Hindi Xkahani - प्यार का सबूत

☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 10
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अब तक,,,,,

"कुछ बातों पर बस पर्दा ही पड़ा रहने दीजिए भाभी।" मैंने बेचैनी से कहा____"और जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दीजिए। अच्छा अब मैं चलता हूं।"

इससे पहले कि भाभी मुझे रोकतीं मैं फ़ौरन ही कमरे से निकल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। अब भला मैं उन्हें क्या बताता कि मैं उनसे किस लिए किनारा किये रहता था? मैं उन्हें ये कैसे बताता कि मैं उनकी सुंदरता से उनकी तरफ आकर्षित होने लगता था और अगर मैं खुद को उनके आकर्षण से न बचाता तो जाने कब का बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता।

अब आगे,,,,,


अपने कमरे में आ कर मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया था। मेरे ज़हन में भाभी की बातें गूँज रहीं थी। भाभी ने आज पहली बार मुझसे ऐसी बातें की थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था कि मुझमे ठाकुरों वाली बात है और मैं पिता जी के बाद उनकी जगह सम्हाल सकता था? पिता जी के बाद उनकी जगह सिर्फ मेरा बड़ा भाई ही ले सकता था जबकि भाभी ने इस बारे में कोई बात ही नहीं की थी बल्कि उन्होंने तो साफ लफ्ज़ों में यही कहा था कि पिता जी के बाद मैं ही उनकी जगह ले सकता हूं। आख़िर ऐसा क्यों कहा होगा भाभी ने? उनके मन में भाई के लिए ऐसी बात क्यों नहीं थी?

काफी देर तक मैं इन सब बातों के बारे में सोचता रहा। इस बीच मेरे ज़हन से सरोज काकी और अनुराधा का ख़याल जाने कब का गायब हो चुका था। ख़ैर रात में कुसुम मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई तो मैंने उससे पूछा कि खाना खाने के लिए कौन कौन हैं नीचे तो उसने बताया कि बड़े भैया विभोर और अजीत अपने दोस्त के यहाँ से खा के ही आये हैं इस लिए वो अपने अपने कमरे में ही हैं। पिता जी और चाचा जी अभी हवेली नहीं लौटे हैं। कुसुम की बात सुन कर मैं उसके साथ ही नीचे आ गया। कुसुम से ही मुझे पता चला था कि बड़े भैया लोग आधा घंटा पहले आए थे। मैं ये सोच रहा था कि मेरा बड़ा भाई तो चलो ठीक है नहीं आया मुझसे मिलने लेकिन विभोर और अजीत तो मुझसे मिलने आ ही सकते थे। आख़िर मैं उन दोनों से बड़ा था।

मैंने एकदम से महसूस किया कि मैं अपने ही घर में अपनों के ही बीच अजनबी सा महसूस कर रहा हूं। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि इस घर का बेटा चार महीने बाद भारी कष्ट सह के हवेली लौटा था और जिसके स्वागत के लिए हवेली के हर सदस्य को पूरे मन से तत्पर हो जाना चाहिए था। इसका मतलब तो यही हुआ कि मेरे यहाँ लौटने से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था। मुझे ज़रा सा भी महसूस नहीं हो रहा था कि मेरे यहाँ आने से किसी को कोई ख़ुशी हुई है। माँ तो चलो माँ ही थी और मैं ये नहीं कहता कि उन्हें मेरे लौटने से ख़ुशी नहीं हुई थी किन्तु बाकी लोगों का क्या? ये सब सोचते ही मेरे तन बदन में जैसे आग लग गई। बड़ी बड़ी बातें करने वाले वो कौन लोग थे जो मुझे लेने के लिए मेरे पास आए थे?

खाने के लिए मैं आसन पर बैठ चुका था किन्तु ये सब सोचने के बाद मेरे अंदर फिर से आग भड़क चुकी थी और मेरा मन कर रहा था कि अभी के अभी किसी का खून कर दूं। मैं एक झटके में आसन से उठ गया। माँ थोड़ी ही दूरी पर कुर्सी में बैठी हुईं थी जबकि कुसुम और भाभी रसोई में थीं। मैं जैसे ही झटके से उठ गया तो माँ ने चौंक कर देखा मेरी तरफ।

"क्या हुआ बेटा?" फिर उन्होंने पूछा____"तू ऐसे उठ क्यों गया?"
"मेरा पेट भर गया है मां।" मैंने शख़्त भाव से किन्तु अपने गुस्से को काबू करते हुए कहा____"और आपको मेरी कसम है कि मुझसे खाने के लिए मत कहियेगा और ना ही मुझसे किसी तरह का सवाल करियेगा।"

"पर बेटा हुआ क्या है?" माँ के चेहरे पर घनघोर आश्चर्य जैसे ताण्डव करने लगा था।
"जल्दी ही आपको पता चल जाएगा।" मैंने कहा और सीढिया चढ़ते हुए ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।

मेरे जाने के बाद कुर्सी पर बैठी माँ जैसे भौचक्की सी रह गईं थी। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया था कि अचानक से मुझे क्या हो गया था जिसके चलते मैं बिना खाए ही अपने कमरे में चला गया था। मेरी और माँ की बातें रसोई के अंदर मौजूद चाची के साथ साथ भाभी और कुसुम ने भी सुनी थी और वो सब फ़ौरन ही रसोई से भाग कर इस तरफ आ गईं थी।

"अरे! वैभव कहां गया दीदी?" मेनका चाची ने हैरानी से पूछा।
"वो अपने कमरे में चला गया है।" माँ ने कहीं खोए हुए भाव से कहा____"मैं समझ नहीं पा रही हूं कि अचानक से उसे हुआ क्या था जिसकी वजह से वो उठ कर इस तरह चला गया और मुझे अपनी कसम दे कर ये भी कह गया कि मैं उसे खाने के लिए न कहूं और ना ही उससे कोई सवाल करूं।"

"बड़ी अजीब बात है।" चाची ने हैरानी से कहा____"पर मुझे लगता है कुछ तो बात ज़रूर हुई है दीदी। वैभव बिना किसी वजह के इस तरह नहीं जा सकता।"
"कुसुम तू जा कर देख ज़रा।" माँ ने कुसुम से कहा____"तू उससे पूछ कि वो इस तरह क्यों बिना खाए चला गया है? वो तेरी बात नहीं टालेगा इस लिए जा कर पूछ उससे।"
"ठीक है बड़ी मां।" कुसुम ने कहा____"मैं भैया से बात करती हूं इस बारे में।"

कुसुम कुछ ही देर में मेरे कमरे में आ गई। मैं बिस्तर पर आँखे बंद किये लेटा हुआ था और अपने अंदर भड़कते हुए भयंकर गुस्से को सम्हालने की कोशिश कर रहा था।

कुसुम मेरे पास आ कर बिस्तर में ही किनारे पर बैठ गई। इस वक़्त मेरे अंदर भयानक गुस्सा जैसे उबाल मार रहा था और मैं नहीं चाहता था कि मेरे इस गुस्से का शिकार कुसुम हो जाए।

"तू यहाँ से जा कुसुम।" मैंने शख़्त भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।"
"मैं इतना तो समझ गई हूं भैया कि आप किसी वजह से बेहद गुस्सा हो गए हैं।" कुसुम ने शांत लहजे में कहा___"किन्तु मैं ये नहीं जानती कि आप किस वजह से इतना गुस्सा हो गए कि बिना कुछ खाए ही यहाँ चले आए? भला खाने से क्या नाराज़गी भैया?"

"मैंने तुझसे कहा न कि इस वक़्त मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं हूं।" मैंने इस बार उसे गुस्से से देखते हुए कहा____"एक बार में तुझे कोई बात समझ में नहीं आती क्या?"

"हां नहीं आती समझ में।" कुसुम ने रुआंसे भाव से कहा____"आप भी बाकी भाइयों की तरह मुझे डांटिए और मुझ पर गुस्सा कीजिए। आप सबको तो मुझे ही डांटने में मज़ा आता है ना। जाइए नहीं बात करना अब आपसे।"

कुसुम ये सब कहने के साथ ही सिसकने लगी और चेहरा दूसरी तरफ कर के मेरी तरफ अपनी पीठ कर ली। उसके इस तरह पीछा कर लेने से और सिसकने से मेरा गुस्सा ठंडा पड़ने लगा। मैं जानता था कि मेरे द्वारा उस पर इस तरह गुस्सा करने से उसे दुःख और अपमान लगा था जिसकी वजह से वो सिसकने लगी थी। दुःख और अपमान इस लिए भी लगा था क्योंकि मैं कभी भी उस पर गुस्सा नहीं करता था बल्कि हमेशा उससे प्यार से ही बात करता था।

"इधर आ।" फिर मैंने नरम लहजे में उसे पुकारते हुए कहा तो उसने मेरी तरफ पलट कर देखा। मैंने अपनी बाहें फैला दी थी जिससे उसने पहले अपने दुपट्टे से अपने आँसू पोंछे और फिर खिसक कर मेरे पास आ कर मेरी बाहों में समा ग‌ई।

"आप बहुत गंदे हैं।" उसने मेरे सीने से लगे हुए ही कहा____"मैं तो यही समझती थी कि आप बाकियों से अच्छे हैं जो मुझ पर कभी भी गुस्सा नहीं कर सकते।"

"चल अब माफ़ कर दे ना मुझे।" मैंने उसके सिर पर हांथ फेरते हुए कहा____"और तुझे भी तो समझना चाहिए था न कि मैं उस वक़्त गुस्से में था।"
"आप चाहे जितने गुस्से में रहिए।" कुसुम ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"मगर आप मुझ पर गुस्सा नहीं कर सकते। ख़ैर छोड़िये और ये बताइए कि किस बात पर इतना गुस्सा हो गए थे आप?"

"ये हवेली और इस हवेली में रहने वाले लोग मुझे अपना नहीं समझते कुसुम।" मैंने भारी मन से कहा____"मैं ये मानता हूं कि मैंने आज तक हमेशा वही किया है जो मेरे मन ने कहा और जो मैंने चाहा मगर मेरी ग़लतियों के लिए मुझे घर गांव से ही निष्कासित कर दिया गया। मैंने चार महीने न जाने कैसे कैसे दुःख सहे। इन चार महीनों में मुझे ज़िन्दगी के असल मायने पता चले और मैं बहुत हद तक सुधर भी गया। सोचा था कि अब वैसा नहीं रहूंगा जैसा पहले हुआ करता था मगर शायद मेरे नसीब में अच्छा बनना लिखा ही नहीं है कुसुम।"

"ऐसा क्यों सोचते हैं आप?" कुसुम ने लरज़ते हुए स्वर में कहा___"मेरी नज़र में तो आप हमेशा से ही अच्छे थे। कम से कम आप ऐसे तो थे कि जो भी करते थे उसका पता सबको चलता था मगर कुछ लोग तो ऐसे भी हैं भैया जो ऐसे काम करते हैं जिनके बारे में दूसरों को भनक तक नहीं लगती और मज़ेदार बात ये कि उस काम को भी वो लोग गुनाह नहीं समझते।"

"ये क्या कह रही है तू?" मैंने चौंक कर कुसुम की तरफ देखा। कुसुम मेरे सीने पर ही छुपकी हुई थी और उसके सीने का एक ठोस उभार मेरे बाएं सीने पर धंसा हुआ था। हालांकि मेरे ज़हन में उसके प्रति कोई ग़लत भावना नहीं थी। मैं तो इस वक़्त उसकी इन बातों पर चौंक गया था। उधर मेरे पूछने पर कुसुम ऐसे हड़बड़ाई थी जैसे अचानक ही उसे याद आया हो कि ये उसने क्या कह दिया है मुझसे।

"कुछ भी तो नहीं।" फिर उसने मेरे सीने से उठ कर बात को बदलते हुए कहा____"वो मैं तो दुनियां वालों की बात कर रही थी भ‌इया। इस दुनियां में ऐसे भी तो लोग हैं ना जो गुनाह तो करते हैं मगर सबसे छुपा कर और सबकी नज़र में अच्छे बने रहते हैं।"

"तू मुझसे कुछ छुपा रही है?" मैंने कुसुम के चेहरे पर ग़ौर से देखते हुए कहा____"मुझे सच सच बता कुसुम कि तू किसकी बात कर रही थी?"
"आप भी कमाल करते हैं भइया।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने गंभीर हो कर इतनी गहरी बात क्या कह दी आप तो एकदम से विचलित ही हो ग‌ए।"

कुसुम की इस बात पर मैं कुछ न बोला बल्कि ध्यान से उसकी तरफ देखता रह गया था। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि आज से पहले तो कभी कुसुम ने ऐसी गंभीर बातें मुझसे नहीं कही थी फिर आज ही उसने ऐसा क्यों कहा था? आख़िर उसकी बातों में क्या रहस्य था?

"इतना ज़्यादा मत सोचिये भइया।" मुझे सोचो में गुम देख उसने कहा____"सच एक ऐसी शय का नाम है जो हर नक़ाब को चीर कर अपना असली रूप दिखा ही देता है। ख़ैर छोड़िये इस बात को और ये बताइए कि क्या मैं आपके लिए यहीं पर खाना ले आऊं?"

"मुझे भूख नहीं है।" मैंने बिस्तर के सिरहाने पर अपनी पीठ टिकाते हुए कहा____"तू जा और खा पी कर सो जा।"
"अगर आप नहीं खाएँगे तो फिर मैं भी नहीं खाऊंगी।" कुसुम ने जैसे ज़िद की___"अब ये आप पर है कि आप अपनी बहन को भूखा रखते हैं या उसके पेट में उछल कूद मचा रहे चूहों को मार भगाना चाहते हैं।"

"अच्छा ठीक है जा ले आ।" मैंने हलके से मुस्कुराते हुए कहा____"हम दोनों यहीं पर एक साथ ही खाएँगे।"
"ये हुई न बात।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"मैं अभी खाने की थाली सजा के लाती हूं।"

कहने के साथ ही कुसुम बिस्तर से नीचे उतर कर कमरे से बाहर चली गई। उसके जाने के बाद मैं फिर से उसकी बातों के बारे में सोचने लगा। आख़िर क्या था उसके मन में और किस बारे में ऐसी बातें कह रही थी वो? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ चकराने लगा किन्तु कुछ समझ में नहीं आया। मेरे पूछने पर उसने बात को बड़ी सफाई से घुमा दिया था।

मेरा स्वभाव तो बचपन से ही ऐसा था किन्तु जब से होश सम्हाला था और जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा था तब से मैं कुछ ज़्यादा ही लापरवाह और मनमौजी किस्म का हो गया था। मैंने कभी इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा था कि मेरे आगे पीछे जो बाकी लोग थे उनका जीवन कैसे गुज़र रहा था? बचपन से औरतों के बीच रहा था और धीरे धीरे औरतों में दिलचस्पी लेने लगा था। दोस्तों की संगत में मैं कम उम्र में ही वो सब जानने समझने लगा था जिसे जानने और समझने की मेरी उम्र नहीं थी। जब ऐसे शारीरिक सुखों का ज्ञान हुआ तो मैं घर की नौकरानियों पर ही उन सुखों को पाने के लिए डोरे डालने लगा था। बड़े खानदान का बेटा था जिसके पास किसी चीज़ की कमी नहीं थी और जिसका हर कहा मानना जैसे हर नौकर और नौकरानी का फर्ज़ था। बचपन से ही निडर था मैं और दिमाग़ भी काफी तेज़ था इस लिए हवेली में रहने वाली नौकरानियों से जिस्मानी सुख प्राप्त करने में मुझे ज़्यादा मुश्किल नहीं हुई।

जब एक बार जिस्मों के मिलन से अलौकिक सुख मिला तो फिर जैसे उस अलौकिक सुख को बार बार पाने की इच्छा और भी तीव्र हो गई। जिन नौकरानियों से मेरे जिस्मानी सम्बन्ध बन जाते थे वो मेरे और दादा ठाकुर के भय की वजह से हमारे बीच के इस राज़ को अपने सीने में ही दफ़न कर लेतीं थी। कुछ साल तो ऐसे ही मज़े में निकल गए मगर फिर ऐसे सम्बन्धों का भांडा फूट ही गया। बात दादा ठाकुर यानी मेरे पिता जी तक पहुंची तो वो बेहद ख़फा हुए और मुझ पर कोड़े बरसाए गए। मेरे इन कारनामों के बारे में जान हर कोई स्तब्ध था। ख़ैर दादा ठाकुर के द्वारा कोड़े की मार खा कर कुछ समय तक तो मैंने सब कुछ बंद ही कर दिया था मगर उस अलौकिक सुख ही लालसा फिर से ज़ोर मारने लगी थी और मैं औरत के जिस्म को सहलाने के लिए तथा उसे भोगने के लिए जैसे तड़पने लगा था। अपनी इस तड़प को मिटाने के लिए मैंने फिर से हवेली की एक नौकरानी को फंसा लिया और उसके साथ उस अलौकिक सुख को प्राप्त करने लगा। इस बार मैं पूरी तरह सावधान था कि मेरे ऐसे सम्बन्ध का पता किसी को भी न चल सके मगर दुर्भाग्य से एक दिन फिर से मेरा भांडा फूट गया और दादा ठाकुर के कोड़ों की मार झेलनी पड़ गई।

दादा ठाकुर के कोड़ों की मार सहने के बाद मैं यही प्रण लेता कि अब दुबारा ऐसा कुछ नहीं करुंगा मगर हप्ते दस दिन बाद ही मेरा प्रण डगमगाने लगता और मैं फिर से हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे सुलाने पर विवश कर देता। हालांकि अब मुझ पर निगरानी रखी जाने लगी थी मगर अपने लंड को तो चूत का स्वाद लग चुका था और वो हर जुल्म ओ सितम सह कर भी चूत के अंदर समाना चाहता था। एक दिन ऐसा आया कि दादा ठाकुर ने हुकुम सुना दिया कि हवेली की कोई भी नौकरानी मेरे कमरे में नहीं जाएगी और ना ही मेरा कोई काम करेगी। दादा ठाकुर के इस हुकुम के बाद मेरे लंड को चूत मिलनी बंद हो गई और ये मेरे लिए बिलकुल भी ठीक नहीं हुआ था।

वैसे कायदा तो ये था कि मुझे उसी समय ये सब बंद कर देना चाहिए था जब दादा ठाकुर तक मेरे ऐसे सम्बन्धों की बात पहली बार पहुंची थी। कायदा तो ये भी था कि ऐसे काम के लिए मुझे बेहद शर्मिंदा भी होना चाहिए था मगर या तो मैं बेहद ढीठ किस्म का था या फिर मेरे नसीब में ही ये लिखा था कि इसी सब के चलते आगे मुझे बहुत कुछ देखना पड़ेगा और साथ ही बड़े बड़े अज़ाब सहने होंगे। हवेली में नौकरानियों की चूत मिलनी बंद हुई तो मैंने हवेली के बाहर चूत की तलाश शुरू कर दी। मुझे क्या पता था कि हवेली के बाहर चूतों की खदान लगी हुई मिल जाएगी। अगर पता होता तो हवेली के बाहर से ही इस सबकी शुरुआत करता। ख़ैर देर आए दुरुस्त आए वाली बात पर अमल करते हुए मैं हवेली के बाहर गांव में ही किसी न किसी लड़की या औरत की चूत का मज़ा लूटने लगा। कुछ तो मुझे बड़ी आसानी से मिल जातीं थी और कुछ के लिए जुगाड़ करना पड़ता था। कहने का मतलब ये कि हवेली से बाहर आनंद ही आनंद मिल रहा था। छोटे ठाकुर का पद मेरे लिए वरदान साबित हो रहा था। कितनों की तो पैसे दे कर मैंने बजाई थी मगर बाहर का ये आनंद भी ज़्यादा दिनों तक मेरे लिए नहीं रहा। मेरे कारनामों की ख़बर दादा ठाकुर के कानों तक पहुंच गई और एक बार फिर से उनके कोड़ों की मार मेरी पीठ सह रही थी। दादा ठाकुर भला ये कैसे सहन कर सकते थे कि मेरे इन खूबसूरत कारनामों की वजह से उनके नाम और उनके मान सम्मान की धज्जियां उड़ जाएं?

कहते हैं न कि जिसे सुधरना होता है वो एक बार में ही सुधर जाता है और जिसे नहीं सुधारना होता उस पर चाहे लाख पाबंदिया लगा दो या फिर उसको सज़ा देने की इन्तेहाँ ही कर दो मगर वो सुधरता नहीं है। मैं उन्हीं हस्तियों में शुमार था जिन्हें कोई सुधार ही नहीं सकता था। ख़ैर अपने ऊपर हो रहे ऐसे जुल्मों का असर ये हुआ कि मैं अपनों के ही ख़िलाफ़ बागी जैसा हो गया। अब मैं छोटा बच्चा भी नहीं रह गया था जिससे मेरे अंदर किसी का डर हो, बल्कि अब तो मैं एक मर्द बन चुका था जो सिर्फ अपनी मर्ज़ी का मालिक था।

"अब आप किन ख़यालों में खोये हुए हैं?" कुसुम की इस आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा और मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने आगे कहा____"ख़यालों से बाहर आइए और खाना खाइए। देखिए आपके मन पसंद का ही खाना बनाया है हमने।"

कुसुम हाथ में थाली लिए मेरे बिस्तर के पास आई तो मैं उठ कर बैठ गया। मेरे बैठते ही कुसुम ने थाली को बिस्तर के बीच में रखा और फिर खुद भी बिस्तर पर आ कर मेरे सामने बैठ गई।

"चलिए शुरू कीजिए।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"या फिर कहिए तो मैं ही खिलाऊं आपको?"
"अपने इस भाई से इतना प्यार और स्नेह मत कर बहना।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"अगर मैं इतना ही अच्छा होता तो मेरे यहाँ आने पर मेरे बाकी भाई लोग खुश भी होते और मुझसे मिलने भी आते। मैं उनका दुश्मन तो नहीं हूं ना?"

"किसी और के खुश न होने से या उनके मिलने न आने से।" कुसुम ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"आप क्यों इतना दुखी होते हैं भैया? आप ये क्यों नहीं सोचते हैं कि आपके आने से मैं खुश हूं, बड़ी माँ खुश हैं, मेरी माँ खुश हैं और भाभी भी खुश हैं। क्या हमारी ख़ुशी आपके लिए कोई मायने नहीं रखती?"

"अगर मायने नहीं रखती तो इस वक़्त मैं इस हवेली में नहीं होता।" मैंने कहा____"बल्कि इसी वक़्त यहाँ से चला जाता और इस बार ऐसा जाता कि फिर लौट कर कभी वापस नहीं आता।"

"आप मुझसे बड़े हैं और दुनियादारी को आप मुझसे ज़्यादा समझते हैं।" कुसुम ने कहा____"इस लिए आप ये जानते ही होंगे कि इस दुनिया में किसी को भी सब कुछ नहीं मिल जाया करता और ना ही हर किसी का साथ मिला करता है। अगर कोई हमारा दोस्त बनता है तो कोई हमारा दुश्मन भी बनता है। किसी बात से अगर हम खुश होते हैं तो दूसरी किसी बात से हम दुखी भी होते हैं। ये संसार सागर है भ‌इया, यहाँ हर चीज़ के जोड़े बने हैं जो हमारे जीवन से जुड़े हैं। एक अच्छा इंसान वो है जो इन जोड़ों पर एक सामान प्रतिक्रिया करता है। फिर चाहे सुख हो या दुःख।"

"इतनी गहरी बातें कहा से सीखी हैं तूने?" कुसुम की बातें सुन कर मैंने हैरानी से उससे पूछा।
"वक्त और हालात सब सिखा देते हैं भइया।" कुसुम ने हलकी मुस्कान के साथ कहा____"मुझे आश्चर्य है कि आप ऐसे हालातों में भी ये बातें सीख नहीं पाए या फिर ये हो सकता है कि आप ऐसी बातों पर ध्यान ही नहीं देना चाहते।"

"ये तो तूने सच कहा कि ऐसी बातें वक़्त और हालात सिखा देते हैं।" मैंने कुसुम की गहरी आँखों में झांकते हुए कहा____"किन्तु मैं ये नहीं समझ पा रहा हूं कि तुझे ऐसी बातें कैसे पता हैं, जबकि तू ऐसे हालातों में कभी पड़ी ही नहीं?"

"ऐसा आप सोचते हैं।" कुसुम ने थाली से रोटी का एक निवाला तोड़ते हुए कहा____"जबकि आपको सोचना ये चाहिए था कि अगर मुझे ऐसी बातें पता हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि मैंने भी ऐसे हालात देखे ही होंगे। ख़ैर छोड़िए इस बात को और अपना मुँह खोलिए। खाना नहीं खाना है क्या आपको?"

कुसुम ने रोटी के निवाले में सब्जी ले कर मेरी तरफ निवाले को बढ़ाते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए अपना मुँह खोल दिया। उसने मेरे खुले हुए मुख में निवाला डाला तो मैं उस निवाले को चबाने लगा और साथ ही उसके चेहरे को बड़े ध्यान से देखने भी लगा। चार महीने पहले जिस कुसुम को मैंने देखा था ये वो कुसुम नहीं लग रही थी मुझे। इस वक़्त जो कुसुम मेरे सामने बैठी हुई थी वो पहले की तरह चंचल और अल्हड़ नहीं थी बल्कि इस कुसुम के चेहरे पर तो एक गंभीरता झलक पड़ती थी और उसकी बातों से परिपक्वता का प्रमाण मिल रहा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर इन चार महीनों में उसके अंदर इतना बदलाव कैसे आ गया था?
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 11
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अब तक,,,,,

कुसुम ने रोटी के निवाले में सब्जी ले कर मेरी तरफ निवाले को बढ़ाते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए अपना मुँह खोल दिया। उसने मेरे खुले हुए मुख में निवाला डाला तो मैं उस निवाले को चबाने लगा और साथ ही उसके चेहरे को बड़े ध्यान से देखने भी लगा। चार महीने पहले जिस कुसुम को मैंने देखा था ये वो कुसुम नहीं लग रही थी मुझे। इस वक़्त जो कुसुम मेरे सामने बैठी हुई थी वो पहले की तरह चंचल और अल्हड़ नहीं थी बल्कि इस कुसुम के चेहरे पर तो एक गंभीरता झलक पड़ती थी और उसकी बातों से परिपक्वता का प्रमाण मिल रहा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर इन चार महीनों में उसके अंदर इतना बदलाव कैसे आ गया था?

अब आगे,,,,,


"क्या बात है।" अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी कमरे के दरवाज़े से ये आवाज़ सुन कर मैंने और कुसुम ने दरवाज़े की तरफ देखा। दरवाज़े पर रागिनी भाभी खड़ीं थी। हम दोनों को अपनी तरफ देखते देख भाभी ने मुस्कुराते हुए आगे कहा____"भाई बहन के बीच तो बड़ा प्यार दिख रहा है आज।"

"तो क्या नहीं दिखना चाहिए भाभी?" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा तो रागिनी भाभी मुस्कुराते हुए हमारे पास आईं और अपने दोनों हाथो में लिए हुए पानी से भरे जग और गिलास को बिस्तर में ही एक तरफ रख दिया और फिर बोलीं____"मैंने ऐसा तो नहीं कहा और ना ही मैं ऐसा कहूंगी, बल्कि मैं तो ये कहूंगी कि भाई बहन के बीच ये प्यार हमेशा ऐसे ही बना रहे मगर...!"

"मगर क्या भाभी?" कुसुम ने सवालिया निगाहों से उनकी तरफ देखते हुए पूछा।
"मगर ये कि दोनों भाई बहन अपने प्यार में।" भाभी ने अपनी उसी मुस्कान के साथ कहा____"अपनी इस बेचारी भाभी को मत भूल जाना। आख़िर हमारा भी तो कहीं कोई हक़ होगा। क्यों देवर जी?"

"ज..जी जी क्यों नहीं।" भाभी ने अचानक से मुझसे पूछा तो मैंने हड़बड़ा कर यही कहा जिससे भाभी के होठों की मुस्कान और गहरी हो गई जबकि कुसुम ने भाभी के बोलने से पहले ही कहा____"आपके असली हक़दार तो आपके कमरे में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं भाभी।"

"चुप बेशरम।" भाभी ने आँखे दिखाते हुए कुसुम से कहा____"मैं तो अपने देवर जी से अपने हक़ की बात कर रही थी।"

भाभी की ये बात सुन कर मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखा। आज ये दूसरी बार था जब उनकी बातों से मैं हैरान हुआ था। आज से पहले भाभी ने कभी मुझसे इस तरह हैरान कर देने वाली बातें नहीं की थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उनके मन में आख़िर चल क्या रहा है?

"बड़े भैया को अगर पता चल गया कि आप अपने देवर जी के कमरे में हैं और उनसे हक़ की बात कर रही हैं।" कुसुम की इस बात से मेरा ध्यान उसकी तरफ गया____"तो आज फिर वो आप पर गुस्सा हो जाएंगे।"

"मैं भी एक ठाकुर की बेटी हूं और मेरे अंदर भी ठाकुरों का खून दौड़ रहा है कुसुम।" भाभी ने पुरे आत्मविश्वास के साथ कहा____"इस लिए मैं किसी के गुस्से की परवाह नहीं करती और ना ही मैं किसी के गुस्से से डरती हूं।"

"वाह! क्या बात है भाभी।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"आज तो आप अलग ही रूप में नज़र आ रही हैं। कोई ख़ास बात है क्या?"
"ख़ास बात तो कुछ नहीं है मेरी प्यारी ननद रानी।" भाभी ने एक नज़र मेरी तरफ डालने के बाद मुस्कुराते हुए कहा____"मन में बस ये ख़याल आ गया कि कुछ बातों में मुझे भी अपने देवर जी जैसा होना चाहिए।"

रागिनी भाभी की बातें मुझे झटके पे झटके दे रहीं थी। दो साल पहले उनकी शादी मेरे बड़े भाई से हुई थी और तब से मैं उन्हें जानता था कि वो इतना खुल कर किसी से नहीं बोलतीं थी। ख़ास कर मुझसे तो बिलकुल भी नहीं। ये अलग बात है कि उन्हें मुझसे बोलने का मौका ही नहीं मिल पाता था क्योकि मैं उनसे हमेशा दूर दूर ही रहता था।

"अच्छा ऐसी बात है क्या?" कुसुम ने हंसते हुए कहा____"ज़रा मुझे भी तो बताइए भाभी कि ऐसी किन बातों में आप भैया जैसी होने की बात कह रही हैं?"
"किसी चीज़ की परवाह न करना।" भाभी ने एक बार फिर मेरी तरफ देख कर कुसुम से कहा____"और ना ही किसी से डरना।"

"अच्छा तो आप ऐसा समझती हैं कि भैया को किसी चीज़ की परवाह नहीं होती?" कुसुम ने मेरी तरफ नज़र डालते हुए कहा____"और ना ही वो किसी से डरते हैं?"
"अब तक तो ऐसा ही समझती थी मैं।" भाभी ने अजीब भाव से कहा____"पर लगता है अब ऐसा नहीं है। देवर जी में अब बदलाव आ गया है कुसुम। वो अब चीज़ों की परवाह करने लगे हैं और शायद हर किसी से डरने भी लगे हैं।"

"ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" कुसुम ने इस बार हैरानी से कहा____"मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया।"
"जाने दो कुसुम।" भाभी ने कहा____"मुझे लगता है कि देवर जी को मेरा यहाँ आना पसंद नहीं आ रहा है। अच्छा अब तुम दोनों आराम से खाओ, मैं जा रही हूं यहां से।"

इससे पहले कि कुसुम उनसे कुछ कहती वो मेरी तरफ देखने के बाद पलटीं और कमरे से बाहर चली गईं। उन्हें इस तरह जाते देख जाने क्यों मैंने राहत की सांस ली। इधर उनके जाने के बाद कुसुम ने मेरी तरफ देखा और फिर थाली से रोटी का टुकड़ा तोड़ने लगी।

"क्या आपको समझ में आया कि भाभी क्या कह रहीं थी?" कुसुम ने निवाले को अपने मुँह में डालने के बाद कहा____"आज उनका लहजा बदला बदला सा लग रहा था मुझे।"

"मैं इन सब बातों पर ध्यान नहीं देता।" मैंने बात को टालने की गरज़ से कहा____"चुप चाप खाना खाओ और हां अपने उस काम पर भी ध्यान दो जिसके लिए मैंने कहा है तुझसे।"
"ठीक है भइया।" कुसुम ने कहा और फिर उसने चुप चाप खाना खाना शुरू कर दिया। उसके साथ मैं भी ख़ामोशी से खाने लगा था और साथ ही भाभी की बातों के बारे में सोचता भी जा रहा था।

खाना खाने के बाद कुसुम थाली ले कर कमरे से चली गई। उसके जाने के बाद मैंने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद किया और बिस्तर पर लेट गया। भाभी का बर्ताव मुझे बहुत अजीब लगा था। वो बातें भले ही कुसुम से कर रहीं थी किन्तु वो सुना मुझे ही रहीं थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर वो मुझसे चाहती क्या हैं? इतना तो उन्होंने मुझसे भी कहा था कि दादा ठाकुर के बाद मैं उनकी जगह ले सकता हूं मगर उनके ऐसा कहने के पीछे क्या वजह थी ये नहीं बताया था उन्होंने। हलांकि मैंने उनसे इसकी वजह पूछी भी नहीं थी।

चार महीने बाद हवेली में लौट कर आया था और आते ही हवेली के दो लोगों ने मुझे हैरान किया था और सोचने पर भी मजबूर कर दिया था। मेरे भाइयों का बर्ताव भी पहले की अपेक्षा कुछ ज़्यादा ही बदला हुआ था। कुछ तो ज़रूर चल रहा था यहाँ मगर क्या इसका पता लगाना जैसे अब ज़रूरी हो गया था मेरे लिए। अब सवाल ये था कि इस सबके बारे में पता कैसे करूं? हलांकि मैंने कुसुम को जासूसी के काम में लगा दिया था किन्तु सिर्फ उसके भरोसे नहीं रह सकता था मैं। यानी मुझे खुद कुछ न कुछ करना होगा।

मैने महसूस किया कि यहाँ आते ही मैं एक अलग ही चक्कर में पड़ गया था जबकि यहाँ आने से पहले मेरे ज़हन में सिर्फ यही था कि मैं मुरारी काका के हत्यारे का पता लगाऊंगा और उसके परिवार के बारे में भी सोचूंगा। मुरारी काका की हत्या का मामला भी मेरे लिए एक रहस्य जैसा बना हुआ था जिसके रहस्य का पता लगाना मेरे लिए ज़रूरी था क्योंकि उसी मामले से मेरी फसल में आग लगने का मामला भी जुड़ा हुआ था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मेरी फसल को इस तरह से किसने आग लगाईं होगी? क्या फसल में आग लगाने वाला और मुरारी काका की हत्या करने वाला एक ही ब्यक्ति हो सकता है? सवाल बहुत सारे थे मगर जवाब एक का भी नहीं था मेरे पास।

चार महीने पहले अच्छी खासी ज़िन्दगी गुज़र रही थी अपनी। बेटीचोद किसी बात की चिंता नहीं थी और ना ही मैं किसी के बारे में इतना सोचता था। हर वक़्त अपने में ही मस्त रहता था मगर महतारीचोद ये शादी वाला लफड़ा क्या हुआ अपने तो लौड़े ही लग गए। मेरे बाप ने खिसिया कर मुझे गांव से निष्कासित कर दिया और फिर तो जैसे चक्कर पे चक्कर चलने का दौर ही शुरू हो गया। बंज़र ज़मीन में किसी तरह गांड घिस घिस के फसल उगाई तो मादरचोद किसी ने मुरारी काका को ही टपका दिया। उसमे भी उस बुरचटने का पेट नहीं भरा तो बिटियाचोद ने मेरी फसल को ही आग लगा दी। एक बार वो भोसड़ी वाला मुझे मिल जाए तो उसकी गांड में बिना तेल लगाए लंड पेलूंगा।

अपने ही ज़हन में उभर रहे इन ख़यालों से जैसे मैं बुरी तरह भन्ना गया था। किसी तरह खुद को शांत किया और सोने के बारे में सोच कर मैंने अपनी आँखे बंद कर ली मगर इसकी माँ का मादरचोद नींद ही नहीं थी आँखों में। मैंने महसूस किया कि मुझे मुतास लगी है इस लिए अपनी मुतास को भी गाली देते हुए मैं बिस्तर से नीचे उतरा और कमरे का दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गया।

कमरे के बाहर हल्का अँधेरा था किन्तु हवेली के चप्पे चप्पे से वाक़िफ मैं आगे बढ़ चला। कुछ ही देर में मैं दूसरे छोर के पास बनी सीढ़ी के पास पहुंच गया। हवेली में मूतने के लिए नीचे जाना पड़ता था। पुरखों की बनाई हुई हवेली में यही एक ख़राबी थी। ख़ैर दूसरे छोर पर मैं पंहुचा तो अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल उभरा जिससे मैंने बाएं तरफ दिख रही राहदारी की तरफ पलटा। कुछ देर रुक कर मैंने इधर उधर देखा और फिर दबे पाँव एक कमरे की तरफ बढ़ चला। हवेली में इस वक़्त गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। मतलब साफ़ था कि इस वक़्त हर कोई अपने अपने कमरे में सोया हुआ था।

मैं जिस कमरे के दरवाज़े के पास पहुंच कर रुका था वो कमरा मेरे बड़े भाई और भाभी का था। भैया भाभी के कमरे के बगल से बने दो कमरों में ताला लगा हुआ था जबकि बाद के दो अलग अलग कमरे विभोर और अजीत के थे और उन दोनों कमरों के सामने वाला कमरा कुसुम का था। हवेली के दूसरे छोर पर जो कमरे बने हुए थे उनमे से एक कमरा मेरा था। जैसा कि मैंने पहले ही बताया था कि मैं सबसे अलग और एकांत में रहना पसंद करता था।

भैया भाभी के कमरे के दरवाज़े के पास रुक कर मैंने इधर उधर का बारीकी से जायजा लिया और फिर सब कुछ ठीक जान कर मैं झुका और दरवाज़े के उस हिस्से पर अपनी आँख सटा दी जहां पर दरवाज़े के दो पल्लों का जोड़ था। हलांकि मुझे मान मर्यादा का ख़्याल रख कर ऐसा नहीं करना चाहिए था क्योंकि कमरे के अंदर भैया भाभी थे और वो किसी भी स्थिति में हो सकते थे। लेकिन मैंने फिर भी देखना इस लिए ज़रूरी समझा कि मुझे अब अपने सवालों के जवाब तलाशने थे।

दरवाज़े के जोड़ पर थोड़ी झिरी तो थी किन्तु अंदर से पर्दा खिंचा हुआ था जिससे कमरे के अंदर का कुछ भी नहीं देखा जा सकता था। ये देख कर मैंने मन ही मन पर्दे को गाली दी और फिर आँख की जगह अपना एक कान सटा दिया उस हिस्से में और अंदर की आवाज़ सुनने की कोशिश करने लगा। काफी देर तक कान सटाने के बाद भी मुझे अंदर से कुछ सुनाई नहीं दिया जिससे मैं समझ गया कि भैया भाभी अंदर सोए हुए हैं। मैं मायूस सा हो कर दरवाज़े हटा और वापस सीढ़ियों की तरफ चल दिया। अभी मैं दो क़दम ही चला था कि मैं कुछ ऐसी आवाज़ सुन कर ठिठक गया जैसे किसी कमरे का दरवाज़ा अभी अभी खुला हो। इस आवाज़ को सुन कर दो पल के लिए तो मैं एकदम से हड़बड़ा ही गया और झट से आगे बढ़ कर दीवार के पीछे खुद को छुपा लिया।

अपनी बढ़ चुकी धड़कनों को नियंत्रित करते हुए मैंने दीवार के पीछे से अपने सिर को हल्का सा निकाला और राहदारी की तरफ देखा। हल्के अँधेरे में मेरी नज़र विभोर के कमरे के पास पड़ी। बड़े भैया विभोर के कमरे से अभी अभी निकले थे। ये देख कर मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि इस वक़्त बड़े भैया विभोर के कमरे में क्यों थे? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि मैंने देखा बड़े भैया विभोर के कमरे से राहदारी में चलते हुए अपने कमरे की तरफ आये और फिर अपने कमरे के दरवाज़े को हल्का सा धक्का दिया तो दरवाज़ा खुल गया। दरवाज़ा खोल कर वो चुप चाप कमरे में दाखिल हो ग‌ए। मैंने साफ देखा कि कमरे के अंदर अँधेरा था। अंदर दाखिल होने के बाद बड़े भैया ने दरवाज़ा बंद कर लिया।

दीवार के पीछे छुपा खड़ा मैं सोच में पड़ गया था कि रात के इस वक़्त बड़े भैया विभोर के कमरे से क्यों आये थे? आख़िर इन तीनों भाइयों के बीच क्या खिचड़ी पक रही थी? तीनों भाइयों के बीच इस लिए कहा क्योंकि आज कल वो तीनों एक साथ ही रह रहे थे। कुछ देर सोचने के बाद मैं दीवार से निकला और सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे आ गया। अँधेरा नीचे भी था किन्तु इतना भी नहीं कि कुछ दिखे ही नहीं। मैं गुसलखाने पर गया और मूतने के बाद वापस अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। थोड़ी देर के लिए मेरे मन में ये ख़याल आया कि एक एक कर के सबके कमरों में जाऊं और जानने का प्रयास करूं कि किस कमरे में क्या चल रहा है किन्तु फिर मैंने अपना ये ख़याल दिमाग़ से झटक दिया और अपने बिस्तर में आ कर लेट गया। सोचते सोचते ही नींद आ गई और मैं घोड़े बेच कर सो गया।

सुबह मेरी आँख कुसुम के जगाने पर ही खुली। मैं जगा तो उसने बताया कि कलेवा बन गया है इस लिए मैं नित्य क्रिया से फुर्सत हो कर आऊं। मेरे पूछने पर उसने बताया कि दादा ठाकुर और उसके पिता जी देर रात आ गए थे।

"दादा ठाकुर ने कहा है कि वो आपको नास्ते की मेज पर मिलेंगे।" कुसुम ने पलट कर जाते हुए कहा____"इस लिए जल्दी से आ जाइयेगा।"

इतना कह कर कुसुम चली गई और इधर उसकी बात सुन कर मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो ग‌ईं। दादा ठाकुर यानी कि मेरे पिता ने कुसुम के द्वारा मुझे बुलाया था नास्ते पर। उस दिन के बाद ये पहला अवसर होगा जब मैं उनके सामने जाऊंगा। ख़ैर अब क्योंकि दादा ठाकुर ने बुलावा भेजा था तो मुझे भी अब फ़ौरन उनके सामने हाज़िर होना था। हलांकि इसके पहले मैं अक्सर उनके बुलाने पर देर से ही जाता था। अपनी मर्ज़ी का मालिक जो था किन्तु अब ऐसा नहीं था। अब शायद हालात बदल गए थे या फिर मैं अपनी मर्ज़ी से ही कुछ सोच कर फ़ौरन ही उनके सामने हाज़िर हो जाना चाहता था।

नित्य क्रिया से फ़ारिग होने के बाद मैं नहा धो कर और दूसरे कपड़े पहन कर नीचे पहुंचा। मेरे दिल की धड़कनें ये सोच कर बढ़ी हुईं थी कि दादा ठाकुर जाने क्या कहेंगे मुझसे। नीचे आया तो देखा बड़ी सी मेज के चारो तरफ रखी कुर्सियों पर हवेली के दो प्रमुख मर्द बैठे थे और उनके दाएं बाएं तरफ मेरा बड़ा भाई ठाकुर अभिनव सिंह विभोर और अजीत बैठे हुए थे। दादा ठाकुर मुख्य कुर्सी पर बैठे हुए थे जबकि मझले ठाकुर यानी चाचा जी उनके सामने वाली दूसरी मुख्य कुर्सी पर बैठे हुए थे। लम्बी सी मेज में उन सबके सामने थालियां रखी हुईं थी और थालियों के बगल से पीतल के मग और गिलास में पानी भरा हुआ रखा था।

मैं आया तो सबसे पहले दादा ठाकुर के पैरों को छू कर उन्हें प्रणाम किया जिस पर उन्होंने बस अपने दाहिने हाथ को हल्का सा उठा कर मानो मुझे आशीर्वाद दिया। वो मुख से कुछ नहीं बोले थे, हलांकि अपनी तो बराबर गांड फटी पड़ी थी कि जाने वो क्या कहेंगे। ख़ैर जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैं मझले ठाकुर यानी चाचा जी के पास गया और उनके भी पैर छुए। मझले ठाकुर ने सदा खुश रहो कह कर मुझे आशीर्वाद दिया। वातावरण में तो एकदम से सन्नाटा छाया हुआ था जो कि दादा ठाकुर के रहने से हमेशा ही छाया रहता था। ख़ैर उसके बाद मेरी नज़र मेरे बड़े भाई पर पड़ी और मैं उनके पास जा कर उनके भी पैर छुए जिसके जवाब में वो कुछ नहीं बोले।

"बैठो इस तरफ।" दादा ठाकुर ने अपने दाहिने तरफ रखी कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए मुझसे कहा तो मैं ख़ामोशी से उस कुर्सी पर बैठ गया। यहाँ पर गौर करने वाली बात थी कि मैंने अपने से बड़ों के पैर छू कर उनका आशीर्वाद लिया था जबकि विभोर और अजीत जो मुझसे छोटे थे वो अपनी जगह पर जड़ की तरह बैठे रहे थे। उन दोनों ने मेरे पैर छूने की तो बात दूर बल्कि मुझे देख कर अपने हाथ तक नहीं जोड़े थे। दादा ठाकुर और मझले ठाकुर न होते तो इस वक़्त मैं उन दोनों को ऐसे दुस्साहस की माकूल सज़ा देता। ख़ैर अपने गुस्से को अंदर ही जज़्ब कर लिया मैंने।

कुसुम और भाभी रसोई से आ कर हम सबको नास्ता परोसने लगीं। दादा ठाकुर ने सबको नास्ता शुरू करने का इशारा किया तो हम सबने नास्ता करना शुरू कर दिया। नास्ते के दौरान एकदम ख़ामोशी छाई रही। ये नियम ही था कि खाना खाते वक़्त कोई बात नहीं कर सकता था। ख़ैर नास्ता ख़त्म हुआ तो दादा ठाकुर के उठने के बाद हम सब भी अपनी अपनी जगह से उठ ग‌ए। हम सब जैसे ही उठे तो दादा ठाकुर ने मुझे बैठक में आने को कहा।

"अब से ठीक एक घंटे बाद तुम्हें हमारे साथ कहीं चलना है" बैठक में रखी एक बड़ी सी गद्देदार कुर्सी पर बैठे दादा ठाकुर ने अपनी प्रभावशाली आवाज़ में मुझसे कहा____"इस लिए हवेली से कहीं जाने का कार्यक्रम न बना लेना। अब तुम जा सकते हो।"

दादा ठाकुर की इस बात पर मैंने हाँ में सिर हिलाया और पलट कर वापस अपने कमरे की तरफ चला गया। अपने कमरे की तरफ जाते हुए मैं सोच रहा कि पिता जी ने मुझसे बाकी किसी बारे में कुछ नहीं कहा। क्या वो उन सबके बारे में अब कोई बात नहीं करना चाहते थे या फिर उनके मन में कुछ और ही चल रहा है? वो अपने साथ मुझे कहां ले जाने की बात कह रहे थे? हलांकि ऐसा पहले भी वो कहते थे किन्तु पहले मैं अक्सर ही हवेली से निकल जाता था और पिता जी का गुस्सा मेरे ऐसा करने पर आसमान छूने लगता था, जिसकी मुझे कोई परवाह नहीं होती थी किन्तु आज मैं उनके कहे अनुसार हवेली में ही रहने वाला था।

अपने कमरे में आ कर मैं बिस्तर पर लेटा यही सोच रहा था कि दादा ठाकुर मुझे अपने साथ कहां ले जाना चाहते होंगे? मैंने इस बारे में बहुत सोचा मगर मुझे कुछ समझ नहीं आया। थक हार कर मैंने यही सोचा कि अब तो इस बारे में उनके साथ जा कर ही पता चलेगा।

मैं अब बहुत कुछ करना चाहता था और बहुत सारी चीज़ों का पता भी लगाना चाहता था किन्तु ये सब मेरे अनुसार होता नज़र नहीं आ रहा था। हवेली में मेरे लिए जैसे एक बंधन सा हो गया था। हलांकि मुझे यहाँ आए अभी एक दिन ही हुआ था किन्तु मैं चाहता था कि जो भी काम हो जल्दी हो। मैं किसी बात के इंतज़ार नहीं कर सकता था मगर मेरे बस में तो जैसे कुछ था ही नहीं।

सोचते सोचते कब एक घंटा गुज़र गया पता ही नहीं चला। कुसुम मेरे कमरे में आई और उसने कहा कि दादा ठाकुर ने मुझे बुलाया है। मैंने उसे एक गिलास पानी पिलाने को कहा और बिस्तर से उतर कर आईने के सामने आया। आईने में खुद को देखते हुए मैंने अपने बाल बनाए और फिर कमरे से बाहर निकल गया। नीचे आया तो कुसुम ने मुझे पानी से भरा गिलास पकड़ाया तो मैंने पानी पिया और फिर बाहर बैठक में आ गया जहां पिता जी अपनी बड़ी सी कुर्सी पर बैठे थे और उनके सामने मुंशी चंद्रकांत खड़ा था। मुझे देख कर मुंशी ने अदब से सिर नवाया तो मैं कुछ न बोला।

"अब आप जाइए मुंशी जी।" मुझे आया देख पिता जी ने मुंशी से कहा_____"हम इस बारे में लौट कर बात करेंगे।"
"जी बेहतर ठाकुर साहब।" मुंशी ने सिर को झुका कर कहा और फिर दादा ठाकुर को प्रणाम करके हवेली से बाहर निकल गया।

मुंशी के जाने के बाद बैठक में मैं और पिता जी ही रह गए थे और मेरी धड़कनें इस अकेलापन की वजह से कुछ बढ़ गईं थी। मैं अभी भी यही सोच रहा था कि पिता जी मुझे अपने साथ कहां ले कर जाने वाले हैं?

"तुम्हारे पीछे दीवार में लगी कील पर जीप की चाभी टंगी हुई है।" पिता जी की भारी आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा____"उसे लो और जा कर जीप निकालो। हम आते हैं थोड़ी देर मे।"

पिता जी के कहने पर मैंने पलट कर दीवार में टंगी जीप की चाभी निकाली और हवेली से बाहर की तरफ बढ़ गया। पिता जी के साथ मैं पहले भी कई बार जीप में जा चुका था किन्तु पहले भी मैं तभी जाता था जब मेरा मन करता था वरना तो मैं किसी न किसी बहाने से रफू चक्कर ही हो जाया करता था लेकिन आज की हर बात जैसे अलग थी।

मैं हवेली से बाहर आया और कुछ ही दूरी पर खड़ी जीप की तरफ बढ़ चला। मेरे ज़हन में अभी भी यही सवाल था कि पिता जी मुझे अपने साथ कहां लिए जा रहे हैं? मैंने तो आज के दिन के लिए कुछ और ही सोच रखा था। ख़ैर जीप में चालक की शीट पर बैठ कर मैंने चाभी लगा कर जीप को स्टार्ट किया और उसे आगे बढ़ा कर हवेली के मुख्य द्वार के सामने ले आया। कुछ ही देर में पिता जी आए और जीप में मेरे बगल से बैठते ही बोले चलो तो मैंने बिना कोई सवाल किए जीप को आगे बढ़ा दिया।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 12
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अब तक,,,,,

मैं हवेली से बाहर आया और कुछ ही दूरी पर खड़ी जीप की तरफ बढ़ चला। मेरे ज़हन में अभी भी यही सवाल था कि पिता जी मुझे अपने साथ कहां लिए जा रहे हैं? मैंने तो आज के दिन के लिए कुछ और ही सोच रखा था। ख़ैर जीप में चालक की शीट पर बैठ कर मैंने चाभी लगा कर जीप को स्टार्ट किया और उसे आगे बढ़ा कर हवेली के मुख्य द्वार के सामने ले आया। कुछ ही देर में पिता जी आए और जीप में मेरे बगल से बैठते ही बोले चलो तो मैंने बिना कोई सवाल किए जीप को आगे बढ़ा दिया।

अब आगे,,,,,


मैं ख़ामोशी से जीप चलाते हुए गांव से बाहर आ गया था। मेरे कुछ बोलने का तो सवाल ही नहीं था किन्तु पिता जी भी ख़ामोश थे और उनकी इस ख़ामोशी से मेरे अंदर की बेचैनी और भी ज़्यादा बढ़ती जा रही थी। मैं जीप तो ख़ामोशी से ही चला रहा था किन्तु मेरा ज़हन न जाने क्या क्या सोचने में लगा हुआ था।

"हम शहर चल रहे हैं।" गांव के बाहर एक जगह दो तरफ को सड़क लगी हुई थी और जब मैंने दूसरे गांव की तरफ जीप को मोड़ना चाहा तो पिता जी ने सपाट भाव से ये कहा था। इस लिए मैंने जीप को दूसरे वाले रास्ते की तरफ फ़ौरन ही घुमा लिया।

"हम चाहते हैं कि अब तक जो कुछ भी हुआ है।" कुछ देर की ख़ामोशी के बाद पिता जी ने कहा____"उस सब को भुला कर तुम एक नए सिरे से अपना जीवन शुरू करो और कुछ ऐसा करो जिससे हमें तुम पर गर्व हो सके।"

पिता जी ये कहने के बाद ख़ामोश हुए तो मैं कुछ नहीं बोला। असल में मैं कुछ बोलने की हालत में था ही नहीं और अगर होता भी तो कुछ नहीं बोलता। इस वक़्त मैं सिर्फ ये जानना चाहता था कि पिता जी मुझे अपने साथ शहर किस लिए ले जा रहे थे?

"तुम जिस उम्र से गुज़र रहे हो।" मेरे कुछ न बोलने पर पिता जी ने सामने सड़क की तरफ देखते हुए फिर से कहा____"उस उम्र से हम भी गुज़र चुके हैं और यकीन मानो हमने अपनी उस उम्र में ऐसा कोई भी काम नहीं किया था जिससे कि हमारे पिता जी के मान सम्मान पर ज़रा सी भी आंच आए। शोलों की तरह भड़कती हुई ये जवानी हर इंसान को अपने उम्र पर आती है लेकिन इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं होना चाहिए कि हम जवानी के उस जोश में अपने होशो हवास ही खो बैठें। किसी चीज़ का बस शौक रखो नाकि किसी चीज़ के आदी बन जाओ। उम्र के हिसाब से हर वो काम करो जो करना चाहिए लेकिन ज़हन में ये ख़याल सबसे पहले रहे कि हमारे उस काम से ना तो हमारे मान सम्मान पर कोई दाग़ लगे और ना ही हमारे खानदान की प्रतिष्ठा पर कोई धब्बा लगे। हम इस गांव के ही नहीं बल्कि आस पास के गांवों के भी राजा हैं और राजा का फर्ज़ होता है अपने आश्रित अपनी प्रजा का भला करना ना कि उनका शोषण करना। अगर हम ही उन पर अत्याचार करेंगे तो प्रजा बेचारी किसको अपना दुखड़ा सुनाएगी? जो ख़ुशी किसी को दुःख पहुंचा कर मिले वो ख़ुशी किस काम की? कभी सोचा है कि दो पल की ख़ुशी के लिए तुमने कितनों का दिल दुखाया है और कितनों की बद्दुआ ली है? मज़ा किसी चीज़ को हासिल करने में नहीं बल्कि किसी चीज़ का त्याग और बलिदान करने में है। असली आनंद उस चीज़ में है जिसमे हम किसी के दुःख को दूर कर के उसे दो पल के लिए भी खुश कर दें। जब हम किसी के लिए अच्छा करते हैं या अच्छा सोचते हैं तब हमारे साथ भी अच्छा ही होता है। अपनी प्रजा को अगर थोड़ा सा भी प्यार दोगे तो वो तुम्हारे लिए अपनी जान तक न्योछावर कर देंगे।"

पिता जी ने लम्बा चौड़ा भाषण दे दिया था और मैं ये सोचने लगा था कि क्या यही सब सुनाने के लिए वो मुझे अपने साथ ले कर आए हैं? हलांकि उनकी बातों में दम तो था और यकीनन वो सब बातें अपनी जगह बिलकुल ठीक थीं किन्तु वो सब बातें मेरे जैसे इंसान के पल्ले इतना जल्दी भला कहां पड़ने वाली थी? ख़ैर अब जो कुछ भी था सुनना तो था ही क्योंकि अपने पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था।

"ख़ैर छोडो इन सब बातों को।" पिता जी ने मेरी तरफ एक नज़र डालते हुए कहा____"तुम अब बच्चे नहीं रहे जिसे समझाने की ज़रूरत है। वैसे भी हमने तो अब ये उम्मीद ही छोड़ दी है कि हमारी अपनी औलाद कभी हमारी बात समझेगी। एक पिता जब अपनी औलाद को सज़ा देता है तो असल में वो खुद को ही सज़ा देता है क्योंकि सज़ा देने के बाद जितनी पीड़ा उसकी औलाद को होती है उससे कहीं ज़्यादा पीड़ा खुद पिता को भी होती है। तुम ये बात अभी नहीं समझोगे, बल्कि तब समझोगे जब तुम खुद एक बाप बनोगे।"

पिता जी की बातें कानों के द्वारा दिलो दिमाग़ में भी उतरने लगीं थी और मेरे न चाहते हुए भी वो बातें मुझ पर असर करने लगीं थी। ये समय का खेल था या प्रारब्ध का कोई पन्ना खुल रहा था?

"हम तुम्हें ये समझाना चाहते हैं कि आज कल समय बहुत ख़राब चल रहा है।" थोड़ी देर की चुप्पी के बाद पिता जी ने फिर कहा____"इस लिए सम्हल कर रहना और सावधान भी रहना। गांव के साहूकारों की नई पौध थोड़ी अलग मिजाज़ की है। हमें अंदेशा है कि वो हमारे ख़िलाफ़ कोई जाल बुन रहे हैं और निश्चय ही उस जाल का पहला मोहरा तुम हो।"

पिता जी की ये बात सुन कर मैं मन ही मन बेहद हैरान हुआ। मन में सवाल उभरा कि ये क्या कह रहे हैं पिता जी? मेरे ज़हन में तो साहूकारों का ख़याल दूर दूर तक नहीं था और ना ही मैं ये सोच सकता था कि वो लोग हमारे ख़िलाफ़ कुछ सोच सकते हैं।

"हम जानते हैं कि तुम हमारी इन बातों से बेहद हैरान हुए हो।" पिता जी ने कहा____"लेकिन ये एक कड़वा सच हो सकता है। ऐसा इस लिए क्योंकि अभी हमें इस बात का सिर्फ अंदेशा है, कोई ठोस प्रमाण नहीं है हमारे पास। हलांकि सुनने में कुछ अफवाहें आई हैं और उसी आधार पर हम ये कह रहे हैं कि तुम उनके जाल का पहला मोहरा हो सकते हो। हमें लगता है कि मुरारी की हत्या किसी बहुत ही सोची समझी साज़िश का नतीजा है। मुरारी की हत्या में तुम्हें फसाना भी उनकी साज़िश का एक हिस्सा है। हमें हमारे आदमियों ने सब कुछ बताया था इस लिए हम दरोगा से मिले और उससे इस बारे में पूछतांछ की मगर उसने भी फिलहाल अनभिज्ञता ही ज़ाहिर की। हलांकि उसने हमें बताया था कि मुरारी का भाई जगन उसके पास रपट लिखवाने आया था। जगन के रपट लिखवाने पर दरोगा मुरारी की हत्या के मामले की जांच भी करने जाने वाला था मगर हमने उसे जाने से रोक दिया। हम समझ गए थे कि मुरारी की हत्या का आरोप तुम पर लगाया जायेगा इसी लिए हमने दरोगा को इस मामले को हाथ में लेने से रोक दिया था। हम ये तो जानते थे कि तुमने कुछ नहीं किया है मगर शक की बिना पर दरोगा तुम्हें पकड़ ही लेता और हम ये कैसे चाह सकते थे कि ठाकुर खानदान का कोई सदस्य पुलिस थाने की दहलीज़ पर कदम भी रखे।"

"तो आपके कहने पर दरोगा जगन काका के रपट लिखवाने पर भी नहीं आया था?" मैंने पहली बार उनकी तरफ देखते हुए कहा____"आपको नहीं लगता कि ऐसा कर के आपने ठीक नहीं किया है? अगर मुरारी काका की हत्या का आरोप मुझ लगता तो लगने देते आप। दरोगा तो वैसे भी हत्या के मामले की जांच करता और देर सवेर उसे पता चल ही जाता कि हत्या मैंने नहीं बल्कि किसी और ने की है।"

"तुम क्या समझते हो कि हमने दरोगा को मुरारी की हत्या की जांच करने से ही मना कर दिया था?" पिता जी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"हमने तो उसे सिर्फ मुरारी के घर न जाने के लिए कहा था। बाकी मुरारी की हत्या किसने की है इसका पता लगाने के हमने खुद उसे कहा था और वो अपने तरीके से हत्या की जांच भी कर रहा है।"

"फिर भी आपको ऐसा नहीं करना चाहिए था।" मैंने सामने सड़क की तरफ देखते हुए कहा____"और दरोगा को मुरारी काका के घर आने के लिए क्यों मना किया आपने? जबकि आपके ऐसा करने से जगन काका मेरे मुँह में ही बोल रहे थे कि मैंने ही दरोगा को उनके भाई की हत्या की जांच न करने के लिए पैसे दिए होंगे।

"जैसा हम तुमसे पहले ही कह चुके हैं कि आज कल हालात ठीक नहीं हैं और तुम्हें खुद बहुत सम्हल कर और सावधानी से रहना होगा।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"हम ये जानते हैं कि तुमने मुरारी की हत्या नहीं की है और हम ये भी जानते हैं कि मुरारी की किसी से ऐसी दुश्मनी नहीं हो सकती जिसके लिए कोई उसकी हत्या ही कर दे किन्तु इसके बावजूद उसकी हत्या हुई। कोई ज़रूरी नहीं कि उसकी हत्या करने के पीछे उससे किसी की कोई दुश्मनी ही हो बल्कि उसकी हत्या करने की वजह ये भी हो सकती है कि हमारा कोई दुश्मन तुम्हें उसकी हत्या के जुर्म में फंसा कर जेल भेज देना चाहता है। यही सब सोच कर हमने दरोगा को सामने आने के लिए नहीं कहा बल्कि गुप्त रूप से इस मामले की जांच करने को कहा था।"

"अगर ऐसी ही बात थी तो आपको दरोगा के द्वारा मुझे जेल ले जाने देना था।" मैंने कहा____"अगर कोई हमारा दुश्मन है तो इससे वो यही समझता कि वो अपने मकसद में कामयाब हो गया है और फिर हो सकता था कि वो मेरे जेल जाने के बाद खुल कर सामने ही आ जाता और तब हमें भी पता चल जाता कि हमारा ऐसा वो कौन दुश्मन था जो हमसे इस तरह से अपनी दुश्मनी निकालना चाहता था?"

"हमारे ज़हन में भी ये ख़याल आया था।" पिता जी ने कहा____"किन्तु हम बता ही चुके हैं कि हम ये हरगिज़ नहीं चाह सकते थे कि ठाकुर खानदान का कोई भी सदस्य पुलिस थाने की दहलीज़ पर कदम रखे। रही बात उस हत्यारे की तो उसका पता हम लगा ही लेंगे। तुम्हें इसके लिए परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है। हम सिर्फ ये चाहते हैं कि तुम पिछला सब कुछ भुला कर एक नए सिरे अपना जीवन शुरू करो। हर चीज़ की एक सीमा होती है बेटा। इस जीवन में इसके अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है जिसे करना और निभाना हमारा फ़र्ज़ होता है।"

"क्या आप बताएंगे कि मुझे आपने घर गांव से क्यों निष्कासित किया था?" मैंने हिम्मत कर के उनसे वो सवाल पूछ ही लिया जो हमेशा से मेरे ज़हन में उछल कूद कर रहा था।

"कभी कभी इंसान को ऐसे काम भी करने पड़ जाते हैं जो निहायत ही ग़लत होते हैं।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"हमने भी ऐसा कुछ सोच कर ही किया था। हम खुद जानते थे कि हमारा ये फैसला ग़लत है किन्तु कुछ बातें थी ऐसी जिनकी वजह से हमें ऐसा फैसला करना पड़ा था।"

"क्या मैं ऐसी वो बातें जान सकता हूं?" मैंने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"जिनकी वजह से आपने मुझे गांव से निष्कासित कर के चार महीनों तक भारी कष्ट सहने पर मजबूर कर दिया था।"

"तुम्हें इतने कष्ट में डाल कर हम खुद भी भारी कष्ट में थे बेटा।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"लेकिन ऐसा हमने दिल पर पत्थर रख कर ही किया था। हमें हमारे आदमियों के द्वारा पता चला था कि कुछ अंजान लोग हमारे ख़िलाफ़ हैं और वो कुछ ऐसा करना चाहते हैं जिससे कि हमारा समूचा वर्चस्व ही ख़त्म हो जाए। इसके लिए वो लोग अपने जाल में तुम्हें फ़साने वाले हैं। ये सब बातें सुन कर हम तुम्हारे लिए चिंतित हो उठे थे किन्तु कुछ कर सकने की हालत में नहीं थे हम क्योंकि हमारे आदमियों को भी नहीं पता था कि ऐसे वो कौन लोग थे। उन्होंने तो बस ऐसी बातें आस पास से ही सुनी थीं। हमें यकीन तो नहीं हुआ था किन्तु कुछ समय से जैसे हालात हमें समझ आ रहे थे उससे हम ऐसी बातों को नकार भी नहीं सकते थे इस लिए हमने सोचा कि अगर ऐसी बात है तो हम भी उनके मन का ही कर देते हैं। इसके लिए हमने तुम्हारी शादी का मामला शुरू किया। हमें पता था कि तुम अपनी आदत के अनुसार हमारा कहा नहीं मानोगे और कुछ ऐसा करोगे जिससे कि एक बार फिर से गांव समाज में हमारी इज्ज़त धूल में मिल जाए। ख़ैर शादी की तैयारियां शुरू हुईं और इसके साथ ही हमने एक लड़का और देख लिया ताकि जब तुम अपनी आदत के अनुसार कुछ उल्टा सीधा कर बैठो तो हम किसी तरह अपनी इज्ज़त को मिट्टी में मिलने से बचा सकें। शादी वाले दिन वही हुआ जिसका हमें पहले से ही अंदेशा था। यानी तुम एक बार फिर से हमारे हुकुम को ठोकर मार कर निकल गए। ख़ैर उसके बाद हमने उस लड़की की शादी दूसरे लड़के से करवा दी और इधर तुम पर बेहद गुस्सा होने का नाटक किया। दूसरे दिन गांव में पंचायत बैठाई और तुम्हें गांव से निष्कासित कर देने वाला फैसला सुना दिया। ऐसा करने के पीछे यही वजह थी कि हम तुम्हें अपने से दूर कर दें ताकि जो लोग तुम्हें अपने जाल में फांसना चाहते थे वो तुम्हें अकेला और बेसहारा देख कर बड़ी आसानी से अपने जाल में फांस सकें। इधर ऐसा करने के बाद हमने अपने आदमियों को भी हुकुम दे दिया था कि वो लोग गुप्त रूप से तुम पर भी और तुम्हारे आस पास की भी नज़र रखें। पिछले चार महीने से हमारे आदमी अपने इस काम में लगे हुए थे किन्तु जैसा हमने सोचा था वैसा कुछ भी नहीं हुआ।"

"क्या मतलब?" मैंने चौंक कर उनकी तरफ देखा।
"मतलब ये कि जो कुछ सोच कर हमने ये सब किया था।" पिता जी ने कहा____"वैसा कुछ हुआ ही नहीं। हमें लगता है कि उन लोगों को इस बात का अंदेशा हो गया था कि हमने ऐसा कर के उनके लिए एक जाल बिछाया है। इस लिए वो लोग तुम्हारे पास गए ही नहीं बल्कि कुछ ऐसा किया जिससे हम खुद ही उलझ कर रह ग‌ए।"

"कहीं आपके कहने का मतलब ये तो नहीं कि उन्होंने मुरारी की हत्या कर के उस हत्या में मुझे फंसाया?" मैंने कहा____"और दूसरे गांव के लोगों के बीच मेरे और आपके ख़िलाफ़ बैर भाव पैदा करवा दिया?"

"बिल्कुल।" पिता जी ने मेरी तरफ प्रशंशा की दृष्टि से देखते हुए कहा____"हमे बिलकुल यही लगता है और यही वजह थी कि हमने दरोगा को मुरारी की हत्या के मामले की जांच गुप्त रूप से करने को कहा। हलांकि जैसा तुमने इस बारे में उस वक़्त कहा था वैसा ख़याल हमारे ज़हन में भी आया था किन्तु हम दुबारा फिर से तुम्हें चारा बना कर उनके सामने नहीं डालना चाहते थे। क्योंकि ज़रूरी नहीं कि हर बार वैसा ही हो जैसा हम चाहते हैं। ऐसा करने से इस बार तुम्हारे लिए सच में कोई गंभीर ख़तरा पैदा हो सकता था।"

पिता जी के ऐसा कहने के बाद इस बार मैं कुछ न बोल सका। असल में मैं उनकी बातें सुन कर गहरे विचारों में पड़ गया था। पिता जी की बातों ने एकदम से मेरा भेजा ही घुमा दिया था। मैं तो बेवजह ही अब तक इस बारे में इतना कुछ सोच सोच कर कुढ़ रहा था और अपने माता पिता के लिए अपने अंदर गुस्सा और नफ़रत पाले बैठा हुआ था जबकि जो कुछ मेरे साथ हुआ था उसके पीछे पिता जी का एक ख़ास मकसद छुपा हुआ था। भले ही वो अपने मकसद में कामयाब नहीं हुए थे किन्तु ऐसा कर के उन्होंने इस बात का सबूत तो दे ही दिया था कि उन्होंने मुझे मेरी ग़लतियों की वजह से निष्कासित नहीं किया था बल्कि ऐसा करने के लिए वो एक तरह से बेबस थे और ऐसा करके वो खुद भी मेरे लिए अंदर से दुखी थे। मुझे समझ नहीं आया कि अब मैं अपनी उन बातों के लिए पिता जी से कैसे माफ़ी मांगू, जो बातें मैंने उनसे उस दिन खेत में कही थीं।

मेरे ज़हन में उस दिन की माँ की कही हुई वो बातें उभर कर गूँज उठी जब उन्होंने मुझसे कहा था कि इंसान को बिना सोचे समझे और बिना सच को जाने कभी ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए जिससे कि बाद में अपनी उन बातों के लिए इंसान को पछतावा होने लगे। तो क्या इसका मतलब ये हुआ कि माँ को पहले से ही इस सबके बारे में पता था? उनकी बातों से तो अब यही ज़ाहिर होता है लेकिन उन्होंने मुझसे इस बारे में उसी दिन साफ़ साफ़ क्यों नहीं बता दिया था? मैंने महसूस किया कि मैं ये सब सोचते हुए गहरे ख़यालों में खो गया हूं।

"क्या अब हम तुमसे ये उम्मीद करें कि तुम एक नए सिरे से अपना जीवन शुरू करोगे?" पिता जी की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा____"और हां अगर अब भी तुम्हें लगता है कि हमने तुम्हारे साथ कुछ ग़लत किया है तो तुम अब भी हमारे प्रति अपने अंदर नफ़रत को पाले रह सकते हो।"

"मैं सोच रहा हूं कि क्या ज़रूरत है नए सिरे से जीवन को शुरू करने की?" मैंने सपाट भाव से कहा____"मैं समझता हूं कि मेरे भाग्य में यही लिखा है कि मैं पहले की तरह अब भी आवारा ही रहूं और अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़े रखूं।"

"आख़िर किस मिट्टी के बने हुए हो तुम?" पिता जी ने इस बार शख़्त भाव से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तुम समझते क्यों नहीं हो कि तुम कितनी बड़ी मुसीबत में पड़ सकते हो? आख़िर कैसे समझाएं हम तुम्हें?"

"मैं किसी भी तरह के बंधन में रहना पसंद नहीं करता पिता जी।" मैंने उस शख़्स से दो टूक भाव से कहा जिस शख़्स से ऐसी बातें करने की कोई हिम्मत ही नहीं जुटा सकता था____"आपको मेरी फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है। ये तो आप भी जानते हैं ना कि इस संसार में जिसके साथ जो होना लिखा होता है वो हो कर ही रहता है। विधाता के लिखे को कोई नहीं मिटा सकता। अगर आज और इसी वक़्त मेरी मौत लिखी है तो वो हो कर ही रहेगी, फिर भला बेवजह मौत से भागने की मूर्खता क्यों करना?"

"आख़िर क्या चल रहा है तुम्हारे दिमाग़ में?" पिता जी ने अचानक ही अपनी आँखें सिकोड़ते हुए कहा____"कहीं तुम...?"
"माफ़ कीजिए पिता जी।" मैंने उनकी बात को बीच में ही काटते हुए कहा____"वैसा कभी नहीं हो सकता जैसा आप चाहते हैं। वैसे हम शहर किस लिए जा रहे हैं?"

मेरी बातें सुन कर पिता जी हैरत से मेरी तरफ वैसे ही देखने लगे थे जैसे इसके पहले वो मेरी बातों पर हैरत से देखने लगते थे। यही तो खूबी थी ठाकुर वैभव सिंह में। मैं कभी वो करता ही नहीं था जो दूसरा कोई चाहता था बल्कि मैं तो हमेशा वही करता था जो सिर्फ और सिर्फ मैं चाहता था। मेरी बातों से किसी का कितना दिल दुःख जाता था इससे मुझे कोई मतलब नहीं होता था मगर क्या सच में ऐसा ही था???

"मैं हवेली में नहीं रहना चाहता पिता जी।" दादा ठाकुर को ख़ामोश देख मैंने धीरे से कहा____"बल्कि मैं उसी जगह पर रहना चाहता हूं जहां पर मैंने चार महीने भारी कष्ट सह के गुज़ारे हैं।"

"तुम्हें जहां रहना हो वहां रहो।" पिता जी ने गुस्से में कहा____"हमे तो आज तक ये समझ में नहीं आया कि तुम जैसी बेगै़रत औलाद दे कर भगवान ने हमारे ऊपर कौन सा उपकार किया है?"

"भगवान को क्यों कोसते हैं पिता जी?" मैंने मन ही मन हंसते हुए पिता जी से कहा____"भगवान के बारे में तो सबका यही ख़याल है कि वो जो भी देता है या जो कुछ भी करता है सब अच्छा ही करता है। फिर आप ऐसा क्यों कहते हैं?"

"ख़ामोशशश।" पिता जी इतनी ज़ोर से दहाड़े कि डर के मारे मेरे हाथों से जीप की स्टेरिंग ही छूट गई थी। मैं समझ गया कि अब पिता जी से कुछ बोलना बेकार है वरना वो अभी जीप रुकवाएंगे और जीप की पिछली शीट पर पड़ा हुआ कोड़ा उठा कर मुझे पेलना शुरू कर देंगे।

उसके बाद सारे रास्ते हम में से किसी ने कोई बात नहीं की। सारा रास्ता ख़ामोशी में ही गुज़रा और हम शहर पहुंच गए। शहर में पिता जी को तहसीली में कोई काम था इस लिए वो चले गए जबकि मैं जीप में ही बेपरवाह सा बैठा रहा। क़रीब एक घंटे में पिता जी वापस आए तो मैंने जीप स्टार्ट की और उनके कहने पर वापस गांव के लिए चल पड़ा।

आज होलिका दहन का पर्व था और हमारे गांव में होली का त्यौहार बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। ख़ैर वापसी में भी हमारे बीच ख़ामोशी ही रही। आख़िर एक घंटे में हम हवेली पहुंच गए।

पिता जी जीप से उतर कर हवेली के अंदर चले गए और मैं ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। कुसुम नज़र आई तो मैंने उसे एक गिलास पानी लाने को कहा तो वो जी भैया कह कर पानी लेने चली गई। अपने कमरे में आ कर मैं अपने कपड़े उतारने लगा। धूप तेज़ थी और मुझे गर्मी लगी हुई थी। मैंने शर्ट और बनियान उतार दिया और कमरे की खिड़की खोल कर बिस्तर पर लेट गया।

आज कल गांव में बिजली का एक लफड़ा था। बिजली विभाग वाले बिजली तो दे रहे थे लेकिन बिजली धीमी रहती थी जिससे पंखा धीमी गति से चलता था। ख़ैर मैं आँखें बंद किए लेटा हुआ था और ऊपर पंखा अपनी धीमी रफ़्तार से मुझे हवा देने का अपना फ़र्ज़ निभा रहा था। आँखे बंद किए मैं सोच रहा था कि आज पिता जी से मैंने जो कुछ भी कहा था वो ठीक था या नहीं? अब जब कि मैं जान चुका था कि मुझे गांव से निष्कासित करने का उनका फ़ैसला उनके एक ख़ास मकसद का हिस्सा था इस लिए एक अच्छे बेटे के रूप में मेरा उन पर गुस्सा करना या उन पर नाराज़ रहना सरासर ग़लत ही था किन्तु ये भी सच था कि मैं इस सबके लिए हवेली में क़ैद हो कर नहीं रह सकता था। माना कि पिता जी ने दरोगा को गुप्त रूप से मुरारी काका की हत्या की जांच करने को कह दिया था लेकिन मुझे इससे संतुष्टि नहीं हो रही थी। मैं अपनी तरफ से खुद कुछ करना चाहता था जो कि हवेली में रह कर मैं नहीं कर सकता था। मैं एक आज़ाद पंछी की तरह था जो सिर्फ अपनी मर्ज़ी से हर काम करना पसंद करता था।

"लगता है आपको नींद आ रही है भइया।" कुसुम की आवाज़ से मेरा ध्यान टूटा तो मैंने आँखें खोल कर उसकी तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा____"या फिर अपनी आँखें बंद कर के किसी सोच में डूबे हुए थे।"

"क्या तूने कोई तंत्र विद्या सीख ली है?" मैंने उठते हुए उससे कहा____"जो मेरे मन की बात जान लेती है?"
"इतनी सी बात के लिए तंत्र विद्या सीखने की क्या ज़रूरत है भला?" कुसुम ने पानी का गिलास मुझे पकड़ाते हुए कहा____"जिस तरह के हालात में आप हैं उससे तो कोई भी ये अंदाज़ा लगा के कह सकता है कि आप किसी सोच में ही डूबे हुए थे। दूसरी बात ये भी है कि आप दादा ठाकुर के साथ शहर गए थे तो ज़ाहिर है कि रास्ते में उन्होंने आपसे कुछ न कुछ तो कहा ही होगा जिसके बारे में आप अब भी सोच रहे थे।"

"वाह! तूने तो कमाल कर दिया बहना।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या दिमाग़ लगाया है तूने। ख़ैर ये सब छोड़ और ये बता कि जो काम मैंने तुझे दिया था वो काम तूने शुरू किया कि नहीं या फिर एक काम से सुन कर दूसरे कान से उड़ा दिया है?"

हलांकि पिता जी की बातों से अब मैं सब कुछ जान चुका था इस लिए कुसुम को अपने भाई या अपने पिता जी की जासूसी करने के काम पर लगाना फ़िज़ूल ही था किन्तु पिछली रात मैंने बड़े भैया को विभोर के कमरे से निकलते देखा था इस लिए अब मैं ये जानना चाहता था कि आख़िर तीनों भाइयों के बीच ऐसा क्या चल रहा था उतनी रात को?

"आप तो जानते हैं भैया कि ये काम इतना आसान नहीं है।" कुसुम ने मासूम सी शक्ल बनाते हुए कहा____"मुझे पूरी सावधानी के साथ ये काम करना होगा इस लिए मुझे इसके लिए ख़ास मौके का इंतज़ार करना होगा ना?"

"ठीक है।" मैंने पानी पीने के बाद उसे खाली गिलास पकड़ाते हुए कहा____"तू मौका देख कर अपना काम कर। वैसे आज होलिका दहन है ना तो यहाँ कोई तैयारी वग़ैरा हुई कि नहीं?"

"पिता जी सारी तैयारियां कर चुके हैं?" कुसुम ने कहा____"आज रात को वैसे ही होली जलेगी जैसे हर साल जलती आई है लेकिन आप इसके बारे में क्यों पूछ रहे हैं? आपको तो इन त्योहारों में कोई दिलचस्पी नहीं रहती ना?"

"हां वो तो अब भी नहीं है।" मैंने बिस्तर से उतर कर दीवार पर टंगी अपनी शर्ट को निकालते हुए कहा____"मैं तो ऐसे ही पूछ रहा था तुझसे। ख़ैर अब तू जा। मुझे भी एक ज़रूरी काम से बाहर जाना है।"

"भाभी आपके बारे में पूछ रहीं थी?" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"शायद उन्हें कोई काम है आपसे। इस लिए आप उनसे मिल लीजिएगा।"
"उन्हें मुझसे क्या काम हो सकता है?" मैंने चौंक कर कुसुम की तरफ देखते हुए कहा____"अपने किसी काम के लिए उन्हें बड़े भैया से बात करनी चाहिए।"

"अब भला ये क्या बात हुई भैया?" कुसुम ने अपने दोनों हाथों को अपनी कमर पर रखते हुए कहा___"हर काम बड़े भैया से हो ये ज़रूरी थोड़ी ना है। हो सकता है कि कोई ऐसा काम हो उन्हें जिसे सिर्फ आप ही कर सकते हों। वैसे वो तीनो इस वक़्त हवेली में नहीं हैं इस लिए आप बेफ़िक्र हो कर भाभी से मिल सकते हैं।"

"तू क्या समझती है मैं उन तीनों से डरता हूं?" मैंने शर्ट के बटन लगाते हुए कहा____"मुझे अगर किसी से मिलना भी होगा ना तो मैं किसी के होने की परवाह नहीं करुंगा और ये बात तू अच्छी तरह जानती है।"

"हां जानती हूं।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"इस हवेली में दादा ठाकुर के बाद एक आप ही तो ऐसे हैं जो सच मुच के ठाकुर साहब हैं।"
"अब तू मुझे चने के झाड़ पर न चढ़ा समझी।" मैंने कुसुम के सिर पर एक चपत लगाते हुए कहा____"अब जा तू और जा कर भाभी से कह कि मैं उनसे मिलने आ रहा हूं।"

"आपने तो मुझे एकदम से डाकिया ही बना लिया है।" कुसुम ने फिर से बुरा सा मुँह बना कर कहा____"कभी इधर संदेशा देने जाऊं तो कभी उधर। बड़े भाई होने का अच्छा फायदा उठाते हैं आप। आपको ज़रा भी मुझ मासूम पर तरस नहीं आता।"

"इस हवेली में एक तू ही है जिस पर तरस ही नहीं बल्कि प्यार भी आता है मुझे।" मैंने कुसुम के चेहरे को सहलाते हुए कहा____"बाकियों की तरफ तो मैं देखना भी नहीं चाहता।"

"हां अब ये ठीक है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा___"अब जा रही हूं भाभी को बताने कि आप आ रहे हैं उनसे मिलने, इस लिए वो जल्दी से आपके लिए आरती की थाली सजा के रख लें...हीहीहीही।"
"तू अब पिटेगी मुझसे।" मैंने उसे आँखें दिखाते हुए कहा____"बहुत बोलने लगी है तू।"

मेरे ऐसा बोलने पर कुसुम शरारत से मुझे अपनी जीभ दिखाते हुए कमरे से बाहर चली गई। उसकी इस शरारत पर मैं बस हल्के से मुस्कुराया और फिर ये सोचने लगा कि अब भाभी को भला मुझसे क्या काम होगा जिसके लिए वो मुझसे मिलना चाहती हैं?
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 13
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अब तक,,,,,

"इस हवेली में एक तू ही है जिस पर तरस ही नहीं बल्कि प्यार भी आता है मुझे।" मैंने कुसुम के चेहरे को सहलाते हुए कहा____"बाकियों की तरफ तो मैं देखना भी नहीं चाहता।"

"हां अब ये ठीक है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा___"अब जा रही हूं भाभी को बताने कि आप आ रहे हैं उनसे मिलने, इस लिए वो जल्दी से आपके लिए आरती की थाली सजा के रख लें...हीहीहीही।"
"तू अब पिटेगी मुझसे।" मैंने उसे आँखें दिखाते हुए कहा____"बहुत बोलने लगी है तू।"

मेरे ऐसा बोलने पर कुसुम शरारत से मुझे अपनी जीभ दिखाते हुए कमरे से बाहर चली गई। उसकी इस शरारत पर मैं बस हल्के से मुस्कुराया और फिर ये सोचने लगा कि अब भाभी को भला मुझसे क्या काम होगा जिसके लिए वो मुझसे मिलना चाहती हैं?

अब आगे,,,,,


कुसुम के जाने के बाद मैं भाभी के बारे में कुछ देर तक सोचता रहा और फिर जब मुझे लगा कि कुसुम ने भाभी को मेरे आने के बारे में बता दिया होगा तो मैं कमरे से निकल कर लम्बी राहदारी से होते हुए दूसरे छोर पर बने भाभी के कमरे की तरफ आ गया। इन चार महीनों में ये भी एक बदलाव ही हुआ था कि जिस भाभी से मैं हमेशा दूर दूर ही रहता था वो अब मेरे सामने आ रहीं थी। अपने गांव की ही नहीं बल्कि आस पास के गांवों की भी जाने कितनी ही लड़कियों और औरतों से मैं मज़े ले चुका था मगर मैं ये हरगिज़ नहीं चाहता था कि मेरी नीयत भाभी के रूप सौंदर्य की वजह से उन पर ख़राब हो जाए।

मैं अभी भाभी के कमरे के पास ही पंहुचा था कि भाभी मुझे सीढ़ियों से ऊपर आती हुई दिखीं तो मैं दरवाज़े के पास ही रुक गया। सुर्ख रंग की साड़ी में भाभी गज़ब ढा रहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे उनके चेहरे पर चन्द्रमा का नूर चमक रहा हो। दूध में हल्का केसर मिले जैसा गोरा सफ्फाक बदन उनकी साड़ी से झलक रहा था। पेट के पास उनकी साड़ी थोड़ा सा हटी हुई थी जिससे उनका एकदम सपाट और रुई की तरह मुलायम पेट चमकता हुआ दिख रहा था। अचानक ही मुझे ख़याल आया कि मेरी नज़र उनके बेदाग़ पेट पर जम सी गई है और मेरी धड़कनें पहले से तेज़ हो चली हैं तो मैंने झट से अपनी नज़रें उनके पेट से हटा ली। मुझे अपने आप पर ये सोच कर बेहद गुस्सा भी आया कि मैंने उनकी तरफ देखा ही क्यों था।

भाभी जब चल कर मेरे क़रीब आईं तो मुझे देख कर वो हल्के से मुस्कुराईं। उनकी मुस्कान ऐसी थी कि बड़े से बड़ा साधू महात्मा भी उन पर मोहित हो जाए, मेरी भला औकात ही क्या थी? भाभी की मुस्कान पर मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी बल्कि चुप चाप ख़ामोशी से दरवाज़े से एक तरफ हट गया। मेरे एक तरफ हट जाने पर वो मेरे सामने से निकल कर कमरे के दरवाज़े को अपने हाथों से खोला और कमरे के अंदर दाखिल हो ग‌ईं। मेरे मन में अब भी यही सवाल था कि उन्होंने मुझसे मिलने के लिए कुसुम से क्यों कहा होगा? ख़ैर उन्होंने कमरे के अंदर से मुझे आवाज़ दी तो मैं कमरे के अंदर चला गया।

"कहीं जा रहे थे क्या देवर जी?" मैं जैसे ही अंदर पंहुचा तो रागिनी भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा।
"हां वो ज़रूरी काम से बाहर जा रहा था।" मैंने खड़े खड़े ही सपाट भाव से कहा____"कुसुम ने बताया कि आप मुझसे मिलना चाहतीं थी? कोई काम था क्या मुझसे?"

"क्या बिना कोई काम के मैं अपने देवर जी से नहीं मिल सकती?" मेरे पूछने पर भाभी ने उल्टा सवाल करते हुए कहा तो मैंने कहा____"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।"

"देखो वैभव मैं ये तो नहीं जानती कि तुम मेरे सामने आने से हमेशा कतराते क्यों रहते हो?" भाभी ने कहा____"किन्तु मैं तुमसे बस यही कहना चाहती हूं कि जो कुछ हुआ है उसे भूल कर एक नई शुरुआत करो। हम सब यही चाहते हैं कि तुम दादा ठाकुर के साथ रहो और उनका कहना मानो। तुम सोच रहे होंगे कि मैं तुम्हें इसके लिए इतना ज़ोर क्यों दे रही हूं तो इसका जवाब यही है कि सबकी तरह मैं भी यही चाहती हूं कि दादा ठाकुर के बाद तुम उनकी जगह सम्हालो।"

"मुझे दादा ठाकुर बनने का कोई शौक नहीं है।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"कल भी मैंने आपसे यही कहा था और हर बार यही कहूंगा। पिता जी के बाद उनकी जगह उनका बड़ा बेटा ही सम्हालेगा और यही नियम भी है। मैं इस सबसे दूर ही रहना चाहता हूं। अगर आपने मुझसे इसी बात के लिए मिलने की इच्छा ज़ाहिर की थी तो मेरा जवाब आपको मिल चुका है और अब मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

"क्या तुमने इस बारे में एक बार भी नहीं सोचा वैभव कि मैं तुम्हें इसके लिए इतना ज़ोर दे कर क्यों कह रही हूं?" भाभी ने जैसे उदास भाव से कहा___"क्या मुझे ये पता नहीं है कि दादा ठाकुर का उत्तराधिकारी उनका बड़ा बेटा ही होगा?"

"मैं फ़ालतू चीज़ों के बारे में सोचना ज़रूरी नहीं समझता।" मैंने कहा____"मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि जिसका जिस चीज़ में अधिकार है उसको वही मिले। मुझे बड़े भैया के अधिकार को छीनने का ना तो कोई हक़ है और ना ही मैं ऐसा करना चाहता हूं।"

"अधिकार उसे दिया जाता है वैभव जो उसके लायक होता है।" भाभी ने सहसा शख़्त भाव से कहा____"तुम्हारे बड़े भैया इस अधिकार के लायक ही नहीं हैं।"
"बड़े आश्चर्य की बात है।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"आप अपने ही पति के बारे में ऐसा कह रही हैं?"

"मैं किसी की पत्नी के साथ साथ इस हवेली की बहू भी हूं वैभव।" भाभी ने पुरज़ोर लहजे में कहा____"और हवेली की बहू होने के नाते मेरा ये फ़र्ज़ है कि मैं उसी के बारे में सोचूं जिसमे सबकी भलाई के साथ साथ इस हवेली और इस खानदान की मान मर्यादा पर भी कोई आंच न आए।"

"तो आप ये समझती हैं कि बड़े भैया इस अधिकार के लायक नहीं हैं?" मैंने गहरी नज़र से उन्हें देखते हुए कहा____"क्या मैं जान सकता हूं कि आप ऐसा क्यों समझती हैं?"

"इसके उत्तर में मैं बस यही कहूंगी वैभव कि वो अपने इस अधिकार के लायक नहीं है।" भाभी ने नज़रे नीचे कर के कहा____"अगर ऐसा न होता तो मैं तुमसे इसके लिए कभी नहीं कहती और इतना ही नहीं बल्कि दादा ठाकुर खुद भी तुमसे ऐसा न कहते।"

"आपको कैसे पता कि पिता जी ने मुझसे इसके लिए क्या कहा है?" मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखते हुए पूछा था।
"मुझे माँ जी से पता चला है।" भाभी ने कहा____"और माँ जी से दादा ठाकर ने खुद इस बारे में बताया था कि उन्होंने तुमसे उस दिन खेत में क्या क्या कहा था।"

भाभी की बात सुन कर मैं तुरंत कुछ न बोल सका था बल्कि इस सोच में पड़ गया था कि आख़िर ऐसी क्या बात है जिससे पिता जी और भाभी बड़े भैया के बारे में ऐसा कहते हैं?

"फिर तो आपको ये भी पता होगा कि पिता जी ने मुझे किस वजह से गांव से निष्कासित किया था?" मैंने कुछ सोचते हुए भाभी से कहा____"और अगर पता है तो आप जब उस दिन मुझसे मिलने आईं थी तो मुझे इस बारे में बताया क्यों नहीं था?"

"मेरे बताने से क्या तुम्हारे अंदर का गुस्सा और नफ़रत दूर हो जाती?" भाभी ने कहा____"नहीं देवर जी कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें उचित समय पर सही आदमी से ही पता चलें तो बेहतर होता है। मुझे यकीन है कि आज जब तुम दादा ठाकुर के साथ शहर गए थे तब ज़रूर तुम्हारे और उनके बीच इस बारे में बातें हुई होंगी और जब तुम्हें असलियत का पता चला होगा तो तुम्हे फ़ौरन ही समझ आ गया होगा कि वो सही थे या ग़लत?"

"जो भी हो।" मैंने कहा____"पर इसके लिए उन्होंने मुझे बली का बकरा ही तो बनाया ना? चार महीने मैंने कैसे कैसे कष्ट सहे हैं उसका हिसाब कौन देगा? अपने मतलब के लिए मेरे साथ ऐसा करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं था।"

"ये तुम कैसी बातें कर रहे हो वैभव?" मेरी बात सुन कर भाभी ने हैरानी से कहा____"तुम दादा ठाकुर के बारे में ऐसा कैसे कह सकते हो? वो तुम्हारे पिता हैं और तुम पर उनका पूरा अधिकार है। ऐसी बातें कर के तुमने अच्छा नहीं किया देवर जी। तुम जैसे भी थे लेकिन कम से कम मैं तुम्हें कुछ मामलों में बहुत अच्छा समझती थी।"

"मैं हमेशा से ही बुरा था भाभी।" मैंने कहा____"और बुरा ही रहना चाहता हूं। आपको मुझे अच्छा समझने की ग़लती नहीं करनी चाहिए।"
"मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम ऐसी बातें क्यों करते हो?" भाभी ने बेचैन भाव से कहा____"आख़िर ऐसी क्या वजह है कि तुम हम सबसे खुद को अलग रखते हो? क्या हम सब तुम्हारे दुश्मन हैं? क्या हम सब तुमसे प्यार नहीं करते?"

"चलता हूं भाभी।" मैंने हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम करते हुए कहा____"माफ़ कीजिएगा पर मुझे इस सब में कोई दिलचस्पी नहीं है।"
"तुम ऐसे नहीं जा सकते वैभव।" भाभी ने जैसे हुकुम देने वाले लहजे में कहा____"तुम्हें बताना होगा कि तुम ऐसा क्यों करते हो?"

"मैं आपकी बहुत इज्ज़त करता हूं भाभी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और मेरे अंदर आपके प्रति कोई बैर भाव नहीं है और मैं चाहता हूं कि ऐसा हमेशा ही रहे। मैं अपने ऊपर किसी की बंदिशें पसंद नहीं करता और ना ही मैं किसी के इशारे पर चलना पसंद करता हूं। आपने मुझसे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तो मैंने आपसे मिल लिया और आपकी बातें भी सुन ली। अब मुझे जाने की इजाज़त दीजिए।"

भाभी मेरी बातें सुन कर मेरी तरफ देखती रह गईं थी। शायद वो ये समझने की कोशिश कर रहीं थी कि मैं किस तरह का इंसान हूं। जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैंने उन्हें एक बार फिर से प्रणाम किया और पलट कर कमरे से बाहर निकल गया।

भाभी से ऐसी बेरुख़ी में बातें करना मेरे लिए बेहद ज़रूरी था क्योंकि जब से मैं यहाँ आया था तब से उनका बर्ताव मेरे लिए बदला बदला सा लगने लगा था और मैं नहीं चाहता था कि वो मेरे क़रीब आने की कोशिश करें। मैं जानता था कि वो अपनी जगह सही हैं मगर उन्हें नहीं पता था कि मेरे अंदर क्या था।

सीढ़ियों से उतर कर नीचे आया तो माँ मुझे मिल ग‌ईं। मुझे हवेली से बाहर जाता देख उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया कि मैं कहा जा रहा हूं तो मैंने चलते चलते ही कहा कि ज़रूरी काम से बाहर जा रहा हूं। वो जानती थी कि मुझे इस तरह किसी की टोका टोकी पसंद नहीं थी।

"शाम को जल्दी घर आ जाना बेटा।" पीछे से माँ की मुझे आवाज़ सुनाई दी____"तुझे पता है ना कि आज होलिका दहन है इस लिए मैं चाहती हूं कि शाम को तू भी हमारे साथ ही रहे।"
"जी बेहतर।" कहने के साथ ही मैं मुख्य दरवाज़े से बाहर निकल गया।

हवेली से बाहर आ कर मैं उस तरफ बढ़ चला जहां पर गाड़ियां रखी होतीं थी। आस पास मौजूद दरबान लोग मुस्तैदी से खड़े थे और मुझे देखते ही उन सबकी गर्दन अदब से झुक गई थी। वो सब मेरे बारे में अच्छी तरह जानते थे कि मैं हवेली के बाकी लड़को से कितना अलग था और किसी की ज़रा सी भी ग़लती पर मैं कितना उग्र हो जाता था। इस लिए मेरे सामने हवेली का हर दरबान पूरी तरह मुस्तैद हो जाता था।

मैने अपनी दो पहिया मोटर साइकिल निकाली और उसमे बैठ कर उसे स्टार्ट किया। मोटर साइकिल के स्टार्ट होते ही वातावरण में बुलेट की तेज़ आवाज़ गूँज उठी। मैं बुलेट को आगे बढ़ाते हुए हवेली के हाथी दरवाज़े से हो कर बाहर निकल गया।

जैसा कि मैंने बताया था हवेली गांव के आख़िरी छोर पर सबसे अलग बनी हुई थी। हवेली से निकलने के बाद थोड़ी दूरी से गांव की आबादी शुरू होती थी। कच्ची सड़क के दोनों तरफ कच्चे मकान बने हुए थे। गांव के साहूकारों के घर दूसरे छोर पर थे और उनके मकान पक्के बने हुए थे। हमारे बाद गांव में वही संपन्न थे। हमारी ज़मीन बहुत थी जो दूसरे गांवों तक फैली हुई थी।

गांव से बाहर जाने के लिए साहूकारों के घर के सामने से गुज़ारना पड़ता था। साहूकारों के पास भी बहुत ज़मीनें थी और बहुत ज़मीनें तो उन्होंने ग़रीब लोगों को कर्ज़ा दे कर उनसे हड़प ली थी। ठाकुरों के साथ साहूकारों के सम्बन्ध हमेशा से ही थोड़े तनाव पूर्ण रहे थे किन्तु हमारी ताकत के सामने कभी उन लोगों ने अपना सिर नहीं उठाया था। हलांकि साहूकारों की नई पीढ़ी अब मनमानी पर उतर आई थी।

मैं बुलेट से चलते हुए साहूकारों के सामने से निकला तो मेरी नज़र सड़क के किनारे पर लगे पीपल के पेड़ के नीचे बने बड़े से चबूतरे पर बैठे साहूकारों के कुछ लड़कों पर पड़ी। वो सब आपस में बातें कर रहे थे लेकिन मुझे देखते ही चुप हो गए थे और मेरी तरफ घूरने लगे थे। साहूकारों के इन लड़कों से मेरा छत्तीस का आंकड़ा था और वो सब मेरे द्वारा कई बार पेले जा चुके थे।

मैं उन सबकी तरफ देखते हुए मुस्कुराया और फिर निकल गया। मैं जानता था कि मेरे मुस्कुराने पर उन सबकी झांठें तक सुलग गईं होंगी किन्तु वो मेरा कुछ नहीं उखाड़ सकते थे। ऐसा नहीं था कि उन्होंने मेरा कुछ उखाड़ने का कभी प्रयास ही नहीं किया था बल्कि वो तो कई बार किया था मगर हर बार मेरे द्वारा पेले ही गए थे।

बुलेट से चलते हुए मैं कुछ ही देर में मुंशी चंद्रकांत के घर पहुंच गया। मुंशी चंद्रकांत का घर पहले साहूकारों के पास ही था लेकिन साहूकार उसे अक्सर किसी न किसी बात पर परेशान करते रहते थे जिसकी वजह से दादा ठाकुर ने मुंशी के लिए गांव से बाहर हमारी ही ज़मीन पर एक बड़ा सा पक्का मकान बनवा दिया था और साहूकारों को ये शख़्त हिदायत दी गई थी कि अब अगर उनकी वजह से मुंशी चंद्रकांत को किसी भी तरह की परेशानी हुई तो उनके लिए अच्छा नहीं होगा। दादा ठाकुर की इस हिदायत के बाद आज तक अभी ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। मुंशी ने अपना पहले वाला घर पिता जी के ही कहने पर एक ग़रीब किसान को दे दिया था।

बुलेट की आवाज़ सुन कर मुंशी के मकान का दरवाज़ा खुला तो मेरी नज़र दरवाज़े के पार खड़ी मुंशी की बहू रजनी पर पड़ी। उसे देखते ही मेरे होंठों पर मुस्कान फैल गई और यही हाल उसका भी हुआ। मैंने बुलेट को बंद किया और उतर कर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।

कुछ ही पलों में मैं रजनी के पास पहुंच गया। रजनी मुस्कुराते हुए मुझे ही देख रही थी और जैसे ही मैं उसके क़रीब पहुंचा तो वो दरवाज़े के अंदर की तरफ दो क़दम पीछे को हो ग‌ई। मैं मुस्कुराते हुए दरवाज़े के अंदर आया और फिर झट से दरवाज़ा बंद कर के रजनी को अपनी बाहों में कस लिया।

"ये क्या कर रहे हैं छोटे ठाकुर?" रजनी ने मेरी बाहों से निकलने की कोशिश करते हुए धीमी आवाज़ में कहा____"मां जी अंदर ही हैं और अगर वो इस तरफ आ गईं तो गज़ब हो जाएगा।"

"आने दे उसे।" मैंने रजनी को पलटा कर उसकी पीठ अपनी तरफ करते हुए कहा____"उसे भी तेरी तरह अपनी बाहों में भर कर प्यार करने लगूंगा।"
"अच्छा जी।" रजनी ने मेरे पेट में अपनी कोहनी से मार कर कहा____"क्या मुझसे आपका मन भर गया है जो अब मेरी बूढ़ी सास को भी प्यार करने की बात कह रहे हैं?"

"बूढ़ी वो तेरी नज़र में होगी।" मैंने रजनी की बड़ी बड़ी चूचियों को मसलते हुए कहा तो उसकी सिसकी निकल गई, जबकि मैंने आगे कहा____"मेरे लिए तो वो तेरी तरह कड़क माल ही है। तूने अभी देखा ही नहीं है कि तेरी सास कैसे मेरे लंड को मुँह में भर कर मज़े से चूसती है।"

"आप बहुत वो हैं।" रजनी ने अपना हाथ पीछे ले जा कर पैंंट के ऊपर से ही मेरे लंड को सहलाते हुए कहा____"हम दोनों के मज़े ले रहे हैं मगर कभी ये नहीं सोचा कि अगर किसी दिन हमारा भांडा फूट गया तो हमारा क्या होगा?"

"मेरे रहते तुम दोनों को चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने रजनी के ब्लॉउज में हाथ डाल कर उसकी एक चूची को ज़ोर से मसला तो इस बार उसकी सिसकी ज़ोर से निकल गई____"ख़ैर ये सब छोड़ और आज शाम को बगीचे में मिल। चार महीने हो गए तुझे चोदे हुए और अब मुझसे रहा नहीं जा रहा।"

"मैं भी तो आपसे चुदवाने के लिए तब से ही तड़प रही हूं।" रजनी ने मेरे लंड को तेज़ तेज़ सहलाते हुए कहा जिससे मेरा लंड पैंट के अंदर ही किसी नाग की तरह फनफना कर खड़ा हो गया था, उधर रजनी ने आगे कहा____"रात में जब वो करते हैं तो मुझे ज़रा भी मज़ा नहीं आता। तब आपकी याद आती है और फिर सोचती हू कि उनकी जगह पर काश आप होते तो कितना मज़ा आता।"

"तेरा पति तो साला नपुंसक है।" मैंने एक हाथ से रजनी की चूंत को उसकी साड़ी के ऊपर से ही मसलते हुए कहा जिससे वो कसमसाने लगी____"उसमे तो दम ही नहीं है अपनी बीवी को हचक के चोदने का। ख़ैर तू आज शाम को बगीचे में उसी जगह पर मिल जहां पर हम हमेशा मिला करते थे।"

"ठीक है मैं समय से पहुंच जाऊंगी वहां।" रजनी ने मेरे लंड से अपना हाथ हटाते हुए कहा____"अब छोड़िए मुझे। कहीं माँ जी ना आ जाएं। आपसे कितनी बार कहा है कि एक बार मुझे भी उनके साथ करते हुए दिखा दीजिए मगर आप सुनते कहा हैं मेरी? क्या आपका मन नहीं करता कि आप हम दोनों सास बहू को एक साथ चोदें?"

"मन तो करता है मेरी जान।" मैंने रजनी के होठों को चूमने के बाद कहा___"मगर ऐसा मौका भी तो मिलना चाहिए। ख़ैर तू चिंता न कर। इस बार मौका मिला तो तुझे और तेरी सास दोनों को ही एक साथ पेलूंगा।"

मेरी बात सुन कर रजनी के चेहरे पर ख़ुशी की चमक उभर आई। अभी हम बात ही कर रहे थे कि तभी अंदर से रजनी की सास और मुंशी की बीवी प्रभा की आवाज़ हमारे कानों में पड़ी। रजनी की सास रजनी को आवाज़ दे कर पूछ रही थी कि कौन आया है बाहर?

प्रभा की इस आवाज़ पर मैं रजनी को छोड़ कर अंदर की तरफ चल दिया जबकि रजनी वहीं पर खड़ी हो कर अपनी साड़ी और ब्लॉउज को ठीक करने लगी थी। कुछ ही देर में मैं अंदर आँगन में आया तो देखा प्रभा अपने हाथ में सूपा लिए इस तरफ ही आ रही थी। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर मुस्कुराने लगी।

मुंशी की बीवी प्रभा इस उम्र में भी गज़ब का माल लगती थी। गठीला जिस्म था उसका और जिस्म में झुर्रियों के कही निशान तक नहीं थे। उसके सीने पर दो भारी भरकम खरबूजे जैसी चूचियां थी जो तंग ब्लॉउज की वजह से ब्लॉउज को फाड़ कर बाहर उछाल पड़ने को आतुर थे। प्रभा थोड़ी सांवली थी किन्तु लंड की सवारी वो अपनी बहू से कहीं ज़्यादा पूरे जोश से करती थी।

"क्या बात है।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"आज छोटे ठाकुर हमारे घर में कैसे? कहीं रास्ता तो नहीं भूल गए?"
"मुंशी काका कहां हैं?" रजनी को पीछे से आता देख मैंने प्रभा से कहा____"मुझे उनसे कुछ ज़रूरी काम है।"

"वो तो इस वक़्त यहाँ नहीं हैं।" प्रभा ने कहा____"दोपहर को रघू के साथ कहीं गए थे और अब तक नहीं लौटे। ख़ैर आप मुझे बताइए क्या काम था उनसे?"
"उनसे कहना मुझसे आ कर मिलें।" मैंने ठाकुरों वाले रौब में कहा____"और ये भी कहना कि मुझसे मिलने में उन्हें देरी नहीं होनी चाहिए।"

"जी बिलकुल छोटे ठाकुर।" प्रभा ने सिर हिलाते हुए कहा___"अरे! आप खड़े क्यों हैं बैठिए ना।"

प्रभा ने हाथ में लिए हुए सूपे को एक तरफ रखा और आँगन के एक कोने में रखी चारपाई को बिछा दिया। मैं जा कर चारपाई में बैठ गया। हलांकि अब मैं यहाँ रुकना नहीं चाहता था किन्तु मैं एक बार प्रभा की बेटी कोमल को भी देख लेना चाहता था। पिछली बार जब मैं उससे मिला था तब मैं उसे पटाने में लगभग कामयाब हो ही गया था। उसके बाद पिता जी ने गांव से निष्कासित कर देने का फैसला सुना दिया था तो मेरी गाड़ी आगे नहीं बढ़ पाई थी।

अभी मैं इधर उधर देख ही रहा था कि तभी रजनी लोटा और गिलास में पानी ले कर आई और मेरी तरफ गिलास बढ़ाया तो मैंने उसके हाथ से गिलास ले लिया। पानी पीते हुए मैंने रजनी की तरफ देखा तो उसके होठों पर बड़ी जानदार मुस्कान उभरी हुई थी।

"मां जी आपने पिता जी से कहा क्यों नहीं कि वो वापसी में कोमल को भी साथ ले आएंगे?" रजनी ने पलट कर प्रभा की तरफ देखते हुए कहा____"और कितने दिन वो मौसी जी के यहाँ रहेगी?"

"मुझे उनसे ये कहने का ख़याल ही नहीं आया बहू।" प्रभा ने कहा____"कल से पूरा एक महीना हो जायेगा कोमल को यहाँ से गए हुए। मैंने तो जीजा जी से कहा भी था कि वो उसे दस पंद्रह दिन में भेज देंगे मगर लगता है कि उन्हें फसलों की कटाई के चलते कोमल को भेजने का समय ही नहीं मिल रहा होगा।"

प्रभा की बात सुन कर रजनी बोली तो कुछ न लेकिन वो तिरछी नज़रों मेरी तरफ देख कर मुस्कुराई ज़रुर। मैं समझ गया कि शायद उसे अपनी ननद के बारे में पता चल गया है और उसने जब मुझे इधर उधर देखते हुए देखा था तो शायद वो समझ गई थी कि मैं किसे देखने की कोशिश कर रहा हूं। रजनी अपनी सास की ही तरह बहुत चालाक थी। ख़ैर अब जबकि मुझे पता चल चुका था कि कोमल अपनी मौसी के यहाँ है तो अब यहाँ मेरे रुकने का सवाल ही नहीं था। इस लिए मैं चारपाई से उठा और रजनी की सास से चलने को कहा तो उसने इशारे से ही सिर हिला दिया। मैंने आँखों के इशारे से रजनी को एक बार फिर ये बताया कि वो आज शाम को बगीचे वाले अड्डे पर मिले।

मुंशी के घर से मैं बुलेट में बैठ कर चल पड़ा। अब मेरी मंज़िल मुरारी काका का घर थी। मैं मुरारी काका के घर जा कर देखना चाहता था कि वहां का माहौल कैसा है और उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है? ये सोच कर मैं दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला। मैं मुख्य सड़क से न जा कर उसी रास्ते से चल पड़ा जिस रास्ते से मैं पिछले दिन बग्घी में बैठ कर अपने झोपड़े से आया था।

फागुन का महीना चल रहा था और हर जगह खेतों में गेहू की कटाई चालू थी। पगडण्डी के दोनों तरफ हमारी ही ज़मीन थी और हमारे खेतों पर मजदूर गेहू की कटाई में लगे हुए थे। बुलेट की आवाज़ सुन कर उन सबका ध्यान मेरी तरफ गया तो सबने मुझे पहचान कर अदब से सिर नवाया जबकि मैं बिना उनकी तरफ देखे बढ़ता ही चला जा रहा था। कुछ दूरी से खेत समाप्त हो जाते थे और बंज़र ज़मीन शुरू हो जाती थी। बंज़र ज़मीन के उस पार जंगल लगा हुआ था।

कुछ ही देर में मैं अपने झोपड़े के पास पहुंच गया। झोपड़े के पास बुलेट को खड़ी कर के मैंने कुछ देर झोपड़े का और आस पास का जायजा लिया और फिर से बुलेट में बैठ कर चल दिया। अब मैं मुरारी काका के घर जा रहा था।

कुछ ही देर में मुरारी काका के घर के सामने पहुंच कर मैंने बुलेट खड़ी की। पेड़ के पास बने चबूतरे पर आज कोई नहीं बैठा था और ना ही आस पास कोई दिख रहा था। मुरारी काका का घर वैसे भी गांव से हट कर बना हुआ था, जहां पर मुरारी काका के खेत थे। ये बुलेट की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि कुछ ही पलों में मुरारी काका के घर का दरवाज़ा खुल गया और मेरी नज़र दरवाज़े के उस पार खड़ी अनुराधा पर पड़ी। इस वक़्त अनुराधा जिस रूप में मुझे दिख रही थी उससे मैं उसकी तरफ एकटक देखता रह गया था, जबकि वो भी मुझे बुलेट जैसी मोटर साइकिल में आया देख अपलक देखने लगी थी। कुछ पलों तक तो वो मुझे अपलक ही देखती रही फिर जैसे उसे कुछ याद आया तो वो बिना कुछ कहे ही वापस अंदर की तरफ पलट गई। उसका इस तरह से पलट कर घर के अंदर चले जाना पता नहीं क्यों अच्छा नहीं लगा मुझे।

मैं आगे बढ़ा और दरवाज़े से अंदर दाखिल हो गया। मुरारी काका का घर मिटटी का बना हुआ था और घर के सामने थोड़ा सा मैदान था। घर के सामने मिट्टी की एक ही दीवार थी जिसमे लकड़ी का दरवाज़ा लगा हुआ था। दरवाज़े से अंदर जाते ही बड़ा सा आँगन था। आँगन के बाईं तरफ भी मिट्टी की ही एक दीवार थी जिसमे दरवाज़ा लगा हुआ था और उस दरवाज़े से घर के पीछे की तरफ जाना होता था। घर के पीछे एक कुआं था और उसी कुएं के बगल से सरोज काकी ने सब्जियों की एक छोटी सी बगिया लगा रखी थी। आँगन के सामने तरफ और दाएं तरफ दो दो दीवारों के हिसाब से चार कमरे बने हुए थे। सामने वाली दीवार के आगे तरफ क़रीब सात या आठ फ़ीट की एक दीवार बढ़ा कर रसोई बनाई गई थी और उसी रसोई की बढ़ी हुई दीवार के सामानांतर से लकड़ी की मोटी मोटी थून्ही ज़मीन में गाड़ कर और ऊपर से खपरैल चढ़ा कर बरामदा बनाया गया था।

मैं आँगन में आया तो अनुराधा मुझे सामने रसोई के पास ही बरामदे के पास खड़ी नज़र आई। घर के अंदर एकदम से ख़ामोशी छाई हुई थी। मैंने नज़र इधर उधर घुमा कर देखा तो सरोज काकी मुझे कहीं नज़र नहीं आई।

"मां खेतों में गेहू की फसल काट रही है।" मुझे इधर उधर देखता देख अनुराधा ने धीमी आवाज़ में कहा____"और छोटकू भी माँ के साथ ही है। अगर आप माँ से मिलने आए हैं तो वो आपको खेत पर ही मिलेगी।"

"तो तुम इस वक़्त इस घर में अकेली हो?" मैंने धड़कते हुए दिल से पूछा____"क्या तुम काकी के साथ गेहू कटवाने नहीं गई?"
"ग‌ई थी।" अनुराधा ने कहा____"लेकिन सिर दर्द करने लगा था तो माँ ने मुझे घर जाने को कह दिया। अभी थोड़ी देर पहले ही यहाँ आई हूं।"

अनुराधा इस वक़्त घर में अकेली थी और ये जान कर पता नहीं क्यों मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं थी। मुमकिन था कि मेरे जैसा ही हाल अनुराधा का भी होगा। आज से पहले कभी वो मेरे सामने अपने घर में अकेली नहीं थी। वो बरामदे के पास ही चुप चाप खड़ी थी और अपने दुपट्टे के छोर को पकड़ कर उसे कभी इधर उमेठती तो कभी उधर। मैं उसके मासूमियत से भरे चेहरे को ही निहारे जा रहा था और मेरा ज़हन न जाने क्या क्या सोचने में लगा हुआ था। अभी मैं सोचमे गुम ही था कि अचानक उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और जो कुछ उसने कहा उसने मेरे चेहरे का रंग ही उड़ा दिया।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 14
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अब तक,,,,,

"तो तुम इस वक़्त इस घर में अकेली हो?" मैंने धड़कते हुए दिल से पूछा____"क्या तुम काकी के साथ गेहू कटवाने नहीं गई?"
"ग‌ई थी।" अनुराधा ने कहा____"लेकिन सिर दर्द करने लगा था तो माँ ने मुझे घर जाने को कह दिया। अभी थोड़ी देर पहले ही यहाँ आई हूं।"

अनुराधा इस वक़्त घर में अकेली थी और ये जान कर पता नहीं क्यों मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं थी। मुमकिन था कि मेरे जैसा ही हाल अनुराधा का भी होगा। आज से पहले कभी वो मेरे सामने अपने घर में अकेली नहीं थी। वो बरामदे के पास ही चुप चाप खड़ी थी और अपने दुपट्टे के छोर को पकड़ कर उसे कभी इधर उमेठती तो कभी उधर। मैं उसके मासूमियत से भरे चेहरे को ही निहारे जा रहा था और मेरा ज़हन न जाने क्या क्या सोचने में लगा हुआ था। अभी मैं सोचमे गुम ही था कि अचानक उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी और जो कुछ उसने कहा उसने मेरे चेहरे का रंग ही उड़ा दिया।

अब आगे,,,,,


"क्या हुआ छोटे ठाकुर?" मेरे चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख अनुराधा ने इस बार मेरी तरफ एकटक देखते हुए कहा____"बताइए ना, उस रात आप और माँ एक साथ ही थे ना?"

अनुराधा ने यही बात पूछी थी मुझसे जिससे मेरे चेहरे का रंग उड़ गया था। हलांकि मैंने जल्दी ही खुद को सम्हाल लिया था मगर तब तक शायद देर हो चुकी थी और अनुराधा मेरे चेहरे के उड़े हुए रंग को देख कर समझ गई थी।

"सुना तो मैंने भी था आपके बारे में।" मुझे चुप देख अनुराधा ने संजीदगी से कहा____"मगर जब आप पिता जी के साथ इतने महीने से इस घर में आते जाते रहे और मैंने भी कभी आपको कुछ ग़लत करते नहीं देखा तो मुझे लगा कि मैंने बेकार में ही आपके बारे में तरह तरह की बातें सुनी थी। मैं आपको बहुत अच्छा इंसान समझने लगी थी छोटे ठाकुर मगर उस रात आपने जो किया उससे ये साबित हो गया कि मैंने जो कुछ आपके बारे में सुना था वो सब सच ही तो था। भला मैं ये कैसे सोच सकती थी कि जिस इंसान को मैं अच्छा समझती हूं वो असल में एक ऐसा इंसान है जो ना तो कोई रिश्ता देखता है और ना ही उमर। वो ये भी नहीं सोचता कि जिस इंसान ने बुरे वक़्त में उसकी इतनी मदद की थी उसी के घर की औरत को उसने अपनी हवश का शिकार बना लिया है। अगर उस रात मैं अपनी आँखों से वो सब नहीं देखती तो शायद मैं कभी भी कही सुनी बातों पर यकीन नहीं करती मगर सच तो आँखों के सामने ही जैसे निर्वस्त्र हो के खड़ा था।"

अनुराधा की बातों ने मेरे वजूद को हिला कर रख दिया था और मुझ में कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं रह गई थी किन्तु ज़हन में ये सवाल ज़रूर चकरा रहा था कि अगर अनुराधा ने उस रात सब कुछ देख ही लिया था तो दूसरे दिन सुबह जब उसने इस बारे में मुझसे बात की थी तो उसने खुल कर सब कुछ मुझे क्यों नहीं बता दिया था? बल्कि उसने तो अपनी बातों से यही ज़ाहिर किया था कि उसने कुछ नहीं देखा है। तभी मेरे मन में ख़याल आया कि अनुराधा ने शायद इस लिए ये सब मुझसे पहले नहीं कहा होगा क्योंकि उसे मुझसे बात करने का सही मौका ही नहीं मिला होगा।

"दूसरे दिन सुबह जब मैंने आपसे इस बारे में पूछा तो आपने मुझसे झूठ कहा कि आपने माँ को नहीं देखा था।" मुझे सोचो में गुम देख अनुराधा ने फिर कहा____"मैं चाहती तो उसी वक़्त आपको सब बता देती कि मैंने आप दोनों की करतूतें अपनी आँखों से देख ली हैं मगर मैं उस वक़्त आपसे ऐसा नहीं कह पाई थी क्योंकि मुझे इस बारे में आपसे बात करने में बेहद शर्म महसूस हो रही थी।"

"मुझे माफ़ कर दो अनुराधा।" मैं भला अब इसके सिवा क्या कहता____"मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हुई है।"
"माफी मांग लेने से क्या आपका गुनाह मिट जाएगा छोटे ठाकुर?" अनुराधा ने शख़्त भाव से कहा____"और फिर वो गुनाह सिर्फ आपने ही बस तो नहीं किया था बल्कि मेरी माँ ने भी तो किया था। मैंने देखा था कि कैसे वो अपनी इच्छा से वो सब ख़ुशी ख़ुशी कर रही थी। मुझे तो सोच कर ही घिन आती है कि मेरी अपनी माँ ने ऐसा घिनौना काम अपने बेटे की उम्र के लड़के के साथ किया।"

बोलते बोलते अनुराधा का चेहरा सुर्ख पड़ गया था। मैं पहली बार उस मासूम का ये रूप देख रहा था। हमेशा शांत रहने वाली लड़की आज मुझसे बड़ी ही शख़्ती से बात कर रही थी और इधर मैं किसी से भी न डरने वाला उसकी ऐसी बातें सुन कर अपराधी की भाँति अपनी गर्दन को झुकाए खड़ा रह गया था।

"जगन काका ने ठीक ही कहा था कि आपने ही उनके भाई की हत्या की है।" अनुराधा ने ये कहा तो मैंने चौंक कर उसकी तरफ देखा____"और मुझे भी यही लगता है कि आपने ही मेरे बाबू की हत्या की है।"

"नहीं अनुराधा ये झूठ है।" मैंने जैसे हताश भाव से कहा मगर उसने जैसे फटकारते हुए कहा____"अपनी गन्दी जुबान से मेरा नाम मत लीजिए छोटे ठाकुर। मेरे दिल में आपके प्रति जो इज्ज़त बनी थी वो उसी दिन मिट गई थी जिस दिन मैंने अपनी आँखों से आपको मेरी माँ के साथ वो घिनौना काम करते देखा था।"

"मैं मानता हूं कि मैंने काकी के साथ वो सब घिनौना काम कर के बहुत बड़ा गुनाह किया है।" मैंने शर्मिंदगी से कहा____"इसके लिए तुम जो चाहो सज़ा दे दो मुझे मगर मेरा यकीन मानो मैंने मुरारी काका की हत्या नहीं की है। भला मैं अपने फरिश्ता जैसे काका की हत्या क्यों करुंगा?"

"मुझे मूर्ख मत समझिए छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने गुस्से से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"मैं कोई दूध पीती बच्ची नहीं हूं जो कुछ समझती ही नहीं हूं। मैं अच्छी तरह जानती हूं कि आपने ही मेरे बाबू की हत्या की है क्योंकि आपके और माँ के नाजायज़ सम्बन्धों के बारे में मेरे बाबू को भी पता चल गया रहा होगा और जब उन्होंने आपसे इस बारे में कुछ कहा होगा तो आपने उन्हें जान से मार देने का सोच लिया। इसके लिए आपने उस रात मेरे बाबू को जम कर शराब पिलाई और उन्हें घर ले आए। मैंने देखा था उस रात मेरे बाबू को शराब के नशे में किसी बात का भी होश नहीं था। रात में आपने खाना खाया और चले गए। उसके बाद आपने हमारे सो जाने का इंतज़ार किया और जब आपने सोचा कि हम सब खा पी कर सो गए होंगे तो आप चुपके से यहाँ आए और बाबू को बहला फुसला कर घर के पीछे ले गए और फिर वहां आपने मेरे बाबू की हत्या कर दी।"

अनुराधा की ये बातें सुन कर मैं उसे हैरानी से इस तरह देखने लगा था जैसे अचानक ही अनुराधा के सिर पर आगरे का ताजमहल आ कर नाचने लगा हो। अनुराधा ने बड़ी ही कुशलता से मुझे अपने पिता का हत्यारा साबित कर दिया था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि भोली भाली सी दिखने वाली इस लड़की का ज़हन इतना कुछ भी सोच सकता है।

"अब चुप क्यों हो गए छोटे ठाकुर?" मुझे ख़ामोश देख अनुराधा ने कठोर भाव से कहा____"क्या ये सोचने लगे हैं कि मैंने आपको बेनक़ाब कर दिया है? मैं चाहती तो उसी दिन ये सब बातें चीख चीख कर सबके सामने कह देती मगर ये सोच कर चुप रही कि मेरे कहने से आपका भला क्या बिगड़ जाएगा? आप तो बड़े लोग हैं। भला हम ग़रीब लोग दादा ठाकुर के बेटे का क्या बिगाड़ लेंगे? इस लिए चुप ही रही और आज सोचती हूं कि सच ही तो सोचा था मैंने। क्योंकि मेरे बाबू की लाश सुबह से दोपहर तक पड़ी रह गई थी मगर जगन काका के रपट लिखाने के बाद भी दरोगा नहीं आया था। आता भी कैसे? दादा ठाकुर ने उसे पैसा खिला कर उसको मेरे बाबू की हत्या की जांच करने से ही मना कर दिया होगा।"

"ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है अनुराधा।" मैंने बेबस भाव से कहा____"तुम बेवजह ही जाने क्या क्या सोच रही हो। मैं ये मानता हूं कि मैंने और काकी ने एक साथ नाजायज़ सम्बन्ध बना कर गुनाह किया है और उसके लिए मैं तुम्हारी हर सज़ा भुगतने को भी तैयार हूं। लेकिन मैं अपने माता पिता की, यहाँ तक कि खुद अपनी क़सम खा कर कहता हूं कि मैंने मुरारी काका की हत्या नहीं की है। उन्हें मेरे और काकी के सम्बन्धों के बारे में कुछ भी नहीं पता था और जब उन्हें कुछ पता ही नहीं था तो वो मुझसे इस बारे में कैसे कुछ कहते और जब वो कुछ कहते ही नहीं तो मैं उनकी हत्या भला कैसे कर देता? एक पल के अगर ये मान भी लिया जाए कि काका को इन सम्बन्धों का पता था तब भी मैं उनकी हत्या करने जैसा गुनाह नहीं करता। मैं उनके पैरों में गिर कर उनसे अपने गुनाहों के लिए माफ़ी मांगता और उनसे कहता कि वो जो चाहें मुझे सज़ा दे दें। तुम यकीन नहीं करोगी अनुराधा मगर ये सच है कि आज के वक़्त में अगर किसी के लिए मेरे दिल में इज्ज़त और सम्मान की भावना है तो वो हैं मुरारी काका।"

"मुझे आप पर और आपकी बातों पर ज़रा सा भी भरोसा नहीं हो सकता छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने सपाट लहजे में कहा____"और हां एक बात और...मेरी आपसे हाथ जोड़ कर विनती है कि अब से आप यहाँ मत आइएगा। मैं अपने बाबू के हत्यारे को और मेरी माँ के साथ घिनौना काम करने वाले की सूरत भी नहीं देखना चाहती। अब आप जा सकते हैं।"

"मैं तुम्हें कैसे यकीन दिलाऊं अनुराधा?" मैंने हताश भाव से ये कहा ही था कि अनुराधा ने गुस्से में कहा____"मैंने कहा ना कि अपनी गन्दी जुबान से मेरा नाम मत लीजिए?"

"मैंने जो किया है उसको मैं तहे दिल से कबूल कर रहा हूं।" मैंने कहा____"और उसके लिए तुम्हारी हर सज़ा भुगतने को भी तैयार हूं।"
"मैं कौन होती हूं आपको सज़ा देने वाली?" अनुराधा ने अजीब भाव से कहा____"आप बड़े लोग हैं। आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।"

"ये सच है कि दूसरा कोई भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।" मैंने दो क़दम अनुराधा की तरफ बढ़ कर कहा____"मगर मुरारी काका के घर का हर सदस्य मेरा सब कुछ बिगाड़ सकता है। तुम्हें पूरा हक़ है अनुराधा कि तुम अपनी मर्ज़ी से जो चाहो मुझे सज़ा दे दो। मैं तुम्हारी हर सज़ा को ख़ुशी ख़ुशी कबूल कर लूंगा मगर मेरा यकीन करो मैंने मुरारी काका जैसे देवता की हत्या नहीं की है। वो मेरे लिए देवता जैसे ही थे और तुम्हारी तरह मुझे भी उनकी इस तरह हत्या हो जाने से दुःख है।"

पता नहीं मेरी बातों का असर था या कुछ और मगर इस बार अनुराधा कुछ बोली नहीं थी बल्कि मेरी तरफ अपलक देखती रह गई थी। उसके चेहरे का गुस्सा गायब होता प्रतीत हो रहा था और फिर से उसके चेहरे पर उसकी मासूमियत नज़र आने लगी थी। उसके चेहरे के बदलते भाव देख कर अभी मैंने राहत की सांस ली ही थी कि तभी अचानक फिर से उसके चेहरे के भाव पहले जैसे होते दिखे।

"आप मुझे बहला नहीं सकते छोटे ठाकुर।" फिर उसने कर्कश भाव से कहा____"मैं गांव की बांकी लड़कियों जैसी नहीं हूं जो आपकी बातों के जाल में फंस जाऊंगी और आपके लिए अपना सब कुछ लुटा दूंगी। ख़बरदार मेरे बारे में ऐसा सोचना भी मत। अब चले जाइए यहाँ से, मैं दादा ठाकुर के बेटे की सूरत भी नहीं देखना चाहती।"

"तुम्हें मेरा जितना अपमान करना हो कर लो अनुराधा।" मैं सच में उसकी बातों से खुद को बुरा महसूस करने लगा था, इस लिए थोड़ा दुखी भाव से बोला____"अगर तुम्हें मेरा इस तरह से अपमान करने में ही ख़ुशी मिलती है तो यही सही किन्तु एक बात मेरी भी सुन लो। मैं चार महीने पहले तक यकीनन बहुत बुरा था और गांव की हर लड़की या औरत को अपने नीचे लेटाने की ही सोचता था मगर अपने पिता द्वारा गांव से निष्कासित किये जाने पर जब से यहाँ आया हूं तब से मैं वैसा नहीं रहा। मुरारी काका से मुलाक़ात हुई और उनके साथ जब इस घर में आया तो तुम्हे देखा। शुरुआत में तुम्हें देख कर मेरे मन में यही आया था कि तुम्हें भी बांकी लड़कियों की तरह एक दिन अपने जाल में फसाऊंगा मगर मैं ऐसा नहीं कर सका। जानती हो क्यों? क्योंकि जब भी तुम्हें देख कर तुम्हें अपने जाल में फसाने की सोचता था तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारने लगती थी और कहती थी कि और कितनी मासूम कलियों को मसल कर उन्हें बर्बाद करोगे ठाकुर वैभव सिंह? अपनी आत्मा की इस आवाज़ पर हर बार मेरे इरादे ख़ाक में मिल जाते थे। उसके बाद तो फिर मैंने इस बारे में सोचना ही बंद कर दिया। तुम खुद ही मुझे बताओ कि क्या मैंने कभी तुम पर ग़लत नज़र डाली है? मैंने तो हमेशा ही अपनी आत्मा की आवाज़ को अनसुना किया था मगर तुमसे रूबरू होने के बाद मैं खुद नहीं जानता कि क्यों मैंने अपनी आत्मा की आवाज़ को अनसुना नहीं किया?"

इतना सब कहने के बाद मैं चुप हो गया और अनुराधा की तरफ देखने लगा। अनुराधा के चेहरे के भाव फिर से मुझे बदलते दिख रहे थे। ये सच था कि मैंने ये सब कह कर कोई डींगे नहीं मारी थी बल्कि अपने अंदर का सच ही कहा था और अब मैं एक सुकून सा महसूस कर रहा था। हलांकि इस बात से मैं अभी भी चिंतित था कि अनुराधा मुझे अपने बाप का हत्यारा समझती है जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।

"इन सब बातों के बाद भी अगर तुम मुझे ग़लत ही समझती हो तो कोई बात नहीं।" अनुराधा जब कुछ न बोली तो मैंने कहा____"तुम नहीं चाहती तो आज के बाद कभी तुम्हें अपनी सूरत नहीं दिखाऊंगा मगर मैं भी तब तक चैन से नहीं बैठूंगा जब तक मुरारी काका के असल हत्यारे का पता नहीं लगा लेता। जिस दिन मैंने असल हत्यारे को पकड़ लिया उसी दिन उस हत्यारे को ले कर तुम्हारे सामने आऊंगा और ये ठाकुर वैभव सिंह का वादा है तुमसे। चलता हूं अब।"

"रूक जाइए।" कहने के बाद मैं पलटा ही था कि पीछे से अनुराधा की ये आवाज़ मेरे कानों में पड़ी, जिसे सुन कर मैं ठिठक गया। मुझे रुक गया देख उसने इस बार थोड़े नरम लहजे में कहा____"समय बहुत ख़राब चल रहा है छोटे ठाकुर इस लिए अपना ख़याल रखिएगा।"

अनुराधा की ये बात सुन कर मैं मन ही मन बुरी तरह चौंका और पलट कर हैरानी से उसकी तरफ देखा। मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि अनुराधा ऐसा कहेगी। दूसरी चौंकाने वाली बात ये थी कि उसने समय के ख़राब होने की बात क्यों कही थी मुझसे और मुझे अपना ख़याल रखने के लिए क्यों कहा था उसने?

"ये क्या कह रही हो तुम?" मैंने हैरानी से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"समय ख़राब चल रहा है का क्या मतलब है और ये क्यों कहा कि मैं अपना ख़याल रखूं?"
"मैं जानती हूं कि आपने मेरे बाबू की हत्या नहीं की है।" अनुराधा ने सपाट लहजे में कहा____"मैंने तो बस ऐसे ही कहा था मगर इसका मतलब ये नहीं है कि मैंने आपको माफ़ कर दिया है। आपने जो घिनौना काम किया है उसके लिए मैं आपको कभी माफ़ नहीं कर सकती। अब रही बात इसकी कि मैंने समय ख़राब चलने की बात और आपको अपना ख़याल रखने की बात क्यों कही तो इसका जवाब ये है कि जो लोग मुसीबत मोल ले कर अकेले ही रास्तों पर चलते हैं उनके लिए ये ज़रूरी ही होता है कि वो अपना ख़याल रखें।"

"मैं कुछ समझा नहीं।" मैंने उलझ गए भाव से कहा____"आख़िर तुम्हारे कहने का मतलब क्या है?"
"इतने नासमझ तो नहीं लगते छोटे ठाकुर जो मेरी इतनी सी बात का मतलब भी ना समझ पाएं।" अनुराधा ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"अब जाइए यहाँ से। जगन काका दिन में कई बार यहाँ आ कर हमारा हाल चाल देखते हैं। अगर उन्होंने आपको यहाँ देख लिया तो आपका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन वो मेरे बारे में ग़लत ज़रूर सोच बैठेंगे और मैं नहीं चाहती कि पिता सामान मेरे काका मुझे शक की नज़रों से देखने लगें।"

अनुराधा की बातें सुन कर मैं कुछ देर उसके मासूम से चेहरे की तरफ देखता रहा। वो खुद भी मुझे ही देख रही थी। ये अलग बात है कि जल्दी ही उसने अपनी नज़रों को मुझ पर से हटा लिया था। उसके बाद मैं पलटा और घर से बाहर निकल गया। अपने मन में कई तरह के सवाल लिए मैंने बुलेट को स्टार्ट किया और मुरारी काका के गांव की तरफ चल दिया। इस बार मैं मुख्य सड़क से अपने गांव की तरफ जाना चाहता था।

मुरारी काका के गांव से होते हुए मैं मुख्य सड़क पर आ गया था और मेरी बुलेट कच्ची सड़क पर पीछे की तरफ धूल उड़ाते हुए जैसे उड़ी चली जा रही थी। सड़क के दोनों तरफ खेत थे जिनमे गेहू की पकी हुई फसल खड़ी थी और कुछ दूरी पर कुछ किसान लोग फसल की कटाई में भी लगे हुए थे। मैं अनुराधा की बातें सोचते हुए बुलेट चला रहा था कि तभी सामने कुछ दूर सड़क पर मुझे एक जीप खड़ी हुई दिखी और उस जीप के पास कई सारे लोग भी खड़े हुए दिखे। दूर से ही मैंने उस जीप को पहचान लिया। जीप हमारी ही थी किन्तु मैं ये सोचने लगा कि दोनों गांवों के बीच इस जगह पर हमारी जीप क्यों खड़ी थी? थोड़ा और पास गया तो जीप के ही पास खड़े लोगों के चेहरे साफ़ दिखे तो मैं उन चेहरों को भी पहचान गया।

जीप के पास बड़े भैया विभोर और अजीत के साथ खड़े थे और उन तीनों के सामने चार दूसरे लड़के खड़े थे। मैं उन चारों लड़कों को पहचान गया। वो चारों साहूकारों के लड़के थे। मैं समझ गया कि मेरे भाइयों के बीच साहूकारों के लड़कों की कोई बात चीत हो रही है। तभी उन सबकी नज़र मुझ पर पड़ी। मैं अब उनके काफी पास आ गया था। मेरी बुलेट जैसे ही उनके पास आ कर रुकी तो उन चारों लड़कों के चेहरे के भाव बदल गए और इधर बड़े भैया और विभोर अजीत के चेहरे पर भी अजीब से भाव उभर आए।

"क्या हो रहा है यहाँ?" मैंने बुलेट में बैठे बैठे ही शख़्त भाव से उन चारों की तरफ देखते हुए कहा तो वो चारों तो कुछ न बोले किन्तु बड़े भैया बोल पड़े____"तुम्हारी ज़रूरत नहीं है यहां। हम सम्हाल लेंगे इन्हें।"

"क्या इन लोगों ने आपका रास्ता रोका है?" मैंने इस बार थोड़ा और शख़्त भाव से कहा तो बड़े भैया ने इस बार गुस्से में कहा____"मैंने कहा न कि तुम्हारी ज़रूरत नहीं है, हम सम्हाल लेंगे। तुम जाओ यहाँ से।"

"लगता है गांव से निकाले जाने के बाद चार महीना जंगल में रह कर भी छोटे ठाकुर की गर्मी नहीं उत्तरी है।" साहूकारों के उन चारों लड़कों में से एक ने ब्यंग से मुस्कुराते हुए कहा____"किसी ने सच ही कहा है कि रस्सी जल गई पर बल नहीं गया।"

उसकी ये बात सुन कर बाकी के तीनों हंसने लगे तो मेरी झांठें सुलग गईं। मेरा चेहरा पलक झपकते ही गुस्से में तमतमा गया। मैं एक झटके से मोटर साइकिल से नीचे उतरा और बिजली की सी तेज़ी से आगे बढ़ कर मैंने एक मुक्का उस बोलने वाले लड़के के चेहरे पर जड़ दिया जिससे वो दूसरे वाले से टकराया तो दूसरा भी भरभरा कर तीसरे वाले से जा टकराया। इधर मेरे ऐसा करने पर बड़े भैया गुस्से में मुझे रुक जाने को बोले तो मैंने क़हर भरी नज़रों से उनकी तरफ देखा। मुझे गुस्से से अपनी तरफ देखता देख वो एकदम से चुप हो गए और उनके बगल से खड़े विभोर और अजीत सहम गए।

बड़े भैया को गुस्से से देखने के बाद अभी मैं वापस पलटा ही था कि उनमे से एक ने मुझे ज़ोर का धक्का मारा जिससे मैं पीछे फिसलते हुए बुलेट से जा टकराया। उनके द्वारा धक्का दिए जाने से मेरा गुस्सा और भी बढ़ गया। इससे पहले कि उनमे से कोई मुझ पर हमला करता मैंने एक को अपने पास देखा तो ज़ोर से एक लात उसके पेट में लगा दी जिससे वो दर्द से चीखते हुए पीछे की तरफ फिसलता चला गया। मुझे सम्हलने का मौका मिल चुका था इस लिए जैसे ही दूसरे ने मुझे मारने के लिए अपना एक हाथ चलाया तो मैंने गर्दन को दाएं तरफ कर के उसका वो हाथ पकड़ लिया और इससे पहले कि वो कुछ कर पाता मैंने तेज़ी से उसकी तरफ अपनी पीठ की और उसके उस हाथ को अपने दाएं कंधे पर रख कर नीचे की तरफ ज़ोर का झटका दिया। वातावरण में कड़कड़ की आवाज़ हुई और साथ ही दर्दनाक चीख भी गूँज उठी। मैंने उसका हाथ तोड़ दिया था। वो अपना हाथ दूसरे हाथ से पकड़े बुरी तरह दर्द से तड़पने लगा था। उसका ये हाल देख कर बाकी तीनों सकते में आ ग‌ए।

"वैभव ये तुमने क्या कर दिया?" पीछे से बड़े भैया की गुस्से में डूबी ये आवाज़ गूँजी तो मैंने पलट उनकी तरफ देखा और कहा____"अब आप जा सकते हैं यहाँ से। अगर आपको मेरी ज़रूरत नहीं थी तो मुझे भी किसी की ज़रूरत नहीं है। इन हिजड़ों के लिए वैभव सिंह अकेला ही काफी है।"

"तुम्हें अंदाज़ा भी है कि तुमने क्या किया है?" बड़े भैया ने गुस्से में कहा____"तुमने गुस्से में मानिक का हाथ तोड़ दिया है और इसके लिए इसका बाप पंचायत बुला कर तुम्हें सज़ा भी दिलवा सकता है।"

बड़े भैया की बात का अभी मैं जवाब देने ही वाला था कि तभी मेरी नज़र दाएं तरफ पड़ी। उनमे से एक लकड़ी का मोटा सा डंडा लिए मेरी तरफ तेज़ी से बढ़ा था। लकड़ी का वो डंडा जाने कहां से उसके हाथ में आ गया था। शायद सड़क के किनारे खेत पर ही कहीं पड़ा हुआ दिखा होगा उसे। ख़ैर जैसे ही उसने उस लकड़ी के डंडे को घुमा कर मेरी तरफ उसका प्रहार किया तो मैं जल्दी से झुक गया जिससे उसका वॉर मेरे सिर के ऊपर से निकल गया। प्रहार इतना तेज़ था कि वो खुद भी उसके ज़ोर पर तिरछा हो गया था और इससे पहले कि वो सीधा होता मैंने उछल कर एक लात उसकी पीठ पर मारी जिससे वो भरभरा कर ज़मीन पर जा गिरा। लकड़ी का डंडा उसके हाथ से छूट गया था जिसे मैंने फ़ौरन ही आगे बढ़ कर उठा लिया। अब मेरे हाथ में लकड़ी का वो मोटा सा डंडा था और आँखों में भयंकर गुस्से की आग।

"रूक जाओ अब, बहुत हो गया।" मुझे डंडा ले कर उनमे से एक की तरफ बढ़ते देख पीछे से बड़े भैया ज़ोर से चिल्लाए____"अब अगर तुमने किसी को मारा तो तुम्हारे लिए ठीक नहीं होगा।"
"इतनी भी कायरता मत दिखाइए बड़े भइया।" मैंने पलट कर शख़्त भाव से कहा____"कि आपके ठाकुर होने पर ही सवाल खड़ा हो जाए।"

"अपनी जुबान को लगाम दो वैभव।" बड़े भैया ने गुस्से से हुंकारते हुए कहा____"ठाकुर का मतलब ये नहीं होता कि बेवजह किसी का हाथ ही तोड़ दिया जाए।"
"तो आपकी नज़र में मैंने बेवजह ही इस हरामज़ादे मानिक का हाथ तोड़ा है?" मैंने गुस्से से हांफते हुए कहा____"वाह भैया वाह! आपको ये नहीं सुनाई दिया कि इसने आपके छोटे भाई को क्या कहा था, उल्टा आप इन लोगों की ही पैरवी करने लगे?"

"उसने जो कहा उसके लिए तुम्हें उसका हाथ तोड़ने की क्या ज़रूरत थी?" बड़े भैया ने शख़्त भाव से कहा____"दूसरे तरीके से भी तो उसे जवाब दे सकते थे तुम?"
"ठाकुर वैभव सिंह को सिर्फ एक ही तरीका आता है बड़े भइया।" मैंने उनकी आँखों में देखते हुए कहा____"और वो ये कि औकात से बाहर वाले अगर अपनी औकात दिखाएं तो उन्हें उसी वक्त उनकी औकात अपने तरीके से दिखा दो। ये हरामज़ादा साला अपनी औकात भूल गया था इस लिए इसे इसकी औकात दिलाना ज़रूरी हो गया था।"

"औकात तो अब मैं तुझे दिखाऊंगा वैभव सिंह।" पीछे से मानिक की ये आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मेरा गुस्सा फिर से आसमान छूने लगा और मैं डंडा लिए उसकी तरफ तेज़ी से बढ़ा और इससे पहले कि बड़े भैया मुझे रोक पाते मैंने घुमा कर डंडे का वार उसकी टांग पर किया तो वो हलाल होते बकरे की तरह चिल्लाया।

"तेरी माँ को चोदूं मादरचोद।" डंडा मारने के बाद मैंने गुस्से से कहा____"तू मेरी औकात दिखायेगा मुझे? अपने बाप हरिशंकर से जा कर मेरी औकात पूछ, जो मुझे देखते ही अपना सिर झुका कर मुझे सलाम करने लगता है। साले रंडी की औलाद तू मुझे औकात दिखाएगा? चल उठ बेटीचोद, मैं तुझे तेरे ही घर में तेरी औकात दिखाऊंगा। फिर तू भी देखेगा कि तेरा बाप और तेरा पूरा खानदान कैसे मेरे तलवे चाटने लगेगा। उठ मादरचोद वरना जान से मार दूंगा।"

मैंने एक लात उसके पेट में मारी तो वो फिर से दर्द में बिलबिलाया। उसके साथ आए उसके भाई और चाचा के लड़के सहमे से खड़े हुए थे। उनमे अब हिम्मत ही नहीं थी कि वो मेरा प्रतिकार कर सकें। तभी पीछे से मुझे जीप के स्टार्ट होने की आवाज़ सुनाई दी। मैंने पलट कर देखा तो बड़े भैया विभोर और अजीत के साथ जीप में बैठ कर गांव की तरफ चल पड़े थे। मुझे उनके इस तरह चले जाने से घंटा कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।

"उठ ना मादरचोद।" मानिक जब न उठा तो मैंने गुस्से में एक लात और उसके पेट में जमा दी____"चल मैं तुझे तेरे ही घर में तेरे ही घर वालों के सामने तेरी औकात दिखाता हूं। तू अपनी आँखों से देखेगा कि जब मैं तुझे तेरी औकात दिखाऊंगा तब तेरे घर वाले कैसे तेरे लिए मुझसे रहम की भीख माँगेंगे।"

"इसे माफ़ कर दीजिये छोटे ठाकुर।"मानिक के चाचा के लड़के ने अपने हाथ जोड़ते हुए कहा____"अब से हम में से कोई भी आपसे बददमीची से बात नहीं करेगा। भगवान के लिए इसे छोड़ दीजिए।"
"तू इसे अभी के अभी उठा और घर ले चल।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"आज मैं इसे इसके ही घर में इसकी औकात दिखाऊंगा। क्यों रे मादरचोद अब बोलता क्यों नहीं तू? बोल वरना यही डंडा तेरी गांड में डाल दूंगा।"

"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" मैंने इस बार जब ज़ोर से उसके पिछवाड़े पर डंडा मारा तो वो दर्द से कराहते हुए बोल पड़ा था____"अब से ऐसी ग़लती नहीं होगी।"
"क्यों इतनी जल्दी अपनी औकात पहचान गया तू?" मैंने उसके सीने में अपना एक पैर रख कर उस पर दबाव बढ़ाते हुए कहा_____"चल अब बता मेरे भाइयों को बीच सड़क पर क्यों रोक रखा था तूने?"

"हम तो बस उनसे उनका हाल चाल ही पूछ रहे थे।" मानिक ने दर्द से कराहते हुए कहा____"वो क्या है न कि आज होलिका दहन है और फिर कल रंगों की होली भी है। उसी के बारे में चर्चा भी कर रहे थे।"

"आज से पहले तो कभी ऐसे त्योहारों के लिए तुम लोगों ने हमसे चर्चा नहीं की थी।" मैंने उसे घूरते हुए कहा____"फिर आज ये चर्चा क्यों? सच सच बता वरना ये डंडा देख रहा है न? इसे तेरी गांड में घुसाने में ज़रा भी वक़्त नहीं लगाऊंगा मैं।"

"मैं सच ही कह रहा हूं छोटे ठाकुर।" मानिक ने हकलाते हुए कहा___"हम इसी बारे में चर्चा कर रहे थे। ये सच है कि आज से पहले कभी हमारा खानदान ठाकुर खानदान के साथ ऐसे त्योहारों पर एक साथ नहीं रहा लेकिन इस बार अगर हम एक साथ रहें तो इसमें ग़लत ही क्या है? हमारे घर के बड़े बुजुर्ग भी इस बारे में चर्चा कर रहे थे कि ठाकुरों से हमें अपने रिश्ते सुधार लेने चाहिए और मिल जुल कर हर त्यौहार में साथ ही रहना चाहिए।"

"कमाल है।" मैंने ब्यंग से मुस्कुराते हुए कहा____"साहूकारों को इतनी अकल कहां से आ गई और ये भी कि वो ये कैसे सोचने लगे कि उन्हें हमसे अपने रिश्ते सुधार लेने चाहिए? तू साले मुझे चूतिया समझता है क्या जो मैं तेरी इस बात पर यकीन कर लूंगा?"

"सच यही है छोटे ठाकुर।" मानिक ने कराहते हुए कहा____"मैं जानता हूं कि आपको मेरी बात पर भरोसा नहीं हो सकता इस लिए अगर आप चाहें तो मेरे घर जा कर खुद इस बात की तस्दीक कर सकते हैं?"

"वो तो मैं करुंगा ही।" मैंने उसके सीने से अपना पैर खींच कर वापस ज़मीन पर रखते हुए कहा____"और अगर मुझे पता चला कि तेरी ये बातें सिरे से ही झूंठी हैं तो सोच लेना इस गांव से साहूकारों का नामो निशान मिटा दूंगा मैं।"

"बिल्कुल छोटे ठाकुर।" मानिक ने दर्द को सहते हुए कहा____"वैसे इस बारे में मेरे पिता जी ने दादा ठाकुर जी से भी बात की थी। आप चाहें तो दादा ठाकुर जी से खुद भी इस बारे में पूछ सकते हैं।"

मानिक की इस बात से मैं सोच में पड़ गया था। मुझे ज़रा भी यकीन नहीं हो रहा था कि गांव के साहूकार लोग हम ठाकुरों से अपने सम्बन्ध सुधारना चाहते हैं। जब से मैंने होश सम्हाला था तब से मैं यही देखता आया था कि शाहूकार हमेशा से ही हमारे खिलाफ़ रहे हैं। हलांकि मुझे इसकी मूल वजह का पता नहीं था और ना ही मैंने कभी जानने की कोशिश की थी। ख़ैर, मज़ेदार बात ये थी कि मेरे लंड ने साहूकारों के घर में भी अपने झंडे गाड़े थे। मानिक के ताऊ की दूसरे नंबर वाली लड़की को मैं कई बार पेल चुका था।

मैने मानिकचंद्र को छोड़ दिया था और उसे ये हिदायत भी दी कि अब अगर उसने अपनी औकात दिखाई तो उसके लिए अच्छा नहीं होगा और साथ ही ये भी कहा कि मैं इस सच्चाई का पता खुद लगाऊंगा और अगर ये सच न हुआ तो इसके अंजाम के बारे में भी वो सोच लेगा।

बुलेट स्टार्ट कर के मैं गांव की तरफ चल पड़ा। मेरे ज़हन में अभी भी मानिक की बातें गूँज रही थी और मन में कई तरह के सवाल उभर रहे थे। अगर मानिकचंद्र की बात सच थी तो यकीनन उसके बाप ने पिता जी से इस बारे में बात की होगी। अब सवाल ये था कि क्या मुझे पिता जी से इस बारे में पूछना चाहिए? एक तरफ तो मैं हवेली के काम काज में कोई दिलचस्पी नहीं रखता था जबकि दूसरी तरफ ये जानना भी मैं ज़रूरी समझ रहा था। हलांकि सवाल तो ये भी था कि मैं भला इस बारे में जानना क्यों ज़रूरी समझता था? मुझे तो इससे कोई मतलब नहीं था फिर इस बारे में जानना क्यों ज़रूरी था मेरे लिए? क्या इस लिए कि मैं ये समझता था कि इस सबका का सम्बन्ध भी कहीं न कहीं मुरारी की हत्या और मेरी फसल में आग लगने से था?

मेरे ज़हन में पिता जी की बातें गूँज उठी। जिसमे वो कह रहे थे कि कुछ लोग हमारे खिलाफ़ कुछ ऐसा करने की फ़िराक में हैं जिससे हमारा वर्चस्व ही ख़त्म हो जाए। अब सवाल ये था कि ऐसे लोग क्या ये शाहूकार ही थे? गांव के साहूकारों ने अचानक ही हमसे अपने सम्बन्ध सुधारने के बारे में क्यों सोचा और सोचा ही नहीं बल्कि इसके लिए वो दादा ठाकुर से बात भी कर चुके हैं? मेरे ज़हन में सवाल उभरा कि क्या ये किसी तरह की कोई साज़िश है जिसके तार जाने कहां कहां जुड़े हुए प्रतीत हो रहे हैं?
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 15
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अब तक,,,,,

बुलेट स्टार्ट कर के मैं गांव की तरफ चल पड़ा। मेरे ज़हन में अभी भी मानिक की बातें गूँज रही थी और मन में कई तरह के सवाल उभर रहे थे। अगर मानिकचंद्र की बात सच थी तो यकीनन उसके बाप ने पिता जी से इस बारे में बात की होगी। अब सवाल ये था कि क्या मुझे पिता जी से इस बारे में पूछना चाहिए? एक तरफ तो मैं हवेली के काम काज में कोई दिलचस्पी नहीं रखता था जबकि दूसरी तरफ ये जानना भी मैं ज़रूरी समझ रहा था। हलांकि सवाल तो ये भी था कि मैं भला इस बारे में जानना क्यों ज़रूरी समझता था? मुझे तो इससे कोई मतलब नहीं था फिर इस बारे में जानना क्यों ज़रूरी था मेरे लिए? क्या इस लिए कि मैं ये समझता था कि इस सबका का सम्बन्ध भी कहीं न कहीं मुरारी की हत्या और मेरी फसल में आग लगने से था?

मेरे ज़हन में पिता जी की बातें गूँज उठी। जिसमे वो कह रहे थे कि कुछ लोग हमारे खिलाफ़ कुछ ऐसा करने की फ़िराक में हैं जिससे हमारा वर्चस्व ही ख़त्म हो जाए। अब सवाल ये था कि ऐसे लोग क्या ये शाहूकार ही थे? गांव के साहूकारों ने अचानक ही हमसे अपने सम्बन्ध सुधारने के बारे में क्यों सोचा और सोचा ही नहीं बल्कि इसके लिए वो दादा ठाकुर से बात भी कर चुके हैं? मेरे ज़हन में सवाल उभरा कि क्या ये किसी तरह की कोई साज़िश है जिसके तार जाने कहां कहां जुड़े हुए प्रतीत हो रहे हैं?

अब आगे,,,,,


मैं अपने ज़हन में कई सारे सवाल लिए गांव में दाखिल हुआ तो मेरी नज़र मुंशी के घर पर पड़ी। मुझे याद आया कि मैंने मुंशी की बहू को आज शाम बगीचे पर बुलाया है। अभी तो शाम होने में वक़्त था। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि आज रजनी को दबा के चोदूंगा। सरोज काकी के साथ संबंध बनाना अब मुश्किल ही था। अनुराधा को अब सब पता था और आज उसने इस बारे में बात कर के मुझे हिला कर भी रख दिया था। मैं इस बात से बेहद चिंतित हो उठा था कि अनुराधा की नज़र में अब मेरी कोई इज्ज़त नहीं रही। अनुराधा को हासिल करना भी जैसे अब मेरे लिए ख़्वाब ही बन कर रह गया था। अनुराधा एक ऐसी लड़की थी जिस पर मेरा कोई ज़ोर नहीं था। उसके सामने जाते ही मेरे अंदर का ठाकुर मानो भीगी बिल्ली बन जाता था। मैं अक्सर सोचता था कि ऐसा क्यों होता था? आख़िर मैं हर लड़कियों की तरह अनुराधा को भी अपने नीचे क्यों नहीं लेटा पाता? मेरे इन सवालों के जवाब मेरे पास जैसे थे ही नहीं।

मुंशी के घर के सामने से अभी मैं बुलेट से गुज़र ही जाने वाला था कि तभी मेरे कानो में मुंशी की आवाज़ पड़ी तो मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार को धीमी कर के रोक दिया। मुंशी ने छोटे ठाकुर कह कर पुकारा था मुझे। मैं जैसे ही उसके घर के सामने से गुज़रा था तभी वो अपने घर से निकला था और उसकी नज़र मुझ पर पड़ गई थी।

"अच्छा हुआ छोटे ठाकुर कि आप यहीं पर मिल गए मुझे।" मुंशी दौड़ कर मेरे पास आता हुआ बोला____"रघू की माँ ने बताया मुझे कि आपने मुझे मिलने के लिए कहा है तो मैं आपसे ही मिलने हवेली की तरफ जा रहा था।"

"हां मैं आया था एक डेढ़ घंटे पहले।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"मेरे पूछने पर काकी ने बताया था कि आप और रघुवीर कहीं गए हैं।"
"जी वो ठाकुर साहब के कहने पर शहर चला गया था।" मुंशी ने कहा____"कल रंगो का त्यौहार है न तो उसी सिलसिले में कुछ ज़रूरी सामान मंगवाया था ठाकुर साहब ने। ख़ैर आप बताइए किस लिए याद किया था आपने मुझे?"

"चलिए अंदर चल कर बात करते हैं।" मैंने कहने के साथ ही मोटर साइकिल को मोड़ कर मुंशी के घर के सामने खड़ी किया और फिर उतर कर मुंशी के घर की तरफ बढ़ चला।

कुछ ही देर में मैं और मुंशी घर के अंदर बैठक में आ कर बैठे गए। मुंशी ने अपने बेटे रघुवीर को आवाज़ दे कर मेरे लिए जल पान लाने को कहा तो वो जी बाबू जी कह कर अंदर चला गया।

"मैं चाहता हूं कि कल का त्यौहार हो जाने के बाद।" रघुवीर अंदर चला गया तो मैंने मुंशी से कहा____"आप कुछ कारीगर और मजदूरों को ले कर मेरे लिए एक मकान का निर्माण करवाएं।"

"मकान का निर्माण??" मेरी बात सुन कर मुंशी चौंका____"ये आप क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर?"
"इसमें इतना चौंकने की ज़रूरत नहीं है मुंशी जी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"आप भी अच्छी तरह जानते हैं कि मुझे हवेली में सबके बीच रहना पसंद नहीं है। इस लिए मैं चाहता हूं कि जितना जल्दी हो सके आप एक छोटे से मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा दें। मकान उसी जगह पर बनना चाहिए जहां पर मैं गांव से निष्कासित किए जाने पर चार महीने रहा हूं।"

"यदि आपका यही हुकुम है तो मैं ज़रूर आपके इस हुकुम का पालन करुंगा।" मुंशी ने गहरी सांस ले कर कहा____"किन्तु उससे पहले मुझे इसके लिए ठाकुर साहब से भी बात करनी पड़ेगी। आप तो जानते हैं कि उनकी इजाज़त के बिना मैं कुछ नहीं कर सकता।"

"ठीक है आप पिता जी से आज ही इस बारे में बात कर लीजिए।" मैंने कहा____"लेकिन इस बात का ख़याल रहे कि अगर पिता जी इस कार्य के लिए अपनी इजाज़त नहीं भी देते हैं तब भी आपको ये कार्य करना है।"

"आप तो मुझे बहुत बड़े धर्म संकट में डाल रहे हैं छोटे ठाकुर।" मुंशी के माथे पर पसीना उभर आया____"अगर ठाकुर साहब ने मुझे उस जगह पर आपके लिए मकान बनवाने की इजाज़त नहीं दी तो मैं उनकी अवज्ञा कर के कैसे ये कार्य कर पाऊंगा?"

"आपको उनसे इस कार्य के लिए इजाज़त लेनी ही होगी।" मैंने स्पस्ट भाव से कहा____"और आप ये कैसे करेंगे ये आप जानिए। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि कल का त्यौहार होने के बाद परसों उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू हो जाना चाहिए और अगर ऐसा न हुआ तो इसका अंजाम क्या होगा इस बारे में भी आप सोच लीजिएगा। ख़ैर अब चलता हूं मैं।"

कहने के साथ ही मैं उठ कर खड़ा हो गया। मेरी बातें सुन कर मुंशी के चेहरे पर चिंता और परेशानी के भाव उभर आये थे। तभी रघुवीर अंदर से थाली में कुछ खाने की चीज़ें और पानी ले कर आया तो मैंने उसे हाथ का इशारा कर के वापस भेज दिया।

मुंशी मुझे छोड़ने के लिए घर से बाहर तक आया। मैंने मोटर साइकिल स्टार्ट की और हवेली की तरफ निकल गया। साहूकारों के घर के सामने आया तो देखा दरवाज़े पर एक लड़की खड़ी थी। मुझसे नज़र मिलते ही वो अंदर की तरफ भाग ग‌ई। उसे इस तरह भागता देख मैं मुस्कुरा उठा और फिर आगे बढ़ गया।

हवेली में आ कर मैंने मोटर साइकिल खड़ी की और मुख्य दरवाज़े से अंदर दाखिल हुआ तो मेरी नज़र बाएं तरफ बड़े से बैठक में सिंघासन पर बैठे दादा ठाकुर पर पड़ी। उनके पास ही बड़े भैया और मझले ठाकुर यानी चाचा जी खड़े थे।

"वैभव सिंह।" दादा ठाकुर की कड़क आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मैं एकदम से अपनी जगह पर रुक गया और फिर गर्दन घुमा कर उनकी तरफ देखा।

"ये क्या सुन रहे हैं हम?" मुझे अपनी तरफ देखता देख उन्होंने कड़क आवाज़ में ही कहा____"तुमने शाहूकार हरिशंकर के लड़के को मारा और उसका हाथ तोड़ दिया? क्या हम जान सकते हैं कि ऐसा क्यों किया तुमने?"

"ग़लती हो गई पिता जी।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"मुझे उसका हाथ नहीं तोड़ना चाहिए था बल्कि उसे जान से ही मार देना चाहिए था।"
"ख़ामोश।" मेरी बात सुन कर पिता जी गुस्से में गरज उठे____"तुम्हें अंदाज़ा भी है कि तुमने ऐसा कर के कितना बड़ा अपराध किया है?"

"पिता जी मैंने तो इसे रोकने की बहुत कोशिश की थी।" बड़े भैया ने ये कहा तो पिता जी उनकी तरफ देखते हुए गरजे____"तुम चुप रहो। तुम्हारी बातें हमने सुन ली हैं।" कहने के साथ ही पिता जी मेरी तरफ मुखातिब हुए____"तुम जगताप के साथ अभी हरिशंकर के घर जाओ और उससे अपने किए की माफ़ी मांगो।"

"माफ़ करना पिता जी।" मैंने आवेश में आ कर कहा____"वैभव सिंह अपना सिर कटा सकता है लेकिन उन दो कौड़ी के साहूकारों के सामने अपना सिर झुका कर उनसे माफ़ी नहीं मांग सकता।"

"तुम हमारे हुकुम को मानने से इंकार कर रहे हो?" दादा ठाकुर ने कहर भरी नज़रों से मुझे देखते हुए कहा____"इसका अंजाम जानते हो न तुम?"
"वैभव सिंह ने आज तक किसी अंजाम की परवाह नहीं की पिता जी।" मैंने जानदार मुस्कान के साथ कहा____"और ये बात आपसे बेहतर भला कौन जानता होगा?"

"जागताप।" पिता जी ने गुस्से से चाचा जी की तरफ देख।
"जी बड़े भैया।" चाचा जी एकदम से तन कर खड़े हो ग‌ए।
"इस गुस्ताख़ को।" पिता जी ने गुस्से में हर शब्द को जैसे चबाते हुए कहा____"गिन गिन कर पचास कोड़े लगाओ और इस बात का ख़याल रहे कि कोड़े का हर प्रहार इसकी ऐसी चीखें निकाले कि इसकी चीखों से हवेली का ज़र्रा ज़र्रा दहल जाए।"

"ये आप क्या कह रहे हैं बड़े भैया?" चाचा जगताप ने ब्याकुल भाव से कहा____"इसे माफ़ कर दीजिए। इसकी तरफ से मैं हरिशंकर के घर जा कर उससे माफ़ी मांग लेता हूं।"

"क्या अब तुम भी हमारा हुकुम मानने से इंकार कर रहे हो जगताप?" पिता जी ने चाचा जी को गुस्से से देखते हुए कहा तो चाचा जी जल्दी से बोल पड़े____"नहीं नहीं, मैं भला ऐसी गुस्ताख़ी कैसे कर सकता हूं बड़े भैया। मैं तो बस आपसे...!"

"हम कुछ नहीं सुनना चाहते।" पिता जी ने शख़्त भाव से कहा____"हमने जो कहा है उसका पालन करो। इस नामुराद ने जो किया है उसके लिए इसे माफ़ नहीं किया जाएगा।"

"चाचा जी।" मैंने जगताप चाचा जी को आवाज़ लगाते हुए कहा____"आप पिता जी के हुकुम का पालन कीजिए। ये मत सोचिए कि सज़ा देने वाले के दिल में रहम होगा कि नहीं और ये भी मत सोचिए कि सज़ा जायज़ भी होगी कि नहीं, क्योंकि यहाँ तो अपने मतलब के लिए भी सज़ा दे दी जाती है। यहाँ तो अपने स्वार्थ के लिए अपनी ही औलाद को बली का बकरा बना दिया जाता है, और फिर ऊपर से ये सफाई दी जाती है कि जो कुछ किया गया है उससे इस ठाकुर खानदान का भला होना था। ख़ैर अब देर मत कीजिए चाचा जी, उठाइए कोड़ा और उसे मेरे जिस्म पर पूरी ताकत से बरसाइ‌ए। आपके हर प्रहार पर निकलने वाली मेरी चीखें ऐसी होनी चाहिए जिससे दादा ठाकुर के कलेजे को एक असीम सुख की अनुभूति हो।"

"देखा इस बददमीज़ को?" पिता जी ने चाचा जी की तरफ देखते हुए गुस्से में कहा____"कैसी जुबान में बात कर रहा है ये। इसे लगता है कि इसके साथ जो कुछ हुआ है वो बहुत ही ग़लत हुआ है और इसने जो कुछ आज तक किया है वो सब कुछ सही था। इससे पूछो कि इसने अपनी अब तक की उम्र में ऐसा कौन सा अच्छा काम किया है जिसकी वजह से ठाकुर खानदान का नाम आसमान तक ऊंचा हो गया हो? इससे पूछो जगताप कि इसने आज तक ऐसी कौन सी जिम्मेदारी निभाई है जिसके लिए हमें इस पर गर्व होना चाहिए? इससे ये भी पूछो कि इसने इस गांव की किस औरत को अपनी हवश का शिकार न बनाने से बचाया है? बड़ी बड़ी बातें करने वाला एक बार अपने खुद के गिरेहबान में भी झाँक कर देखे कि उसने आज तक कितने अच्छे अच्छे काम किए हैं?"

"मैंने तो कभी ये कहा ही नहीं कि मैं अच्छा इंसान हूं या मैंने अच्छे काम किए हैं।" मैंने भी पलटवार करने का दुस्साहस किया____"लेकिन इस हवेली में जो खुद को दूध का धुला हुआ समझते हैं उन्होंने खुद कौन सा अच्छा काम किया है? अपनी ही औलाद को बली का बकरा बना कर जंगल में मरने के लिए छोड़ दिया। मैं पूछता हूं कि अगर कोई हम ठाकुरों के खिलाफ़ किसी तरह की साज़िश ही कर रहा था तो उसके लिए क्या ज़रूरी था कि मुझे इस तरह से गांव से निष्कासित कर दिया जाए? इतने पर भी जब खुद को तसल्ली नहीं मिली तो ये भी हुकुम सुना दिया गया कि गांव का कोई भी इंसान मेरी मदद भी ना करे। वाह! बहुत खूब, इसका तो यही मतलब हुआ कि मेरे साथ ऐसा इस लिए किया गया ताकि मैं उस बंज़र ज़मीन पर रहते हुए एक दिन भूखों मर जाऊं और इस हवेली में राज करने वाले दादा ठाकुर को मेरे जैसी नालायक औलाद से मुक्ति मिल जाए।"

"चटाकककक!" जगताप चाचा ने एकदम से खींच कर मेरे गाल पर थप्पड़ रसीद कर दिया और फिर गुस्से में बोले____"अपनी हद में रहो वैभव सिंह। हम मानते हैं कि हमसे ग़लती हुई है मगर इसका मतलब ये नहीं कि तुम जो मन में आए बोलते ही चले जाओ। तुमने दादा ठाकुर की एक ग़लती का तो बखान कर दिया मगर तुमने खुद जो आज तक इतनी ग़लतियां की हैं उसका क्या? तुम किसी को ये सब बोलने का तभी हक़ रख सकते हो जब तुम खुद अपनी जगह सही रहो। अगर तुम खुद ग़लत हो तो तुम्हे कोई अधिकार नहीं है किसी को उसकी ग़लती का एहसास दिलाने का।"

"भाड़ में जाए ग़लती और भाड़ में जाए ग़लती का एहसास।" मैंने गुस्से में तमतमाए हुए लहजे में कहा____"मैं थूकता हूं इस हवेली पर। आपको और आपके दादा ठाकुर को मुबारक हो ये हवेली और इस हवेली का राज पाठ। वैभव सिंह को इस हवेली से कुछ नहीं चाहिए।"

"वैभव सिंह।" दादा ठाकुर गुस्से में दहाड़े मगर मैं उनकी कोई परवाह किए बिना पलटा और हवेली से बाहर निकल गया। इस वक़्त मेरे अंदर गुस्से का दावानल धधक रहा था। मन कर रहा था दुनिया के हर इंसान की जान ले लूं।

गुस्से की आग में भभकता हुआ मैं तेज़ तेज़ क़दमों से चलते हुए हवेली के हाथी दरवाज़े को पार कर गया। इस वक़्त मैं इतने गुस्से में था कि अगर कोई मुझे ज़रा सा भी टोक देता तो मैं उसकी जान ले लेता। कच्ची सड़क पर मैं पैदल ही बढ़ा चला जा रहा था। कुछ दूरी से ही गांव की आबादी शुरू हो जाती थी। सड़क के दोनों तरफ कच्चे मकान बने हुए थे। उन मकानों में रहने वाले अपने अपने काम में लगे हुए थे। कोई मवेशियों को चारा भूषा डाल रहा था तो कोई पानी पिला रहा था। सड़क पर कुछ औरतें हाथ में मिटटी का घड़ा ले कर साहूकारों के घर के पास ही बने कुएं पर पानी भरने जा रहीं थी। मुझ पर जिस किसी की भी नज़र पड़ती तो वो अपना सिर झुका कर हाथ जोड़ लेता था मगर मैं बिना उनकी तरफ देखे गुस्से में आगे बढ़ता ही जा रहा था।

गांव में अब तक ये ख़बर फैल चुकी थी कि मैंने शाहूकार हरिशंकर के लड़के को मारा है और उसका हाथ भी तोड़ दिया है। गांव के लोग जानते थे कि साहूकारों के लड़कों से मेरा झगड़ा होना कोई नई बात नहीं थी और वो ये भी जानते थे कि गांव के शाहूकार ठाकुरों से बैर भाव रखते हैं। आज तक जितनी बार भी मेरी साहूकारों के लड़कों से मार पीट हुई थी उससे मुझ पर कोई आंच नहीं आई थी। इसकी वजह ये थी कि गांव का हर आदमी जानता था कि ठाकुर खानदान का कोई भी सदस्य साहूकारों से या उनके लड़कों से बेवजह नहीं उलझता था। इस लिए जब भी ऐसा कोई मामला होता था तो पंचायत में गांव का हर आदमी हमारा ही पक्ष लेता था।

ऐसा नहीं था कि गांव के लोग हमारे खिलाफ़ बोलने से डरते थे बल्कि वो दादा ठाकुर की इज्ज़त करते थे और वो ये बात अच्छी तरह जानते थे कि गांव के शाहूकार ठाकुरों से जलते हैं और उन्हें नीचा दिखाने के लिए उलटी सीधी हरकतें करते रहते हैं। एक महत्वपूर्ण बात ये भी थी कि गांव के शाहूकार गांव के लोगो को कर्ज़ा तो दे देते थे लेकिन उस कर्ज़े का ब्याज इतना बढ़ा देते थे कि ग़रीब इंसान उसे चुका ही नहीं पाता था और फिर नौबत ये आ जाती थी कि ग़रीब इंसान को अपनी ज़मीन से हाथ धोना पड़ जाता था। कई बार ऐसा मामला दादा ठाकुर तक पंहुचा था और पंचायत भी बैठाई गई जिसमे ज़्यादातर फैसला आम इंसान के खिलाफ़ ही हुआ था। क्योंकि शाहूकार इतने मक्कार और चतुर थे कि वो अपने खिलाफ़ ऐसे मामले के प्रति कोई सबूत ही नहीं बचाते थे। अब सवाल ये था कि ऐसे में ग़रीब इंसान का क्या होता था तो उसका जवाब ये है कि दादा ठाकुर उस ग़रीब को अपनी तरफ से कुछ ज़मीन देते थे और उसकी मदद करते थे। यही वजह थी कि गांव का हर आदमी ठाकुर खानदान को मानता था और उन्हें इज्ज़त देता था।

मैं गुस्से में भन्नाया हुआ साहूकारों के घर के पास आ गया। हरिशंकर के घर के बाहर सड़क के किनारे पर एक पीपल का पेड़ था जिसके नीचे बड़ा सा चबूतरा बना हुआ था। मैं जैसे ही हरिशंकर के घर के सामने आया तो मेरी नज़र हरिशंकर के बड़े भाई मणिशंकर पर पड़ी। वो अभी अभी हरिशंकर के घर से निकला था और उसके पीछे हरिशंकर और उसके दोनों भतीजे भी निकले थे। मणिशंकर के चेहरे पर इस वक़्त शख़्त भाव थे और उसके दोनों बेटे भी गुस्से में दिख रहे थे जबकि हरिशंकर गंभीर नज़र आ रहा था। मैं समझ तो गया था किन्तु अपने को तो घंटा कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था इस लिए आगे बढ़ चला।

"छोटे ठाकुर।" अभी मैं पीपल के पेड़ के पास ही पंहुचा था कि मेरे कानों में ये मर्दाना आवाज़ पड़ी जिससे मैं रुक गया और पलट कर आवाज़ की दिशा में देखा।

"तुमने मेरे भतीजे को मारा और उसका एक हाथ तोड़ दिया।" मणिशंकर मेरे क़रीब आ कर शख़्त भाव से बोला____"ये तुमने ठीक नहीं किया छोटे ठाकुर।"
"शुकर मनाओ कि मैंने सिर्फ उसका हाथ ही तोड़ा है।" मैं पहले से ही गुस्से में भन्नाया हुआ था इस लिए गुर्राते हुए बोला____"वरना अपनी औकात से बाहर होने वाले को मैं ज़िंदा ही नहीं छोड़ता।"

"ख़ून में इतनी गर्मी ठीक नहीं है छोटे ठाकुर।" मणि शंकर ने पहले की तरह ही शख़्ती से कहा____"हम हमेशा से यही चाहते आ रहे हैं कि ठाकुरों से हमारा इस तरह का मन मुटाव न हो कि हमें भी उनका प्रतिकार करना पड़े मगर हम कई बार ये देख चुके हैं कि तुम हमारे घर के लड़कों को बेवजह ही पीट देते हो। अब हम ये बरदास्त नहीं करेंगे।"

"तो उखाड़़ लो जो उखाड़ना हो।" मैं उसके एकदम क़रीब जा कर बोला तो वो दो क़दम पीछे हट गया____"ठाकुर वैभव सिंह किसी के बाप से भी नहीं डरता। इस वक़्त तुम्हारे सामने अकेला ही खड़ा हूं। अगर दम है तो मेरी झाँठ का एक बाल ही उखाड़ कर दिखा दो।"

"पिता जी से तमीज़ में बात कर ठाकुर के पूत।" मणि शंकर का बड़ा बेटा चंद्रभान गुस्से से बोल पड़ा____"वरना एक ही झटके में तेरी गर्दन मरोड़ दूंगा।"
"अगर सच में तू अपने इसी बाप की औलाद है।" मैंने क़हर भरी नज़रों से उसकी तरफ देखते हुए कहा___"तो मेरी गर्दन मरोड़ के दिखा। मैं भी देखता हूं कि तेरे बाप के वीर्य में कितना दम है और तेरी माँ के दूध में कितना ज़हर है।"

मेरी बातें सुन कर चन्द्रभान बुरी तरह आग बबूला हो गया और मैं यही तो चाहता था। इस वक़्त गुस्से की आग में मेरा बहुत मन कर रहा था कि मैं किसी को जी भर के पेलूं। इससे पहले कि उसका बाप उसे कुछ कह पाता वो गुस्से से फुँकारते हुए बड़ी तेज़ी से मेरी तरफ लपका। जैसे ही मेरे क़रीब आ कर उसने मेरी गर्दन पकड़ने की कोशिश की तो मैं तेज़ी से नीचे झुका और दोनों हाथों से उसकी दोनों टांगों को पकड़ कर उसे उठा लिया और दाएं तरफ बने चबूतरे में पूरी ताकत से उछाल दिया जिससे वो भरभरा कर चबूतरे की बाट पर गिरा। चबूतरे की बाट उसकी पीठ पर ज़ोर से लगी थी जिससे उसकी चीख निकल गई थी।

अभी वो दर्द को बरदास्त करते हुए उठ ही रहा था कि मैंने ज़ोर की लात उसके सीने पर मारी जिससे वो हिचकी लेते हुए चित्त पसर गया और उसका सिर पीछे की तरफ चबूतरे से टकरा गया। यकीनन कुछ पलों के लिए उसकी आंखों के सामने सितारे जगमगाए होंगे। तभी पीछे से किसी ने मुझे दबोच लिया। मैंने सिर को पीछे की तरफ हल्का सा मोड़ कर देखा तो वो सूर्यभान था। मणिशंकर का दूसरा बेटा जिसने मुझे पीछे से दबोच लिया था। उसने मुझे कस के पकड़ा हुआ था और मैं उससे छूटने की कोशिश कर रहा था। तभी मैंने देखा सामने से चन्द्रभान उठ कर मेरी तरफ तेज़ी से बढ़ा तो मैंने ज़ोर से एक लात इसके पेट में मारी जिससे वो पेट पकड़ कर रह गया। इधर मैंने अपनी कोहनी का वार बड़ी तेज़ी से पीछे सूर्यभान पर किया। कोहनी का वार उसकी काख के निचले हिस्से पर लगा था जिससे उसकी घुटी घुटी सी कराह निकल गई थी और उसकी पकड़ ढीली पड़ गई थी।

मैं जानता था कि ये दोनों भाई हरामी की औलाद हैं और ये दोनों मिल कर अब मुझे पेलेंगे। इस लिए मैंने उन दोनों को कोई मौका देना उचित नहीं समझा। सूर्यभान की पकड़ ढीली हुई तो मैंने फ़ौरन ही उससे खुद को छुड़ा लिया और पलट कर एक घूंसा उसकी नाक में जड़ दिया जिससे उसकी नाक टूट गई और वो दर्द से चीखते हुए अपनी नाक पकड़ कर पीछे हटता चला गया। उसकी नाक से खून की धार बह निकली थी। अभी मैं पलटा ही था कि मेरी पीठ पर चन्द्रभान ने बड़े ज़ोर की लात मारी जिससे मैं लहरा कर मुँह के बल ज़मीन पर गिरा मगर जान बूझ कर एक दो पलटियां भी लिया और ये अच्छा ही किया था मैंने वरना चन्द्रभान की लात एक बार से मेरी पीठ पर पड़ जाती। मैं पलटियां खाया तो चन्द्रभान के लात का खाली वार ज़मीन पर लगा था।

मैं बड़ी तेज़ी से खड़ा हुआ और देखा कि सूर्यभान हाथ में एक डंडा लिए मेरी तरफ लपका। इससे पहले कि वो मुझ तक पहुँचता वातावरण में बंदूख के चलने की बड़ी तेज़ आवाज़ गूँजी जिससे सूर्यभान अपनी जगह पर रुक गया। मणिशंकर तो बंदूख की आवाज़ सुन कर उछल ही पड़ा था। उसने पलट कर देखा तो कुछ ही दूर सड़क पर जगताप चाचा बंदूख लिए खड़े थे और उनके साथ चार हट्टे कट्टे आदमी भी हाथों में बंदूख लिए खड़े थे। जगताप चाचा और उन चार आदमियों को देख कर मणिशंकर के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। यही हाल उसके भाई हरिशंकर और उसके दोनों बेटों का भी था।

"हम जानते थे कि यही होगा।" जगताप चाचा मणि शंकर की तरफ बढ़ते हुए शख़्त भाव से बोले____"पर इतना जल्दी होगा इसकी हमने कल्पना नहीं की थी।"
"मझले ठाकुर।" मणिशंकर ने सहमे हुए से भाव में कहा____"मैं तो छोटे ठाकुर को यहाँ देख कर इनसे बस ये पूछ रहा था कि इन्होंने मेरे भतीजे को क्यों मारा था मगर ये तो उल्टा मुझे ही उल्टा सीधा बोलने लगे। इनके उल्टा सीधा बोलने पर मेरे बेटे भी खुद को रोक नहीं पाए और फिर ये सब हो गया। कृपया इन्हें माफ़ कर दीजिए।"

"तुम्हारे भतीजे के साथ जो कुछ भी वैभव ने किया है।" जगताप चाचा ने कहा____"उसके लिए तुम्हें दादा ठाकुर के पास शिकायत ले कर जाना चाहिए था। अगर तुम ऐसा करते तो यकीनन तुम्हें न्याय मिलता मगर तुमने ऐसा नहीं किया बल्कि खुद ही न्याय करने का सोचा और हमारे भतीजे को यहाँ अकेला देख कर तुमने अपने बेटों के द्वारा उस पर हमला करवा दिया। तुम्हारा ये दुस्साहस कि तुमने ठाकुर खानदान के एक सदस्य पर अपने बेटों के द्वारा हाथ उठवाया। अब तुम खुद इसके अपराधी हो गए हो मणिशंकर और इसके लिए तुम्हें और तुम्हारे इन दोनों बेटों को सज़ा सज़ा भुगतनी होगी।"

"नहीं नहीं मझले ठाकुर।" मणिशंकर से पहले उसका छोटा भाई हरीशंकर बोल पड़ा____"ये जो कुछ भी हुआ है वो बड़े भाई साहब के कहने पर नहीं हुआ है बल्कि ये तो इन लड़कों की वजह से ही हुआ है। छोटे ठाकुर ने बड़े भाई साहब को उल्टा सीधा बोला था जिससे चन्द्रभान सहन नहीं कर सका। बस उसके बाद ये सब हो गया।"

"तुम हमें सफाई मत दो हरिशंकर।" जगताप चाचा ने गुस्से में कहा____"हम अपनी आँखों से सारा तमाशा देख रहे थे। जब तुम्हारे दोनों भतीजे वैभव के साथ हाथा पाई करने लगे थे तब तुम दोनों चुप चाप खड़े तमाशा देख रहे थे और यही चाह रहे थे कि तुम्हारे ये दोनों भतीजे वैभव को मारें। इसका मतलब ये सब तुम दोनों की इच्छा से ही हो रहा था। तुम दोनों ये चाहते ही नहीं थे कि तुम्हें दादा ठाकुर के द्वारा न्याय मिले।"

"नहीं नहीं मझले ठाकुर।" मणिशंकर बेबस भाव से कह उठा____"ऐसी बात नहीं है। हम सब तो घर से निकले ही यही सोच कर थे कि दादा ठाकुर के पास न्याय के लिए जाएंगे। घर से बाहर आए तो छोटे ठाकुर दिख गए इस लिए मैं बस उनसे पूछने लगा था कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? मुझे तो अंदाज़ा भी नहीं था कि ये मेरे पूछने पर मुझे उल्टा सीधा बोलेंगे और फिर ये सब हो जाएगा।"

"अब इसका फ़ैसला दादा ठाकुर ही करेंगे।" जगताप चाचा ने कहा____"तुम सब इसी वक़्त हवेली चलोगे।" कहने के साथ ही चाचा जी मेरी तरफ मुखातिब हुए____"तुम्हें भी हवेली चलना होगा।"

"मैं अपना फैसला खुद करता हूं।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"मैं ऐसे इंसान के पास न्याय के लिए नहीं जाऊंगा जो अपने मतलब के लिए अपनी ही औलाद को बली का बकरा बना देता है।"

"वैभव सिंह।" जगताप चाचा गुस्से में इतनी ज़ोर से दहाड़े कि बाकी तो सब सहम गए मगर मुझ पर घंटा कोई फ़र्क नहीं पड़ा, जबकि वो बोले____"अपनी इस जुबान को लगाम दो वरना तुम्हारी ज़ुबान काट दी जाएगी।"

"हाथ में बंदूख ले कर।" मैंने ब्यंग भाव से मुस्कुराते हुए कहा____"और कुत्तों की फ़ौज ले कर मुझे मत डराइए चाचा जी। वैभव सिंह उस ज़लज़ले का नाम है जिसकी दहाड़ से पत्थरों के भी दिल दहल जाते हैं। ख़ैर आप इन लोगों को ले जाइए क्योंकि इन्हें ही न्याय की ज़रूरत है। दादा ठाकुर का जो भी फैसला हो उसका फ़रमान ज़ारी कर दीजिएगा। वैभव सिंह आपसे वादा करता है कि फ़ैसले का फरमान सुन कर सज़ा के लिए हाज़िर हो जाएगा।"

मेरी बात सुन कर जहां दोनों शाहूकार और उनके बेटे आश्चर्य चकित थे वहीं जगताप चाचा दाँत पीस कर रह ग‌ए। इधर मैं इतना कहने के बाद पलटा और चन्द्रभान की तरफ देख कर मुस्कुराते हुए बोला____"तेरे बाप का वीर्य तो गंदे नाली के पानी से भी ज़्यादा गया गुज़रा निकला रे...चल हट सामने से।"

चन्द्रभान मेरी ये बात सुन कर बुरी तरह तिलमिला कर रह गया जबकि मैं अपने कपड़ों की धूल झाड़ता हुआ आगे बढ़ गया मगर मैं ये न देख सका कि मेरे जाते ही वहां पर किसी के होठों पर बहुत ही जानदार और ज़हरीली मुस्कान उभर आई थी।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 16
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अब तक,,,,,

"हाथ में बंदूख ले कर।" मैंने ब्यंग भाव से मुस्कुराते हुए कहा____"और कुत्तों की फ़ौज ले कर मुझे मत डराइए चाचा जी। वैभव सिंह उस ज़लज़ले का नाम है जिसकी दहाड़ से पत्थरों के भी दिल दहल जाते हैं। ख़ैर आप इन लोगों को ले जाइए क्योंकि इन्हें ही न्याय की ज़रूरत है। दादा ठाकुर का जो भी फैसला हो उसका फ़रमान ज़ारी कर दीजिएगा। वैभव सिंह आपसे वादा करता है कि फ़ैसले का फरमान सुन कर सज़ा के लिए हाज़िर हो जाएगा।"

मेरी बात सुन कर जहां दोनों शाहूकार और उनके बेटे आश्चर्य चकित थे वहीं जगताप चाचा दाँत पीस कर रह ग‌ए। इधर मैं इतना कहने के बाद पलटा और चन्द्रभान की तरफ देख कर मुस्कुराते हुए बोला____"तेरे बाप का वीर्य तो गंदे नाली के पानी से भी ज़्यादा गया गुज़रा निकला रे...चल हट सामने से।"

चन्द्रभान मेरी ये बात सुन कर बुरी तरह तिलमिला कर रह गया जबकि मैं अपने कपड़ों की धूल झाड़ता हुआ आगे बढ़ गया मगर मैं ये न देख सका कि मेरे जाते ही वहां पर किसी के होठों पर बहुत ही जानदार और ज़हरीली मुस्कान उभर आई थी।

अब आगे,,,,,



साहूकारों के लड़कों को पेलने का मौका तो बढ़िया मिला था मुझे लेकिन चाचा जी के आ जाने से सारा खेल बिगड़ गया था। ख़ैर शाम होने वाली थी और आज क्योंकि होलिका दहन था इस लिए गांव के सब लोग उस जगह पर जमा हो जाने वाले थे जहां पर होलिका दहन होना था। हालांकि अभी उसमे काफी वक़्त था मगर मैंने मुंशी की बहू को यही सोच कर बगीचे में मिलने के लिए कहा था कि उसका ससुर यानी कि मुंशी और पति रघुवीर घर से जल्दी ही हवेली के लिए निकल जाएंगे। वैसे भी मैंने मुंशी की गांड में डंडा डाल दिया था कि वो परसों मेरे लिए एक छोटे से मकान का निर्माण कार्य शुरू करवाए। हलांकि हवेली में आज जो कुछ भी हुआ था उससे इसकी संभावना कम ही थी लेकिन फिर भी मुझे उम्मीद थी कि मुंशी कुछ भी कर के दादा ठाकुर को इसके लिए राज़ी कर ही लेगा।

मैं हवेली से गुस्से में आ तो गया था मगर अब मुझे अपने लिए कोई ठिकाना भी खोजना था। हवेली में दादा ठाकुर के सामने जाते ही पता नहीं मुझे क्या हो जाता था कि मैं उनसे सीधे मुँह बात ही नहीं करता था और सिर्फ उन्हीं बस से ही नहीं बल्कि कुसुम के अलावा सबसे मेरा ऐसा ही बर्ताव था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आज कल मुझे इतना गुस्सा क्यों आता है और क्यों मैं अपने घर वालों से सीधे मुँह बात नहीं करता? क्या इसकी वजह ये है कि मैंने चार महीने उस बंज़र ज़मीन में रह कर ऐसी सज़ा काटी है जो मुझे नहीं मिलनी चाहिए थी या फिर इसकी वजह कुछ और भी थी? दूसरी कोई वजह क्या थी इसके बारे में फिलहाल मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था।

मुरारी काका की हत्या का मामला अपनी जगह अभी भी मेरे लिए एक रहस्य के रूप में बना हुआ था और मैं उनके इस मामले पर कुछ कर नहीं पा रहा था। असल में कुछ करूं तो तब जब मुझे कुछ समझ आए या मुझे इसके लिए कुछ करने का मौका मिले। आज अनुराधा से मिला तो उसने जो कुछ कहा उससे तो मेरे लौड़े ही लग गए थे और फिर मैं भी भावना में बह कर उससे ये वादा कर के चला आया कि अब मैं उसे तभी अपनी शक्ल दिखाऊंगा जब मैं उसके पिता के हत्यारे का पता लगा लूंगा। मुझे अब समझ आ रहा था कि इस तरह भावना में बह कर मुझे अनुराधा से ऐसा वादा नहीं करना चाहिए था मगर अब भला क्या हो सकता था? मैं अब अपने ही वादे को तोड़ नहीं सकता था।

मुझे याद आया कि पिता जी ने मुरारी की हत्या की जांच के लिए गुप्त रूप से दरोगा को कहा था तो क्या मुझे इस मामले में दरोगा से मिलना चाहिए? क्या दरोगा इस मामले में मेरी कुछ मदद करेगा? मेरा ख़याल था कि वो मेरी मदद नहीं करेगा क्योंकि उसे दादा ठाकुर ने शख़्त हुकुम दिया होगा कि वो इस मामले में उनके अलावा किसी से कोई ज़िक्र न करे। इसका मतलब इस मामले में जो कुछ करना है मुझे ही करना है मगर कैसे? आख़िर मैं कैसे मुरारी काका के हत्यारे का पता लगाऊं? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ फटने लगा तो मैंने सिर को झटका और चलते हुए मुंशी के घर के पास आया।

मुंशी के घर के पास आया तो देखा मुंशी और रघुवीर दोनों बाप बेटे अपने घर के बाहर ही खड़े थे। घर के दरवाज़े पर मुंशी की बीवी प्रभा खड़ी थी जिससे मुंशी कुछ कह रहा था। मैंने कुछ सोचते हुए फ़ौरन ही खुद को पीछे किया और बगल से लगे एक आम के पेड़ के पीछे छुपा लिया। मैं नहीं चाहता था कि इस वक़्त मुंशी और उसके बेटे की नज़र मुझ पर पड़े। इधर पेड़ के पीछे छुपा मैं उन दोनों को ही देख रहा था। कुछ देर मुंशी अपनी बीवी से जाने क्या कहता रहा उसके बाद उसने अपने बेटे रघुवीर को चलने का इशारा किया तो वो अपने बाप के साथ चल पड़ा।

मुंशी और रघुवीर जब काफी आगे निकल गए तो मैं पेड़ के पीछे से निकला और सड़क पर आ गया। मैंने देखा मुंशी के घर का दरवाज़ा बंद हो चुका था। खिड़की से दिए के जलने की रौशनी दिख रही थी मुझे। ख़ैर मैं सड़क पर चलते हुए काफी आगे आ गया और फिर सड़क से उतर कर बाएं तरफ खेत की पगडण्डी पकड़ ली। ये पगडण्डी हमारे बगीचे की तरफ जाती थी जो यहाँ से एक किलो मीटर की दूरी पर था।

पगडण्डी के दोनों तरफ खेत थे। खेतों में गेहू की पकी हुई फसल थी जिसमे कटाई चल रही थी। मैं जानता था कि इस पगडण्डी से खेतों में कटाई करने वाले मजदूरों से मेरी मुलाक़ात हो जाएगी इस लिए मैं जल्दी जल्दी चलते हुए उन खेतों को पार कर रहा था जिन खेतों में फसल की कटाई शुरू थी क्योंकि मजदूर इन्हीं खेतों पर मौजूद थे।

अंधेरा होता तो इसका मुझे फायदा होता किन्तु चांदनी रात थी इस लिए वहां मौजूद मजदूर मुझे देख सकते थे। मैं जल्दी ही वो सारे खेत पार कर के आगे निकल गया। वैसे तो बगीचे में जाने के लिए एक दूसरा रास्ता भी था लेकिन वो थोड़ा दूर था इस लिए मैंने पगडण्डी से बगीचे पर जाना ज़्यादा सही समझा था। यहाँ से जाने में वक़्त भी कम लगता था। पगडण्डी पर चलते हुए मैं कुछ देर में बगीचे के पास पहुंच गया। बगीचे में आम के पेड़ लगे हुए थे और ये बगीचा करीब दस एकड़ में फैला हुआ था। इसी बगीचे के दाहिनी तरफ कुछ दूरी पर एक पक्का मकान भी बना हुआ था जिसमे जगताप चाचा अक्सर रुकते थे।

मैं मकान की तरफ न जा कर बगीचे की तरफ बढ़ गया। मुंशी की बहू रजनी को मैंने इसी बगीचे में जाने कितनी ही बार बुला कर चोदा था। बगीचे में अपने अड्डे पर आ कर मैं एक पेड़ के नीचे बैठ गया। शाम के इस वक़्त यहाँ पर कोई भी आने का साहस नहीं करता था किन्तु मेरी बात अलग थी। मैं मस्त मौला इंसान था और किसी बात से डरता नहीं था।

पेड़ के नीचे बैठा मैं उस सबके बारे में सोचता रहा जो कुछ आज हुआ था। पहले साहूकार हरिशंकर के लड़के मानिक का हाथ तोड़ना, फिर हवेली आ कर दादा ठाकुर से बहस करना, उस बहस में जगताप चाचा जी का मुझे थप्पड़ मारना, उसके बाद गुस्से में हवेली से आ कर मणिशंकर के दोनों बेटों से झगड़ा होना। जगताप चाचा जी अगर न आते तो शायद ये मार पीट आगे भी जारी ही रहती और बहुत मुमकिन था कि इस मार पीट में मेरे साथ या मणिशंकर के लड़कों के साथ बहुत बुरा हो जाता।

मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि जब मेरे घर वालों के साथ मेरे अच्छे रिश्ते नहीं हैं तो बाहर के लोगों की तो बात ही अलग है। आख़िर ऐसा क्या है कि मेरे अपनों के साथ मेरे रिश्ते अच्छे नहीं हैं या मेरी उनसे बन नहीं पाती है? चार महीने पहले भी मैं ऐसा ही था लेकिन पहले आज जैसे हालात बिगड़े हुए नहीं थे। पहले भी दादा ठाकुर का बर्ताव ऐसा ही था जैसा कि आज है मगर उनके अलावा बाकी लोगों का बर्ताव पहले जैसा आज नहीं है। जहां तक मेरा सवाल है मैं पहले भी ऐसा ही था और आज भी वैसा ही हूं, फ़र्क सिर्फ इतना है कि जब मुझे गांव से निष्कासित कर दिया गया तो मेरे अंदर अपनों के प्रति गुस्सा और भी ज़्यादा बढ़ गया। मैं पहले भी किसी की नहीं सुनता था और आज भी किसी की नहीं सुनता हूं। मैं तो वैसा ही हूं मगर क्या हवेली के लोग वैसे हैं? मेरे बड़े भैया का बर्ताव बदल गया है और जगताप चाचा जी के दोनों लड़को का भी बर्ताव बदल गया है। सवाल है कि आख़िर क्यों उन तीनों का बर्ताव बदल गया है? उन तीनों को आख़िर मुझसे क्या परेशानी है?

मेरे ज़हन में कुसुम और भाभी की बातें गूँज उठीं। अपने नटखटपन और अपनी चंचलता के लिए मशहूर कुसुम ने उस दिन गंभीर हो कर कुछ ऐसी बातें कही थी जिनमे शायद गहरे राज़ छुपे थे। भाभी ने तो साफ़ शब्दों में मुझसे कहा था कि उनके पति दादा ठाकुर की जगह लेने के लायक नहीं हैं। सवाल है कि आख़िर क्यों एक पत्नी अपने ही पति के बारे में ऐसा कहेगी और मुझे दादा ठाकुर की जगह लेने के लिए ज़ोर देगी?

मैं ये सब सोचते हुए एक अजीब से द्वन्द में फंस गया था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं आख़िर करूं तो करूं क्या? एक तरफ तो मैं इस सबसे कोई मतलब ही नहीं रखना चाहता था और दूसरी तरफ ये सारे सवाल मुझे गहरे ख़यालों में डूबा रहे थे। एक तरफ मुरारी काका की हत्या का मामला तो दूसरी तरफ हवेली में मेरे अपनों की समस्या और तीसरी तरफ इन साहूकारों का मामला। अगर मानिकचंद्र की बात सच है तो ये भी एक सोचने वाली बात ही होगी कि अचानक ही साहूकारों के मन में ठाकुरों से अपने रिश्ते सुधार लेने का विचार क्यों आया? कहीं सच में ये कोई गहरी साज़िश तो नहीं चल रही ठाकुरों के खिलाफ़? अचानक ही मेरे ज़हन में पिता जी के द्वारा कही गई उस दिन की बात गूँज उठी। अगर उन्हें लगता है कि ऐसा कुछ सच में हो रहा है तो ज़ाहिर है कि यकीनन ऐसा ही होगा।

अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी एक आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। बगीचे की ज़मीन पर पड़े सूखे पत्ते किसी के चलने से आवाज़ करते सुनाई देने लगे थे। मैं एकदम से सतर्क हो गया। सतर्क हो जाने का कारण भी था क्योंकि आज कल सच में मेरा वक़्त ख़राब चल रहा था।

"छोटे ठाकुर।" तभी मेरे कानों में धीमी मगर मीठी सी आवाज़ पड़ी। उस आवाज़ को मैं फ़ौरन ही पहचान गया। ये आवाज़ मुंशी की बहू रजनी की थी। जो अँधेरे में मुझे धीमी आवाज़ में छोटे ठाकुर कह कर पुकार रही थी।

रजनी की आवाज़ पहचानते ही मैं तो खुश हुआ ही किन्तु मेरा लौड़ा भी खुश हो गया। कमीना पैंट के अंदर ही कुनमुना उठा था, जैसे उसने भी अपनी रानी को सूंघ लिया हो।

"बड़ी देर लगा दी आने में।" मैंने उठ कर उसके क़रीब जाते हुए कहा____"मैं कब से तेरे आने की राह ताक रहा था।"
"क्या करूं छोटे ठाकुर।?" रजनी मेरी आवाज़ सुन कर मेरी तरफ बढ़ते हुए बोली____"मां जी की वजह से आने में देरी हो गई।"

"ऐसा क्यों?" मैंने उसके पास पहुंचते ही बोला____"क्या तेरी सास ने तुझे खूंटे से बांध दिया था?"
"नहीं ऐसी बात तो नहीं है।" रजनी ने अपने हाथ में लिए पानी से भरे डोलचे को ज़मीन पर रखते हुए कहा____"वो दिशा मैदान के लिए मुझे अपने साथ ले जाना चाहतीं थी।"

"अच्छा फिर?" मैंने उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में लेते हुए कहा____"फिर कैसे मना किया उसे?"
"मैंने उनसे कहा कि मुझे अभी हगास नहीं लगी है।" रजनी ने हंसते हुए कहा_____"इस लिए आप जाओ और जब मुझे हगास लगेगी तो मैं खुद ही चली जाऊंगी।"

"अच्छा फिर क्या कहा तेरी सास ने?" मैंने रजनी की एक चूची को उसके ब्लॉउज के ऊपर से ही मसलते हुए कहा तो रजनी सिसकी लेते हुए बोली____"क्या कहेंगी? गाली दे कर हगने चली गईं और फिर जब वो वापस आईं तो मैंने कहा कि माँ जी मुझे भी हगास लग आई है। मेरी बात सुन कर माँ जी ने मुझे गरियाते हुए कहा भोसड़ी चोदी जब पहले चलने को कह रही थी तब तो बोल रही थी कि हगास ही नहीं लगी है। अब अकेले ही जा और हग के आ।"

मैं रजनी की बातें सुन कर हंसते हुए बोला____"अच्छा तो इस लिए आने में देर हो गई तुझे?"
"और नहीं तो क्या?" रजनी ने मेरे सीने में हाथ फेरते हुए कहा____"वरना मैं तो यही चाहती थी कि उड़ के जल्दी से आपके पास पहुंच जाऊं और फिर आपका...!"

"आपका क्या??" मैंने उसके चेहरे को अपने चेहरे की तरफ उठा कर कहा____"खुल कर बोल न?"
"और फिर आपका ये मोटा तगड़ा लंड।" रजनी ने मेरे पैंट के ऊपर से मेरे लंड को सहलाते हुए कहा____"अपनी प्यासी चूत में डलवा कर आपसे चुदाई करवाऊं। शशशश छोटे ठाकुर आज ऐसे चोदिए मुझे कि चार महीने की प्यास आज ही बुझ जाए और मेरी तड़प भी मिट जाए।"

रजनी बाइस साल की कड़क माल थी। साल भर पहले उसकी शादी रघुवीर से हुई थी। पहले तो मेरी नज़र उस पर नहीं पड़ी थी लेकिन जब पड़ी तो मैंने उसे अपने नीचे लेटाने में देर नहीं लगाई। मुँह दिखाई में चांदी की एक अंगूठी उसे दी तो वो लट्टू हो गई थी मुझ पर। रही सही कसर अंजाने में मुंशी की बीवी ने मेरी तारीफें कर के पूरी कर दी थी।

"क्या सोचने लगे छोटे ठाकुर?" रजनी की इस आवाज़ से मैं ख्यालों से बाहर आया और उसकी तरफ देखा तो उसने कहा____"मुझे यहाँ से जल्दी जाना भी होगा इस लिए जो करना है जल्दी से कर लीजिए।"

रजनी की बात सुन कर मैंने उसके चेहरे को ऊपर किया और अपने होठ उसके दहकते होठों में रख दिए। रजनी मुझसे जोंक की तरह लिपट गई और खुद भी मेरे होंठों को चूमने चूसने लगी। मैंने अपना एक हाथ बढ़ा कर उसकी एक चूची को पकड़ लिया और मसलने लगा जिससे उसकी सिसकियां मेरे मुँह में ही दब कर रह ग‌ईं।

कुछ देर हम दोनों एक दूसरे के होठों को चूमते रहे उसके बाद रजनी झट से नीचे बैठ गई और मेरे पैंट को खोलने लगी। कुछ ही पलों में उसने मेरे पैंट को खोल कर और मेरे कच्छे को नीचे कर के मेरे नाग की तरह फुँकारते हुए लंड को पकड़ लिया।

"आह्ह छोटे ठाकुर।" मेरे लंड को सहलाते हुए उसने सिसकी लेते हुए कहा____"आपके इसी लंड के लिए तो चार महीने से तड़प रही थी मैं। आज इसे जी भर के प्यार करुँगी और इसे अपनी चूत में डलवा कर इसकी सवारी करुंगी।"

कहने के साथ ही रजनी ने अपना चेहरा आगे कर के मेरे लंड को अपने मुँह में लपक लिया। उसके कोमल और गरम मुँह में जैसे ही मेरा लंड गया तो मेरे जिस्म में मज़े की लहर दौड़ ग‌ई। मेरा लंड इस वक़्त अपने पूरे शबाब पर था और उसकी मुट्ठी में समां नहीं रहा था। लंड का टोपा उसके मुख में था जिसे वो जल्दी जल्दी अपने सिर को आगे पीछे कर के चूसे जा रही थी। मैंने मज़े के तरंग में अपने हाथों से उसके सिर को पकड़ा और अपने लंड की तरफ खींचा जिससे मेरा लंड उसके मुख में और भी अंदर घुस गया। मोटा लंड रजनी के मुख में गया तो वो गूं गूं की आवाज़ें निकालने लगी।

मुझे इतना मज़ा आ रहा था कि मैं रजनी का सिर पकड़ कर उसके मुख में अपने लैंड को और भी अंदर तक घुसेड़ता ही जा रहा था। मुझे इस बात का अब होश ही नहीं रह गया था कि मेरे द्वारा ऐसा करने से रजनी की हालत कितनी ख़राब हो गई होगी। मैं तो रजनी के मुख को उसकी चूत समझ कर ही अपने लंड को और भी अंदर तक पेलता जा रहा था। इधर रजनी बुरी तरह छटपटाने लगी थी और अपने सिर को पीछे की तरफ खींच लेने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रही थी जबकि मैं चेहरा ऊपर किए और अपनी आँखे मूंदे पूरे ज़ोर से उसका सिर पकड़े अपनी कमर हिलाए जा रहा था।

रजनी की हालत बेहद नाज़ुक हो चली थी। जब उसने ये जान लिया कि अब वो मेरी पकड़ से अपना सिर पीछे नहीं खींच सकती तो उसने मेरी जांघ पर ज़ोर से च्युंटी काटी जिससे मैं एकदम से चीख पड़ा और झट से अपना लंड उसके मुख से निकाल कर पीछे हट गया।

"मादरचोद साली रंडी।" फिर मैंने उसे गाली देते हुए कहा____"च्युंटी क्यों काटी मुझे?"
"म..मैं..मैं क्या करती छोटे ठाकुर?" रजनी ने बुरी तरह हांफते हुए और खांसते हुए कहा____"अगर मैं ऐसा न करती तो आप मेरी जान ही ले लेते।"

"ये क्या बकवास कर रही है तू?" मैं एकदम से चौंकते हुए बोला____"मैं भला तेरी जान क्यों लूँगा?"
"आपको तो अपना लंड मेरे मुँह में डाल कर मेरा मुंह चोदने में मज़ा आ रहा था।" रजनी ने अपनी उखड़ी साँसों को सम्हालते हुए कहा____"मगर आप अपने मज़े में ये भूल गए थे कि आप अपने इस मोटे लंड को मेरे मुँह में गले तक उतार चुके थे जिससे मैं सांस भी नहीं ले पा रही थी। थोड़ी देर और हो जाती तो मैं तो मर ही जाती। आप बहुत ज़ालिम हैं छोटे ठाकुर। आपको अपने मज़े के आगे दूसरे की कोई फ़िक्र ही नहीं होती।"

रजनी की बातें सुन कर जैसे अब मुझे बोध हुआ था कि मज़े के चक्कर में मुझसे ये क्या हो गया था। मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ और मैंने रजनी को उसके दोनों कन्धों से पकड़ कर ऊपर उठाया और फिर उसके चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों में ले कर कहा____"मुझे माफ़ कर दे रजनी। मैं सच में ये भूल ही गया था कि मैं मज़े में क्या कर रहा था।"

"आप नहीं जानते कि उस वक़्त मेरी हालत कितनी ख़राब हो गई थी।" रजनी ने बड़ी मासूमियत से कहा____"मैं ये सोच कर बुरी तरह घबरा भी गई थी कि कहीं मैं सच में न मर जाऊं।"
"मैंने कहा न कि मुझसे भूल हो गई मेरी जान।" मैंने रजनी के दाएं गाल को प्यार से चूमते हुए कहा____"अब दुबारा ऐसा नहीं होगा।"

रजनी मेरी बात सुन कर मुस्कुराई और फिर मेरे सीने से छुपक ग‌ई। कुछ पलों तक वो मुझसे ऐसे ही छुपकी रही फिर मैंने उसे खुद से अलग किया और उसके चेहरे को पकड़ कर उसके होठों पर अपने होंठ रख दिए। अब मैं अपना होश नहीं खोना चाहता था। इस लिए बड़े प्यार से रजनी के होठों को चूमने लगा। रजनी खुद भी मेरा साथ देने लगी थी। मैंने अपना एक हाथ बढ़ा कर रजनी के ब्लॉउज के बटन खोले और उसकी दोनों मुलायम चूचियों को बाहर निकाल कर एक चूंची को मसलते हुए दूसरी चूंची को अपने मुँह में भर लिया।

रजनी के सीने के उभार मेरे हाथ में पूरी तरह समां रहे थे और मैं उन्हें सहलाते हुए मुँह में भर कर चूमता भी जा रहा था। रजनी मज़े में सिसकारियां भरने लगी थी और अपने एक हाथ से मेरे सिर को अपनी चूंची पर दबाती भी जा रही थी। मैंने काफी देर तक रजनी की चूचियों को मसला और उसके निप्पल को मुँह में भर कर चूसा। उसके बाद मैंने रजनी को अपनी साड़ी उठाने को कहा तो उसने दोनों हाथों से अपनी साड़ी उठा कर पलट गई।

पेड़ पर अपने दोनों हाथ जमा कर रजनी झुक गई थी। उसकी साड़ी और पेटीकोट उसकी कमर तक उठा हुआ था। मैंने आगे बढ़ कर अँधेरे में ही रजनी की चूत पर अपने लंड को टिकाया और फिर उसकी कमर पकड़ कर अपनी कमर को आगे की तरफ ठेल दिया जिससे मेरा मोटा लंड रजनी की चूत में समाता चला गया। लंड अंदर गया तो रजनी के मुख से आह निकल गई। मुझे रजनी की चूत इस बार थोड़ी कसी हुई महसूस हुई थी। शायद चार महीने मेरे लंड को न लेने का असर था। ख़ैर लंड को उसकी चूत के अंदर डालने के बाद रजनी की कमर को पकड़े मैंने धक्के लगाने शुरू कर दिए।

बगीचे के शांत वातावरण में जहां एक तरफ मेरे द्वारा लगाए जा रहे धक्कों की थाप थाप करती आवाज़ गूँज रही थी वहीं हर धक्के पर रजनी की आहें और सिसकारियां गूँज रही थीं। रजनी मज़े में आहें भरते हुए मुझसे जाने क्या क्या कहती जा रही थी। इधर मैं उसकी बातें सुन कर दोगुने जोश में धक्के लगाये जा रहा था। काफी दिनों बाद आज चूत मिली थी मुझे।

"आह्ह छोटे ठाकुर इसी के लिए तो तड़प रही थी इतने महीनों से।" रजनी अपनी उखड़ी हुई साँसों को सम्हालते हुए और सिसकियां लेते हुए बोली____"आह्ह आज मेरे चूत की प्यास बुझा दीजिए अपने इस हलब्बी लंड से। आह्ह्ह और ज़ोर से छोटे ठाकुर आह्ह्ह बहुत मज़ा आ रहा है। काश! आपके जैसा लंड मेरे पति का भी होता।"

"साली रांड ले और ले मेरा लंड अपनी बुर में।" मैंने हचक हचक के उसकी चूत में अपना लंड पेलते हुए कहा____"तेरे पति का अगर मेरे जैसा लंड होता तो क्या तू मुझसे चुदवाती साली?"
"हां छोटे ठाकुर।" रजनी ने ज़ोर ज़ोर से आहें भरते हुए कहा____"मैं तब भी आपसे चुदवाती। भला आपके जैसा कोई चोद सकता है क्या? आप तो असली वाले मरद हैं छोटे ठाकुर। मेरा मन करता है कि आह्ह्ह शशशश दिन रात आपके इस मोटे लंड को अपनी बुर में डाले रहूं।"

रजनी की बातें सुन कर मैं और भी जोश में उसकी बुर में अपना लंड डाले उसे चोदने लगा। मेरे धक्के इतने तेज़ थे कि रजनी ज़्यादा देर तक पेड़ का सहारा लिए झुकी न रह सकी। कुछ ही देर में उसकी टाँगे कांपने लगीं और एकदम से उसका जिस्म अकड़ गया। झटके खाते हुए रजनी बड़ी तेज़ी से झड़ रही थी जिससे उसकी बुर के अंदर समाया हुआ मेरा लंड उसके चूत के पानी से नहा गया और बुर में बड़ी आसानी से फच्च फच्च की आवाज़ करते हुए अंदर बाहर होने लगा।

रजनी झड़ने के बाद एकदम से शांत पड़ गई थी और जब उससे झुके न रहा गया तो मैंने उसकी चूत से लंड निकाल कर उसे वहीं पर नीचे सीधा लिटा दिया। रजनी को सीधा लेटाने के बाद मैंने उसकी दोनों टाँगें फैलाई और टांगों के बीच में आते हुए उसकी चूत में लंड पेल दिया रजनी ने ज़ोर की सिसकी ली और इधर मैं उसकी दोनों टांगों को अपने कन्धों पर टिका कर ज़ोर ज़ोर से धक्के लगाने लगा। बगीचे में पेड़ों की वजह से अँधेरा था इस लिए मुझे उसका चेहरा ठीक से दिख तो नहीं रहा था मगर मैं अंदाज़ा लगा सकता था कि रजनी अपनी चुदाई का भरपूर मज़ा ले रही थी। कुछ ही देर में रजनी के शिथिल पड़े जिस्म पर फिर से जान आ गई और वो मुख से आहें भरते हुए फिर से बड़बड़ाने लगी।

मैं कुछ पल के लिए रुका और झुक कर रजनी की एक चूंची के निप्पल को मुँह में भर लिया जबकि दूसरी चूंची को एक हाथ से मसलने लगा। मेरे ऐसा करने पर रजनी मेरे सिर को पकड़ कर अपनी चूंची पर दबाने लगी। वो फिर से गरम हो गई थी। कुछ देर मैंने बारी बारी से उसकी दोनों चूचियों के निप्पल को चूसा और मसला उसके बाद चेहरा उठा कर फिर से धक्के लगाने लगा।

रजनी की चूंत में मेरा लंड सटासट अंदर बाहर हो रहा था और रजनी मज़े में आहें भर रही थी। मुझे महसूस हुआ कि मेरे जिस्म में दौड़ते हुए खून में उबाल आने लगा है और अद्भुत मज़े की तरंगे मेरे जिस्म में दौड़ते हुए मेरे लंड की तरफ बढ़ती जा रही हैं। मैं और तेज़ी से धक्के लगाने लगा। रजनी बुरी तरह सिसकारियां भरने लगी और तभी फिर एकदम से उसका जिस्म अकड़ने लगा और वो झटके खाते हुए फिर से झड़ने लगी। इधर मैं भी अपने चरम पर था। इस लिए पूरी ताकत से धक्के लगाते हुए आख़िर मैं भी मज़े के आसमान में उड़ने लगा और मेरे लंड से मेरा गरम गरम वीर्य रजनी की चूंत की गहराइयों में उतरता चला गया। झड़ने के बाद मैं बुरी तरह हांफते हुए रजनी के ऊपर ही ढेर हो गया। चुदाई का तूफ़ान थम गया था। कुछ देर मैं यूं ही रजनी के ऊपर ढेर हुआ अपनी उखड़ी हुई साँसों को शांत करता रहा उसके बाद मैं उठा और रजनी की चूंत से अपना लंड बाहर निकाल लिया। रजनी अभी भी वैसे ही शांत पड़ी हुई थी।

"अब ज़िंदा लाश की तरह ही पड़ी रहेगी या उठेगी भी?" मैंने अपने पैंट को ठीक से पहनते हुए रजनी से कहा तो उसने थकी सी आवाज़ में कहा____"आपने तो मुझे मस्त कर दिया छोटे ठाकुर। मज़ा तो बहुत आया लेकिन अब उठने की हिम्मत ही नहीं है मुझ में।"

"ठीक है तो यहीं पड़ी रह।" मैंने कहा____"मैं तो जा रहा हूं अब।"
"मुझे ऐसे छोड़ के कैसे चले जाएंगे आप?" रजनी ने कराहते हुए कहा, शायद वो उठ रही थी जिससे उसकी कराह निकल गयी थी, बोली____"बड़े स्वार्थी हैं आप। अपना मतलब निकल गया तो अब मुझे छोड़ कर ही चले जाएंगे?"

"मतलब सिर्फ मेरा ही बस तो नहीं निकला।" मैंने उसका हाथ पकड़ कर उसे उठाते हुए कहा____"तेरा भी तो निकला ना? तूने भी तो मज़े लिए हैं।"
"वैसे आज आपको हो क्या गया था?" खड़े होने के बाद रजनी ने अपनी साड़ी को ठीक करते हुए कहा____"इतनी ज़ोर ज़ोर से मेरी बुर चोद रहे थे कि मेरी हालत ही ख़राब हो गई।"

"तूने ही तो कहा था कि चार महीने की प्यास आज ही बुझा दूं।" मैंने उसे खींच कर अपने से छुपकाते हुए कहा____"इस लिए वही तो कर रहा था। वैसे अगर तेरी प्यास न बुझी हो तो बता दे अभी। मैं एक बार फिर से तेरी बुर में अपना लंड डाल कर तेरी ताबड़तोड़ चुदाई कर दूंगा।"

"ना बाबा ना।" रजनी ने झट से कहा____"अब तो मुझ में दुबारा करने की हिम्मत ही नहीं है। आपके मोटे लंड ने तो एक ही बार में मेरी हालत ख़राब कर दी है। अब अगर फिर से किया तो मैं घर भी नहीं जा पाऊंगी।"

रजनी की बात सुन कर मैंने उसके चेहरे को अपने हाथों में लिया और उसके होठों को चूमने लगा। उसके शहद जैसे मीठे होठों को मैंने कुछ देर चूमा चूसा और फिर उसकी चूचियों को मसलते हुए उसे छोड़ दिया।

"लगता है आपका अभी मन नहीं भरा है।" रजनी ने अपने ब्लॉउज के बटन लगाते हुए कहा____"लेकिन मैं बता ही चुकी हूं कि अब दुबारा करने की मुझ में हिम्मत नहीं है। अभी भी ऐसा महसूस हो रहा है जैसे आपका मोटा लंड मेरी बुर में अंदर तक घुसा हुआ है।"

"तुझे चोदने से मेरा मन कभी नहीं भरेगा मेरी जान।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तू कह रही है कि अब तुझमे हिम्मत ही नहीं है चुदवाने की वरना मैं तो एक बार और तुझे जी भर के चोदना चाहता था।"

"रहम कीजिए छोटे ठाकुर।" रजनी दो क़दम पीछे हटते हुए बोली____"फिर किसी दिन मुझे चोद लीजिएगा लेकिन आज नहीं। वैसे भी बहुत देर हो गई है। माँ जी मुझ पर गुस्सा भी करेंगी।"

"चल ठीक है जा तुझे बक्श दिया।" मैंने कहा____"वैसे आज मैं तेरे ही घर में रुकने वाला हूं।"
"क्या???" रजनी चौंकते हुए बोली____"मेरा मतलब है कि क्या सच में?"

"हां मेरी जान।" मैंने कहा____"अब मैं हवेली नहीं जाऊंगा। आज की रात तेरे ही घर में गुज़ारुंगा। कल कोई दूसरा ठिकाना देखूंगा।"
"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रजनी ने हैरानी से पूछा____"और हवेली क्यों नहीं जाएंगे आप?"

"बस मन भर गया है हवेली से।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"असल में हवेली मेरे जैसे इंसान के लिए है ही नहीं। ख़ैर छोड़ ये बात और निकल यहाँ से। तेरे घर पहुंचने के बाद मैं भी कुछ देर में आ जाऊंगा।"

मैंने रजनी को घर भेज दिया और खुद बगीचे से निकल कर उस तरफ चल दिया जहां पर मकान बना हुआ था। मकान के पास आ कर मैं चबूतरे पर बैठ गया। रजनी को छोड़ने के बाद मेरे अंदर की कुछ गर्मी निकल गई थी और अब ज़हन कुछ शांत सा लग रहा था। अभी मैं रजनी के बारे में सोच ही रहा था कि तभी किसी चीज़ की आहट को सुन कर मैं चौंक पड़ा।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 17
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अब तक,,,,,

"हां मेरी जान।" मैंने कहा____"अब मैं हवेली नहीं जाऊंगा। आज की रात तेरे ही घर में गुज़ारुंगा। कल कोई दूसरा ठिकाना देखूंगा।"
"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रजनी ने हैरानी से पूछा____"और हवेली क्यों नहीं जाएंगे आप?"

"बस मन भर गया है हवेली से।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"असल में हवेली मेरे जैसे इंसान के लिए है ही नहीं। ख़ैर छोड़ ये बात और निकल यहाँ से। तेरे घर पहुंचने के बाद मैं भी कुछ देर में आ जाऊंगा।"

मैंने रजनी को घर भेज दिया और खुद बगीचे से निकल कर उस तरफ चल दिया जहां पर मकान बना हुआ था। मकान के पास आ कर मैं चबूतरे पर बैठ गया। रजनी को छोड़ने के बाद मेरे अंदर की कुछ गर्मी निकल गई थी और अब ज़हन कुछ शांत सा लग रहा था। अभी मैं रजनी के बारे में सोच ही रहा था कि तभी किसी चीज़ की आहट को सुन कर मैं चौंक पड़ा।

अब आगे,,,,,



आहट पीछे से आई थी और जब मैंने चौंक कर पीछे देखा तो चांदनी रात में कुछ दूर मुझे एक इंसानी साया नज़र आया। उस साए ने अपने बदन पर काला कपड़ा ओढ़ा हुआ था और उसका चेहरा भी काले कपड़े से ढंका हुआ था। उसके दाहिने हाथ में एक बड़ा सा लट्ठ था। मैं उस साए को देख कर एकदम से चौकन्ना हो गया। मुझे समझने में ज़रा भी देरी नहीं हुई कि वो साया मेरी वजह से ही यहाँ था। वो मुझसे क़रीब दस या पंद्रह फ़ीट की दूरी पर खड़ा था। उसे देख कर मैं चौकन्ना तो हो गया था किन्तु जाने क्यों मेरे जिस्म में झुरझुरी सी होने लगी थी और मेरी धड़कनें भी तेज़ हो गईं थी।

मैं एक झटके में अपनी जगह से उठ कर खड़ा हो गया। मेरे ज़हन में अचानक ही ख़याल उभरा कि कहीं ये वही साया तो नहीं जो उस रात मुझसे टकराया था और मुझे धक्का दे कर गायब हो गया था? मेरे मन में कई सारे सवाल अचानक से ही तांडव करने लगे थे। आख़िर कौन हो सकता है ये रहस्यमयी शख़्स और यहाँ पर क्यों आया होगा ये? क्या इसी ने मुरारी काका की हत्या की होगी और क्या इसी ने मेरी फसल को जलाया होगा? ऐसे न जाने कितने ही सवाल मेरे ज़हन में उभरते जा रहे थे। मैं उसी की तरफ देख रहा था और वो भी अपनी जगह पर लट्ठ लिए मुझे ही देख रहा था।

मकान से बगीचा क़रीब सौ मीटर की दूरी पर था और चांदनी रात में इस वक़्त तीसरा कोई भी मुझे आस पास नहीं दिख रहा था। मैं ये तो नहीं जानता था कि वो साया यहाँ क्या करने आया था किन्तु मैंने मन ही मन ये ज़रूर सोच लिया था कि उस साए को अब हाथ से जाने नहीं दूंगा। मन में ये विचार कर के मैं उसकी तरफ बढ़ने लगा। मैं इस वक़्त एकदम निहत्था था किन्तु मेरे अंदर डर या घबराहट जैसी कोई बात नहीं थी बल्कि मेरी मुट्ठियां शख़्ती से कस गईं थी।

मैं निरंतर उस साए की तरफ बढ़ता ही जा रहा था और वो अपनी जगह पर किसी पुतले की तरह खड़ा जैसे मुझे ही घूर रहा था। मैं जब उसके और क़रीब पंहुचा तो मैंने देखा उसका चेहरा काले कपड़े से ढंका हुआ था। उसके बदन पर काला ही कपड़ा था जिसे उसने अपने जिस्म के चारो तरफ लपेट रखा था। साए की लम्बाई मुझसे थोड़ी ही ज़्यादा थी। मैं पूरी तरह चौकन्ना था और उसके द्वारा किए जाने वाले किसी भी हमले के लिए तैयार था। चलते हुए मैं उसके एकदम क़रीब पहुंच गया। अब उसके और मेरे बीच में सिर्फ चार या पांच क़दम का ही फासला था।

"कौन हो तुम?" मैंने उसे देखते हुए शख़्त भाव से उससे पूछा____"और इस वक़्त यहाँ क्या कर रहे हो?"
"अपनी जान की सलामती चाहते हो तो यहाँ से भाग जाओ।" मेरे पूछने पर उसने ऐसी आवाज़ में कहा जैसे उसे बोलने में बहुत ही मेहनत करनी पड़ रही हो।

"शायद तुम जानते नहीं हो कि तुम किसके सामने खड़े हो।" मैंने कठोर भाव से कहा____"मेरा नाम ठाकुर वैभव सिंह है और वैभव सिंह उस बला का नाम है जो हर वक़्त अपनी जान अपनी हथेली पर ले कर चलता है। तुम मेरी नहीं बल्कि खुद अपनी सलामती की चिंता करो। अब इससे पहले कि मुझे गुस्सा आ जाए तुम फटाफट अपने बारे में बताओ और ये भी बताओ कि यहाँ किस लिए आए हो?"

"लगता है तुम्हें अपनी ताकत पर बहुत घमंड है।" साए ने कहा____"लेकिन तुम्हारे लिए ये जान लेना ज़रूरी है कि तुम्हारी ताकत मेरी ताकत के सामने बहुत ही मामूली है।"

"तो तुम मुझे धमकी दे रहे हो?" मैंने शख़्त भाव से उसे घूरते हुए कहा तो उसने कहा____"ये धमकी नहीं है लड़के बल्कि तुम्हें सच्चाई बता रहा हूं। इस लिए अगर अपनी जान की सलामती चाहते हो तो यहाँ से भाग जाओ वरना फिर मरने के लिए तैयार हो जाओ।"

"चलो ये भी देख लेते हैं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अगर असली मर्द हो तो मेरी तरह निहत्था हो कर मुझसे मुक़ाबला करो।"
"हां क्यों नहीं।" उसने अपनी अजीब सी आवाज़ में कहने के साथ ही अपने लट्ठ को एक तरफ उछाल दिया, फिर बोला_____"ये लो अब मैं भी तुम्हारी तरह निहत्था हो गया हूं। वैसे अभी भी वक़्त है तुम अपनी सलामती चाहते हो तो यहाँ से भाग जाओ।"

"वैभव सिंह एक ऐसे शख़्स से डर कर यहाँ से जाने वाला नहीं है जिसने खुद को छुपाने के लिए नक़ाब का सहारा ले रखा हो।" मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा____"बल्कि वो तो उस शख़्स से अब मुक़ाबला करेगा जिसने उसे मौत से डर कर भाग जाने की बात कही है। मैं भी देखना चाहता हूं कि किसका इतना बड़ा जिगरा है जो वैभव सिंह को नक़ाब पहन कर डराने आया है।"

"बहुत खूब।" उस साए ने कहा____"तो देर किस बात की है? अगर तुम में ताकत है तो ऐसा जिगरा रखने वाले का पता लगा लो फिर।"
"पहली बार कोई ऐसा मिला है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"जिसने वैभव सिंह को इस तरह से ललकारा है। मज़ा आएगा तुमसे मुक़ाबला कर के।"

मेरी बात सुन कर वो साया कुछ न बोला मगर मैंने महसूस किया जैसे मेरी बात सुन कर नक़ाब के अंदर उसके होठों पर मुस्कान उभर आई हो। वो एकदम से लापरवाह सा खड़ा मुझे ही देख रहा था। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि उसे मुझसे किसी बात का खतरा है, जबकि मैं अब मुक़ाबले के लिए एकदम से तैयार हो गया था। इतना तो मैं भी समझ गया था कि मुझसे इस तरह से उलझने वाला कोई मामूली शख़्स नहीं होगा। तभी उसने अपने दोनों हाथ के इशारे से मुझे अपनी तरफ हमला करने के लिए बुलाया।

मैं ये सोच कर गुस्से में आ गया कि वो मुझे किसी बच्चे की तरह पुचकार कर बुला रहा है। जैसे उसकी नज़र में मेरी कोई औकात ही न हो। मैं तेज़ी से आगे बढ़ा और उछल कर उसके ऊपर छलांग लगाया ही था कि वो बड़ी तेज़ी से अपनी जगह से हट गया जिससे मैं खाली ज़मीन पर गिर कर लुढ़कता चला गया। अभी मैं उठने ही लगा था कि उसके पैर की ठोकर मेरे पेट में पड़ी जिससे मैं दर्द से चीखते हुए दूर जा गिरा। मेरे पेट में उसके पैर का प्रहार बड़ा ज़ोर का हुआ था और इतने में ही मैं समझ गया था कि वो साया काफी ताकतवर है।

मैं दर्द को बरदास्त कर के फ़ौरन ही उठा और जैसे ही उसकी तरफ देखा तो मेरे चेहरे पर उसका ज़बरदस्त घूंसा पड़ा और मैं एक बार फिर से उछल कर ज़मीन पर जा गिरा। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मेरे जबड़े हिल गए हों। तभी मेरी नज़र उस पर पड़ी। वो बड़ी तेज़ी से मेरी तरफ आया और जैसे ही उसने अपना एक पैर उठा कर मुझ पर प्रहार किया तो मैं बड़ी तेज़ी से एक तरफ पलटा और झुक कर अपनी टांग उसके दूसरे पैर पर चला दी। परिणामस्वरूप साए का दूसरा पैर मेरी टांग लगते ही ज़मीन से हट गया और वो धड़ाम से ज़मीन पर गिर पड़ा। उसके गिरते ही मैं उछल कर उसके ऊपर आ गया मगर तभी उसने एक घूंसा मेरे चेहरे पर जड़ दिया और मैं एक तरफ को लहरा कर जा गिरा।

अभी मैं उठ ही रहा था कि उसने फिर से अपनी टांग घुमाई जिसे मैंने पकड़ लिया और उसकी टांग पकड़े ही मैं तेज़ी से खड़े हो कर उसे पूरी ताकत से उछाल दिया जिससे वो भरभरा कर ज़मीन पर गिर गया मगर गिरते ही वो बड़ी तेज़ी पलट गया। चांदनी रात थी इस लिए कोई समस्या नहीं थी किन्तु साया मेरी सोच से ज़्यादा फुर्तीला था और लड़ने के काफी दांव पेंच भी जानता था। जब तक मैं उसके क़रीब पंहुचा तब तक वो उछल कर खड़ा हो गया था।

मैं समझ गया था कि मेरा प्रतिद्वंदी मुझसे बिलकुल भी कमज़ोर नहीं है इस लिए मैं अब पूरी तरह से सतर्क हो गया था और कुछ सोचते हुए मैंने उसको मारने के लिए तेज़ी से हाथ चलाया तो वो झुक गया मगर यहीं पर उससे गलती हो गई। मैंने उसे मारने के लिए सिर्फ हाथ चलाने का उपक्रम किया था, वो मेरे वार से बचने के लिए झुक गया था और जैसे ही वो झुका तो मैंने अपने घुटने का वार ज़ोर से उसके माथे पर किया जिससे वो दर्द से बिलबिलाते हुए लहरा गया और इससे पहले कि वो सम्हलता मैंने उछल कर एक लात उसकी छाती पर मारी तो वो हिचकी लेते हुए धड़ाम से चित्त हो कर ज़मीन पर गिरा। इस बार वो जल्दी से उठा नहीं। मैं समझ गया कि उसकी छाती पर मेरा प्रहार बड़े ज़ोर का हुआ है जिससे वो शिथिल पड़ गया था।

अभी मैं उसके पेट पर लात मारने ही वाला था कि तभी दो तरफ से उसी के जैसे दो साए एकदम से आ ग‌ए। ये देख कर मैं चौंक पड़ा। उन सायों के हाथों में वैसे ही लट्ठ थे जैसे इस वाले साए के हाथ में था। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता एक साये ने अपना लट्ठ घुमा दिया जो सीधा मेरे बाजू में बड़े ज़ोर से लगा। मेरे हलक से दर्द में डूबी चीख निकल गई। तभी दूसरे वाले ने भी अपना लट्ठ घुमाया मगर ऐन वक़्त पर मैंने उसे लट्ठ घुमाते देख लिया था जिससे मैं फ़ौरन ही झुक गया था और उसका वार खाली चला गया था।

मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये दोनों साए कहां से आ गए थे और एकदम से मुझ पर हमला क्यों कर दिया था? मेरे बाजू में एक साए का लट्ठ लगा था जिससे मुझे बड़ा तेज़ दर्द हो रहा था। तभी मैंने देखा कि जिस साए से मैं पहले मुक़ाबला कर रहा था वो तेज़ी से उठा और एक ही जम्प में अपने लट्ठ को उठा लिया। उसे लट्ठ उठाते देख वो दोनों साए उसकी तरफ पलट गए और दोनों ने उस पर एक साथ हमला कर दिया। ये देख कर मैं फिर से चौंक पड़ा। उधर पहले वाला वो साया उन दोनों के हमलों का जवाब देने लगा था।

मैं उन दोनों सायों को पहले वाले साए के साथ इस तरह लड़ते देख काफी हैरान था। मुझे तो यही समझ में नहीं आ रहा था कि वो दोनों साए कहां से आ गए थे और जब वो दोनों मुझ पर हमला करने लगे थे तो वो पहले वाला साया उनसे कैसे भिड़ गया था। वातावरण में लट्ठ के टकराने की आवाज़ें गूँज रहीं थी। दोनों साए पहले वाले साए पर अपने अपने लट्ठ से वार करते जा रहे थे और पहला वाला साया उन दोनों के वार को बड़ी कुशलता से काटता जा रहा था। मैं कुछ देर तक भौचक्का सा खड़ा उन तीनों को लड़ते हुए देखता रहा उसके बाद मेरे ज़हन में अचानक ही ये ख़याल आया कि क्या मुझे इन तीनों के बीच में जाना चाहिए?

मैने ये साफ़ देखा था कि वो दोनों साए आते ही बिना कुछ बोले मुझ पर वार करने लगे थे लेकिन मैंने किसी तरह खुद को बचाया था और फिर उसके बाद पहले वाला साया उन दोनों से भीड़ गया था। इसका मतलब ये हुआ कि पहला वाला साया ये नहीं चाहता था कि वो दोनों साए मुझ पर हमला करें। अब सवाल था कि ऐसा क्यों? आख़िर पहला वाला साया ऐसा क्यों चाहता था और कौन था वो? बाद में ये जो दो साए आये हैं तो ये कौन हैं और इस तरह अचानक से मुझ पर हमला क्यों कर दिया था? तभी मुझे पहले वाले साए की कही बात याद आई, उसने कहा था कि अगर अपनी जान की सलामती चाहते हो तो यहाँ से भाग जाओ। इसका मतलब वो इन्हीं दो सायों के बारे में ऐसा कह रहा था। इसका मतलब ये भी हुआ कि उसे पहले से पता था कि ये दोनों साए यहाँ आएंगे और मुझ पर हमला करेंगे। अब सवाल ये था कि पहले वाले साए को ये सब कैसे पता था? सोचते सोचते मेरा दिमाग़ चकराने लगा मगर कुछ समझ में नहीं आया मुझे।

उधर वो दोनों साए पहले वाले साए से अब भी भिड़े हुए थे और पूरी कोशिश कर रहे थे कि वो पहले वाले साए को अपने लट्ठ से हरा कर उसे ख़त्म कर सकें मगर ऐसा हो नहीं रहा था। मैं ये देख कर हैरान था कि पहला वाला साया बड़ी ही कुशलता से उन दोनों का मुकाबला कर रहा था। कुछ ही देर में नौबत यहाँ तक आ गई कि वो दोनों ही साए पहले वाले साए से कमज़ोर पड़ने लगे। अचानक ही दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और फिर दोनों एक साथ मुकाबला छोंड़ कर भाग निकले। पहले वाले साए ने कुछ दूर तक उनके पीछे दौड़ कर उनका पीछा किया मगर वो बगीचे में घुस गए और घने पेड़ पौधों के बीच अँधेरे में गायब हो ग‌ए।

"आख़िर कौन हो तुम?" पहला वाला साया जब वापस आया तो मैंने उससे पूछा____"और तुम्हारी तरह ही दिखने वाले वो दोनों साए कौन थे? उन दोनों ने आते ही मुझ पर हमला क्यों कर दिया था?"

"अगर अपनी जान की सलामती चाहते हो तो भाग जाओ यहाँ से।" साए ने अपनी अजीब सी आवाज़ में कहा____"और फिर कभी दुबारा इस तरह अकेले मत भटकना।"

"अगर मेरी इतनी ही फिक्र है तो बताते क्यों नहीं कि कौन हो तुम?" मैंने इस बार गुस्से में कहा____"और उन दोनों से इस तरह क्यों भिड़ गए थे तुम? उन दोनों ने मुझ पर हमला किया था मगर तुमने उन्हें रोक लिया। इसका मतलब तुम ये नहीं चाहते थे कि वो दोनों मुझे कोई नुकसान पहुँचाएं। अब सवाल ये है कि आख़िर ऐसा क्यों चाहते थे तुम?"

"तुम्हें ख़तरों से खेलने का अगर कुछ ज़्यादा ही शौक है।" साए ने शख़्त भाव से कहा____"तो खेलो फिर मगर याद रखना इस खेल में नुकसान तुम्हारा ही है।"
"तुम ऐसे नहीं जा सकते।" साया पलट कर जाने ही लगा था कि मैंने झट से कहा____"तुम्हें बताना पड़ेगा कि कौन हो तुम और वो दोनों साए तुम्हारे जैसा रूप बना कर मुझ पर हमला करने क्यों आये थे?"

"मैं तुम्हारे सवालों के जवाब देना ज़रूरी नहीं समझता।" साए ने पलट कर मुझसे कहा____"लेकिन हां इतना ज़रूर कहूंगा कि अब अगर तुम मुझे दुबारा इस तरह मिले तो मैं तुम्हे ज़िंदा नहीं छोडूंगा।"

इससे पहले कि मैं उसकी इस बात का कोई जवाब देता वो तेज़ी से एक तरफ को बढ़ गया। पहले मेरे ज़हन में ख़याल आया कि मैं उसका पीछा करूं मगर फिर मैंने ये सोच कर अपना इरादा बदल दिया कि अगर उसे कुछ बताना ही होता तो वो खुद ही बता देता सब कुछ। वो साया मेरी आँखों से ओझल हुआ तो मैं भी गांव की तरफ बढ़ चला।

सारे रास्ते मैं यही सोचता रहा कि आख़िर वो साया कौन रहा होगा और उसने शुरू में मुझसे ये क्यों कहा था कि अगर मैं अपनी जान की सलामती चाहता हूं तो वहां से भाग जाऊं? उसके बाद हमारे बीच बातें हुईं और फिर मुक़ाबला करने तक की नौबत आ गई। हलांकि मुक़ाबला करने की नौबत मैंने खुद ही बनाई थी किन्तु उसके बाद जो दूसरे साए आए और उन्होंने आते ही मुझ पर हमला किया था उससे मैं बुरी तरह चकरा गया था। ये तो अब स्पस्ट था कि बाद में जो दो साए आये थे वो मुझे मारना चाहते थे और पहला वाला मुझे बचाने के लिए उन दोनों से भिड़ गया था। इसका मतलब पहला वाला साया नहीं चाहता था कि वो दोनों साए मुझे मार पाएं।

मैं इतना तो समझ गया था कि पहला वाला साया मेरी सुरक्षा के लिए ही आया था किन्तु सवाल ये था कि आख़िर वो था कौन और खुद को इस तरह काले कपड़ों से क्यों छुपा रखा था? सबसे बड़ी बात ये कि उसे पहले से पता था कि मुझे मारने के लिए कोई आने वाला था और अब मुझे उसकी ये बात भी समझ आ गई थी कि वो क्यों मुझे यहाँ से भाग जाने के लिए कह रहा था?

इस हादसे ने मेरे ज़हन में कई सारे सवाल पैदा कर दिए थे किन्तु मेरे पास किसी भी सवाल का जवाब नहीं था। इस हादसे से मैं इतना तो समझ गया था कि कोई मुझे जान से मार देना चाहता है लेकिन कौन ये मेरी समझ में नहीं आ रहा था। अचानक ही मेरे मन में साहूकारों का ख़याल आया। मैंने सोचा क्या गांव के शाहूकार मुझे जान से मार देना चाहते हैं? यकीनन उनके पास मुझे जान से मार देने की वजह थी। आख़िर आज के समय में मैं ही उनका सबसे बड़ा दुश्मन था। इस लिए हो सकता है कि मुझे जान से मारने के लिए उन्होंने किसी ऐसे आदमी को सुपारी दी हो जो किसी की जान लेने का काम करता हो। उनका भेद न खुले इस लिए उन्होंने हत्यारे को समझाया होगा कि वो खुद को काले कपड़ों में छुपा के रखें। मैंने जितना सोचा उतना ही मेरे मन में इस बारे में यही विचार दृढ़ हुआ कि ये काम साहूकारों का ही है लेकिन क्योकि मैं उन दोनों सायों को पहचान नहीं सका था इस लिए मैं इसके लिए उन पर आरोप नहीं लगा सकता था।

सारे रास्ते मैं इसी सब के बारे में सोचता रहा और फिर मुंशी के घर पहुंच गया। मुंशी के घर के बाहर और आस पास हमेशा की तरह सन्नाटा छाया हुआ था। गांव का हर मर्द आज होलिका दहन के लिए गया हुआ था। मुझे याद आया कि माँ ने भी मुझे आज साथ में ही रहने को कहा था मगर हवेली से आने के बाद अब मैं वहां नहीं जा सकता था। हलांकि मेरे वहां जाने में कोई समस्या नहीं थी किन्तु वैभव सिंह का अहंकार वह जाने से रोक रहा था मुझे।

मुंशी के घर के दरवाज़े पर आ कर मैंने दरवाज़े की कुण्डी को पकड़ कर बजाया तो कुछ ही देर में दरवाज़ा खुला। दरवाज़े के उस पार मुंशी की बीवी प्रभा खड़ी दिखी। इस वक़्त अपने दरवाज़े पर मुझे देखते ही उसके चेहरे पर चौंकने के भाव उभर आए।

"छोटे ठाकुर आप??" फिर उसने खुद को सम्हालते हुए कहा____"आइए अंदर आइए।"
"मुझे यहाँ देख कर ख़ुशी नहीं हुई क्या तुम्हें?" अंदर आने के बाद मैंने उसके पिछवाड़े में हल्के से थप्पड़ मारते हुए कहा तो वो हल्के से ही उछल पड़ी और फिर मुस्कुराते हुए बोली____"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है छोटे ठाकुर। असल में मुझे इस वक़्त आपके यहाँ होने की उम्मीद ही नहीं थी। इस लिए पूछा आपसे।"

"आज की रात मैं यहीं पर रुकने वाला हूं।" वो दरवाज़ा बंद कर के जैसे ही पलटी तो मैंने कहा और उसे पकड़ कर अपनी तरफ खींच लिया जिससे वो चौंक पड़ी और फिर अंदर की तरफ देखते हुए आँखें फैला कर बोली____"ऐसे मत पकड़िए छोटे ठाकुर। कहीं रजनी न आ जाये इस तरफ। अगर उसने ऐसे देख लिया तो क्या सोचेगी वो मेरे बारे में?"

"सोचने दे मेरी रांड काकी।" मैंने एक हाथ से उसकी भारी भरकम चूंची को ज़ोर से मसलते हुए कहा तो वो सिसकी लेते हुए बोली____"नहीं नहीं छोटे ठाकुर। मैं रजनी की नज़रों में गिरना नहीं चाहती। भगवान के लिए इस वक़्त छोड़ दीजिए मुझे। आप कहेंगे तो मैं कल बगीचे में आपकी सेवा के लिए आ जाऊंगी।"

"कल नहीं आज।" मैंने उसकी चूंची को फिर से मसल कर कहा____"हां मेरी जान। आज रात ही तुझे मेरी सेवा करनी होगी। तुझे पता नहीं है कि पिछले चार महीने से मेरे लंड को कोई चूत नहीं मिली है। इस लिए आज मेरा लंड तेरी चूत के अंदर जा कर नाचेगा और धूम मचाएगा और इसके लिए तू इंकार नहीं कर सकती।"

"ठीक है छोटे ठाकुर।" प्रभा ने कसमसाते हुए कहा____"मैं करने को तो तैयार हूं मगर घर में सबके रहते ये कैसे संभव हो सकेगा? मेरा बेटा और बहू होंगे और मेरा मरद भी यहीं होगा। ऐसे में मैं कैसे आपकी सेवा कर पाऊंगी?"

"चिंता मत कर।" मैंने प्रभा की दूसरी चूंची को ज़ोर से मसला और फिर उसे छोड़ते हुए कहा____"मैं तो ऐसे ही तुझे परेशान कर रहा था। चल अंदर चल कहीं सच में तेरी बहू न आ जाए।"

मेरे ऐसा कहने पर प्रभा के चेहरे पर राहत के भाव उभरे और फिर वो मुस्कुराते हुए अंदर की तरफ चल पड़ी। अब भला उसे कैसे पता हो सकता था कि मुझे आज उसकी सेवा की ज़रूरत ही नहीं थी क्योकि उसकी बहू रजनी पहले ही मेरी सेवा कर चुकी थी।

अंदर आ कर मैं आँगन में बिछी चारपाई पर बैठ गया। बड़ा का आँगन था इस लिए ठण्ड ठण्ड हवा लग रही थी जिससे अच्छा महसूस हो रहा था मुझे। रजनी रसोई घर में थी और खाना बना रही थी। प्रभा ने जा कर उसे मेरे आने के बारे में बताया तो उसने उससे कुछ नहीं कहा। उसे तो पहले से ही पता था कि आज रात मेरा इसी घर में क़याम होना था।

प्रभा आँगन में ही मेरे पास आ कर नीचे एक बोरा बिछा कर बैठ गई और मुझसे मेरा हाल चाल पूछने लगी कि मैं चार महीने कैसे उस जगह पर रहा और अब हवेली में कैसे हालात हैं तो मैंने उसे संक्षेप में सब बता दिया। प्रभा मेरी बातें सुन कर हैरान थी। ख़ास कर इस बात से कि मैंने आज दादा ठाकुर को उल्टा सीधा बोला और हवेली छोड़ कर चला आया था।

खाना बन गया तो प्रभा ने मुझसे खाने के लिए कहा तो मैं हाथ मुँह धो कर खाना खाने बैठ गया। मैं अक्सर कभी कभार मुंशी के यहाँ खाना खा लिया करता था। मैं ये कभी नहीं सोचता था कि मैं दादा ठाकुर का बेटा हूं तो मैं किसी और के घर का खाना नहीं खाऊंगा बल्कि मैं तो मस्त मौला इंसान था। जब चाहे अपनी मर्ज़ी से कुछ भी करने के लिए आज़ाद था मैं।

खाना खाने के बाद मैं फिर से आँगन में चारपाई पर बैठ गया। मुंशी और उसका बेटा रघुवीर देर रात ही आने वाले थे इस लिए प्रभा ने मेरा बिस्तर बाहर वाले चौखटे पे लगा दिया जहां पर मुंशी का भी बिस्तर था। कुछ देर मैं प्रभा से बातें करता रहा और फिर चौखटे में बिछे अपने बिस्तर पर आ कर लेट गया।

बिस्तर पर लेटा मैं सोच रहा था कि मेरी ज़िन्दगी क्या से क्या हो गई है। कहां चार महीने पहले मैं हर चिंता से मुक्त था और अपनी मौज मस्ती में लगा रहता था और कहां आज मैं ऐसे हालातों में फंस कर दर दर भटकने लगा था। दादा ठाकुर ने मुझे गांव से निष्कासित कर के चार महीने तक उस बंज़र ज़मीन पर रहने के लिए मजबूर कर दिया था और बाद में बताया कि ये सब उन्होंने किसी मकसद के तहत किया था। उनके अनुसार कोई ऐसा था जो ठाकुरों के खिलाफ़ गहरा षड़यंत्र रचने वाला था और उस षड़यंत्र का मकसद था ठाकुरों के वर्चस्व को ख़त्म करना। अब सवाल था कि अगर ऐसी ही बात थी तो इसके लिए मुझे गांव से निष्कासित करने की भला क्या ज़रूरत थी? उन्होंने मुझे इस बारे में जो कुछ भी उस दिन बताया था उससे तो यही लगता है कि ऐसा कर के उन्होंने यकीनन ग़लत ही किया था। किन्तु मैं अपने पिता जी से अच्छी तरह परिचित था इस लिए मेरा मन ये मानने को तैयार नहीं था कि उन्होंने मुझे निष्कासित करने के बारे में जो कुछ बताया था वही सच हो। यकीनन इसके अलावा भी कोई ऐसी वजह हो सकती है जिसके बारे में उन्होंने मुझे नहीं बताया है।

जाने कितनी ही देर तक मैं इसी सब के बारे में सोचता रहा और फिर पता ही नहीं चला कि कब मेरी आँख लग गई और मैं नींद की आगोश में चला गया। नींद में मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे चारो तरफ गाढ़ा काला धुआँ फैलता जा रहा है और मैं उस धुएं में धीरे धीरे समाता जा रहा हूं। मैं अपने हाथ पैर ज़ोर ज़ोर से चला रहा था मगर मेरे हाथ पैर चलने से भी कुछ नहीं हो रहा बल्कि मैं निरंतर उस धुएं में समाता ही जा रहा था और फिर तभी मैं ज़ोर से चीख पड़ा।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 18
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अब तक,,,,,

जाने कितनी ही देर तक मैं इसी सब के बारे में सोचता रहा और फिर पता ही नहीं चला कि कब मेरी आँख लग गई और मैं नींद की आगोश में चला गया। नींद में मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरे चारो तरफ गाढ़ा काला धुआँ फैलता जा रहा है और मैं उस धुएं में धीरे धीरे समाता जा रहा हूं। मैं अपने हाथ पैर ज़ोर ज़ोर से चला रहा था मगर मेरे हाथ पैर चलने से भी कुछ नहीं हो रहा बल्कि मैं निरंतर उस धुएं में समाता ही जा रहा था और फिर तभी मैं ज़ोर से चीख पड़ा।

अब आगे,,,,,



"क्या हुआ...क्या हुआ???" मेरे बाएं तरफ दूसरी चारपाई पर सोया पड़ा मुंशी मेरी चीख सुन कर ज़ोर से उछल पड़ा था____"छोटे ठाकुर क्या हुआ? आप अचानक इस तरह चीख क्यों पड़े?"

मुंशी की ये बात सुन कर मैंने इधर उधर देखा। चीखने के साथ ही मैं उठ बैठा था। हर तरफ अँधेरा था और इस वक़्त मुझे कुछ दिख नहीं रहा था। हलांकि अपने बाएं तरफ से मुंशी की ये आवाज़ ज़रूर सुनी थी मैंने किन्तु उसके पूछने पर मैं कुछ बोल न सका था। मेरे ज़हन में अभी भी वही सब चल रहा था। मैं एक जगह पर लेटा हुआ था और कहीं से गाढ़ा काला धुआँ फैलते हुए आया और मैं उसमे डूबता ही जा रहा था। उस धुएं से बचने के लिए मैं बड़ी तेज़ी से अपने हाथ पैर चला रहा था और चीख भी रहा था मगर मेरी आवाज़ खुद मुझे ही नहीं सुनाई दे रही थी। मेरे हाथ पैर चलाने का भी कोई असर नहीं हो रहा था बल्कि मैं निरंतर उस धुएं में डूबता ही जा रहा था।

"छोटे ठाकुर।" मैं अभी इन ख़यालों में ही खोया था कि मुंशी की आवाज़ फिर से मेरे कानों में पड़ी____"आप कुछ बोलते क्यों नहीं? क्या हुआ है आपको? आप इतनी ज़ोर से चीख क्यों पड़े थे?"

"मुंशी जी?" अपने आपको सम्हालते हुए मैंने मुंशी को पुकारा तो उसने जी छोटे ठाकुर कहा जिस पर मैंने कहा____"हर तरफ इतना अँधेरा क्यों है?"
"वो इस लिए छोटे ठाकुर कि इस वक्त रात है।" मुंशी ने कहा____"और रात में सोते समय हम दिए बुझा कर ही सोते हैं। अगर आप कहें तो मैं दिए जलवा देता हूं। बिजली तो है ही नहीं।"

अभी मैं कुछ बोलने ही वाला था कि तभी अंदर से हाथ में दिया लिए मुंशी की बीवी और उसका बेटा रघुवीर तेज़ी से चलते हुए आए। दिए की रौशनी में अँधेरा दूर हुआ तो मैंने अपने आस पास देखा। इस वक्त मेरी हालत थोड़ी अजीब सी हो गई थी।

"क्या हुआ छोटे ठाकुर?" मुंशी की बीवी ने ब्याकुल भाव से मुझसे पूछा तो उसके जवाब में मुंशी ने कहा____"मुझे तो लगता है प्रभा कि छोटे ठाकुर सोते समय कोई डरावना सपना देख रहे थे जिसकी वजह से वो इतना ज़ोर से चीख पड़े थे।"

"छोटे ठाकुर हमारे घर में पहली बार सोये हैं।" प्रभा ने कहा____"इस लिए हो सकता है कि न‌ई जगह पर सोने से ऐसा हुआ हो। ख़ैर सपना ही तो था। इसमें घबराने जैसी कोई बात नहीं है। आप आराम से सो जाइए छोटे ठाकुर। हम सब यहीं हैं।"

"शायद तुम सही कह रही हो काकी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"मैं यकीनन सपना ही देख रहा था। वैसे बड़ा अजीब सा सपना था। मैंने आज से पहले कभी ऐसा कोई सपना नहीं देखा और ना ही इस तरह डर कर चीखा था।"

"कभी कभी ऐसा होता है छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"नींद में हम ऐसा सपना देखने लगते हैं जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा होता और उस सपने को हकीक़त मान कर हम उसी के हिसाब से प्रतिक्रिया कर बैठते हैं। ख़ैर अब आप आराम सो जाइए और अगर अँधेरे में आपको सोने में समस्या है तो हम ये जलता हुआ दिया यहीं पर रखवा देते हैं आपके लिए।"

"नहीं ऐसी बात नहीं है मुंशी जी।" मैंने कहा____"अँधेरे में सोने में मुझे कोई समस्या नहीं है। पिछले चार महीने तो मैं उस बंज़र ज़मीन में झोपड़ा बना कर रात के अँधेरे में अकेला ही सोता था और ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं उस अकेलेपन में कभी डरा होऊं। ख़ैर आप लोग जाइए मैं अब ठीक हूं।"

मेरे कहने पर प्रभा काकी और रघुवीर अंदर चले गए। प्रभा ने जलता हुआ दिया वहीं दिवार पर बने एक आले पर रख दिया था। उन दोनों के जाने के बाद मैंने मुंशी को भी सो जाने के लिए कहा और खुद भी चारपाई पर लेट गया। काफी देर तक मेरे ज़हन में वो सपना घूमता रहा और फिर पता नहीं कब मैं सो गया। इस बार के सोने पर मैंने कोई सपना नहीं देखा बल्कि रात भर चैन से सोता रहा।

सूबह हुई तो मैं उठा और दिशा मैदान से फुर्सत हो कर आया। मुंशी ने सुबह ही मेरे लिए बढ़िया नास्ता बनाने को कह दिया था। इस लिए मैं मुंशी के साथ ही नास्ता करने बैठ गया। नास्ते के बाद मैं मुंशी के साथ बाहर बैठक में आ गया।

"कल क्या हुआ था इस बारे में तो आपको पता चल ही गया होगा।" मैंने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"वैसे क्या मैं आपसे जान सकता हूं कि साहूकारों के लिए क्या न्याय किया दादा ठाकुर ने?"

"कल आपके और साहूकारों के बीच जो कुछ भी हुआ था।" मुंशी ने कहा____"उसके बारे में साहूकारों ने ठाकुर साहब के पास जा कर कोई फ़रियाद नहीं की।"
"क्या मतलब??" मैंने चौंकते हुए पूछा।

"असल में ये बात तो शाहूकार मणिशंकर और हरिशंकर भी जानते थे कि जो कुछ हुआ था उसमे ग़लती मानिक की ही थी।" मुंशी ने कहा____"वो लोग भी ये समझते थे कि मानिक को कल आपके साथ उस लहजे में बात नहीं करनी चाहिए थी। उसके बाद कल मणिशंकर के बेटों ने जो कुछ किया उसमे भी ग़लती उन्हीं की थी। उनकी ग़लती इस लिए क्योंकि उन्हें आपसे उलझना ही नहीं चाहिए था। अगर उन्हें लगता था कि उनके या उनके बेटे के साथ आपने ग़लत किया है तो उसके लिए उन्हें सीधा दादा ठाकुर के पास न्याय के लिए जाना चाहिए था जबकि उन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि मणिशंकर ने कल रास्ते में आपको रोका और आपसे उस सम्बन्ध में बात शुरू कर दी।"

"वैसे ग़लती तो मेरी भी थी मुंशी जी।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"माना कि कल मानिक ने ग़लत लहजे में मुझसे बात की थी और मैंने उसके लिए उसे सज़ा भी थी मगर उसके बाद मणिशंकर से मुझे उलटे तरीके से बात नहीं करनी चाहिए थी। वो मुझसे उम्र में बड़े थे और इस नाते मुझे सभ्यता से उनसे बात करनी चाहिए थी लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। हलांकि ऐसा इसी लिए हुआ क्योंकि उस वक़्त मैं बेहद गुस्से में था। ख़ैर जो हुआ सो हुआ लेकिन ये बात समझ में नहीं आई कि साहूकारों ने इस सबके लिए दादा ठाकुर से न्याय की मांग क्यों नहीं की?"

"जैसा कि मैंने आपको बताया कि वो लोग इस सब में अपनी भी ग़लती मानते थे इस लिए उन्होंने ठाकुर साहब से न्याय की मांग नहीं की।" मुंशी ने कहा____"दूसरी बात ये हैं कि कुछ दिन पहले ही मणिशंकर और हरिशंकर ठाकुर साहब से दोनों खानदान के बीच के रिश्ते सुधार लेने के बारे में बातचीत की थी। इस लिए वो ये भी नहीं चाहते थे कि इस झगड़े की वजह से सुधरने वाले सम्बन्ध इस सब से ख़राब हो जाएं। ख़ैर आप तो कल वहां थे नहीं इस लिए आपको पता भी नहीं होगा कि कल ठाकुर साहब और साहूकारों के बीच आपस में अपने रिश्ते सुधार लेने का फैसला हो चुका है। इस फैसले के बाद कल शाम को होलिका दहन पर भी शाहूकार ठाकुर साहब के साथ ही रहे और ख़ुशी ख़ुशी होलिका दहन का सारा कार्यक्रम हुआ। आज रंगों का पर्व है इस लिए आज भी शाहूकार और उनका पूरा परिवार हवेली में जमा होगा और वहां पर रंगों के इस त्यौहार पर ख़ुशी ख़ुशी सब एक दूसरे से गले मिलेंगे।"

"क्या आपको नहीं लगता मुंशी जी कि ये सब बहुत ही अजीब है?" मैंने मुंशी की तरफ ध्यान से देखते हुए कहा____"मेरा मतलब है कि जो शाहूकार हमेशा ही हमारे खिलाफ़ रहे हैं उन्होंने हमसे अपने रिश्ते सुधार लेने की बात ही नहीं कही बल्कि अपने रिश्ते सुधार भी लिए। क्या आपको लगता है कि ये सब उन्होंने हम ठाकुरों से सच्चे प्रेम के लिए किया होगा?"

"आप आख़िर कहना क्या चाहते हैं छोटे ठाकुर?" मुंशी ने कहा____"क्या आपको ये लगता है कि साहूकारों ने ठाकुर साहब से अपने रिश्ते इस लिए सुधारे हैं कि इसके पीछे उनकी कोई चाल है?"
"क्या आपको ऐसा नहीं लगता?" मैंने मुंशी की आँखों में झांकते हुए कहा।

"बात अजीब तो है छोटे ठाकुर।" मुंशी ने बेचैनी से पहलू बदला____"मगर इसके लिए कोई क्या कर सकता है? अगर गांव के शाहूकार ठाकुर साहब से अपने रिश्ते सुधार लेना चाहते हैं तो ये ग़लत बात तो नहीं है और ये ठाकुर साहब भी समझते हैं। ठाकुर साहब तो हमेशा से ही यही चाहते आए हैं कि गांव का हर इंसान एक दूसरे से मिल जुल कर प्रेम से रहे और अगर ऐसा हो रहा है तो ये ग़लत नहीं है। हलांकि साहूकारों के सम्बन्ध में ऐसा होना हर किसी के लिए सोचने वाली बात है और यकीनन ठाकुर साहब भी इस बारे में सोचते होंगे किन्तु जब तक साहूकारों की तरफ से ऐसा वैसा कुछ होता हुआ नहीं दिखेगा तब तक कोई कुछ भी नहीं कर सकता।"

"ख़ैर छोड़िए इस बात को।" मैंने विषय को बदलने की गरज़ से कहा____"ये बताइए कि आपने दादा ठाकुर से उस जगह पर मकान बनवाने के सम्बन्ध में बात की?"
"असल में कल इस बारे में बात करने का मौका ही नहीं मिला छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"किन्तु आज मैं इस सम्बन्ध में ठाकुर साहब से बात करुंगा। उसके बाद आपको बताऊंगा कि क्या कहा है उन्होंने। वैसे अगर आपको बुरा न लगे तो एक बात कहना चाहता हूं आपसे।"

"जी कहिए।" मैंने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा।
"आपको भी ठाकुर साहब से अपने रिश्ते सुधार लेने चाहिए।" मुंशी ने कहा____"मैं ठाकुर साहब के बारे में सिर्फ इतना ही कहूंगा कि वो एक ऐसे इंसान हैं जो कभी किसी का बुरा नहीं चाहते हैं और ना ही कभी कोई ग़लत फैसला करते हैं। आपको गांव से निष्कासित करने का उनका ये फैसला भी ग़लत नहीं हो सकता और ये बात मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूं।"

"हर किसी का अपना अपना नज़रिया होता है मुंशी जी।" मैंने कहा____"लोग एक ही बात को अपने अपने नज़रिये से देखते और सोचते हैं। मैं सिर्फ ये जानता हूं कि उस हवेली में मेरे लिए कोई जगह नहीं है और ना ही उस हवेली में मुझे कोई देखना चाहता है।"

"ऐसा आप समझते हैं छोटे ठाकुर।" मुंशी ने कहा____"जबकि ऐसी कोई बात ही नहीं है। मैं भी बचपन से उस हवेली में आता जाता रहा हूं। बड़े दादा ठाकुर के समय में मेरे पिता जी उनके मुंशी थे। बड़े दादा ठाकुर तो ऐसे थे कि उनके सामने जाने की किसी में भी हिम्मत नहीं होती थी जबकि ठाकुर साहब तो उनसे बहुत अलग हैं। जिस तरह की बातें आप अपने पिता जी से कर लेते हैं वैसी बातें बड़े दादा ठाकुर से कोई सात जन्म में भी नहीं कर सकता था। वो इस मामले में बहुत ही शख्त थे। उनके समय में अगर आपने उनसे ऐसे लहजे में बातें की होती तो आप अब तक जीवित ही नहीं रहते। उनके बाद जब ठाकुर साहब दादा ठाकुर की जगह पर आए तो उन्होंने उनकी तरह किसी पर भी ऐसी कठोरता नहीं दिखाई। उनका मानना है कि किसी के मन में अपने प्रति डर नहीं बल्कि प्रेम और सम्मान की भावना पैदा करो। ख़ैर, सच बहुत कड़वा होता है छोटे ठाकुर मगर किसी न किसी दिन उस सच को मानना ही पड़ता है। आपने अब तक सिर्फ वही किया है जिसमे सिर्फ आपकी ख़ुशी थी जबकि आपके असल कर्त्तव्य क्या हैं इस बारे में आपने कभी सोचा ही नहीं।"

"तो आप भी दादा ठाकुर की तरह मुझे प्रवचन देने लगे।" मैंने थोड़ा शख़्त भाव से कहा तो मुंशी ने हड़बड़ाते हुए कहा____"नहीं छोटे ठाकुर। मैं आपको प्रवचन नहीं दे रहा। मैं तो आपको समझाने का प्रयास कर रहा हूं कि सच क्या है और आपको क्या करना चाहिए।"

"आपको मुझे समझाने की ज़रूरत नहीं है मुंशी जी।" मैंने कहा____"मुझे अच्छी तरह पता है कि मैं क्या कर रहा हूं और मुझे क्या करना चाहिए। ख़ैर मैं चलता हूं अभी और हां उम्मीद करता हूं कि कल आप उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा देंगे।"

कहने के साथ ही मैं उठा और घर से बाहर निकल गया। मुंशी के घर से बाहर आ कर मैं पैदल ही दूसरे गांव की तरफ बढ़ चला। इस वक़्त मेरे ज़हन में यही बात चल रही थी कि अब मैं यहाँ से कहा जाऊं क्योंकि मुझे अपने लिए एक नया ठिकाना ढूढ़ना था। मुरारी काका के घर मैं जा नहीं सकता था और अपने दोस्तों को मैंने उस दिन भगा ही दिया था। आस पास खेतों में मजदूर फसल की कटाई में लगे हुए थे। सड़क के किनारे एक जगह जामुन का पेड़ था जिसके नीचे छांव में मैं बैठ गया।

जामुन के पेड़ की छांव में बैठा मैं आस पास देख रहा था और यही सोच रहा था कि जो कुछ मैंने सोचा था वो सब हो ही नहीं रहा है। आख़िर कैसे मैं अपनी बिखरी हुई ज़िन्दगी को समेटूं? मुरारी काका की हत्या का रहस्य कैसे सुलझाऊं? मेरे तीनो भाइयों का ब्योहार मेरे प्रति अगर बदला हुआ है तो इसके कारण का पता मैं कैसे लगाऊं? कुसुम को मैंने हवेली में जासूसी के काम पर लगाया था इस लिए अगर उसे कुछ पता चला भी होगा तो अब वो मुझे कैसे बतायेगी, क्योकि मैं तो अब हवेली में हूं ही नहीं। मेरे लिए ये सब अब बहुत कठिन कार्य लगने लगा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं किस तरफ जाऊं और किस तरह से इस सबका पता लगाऊं?

मुंशी चंद्रकांत के अनुसार गांव के साहूकारों ने दादा ठाकुर से अपने सम्बन्ध सुधार लिए हैं जो कि बेहद सोचने वाली और चौंकाने वाली बात थी। मेरा मन ज़रा भी इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था कि गांव के ये शाहूकार हम ठाकुरों से बड़े नेक इरादों के तहत अपने सम्बन्ध जोड़े हैं। मुझे इसके बारे में पता लगाना होगा। आख़िर पता तो चले कि उनके मन में इस सबके पीछे कौन सी खिचड़ी पकने वाली है? मैंने सोच लिया कि इस सबका पता करने के लिए मुझे अभ कुछ न कुछ करना ही होगा।

(दोस्तों यहाँ पर मैं गांव के साहूकारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी समझता हूं।)

वैसे तो गांव में और भी कई सारे शाहूकार थे किन्तु बड़े दादा ठाकुर की दहशत की वजह से साहूकारों के कुछ लोग ये गांव छोड़ कर दूसरी जगह जा कर बस गए थे। उनके बाद दो भाई ही बचे थे। जिनमे से बड़े भाई का ब्याह हुआ था जबकि दूसरा भाई जो छोटा था उसका ब्याह नहीं हुआ था। ब्याह न होने का कारण उसका पागलपन और मंदबुद्धि होना था। गांव में साहूकारों के परिवार का विवरण उन्हीं दो भाइयों से शुरू करते हैं।

☆ चंद्रमणि सिंह (बड़ा भाई/बृद्ध हो चुके हैं)
☆ इंद्रमणि सिंह (छोटा भाई/अब जीवित नहीं हैं)

इन्द्रमणि कुछ पागल और मंदबुद्धि था इस लिए उसका विवाह नहीं हुआ था या फिर कहिए कि उसके भाग्य में शादी ब्याह होना लिखा ही नहीं था। कुछ साल पहले गंभीर बिमारी के चलते इंद्रमणि का स्वर्गवास हो गया था।

चंद्रमणि सिंह को चार बेटे हुए। चंद्रमणि की बीवी का नाम सुभद्रा सिंह था। इनके चारो बेटों का विवरण इस प्रकार है।

☆ मणिशंकर सिंह (बड़ा बेटा)
फूलवती सिंह (मणिशंकर की बीवी)
मणिशंकर को चार संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) चन्द्रभान सिंह (बड़ा बेटा/विवाहित)
कुमुद सिंह (चंद्रभान की बीवी)
इन दोनों को एक बेटी है अभी।

(२) सूर्यभान सिंह (छोटा बेटा/अविवाहित)
(३) आरती सिंह (मणिशंकर की बेटी/अविवाहित)
(४) रेखा सिंह (मणिशंकर की छोटी बेटी/अविवाहित)

☆ हरिशंकर सिंह (चंद्रमणि का दूसरा बेटा)
ललिता सिंह (हरिशंकर की बीवी)
हरिशंकर को तीन संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) मानिकचंद्र सिंह (हरिशंकर का बड़ा बेटा/पिछले साल विवाह हुआ है)
नीलम सिंह (मानिक चंद्र की बीवी)
इन दोनों को अभी कोई औलाद नहीं हुई है।

(२) रूपचंद्र सिंह (हरिशंकर का दूसरा बेटा/ अविवाहित)
(३) रूपा सिंह (हरिशंकर की बेटी/अविवाहित)

☆ शिव शंकर सिंह (चंद्रमणि का तीसरा बेटा)
विमला सिंह (शिव शंकर की बीवी)
शिव शंकर को चार संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) नंदिनी सिंह (शिव शंकर की बड़ी बेटी/विवाहित)
(२) मोहिनी सिंह (शिव शंकर की दूसरी बेटी/अविवाहित)
(३) गौरव सिंह (शिव शंकर का बेटा/अविवाहित)
(४) स्नेहा सिंह (शिव शंकर की छोटी बेटी/ अविवाहित)

☆ गौरी शंकर सिंह (चंद्रमणि का चौथा बेटा)
सुनैना सिंह (गौरी शंकर की बीवी)
गौरी शंकर को दो संताने हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) राधा सिंह (गौरी शंकर की बेटी/अविवाहित)
(२) रमन सिंह (गौरी शंकर का बेटा/अविवाहित)

चंद्रमणि सिंह को एक बेटी भी थी जिसके बारे में मैंने सुना था कि वो क‌ई साल पहले गांव के ही किसी आदमी के साथ भाग गई थी उसके बाद आज तक उसका कहीं कोई पता नहीं चला।

जामुन के पेड़ के नीचे बैठा मैं सोच रहा था कि साहूकारों के अंदर की बात का पता कैसे लगाऊं? मेरे और उनके बीच के रिश्ते तो हमेशा से ही ख़राब रहे हैं किन्तु इसके बावजूद हरिशंकर की बेटी रूपा से मेरे अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। साल भर पहले रूपा से मेरी नज़रें मिली थी। जैसा उसका नाम था वैसी ही थी वो। गांव के दूसरे छोर पर बने माता रानी के मंदिर में अक्सर वो जाया करती थी और मैं अपने दोस्तों के साथ इधर उधर कच्ची कलियों की तलाश में भटकता ही रहता था।

रूपा से मेरी मुलाक़ात का किस्सा भी बस संयोग जैसा ही था। मैं एक ऐसा इंसान था जो देवी देवताओं को बिलकुल भी नहीं मानता था किन्तु नए शिकार के लिए मंदिर के चक्कर ज़रूर लगाया करता था। ऐसे ही एक दिन मैं मंदिर के बाहर बैठा अपने दोस्तों के आने का इंतज़ार कर रहा था कि तभी रूपा मंदिर से बाहर आई और मेरे सामने आ कर मुझे माता रानी का प्रसाद देने के लिए अपना एक हाथ मेरी तरफ बढ़ाया तो मैंने चौंक कर उसकी तरफ देखा। दोस्तों ने बताया तो था मुझे कि साहूकारों की लड़किया बड़ी सुन्दर हैं और मस्त माल हैं लेकिन क्योंकि साहूकारों से मेरे रिश्ते ख़राब थे इस लिए मैं कभी उनकी लड़कियों की तरफ ध्यान ही नहीं देता था।

खिली हुई धूप में अपने सिर पर पीले रंग के दुपट्टे को ओढ़े रूपा बेहद ही खूबसूरत दिख रही थी और मैं उसके रूप सौंदर्य में खो सा गया था जबकि वो मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाए वैसी ही खड़ी थी। जब उसने मुझे अपनी तरफ खोए हुए से देखा तो उसने अपने गले को हल्का सा खंखारते हुए आवाज़ दी तो मैं हकीक़त की दुनिया में आया। मैंने हड़बड़ा कर पहले इधर उधर देखा फिर अपना हाथ प्रसाद लेने के लिए आगे कर दिया जिससे उसने मेरे हाथ में एक लड्डू रख दिया।

रूपा ने मुझे प्रसाद में लड्डू दिया तो मेरे मन में भी कई सारे लड्डू फूट पड़े थे। इससे पहले कि मैं उससे कुछ कहता वो मुस्कुराते हुए चली गई थी। इतना तो मैं समझ गया था कि उसे मेरे बारे में बिलकुल भी पता नहीं था, अगर पता होता तो वो मुझे कभी प्रसाद न देती बल्कि मेरी तरफ नफ़रत से देख कर चली जाती।

उस दिन के बाद से मेरे दिलो दिमाग़ में रूपा की छवि जैसे बैठ सी गई थी। मैं हर रोज़ माता रानी के मंदिर आता मगर वो मुझे न दिखती। मैं रूपा को देखने के लिए जैसे बेक़रार सा हो गया था। एक हप्ते बाद ठीक उसी दिन वो फिर से आई। हल्के सुर्ख रंग के शलवार कुर्ते में वो बहुत ही खूबसूरत दिख रही थी। चेहरे पर ऐसी चमक थी जैसे कई सारे सितारों ने उस पर अपना नूर लुटा दिया हो। माता रानी की पूजा कर के वो मंदिर से बाहर आई तो सीढ़ियों के नीचे उसका मुझसे सामना हो गया। उसने मुस्कुराते हुए मुझे फिर से प्रसाद देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया तो मैं उसी की तरफ अपलक देखते हुए अपनी हथेली उसके सामने कर दी जिससे उसने फिर से मेरी हथेली पर एक लड्डू रख दिया। उसके बाद जैसे ही वो जाने लगी तो इस बार मैं बिना बोले न रह सका।

"सुनिए।" मैंने नम्र स्वर में उसे पुकारा तो उसने पलट कर मेरी तरफ देखा। उसकी आँखों में सवाल देख कर मैंने खुद की बढ़ी हुई धड़कनों को सम्हालते हुए कहा____"क्या आप जानती हैं कि मैं कौन हूं?"

"मंदिर में आया हुआ हर इंसान माता रानी का भक्त ही हो सकता है।" उसने अपनी मधुर आवाज़ में मुस्कुराते हुए कहा तो मेरे होठों पर भी मुस्कान उभर आई, जबकि उसने आगे कहा____"बाकि असल में आप कौन हैं ये भला मैं कैसे जान सकती हूं और सच तो ये है कि मैं जानना भी नहीं चाहती।"

"मेरा नाम ठाकुर वैभव सिंह है।" मैंने उसे सच बता दिया जिसे सुन कर उसके चेहरे पर चौंकने वाले भाव उभर आए और साथ ही उसके चेहरे पर घबराहट भी नज़र आने लगी।

"आपके चेहरे के भाव बता रहे हैं कि आप मेरी सूरत से नहीं बल्कि मेरे नाम से परिचित हैं।" मैंने कहा____"इस लिए ज़ाहिर है कि मेरे बारे में जान कर अब आप मुझसे नफ़रत करने लगेंगी। ऐसा इस लिए क्योंकि आपके भाइयों के साथ मेरे ताल्लुकात कभी अच्छे नहीं रहे।"

"मैंने आपके बारे में सुना है।" उसने कहा____"और ये भी जानती हूं कि दादा ठाकुर के दूसरे बेटे के साथ मेरे भाइयों का अक्सर झगड़ा होता रहता है। ये अलग बात है कि उस झगड़े में अक्सर मेरे भाई बुरी तरह पिट कर आते थे। ख़ैर मैं ये मानती हूं कि ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती। उसके लिए दोनों हाथों का स्पर्श होना ज़रूरी होता है। कहने का मतलब ये कि अगर आपके और मेरे भाइयों के बीच झगड़ा होता है तो उसमे किसी एक की ग़लती तो नहीं होती होगी न? अगर कभी आपकी ग़लती होती होगी तो कभी मेरे भाइयों की भी तो ग़लती होगी।"

"काफी दिलचस्प बातें कर रही हैं आप।" मैं रूपा की बातों से प्रभावित हो गया था____"इसका मतलब आप उस सबके लिए सिर्फ मुझ अकेले को ही दोषी नहीं मानती हैं? मैं तो बेवजह ही इस बात के लिए अंदर से थोड़ा डर रहा था आपसे।"

"चलती हूं अब।" उसने नम्रता से कहा और पलट गई। मैंने उसे रोकना तो चाहा मगर फिर मैंने अपना इरादा बदल दिया। असल में मैं नहीं चाहता था कि वो ये समझे कि मैं उस पर डोरे डाल रहा हूं। उसे मेरे बारे में पता था तो ये भी पता होगा कि मैं लड़कियों और औरतों का कितना बड़ा रसिया इंसान हूं।

मैं रूपा के लिए काफी संजीदा हो गया था। वो मेरे दिलो दिमाग़ में छा गई थी और अब मैं उसे किसी भी कीमत पर हासिल करना चाहता था। मेरे दोस्तों को भी ये सब पता था किन्तु वो भी कुछ नहीं कर सकते थे। ख़ैर ऐसे ही दिन गुजरने लगे। मैंने ये देखा था कि वो हर हप्ते माता रानी के मंदिर पर आती थी इस लिए जिस दिन वो आती थी उस दिन मैं भी माता रानी के मंदिर पहुंच जाता था। उसके चक्कर में मैंने भी माता रानी की भक्ति शुरू कर दी थी। वो मुझे मिलती और मुझे बिना किसी द्वेष भावना के प्रसाद देती और चली जाती। मैं उससे बात करने की कोशिश करता मगर उससे बात करने में पता नहीं क्यों मुझे झिझक सी होती थी और इस चक्कर में वो चली जाती थी। मैं खुद पर हैरान होता कि मैं लड़कियों और औरतों के मामले में इतना तेज़ था मगर रूपा के सामने पता नहीं क्या हो जाता था मुझे कि मैं उससे कोई बात नहीं कर पाता था।

ऐसे ही दो महीने गुज़र गए। मैं हर हप्ते उसी के जैसे माता रानी के मंदिर जाता और उससे प्रसाद ले कर चला आता। इस बीच इतना ज़रूर बदलाव आ गया था कि हम एक दूसरे से हाल चाल पूछ लेते थे मगर मेरे लिए सिर्फ हाल चाल पूछना और बताना ही काफी नहीं था। मुझे तो उसे हासिल करना था और उसके खूबसूरत बदन का रसपान करना था। जब मैंने जान लिया कि मेरी दाल रूपा पर गलने वाली नहीं है तो मैंने माता रानी के मंदिर जाना ही छोड़ दिया। ठाकुर वैभव सिंह हार मान गया था और अपना रास्ता बदल लिया था। ऐसे ही दो हप्ते गुज़र गए और मैं माता रानी के मंदिर नहीं गया। एक तरह से अब मैं रूपा को अपने ज़हन से निकाल ही देना चाहता था किन्तु मेरे लिए ये इतना आसान नहीं था।

तीसरे हप्ते मैं अपने दोस्त के घर जा रहा था कि रास्ते में मुझे रूपा मिल गई। मैंने बिलकुल भी उम्मीद नहीं की थी कि उससे मेरा इस तरह से सामना हो जाएगा। उसे देखते ही दिल की धड़कनें बढ़ गईं और दिल में घंटियां सी बजने लगीं। वो हाथ में पूजा की थाली लिए मंदिर जा रही थी और जब हम दोनों एक दूसरे के सामने आए तो हमारी नज़रें चार हो गई जिससे उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। उसकी ये मुस्कान हमेशा की तरह मेरे मन में उम्मीद जगा देती थी मगर दो महीने बाद भी जब मेरी गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकी थी तो मैंने अब उसको हासिल करने का इरादा ही छोड़ दिया था मगर आज तो जैसे होनी कुछ और ही होने वाली थी।

"छोटे ठाकुर जी आज कल आप मंदिर क्यों नहीं आते।" अपने सामने मुझे देखते ही उसने मुस्कुराते हुए कहा____"कहीं चले गए थे क्या?"
"मंदिर आने का फायदा क्या है रूपा?" मैंने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"जिस देवी की भक्ति करने आता था उसे शायद मेरी भक्ति करना पसंद ही नहीं है। इस लिए मंदिर जाना ही छोड़ दिया।"

"कमाल है छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने अपनी उसी मुस्कान में कहा____"आपने ये कैसे सोच लिया कि देवी को आपकी भक्ति करना पसंद नहीं है? सच्चे दिल से भक्ति कीजिए। आपकी जो भी मुराद होगी वो ज़रूर पूरी होगी।"

"मेरे जैसा नास्तिक इंसान।" मैंने रूपा की गहरी आँखों में देखते हुए कहा____"सच्चे दिल से ही भक्ति कर रहा था किन्तु मैं समझ गया हूं कि जिस देवी की मैं भक्ति कर रहा था वो देवी ना तो मुझे मिलेगी और ना ही वो मेरी मुराद पूरी करेगी।"

"इतनी जल्दी हार नहीं माननी चाहिए छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने कहा___"इंसान को आख़िरी सांस तक प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि संभव है कि आख़िरी सांस के आख़िरी पल में उसे अपनी भक्ति करने का प्रतिफल मिल जाए।"

"यही तो समस्या है रूपा।" मैंने कहा____"कि इन्सान आख़िरी सांस तक का इंतज़ार नहीं करना चाहता बल्कि वो तो ये चाहता है कि भक्ति किये बिना ही इंसान के सारे मनोरथ सफल हो जाएं। मैं भी वैसे ही इंसानों में से हूं। ख़ैर सच तो ये है कि मैं तो मंदिर में आपकी ही भक्ति करने आता था। अब आप बताइए कि क्या आप मेरी भक्ति से प्रसन्न हुई हैं?"

रूपा मेरी ये बात सुन कर एकदम से भौचक्की रह गई। आँखें फाड़े वो मेरी तरफ इस तरह देखने लगी थी जैसे अचानक ही मेरी खोपड़ी मेरे धड़ से अलग हो कर हवा में कत्थक करने लगी हो।

"ये आप क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर जी?" फिर रूपा ने चकित भाव से कहा____"आप माता रानी के मंदिर में मेरी भक्ति करने आते थे?"
"इसमे इतना चकित होने वाली कौन सी बात है रूपा?" मैंने कहा____"इन्सान को जो देवी जैसी लगे उसी की तो भक्ति करनी चाहिए ना? मेरी नज़र में तो आप ही देवी हैं इस लिए मैं आपकी ही भक्ति कर रहा था।"

"बड़ी अजीब बातें कर रहे हैं आप।" रूपा जैसे बौखला सी गई थी____"भला ऐसा भी कहीं होता है? चलिए हमारा रास्ता छोड़िए। हमें मंदिर जाने में देर हो रही है।"
"जी बिल्कुल।" मैंने एक तरफ हटते हुए कहा____"आप मंदिर जाइए और अपनी देवी की भक्ति कीजिए और मैं अपनी देवी की भक्ति करुंगा।"

"करते रहिए।" रूपा ने कहा____"लेकिन याद रखिएगा ये देवी आपकी भक्ति से प्रसन्न होने वाली नहीं है। मैं समझ गई हूं कि आपकी मंशा क्या है। मैंने बहुत कुछ सुना है आपके बारे में।"
"बिल्कुल सुना होगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"वैभव सिंह चीज़ ही ऐसी है कि हर कोई उसके बारे में जानता है। ख़ैर मैं बस ये कहना चाहता हूं कि भक्ति का जो उसूल है उसे आप तोड़ नहीं सकती हैं। इंसान जब किसी देवी देवता की भक्ति करता है तो देवी देवता उसकी भक्ति का प्रतिफल उसे ज़रूर देते हैं। इस लिए इस बात को आप भी याद रखिएगा कि मेरी भक्ति का फल आपको भी देना होगा।"

"भक्ति का सबसे बड़ा नियम ये है छोटे ठाकुर जी कि बिना किसी इच्छा के भक्ति करना चाहिए।" रूपा ने कहा____"अगर भक्त के मन में भगवान से कुछ पाने की लालसा होती है तो फिर उसकी भक्ति भक्ति नहीं कहलाती। ऐसे में कोई भी देवी देवता फल देने के लिए बाध्य नहीं होते।"

"मैं बस ये जानता हूं कि मेरी देवी इतनी कठोर नहीं है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"कि वो अपनी भक्ति करने वाले पर कोई नियम बना के रखे।"

रूपा मेरी सुन कर कुछ पलों तक मुझे देखती रही और फिर बिना कुछ बोले ही चली गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए दोस्त के घर की तरफ चला गया। आज मैं खुश था कि इस मामले में रूपा से कोई बात तो हुई। अब देखना ये था कि इन सब बातों का रूपा पर क्या असर होता है।

कुछ दिन ऐसे ही गुज़रे और फिर एक रात मैं हरिशंकर के घर पहुंच गया। घर के पिछवाड़े से होते हुए मैं रात के अँधेरे का फायदा उठाते हुए उस जगह पर पहुंच गया जहां पर रूपा के कमरे की खिड़की थी। मेरी किस्मत अच्छी थी कि उस तरफ बांस की एक सीढ़ी रखी हुई थी जिसे ले कर मैं रूपा के कमरे की खिड़की के नीचे दीवार पर लगा दिया। आस पास कोई नहीं था। मैं बहुत सोच विचार कर के ही यहाँ आया था। हलांकि यहाँ आना मेरे लिए ख़तरे से खाली नहीं था किन्तु वैभव सिंह उस बाला का नाम था जो ना तो किसी ख़तरे से डरता था और ना ही किसी के बाप से।

सीधी से चढ़ कर मैं खिड़की के पास पहुंच गया। दूसरे माले पर बने छज्जे पर चढ़ कर मैंने खिड़की के खुले हुए पल्ले से अंदर की तरफ देखा। कमरे में बिजली के बल्ब का धीमा प्रकाश था। आज दिन में ही मैंने पता करवा लिया था कि रूपा का कमरा कहां पर है इस लिए मुझे ज़्यादा परेशानी नहीं हुई थी। ख़ैर खिड़की के पल्ले से अंदर की तरफ देखा तो रूपा कमरे में रखे एक पलंग पर लेटी हुई नज़र आई। वो सीधा लेटी हुई थी और छत पर धीमी गति से चल रहे पंखे को घूर रही थी। यकीनन वो किसी ख़यालों में गुम थी। मैंने खिड़की के पल्ले को हाथ से थपथपाया तो उसकी तन्द्रा टूटी और उसने चौंक कर इधर उधर देखा।

मैंने दूसरी बार खिड़की के पल्ले को थपथपाया तो उसका ध्यान खिड़की की तरफ गया तो वो एकदम से घबरा गई। उसे लगा खिड़की पर कोई चोर है लेकिन तभी मैंने खिड़की के अंदर अपना सिर डाला और उसे हलके से आवाज़ दी। बिजली के बल्ब की धीमी रौशनी में मुझ पर नज़र पड़ते ही वो बुरी तरह चौंकी। आँखें हैरत से फट पड़ी उसकी, जैसे यकीन ही न आ रहा हो कि खिड़की पर मैं हूं। मैंने उसे खिड़की के पास आने का इशारा किया तो वो घबराये हुए भाव लिए खिड़की के पास आई।

"छोटे ठाकुर जी आप इस वक्त यहाँ कैसे?" मेरे पास आते ही उसने घबराये हुए लहजे में कहा।
"अपनी देवी के दर्शन करने आया हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या करूं इस देवी का चेहरा आँखों में इस क़दर बस गया है कि उसे देखे बिना चैन ही नहीं आता। इस लिए न दिन देखा न रात। बस चला आया अपनी देवी के दर्शन करने।"

"ये आप बहुत ग़लत कर रहे हैं छोटे ठाकुर जी।" रूपा ने इस बार थोड़े नाराज़ लहजे में कहा____"आप यहाँ से चले जाइये वरना मैं शोर कर के सबको यहाँ बुला लूंगी। उसके बाद क्या होगा ये आप भी बेहतर जानते हैं।"

"मैं तो बस अपनी देवी के दर्शन करने ही आया था रूपा।" मैंने कहा____"मेरे दिल में कोई ग़लत भावना नहीं है और अगर तुम शोर कर के अपने घर वालों को यहाँ बुलाना ही चाहती हो तो शौक से बुलाओ। तुम भी अच्छी तरह जानती हो कि इससे मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा बल्कि उल्टा तुम्हारे घर वाले तुम्हारे ही बारे में ग़लत सोचने लगेंगे।"

रूपा मेरी ये बात सुन कर हैरत से मेरी तरफ देखने लगी थी। उसके चेहरे पर चिंता और परेशानी के भाव उभर आये थे। मुझे उसके चेहरे पर ऐसे भाव देख कर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा।

"चिंता मत करो रूपा।" मैंने कहा____"मैं ऐसा कोई भी काम नहीं करुंगा जिससे मेरी देवी के बारे में कोई भी ग़लत सोचे। दिल में अपनी देवी को देखने की बहुत इच्छा थी इस लिए रात के इस वक़्त यहाँ आया हूं। अब अपनी देवी को देख लिया है इस लिए जा रहा हूं। तुम भी आराम से सो जाओ। मैं दुआ करुंगा कि मेरी देवी को अपनी नींद में अपने इस भक्त का ही सपना आए।"

इतना कह कर मैं रूपा को हैरान परेशान हालत में छोड़ कर छज्जे से उतर कर सीढ़ी पर आया और फिर सीढ़ी से नीचे। बांस की सीढ़ी को उठा कर मैंने उसे उसी जगह पर रख दिया जहां पर वो पहले रखी हुई थी। उसके बाद मैं जैसे यहाँ आया था वैसे ही निकल भी गया।

ऐसे ही दिन गुजरने लगे। मैं अक्सर रात में रूपा की खिड़की पर पहुंच जाता और उसे देख कर वापस आ जाता। कुछ दिनों तक तो रूपा मेरी ऐसी हरकतों से बेहद चिंतित और परेशान रही किन्तु धीरे धीरे वो भी इस सबकी आदी हो गई। उसके बाद ऐसा भी हुआ कि रूपा को भी मेरा इस तरह से उसके पास आना अच्छा लगने लगा। फिर तो हालात ऐसे बन गए कि रूपा भी मुझसे ख़ुशी ख़ुशी बातें करने लगी। उसे भी मेरा रात में इस तरह छुप कर उसके कमरे की खिड़की के पास आना अच्छा लगने लगा। मैं समझ गया था कि रूपा अब मेरे जाल में फंस गई है और इससे मैं खुश भी था। वो हप्ते में माता रानी के मंदिर जाती थी किन्तु अब वो हर रोज़ जाने लगी थी। धीरे धीरे हमारे बीच हर तरह की बातें होने लगीं और फिर वो दिन भी आ गया जब रूपा के ही कमरे में और उसकी ही ख़ुशी से मैंने उसको भोगा। हलांकि इस हालात पर पहुंचने में दो महीने लग गए थे मगर मैं उसके साथ ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं करना चाहता था। रूपा ने खुल कर मुझसे कह दिया था कि वो मुझसे प्रेम करने लगी है मगर उसे भोगने के बाद मैंने उसे अच्छी तरह समझाया था कि हम दोनों के खानदान के बीच के रिश्ते अच्छे नहीं हैं इस लिए हम दोनों का प्रेम एक दर्द की दास्ताँ बन कर रह जाएगा। इससे अच्छा तो यही है कि हम अपने इस प्रेम को अपने दिल तक ही सीमित रखें।

रूपा भी जानती थी कि हम दोनों के खानदान के बीच जो सम्बन्ध थे वो कभी भी अच्छे नहीं रहे थे। इस लिए रूपा ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया। मैंने रूपा को वचन दिया था कि मैं कभी भी उसे रुसवा नहीं करुंगा बल्कि हमेशा उसकी और उसके प्रेम की इज्ज़त करुंगा। उसके बाद जब भी रूपा को प्रेम मिलन की इच्छा होती तो वो मंदिर के बहाने आ कर मुझसे मिलती और कहती कि आज रात मैं उसके घर आऊं। रूपा के साथ मेरा सम्बन्ध गांव की बाकी हर लड़कियों से बहुत अलग था।

अभी मैं रूपा के बारे में ये सब सोच ही रहा था कि तभी मेरी नज़र दूर से आती हुई बग्घी पर पड़ी। मैं समझ गया कि हवेली का कोई सदस्य मेरी तलाश करता हुआ इस तरह आ रहा है। बग्घी अभी दूर ही थी इस लिए मैं जामुन के उस पेड़ से निकल कर खेतों में घुस गया। मैंने मन ही मन सोच लिया था कि साहूकारों के अंदर की बात का पता मैं रूपा के द्वारा ही लगाऊंगा। खेत में गेहू की पकी हुई फसल खड़ी थी और मैं उसी के बीच बैठ गया था जिससे किसी की नज़र मुझ पर नहीं पड़ सकती थी। कुछ ही देर में बग्घी मेरे सामने सड़क पर आई। मेरी नज़र बग्घी में बैठे हुए शख़्स पर पड़ी तो मैं हलके से चौंक पड़ा।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 19
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अब तक,,,,,,

अभी मैं रूपा के बारे में ये सब सोच ही रहा था कि तभी मेरी नज़र दूर से आती हुई बग्घी पर पड़ी। मैं समझ गया कि हवेली का कोई सदस्य मेरी तलाश करता हुआ इस तरह आ रहा है। बग्घी अभी दूर ही थी इस लिए मैं जामुन के उस पेड़ से निकल कर खेतों में घुस गया। मैंने मन ही मन सोच लिया था कि साहूकारों के अंदर की बात का पता मैं रूपा के द्वारा ही लगाऊंगा। खेत में गेहू की पकी हुई फसल खड़ी थी और मैं उसी के बीच बैठ गया था जिससे किसी की नज़र मुझ पर नहीं पड़ सकती थी। कुछ ही देर में बग्घी मेरे सामने सड़क पर आई। मेरी नज़र बग्घी में बैठे हुए शख़्स पर पड़ी तो मैं हलके से चौंक पड़ा।

अब आगे,,,,,,



बग्घी में बैठे हुए शख़्स को देख कर मैं चौंका तो था ही किन्तु सोच में भी पड़ गया था। साहूकारों ने ठाकुरों से अपने रिश्ते सुधार लिए थे मगर उसका असर इतना जल्दी देखने को मिलेगा इसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। बग्घी में मझले चाचा जगताप के साथ शाहूकार हरिशंकर का दूसरा बेटा रूपचंद्र बैठा हुआ था और उसी को देख कर मैं चौंका था।

बग्घी में मझले चाचा रूपचंद्र के साथ थे और आगे बढ़े जा रहे थे। पहले तो मैंने यही सोचा था कि बग्घी में मेरे परिवार का कोई सदस्य होगा जो कि मुझे खोजने के लिए आया होगा लेकिन यहाँ तो कुछ और ही दिख रहा था। ख़ैर बग्घी काफी आगे निकल चुकी थी इस लिए मैं भी खेतों से निकल कर उनके पीछे हो लिया। मैं देखना चाहता था कि मझले चाचा जी रूप चंद्र के साथ आख़िर जा कहां रहे हैं?

बग्घी में पीछे की तरफ छतुरी जैसा बना हुआ था जिससे उसमे बैठा हुआ इंसान पीछे की तरफ देख नहीं सकता था। मैं तेज़ तेज़ क़दमों के साथ चलते हुए बग्घी का पीछा कर रहा था। हलांकि बग्घी की रफ़्तार मुझसे ज़्यादा थी लेकिन मैं फिर भी उससे अपनी दूरी बराबर ही बना कर चल रहा था। कुछ देर बाद बग्घी मुख्य सड़क से नीचे उतर कर पगडण्डी में आ गई। ये पगडण्डी वाला वही रास्ता था जो बंज़र ज़मीन और मेरे झोपड़े की तरफ जाता था।

बग्घी को पगडण्डी में मुड़ते देख मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि ये लोग उधर क्यों जा रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जगताप चाचा जी सच में ही मुझे खोजने निकले हों? उन्होंने सोचा होगा कि हवेली से निकलने के बाद मैं शायद अपने झोपड़े में ही गया होऊंगा। ऐसा भी हो सकता है कि मुंशी हवेली गया हो और वहां पर जगताप चाचा जी ने उससे मेरे बारे में पूछा हो या फिर मुंशी ने खुद ही उन्हें बताया हो।

मैं तेज़ तेज़ चलते हुए बग्घी का पीछा कर रहा था और इस चक्कर में मेरी साँसें फूल गईं थी और मेरे पैर भी दुखने लगे थे मगर मैं फिर भी बढ़ता ही जा रहा था। कुछ ही समय में बग्घी मेरे झोपड़े के पास पहुंच कर रुक गई। मैं उनसे बीस पच्चीस क़दम की दूरी पर था। मैंने देखा कि बग्घी के रुकते ही जगताप चाचा जी और रूपचंद्र बग्घी से नीचे उतरे और झोपड़े की तरफ बढ़ गए। इसका मतलब वो लोग मुझे ही खोजने आये थे।

मेरे मन में ख़याल उभरा कि मुझे उन दोनों की बातें सुननी चाहिए। मुझे जगताप चाचा जी के साथ शाहूकार के लड़के का होना बिलकुल भी हजम नहीं हो रहा था इस लिए मैं सावधानी से आगे बढ़ चला। कुछ ही देर में मैं झोपड़े के पास पहुंच गया। झोपड़े के पास इक्का दुक्का पेड़ थे बाकी झाड़ियां थी। मैं छिपते छिपाते चलते हुए झाड़ियों के बीच आ कर रुक गया। यहाँ से झोपड़ा क़रीब दस कदम की दूरी पर था।

"यहां भी नहीं है तो फिर कहां गया होगा वैभव?" चाचा जी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी____"मुंशी जी ने तो कहा था कि वो सुबह इसी तरफ गया था।"
"कहीं ऐसा तो नहीं कि वो आपके बगीचे वाले मकान में गए हों?" रूपचंद्र की आवाज़ आई____"वो जगह उनके रुकने के लिए काफी बेहतर है। मेरे ख़याल से आपको वहीं जाना चाहिए।"

"क्यों, तुम नहीं चलोगे क्या साथ में?" चाचा जी ने पूछा तो रूपचंद्र ने कहा____"आप जाइए चाचा जी। मुझे इस गांव में कुछ ज़रूरी काम है इस लिए मैं आपके साथ अब नहीं जा पाऊंगा।"

"अच्छा ठीक है।" चाचा जी ने कहा____"लेकिन वापसी में क्या पैदल आओगे तुम?"
"मैंने गौरव से बताया था कि मुझे इस गांव में कुछ काम है।" रूपचंद्र ने कहा____"इस लिए वो मुझे लेने के लिए मोटर साइकिल ले के आ जाएगा। आप मेरी चिंता मत कीजिए।"
"फिर ठीक है।" चाचा जी ने कहा और फिर वो चल कर बग्घी के पास आए।

झाड़ियों के बीच छुपा बैठा मैं उन्हें देख रहा था। चाचा जी बग्घी में बैठे और घोड़ों की लगाम को हरकत दी तो घोड़े आवाज़ करते हुए चल पड़े। जगताप चाचा जी के जाने के बाद रूपचंद्र के होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई और फिर उसने एक बार मेरे झोपड़े को देखा, उसके बाद वो मुरारी काका के गांव की तरफ जाने वाली पगडण्डी पर चल पड़ा।

रूपचंद्र मुरारी काका के गांव की तरफ जा रहा था और मैं ये सोचने लगा था कि उसका मुरारी काका के गांव में कौन सा ज़रूरी काम हो सकता है? अपने मन में उठे इस सवाल का जवाब पाने के लिए मैंने फैसला किया कि मुझे भी उसके पीछे जाना चाहिए। ये सोच कर मैं फ़ौरन ही झाड़ियों से निकला और रूपचंद्र के पीछे हो लिया।

पगडण्डी के दोनों तरफ सन्नाटा फैला हुआ था। कुछ दूरी से दूसरे गांव के खेत दिखने लगते थे जहां पर कुछ किसान लोग अपने खेतों की कटाई में लगे हुए थे। इक्का दुक्का पेड़ भी लगे हुए थे। मैं बहुत ही सावधानी से रूपचंद्र का पीछा कर रहा था। मुझे इस बात का डर भी था कि अगर उसने पलट कर पीछे देखा तो मैं ज़रूर उसकी नज़र में आ जाऊंगा क्योंकि इस तरफ छुपने का कोई ज़रिया नहीं था।

रूपचंद्र अपनी ही धुन में चला जा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे उसे किसी बात की फ़िक्र ही ना हो। हलांकि मेरे लिए ये अच्छी बात ही थी क्योंकि वो अपनी धुन में जा रहा था और ऐसे में इंसान इधर उधर या पीछे पलट कर नहीं देखता। कुछ ही समय बाद मुझे मुरारी काका का घर दिखने लगा। जैसा कि मैंने पहले भी बताया था कि मुरारी काका का घर उसके गांव से अलग हट कर बना हुआ था, जहां पर उसके खेत थे। एक तरह से ये समझ लीजिए कि मुरारी काका का घर उसके खेत में ही बना हुआ था।

रूपचंद्र मुझसे क़रीब पंद्रह बीस क़दम की दूरी पर था। मुरारी काका के घर के पास कुछ पेड़ पौधे लगे थे जिससे अब अगर रूपचंद्र पलट कर पीछे देखता भी तो मैं आसानी से किसी न किसी पेड़ के पीछे खुद को छुपा सकता था। मुरारी काका के घर के पास पहुंच कर रूपचंद्र रुक गया और फिर इधर उधर देखने लगा। मैं समझ गया कि वो पलट कर पीछे भी देखेगा इस लिए मैं जल्दी से पास के ही एक पेड़ के पीछे छुप गया। पेड़ के पीछे से मैंने हल्का सा सिर बाहर निकाल कर देखा तो सचमुच रूपचंद्र पीछे ही देख रहा था। हलांकि वो मुझे देख नहीं सकता था क्योंकि इस वक़्त वो ये उम्मीद ही नहीं कर सकता था कि कोई उसका पीछा कर रहा होगा। इस लिए उसने फौरी तौर पर इधर उधर देखा और फिर मुरारी काका के घर की तरफ बढ़ चला।

रूपचंद्र को मुरारी काका के घर की तरफ बढ़ते देख मैं चौंक गया था और साथ ही ये भी सोचने लगा था कि रूपचंद्र मुरारी काका के घर की तरफ क्यों जा रहा होगा? आख़िर मुरारी काका के घर में इस वक़्त वो किससे मिलने जा रहा होगा? पलक झपकते ही ऐसे न जाने कितने ही सवाल मेरे ज़हन में उभरते चले गए थे और इस सबकी वजह से मेरे ज़हन में एक अजीब सी आशंका ने जन्म ले लिया था।

मैंने देखा कि रूपचंद्र मुरारी काका के घर के दरवाज़े पर पहुंच कर रुक गया था। इस वक़्त आस पास कोई नहीं था। घर के सामने सड़क के किनारे पर पेड़ के नीचे जो चबूतरा बना था वो भी खाली था इस वक़्त। फसलों की कटाई का मौसम था इस लिए मैं समझ सकता था कि लोग इस वक़्त अपने अपने खेतों में कटाई करने गए होंगे।

दरवाज़े के पास पहुंच कर रूपचंद्र ने एक बार फिर से इधर उधर देखा और फिर उसने दरवाज़े की कुण्डी पकड़ कर दरवाज़े पर बजाया। कुछ ही देर में दरवाज़ा खुला और मैंने रूपचंद्र के चेहरे पर अचानक ही उभर आई चमक को देखा और साथ ही उसके होठों पर फ़ैल गई मुस्कान को भी। पेड़ के पीछे से मुझे दरवाज़े के उस पार का दिख नहीं रहा था इस लिए मैं ये न जान सका कि दरवाज़ा किसने खोला था। हलांकि मेरा अंदाज़ा ये था कि दरवाज़ा अनुराधा ने ही खोला होगा क्योंकि उसकी माँ इस वक़्त गेहू की फसल काटने के लिए खेतों पर गई होगी।

रूपचंद्र दरवाज़े के पास कुछ पलों तक खड़ा कुछ बोलता रहा और फिर वो दरवाज़े के अंदर दाखिल हो गया। मेरे दिल की धड़कनें ये सोच कर ज़ोर ज़ोर से चलने लगीं थी कि आख़िर रूपचंद्र इस वक्त अनुराधा के घर पर किस लिए आया होगा? क्या अनुराधा से उसका कोई चक्कर है? इस ख़याल के साथ ही मेरी आँखों के सामने अनुराधा का मासूमियत से भरा चेहरा उजागर हो गया। मैं सोचने लगा कि क्या अनुराधा का कोई सम्बन्ध शाहूकार हरिशंकर के लड़के रूपचंद्र से हो सकता है? मेरा दिल ये मानने को तैयार ही नहीं था मगर मैं ये भी जानता था कि किसी के अंदर क्या है इस बारे में भला कोई कैसे जान सकता है?

उधर रूपचंद्र जैसे ही दरवाज़े के अंदर दाखिल हुआ तो दरवाज़ा बंद हो गया। ये देख कर मेरे मन में और भी कई तरह की आशंकाए उभरने लगीं। मेरे मन में सवाल उभरा कि क्या मुझे ये पता करना चाहिए कि इस वक्त घर के अंदर रूपचंद्र और अनुराधा के बीच क्या बातें हो रही हैं? मेरे मन में उभरे इस सवाल का जवाब भी मेरे मन ने ही दिया कि बिलकुल मुझे इस बात का पता लगाना ही चाहिए।

मैं इधर उधर नज़र घुमा कर पेड़ के पीछे से निकला और तेज़ी से मुरारी काका के घर की तरफ बढ़ गया। दरवाज़े के पास पहुंच कर मैंने दरवाज़े की झिरी से अंदर देखने की कोशिश की तो जल्द ही मुझे अंदर आँगन में रूपचंद्र और अनुराधा खड़े हुए दिख ग‌ए। जैसा कि मैंने पहले ही बताया था कि मुरारी काका का घर मिट्टी का बना हुआ था और सामने वाली दीवार एक ही थी जिस पर दरवाज़ा लगा हुआ था। दरवाज़े के अंदर जाते ही आँगन मिल जाता था।

दरवाज़े की झिरी से मुझे रूपचंद्र और अनुराधा दोनों ही नज़र आ रहे थे। रूपचंद्र की पीठ दरवाज़े की तरफ थी और अनुराधा का चेहरा दरवाज़े की तरफ होने से मैं साफ़ देख सकता था कि इस वक्त उसके चेहरे पर कैसे भाव थे।

अनुराधा के चेहरे पर इस वक़्त चिंता और परेशानी वाले भाव थे। उसने अपनी गर्दन को हल्का सा झुकाया हुआ था। उसके दोनों हाथ उसके सीने पर पड़े दुपट्टे के छोरों को पकड़ कर बेचैनी से उमेठने में लगे हुए थे। दोनों के बीच ख़ामोशी थी। मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था और मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि आख़िर रूपचंद्र इस वक़्त यहाँ आया क्यों होगा?

"क्या हुआ?" रूपचंद्र ने दो क़दम अनुराधा की तरफ बढ़ते हुए कहा____"तुम मुझसे इतना डर क्यों रही हो? मैं तुम्हें खा थोड़ी न जाऊंगा।"
"जी वो..।" अनुराधा सहम कर दो क़दम पीछे हटते हुए बोली____"आपने उस दिन जैसा कहा था मैंने छोटे ठाकुर से वैसा ही कह दिया था। उसके बाद फिर वो दुबारा मेरे घर नहीं आए।"

"उसे आना भी नहीं चाहिए यहां।" रूपचंद्र चल कर अनुराधा के पीछे गया और फिर कमीनी मुस्कान के साथ उसके कान के पास अपना मुँह ला कर बोला____"क्योंकि इसी में तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की भलाई है। ख़ैर छोड़ो ये बात, अगर तुम मेरे कहे अनुसार चलोगी तो फ़ायदे में ही रहोगी। उस वैभव के बारे में अब सोचना भी मत। वो तुम लोगों का साथ नहीं देगा और ना ही कोई मदद करेगा। मदद भी वो तभी कर पाएगा न जब वो मदद करने के लिए खुद सक्षम हो। तुम्हें पता है कल उसने फिर से हमसे झगड़ा किया था। मेरे ताऊ ने उसे थोड़ा सा उकसाया तो उसकी गांड में आग लग गई और फिर वो मेरे ताऊ के लड़कों से भिड़ गया। हाहाहा कसम से मैंने ऐसा लम्पट और मूर्ख आदमी अपने जीवन में कभी नहीं देखा। ख़ैर हमारे लिए तो अच्छा ही है। पता चला है कि अपने बाप से भी भिड़ गया था और फिर गुस्से में हवेली छोड़ कर चला गया है कहीं। अब तुम समझ सकती हो कि वो तुम लोगों की ना तो कोई मदद कर सकता है और ना ही तुम्हारे बाप का कर्ज़ा चुका सकता है।"

रूपचंद्र की बातें सुन कर जहां एक तरफ अनुराधा एकदम चुप थी वहीं दूसरी तरफ उसकी बातें सुनकर मेरी झांठें सुलग गईं थी। मन तो किया कि अभी दरवाज़े को एक लात मार कर खोल दूं और फिर अंदर जा कर रूपचंद्र की गर्दन पकड़ लूं मगर फिर मैंने ये सोच कर अपने गुस्से को काबू किया कि देखूं तो सही, ये शाहूकार का पूत और क्या क्या बोलता है अनुराधा से।

"तुम्हारी माँ ने मुझे इजाज़त दी थी कि मैं अपना कर्ज़ा तुम्हारी इस मदमस्त जवानी का रसपान कर के वसूल कर लूं।" रूपचंद्र ने पीछे से अनुराधा की गर्दन के पास हल्के से चूमते हुए कहा____"मगर मैंने अभी तक ऐसा नहीं किया। जानती हो क्यों? क्योंकि मैं चाहता हूं कि तुम ख़ुद अपनी ख़ुशी से अपने इस हुस्न को मेरे सामने बेपर्दा करो और फिर मुझसे कहो कि मेरे इस गदराए हुए जिस्म को जैसे चाहो मसलो और जैसे चाहो भोग लो।"

रूपचंद्र की बातें सुन कर अनुराधा की आँखों से आंसू छलक पड़े। उसके चेहरे पर दुःख संताप और अपमान के भाव उभर आये थे। तभी वो अचानक ही आगे बढ़ कर रूपचंद्र की तरफ पलटी और फिर कातर भाव से बोली____"ऐसा मत कीजिए। मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूं। आप चाहें तो अपना कर्ज़ हमारी ज़मीनें ले कर चुकता कर लीजिए मगर मेरे साथ ऐसा मत कीजिए।"

"ज़मीनों का मैं क्या करुंगा मेरी जान?" रूपचंद्र ने मुस्कुराते हुए कहा____"वो तो मेरे पास बहुत हैं मगर तुम्हारे जैसी हूर की परी नहीं है मेरे पास। जब से मुझे पता चला था कि उस हरामज़ादे वैभव की नज़र भी तुम पर है तब से मैंने भी ये सोच लिया था कि अब तुम और तुम्हारा ये गदराया हुआ मादक जिस्म सिर्फ और सिर्फ मेरा ही होगा। वैभव को रास्ते से हटाने का कोई तरीका नहीं मिल रहा था मुझे मगर भगवान की दया से तरीका मिल ही गया। एक रात मैं उसका पीछा करते हुए यहाँ आया तो देखा घर के पीछे तुम्हारी माँ नंगी हो कर उस हरामज़ादे से अपनी चूत मरवा रही थी। पहले तो मैं ये सब देख कर बड़ा ही हैरान हुआ मगर फिर अचानक ही मेरे अकल के दरवाज़े खुले और इस सब में मुझे एक मस्त उपाय नज़र आया। मैंने सोच लिया कि तेरी माँ को इसके लिए मजबूर करुंगा और उससे कहूंगा कि अगर उसने अपनी बेटी को मेरे लिए राज़ी नहीं किया तो पूरे गांव में इस बात की डिग्गी पिटवा दूंगा कि उसका दादा ठाकुर के बेटे वैभव के साथ नाजायज़ सम्बन्ध है। ख़ैर उस रात मैं वैभव का वो कारनामा देख कर चुपचाप चला गया था। सोचा था कि मौका देख कर यहां आऊंगा और तुम्हारी मां से इस सिलसिले में बात करूंगा। वैभव को अपने रास्ते से हटाने के लिए मैंने बहुत सोच समझ कर ये क़दम उठाया था। ख़ैर उस दिन मैं घर से चला तो पता चला कि तुम्हारे बाप की किसी ने हत्या कर दी है। मैं ये जान कर एकदम से उछल ही पड़ा था और सोचने लगा कि साला अब ये क्या काण्ड हो गया? ऐसे हालात में मैं अपने उस काम को अंजाम नहीं दे सकता था लेकिन मैं ये ज़रूर पता करने में लग गया कि तुम्हारे बाप की हत्या किसने की होगी। इसका पता जल्द ही चल गया मुझे। मेरे एक आदमी ने बताया कि तुम्हारा काका जगन अपने भाई की अत्या का जिम्मेदार वैभव को मान रहा है। ये जान कर तो मैं खुशी से बौरा ही गया और मन ही मन हंसते हुए सोचा कि उस वैभव के तो लौड़े ही लग ग‌ए। तुम्हारे बाप की इस हत्या से मुझे वैभव को अपने रास्ते से हटाने का एक और उपाय मिल गया। पहले तो मैं तुम्हारी माँ से मिला और उसे बताया कि वैभव के साथ उसकी मज़े की दास्तान का मुझे पता है इस लिए अगर वो अपनी इज्ज़त सरे बाज़ार नीलाम होता नहीं देखना चाहती तो वो वही करे जो मैं कहूं। तुम्हारी माँ मरती क्या न करती वाली हालत में फंस गई थी। आख़िर उसे मजबूर हो कर मेरी बात माननी ही पड़ी मगर उसने मुझसे ये कहा कि वो खुद अपनी बेटी से इस बारे में बात नहीं कर सकती, इस लिए मुझे खुद ही उससे बात करना होगा। तुम्हारी माँ की इजाज़त मिलते ही मैं शेर से सवा शेर बन गया।"

रूपचंद्र की बातें सुन कर अनुराधा थर-थर कांपती हुई खड़ी थी। भला वो ऐसी परिस्थिति में कर भी क्या सकती थी? जबकि मैं रूपचंद्र की बातें सुन कर गुस्से से उबलने लगा था। उधर रूपचंद्र कुछ देर सांस लेने के लिए रुक गया था और अनुराधा के पीछे खड़ा वो अनुराधा की दाहिनी बांह पर अपना हाथ फेरने लगा था। उसके ऐसा करने से अनुराधा बुरी तरह कसमसाने लगी थी।

"उस दिन वैभव जब तुम्हारे घर आया तो उधर मैं उसके झोपड़े की तरफ गया।" रूपचंद्र ने अनुराधा को अपनी तरफ पलटा कर कहा____"झोपड़े के सामने खेत पर मेरी नज़र उस जगह पड़ी जहां पर उसने गेहू की पुल्लियों के गट्ठे जमा कर रखे थे। ये देख कर मैं मुस्कुराया। उस साले ने हमेशा ही हमें नीचे दिखाया था जिससे उसके प्रति हमारे मन में हमेशा ही गुस्सा और नफ़रत भरी रही थी। उसकी फसल के गड्ड को देख कर मैंने सोचा कि क्यों न उसकी मेहनत को आग के हवाले कर दिया जाए। ये सोच कर मैं खेत की तरफ बढ़ा और फिर जेब से माचिस निकाल कर मैंने उसके गेहू के उस गड्ड में माचिस की जलती हुई तीली छुआ दी। सूखी हुई गेहू की फसल में आग लगने में ज़रा भी देर न लगी। देखते ही देखते आग ने उसकी पूरी फसल को अपनी चपेट में ले लिया। ये सब करने के बाद मैं फ़ौरन ही वहां से नौ दो ग्यारह हो गया। वैभव की फसल में आग लगाने से मैं बड़ा खुश था। पहली बार उसे उस तरह से शिकस्त दे कर मुझे ख़ुशी महसूस हो रही थी। मैं जानता था कि जब वो ये सब देखेगा तो उसकी गांड तक जल कर ख़ाक हो जाएगी और वो गुस्से में अपने बाल नोचने लगेगा। पगलाया हुआ वो इधर उधर भटकते हुए उस इंसान की खोज करेगा जिसने उसकी इतनी मेहनत से उगाई हुई फसल में आग लगाईं थी।"

रूपचंद्र फिर से चुप हुआ तो इस बार मेरी आँखों से गुस्से की आग जैसे लपटों में निकलती हुई नज़र आने लगी थी। तो मेरी फसल को आग लगाने वाला हरिशंकर ये बेटा रूपचंद्र था और मैं बेवजह ही उस साए को दोष दे रहा था जो उस रात मुझसे टकराया था।

"उसके बाद मेरे मन में बस तुम्हें ही पाने की इच्छा बची थी।" रूपचंद्र ने अनुराधा के चेहरे को अपनी हथेलियों में लेते हुए कहा____"वैभव सिंह हवेली लौट गया था और इधर मैं तुम्हारे घर पर आ धमका। तुम्हें उसके और तुम्हारी माँ के बारे में सब कुछ बताया और फिर कहा कि अब जब वो कमीना वैभव तुम्हारे घर आये तो तुम्हें उससे वही कहना है जो मैं तुम्हें कहने को बोलूंगा। उस दिन जब तुमने वैभव से वो सब कहा था तब मैं तुम्हारी रसोई के अंदर खड़ा सब कुछ देख सुन रहा था। मैंने देखा था कि कैसे वो हरामज़ादा तुम्हारी बातें सुन कर सकते में आ गया था और फिर जब तुमने उससे ये कहा कि अब तुम उसकी शक्ल भी नहीं देखना चाहती तो कैसे उसका चेहरा देखने लायक हो गया था। बेचारा भावना में बह गया था। मुझे तो उस वक़्त उसकी शक्ल देख कर बड़ी हंसी आ रही थी। ख़ैर अब छोडो ये सब बातें और चलो कमरे में चलते हैं।"

"नहीं नहीं।" रूपचंद्र की ये बात सुन कर अनुराधा एकदम से घबरा कर पीछे हट गई, फिर बोली____"भगवान के लिए मुझ पर दया कीजिए। मेरी ज़िन्दगी बर्बाद मत कीजिए।"
"ऐसा नहीं हो सकता मेरी गुले गुलज़ार।" आगे बढ़ते हुए रूपचंद्र ने कमीनी मुस्कान के साथ कहा_____"तुम्हें पाने के लिए मैंने कितने सारे पापड़ बेले हैं। मेरी इतनी मेहनत पर ऐसे तो न पानी फेरो मेरी जान। चलो जल्दी कमरे में चलो। मैं अब और ज़्यादा बरदास्त नहीं कर सकता। तुम्हारे इस गदराये हुए बदन को चाटने के लिए मेरी जीभ लपलपा रही है। तुम्हारे इन सुर्ख और रसीले होठों की शहद को चखने के लिए मेरा मन मचला जा रहा है।"

"नही नहीं।" अनुराधा बुरी तरह रोती हुई घर के पीछे की तरफ जाने वाले दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ी। उसे भागता देख रूपचंद्र बड़ी ही बेहयाई से हँसा और फिर तेज़ी से उसके पीछे दौड़ पड़ा। इधर मैं भी समझ गया कि इस खेल को यहीं पर समाप्त करने का अब वक़्त आ गया है।

मैं तेज़ी से खड़ा हुआ और ज़ोर से दरवाज़े पर लात मारी तो दरवाज़ा भड़ाक से खुल गया। असल में दरवाज़ा अंदर से कुण्डी लगा कर बंद नहीं किया गया था। शायद रूपचंद्र को कुण्डी लगाने का ध्यान ही नहीं रहा होगा या फिर उसे इतना यकीन था कि इस वक़्त यहाँ पर कोई नहीं आ सकता।

दरवाज़ा जब तेज़ आवाज़ करते हुए खुला तो अनुराधा के पीछे भागता हुआ रूपचंद्र एकदम से रुक गया। अनुराधा भी दरवाज़े की तेज़ आवाज़ सुन कर ठिठक गई थी। इधर दरवाज़ा खुला तो मैं अंदर दाखिल हुआ। रूपचंद्र की नज़र जब मुझ पर पड़ी तो उसकी जैसे माँ बहन नानी मामी सब एक साथ ही मर ग‌ईं। आँखों में आश्चर्य और दहशत लिए वो बुत बना मेरी तरफ देखता ही रह गया था, जबकि अनुराधा ने जब मुझे देखा तो उसके चेहरे पर राहत के साथ साथ ख़ुशी के भी भाव उभर आए।

"इस वक़्त मेरे हाथ पैर मुझसे चीख चीख कर कह रहे हैं कि रूपचंद्र नाम के इस आदमी को तब तक मारुं जब तक कि उसके जिस्म से उसकी नापाक रूह नहीं निकल जाती।" दरवाज़े को अंदर से कुण्डी लगा कर बंद करने के बाद मैं रूपचंद्र की तरफ बढ़ते हुए सर्द लहजे में कहा____"इस वक़्त दुनिया की कोई भी ताकत तुझे मुझसे नहीं बचा सकती नाजायज़ों की औलाद।"

"आ आप यहाँ कैसे????" रूपचंद्र मारे डर के हकलाते हुए बड़ी मुश्किल से बोला।
"हम तो हर जगह जिन्न की तरह प्रगट हो जाते हैं रूप के चांद।" मैंने उसकी तरफ बढ़ते हुए कहा_____"मैंने सुना कि तूने अनुराधा को पाने के लिए न जाने कितने ही पापड़ बेले हैं और ये भी सुना कि उसके गदराये हुए बदन को चाटने के लिए तेरी जीभ लपलपाई जा रही है।"

"नहीं तो।" रूप चंद्र बुरी तरह हड़बड़ा गया____"मैंने ऐसा तो कुछ नहीं कहा छोटे ठाकुर। आप तो बेवजह ही जाने क्या क्या कहे जा रहे हैं आअह्ह्ह्हह।"

"महतारीचोद।" मैंने बिजली की सी तेज़ी से रूपचंद्र के पास पहुंच कर उसके चेहरे में एक घूंसा मारा तो वो उछल कर दूर जा गिरा, जबकि उसकी तरफ बढ़ते हुए मैंने गुस्से से कहा____"क्या समझता है मुझे कि मैं निरा चूतिया हूं....हां?"

"ये आप ठीक नहीं कर रहे छोटे ठाकुर।" मैंने झुक कर रूपचंद्र को उसकी शर्ट का कॉलर पकड़ कर उठाया तो वो बोल पड़ा____"आपको शायद पता नहीं है कि अब ठाकुरों से हमारे रिश्ते सुधर चुके हैं आआह्ह्ह्।"

"मैं जानता हूं मादरचोद कि तुम हरामज़ादों ने किस लिए हमसे अपने रिश्ते सुधारे हैं।" रूपचंद्र के पेट में मैंने ज़ोर से घुटने का वार किया तो वो दर्द से कराह उठा, जबकि मैंने आगे कहा____"दोस्ती कर के पीठ पर छूरा मारना चाहते हो तुम लोग।"

"नहीं छोटे ठाकुर।" दर्द से बिलबिलाते हुए रूपचंद्र ने कहा____"आप ग़लत समझ रहे हैं।
"तेरी माँ को चोदूं मादरचोद।" मैंने रूपचंद्र को उठा कर आँगन की कच्ची ज़मीन पर पटक दिया जिससे उसके हलक से ज़ोरदार चीख निकल गई____"तू मुझे बताएगा कि मैं क्या समझ रहा हूं? तुझे क्या लगा कि मुझे कुछ पता ही नहीं है? जब तू जगताप चाचा जी के साथ बग्घी में बैठ कर आ रहा था तभी से मैं तेरे पीछे लगा हुआ था। जगताप चाचा जी के साथ तू मेरे झोपड़े तक आया उसके बाद तूने उन्हें ये कह कर वापस भेज दिया कि तुझे इस गांव में कोई ज़रूरी काम है। मैंने भी सोचा कि देखूं तो सही कि तेरा इस गांव में कौन सा ज़रूरी काम है। उसके बाद तेरा पीछा करते हुए जब यहाँ आया तो देखा और सुना भी कि तेरा ज़रूरी काम क्या था।"

"मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे ठाकुर।" मेरी बात सुन कर रूपचंद्र पहले तो बुरी तरह हैरान हुआ था फिर अचानक ही रंग बदल कर गिड़गिड़ाते हुए बोला____"मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई है। मैं आपसे वादा करता हूं कि अब से ऐसी ग़लती नहीं होगी।"

"तू साले जलती आग में कूद कर भी कहेगा ना कि अब से तू ऐसा नहीं करेगा तब भी मैं तेरा यकीन नहीं करुंगा।" मैंने उसके पेट में एक लात लगाते हुए कहा____"क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम लोगों की ज़ात कुत्ते की पूंछ वाली है जो कभी सुधर ही नहीं सकती।"

"मां की कसम छोटे ठाकुर।" रूपचंद्र ने गले में हाथ लगाते हुए जल्दी से कहा____"मैं अब से ऐसा कुछ भी नहीं करुंगा।"
"अगर तू यहाँ पर मेरे द्वारा रंगे हाथों पकड़ा न गया होता।" मैंने उसे फिर से उठाते हुए कहा____"तो क्या तू ऐसा कहने के बारे में सोचता?"

मेरी बात सुन कर रूपचंद्र कुछ न बोला। उसका चेहरा भय के मारे पीला ज़र्द पड़ चुका था। जब वो कुछ न बोला तो मैंने सर्द लहजे में कहा_____"तेरी चुप्पी ने मुझे बता दिया है कि तू ऐसा नहीं सोचता। क्या कहा था तूने अनुराधा से कि कमरे में चल?"

"मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे ठाकुर।" रूपचंद्र रो देने वाले लहजे में बोला____"मैं अब सपने में भी अनुराधा को ऐसा नहीं कहूंगा। यहाँ तक कि उसके बाप ने जो कर्ज़ा लिया था उस कर्ज़े को भी भूल जाऊंगा।"

"वो तो तू अगर ना भी भूलता तब भी तुझे भूलना ही पड़ता बेटीचोद।" मैंने खींच के एक थप्पड़ उसके गाल पर मारा तो वो लहरा गया, जबकि मैंने अनुराधा की तरफ देखते हुए उससे कहा____"ये हरामज़ादा तुम्हें इस तरह से जलील कर रहा था और तुमने मुझे बताना भी ज़रूरी नहीं समझा।"

मेरी बात सुन कर अनुराधा कुछ न बोल सकी बल्कि सिर को झुकाए अपनी जगह पर खड़ी रही। उसके कुछ न बोलने पर मैंने कहा____"कितना कर्ज़ा लिया था मुरारी काका ने इससे?"

"मुझे नहीं पता छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने धीमे स्वर में नज़रें झुकाये हुए ही कहा____"मां को पता होगा।"
"तू बता बे मादरचोद।" मैंने रूपचंद्र की तरफ गुस्से से देखते हुए कहा____"कितना कर्ज़ा दिया था तूने मुरारी काका को?"

"वो तो पिता जी ने दिया था।" रूपचंद्र ने सहमे हुए लहजे में कहा____"मैं बस इतना ही जानता हूं कि अनुराधा के बाप ने मेरे पिता जी से दो साल पहले कर्ज़ा लिया था जिसे वो अब तक चुका नहीं पाया था।"

"तो क्या तेरे बाप ने तुझे कर्ज़ा वसूली के लिए यहाँ भेजा था?" मैंने गुस्से से दाँत पीसते हुए पूछा तो रूपचंद्र जल्दी से बोला____"नहीं छोटे ठाकुर। वो तो मैं अपनी मर्ज़ी से ही कर्ज़ा वसूलने के बहाने यहाँ आया था।"

"मन तो करता है कि तुझे भी वैसे ही आग लगा कर जला दू जैसे तूने मेरी फसल को जलाया था।" मैंने उसके चेहरे पर ज़ोर से घूंसा मारते हुए कहा तो वो चीखते हुए दूर जा गिरा, जबकि मैं उसकी तरफ बढ़ते हुए बोला_____"मगर मैं तुझे जलाऊंगा नहीं बल्कि तेरे उस हाथ को तोड़ूंगा जिस हाथ से तूने मेरी फसल को आग लगाया था। चल बता किस हाथ से आग लगाया था तूने?"

"माफ़ कर दीजिए छोटे ठाकुर।" रूपचंद्र डर के मारे रो ही पड़ा_____"मैं आपकी टट्टी खाने को तैयार हूं मगर भगवान के लिए मुझे माफ़ कर दीजिए।"
"बता मादरचोद वरना दोनों हाथ तोड़ दूंगा।" मैंने ज़ोर से एक लात उसके पेट में मारी तो वो पेट पकड़ कर दोहरा हो गया। कुछ दूरी पर खड़ी अनुराधा ये सब सहमी हुई नज़रों से देख रही थी।

"मैं आपके पैर पड़ता हूं छोटे ठाकुर।" रूपचंद्र सच में ही मेरे पैरों को पकड़ कर गिड़गिड़ा उठा____"बस इस बार मुझे माफ़ कर दीजिए। अगली बार अगर मैंने ऐसा कुछ किया तो आप बेशक मुझे जान से मार देना।"

"चल उठ।" मैंने झटका दे कर उसे अपने पैरों से दूर करते हुए कहा____"और जा कर अनुराधा के पैरों में सिर रख कर अपने किए की उससे माफ़ी मांग और ये भी कह कि आज से तू उसे अपनी बहन मानेगा।"

मारता क्या न करता वाली हालत थी रूपचंद्र की। मेरी बात सुन कर वो तेज़ी से उठा और लपक कर अनुराधा के पास पहुंचा। अनुराधा के पैरों में गिर कर वो उससे माफ़ी मांगने लगा। अनुराधा ये सब देख कर एकदम से बौखला गई और उसने मेरी तरफ देखा तो मैंने इशारे से ही उसे शांत रहने को कहा।

"अनुराधा बहन मुझे माफ़ कर दो।" अनुराधा के पैरों में गिरा रूपचंद्र बोल रहा था____"मैंने जो कुछ भी तुम्हें कहा है उसके लिए मुझे माफ़ कर दो बहन। आज के बाद मैं ऐसा कुछ भी नहीं कहूंगा और ना ही यहाँ कभी आऊंगा।"

रूपचंद्र के द्वारा इस तरह माफ़ी मांगने पर अनुराधा घबरा कर मेरी तरफ देखने लगी थी। मैंने उसे इशारे से ही कहा कि वो उससे घबराए नहीं बल्कि अगर उसे माफ़ करना है तो माफ़ कर दे और अगर उसे सज़ा देना है तो मुझे बताए।

"ठीक ठीक है।" अनुराधा ने घबराहये हुए भाव से कहा____"मैंने आपको माफ़ किया। अब उठ जाइए।"
"बहुत बहुत शुक्रिया अनुराधा बहन।" रूपचंद्र उठ कर ख़ुशी से हाथ जोड़ते हुए बोला____"मैं पिता जी से कह दूंगा कि वो मुरारी काका को दिया हुआ कर्ज़ा माफ़ कर दें।"

"अब तू फ़ौरन ही यहाँ से निकल ले।" मैंने सर्द लहजे में रूपचंद्र से कहा____"और हां, अगर मुझे कहीं से भी पता चला कि तू इस घर के आस पास भी कभी आया है तो सोच लेना। वो दिन तेरी ज़िन्दगी का आख़िरी दिन होगा।"

मेरी बात सुन कर रूपचंद्र ने सिर हिलाया और दरवाज़ा खोल कर इस तरह भागा जैसे अगर वो रुक जाता तो उसकी जान उसकी हलक में आ जाती। रूपचंद्र के जाने के बाद मैंने अनुराधा की तरफ देखा। वो नज़रें झुकाए मुझसे दस क़दम की दूरी पर खड़ी थी।

"मुझे भी माफ़ कर दो अनुराधा।" मैंने संजीदा भाव से कहा____"मैं यहाँ अपने ही द्वारा किए गए वादे को तोड़ कर आ गया हूं। मैंने तो तुमसे वादा किया था कि मैं तुम्हें अपनी शक्ल तभी दिखाऊंगा जब मैं मुरारी काका के हत्यारे का पता लगा लूंगा।"

"आपको माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने धीमे स्वर में कहा____"माफ़ी तो मुझे मांगनी चाहिए कि मैंने आपसे उस दिन उस लहजे में बात की और आपको जाने क्या क्या कह दिया था।"

"मैंने बाहर से रूपचंद्र की सारी बातें सुन ली हैं अनुराधा।" मैंने उसकी तरफ बढ़ते हुए कहा____"इस लिए मैं जान गया हूं कि तुमने उस दिन वो सब मुझसे उसके ही कहने पर कहा था। हलांकि ये बात तो सच ही है कि मेरे और तुम्हारी माँ के बीच उस रात वैसे सम्बन्ध बने थे किन्तु ये ज़रा भी सच नहीं है कि मैंने मुरारी काका की हत्या की है। मैंने उस दिन भी तुमसे कहा था कि मैंने जो गुनाह किया है उसके लिए तुम मुझे जो चाहे सज़ा दे दो और आज भी तुमसे यही कहूंगा।"

"आपने और माँ ने जो कुछ किया है।" अनुराधा ने नज़रें झुकाए हुए ही कहा____"वो सब आप दोनों की इच्छा से ही हुआ है। इस लिए उसके लिए मैं सिर्फ आपको ही दोष क्यों दू? मुझे तो इस बारे में कुछ पता ही नहीं था। वो तो रूपचंद्र ने ही एक दिन मुझे ये सब बताया था और फिर मुझसे कहा था कि जब आप मेरे घर आएं तो मैं आपसे वो सब कहूं। उसने धमकी दी थी कि अगर मैंने वो सब आपसे नहीं कहा तो वो मेरे छोटे भाई के साथ बहुत बुरा करेगा। मैं मजबूर थी छोटे ठाकुर। उस दिन पता नहीं वो कहां से मेरे घर में आ धमका था और उसके आने के कुछ देर बाद आप भी आ गए थे।"

"शायद वो मुझ पर पहले से ही नज़र रखे हुए था।" मैंने सोचने वाले भाव से कहा____"ख़ैर मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है अनुराधा। बल्कि मुझे खुद अपने बारे में बुरा लग रहा है कि मैंने काकी के साथ वैसा सम्बन्ध बनाया।"

"भगवान के लिए अब इस बात को भूल जाइए छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने नज़र उठा कर मेरी तरफ देखते हुए बेचैनी से कहा____"मैं उस बारे में अब आपसे कोई बात नहीं करना चाहती। मुझे तो सोच कर ही शर्म आती है कि मेरी माँ ने आपके साथ वो सब कैसे किया?"

"होनी अटल होती है अनुराधा।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"होनी अनहोनी पर किसी का कोई ज़ोर नहीं होता। सब कुछ उस ऊपर वाले के इशारे पर ही होता है। हम इंसान तो बस उसका माध्यम बनते हैं और उस माध्यम में ही हम सही और ग़लत ठहरा दिए जाते हैं। कितनी अजीब बात है ना?"

मेरी बात सुन कर अनुराधा ख़ामोशी से मेरी तरफ देखती रही। उसके मासूम से चेहरे पर मेरी नज़र ठहर सी गई और साथ ही दिल में अजीब अजीब से एहसास भी उभरने लगे। मैंने फ़ौरन ही उसके चेहरे से अपनी नज़रें हटा ली।

"मुझे लगता है कि इन साहूकारों ने ही मुरारी काका की हत्या की है।" फिर मैंने कुछ सोचते हुए अनुराधा से कहा____"मुझसे अपनी दुश्मनी निकालने के लिए इन लोगों ने मुरारी काका की हत्या की और उनकी हत्या के आरोप में मुझे फसाना चाहा। वो तो दादा ठाकुर ने पुलिस के दरोगा से मिल कर दरोगा को यहाँ आने से मना कर दिया था वरना उस दिन यकीनन वो दरोगा यहाँ आता और फिर मुरारी काका की हत्या का दोषी मान कर वो मुझे पकड़ कर यहाँ से ले जाता। शायद यही इन साहूकारों का षड़यंत्र था।"

"अगर ऐसा है तो दादा ठाकुर ने पुलिस के दरोगा को यहाँ आने से मना क्यों किया था?" अनुराधा ने कहा_____"क्या उन्हें पहले से ही ये पता चल गया था कि साहूकारों ने ही मेरे बाबू की हत्या की है और उनकी हत्या के जुर्म में वो लोग आपको फंसा देना चाहते हैं?"

"सच भले ही यही हो अनुराधा।" मैंने अनुराधा की गहरी आँखों में देखते हुए कहा____"लेकिन इस सच को साबित करने के लिए न हमारे पास कोई ठोस प्रमाण है और ना ही शायद पुलिस के दरोगा के पास हो सकता है। पिता जी को भी शायद ये बात पता रही होगी। शक की बिना पर दरोगा भले ही मुझे पकड़ कर ले जाता मगर जब मैं हत्यारा साबित ही नहीं होता तो उसे मुझे छोड़ना ही पड़ता। मैं भले ही साफ़ बच कर थाने से आ जाता किन्तु इस सबके चलते मेरे माथे पर ये दाग़ तो लग ही जाता कि ठाकुर खानदान के एक सदस्य को पुलिस का दरोगा पकड़ कर ले गया था और उसे जेल में भी बंद कर दिया था। दादा ठाकुर यही दाग़ मेरे माथे पर शायद नहीं लगने देना चाहते थे और इसी लिए उन्होंने दरोगा को यहाँ आने से मना कर दिया होगा। हलांकि उन्होंने दरोगा को गुप्त रूप से काका के हत्यारे का पता लगाने के लिए भी कहा था। पता नहीं अब तक उसने हत्यारे का पता लगाया भी होगा या नहीं।"

अभी मैंने ये सब कहा ही था कि तभी पीछे की तरफ जाने वाले दरवाज़े पर दस्तक हुई। दस्तक सुन कर अनुराधा चौंकी और उसने मेरी तरफ देखा। दोपहर हो चुकी थी और आसमान से सूरज की चिलचिलाती हुई धूप बरस रही थी। दरवाज़े के उस पार शायद अनुराधा की माँ थी। अनुराधा बेचैनी से मेरी तरफ देख रही थी। शायद उसे इस बात की चिंता होने लगी थी कि अगर दरवाज़े पर उसकी माँ ही है तो उसने अगर यहाँ पर अपनी बेटी को मेरे साथ अकेले देख लिया तो वो क्या सोचेगी?
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