल्ज़ाम मेरे सर मढ़ दिया होगा।

मेरे मन में ये ख़याल अक्सर उभर आते थे लेकिन मेरे पास कोई प्रमाण नहीं था कि मैं अपने इस ख़याल को सही साबित कर सकूं। ख़ैर ये तो अब आने वाला वक़्त ही बताएगा कि मुरारी काका की हत्या से किसे फायदा होने वाला है। मैं यही सब सोचते हुए घर के अंदर आया तो देखा सरोज काकी अंदर वाले भाग के बरामदे के पास बैठी थी। उसके साथ गांव की कुछ औरतें भी बैठी हुईं थी। अनुराधा मुझे कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। ख़ैर मैं जब अंदर पहुंचा तो सरोज काकी के साथ साथ उन औरतों ने भी मेरी तरफ देखा।

"काकी अब से मैं अपने घर में ही रहूंगा।" मैंने कुछ देर उन सबको देखने के बाद सरोज काकी से कहा____"कल पिता जी आये थे और आज माँ और बड़ा भाई आया था। माँ ने अपनी क़सम दे कर मुझे घर लौटने के लिए मजबूर कर दिया है इस लिए आज शाम को मैं चला जाऊंगा लेकिन मैं यहाँ आता रहूंगा। मुरारी काका के बड़े उपकार हैं मुझ पर इस लिए मैं ये पता लगा के रहूंगा कि उनकी हत्या किसने और किस वजह से की है?"

"मैं तो अब भी यही कहती हूं बेटा कि तुम इस झमेले में मत पड़ो।" सरोज काकी ने गंभीर भाव से कहा____"मेरा मरद तो चला ही गया है। क्या हत्यारे का पता लगा लेने से वो मुझे वापस मिल जायेगा?"

"ये तुम कैसी बातें करती हो काकी?" मैंने बाकी औरतों की तरफ देखने के बाद काकी से कहा____"माना कि मुरारी काका अब कभी वापस नहीं मिलेंगे मगर ये जानना तो हम सबका हक़ है कि उनकी हत्या किसने की है? स्वर्ग में बैठे मुरारी काका भी यही चाहते होंगे कि उनके हत्यारे का पता लगाया जाए और उसे सज़ा दी जाए। अगर ऐसा न हुआ तो उनकी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी। मैं खुद भी तब तक चैन से नहीं बैठूंगा जब तक कि काका के हत्यारे का पता नहीं लगा लेता। क्योंकि मुरारी काका की हत्या से मैं खुद को भी कहीं न कहीं अपराधी मानता हूं। क्या पता किसी ने मुझसे अपनी दुश्मनी निकालने के लिए ही मुरारी काका की इस तरह से जान ले ली हो। इस लिए मैं इस सबका पता लगा के ही रहूंगा।"

सरोज काकी मेरी तरफ उदास नज़रों से देखती रही। उसके पास बैठी बाकी औरतें भी ख़ामोशी से मेरी बातें सुन रही थी। तभी मेरी नज़र अनुराधा पर पड़ी। वो अभी अभी एक कमरे से निकल कर बाहर आई थी। उसने एक नज़र मेरी तरफ देखा और फिर चुप चाप घर के पीछे की तरफ जाने के लिए जो दरवाज़ा था उस तरफ बढ़ ग‌ई।

"तुम्हेँ पता है काकी।" मैंने काकी से कहा____"आज सुबह जब मैं यहाँ से अपने खेत की तरफ गया तो देखा कि खेत में मेरी गेहू की फसल में आग लगी हुई थी। सारी की सारी फसल जल कर राख हो गई।"

"ये तुम क्या कह रहे हो बेटा?" सरोज के साथ साथ बाकी औरतें भी मेरी बात सुन कर हैरानी से मेरी तरफ देखने लगीं थी।
"हां काकी।" मैंने कहा____"इतनी मेहनत से मैंने जिस फसल को उगाया था उसे किसी ने आग लगा दी और मैं कुछ नहीं कर सका। तुम खुद सोचो काकी कि ऐसा किसी ने क्यों किया होगा? मुरारी काका की हत्या होना और मेरी फसल को आग लगा देना ये दोनों मामले साथ साथ हुए हैं। मतलब साफ़ है कि दोनों मामलों का आपस में सम्बद्ध है और इन दोनों मामलों को जन्म देने वाला कोई एक ही इंसान है। ख़ैर अपनी फसल के जल जाने का मुझे इतना दुःख नहीं है मगर मुरारी काका की हत्या जिस किसी ने भी की है उसे मैं पाताल से भी खोज निकालूँगा और फिर उसे ऐसी सज़ा दूंगा कि उसके फ़रिश्ते भी थर्रा जाएंगे।"

मैं ये सब कहने के बाद पलटा और घर से बाहर निकल कर अपने झोपड़े की तरफ चल दिया। आसमान में चमकता हुआ सूरज पश्चिम दिशा की तरफ पहुंच चुका था और कुछ ही देर में शाम हो जानी थी। ये देख कर मुझे याद आया कि आज शाम को मुझे अपने घर जाना है। घर जाने की बात याद आते ही मेरे मन में एक अजीब सा एहसास होने लगा और साथ ही ज़हन में ये ख़याल भी उभर आये कि घर में पिता जी से जब मेरा सामना होगा तब वो क्या कहेंगे मुझे? मैंने उस दिन गुस्से में भाभी को दुत्कार दिया था तो क्या वो मुझसे गुस्सा होंगी? ऐसे कई सारे ख़याल मेरे मन में उभर रहे थे और मेरे अंदर अजीब सा एहसास जगा रहे थे।

फागुन का महीना चल रहा था और कल होली का त्यौहार है। मैं सोचने लगा कि इस साल की ये होली मुरारी काका के घर वालों के भाग्य में नहीं थी। मुझे याद आया कि हर साल मैं अपने दोस्तों के साथ होली के इस त्यौहार को अपने तरीके से मनाता था। भांग के नशे में गांव की कुछ लड़कियों को मैं उठवा लेता था और गांव से दूर खेतों में बने अपने मकान में ले जा कर उनके मज़े लेता था। ऐसा नहीं था कि मैं हर किसी पर जुल्म करता था बल्कि बहुत सी ऐसी भी होतीं थी जो अपनी ख़ुशी से मेरे साथ सम्भोग करतीं थी क्योंकि मैं उन्हें संतुष्ट भी करता था और पैसे से उनकी मदद भी करता था। इस बार का ये त्यौहार मेरे लिए एक नए रूप में था और मैं खुद भी एक नए रूप में था।

मैंने एक थैले में अपने कपड़े समेट कर डाले और घर जाने के लिए तैयार हो गया। मेरा मन ज़रा भी नहीं कर रहा था कि मैं यहाँ से घर जाऊं। इस जगह से एक लगाव हो गया था और इस जगह पर कई सारी यादें बन गईं थी। इस जगह पर मुरारी काका जैसे इंसान ने बुरे वक़्त में मेरा साथ दिया था। इस जगह पर सरोज काकी ने मुझे जिस्मानी सुख दिया था और इसी जगह पर मैंने अपने बुरे वक़्त में जीवन का असली रंग देखा था। अनुराधा जैसी एक आम सी लड़की ने बिना कुछ किये ही मेरी मानसिकता को बदल दिया था। मुझे एक बार फिर से याद आ गया कि मुरारी काका ने पिछले दिन मुझसे अपनी बेटी अनुराधा का हाथ थाम लेने की बात कही थी। मेरे मन में तरह तरह के विचार चलने लगे। क्या मैं सरोज काकी और उसके बच्चों को ऐसे ही छोड़ कर चला जाऊंगा? क्या मैं मुरारी काका के उपकारों को भूल कर ऐसे ही यहाँ से चला जाऊंगा? नहीं, मैं ऐसे नहीं जाऊंगा बल्कि मुरारी काका के उपकारों का बदला ज़रूर चुकाऊंगा।

जाने कितनी ही देर तक मैं ये सब सोचता रहा। सूर्य अपने वजूद पर लालिमा चढ़ाये पश्चिम दिशा में उतर चुका था। आस पास कोई नहीं था बस हवा चलने की आवाज़ें ही सुनाई दे रहीं थी। मेरे मन में बहुत सी बातें इस जगह के लिए पनप चुकी थी और मैंने एक फैसला कर लिया था।

अपना सामान एक थैले में भर कर मैं झोपड़े से बाहर निकला और एक बार खेत के उस हिस्से की तरफ देखा जहां पर मेरी फसल का जली हुई राख के रूप में ढेर पड़ा था। कुछ देर उस राख के ढेर को देखने के बाद मैं खेत की तरफ बढ़ गया। खेत के पास आ कर मैंने उस खेत की ज़मीन पर अपना हाथ रखा और फिर उस हाथ को अपने माथे पर लगा कर मैंने उस ज़मीन को प्रणाम किया।

खेत की उस ज़मीन को प्रणाम करने के बाद मैं उठा और पलट कर चल दिया। अभी मैं झोपड़े के करीब ही पंहुचा था कि मेरी नज़र सामने से आती हुई एक बग्घी पर पड़ी। उस बग्घी में पिता जी का एक आदमी बैठा हुआ था। मेरे मन में ख़याल उभरा कि शायद ये बग्घी माँ ने मुझे लाने के लिए भेजी होगी।

"प्रणाम छोटे ठाकुर।" बग्घी मेरे पास आई तो बग्घी चला रहे उस आदमी ने मुझसे बड़े अदब से कहा____"ठाकुर साहब ने आपको लाने के लिए मुझे भेजा है।"
"इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी काका।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"ईश्वर ने मुझे दो पैर दिए हैं जो कि अभी सही सलामत हैं। इस लिए मैं पैदल ही घर आ जाता।"

"ऐसा कैसे हो सकता है छोटे ठाकुर?" उस आदमी ने कहा_____"ख़ैर छोड़िये, लाइए ये थैला मुझे दीजिए।"

बग्घी से उतर कर वो आदमी मेरे पास आया और थैला लेने के लिए मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने उसे ख़ामोशी से थैला दे दिया जिसे ले कर वो एक तरफ हट गया। मैं जब बग्घी में बैठ गया तो वो आदमी भी आगे बैठ गया और फिर उसने घोड़ों की लगाम को हरकत दी तो घोड़े आवाज़ करते हुए चल दिए।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 09
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अब तक,,,,,

"प्रणाम छोटे ठाकुर।" बग्घी मेरे पास आई तो बग्घी चला रहे उस आदमी ने मुझसे बड़े अदब से कहा____"ठाकुर साहब ने आपको लाने के लिए मुझे भेजा है।"
"इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी काका।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"ईश्वर ने मुझे दो पैर दिए हैं जो कि अभी सही सलामत हैं। इस लिए मैं पैदल ही घर आ जाता।"

"ऐसा कैसे हो सकता है छोटे ठाकुर?" उस आदमी ने कहा_____"ख़ैर छोड़िये, लाइए ये थैला मुझे दीजिए।"

बग्घी से उतर कर वो आदमी मेरे पास आया और थैला लेने के लिए मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने उसे ख़ामोशी से थैला दे दिया जिसे ले कर वो एक तरफ हट गया। मैं जब बग्घी में बैठ गया तो वो आदमी भी आगे बैठ गया और फिर उसने घोड़ों की लगाम को हरकत दी तो घोड़े आवाज़ करते हुए चल दिए।

अब आगे,,,,,


सारे रास्ते मेरे ज़हन में कई तरह के ख़याल आते जाते रहे। कभी मैं ये सोचता कि मुरारी काका के हत्यारे का पता कैसे लगाऊंगा और मुरारी काका के बाद सरोज काकी और अनुराधा का क्या होगा तो कभी ये सोचने लगता कि जब मैं घर पहुंच जाऊंगा तब सब लोग मुझे देख कर क्या कहेंगे? ख़ास कर पिता जी जब मुझे देखेंगे तब उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी?

आस पास के गांवों में मेरा गांव सबसे बड़ा गांव था। ज़्यादातर मेरे ही गांव में मेरे पिता जी के द्वारा आस पास के गांवों की हर समस्या का फैसला होता था। गांव में कुछ शाहूकार लोग भी थे जो पिता जी की चोरी से ग़रीबों पर नाजायज़ रूप से जुल्म करते थे। ग़रीब लोग उनके डर से उनकी शिकायत पिता जी से नहीं कर पाते थे। यूं तो शाहूकार हमेशा हमसे दब के ही रहे थे किन्तु न‌ई पीढ़ी वाली औलाद अब सिर उठाने लगी थी।

गांव के एक छोर पर हमारी हवेली बनी हुई थी। दादा पुरखों के ज़माने की हवेली थी वो किन्तु अच्छी तरह ख़याल रखे जाने की वजह से आज भी न‌ई नवेली दुल्हन की तरह चमकती थी। हवेली के सामने एक विशाल मैदान था और छोर पर क़रीब पन्द्रह फ़ीट ऊंचा हाथी दरवाज़ा था। जगह जगह हरे भरे पेड़ पौधे और फूल लगे हुए थे जिससे हवेली की सुंदरता और भी बढ़ी हुई दिखती थी। हवेली के अंदर विशाल प्रांगण के एक तरफ कई सारी जीपें खड़ी थी और दूसरी तरफ कुछ बग्घियां खड़ी हुईं थी। जहां पर रास्ता सही नहीं होता था वहां पर बग्घी से जाया जाता था।

(दोस्तों, यहाँ पर मैं अपने ठाकुर खानदान का एक छोटा सा परिचय देना चाहूंगा ताकि कहानी को आगे चल कर पढ़ने और समझने में थोड़ी आसानी रहे।)

☆ ठाकुर सूर्य प्रताप सिंह (दादा ठाकुर/इनका स्वर्गवास हो चुका है)
☆ इन्द्राणी सिंह (दादी माँ/इनका भी स्वर्गवास हो चुका है।)

ठाकुर सूर्य प्रताप सिंह के पहले जो थे उनका इस कहानी में कोई विवरण नहीं दिया जायेगा क्योंकि उनका कहानी में कोई रोले नहीं है। इस लिए वर्तमान के किरदारों को जोड़ने के लिए दादा ठाकुर से परिचय शुरू करते हैं।

ठाकुर सूर्य प्रताप सिंह को यूं तो चार बेटे थे किन्तु सबसे बड़े और तीसरे नंबर वाले उनके बेटे बहुत पहले ईश्वर को प्यारे हो चुके थे। उनकी मौत कैसे हुई थी ये बात ना तो मुझे पता है और ना ही मैंने कभी पता करने की कोशिश की थी। ख़ैर दो तो ईश्वर को प्यारे हो गए किन्तु जो दो बचे हैं उनका परिचय इस प्रकार है।

☆ ठाकुर प्रताप सिंह (मेरे पिता जी/दादा ठाकुर)
☆ सुगंधा सिंह (मेरी माँ/बड़ी ठकुराइन)

मेरे माता पिता की दो ही संतानें हैं।
(१) ठाकुर अभिनव सिंह (मेरे बड़े भाई)
रागिनी सिंह (मेरी भाभी और बड़े भाई की पत्नी)
(२) ठाकुर वैभव सिंह (मैं)

☆ ठाकुर जगताप सिंह (मेरे चाचा जी/मझले ठाकुर)
☆ मेनका सिंह (मेरी चाची/छोटी ठकुराइन)

मेरे चाचा और चाची के तीन बच्चे हैं जो इस प्रकार हैं।
(१) ठाकुर विभोर सिंह (चाचा चाची का बड़ा बेटा)
(२) कुसुम सिंह (चाचा चाची की बेटी)
(३) ठाकुर अजीत सिंह (चाचा चाची का छोटा बेटा)

मेरे चाचा जी ज़मीन ज़ायदाद और खेती बाड़ी का सारा काम काज सम्हालते हैं। उनकी निगरानी में ही सारा काम काज होता है।

☆ चंद्रकांत सिंह (मेरे पिता जी का मुंशी)
☆ प्रभा सिंह (मुंशी की पत्नी)

मुंशी चंद्रकान्त और प्रभा को दो संताने हैं जो इस प्रकार हैं।
(१) रघुवीर सिंह (मुंशी का बेटा)
रजनी सिंह (रघुवीर की बीवी और मुंशी की बहू)
(२) कोमल सिंह (मुंशी की बेटी)

दोस्तों, तो ये था मेरे ठाकुर खानदान का संक्षिप्त परिचय। मुंशी चंद्रकान्त का परिचय भी दे दिया है क्योंकि कहानी में उसका और उसके परिवार का भी रोल है।

"छोटे ठाकुर।" मैं सोचो में गुम ही था कि तभी ये आवाज़ सुन कर मैंने बग्घी चला रहे उस आदमी की तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा____"हम हवेली पहुंच गए हैं।"

उस आदमी की ये बात सुन कर मैंने नज़र उठा कर सामने देखा। मैं सच में हवेली के विशाल मैदान से होते हुए हवेली के मुख्य दरवाज़े के पास आ गया था। चार महीने बाद हवेली में आया था। बग्घी में बैठे बैठे मैं कुछ पलों तक हवेली को देखता रहा उसके बाद बग्घी से नीचे उतरा। हवेली में आस पास मौजूद दरबान लोगों ने मुझे देखते ही अदब से सिर झुका कर मुझे सलाम किया।

मैं अभी बग्घी से नीचे उतरा ही था कि तभी हवेली के मुख्य दरवाज़े से निकल कर मेरी माँ और भाभी मेरी तरफ आईं। उनके साथ में मेरी चाची मेनका और उनकी बेटी कुसुम भी थी। सभी के चेहरे खिले हुए थे और होठों पर गहरी मुस्कान थी। माँ के हाथों में आरती की थाली थी जिसमे एक दिया जल रहा था। मेरे पास आ कर माँ ने मेरी आरती उतारी और थाली से कुछ फूल उठा कर मेरे ऊपर डाल दिया।

"आपको पता है ना कि मुझे ये सब पसंद नहीं है।" मैंने माँ से सपाट लहजे में कहा_____"फिर ये सब क्यों माँ?"
"तू एक माँ के ह्रदय को नहीं समझ सकता बेटे।" मैंने झुक कर माँ के चरणों को छुआ तो माँ ने मेरे सर पर अपना हाथ रखते हुए कहा____"ख़ैर, हमेशा खुश रह और ईश्वर तुझे सद्बुद्धि दे।"

मां से आशीर्वाद लेने के बाद मैंने मेनका चाची का आशीर्वाद लिया और फिर रागिनी भाभी के पैरों को छू कर उनका आशीर्वाद भी लिया। कुसुम दौड़ कर आई और मेरे सीने से लग गई।

"कैसी है मेरी बहना?" मैंने उसे खुद से अलग करते हुए पूछा तो उसने मुस्कुराते हुए कहा____"अब आप आ गए हैं तो अच्छी ही हो गई हूं।"
"चल अंदर चल।" माँ ने कहा तो हम सब हवेली के अंदर की तरफ चल पड़े।

हवेली के अंदर आ कर मैं एक कुर्सी पर बैठ गया। मैंने इधर उधर नज़र दौड़ाई मगर पिता जी और चाचा जी कहीं नज़र न आये मुझे और ना ही मेरा बड़ा भाई नज़र आया। चाचा जी के दोनों बेटे भी नहीं दिखे मुझे।

"बाकी सब लोग कहां हैं माँ?" मैंने माँ से पूछा____"कोई दिख नहीं रहा मुझे।"
"तेरे पिता जी तो शाम को ही किसी ज़रूरी काम से कहीं चले गए थे।" माँ ने कहा____"तेरे चाचा जी दो दिन पहले शहर गए थे किसी काम से मगर अभी तक नहीं आए और तेरा भाई दोपहर को विभोर और अजीत के साथ पास के गांव में अपने किसी दोस्त के निमंत्रण पर गया है।"

"भइया मैंने आपका कमरा साफ़ करके अच्छे से सजा दिया है।" पास में ही खड़ी कुसुम ने कहा____"बड़ी माँ ने मुझे बता दिया था कि आज शाम को आप आ जाएंगे इस लिए मैंने आपके कमरे की साफ़ सफाई अच्छे से कर दी थी।"

"जब से मेरे द्वारा इसे ये पता चला है कि तू आज शाम को आ जाएगा।" माँ ने कहा____"तब से ये पूरी हवेली में ख़ुशी के मारे इधर से उधर नाचती फिर रही है।"
"हां तो नाचने वाली बात ही तो है न बड़ी मां।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"चार महीने बाद मेरे भैया आने वाले थे। ताऊ जी के डर से मैं अपने भैया से मिलने भी नहीं जा सकी कभी।" कहने के साथ ही कुसुम मेरी तरफ पलटी और फिर मासूमियत से बोली____"भइया आप मुझसे नाराज़ तो नहीं हैं ना?"

"तू खुद ही सोच।" मैंने कहा____"कि मुझे नाराज़ होना चाहिए कि नहीं?"
"बिल्कुल नाराज़ होना चाहिए आपको।" कुसुम ने दो पल सोचने के बाद झट से कहा____"इसका मतलब आप नाराज हैं मुझसे?"

"तुझसे ही नहीं बल्कि सबसे नाराज़ हूं मैं।" मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा____"और ये नाराज़गी इतनी जल्दी ख़त्म होने वाली नहीं है। ख़ैर बाद में बात करुंगा।"

कहने के साथ ही मैं किसी की कुछ सुने बिना ही अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। चाची और भाभी रसोई में चली गईं थी। इधर मेरी बातें सुनने के बाद जहां माँ कुछ सोचने लगीं थी वहीं कुसुम के चेहरे पर मायूसी छा गई थी।

हवेली दो मंजिला थी और काफी बड़ी थी। हवेली के ज़्यादातर कमरे बंद ही रहते थे। हवेली के निचले भाग में एक तरफ पिता जी का कमरा था जो कि काफी आलीशान था। दूसरी तरफ निचले ही भाग में चाचा जी का कमरा था। हवेली के अंदर ही एक मंदिर था। हवेली के ऊपरी भाग पर सबसे किनारे पर और सबसे अलग मेरा कमरा था। मेरे कमरे के आस पास वाले सभी कमरे बंद ही रहते थे। दूसरे छोर में एक तरफ बड़े भैया और भाभी का कमरा था। उसके दूसरी तरफ के दो अलग अलग कमरे चाचा जी के दोनों बेटों के थे और उन दोनों के सामने वाला एक कमरा कुसुम का था।

मैं शुरू से ही सबसे अलग और एकांत में रहना पसंद करता था। हवेली के सभी लोग जहां पिता जी की मौजूदगी में एकदम चुप चाप रहते थे वहीं मैं अपने ही हिसाब से रहता था। मैं जब चाहे तब अपनी मर्ज़ी से कहीं भी आ जा सकता था। ऐसा नहीं था कि मैं किसी का आदर सम्मान नहीं करता था बल्कि वो तो मैं बराबर करता था किन्तु जब मुझ पर किसी तरह की पाबंदी लगाने वाली बात आती थी तब मेरा बर्ताव उग्र हो जाता था और उस सूरत में मैं किसी की एक नहीं सुनता था। फिर भले ही चाहे कोई मेरी जान ही क्यों ना लेले। कहने का मतलब ये कि मैं अच्छा तभी बना रह सकता था जब कोई मुझे किसी बात के लिए रोके टोके न और जैसे ही किसी ने रोक टोंक लगाईं वैसे ही मेरा पारा चढ़ जाता था। मुझे अपने ऊपर किसी की बंदिश ज़रा भी पसंद नहीं थी। मेरे इसी स्वभाव के चलते मेरे पिता जी मुझसे अक्सर नाराज़ ही रहते थे।

कमरे में आ कर मैंने थैले को एक कोने में उछाल दिया और पलंग पर बिछे मोटे मोटे गद्दों पर धम्म से लेट गया। आज चार महीने बाद गद्देदार बिस्तर नसीब हुआ था। कुसुम ने सच में बहुत अच्छे से सजाया था मेरे कमरे को। हम चार भाइयों में वो सबसे ज़्यादा मेरी ही लाडली थी और जितना ज़ोर उसका मुझ पर चलता था उतना किसी दूसरे पर नहीं चलता था। उसके अपने सगे भाई उसे किसी न किसी बात पर डांटते ही रहते थे। हालांकि एक भाई अजीत उससे छोटा था मगर ठाकुर का खून एक औरत ज़ात से दब के रहना हर्गिज़ गवारा नहीं करता था।

हवेली मेरे लिए एक कै़दखाना जैसी लगती थी और मैं किसी क़ैद में रहना बिलकुल भी पसंद नहीं करता था। यूं तो हवेली में काफी सारे नौकर और नौकरानियाँ थी जो किसी न किसी काम के लिए यहाँ मौजूद थे किन्तु अपनी तबियत ज़रा अलग किस्म की थी। हवेली में रहने वाली ज़्यादातर नौकरानियाँ मेरे लंड की सवारी कर चुकीं थी और ये बात किसी से छुपी नहीं थी। बहुत सी नौकरानियों को तो हवेली से निकाल भी दिया गया था मेरे इस ब्यभिचार के चक्कर में। मेरा बड़ा भाई अक्सर इस बात के लिए मुझे बुरा भला कहता रहता था मगर मैं कभी उसकी बातों पर ध्यान नहीं देता था। चाचा जी के दोनों लड़के मेरे भाई के साथ ही ज़्यादातर रहते थे। शायद उन्हें ये अच्छी तरह से समझाया गया था कि मेरे साथ रहने से वो ग़लत रास्ते पर चले जाएंगे।

हवेली के अंदर मुझसे सबसे ज़्यादा प्यार से बात करने वाला अगर कोई था तो वो थी चाचा चाची की लड़की कुसुम। वैसे तो माँ और चाची भी मुझसे अच्छे से ही बात करतीं थी मगर उनकी बातों में उपदेश देना ज़्यादा शामिल होता था जो कि अपने को बिलकुल पसंद नहीं था। रागिनी भाभी भी मुझसे बात करतीं थी किन्तु वो भी माँ और चाची की तरह उपदेश देने लगतीं थी इस लिए उनसे भी मेरा ज़्यादा मतलब नहीं रहता था। दूसरी बात ये भी थी कि उनकी सुंदरता पर मैं आकर्षित होने लगता था जो कि यकीनन ग़लत बात थी। मैं अक्सर इस बारे में सोचता और फिर यही फैसला करता कि मैं उनसे ज़्यादा बोल चाल नहीं रखूंगा और ना ही उनके सामने जाऊंगा। मैं पक्का औरतबाज़ था लेकिन अपने घर की औरतों पर मैं अपनी नीयत ख़राब नहीं करना चाहता था इसी लिए मैं हवेली में बहुत कम ही रहता था।

हवेली में पिता जी का शख़्त हुकुम था कि हवेली में काम करने वाली कोई भी नौकरानी मेरे कमरे में नहीं जाएगी और ना ही मेरे कहने पर कोई काम करेगी। अगर मैं किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करूं तो इस बात की सूचना फ़ौरन ही उन तक पहुंचाना जैसे हर किसी का पहला और आख़िरी कर्त्तव्य था। मेरे कमरे की साफ़ सफाई या तो कुसुम करती थी या फिर मां। कहने का मतलब ये कि हवेली में मेरी छवि बहुत ही ज़्यादा बदनाम किस्म की थी।

अभी मैं इन सब बातों को सोच ही रहा था कि कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई जिससे मेरा ध्यान टूटा और मैंने दरवाज़े की तरफ देखा। दरवाज़े पर कुसुम खड़ी थी। उसे देख कर मैं बस हलके से मुस्कुराया और उसे अंदर आने का इशारा किया तो वो मुस्कुराते हुए अंदर आ गई।

"वो मैं ये पूछने आई थी कि आपको कुछ चाहिए तो नहीं?" कुसुम ने कहा____"वैसे ये तो बताइये कि इतने महीनों में आपको कभी अपनी इस बहन की याद आई कि नहीं?"

"सच तो ये था बहना।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"मैं किसी को याद ही नहीं करना चाहता था। मेरे लिए हर रिश्ता और हर ब्यक्ति जैसे रह ही नहीं गया था। मुझे हर उस ब्यक्ति से नफ़रत हो गई थी जिससे मेरा ज़रा सा भी कोई रिश्ता था।"

"हां मैं समझ सकती हूं भइया।" कुसुम ने कहा____"ऐसे में तो यही होना था। मैं तो हर रोज़ बड़ी माँ से कहती थी कि मुझे अपने वैभव भैया को देखने जाना है मगर बड़ी माँ ये कह कर हमेशा मुझे रोक देती थीं कि अगर मैं आपको देखने गई तो दादा ठाकुर गुस्सा करेंगे।"

"और सुना।" मैंने विषय बदलते हुए कहा____"मेरे जाने के बाद यहाँ क्या क्या हुआ?"
"होना क्या था?" कुसुम ने झट से कहा____"आपके जाते ही बड़े भैया तो बड़ा खुश हुए थे और उनके साथ साथ विभोर भैया और अजीत भी बड़ा खुश हुआ था। सच कहूं तो आपके जाने के बाद यहाँ का माहौल ही बदल गया था। भैया लोग तो खुश थे मगर बाकी लोग ख़ामोश से हो गए थे। दादा ठाकुर तो किसी से बात ही नहीं करते थे। उनके इस ब्योहार से मेरे पिता जी भी चुप ही रहते थे। किसी किसी दिन दादा ठाकुर से बड़ी माँ आपके बारे में बातें करती थी तो दादा ठाकुर ख़ामोशी से उनकी बातें सुनते और फिर बिना कुछ कहे ही चले जाते थे। ऐसा लगता था जैसे वो गूंगे हो गए हों। मेरा तो पूछिए ही मत क्योंकि आपके जाने के बाद तो जैसे मुझ पर जुल्म करने का बाकी भाइयों को प्रमाण पत्र ही मिल गया था। वो तो भाभी थीं जिनके सहारे मैं बची रहती थी।"

"तुझे मेरे लिए एक काम करना होगा कुसुम।" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"करेगी ना?"
"आप बस हुकुम दीजिये भइया।" कुसुम ने मेरे पास आते हुए कहा____"क्या करना होगा मुझे?"

"तुझे मेरे लिये।" मैंने धीमी आवाज़ में कहा____"यहां पर हर किसी की जासूसी करनी होगी। ख़ास कर दो लोगों की। बोल करेगी ना?"
"क्या ऐसा कभी हुआ है भैया कि आपके कहने पर मैंने कोई काम ना किया हो?" कुसुम ने कहा____"आप बताइए किन दो लोगों की जासूसी करनी है मुझे और क्यों करनी है?"

"तुझे दादा ठाकुर और ठाकुर अभिनव सिंह की जासूसी करनी है।" मैंने कहा____"ये काम तुझे इस तरीके से करना है कि उनको तुम्हारे द्वारा जासूसी करने की भनक तक ना लग सके।"

"वो तो ठीक है भइया।" कुसुम ने उलझन भरे भाव से कहा____"मगर आप इन दोनों की जासूसी क्यों करवाना चाहते हैं?"
"वो सब मैं तुझे बाद में बताऊंगा कुसुम।" मैंने कहा_____"हालाँकि मेरा ख़याल है कि जब तू इन सबकी जासूसी करेगी तो तुझे भी अंदाज़ा हो ही जायेगा कि मैंने तुझे इन लोगों की जासूसी करने के लिए क्यों कहा था?"

"चलिए ठीक है मान लिया।" कुसुम ने सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन मुझे ये तो बताइए कि मुझे जासूसी करते हुए पता क्या करना है? आख़िर मुझे भी तो पता होना चाहिए ना कि मैं जिनकी जासूसी करने जा रही हूं उनसे मुझे जानना क्या है?"

"तुझे बस उनकी बातें सुननी है।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और उनकी बातें सुन कर वो सब बातें हूबहू मुझे आ कर सुरानी हैं।"
"लगता है आप मेरी पिटाई करवाना चाहते हैं उन सबसे।" कुसुम ने मासूमियत से कहा____"क्योंकि अगर उन्हें पता चल गया कि मैं उनकी बातें चोरी छुपे सुन रही हूं तो दादा ठाकुर तो शायद कुछ न कहें मगर वो तीनों भाई तो मेरी खाल ही उधेड़ देंगे।"

"ऐसा कुछ नहीं होगा।" मैंने कहा____"मेरे रहते तुझे कोई हाथ भी नहीं लगा सकता।"
"हां ये तो मुझे पता है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"ठीक है, तो मैं आज से ही जासूसी के काम में लग जाती हूं। कुछ और भी हो तो बता दीजिए।"

"और तो फिलहाल कुछ नहीं है।" मैंने कहा____"अच्छा ये बता भाभी मुझसे नाराज हैं क्या?"
"जिस दिन वो आपसे मिल कर आईं थी।" कुसुम ने कहा____"उस दिन वो बहुत रोईं थी अपने कमरे में। बड़ी माँ ने उनसे जब सब पूछा तो उन्होंने बता दिया कि आपने उन्हें क्या कहा था। उनकी बातें सुन कर बड़ी माँ को भी आप पर गुस्सा आ गया था। उधर भाभी ने तो दो दिनों तक खाना ही नहीं खाया था। हम सब उन्हें कितना मनाए थे मगर वो अपने कमरे से निकलीं ही नहीं थी। मुझे लगता है भैया कि आपको उनके साथ ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए था। भला इस सबमें उनकी क्या ग़लती थी? उन्हें तो किसी ने कहा भी नहीं था कि वो आपसे मिलने जाएं। बल्कि वो तो काफी समय से खुद ही कह रहीं थी कि उन्हें आपसे मिलने जाना है। मुझसे भी कई बार कहा था उन्होंने मगर दादा ठाकुर के डर से मैं उनके साथ नहीं जा सकती थी। उस दिन उन्होंने जब देखा कि हवेली में माँ और बड़ी माँ के सिवा कोई नहीं है तो वो चुप चाप पैदल ही हवेली से निकल गईं थी। मुझसे कहा कि वो मंदिर जा रही हैं। हालांकि मैं समझ गई थी कि वो आपके पास ही जा रहीं थी पर मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा।"

"इसका मतलब मुझे भाभी से माफ़ी मांगनी चाहिए?" मैंने गहरी सांस ले कर कहा।
"हां भइया।" कुसुम ने सिर हिलाया____"आपको भाभी से माफ़ी मांगनी चाहिए। आपको पता है एक दिन बड़े भैया उन पर बहुत गुस्सा कर रहे थे।"

"क्यो?" मैंने पूछा।
"वो इस लिए कि भाभी उनसे कह रही थी कि कैसे भाई हैं वो?" कुसुम ने कहा____"जो अपने छोटे भाई के लिए ज़रा भी चिंतित नहीं हैं। जबकि इतने महीने में उन्हें कम से कम एक बार तो आपसे मिलने जाना ही चाहिए था। भाभी की इन बातों से बड़े भैया उन पर बहुत गुस्सा हुए थे और फिर गुस्से में हवेली से चले गए थे।"

कुसुम की बातें सुन कर मैं एकदम से सोचने पर मजबूर हो गया था। इन चार महीनों में मेरे घर का कोई भी सदस्य मुझसे मिलने नहीं आया था किन्तु भाभी अपनी इच्छा से मुझसे मिलने आईं थी जबकि उन्होंने मुझसे ये कहा था कि माँ जी ने उन्हें भेजा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि भाभी मेरे लिए इतना चिंतित क्यों थी? क्या ये सिर्फ एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी या फिर इसके पीछे कोई दूसरी वजह थी? ख़ैर जो भी वजह रही हो मगर ये तो सच ही था ना कि वो मुझसे मिलने आईं थी और मैंने उन्हें बुरा भला कह कर अपने पास से जाने को बोल दिया था। मेरे मन में ख़याल उभरा कि मुझे भाभी के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था। कुसुम की बातों से मुझे पता चला कि वो भाई से भी मेरे बारे में बातें करती थी जिस पर मेरा बड़ा भाई उन पर गुस्सा करता था।

कुसुम को मैंने जाने को बोल दिया तो वो कमरे से चली गई। उसके जाने के बाद मैं काफी देर तक भाभी के बारे में सोचता रहा। कुछ देर बाद मैं उठा और भाभी के कमरे की तरफ बढ़ चला। मेरा ख़याल था कि वो शायद इस वक़्त अपने कमरे में ही होंगी। बड़े भाई के आने से पहले मैं उनसे मिल लेना चाहता था।

मैं भाभी के कमरे में पंहुचा तो देखा भाभी कमरे में नहीं थीं। रात हो गई थी और मुझे याद आया कि इस वक़्त सब खाना पीना बनाने में लगी होंगी। मैं नीचे गया और कुसुम को आवाज़ लगाईं तो वो मेरे पास भाग कर आई। मैंने कुसुम से कहा कि वो भाभी को बता दे कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं इस लिए वो ऊपर आ जाएं। मेरी बात सुन कर कुसुम सिर हिला कर चली गई जबकि मैं वापस भाभी के कमरे की तरफ बढ़ चला।

भाभी के कमरे में रखी एक कुर्सी पर मैं बैठा उनके आने का इंतज़ार कर रहा था। मेरे मन में कई सारी बातें भी चलने लगीं थी और मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं थी। थोड़ी देर में मुझे कमरे के बाहर पायलों की छम छम बजती आवाज़ सुनाई दी। मेरी धड़कनें और भी तेज़ हो गईं। तभी कमरे के दरवाज़े से भाभी ने कमरे में प्रवेश किया। भाभी का चेहरा रामानंद सागर कृत श्री कृष्णा की जामवंती जैसा था। भाभी जैसे ही कमरे में दाखिल हुईं तो मैं फ़ौरन ही कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया जबकि वो मुझे देख कर कुछ पल के लिए रुकीं और फिर कमरे में रखे बिस्तर पर बैठ गईं।

"आज सूर्य पश्चिम से कैसे उदय हो गया वैभव?" भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आज छोटे ठाकुर ने अपनी भाभी से मिलने का कष्ट क्यों किया?"
"मुझे माफ़ कर दीजिए भाभी।" मैंने गर्दन झुका कर धीमी आवाज़ में कहा____"मैं उस दिन के अपने बर्ताव के लिए आपसे माफ़ी मांगने आया हूं।"

"बड़ी हैरत की बात है।" भाभी ने जैसे ताना मारते हुए कहा____"किसी के भी सामने न झुकने वाला सिर आज अपनी भाभी के सामने झुक गया और इतना ही नहीं माफ़ी भी मांग रहा है। कसम से देवर जी यकीन नहीं हो रहा।"

"आपको जो कहना है कह लीजिए भाभी।" मैंने गर्दन को झुकाए हुए ही कहा____"किन्तु मुझे माफ़ कर दीजिए। मैं अपने उस दिन के बर्ताव के लिए बेहद शर्मिंदा हूं।"
"नहीं तुम शर्मिंदा नहीं हो सकते वैभव।" भाभी की आवाज़ मेरे करीब से आई तो मैंने गर्दन सीधी कर के उनकी तरफ देखा। वो बिस्तर से उठ कर मेरे पास आ गईं थी, फिर बोलीं____"इस हवेली में दादा ठाकुर के बाद एक तुम ही तो हो जिसमें ठाकुरों वाली बात है। तुम इस तरह गर्दन झुका कर शर्मिंदा नहीं हो सकते।"

"ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" मैं भाभी की बातें सुन कर बुरी तरह हैरान हो गया था।
"मैं वही कह रही हूं वैभव।" भाभी ने कहा____"जो सच है। माना कि कुछ मामलों में तुम्हारी छवि दाग़दार है किन्तु हक़ीक़त यही है कि तुम दादा ठाकुर के बाद उनकी जगह लेने के क़ाबिल हो।"

"मुझे उनकी जगह लेने में कोई दिलचस्पी नहीं है भाभी।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"पिता जी के बाद बड़े भैया ही उनकी जगह लेंगे। मैं तो मस्त मौला इंसान हूं और अपनी मर्ज़ी का मालिक हूं। इस तरह के काम काज करना मेरी फितरत में नहीं है। ख़ैर मैं आपसे अपने उस दिन के बर्ताव के लिए माफ़ी मांगने आया हूं इस लिए आप मुझे माफ़ कर दीजिए।"

"उस दिन तुम्हारी बातों से मेरा दिल ज़रूर दुखा था वैभव।" भाभी ने संजीदगी से कहा____"किन्तु मैं जानती हूं कि जिन हालात में तुम थे उन हालातों में तुम्हारी जगह कोई भी होता तो वैसा ही बर्ताव करता। इस लिए तुम्हें माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि मैं तो खुश हू कि जो इंसान मेरे सामने आने से भी कतराता था आज वो मुझसे मिलने आया है। मैंने तो हमेशा यही कोशिश की है कि इस हवेली की बहू के रूप में हर रिश्ते के साथ अपने फ़र्ज़ और कर्त्तव्य निभाऊं किन्तु मुझे आज तक ये समझ नहीं आया कि तुम हमेशा मुझसे किनारा क्यों करते रहते थे? अगर कोई बात थी तो मुझसे बेझिझक कह सकते थे।"

"माफ़ कीजिएगा भाभी।" मैंने कहा____"किन्तु कुछ बातों के लिए सामने वाले से किनारा कर लेने में ही सबकी भलाई होती है। आपसे कभी कोई ग़लती नहीं हुई है इस लिए आप इस बात के लिए खुद को दोष मत दीजिए।"

"भला ये क्या बात हुई वैभव?" भाभी ने मेरी आँखों में झांकते हुए कहा____"अगर तुम खुद ही मानते हो कि मुझसे कोई ग़लती नहीं हुई है तो फिर तुम मुझसे किनारा कर के क्यों रहते हो? आख़िर ऐसी कौन सी वजह है? क्या मुझे नहीं बताओगे?"

"कुछ बातों पर बस पर्दा ही पड़ा रहने दीजिए भाभी।" मैंने बेचैनी से कहा____"और जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दीजिए। अच्छा अब मैं चलता हूं।"

इससे पहले कि भाभी मुझे रोकतीं मैं फ़ौरन ही कमरे से निकल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। अब भला मैं उन्हें क्या बताता कि मैं उनसे किस लिए किनारा किये रहता था? मैं उन्हें ये कैसे बताता कि मैं उनकी सुंदरता से उनकी तरफ आकर्षित होने लगता था और अगर मैं खुद को उनके आकर्षण से न बचाता तो जाने कब का बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता।

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