[color=rgb(255,]सातवाँ अध्याय: समर्पण[/color]
[color=rgb(0,]भाग-1[/color]
भौजी के जाने के बाद अब मेरे मन में एक सवाल कोंध रहा था| क्या मैं सच में भौजी से प्यार करता हूँ? उस दिन तो मैंने बस उनका दिल रखने के लिए कह दिया था, पर भौजी उसे सच मान चुकी थीं| ये एक ऐसा सवाल था जिसने मुझे कई रात जगाये रखा, वो तो पिताजी का डर था जिसके कारन मैं पढ़ाई में मन लगा लिया करता था वर्ण इस साल मेरा फेल होना तय था| पहला पेपर एकाउंट्स का था जो बड़ा जबरदस्त हुआ जिससे मेरा आत्मविश्वास मजबूत हुआ| उसके बाद तो सारे पेपर मैंने अच्छे से दिए, रिजल्ट वाले दिन पिताजी बड़े खुश हुए और उन्होंने कहा; "बेटा अब तू बारहवीं में आ गया है, पूरे खानदान का अकेला ऐसा बच्चा जो अगले साल बारहवीं बोर्ड के पेपर देगा| अब तुझे और भी ज्यादा मेहनत करनी होगी!" पिताजी की ये बात मेरे लिए ऐसे थी मानो द्रोणाचार्य ने अर्जुन को उसका लक्ष्य दिखा दिया हो| मैंने पिताजी का आशीर्वाद लिया और उन्हें वादा किया की मैं पढ़ाई में कोई लापरवाही नहीं बरतूँगा| फिर स्कूल शुरू हुए, नई किताबें, नए कपडे आदि और फिर आईं गर्मियों की छुट्टियाँ| इन्हीं छुट्टियों का तो मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था!
छुट्टियाँ शुरू होने से पहले ही मैं पिताजी के पीछे पड़ गया की इस साल गाओं जाना है और साथ ही साथ वाराणसी मंदिरों की यात्रा भी करनी है| मैं यूँ ही कभी पिताजी से माँग नहीं करता था और इस बार तो ग्यारहवीं के पेपर वैसे ही बहुत अच्छे हुए थे तो इनाम स्वरुप पिताजी भी तैयार हो गए, तथा उन्होंने गाओं जाने की टिकट निकाल ली| गाओं जाने में दस दिन रह गए थे और मैं मन ही मन अपनी इच्छाओं की लिस्ट बना रहा था| अचानक खबर आई की पिताजी के घनिष्ठ मित्र के बेटे, जो गुजरात रहते हैं वो आज हमसे मिलने दिल्ली आ रहे हैं| मैं और भैया बचपन में एक साथ खेले थे, लड़े थे, झगडे थे और हमारे बीच में भाइयों जैसा प्यार था| उनके आने की खबर सुन के थोड़ा सा अचम्भा जर्रूर लगा की यूँ अचानक वो क्यों आ रहे हैं और एक डर सताने लगा की कहीं पिताजी इस चक्कर में गाओं जाना रद्द न कर दें| मेरा मन एक अजीब सी दुविधा में फँस गया क्योंकि एक तरफ भैया हैं जिनसे मेरी अच्छी पटती है और दूसरी तरफ भौजी हैं जो शायद मेरा कौमार्य भांग कर दें| खेर मेरे हाथ में कुछ नहीं था, उन्हें लेने स्वयं पिताजी स्टेशन पहुँचे और वे दोनों घर आ गए| मैंने उनका स्वागत किया और हम बैठ के गप्पें मारने लगे| मैं बहुत ही सामान्य तरीके से बात कर रहा था और अपने अंदर उमड़ रहे तूफ़ान को थामे हुए था| उनसे बातों ही बातों में पता चला की वे ज्यादा दिन नहीं रुकेंगे, उनका प्लान केवल 2-4 दिन का ही है| ये सुन के मेरी जान में जान आई की कम से कम गाओं जाने का प्लान तो रद्द नहीं होगा| उनके जाने से ठीक एक दिन पहले की बात है, मैं और भैया कमरे में बैठे पुराने दिन याद कर रहे थे और खाना खा रहे थे| तभी बातों ही बातों में भैया के मुख से कुछ ऐसा निकला जिससे सुन के मन सन्न रह गया;
भैया: मानु अब तुम बड़े हो गए हो, मैं तुम्हें एक बात बताना चाहता हूँ| जिंदगी में ऐसे बहुत से क्षण आते हैं जब मनुष्य गलत फैसले लेता है| वो ऐसी रह चुनता है जिसके बारे में वो जानता है की उसे बुराई की और ले जायेगी| तुम ऐसी बुराई से दूर रहना क्योंकि बुराई एक ऐसा दलदल है जिस में जो भी गिरता है वो फँस के रह जाता है|
मैं: जी मैं ध्यान रखूँगा भैया की मैं ऐसा कोई गलत फैसला न लूँ|
उस समय तो मैंने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, परन्तु रात्रि भोज के बाद जब मैं छत पर सैर कर रहा था तब उनकी कही बात के बारे में सोचने लगा| दिमाग असमन्झस की स्थिति में पड़ चूका था, मन कहता था की भौजी गाओं में मेरा इंतजार कर रहीं हैं और मैं भी उनसे मिलने और अपना कौमर्य भंग करने के लिए सज हूँ और दिमाग भैया की बात को सही मान कर मुझे भौजी के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने से रोक रहा था| मन बड़ा चंचल होता है और वो भी एक ऐसे लड़के का जिसने जवानी की दहलीज पर अभी-अभी कदम रखा हो! यही कारन था की मैंने मन की बात मानी और फिर से भौजी और अपने सुहाने सपने सजोने लग पड़ा|
आखिर वो दिन आ ही गया जिस दिन हम गाओं पहुंचे, घर पहुँचते ही सब हमारी आव भगत में जुट गए और इस बार मेरी नजरें भौजी को और भी बेसब्री से ढूँढने लगीं| भौजी मेरे लिए अपने हाथों से बना कर लस्सी का गिलास लेकर आईं और मेरे हाथों में थमाते हुए घूँघट के नीचे से अपनी कटीली मुस्कान से मुझे घायल कर गईं| जब वो वापस आई तो उनके हाथ में वही बर्तन था जिसमें वो मेरे पैर धोना चाहती थीं| पर मैं भी अपनी आदत से मजबूर था, मैंने अपने पाँव मोड़ लिए और आलथी-पालथी मार के बैठ गया| भौजी के मुख पे बनावटी गुस्सा था पर वो बोलीं कुछ नहीं| कुछ देर बाद जब लोगों का मजमा खत्म हुआ तो वो मेरे पास आईं और अपने बनावटी गुस्से में बोलीं;
भौजी: मानु मैं तुम से नाराज हूँ|
मैं: पर क्यों? मैंने ऐसा क्या कर दिया?
भौजी: तुमने मुझे अपने पैर क्यों नहीं धोने दिए?
मैं: भौजी आपकी जगह मेरे दिल में है पैरों में नहीं! (मेरा डायलाग सुन भाभी हँस दी|)
भौजी: कौन सी पिक्चर का डायलाग है?
मैं: पता नहीं, पिक्चर देखे तो एक जमाना हो गया| (मैंने भौजी को आँख मारी और उन्हें वो दिन याद दिलाया जब वो दिल्ली पहली बार आईं थी|)
भौजी: अच्छा जी!
मैं: भौजी आपको अपना वचन याद है ना?
भौजी: हाँ बाबा सब याद है, आज ही तो आये हो थोड़ा आराम करो|
मैं: भौजी मेरी थकान तो आपको देखते ही काफूर हो गई और जो कुछ बची-कूची थी भी वो आपके लस्सी के गिलास ने मिटा दी|
हम ज्यादा बात कर पाते इससे पहले ही हमारे गाँव के ठाकुर मुझसे मिलने आ गए| उन्हें देख भौजी ने घूँघट किया और थोड़ी दूर जमीन पर बैठके कुछ काम करने लगीं| एक तो मैं उस ठाकुर को जानता नहीं था और न ही मेरा मन था उससे मिलने का और दूसरा उसकी वजह से मेरी और भौजी की बातों में खलल पड़ गया था, इस कारन मुझे थोडा गुस्सा आ रहा था| ये ठाकुर जब भी गाँव में वो किसी के घर जाता तो सब खड़े हो के उसे प्रणाम करते और पहले वो बैठता उसके बाद उसकी आव-भगत होती| पर यहाँ तो मेरा रवैया देख वो थोड़ा हैरान हुआ, वो सीधा मेरे पास आके बैठा और मेरे कंधे पे हाथ रखते हुए बोला;
ठाकुर: और बताओ मुन्ना का हाल चाल है| कैसी चलत है तोहार पढ़ाई-लिखाई?
मैं: ठीक चल रही है| (मैंने उखड़े स्वर में जवाब दिया)
ठाकुर: अरे भई अब तोहार उम्र हो गई शादी-ब्याह की और तुम पढ़ाई मा जुटे हो| हमरी बात मानो तो झट से ब्याह कर लो|
उनका इतना कहना था की भौजी का मुँह बन गया|
ठाकुर: हमार बेटी से शादी करोगे? ई देखो फोटो, जवान है, सुशील है, खाना बनाने में माहिर है और दसवीं तक पढ़ी भी है ऊ भी अंग्रेजी स्कूल से|
अब भौजी का मुँह देखने लायक था, उन्हें देख के ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनकी सौत लाने का प्रस्ताव लेकर आया हो और वो भी उनके सामने| अब भौजी को मेरे जवाब का इन्तेजार था; "देखिये आप ये तस्वीर अपने पास रखिये न तो मेरा आपकी बेटी में कोई दिलचस्पी है और न ही शादी करने का अभी कोई विचार है| मैं अभी और पढ़ना चाहता हूँ, कुछ बनना चाहता हूँ|" मैंने तस्वीर बिना देखे ही उन्हें लौटा दी थी और ये जवाब सुन भौजी को बड़ी तस्सल्ली हुई की उनका देवर सिर्फ उनका है| इधर ठाकुर अपनी बेइज्जती सुन तिलमिला गया और गुस्से में मेरे पिताजी से मेरी शिकायत करने चला गया| उसके जाने के बाद भौजी ने घूंघट हटाया तो मैंने उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा देखा| "क्यों मानु, तुम्हें लड़कियों में दिलचस्पी नहीं है?" भौजी ने मुझे छेड़ते हुए पुछा|
भौजी मुझे तो आप में दिलचस्पी है|" मैंने बड़ी होशियारी से जवाब दिया जिसे सुन भौजी खिल-खिला के हँस पड़ी|
सूरज अस्त हो रहा था और अब मेरा मन भौजी को पाने के लिए बेचैन था| मुझे केवल इन्तेजार था तो बस सही मौके का| रायपुर से अशोक भैया, मधु भाभी (उनकी पत्नी) और राकेश (उनका बेटा) भी कुछ दिन के लिए आये हुए थे| सांझ होते ही राकेश, वरुण (अजय भैया का बेटा) और नेहा ने मुझे घेर लिया और मैं उनके साथ क्रिकेट खलेने लगा| कुछ समय बीता और साढ़े सात बजे थे की भौजी ने उन्हें खाना खाने के बहाने बुला लिया और वे सभी मुझे खींचते हुए भौजी के पास रसोई में ले आये| ऐसा लगा जैसे सुहागरात के समय भाभियाँ अपने देवर को कमरे के अंदर धकेल ने जा रहीं हों! भौजी ने मुझे भी खाना खाने के लिए कहा परन्तु मेरा मन तो कुछ और चाहता था, मैंने ना में सर हिला दिया| भौजी दबाव डालने लगीं, परन्तु मैंने उनसे कह दिया; "भौजी मैं आपके साथ खाना खाऊँगा|" मेरा जवाब सुन भौजी सन्न रह गईं, क्योंकि मैंने इतना धड़ल्ले से उन्हें जवाब दिया था और वो भी उन सभी बच्चों के सामने| वो तो गनीमत थी की बच्चे तब तक खाना खाने बैठ चुके थे और उन्होंने मेरी बात पर ज्यादा गौर नहीं किया| मैं भी भौजी के भाव देख हैरान था की अब मैंने कौन सा पाप कर दिया, सिर्फ उनके साथ खाना ही तो खाना चाहता हूँ| भौजी ने मुझे इशारे से कुऐं के पास बुलाया और मैं ख़ुशी-ख़ुशी वहाँ चला गया|
अमावस की रात थी, काफी अँधेरा था और मेरे मन में मस्ती सूझ रही थी| इस समय कुऐं के आस-पास रात होने के बाद कोई नहीं जाता ,था क्योंकि कुऐं में गिरना का खतरा था| जब मैं कुऐं के पास पहुँचा तो देखा भौजी खेतों की तरफ देख रहीं थी, मैंने अचानक पीछे से जाकर भौजी को अपनी बाँहों में जकड़ लिया| भौजी अचानक हुए इस हमले से सकपका गई और मेरी गिरफ्त से छूटती हुई दूर खड़ी हो गई| मैं तो उनका व्यवहार देख हैरान हो गया की आखिर उन्हें हो क्या गया? अब कोन सी मक्खी ने उन्हें लात मार दी? इससे पहले की मैं उनसे कुछ पूछता, वो खुद ही बोलीं;
भौजी: मानु तुम्हें अपने ऊपर थोड़ा काबू रखना होगा| ये गावों है, शहर नहीं यहाँ लोग हमें लेकर तरह-तरह की बातें करेंगे| (भौजी ने बड़े रूखे मन से कहा|)
मैं: पर भौजी हुआ क्या?
भौजी: अभी तुम ने जो कहा की तुम मेरे साथ खाना खाओगे और फिर ये तुमने जो मुझे पीछे से पकड़ लिया उसके लिए|
मैं: पर भौजी.... (मैंने उन्हें अपनी सफाई देनी चाही, पर भौजी बिना कुछ सुने ही बीच में बोल पड़ीं|)
भौजी: पर-वार कुछ नहीं! (भौजी ने गुस्से से जवाब दिया|)
मैं: ठीक है| मुझसे गलती हो गई, मुझे माफ़ कर दो| (मैंने सर झुकाते हुए कहा|)
इतना कह के मैं वहाँ से चल दिया और भौजी मुझे देखती रह गई| शायद उन्हें अपने कहे गए शब्दों पर पछतावा हो रहा था| मैं वापस आँगन में अपना मुँह लटकाये लौट आया और अपनी चारपाई पर सर झुका कर बैठ गया| मेरे मन में जितने भी तितलियाँ उड़ रहीं थी उनपे भौजी ने मॉर्टिन स्प्रे मार दिया था| *(मॉर्टिन स्प्रे = कीड़े मारने वाला स्प्रे|)
मेरे अनुसार मैंने कुछ भी गलत नहीं कहा था, साथ खाना खा लेने से कौन सा पहाड़ टूट जाता? ये सोचते हुए मुझे भौजी पर गुस्सा आने लगा| मैं गुस्से से उठा और अपना बिस्तरा स्वयं बिछाने लगा| मुझे बिस्तरा बिछाते देख अजय भैया ने पूछा;
अजय भैया: मानु भैया खाना खायो?
मैं: नहीं भैया, भूख नहीं है| (मैंने मुँह लटकाये हुए जवाब दिया|)
अजय भैया: कोई कछु कहिस तोहका?
मैं: नहीं तो|
अजय भैया: नहीं भैया कछु तो बात है जो तुम खाना नहीं खात हो| हम अभी सबसे पूचित है की के तोहका कछु कहिस है|
अब मुझे कैसे भी बात सम्भालनि थी वर्ण भुआजी को न सही पर मुझे डाँट जर्रूर पड़ती|
मैं: भैया ऐसी कोई बात नहीं है, दरअसल दोपहर में मैंने थोड़ा डट के खाना खा लिया था इसीलिए भूख नहीं है| ये देखो मैं हाजमोला खाने जा रहा हूँ|
ये कहते हुए मैं ने पिताजी के सिरहाने रखे बैग से हाजमोला की शीशी निकाली और उसमें से कुछ गोलियाँ खाने लगा| मैं मन ही मन में सोच रहा था की कहाँ तो आज मेरा कौमार्य भांग होना था और कहाँ मैं आज भूखे पेट सो रहा हूँ वो भी हाजमोला खा के, अब पेट में कुछ हो तब तो हाजमोला काम करे| खैर अजय भैया को इत्मीनान हो गया की मेरा पेट भरा हुआ है| मैंने अपनी चारपाई आँगन में एक कोने पर बिछाई, बाकि सब से दूर क्योंकि मैं आज अकेला रहना चाहता था| ये देख अशोक भैया बोले; "मानु भैया इतनी दूर सो रहे हो? अपनी चारपाई हमारे पास ले आओ|" चूँकि अशोक भैया रायपुर में रहते थे तो वो अब मुझसे हिंदी में ही बात करते थे|
"भैया आप लोग दिनभर खेत में मेहनत करते हो इसलिए बहत थके हुए होगे और थकावट में नींद बड़ी जबरदस्त आती है... और साथ-साथ खरांटे भी|" मैंने तर्क दिया ताकि मैं अकेला सो सकूँ| मेरी बात सुन अशोक और अजय भैया दोनों खिल-खिला के हंसने लगे| इधर मैं आँखें बंद किये हुए अपने सर पे हाथ रख के सोने की कोशिश करने लगा| पर जब पेट खाली होता है तो नींद नहीं आती, दिमाग फिर से उधेड़-बन में लगा गया की कम से कम भौजी मेरी बात तो सुन लेतीं| मैंने अगर उनके साथ खाना खाने की बात कही तो इसमें बुरा ही क्या था? पहले भी तो हम दोनों एक ही थाली में खाना खाते थे?! अभी मैं अपने मूल्यांकन में व्यस्त था की तभी मेरे कानों में खुस-फुसाहट सी आवाज सुनाई पड़ी; "मानु चलो खाना खा लो?" ये आवाज भौजी की थी, पर मैं अभी भी उनसे नाराज था इसीलिए मैंने कोई जवाब नहीं दिया और ऐसा दिखाया जैसे मैं सो रहा हूँ| तभी उन्होंने मुझे थोड़ा हिलाते हुए कहा; "मानु मैं जानती हूँ तुम सोये नहीं हो, भूखे पेट कभी नींद नहीं आती!" मैं अब भी कुछ नहीं बोला पर भौजी का मुझे मनाना जारी रहा; "मानु मुझे माफ़ कर दो, मेरा गुस्सा खाने पर मत निकालो| देखो कितने प्यार से मैंने तुम्हारे लिए खान बनाया है|" पर मैं अब भी खामोश था| "देखो अगर तुमने खाना नहीं खाया तो मैं भी नहीं खाऊँगी, मैं भी भूखे पेट सो जाऊँगी|" भौजी ने एक आखरी कोशिश करते हुए मुझे भावुक करने की कोशिश की पर उन्हें सिर्फ असफलता ही मिली क्योंकि मेर गुस्सा शांत नहीं होने वाल था| मैं अब भी किसी निर्जीव शरीर की तरह पड़ा था और भौजी को डर था की कोई हमें इस तरह देख लेगा तो बातें बनाने लगेगा इसीलिए वो वहाँ से उठ के चली गईं|
सच कहूँ तो मैं इतना भी पत्थर दिल नहीं था की अपने गुस्से के कारन दूसरों को दुःख दूँ पर मैं अपने ही द्वारा बोले झूठ में फँस चूका था| अब यदि अजय भैया मुझे खाना खाते हुए देख लेता तो समझ जाते की मैंने उनसे झूठ बोला था की मेरा पेट भरा हुआ है| कुछ समय बीता और भूख लगने लगी, अगर मैं शहर में अपने घर होता तो रसोई से कुछ न कुछ खा ही लेता पर गाओं में ये काम करने में बहुत डर लग रहा था, इसीलिए मैंने सोने की कोशिश की| इस कोशिश को कामयाबी मिलने में बहुत समय लगा और मुश्किल से तीन घंटे ही सो पाया की सुबह हो गई| गाओं में तो सभी सुबह जल्दी ही उठ जाते हैं इसलिए मुझे भी मजबूरन उठना पड़ा| तभी अशोक भैया लोटा लेके शौच के लिए जाते दिखाई दिए और मुझे भी साथ आने के लिए कहा| मैंने मुस्कुरा कर उन्हें मना कर दिया, अब उन्हें कैसे कहूँ की पेट में कुछ है ही नहीं तो निकलेगा क्या ख़ाक?!!!
मैं नहा-धो के तैयार हो गया की अब सुबह की चाय मिलेगी तो उससे रात की भूख कुछ शांत होगी| मैं नए घर के आंगन में खड़ा था और रसोई की तरफ जाने ही वाला था की भौजी अपने हाथ में दो चाय के कप ले कर मेरे समक्ष प्रकट हो गईं| उन्होने एक कप मुझे दिया और बात शुरू करते हुए मुझसे पुछा की नींद कैसी आई? नाराजगी अब भी मन में दही की तरह जमी बैठी थी इसलिए मैंने बड़े उखड़े मन से जवाब दिया; "बहुत बढ़िया... इतनी बढ़िया की क्या बताऊँ?! सोच रहा था की मैं यहाँ आया ही क्यों? इससे अच्छा तो दिल्ली में रहता|" इतना कहते हुए मैं कप अपने होठों तक लाया ही था की तभी नेहा दौड़ती हुई आई और मेरी टांगों से लिपट गई| इस अचानक हुई हरकत से मेरे हाथ से कप छूट गया और गर्म-गर्म चाय मेरे तथा नेहा के ऊपर गिर गई| कप गिरते ही भौजी नेहा पर जोर से चिल्लाईं; "बद्तमीज! देख तूने चाचा की सारी चाय गिरा दी| तुझे पता भी है चाचा ने रात से कुछ नहीं खाया और सुबह की चाय भी तूने गिरा दी! तुझे मैं अभी बताती हूँ!" इतना कहते हुए भौजी ने नेहा को मारने के लिए हाथ उठाया| अपनी माँ का रौद्र रूप और चाय गिरने की जलन के कारन नेहा रोये जा रही थी| मैंने भौजी का हाथ हवा में ही रोक दिया और नेहा को उठा के अपने कमरे में ले आया ताकि जहाँ-जहाँ चाय गिरी थी उस जगह पर दवाई लगा सकूँ| भौजी भी मेरे पीछे-पीछे आई और अपनी चाय मुझे देने लगी;
भौजी: इसे छोडो, ये लो तुम ये चाय पी लो| मैं इसे मरहम लगा देती हूँ|
मैं: नहीं रहने दो, जब मैं आपके साथ खाना नहीं खा सकता तो आपकी झूठी चाय कैसे पियूँ? (मैंने भौजी को ताना मारा|)
भौजी: अच्छा बाबा मैं दूसरी चाय ले आती हूँ| (पर भौजी मेरा ताना नहीं समझी!)
ये कहते हुए भौजी मेरे लिए दूसरी चाय लेने चली गईं और मैं नेहा को चुप करा उसके हाथ ठन्डे पानी से पोंछने लगा| शुक्र था की उसके हाथों पर कोई निशाँ नहीं था, बस जलन थी जिसे मिटाने के लिए मैंने उसके हाथ पर एंटीसेप्टिक क्रीम लगा दी| नेहा अपनी माँ के डर के मारे अभी भी सुबक रही थी, मैंने उसे गले लगाया और वो अपनी सुबकती हुई बोली; "माफ़ कर दो चाचू!" उसकी बात सुन कर मुझे उस पर बहुत प्यार आया| मैंने उसे कस कर अपने गले लगा लिया और कहा; ""कोई बात नहीं बेटा, मैं जब आपकी उम्र का था तो मैं आपसे भी ज्यादा शरारत करता था| चलो जाके खेलो, मैं तब तक ये कप के टुकड़े हटा देता हूँ नहीं तो किसी के पावों में चुभ जायेंगे|" नेहा मुस्कुराते हुए बाहर चली गई और मैं कप के टुकड़े इकठ्ठा करने लगा| इतने में भौजी वापस आईं और अपना वही कप मेरी तरफ बढ़ा दिया, मुझे शक हुआ तो मैंने पूछ लिया;
मैं: आपकी चाय कहाँ है?
भौजी: मैंने पी ली, तुम ये चाय पीओ मैं ये टुकड़े उठती हूँ| (भौजी ने मुझसे नजर चुराते हुए कहा|)
मैं: खाओ मेरी कसम की आपने चाय पी ली?
भौजी: क्यों? मैं कोई कसम- वसम नहीं खाती, तुम ये चाय पी लो| (भौजी ने उखड़ते हुए कहा|)
मैं: भौजी जूठ मत बोलो मैं जानता हूँ आपने चाय नहीं पी, क्योंकि चाय खत्म हो चुकी है|
मैंने रक तुक्का मारा तभी वहाँ मेरा भाई गट्टू आ गया;
गट्टू: अरे ई कप..... (उसकी बात पूरी होती उससे पहले ही मैं बोल पड़ा|)
मैं: मुझसे छूट गया और तुम सुनाओ क्या हाल-चाल है| (मैंने बात पलटते हुए कहा)
गट्टू: मानु चलो गाय चराने|
मैं: हाँ चलो| (मैंने तुरंत उसकी बात मान ली, क्योंकि मैं अब भी भौजी से नाराज था|)
भौजी: अरे गट्टू कहाँ ले जा रहे हो मानु को?! चाय तो पी लेने दो, कल रात से कुछ नहीं खाया| (भौजी ने मुझे रोकना चाहा पर मैंने बात घुमा दी|)
मैं: तू चल भाई, मैंने चाय पी ली है| ये भौजी की चाय है|
इतना कहता हुए हम दोनों निकल पड़े, इसे कहते हैं होठों तक आती हुई चाय भी नसीब नहीं हुई|
गट्टू के संग गाय चराने जाने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी, मैं तो भौजी को अपना गुस्सा दिखाना चाहता था| दोपहर हुई और भोजन के लिए हम दोनों अपनी गायें हाँकते हुए घर लौट आये| गट्टू तो हाथ मुँह धो कर खाना खाने बैठ गया पर मैं गायों को पानी पिलाने लग गया| भोजन हमेशा की तरह भौजी ने बनाया था पर नजाने क्यों मेरा खाना खाने की इच्छा नहीं हुई| रह-रह कर भौजी की बातें दिल में सुई की तरह चुभ रही थी और मैं भौजी से नजरें चुरा रहा था| सब लोग रसोई के पास बैठे भोजन कर रहे थे और इधर मैं अपने कमरे में आगया और चारपाई पर बैठ कुछ सोचने लगा| भूख तो अब जैसे महसूस ही नहीं हो रही थी की तभी माँ मुझे ढूँढ़ते हुए कमरे में आगई और भोजन के लिए जोर डालने लगी| मुझे मायूस बैठा देख माँ ये तो समझ चुकी थी की कुछ तो गड़बड़ है मेरे साथ, पर क्या इसका अंदाजा उन्हें नहीं था| माँ जानती थी की गाओं में केवल एक ही मेरा सच्चा दोस्त है और वो है 'भौजी'! माँ भौजी को बुलाने गई और कुछ ही देर में भौजी भोजन की दो थालियाँ ले आई| मैं समझ चूका था की भौजी मेरे और माँ के लिए भोजन परोस के लाईं हैं| भौजी ने दोनों थालियाँ सामने मेज पर रखी और मेरे सामने आकर अपने घुटनों पर बैठ गईं| उन्होंने मेरा नीचे झुका चेहरा उठाया और मेरी आँखों में देखते हुए रुँवाँसी हो कर बोलीं;
भौजी: मानु .... मुझे माफ़ कर दो!
मैं: आखिर मेरा कसूर ही क्या था? सिर्फ आपके साथ भोजन ही तो करना चाहता था, जैसे हम पहले साथ-साथ भोजन किया करते थे| इसके लिए भी आपको दुनिया दारी की चिंता है?! तो ठीक है आप सम्भालो दुनिया दारी को, मुझे तो लगा था की आप मुझसे प्यार करते हो पर आपने तो अपने और मेरे बीच में दुनियादारी की लकीर ही खींच दी!
भौजी: मानु... मेरी बात तो एक बार सुन लो! उसके बाद तुम जो सजा दोगे मुझे मंजूर है|
मैं चुप हो गया और उन्हें अपनी बात कहने का मौका दिया|
भौजी: (भौजी ने अपना सीधा हाथ मेरे सर पे रख दिया और कहने लगीं) तुम्हारे भैया कल दोपहर को मेरे साथ सम्भोग करना चाहते थे, जब मैंने उन्हें मना किया तो वो भड़क गए और मेरी और उनकी तू-तू मैं-मैं हो गई, और उनका गुस्सा मैंने गलती से तुम पर निकाल दिया| इसके लिए मुझे माफ़ कर दो, कल रात से तुम्हारे साथ मैंने भी कुछ नहीं खाया यहाँ तक की सुबह की चाय भी नहीं पी|
मैं: आपको कसम खाने की कोई जर्रूरत नहीं है, मैं आप पर आँख मूँद के विश्वास करता हूँ|
और मैंने अपने हाथ से भौजी के आँसूँ पोंछें| तभी माँ भी आ गईं, शुक्र था की माँ ने हमारी कोई बात नहीं सुनी थी| भौजी ने एक थाली माँ को दे दी और दूसरी थाली ले कर मेरे सामने पलंग पर बैठ गईं| मैं हैरान था क्योंकि मैं जानता था की हम दोनों साथ खाना नहीं खा सकते;
भौजी: चलो मानु शुरू करो| (भौजी ने चावल का एक कौर खुद खाने के लिए बनाया|)
मैं: आप मेरे साथ एक ही थाली में खाना खाओगी? (मैंने हैरान होते हुए कहा|)
भौजी: हाँ! तुम मेरे झूठा नहीं खाओगे? (भौजी ने बड़ी सरलता से मुझसे पुछा पर तभी माँ बोल पड़ीं|)
माँ: जब छोटा था तो अपनी भौजी का पीछा नहीं छोड़ता था, तेरी भौजी ही तुझे खाना खिलाती थी और अब ड्रामे तो देखो इसके!
माँ ने मुझे प्यार से डाँटा| माँ की बात सुन भौजी मुस्कुरा दीं और मैं भी मुस्कुरा दिया| माँ ने खाना जल्दी खत्म किया और अपने बर्तन लेकर रसोई की तरफ चल दीं| कमरे में केवल मैं और भौजी ही रह गए थे, अब मुझे शरारत सूझी और मैंने भौजी से कहा:
मैं: भाभी खाना तो हो गया, पर मीठे में क्या है?
भौजी मेरा मतलब समझ गईं और मुस्कुराते हुए बोलीं|
भौजी: मीठे में एक बड़ी ख़ास चीज है|
मैं: वो क्या? (मैंने हैरानी से पुछा|)
भौजी: अपनी आँखें बंद करो!!!
मैं : लो कर ली| (मैंने फ़ौरन आँख बंद कर लीं|)
भौजी धीरे-धीरे आगे बढ़ीं और मेरे थर-थराते होंठों पर अपने होंठ रख दिए| आज भौजी की प्यास मैं साफ़ महसूस कर पा रहा था, उनकी प्यास मिटाने को उनके लबों को अपने मुँह में भर के उनका रस पीना चाहता था परन्तु उन्होंने मेरे होठों को निचोड़ना शुरू कर दिया| मैं इस मर्दन को रोकना नहीं चाहता था, इसलिए आँख बंद किये हुए आनंद के सागर में गोते लगाने लगा| पर भौजी सच में बहुत प्यासी थी, इतनी प्यासी की एक पल के लिए तो मुझे लगा की भौजी को अगर मौका मिल गया तो वो मुझे खा जाएँगी| उन्होंने तो मुझे सँभालने तक का मौका भी नहीं दिया और बारी-बारी मेरे होंठों को चूसने में लगीं थी| मैं मदहोश होता जा रहा था क्योंकि मैंने तो अपने जीवन में ऐसे सुख की कल्पना भी नहीं की थी| नीचे मेरे लिंग का हाल मुझसे भी बत्तर था, वो इतना तनाव में था जैसे की अभी पैंट फाड़ के बाहर आ जायेगा| मस्ती में चूर मैंने अपना हाथ भौजी के स्तन पर रखा और उन्हें धीरे-धीरे मींजने लगा| तभी भौजी ने चुम्बन तोडा और उनके मुख से सिसकारी फुट पड़ी; "स्स्स्स्स....मानु...आअह्ह्ह्ह!!! रुको......!" मेरा अपने ऊपर से काबू छूट रहा था और मैं मर्यादा लांघने के लिए तैयार था, ठीक ऐसा ही हाल भौजी का भी था| उन्होंने मुझे दोनों कन्धों से कस कर पकड़ा और झिंझोड़ा जिससे मैं आनंद के सागर से बाहर निकला;
भौजी: मानु अभी नहीं, कोई आ जायेगा| आज रात जब सब सो जायेंगे तब जो चाहे कर लेना मैं नहीं रोकूँगी!
भौजी ने बड़ी मुश्किल से अपने दिल पर काबू करते हुए कहा| मैं उनकी बात मान गया और बोला;
मैं: भौजी मुँह मीठा कर के मजा आ गया|
भाभी: अच्छा? (भौजी मुस्कुराने लगीं|)
मैं: भौजी इस बार तो कहीं आप अपने मायके तो नहीं भाग जाओगी? (मैंने भौजी को बात घुमाते हुए चेतावनी दी|)
भौजी: नहीं मानुवादा करती हूँ की मैं तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगी और अगर गई भी तो तुम्हें साथ ले जाऊँगी|
मैं: और अपने घर में सब से क्या कहोगी की मुझे अपने संग क्यों लाई हो?
भौजी: कह दूँगी की ससुराल से दहेज़ में तुम मिले हो!
भौजी के ये कहते ही हम दोनों खिल-खिला के हँसने लगे| मैंने अपनी प्यास जाहिर करते हुए कहा;
मैं: अब शाम तक इन्तेजार कैसे करूँ?
भौजी: मानु सब्र का फल मीठा होता है!
इतना कह के भौजी मुस्कुराते हुए उठीं, उस समय मैंने जैसे-तैसे अपने आप को रोका| अपनी इच्छाओं पर काबू पाना इतना आसान नहीं होता पर फिर भी मैंने जैसे-तैसे खुद को रोक लिया|
भौजी अपनी थाली ले कर रसोई की ओर चलीं गईं| मैं अकेला यहाँ बैठ कर क्या करता इसलिए मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दिया| मेरे लिए शाम होने का इन्तेजार करना बहुत मुश्किल था, एक-एक क्षण मानो साल जैसा प्रतीत हो रहा था| मैंने सोचा की अगर रात को जो होगा सो होगा कम से कम अभी तो भौजी के साथ थोड़ी मस्ती की जाए| भौजी बर्तन रसोई में रख पुराने घर चलीं गई थीं| अपने कमरे में वो संदूक में कपडे रख रही थीं| मैंने पीछे से भौजी को दबोच लिया और अपने हाथ उनके वक्ष पे रख उन्हें होले-होले दबाने लगा| भौजी मेरी बाँहों में कसमसा रही थी और छूटने की नाकाम कोशिश करने लगीं; "स्स्स्स्स ....उम्म्म्म्म ... छोड़ो...ना..!!!!" भौजी सिसयाते हुए बोलीं| मैंने बेदर्दी न दिखाते हुए उन्हें एकदम से अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया, अब मुझे ये नहीं पता था की ये तो स्त्री की एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है| अंदर ही अंदर तो भौजी चाहती होंगी की हम कभी अलग ही ना हों|
भौजी: मानु तुम से सब्र नहीं होता ना?!
मैं: भौजी अपने ही तो आग लगाईं थी, अब आग इतनी जल्दी शांत कैसे होगी?!
मैंने मुस्कुराते हुए कहा, पर भौजी को डर था की कहीं कोई हमें एक कमरे में अकेले देख लेगा तो बातें बनाएगा, इसलिए वो बिना कुछ कहे बाहर चली आईं| मैं भी उनके पीछे-पीछे बाहर आ गया|
अजय भैया और रसिका भाभी (उनकी पत्नी) में बिलकुल नहीं बनती थी और दोनों छोटी-छोटी बात पर लड़ते रहते थे| रसिका भाभी अपना सारा गुस्सा अपने बच्चे वरुण पे उतारती, वो बिचारा दोनों के बीच में घुन की तरह पीस रहा था| पिताजी और माँ ने बहुत कोशिश की परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ| मैं जब पिछली बार गाओं आया था तब से ले कर आज तक मेरी रसिका भाभी से बात करने की हिम्मत नहीं होती, वो ज्यादातर अपने कमरे में ही रहतीं| घर का कोई काम नहीं करतीं और अगर कोई काम करने को कहता तो अपनी बिमारी का बहाना बना लेती| बाकी बच्चों की तरह वरुण भी मेरी ही गोद में खेलता रहता, मैं तो अपने गाओं का जगत चाचा बन गया था, हर बच्चा मेरे साथ ही रहना चाहता था इसी कारन मुझे भौजी के साथ अकेले रहने का समय नहीं मिल पता था| अभी मुझे आये एक दिन ही हुआ था और मेरे तीनों भतीजे और भतीजी मुझसे बहुत घुल-मिल गए थे| मधु भाभी (अशोक भैया की पत्नी) से मेरी बस दुआ-सलाम ही होती थी| उनके मन में नजाने क्यों मेरे प्रति द्वेष था| शायद इसलिए की मैं दिल्ली में रह कर पढ़ रहा था, पिताजी का अपना मकान था या फिर शायद इसलिए की घर में सबसे ज्यादा मान पिताजी, माँ और मेरा होता था! कारन मैं नहीं जानता और ना ही जानना चाहता था, जब भी वो राकेश को मेरे साथ खेलता हुआ देखतीं तो फ़ौरन उसे अपने पास बुला लेतीं|
[color=rgb(0,]जारी रहेगा भाग-2 में.....[/color]