Hindi Xkahani - प्यार का सबूत

☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 20
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अब तक,,,,,,

"सच भले ही यही हो अनुराधा।" मैंने अनुराधा की गहरी आँखों में देखते हुए कहा____"लेकिन इस सच को साबित करने के लिए न हमारे पास कोई ठोस प्रमाण है और ना ही शायद पुलिस के दरोगा के पास हो सकता है। पिता जी को भी शायद ये बात पता रही होगी। शक की बिना पर दरोगा भले ही मुझे पकड़ कर ले जाता मगर जब मैं हत्यारा साबित ही नहीं होता तो उसे मुझे छोड़ना ही पड़ता। मैं भले ही साफ़ बच कर थाने से आ जाता किन्तु इस सबके चलते मेरे माथे पर ये दाग़ तो लग ही जाता कि ठाकुर खानदान के एक सदस्य को पुलिस का दरोगा पकड़ कर ले गया था और उसे जेल में भी बंद कर दिया था। दादा ठाकुर यही दाग़ मेरे माथे पर शायद नहीं लगने देना चाहते थे और इसी लिए उन्होंने दरोगा को यहाँ आने से मना कर दिया होगा। हलांकि उन्होंने दरोगा को गुप्त रूप से काका के हत्यारे का पता लगाने के लिए भी कहा था। पता नहीं अब तक उसने हत्यारे का पता लगाया भी होगा या नहीं।"

अभी मैंने ये सब कहा ही था कि तभी पीछे की तरफ जाने वाले दरवाज़े पर दस्तक हुई। दस्तक सुन कर अनुराधा चौंकी और उसने मेरी तरफ देखा। दोपहर हो चुकी थी और आसमान से सूरज की चिलचिलाती हुई धूप बरस रही थी। दरवाज़े के उस पार शायद अनुराधा की माँ थी। अनुराधा बेचैनी से मेरी तरफ देख रही थी। शायद उसे इस बात की चिंता होने लगी थी कि अगर दरवाज़े पर उसकी माँ ही है तो उसने अगर यहाँ पर अपनी बेटी को मेरे साथ अकेले देख लिया तो वो क्या सोचेगी?

अब आगे,,,,,



"छोटे ठाकुर मेरी आपसे एक विनती है।" अनुराधा ने मेरे पास आ कर धीमे स्वर में कहा____"और वो ये कि आप माँ से ये मत कहिएगा कि मुझे आप दोनों के सम्बन्धों के बारे में पता चल गया है। वो क्या है कि मैं नहीं चाहती कि ये बात जान कर माँ मेरे सामने शर्मिंदा महसूस करे और वो मुझसे नज़रें चुराने लगे।"

"ठीक है।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा_____"मैं तो वैसे भी काकी से इस बारे में कोई बात नहीं करने वाला था बल्कि मैं तो अब काकी से ऐसा सम्बन्ध ही नहीं रखूंगा।"

अनुराधा मेरी बात सुन कर कुछ देर तक मुझे देखती रही और फिर जब पीछे दरवाज़े को फिर से खटखटाया गया तो हड़बड़ा कर उसने जा कर दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़ा खुला तो सरोज काकी अंदर आ गई। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर अनुराधा की तरफ देखते हुए बोली____"छोटे ठाकुर कब आए और तूने इन्हें ऐसे ही खड़ा कर रखा है धूप में?"

"मैं बस अभी कुछ देर पहले ही आया हूं काकी।" अनुराधा को हड़बड़ाते देख मैंने काकी से कहा____"अनुराधा से तुम्हारे ही बारे में पूछ रहा था कि तुम आ गई।"
"इस चिलचिलाती धूप में तुम यहाँ तक आए बेटा।" सरोज काकी ने हाथ में ली हुई हंसिया को एक कोने में रखते हुए कहा____"अनु बरामदे में खटिया बिछा दे छोटे ठाकुर के बैठने के लिए।"

सरोज काकी की बात सुन कर अनुराधा सिर हिला कर अंदर की तरफ गई और वहां रखी एक खटिया को बरामदे के नीचे ही बिछा दिया। खटिया बिछाने के बाद अनुराधा ने मेरी तरफ देखा तो मैं चल कर बरामदे में गया और खटिया पर बैठ गया।

"अभी कितना रह गया है काकी काटने को?" मैंने बरामदे से आवाज़ लगाते हुए काकी से पूछा____"अगर ज़्यादा हो तो बोलो मैं गांव से कुछ मजदूरों को भेज दूंगा। वो एक ही दिन में सारी फसल काट देंगे। क्यों इतनी धूप में तपती रहती हो खेत में? बीमार पड़ जाओगी ऐसे में।"

"अभी तो दो खेत पड़े हैं बेटा।" सरोज काकी ने अपनी साड़ी से अपने चेहरे का पसीना पोंछते हुए कहा____"जगन ने कहा है कि जैसे ही उसके खेत की फसल कट जाएगी तो वो मेरी भी फसल कटवा देगा। वैसे तो अनुराधा सुबह जाती है मेरे साथ। उसके बाद मैं उसे खाना बनाने के लिए भेज देती हूं। असल में ये धूप में जल्दी ही बीमार पड़ जाती है। इसके बाबू रहते थे तो इतनी परेशानी नहीं होती थी।"

"तुम चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मैं कल सुबह ही दो लोगों को तुम्हारी फसल काटने के लिए ले आऊंगा और हां तुम मुझे इसके लिए मना नहीं करोगी। मुरारी काका के बहुत एहसान हैं मुझ पर इस लिए मैं भी उनके लिए कुछ करना चाहता हूं। तुम्हें किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो तुम मुझसे बेझिझक बोल सकती हो।"

"तुमने इतना कह दिया यही बहुत है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"मैं अपने देवर जगन के रहते अगर किसी से मदद मागूंगी तो वो नाराज़ हो जाएग। वैसे भी उसके मन में तुम्हारे प्रति अच्छी भावना नहीं है।"

"मैं जगन काका को अपने तरीके से समझा दूंगा काकी।" मैंने कहा____"मुरारी काका की तरह मैं उन्हें भी मानता हूं। इस लिए अगर वो मुझे कुछ कहेंगे भी तो मैं उन्हें कोई जवाब नहीं दूंगा।"

"तुम बैठो बेटा मैं दो बाल्टी पानी में नहा कर आती हूं जल्दी।" सरोज काकी ने कहने के साथ ही अनुराधा की तरफ देखा____"छोटे ठाकुर भी भूखे होंगे इस लिए इनके लिए खाना लगा दे थाली में। कुछ शिष्टाचार सीख, ये नहीं कि घर आए मेहमान से पानी तक के लिए भी न पूछे।"

"मैंने कोई मेहमान नहीं हूं काकी।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैं तो इस घर को भी अपना ही घर समझता हूं और तुम अनुराधा पर गुस्सा क्यों कर रही हो। मैं जब आया था तब इसने मुझसे पानी के लिए पूछा भी था और पानी भी पिलाया था।"

"शुकर है।" काकी ने सरोज की तरफ देखते हुए कहा____"इतनी तो अकल आ गई थी इसे। ख़ैर तुम बैठो बेटा। मैं जल्दी से नहा कर आती हूं।"

सरोज काकी बाल्टी और रस्सी ले कर दरवाज़े से निकल गई। उसके जाने के बाद मैंने अनुराधा की तरफ देखा तो वो एकदम से हड़बड़ा गई। उसके इस तरह हड़बड़ा जाने पर मैं मन ही मन ये सोच कर हँसा कि ये तो एकदम से छुई मुई की तरह है।

"आपने माँ से झूठ क्यों बोला?" फिर उसने धीमे स्वर में नज़र झुका के कहा____"कि मैंने आपसे पानी के लिए पूछा था और पानी भी पिलाया था आपको?"

"अगर ऐसा नहीं बोलता तो काकी तुम्हें और भी न जाने क्या क्या सुनाने लगती।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"और मैं भला ये कैसे चाह सकता था कि मेरी वजह से काकी तुम्हें कुछ कहे?"

"आप बैठिए मैं आपके लिए पानी ले कर आती हूं।" अनुराधा अपनी मुस्कान को जबरन दबाते हुए बोली और तेज़ी से बरामदे के दूसरे छोर पर रखे मटके की तरफ बढ़ ग‌ई। मुरारी काका के देहांत के बाद आज मैंने पहली बार अनुराधा के होठों पर मुस्कान को देखा था। उसके मुस्कुराते ही उसके दोनों गालों पर गड्ढे पड़ गए थे। पता नहीं उसमे ऐसी क्या बात थी कि मैं उसकी तरफ आकर्षित होने लगता था। हलांकि वो गांव की एक आम सी ही लड़की थी। रंग रूप बस हल्का सा ही साँवला था किन्तु सावले रंग में भी उसकी छवि ऐसी थी जो सीधा दिल पर उतर जाती थी। थोड़ी ही देर में वो लोटा और गिलास में पानी ले कर आई और मेरी तरफ गिलास को बढ़ा दिया। वो मेरे एकदम पास ही आ कर खड़ी हो गई थी और मेरी तरफ गिलास बढ़ा दिया था। इतने पास से जब मैंने उसके चेहरे को देखा तो मुझे उसके चेहरे पर हल्की सी लाली छाई हुई नज़र आई। वो लाली उसके शर्म की थी। मुझे अपनी तरफ एकटक देखता देख उसके चेहरे पर पसीने की बूंदे झलकती हुई नज़र आईं और उसके होठ थरथराते हुए दिखे।

मैंने उसके हाथ से गिलास पकड़ लिया तो वो दो क़दम पीछे हट ग‌ई। जैसे उसे डर हो कि अगर वो मेरे इतने क़रीब रहेगी तो उसे मैं खा जाऊंगा।

"वाह! कितना मस्त पानी है ये।" मैंने पानी से भरा पूरा गिलास खाली करने के बाद कहा____"ठंडा ठंडा पानी पेट में गया तो जैसे धधकता हुआ शोला एकदम से शांत हो गया।"

"जी वो घड़े का पानी ऐसे ही ठंडा रहता है।" अनुराधा ने कहा____"आपकी हवेली में तो माटी के ऐसे घड़े नहीं रखते होंगे न?"
"अरे! ऐसी बात नहीं है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"हवेली में भी माटी के घड़े होते हैं और सब उसका पानी भी पीते हैं। तुमने ऐसा क्यों कहा कि ऐसे घड़े हवेली में नहीं रखते होंगे?"

"जी वो मुझे लगा कि।" अनुराधा ने हड़बड़ाते हुए कहा___"आप बहुत बड़े लोग हैं इस लिए अपनी हवेली में ऐसे माटी के घड़े नहीं रखते होंगे।"
"अगर सच में नहीं रखते।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"तो यकीन मानो मैं यही कहता कि हमारे बड़े होने का क्या फायदा जब हम इतना ठंडा और शीतल जल पी ही नहीं सकते। उस हिसाब से तुम हमसे ज़्यादा बड़ी कहलाती।"

"अच्छा अब आप बैठिए।" अनुराधा ने मुझसे खाली गिलास ले कर कहा____"मैं थाली में खाना लगा देती हूं। अगर माँ ने मुझे आपसे बातें करते हुए देख लिया तो गुस्सा हो जाएगी।"

"तो मैं कह दूंगा काकी से कि मैंने ही तुम्हें बातों में उलझा रखा था।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अगर उन्हें गुस्सा होना है तो वो सिर्फ तुम पर ही नहीं बल्कि मुझ पर भी हों।"

मेरी ये बात सुन कर अनुराधा के होठों पर फिर से मुस्कान उभर आई किन्तु वो बोली कुछ नहीं बल्कि रसोई की तरफ बढ़ ग‌ई। अनुराधा से बात कर के मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा था और मेरा दिल कर रहा था कि मैं उससे पहरों बातें ही करता रहूं। शायद वो मेरे दिलो दिमाग़ में रफ़्ता रफ़्ता उतरती जा रही थी।

सरोज काकी नहा कर आई और फिर उसने कमरे में जा कर अपने कपड़े बदले। अनुराधा ने मेरे बैठने के लिए ज़मीन पर एक चादर बिछा दी थी और उसके सामने लकड़ी के पटे के साथ साथ लोटा और गिलास में पानी भी रख दिया था। काकी कमरे से बाहर आई और उसने मुझे खाना खाने के लिए बुलाया तो मैंने खटिया से उठ कर पहले बाल्टी में रखे पानी से अपने हाथ धोए और फिर जा कर बिछी हुई चादर में बैठ गया।

इस घर में मैं पहले भी न जाने कितनी ही बार खाना खा चुका था और अनुराधा के हाथ का बना हुआ खाना कितना स्वादिष्ट होता था ये मैं अच्छी तरह जानता था। हाथ में पानी लगा कर हाथ से पोई हुई रोटियां और भांटा का भरता मुझे सबसे ज़्यादा अच्छा लगने लगा था। हलांकि इस वक्त भांटा का भरता नहीं बना हुआ था। ख़ैर अनुराधा थाली ले कर आई और मेरे सामने ज़मीन पर रख दिया। थाली में चावल दाल और हाथ की पोई हुई रोटियां थी। थाली के एक कोने में कटी हुई प्याज और हरे मिर्च रखे हुए थे। पहले मैं मिर्ची नहीं खाता था किन्तु इस घर का भोजन करने के बाद धीरे धीरे मिर्ची भी खाने लगा था। मुरारी काका तो मिर्ची खाने के मामले में बहुत आगे थे। मैं अक्सर सोचा करता था कि मुरारी काका इतनी मिर्ची खाते हैं तो जब वो संडास जाते होंगे तब क्या उनकी गांड न जलती होगी?

मुझे सच में भूख लगी थी इस लिए पेट भर के खाना खाया। खाने के बाद अब मुझे अच्छा महसूस हो रहा था। हमेशा की तरह आज भी मैंने काकी से कहा कि अनुराधा बहुत अच्छा खाना बनाती है। मेरी बात सुन कर काकी खुश हो गई और अनुराधा के होठों पर भी मुस्कान उभर आई थी। खाने के बाद मैंने काकी से एक बार फिर कहा कि मैं सुबह गांव से दो लोगों को ले कर आऊंगा इस लिए वो कटाई की चिंता न करें। काकी से विदा ले कर मैं उनके घर से बाहर आ गया।

दोपहर तो गुज़र गई थी मगर अभी भी धूप तेज़ थी और अपने गांव तक पैदल जाना जैसे टेंढ़ी खीर ही था। आज अनुराधा से बात कर के मुझे बहुत अच्छा लगा था और मेरे मन से एक बोझ सा हट गया था। रूपचंद्र ने अनुराधा को मजबूर किया था कि वो मुझसे ऐसी बातें करे। हलांकि वैसी बातों से मेरा कुछ बिगड़ने वाला तो नहीं था किन्तु हां अनुराधा की नज़रों में मैं ज़रूर गिर जाने वाला था, बल्कि ये कहना चाहिए कि गिर ही गया था। आज अगर मुझे ये सब पता न चलता तो मैं आगे भी यही सोच कर दुखी ही रहता कि अनुराधा जैसी एक अच्छी लड़की मेरे हाथ से निकल गई और उसकी नज़र में मेरी कोई इज्ज़त नहीं रही।

आज रंगो का त्यौहार था और मेरे मन में अचानक से ही ये ख़याल आया कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं वापस जा कर अनुराधा को रंग गुलाल लगाऊं, मगर फिर मुझे मुरारी काका का ख़याल आ गया। उन्हें गुज़रे हुए अभी ज़्यादा समय नहीं हुआ था। हमारे यहाँ मान्यता है कि जब कोई इंसान मर जाता है तो उसके घर में सूदक हो जाता है और फिर नौ दिन बाद घर का शुद्धिकरण होता है। परिवार के हर मर्द और हर लड़के शुद्ध के दिन अपने सिर को मुंडवाते हैं। जब तक शुद्ध नहीं हो जाता तब तक दूसरे लोग उस घर के लोगों को नहीं छूते और ना ही उनके घर का भोजन पानी करते हैं। शुद्ध के बाद तेरहवें दिन मरने वाले की तेरवीं होती है और परिवार वाले अपनी क्षमता अनुसार सबको भोजन कराते हैं और तेरह ब्राम्हणों को दान दक्षिणा देते हैं। मुरारी काका के यहाँ शुद्ध हो चुका था और अगर ना भी हुआ होता तब भी मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था क्योंकि मैं इन सब चीज़ों को मानता ही नहीं था। ख़ैर मुरारी काका का ख़याल आ जाने से मैंने अनुराधा को रंग गुलाल लगाने का विचार त्याग दिया और आगे बढ़ चला।

रास्ते में मैं अनुराधा के बारे में ही सोच रहा था। फिर मुझे रूपचन्द्र का ख़याल आया तो मैं सोचने लगा कि कितना हरामी था साला और जाने कब से मेरा पीछा कर रहा था। शुक्र था कि उसने सरोज काकी से मेरे सम्बन्धों की बात मुरारी काका से नहीं बता दी थी वरना मुरारी काका से मैं नज़रें ही नहीं मिला पाता। ख़ैर आज जो कुछ हुआ था और जो कुछ मैंने देखा सुना था उससे ये तो पता चल गया था कि मेरी फसल में आग लगाने वाला रूपचन्द्र ही था किन्तु उसकी बातों से ये भी पता चला था कि मुरारी काका की हत्या उसने नहीं की थी। उसके अनुसार तो उसे खुद नहीं पता था कि मुरारी काका की हत्या किसने की होगी बल्कि जब उसे ये पता चला था कि जगन काका अपने बड़े भाई की हत्या का आरोप मुझ पर लगा रहा था तो उसे इस बात से ख़ुशी ही हुई थी और उसने इस बात का फायदा उठाते हुए वही किया था जो मेरे दुश्मन को मेरे साथ करना चाहिए था। ख़ैर अब सवाल ये था कि मुरारी काका की हत्या अगर रूपचन्द्र ने नहीं की थी तो किसने की होगी?

मैं एक ऐसा इंसान था जिसका हमेशा साहूकारों के लड़कों के साथ झगड़ा हो जाता था और उस झगड़े में साहूकारों के लड़के मेरे द्वारा पेल दिए जाते थे। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि साहूकारों ने मेरे निष्कासित कर दिए जाने का फायदा उठाया हो? उन्होंने मेरे चरित्र के बारे में सोच कर ही मुरारी की हत्या कर दी हो और मुझे उस हत्या में फंसा दिया हो? ऐसा होने की संभावना बहुत थी लेकिन सिर्फ सम्भावनाओं से कुछ नहीं हो सकता था बल्कि किसी भी चीज़ को साबित करने के लिए ठोस प्रमाण चाहिए था। मुरारी काका एक ऐसा इंसान था जो दारू या शराब भले ही पीता था मगर उसकी किसी से ऐसी दुश्मनी हरगिज़ नहीं थी कि कोई उसकी हत्या ही कर दे।

मेरे ज़हन में कई सारे सवाल थे जिनका जवाब मुझे चाहिए था। एक सवाल तो यही था कि पिछली शाम बगीचे में मिलने वाला वो साया कौन था और उसने दूसरे सायों से मेरी रक्षा क्यों की थी? उसे कैसे पता था कि मैं उस वक़्त बगीचे में था? क्या वो शुरू से ही मुझ पर नज़र रखे हुए था? अगर ऐसा था तो फिर उसने ये भी देखा होगा कि बगीचे में मैंने मुंशी की बहू रजनी के साथ सम्भोग किया था। इस ख़याल के उभरते ही मेरे बदन में एक अजीब सी झुरझुरी दौड़ ग‌ई। दूसरा सवाल ये था कि वो दूसरे साये कौन थे और उस वक़्त मुझे मारने क्यों आये थे? क्या वो मेरे जानी दुश्मन थे? पहले वाले साए को यकीनन ये पता था कि कोई मेरी जान का दुश्मन है इसी लिए वो उस वक़्त मेरे सामने आया था। अब सवाल ये है कि अगर उस साए को ये सब पता था तो उसने उन दोनों सायों को पकड़ा क्यों नहीं? उसने उनका पता क्यों नहीं लगाया? हलांकि उसने क्या किया होगा इसके बारे में भी फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता था। ख़ैर ऐसे कई सारे सवाल थे और मैंने सोच लिया था कि अब जब वो साया मुझे दुबारा मिलेगा तो मैं उससे ये सारे सवाल ज़रूर करुंगा और उससे इनके जवाब मागूंगा।

अपने गांव की सरहद पर आया तो देखा सड़क के दोनों तरफ खेतों में मजदूर फसल की कटाई में लगे हुए थे। हलांकि आज रंगो का त्यौहार था और हर कोई रंग खेलने में ही ब्यस्त होगा मगर इन मजदूरों के लिए जैसे कोई त्यौहार था ही नहीं। सड़क के दोनों तरफ हमारे ही खेत थे। मैं खेत की तरफ मुड़ कर एक मजदूर की तरफ बढ़ चला। कुछ ही पलों में जब मैं उस मजदूर के पास पंहुचा तो उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। मुझे पहचानते ही वो एकदम से खड़ा हो गया और फिर झुक कर मुझे सलाम किया।

"आज तो रंगो का त्यौहार है न काका?" मैंने उस मजदूर से कहा____"फिर तुम सब यहाँ खेतों की कटाई क्यों कर रहे हो? जाओ सब लोग और त्यौहार का आनंद लो।"
"हम सब लोग तो कल के दिन इस त्यौहार को मनाते हैं छोटे ठाकुर।" उस मजदूर ने कहा____"इसी लिए आज हम सब यहाँ खेतों में फसलों की कटाई कर रहे हैं। हलांकि दादा ठाकुर जी हम सबको आज के दिन छुट्टी दे रहे थे लेकिन जब हम लोगों ने उन्हें बताया कि हम लोग कल के दिन त्यौहार मनाएंगे तो वो बोले ठीक है फिर कल के दिन छुट्टी कर लेना।"

मुझे आया देख आस पास के बाकी मजदूर भी मेरे पास आ गए थे और मुझे झुक कर सलाम कर रहे थे। ख़ैर उस मजदूर की ये बात सुन कर मैंने उससे कहा कि ठीक है अगर ऐसी बात है तो फिर लगे रहो। तभी मेरे मन में सरोज काकी के खेतों की कटाई का ख़याल आया तो मैंने सोचा इन्हीं मजदूरों में से किन्हीं दो आदमियों को बोल देता हूं।

"अच्छा काका ये बताओ कि कल के दिन क्या तुम सब छुट्टी लोगे या कुछ लोग कटाई करने भी आएंगे यहाँ?" मैंने उस मजदूर से ये पूछा तो उसने कहा____"नहीं ऐसा तो नहीं है छोटे ठाकुर। कुछ लोग आज भी मनाते हैं ये त्यौहार इस लिए जो आज मनाते हैं वो आज यहाँ नहीं आये हैं बल्कि वो कल यहाँ आएंगे।"

"ठीक है फिर।" मैंने कहा____"मुझे कल के लिए तुमसे दो आदमी चाहिए काका। वो दो आदमी पास वाले गांव के मुरारी काका के खेत की कटाई करेंगे। तुम सबको तो पता चल ही गया होगा कि कुछ दिनों पहले मुरारी काका की किसी ने हत्या कर दी है। इस लिए ऐसे वक़्त में उनके घर वालों की मदद करना हमारा फ़र्ज़ है। पिछले चार महीने जब मैं निष्कासित किए जाने पर गांव से दूर उस बंज़र जगह पर रह रहा था तो मुरारी काका ने मेरी बहुत मदद की थी। इस लिए ऐसे वक़्त में अगर मैं उनकी और उनके परिवार की मदद न करूं तो बहुत ही ग़लत होगा।"

"आपने सही कहा छोटे ठाकुर।" एक दूसरे मजदूर ने कहा____"हर इंसान को एक दूसरे की मदद करनी ही चाहिए। हमें बहुत अच्छा लगा कि आप मुरारी की मदद करना चाहते हैं।"

"आप चिंता मत कीजिए छोटे ठाकुर।" पहले वाले मजदूर ने कहा____"मैं आज ही घर जा कर अपने दोनों बेटों को बोल दूंगा कि वो मुरारी के खेतों पर जा कर उसकी फसल की कटाई करें।"

"ठीक है काका।" मैंने कहा____"उन दोनों से कहना कि वो दोनों कल सुबह सुबह ही वह पहुंच जाएं। मैंने सरोज काकी को बोल दिया है कि मैं दो लोगों को कल सुबह उनकी फसल की कटाई के लिए भेज दूंगा।"

कुछ देर और इधर उधर की बातें करने के बाद मैं उन सभी मजदूरों से विदा ले कर वहां से चल दिया। अब मैं बेफिक्र था क्योंकि मुरारी काका के खेतों की कटाई के लिए मैंने दो लोगों को भेज देने का इंतजाम कर दिया था। कुछ ही देर में मैं मुंशी के घर के पास पहुंच गया। मैं जानता था कि मुंशी अपने बेटे रघुवीर के साथ इस वक़्त हवेली पर ही होगा। आज के दिन हवेली में बड़ा ही ताम झाम होता था। हवेली में भांग घोटी जाती थी और हर कोई भांग पी कर मस्त हो जाता था। उसके बाद हर कोई रंग गुलाल खेलता था और एक तरफ फाग के गीत होते थे जो निचली जाति वाले छोटी छोटी डिग्गियां बजाते हुए बड़ी ख़ुशी से गाते थे।

मुंशी के घर पहुंच कर मैंने दरवाज़े की कुण्डी को पकड़ कर बजाया तो कुछ ही देर में दरवाज़ा खुल गया। मेरे सामने मुंशी की बहू रजनी खड़ी नज़र आई। उसके चेहरे पर रंग गुलाल लगा हुआ था और कुछ रंग उसके कपड़ों पर भी लगा हुआ था। मैं समझ गया कि गांव का ही उसका कोई देवर यहाँ आया होगा और उसने उसके साथ रंग खेला होगा। मुझे देखते ही रजनी के सुर्ख होठों पर दिलकश मुस्कान उभर आई।

"क्या बात है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा_____"आज तो रजनी भौजी का चेहरा कुछ ज़्यादा ही लाल लाल हुआ नज़र आ रहा है।"
"वो तो नज़र आएगा ही।" रजनी ने बड़ी अदा से कहा____"आज हमारे कई देवर हमें रंग लगाने आये थे।"

"ये तो ग़लत बात है भौजी।" मैं भौजी इस लिए कह रहा था क्योंकि मुझे अंदेशा था कि प्रभा काकी अंदर कहीं पास में ही न हो और वो मेरी बातें सुन ले। ख़ैर मैंने आगे कहा_____"तुम पर तो सबसे पहला हक़ मेरा है। आख़िर मैं तुम्हारा सबसे अच्छा वाला देवर जो हूं और तुमने किसी ऐरे गैरे देवर से रंग लगवा लिया। रुको मैं काकी से शिकायत करता हूं इस बात की।"

मेरी बात सुन कर रजनी खिलखिला कर हंसते हुए एक तरफ हट गई तो मैं अंदर दाखिल हो गया। मैं अंदर आया तो रजनी ने दरवाज़ा अंदर से कुण्डी लगा कर बंद कर दिया। दरवाज़ा बंद कर के वो पलटी तो मैंने उसे फ़ौरन ही दबोच लिया मगर फिर जल्दी ही उसे छोड़ भी दिया। उसके कपड़ो में रंग गुलाल लगा हुआ था जो मेरे कपड़ों में लग सकता था और काकी जब मुझे देखती तो वो समझ जाती कि मैं उसकी बहू से लिपटा रहा होऊंगा। हलांकि इसकी संभावना कम ही थी।

"क्या हुआ छोटे ठाकुर?" रजनी ने हैरानी से कहा____"मुझे अपनी बाहों में भरने के बाद इतना जल्दी छोड़ क्यों दिया? अरे! चिंता मत कीजिए माँ जी अंदर नहीं हैं। वो थोड़ी देर पहले ही उनके(रघुवीर) साथ हवेली चली गई हैं। इस वक्त मैं घर पर अकेली ही हूं।"

"ऐसी बात है क्या।" मैंने खुश हो कर उसे फिर से अपनी बाहों में जकड़ लिया____"फिर तो आज तुझे पूरा नंगा कर के तेरे पूरे बदन में रंग लगाऊंगा।"
"मैं तो सोच ही रही थी कि काश ऐसे वक़्त में आप यहाँ होते।" रजनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"तो कितना मज़ा आता। ख़ैर लगता है भगवान ने मेरी फ़रियाद सुन ली है तभी तो आप आ ग‌ए हैं।"

"चल फिर अंदर।" मैंने रजनी को खुद से अलग करते हुए कहा____"मुझे क्या पता था कि तू इस वक़्त घर में अकेली होगी वरना मैं बहुत पहले ही आ जाता। ख़ैर कोई बात नहीं, अब जल्दी से अंदर चल मेरी जान। तुझे पूरा नंगा कर के पेलूंगा आज।"

मेरी बात सुन कर रजनी मुस्कुराते हुए अंदर की तरफ बढ़ चली। उसके पीछे पीछे मैं भी होठों पर मुस्कान सजाए चल पड़ा था। रजनी मेरे आने से बड़ा खुश हो गई थी और इस वक़्त वो अपने चूतड़ों को मटका मटका कर चल रही थी, जैसे मुझे इशारा कर रही हो कि मैं लपक कर उसके गोल गोल चूतड़ों को अपनी मुट्ठी में ले कर मसलने लगूं। मेरे लंड ने तो उसके चूतड़ों को देख कर ही अपना सिर उठा लिया था।

कुछ ही पलों में हम दोनों अंदर आँगन में आ ग‌ए। आँगन में जगह जगह रंग और गुलाल बिखरा पड़ा था। आँगन में एक तरफ खटिया रखी हुई थी। मैं आगे बढ़ कर उस खटिया में बैठ गया।

"चल अब पूरी तरह नंगी हो जा मेरी जान।" फिर मैंने रजनी की तरफ देखते हुए कहा____"आज खिली धूप में मैं तेरे नंगे बदन को देखूंगा और फिर मेरा जो मन करेगा वो करुंगा।"
"आज आपके इरादे मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहे छोटे ठाकुर।" रजनी ने मुस्कुराते हुए कहा तो मैंने कहा____"तुझ जैसी माल को देख कर किसी के भी इरादे ठीक नहीं हो सकते मेरी जान। चल अब देर न कर। जल्दी से अपने कपड़े उतार।"

"आप ही उतार दीजिए न।" रजनी ने अपने निचले होंठ को दांतों तले दबाते हुए मादक भाव से कहा____"फिर मैं आपके कपड़े उतारुंगी।"
"साली रांड मुझसे ही सब करवाएगी।" कहने के साथ ही मैं एक झटके से उठा और रजनी की साड़ी के पल्लू को पकड़ कर ज़ोर से खींचा तो रजनी घूमती हुई मेरे क़रीब आ गई।

"इतने उतावले क्यों हो रहे हैं छोटे ठाकुर?" रजनी ने हंसते हुए कहा____"प्यार से मेरे कपड़े उतारिए न।"
"मेरी मर्ज़ी।" मैंने पीछे से उसे पकड़ कर उसकी चूचियों को मुट्ठी में भरते हुए कहा____"मैं जैसे चाहे उतारुं। तुझे अगर कोई परेशानी है तो बोल।"

"मुझे भला क्या परेशानी होगी?" रजनी ने अपनी छातियों को मेरे द्वारा ज़ोर से मसलने पर सिसकी लेते हुए कहा____"वैसे मेरी ननद कोमल भी अगर यहाँ होती तो क्या करते आप?"
"तो तुझे पता है सब?" मैंने उसके ब्लॉउज के बटन खोलते हुए कहा तो उसने मुस्कुराते हुए कहा____"इश्क़ और मुश्क कभी छुपता है क्या? हलांकि पहले मुझे शक नहीं हुआ था मगर फिर एक दिन कोमल को पकड़ ही लिया मैंने।"

"क्यों, कैसे पकड़ लिया था तूने?" मैंने उसके ब्लॉउज को उसके बदन से अलग करते हुए कहा तो उसने कहा____"जब भी आप यहां आते थे तब वो आपको देख कर वैसे ही मुस्कुराने लगती थी जैसे कभी मैं आपको देख कर मुस्कुराने लगती थी। मैं समझ गई कि आपका जादू मेरी भोली भाली ननद रानी पर चल गया है। एक दिन जब घर में कोई नहीं था तो मैंने कोमल से साफ शब्दों में पूछ ही लिया कि उसका आपके साथ क्या चक्कर चल रहा है? मेरी ये बात सुन कर पहले तो वो बुरी तरह घबरा गई थी फिर जब मैंने उसे दिलासा दिया कि मैं उसे इस बारे में कुछ नहीं कहूंगी तो उसने शर्माते हुए मुझे बता ही दिया कि आप उसे बहुत अच्छे लगते हैं।"

"फिर क्या कहा तूने?" मैंने रजनी की नंगी चूचियों को मसलते हुए पूछा तो वो मज़े से सिसकी लेते हुए बोली____"मैंने तो उससे यही कहा कि ज़रा सम्हल कर छोटे ठाकुर के हथियार को पकड़ना। कहीं ऐसा न हो कि उनका हथियार तुम्हारी छोटी सी मुनिया को फाड़ कर भोसड़ा ही बना दे।"

रजनी की ये बात सुन कर मेरे पैंट के अंदर कच्छे में कैद मेरा लंड फनफना कर खड़ा हो गया और कच्छे से बाहर आने के लिए बेताब हो गया। मैंने अपने लंड को रजनी के चूतड़ों में रगड़ते हुए कहा____"अच्छा फिर क्या कहा उसने?"

"वो क्या कहती?" रजनी ने अपने चूतड़ों को मेरे लंड पर घिसते हुए कहा____"मेरी बात सुन कर बेचारी बुरी तरह शर्मा गई थी। जब मैंने उसे छेड़ा तो उसने लजाते हुए बस इतना ही कहा कि भौजी तुम बहुत गन्दी हो।"

"वैसे कब आ रही है वो?" मैंने रजनी की साड़ी को उसके जिस्म से अलग करते हुए कहा तो उसने कहा____"जल्दी ही आएगी छोटे ठाकुर। लगता है कि आपका मोटा लंड उसकी नाज़ुक सी बुर के अंदर जाने के लिए मरा जा रहा है।"
"वो तो अभी भी मरा जा रहा है।" मैंने रजनी के पेटीकोट का नाड़ा खोला तो वो सरक कर ज़मीन पर गिर गया। अब रजनी पूरी तरह से नंगी हो चुकी थी। मैंने उसके नंगे बदन को देखते हुए कहा____"चल अब जल्दी से मेरे कपड़े भी उतार। आज तो तुझे पूरे आँगन में लोटा लोटा के चोदूंगा।"

मेरी बात सुन कर रजनी मुस्कुराते हुए मेरे कपड़े उतारने लगी। जल्द ही मैं भी उसकी तरह पूरा नंगा हो गया। मेरी टांगों के बीच मेरा लंड पूरी तरह अपने रूप में था और आसमान की तरफ अपना सिर उठाए सावधान की मुद्रा में खड़ा था। रजनी की जब उस पर नज़र पड़ी तो वो झट से नीचे बैठ गई और मेरे लंड को अपने नाज़ुक हाथ में ले कर सहलाने लगी। रजनी के द्वारा लंड सहलाए जाने से अभी मुझे मज़ा आने ही लगा था कि तभी बाहर का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया। दरवाज़ा खटखटाया गया तो हम दोनों बुरी तरह उछल पड़े। रजनी के चेहरे का तो रंग ही उड़ गया। चेहरे पर घबराहट लिए वो मेरी तरफ देखने लगी तो मैंने उसे होश में लाते हुए उससे जल्दी से अपने कपड़े पहनने को कहा और खुद भी जल्दी जल्दी अपने कपड़े पहनने लगा। अचानक रंग में भंग पड़ जाने से मेरा दिमाग़ बुरी तरह भन्ना गया था किन्तु अब मैं कुछ कर भी नहीं सकता था।

जितना जल्दी हो सकता था हम दोनों ने फटाफट अपने अपने कपड़े पहन लिए थे। इस बीच दरवाज़ा दो बार और खटखटाया जा चुका था। रजनी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रहीं थी और डर व घबराहट से उसका बुरा हाल हुआ जा रहा था। हालत तो मेरी भी ख़राब हो गई थी किन्तु फिर भी मैं खुद को सम्हाले हुए था। मैं सोचता जा रहा था कि कौन हो सकता है बाहर? दरवाज़े के बाहर यदि प्रभा काकी हुई तब तो मुझे कोई डर या समस्या नहीं होगी, क्योंकि प्रभा काकी को मैं आसानी से इस सबके लिए मना लूंगा। इसके विपरीत अगर मुंशी या उसका बेटा रघुवीर हुआ तब तो हम दोनों के लिए बड़ी समस्या वाली बात हो जानी थी क्योंकि जब वो देखते कि अकेले घर में उनकी बहू या पत्नी के साथ मैं हूं तो वो ज़रूर यही सोचेंगे कि हम कुछ ग़लत ही कर रहे थे। वो दोनों मेरे चरित्र के बारे में अच्छी तरह जानते थे। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब हमें इस समस्या से कैसे छुटकारा मिले?

रजनी कपड़े पहन कर दरवाज़ा खोलने के लिए बाहर चली गई थी। मैंने उसे समझा दिया था कि वो अपने चेहरे से डर व घबराहट के भावों को मिटा ले वरना उसे देख कर सामने वाला फौरन ही ताड़ लेगा कि अंदर वो कुछ गड़बड़ कर रही थी। रजनी के जाने के बाद मैं कोई ऐसी जगह खोजने लगा था जहां पर मैं खुद को इस तरह से छुपा सकूं कि मुझ पर आने वाले की नज़र न पड़ सके। जल्दी ही मुझे एक जगह नज़र आई। आँगन के दूसरी तरफ एक कमरा था जिसमे घर के पुराने कपड़े और गद्दे रजाई वग़ैरा रखे हुए थे। मैं तेज़ी से उस कमरे की तरफ बढ़ा और दरवाज़ा खोल कर उसके अंदर घुस गया। साला क्या मुसीबत थी? मेरे जैसा इंसान जो किसी के बाप से भी नहीं डरता था वो इस वक़्त ऐसी परिस्थिति में डर के मारे खुद को इस तरह से छुपाये हुए था।

कुछ देर में रजनी वापस आई तो उसके साथ में गांव की एक औरत और एक लड़की थी। मैं दरवाज़े को हल्का सा खोल कर उन तीनों को देख रहा था। आने वाली औरत और वो लड़की रजनी को रंग लगाने आई थी। वो दोनों खुद भी रंग में नहाई हुईं थी।

"मैं तो ये सोचने लगी थी कि तू रघू के साथ अंदर चुदाई में लगी हुई है।" उस औरत ने मुस्कुराते हुए रजनी से कहा____"इसी लिए दरवाज़ा नहीं खोल रही थी।"
"आप भी न दीदी।" रजनी ने शर्माने का नाटक करते हुए कहा____"मैंने बताया तो है आपसे कि सब लोग हवेली गए हुए हैं। मैं तो अंदर गंदे पड़े कपड़े समेट रही थी ताकि नहाते समय उन्हें धो डालूं।"

"अच्छा चल छोड़ इस बात को।" उस औरत ने कहा____"ये रानी तुझे रंग लगाने आई है। मुझसे कह रही थी कि रजनी भौजी के घर जा कर उनको रंग लगाऊंगी। अकेले आने से ये सोच कर डर रही थी कि गांव का कोई आवारा लड़का रास्ते में इसे दबोच न ले और इसके कुर्ते के अंदर हाथ डाल इसकी चूचियों को मसलते हुए रंग न लगा दे।"

"कितनी बेशरम हो भौजी।" रानी ने उस औरत की बांह पर हल्के से मारते हुए कहा____"कुछ भी बोल देती हो तुम। किसी की मजाल है जो ऐसे रंग लगा देगा मुझे।"
"मजाल की बात मत कर मेरी ननद रानी।" उस औरत ने कहा____"इस गांव में एक ऐसा इंसान है जिसमे इतनी मजाल है कि वो किसी के भी घर में घुस कर किसी की भी लड़की या औरत को चोद सकता है।"

"कहीं तुम दादा ठाकुर के लड़के वैभव की तो बात नहीं कर रही हो?" रानी ने कहा तो वो औरत मुस्कुराते हुए बोली____"लगता है तुम्हें भी पता है उसके बारे में। मैंने सुना है कि उसका लंड बहुत मोटा और लम्बा है। हाए! रजनी काश ऐसा लंड मेरी बुर को भी नसीब हो जाए।"

उस औरत की बात सुन कर जहां रजनी और रानी दोनों ही उस औरत को हैरत से देखने लगीं थी वहीं मैं मन ही मन अपने लंड की तारीफ़ सुन कर खुश हो गया था। वो लड़की रानी न होती तो मैं इसी वक्त कमरे से निकल कर उस औरत के पास जाता और अपना लंड उसके हाथ में देते हुए कहता____'भगवान ने तेरी इच्छा कबूल कर ली है। इस लिए तेरी बुर के लिए हाज़िर है मेरा मोटा तगड़ा लंड।'

"सुन रही हो न भौजी?" रानी ने रजनी से कहा____"मेरी ये भौजी क्या कह रही है।"
"हां सुन रही हूं रानी।" रजनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"लगता है दीदी की बुर उस मोटे लंड से चुदने के लिए कुछ ज़्यादा ही तड़प रही है।"

"तू सही कह रही है रजनी।" उस औरत ने मानो आहें भरते हुए कहा____"सच में मेरी बुर उसका मोटा लंड लेने के लिए तड़प रही है। जब से मैंने सुना है कि दादा ठाकुर के उस लड़के का लंड ऐसा ग़ज़बनाक है तब से दिन रात यही सोचती रहती हूं कि क्या सच में उसका लंड ऐसा ही होगा? अगर ऐसा ही है तब तो मेरी भी आंसू बहाती हुई बुर के नसीब में वैसा लंड एक बार तो होना ही चाहिए। अच्छा सुन, तू ये बात किसी से कहना मत वरना लोग पता नहीं मेरे बारे में क्या क्या सोचने लगेंगे। मैंने ये बात सिर्फ तुझे बताया है और वो भी इस लिए कि तेरे घर पर दादा ठाकुर का वो लड़का आता रहता है। इस लिए तुझे भी उसके बारे में ये बात पता होनी चाहिए।"

"मुझे क्यों पता होनी चाहिए दीदी?" रजनी ने हैरान होने का नाटक किया____"भला मुझे इससे क्या लेना देना?"
"अरे! मेरी भोली भाली देवरानी।" उस औरत ने मुस्कुराते हुए रजनी से राज़दाराना अंदाज़ में कहा____"तुझे इस लिए पता होनी चाहिए ताकि तू भी उस लड़के के मोटे लंड को अपनी बुर में डलवाने का सोच सके। तू अभी जवान है और सुंदर भी है। मैंने सुना है कि वो तेरी जैसी जवान औरतों को जल्दी ही अपने जाल में फांस लेता है। वो तेरे घर आता ही रहता है इस लिए तू खुद ही उसे अपने रूप जाल में फांस ले और फिर उसके मोटे लंड के मज़े ले। उसके बाद तू मुझे भी उसका वो मोटा लंड दिलवा देना। तेरे साथ साथ मेरा भी भला हो जाएगा रे।"

"हे भगवान! अब बस भी करो भौजी।" रानी ने अपने माथे पर ज़ोर से हाथ मारते हुए कहा____"अगर तुम सच में ये सब करने की फ़िराक में हो न तो सोच लो, मैं भैया को बता दूंगी ये सब।"

"तू क्या बताएगी अपने भैया को?" उस औरत ने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या ये कि उनकी बीवी दादा ठाकुर के उस लड़के का मोटा लंड अपनी बुर में लेने का सोच रही है? अगर ऐसे ही बताएगी तो जा बता दे। उस लड़के के उस मोटे लंड से चुदने के लिए मैं तेरे भैया की गाली और मार भी सह लूंगी।"

कमरे के दरवाज़े पर खड़ा मैं ये सब सुन कर मन ही मन हंस रहा था और ये भी सोच रहा था कि मेरे लंड के चर्चे तो बड़ी दूर दूर तक हैं वाह क्या बात है। ख़ैर उस औरत की ये बात सुन कर रानी नाम की वो लड़की नाराज़ हो गई जिससे वो औरत हंसते हुए बोली कि वो तो ये सब मज़ाक में कह रही थी। उसके बाद तीनों ने एक दूसरे को रंग लगाया और फिर कुछ देर बाद चली गईं। रजनी जब वापस आई तो मैं भी कमरे से निकल कर आँगन में आ गया।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 21
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अब तक,,,,,

"तू क्या बताएगी अपने भैया को?" उस औरत ने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या ये कि उनकी बीवी दादा ठाकुर के उस लड़के का मोटा लंड अपनी बुर में लेने का सोच रही है? अगर ऐसे ही बताएगी तो जा बता दे। उस लड़के के उस मोटे लंड से चुदने के लिए मैं तेरे भैया की गाली और मार भी सह लूंगी।"

कमरे के दरवाज़े पर खड़ा मैं ये सब सुन कर मन ही मन हंस रहा था और ये भी सोच रहा था कि मेरे लंड के चर्चे तो बड़ी दूर दूर तक हैं वाह क्या बात है। ख़ैर उस औरत की ये बात सुन कर रानी नाम की वो लड़की नाराज़ हो गई जिससे वो औरत हंसते हुए बोली कि वो तो ये सब मज़ाक में कह रही थी। उसके बाद तीनों ने एक दूसरे को रंग लगाया और फिर कुछ देर बाद चली गईं। रजनी जब वापस आई तो मैं भी कमरे से निकल कर आँगन में आ गया।

अब आगे,,,,,



"कौन थी वो लंड की इतनी प्यासी औरत?" मैंने रजनी से मुस्कुराते हुए पूछा____"बड़ी आग लगी थी उस बुरचोदी की बुर में।"
"गांव की ही थी वो।" रजनी ने हंसते हुए कहा____"सरला नाम है उसका। मुझे देवरानी के साथ साथ अपनी अच्छी सहेली भी मानती है। शाम सुबेरे जब मैं दिशा मैदान को जाती हूं तो वो भी किसी किसी दिन मिल जाती है मुझे। वैसे तो वो यहाँ घर में भी आती रहती है लेकिन माँ जी के सामने वो मुझसे ज़्यादा खुल कर बात नहीं कर पाती।"

"अगर उसे इतनी ही आग लगी थी तो तुझे बता देना था न उसे।" मैंने कहा____"कि जिसके लंड के लिए वो इतना तड़प रही है वो यहीं मौजूद है। फिर तू भी देखती कि कैसे मैं उसकी बुर की आग को शांत करता।"

"उसकी ननद रानी थी न साथ में।" रजनी ने कहा___"इस लिए कुछ नहीं हो सकता था। अगर रानी साथ में न होती तो मैं ज़रूर उसे बता देती कि आप यहीं पर हैं।"

"ख़ैर माँ चुदाए वो।" मैंने रजनी को पीछे से पकड़ कर उसकी छाती को मसलते हुए कहा___"मुझे लगता है कि तेरे यहाँ कोई न कोई आता ही रहेगा जिसकी वजह से हमारा चुदाई का कार्यक्रम अच्छे से नहीं हो पाएगा इस लिए हम जल्दी जल्दी ही अपना कार्यक्रम कर लेते हैं...क्या बोलती है?"

रजनी ने मेरी बात सुन कर मुस्कुराते हुए हां में सिर हिलाया और मेरा पैंट खोलने लगी। थोड़ी ही देर में वो मेरा लंड अपने मुँह में भर कर चूस रही थी। कुछ देर अपना लंड चुसवाने के बाद मैंने उसे घोड़ी बनाया और अपना लंड उसकी बुर में डाल कर दे दनादन धक्के लगाने लगा। मेरे ज़बरदस्त धक्कों की बाढ़ को रजनी ज़्यादा देर तक सहन न कर सकी और झड़ कर निढाल हो गई। उसके निढाल होने के बाद भी मैं तब तक लगा रहा जब तक कि मैंने ये महसूस नहीं कर लिया कि मेरा भी पानी निकलने वाला है। जैसे ही मुझे लगा कि अब मेरा पानी निकलने वाला है तो मैंने उसकी बुर से अपना लंड निकाल लिया। रजनी भी समझ गई थी इस लिए वो पलट कर जल्दी से मेरी तरफ अपना मुँह खोल कर बैठ गई। मैंने लंड को मुठियाते हुए कुछ ही पलों में अपना पानी उसके खुले हुए मुख में उड़ेल दिया जिसे वो बड़े चाव से सारा का सारा ही निगल गई।

रजनी के साथ चुदाई का कार्यक्रम निपटाने के बाद मैंने अपने कपड़े पहने और उसके घर से बाहर आ गया। मैं अब उसके घर में रुकना नहीं चाहता था क्योंकि किस्मत से एक बार बच गया था इस लिए अब मैं उसके घर से निकल लिया था।

रजनी के घर से बाहर तो आ गया किन्तु अब मैं ये सोचने लगा कि कहां जाऊं? हवेली मैं जाना नहीं चाहता था और यहाँ कहीं रुकने के लिए कोई ढंग का ठिकाना नहीं था। तभी मेरे मन में रूपा का ख़याल आया और साथ ही ये भी याद आया कि मुझे उसके द्वारा ही ये पता करना है कि उसके घर वाले हम ठाकुरों के बारे में कैसी बातें करते हैं और आज कल वो किस फ़िराक में हैं? मुझे उम्मीद थी कि रूपा मुझे इस बारे में ज़रूर कुछ न कुछ बताएगी लेकिन समस्या ये थी कि मैं रूपा तक पहुँचू कैसे? क्या रूपा से मिलने के लिए मुझे रात होने का इंतज़ार करना चाहिए? उसके घर में मैं उससे रात के वक़्त पर ही मिला करता था। पिछले चार महीने से मेरी उससे कोई मुलाक़ात नहीं हुई थी इस लिए अब मैं भी उससे मिलना चाहता था।

ये सब सोचते हुए मैं मुंशी के घर से काफी दूर आ गया था। यहाँ से साहूकारों के घर दिखने लगे थे। अभी मैं मोड़ पर आया ही था कि सामने से एक बग्घी आती हुई दिखी। बग्घी को देखते ही मैं समझ गया कि हवेली से कोई न कोई उसमे बैठ कर आ रहा है। बग्घी में जगताप चाचा जी थे और उनके साथ एक हत्ता कट्टा आदमी भी था जो बग्घी चला रहा था। जगताप चाचा जी की नज़र मुझ पर पड़ चुकी थी इस लिए मैं अब उनसे छुप नहीं सकता था।

"शुकर है कि तुम मिल ग‌ए।" जगताप चाचा जी ने मेरे पास बग्घी को रुकवाते हुए कहा____"काफी समय से हम खोज रहे थे तुम्हें। कहां गायब हो गए थे तुम?"
"मेरे जैसे बुरे इंसान को क्यों खोज रहे थे आप?" मैंने सपाट भाव से कहा____"भला एक ग़ैर जिम्मेदार लड़के से क्या काम हो सकता है किसी को?"

"तुम लाख बुरे सही वैभव।" जगताप चाचा जी ने कहा_____"मगर हम जानते हैं कि तुम्हारे अंदर भी कहीं न कहीं अच्छाई मौजूद है। ये अलग बात है कि तुम सब कुछ जानने समझने के बावजूद अपनी उस अच्छाई को हमेशा दबाते रहते हो। ख़ैर हम तुम्हें इस लिए खोज रहे थे ताकि तुम्हें अपने साथ वापस हवेली ले चलें। आज इतना बड़ा त्यौहार है और सबके बीच तुम नहीं हो तो ज़रा भी अच्छा नहीं लग रहा। इस लिए तुम्हें हमारे साथ वापस हवेली चलना होगा।"

"मैं अब उस हवेली में कभी क़दम नहीं रखूंगा चाचा जी।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"मुझे अपने ऊपर शासन ज़माने वाले लोग बिलकुल पसंद नहीं हैं। वैसे भी हवेली का कोई सदस्य ये नहीं चाहता कि मैं हवेली में रहूं। मैं मूर्ख नहीं हूं चाचा जी कि इतना भी न समझ पाऊं कि कौन मेरे बारे में क्या सोचता है? इससे अच्छा तो यही है कि मैं उन लोगों की नज़रों से दूर ही रहूं जिन्हें मैं पसंद नहीं हूं और जो ये चाहते हैं कि मैं हवेली में न रहूं।"

"तुम बेवजह ही ये सब सोच रहे हो वैभव।" जगताप चाचा जी ने कहा____"हवेली में सब चाहते हैं कि तुम हवेली में ही रहो और अपनी जिम्मेदारी के अनुसार हर कार्य करो। दूसरी बात ये है कि इस दुनिया में हर घर में किसी न किसी से किसी की थोड़ी बहुत अनबन रहती ही है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इंसान को उस अनबन को ले कर मुँह फुला बैठ जाना चाहिए, बल्कि अगर किसी से कोई अनबन है तो उसे ठंडे दिमाग़ से बात कर के सुलझा लेना चाहिए। तुम खुद सोचो कि जिनसे भी तुम्हारी किसी तरह की अनबन है उनसे इस तरह दूर जा कर क्या तुम उस अनबन को दूर कर लोगे? क्या दूर चले जाने से तुम्हारे ज़हन से अनबन वाली बात निकल जाएगी? नहीं वैभव, दिल में जब किसी प्रकार का रंज़ या गिला होता है न तो वो तब तक दिल से नहीं निकलता जब तक कि उसका उचित रूप से समाधान न किया जाए। तुम हवेली से दूर चले जाओगे तो उनका क्या बिगड़ेगा जिनसे तुम्हारी अनबन है, बल्कि तुम भी इतना समझते ही होंगे कि इस तरह में उन्हें ख़ुशी ही मिलेगी। अब सवाल ये है कि क्या तुम ऐसा ही चाहते हो या फिर जिनसे भी तुम्हारी अनबन है उनसे अपनी इस अनबन को दूर कर के फिर से एक बेजोड़ रिश्ता बनाओगे? वैभव, तुम अभी जवानी के दौर से गुज़र रहे हो और यकीन मानो इस दौर में अक्सर लड़के और लड़कियां सही रास्ते से भटक जाते हैं। वो अक्सर यही सोचने लगते हैं कि वो जो कुछ भी कर रहे हैं वो सब सही है और बाकी दूसरे लोग जो कुछ उसे कह रहे होते हैं वो सब ग़लत है। इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है बल्कि ये सब जवानी की इस उम्र का ही प्रभाव होता है। इस लिए इंसान को चाहिए कि वो जो भी कार्य करे उसे बहुत ही सोच समझ कर करे और उसके अच्छे बुरे परिणामों के बारे में सोच कर करे।"

"ठीक है चाचा जी।" मैंने कहा____"आप मुझे लेने आए हैं तो मैं ज़रूर आपके साथ हवेली चलूंगा लेकिन आपको भी मेरी एक बात माननी पड़ेगी।"
"हमने हमेशा तुम्हें अपने बेटे की तरह ही प्यार दिया है वैभव।" जगताप चाचा जी ने संजीदा भाव से कहा____"जब तुम छोटे थे तो हवेली में सबसे ज़्यादा तुम हमारे ही लाडले थे और आज भी हो। ये अलग बात है कि अब तुम बड़े हो गए हो इस लिए तुम सिर्फ वही करते हो जो तुम्हें अच्छा लगता है। कभी इस सबसे निकल कर हम सबके बारे में सोचोगे तो शायद तुम्हें एहसास होगा कि आज भी हमारे दिल में तुम्हारी वही जगह है जो पहले हुआ करती थी। ख़ैर छोड़ो इस बात को और ये बताओ कि हमें तुम्हारी कौन सी बात माननी पड़ेगी? हम तुमसे वादा करते हैं वैभव बेटा कि तुम्हारी हर वो बात मान लेंगे जो सही और उचित होगी।"

"मैंने मुंशी जी से कहा था और अब आपसे भी कहता हूं।" मैंने कहा____"कि जिस जगह पर मैंने अपने पिछले चार महीने भारी कस्ट में गुज़ारने हैं उस जगह पर मेरे लिए एक छोटा सा मकान बनवा दीजिए। मैं हवेली में हर वक़्त नहीं रह सकता चाचा जी क्योंकि वहां पर मुझे घुटन होती है। आप ये मत समझिए कि मैं उस जगह पर अपने लिए वो मकान अपनी अय्याशियों के लिए बनवाना चाहता हूं बल्कि इस लिए बनवाना चाहता हूं ताकि शांत और अकेली जगह पर अपने लिए सुकून पा सकूं। बदले में मैं भी आपसे वादा करता हूं कि मुझसे जो बन सकेगा मैं हवेली के काम काज करुंगा।"

"अगर तुम ऐसा चाहते हो तो ठीक है वैभव।" जगताप चाचा जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"हम दादा ठाकुर से इस बारे में बात करेंगे।"
"बात करने में वक़्त रायगा मत कीजिए चाचा जी।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"मैंने मुंशी जी से कहा था कि आज रंगो का त्यौहार होने के बाद कल से उस जगह पर मेरे लिए मकान का निर्माण कार्य शुरू हो जाना चाहिए।"

"ऐसा ही होगा वैभव।" जगताप चाचा जी ने कहा____"अगर तुम ये चाहते हो कि कल ही वहां पर मकान का निर्माण कार्य शुरू हो तो कल ही शुरू हो जाएगा। दादा ठाकुर से बात करने के लिए इस लिए कहा हमने कि उन्हें इस बारे में बताना हम अपना फ़र्ज़ समझते हैं। तुम तो अच्छी तरह जानते हो कि उनकी जानकारी और उनकी इजाज़त के बिना हम में से कोई भी कुछ नहीं करता। मकान का निर्माण कार्य कल से ही शुरू हो जाएगा। दादा ठाकुर इसके लिए मना नहीं करेंगे।"

जगताप चाचा जी की बात सुन कर मैंने सिर हिला दिया तो उन्होंने बग्घी में बैठने के लिए मुझसे कहा। मैं चुप चाप गया और बग्घी में चढ़ कर बैठ गया। बग्घी के आगे वो हट्टा कट्टा आदमी घोड़ों की लगाम पकड़े बैठा था। मेरे बैठते ही चाचा जी ने उस आदमी से वापस हवेली चलने को कहा तो उसने लगाम को हरकत दी तो घोड़े चल पड़े।

सारे रास्ते जगताप चाचा मुझसे कुछ न कुछ कहते रहे और मैं बस सुनता रहा। कुछ ही देर में बग्घी हवेली में पहुंच कर रुकी तो मैं और चाचा जी बग्घी से उतर कर नीचे आ ग‌ए।

हवेली के विशाल मैदान में गांव के काफी सारे लोग जमा थे। जिनमे शाहूकार भी थे। वो सब रंग गुलाल खेल रहे थे और भांग के नशे में झूम रहे थे। हवेली के एक तरफ निचली जाती वाले फाग गाने में ब्यस्त थे। दूसरी तरफ बड़े बड़े मटको में घोटी हुई भांग रखी हुई थी जिसे हवेली के कर्मचारी लोगों को गिलास में भर भर कर दे रहे थे। पूरे मैदान में रंग बिखरा हुआ था। एक तरफ ऊंची जगह पर बड़ा सा सिंहासन रखा था जिसमे मेरे पिता यानी दादा ठाकुर बैठे हुए थे और फाग का आनंद ले रहे थे। उनके चेहरे पर भी रंग और गुलाल लगा हुआ था जोकि यकीनन साहूकारों ने ही लगाया होगा। वातावरण में एक शोर सा गूँज रहा था। हवेली में हर साल होली के दिन ऐसा ही होता था किन्तु इस साल शाहूकार भी शामिल थे इस लिए ताम झाम कुछ ज़्यादा ही नज़र आ रहा था।

मैं और जगताप चाचा जी बग्घी से उतर कर हवेली के अंदर जाने वाले दरवाज़े की तरफ बढ़ चले। उस दरवाज़े के बगल से ही मंच बनाया गया था जिसमे सिंघासन पर दादा ठाकुर बैठे हुए थे और उनके बगल से कुछ कुर्सियों पर शाहूकार मणिशंकर और हरिशंकर बैठे हुए थे, जबकि उसके दो छोटे भाई मंच के नीचे उस जगह पर थे जहां पर दूसरे गांव के कुछ ठाकुर लोग बात चीत में लगे हुए थे।

जगताप चाचा मंच पर ग‌ए और दादा ठाकुर के कान के पास मुँह ले जा कर कुछ कहा तो उनकी नज़र मुझ पर पड़ी। जैसे ही उन्होंने मेरी तरफ देखा तो मैंने नज़र हटा कर दूसरी तरफ कर ली। बड़े से मैदान में रंग बिरंगे लोग नज़र आ रहे थे। तभी मेरी नज़र साहूकारों के लड़कों पर पड़ी। उनके साथ में मेरे बड़े भाई साहब और जगताप चाचा जी के दोनों लड़के भी थे। वो सब भांग के नशे में झूम रहे थे। सब के सब रंगो से रंगे हुए थे। कुछ देर तक मैं भीड़ में हर चेहरे को देखता रहा उसके बाद पलट कर हवेली के अंदर चला गया।

हवेली के अंदर एक बड़ा सा आँगन था। आँगन के चारो तरफ हवेली की ऊँची ऊँची दीवारें थी। आँगन इतना बड़ा था कि उसमे कम से कम पांच सौ आदमी बड़े आराम से समा सकते थे। उस आँगन के बीचो बीच एक बड़ी सी बेदी बनी हुई थी जिसमे तुलसी का पौधा लगा हुआ था। इस वक़्त आँगन में काफी सारी औरतें और लड़कियां थी जिनके चेहरे और कपड़े रंगों में साने हुए थे। साहूकारों के घर की औरतों को मैं पहचानता था। वो सब भी इस वक़्त यहीं पर थीं। तभी मेरी नज़र एक ऐसी औरत पर पड़ी जो मुझे ही देखे जा रही थी। मैंने उसे ध्यान से देखा तो मैं हल्के से चौंका। ये तो वही औरत थी जो मुंशी के घर में उस वक़्त आई थी। मुंशी की बीवी प्रभा भी थी। उस औरत को देखने के बाद मैं पलटा और अपने कमरे की तरफ बढ़ चला।

कमरे में आ कर मैंने अपने कपड़े उतारे। कल से यही कपडे पहने हुए था इस लिए मैंने सोचा कि इन्हें उतार कर दूसरे कपड़े पहन लेता हूं। कमरे का पंखा चालू कर के मैं बिस्तर पर लेट गया। इस वक़्त मेरे ज़हन में जगताप चाचा जी की बातें ही चलने लगीं थी। उन्होंने मुझसे वादा किया था कि वो कल से मेरे लिए उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा देंगे। इधर मैंने भी उनसे वादा किया था कि मैं हवेली के काम काज पर ध्यान दूंगा।

हवेली में न रहने की कई वजहें थी जिनमे से एक वजह यही थी कि अगर मैं हवेली में रहा तो रागिनी भाभी से मेरा सामना होता ही रहेगा और वो मुझसे बातें करेंगी। उन्हें देख कर मैं उनके रूप सौंदर्य पर आकर्षित होने लगता था। मैं ये किसी भी कीमत पर नहीं चाहता था कि मेरी नीयत मेरे घर की किसी महिला पर ख़राब हो। इस लिए मैं हवेली से दूर ही रहना चाहता था। दूसरी वजह ये थी कि मेरे भाइयों का बर्ताव मेरे प्रति बदल गया था। वो तीनों ही मुझे नज़रअंदाज़ करते थे जिसकी वजह से मेरे अंदर गुस्सा भरने लगता था और मैं नहीं चाहता था कि किसी दिन मेरा ये गुस्सा उन तीनों में से किसी पर क़हर बन कर बरस जाए। तीसरी वजह ये थी कि मैं ये हरगिज़ भी पसंद नहीं करता था कि हवेली का कोई भी सदस्य मुझ पर हुकुम चलाए। अपने ऊपर किसी की भी बंदिश मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं थी।

"आ गया मेरा बेटा।" कमरे में माँ की आवाज़ गूँजी तो मैं ख़यालों की दुनिया से वापस आया और माँ की तरफ देखा, जबकि उन्होंने आगे कहा____"कल शाम को क्यों नहीं आया था तू?"

"ऐसा तो हो नहीं सकता कि आपको मेरे यहाँ न आने की वजह का पता ही न चला हो।" मैंने बिस्तर पर उठ कर बैठते हुए कहा तो उन्होंने कहा____"हां पता है लेकिन मैं हैरान इस बात पर हूं कि तू अपने पिता जी से इतनी कठोर बातें कैसे कर लेता है? तू ऐसा क्यों समझता है कि हम सब तेरे दुश्मन हैं?"

"क्या आप चाहती हैं कि मैं फिर से यहाँ से चला जाऊं?" मैंने सपाट लहजे में कहा____"और अगर ऐसा नहीं चाहती हैं तो मुझसे ऐसी बातें मत कीजिए। आप सब अच्छी तरह जानते हैं कि मैं वही करुंगा जो मुझे अच्छा लगेगा तो फिर बार बार मुझसे ऐसी बातें करने का फायदा क्या है?

"अच्छा चल छोड़ ये सब बात।" माँ ने जैसे बात बदलने की गरज़ से कहा____"तू आ गया है यही ख़ुशी की बात है। मैं कुसुम को बोल देती हूं कि वो तेरे लिए खाना यहीं पर भेज दे और हां तू भी सबके साथ रंग गुलाल का आनंद ले ले। तुझे पता है शाहूकार भी अब हमारे ही साथ हैं और उनके घर की औरतें भी आई हुई हैं हमारे यहाँ रंग गुलाल लगाने।"

"मुझे इस सब में कोई दिलचस्पी नहीं है मां।" मैंने कहा____"और मैं खाना खा चुका हूं। आप जाइए और सबके साथ होली का आनंद लीजिए।"
"सबके साथ घुल मिल कर रहना चाहिए बेटा।" माँ ने मेरे पास आ कर मेरे गाल पर हाथ फेरते हुए कहा____"तेरी भाभी कल से ही अपने कमरे में बंद है। वो तुझसे नाराज़ है। तुझे अपना देवर कम और छोटा भाई ज़्यादा मानती है। मुझसे कह रही थी कि मैंने तुझे क्यों जाने दिया था हवेली से? तू जा कर एक बार मिल ले उससे। मैं और कुसुम तो उसे समझा समझा के थक गईं हैं। उसके इस तरह नाराज़ हो कर कमरे में बंद रहने से तेरा बड़ा भाई भी उससे नाराज़ हो गया है।"

"ठीक है मिल लूंगा उनसे।" मैंने माँ की बात पर मन ही मन हैरान होते हुए कहा____"आप जाइए, मैं कुछ देर आराम करुंगा यहां।"
"ठीक है।" माँ ने कहा____"आराम कर के तू भी सबके साथ थोड़ा बहुत रंग खेल लेना और अपनी भाभी से ज़रूर ध्यान से मिल लेना।"

मां की बात सुन कर मैंने हां में सिर हिलाया तो माँ कमरे से चली गईं। उनके जाने के बाद मैंन सोचने लगा कि अब भाभी ने क्यों मेरी वजह से खुद को कमरे में बंद कर लिया है? मैं जितना उनसे दूर जाने की कोशिश करता हूं वो उतना ही मेरे क़रीब आने लगती हैं। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं भाभी से कैसे हमेशा के लिए दूर हो जाऊं? मैं जानता था कि वो मुझे बहुत मानती हैं और उनके मन में मेरे प्रति कोई बुरी भावना नहीं है लेकिन उन्हें ये नहीं पता है कि जिसे वो इतना मानती हैं वो उनके बारे में क्या सोचता है। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि मुझे भाभी से साफ़ साफ़ बोल देना चाहिए की वो मेरे क़रीब आने की कोशिश न करें। मैं उन्हें साफ़ साफ़ बता दूंगा कि उनके क़रीब रहने से मैं उनकी तरफ आकर्षित होने लगता हूं और यही वजह है कि मैं उनसे हमेशा दूर दूर ही रहता हूं। अपने ज़हन में उठे इस ख़याल से मैंने सोचा कि क्या ऐसा बोलना ठीक रहेगा?

अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी कमरे के बाहर कुछ लोगों की आहाट सुनाई दी तो मैं एकदम से बिस्तर से नीचे उतर आया और दीवार पर टंगी अपनी शर्ट की तरफ बढ़ चला। इस वक़्त मैं ऊपर से बिलकुल नंगा ही था जबकि नीचे मैंने पैंट पहन रखा था।

"होली मुबारक हो भइया।" कुसुम की आवाज़ सुन कर मैं पलटा तो देखा उसके साथ में दो लड़कियां और थीं, जिन्हें शायद मैं पहचानता था।
"तुझे भी मुबारक हो बहना।" मैंने शर्ट को निकाल कर उसे पहनते हुए कहा____"और तेरे साथ आईं तेरी इन सहेलियों को भी।"

मेरी बात सुन कर जहां कुसुम मुस्कुरा उठी वहीं वो दोनों लड़कियां भी हल्के से मुस्कुराईं और फिर धीमे स्वर में मुझे भी होली की शुभकामनाएं दी। मैं उन दोनों को पहचानता तो था मगर ठीक से याद नहीं आ रहा था कि मैंने उन्हें कहां देखा था।

"भाइया ये दोनों मेरी सहेलिया तुलसी और मीरा हैं।" कुसुम ने उन दोनों लड़कियों का परिचय देते हुए कहा____"इन दोनों ने जब आपको बाहर से आते हुए देखा था तो मुझसे कहने लगीं कि हम तुम्हारे भैया को रंग लगाएँगे।"

"हाय राम! कुसुम कितना झूठ बोलती हो तुम।" तुलसी ने चौंकते हुए कहा____"हमने कब बोला तुमसे कि हम तुम्हारे भैया को रंग लगाएंगे?"
"सही कहा तुलसी।" मीरा ने भी झट से कहा____"हमने तो ऐसा कुछ बोला ही नहीं।"

"अगर नहीं बोला था तो फिर ठीक है।" कुसुम ने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"चलो यहाँ से। वैसे भी भैया किसी के साथ रंग गुलाल नहीं खेलते हैं।"
"अरे! पर कुसुम थोड़ी देर रुको तो।" मीरा और तुलसी दोनों ही हड़बड़ाते हुए बोल पड़ीं थी।
"अब यहाँ रुकने का क्या फायदा है भला?" कुसुम ने हाथ को झटकते हुए कहा____"वैसे भी तुम दोनों को अगर किसी ने भैया के कमरे में देख लिया न तो फिर बस समझ जाओ।"

"क्या तुम्हारे ये भैया सच में रंग गुलाल नहीं खेलते हैं?" तुलसी ने सशंक भाव से पूछा तो कुसुम ने कहा____"तुम खुद ही पूछ लो न भैया से।"
"कुसुम तू जा कर एक गिलास पानी तो ले आ मेरे लिए।" मैंने बीच में बोलते हुए कुसुम से कहा____"और नीचे ये भी देख आना कि गुसलखाना खाली है कि नहीं। मुझे नहाना भी है अभी।"

"ठीक है भइया।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा, और फिर तुलसी और मीरा को आँख से इशारा करते हुए फ़ौरन ही कमरे से चली गई।
"तो तुम दोनों मुझे यहीं रंग लगाओगी या कहीं दूसरी जगह चलें?" कुसुम के जाते ही मैंने उन दोनों की तरफ बढ़ते हुए कहा तो वो दोनों एकदम से हड़बड़ा गईं।

"जी क्या मतलब है आपका?" मीरा ने मुझे अपने क़रीब आते देख थोड़ी घबराहट से कहा था।
"मतलब तो बहुत सीधा सा है देवी जी।" मैंने दोनों के क़रीब जा कर कहा____"यहां रंग लगाओगी तो मेरे इस कमरे में भी रंग फ़ैल जाएगा। इस लिए कमरे से बाहर कहीं ऐसी जगह चलते हैं जहां पर हम लोगों के सिवा चौथा कोई न हो।"

"ये आप क्या कह रहे हैं?" तुलसी ने आँखे फाड़ते हुए कहा____"कहीं आप हमारे साथ कुछ.....!"
"तुम दोनों की मर्ज़ी के बिना मैं कुछ नहीं करुंगा।" मैंने तुलसी की आँखों में झांकते हुए कहा____"मैं अपना हर काम सामने वाले की मर्ज़ी और ख़ुशी से ही करता हूं। ख़ैर, वैसे तो मैं रंग गुलाल खेलना पसंद नहीं करता हूं किन्तु तुम दोनों इतनी दूर से मुझे रंग लगाने आई हो तो तुम दोनों को मैं निराश कैसे कर सकता हूं?"

"पर हम दोनों तो आपको बस थोड़ा सा ही रंग लगाने आए हैं।" मीरा ने कहा____"जो कि आप इस कमरे में भी हमसे लगवा सकते हैं।"
"देखो सबसे पहली बात तो ये है कि मैं रंग गुलाल खेलता नहीं हूं।" मैंने निर्णायक भाव से कहा____"और जब खेलता हूं तो विधिवत ढंग से खेलता हूं। कहने का मतलब ये कि किसी को रंग ऐसे लगाओ कि इंसान के जिस्म के हर ज़र्रे पर रंग लग जाए वरना सिर्फ नाम करने वाला रंग मैं नहीं लगाता और ना ही किसी से लगवाता हूं। अब ये तुम दोनों पर है कि तुम कैसा रंग लगाओगी या लगवाओगी?"

दोनो मेरी बातें सुन कर बड़ी उलझन से मेरी तरफ देखने लगीं थी। फिर दोनों ने एक दूसरे की तरफ ऐसे देखा जैसे आँखों आँखों से एक दूसरे से पूछ रही हों कि अब क्या करें?"

"रंग लगाने और लगवाने वाले इतना सोचते नहीं हैं देवियो।" मैंने उन दोनों से कहा____"अगर मंजूर है तो लगाओ और लगवाओ वरना कोई ज़रूरी भी नहीं है। कुसुम के आ जाने के बाद तो मैं वैसे भी तुम लोगों से रंग लगवाने वाला नहीं हूं।"

"पर कुसुम के आ जाने के बाद हम आपको कैसे रंग लगा पाएंगे?" मीरा ने कहा___"और उसके सामने हम आपसे रंग भी नहीं लगवा पाएंगे।"
"अगर तुम दोनों को मेरे साथ रंग खेलना है तो अभी बता दो।" मैंने कहा____"मैं कुसुम के आते ही उसे बोल दूंगा कि वो यहाँ से चली जाए ताकि तुम दोनों मेरे साथ अच्छे से रंग खेल सको।"

"बात तो आपकी ठीक है।" तुलसी ने कहा____"लेकिन ऐसा करने से कुसुम कहीं हमारे बारे में ग़लत न सोचने लगे।"
"वो तो अभी भी सोच रही होगी।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"तुम किसी की सोच को मिटा थोड़े न सकती हो। वो तो अभी भी सोच रही होगी कि तुम दोनों मेरे कमरे हो और पता नहीं मुझसे कैसी कैसी बातें कर रही होगी।"

"वैभव जी सही कह रहे हैं तुलसी।" मीरा ने तुलसी से कहा____"कुसुम ज़रूर इस वक्त हमारे बारे में ग़लत ही सोच रही होगी। हलांकि उसकी जगह हम होते तो हम भी ऐसा ही सोचते। पर वो हमारी सहेली है इस लिए उसके सोचने से हमें क्या फ़र्क पड़ जाएगा? मुझे लगता है कि हम दोनों को इनके साथ रंग खेलना ही चाहिए। बार बार ऐसा मौका नहीं मिलेगा सोच ले।"

अभी मीरा की बात पूरी हुई ही थी कि कमरे में कुसुम दाखिल हुई। उसने मुझे पानी का गिलास दिया तो मैं पानी पीने लगा। इस बीच मेरी नज़र कुसुम पर पड़ी, जो उन दोनों से इशारे में कुछ कह रही थी और मुस्कुरा रही थी।

"कुसुम अपनी सहेलियों को यहां से ले जा।" मैंने कुसुम से कहा____"इनके बस का नहीं है मेरे साथ रंग खेलना।"
"नहीं नहीं।" मीरा झट से बोल पड़ी____"हमें आपके साथ रंग खेलना है। कुसुम तुम जाओ हम बाद में मिलेंगे तुमसे।"

कुसुम उसकी बात सुन कर मुस्कुराते हुए कमरे से बाहर चली गई। मैं मन ही मन ये सोच कर खुश हो गया कि चलो न‌ए न‌ए माल मिल गए भोगने को। कुसुम के जाने के बाद मैंने फ़ौरन ही कमरे का दरवाज़ा बंद किया तो वो दोनों ये देख कर बुरी तरह चौंक पड़ी। पलक झपकते ही दोनों के चेहरे पर डर और घबराहट के भाव उभर आए। उन्हें शायद ये उम्मीद ही नहीं थी कि मैं एकदम से कमरे का दरवाज़ा बंद कर दूंगा।

"घबराओ मत।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैं तुम दोनों की मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं करुंगा। कमरा इस लिए बंद किया है ताकि तुम स्वतंत्र रूप से मुझे रंग लगा सको और मुझसे लगवा भी सको। ख़ैर, तो चलो शुरू करो फिर। मेरे पास ज़्यादा वक़्त नहीं है क्योंकि अभी मुझे नहाने भी जाना है और फिर अपनी भाभी से भी मिलना है।"

मेरी बात सुन कर दोनों एक दूसरे को देखने लगीं। दोनों के चेहरे पर असमंजस के भाव थे। जैसे दोनों को समझ न आ रहा हो कि वो ये सब कैसे करें? दोनों के हाथों में कागज़ में लपेटा हुआ रंग गुलाल था। जब मैंने देखा कि वो दोनों हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं तो मैं खुद ही उनकी तरफ बढ़ गया।

दोनों के चेहरे और कपड़ों पर पहले से ही रंग लगा हुआ था। मेरी नज़र बार बार इन दोनों के सीने पर जा कर ठहर जाती थी। दोनों के ही सीने किसी पर्वत शिखर की तरह उठे हुए थे। दोनों का दुपट्टा कमर में बंधा हुआ था। मैं आगे बढ़ कर तुलसी के क़रीब पहुंचा और उसके हाथ से रंग और गुलाल का वो कागज़ ले लिया। दोनों मुझे इतना क़रीब देख कर एक कदम पीछे हट गईं थी।

"हमारे पास ज़्यादा वक़्त नहीं है।" मैंने उस कागज़ से रंग निकालते हुए कहा____"अगर कोई यहाँ आ गया तो समझ ही सकती हो कि कितनी बड़ी समस्या हो जाएगी इस लिए झिझक और संकोच को छोड़ कर तुम दोनों खुल कर अपना काम शुरू करो।"

कागज़ से रंग ले कर मैंने उसे तुलसी के गालों पर लगा दिया और फिर बगल से खड़ी मीरा के गालों पर भी लगा दिया। दोनों छुई मुई सी खड़ी शर्मा रहीं थी। मैं समझ चुका था कि दोनों के मन में असल में क्या है इस लिए मैं अब किसी बात से डरने वाला नहीं था। दोनों के चेहरे पर रंग लगाने के बाद मैंने कागज़ से फिर रंग लिया और पास ही रखे गिलास के बचे हुए पानी को अपने हाथ में डाल कर मैंने रंग को अच्छे से मिलाया और फिर आगे बढ़ कर तुलसी के चेहरे पर मलने लगा। चेहरे पर मलने के बाद मैं उसके गले और कुर्ते के खुले हुए हिस्से पर भी लगाने लगा। बगल से खड़ी मीरा मुस्कुराते हुए मुझे देख रही थी जबकि तुलसी कांपते हुए कसमसा रही थी।

"ऐसे चुप न खड़ी रहो तुम दोनों।" मैंने मीरा के चेहरे पर गीला रंग लगाते हुए कहा____"तुम दोनों भी बेझिझक हो कर मुझे रंग लगाओ। तभी तो तुम दोनों को भी मज़ा आएगा।"

मेरी बात सुन कर दोनों मुस्कुराईं और फिर मेरे हाथ से रंग वाला वो कागज़ ले कर दोनों ने उसमे से कुछ रंग लिया और गिलास के जूठे पानी से मिला कर मेरी तरफ बढ़ीं। दोनों को अपनी तरफ बढ़ते देख मैं मुस्कुरा भी रहा था और ये सोच कर मुझे गुदगुदी भी हो रही थी कि बहुत जल्द अब मैं इन दोनों को मसलने वाला हूं।

दोनों बारी बारी से मेरे चेहरे पर रंग लगाने लगीं। दोनों के कोमल कोमल हाथ मेरे चेहरे पर रंग लगाते हुए घूम रहे थे। तभी सहसा मैंने अपना एक हाथ बढ़ा कर मीरा को उसकी कमर से पकड़ा और अपनी तरफ खींच लिया जिससे वो एकदम से मुझसे चिपक गई। उसकी ठोस छातियां मेरे सीने के थोड़ा नीचे धंस ग‌ईं। दूसरा हाथ बढ़ा कर मैंने तुलसी को भी ऐसे ही खींच लिया जिससे वो भी मुझसे चिपक गई। मेरे ऐसा करने पर दोनों ही बुरी तरह घबरा गईं और एकदम से मुझसे छूटने की कोशिश करने लगीं।

"ये आप क्या कर रहे हैं वैभव जी?" मीरा कसमसाते हुए बोली____"छोड़िए हमे, ये ग़लत है।"
"अरे कुछ ग़लत नहीं है देवियो।" मैंने कहा____"होली के दिन किसी बात के लिए बुरा नहीं मानना चाहिए और ना ही कुछ ग़लत माना जाता है।"

कहने के साथ ही मैंने दोनों को छोड़ दिया और फिर कागज़ से रंग ले कर उसमे पानी मिलाया और बड़ी तेज़ी से लपक कर मीरा के पीछे आया। इससे पहले कि मीरा कुछ समझ पाती मैंने झुक कर मीरा के कुर्ते के अंदर अपने दोनों हाथ डाले और फिर बड़ी तेज़ी से ऊपर लाते हुए उसकी दोनों छातियों को मुट्ठी में भर कर मसलने लगा। मेरे दोनों ही हाथ रंग से गीले थे जिससे उसकी छातियों पर भी रंग लगता जा रहा था। उधर मीरा मेरी इस हरकत से चीखते हुए उछल ही पड़ी थी। उसने बुरी तरह छटपटाते हुए मुझसे दूर भागने की कोशिश की तो मैंने भी जल्दी ही उसके कुर्ते से अपने दोनों हाथ निकाल लिए। उसका कुर्ता पूरा ऊपर उठ गया था और उसके नंगे पेट के साथ साथ उसकी दोनों छातियां भी दिखने लगीं थी।

इधर तुलसी मेरी इस हरकत से सकते में आ गई थी और वो ऐसे आँखें फाड़े खड़ी रह गई थी जैसे वो बुत बन गई हो। मीरा को छोड़ने के बाद मैंने फिर से रंग ले कर उसमे पानी मिलाया और इस बार तुलसी को पकड़ लिया। जब मेरे हाथ तुलसी के कुर्ते के अंदर पहुंच कर उसकी छातियों को मसलने लगे तो उसे एकदम से होश आया और वो भी बुरी तरह डर चीख पड़ी।

तुलसी की छातियों को मसलते हुए मैंने अच्छी तरह उनमें रंग लगाया और फिर अपने हाथ उसके कुर्ते से निकाल कर उसे छोड़ दिया। दोनों की हालत पल भर में ही ख़राब हो गई थी। मेरी नज़र मीरा पर पड़ी तो देखा वो नज़रें झुकाए अपनी जगह पर खड़ी थी।

"क्या हुआ?" मैंने मीरा के पास आ कर पूछा____"इस तरह चुप चाप क्यों खड़ी हो? अब रंग नहीं लगाना है क्या?"
"वैभव जी ये आपने ठीक नहीं किया।" मीरा ने नज़र उठा कर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"भला ऐसे भी कोई किसी को रंग लगाता है?"

"मैं तो ऐसे ही लगाता हूं मीरा जी।" मैंने कहा____"और मैंने तुम दोनों से पहले ही कह दिया था कि मैं एक तो रंग खेलता नहीं हूं और अगर खेलता हूं तो ऐसे ही खेलता हूं। अपना तो एक ही नियम है कि रंग लगाओ तो जिस्म के हर हिस्से पर लगाओ वरना फिर रंग ही ना खेलो। ख़ैर, अगर तुम दोनों को इससे बुरा लगा है तो तुम दोनों जा सकती हो।"

"हमें तो समझ में ही नहीं आ रहा कि अचानक से ये क्या कर दिया था आपने?" तुलसी ने चकित भाव से कहा____"हमने आज तक ऐसे रंग नहीं खेला और ना ही किसी मर्द ने हमारे उस अंग को हाथ लगाया है।"

"इसी लिए कह रहा हूं कि अगर मेरे द्वारा इस तरह से रंग लगाया जाना तुम दोनों को पसंद नहीं आया है।" मैंने कहा____"तो जा सकती हो यहाँ से। मैंने तुम दोनों के साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं की है। मैंने इस बारे में पहले ही तुम दोनों को बता दिया था।"

"हां सही कहा आपने।" मीरा ने कहा____"हम तो बस अचानक से आपके द्वारा ऐसा करने से घबरा गए थे। पहली बार किसी मर्द ने हमारे उस अंग को छुआ है। अभी भी ऐसा लग रहा है जैसे आपके हाथों ने हमारे उस अंग को अपनी मुट्ठी में कस रखा है।"

"अच्छा तो फिर बताओ कैसा महसूस हुआ अपनी छातियों को मसलवा कर?" मैंने मुस्कुराते हुए मीरा से कहा तो वो बुरी तरह शरमाते हुए बोली____"धत्त आप बहुत गंदे हैं।"
"तो अब क्या ख़याल है?" मैंने दोनों की तरफ बारी बारी से देखते हुए कहा____"अभी और रंग खेलना है या इतने से ही पेट भर गया है?"

"आज तो इतने से ही पेट भर गया है।" तुलसी ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन इसका बदला हम दोनों एक दिन आपसे ज़रूर लेंगे, याद रखिएगा।"
"बिल्कुल।" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"मैं उस बदले वाले खूबसूरत दिन का बड़ी शिद्दत से इंतज़ार करुंगा।"

मेरी बात सुन कर वो दोनों मुस्कुराईं और फिर अपना रंग वाला कागज़ उठा कर कमरे से बाहर चली गईं। उनके जाने के बाद मैंने मन ही मन कहा____'कोई बात नहीं वैभव सिंह। इन दोनों की चूत बहुत जल्द तेरे लंड को नसीब होगी।'

मेरे हाथों और चेहरे पर रंग लग गया था इस लिए अब मुझे नहाना ही पड़ता मगर उससे पहले मैंने सोचा क्यों न भाभी से भी मिल लिया जाए। आज रंगो का त्यौहार है इस लिए भाभी को भी होली की मुबारकबाद देना चाहिए मुझे। ये सोच कर मैंने अपनी शर्ट से अपने चेहरे का रंग पोंछा और दूसरी शर्ट पहन कर कमरे से बाहर आ गया। पूरी हवेली में लोग एक दूसरे के साथ रंग गुलाल खेलते हुए आनंद ले रहे थे और एक तरफ हवेली के एक कमरे में मेरी भाभी मुझसे नाराज़ हुई पड़ी थी। मैंने भी आज निर्णय कर लिया कि उनसे हर बात खुल कर और साफ़ शब्दों में कहूंगा। उसके बाद जो होगा देखा जाएगा।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 22
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अब तक,,,,,,

मेरी बात सुन कर वो दोनों मुस्कुराईं और फिर अपना रंग वाला कागज़ उठा कर कमरे से बाहर चली गईं। उनके जाने के बाद मैंने मन ही मन कहा____'कोई बात नहीं वैभव सिंह। इन दोनों की चूत बहुत जल्द तेरे लंड को नसीब होगी।'

मेरे हाथों और चेहरे पर रंग लग गया था इस लिए अब मुझे नहाना ही पड़ता मगर उससे पहले मैंने सोचा क्यों न भाभी से भी मिल लिया जाए। आज रंगो का त्यौहार है इस लिए भाभी को भी होली की मुबारकबाद देना चाहिए मुझे। ये सोच कर मैंने अपनी शर्ट से अपने चेहरे का रंग पोंछा और दूसरी शर्ट पहन कर कमरे से बाहर आ गया। पूरी हवेली में लोग एक दूसरे के साथ रंग गुलाल खेलते हुए आनंद ले रहे थे और एक तरफ हवेली के एक कमरे में मेरी भाभी मुझसे नाराज़ हुई पड़ी थी। मैंने भी आज निर्णय कर लिया कि उनसे हर बात खुल कर और साफ़ शब्दों में कहूंगा। उसके बाद जो होगा देखा जाएगा।

अब आगे,,,,,



मन में कई तरह के विचार लिए मैं दूसरे छोर पर आया। हवेली के झरोखे से मैंने नीचे आँगन में देखा। सारी औरतें अपने में ही लगी हुईं थी। आँगन से नज़र हटा कर मैंने भाभी के कमरे की तरफ देखा और फिर आगे बढ़ कर दरवाज़े पर हाथ से दस्तक दी। मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही बढ़ गईं थी। ख़ैर मेरे दस्तक देने पर जब कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो मैंने फिर से दस्तक दी किन्तु इस बार भी अंदर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। कुछ सोच कर मैंने इस बार दस्तक देने के साथ भाभी कह कर उन्हें पुकारा भी। मेरे पुकारने पर इस बार प्रतिक्रिया हुई। कुछ ही पलों में दरवाज़ा खुला और सामने भाभी नज़र आईं। मेरी नज़र जब उन पर पड़ी तो देखा अजीब सी हालत बना रखी थी उन्होंने। जो चेहरा हमेशा ही ताज़े खिले हुए गुलाब की मानिन्द खिला हुआ रहता था वो इस वक़्त ऐसे नज़र आ रहा था जैसे किसी गुलशन में खिज़ा ने अपना क़याम कर लिया हो।

"होली मुबारक हो भाभी।" फिर मैंने खुद को सम्हालते हुए बड़े ही आदर भाव से मुस्कुराते हुए कहा तो उनके चेहरे के भाव बदलते नज़र आए और फिर वो सपाट भाव से बोलीं____"अब क्यों आए हो यहाँ?"

"जी??" मैं एकदम से चकरा गया____"क्या मतलब??"
"तुम्हें तो इस हवेली से और इस हवेली में रहने वालों से कोई मतलब ही नहीं है न।" भाभी ने पूर्व की भाँती सपाट भाव से ही कहा____"तो फिर अब क्यों आए हो यहाँ? उसी दुनिया में वापस लौट जाओ जिस दुनियां में तुम्हें ख़ुशी मिलती है और जिस दुनियां के लोग तुम्हें अच्छे लगते हैं।"

"ठीक है लौट जाऊंगा।" मैंने उनकी आँखों में झांकते हुए कहा____"लेकिन उससे पहले मैं ये जानना चाहता हूं कि आप ख़ुद को किस बात की सज़ा दे रही हैं? आख़िर किस लिए आपने अन्न जल का त्याग कर रखा है और इस तरह ख़ुद को क्यों कमरे में बंद कर रहा है? आप मुझे इन सवालों के जवाब दे दीजिए उसके बाद मैं चला जाऊंगा यहाँ से।"

"तुम्हें इससे क्या फ़र्क पड़ता है भला?" भाभी ने भी मेरी आँखों में अपलक देखते हुए कहा____"मैं अन्न जल का त्याग करके ख़ुद को कमरे में बंद रखूं तो इससे तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है?"

"कोई मेरी वजह से अन्न जल का त्याग कर के ख़ुद को कमरे में बंद रखे तो मुझे फर्क पड़ता है।" मैंने कहा____"ख़ैर छोड़िए इस बात को, कुसुम ने बताया की आप मुझसे नाराज़ हैं??"

"बात वही है।" भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए ही कहा____"तुम्हें मेरी नाराज़गी से या किसी और चीज़ से क्या फ़र्क पड़ता है?"
"अगर आपको मेरी हर बात पर ताने ही मारने हैं।" मैंने इस बार थोड़े नाराज़ लहजे में कहा____"तो फिर चला जाता हूं मैं। आप अच्छी तरह जानती हैं कि मैं अपने ऊपर किसी की भी बंदिश पसंद नहीं करता और ना ही ये पसंद करता हूं कि कोई बेमतलब मुझ पर अपना रौब झाड़े।"

"ज़मीन पर लौट आओ ठाकुर वैभव सिंह।" भाभी ने शख़्त भाव से कहा___"वरना बाद में पछताने का भी मौका नहीं मिलेगा तुम्हें। अपने गुस्से और झूठे अहंकार को अंदर से निकाल कर ज़रा उन हालातों की तरफ भी ग़ौर करो जो तुम्हारे चारो तरफ तुम्हें डस लेने के लिए फ़ैलते जा रहे हैं।"

"अच्छा है न।" मैंने फीकी मुस्कान के साथ कहा____"अगर किसी वजह से मुझे कुछ हो जाएगा तो किसी को इससे क्या फ़र्क पड़ जाएगा लेकिन मुझे ये समझ नहीं आ रहा कि आप मेरे लिए इतना क्यों फ़िक्र कर रही हैं?"

"क्योंकि तुम्हें दादा ठाकुर के बाद उनकी जगह लेनी है।" भाभी ने कहा____"और उसके लिए ज़रूरी है कि तुम होश में आओ और सही सलामत रहो। तुम्हें अंदाज़ा भी नहीं है कि तुम्हारे चारो तरफ कितना ख़तरा मौजूद है जो तुम्हें ख़ाक में मिला देने के लिए हर पर तुम्हारी तरफ ही बढ़ता आ रहा है।"

"वैभव सिंह इतना कमज़ोर नहीं है कि कोई ऐरा गैरा उसे ख़ाक में मिला देगा।" मैंने उनके चेहरे के क़रीब अपना चेहरा ले जाते हुए कहा____"इतना तो अपने आप पर यकीन है कि क़यामत को भी अपनी तरफ आने से रोक लूंगा और उसे ग़र्क कर दूंगा।"

"गुरूर और अहंकार तो वही ठाकुरों वाला ही है वैभव।" भाभी ने ताना मारते हुए कहा____"फिर ये क्यों कहते हो कि तुम इस हवेली में रहने वालों से अलग हो? अगर सच में अलग हो तो ये झूठा मान गुमान क्यों दिखाते हो? अगर तुम सच में अपनी जगह सही हो तो अपने सही होने का सबूत भी दो। यूं डींगें मार कर तुम क्या साबित करना चाहते हो?"

"मैं किसी के सामने कुछ भी साबित नहीं करना चाहता भाभी।" मैंने भाभी से नज़र हटा कर कहा____"मुझे बस इस हवेली का कायदा कानून पसंद नहीं है और इसी लिए मैं यहाँ रहना पसंद नहीं करता।"

"तो तुम ख़ुद इस हवेली के लिए नए कायदे कानून बनाओ वैभव।" भाभी ने कहा____"किसी चीज़ से मुँह फेर कर दूर चले जाना कौन सी समझदारी है? जब तक तुम किसी चीज़ का डट कर सामना नहीं करोगे तब तक तुम किसी चीज़ से दूर नहीं जा सकते।"

"क्या आप इन्हीं सब बातों के लिए नाराज़ थीं मुझसे? मैंने बात को बदलते हुए कहा____"मुझे हर बात खुल कर बताइए भाभी। आप जानती हैं कि पहेलियाँ बुझाने वाली बातें ना तो मुझे पसंद हैं और ना ही वो मुझे समझ आती हैं।"

"तुम्हें मैं अपना देवर ही नहीं बल्कि अपना छोटा भाई भी मानती हूं वैभव।" भाभी ने इस बार सहसा मेरे चेहरे को सहलाते हुए बड़े प्रेम भाव से कहा____"और यही चाहती हूं कि तुम एक अच्छे इंसान बनो और इस हवेली की बाग डोर अपने हाथ में सम्हालो। मैं मानती हूं कि तुम्हारे बड़े भैया इस हवेली के उत्तराधिकारी हैं मगर वो इस उत्तराधिकार के क़ाबिल नहीं हैं।"

"आप बड़े भैया के बारे में ऐसा कैसे कह सकती हैं?" मैंने उनकी गहरी आँखों में देखते हुए कहा____"वो आपके पति हैं और दुनियां की कोई भी पत्नी अपने पति के बारे में ऐसा नहीं कह सकती।"
"मैंने तुमसे उस दिन भी कहा था वैभव कि मैं एक पत्नी के साथ साथ इस हवेली की बहू भी हूं।" भाभी ने कहा____"पत्नी के रूप में मैं जानती हूं कि मुझे अपने पति के बारे में ऐसा नहीं कहना चाहिए लेकिन एक बहू के रूप में मुझे और भी बहुत कुछ सोचना पड़ता है। मैं ये कैसे चाह सकती हूं कि दादा ठाकुर के बाद उनकी बाग डोर एक ऐसा इंसान अपने हाथ में ले जो उसके लायक ही नहीं है।"

"सवाल अब भी वही है भाभी।" मैंने कहा____"आख़िर बड़े भैया इस अधिकार के लायक क्यों नहीं हैं? ऐसी क्या कमी है उनमें जिसकी वजह से आप उनके बारे में ऐसा कह रही हैं?"

"क्योंकि उनका जीवन काल ज़्यादा समय का नहीं है वैभव।" भाभी ने एक झटके से कहा और फिर बुरी तरफ फफक कर रोने लगीं। इधर उनकी ये बात सुन कर पहले तो मुझे समझ न आया किन्तु जैसे ही उनकी बात का मतलब समझा तो मेरे पैरों तले से ज़मीन खिसक गई।

"ये..ये..ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" मैं हतप्रभ भाव से बोल उठा___"बड़े भैया का जीवन काल ज़्यादा समय का नहीं है....क्या मतलब है इसका?"
"हां वैभव।" भाभी रोते हुए पलट गईं और अंदर कमरे में जाते हुए बोलीं____"यही सच है। तुम्हारे बड़े भैया का जीवन काल ज़्यादा समय का नहीं है। वो बहुत जल्द इस दुनिया से विदा हो जाएंगे।"

"नहीं नहीं।" बौखला कर तथा आवेश में चीखते हुए मैंने अंदर आ कर उनसे कहा____"ये सच नहीं हो सकता। आप झूठ बोल रही हैं। मुझे यकीन नहीं हो रहा कि आप बड़े भैया के बारे में इतना बड़ा झूठ बोल सकती हैं।"

"ये झूठ नहीं बल्कि कड़वा सच है वैभव।" भाभी ने पलट कर दुखी भाव से मुझसे कहा____"इस हवेली में इस बात का पता मेरे अलावा सिर्फ दादा ठाकुर को ही है।"
"लेकिन ये कैसे हो सकता है भाभी?" मेरे चेहरे पर आश्चर्य मानो ताण्डव करने लगा था। मारे अविश्वास के मैंने कहा____"नहीं नहीं, मैं ये बात किसी भी कीमत पर नहीं मान सकता और अगर ये सच है भी तो इस बात का पता हवेली में बाकी लोगों को क्यों नहीं है?"

"क्योंकि दादा ठाकुर ने मुझे किसी और से बताने से मना कर रखा है।" भाभी ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा____"दादा ठाकुर नहीं चाहते कि इस बात का पता माँ जी को या किसी और को चले। माँ जी को यदि इस बात का पता चला तो उन्हें गहरा आघात लग सकता है। दूसरी बात ये भी है कि कुछ समय से हमारे खानदान के खिलाफ़ कुछ अफवाहें सुनने को मिल रही हैं जिसकी वजह से दादा ठाकुर को लगता है कि अगर इस बात का पता किसी और को लगा तो हो सकता है कि ऐसे में लोग इस बात का फ़ायदा उठा लें।"

"पर ये कैसे हो सकता है भाभी?" मैंने पुरजोर भाव से कहा____"आपको और दादा ठाकुर को ये कैसे पता चला कि बड़े भैया का जीवन काल ज़्यादा समय का नहीं है?"
"कुछ महीने पहले दादा ठाकुर अपने साथ मुझे और तुम्हारे बड़े भैया को ले कर कुल गुरु के पास गए थे।" भाभी ने गंभीरता से कहा____"असल में दादा ठाकुर गुरु जी से मिल कर उनसे ये जानना चाहते थे कि उनके बाद उनकी बाग डोर को सम्हालने के लिए उनके बड़े बेटे अब सक्षम हो गए हैं कि नहीं? जब दादा ठाकुर ने गुरु जी से इस बारे में बात की तो गुरु जी आँख बंद कर के ध्यान लगाने लगे। कुछ देर बाद उन्होंने अपनी आँखें खोलीं और फिर दादा ठाकुर से कहा कि वो इस बारे में सिर्फ उन्हीं को बताएंगे। गुरु जी की बात सुन कर दादा ठाकुर ने हम दोनों को उनकी कुटिया से बाहर भेज दिया। कुछ देर बाद जब दादा ठाकुर गुरु जी से मिल कर बाहर आए तो वो एकदम से शांत थे। उस वक़्त तो मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा किन्तु तुम्हारे बड़े भैया से न रहा गया तो उन्होंने पूछ ही लिया की गुरु जी ने क्या कहा है। तुम्हारे भैया के पूछने पर दादा ठाकुर ने बस इतना ही कहा कि अभी इसके लिए काफी समय है इस लिए उन्होंने प्रतीक्षा करने को कहा है। उस दिन दादा ठाकुर पूरे रास्ते ख़ामोश ही रहे थे और किसी गहरी सोच में डूबे रहे थे। उन्हें देख कर मैं समझ गई थी कि कुछ तो बात ज़रूर है। मैं उनसे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर सकती थी इस लिए चुप ही रही। हवेली आने के बाद दादा ठाकुर ने माँ जी से भी यही कहा कि अभी इसके लिए काफी समय है। दो चार दिन ऐसे ही गुज़र गए लेकिन मैं अक्सर उनके चेहरे पर चिंता और परेशानी देखती थी, हलांकि वो बाकी सबके सामने हमेशा की तरह शांत चित्त ही रहते थे। मैं अब तक समझ चुकी थी कि कोई गंभीर बात ज़रूर है इस लिए एक दिन मैं खुद गुरु जी के आश्रम की तरफ चल पड़ी। रास्ता लम्बा था लेकिन मुझे परवाह नहीं थी। मैं हवेली से सबकी नज़र बचा कर निकली थी और शाम होने से पहले ही गुरु जी के आश्रम पहुंच ग‌ई। गुरु जी मुझे देख कर बहुत हैरान हुए थे। ख़ैर मेरे पूछने पर पहले तो उन्होंने मुझे बताने से इंकार किया लेकिन जब मैंने उनसे बहुत ज़्यादा अनुनय विनय की तब उन्होंने मुझे बताया कि असल बात क्या है। गुरु जी से सच जान कर मेरे होश उड़ गए थे और लग रहा था कि मैं हमेशा के लिए अचेत हो जाऊंगी। किसी तरह वहां से वापस हवेली आई और दादा ठाकुर से अकेले में मिली। उनसे जब मैंने ये कहा कि मैं गुरु जी से सच जान कर आ रही हूं तो वो दंग रह गए फिर एकदम से गुस्सा हो कर बोले कि हमारी इजाज़त के बग़ैर वहां जाने की हिम्मत कैसे की तुमने तो मैंने भी कह दिया कि मुझे भी अपने पति के बारे में जानने का पूरा हक़ है और अब जबकि मैं सच जान चुकी हूं तो बताइए कि अब मैं क्या करूं? मेरा तो जीवन ही बर्बाद हो गया। मेरा रोना देख कर दादा ठाकुर शांत हो गए और फिर हाथ जोड़ कर उन्होंने मुझसे कहा कि मैं इस बारे में हवेली के किसी भी सदस्य से ज़िक्र न करूं। दादा ठाकुर की बात सुन कर मुझे रोना तो बहुत आ रहा था लेकिन मेरे रोने से भला क्या हो सकता था?"

भाभी चुप हुईं तो कमरे में शमशान की मानिन्द सन्नाटा छा गया। भाभी का कहा हुआ एक एक शब्द मेरे कानों में अभी भी गूँज रहा था और मैं यकीन कर पाने में जैसे खुद को असमर्थ समझ रहा था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि एक सच ऐसा भी हो सकता है। बड़े भैया का चेहरा मेरी आँखों के सामने उभर आया। चार महीने पहले उनका बर्ताव मेरे प्रति आज जैसा नहीं था। वो दादा ठाकुर की तरह शख़्त स्वभाव के नहीं थे और ना ही मेरी तरह गांव की किसी बहू बेटी पर ग़लत निगाह डालते थे। वो शांत स्वभाव के तो थे किन्तु कभी कभी जब वो किसी बात से चिढ़ जाते थे तो उनको भयंकर गुस्सा भी आ जाता था। बड़े भाई होने के नाते अक्सर वो मुझे समझाते थे और डांट भी देते थे किन्तु आज तक उन्होंने मुझ पर हाथ नहीं उठाया था।

अपनी आँखों के सामने बड़े भैया का चेहरा उभरा हुआ देख सहसा मेरी आँखों में आंसू झिलमिला उठे। मेरे अंदर एक हूक सी उठी जिसने मेरी अंतरात्मा तक को कंपकंपा दिया। मैंने भाभी की तरफ देखा तो उन्हें दूसरी तरफ चेहरा किए सिसकते हुए पाया। इस हक़ीक़त ने तो मुझे हिला के ही रख दिया था। एक पल में ही वक़्त और हालात बदल गए थे।

"क्या आपने गुरु जी से ये नहीं पूछा था कि बड़े भैया के साथ ऐसा क्यों होने वाला है?" मैंने आगे बढ़ कर भाभी से कहा____"आख़िर ऐसी क्या वजह है कि वो हमें छोड़ कर इस दुनियां से चले जाएंगे?"

"पूछा था।" भाभी ने गहरी सांस लेते हुए कहा___"जवाब में गुरु जी ने बस यही कहा था कि होनी अटल है, जीवन और मृत्यु ईश्वर के हाथ में है। उनका कहना था कि तुम्हारे बड़े भैया जन्म से ही अल्पायु ले कर आये थे। उन्होंने ये भी बताया कि उनसे मुझे औलाद भी होनी थी किन्तु वो खंडित हो चुकी है।"

"इसका क्या मतलब हुआ?" मैंने हैरानी से कहा____"अगर आपको औलाद होनी थी तो वो खंडित कैसे हो सकती है? क्या आपने पूछा नहीं गुरु जी से?"
"गुरु जी ने कहा कि इंसान के कर्मों द्वारा ही भाग्य बनता और बिगड़ता है।" भाभी ने कहा____"अगर इंसान के कर्म अच्छे हैं तो उसका कर्म फल भी अच्छा ही मिलेंगा। गुरु जी के कहने का मतलब शायद यही था कि तुम्हारे भैया के कर्म शायद अच्छे नहीं थे इस लिए ऐसा हुआ।"

"बड़ी अजीब बात है।" मैंने सोचने वाले भाव से कहा____"पर मैं नहीं मानता इन सब बातों को। ये सब बकवास है और हां आप भी गुरु जी की इन फ़ालतू बातों को मत मानिए। बड़े भैया को कुछ नहीं होगा। कर्म फल का लेखा जोखा अगर यही है तो फिर मेरे कर्म कौन से अच्छे हैं? मैंने तो आज तक सब बुरे ही कर्म किए हैं तो फिर मुझे मृत्यु क्यों नहीं आई और मेरे साथ बुरा क्यों नहीं हुआ? ये सब अंधविश्वास की बातें हैं भाभी। मैं नहीं मानता इन सब बातों को।"

"जीवन और मृत्यु ईश्वर के हाथ में है वैभव।" भाभी ने गंभीरता से कहा____"किन्तु कर्म इंसान के बस में है। तुम जैसा कर्म करोगे तुम्हें वैसा ही फल मिलेगा ये एक सच्चाई है। आज भले ही तुम इस बात को न मानो मगर एक दिन ज़रूर मानोगे।"

"मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि बड़े भैया को कुछ नहीं होगा।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"आपको ये सब बातें मुझे पहले ही बतानी चाहिए थी। मैंने कई बार आपसे साफ़ साफ़ बताने को बोला था लेकिन आपने नहीं बताया। ख़ैर, बात अगर यही थी तो आपने ये क्यों कहा कि बड़े भैया दादा ठाकुर की बाग डोर सम्हालने के लायक नहीं हैं?"

"मैं ये बात तुम्हें बताना नहीं चाहती थी।" भाभी ने कहा____"इसी लिए तुमसे हर बार सिर्फ यही कहा कि वो इस सबके लायक नहीं हैं।"
"आप भी कमाल करती हैं भाभी।" मैंने कहा____"कम से कम मैं आपको सबसे ज़्यादा समझदार समझता था। मुझे तो समझ में नहीं आ रहा कि दादा ठाकुर ने भी आपको ये बात किसी से न बताने को क्यों कहा और खुद भी अब तक इस बात को छुपाए बैठे हैं। चलो मान लिया कि उन्होंने माँ को बताने से मना किया‌ था क्योंकि वो समझते हैं कि इस बात को जान कर माँ को सदमा लग जाएगा किन्तु बाकी लोगों से इस बारे में बताने में क्या समस्या थी?"

"कुछ तो बात होगी ही वैभव।" भाभी ने संजीदा भाव से कहा____"अन्यथा दादा ठाकुर मुझे इस बात को किसी से भी ना बताने को क्यों कहते और अब मैं चाहती हूं कि तुम भी इस बात का ज़िक्र हवेली में किसी से न करना।"
"ठीक है नहीं करुंगा।" मैंने कहा____"लेकिन मैं अब इस बात को ले कर चुप भी नहीं रहूंगा भाभी। अब मैं अपने बड़े भैया का साया बन कर उनके आस पास ही रहूंगा। मैं भी देखता हूं कि वो कौन सा भगवान है जो उन्हें मुझसे छीन कर ले जाता है।"

मेरी बात सुन कर भाभी की आँखों से आंसू छलक पड़े और वो ख़ुशी के मारे मुझसे लिपट ग‌ईं। मैंने भी उन्हें अपने से छुपका लिया। इस वक़्त मेरे ज़हन में उनके प्रति कोई भी बुरा ख़याल नहीं था बल्कि इस वक़्त मैं उनके लिए बहुत ही संजीदा हो गया था। इतनी बड़ी बात थी और मुझे इस बारे में कुछ पता ही नहीं था। सबके सामने हमेशा हंसती मुस्कुराती रहने वाली मेरी भाभी न जाने कब से अपने अंदर ये दुःख दबाए हुए थीं।

"एक बात बताइए भाभी।" कुछ देर बाद मैंने उन्हें खुद से अलग करते हुए कहा____"अगर गुरु जी को इतना पता था कि बड़े भैया का जीवन काल ज़्यादा समय का नहीं है तो फिर उन्हें ये भी तो पता रहा होगा न कि बड़े भैया के साथ ऐसा क्या होगा जिससे कि वो इस दुनियां से चले जाएंगे? क्या आपने गुरु जी से इस बारे में साफ़ साफ़ नहीं पूछा था?"

"पूछा था।" भाभी ने अपने आँसू पोंछते हुए कहा____"पहले वो बता नहीं रहे थे लेकिन जब मैं पूछती ही रही तो वो बोले कि जब तुम्हारे भैया का वैसा समय आएगा तब उनका स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा और वो बिस्तर पर ही कुछ दिन पड़े रहेंगे। उसके बाद उनकी आत्मा नियति के लेख के अनुसार ईश्वर के पास चली जाएगी।"

"उस गुरु जी की ऐसी की तैसी।" मैंने शख़्त भाव से कहा____"ऐसा कुछ नहीं होने दूंगा मैं। अब आप इस बात को ले कर बिल्कुल भी चिंता मत कीजिए। मैं दुनियां के हर वैद्य को ला कर इस हवेली में क़ैद कर दूंगा और उन्हें हुकुम दूंगा कि अगर मेरे बड़े भैया की तबियत ज़रा सी भी ख़राब हुई तो मैं उन सबकी खाल में भूसा भर दूंगा।"

"तुम्हारी ये बातें सुनने के लिए काश इस वक़्त तुम्हारे भैया यहाँ होते।" भाभी ने ख़ुशी से डबडबाई आंखों से मुझे देखते हुए कहा____"तो वो भी जान जाते कि जिस भाई को वो बिल्कुल ही नालायक और ग़ैर ज़िम्मेदार समझते हैं उसके अंदर अपने बड़े भाई के लिए कितना प्रेम है। मैं जानती थी वैभव कि तुम ऊपर से ही इतने शख़्त हो और बुरा बने रहते हो लेकिन अंदर से तुम दादा ठाकुर की ही तरह नरम हो और तुम्हारे अंदर एक अच्छा इंसान भी है। मुझे बहुत ख़ुशी हुई तुम्हारा ये रूप देख कर और अब यही चाहती हूं कि तुम ऐसे ही रहो। जब तुम्हारे बड़े भैया अपने लिए तुम्हारा ये प्रेम देखेंगे तो उनके अंदर से भी तुम्हारे प्रति भरा हुआ गुस्सा निकल जाएगा।"

"मुझे पता है कि वो मुझे शुरू से ही बहुत प्यार करते रहे हैं।" मैंने इस बार हल्की मुस्कान के साथ कहा____"वो प्यार ही था भाभी कि उन्होंने कभी भी मुझ पर गुस्से से हाथ नहीं उठाया। ख़ैर, आप बेफिक्र हो जाइए, मैं बड़े भैया को कुछ नहीं होने दूंगा। अब आप जाइए और नहा धो लीजिए। मैं कुसुम को बोल देता हूं कि वो आपके लिए खाना यहीं पर भेजवा दे।"

"कुसुम को क्यों बोलोगे?" भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा___"क्या तुम ख़ुद अपनी भाभी के लिए खाना नहीं ला सकते? आख़िर नाराज़ तो मैं तुमसे ही थी।"
"ठीक है भाभी।" मैंने कहा____"मैं ही आपके लिए खाना ले आऊंगा। अब आप जाइए और नहा धो लीजिए।"

"क्या अपनी भाभी के साथ रंग नहीं खेलोगे?" भाभी ने ये कहा तो मैंने चौंक कर उनकी तरफ देखा। जबकि वो इस बार मुस्कुराते हुए बोलीं____"विभोर और अजीत तो मेरे साथ रंग खेलने से डरते हैं इस लिए वो मुझे रंग लगाने नहीं आते। आज जबकि तुम्हारी वजह से मुझे एक ख़ुशी मिली है तो मैं चाहती हूं कि तुम भी इस ख़ुशी में रंगों का ये त्यौहार मनाओ। वैसे तुम्हारे चेहरे पर लगा हुआ ये रंग बता रहा है कि तुम किसी के साथ होली खेल रहे थे।"

"जी वो कुसुम...।" मैंने ये कहा ही था कि भाभी ने हंसते हुए कहा____"तुम कुसुम के साथ होली खेल रहे थे? तुम भी हद करते हो देवर जी। होली में रंग तो भाभी के साथ खेला जाता है।"

भाभी की बात सुन कर मैं चुप हो गया। असल में मुझे ख़याल आ गया कि अच्छा हुआ भाभी ने मेरी बात काट दी थी वरना मैं तो उन्हें ये बता देने वाला था कि मैं कुसुम की सहेलियों के साथ होली खेल रहा था। मेरी ये बात सुन कर भाभी तुरंत ताड़ जाती कि मैं कुसुम की सहेलियों के साथ किस तरह की होली खेल रहा था।

"क्या हुआ?" मुझे चुप देख भाभी ने कहा____"क्या तुम भी विभोर और अजीत की तरह मेरे साथ होली खेलने से डर रहे हो?"
"बात डर की नहीं है भाभी।" मैंने सहसा झिझकते हुए कहा____"बल्कि बात है आपके मान सम्मान और मर्यादा की। मैं आपकी बहुत इज्ज़त करता हूं और मैं हमेशा यही सोचता हूं कि मेरी वजह से आपके मान सम्मान पर कोई आंच न आए।"

"हां मैं जानती हूं वैभव।" भाभी ने कहा____"मैं जानती हूं कि तुम मेरा बहुत सम्मान करते हो लेकिन मैं ये नहीं जानती कि तुम हमेशा मुझसे दूर दूर क्यों रहते हो? मैंने अक्सर ये महसूस किया है कि जब भी मैं तुमसे बात करती हूं तो तुम बहुत जल्दी मुझसे दूर भागने की कोशिश करने लगते हो। आख़िर इसकी क्या वजह है वैभव?"

"सिर्फ इस लिए कि मेरे द्वारा आपका अपमान न हो और आपका मान सम्मान बना रहे।" मैंने भाभी की तरफ देखते हुए कहा____"आप तो जानती ही हैं भाभी कि मेरा चरित्र कैसा है, इस लिए मैं ये किसी भी कीमत पर नहीं चाहता कि मेरे मन में आपके प्रति एक पल के लिए भी बुरे ख़याल आएं। यही वजह है कि मैं हमेशा आपसे दूर दूर ही रहता हूं।"

भाभी से मैंने सच्चाई बता दी थी और अब मेरा दिल ये सोच कर ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा था कि मेरी बात सुन कर भाभी मेरे बारे में क्या सोचेंगी और क्या कहेंगी मुझसे? इस वक़्त मैं अपने बारे में बहुत ही बुरा महसूस करने लगा था। ऐसा शायद इस लिए क्योंकि इस बार मामला मेरे खानदान की औरत का था और उस औरत का था जो मेरी नज़र में एक देवी थी।

"मन बहुत चंचल होता है वैभव।" कुछ देर मुझे देखते रहने के बाद भाभी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"और ये भी सच है कि इंसान का अपने उस चंचल मन पर कोई ज़ोर नहीं होता। बड़े बड़े साधू महात्मा भी उस चंचल मन की वजह से अपना तप और अपना ज्ञान खो देते हैं। हम तो मामूली इंसान हैं फिर हम भला कैसे अपने मन को काबू में रख सकते हैं? आज की दुनियां में पापी और गुनहगार वही माना जाता है जिसका बुरा कर्म लोगों की नज़र में आ जाता है और जिनके पाप और गुनाह लोगों की नज़र में नहीं आते वो पाक़ बने रहते हैं। जबकि सच तो ये है कि आज का हर इंसान हर पल पाप और गुनाह करता है। ज़रूरी नहीं कि पापी और गुनहगार उसी को कहा जाए जिसके ग़लत कर्म लोगों की नज़र में आ जाएं बल्कि पापी और गुनहगार तो वो भी कहलाएंगे जो अपने मन के द्वारा किसी के बारे में ग़लत सोच कर पाप और गुनाह करते हैं। तुम्हारा चरित्र और तुम्हारे कर्म लोगों की नज़र में हैं इस लिए तुम लोगों की नज़र में पापी और गुनहगार हो जबकि मुमकिन है कि तुम्हारी तरह ही पापी और गुनहगार मैं भी होऊं।"

"ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" मैंने आश्चर्य से उनकी तरफ देखते हुए कहा____"आप तो देवी हैं भाभी। आप भला पापी और गुनहगार कैसे हो सकती हैं?"

"क्यों नहीं हो सकती देवर जी?" भाभी ने उल्टा सवाल करते हुए कहा____"आख़िर वैसा ही एक चंचल मन मेरे अंदर भी तो है और हर किसी की तरह मेरा भी अपने मन पर कोई ज़ोर नहीं है। हो सकता है कि मेरा मन भी किसी न किसी के बारे में ग़लत सोचता हो। ऐसे में तो मैं भी तुम्हारी तरह पापी और गुनहगार ही हो गई न? तुम तो सिर्फ ये जानते हो कि मैंने अभी तक ऐसे कोई ग़लत कर्म नहीं किए हैं जिसके लिए मुझे पापी या गुनहगार कहा जाए लेकिन जैसा कि मैंने अभी कहा कि पापी या गुनहगार सिर्फ वही लोग नहीं होते जिनके ग़लत कर्म लोगों की नज़र में आ जाते हैं, बल्कि पापी तो वो भी होते हैं जो मन से ग़लत कर्म करते हैं। तुम भला ये कैसे जान सकते हो कि मैंने मन से कोई ग़लत कर्म किया है या नहीं? इस वक़्त तुम या मैं भले ही एक दूसरे के बारे में ग़लत सोचें मगर जब तक ग़लत कर्म दिखेगा नहीं तब तक हम दोनों ही पाक़ और अच्छे बने रहेंगे। ख़ैर छोडो ये सब बातें, तो तुम इस वजह से हमेशा मुझसे दूर दूर रहते थे?"

"जी।" मैंने बस इतना ही कहा।
"मन किसी के काबू में नहीं रहता।" भाभी ने शांत भाव से कहा____"लेकिन इंसान को भटकाने वाले इस मन को भी किसी तरह भटकाना पड़ता है। उसे उस जगह पर क़याम करने से रोकना पड़ता है जहां पर उसके क़याम करने से इंसान ग़लत करने पर मजबूर होने लगता है। आज के युग में जिसने अपने मन को ग़लत जगह पर क़याम करने से रोक लिया वही महान है। ख़ैर, मुझे यकीन है कि अब से सब अच्छा ही होगा।"

मैं तो भाभी की बातें साँसें रोक कर सुन रहा था और सच तो ये था कि मैं उनकी बातें सुनने में जैसे मंत्रमुग्ध ही हो गया था। आज पहली बार ऐसा हुआ था कि मैं उनके पास इतनी देर तक रुका था और उनकी बातें सुन रहा था। इससे पहले जहां मैं अक्सर ये सोचता था कि कितना जल्दी उनसे दूर चला जाऊं वहीं अब मैं ये चाह रहा था कि उनके पास ही रहूं। ये वक़्त और हालात भी बड़े अजीब होते हैं, अक्सर इंसान को ऐसी परिस्थिति में ला कर खड़ा कर देते हैं जिसके बारे में इंसान ने सोचा भी नहीं होता।

"तुम यहीं रुको मैं नीचे से रंग ले कर आती हूं।" भाभी ने मेरी तन्द्रा भंग करते हुए कहा____"अभी शाम नहीं हुई है। इतना तो हमारे पास वक़्त है कि हम देवर भाभी एक दूसरे को रंग लगा सकें।"
"पर भाभी।" मैंने असमंजस में ये कहा तो भाभी ने कहा____"आज होली है इस लिए आज के दिन हर ख़ता सब माफ़ है देवर जी।"

"मैं तो ये कह रहा था कि।" मैंने कहा____"अगर बड़े भैया यहाँ आ गए और उन्होंने मुझे आपके साथ रंग खेलते हुए देख लिया तो कहीं वो गुस्सा न हो जाएं।"
"आज वो यहाँ नहीं आएंगे वैभव।" भाभी ने कहा____"आज वो साहूकारों के लड़कों के साथ होली का आनंद ले रहे होंगे। तुम रुको, मैं रंग ले कर बस थोड़ी ही देर में आ जाऊंगी।"

इतना कहने के बाद भाभी मेरी बात सुने बिना ही कमरे से बाहर निकल ग‌ईं। उनके जाने के बाद मैं कमरे में बुत की तरह खड़ा रह गया। आज भाभी के द्वारा मुझे एक ऐसे सच का पता चला था जिसके बारे में मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मेरे बड़े भैया के बारे में कुल गुरु ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि उनका जीवन काल ज़्यादा समय का नहीं है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ये तक़दीर का कैसा खेल था कि वो मेरे भाई को इस तरह दुनियां से उठा लेने वाली थी और एक सुहागन को भरी जवानी में ही विधवा बना देने का इरादा किए बैठी थी मगर मैंने भी सोच लिया था कि मैं ऐसा होने नहीं दूंगा। मैं गुरु जी की इस भविष्यवाणी को ग़लत कर के रहूंगा।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 23
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अब तक,,,,,

"मैं तो ये कह रहा था कि।" मैंने कहा____"अगर बड़े भैया यहाँ आ गए और उन्होंने मुझे आपके साथ रंग खेलते हुए देख लिया तो कहीं वो गुस्सा न हो जाएं।"
"आज वो यहाँ नहीं आएंगे वैभव।" भाभी ने कहा____"आज वो साहूकारों के लड़कों के साथ होली का आनंद ले रहे होंगे। तुम रुको, मैं रंग ले कर बस थोड़ी ही देर में आ जाऊंगी।"

इतना कहने के बाद भाभी मेरी बात सुने बिना ही कमरे से बाहर निकल ग‌ईं। उनके जाने के बाद मैं कमरे में बुत की तरह खड़ा रह गया। आज भाभी के द्वारा मुझे एक ऐसे सच का पता चला था जिसके बारे में मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मेरे बड़े भैया के बारे में कुल गुरु ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था कि उनका जीवन काल ज़्यादा समय का नहीं है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि ये तक़दीर का कैसा खेल था कि वो मेरे भाई को इस तरह दुनियां से उठा लेने वाली थी और एक सुहागन को भरी जवानी में ही विधवा बना देने का इरादा किए बैठी थी मगर मैंने भी सोच लिया था कि मैं ऐसा होने नहीं दूंगा। मैं गुरु जी की इस भविष्यवाणी को ग़लत कर के रहूंगा।

अब आगे,,,,,,



भाभी के कमरे में खड़ा मैं अभी ये सब सोच ही रहा था कि तभी कुसुम एकदम से किसी आंधी तूफ़ान की तरह कमरे में दाखिल हुई जिससे मैंने चौंक कर उसकी तरफ देखा। उसकी साँसें थोड़ी तेज़ से चल रहीं थी। मैं समझ गया कि ये भागते हुए यहाँ आई है किन्तु क्यों आई है ये मुझे समझ न आया। उसके चेहरे पर और कपड़ों पर रंग लगा हुआ था।

"क्या हुआ?" मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा____"आँधी तूफ़ान बनी कहां घूम रही है तू?"
"अपनी सहेलियों के चक्कर में।" उसने अपनी फूली हुई साँसों को काबू करते हुए कहा____"मैं ये तो भूल ही गई कि मैंने अपने सबसे अच्छे भैया को तो रंग लगाया ही नहीं। अभी नीचे भाभी ने जब मुझसे पूछा कि रंग कहां रखा है तो मैंने उन्हें बताया और फिर एकदम से मैंने सोचा कि भाभी रंग के बारे में मुझसे क्यों पूछ रही हैं? वो तो नाराज़ हो कर अपने कमरे में बंद थीं, तब मुझे याद आया और फिर मैंने सोचा कि हो सकता है आप भाभी कमरे में उनसे मिलने गए हों और आपने उनकी नाराज़गी दूर कर दी हो। उसके बाद उन्होंने सोचा होगा कि आज होली का त्यौहार है तो उन्हें अपने देवर को रंग लगाना चाहिए इस लिए वो मुझसे रंग के बारे में पूछ रहीं थी। बस फिर मुझे भी याद आया कि मैंने तो अभी तक आपको रंग लगाया ही नहीं। इस लिए भागते हुए चली आई यहां।"

"इतनी सी बात को कम शब्दों में नहीं बता सकती थी तू?" कुसुम की बात जब पूरी हुई तो मैंने आँखें दिखाते हुए उससे कहा____"इतना घुमा फिरा कर बताने की क्या ज़रूरत थी?"
"अब आप बाकी भाइयों की तरह मुझे डांतिए मत।" कुसुम ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"इससे पहले कि भाभी यहाँ आ जाएं मुझे आपको रंग लगाना है और आप इसके लिए मना नहीं करेंगे।"

"अच्छा ठीक है।" मैंने कहा____"जल्दी से रंग लगा ले और जा यहाँ से।"
"जल्दी से जाने को क्यों कह रहे हैं मुझे?" कुसुम ने आँखें निकालते हुए कहा____"और हां ये बताइए कि मेरी सहेलियों को रंग लगाया कि नहीं आपने?"

"हां वो थोड़ा सा लगाया मैंने।" उसके एकदम से पूछने पर मैंने थोड़ा नरम भाव से कहा____"लेकिन फिर वो जल्दी ही कमरे से चली गईं थी।"
"ऐसा क्यों?" कुसुम ने सोचने वाले अंदाज़ से पूछा____"क्या उन्होंने आपको रंग नहीं लगाया?"

"मेरे चेहरे पर उन्हीं का लगाया हुआ तो रंग लगा है।" मैंने कहा____"तुझे दिख नहीं रहा क्या?"
"अरे! तो आप भड़क क्यों रहे हैं?" कुसुम ने फिर से बुरा सा मुँह बनाया____"वैसे मैं जा कर पूछूंगी उन दोनों से कि वो आपके कमरे से इतना जल्दी क्यों चली आईं थी?"

"अरे! इसमें पूछने वाली कौन सी बात है?" मैंने मन ही मन चौंकते हुए कहा____"उन्हें रंग लगाना था तो लगाया और फिर चली गईं। अब क्या वो सारा दिन मेरे कमरे में ही बैठी रहतीं?"
"हां ये भी सही कहा आपने।" कुसुम ने भोलेपन से कहा____"ख़ैर छोड़िए, मैं जल्दी से आपको रंग लगा देती हूं। आपको पता है अभी मेरी दो सहेलियां और आई हुईं हैं इस लिए मुझे उनके साथ भी रंग खेलना है।"

कुसुम की बात सुन कर मैंने इस बार कुछ नहीं कहा। मैं जानता था कि मैं उससे जितना बतवाऊंगा वो उतना ही बात करती रहेगी। इस लिए मैंने उसे रंग लगाने को कहा तो उसने अपने हाथ में ली हुई पानी से भरी हुई गिलास को एक तरफ रखा और फिर दूसरे हाथ में लिए हुए रंग को उसने पहले वाले हाथ में थोड़ा सा डाला। रंग डालने के बाद उसने गिलास से थोड़ा पानी अपनी हथेली में डाला और फिर उसे दोनों हाथों में मलते हुए मेरी तरफ बढ़ी। मैं चुप चाप खड़ा उसी को देख रहा था। जैसे ही वो मेरे क़रीब आई तो उसके होठों पर मुस्कान उभर आई। कुसुम अपने दोनों हाथों को बढ़ा कर मेरे दोनों गालों पर अपने कोमल कोमल हाथों से मुस्कुराते हुए रंग लगाने लगी।

हवेली में मैं किसी से भी रंग नहीं खेलता था किन्तु वो हर साल मुझे ऐसे ही रंग लगाती थी और खुश हो जाती थी। बाकी भाई तो उसे झिड़क देते थे इस लिए वो उनके पास रंग लगाने नहीं जाती थी। होली के दिन रंग खेलना उसे बहुत पसंद था तो मैं भी उसकी ख़ुशी के लिए रंग लगवा लेता था।

"हो गया?" उसने जब अच्छे से मेरे चेहरे पर रंग लगा लिया तो मैंने पूछा____"या अभी और लगाना है?"
"हां हो गया।" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"चलिए अब आप भी मुझे रंग लगाइए और अपना बदला पूरा कीजिए। मुझे अभी अपनी उन सहेलियों को भी रंग लगाना है। कहीं वो दोनों चली न जाएं।"

उसकी बात सुन कर मैंने उसी से रंग लिया और उसके ही जैसे रंग में थोड़ा पानी मिला कर रंग को अपनी हथेली में मला और फिर प्यार से उसके दोनों गालों पर लगा दिया। इस वक़्त वो एकदम से छोटी सी बच्ची बनी हुई थी और मुझे उस पर बेहद प्यार आ रहा था। उसे रंग लगाने के बाद मैंने उसके माथे को चूमा और फिर कहा____"सदा खुश रह और ऐसे ही हंसती मुस्कुराती रह।"

"आप भी हमेशा खुश रहिए।" उसकी आवाज़ सहसा भारी हो गई____"और अपनी इस बहन को ऐसे ही प्यार करते रहिए।"
"ये तुझे कहने की ज़रूरत नहीं है।" मैंने उसके चेहरे को एक हाथ से सहलाते हुए कहा___"सारी दुनिया चाहे तुझसे रूठ जाए लेकिन तेरा ये भाई तुझसे कभी नहीं रूठेगा। ख़ैर अब जा और अपनी सहेलियों के साथ रंग खेल।"

मेरे कहने पर कुसुम मुस्कुराती हुई पलटी और फिर अपना रंग और पानी का गिलास ले कर कमरे से बाहर चली गई। उसके जाने के बाद मैं कुसुम के बारे में सोचने ही लगा था कि तभी भाभी कमरे में आ ग‌ईं। उनके एक हाथ में कागज़ में लिपटा हुआ रंग था और दूसरे हाथ में पानी का मग्घा।

"तो लाडली बहन आई थी अपने भाई को रंग लगाने?" भाभी ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा तो मैंने भी मुस्कुराते हुए कहा____"आप तो जानती हैं उसे। जब आपने उससे रंग के बारे में पूछा तब उसे याद आया कि उसने अभी अपने भाई को रंग लगाया ही नहीं है। इस लिए भागते हुए आई थी यहां।"

"तुम्हें शायद इस बात का इल्म न हो।" भाभी ने थोड़े संजीदा भाव से कहा____"लेकिन मैंने महसूस किया है कि पिछले कुछ महीनों से वो किसी किसी दिन बहुत ही गंभीर दिखती है। मुझे लगता है कि कुछ तो बात ज़रूर है उसके इस तरह गंभीर दिखने की। मैंने एक दो बार उससे पूछा भी था किन्तु उसने कुछ बताया नहीं। बस यही कहा कि तबीयत ख़राब है।"

"मुझे भी ऐसा ही लगता है।" मैंने कहा तो भाभी ने चौंक कर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"क्या मतलब? क्या तुम्हें भी इस बात का आभास हुआ है?"
"जिस दिन मैं हवेली आया था।" मैंने कहा____"उसी दिन उससे कुछ बातें की थी मैंने और उसी दिन उसने मुझसे कुछ ऐसी बातें की थी जिन बातों की कम से कम मैं उससे उम्मीद नहीं करता था।"

"ऐसी क्या बातें की थी उसने?" भाभी ने सोचने वाले भाव से पूछा____"और क्या तुमने उससे उस दिन पूछा नहीं था कुछ?"
"उसकी बातें दार्शनिकों वाली थी भाभी।" मैंने कहा____"लेकिन उसकी उन बातों में गहरी बात भी थी जिसने मुझे चौंका दिया था और जब मैंने उससे पूछा तो उसने बड़ी सफाई से बात को टाल दिया था। उसके जाने के बाद मैंने सोचा था कि उसकी बातों के बारे में अपने तरीके से पता करुंगा लेकिन ऐसा अवसर ही नहीं आया क्योंकि मैं एक बार फिर से गुस्सा हो कर हवेली से चला गया था।"

"इस बारे में तुम्हें ठंडे दिमाग़ से विचार करने की ज़रूरत है वैभव।" भाभी ने कहा____"तुम्हें समझना होगा कि आज कल परिस्थितियां कैसी हो गई हैं लेकिन तुम तो हमेशा गुस्से में ही रहते हो।"

"मेरा ये गुस्सा बेवजह नहीं है भाभी।" मैंने गहरी सांस खींचते हुए कहा____"बल्कि इसके पीछे एक बड़ी वजह है।"
"तुम्हारा गुस्सा बेवजह ही है वैभव।" भाभी ने ज़ोर देते हुए कहा____"तुम बेवजह ही दादा ठाकुर से इतनी बेरुखी से बात करते हो। मैं तो ये सोच कर चकित हो जाती हू कि तुम उनसे ऐसे लहजे में कैसे बात लेते होगे?"

"वैभव सिंह ऐसे ही जियाले का नाम है भाभी।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"जो किसी से भी नहीं डरता और जिससे भी बात करता है बिल्कुल बेख़ौफ़ हो कर बात करता है। फिर भले ही उसके सामने दादा ठाकुर ही क्यों न हों।"

"अभी एक थप्पड़ लगाऊंगी तो सारा जियालापन निकल आएगा तुम्हारा।" भाभी ने हंसते हुए कहा____"बड़े आए बेख़ौफ़ हो कर बात करने वाले। अगर इतने ही बड़े जियाले हो तो अब तक मुझसे दूर क्यों भागते थे?"

"वो...वो तो मैं।" मैंने अटकते हुए कुछ कहना ही चाहा था कि भाभी ने मुझे बीच में ही टोकते हुए कहा____"बस बस बताने की ज़रूरत नहीं है। ख़ैर अब बातों में वक़्त जाया न करवाओ और मुझे अपने देवर को रंग लगाने दो।"

"जी ठीक है भाभी।" मैंने सिर हिलाते हुए कहा तो भाभी ने कागज़ से रंग निकालते हुए कहा____"वैसे इस कमरे में आने से पहले किसके साथ रंग खेल कर आए थे? उस वक़्त मेरे पूछने पर जब तुमने कुसुम का नाम लिया तो मैंने यही समझा था कि तुमने कुसुम के साथ रंग खेला था लेकिन अभी जब कुसुम यहाँ तुम्हें रंग लगाने आई तब समझ आया कि उस वक़्त तुम कुसुम के साथ नहीं बल्कि किसी और के साथ रंग खेल कर आए थे। मैं सही कह रही हूं न?"

"जी भाभी।" मैंने नज़रें झुकाते हुए कहा____"पर मैं उस वक़्त आपको बताने ही वाला था लेकिन आपने ही मेरी बात काट दी थी।"
"अच्छा तो चलो अब बता दो।" भाभी ने हाथ में रंग लेने के बाद उसमे पानी मिलाते हुए कहा____"आख़िर किसके साथ रंग खेल कर आए थे?"

"जाने दीजिए न भाभी।" मैंने बात को टालने की गरज़ से कहा____"मैं किसके साथ रंग खेल कर आया था इस बात को जानने की क्या ज़रूरत है?"
"अरे! ज़रूरत क्यों नहीं है?" भाभी ने अपनी भौंहों को चढ़ाते हुए कहा____"बल्कि मेरा तो ये जानने का हक़ है कि मेरा देवर किसके साथ रंग खेल कर यहाँ आया था? वैसे मुझे कुछ कुछ अंदाज़ा तो है किन्तु मैं तुम्हारे मुँह से जानना चाहती हूं। अब जल्दी से बताओ भी, इतना भाव मत खाओ?"

"वो..मैं अपने कमरे में गया तो कुछ ही देर में कुसुम भी वहां पहुंच गई थी।" मैंने झिझकते हुए कहा____"कुसुम के साथ उसकी दो सहेलियां भी थीं। कुसुम ने मुझे बताया कि उसकी वो सहेलियां मुझे रंग लगाना चाहती हैं। कुसुम की बात सुन कर मैंने इसके लिए इंकार नहीं किया।"

"मुझे लग ही रहा था कि ऐसी ही कोई बात होगी।" भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"आख़िर हमारे देवर जी लड़की ज़ात से इतना प्रेम जो करते हैं।"
"ऐसी कोई बात नहीं है भाभी।" मैंने एकदम से झेंपते हुए कहा____"वो तो बस मैंने उनकी ख़ुशी के लिए रंग लगवा लिया है।"

"अच्छा जी।" भाभी ने आँखें चौड़ी करते हुए कहा____"तुमने उनसे सिर्फ रंग लगवाया? उन्हें रंग नहीं लगाया??"
"वो तो मैंने भी लगाया भाभी।" मैंने इस बार हल्के से मुस्कुराते हुए कहा तो भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"वही तो, भला ऐसा कैसे हो सकता था कि दो सुन्दर लड़कियां हमारे देवर जी के पास उन्हें रंग लगाने आएं और ठाकुर वैभव सिंह उनसे रंग लगवाने के बाद खुद उन्हें भी रंग से सराबोर न करें? ख़ैर चलो अच्छी बात है, कम से कम तुम्हारी रंग खेलने की शुरुआत दो सुन्दर लड़कियों से तो हुई। एक हम ही थे जो कल से मुँह फुलाए यहाँ अपने कमरे में पड़े हुए थे और किसी ने हमारी ख़बर तक नहीं ली।"

भाभी की बातें सुन कर मैं कुछ न बोला बल्कि उन्हें बस देखता ही रहा। उधर भाभी ने रंग को अपने हाथों में अच्छी तरह मला और फिर मेरी तरफ बढ़ते हुए कहा____"तुम्हारे चेहरे पर तो पहले से ही रंग लगा हुआ है वैभव, ऐसे में हमारा लगाया हुआ रंग भला कैसे चढ़ेगा?"

"आपका लगाया हुआ रंग तो सबसे ज़्यादा चढ़ेगा भाभी।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"क्योंकि इसमें आपका ढेर सारा प्यार और स्नेह शामिल है। आपका लगाया हुआ रंग मेरे चेहरे पर ही नहीं बल्कि मेरी आत्मा पर भी चढ़ जाएगा।"

"अगर ऐसी बात है।" भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा___"तब तो ये मेरे लिए सबसे अच्छी बात है वैभव। तुम्हारी इस बात में जो मर्म है वो ये जताता है कि तुम्हारे अंदर अपनी इस भाभी के प्रति इज्ज़त और सम्मान की भावना है और इस बात से मुझे बेहद ख़ुशी महसूस हो रही है।"

ये कह कर भाभी ने बड़े प्यार से मेरे चेहरे पर हल्के हाथों से रंग लगाना शुरू कर दिया। मैं ख़ामोशी से उनके मुस्कुराते हुए चेहरे को ही देखता जा रहा था। उनकी नज़रें मेरी नज़रों से ही मिली हुईं थी। मुझे एकदम से ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं उनकी गहरी आँखों में डूबने लगा हूं तो मैंने जल्दी ही खुद को सम्हाला और उनकी आँखों से अपनी नज़रें हटा ली।

"मैंने कहा न कि आज के दिन हर ख़ता माफ़ है वैभव।" मुझे नज़रें हटाता देख भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"इस लिए इस वक़्त अपनी भाभी से किसी भी बात के लिए झिझक या शर्म महसूस न करो। जैसे मैं बेझिझक हो कर अपने देवर को रंग लगा रही हूं वैसे ही तुम भी अपनी भाभी को रंग लगाना।"

"सोच लीजिए फिर।" मैंने फिर से उनकी आँखों में देखते हुए कहा____"बाद में ये मत कहिएगा कि मैंने कुछ ग़लत कर दिया है।"
"अरे! इसमें ग़लत करने जैसी कौन सी बात है भला?" भाभी ने अपने दोनों हाथ मेरे चेहरे से हटाते हुए कहा____"तुम्हें रंग ही तो लगाना है तो इसमें ग़लत क्या हो जाएगा?"

"मेरे रंग लगाने का तरीका ज़रा अलग है भाभी।" मैंने धड़कते हुए दिल से कहा____"और मेरा वो तरीका आपको बिल्कुल भी पसंद नहीं आएगा।"
"अजीब बात है।" भाभी ने मानो उलझ गए भाव से कहा___"क्या रंग लगाने के भी अलग अलग तरीके होते हैं? मैं तो पहली बार सुन रही हूं ऐसा। ख़ैर तुम बताओ कि तुम किस तरीके से रंग लगाते हो?"

"मेरा तरीका मत पूछिए भाभी।" मैंने बेचैन भाव से कहा___"अगर मैंने आपको अपने रंग लगाने का तरीका बताया तो आप मेरे बारे में ग़लत सोचने लगेंगी और हो सकता है कि आप मुझ पर गुस्सा भी हो जाएं।"

"तब तो मैं ज़रूर जानना चाहूंगी कि तुम किस तरीके से रंग लगाते हो?" भाभी ने मानो ज़िद करते हुए कहा____"चलो अब बताओ मुझे और हां चिंता मत करो, मैं तुम पर गुस्सा नहीं करुंगी।"

"वो भाभी बात ये है कि।" कुछ देर भाभी की तरफ देखते रहने के बाद मैंने धड़कते दिल से कहा____"एक तो मैं रंग खेलता नहीं हूं और अगर किसी लड़की या औरत के साथ रंग खेलता हूं तो मैं अपने तरीके के अनुसार लड़की या औरत के बदन के हर हिस्से पर रंग लगता हूं।"

"क्या????" मेरी बात सुन कर भाभी बुरी तरह उछल पड़ीं, फिर हैरत से आँखें फाड़े बोलीं____"हे भगवान! तो तुम इस तरीके से रंग लगाते हो? तुम तो बड़े ख़राब हो। भला इस तरह कौन किसी को रंग लगाता है?"

"कोई और लगाता हो या न लगाता हो भाभी लेकिन मैं तो ऐसे ही रंग लगता हूं।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"अब जबकि मैंने आपको अपना तरीका बता ही दिया है तो आपको मैं ये भी बता देता हूं कि कुसुम की जिन सहेलियों ने मेरे कमरे में आ कर मुझे रंग लगाया था उनको मैंने अपने इसी तरीके से रंग लगाया है।"

"हे भगवान!" भाभी आश्चर्य से आँखें फाड़ते हुए बोलीं____"तुम तो सच में बहुत गंदे हो। पर उन्होंने तुमसे इस तरीके से रंग कैसे लगवा लिया? क्या उन्हें तुम पर गुस्सा नहीं आया?"

"ग़ुस्सा क्यों आएगा भाभी?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"वो तो मेरे कमरे में आई ही इसी मकसद से थीं वरना आप ख़ुद सोचिए कि कोई शरीफ लड़की किसी मर्द के कमरे में उसे रंग लगाने क्यों आएगी और अगर आएगी भी तो इस तरीके से रंग लगवाने पर राज़ी कैसे हो जाएगी?"

"हां ये भी सही कहा तुमने।" भाभी ने ठंडी सांस खींचते हुए कहा___"इसका मतलब कुसुम की वो दोनों सहेलियां एक नंबर की चालू थीं। रुको मैं कुसुम से इस बारे में बात करुँगी और उसे समझाऊंगी कि ऐसी लड़कियों को अपनी सहेली न बनाए जिनका चरित्र इतना गिरा हुआ हो।"

"नहीं भाभी।" मैंने हड़बड़ा कर कहा____"आप कुसुम से इस बारे में कुछ मत कहना। क्योंकि ऐसे में वो समझ जाएगी कि आपको ये सब बातें मेरे द्वारा पता चली हैं और फिर वो मुझ पर ही नहीं बल्कि अपनी सहेलियों से भी गुस्सा हो जाएगी। आप इस बारे में उससे कुछ मत कहिएगा, मैं खुद ही कुसुम को अपने तरीके से समझा दूंगा।"

"ठीक है, अच्छे से समझा देना उसे।" भाभी ने चिंतित भाव से कहा____"ऐसी लड़कियों को सहेली बनाना उसके लिए उचित नहीं है। मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा कि उन लड़कियों ने तुमसे इस तरह से रंग लगवा लिया है, लेकिन यकीन इस लिए कर रही हूं क्योंकि जानती हूं कि तुम्हारा जादू उन पर चल गया होगा। भगवान के लिए वैभव ये सब छोड़़ दो। ये सब अच्छी चीज़ें नहीं हैं। इससे हमारे खानदान का और ख़ुद तुम्हारा भी नाम बदनाम होता है।"

"ठीक है भाभी।" मैंने कहा____"कोशिश करुंगा कि आगे से ऐसा न करूं। ख़ैर अब आप जाइए और नहा धो लीजिए। मैं आपके लिए खाना ले कर आता हूं।"
"अरे! अभी तुम भी तो मुझे रंग लगाओगे।" भाभी ने जैसे मुझे याद दिलाते हुए कहा____"और हां अपने तरीके से मुझे रंग लगाने का सोचना भी मत वरना डंडे से पिटाई करुँगी तुम्हारी। अब चलो जल्दी से रंग लगाओ, उसके बाद ही नहाने जाऊंगी।"

भाभी की बात सुन कर मैं मुस्कुराया और फिर कागज़ से रंग ले कर मैंने उसमे थोड़ा पानी मिलाया और फिर दोनों हाथों में अच्छे से मलने के बाद मैं आगे बढ़ा। भाभी के सुन्दर चेहरे पर रंग लगाने का सोच कर ही सहसा मेरी धड़कनें तेज़ हो गईं थी। भाभी मुस्कुराते हुए मुझे ही देख रहीं थी। मैंने भाभी के चेहरे की तरफ अपने हाथ बढ़ाए और फिर हल्के हाथों से उनके बेहद ही कोमल गालों पर रंग लगाने लगा। भाभी की बड़ी बड़ी कजरारी आँखें मुझ पर ही गड़ी हुईं थी। उनको रंग लगाते लगाते एकदम से मेरा जी चाहा कि मैं उनके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठों को झुक कर चूम लूं। अपने ज़हन में आए इस ख़याल से मेरी धड़कनें और भी तेज़ हो गईं किन्तु एकदम से मुझे ख़याल आया कि ये मैं क्या सोच रहा हूं?

मैं एक झटके से भाभी से दूर हुआ। भाभी मुझे अचानक से इस तरह दूर होते देख चौंकी और हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए बोलीं____"क्या हुआ वैभव? तुम एकदम से पीछे क्यों हट गए?"
"माफ़ करना भाभी।" मैंने खुद को सम्हालते हुए कहा____"पता नहीं क्या हो जाता है मुझे? मैं जब भी आपके क़रीब होता हूं तो मैं आपकी तरफ आकर्षित होने लगता हूं। मुझे माफ़ कर दीजिए भाभी। मैं बहुत बुरा इंसान हूं।"

ये सब कहते कहते मैं एकदम से हताश सा हो गया था और इससे पहले कि वो मुझसे कुछ कहतीं मैं पलटा और तेज़ी से कमरे से निकल गया। मेरे पीछे भाभी अपनी जगह पर किंकर्तव्यविमूढ़ सी हालत में खड़ी रह गईं थी।

भाभी के कमरे से बाहर आ कर मैं सीधा अपने कमरे में आया और दरवाज़ा बंद कर के बिस्तर पर लेट गया। इस वक़्त मेरे दिलो दिमाग़ में आँधिया सी चल रहीं थी। मेरा दिल एकदम बेचैनी से भर गया था। भाभी से कही हुई अपनी ही बातें सोच सोच कर मैं अंदर ही अंदर एक आग में जलने लगा था। अभी तक तो ये था कि भाभी को मेरे अंदर की इन बातों का पता नहीं था इस लिए मुझे ज़्यादा चिंता नहीं होती थी किन्तु अब तो उन्हें सब पता चल गया था और अभी तो मैं साफ़ शब्दों में उनसे कह कर ही आया था कि मैं उनकी तरफ आकर्षित होने लगता हूं। मेरी बातें सुन कर यकीनन वो मेरे बारे में ग़लत ही सोचने लगी होंगी और ये भी ग़लत नहीं कि मेरी बातें सुन कर उन्हें मुझ पर बेहद गुस्सा भी आया होगा। मैं ऐसी ही बातों से तो हमेशा डरता था और यही वजह थी कि मैं हवेली में रुकता नहीं था। मैं ये हरगिज़ नहीं चाहता था कि इस हवेली की लक्ष्मी सामान बहू अपने देवर की हवस का शिकार हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो मैं अपने आपको कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगा। मेरी सोच और मेरे मन पर मेरा कोई अख़्तियार नहीं था। अपने सामने मैंने हज़ारों बार यही सोचा था कि अपनी देवी सामान भाभी के बारे में ग़लत नहीं सोचूंगा मगर उनके सामने जाते ही पता नहीं क्या हो जाता था मुझे। मैं किसी सम्मोहन की तरह उनकी सुंदरता के मोह जाल में फंस जाता था। ये तो शुक्र था कि ऐसी स्थिति में हर बार मैंने खुद को सम्हाल लिया था।

बिस्तर पर लेटा हुआ मैं बेचैनी से करवटें बदल रहा था और जब मुझे किसी भी तरह से चैन न आया तो मैं उठा और कमरे से बाहर चला गया। नीचे आया तो देखा अभी भी आँगन में औरतों की भीड़ थी। हलांकि अब पहले जैसी भीड़ नहीं थी किन्तु चहल पहल अभी भी ज़्यादा ही थी। मैं बिना किसी की तरफ देखे सीधा गुसलखाने में घुस गया और ठंडे पानी से नहाना शुरू कर दिया। काफी देर तक मैं नहाता रहा और फिर सारे गीले कपड़े उतार कर मैंने एक तौलिया लपेट लिया।

गुसलखाने से निकल कर मैं फिर ऊपर अपने कमरे में आया और कपड़े पहन कर फिर से निकल गया। इस बार मेरे मन में हवेली से बाहर जाने का ख़याल था। हवेली से बाहर आया तो देखा बड़े से मैदान में अभी भी काफी लोगों की भीड़ थी और एक तरफ निचली जाति वाले फाग गाने में मस्त थे। अभी मैं ये सब देख ही रहा था कि तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मैंने गर्दन घुमा कर देखा। मेरे पीछे तरफ जगताप चाचा जी खड़े नज़र आए।

"होली मुबारक हो वैभव बेटे।" चाचा जी ने बड़े प्यार से कहा और थाली से अबीर ले कर मेरे माथे पर लगा दिया। मैंने झुक कर उनके पैर छुए तो उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया।

"जाओ अपने पिता जी से भी आशीर्वाद ले लो।" चाचा जी ने कहा____"आज के दिन अपने मन में किसी भी प्रकार का मनमुटाव मत रखो। सबसे ख़ुशी ख़ुशी मिलो। जब तक किसी से मिलोगे नहीं तक लोगों के बारे में सही तरह से जानोगे कैसे? अभी तक तुमने अपनी नज़र से दुनियां और दुनियां वालों को देखा है, कभी इस दुनियां को दुनियां वालों की नज़र से भी देखो। हमें पूरा यकीन है कि तुम्हारा नज़रिया बदल जाएगा।"

जगताप चाचा जी की बातें सुन कर मैंने ख़ामोशी से सिर हिलाया और उनके हाथ से थाली ले कर मंच पर चढ़ गया। मंच में सिंघासन पर दादा ठाकुर बैठे हुए थे। मुझे मंच पर चढ़ता देख उन्होंने मेरी तरफ देखा। उनके अगल बगल शाहूकार मणिशंकर और हरिशंकर बैठे हुए थे, जो अब मेरी तरफ ही देखने लगे थे। यकीनन इस वक़्त मुझे मंच पर आया देख उन दोनों की धड़कनें तेज़ हो गईं होंगी। ख़ैर थाली लिए मैं पिता जी के पास पहुंचा।

"होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं पिता जी।" मैंने बड़े ही सम्मान भाव से कहा और चुटकी में अबीर ले कर उनके माथे पर लगा दिया। मेरी बात सुन कर उन्होंने पहले थाली से चुटकी में अबीर लिया और मेरे माथे पर लगाते हुए बोले___"तुम्हें भी होली का ये पर्व मुबारक हो। ईश्वर हमेशा तुम्हें खुश रखे और सद्बुद्धि दे।"

अगल बगल बैठे मणिशंकर और हरिशंकर हमारी तरफ ही देख रहे थे और इस वक़्त वो दोनों एकदम शांत ही थे। हलांकि उनकी आंखें हैरत से फटी पड़ी थीं। ख़ैर पिता जी की बात सुन कर मैं झुका और उनके पैरों में अपना सिर रख दिया। ऐसा पहली बार ही हुआ था कि मैंने उनके पैरों में इस तरह से अपना सिर रख दिया था। मैं खुद नहीं जानता था कि मैंने ऐसा क्यों किया था, बल्कि ये तो जैसे अपने आप ही हो गया था मुझसे। उधर पिता जी ने जब देखा कि मैंने उनके पैरों में अपना सिर रख दिया है तो उन्होंने मुझे बाजू से पकड़ कर उठाया और कहा____"आयुष्मान भव।"

मैंने देखा इस वक़्त दादा ठाकुर के चेहरे पर एक अलग ही तरह की चमक उभर आई थी। कदाचित इस लिए कि मैंने सबके सामने वो किया था जिसकी उन्हें ज़रा भी उम्मीद नहीं थी। ख़ैर पिता जी के बाद मैंने मणिशंकर को भी अबीर लगाते हुए होली की मुबारकबाद दी और जब उसके पैरों को छूने लगा तो उसने जल्दी से मुझे पकड़ लिया और फिर हड़बड़ाए हुए भाव से बोला____"इसकी कोई ज़रूरत नहीं है छोटे ठाकुर और हां आपको भी होली का ये त्यौहार मुबारक हो।"

मणिशंकर के बाद मैंने हरिशंकर को भी उसके जैसे ही अबीर लगाया और उसे होली की मुबारकबाद दी तो वो भी अपने बड़े भाई की तरह ही हड़बड़ा गया था। दोनों भाई मेरे द्वारा ऐसा किए जाने पर एकदम से चकित थे और मैं उन्हें चकित ही तो करना चाहता था। ख़ैर उसके बाद मैं पलटा तो देखा मंच के सामने काफी लोगों की नज़रें मुझ पर ही जमी हुई थीं। उन सबकी आँखों में हैरानी के भाव थे।

"ये बहुत अच्छा किया तुमने।" मंच से उतर कर जब मैं आया तो जगताप चाचा जी ने मुस्कुराते हुए कहा____"और यकीन मानो तुम्हारे ऐसा करने से दादा ठाकुर ही नहीं बल्कि हम सब भी बहुत खुश हो गए है। ये ऐसी चीज़ें हैं बेटे जो दुश्मन के दिल में भी अपने लिए ख़ास जगह बना देती हैं। हमें उम्मीद है कि हमारा सबसे लाडला भतीजा अब एक अच्छा इंसान बन कर दिखाएगा। हमेशा खुश रहो और ऐसे ही अच्छे संस्कारों के साथ अच्छे अच्छे काम करते रहो। अब जाओ और अपने बड़े भैया का भी आशीर्वाद ले लो।"

जगताप चाचा जी के कहने पर मैं थाली ले कर उस तरफ बढ़ चला जिस तरफ बड़े भैया साहूकारों के लड़कों के पास भांग के हल्के नशे में झूमते हुए बातें कर रहे थे। कुछ ही देर में मैं उनके पास पहुंच गया। मुझे आया देख साहूकारों के लड़के एकदम से पीछे हट गए। बड़े भैया की नज़र मुझ पर पड़ी तो उनके चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए। उनके पास ही खड़े विभोर और अजीत भी थोड़ा सहम कर पीछे हट गए थे। मैंने थाली से चुटकी में अबीर लिया और बड़े भैया के माथे पर लगाते हुए उन्हें होली की मुबारकबाद दी और फिर झुक कर उनके पैर छुए।

"ये...ये क्या कर रहा है तू?" बड़े भैया भांग के हल्के शुरूर में थे और जब उन्होंने मुझे अपना पैर छूटे देखा तो वो एकदम से बौखलाए हुए लहजे में बोल पड़े थे।
"आपके पैर छू कर।" मैंने बड़े ही आदर भाव से कहा____"आपका आशीर्वाद ले रहा हूं बड़े भैया। क्या अपने इस नालायक भाई को आशीर्वाद नहीं देंगे?"

मेरी बात सुन कर बड़े भैया ग़ौर से मेरी तरफ देखने लगे। इधर मेरे दिलो दिमाग़ में ये सोच कर एक दर्द सा उठने लगा था कि कुल गुरु ने भैया के बारे में ये भविष्यवाणी की थी कि उनका जीवन काल ज़्यादा समय का नहीं है। अभी मैं गुरु जी की भविष्यवाणी के बारे में सोचते हुए उन्हें देख ही रहा था कि उन्होंने एकदम से मुझे अपने गले से लगा लिया।

"वैभाव, मेरा भाई।" भैया ने मुझे गले से लगाए हुए कांपती हुई आवाज़ में कहा____"तुझे आशीर्वाद में ये भी नहीं कह सकता कि तुझे मेरी उम्र लग जाए। बस यही कहूंगा कि संसार की हर ख़ुशी मिले तुझे।"

"मुझे माफ़ कर दीजिए भैया।" उनकी बात सुन कर मैं मन ही मन चौंका था। इसका मतलब उन्हें अपने बारे में पता था। उनके इस तरह कहने से मेरी आँखों में आंसू भर आए, और फिर मैंने दुखी भाव से कहा____"मैंने हमेशा आपको दुःख दिए हैं।"
"आज की इस ख़ुशी में वो सारे दुःख नेस्तनाबूत हो गए वैभव।" बड़े भैया ने मेरी पीठ को सहलाते हुए करुण भाव से कहा____"चल आ जा। आज की इस ख़ुशी में तू भी भांग पी ले। हम दोनो अब खूब धूम मचाएंगे।"

बड़े भैया ने मुझे खुद से अलग किया। मैंने देखा उनकी आँखों में भी आंसू के कतरे थे जिन्हें उन्होंने अपनी रंगी हुई आस्तीन से पोंछ लिया। चारो तरफ खड़े लोग हैरानी से हम दोनों को देख रहे थे। साहूकारों के लड़कों का हाल भी वैसा ही था। भैया ने मेरा हाथ पकड़ा और खींच कर उस जगह ले आए जहां मटकों में भांग का शरबत भरा हुआ रखा था। मटके के पास एक आदमी खड़ा हुआ था जिसे भैया ने इशारा किया तो उसने एक गिलास भांग का शरबत उन्हें दिया। उस गिलास को भैया ने मुस्कुराते हुए मुझे देते हुए कहा ले वैभव इसे एक ही सांस में पी जा। मैंने मुस्कुराते हुए उनसे वो गिलास ले लिया। अभी मैं गिलास को अपने मुँह से लगाने ही चला था कि तभी वातावरण में चटाक्क्क्क की तेज़ आवाज़ गूँजी। हम सबने चौंक कर आवाज़ की दिशा में देखा। कुछ ही क़दम की दूरी पर जगताप चाचा जी अपने दोनों बेटों के पास खड़े थे। इस वक़्त उनके चेहरे पर गुस्सा नज़र आ रहा था।

"जिस लड़के ने किसी के सामने कभी झुकना पसंद नहीं किया।" चाचा जी गुस्से में दहाड़ते हुए विभोर से कह रहे थे____"आज उसने यहाँ सबके सामने झुक कर अपने से बड़ों का आशीर्वाद लिया और तुम दोनों ने क्या किया? हम उस दिन से तुम दोनों का तमाशा देख रहे हैं जिस दिन वो चार महीने की सज़ा काट कर हवेली आया था। तुम दोनों ने तो उससे ना तो कोई बात की और ना ही उसके पैर छुए। क्या यही संस्कार दिए हैं हमने?"

जगताप चाचा जी की बातें सुन कर मैं समझ गया कि वो अपने दोनों बेटों को इस बात के लिए डांट रहे हैं कि उन दोनों ने मेरे पैर नहीं छुए थे। हलांकि उन दोनों की इस धृष्टता के लिए मैं खुद ही उन्हें सबक सिखाना चाहता था किन्तु मौका ही नहीं मिला था मुझे। वैसे एक तरह से ये अच्छा ही हुआ कि ये काम ख़ुद जगताप चाचा जी ने कर दिया था वरना यदि मैं उन्हें कुछ कहता तो संभव था कि चाचा जी को इस बात पर बुरा लग जाता। हलांकि उनके बुरा लग जाने से मुझे घंटा कोई फ़र्क नहीं पड़ता किन्तु अब सोचता हूं कि जो हुआ अच्छा ही हुआ।

"जगताप क्या हो रहा है ये?" वातावरण में दादा ठाकुर की भारी आवाज़ गूँजी तो हम सबने उनकी तरफ देखा, जबकि उनकी ये बात सुन कर जगताप चाचा जी पलट कर उनसे बोले____"इन दोनों को इनके बुरे आचरण की सज़ा दे रहा हूं बड़े भैया। इन दोनों के अंदर इतनी भी तमीज़ नहीं है कि ये अपने बड़े भाई का सम्मान करें।"
"आज के दिन छोड़ दो उन्हें।" दादा ठाकुर ने कहा____"इस बारे में अगले दिन बात होगी।"

दादा ठाकुर की बात सुन कर चाचा जी ख़ामोश हो गए किन्तु पलट कर अपने दोनों बेटों की तरफ भयानक गुस्से से देखा ज़रुर। विभोर और अजीत डरे सहमे से गर्दन झुकाए खड़े थे। ख़ैर जगताप चाचा जी गुस्से में भन्नाए हुए चले गए। उनके जाने के बाद विभोर और अजीत मेरी तरफ आए।

"हमें माफ़ कर दीजिए भइया।" विभोर ने हाथ जोड़ कर और अपना सिर झुका कर धीमी आवाज़ में कहा____"हमसे बहुत बड़ी भूल हो गयी है।"
"कोई बात नहीं।" मैंने सपाट भाव से कहा____"सबसे भूल होती है। ख़ैर जाओ और होली का आनंद लो।"

मेरे कहने पर वो दोनों चले गए। वातावरण में फिर से पहले जैसा शोर गूंजने लगा। इधर मैंने बड़े भैया की तरफ देखते हुए भांग मिले शरबत को पीना शुरू कर दिया। गिलास खाली हुआ तो भैया ने एक गिलास और थमा दिया और मुस्कुराते हुए बोले____"एक और पी वैभव।"

"बस हो गया भइया।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे पता है इसका नशा कैसा होता है। अगर ये चढ़ गई तो मेरे लेने के देने पड़ जाएंगे।"
"अरे! इतने में नहीं चढ़ेगी वैभव।" भैया ने हंसते हुए कहा____"तुझे पता है इस गौरव ने तो चार गिलास पिया है और देख ले अभी तक होश में है।"

मैंने नज़र घुमा कर शाहूकार के लड़के गौरव की तरफ देखा तो उसने जल्दी से सहम कर अपनी नज़रें नीची कर ली। उसे इस तरह नज़रें नीची करते देख बड़े भैया हंसते हुए मुझसे बोले_____"इनके अंदर तेरी इतनी दहशत भरी हुई है कि ये बेचारे तुझसे नज़रें भी नहीं मिला सकते।" कहने के साथ ही बड़े भैया ने गौरव से कहा____"इधर आ। अब से तुझे मेरे इस छोटे भाई से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। अब से ये तुम लोगों को कुछ नहीं कहेगा लेकिन ये भी याद रखना कि अगर तुम लोगों ने आगे से इसे कुछ कहा तो फिर उसके जिम्मेदार तुम लोग ख़ुद ही होगे।"

बड़े भैया की बात सुन कर गौरव ने हां में सिर हिलाया और फिर वो हमारे पास आ गया। थोड़ी ही देर में गौरव मेरे सामने सहज महसूस करने लगा। मैं नज़र घुमा घुमा कर उसके भाई रूपचंद्र को खोज रहा था लेकिन वो मुझे कहीं नज़र नहीं आ रहा था। जब मैं जगताप चाचा जी के साथ यहाँ आया था तब मैंने उसे यहीं पर देखा था किन्तु इस वक़्त वो कहीं दिख नहीं रहा था। मेरे मन में ख़याल उभरा कि कहीं वो किसी फ़िराक में तो नहीं है?"
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 24
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अब तक,,,,,

मैंने नज़र घुमा कर शाहूकार के लड़के गौरव की तरफ देखा तो उसने जल्दी से सहम कर अपनी नज़रें नीची कर ली। उसे इस तरह नज़रें नीची करते देख बड़े भैया हंसते हुए मुझसे बोले_____"इनके अंदर तेरी इतनी दहशत भरी हुई है कि ये बेचारे तुझसे नज़रें भी नहीं मिला सकते।" कहने के साथ ही बड़े भैया ने गौरव से कहा____"इधर आ। अब से तुझे मेरे इस छोटे भाई से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। अब से ये तुम लोगों को कुछ नहीं कहेगा लेकिन ये भी याद रखना कि अगर तुम लोगों ने आगे से इसे कुछ कहा तो फिर उसके जिम्मेदार तुम लोग ख़ुद ही होगे।"

बड़े भैया की बात सुन कर गौरव ने हां में सिर हिलाया और फिर वो हमारे पास आ गया। थोड़ी ही देर में गौरव मेरे सामने सहज महसूस करने लगा। मैं नज़र घुमा घुमा कर उसके भाई रूपचंद्र को खोज रहा था लेकिन वो मुझे कहीं नज़र नहीं आ रहा था। जब मैं जगताप चाचा जी के साथ यहाँ आया था तब मैंने उसे यहीं पर देखा था किन्तु इस वक़्त वो कहीं दिख नहीं रहा था। मेरे मन में ख़याल उभरा कि कहीं वो किसी फ़िराक में तो नहीं है?"

अब आगे,,,,,



"क्या हुआ वैभव?" मैं इधर उधर देख ही रहा था कि तभी मेरे कानों में बड़े भैया की आवाज़ पड़ी तो मैंने उनकी तरफ देखा, जबकि उन्होंने आगे कहा____"तेरा ध्यान किधर है? किसी को खोज रहा है क्या?"

"रूपचंद्र कहीं नज़र नहीं आ रहा भइया।" मैंने फिर से दूर दूर तक नज़र घुमाते हुए कहा____"जब मैं जगताप चाचा जी के साथ बाहर से हवेली आया था तब मैंने उसे आपके साथ ही देखा था किन्तु इस वक़्त वो यहाँ कहीं नज़र नहीं आ रहा।"

"हां कुछ देर पहले तक तो वो यहीं था वैभव।" बड़े भैया ने भी इधर उधर नज़र घूमाते हुए कहा____"पता नहीं अचानक से कहां गायब हो गया है वो? मैंने भी उस पर ध्यान नहीं दिया था। पता नहीं कब वो यहाँ से चला गया या फिर ये हो सकता है कि वो यहीं कहीं हो और हमें नज़र न आ रहा हो।"

"नहीं भइया।" मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा____"वो यहाँ कहीं भी नहीं है। मुझे पूरा यकीन है कि वो यहाँ से जा चुका है।"
"हमारी महफ़िल को छोड़ कर कहां गया होगा वो?" भैया ने जैसे सोचने वाले भाव से कहा____"ख़ैर छोड़ उसे। इतना क्यों सोच रहा है उसके बारे में? चल आ जा एक गिलास और ये शरबत पी ले। तू पिएगा तो एक गिलास मैं भी पी लूंगा।"

"आप पहले ही बहुत पी चुके हैं भइया।" मैंने कहा____"अब आप इसे नहीं पिएँगे। आप जानते हैं न कि इसका नशा कितना ख़तरनाक होता है?"
"अरे इसमें भांग की मात्रा बहुत ही कम मिली हुई है वैभव।" भैया ने भांग के हल्के शुरूर में कहा____"इस लिए तू फ़िक्र मत कर। चल एक एक गिलास और पीते हैं इसे।" कहने के साथ ही बड़े भैया उस आदमी की तरफ पलटे जो मटके के पास खड़ा था____"पूरन, एक एक गिलास और दे हम दोनों को। आज बहुत ही ज़्यादा ख़ुशी का दिन है।"

बड़े भैया की बात सुन कर पूरन ने मटके से एक एक गिलास भांग का शरबत निकाला और बड़े भैया को पकड़ाया तो भैया मुस्कुराते हुए मेरी तरफ पलटे और मेरी तरफ एक गिलास बढ़ाते हुए बोले____"मेरी ख़ुशी के लिए एक गिलास और पी ले मेरे भाई।"

भैया की बात सुन कर मैंने उनकी ख़ुशी के लिए उनसे गिलास ले लिया और फिर उनकी तरफ देखते हुए उस भांग मिले शरबत को पीने लगा। मुझे पीता देख बड़े भैया मुस्कुराए और फिर उन्होंने भी अपना गिलास अपने होठों से लगा लिया। भांग का नशा देरी से चढ़ता है लेकिन जब चढ़ता है तो इंसान की हालत ख़राब कर देता है और ये बात मैं अच्छी तरह जानता था। ख़ैर मैंने अपना गिलास खाली किया और खाली गिलास को मटके के पास टेबल पर रख दिया। अभी तो नशे का मुझे कोई आभास नहीं हो रहा था किन्तु भैया ज़रूर शुरूर में थे। ऐसा इस लिए क्योंकि वो पहले से ही भांग का शरबत पी रहे थे।

मैं बड़े भैया के पास ज़रूर खड़ा था किन्तु मेरा ध्यान रूपचन्द्र की ही तरफ था। हलांकि ये बात इतनी अहम् नहीं थी किन्तु मेरी नज़र में इस लिए अहम् थी क्योंकि एक तो अनुराधा के यहाँ मैंने उसे पेला था और दूसरे यहाँ पर जब मैं आया था तब वो बड़े भैया के पास ही था किन्तु अभी वो गायब हो चुका था। मेरे ज़हन में यही सवाल ताण्डव कर रहा था कि जब सब लोग यहाँ पर हैं तो वो यहाँ से इस तरह क्यों चला गया है? मेरा दिल कह रहा था कि उसके यहाँ से इस तरह चले जाने का कोई न कोई कारण ज़रूर है।

मैंने बड़े भैया को यहीं रुकने को कहा और रूपचन्द्र की तलाश में निकल पड़ा। सबसे पहले मैंने उसे हवेली के इस मैदान में ही हर जगह ढूंढ़ा उसके बाद हवेली के अंदर चला गया। हलांकि मुझे यकीन था कि रूपचन्द्र हवेली के अंदर अकेले जाने का साहस नहीं कर सकता किन्तु फिर भी मैं हवेली के अंदर उसे खोजने के लिए गया। काफी देर तक मैं उसे हवेली में हर जगह खोजता रहा लेकिन रूपचन्द्र मुझे कहीं नज़र न आया। इस बीच कुसुम ज़रूर मुझे अपनी सहेलियों के साथ रंग खेलती हुई नज़र आई थी। ख़ैर हवेली से निकल कर मैं बाहर आया और भीड़ में इधर उधर नज़र घुमाते हुए मैं हवेली के हाथी दरवाज़े से बाहर आ गया। अभी मैं दरवाज़े पर आया ही था कि मुझे एकदम से अनुराधा का ख़याल आया। अनुराधा का ख़याल आते ही मेरे मन में सवाल उभरा कि क्या रूपचन्द्र अनुराधा के पास गया होगा? रूपचंद्र कुत्ते की दुम की तरह था, इस लिए वो यकीनन मुरारी काका के घर जा सकता था, भले ही मैंने उसे वहां जाने से मना किया था। उसने सोचा होगा कि इस वक़्त मैं हवेली में हूं और सबसे मिल जुल रहा हूं तो उसने इसे सुनहरा अवसर समझा होगा।

मैं वापस पलटा और तेज़ी से उस तरफ बढ़ चला जहां पर मेरी मोटर साइकिल खड़ी थी। मोटर साइकिल को चालू कर के मैं तेज़ी से हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ा। बुलेट की तेज़ आवाज़ वातावरण में गूंज उठी थी जिससे काफी लोगों का ध्यान मेरी तरफ आकर्षित हुआ था किन्तु मैं बिना किसी की तरफ देखे निकल गया।

कच्ची सड़क पर मेरी बुलेट दौड़ती चली जा रही थी। साहूकारों के घर से निकल कर मैं कुछ ही देर में मुंशी के घर के सामने से गुज़र गया। मेरे ज़हन में रूपचन्द्र और अनुराधा ही थे जिनके बारे में मैं तरह तरह की बातें सोचते हुए तेज़ी से बढ़ा चला जा रहा था।

मुरारी काका के घर पंहुचा तो देखा वहां पर रूपचन्द्र नहीं था। सरोज काकी अपनी बेटी अनुराधा और बेटे अनूप के साथ बैठी हुईं थी। उनके चेहरे से भी ऐसा ज़ाहिर नहीं हुआ कि रूपचन्द्र यहाँ आया होगा। मुझे आया देख सरोज काकी और अनुराधा थोड़ा हैरान हुए और फिर सामान्य भाव से काकी ने मुझे बैठने को कहा तो मैंने कहा कि नहीं मैं बैठूंगा नहीं बल्कि मैं यहाँ ये बताने आया था कि कल सुबह दो आदमी उसके खेतों की कटाई के लिए आ जाएंगे।

थोड़ी देर काकी से बात करने के बाद मैं वापस घर से बाहर आया और अपनी मोटर साइकिल में बैठ कर फिर से वापस अपने गांव की तरफ चल पड़ा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि रूपचन्द्र अगर यहाँ नहीं आया तो फिर गया कहां? ऐसा लगता था जैसे वो गधे के सींग की तरह गायब हो गया था।

अपने गांव में दाखिल हुआ तो मेरे ज़हन में एक बार बगीचे वाले मकान में भी देख लेने का विचार आया तो मैंने मोटर साइकिल को उस तरफ मोड़ दिया। कुछ ही देर में मैं बगीचे वाले मकान के सामने पहुंच गया। मैंने चारो तरफ घूम घूम कर रूपचन्द्र को खोजा मगर वो कहीं नज़र न आया। मतलब साफ़ था कि वो यहाँ आया ही नहीं था, या फिर अगर आया भी होगा तो वो मेरे यहाँ आने से पहले ही चला गया होगा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं उसे अब कहां खोजूं? रूपचंद्र एकदम से मेरे लिए जैसे चिंता का विषय बन गया था।

बगीचे से वापस मैं गांव की तरफ चल पड़ा। मुंशी के घर के पास आया तो देखा मुंशी के घर का दरवाज़ा बंद था। मेरे मन में विचार आया कि क्यों न रजनी को एक बार पेल लिया जाए, किन्तु अगले ही पल मैंने अपने इस विचार को ज़हन से झटक दिया। इस वक़्त मेरे ज़हन में सिर्फ रूपचन्द्र ही होना चाहिए था और उसे खोजना मेरा लक्ष्य होना चाहिए था। ये सोच कर मैं मोटर साइकिल को आगे बढ़ने ही वाला था कि तभी मेरे मन में फिर से रजनी को पेलने का विचार आ गया और इस बार तो मैंने ही सोच लिया कि____'मां चुदाए रूपचन्द्र। अब तो रजनी को एक बार पेल के ही उसे खोजने जाऊंगा।'

मैंने मोटर साइकिल को खड़ी किया और दरवाज़े की तरफ बढ़ चला। मुझे पता था कि इस वक़्त मुंशी अपनी बीवी और अपने बेटे के साथ हवेली में है और रजनी यहाँ अकेली ही है। ख़ैर दरवाज़े के पास पहुंच कर मैंने दरवाज़े की कुण्डी पकड़ी और उसे दरवाज़े पर बजाने ही वाला था कि तभी दरवाज़ा अंदर की तरफ हिलते हुए खिसका तो मैंने कुण्डी को छोड़ कर दरवाज़े को अंदर की तरफ हाथ से धकेला तो वो खुल गया। मतलब दरवाज़ा अंदर से कुण्डी लगा कर बंद नहीं किया गया था। मेरे लिए ये थोड़ी हैरानी की बात थी किन्तु फिर मैंने इस बात को झटका और मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोल कर चुपके से अंदर दाखिल हो गया।

मैं मन ही मन सोच रहा था कि रजनी के सामने जा कर मैं उसे हैरान कर दूंगा, इस लिए बिना कोई आवाज़ किए मैं अंदर गलियारे से चलते हुए आँगन की दहलीज़ पर आया ही था कि तभी कुछ आवाज़ें मेरे कानों में पड़ीं तो मैं एकदम से रुक गया। मैं आँगन में दाखिल नहीं हुआ था बल्कि दरवाज़े से थोड़ा पीछे ही था इस लिए मैंने सिर्फ आवाज़ें ही सुनी थी और ऐसी आवाज़ें सुनी थी कि मैं एकदम से अपनी जगह पर रुक गया था। मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं थी। तभी फिर से मेरे कानों में आवाज़ पड़ी। अंदर आँगन में रजनी थी और उसके साथ कोई और भी था। दोनों की आवाज़ों से साफ़ पता चल रहा था कि वो दोनों आंगन में चुदाई कर रहे है। रजनी चुदवाते हुए मज़े से आहें भर रही थी और उसे चोदने वाला हुंकार भर रहा था। मुझे ये आवाज़ें सुन कर बड़ी हैरानी हुई और फिर मैं ये भी सोचने लगा कि साला मेरे माल पर कौन अपना हाथ साफ़ कर रहा है?

मैंने सिर को थोड़ा सा निकाल कर आँगन की तरफ देखा तो मैं चौंक गया। रजनी ज़मीन पर नंगी लेटी हुई थी और उसकी दोनों टाँगें दोनों तरफ हवा में टंगी हुईं थी। उसके ऊपर एक आदमी था जो उसी के जैसे पूरा नंगा था और यहाँ से मैं साफ़ देख रहा था कि वो ज़ोर ज़ोर से रजनी की चूत में अपनी कमर को हुमच रहा था। आदमी की पीठ मेरी तरफ थी इस लिए मैं उसे पहचान नहीं पाया। रजनी बड़े मज़े से आहें भर रही थी।

"और ज़ोर से चोदो मुझे।" तभी रजनी की सिसियाती हुई आवाज़ मेरे कानों में पड़ी____"मुझे दिखाओ कि तुम उससे अच्छा चोदते हो कि नहीं। आअह्ह्ह मेरी चूत के अंदर तक अपना लंड डालो जैसे वो डालता है।"

"साली रंडी।" उस आदमी की ये आवाज़ सुन कर मैं बुरी तरह चौंका। मन ही मन गाली देते हुए कहा अबे ये तो मादरचोद रूपचन्द्र की आवाज़ है। रुपचंद्र की आवाज़ सुन कर मैं एकदम से भौचक्का सा रह गया था। बड़ी तेज़ी से मेरे दिलो दिमाग़ में ये सवाल उभरा कि ये मादरचोद रजनी के साथ कैसे और खुद रजनी उसके साथ ऐसे कैसे चुदवा सकती है? ये सोचते ही मेरा दिमाग भन्ना गया और मेरे अंदर गुस्से का ज्वालामुखी धधक उठा। मन ही मन कहा मैंने_____'अब तुझे मेरे क़हर से कौन बचाएगा बे रूप के चन्द्र?'

मैं गुस्से में उबलता हुआ उन दोनों की तरफ बढ़ने ही वाला था कि तभी मेरे ज़हन में बड़ी तेज़ी से ख़याल उभरा कि नहीं नहीं गुस्से में काम बिगड़ जाएगा। मुझे छुप कर ही ये सब देखते हुए ये जानना चाहिए कि ये दोनों इस हालत में कैसे हैं और रजनी ने मुझे इस तरह से धोखा क्यों दिया? अपने ज़हन में आए इस ख़याल के बारे में सोच कर मैंने आगे बढ़ने का इरादा छोड़ दिया और मन ही मन खुद को समझाया कि_____'इन दोनों की गांड तो मैं बाद में भी मार सकता हूं। पहले सच जानना चाहिए।'

"साली रंडी।" उधर रूपचन्द्र रजनी से कह रहा था____"और कितना ज़ोर से चोदूं तुझे? उस हरामज़ादे से चुदवा चुदवा कर तो तूने पहले से ही अपनी बुर का भोसड़ा बना लिया है।"

"मेरी बुर का भोसड़ा भले ही बन गया है रूपचन्द्र।" रजनी ने कहा____"लेकिन इसके बावजूद जब वो मुझे चोदता है तो कसम से मैं मस्त हो जाती हूं। इसी लिए कह रही हूं कि अगर तुम में दम है तो उसके जैसा ही चोदो मुझे।"

"उस हरामखोर की मेरे सामने बड़ाई मत कर बुरचोदी।" रूपचंद्र ने खिसियाते हुए और ज़ोर से उसकी चूत में अपना लंड पेलते हुए कहा____"वरना तेरी गांड में लंड घुसेड़ कर तेरी गांड फाड़ दूंगा।"

"रहने दो रूपचंद्र।" रजनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हारे बस का नहीं है मेरी गांड फाड़ना क्योंकि वो पहले से ही फटी हुई है। मेरी गांड को भी उसी ने फाड़ा है। अच्छा होगा कि तुम अपना पानी निकालो और चलते बनो यहाँ से।"

"साली मादरचोद।" रूपचंद्र ने गुस्से में रजनी को थप्पड़ मारते हुए कहा____"मैंने कहा न कि मेरे सामने उस भोसड़ीवाले की बड़ाई न कर। तुझे एक बार में समझ नहीं आता क्या?"

"आहहह उससे इतना क्यों जलते हो तुम?" रजनी ने दर्द से कराह कर कहा____"कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने तुम्हारी भी गांड फाड़ दी है?"
"वो क्या मेरी गांड फाड़ेगा?" रूपचंद्र ने गुस्से में कहा____"गांड तो मैं उसकी बहन कुसुम की फाड़ूंगा। उसने मेरी बहन रूपा को अपने नीचे सुलाया है न तो मैं भी उसकी बहन को अपने लंड के नीचे सुलाऊंगा।"

"ऐसा सोचना भी मत।" रजनी ने मानो उसे चेताते हुए कहा____"वरना वो तुम्हारे पूरे खानदान की औरतों की गांड फाड़ देगा। अभी तुम ठीक से जानते नहीं हो उसे।"
"वो कुछ नहीं कर पाएगा समझी।" रूपचंद्र ने कहा____"उसे जो कुछ करना था वो कर चुका है। अब करने की बारी मेरी है। उसने मेरे भाई का हाथ तोड़ा और उसने मेरी खुद की बहन को अपने जाल में फंसाया। इस सबका हिसाब अब मैं सूद समेत लूंगा उससे।"

रजनी उसकी बात सुन कर इस बार कुछ न बोली बल्कि उसके द्वारा दिए जा रहे धक्कों से अपनी आँखे बंद कर के चुदाई का मज़ा लेने लगी थी। इधर रूपचन्द्र की बातें सुन कर मेरा खून खौला जा रहा था लेकिन इस वक़्त मैं अपने गुस्से को काबू करने की कोशिश कर रहा था। हर बार मैं ऐसे मौकों पर कूद पड़ता था और साहूकारों के लड़कों की माँ बहन एक कर देता था लेकिन इस बार मैं पहले जैसा काम नहीं करना चाहता था, बल्कि अब मैं देखना चाहता था कि ये हरामी की औलाद क्या क्या करता है। मैं देखना चाहता था कि उसके मन में इसके अलावा अभी और क्या क्या भरा हुआ है?

मैं उसके मुख से ये जान कर थोड़ा हैरान हुआ था कि उसे अपनी बहन के मेरे साथ बने सम्बन्धों का पहले से पता है लेकिन सवाल है कि कैसे पता चला उसे? मैं तो हर बार पूरी सतर्कता से ही उसके घर उसकी बहन के कमरे में जाता था और फिर अपना काम कर के चुप चाप ही चला आता था। फिर कैसे उसे अपनी बहन के इन सम्बन्धों का पता चला? क्या रूपा को भी ये पता है कि उसके और मेरे सम्बन्धों की बात उसके भाई को पता है? मैं तो पहले की भाँती फिर से उसके घर उसकी बहन से मिलने जाने वाला था और रूपा से ये जानने का प्रयास करने वाला था कि उसके परिवार वाले हम ठाकुरों के बारे में आज कल क्या सोचते हैं और क्या कुछ करने वाले हैं? लेकिन रूपचन्द्र की इस बात से अब मैं रूपा से उस तरह नहीं मिल सकता था क्योंकि ज़ाहिर है कि अब वो अपनी बहन पर नज़र रखता होगा और अगर ऐसे में मैं रूपा से मिलने जाऊंगा तो मैं उसके द्वारा पकड़ा जाऊंगा।

रजनी भी साली मुझे धोखा दे रही थी। मुझसे तो चुदवाती ही थी किन्तु इस शाहूकार के लड़के रूपचन्द्र से भी चुदवा रही थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि रजनी का सम्बन्ध रूपचन्द्र से कैसे हुआ होगा और ये सब कब से चल रहा होगा? आज ये सब देख कर मैं समझ गया था कि रजनी का चरित्र बहुत ही घटिया था और अब वो भरोसे के लायक नहीं थी। रजनी के प्रति अपने अंदर गुस्सा लिए मैं कुछ देर ये सब सोचता रहा और फिर चुप चाप वहां से चला आया। बाहर आ कर मैं अपनी मोटर साइकिल में बैठा और हवेली की तरफ बढ़ चला। रूपचंद्र को आज रजनी के साथ ऐसी हालत में देख कर मैं ये सोचने पर मजबूर हो गया था कि ये रूपचन्द्र भी साला कम नहीं है। इसने भी ऐसी जगह झंडे गाड़े हैं जिस जगह के बारे में मैं सोच भी नहीं सकता था। रजनी के ऊपर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था और अब मैंने सोच लिया था कि रजनी के साथ क्या करना है।

सूर्य पश्चिम दिशा की तरफ उतरने वाला था और क़रीब एक घंटे में शाम हो जानी थी। हवेली में आया तो देखा मैदान में अब लोगों की भीड़ नहीं थी। कुछ ही लोग अब वहां पर मौजूद थे। मंच पर दादा ठाकुर के साथ शाहूकार और दूसरे गांव के कुछ ठाकुर लोग बैठे हुए थे। बड़े भैया मुझे नज़र न आए तो मैं सीधा हवेली के अंदर ही चला गया। हवेली के अंदर आया तो मुझे भाभी का ख़याल आया और फिर वो सब भी याद आ गया जो कुछ आज मैंने उनसे कहा था। सब कुछ याद आते ही मेरे अंदर एक बोझ सा पैदा हो गया और मैं सोचने लगा कि जब भाभी से मेरा दुबारा सामना होगा तब वो क्या कहेंगी मुझसे?

"तेरा भी कहीं अता पता भी रहता है कि नहीं?" मैं ऊपर जाने के लिए सीढ़ियों के पास पंहुचा ही था कि पीछे से माँ की आवाज़ सुन कर रुक गया। पलट कर मैंने उनकी तरफ देखा तो वो बोलीं_____"कब से ढूंढ रही हूं तुझे और तेरा कहीं पता ही नहीं है।"

"होली की हार्दिक शुभकामनायें मां।" मैंने माँ के पास आ कर उनके पैरों को छूने के बाद कहा____"मैं तो यहीं था। अभी कुछ देर पहले ही एक ज़रूरी काम से बाहर गया था। कहिए क्या काम है मुझसे?"

"सदा खुश रह।" माँ ने मेरे चेहरे को सहलाते हुए कहा____"जगताप ने बताया मुझे कि कैसे आज तूने अपने से बड़ों के पैर छू कर उन सबका आशीर्वाद लिया। उसकी बात सुन कर मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा था लेकिन जब उसने ज़ोर दे कर कहा कि तूने सच में ऐसा किया है तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई। बस तभी से तुझे ढूंढ रही थी।"

"भाभी जी ने खाना खाया कि नहीं?" मैंने धड़कते दिल से माँ से पूछा तो माँ ने मुस्कुराते हुए कहा____"हां अभी कुछ देर पहले ही खाया है उसने। कुसुम ने बताया मुझे कि तू गया था उसके कमरे में उसे मनाने के लिए?"

"क्या करता माँ?" मैंने कहा____"वो मेरी वजह से नाराज़ थीं तो मैं ये कैसे चाह सकता था कि मेरी वजह से कोई अन्न जल का त्याग कर के कमरे में बंद हो जाए?"
"ये तूने बहुत अच्छा किया।" माँ ने फिर से मेरा चेहरा सहलाया____"मुझे ख़ुशी है कि तुझे अपनी भाभी की फ़िक्र है और मैं यही कहूंगी कि तू ऐसे ही सबके बारे में सोच और अपने फर्ज़ निभा। जब तू ऐसा करेगा तो सब तुझे अच्छा ही कहेंगे बेटा और सब तुझे प्यार भी करेंगे।"

"कोशिश करुंगा मां।" मैंने कहा____"अच्छा कुसुम कहां है? क्या अभी तक उसका रंग खेलना बंद नहीं हुआ?"
"जगताप उसे डांटता नहीं तो वो खेलती ही रहती।" माँ ने मुस्कुराते हुए कहा____"अभी कुछ देर पहले ही गुसलखाने में नहाने गई थी। तुझे उससे कोई काम है क्या?"

"हां उससे कहिएगा कि चाय बना कर मेरे कमरे में ले आए।" मैंने कहा____"सिर भारी भारी सा लग रहा है।"
"वो तो लगेगा ही।" माँ ने कहा____"भाँग वाला शरबत जो पिया है तूने।"

"आपको कैसे पता?" मैंने चौंक कर माँ की तरफ देखा तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे सब पता चल गया है। अच्छा अब तू जा और अपने कमरे में आराम कर। मैं कुसुम को बोलती हूं कि वो तेरे लिए चाय बना कर ले जाए।"

मां के ऐसा कहने के बाद मैं सीढ़ियों से ऊपर आ गया। ऊपर बालकनी में आया तो मेरी नज़र भाभी के कमरे की तरफ जाने वाले गलियारे पर पड़ी। गलियारा एकदम सूना था। मैं चुप चाप अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। कमरे में आ कर मैंने अपनी शर्ट उतारी और पंखा चला कर बिस्तर पर लेट गया।

बिस्तर पर लेता हुआ मैं सोच रहा था कि जिस तरह के हालात बने हुए थे उन हालातों में सिर्फ मैं ही उलझा हुआ था या मेरे अलावा भी कोई उलझा हुआ था? कई सारी बातें थी और कई सारे सवाल थे। मैं जितना उन सवालों के जवाब पाने के लिए आगे बढ़ता था उतना ही उलझ जाता था और फिर से एक नया सवाल मेरे सामने पैदा हो जाता था। मेरे सवाल मुरारी काका की हत्या से शुरू होते थे। मेरे सवालों की संख्या हर दिन बढ़ती ही जा रही थी। मुरारी काका की हत्या किसने की ये सवाल अभी भी अपनी जगह पर बना हुआ था और मैं इस सवाल के लिए अभी तक कुछ नहीं कर पाया था। हवेली में कुसुम की गहरी बातों का रहस्य अपनी जगह एक सवाल लिए खड़ा था जिसके बारे में जानना मेरे लिए ज़रूरी था। साहूकारों के सिलसिले में एक अलग ही सवाल बना हुआ था कि उन लोगों ने हमसे अपने रिश्ते तो सुधार लिए थे किन्तु इस सबके पीछे उनकी मंशा क्या थी ये जानना भी ज़रूरी था किन्तु अभी तक इस बारे में भी कुछ पता नहीं चल सका था मुझे।

भाभी के बारे में जो सवाल खड़ा हुआ था उसके बारे में आज जो कुछ उनसे पता चला था उसने मुझे हिला कर ही रख दिया था। मुझे यकीन ही नहीं जो रहा था कि मेरे बड़े भैया के बारे में किसी ने ऐसी भविष्यवाणी की है। भाभी के द्वारा ये सब जान कर ये तो समझ आया कि उन्होंने इसी वजह से मुझसे ये कहा था कि बड़े भैया दादा ठाकुर की जगह लेने के लायक नहीं हैं किन्तु अब एक सवाल ये भी था कि भैया को अपने बारे में ये बात कैसे पता है? क्या भाभी ने उन्हें इस बारे में बताया होगा? हो सकता है कि शायद उन्होंने ही बताया हो किन्तु सवाल ये था कि क्या भैया अपने बारे में ये बातें हवेली में हर किसी से छुपा रहे हैं? अगर छुपा रहे हैं तो क्यों?

पिता जी ने उस दिन मुझे जो कुछ बताया था उसका अपना एक अलग ही लफड़ा था। जिसके बारे में अभी तक कुछ पता नहीं चला था। संभव है कि पिता जी ने अपने तरीके से इस बारे में पता लगाया हो लेकिन मुझे तो कुछ भी पता नहीं था ना। क्या इस सिलसिले में मुझे पिता जी से बात करनी चाहिए? क्या उनसे इस बारे में भी बात करनी चाहिए कि मुरारी की हत्या की जांच के लिए जिस दरोगा को उन्होंने कहा था उसने हत्यारे से संबंधित कुछ पता लगाया है या नहीं? दादा ठाकुर से इस बारे में बात करने से मुमकिन है कि वो मुझे यही मशवरा दें कि तुम इस सबसे दूर ही रहो। उस हालत में मैं कुछ नहीं कर सकता था। इसका मतलब मुझे खुद ही इस बारे में पता करना होगा।

उस काले साए का अपना एक अलग ही किस्सा था। इतना तो मैं जान और समझ चुका था कि पहले मिलने वाला वो साया मुझे ख़तरे से सावधान करने आया था और उस दिन उसने दूसरे उन दोनों सायों से मेरी जान भी बचाई थी किन्तु सवाल ये था कि वो साया आख़िर था कौन? आख़िर क्यों उसने मेरे ख़तरे को अपने ऊपर ले लिया था? दूसरे वो साए कौन थे जो मेरे लिए कालदूत बन कर आए थे? क्या उन सायों को मुझे मारने के लिए साहूकारों ने भेजा था? मेरे ज़हन में जब भी उन दोनों सायों का ख़याल आता था तो मैं गहरी सोच में पड़ जाता था और ये भी सोचता था कि मेरे चारो तरफ एक ऐसा ख़तरा मौजूद है जो न जाने किस तरफ से अचानक ही मुझ पर टूट पड़े।

रूपचंद्र का अपना एक अलग ही लफड़ा शुरू हो गया था। आज जिस तरह से मैंने उसे रजनी के साथ देखा था और उसकी बातें सुनी थी उससे ये तो समझ आया कि वो अपनी जाति दुश्मनी के चलते मुझसे बदला लेना चाहता है किन्तु सवाल ये था कि रजनी से उसका सम्बन्ध कैसे बना और कब से उन दोनों के बीच ये सब चल रहा है? रूपचन्द्र कितना शातिर है ये तो मैं देख ही चूका था। सरोज काकी को उसने बड़ी आसानी से इस बात के लिए मजबूर कर दिया था कि वो अपनी बेटी को उसके नीचे सुला दे। वो तो उस दिन किस्मत से मैं वहां पहुंच गया था वरना वो अनुराधा के साथ उस दिन कुछ भी कर सकता था और अनुराधा उसका विरोध नहीं कर सकती थी।

"हे भगवान!" तभी कमरे में कुसुम की आवाज़ गूँजी तो मैं सोचो से बाहर आया जबकि उसने कहा____"मैं जब भी आपके कमरे में आती हूं तो आप कहीं न कहीं खोए हुए ही दिखते हैं। अब अगर मैं आपका एक नया नाम सोचन देव रख दूं तो इस बारे में क्या कहेंगे आप?"

"अरे! आ गई तू?" उसे देखते ही मैंने उठते हुए कहा____"ला पहले चाय दे और बैठ मेरे पास।"
"आज तो रंग खेलने में मज़ा ही आ गया भइया।" कुसुम ने ख़ुशी से मुस्कुराते हुए और मुझे चाय पकड़ाते हुए कहा_____"मैंने आज अपनी सभी सहेलियों को रंग में पूरा का पूरा नहला दिया था। विशाखा तो बेचारी रोने ही लगी थी।"

"हां देखा था मैंने।" चाय का हल्का सा घूंट लेते हुए मैंने कहा____"तू भी उनकी तरह ही रंगी हुई थी और तेरा चेहरा तो एकदम से बंदरिया जैसा लग रहा था।"
"क्या कहा आपने????" कुसुम ने आँखें फैलाते हुए कहा____"मैं आपको बंदरिया जैसी लग रही थी? आप मुझे बंदरिया कैसे कह सकते हैं? जाइए, मुझे आपसे अब बात ही नहीं करना।"

"अरे! मैंने ये थोड़ी न कहा है कि तू बंदरिया है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने तो ये कहा है कि तू बंदरिया जैसी लग रही थी क्योंकि तेरे चेहरे पर लाल लाल रंग लगा हुआ था।"
"अब आप बात को घुमाइए मत।" कुसुम ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"बंदरिया जैसी लगने का मतलब यही होता है कि मैं आपको बंदरिया ही लगी। बड़े दुःख की बात है कि मेरे सबसे अच्छे वाले भैया ने मुझे बंदरिया कहा। अब किसके कंधे पर अपना सिर रख कर रोऊं मैं?"

"विभोर और अजीत के कंधे पर सिर रख के रो।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा तो कुसम ने खिसियानी हंसी हंसते हुए कहा____"उनका तो नाम ही मत लीजिए। वो मुझे चुप क्या कराएंगे उल्टा मुझे और रुलाएंगे। आप भी अब उनके जैसे ही बनते जा रहे हैं।"

"तेरा ये भाई किसी और के जैसा बनना पसंद नहीं करता।" मैंने कहा____"बल्कि लोग मेरे जैसा बनने की ख़्वाइश रखते हैं।"
"वाह वाह! अपने मुख से अपनी ही बड़ाई।" कुसुम ने नाटकीय भाव से हाथ नचाते हुए कहा____"वैसे मैंने सुना है कि आज आपने सबको आश्चर्य चकित कर दिया था।"

"हम ऐसे ही हैं बहना।" मैंने गर्व से अपनी गर्दन को अकड़ाते हुए कहा____"हम अक्सर ऐसा काम करते हैं जिसे देख कर लोगों की आँखें फटी की फटी रह जाती हैं। इसी लिए तो कह रहा हूं तुझसे कि लोग मेरे जैसा बनने की ख़्वाइश रखते हैं।"

"अब बस भी कीजिए भइया।" कुसुम ने कहा____"आप तो खुद ही अपने आपको चने के झाड़ पर चढ़ाए जा रहे हैं।"
"अच्छा ये बता कि तुझे मैंने जो काम दिया था उसका क्या हुआ?" मैंने बात को बदलते हुए कहा____"तुझे कुछ याद भी है या सब भूल गई है?"

"मुझे सब याद है भइया।" कुसुम ने कहा____"और मैं आपको बताने ही वाली थी लेकिन फिर बताना ही भूल गई, लेकिन आप भी तो यहाँ नहीं थे।"
"अच्छा तो अब बता।" मैंने कहा____"क्या पता किया तूने?"

"बड़े भैया के बारे में।" कुसुम ने थोड़ा संजीदा भाव से कहा____"यही कहूंगी कि वो ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं जिसका आपको अंदेशा है, जबकि वो दोनों नमूने कोई न कोई खिचड़ी ज़रूर पका रहे हैं।"
"क्या मतलब?" मैंने आँखें सिकोड़ते हुए कहा____"कैसी खिचड़ी पका रहे हैं वो दोनों?"

"साहुकार के लड़के रूपचन्द्र को तो आप जानते ही होंगे न?" कुसुम ने ये कहा तो मैंने मन ही मन चौंकते हुए कहा____"हां तो? मेरा मतलब है कि रूपचन्द्र उन दोनों के बीच में कहां से आ गया?"

"पूरी बात तो सुन लिया कीजिए।" कुसुम ने कहा____"बीच में ही टोंक देते हैं आप।"
"अच्छा नहीं टोकूंगा।" मैंने कहा____"आगे बता।"
"रूपचंद्र के छोटे भाई गौरव से उन दोनों की दोस्ती है।" कुसुम ने कहा____"हलाँकि मैंने उन दोनों को गौरव के साथ देखा तो नहीं है लेकिन एक दिन वो अपने कमरे में उसके बारे में बातें ज़रूर कर रहे थे।"

"कैसी बातें कर रहे थे वो?" मैंने उत्सुकता से पूछा।
"यही कि अभी तक तो वो दोनों।" कुसुम ने कहा____"अपने दोस्त गौरव से हवेली से बाहर ही छुप कर मिलते थे लेकिन अब वो उसे हवेली में बुलाया करेंगे। क्योंकि अब हमारे और साहूकारों के रिश्ते सुधर गए हैं।"

"अच्छा और कैसी बातें कर रहे थे वो?" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"क्या मेरे बारे में उन दोनों ने कोई बात नहीं की?"
"अभी तक तो नहीं।" कुसुम ने कहा____"लेकिन आज मैंने देखा था कि वो दोनों बहुत ही गुस्से में बाहर से आए थे और अपने कमरे में चले गए थे। मुझे भी समझ नहीं आया कि वो किस लिए गुस्सा थे? पहले मैंने सोचा कि पता करूं लेकिन फिर सहेलियों की वजह से कहीं जा ही नहीं पाई।"

"हां वो चाचा जी ने विभोर को सबके सामने थप्पड़ मारा था।" मैंने कुसुम को बताते हुए कहा____"शायद इसी लिए वो गुस्से में बाहर से आये थे।"
"पिता जी ने थप्पड़ क्यों मारा था उन्हें?" कुसुम ने हैरानी से पूछा तो मैंने उसे संक्षेप में बता दिया। मेरी बात सुन कर वो बोली_____"अच्छा तभी वो इतने गुस्से में थे।"

"हां और उनका गुस्से में होना।" मैंने सोचने वाले भाव से कहा____"ये दर्शाता है कि उन्हें अपनी ग़लती का कोई एहसास नहीं है बल्कि जिस ग़लती की वजह से उन्हें अपने पिता जी से थप्पड़ मिला है उसके लिए वो मुझे जिम्मेदार मानते हैं। ज़ाहिर है इस वजह से उन दोनों के अंदर मेरे प्रति भी गुस्सा और नफ़रत भर गई होगी। तू पता करने की कोशिश कर कि वो दोनों इस हादसे के बाद मेरे बारे में क्या बातें करते हैं?"

"ठीक है भइया।" कुसुम ने कहा____"और कुछ?"
"हां, अगर गौरव या साहूकारों का कोई भी सदस्य हवेली में आए तो तू मुझे फ़ौरन बताएगी। एक और भी है सबसे ज़रूरी बात और वो ये कि तू अपनी सहेलियों के साथ हवेली से बाहर नहीं जाएगी।"

"भला ये क्या बात हुई भैया?" कुसुम ने हैरानी से कहा____"आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?"
"क्योंकि मुझे अपनी मासूम सी बहन की बहुत ज़्यादा फ़िक्र है।" मैंने कुसुम के चेहरे को प्यार से सहलाते हुए कहा____"अगर तेरे साथ ज़रा सा भी कुछ हुआ तो मैं सारी दुनियां को आग लगा दूंगा।"

"भइया।" कहते हुए कुसुम मुझसे लिपट गई। उसकी आँखों में आँसू भर आए थे। मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा____"तुझे जब भी अपनी सहेलियों से मिलना हो तो तू यहाँ की किसी नौकरानी से कह देना। वो तेरी सहेली को हवेली में ही बुला लाएगी।"

"ठीक है भइया।" कुसुम ने मुझसे अलग होते हुए कहा____"जैसा आप कहेंगे मैं वैसा ही करूंगी।"
"ये सब मैं तेरी भलाई के लिए ही कह रहा हूं बहना।" मैंने फिक्रमंदी से कहा____"क्योंकि आज कल हालात ठीक नहीं हैं। अच्छा अब तू जा और आराम कर। आज बहुत थक गई होगी न तू?"

मेरे कहने पर कुसुम ने हाँ में सिर हिलाया और फिर वो चाय का खाली प्याला ले कर कमरे से चली गई। उसके जाने के बाद मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया। अभी मैं बिस्तर पर लेट कर कुसुम के बारे में सोचने ही लगा था कि कुसुम एक बार फिर से मेरे कमरे में दाखिल हुई और मेरे पास आ कर बोली____"आपको एक बात बताना तो मैं भूल ही गई भैया।"

"कौन सी बात?" मेरे माथे पर शिकन उभर आई।
"कल शाम को।" कुसुम ने कहा____"दादा ठाकुर के पास एक आदमी आया था। वो इस गांव का नहीं लगता था।"
"अच्छा कौन था वो आदमी?" मैंने सोचने वाले भाव से पूछा तो कुसुम ने कहा____"दादा ठाकुर उस आदमी को दरोगा जी कह रहे थे।"

"अच्छा, तो वो आदमी दरोगा था।" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"ख़ैर, दादा ठाकुर ने क्या बात की उस दरोगा से? क्या तूने सुनी थी उनकी बातें?"
"नहीं सुन पाई भइया।" कुसुम ने निराश भाव से कहा____"क्योंकि मुझे बड़ी माँ ने आवाज़ दे कर बुला लिया था। उसके बाद फिर मौका ही नहीं मिला बैठक में जाने का।"
"चल कोई बात नहीं।" मैंने कहा____"अब तू जा और आराम कर।"

कुसुम के जाने के बाद मैं सोचने लगा कि पिता जी ने उस दरोगा से क्या बातें की होंगी? क्या दरोगा ने मुरारी काका के हत्यारे का पता लगा लिया होगा? अगर हां तो कौन होगा मुरारी काका का हत्यारा? ऐसे न जाने कितने ही सवाल मेरे ज़हन में एकदम से तांडव करने लगे थे। मेरे अंदर एकदम से ये जानने की उत्सुकता बढ़ गई थी कि पिता जी ने दरोगा से आख़िर क्या बातें की होंगी? मैं अब किसी भी हालत में इन सब बातों को जानना चाहता था किन्तु सवाल था कि कैसे? मैंने फ़ैसला किया कि पिता जी से मिल कर इस बारे में ज़रूर बात करुंगा।

मैं ऐसे ही न जाने कब तक सोचो में गुम रहा और फिर मेरी आँख लग गई। मेरी नींद कुसुम के जगाने पर ही टूटी। वो मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई थी। उसे वापस भेज कर मैं उठा कर कमरे से निकल कर नीचे गुसलखाने में चला गया। गुसलखाने में मैंने हाथ मुँह धोया और खाना खाने के लिए उस जगह पर आ गया जहां पर दादा ठाकुर और जगताप चाचा जी बैठे हुए थे। उनके बगल से बड़े भैया बैठे हुए थे। विभोर और अजीत दोनों की ही कुर्सी खाली थी। ख़ैर एक कुर्सी पर आ कर मैं भी बैठ गया। खाना खाते वक़्त कोई भी बात नहीं कर सकता था इस लिए हम सब लोग चुपचाप खाना खाने में ब्यस्त हो ग‌ए।

मैं सिर नीचा किए खाना खाने में मस्त था कि तभी मेरे पैर में कोई चीज़ हल्के से छू गई तो मैंने चौंक कर सिर उठाया। मेरी नज़र बड़े भैया पर पड़ी, उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आँखों से इशारा किया तो मुझे कुछ समझ न आया कि वो किस बात के लिए इशारा कर रहे थे। तभी उन्होंने पिता जी की तरफ देखा तो मैंने भी पिता जी की तरफ देखा। पिता जी खाने का निवाला चबाते हुए मेरी तरफ ही देख रहे थे। जैसे ही मेरी नज़र उनकी नज़र से मिली तो मैंने जल्दी से नज़र हटा ली और सिर झुका कर फिर से खाना शुरू कर दिया। मेरी ये सोच कर धड़कनें तेज़ हो गईं थी कि पिता जी मेरी तरफ ऐसे क्यों देख रहे थे?
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 25
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अब तक,,,,,

मैं सिर नीचा किए खाना खाने में मस्त था कि तभी मेरे पैर में कोई चीज़ हल्के से छू गई तो मैंने चौंक कर सिर उठाया। मेरी नज़र बड़े भैया पर पड़ी, उन्होंने मुस्कुराते हुए मुझे आँखों से इशारा किया तो मुझे कुछ समझ न आया कि वो किस बात के लिए इशारा कर रहे थे। तभी उन्होंने पिता जी की तरफ देखा तो मैंने भी पिता जी की तरफ देखा। पिता जी खाने का निवाला चबाते हुए मेरी तरफ ही देख रहे थे। जैसे ही मेरी नज़र उनकी नज़र से मिली तो मैंने जल्दी से नज़र हटा ली और सिर झुका कर फिर से खाना शुरू कर दिया। मेरी ये सोच कर धड़कनें तेज़ हो गईं थी कि पिता जी मेरी तरफ ऐसे क्यों देख रहे थे?

अब आगे,,,,,



खाना खाने के बाद हम सब अपने अपने कमरों की तरफ चल दिए। पिता जी जिस तरह से मुझे देख रहे थे उससे मैंने यही सोचा था कि खाना खाने के बाद वो मुझसे कुछ कहेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पिता जी जा चुके थे किन्तु जगताप चाचा जी कुर्सी के पास ही खड़े थे। मैं ऊपर अपने कमरे की तरफ जाने के लिए सीढ़ियों की तरफ बढ़ा ही था कि चाचा जी ने मुझे आवाज़ दी।

"क्या तुम अभी भी ये चाहते हो कि।" जगताप चाचा जी ने मेरे पलटने पर मुझसे कहा_____"उस जगह पर तुम्हारे लिए मकान का निर्माण कार्य शुरू करवाया जाए?"
"क्या मतलब हुआ इस बात का?" मैंने उलझन पूर्ण भाव से कहा____"आप मुझसे ये क्यों पूछ रहे हैं?"

"आज जिस तरह तुमने अपने अच्छे बर्ताव से हम सबको आश्चर्य चकित किया था।" चाचा जी ने कहा____"उससे हम सब यही समझे हैं कि अब तुम हवेली में ही रहोगे और अब से तुम अपने हर कर्त्तव्य को दिल से निभाओगे। ऐसे में उस जगह पर मकान बनवाने का कोई मतलब ही नहीं बनता।"

"मतलब बनता है चाचा जी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और मैंने आपको उस जगह पर मकान बनवाने की वजह भी बताई थी। इस लिए मैं अभी भी यही चाहता हूं कि कल से उस जगह पर मकान बनवाने का कार्य शुरू हो जाए और जितना जल्दी हो सके मकान बन कर तैयार भी हो जाए।"

मेरी बात सुन कर जगताप चाचा जी कुछ देर तक मेरी तरफ एकटक देखते रहे उसके बाद गहरी सांस लेते हुए बोले____"ठीक है, अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो कल से ही उस जगह पर मकान बनवाने का कार्य शुरू हो जाएगा। मैंने बड़े भैया से भी इस बारे में बात की थी तो उन्होंने यही कहा कि अगर तुम यही चाहते हो तो उस जगह पर तुम्हारे लिए मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा दिया जाए।"

"चाचा भतीजे में ये कैसी बातें हो रही हैं?" तभी माँ ने आते हुए कहा____"और ये किस जगह पर मकान बनवाने की बात हो रही है?"
"भाभी मां।" जगताप चाचा जी ने बड़े अदब से कहा____"वैभव चाहता है कि हम इसके लिए उस जगह पर एक छोटा सा मकान बनवा दें जिस जगह पर ये चार महीने रहा है।"

"लेकिन क्यों?" माँ ने हैरत से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आख़िर उस बियावान जगह पर मकान बनवाने की ज़रूरत क्या है? क्या तू इस हवेली में नहीं रहना चाहता?"

"मैं हवेली में ही रहूंगा मां।" मैंने नम्र भाव से कहा____"लेकिन उस शांत जगह पर भी अपनी शान्ति और सुकून के लिए कुछ वक़्त बिताया करुंगा। इसी लिए मैंने चाचा जी से उस जगह पर मकान बनवा देने के लिए कहा है।"

"मुझे तो समझ ही नहीं आता कि।" माँ ने परेशान भाव से कहा____"तेरे मन में चलता क्या रहता है? भला उस वीरान जगह पर तू रहने का कैसे सोच सकता है?"
"उस जगह पर चार महीने एक झोपड़ा बना कर रह चुका हूं मां।" मैंने कहा____"उन चार महीनों में मुझे एक पल के लिए भी उस जगह पर किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि वो जगह तो मुझे ऐसी लगने लगी थी जैसे शादियों से मैं उसी जगह पर रहता आया हूं। आप इतना मत सोचिए और ना ही मेरी फ़िक्र कीजिए।"

मेरी बातें सुन कर माँ और चाचा जी मुझे देखते रहे, जबकि इतना कहने के बाद मैं पलटा और सीढ़ियों पर चढ़ता चला गया। कुछ ही देर में मैं अपने कमरे में पहुंच गया। कपड़े उतार कर और पंखा चला कर मैं बिस्तर पर लेट गया। उसके बाद अपनी आँखें बंद कर के मैं हर चीज़ के बारे में सोचने लगा। पता ही नहीं चला कि कब मुझे नींद आ गई।

सुबह कुसुम के जगाने पर ही मेरी आँख खुली। वो मेरे लिए चाय लिए खड़ी थी। मुझे ज़ोर की मुतास लगी थी इस लिए मैंने उससे चाय को मेज पर रख देने के लिए कहा और खुद कमरे से निकल गया। गुसलखाने में हाथ मुँह धो कर मैं वापस अपने कमरे में आ गया। चाय पीते हुए मुझे याद आया कि मैंने सरोज काकी से कहा था कि आज सुबह उसके खेतों की कटाई के लिए दो मजदूर भेज दूंगा। ये याद आते ही मैंने जल्दी जल्दी चाय को ख़त्म किया और कमरे से निकल कर नीचे आ गया।

नीचे आया तो मेरी नज़र आँगन में तुलसी की बेदी के पास पूजा कर रही भाभी पर पड़ी। वो अपने दोनों हाथ जोड़े और आँखे बंद किए तुलसी को प्रणाम कर रहीं थी। मुझे उनके सामने से हो कर ही जाना था इस लिए मैं फ़ौरन ही आगे बढ़ चला। मैं चाहता था कि उनकी आँखें खुलने से पहले ही मैं उनके पास से गुज़र जाऊं किन्तु ऐसा हुआ नहीं। मैं तेज़ तेज़ बढ़ते हुए जैसे ही उनके पास पंहुचा तो उन्होंने अपनी आँखें खोल दी। आँखें खुलते ही उनकी नज़र सीधा मुझ पर पड़ी। मैं तो उनकी तरफ ही देख रहा था, इस लिए जैसे ही उनकी नज़र मेरी नज़र से टकराई तो मेरा दिल धक् से रह गया।

"प्रणाम भाभी।" मेरे पास कोई चारा नहीं था इस लिए ख़ुद को सम्हालते हुए मैंने बड़े अदब से उन्हें प्रणाम किया और आशीर्वाद के रूप में उनका कोई जवाब सुने बिना ही मैं तेज़ी से आगे बढ़ने ही वाला था कि उन्होंने कहा____"अरे! देवर जी प्रसाद तो ले लीजिए। सुबह सुबह एकदम आंधी तूफ़ान बन के कहां जा रहे हैं?"

भाभी की बात सुन कर मैं अपनी जगह पर एकदम से जाम सा हो गया। हालांकि उनके टोक देने पर मेरे अंदर गुस्सा फूटने लगा था किन्तु मैंने अपने गुस्से को जल्दी ही सम्हाल लिया। भाभी के पूछने पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो उन्होंने आगे बढ़ कर प्रसाद का लड्डू मेरी तरफ बढ़ाया तो मैंने अपने दाएं हाथ की हथेली उनके सामने कर दी।

"मैं जानती हूं कि तुम्हें इस तरह से किसी का टोकना पसंद नहीं है।" भाभी ने प्रसाद मेरी हथेली पर रखते हुए कहा____"लेकिन मैं ये भी जानती हूं कि तुम इतनी तेज़ी से क्यों मेरे सामने से निकले जा रहे थे?"

भाभी ने ये कहा तो मैंने हल्के से चौंक कर उनकी तरफ देखा जबकि उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"ठाकुरों का ग़ुरूर अभी भी तुम्हारे अंदर वैसा का वैसा ही है देवर जी। जबकि मैंने तो ये उम्मीद की थी कि वो सब बातें जानने के बाद शायद तुम में कुछ बदलाव आ जाएगा। ख़ैर, एक बात और है और वो ये कि कल जो कुछ तुमने कहा था उन बातों पर तो मुझे तुमसे शख़्त नाराज़ हो जाना चाहिए था किन्तु मैं तुमसे नाराज़ नहीं हुई। जानते हो क्यों? क्योंकि मैं जानती हूं कि अगर तुम मुझे देख कर मेरी तरफ आकर्षित होते हो तो इसमें तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है। ये तो इस कलियुग का प्रभाव है वैभव। इस कलियुग में इंसान की सोच और उसकी नज़र गंगा मैया की तरह पाक़ नहीं होती। मैं तो बस ये चाहती हूं कि तुम वक़्त की नज़ाक़त को देख कर सम्हल जाओ और उन चीज़ों पर ध्यान दो जिन पर ध्यान देने की आज कल शख़्त ज़रूरत है।"

भाभी की बातें सुन कर मैं कुछ न बोल सका था किन्तु ये जान कर थोड़ी राहत ज़रूर मिली थी कि वो मेरी कल की बातों से नाराज़ नहीं थीं। मैं समझ नहीं पाया कि इतनी सहनशील औरत भला कौन हो सकती है जो मेरी उन बातों को भी ये सब सोच कर सहन कर ले या फिर उसके लिए ये कहे कि उसमे मेरी कोई ग़लती नहीं है। मेरे दिलो दिमाग़ से एक बहुत बड़ा बोझ हट गया था। कहां इसके पहले मैं उनके सामने जाने से कतरा रहा था वहीं अब उनकी बातों से मेरे अंदर का डर दूर हो गया था।

"शुक्रिया भाभी।" मैंने बड़े सम्मान भाव से कहा____"आप सच में बहुत अच्छी हैं लेकिन मैं उस सबके लिए अभी भी बहुत शर्मिंदा हूं। मुझे माफ़ कर दीजिए, मैं दिल से ये कभी नहीं चाहता कि मैं आपके बारे में एक पल के लिए भी ग़लत सोचूं लेकिन पता नहीं क्या हो जाता है मुझे कि आपके क़रीब आते ही मेरा मन मेरे काबू से बाहर होने लगता है। मुझे माफ़ कर दीजिए। अपने भगवान से कहिए कि वो मुझसे ऐसा पाप न करवाए।"

"इतना हलकान मत हो वैभव।" भाभी ने शांत भाव से कहा____"मैं जानती हूं कि तुम ग़लत नहीं हो। इस लिए तुम इतना हताश मत हो। ख़ैर अब तुम जाओ, मैं बाकी सबको भी प्रसाद दे दूं।"

भाभी के ऐसा कहने पर मैंने सिर हिलाया और उन्हें एक बार फिर से प्रणाम कर के सीढ़ियां चढ़ कर इस तरफ आ गया। इस वक़्त मेरे मन में उथल पुथल सी मची हुई थी जिसे मैं काबू में करने की कोशिश कर रहा था। इस तरफ आया तो माँ मुझे मिल ग‌ईं। मैंने माँ को प्रणाम किया तो उन्होंने ख़ुश हो कर मुझे आशीर्वाद दिया। फिर उन्होंने कहा कि नास्ता बन रहा है इस लिए मैं कहीं न जाऊं। मैंने माँ से कहा कि मुझे जाना ज़रूरी है और मैं बाहर ही कहीं खा पी लूंगा। मेरी बात सुन कर माँ मेरे चेहरे की तरफ देखती रहीं। शायद वो ये समझने की कोशिश कर रहीं थी कि इस वक़्त मैं किस मूड में हूं? मैंने मुस्कुरा कर माँ को फ़िक्र न करने के लिए कहा तो उनके चेहरे पर राहत के भाव उभर आए और फिर उन्होंने मुझे जाने की इजाज़त दे दी।

बड़े भैया इस वक़्त अपने कमरे ही होते थे और पिता जी जगताप चाचा जी के साथ बैठक में। वहां पर वो कुछ ज़रूरी चीज़ों के बारे में बातें करते थे। मैं बाहर बैठक में आया और पिता जी के साथ साथ चाचा जी को भी प्रणाम किया। मेरा ये शिष्टाचार देख कर दोनों बड़े ही खुश हुए।

"हमें ये तो समझ नहीं आया कि।" दादा ठाकुर ने मुझसे कहा____"तुम उस जगह पर मकान बनवाने के लिए क्यों इतना ज़ोर दे रहे हो किन्तु तुम्हारी इस हसरत को हम नकारना नहीं चाहेंगे। ख़ैर हमने जगताप को बोल दिया है कि वो आज से ही उस जगह पर मकान का निर्माण कार्य शुरू करवा दे।"

"आप फ़िक्र मत कीजिए पिता जी।" मैंने बड़े आदर भाव से कहा____"उस जगह पर अपने लिए मकान बनवा कर मैं कोई ग़लत काम नहीं करुंगा।"
"फिर तो बहुत अच्छी बात है।" पिता जी ने कहा____"ख़ैर जगताप ने भुवन को इस काम के लिए लगा दिया है। तुम चाहो तो खुद भी उस जगह पर जा कर अपने तरीके से देख रेख कर सकते हो।"
"जी मैं वहीं जा रहा हूं पिता जी।" मैंने कहा और फिर दोनों का अभिवादन कर के हवेली से बाहर आ गया।

कुछ ही देर में मैं मोटर साइकिल में बैठा गांव से बाहर की तरफ उड़ा जा रहा था। इस वक़्त मेरे ज़हन में कई सारी बातें चल रहीं थी। अभी तक मैंने वो किया था जिसका कोई मतलब नहीं होता था किन्तु अब मैं वो करने वाला था जिसका बहुत कुछ मतलब निकलने वाला था।

साहूकारों के घरों के सामने आया तो देखा पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर रूपचंद्र अपने चाचा शिव शंकर और उसके बेटे गौरव सिंह के साथ बैठा हुआ था। मुझ पर नज़र पड़ते ही शिव शंकर चबूतरे से उतर कर खड़ा हो गया। उसके उतर जाने पर रूपचन्द्र और गौरव भी नीचे उतर आए। शिव शंकर ने मुझे देख कर सलाम किया तो उसका लड़का और भतीजे ने भी किया किन्तु मैंने देखा कि रूपचन्द्र के होठों पर बड़ी जानदार मुस्कान उभर आई थी। उसकी वो मुस्कान देख कर मैं समझ गया कि वो क्या सोच कर मुस्कुरा रहा था किन्तु मैं ये ज़ाहिर नहीं करना चाहता था कि मुझे उसकी करतूत पता है।

"और शिव काका।" मैंने मोटर साइकिल खड़ी कर के सामान्य भाव से शिव शंकर की तरफ देखते हुए कहा_____"कैसे हो? चबूतरे में बैठ कर पेड़ की ठंडी छांव का आनंद ले रहे हो क्या?"

"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने कहा____"ये लड़के लोग बैठे थे तो मैं भी इनके साथ थोड़ी देर के लिए बैठ गया था।"
"अच्छी बात है काका।" मैंने कहा____"वैसे अब तो खुश हो न? हवेली से आप लोगों के रिश्ते अब सुधर गए हैं।"

"समय एक जैसा नहीं रहता छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने कहा____"परिवर्तन इस सृष्टि का नियम है और सृष्टि के इस नियम के साथ साथ इंसान को भी बदलना चाहिए। अतीत की बातों को ले कर मन मुटाव बनाए रखना भला कहां की बुद्धिमानी है? हम तो बहुत पहले से इस बारे में सोच रहे थे इस लिए होली के त्यौहार के दिन को हमने इसके लिए ज़्यादा उचित समझा। ठाकुर साहब भी हमारी विनती को सुन लिए जिसके चलते अब सब ठीक हो गया है।"

"चलो देखते हैं कि दो खानदानों के बीच ये प्रेम कब तक रहता है।" मैंने सपाट लहजे में कहा तो शिव शंकर ने कहा____"अब तो हमेशा ही चलता रहेगा छोटे ठाकुर। तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?"

"मैं इस लिए कह रहा हूं काका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्योंकि आज की नई पौध का खून बहुत गरम है। आज की नई पौध में सहनशीलता की बहुत कमी है। आज की नई पौध किसी के सामने झुकना पसंद नहीं करती और इसका सबसे बड़ा उदाहरण मैं स्वयं हूं।"

"ये तुम क्या कह रहे हो छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने मेरी बात सुन कर हैरानी से कहा____"तुम अब पहले जैसे नहीं रहे। मैंने कल देखा था कि कैसे तुम अपने बड़ों के सामने झुक कर उनका सम्मान कर रहे थे। मैं सच कह रहा हूं छोटे ठाकुर, कल तुम्हें उस रूप में देख कर बहुत अच्छा लगा। हवेली से आने के बाद हम लोग तुम्हारे ही बारे में चर्चा कर रहे थे। हम सब यही कह रहे थे कि छोटे ठाकुर पहले जैसे भी थे लेकिन अब उनमे सिर्फ अच्छाईयां ही है। हमारे बड़े भाई साहब तो ये भी कह रहे थे कि छोटे ठाकुर को एक दिन हम अपने घर बुलाएँगे और उनका अच्छे से स्वागत करेंगे।"

"ये तो बड़े आश्चर्य की बात है शिव काका।" मैंने मन ही मन हैरान होते हुए कहा____"भला मुझ जैसे इंसान को अपने घर बुला कर मेरा स्वागत करने का विचार आपके मन में कैसे आया? मैं तो ऐसा इंसान हूं जिसके लिए हर इंसान के अंदर सिर्फ और सिर्फ नफ़रत और घृणा ही है।"

"नहीं छोटे ठाकुर।" शिव शंकर ने जल्दी से कहा____"कल तुम्हारा अच्छा बर्ताव देख कर इतना तो मैं भी समझ गया हूं कि अब तुम पहले जैसे नहीं रहे। तुम्हारे अंदर जो एक अच्छा इंसान जाने कब से दबा हुआ था वो अब बाहर आ गया है। कल हम सब दादा ठाकुर से इस बारे में चर्चा कर रहे थे और यकीन मानो छोटे ठाकुर, तुम्हारा कल का बर्ताव देख कर ठाकुर साहब भी बहुत प्रसन्न थे। अब तो वैसे भी हमारे रिश्ते सुधर चुके हैं इस लिए सब कुछ भुला कर हमें एक नए सिरे से रिश्तों की शुरुआत करनी है। इसी लिए कह रहा हूं कि किसी दिन तुम्हें अपने घर बुलाएंगे। वैसे भी अब हमारा और तुम्हारा एक दूसरे के यहाँ आना जाना तो लगा ही रहेगा।"

"मानिक की तबियत अब कैसी है काका?" मैंने कुछ सोचते हुए ये कहा तो शिव शंकर तो सामान्य ही रहा किन्तु रूपचन्द्र और गौरव के चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए, जबकि मेरी बात सुन कर शिव शंकर ने कहा____"उसे शहर ले गए थे छोटे ठाकुर। शहर में डॉक्टर ने उसके हाथ पर प्लास्टर चढ़ा दिया है। पूरी तरह ठीक होने में कुछ समय तो लगेगा ही।"

"माफ़ करना काका।" मैंने खेद भरे भाव से कहा____"मानिक के साथ मैंने अच्छा नहीं किया। मुझे अपने गुस्से पर काबू रखना चाहिए था।"
"कोई बात नहीं छोटे ठाकुर।" शिव शंकर के चेहरे पर भी इस बार चौंकने के भाव उभर आये थे, बोला____"ग़लतियां तो सबसे होती हैं लेकिन इंसान को अगर अपनी ग़लती का एहसास हो जाए और वो अपनी ग़लती मान ले तो फिर उससे अच्छी बात कोई नहीं होती। मेरे भतीजे मानिक की भी ग़लती थी। उसे तुमसे उस लहजे में बात नहीं करनी चाहिए थी। ख़ैर जो हुआ उसे भूल जाओ बेटा। मैं तो बस ये चाहता हूं कि दोनों खानदान के लड़के एक दूसरे से प्रेम रखें और मिल जुल कर रहें।"

"अब से यही कोशिश करुंगा काका।" मैंने कहा____"हालाँकि मैं पहले भी मानिक लोगों से उलझने में पहल नहीं करता था। ख़ैर अभी चलता हूं काका। बाद में फिर मुलाक़ात होगी आपसे।"
"ठीक है बेटा।" शिव शंकर ने सिर हिलाते हुए कहा तो मैं रूपचन्द्र और गौरव पर सरसरी नज़र डालने के बाद आगे बढ़ चला।

मैं जानता था कि मेरी बातों ने रूपचन्द्र और गौरव के साथ साथ शिव शंकर को भी हैरान कर दिया होगा और यही तो मैं चाहता था। मैंने फ़ैसला कर लिया था कि अब अपनी अकड़़ को एक तरफ रख के ही हर काम करुंगा। अगर मुझे इन साहूकारों के अंदर की बात का पता लगाना है तो मुझे कुछ नरमी से काम लेना होगा और कुछ ऐसा भी करना होगा जिससे मेरा आना जाना साहूकारों के घरों में होने लगे। हालांकि अगर मैं उन लोगों के घर चला भी जाऊंगा तो कोई मेरा कुछ उखाड़ लेने वाला नहीं था किन्तु मैं ये चाहता था कि मैं जब भी उनके घर जाऊं तो एक अच्छे इंसान के रूप में जाऊं ताकि वो लोग मेरे बारे में उल्टा सीधा न सोच सकें।

रूपचंद्र मुझे देख कर शुरू में मुस्कुराया था किन्तु मेरी बातें सुन कर यकीनन वो चकरा गया होगा। वो सोचने पर मजबूर हो गया होगा कि मैं अपनी ही फितरत के ख़िलाफ़ कैसे जा सकता हूं? मेरी बातों से अब वो सोच में पड़ गया होगा और कहीं न कहीं वो चिंतित भी हो उठा होगा। ख़ैर यही सब सोचते हुए मैं मुरारी काका के घर पहुंच गया।

मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि जब तक मैं दरवाज़े तक पहुँचता उससे पहले ही दरवाज़ा खुल गया था। दरवाज़े पर सरोज काकी नज़र आई। मुझे देखते ही उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई।

"कैसी हो काकी?" मैं उसके पास पहुंचते ही बोला____"मजदूर आए कि नहीं?"
"हां बेटा दो जने आये थे।" सरोज काकी ने कहा____"मैंने उन्हें खेत भेज दिया है और अब मैं भी खेतों पर ही जाने वाली थी कि तुम आ गए।"

"हां वो मैं पता करने ही आया था कि वो लोग यहाँ पहुंचे कि नहीं?" काकी एक तरफ हटी तो मैंने दरवाज़े के अंदर दाखिल होते हुए कहा____"उसके बाद मैं उस जगह भी जाऊंगा जहां खेत पर मेरा झोपड़ा बना हुआ था।"

"वहां अब किस लिए जाओगे बेटा?" सरोज काकी ने आँगन में खटिया बिछाते हुए कहा____"क्या फिर से उस जगह पर खेती करने का इरादा है?"
"खेती करने का तो कोई इरादा नहीं है काकी।" मैंने खटिया पर बैठते हुए कहा____"असल में उस जगह पर मैं अपने लिए एक छोटा सा मकान बनवा रहा हूं। आज से वहां पर काम शुरू भी हो गया है।"

"लेकिन बेटा।" काकी ने हैरानी से कहा____"उस जगह पर मकान बनवाने की क्या ज़रूरत आ पड़ी तुम्हें? क्या फिर से हवेली में किसी से अनबन हो गई है तुम्हारी?"
"नहीं काकी अनबन तो किसी से नहीं हुई।" मैंने कहा____"असल में मैं उस जगह पर इस लिए मकान बनवा रहा हूं ताकि शांत और एकांत जगह पर मैं कुछ देर के लिए सुकून से रह सकूं।"

"कहीं अपने मनोरंजन के लिए तो नहीं मकान बनवा रहे उस जगह पर?" इधर उधर देखने के बाद काकी ने मुझसे धीमे स्वर में कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"नहीं काकी ऐसी कोई बात नहीं है। उस जगह पर मकान बनवाने का सिर्फ यही मतलब है कि मैं कुछ देर एकांत में रह कर सुकून पा सकूं। हवेली में मुझे घुटन सी होती है जबकि उस जगह पर एकदम शान्ति और सुकून मिलता है।"

"चलो जो भी हो।" काकी ने फिर से इधर उधर देखा और धीमे स्वर में कहा____"तुम्हारे वहां रहने से एक चीज़ का तो फायदा होगा ही कि हम बेफिक्र हो कर मज़े कर सकेंगे।"
"ऐसा सोचना भी मत काकी।" मैंने थोड़ा शख़्त भाव से कहा____"मैं अब ऐसा कुछ भी नहीं करने वाला और हां मैं तुमसे बेहद नाराज भी हूं।"

"नाराज़???" काकी मेरी बात सुन कर चौंकते हुए बोली____"किस बात से नाराज़ हो मुझसे?"
"तुमने मुझे इस बारे में बताया क्यों नहीं कि रूपचन्द्र तुम्हारी बेटी के साथ ग़लत करने के लिए तुम्हें मजबूर किया था?" मैंने थोड़ा गुस्से में कहा_____"क्या तुम्हें मुझ पर इतना भी भरोसा नहीं था कि मैं तुम लोगों को उसकी ऐसी घटिया मांग से बचा सकता? और तो और तुमने अपनी इज्ज़त को बचाने के लिए अपनी ही बेटी को उसके आगे परोस दिया? ऐसा कैसे कर सकती हो तुम?"

"मुझे माफ़ कर दो बेटा।" काकी ने हताश भाव से कहा____"मैं उसकी बातों से बहुत ज़्यादा डर गई थी। ऊपर से तुम्हारे काका की भी मृत्यु हो गई थी और ऐसे में अगर किसी को हमारे सम्बन्धों की बातें पता चल जाती तो मैं किसी को कैसे अपना मुँह दिखाती? मैं तो मर ही जाती बेटा। इस लिए मुझे जो समझ आया वही मैंने किया। तुम्हें भी इसी लिए नहीं बताया कि तुम खुद ही अपने घर परिवार से कटे हुए थे और सब कोई तुम पर मेरे मरद की हत्या का इल्ज़ाम लगा रहा था। इस लिए मैंने तुम्हें ये सब बता कर तुम्हे परेशान करना सही नहीं समझा था।"

"तुम्हारी इस ग़लती की वजह से अनुराधा को भी हमारे बारे में सब कुछ पता चल गया है।" मैंने धीमे स्वर में कहा____"और इतना ही नहीं तुम्हारी वजह से उसकी ज़िन्दगी भी बर्बाद हो जाती। वो तो उस दिन मैं संयोग से यहाँ आ गया था वरना वो कमीना तुम्हारी बेटी की इज्ज़त लूट ही लेता।"

"हां वो उस दिन पहले मेरे पास खेत में आया था।" काकी ने कहा____"उसके बाद यहाँ आया था। मैं जानती थी कि अब उससे मेरी बेटी की इज्ज़त को भगवान के सिवा कोई नहीं बचा सकता। मैं मजबूर थी और रोने के सिवा कुछ नहीं कर सकती थी। भगवन से प्रार्थना ज़रुर कर रही थी कि वो किसी तरह मेरी बेटी को बर्बाद होने से बचा ले। मुझसे रहा नहीं गया था इस लिए कुछ देर बाद मैं भी खेतों से चली आई थी। यहाँ आई तो देखा रूपचन्द्र नहीं था बल्कि तुम थे। तुम्हें देख कर मैं समझ गई थी कि भगवान ने मेरी प्रार्थना को सुन लिया है।"

"तुम्हारी बेटी कहीं नज़र नहीं आ रही।" मैंने इधर उधर देखते हुए कहा____"कहीं गई है क्या वो?"
"वो पीछे कुएं में नहा रही है।" सरोज काकी ने कहा____"आती ही होगी। अच्छा अब तुम बैठो और मैं ज़रा खेतों की तरफ जा रही हूं। नास्ता पानी न किया हो तो यहीं खा लेना।"

"अच्छा एक बात बताओ।" मैंने धड़कते हुए दिल से कहा____"तुम्हें मुझ पर भरोसा है न?"
"हां है।" सरोज काकी ने कहा___"लेकिन तुम ये क्यों पूछ रहे हो?"
"उस दिन जब मैं यहाँ आया था तब रूपचन्द्र के जाने के बाद मैं अकेला ही तुम्हारी बेटी के साथ था।" मैंने कहा____"और अब तुम खुद ही मुझे यहाँ पर बैठने का बोल कर जा रही हो। मैं ये जानना चाहता हूं कि तुम अपनी जवान बेटी के पास मुझे ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकती हो? क्या तुम मेरे चरित्र के बारे में भूल गई हो कि मैं कैसा इंसान हूं? अगर मैंने तुम्हारी बेटी को यहाँ अकेला देख कर उसके साथ कुछ ग़लत कर दिया तो?"

"होनी को कोई नहीं टाल सकता बेटा।" सरोज काकी ने अजीब भाव से कहा____"फिर भी मुझे इतना तो भरोसा है कि तुम ऐसा नहीं कर सकते। अगर करना ही होता तो इतने महीनों में मुझे इस बात का इतना तो आभास हो ही गया होता कि मेरी बेटी के प्रति तुम्हारे अंदर क्या है? वैसे भी ताली तो दोनों हाथों से ही बजती है और मैं ये भी जानती हूं कि तुम किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करना पसंद नहीं करते हो। मेरी बेटी को भी मैं अच्छी तरह जानती हूं कि वो कैसी है इस लिए मैं ये नहीं सोचती कि उसे अकेला देख कर तुम उसके साथ क्या कर सकते हो?"

"भरोसा करने के लिए शुक्रिया काकी।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ये सच है कि मैं अनुराधा के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करने का सोच भी नहीं सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को। अभी तो तुम्हारे यहाँ नास्ता पानी में कुछ बना ही नहीं है इस लिए मैं भी कुछ देर के लिए देख आता हूं कि उस जगह पर मजदूर लोग क्या कर रहे हैं।"

"ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"मैं अनुराधा को बोल देती हूं कि वो जल्द से जल्द तुम्हारे लिए खाना पीना बना दे।"
"उससे कहना मैं एक डेढ़ घंटे में आ जाऊंगा।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और ये भी कहना कि भांटे का भरता ज़रूर बना के रखेगी।"

मेरी बात सुन कर सरोज काकी ने हां में सिर हिलाया तो मैंने कहा____"अच्छा काकी मुरारी काका की तेरहवीं किस दिन है?"
"परसों के दिन है बेटा।" सरोज काकी ने संजीदा भाव से कहा____"सोच रही थी कि फसल गह कर घर आ जाती तो उसे बेंच कर उनकी तेरहवीं करने के लिए शहर से कुछ सामान मंगवा लेती लेकिन लगता है समय पर फसल गह ही नहीं पाएगी।"

"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मेरे रहते हुए तुम्हें किसी बात के लिए परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। तेरहवीं करने के लिए जो जो सामान चाहिए मुझे बता देना। मैं कल ही शहर से मंगवा दूंगा।"

"सब कुछ जगन ही कर रहा है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"इस लिए वो ये नहीं चाहेगा कि इस सबके लिए तुम अपना कोई सहयोग दो।"
"मैं जगन काका से बात कर लूंगा काकी।" मैंने कहा____"और उनसे कहूंगा कि जिस चीज़ की भी ज़रूरत हो वो मुझे बोल दें। अच्छा अब मैं चलता हूं। शाम को जगन काका को यहीं पर बुला लेना। उनके सामने ही सारी बातें होंगी।"

सरोज काकी के घर से निकल कर मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के उस जगह चल दिया जहां पर मैं पिछले चार महीने झोपड़े में रहा था। थोड़ी ही देर में मैं उस जगह पर आ गया।

"प्रणाम छोटे ठाकुर।" मैं जैसे ही पहुंचा तो भुवन ने मुझे देखते हुए कहा____"मझले ठाकुर साहब ने मुझसे कहा था कि मैं आपसे पूछ कर ही यहाँ पर सारा कार्य करवाऊं। इस लिए आप इन लोगों को बता दीजिए कि किस तरह का मकान यहाँ पर बनाना है।"

भुवन की बात सुन कर मैं मोटर साइकिल से नीचे उतरा और मजदूरों की तरफ बढ़ चला। जिस जगह पर मेरा झोपड़ा था उस जगह के आस पास मैंने अच्छे से देखा और फिर मैंने भुवन से कहा कि इसी जगह पर मकान की नीव खोदना शुरू करवाओ। मेरे कहने पर भुवन ने मजदूरों को बोल दिया तो वो लोग हाथ में गैंती फावड़ा ले कर काम पर लग ग‌ए।

मैंने भुवन से कहा कि यहाँ पर पानी के लिए एक कुंआ भी होना चाहिए इस लिए किसी अच्छे जानकार को बुला कर यहाँ की ज़मीन पर पानी विचरवाओ कि किस जगह पर बढ़िया पानी होगा। मेरी बात सुन कर भुवन ने हां में सिर हिलाया और अपनी राजदूत मोटर साइकिल में बैठ कर चला गया।

मुझे कम समय में मकान बना हुआ चाहिए था इस लिए मजदूर लोग काफी संख्या में आये थे। मैं एक पेड़ की छांव के नीचे मोटर साइकिल में बैठा सबका काम धाम देख रहा था। क़रीब एक घंटे बाद भुवन आया। मोटर साइकिल में उसके पीछे एक आदमी बैठा हुआ था। मुझे देखते ही उस आदमी ने बड़े अदब से मुझे सलाम किया।

भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।

उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 26
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अब तक,,,,,

भुवन ने मुझे बताया कि वो आदमी पानी विचारता है। इस लिए मैंने उस आदमी से कहा कि यहाँ पर विचार कर बताओ कि किस जगह पर अच्छा पानी हो सकता है। मेरे कहने पर वो आदमी भुवन के साथ चल दिया। मैं खुद भी उसके साथ ही था। काफी देर तक वो इधर से उधर घूमता रहा और अपने हाथ ली हुई एक अजीब सी चीज़ को ज़मीन पर रख कर कुछ करता रहा। एक जगह पर वो काफी देर तक बैठा पता नहीं क्या करता रहा उसके बाद उसने मुझसे कहा कि इस जगह पानी का बढ़िया स्त्रोत है छोटे ठाकुर। इस लिए इस जगह पर कुंआ खोदना लाभदायक होगा।

उस आदमी के कहे अनुसार मैंने भुवन से कहा कि वो कुछ मजदूरों को कुंआ खोदने के काम पर लगा दे। मेरे कहने पर भुवन ने चार पांच लोगों को उस जगह पर कुंआ खोदने के काम पर लगा दिया। पानी विचारने वाले उस आदमी ने शायद भुवन को पहले ही कुछ चीज़ें बता दी थी इस लिए भुवन ने उस जगह पर अगरबत्ती जलाई और एक नारियल रख दिया। ख़ैर कुछ ही देर में कुएं की खुदाई शुरू हो गई। भुवन उस आदमी को भेजने वापस चला गया। इधर मैं भी मजदूरों को ज़रूरी निर्देश दे कर मुरारी काका के घर की तरफ चल दिया।


अब आगे,,,,,



अभी मैं आधे रास्ते में ही था कि मेरे ज़हन में ख़याल आया कि एक बार मुरारी काका के खेतों की तरफ भी हो आऊं। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल को मुरारी काका के खेतों की तरफ मोड़ दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ सुन कर खेतों में कटाई कर रहे किसानों का ध्यान मेरी तरफ गया। मैंने आम के पेड़ के नीचे मोटर साइकिल खड़ी की। आम के पेड़ के नीचे ही मुरारी काका का खलिहान बना हुआ था। सरोज काकी खलिहान में ही एक तरफ खटिया पर बैठी हुई थी। मुझे देखते ही वो खटिया से उठ गई।

"कटाई ठीक से चल रही है न काकी?" मैंने सरोज काकी के पास आते हुए पूछा तो काकी ने कहा____"हां बेटा ठीक से ही चल रही है। तुमने जिन दो लोगों को भेजा है उन्होंने आधे से ज़्यादा खेत काट दिया है। मुझे लगता है कि आज ही सब कट जाएगा।"

"तुम चिंता मत करना काकी।" काकी ने मुझे खटिया में बैठने का इशारा किया तो मैंने खटिया में बैठते हुए कहा____"कटाई के बाद ये दोनों तुम्हारी फसल की गहाई भी करवा देंगे।"
"वो तो ठीक है बेटा।" काकी ने थोड़े चिंतित भाव से कहा____"लेकिन मुझे चिंता जगन की है और गांव वालों की भी। जगन को तो मैं समझा दूंगी लेकिन गांव वालों को कैसे समझाऊंगी?"

"क्या मतलब??" मैंने न समझने वाले भाव से पूछा तो काकी ने कहा____"मतलब ये कि तुम्हारी इस मदद से गांव के कुछ लोग तरह तरह की बातें बनाएंगे। मुझे डर है कि वो कहीं ऐसी बातें न बनाएं जिससे मेरी और मेरी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लग जाए।"

"ये तुम क्या कह रही हो काकी?" मैंने हैरानी से कहा____"इसमें तुम्हारी और तुम्हारी बेटी की इज्ज़त पर दाग़ लगने वाली कौन सी बात हो जाएगी भला?"
"तुम समझ नहीं रहे हो बेटा।" सरोज ने बेबस भाव से कहा____"ये तो तुम भी जानते ही होंगे न कि सब तुम्हारे चरित्र के बारे में कैसी राय रखते हैं। तुम्हारे चरित्र के बारे में सोच कर ही गांव के कुछ लोग ऐसी बातें सोचेंगे और दूसरों से करेंगे भी। वो यही कहेंगे कि तुमने हमारी मदद सिर्फ इस लिए की होगी क्योंकि तुम्हारी मंशा मेरी बेटी को फ़साने की है।"

"तुम अच्छी तरह जानती हो काकी कि मेरे ज़हन में ऐसी बात दूर दूर तक नहीं है।" मैंने कहा____"मेरे चरित्र को जानने वालों को क्या ये समझ नहीं आता कि अगर मेरे मन में यही सब बातें होती तो क्या अब तक मैं तुम्हारी बेटी के साथ कुछ ग़लत न कर चुका होता?"

"मैं तो अच्छी तरह जानती हूं बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"लेकिन लोगों को कैसे कोई समझा सकता है? उन्हें तो बातें बनाने के लिए मौका और मुद्दा दोनों ही मिल ही जाएगा न।"
"गांव और समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काकी।" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"तुम चाहे लाख नेक काम करो इसके बावजूद लोग तुम्हारी अच्छाई का गुड़गान नहीं करेंगे बल्कि वो सिर्फ इस बात की कोशिश में लगे रहेंगे कि तुम्हारे में बुराई क्या है और तुम्हारे बारे में बुरा कैसे कहा जाए? इस लिए अगर गांव समाज के लोगों का सोच कर चलोगी तो हमेशा दब्बू बन के ही रहोगी। जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाओगी। गांव समाज के लोग दूसरों की कमियां खोजने के लिए फुर्सत से बैठे होते हैं। उनके पास दूसरा कोई काम नहीं होता। तुम ये बताओ काकी कि गांव समाज में ऐसा कौन है जो दूध का धुला हुआ बैठा है? इस हमाम में सब नंगे ही हैं। कमियां सब में होती हैं। दब के रहने वाले लोग उनकी कमियों का किसी से ज़िक्र नहीं करते जबकि ख़ुद को अच्छा समझने वाले धूर्त किस्म के होते हैं जो सिर्फ ढिंढोरा पीटते हैं।"

"बात तो तुम्हारी ठीक है बेटा।" सरोज काकी ने बेचैनी से पहलू बदला____"लेकिन इस समाज में अकेली औरत का जीना इतना आसान भी तो नहीं होता। ख़ास कर तब जब उसका मरद ईश्वर के घर पहुंच गया हो। उसे बहुत कुछ सोच समझ कर चलना पड़ता है।"

"मैं ये सब बातें जानता हूं काकी।" मैंने कहा____"लेकिन मैं ये भी समझता हूं कि किसी से इतना दब के भी नहीं रहना चाहिए कि लोग उसे दबाते दबाते ज़मीन में ही गाड़ दें। अपना हर काम सही से करो और निडर हो कर करो तो कोई माई लाल कुछ नहीं उखाड़ सकता। ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं जगन काका से भी मिलना चाहता था। उनसे मिल कर परसों के कार्यक्रम के बारे में बात करनी थी।"

"जगन खाना खाने गया है।" सरोज काकी ने कहा____"आता ही होगा घर से। मुझे तो उसकी भी चिंता है कि कहीं वो इस सब से नाराज़ न हो जाए।"
"चिंता मत करो काकी।" मैंने कहा____"मैं जगन काका को अच्छे से समझा दूंगा।"

मेरी बात सुन कर काकी अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी उसकी नज़र दूर से आते हुए जगन पर पड़ी। उसे देख कर सरोज काकी ने मुझे इशारा किया तो मैंने भी जगन की तरफ देखा। जगन हांथ में एक लट्ठ लिए तेज़ क़दमों से इसी तरफ चला आ रहा था। कुछ ही देर में जब वो हमारे पास आ गया तो उसकी नज़र मुझ पर पड़ी। उसने घूर कर देखा मुझे।

"छोटे ठाकुर तुम यहाँ??" फिर उसने चौंकने वाले भाव से मुझसे कहा तो मैंने हल्की मुस्कान में कहा____"तुमसे ही मिलने आया था काका लेकिन तुम थे नहीं। काकी ने बताया कि तुम खाना खाने घर गए हुए हो तो सोचा तुम्हारे आने का इंतज़ार ही कर लेता हूं।"

"मुझसे भला क्या काम हो सकता है तुम्हें?" जगन ने घूरते हुए ही कहा मुझसे____"और ये मैं क्या देख रहा हूं छोटे ठाकुर? तुम्हारे गांव के ये दो मजदूर मेरे भाई के खेत की कटाई क्यों कर रहे हैं?"

"वो मेरे कहने से ही कर रहे हैं काका।" मैंने शांत भाव से कहा____"मुरारी काका ने मेरे लिए इतना कुछ किया था तो मेरा भी तो फ़र्ज़ बनता है कि उनके एहसानों का क़र्ज़ जितना हो सके तो चुका ही दूं। काकी ने तो इसके लिए मुझे बहुत मना किया लेकिन मैं ही नहीं माना। मैंने मुरारी काका का वास्ता दिया तब जा के काकी राज़ी हुई। तुम तो जानते हो काका कि मुरारी काका मेरे लिए किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थे इस लिए ऐसे वक़्त में भी अगर मैं उनके परिवार के लिए कुछ न करूं तो मुझसे बड़ा एहसान फरामोश दुनिया में भला कौन होगा?"

मेरी बात सुन कर जगन मेरी तरफ देखता रह गया। शायद वो समझने की कोशिश कर रहा था कि मेरी बातों में कहीं मेरा कोई निजी स्वार्थ तो नहीं है? कुछ देर की ख़ामोशी के बाद जगन काका ने कहा____"माना कि ये सब कर के तुम मेरे भाई का एहसान चुका रहे हो छोटे ठाकुर लेकिन मैं ये हरगिज़ नहीं चाह सकता कि तुम्हारी वजह से मेरे गांव के लोग मेरे घर परिवार के बारे में उल्टी सीधी बातें करने लगें।"

"गांव समाज के लोग कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचते काका।" मैंने वही बात दोहराई जो इसके पहले सरोज काकी से कही थी____"समाज के लोग तो दूसरों की कमियां ही खोजते रहते हैं। तुम चाहे लाख अच्छे अच्छे काम करो मगर समाज के लोग तुम्हारे द्वारा किए गए अच्छे काम में भी बुराई ही खोजेंगे। मेरे ऊपर मुरारी काका के बड़े उपकार हैं काका। आज अगर मैं ऐसे वक़्त में उनकी मदद नहीं करुंगा तो इसी गांव समाज के लोग मेरे बारे में ये कहते फिरेंगे कि जिस मुरारी ने मुसीबत में दादा ठाकुर के लड़के की इतनी मदद की थी उसने मुरारी के गुज़र जाने के बाद उसके परिवार की तरफ पलट कर ये देखने की कोशिश भी नहीं की कि वो किस हाल में हैं? जगन काका दुनिया के लोग मौका देख कर हर तरह की बातें करना जानते हैं। तुम अच्छा करोगे तब भी वो तुम्हें ग़लत ही कहेंगे और ग़लत करोगे तब तो ग़लत कहेंगे ही। हालांकि इस समाज में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें इंसान की अच्छाईयां भी दिखती हैं और वो दिल से क़बूल करते हुए ये कहते हैं कि फला इंसान बहुत अच्छा है।"

"शायद तुम ठीक कह रहे हो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ये सच है कि आज का इंसान कभी किसी के बारे में अच्छा नहीं सोचता है। तुमने जो कुछ कहा वो एक कड़वा सच है लेकिन ग़रीब आदमी करे भी तो क्या? समाज के ठेकेदारों के बीच उसे दब के ही रहना पड़ता है।"

"समाज के लोगों को ठेकेदार बनाया किसने है काका?" मैंने जगन काका की तरफ देखते हुए कहा____"हमारे तुम्हारे जैसे लोगों ने ही उन्हें ठेकेदार बना रखा है। ये ठेकेदार क्या दूध के धुले हुए होते हैं जो हर किसी पर कीचड़ उछालते रहते हैं? क्या तुम नहीं जानते कि समाज के इन ठेकेदारों का दामन भी किसी न किसी चीज़ से दाग़दार हुआ पड़ा है? लोग बड़े शौक से दूसरों पर ऊँगली उठाते हैं काका लेकिन वो ये नहीं देखते कि दूसरों की तरफ उनकी एक ही ऊँगली उठी हुई होती है जबकि उनकी खुद की तरफ उनकी बाकी की चारो उंगलियां उठी हुई होती हैं। समाज के सामने उतना ही झुको काका जितने में मान सम्मान बना रहे लेकिन इतना भी न झुको कि कमर ही टूट जाए।"

जगन काका मेरी बात सुन कर कुछ न बोले। पास ही खड़ी सरोज काकी भी चुप थी। कुछ देर मैं उन दोनों की तरफ देखता रहा उसके बाद बोला____"मैं पहले भी तुमसे कह चुका हूं काका कि अब मैं पहले जैसा नहीं रहा और आज भी यही कहता हूं। मैं सच्चे दिल से मुरारी काका के लिए कुछ करना चाहता हूं। मैं हर रोज़ ये सोचता हूं कि मुरारी काका मुझे ऊपर से देखते हुए सोच रहे होंगे कि उनके जाने के बाद मैं उनके परिवार के लिए कुछ करता हूं कि नहीं? उन्होंने मेरी मदद बिना किसी स्वार्थ के की थी तो क्या मैं इतना बेगैरत और असमर्थ हूं कि उनके एहसानों का क़र्ज़ भी न चुका सकूं? तुम ही बताओ काका कि तुम मेरी जगह होते तो क्या ऐसे वक़्त में मुरारी काका के परिवार वालों से मुँह मोड़ कर चले जाते? क्या तुम एक पल के लिए भी ये न सोचते कि तुम्हारे मुसीबत के दिनों में मुरारी काका ने तुम्हारी कितनी मदद की थी?"

"मुझे माफ़ कर दो छोटे ठाकुर।" जगन काका ने हाथ जोड़ते हुए कहा____"मैं अभी तक तुम्हारे बारे में ग़लत ही सोच रहा था किन्तु तुम्हारी इन बातों से मुझे एहसास हो गया है कि तुम ग़लत नहीं हो। यकीनन तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो यही करता। मुझे ख़ुशी हुई कि तुम एक अच्छे इंसान की तरह अपना फ़र्ज़ निभा रहे हो।"

"अगर तुम सच में समझते हो काका कि मैं सच्चे दिल से अपना फ़र्ज़ निभा रहा हूं।" मैंने कहा____"तो अब तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ निभाने से रोकोगे नहीं। परसों मुरारी काका की तेरहवीं है और मैं चाहता हूं कि मुरारी काका की तेरहवीं अच्छे तरीके से हो। जिस किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो तुम मुझसे बेझिझक हो कर बोलो। वक़्त ज़्यादा नहीं है इस लिए अभी बताओ कि तेरहवीं के दिन किस किस चीज़ की ज़रूरत होगी। मैं हर ज़रूरत की चीज़ शहर से मगवा दूंगा।"

"इसकी क्या ज़रूरत है छोटे ठाकुर?" जगन ने झिझकते हुए कहा____"हम अपने हिसाब से सब कर लेंगे।"
"इसका मतलब तो यही हुआ न काका।" मैंने कहा____"कि तुम मुझे मेरा फ़र्ज़ नहीं निभाने देना चाहते। मुरारी काका मेरे पिता समान थे इस नाते भी मेरा ये फ़र्ज़ बनता है कि मैं अपना फ़र्ज़ निभाने में कोई कसर न छोडूं। मुझे मुरारी काका के लिए इतना कर लेने दो काका। तुम कहो तो मैं तुम्हारे पैरों में गिर कर इस सब के लिए तुमसे भीख भी मांग लूं।"

"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" मैं खटिया से उठ कर खड़ा हुआ तो जगन एकदम से हड़बड़ा कर बोल पड़ा_____"ये कैसी बातें कर रहे हो तुम? तुम अगर सब कुछ अपने तरीके से ही करना चाहते हो तो ठीक है। मैं तुम्हें अब किसी भी बात के लिए मना नहीं करुंगा।"

"तो फिर चलो मेरे साथ।" मैंने कहा तो जगन ने चौंकते हुए कहा____"पर कहां चलूं छोटे ठाकुर?"
"अरे! मेरे साथ शहर चलो काका।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"परसों मुरारी काका की तेरहवीं है इस लिए आज ही शहर से सारा ज़रूरत का सामान खरीद कर ले आएंगे। उसके बाद बाकी का यहाँ देख लेंगे।"

"पर इस वक़्त कैसे?" जगन मेरी बातें सुन कर बुरी तरह हैरान था____"मेरा मतलब है कि क्या अभी हम शहर चलेंगे?"
"क्या काका।" मैंने कहा____"अभी जाने में क्या ख़राबी है? अभी तो पूरा दिन पड़ा है। हम शहर से सारा ज़रूरत का सामान ले कर शाम होने से पहले ही यहाँ आ जाएंगे।"

मेरी बात सुन कर जगन काका उलझन में पड़ गया था। हैरान तो सरोज काकी भी थी किन्तु वो ज़ाहिर नहीं कर रही थी। वो भली भाँति जानती थी कि इस मामले में मैं मानने वाला नहीं था। उधर जगन ने सरोज काकी की तरफ देखते हुए कहा____"भौजी तुम क्या कहती हो?"

"मैं क्या कहूं जगन?" सरोज काकी ने शांत भाव से कहा____"तुम्हें जो ठीक लगे करो। मुझे कोई समस्या नहीं है।"
"तो ठीक है फिर।" जगन ने जैसे फैसला करते हुए कहा____"मैं छोटे ठाकुर के साथ शहर जा रहा हूं। तेरहवीं के दिन जो जो सामान लगता हो वो सब बता दो मुझे।"

"क्या तुम्हें पता नहीं है?" सरोज काकी ने कहा____"कि तेरहवीं के दिन क्या क्या सामान लगता है?"
"थोड़ा बहुत पता तो है मुझे।" जगन ने कहा____"फिर भी अगर कुछ छूट जाए तो बता दो मुझे।"

जगन काका के कहने पर सरोज काकी सामान के बारे में सोचने लगी। इधर मैंने उन दोनों से कहा कि तुम दोनों तब तक सारे सामान के बारे में अच्छे से सोच लो तब तक मैं खाना खा के आता हूं। मेरी बात सुन कर दोनों ने हां में सिर हिला दिया। मैं मोटर साइकिल में बैठा और उसे चालू कर के सरोज काकी के घर की तरफ चल पड़ा। जगन काका से बात कर के अब मैं बेहतर महसूस कर रहा था। आख़िर जगन काका को मैंने इस सब के लिए मना ही लिया था।

जगन काका से हुई बातों के बारे में सोचते हुए मैं कुछ ही देर में मुरारी काका के घर पहुंच गया। मोटर साइकिल को मुरारी काका के घर के बाहर खड़ी कर के जैसे ही मैं नीचे उतरा तभी दरवाज़ा खुलने की आवाज़ मुझे सुनाई दी। मैंने गर्दन मोड़ कर देखा दरवाज़े के उस पार हरे रंग का शलवार कुर्ता पहने अनुराधा खड़ी थी। सीने में उसके दुपट्टा नहीं था जिससे मुझे उसके सीने के उभार साफ़ साफ़ दिखाई दिए किन्तु मैंने जल्दी ही उसके सीने से अपनी नज़र हटा कर उसके चेहरे पर डाली तो उसके होठों पर हल्की सी मुस्कान सजी दिखी मुझे। जैसे ही हम दोनों की नज़रें मिली तो वो जल्दी से पलट गई। ऐसा पहली बार ही हुआ था कि उसने अपने गले में दुपट्टा नहीं डाला था। शायद मोटर साइकिल की आवाज़ सुन कर वो जल्दी से दरवाज़ा खोलने आई थी और इस जल्दबाज़ी में वो अपने गले में दुपट्टा डालना भूल गई थी। ख़ैर उसके पलट कर चले जाने से मैं हल्के से मुस्कुराया और फिर दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।

मैं अंदर आँगन में आया तो देखा उसने अपने गले में दुपट्टा डाल लिया था। मैंने मन ही मन सोचा कि इस काम में बड़ी जल्दबाज़ी दिखाई उसने। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने मुझे अपने सीने के उभारों को देखते हुए देख लिया हो और उसे अचानक से याद आया हो कि वो जल्दबाज़ी में दुपट्टा डालना भूल गई थी। मुझे मेरा ये ख़याल जायज़ लगा क्योंकि मैंने देखा था कि वो जल्दी ही पलट गई थी।

"मैं आपके ही आने का इंतज़ार कर रही थी छोटे ठाकुर।" मुझे आँगन में आया देख उसने मेरी तरफ देखते हुए धीमे स्वर में कहा____"ख़ाना तो कब का बना हुआ है।"
"हां वो मैं तुम्हारे खेतों की तरफ चला गया था।" मैंने कहा____"वहां पर जगन काका से काफी देर तक बातें होती रहीं। परसों काका की तेरहवीं है न तो उसी सिलसिले में बातें हो रही थी। अभी मुझे खाना खा कर जल्दी जाना भी है। मैं जगन काका को ले कर शहर जा रहा हूं ताकि वहां से ज़रूरी सामान ला सकूं।"

"क्या काका आपकी बात मान गए?" अनुराधा ने हैरानी भरे भाव से पूछा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हारे हिसाब से क्या उन्हें मेरी बात नहीं माननी चाहिए थी?"
"नहीं मेरे कहने का मतलब वो नहीं था।" अनुराधा ने झेंपते हुए जल्दी से कहा____"मैंने तो ऐसा इस लिए कहा कि वो आपसे नाराज़ थे।"

"वो बेवजह ही मुझसे नाराज़ थे अनुराधा।" मैंने कहा____"और ये बात तुम भी जानती हो। ख़ैर मैंने उन्हें दुनियादारी की बातें समझाई तब जा कर उन्हें समझ आया कि मैं मुरारी काका के लिए जो कुछ भी कर रहा हूं वो सच्चे दिल से ही कर रहा हूं।"

"आप हाथ मुँह धो लीजिए।" अनुराधा ने लोटे में पानी लाते हुए कहा____"मैं आपके लिए खाना लगा देती हूं।"
"क्या तुमने भी अभी खाना नहीं खाया?" वो मेरे क़रीब आई तो मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूंछा।

"वो मैं आपके आने का इंतज़ार कर रही थी।" उसने नज़र झुका कर कहा____"इस लिए मैंने भी नहीं खाया।"
"ये तो ग़लत किया तुमने।" मैंने उसके हाथ से पानी से भरा लोटा लेते हुए कहा____"मेरी वजह से तुम्हें भूखा नहीं रहना चाहिए था। अगर मैं यहाँ खाना खाने नहीं आता तो क्या तुम ऐसे ही भूखी रहती?"

"जब ज़्यादा भूख लगती तो फिर खाना ही पड़ता मुझे।" अनुराधा ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"उस सूरत में आपको बचा हुआ खाना ही खाने को मिलता।"
"तो क्या हुआ।" मैंने नर्दे के पास पानी से हाथ धोते हुए कहा____"मैं बचा हुआ भी खा लेता। आख़िर तुम्हारे हाथ का बना हुआ खाना मैं कैसे नहीं खाता?"

"अब बातें न बनाइए।" अनुराधा मुस्कुराते हुए पलट गई____"जल्दी से हाथ मुँह धो कर आइए।"
"जो हुकुम आपका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा तो वो कुछ न बोली, बल्कि रसोई की तरफ तेज़ी से बढ़ गई। मैं समझ सकता था कि मेरी बात सुन कर वो फिर से मुस्कुराई होगी। असल में जब वो मुस्कुराती थी तो उसके दोनों गालों पर हल्के गड्ढे पड़ जाते थे जिससे उसकी मुस्कान और भी सुन्दर लगने लगती थी।

मैं हाथ मुँह धो कर रसोई के पास बरामदे में आ गया। ज़मीन में एक चादर बिछी हुई थी और सामने लकड़ी का एक पीढ़ा रखा हुआ था। पीढ़े के बगल से लोटा गिलास में पानी रखा हुआ था। मैं आया और उसी चादर में बैठ गया। इस वक़्त मेरी धड़कनें ये सोच कर थोड़ी बढ़ गईं थी कि इस वक़्त घर में मैं और अनुराधा दोनों अकेले ही हैं। हालांकि उसका छोटा भाई अनूप भी था जो आज कहीं दिख नहीं रहा था। कुछ ही देर में अनुराधा आई और थाली को मेरे सामने लकड़ी के पीढ़े पर रख दिया। थाली में दाल चावल और पानी लगा कर हाथ से पोई हुई रोटियां रखी हुईं थी। थाली के एक कोने में कटी हुई प्याज अचार के साथ रखी हुई थी और एक तरफ हरी मिर्च। अनुराधा थाली रखने के बाद फिर से रसोई में चली गई थी और जब वो वापस आई तो उसके हाथ में एक कटोरी थी जिसमे भांटा का भरता था। भांटा का भरता देख कर मैं खुश हो गया।

"वाह! ये सबसे अच्छा काम किया तुमने।" मैंने अनुराधा की तरफ देखते हुए कहा____"भांटा का भरता बना दिया तो कसम से दिल ख़ुशी से झूम उठा है। अब एक काम और करो और वो ये कि तुम भी अपनी थाली ले कर यहीं आ जाओ। तुम्हें भूखा रहने की अब कोई ज़रूरत नहीं है।"

"आप खा लीजिए छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं बाद में खा लूंगी।"
"एक तो तुम मुझे छोटे ठाकुर न बोला करो।" मैंने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"जब तुम मुझे छोटे ठाकुर बोलती हो तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कि मैं कितना बुड्ढा हूं। क्या मैं तुम्हें बुड्ढा नज़र आता हूं? अरे अभी तो मेरी उम्र खेलने कूदने की है। तुमसे भी मैं उम्र में छोटा ही होऊंगा।"

"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप।" अनुराधा पहले तो हंसी फिर आँखें फाड़ते हुए बोली____"आप मुझसे छोटे कैसे हो सकते हैं भला?"
"क्यों नहीं हो सकता?" मैंने कहा____"असल में मेरे दाढ़ी मूंछ हैं इस लिए मैं तुमसे बड़ा दिखता हूं वरना मैं तो तुमसे तीन चार साल छोटा ही होऊंगा।"

"मुझे बेवकूफ न बनाइए।" अनुराधा ने मुझे घूरते हुए कहा____"मां बता रही थी मुझे कि जब दादा ठाकुर की दूसरी औलाद तीन साल की हो गई थी तब मैं पैदा हुई थी। इसका मतलब आप मुझसे तीन साल बड़े हैं और आप खुद को मुझसे छोटा बता रहे हैं?"

"अरे! काकी ने तुमसे झूठ कह दिया होगा।" मैंने रोटी का निवाला मुँह में डालने के बाद कहा____"ख़ैर जो भी हो लेकिन अब से तुम मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहोगी और ये तुम्हें मानना ही होगा।"
"तो फिर मैं क्या कहूंगी आपको?" अनुराधा ने उलझन पूर्ण भाव से कहा तो मैंने कहा____"हम दोनों की उम्र में थोड़ा ही अंतर है तो तुम मेरा नाम भी ले सकती हो।"

"हाय राम!" अनुराधा ने चौंकते हुए कहा____"मैं भला आपका नाम कैसे ले सकती हूं? मेरे बाबू भी तो आपका नाम नहीं लेते थे तो फिर मैं कैसे ले सकती हूं। ना ना छोटे ठाकुर। मैं आपका नाम नहीं ले सकती। माँ को पता चल गया तो वो मुझे बहुत मारेगी।"

"काकी कुछ नहीं कहेगी तुम्हें।" मैंने कहा____"मैं काकी से कह दूंगा कि मैंने ही तुम्हें मेरा नाम लेने के लिए कहा है। चलो अब मेरा नाम ले कर मुझे पुकारो एक बार। मैं भी तो सुनूं कि तुम्हारे मुख से मेरा नाम कैसा लगता है?"

"नहीं नहीं छोटे ठाकुर।" अनुराधा बुरी तरह हड़बड़ा गई____"मैं आपका नाम नहीं ले सकती।"
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी।" मैंने कहा____"तो अब से मैं भी तुम्हें छोटी ठकुराइन कहा करुंगा।"

"छोटी ठकुराइन???" अनुराधा बुरी तरह चौंकी____"ये क्या कह रहे हैं आप?"
"सही तो कह रहा हूं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ठाकुर तो तुम भी हो। काकी बड़ी ठकुराइन हो गई और तुम छोटी ठकुराईन।"

"ऐसे थोड़ी न होता है।" अनुराधा ने अपने हाथ को झटकते हुए कहा____"वो तो बड़े लोगों को ऐसा कहते हैं। हम तो ग़रीब लोग हैं।"
"इंसान छोटा बड़ा रुपए पैसे या ज़्यादा ज़मीन जायदाद होने से नहीं होता अनुराधा।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा____"बल्कि छोटा बड़ा दिल से होता है। जिसका दिल जितना अच्छा होता है वो उतना ही महान और बड़ा होता है। इन चार महीनों में इतना तो मैं देख ही चुका हूं कि तुम सबका दिल कितना बड़ा है और अच्छा भी है। इस लिए मेरी नज़र में तुम सब महान और बड़े लोग हो। ऐसे में अगर मैं तुम्हें ठकुराइन कहूंगा तो हर्गिज़ ग़लत नहीं होगा।"

"आप घुमावदार बातें कर के मुझे उलझा रहे हैं छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने कहा____"मैं तो इतना जानती हूं कि आज के ज़माने में दिल बड़ा होने से कुछ नहीं होता बल्कि जिसके पास आपके जैसा रुतबा और धन दौलत हो वही बड़ा आदमी होता है।"

"आज के ज़माने की सच्चाई भले ही यही हो।" मैंने कहा____"लेकिन असल सच्चाई वही है जिसके बारे में अभी मैं तुम्हें बता चुका हूं। हम ऐसे बड़े लोग हैं जो किसी की ज़रा सी बुरी बात भी बरदास्त नहीं कर सकते जबकि तुम लोग ऐसे बड़े लोग हो जो बड़ी से बड़ी बुरी बात भी बरदास्त कर लेते हो। तो अब तुम ही बताओ अनुराधा कि हम में से बड़ा कौन हुआ? बड़ा वही हुआ न जिसमें हर तरह की बात को सहन कर लेने की क्षमता होती है? रूपया पैसा धन दौलत ऐसी चीज़े हैं जिनके असर से इंसान घमंडी हो जाता है और वो इंसान को इंसान नहीं समझता जबकि जिसके पास इस तरह की दौलत नहीं होती वो कम से कम इंसान को इंसान तो समझता है। आज के युग में जो कोई इंसान को इंसान समझे वही बड़ा और महान है।"

मेरी बातें सुन कर अनुराधा इस बार कुछ न बोली। शायद इस बार उसे मेरी बात काटने के लिए कोई जवाब ही नहीं सूझा था। वैसे मैंने बात ग़लत नहीं कही थी, हक़ीक़त तो वास्तव में यही है। ख़ैर अनुराधा जब एकटक मेरी तरफ देखती ही रही तो मैंने बात बदलते हुए कहा____"तो ठकुराइन जी, आप अपनी भी थाली ले आइए और मुझ छोटे आदमी के साथ बैठ कर खाना खाइए ताकि मुझे भी थोड़ा अच्छा महसूस हो।"

"आप ऐसे बात करेंगे तो मैं आपसे बात नहीं करुंगी।" अनुराधा ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"मुझे आपकी ऐसी बात बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी।"
"तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर न कहो।" मैंने कहा____"मुझे भी तुम्हारे मुख से अपने लिए छोटे ठाकुर सुनना अच्छा नहीं लगता और अब अगर तुमने दुबारा मुझे छोटे ठाकुर कहा तो मैं ये खाना छोड़ कर चला जाऊंगा यहाँ से।"

"ये क्या कह रहे हैं आप?" अनुराधा के माथे पर शिकन उभर आई____"भगवान के लिए ऐसी ज़िद मत कीजिए।"
"तुम भी तो ज़िद ही कर रही हो।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए कहा____"तुम्हें अपना तो ख़याल है लेकिन मेरा कोई ख़याल ही नहीं है। ये कहां का इन्साफ हुआ भला?"

अनुराधा मेरी बात सुन कर बेबस भाव से देखने लगी थी मुझे। उसके चेहरे पर बेचैनी के भाव गर्दिश करते हुए नज़र आ रहे थे। इस वक़्त जिस तरह के भाव उसके चेहरे पर उभर आये थे उससे वो बहुत ही मासूम दिखने लगी थी और मैं ये सोचने लगा था कि कहीं मैंने उस पर कोई ज़्यादती तो नहीं कर दी?

"क्या हुआ?" फिर मैंने उससे पूछा____"ऐसे क्यों देखे जा रही हो मुझे?"
"आप ऐसा क्यों चाहते हैं?" अनुराधा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं आपका नाम लूं?"
"अगर सच सुनना चाहती हो तो सुनो।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"तुम एक ऐसी लड़की हो जिसने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं कि ऐसा कैसे हुआ है लेकिन इतना ज़रूर समझ गया हूं कि ऐसा तुम्हारी वजह से ही हुआ है और मेरा यकीन करो अपनी फितरत बदल जाने का मुझे कोई रंज़ नहीं है। बल्कि एक अलग ही तरह का एहसास होने लगा है जिसकी वजह से मुझे ख़ुशी भी महसूस होती है। इस लिए मैं चाहता हूं कि मेरी फितरत को बदल देने वाली लड़की मुझे छोटे ठाकुर न कहे बल्कि मेरा नाम ले। ताकि छोटे ठाकुर के नाम का प्रभाव मुझ पर फिर से न पड़े।"

मेरी बातें सुन कर अनुराधा आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगी थी। हालांकि मैंने उससे जो भी कहा था वो एक सच ही था। इन चार महीनो में यकीनन मेरी फितरत कुछ हद तक बदल ही गई थी वरना चार महीने पहले मैं घंटा किसी के बारे में ऐसा नहीं सोचता था।

"चार महीने पहले मैं एक ऐसा इंसान था अनुराधा।" उसे कुछ न बोलते देख मैंने कहा____"जो किसी के भी बारे में ऐसे ख़्याल नहीं रखता था बल्कि ये कहूं तो ज़्यादा बेहतर होगा कि अपनी ख़ुशी के लिए मैं जब चाहे किसी के भी साथ ग़लत कर बैठता था लेकिन जब से यहाँ आया हूं और इस घर से जुड़ा हूं तो मेरी फितरत बदल गई है और मेरी फितरत को बदल देने में तुम्हारा सबसे बड़ा योगदान है।"

"पर मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया।" अनुराधा ने बड़ी मासूमियत से कहा।
"कभी कभी ऐसा भी होता है अनुराधा कि किसी के कुछ न करने से भी बहुत कुछ हो जाता है।" मैंने कहा____"तुम समझती हो कि तुमने कुछ नहीं किया और ये बात वाकई में सच है मगर एक सच ये भी है कि तुम्हारे कुछ न करने से ही मेरी फितरत बदल गई है। तुम्हारी सादगी ने और तुम्हारे चरित्र ने मुझे बदल दिया है। शुरू में जब तुम्हें देखा था तो मेरे ज़हन में बस यही ख़्याल आया था कि तुम्हें भी बाकी लड़कियों की तरह एक दिन अपने जाल में फांस लूंगा मगर तुम भी इस बात की गवाह हो कि मैंने तुम्हारे साथ कभी कुछ ग़लत करने का नहीं सोचा। असल में मैं तुम्हारे साथ कुछ ग़लत कर ही नहीं पाया। मेरे ज़मीर ने तुम्हारे साथ कुछ ग़लत करने ही नहीं दिया। मैंने इस बारे में बहुत सोचा और तब मुझे एहसास हुआ कि ऐसा क्यों हुआ? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं खुश हूं कि तुमने मेरी फितरत को बदल दिया है। मैं इस बात से भी खुश हूं कि तुम्हारी ही वजह से मैंने दूसरी चीज़ों के बारे में भी सोचना शुरू कर दिया है। मेरी नज़र में तुम्हारा स्थान बहुत बड़ा है अनुराधा और इसी लिए मैं चाहता हूं कि तुम मेरा नाम लो।"

"आप कुछ और लेंगे?" अनुराधा ने मेरी बात का जवाब दिए बिना पूछा____"भांटा का भरता और ले आऊं आपके लिए?"
"इतना काफी है।" मैंने कहा____"वैसे मुझे ख़ुशी होती अगर तुम भी मेरे पास ही बैठ कर खाना खाती।"

"वो मुझे आपके सामने।" अनुराधा ने नज़रें झुका कर कहा____"ख़ाना खाने में शर्म आएगी इस लिए पहले आप खा लीजिए, मैं बाद में खा लूंगी।"
"ख़ाना खाने में कैसी शर्म?" मैंने हैरानी से कहा____"मैं भी तो तुम्हारे सामने ही खा रहा हूं। मुझे तो शर्म नहीं आ रही बल्कि तुम सामने बैठी हो तो मुझे अच्छा ही लग रहा है।"

"आपकी बात अलग है।" अनुराधा ने लजाते हुए कहा____"आप एक लड़का हैं और मैं एक लड़की हूं।"
"ये तो कोई बात नहीं हुई।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हें मुझसे इतना शर्माने की कोई ज़रूरत नहीं है। ख़ैर अभी तो मुझे जल्दी जाना है इस लिए तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा लेकिन अगली बार अगर तुम ऐसे शरमाओगी तो सोच लेना फिर।"

"क्या मतलब???" अनुराधा मेरी बात सुन कर बुरी तरह चौंक ग‌ई।
"अरे! डरो नहीं।" मैंने हंसते हुए कहा____"मैं तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा नहीं करुंगा बल्कि काकी से तुम्हारी शिकायत करुंगा कि तुम मुझसे शर्माती बहुत हो।"

मेरी बात सुन कर अनुराधा मुस्कुरा कर रह गई। ख़ैर मैंने खाना ख़त्म किया और थाली में ही हाथ मुँह धो कर उठ गया। मेरे उठ जाने के बाद अनुराधा ने मेरी थाली को उठाया और एक तरफ रख दिया। मैं जानता था कि जब तक मैं यहाँ रहूंगा अनुराधा की साँसें उसके हलक में अटकी हुई रहेंगी जो की स्वाभाविक बात ही थी। मुझे जगन काका को ले कर शहर भी जाना था इस लिए मैं अनुराधा से बाद में आने का कह कर घर से बाहर निकल गया। अनुराधा से आज काफी बातें की थी मैंने और मुझे उससे बातें करने में अच्छा भी लगा था।

मोटर साइकिल को चालू कर के मैं वापस मुरारी काका के खेतों की तरफ चल दिया। कुछ ही देर में मैं मुरारी काका के खेतों में पहुंच गया। जगन, सरोज काकी के पास ही खड़ा हुआ था। उसने दूसरे कपड़े पहन रखे थे। शायद वो मेरे जाने के बाद फिर से घर गया था।

"अच्छे से खा लिया है न बेटा?" मैं जैसे ही खटिया में बैठा तो सरोज काकी ने मुझसे पूछा____"अनु ने खाना ठीक से दिया है कि नहीं?"
"हां काकी।" मैंने कहा____"मेरी वजह से वो भी भूखी ही बैठी थी। मैंने उससे कहा भी कि खाना खा लो लेकिन वो कहने लगी कि मेरे बाद खाएगी।"

"वो ऐसी ही है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"शर्मीली बहुत है वो।"
"काका सारे सामान के बारे में सोच लिया है न तुमने?" मैंने जगन की तरफ देखते हुए कहा____"अगर सोच लिया है तो फिर हमें जल्द ही शहर चलना चाहिए। क्योंकि वक़्त से हमें लौटना भी होगा और बाकी के काम भी करने होंगे।"

"मैंने भौजी से पूछ कर सारे सामान के बारे में याद कर लिया है।" जगन काका ने कहा____"तुम्हारे जाने के बाद मैं भी घर गया था। वो क्या है न कि तुम्हारे साथ शहर जाऊंगा तो कपड़े भी तो ठीक ठाक होने चाहिए थे न।"

"तो चलो फिर।" मैंने खटिया से उठते हुए कहा____"और हां काका। खेतों की कटाई और गहाई की चिंता मत करना। ये दोनों मजदूर सब कर देंगे।"
"जैसी तुम्हारी इच्छा छोटे ठाकुर।" जगन के चेहरे पर ख़ुशी की चमक नज़र आई____"चलो चलते हैं।"

मैंने मोटर साइकिल चालू किया तो जगन मेरे पीछे बैठ गया। उसके बैठते ही मैंने मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया। रास्ते में मैं और जगन काका दुनिया भर की बातें करते हुए शहर पहुंच गए। शहर में हमने अलग अलग दुकानों में जा जा कर सारा सामान ख़रीदा। सारे सामान का पैसा ज़ाहिर है कि मैंने ही दिया उसके बाद हम वापस गांव की तरफ चल पड़े। शाम होने से पहले ही हम गांव पहुंच गए। मैंने मोटर साइकिल सीधा मुरारी काका के घर के सामने ही खड़ी की। जगन काका के दोनों हाथों में सामान था जो कि बड़े बड़े थैलों में था। घर के अंदर आ कर मैं आँगन में ही एक खटिया पर बैठ गया, जबकि जगन काका सारा सामान सरोज काकी के कमरे में रख आए।

सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 27
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अब तक,,,,,,

सरोज काकी के कहने पर अनुराधा ने मुझे लोटा गिलास में ला कर पानी पिलाया। कुछ देर हम सारे सामान के बारे में ही बातें करते रहे और बाकी जो सामान चाहिए था उसके बारे में भी। जगन काका बड़ा खुश दिख रहा था। मेरे और उसके बीच अब कोई मनमुटाव नहीं रह गया था। ख़ैर चाय पीने के बाद मैंने काकी से इजाज़त ली और मोटर साइकिल में बैठ कर अपने गांव की तरफ चल दिया।

अब आगे,,,,,,



सूरज अस्त हो चुका था और शाम का धुंधलका छाने लगा था। वातावरण में मोटर साइकिल की तेज़ आवाज़ गूँज रही थी और मैं अपनी ही धुन में आगे बढ़ा चला जा रहा था कि तभी मुझे अपने दाएं तरफ सड़क के किनारे खेतों में उगी गेहू की फसल में कुछ हलचल सी महसूस हुई। जैसा कि मैंने बताया शाम का धुंधलका छाने लगा था इस लिए मुझे कुछ ख़ास दिखाई नहीं दिया। हालांकि मैंने ज़्यादा ध्यान भी नहीं दिया और आगे बढ़ता ही रहा। तभी हलचल फिर से हुई और इस बार ये हलचल सड़क के दोनों तरफ हुई थी। ये मेरा वहम नहीं था। मेरे ज़हन में बिजली की तरह ये ख़याल आया कि कुछ तो गड़बड़ ज़रूर है। ये सोच कर मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार और तेज़ कर दी।

मोटर साइकिल की रफ़्तार तेज़ हुई तो सड़क के दोनों तरफ बड़ी तेज़ी से हलचल शुरू हो गई। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता मेरे सामने से एक मोटी रस्सी बड़ी ही तेज़ी से मेरी तरफ आई। ऐन वक़्त पर मैंने अपने सिर को तेज़ी से झुका लिया जिससे वो रस्सी मेरे सिर के बालों को छूती हुई पीछे निकल गई। एक पल के लिए तो मेरी रूह तक कांप गई कि ये अचानक से क्या हो गया था। ज़ाहिर था कि सड़क के दोनों तरफ कोई था जो मोटी रस्सी को हाथ में पकडे हुए था और जैसे ही मैं उस रस्सी की ज़द में आया तो दोनों तरफ से रस्सी को उठा लिया गया था। ये तो मेरी किस्मत थी कि सही समय पर मुझे वो रस्सी नज़र आ गई और मैंने ऐन वक़्त पर अपने सिर को बड़ी तेज़ी से झुका लिया था वरना उस रस्सी में फंस कर मैं मोटर साइकिल से निश्चित ही नीचे गिर जाता।

मैंने पीछे पलट कर देखने की ज़रा सी भी कोशिश नहीं की बल्कि मोटर साइकिल को और भी तेज़ी से दौड़ाता हुआ गांव की तरफ निकल गया। इतना तो मैं समझ चुका था कि गांव से दूर इस एकांत जगह पर कोई मेरे आने का पहले से ही इंतज़ार कर रहा था। कदाचित उसका मकसद यही था कि वो इस एकांत में मुझे इस तरह से गिराएगा और फिर मेरे साथ कुछ भी कर गुज़रेगा। मेरे ज़हन में उस दिन शाम का वो वाक्या उजागर हो गया था जब वो दो साए एकदम से प्रगट हो गए थे और मुझ पर हमला कर दिए थे। मेरा दिल बड़ी तेज़ी से ये सोच सोच कर धड़के जा रहा था कि इस वक़्त मैं बाल बाल बचा था वरना आज ज़रूर मैं एक गंभीर संकट में फंस जाने वाला था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर कौन हो सकता है ऐसा जो मुझे इस तरह से नुकसान पहुंचा सकता है? मेरे ज़हन में रूपचन्द्र का ख़याल आया कि क्या वो इस तरह से मुझे नुकसान पंहुचा सकता है या फिर साहूकारों में से कोई ऐसा है जो मेरी जान का दुश्मन बना बैठा है?

यही सब सोचते हुए मैं हवेली में पहुंच गया। मोटर साइकिल खड़ी कर के मैं हवेली के मुख्य दरवाज़े से होते हुए अंदर आया तो बैठक में मुझे पिता जी नज़र आए। इस वक़्त वो अकेले ही थे और अपने हाथ में लिए हुए मोटी सी किताब में कुछ पढ़ रहे थे। मेरे ज़हन में ख़याल आया कि क्या मुझे पिता जी से इस सबके बारे में बात करनी चाहिए? मेरे दिल ने कहा कि बेशक बात करनी चाहिए और हो सकता है कि इससे कुछ और भी बातें खुल जाएं। ये सोच कर मैं उनकी तरफ बढ़ा तो उन्हें मेरे आने की आहट हुई जिससे उन्होंने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।

"क्या बात है?" मुझे अपने क़रीब आया देख उन्होंने किताब को बंद करते हुए कहा____"सब ठीक तो है न?"
"मुझे लगता है कि सब ठीक नहीं है पिता जी।" मैंने गंभीर भाव से कहा____"अचानक से कुछ ऐसी चीज़ें होने लगी हैं जिनकी मुझे बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी।"

"हमारे कमरे में चलो।" पिता जी अपने सिंघासन से उठते हुए बोले____"वहीं पर तफ़सील से सारी बातें होंगी।"
"जी बेहतर।" मैंने अदब से कहा और उनके पीछे पीछे चल दिया। कुछ ही देर में मैं उनके साथ उनके कमरे में आ गया। पिता जी का कमरा बाकी कमरों से ज़्यादा बड़ा था और भव्य भी था।

"बैठो।" अपने बिस्तर पर बैठने के बाद उन्होंने मुझे एक कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं चुप चाप बैठ गया।

"अब बताओ।" मेरे बैठते ही उन्होंने मुझसे कहा_____"किस बारे में बात कर रहे थे तुम?"
"पिछले कुछ दिनों से।" मैंने खुद को नियंत्रित करते हुए कहा____"मेरे साथ कुछ अजीब सी घटनाएं हो रही हैं पिता जी।"

मैंने पिता जी को साए वाली सारी बातें बता दी कि कैसे एक दिन शाम को मुझे एक साया नज़र आया और उसने मुझसे बात की उसके बाद फिर दो साए और आए और उन्होंने मुझ पर हमला किया जिसमे पहले वाले साए ने उनसे भिड़ कर मुझे बचाया। मैंने पिता जी को वो वाक्या भी बताया जो अभी रास्ते में हुआ था। सारी बातें सुनने के बाद पिता जी के चेहरे पर गंभीरता छा गई। कुछ देर वो जाने क्या सोचते रहे फिर गहरी सांस लेते हुए बोले____"हमने पहले भी तुम्हें इसके लिए आगाह किया था कि आज कल वक़्त और हालात ठीक नहीं चल रहे हैं। ऐसे में तुम्हें बहुत ही ज़्यादा सम्हल कर चलने की ज़रूरत है।"

"हम कितना भी सम्हल कर चलें पिता जी।" मैंने पहलू बदलते हुए कहा____"लेकिन छिप कर हमला करने वालों का कोई क्या कर लेगा? मैं ये जानना चाहता हूं कि इस तरह का वाक्या सिर्फ मेरे साथ ही हो रहा है या हवेली के किसी और सदस्य के साथ भी ऐसा हो रहा है? अगर ये सिर्फ मेरे साथ ही हो रहा है तो ज़ाहिर है कि जो कोई भी ये कर रहा है या करवा रहा है वो सिर्फ मुझे ही अपना दुश्मन समझता है।"

"इस तरह का वाक्या अभी फिलहाल तुम्हारे साथ ही हो रहा है।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"किसी और के साथ यदि ऐसा हो रहा होता तो इस बारे में हमें ज़रूर पता चलता। जैसे अभी तुमने हमें अपने साथ हुए इस मामले के बारे में बताया वैसे ही हवेली के वो लोग भी बताते जिनके साथ ऐसा हुआ होता। जिस तरह के हालात बने हुए हैं उससे हमें शुरू से ही ये आभास हो रहा था कि जो कोई भी ये कर रहा है वो तुम्हें ही सबसे पहले अपना मोहरा बनाएगा। इस लिए हमने गुप्त रूप से तुम्हारी सुरक्षा के लिए एक ऐसे आदमी को लगा दिया था जो तुम्हारे आस पास ही रहे और तुम्हारी रक्षा करे। तुम जिस पहले वाले साए की बात कर रहे हो उसे हमने ही तुम्हारी सुरक्षा के लिए लगा रखा है। उसके बारे में हमारे सिवा दूसरा कोई नहीं जानता है और हां तुम भी उससे कोई बात नहीं करोगे और ना ही किसी से उसके बारे में ज़िक्र करोगे।"

"तो क्या वो हर पल मेरे आस पास ही रहता है?" मैं ये जान कर मन ही मन हैरान हुआ था कि पहला वाला साया पिता जी का आदमी था। मेरी बात सुन कर पिता जी ने कहा____"वो उसी वक़्त तुम्हारे आस पास रहेगा जब तुम हवेली से बाहर निकलोगे। उसका काम सिर्फ इतना ही है कि जैसे ही तुम हवेली से बाहर निकलो तो वो तुम्हारी सुरक्षा के लिए तुम्हारे पीछे साए की तरह लग जाए, किन्तु इस तरीके से कि तुम्हें या किसी और को उसके बारे में भनक भी न लग सके।"

"तो क्या दिन में भी वो मेरे आस पास रहता है?" मैंने कुछ सोचते हुए पूछा तो पिता जी ने कहा____"नहीं, दिन में नहीं रहता। दिन में तुम्हारी सुरक्षा के लिए हमने दूसरे लोग लगा रखे हैं जो अपना चेहरा छुपा कर नहीं रखते।"

"क्या अभी तक ये पता नहीं चला कि हमारे साथ ये सब कौन कर रहा है?" मैंने पिता जी की तरफ देखते हुए पूछा।
"ये इतना आसान नहीं है बरखुर्दार।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा_____"गुज़रते वक़्त के साथ साथ हमें भी ये समझ आ गया है कि जो कोई भी ये सब कर रहा है वो बहुत ही शातिर है। वो ऐसा कोई भी काम नहीं करता है जिसकी वजह से उसकी ज़रा सी भी ग़लती हमारी पकड़ में या हमारी नज़र में आ जाए। यही वजह है कि अभी तक हम कुछ पता नहीं कर पाए और ना ही इस मामले में कुछ कर पाए।"

"साहूकारों के बारे में आपका क्या ख़याल है?" मैंने धड़कते हुए दिल से कहा____"उन्होंने हमसे अपने रिश्ते सुधार लिए हैं। ज़ाहिर है कि अब उनका आना जाना हवेली में लगा ही रहेगा। आपको क्या लगता है...क्या उन्होंने अपने किसी मकसद के लिए हमसे अपने सम्बन्ध सुधारे होंगे या फिर सच में वो सुधर गए हैं?"

"तुम्हारे मन में उन लोगों के प्रति ये जो सवाल उभरा है।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"यही सवाल गांव के लगभग हर आदमी के मन में उभरा होगा। साहूकारों ने हमसे अपने रिश्ते सुधार लिए ये कोई साधारण बात नहीं है। आज कल हर आदमी के मन में यही सवाल उभरा हुआ होगा कि क्या सच में शाहूकार लोग सुधर गए हैं और उनके मन में अब हमारे प्रति कोई बैर भाव नहीं है? इन सभी सवालों के जवाब तो हमें तभी मिलेंगे जब उनकी तरफ से कुछ ऐसा होता हुआ दिखेगा जो कि उनकी मंशा को स्पष्ट रूप से ज़ाहिर कर दे। जब तक वो शरीफ बने रहेंगे तब तक हम कुछ भी नहीं कह सकते कि उनके मन में क्या है लेकिन हां इतना ज़रूर कर सकते हैं कि उनकी तरफ से बढ़ने वाले किसी भी क़दम के लिए हम पहले से ही पूरी तरह से तैयार और सतर्क रहें।"

"मुरारी काका के हत्यारे के बारे में क्या कुछ पता चला?" मेरे पूछने पर पिता जी ने कुछ देर तक मेरी तरफ देखा फिर शांत भाव से बोले____"हमने दरोग़ा को बुलाया था और अकेले में उससे इस बारे में पूछा भी था लेकिन उसने यही कहा कि उसके हाथ अभी तक कोई सुराग़ नहीं लगा है। उसका कहना है कि अगर हमने उसे मौका-ए-वारदात पर आने दिया होता और घटना स्थल की जांच करने दी होती तो शायद उसे कोई न कोई ऐसा सुराग़ ज़रूर मिल जाता जिससे उसे मुरारी की हत्या के मामले में आगे बढ़ने के लिए कुछ मदद मिल जाती।"

"तो क्या अब ये समझा जाए कि मुरारी काका के हत्यारे का पता लगना नामुमकिन है?" मैंने कहा____"ज़ाहिर है कि जैसे जैसे दिन गुज़रते जाएंगे वैसे वैसे ये मामला और भी ढीला होता जाएगा। उस सूरत में हत्या से सम्बंधित कोई भी सुराग़ मिलना संभव तो हो ही नहीं सकेगा।"

"मुरारी के हत्यारे का पता एक दिन तो ज़रूर चलेगा।" पिता जी ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"देर से ही सही लेकिन हत्यारा हमारी नज़र में ज़रूर आएगा। क्योंकि हमें अंदेशा ही नहीं बल्कि यकीन भी है कि मुरारी की हत्या बेवजह नहीं हुई थी। उसकी हत्या किसी ख़ास मकसद के तहत की गई थी। मुरारी की हत्या में तुम्हें फंसाना ही हत्यारे का मकसद था लेकिन वो उस मकसद में कामयाब नहीं हुआ। शायद यही वजह है कि अब वो तुम्हारे साथ ये सब कर रहा है। उसे ये समझ आ गया है कि किसी की हत्या में तुम्हें फंसाने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा इस लिए अब वो सीधे तौर पर तुम्हें नुकसान पहुंचाना चाहता है।"

"बड़े भैया के बारे में कुल गुरु ने जो कुछ कहा।" मैंने धड़कते दिल से पिता जी की तरफ देखते हुए कहा_____"वो सब आपने बाकी लोगों को क्यों नहीं बताया?"
"क्या मतलब???" पिता जी मेरे मुँह से ये बात सुन कर बुरी तरह चौंके थे____"हमारा मतलब है कि ये क्या कह रहे हो तुम?"

"इस बारे में मुझे सब पता है पिता जी।" मैंने संजीदा भाव से कहा____"और मैं ये जानना चाहता हूं कि उनके बारे में जो कुछ भी कुल गुरु ने कहा क्या वो सच है? क्या सच में बड़े भैया का जीवन काल...??"

"ख़ामोश।" पिता जी एकदम से बोल पड़े____"ये सब रागिनी बहू ने बताया है न तुम्हें?"
"क्या फ़र्क पड़ता है पिता जी?" मैंने कहा____"सच जैसा भी हो वो कहीं न कहीं से सामने आ ही जाता है। आपको पता है बड़े भैया को भी अपने बारे में ये सब बातें पता है।"

"क्या????" पिता जी एक बार फिर चौंके____"उसे कैसे पता चली ये बात? हमने रागिनी को शख़्ती से मना किया था कि वो इस बात को राज़ ही रखे।"
"आख़िर क्यों पिता जी?" मैंने ज़ोर देते हुए कहा____"बड़े भैया के बारे में ये सब बातें राज़ क्यों रख रहे हैं आप?"

"ये जानना तुम्हारे लिए ज़रूरी नहीं है।" पिता जी ने कठोर भाव से कहा____"अब तुम जा सकते हो।"
"मैं अपने जीते जी बड़े भैया को कुछ नहीं होने दूंगा।" मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा____"और जिस कुल गुरु ने मेरे बड़े भैया के बारे में ऐसी घटिया भविष्यवाणी की है उसका खून कर दूंगा मैं।"

"अपनी हद में रहो लड़के।" पिता जी एकदम से गुस्से में बोले____"गुरु जी के बारे में ऐसा बोलने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?"
"कोई मेरे भाई के बारे में ऐसी बकवास भविष्यवाणी करे।" मैंने भी शख़्त भाव से कहा____"तो क्या मैं उसकी आरती उतारूंगा? वैभव सिंह ऐसे गुरु की गर्दन उड़ा देना ज़्यादा पसंद करेगा।"

इससे पहले कि पिता जी कुछ बोलते मैं एक झटके से कमरे से बाहर आ गया। मेरे अंदर एकदम से गुस्सा भर गया था जिसे मैं शांत करने की कोशिश करते हुए अंदर बरामदे में आया। मेरी नज़र एक तरफ कुर्सी में बैठी माँ पर पड़ी। वो एक नौकरानी से कुछ कह रहीं थी। मैं सीधा आँगन से होते हुए दूसरी तरफ आया। इस तरफ विभोर और अजीत कुर्सी में बैठे हुए थे और एक कुर्सी पर चाची बैठी हुईं थी। मुझे देखते ही विभोर और अजीत कुर्सी से उठ कर खड़े हो ग‌ए। मैंने चाची को प्रणाम किया और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।

मैं तेज़ी से सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर आया तो एकदम से किसी से टकरा गया किन्तु जल्दी ही सम्हला और अभी खड़ा ही हुआ था कि मेरी नज़र भाभी पर पड़ी। मुझसे टकरा जाने से वो भी पीछे की तरफ झोंक में चली गईं थी और पीछे मौजूद दीवार पर जा लगीं थी।

"माफ़ करना भाभी।" मैं बौखलाए हुए भाव से बोल पड़ा____"मैंने जल्दी में आपको देखा ही नहीं।"
"तुम जब देखो आंधी तूफ़ान ही बने रहते हो?" भाभी ने अपनी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए कहा____"कहां जाने की इतनी जल्दी रहती है तुम्हें?"

"ग़लती हो गई भाभी।" मैंने मासूम सी शक्ल बनाते हुए कहा____"अब माफ़ भी कर दीजिए न।"
"हां हां ठीक है, जाओ माफ़ किया।" भाभी ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"तुम भी क्या याद रखोगे कि किस दिलदारनी से पाला पड़ा था।"

"भैया कहा हैं भाभी?" मैंने भाभी की बात पर ध्यान न देते हुए पूछा तो उन्होंने कमरे की तरफ इशारा करते हुए कहा____"तुम्हारे भैया जी कमरे में आराम फरमा रहे हैं।"

मैं भाभी की बात सुन कर उनके कमरे की तरफ बढ़ चला और वो नीचे चली गईं। कुछ ही पलों में मैं भैया के कमरे का दरवाज़ा खटखटाते हुए उन्हें आवाज़ दे रहा था। थोड़ी देर में दरवाज़ा खुला और भैया नज़र आए मुझे।

"तू यहाँ???" मुझे देखते ही बड़े भैया ने शख़्त भाव से कहा तो मैंने हैरानी से देखते हुए उनसे कहा____"हां भैया, मैं आपसे मिलने आया हूं।"
"पर मुझे तुझसे कोई बात नहीं करनी।" भैया ने गुस्से वाले अंदाज़ में कहा_____"अब इससे पहले कि मेरा हांथ उठ जाए चला जा यहाँ से।"

"ये आप क्या कह रहे हैं भैया?" मारे आश्चर्य के मेरा बुरा हाल हो गया। मुझे समझ में नहीं आया कि भैया को अचानक से क्या हो गया है और वो इतने गुस्से में क्यों हैं? कल तक तो वो मुझसे बहुत ही अच्छे से बात कर रहे थे लेकिन इस वक़्त उनका बर्ताव ऐसा क्यों है? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि उन्होंने मुझे धक्का देते हुए गुस्से में कहा____"तुझे एक बार में बात समझ में नहीं आती क्या? दूर हो जा मेरी नज़रों के सामने से वरना तेरे लिए अच्छा नहीं होगा।"

"ये आप कैसी बातें कर रहे हैं?" मैंने फटी फटी आँखों से उन्हें देखते हुए कहा_____"क्या हो गया है आपको?"
"चटा‌क्क्।" मेरे बाएं गाल पर उनका ज़ोरदार थप्पड़ पड़ा जिससे कुछ पलों के लिए मेरे कान ही झनझना ग‌ए, जबकि उन्होंने गुस्से में कहा_____"मैंने कह दिया न कि मुझे तुझसे कोई बात नहीं करना। अब जा वरना तेरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े कर दूंगा।"

कहने के साथ ही भैया ने मुझे ज़ोर का धक्का दिया और फिर पलट कर कमरे के अंदर दाखिल हो कर तेज़ी से दरवाज़ा बंद कर लिया। मैं भौचक्का सा बंद हो चुके दरवाज़े की तरफ देखता रह गया था। मेरा ज़हन जैसे कुंद सा पड़ गया था। मेरी आँखें जैसे इस सबको देखने के बाद भी यकीन नहीं कर पा रहीं थी। कुछ पलों बाद जब मेरे ज़हन ने काम किया तो मैं पलटा और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।

कमरे में आ कर मैं पलंग पर लेट गया और अभी जो कुछ भी हुआ था उसके बारे में सोचने लगा। मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि भैया मुझसे गुस्सा थे और उस गुस्से में उन्होंने मुझे थप्पड़ मार दिया है। मेरे ज़हन में एक ही पल में न जाने कितने ही सवाल मानो तांडव सा करने लगे। आख़िर क्या हो गया था बड़े भैया को? वो इतने गुस्से में क्यों थे? क्या भाभी की वजह से वो पहले से ही गुस्से में थे? कल ही की तो बात है वो मुझसे कितना स्नेह और प्यार से बातें कर रहे थे और अपने साथ मुझे भांग वाला शरबत पिला रहे थे। मुझे अपने सीने से भी लगाया था उन्होंने। उस वक़्त मैंने देखा था कि वो कितना खुश थे लेकिन अभी जो कुछ मैंने देखा सुना और जो कुछ हुआ वो सब क्या था? सोचते सोचते मेरे दिमाग़ की नसें तक दर्द करने लगीं मगर कुछ समझ न आया मुझे। फिर ये सोच कर मैंने इन सब बातों को अपने ज़हन से निकालने का सोचा कि भाभी से इस बारे में पूछूंगा।

रात में कुसुम मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई तो मैं चुप चाप खाना खाने चला गया। इस दौरान भी मेरे ज़हन में बड़े भैया ही रहे। हम सबके बीच एक कुर्सी पर वो भी खाना खा रहे थे और मैं बार बार उनकी तरफ देखने लगता था। वो हमेशा की तरह ख़ामोशी से खाना खा रहे थे और मैं उनके चेहरे के भावों को समझने की कोशिश कर रहा था किन्तु इस वक़्त उनके चेहरे पर ऐसे कोई भी भाव नहीं थे जिससे मैं किसी बात का अंदाज़ा लगा सकता। ख़ैर खाना खाने के बाद सब लोग अपने अपने कमरे में चले गए और मैं ये सोचने लगा कि भाभी से अगर अकेले में मुलाक़ात हो जाए तो मैं उनसे बड़े भैया के इस बर्ताव के बारे में कुछ पूछ सकूं लेकिन दुर्भाग्य से मुझे ऐसा मौका मिला ही नहीं और मजबूरन मुझे अपने कमरे में चले जाना पड़ा।

अपने कमरे में पलंग पर लेटा मैं काफी देर तक सोचता रहा और फिर न जाने कब मेरी आँख लग गई। पता नहीं मुझे सोए हुए कितना वक़्त गुज़रा था लेकिन इस वक़्त मेरी पलकों के तले एक ख़्वाब चल रहा था। वो ख़्वाब ठीक वैसा ही था जैसा उस रात मुंशी चंद्रकांत के घर सोते समय मैंने देखा था। मैं किसी वीराने में अकेला पड़ा हुआ था। मेरे आस पास अँधेरा था लेकिन उस अँधेरे में भी मैं देख सकता था कि मेरे चारो तरफ से काला गाढ़ा धुआँ अपनी बाहें फैलाए हुए आ रहा है। मैं उस धुएं को देख कर बुरी तरह घबराने लगता हूं। कुछ ही देर में वो काला गाढ़ा धुआँ मेरे जिस्म को चारो तरफ से छूने लगता है और धीरे धीरे मैं उस धुएं मैं डूबने लगता हूं। ख़ुद को काले धुएं में डूबता देख मैं बुरी तरह अपने हाथ पैर चलाता हूं और मारे दहशत के पूरी शक्ति से चीख़ता भी हूं लेकिन मेरी आवाज़ मेरे हलक से बाहर नहीं निकलती। जैसे जैसे मैं उस धुएं में डूब रहा था वैसे वैसे डर और घबराहट से मेरा बुरा हाल हुआ जा रहा था। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई मेरा गला दबाता जा रहा है और मैं अपने बचाव के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहा हूं। एक वक़्त ऐसा भी आया जब मेरा समूचा जिस्म उस काले गाढ़े धुएं में डूब गया और तभी मैं बुरी तरह छटपटाते हुए एकदम से उठ बैठता हूं।

मेरी नींद टूट चुकी थी। मैं बौखलाया सा कमरे में इधर उधर देखने लगा। मेरी साँसें धौकनी की मानिन्द चल रहीं थी। समूचा जिस्म पसीने से तर बतर था। कमरे में बिजली का बल्ब जल रहा था और कमरे की छत में कुण्डे पर झूलता हुआ पंखा अपनी मध्यम गति से चल रहा था। हर तरफ गहन ख़ामोशी छाई हुई थी और इस ख़ामोशी में अगर कोई आवाज़ गूँज रही थी तो वो थी मेरी उखड़ी हुई साँसों की आवाज़।

कुछ पल लगे मेरे ज़हन को जाग्रित होने में और फिर मुझे समझ आया कि मैं आज फिर से वही बुरा ख़्वाब देख रहा था जो उस रात मुंशी के घर में देखा था और उसके चलते मैं बुरी तरह से चीख़ कर उठ बैठा था किन्तु आज मैं चीख़ते हुए नहीं उठा था। हालांकि ख़्वाब में मैं पूरी शक्ति से चीख़ रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर इस तरह का ख़्वाब आने का क्या मतलब है? ये कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं हो सकता था। एक ही ख़्वाब बार बार नहीं आ सकता था। ऐसा नहीं था कि मैं कभी ख़्वाब नहीं देखता था बल्कि वो तो मैं हर रात ही देखता था लेकिन वो सारे ख़्वाब सामान्य होते थे लेकिन ये ख़्वाब सामान्य नहीं था। इस तरह का ख़्वाब आज दूसरी बार देखा था मैंने। मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि अचानक से इस तरह का ख़्वाब आने के पीछे कोई ऐसी वजह तो नहीं है जिसके बारे में फिलहाल मैं सोच नहीं पा रहा हूं?

काफी देर तक मैं पलंग पर बैठा इस ख़्वाब के बारे में सोचता रहा। मेरी आँखों से नींद गायब हो चुकी थी। मेरा गला सूख गया था इस लिए पानी से अपने गले को तर करने का सोच कर मैं पलंग से नीचे उतरा और दरवाज़ा खोल कर कमरे से बाहर आ गया।

हवेली में हर तरफ कब्रिस्तान के जैसा सन्नाटा छाया हुआ था। अँधेरा तो नहीं था क्योंकि बिजली के बल्ब जगह जगह पर जल रहे थे जिससे उजाला था। मैं नंगे पैर ही राहदरी से चलते हुए सीढ़ियों की तरफ बढ़ चला। दूसरे छोर पर आ कर मैं उस गलियारे के पास रुका जिस गलियारे पर भैया भाभी का कमरा था और उनके बाद थोड़ा आगे चल कर एक तरफ विभोर अजीत का कमरा और उनके कमरे के सामने कुसुम का कमरा था। मैंने गलियारे पर नज़र डाली। गलियारा एकदम सुनसान ही था। कहीं से ज़रा सी भी आहट नहीं सुनाई दे रही थी।

गलियारे से नज़र हटा कर मैं पलटा और सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे आ गया। नीचे बड़े से गलियारे के एक तरफ कोने में एक बड़ा सा मटका रखा हुआ था। मैं उस मटके के पास गया और गिलास से पानी निकाल कर मैंने पानी पिया। ठंडा पानी हलक से नीचे उतरा तो काफी राहत मिली।

दो गिलास पानी पी कर मैं वापस सीढ़ियों की तरफ आया और सीढ़ियों से चढ़ कर ऊपर आ गया। अभी मैं लम्बी राहदरी पर ही आया था कि तभी बिजली चली गई। बिजली के जाते ही हर तरफ काला अँधेरा छा गया। कुछ पल रुकने के बाद मैं अपने कमरे की तरफ बढ़ा ही था कि तभी छन छन की आवाज़ ने मेरे कान खड़े कर दिए। बिजली की तरह मेरे ज़हन में ख़याल उभरा कि इस वक़्त ये पायल के छनकने की आवाज़ कैसे? छन छन की आवाज़ मेरे पीछे से आई थी। मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं थी। तभी एक बार फिर से छन छन की आवाज़ हुई तो मेरे मुख से अनायास ही निकल गया____"कौन है?"

मैंने जैसे ही कौन है कहा तो एकदम से छन छन की आवाज़ तेज़ हो गई और ऐसा लगा जैसे कोई सीढ़ियों की तरफ भागा है। मैं तेज़ी से पलटा और मैं भी सीढ़ियों की तरफ लपका। छन छन की आवाज़ अभी भी मुझे दूर जाती हुई सुनाई दे रही थी। अँधेरा बहुत था इसके बावजूद मैं तेज़ी से सीढ़ियां उतरते हुए नीचे आया था लेकिन तब तक आवाज़ आनी बंद हो चुकी थी। नीचे दोनों तरफ लम्बी चौड़ी राहदरी थी और मैं एक जगह खड़ा हो कर अँधेरे में इधर उधर किसी को देखने की कोशिश कर रहा था। मुझे समझ न आया कि इतनी जल्दी छन छन की आवाज़ कैसे बंद हो सकती है? ये तो निश्चित था कि छन छन की आवाज़ किसी लड़की या औरत के पायल की थी लेकिन सवाल ये था कि इतनी रात को इस वक़्त ऐसी कौन सी लड़की या औरत हो सकती है जो ऊपर से इस तरह नीचे भाग कर आई थी? हवेली में कई सारी नौकरानियाँ थी और उनके पैरों में भी ऐसी पायलें थी। इस लिए अब ये पता करना बहुत ही मुश्किल था कि इस वक़्त वो कौन रही होगी?

मैं काफी देर तक इस इंतज़ार में सीढ़ियों के पास खड़ा रहा कि शायद वो छन छन की आवाज़ फिर कहीं से सुनाई दे जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसा लग रहा था जैसे कि वो जो कोई भी थी वो एकदम से गायब ही हो गई थी। मजबूरन मुझे वापस लौटना पड़ा। कुछ ही देर में मैं वापस ऊपर आ गया। मैंने गलियारे की तरफ देखा किन्तु अँधेरे में कुछ दिखने का सवाल ही नहीं था लेकिन इतना तो पक्का हो चुका था कि वो जो कोई भी थी इसी गलियारे से आई थी। अब सवाल ये था कि इस गलियारे में वो किसके कमरे में थी? भैया भाभी के कमरे में उसके होने का सवाल ही नहीं था, तो क्या वो विभोर और अजीत के कमरे में थी? हालांकि सवाल तो ये भी था कि वो जो कोई भी थी तो क्या वो हवेली की कोई नौकरानी ही थी या फिर हवेली की ही कोई महिला?

अपने कमरे में आ कर मैंने दरवाज़ा अंदर से बंद किया और पलंग पर लेट गया। काफी देर तक मैं इस बारे में सोचता रहा लेकिन मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाया। इस वाकये के चलते मैं अपने उस ख़्वाब के बारे में भूल ही गया था जो इस सबके पहले मैं नींद में देख रहा था। पता नहीं कब मेरी आँख लग गई और मैं फिर से सो गया।

सुबह कुसुम के जगाने पर ही मेरी आँख खुली। सुबह सुबह उसे मुस्कुराते हुए देखा तो मेरे भी होठों पर मुस्कान उभर आई। वो हाथ में चाय का प्याला लिए खड़ी थी।

"अब उठ भी जाइए छोटे ठाकुर।" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"ज़रा नज़र उठा कर खिड़की से आफ़ताब को देखिए, वो चमकते हुए अपने उगे होने की गवाही देगा।"
"वाह! क्या बात है।" मैंने उठते हुए कहा____"मेरी बहना तो शायरी भी करती है।"

"सब आपकी नज़रे इनायत का असर है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए बड़ी अदा से कहा____"वरना हम में ऐसा हुनर कहां?"
"कल रात में तूने खाना ही खाया था न?" मैंने अपनी कमीज पहनते हुए कहा____"या खाने में मिर्ज़ा ग़ालिब को खाया था?"

"आपको ना हमारी क़दर है और ना ही हमारी शायरी की।" कुसुम ने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं। आप चाय पीजिए, मुझे अभी याद आया कि माँ ने मुझे जल्दी वापस आने को कहा था।"

मैंने कुसुम के हाथ से चाय का प्याला लिया तो वो पलट कर कमरे से बाहर निकल गई। उसका चेहरा उतर गया था ये मैंने साफ़ देखा था। मुझे समझ न आया कि अचानक से उसका चेहरा क्यों उतर गया था और वो बहाना बना कर कमरे से चली क्यों गई थी। ख़ैर मैंने चाय के प्याले को एक तरफ लकड़ी के मेज पर रखा और तेज़ी से कमरे से निकल गया। असल में मुझे बड़ी ज़ोरों की मुतास लगी थी। मैं तेज़ी से चलते हुए नीचे गुसलखाने में पहुंचा। मूतने के बाद मैंने हाथ मुँह धोया और वापस कमरे में आ कर चाय पीने लगा।

कल शाम वाला भैया का बर्ताव मेरे ज़हन में आया तो मैं एक बार फिर से उनके बारे में सोचने लगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि बड़े भैया कल शाम को मुझसे इस तरह क्यों पेश आए थे? आख़िर अचानक से क्या हो गया था उन्हें? मैंने इस बारे में भाभी से पूछने का निश्चय कर चाय ख़त्म की और कमरे से निकल गया। सबसे पहले तो मैं गुसलखाने में जा कर नित्य क्रिया से फुर्सत हो कर नहाया धोया और कमरे में आ कर दूसरे कपड़े पहन कर नीचे आ गया।

आज भाभी मुझे आँगन में तुलसी की पूजा करते हुए नहीं दिखी थीं, शायद मुझे देरी हो गई थी। सुबह के वक़्त वैसे भी उनसे मिलना मुश्किल था। मैं चाहता था कि उनसे तभी मिलूं जब उनके पास समय हो और वो अकेली हों। ख़ैर इस तरफ आ कर मैं कुछ देर माँ के पास बैठा उनसे इधर उधर की बातें करता रहा। उसके बाद पिता जी के साथ बैठ कर हम सबने नास्ता किया। नास्ता करने के बाद मैंने अपनी मोटर साइकिल ली और हवेली से बाहर की तरफ निकल गया। अभी मैं हाथी दरवाज़े के पास ही आया था कि बाहर मुझे मणिशंकर अपनी बीवी के साथ मिल गया। मुझे देखते ही उसने मुझसे मुस्कुराते हुए दुआ सलाम की जिसके जवाब में मैंने भी उसे सलाम किया।

"सुबह सुबह इधर कहां भटक रहे हो मणि काका?" मैंने मुस्कुराते हुए पूछा तो उसने कहा_____"ठाकुर साहब से मिलने जा रहा हूं छोटे ठाकुर। कुछ ज़रूरी काम भी है उनसे।"

"चलिए अच्छी बात है।" मैंने कहा____"वो हवेली में ही हैं। अच्छा अब मैं चलता हूं।"
"ठीक है बेटा।" मणि शंकर ने सिर हिलाते हुए कहा तो मैं आगे बढ़ चला।

रास्ते में मैं ये सोचता जा रहा था कि मणि शंकर अपनी बीवी के साथ हवेली क्यों जा रहा था? आख़िर ऐसा कौन सा ज़रूरी काम होगा उसे जिसके लिए वो अपने साथ अपनी बीवी को भी ले कर हवेली आया था? साहूकारों के घर के सामने आया तो देखा आज चबूतरे पर कोई नहीं था। मैंने एक नज़र साहूकारों के घरों पर डाली और आगे बढ़ गया। मुझे याद आया कि मुझे रूपा से मिलना था लेकिन शायद अब उससे मेरा मिलना संभव नहीं था क्योंकि रूपचन्द्र को मेरे और उसके सम्बन्धों के बारे में पता चल चुका था। वैसे कल शिव शंकर ने मुझसे कहा था कि उसके बड़े भाई लोग मुझे अपने घर बुलाने की बात कर रहे थे। अगर ये बात सच है तो इसी बहाने मेरा आना जाना साहूकारों के घरों में हो सकता था। मैं भी अब इस इंतज़ार में था कि कब ये लोग मुझे बुलाते हैं। एक बार ऐसा हो गया तो फिर मैं बिना बुलाए भी आसानी से उन लोगों के घर जा सकता था। हालांकि उसके लिए मुझे अपनी छवि को उनके बीच अच्छी बनानी थी जो कि मैंने सोच ही लिया था कि बनाऊंगा।

मुंशी चंद्रकांत के घर के सामने आया तो मुझे रजनी का ख़याल आ गया। साली न जाने कब से रूपचन्द्र से चुदवा रही थी और मुझे इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी। मन तो कर रहा था कि उसकी चूत में गोली मार दूं लेकिन मैं पहले ये जानना चाहता था कि आख़िर उन दोनों के बीच ये सब शुरू कैसे हुआ?

मुंशी के घर का दरवाज़ा बंद था इस लिए मैं आगे ही निकल गया। कुछ आगे आया तो मुझे याद आया कि कल शाम जब मैं वापस आ रहा था तब यहाँ पर किसी ने मुझे रस्सी के द्वारा मोटर साइकिल से गिराने की कोशिश की थी। मैं एक बार फिर से ये सोचने लगा कि कौन कर सकता है ऐसा?

हमेशा अपने में ही मस्त रहने वाला मैं अब गंभीर हो गया था और आज कल जो कुछ मेरे साथ हो रहा था उसके बारे में गहराई से सोचने भी लगा था। मैं समझ चुका था कि अच्छी खासी चल रही मेरी ज़िन्दगी की माँ चुद गई है और कुछ हिजड़ों की औलादें हैं जो मुझे अपने जाल में फंसाने की कोशिश कर रहे हैं। वो जानते हैं कि सामने से वो मेरा कुछ नहीं उखाड़ सकते हैं इस लिए कायरों की तरह छिप कर वार करने की मंशा बनाए बैठे हैं।

कुछ देर में मैं अपनी बंज़र ज़मीन के पास पहुंच गया। मैंने देखा काफी सारे लोग काम में लगे हुए थे। मकान की नीव खुद चुकी थी और अब उसमे दीवार खड़ी की जा रही थी। हवेली के दो दो ट्रेक्टर शहर से सीमेंट बालू और ईंट लाने में लगे हुए थे। एक तरफ कुएं की खुदाई हो रही थी जो कि काफी गहरा खुद चुका था। कुएं के अंदर पानी दिख रहा था जो कि अभी गन्दा ही था जिसे कुछ लोग बाल्टी में भर भर कर बाहर फेंक रहे थे। कुल मिला कर काम ज़ोरों से चल रहा था। पेड़ के पास मोटर साइकिल में बैठ कर मैं सारा काम धाम देख रहा था और फिर तभी अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल आया। उस ख़याल के आते ही मेरे होठों पर एक मुस्कान फैल गई। मैंने मोटर साइकिल चालू की और शहर की तरफ निकल गया।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 28
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अब तक,,,,,,

कुछ देर में मैं अपनी बंज़र ज़मीन के पास पहुंच गया। मैंने देखा काफी सारे लोग काम में लगे हुए थे। मकान की नीव खुद चुकी थी और अब उसमे दीवार खड़ी की जा रही थी। हवेली के दो दो ट्रेक्टर शहर से सीमेंट बालू और ईंट लाने में लगे हुए थे। एक तरफ कुएं की खुदाई हो रही थी जो कि काफी गहरा खुद चुका था। कुएं के अंदर पानी दिख रहा था जो कि अभी गन्दा ही था जिसे कुछ लोग बाल्टी में भर भर कर बाहर फेंक रहे थे। कुल मिला कर काम ज़ोरों से चल रहा था। पेड़ के पास मोटर साइकिल में बैठ कर मैं सारा काम धाम देख रहा था और फिर तभी अचानक मेरे ज़हन में एक ख़याल आया। उस ख़याल के आते ही मेरे होठों पर एक मुस्कान फैल गई। मैंने मोटर साइकिल चालू की और शहर की तरफ निकल गया।

अब आगे,,,,,


शहर से जब मैं वापस लौटा तो दोपहर के तीन बज गए थे। मैं सीधा मुरारी काका के घर ही आ गया था। मैंने मोटर साइकिल घर के बाहर खड़ी की और जैसे ही दरवाज़े के पास पंहुचा तो दरवाज़ा खुला। सरोज काकी ने दरवाज़ा खोला था। मैं अंदर आया तो देखा आँगन में जगन अपने बीवी बच्चों के साथ ही बैठा था। मुझे देखते ही जगन खटिया से उठ गया और मुझे बैठने को कहा तो मैं बैठ गया।

जगन की बीवी और उसके बच्चे अंदर बरामदे में बैठे थे और सरोज काकी आँगन में। घर के दूसरी तरफ एक बड़ा सा पेड़ था जिसकी छांव आँगन में रहती थी। बड़ा सा आँगन था इस लिए हवा आती रहती थी वरना तो इस वक़्त धूप में आंगन में बैठना मुश्किल ही हो जाता। ख़ैर सरोज काकी ने मुझसे खाने पीने का पूछा तो मैंने उसे बताया कि मैंने शहर में ही खा लिया है किन्तु ठंडा पानी ज़रूर पियूंगा।

"और काका कैसी चल रही है तैयारी?" मैंने अपने पास ही दूसरी खटिया में बैठे जगन काका से पूछा_____"सारा सामान इकठ्ठा हो गया न या अभी और भी किसी चीज़ की कमी है?"

"ज़रुरत का मुख्य सामान तो हम कल ही शहर से ले आए थे।" जगन ने कहा____"अब सिर्फ राशन ही रह गया था तो हमने उसकी भी ब्यवस्था कर ली है। कुल मिला कर सारी ब्यवस्था हो गई है बेटा।"

"फिर भी अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बेझिझक मुझसे बोल देना।" मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाल कर जगन की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये कुछ पैसे हैं इन्हें रख लो। कल ब्राम्हणों को दान दक्षिणा देने के काम आएंगे।"

पैसा देख कर जगन मेरी तरफ देखने लगा था और यही हाल लगभग सबका ही था। मैंने ज़ोर दिया तो जगन ने वो पैसा ले लिया। कुछ देर और बैठ कर मैंने कल तेरहवीं से सम्बन्धित कुछ बातें की उसके बाद मैं सरोज काकी के घर से निकल कर उस तरफ चल पड़ा जहां पर मेरा नया मकान बन रहा था।

पेड़ की छांव में मोटर साइकिल खड़ी कर के मैं मजदूरों के पास आ गया। मुझे देखते ही सबने बड़े अदब से मुझे सलाम किया। काफी सारे मजदूर और मिस्त्री थे इस लिए मकान का निर्माण कार्य बड़ी तेज़ी चल रहा था। कुछ मजदूर आस पास की सफाई करने में लगे हुए थे ताकि मकान के आस पास की ज़मीन साफ़ रहे। मकान से कुछ ही दूर कुएं की खुदाई चल रही थी। मैंने पास जा कर देखा तो पता चला कुआं काफी गहरा हो गया है और उसमे भरपूर पानी भी है, जिसकी वजह से अंदर कुएं को और ज़्यादा खोदने में परेशानी हो रही थी। कुएं में इतना पानी था कि उसे खाली करना अब किसी के भी बस में नहीं था। मजदूरों ने जब ये बात मुझे बताई तो मैंने उन्हें खोदने से मना कर दिया और ये कहा कि कुएं की दीवारों को पक्का कर दो।

मैं शहर एक ज़रूरी काम से गया था। असल में मैं एक काम गुप्त रूप से करवाना चाहता था। ख़ैर कुछ देर रुकने के बाद मैं गांव की तरफ चलने ही लगा था कि सामने से एक मोटर साइकिल में भुवन आता दिखा मुझे। मुझे देखते ही उसने सलाम किया। मैंने उससे उसका हाल चाल पूछा और बुलेट को चालू कर के हवेली की तरफ चल दिया।

शाम अभी हुई नहीं थी। रास्ते में जब मैं आया तो मुझे याद आया कि पिछले दिन इसी रास्ते पर किसी ने मुझे रस्से द्वारा सड़क पर गिराने की कोशिश की थी। इस बात के याद आते ही मैं एकदम से सतर्क हो गया। हालांकि दुबारा ऐसा कुछ मेरे साथ हुआ नहीं बल्कि मैं बड़े आराम से गांव में दाखिल हो गया।

मुंशी चंद्रकांत के घर के सामने आया तो मुझे रजनी का ख़याल आ गया। रजनी का ख़याल आते ही मेरे मन में उसके लिए गुस्सा और नफ़रत भरने लगी। मैं उसे उसके किए की सज़ा देना चाहता था किन्तु उसके लिए अभी मेरे पास वक़्त नहीं था। वैसे भी आज कल मैं ऐसी ऐसी मुसीबतों में फंसा हुआ था कि एक नई मुसीबत को अपने गले नहीं लगाना चाहता था। मुंशी के घर के सामने से गुज़र कर जब मैं साहूकारों के सामने आया तो ये देख कर चौंका कि घर के बड़े से दरवाज़े के पास रूपा खड़ी थी और एक छोटे से बच्चे से बात कर रही थी। बुलेट की तेज़ आवाज़ उसके कानों में पड़ी तो उसने गर्दन घुमा कर सड़क की तरफ देखा। मुझ पर नज़र पड़ते ही पहले तो वो चौंकी फिर अपलक मेरी तरफ देखने लगी।

मैंने मोटर साइकिल की रफ़्तार को एकदम से धीमा कर दिया और होठों पर मुस्कान सजा कर उसकी तरफ देखा तो उसके होठों पर भी मुस्कान उभर आई किन्तु अगले ही पल वो तब हड़बड़ा गई जब मैंने अचानक से उसे देखते हुए आँख मार दी थी। रूपा ने घबरा कर इधर उधर देखा। इस वक़्त घर के बाहर कोई नहीं दिख रहा था। मेरा मन किया कि मैं रूपा को अपने पास बुलाऊं किन्तु अगले ही पल मैंने अपना ये इरादा बदल दिया। मुझे अंदेशा था कि बुलेट की तेज़ आवाज़ घर के अंदर मौजूद बाकी लोगों के कानों में भी पहुंच गई होगी। रूपचंद्र अगर अंदर होगा तो वो फ़ौरन समझ जाएगा कि बुलेट में मैं ही होऊंगा।

मैंने रूपा को इशारा किया तो उसने चौंक कर पहले उस छोटे से बच्चे की तरफ देखा और फिर इधर उधर देखने के बाद मेरी तरफ देखते हुए इशारे से ही पूछा कि क्या है? वो छोटा सा बच्चा भी मेरी तरफ ही देख रहा था। मैंने रूपा को इशारे से ही कल मंदिर में मिलने के लिए कहा तो उसने झट से अपना सिर इंकार में ज़ोर ज़ोर से हिलाया। ये देख कर मैंने उसे आँखें दिखाई तो वो बेबस भाव से मुझे देखने लगी। मुझे उसकी बेबसी और मासूमियत पर बेहद तरस आया किन्तु मेरा उससे मिलना बेहद ज़रूरी था इस लिए मैंने इस बार उससे अनुरोध किया। मेरे अनुरोध पर उसने कुछ पल सोचा और फिर हां में सिर हिला दिया। रूपा जब मंदिर में मिलने के लिए राज़ी हो गई तो मैंने मुस्कुराते हुए मोटर साइकिल को आगे बढ़ा दिया।

एक मुद्दत हो गई थी रूपा से मिले हुए और उसे प्यार किए हुए। पहले के और अब के हालात में बहुत ज़्यादा अंतर हो गया था। अब साहूकारों से हमारे रिश्ते सुधर चुके थे इस लिए मैं अपनी तरफ से ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता था और ना ही करना चाहता था जिसकी वजह से मेरी छवि फिर से बिगड़ जाए। ख़ैर रूपा के बारे में सोचते हुए मैं हवेली में दाखिल हुआ। मोटर साइकिल एक तरफ खड़ी कर के मैं हवेली के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा। जैसा कि मैंने बताया था कि हवेली के बाहर बहुत बड़ा हरा भरा मैदान था जिसके एक छोर पर कई सारी जीपें और दूसरे छोर पर बग्घी और मोटर साइकिल वग़ैरा खड़ी रहतीं थी। मुख्य दरवाज़े की तरफ बढ़ा तो देखा जगताप चाचा जी जीप में बैठ कर कहीं जाने को तैयार थे। वो मेरी तरफ देख कर हल्के से मुस्कुराए और फिर जीप को हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ा दिया।

हवेली के अंदर आया तो मेरे ज़हन में बड़े भैया का ख़याल आ गया। मैं एक बार फिर से सोचने लगा कि आख़िर ऐसी क्या बात थी कि उन्होंने मुझसे इतने गुस्से में बात की थी जबकि होली के दिन वो मुझसे बड़े प्यार से और बड़ी ख़ुशी से बात कर रहे थे। होली के दिन उनका वर्ताव वैसा ही था जैसे के हमारा भरत मिलाप हुआ था किन्तु पिछले दिन का उनका वर्ताव मेरे लिए एकदम उम्मीद से परे था। बड़े भैया के उस वर्ताव की असल वजह को जानने के लिए मेरा भाभी से मिलना ज़रूरी था।

अंदर आया तो सबसे पहले मेरी मुलाक़ात कुसुम से हुई। मैंने उससे भाभी के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो अपने कमरे में हैं। मैंने कुसुम से बड़े भैया के बारे में पूछा तो उसने बताया कि वो विभोर और अजीत के साथ जीप से कहीं गए हुए हैं। कुसुम की बात सुन कर मैंने सोचा भाभी से मिल कर बात करने का ये बढ़िया मौका है। ये सोच कर मैंने कुसुम से कहा कि बढ़िया गरम गरम चाय मेरे कमरे में ले कर आ।

आंगन से होते हुए जब मैं दूसरे छोर पर आया तो मेरी नज़र मेनका चाची पर पड़ी। वो एक नौकरानी से कुछ बात कर रहीं थी। नौकरानी की उम्र यही कोई तीस के आस पास थी। थोड़ी सांवली थी किन्तु जिस्म काफी कसा हुआ दिख रहा था। घागरा चोली पहने हुए थी वो। चोली में कैद उसकी भारी भरकम चूचियां ऐसी प्रतीत हो रहीं थी जैसे चोली को फाड़ कर बाहर ही आ जाएंगी। मैं जब थोड़ा क़रीब पंहुचा तो अनायास ही मेरी नज़र उसके नंगे पेट से नीचे फिसल कर उसके घाघरे में छुपे चौड़े कूल्हों से होते हुए नंगी टांगों पर और फिर पैरों पर आ कर ठहर गई। अपने पैरों में चांदी की मामूली सी पायल पहने थी वो किन्तु वो पायल वैसी ही थी जो चलने पर छन छन की आवाज़ करती थी। मेरे ज़हन में एकदम से विचार कौंधा कि क्या पिछली रात यही थी जो सीढ़ियों से उतर कर भागते हुए ऊपर से नीचे आई थी और जिसके पीछे मैं भी भागता हुआ आया था?

चाची के पास पंहुचा तो चाची ने मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखा। उस नौकरानी ने जब मुझे देखा तो उसने घबरा कर जल्दी से अपनी नज़रें नीचे कर ली। उसका घबरा कर इस तरह से अपनी नज़रें नीचे कर लेना मेरे मन में और भी ज़्यादा शक पैदा कर गया। मैं ये तो जानता था कि हवेली के नौकर और नौकरानियाँ मुझसे बेहद डरते थे किन्तु बिना वजह के इस तरह से तो बिलकुल भी नहीं।

उस नौकरानी की शक्ल अच्छे से देख कर मैं सीढ़ियों से ऊपर आ गया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। हवेली में कई ऐसे नौकर और नौकरानियाँ थी जिनके मैं नाम तक नहीं जानता था। जब से पिता जी ने नौकरानियों को मेरे कमरे में आने से शख़्त मना किया था तब से मेरा भी उनसे कोई वास्ता नहीं रहा था वरना तो आए दिन मैं हवेली की किसी न किसी नौकरानी को अपने नीचे लेटा ही लेता था। अपनी हवस की आग को शांत करने के बाद मुझे उनसे कोई मतलब नहीं होता था। ख़ैर अभी जो नौकरानी चाची के पास खड़ी दिखी थी उस पर मेरा शक गहरा गया था और अब मैं अपने इस शक का समाधान करना चाहता था। अगर ये वही नौकरानी थी जो पिछली रात अँधेरे में अपनी छन छन करती पायल की आवाज़ के साथ नीचे भागती हुई गई थी तो मेरे लिए ये जानना बेहद ज़रूरी था कि वो उतनी रात को किसके कमरे में थी और क्या कर रही थी?

अपने कमरे में आ कर मैंने अपनी शर्ट उतारी और पंखा चालू कर के पलंग पर लेट गया। मैं सोच रहा था कि कल मुरारी काका की तेरहवीं हो जाने के बाद मैं हर उस चीज़ के बारे में गहराई से सोचूंगा और फिर उन सभी चीज़ों के बारे में जानने और सुलझाने की कोशिश शुरू करुंगा जिन चीज़ों की वजह से आज कल मेरी ज़िन्दगी झंड बनी हुई थी।

कुसुम चाय ले कर आई और पलंग पर ही मेरे पास बैठ गई। मैंने उसके हाथ से चाय का प्याला लिया और उसे मुँह से लगा कर उसकी एक चुस्की ली। कुसुम मेरी तरफ ही देख रही थी। मेरी नज़र जब उस पर पड़ी तो मैं हल्के से मुस्कुराया।

"अब तुझे क्या हुआ?" मैंने थोड़ा सा उठ कर पलंग की पिछली पुस्त से पीठ टिका कर कहा____"इस तरह मुँह क्यों लटका रखा है तूने? किसी ने कुछ कहा क्या?"
"नहीं, किसी ने कुछ नहीं कहा भैया।" कुसुम ने कुछ सोचते हुए कहा____"लेकिन एक बात है जिसके बारे में सोच रही हूं कि आपको बताऊं कि नहीं?"

"अगर तुझे लगता है कि वो बात मुझे बताना तेरे लिए ज़रूरी है।" मैंने जैसे उसे समझाते हुए कहा____"तो बेझिझक हो कर बता दे। इसमें इतना सोचने की क्या बात है?"
"सोचने की ही तो बात है भैया।" कुसुम ने बड़ी मासूमियत से कहा____"तभी तो सोच रही हूं।"

"तो फिर एक काम कर तू।" मैंने कहा____"और वो ये कि पहले तू दो चार दिन सोच ही ले, उसके बाद मुझे बता देना।"
"अब और कितना सोचूं भैया?" कुसुम ने मानो झुंझला कर कहा____"जाने कब से तो सोच रही हूं मैं उस बात के बारे में। अब और नहीं सोचा जाता मुझसे।"

"चल अब मेरा भेजा मत खा।" मैंने चाय की एक और चुस्की लेने के बाद कहा____"जल्दी से बता कि ऐसी कौन सी बात है जिसके बारे में जाने कबसे तू इतना सोच रही है?"
"पहले ये तो सुन लीजिए।" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कि मैं सोच क्यों रही थी?"

"अच्छा ठीक है।" मैंने झुंझला कर कहा____"यही बता कि सोच क्यों रही थी तू?"
"वो क्या है न कि।" कुसुम ने झिझकते हुए कहा____"जो बात मैं आपसे बताना चाहती थी वो ऐसी बात है कि मुझे आपसे बताने में शर्म आ रही है। इसी लिए तब से अब तक यही सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे...क्योंकि मुझे शर्म आएगी न।"

"तो क्या अब बताने में शर्म नहीं आएगी तुझे?" मैंने उसे घूरा।
"अरे! ऐसे कैसे नहीं आएगी?" कुसुम ने अपना एक हाथ झटकते हुए कहा____"वो तो बहुत ज़्यादा आएगी भैया। इसी लिए तो इतने दिन से सोच रही हूं कि आपको वो बात बताऊं कि नहीं और बताऊं भी तो कैसे?"

"मुझे तो लगता है कि।" मैंने कहा____"तू आज मेरे दिमाग़ का दही करने आई है। अरे! यार अगर तुझे कोई बात बतानी ही है तो बेझिझक बता दे न। फ़ालतू का मेरा समय क्यों बर्बाद कर रही है और मुझे परेशान क्यों कर रही है?"

"क्या कहा आपने?" कुसुम ने आँखें फैला कर कहा____"मैं फ़ालतू की बात कर रही हूं और आपके दिमाग़ का दही कर रही हूं??? आप मेरे बारे में ऐसा कैसे बोल सकते हैं? जाइए मुझे कुछ नहीं बताना आपको।"

"हे भगवान!" मेरा मन किया कि मैं अपने बाल नोच लूं, किन्तु फिर ख़ुद को सम्हालते हुए मैंने बड़े प्यार से कहा____"ग़लती हो गई मेरी प्यारी बहना। तू तो जानती है कि तेरा ये भाई बुद्धि से ज़रा पैदल है।"

"ख़बरदार।" मेरी बात पूरी होते ही कुसुम एक झटके में बोल पड़ी____"ख़बरदार जो आपने मेरे भैया को बुद्धि से पैदल कहा। अरे! मेरे भैया तो सबसे अच्छे हैं, मुझे अपनी जान से भी ज़्यादा प्यार करते हैं।"

"अगर ऐसा है।" मैंने गहरी सांस ली____"तो बता न मेरी प्यारी बहना कि वो कौन सी बात है जिसके बारे में तू इतने दिनों से सोचती आ रही है?"
"पर भैया।" कुसुम ने बेबस भाव से कहा____"मैं वो बात आपको कैसे बताऊं? मुझे वो बात बताने में बहुत ज़्यादा शर्म आएगी। नहीं भैया नहीं, मैं वो बात आपको नहीं बता सकती।"

"तू रुक अभी बताता हूं तुझे।" मैंने चाय के प्याले को एक तरफ रखा और जैसे ही एक झटके से उसकी तरफ झपटा तो वो खिलखिला कर हंसती हुई कमरे से बाहर भाग ग‌ई, जबकि मैंने आगे का वाक्य मानो ख़ुद से ही कहा_____"इतनी देर से भेजा चाट रही है मेरा।"

कुसुम के जाने के बाद मैं वापस पलंग पर पहले की तरह पीठ टिका कर बैठ गया और ये सोच कर मुस्कुरा उठा कि मेरी ये नटखट बहन कितनी सफाई से मेरा भेजा चाट कर चली गई है। ख़ैर चाय पीने के बाद मैं पलंग से नीचे उतरा और शर्ट पहन कर भाभी से मिलने के लिए कमरे से बाहर आ कर उनके कमरे की तरफ बढ़ चला।

लम्बी चौड़ी राहदारी से चलते हुए जैसे ही मैं भाभी के कमरे के सामने आया तो मेरी नज़र कमरे से बाहर निकल रही भाभी पर पड़ी। उन्हें कमरे से बाहर निकलते देख मैं रुक गया। उनकी नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी और अपने कमरे के बाहर मुझे देख कर वो रुक गईं थी। उनके खूबसूरत चेहरे पर पहले तो चौंकने के भाव उभरे फिर उनकी झील सी गहरी आँखों में सवालिया भाव नज़र आए मुझे।

"वैभव तुम??" फिर उन्होंने सामान्य भाव से कहा____"कहीं इस तरफ का रास्ता तो नहीं भटक गए?"
"वो मैं आपसे मिलने आया था भाभी।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"असल में मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बातें करनी है। अगर आपके पास वक़्त हो तो...!"

"अपने देवर के लिए मेरे पास वक़्त ही वक़्त है वैभव।" मेरी बात पूरी होने से पहले ही भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"अन्दर आ जाओ।"

कहने के साथ ही भाभी वापस कमरे में चली गईं तो मैं भी चुप चाप कमरे में दाखिल हो गया। इस वक़्त मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही बढ़ गईं थी। मैं बहुत कोशिश करता था कि भाभी के सामने मैं सामान्य ही रहूं लेकिन पता नहीं क्यों उनके सामने आते ही मेरी धड़कनें थोड़ी तेज़ हो जाती थी और न चाहते हुए भी मैं उनके रूप सौंदर्य पर आकर्षित होने लगता था। ये अलग बात है कि इसके लिए बाद में मुझे बेहद पछतावा भी होता था।

"बैठो।" मैं अंदर आया तो भाभी ने कमरे में एक तरफ रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए कहा तो मैं चुप चाप बैठ गया।

"अब बताओ।" मैं जैसे ही कुर्सी में बैठा तो भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए शांत भाव से कहा____"अपनी इस भाभी से ऐसी कौन सी ज़रूरी बात करनी थी तुम्हें?"
"असल में मुझे।" मैंने खुद को नियंत्रित करते हुए कहा____"बड़े भैया के बारे में आपसे कुछ पूछना था।"

"हां तो पूछो।" भाभी ने बड़ी बेबाकी से कहा तो मैं कुछ पलों तक उनके सुन्दर चेहरे की तरफ देखता रहा और फिर अपनी बढ़ चली धड़कनों को काबू करने का प्रयास करते हुए बोला____"होली वाले दिन बड़े भैया मुझसे बड़े ही अच्छे तरीके से मिले थे। यहाँ तक कि जब मैंने उनके पैर छुए थे तो उन्होंने खुश हो कर मुझे अपने गले से भी लगाया था। उसके बाद उन्होंने खुद उसी ख़ुशी में मुझे भांग वाला शरबत पिलाया था। उनके ऐसा करने से मैं भी बहुत खुश था लेकिन कल शाम को उनका वर्ताव ऐसा था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।"

"क्या हुआ था कल?" भाभी ने पूछा तो मैंने उन्हें कल शाम का सारा वाक्या विस्तार से बता दिया जिसे सुन कर उनके चेहरे पर वैसे भाव बिल्कुल भी नहीं उभरे जिसे आश्चर्य कहा जाता है। बल्कि मेरी बातें सुनने के बाद उन्होंने एक गहरी सांस ली और फिर गंभीर भाव से कहा____"पिछले कुछ समय से उनका वर्ताव ऐसा ही है वैभव। मुझे तो उनके ऐसे वर्ताव की आदत पड़ चुकी है किन्तु तुम्हारे लिए शायद ये न‌ई बात होगी क्योंकि तुम तो हमेशा ही अपने में ही मस्त रहते थे। तुम्हें भला इस बात से कैसे कोई मतलब हो सकता था कि हवेली में रहने वाले तुम्हारे अपनों के बीच क्या चल रहा है या उनके हालात कैसे हैं? ख़ैर छोड़ो इस बात को, मैं किसी को अपना दुःख नहीं दिखाती वैभव। जब से मुझे कुल गुरु के द्वारा ये पता चला है कि उनका जीवन काल बस कुछ ही समय का है तब से मैं इस कमरे में अकेले ही छुप कर अपने आँसू बहा लेती हूं। ईश्वर से हर वक़्त पूछती हूं कि उन्होंने ये कैसा इन्साफ किया है कि इतनी कम उम्र में मुझे विधवा बना देने का फैसला कर लिया है? आख़िर वो मुझे किस गुनाह की सज़ा देना चाहता है? अपनी समझ में तो मैंने ऐसा कोई गुनाह नहीं किया है जिसके लिए वो मेरे साथ ऐसा करे। दादा ठाकुर ने मुझे शख़्ती से मना किया था कि मैं उनके बारे में ये बातें हवेली में किसी को न बताऊं। मैं जानती हूं कि अपने बेटे के बारे में ये सब जान कर वो खुद भी अंदर से बेहद दुखी होंगे और शायद यही वजह है कि वो मौका देख कर मुझे इसके लिए समझाते रहते हैं। ईश्वर का खेल तो ईश्वर ही जानता है। वो जो भी करता है उसकी कोई न कोई वजह ज़रूर होती है। दादा ठाकुर की इन्हीं बातों से खुद को तसल्ली देती रहती हूं। अब तो खुद को भी समझा लिया है कि इस बात के लिए रोने से भला क्या मिलेगा? इससे अच्छा तो ये है कि जिस ईश्वर ने ऐसा इंसाफ लिखा है उसी से उनकी ज़िन्दगी की भीख मांगू। क्या पता किसी दिन उस भगवान को मुझ पर तरस आ जाए।"

भाभी ये सब कहने के बाद सुबकने लगीं थी। उनका सुन्दर सा चेहरा एकदम से मलिन पड़ गया था। मैंने आज तक उन्हें बस मुस्कुराते हुए ही देखा था। मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि उन्होंने अपने अंदर इतना बड़ा दुःख दर्द दबा के रखा है। बिस्तर के किनारे पर बैठी सुबक रहीं भाभी को देख कर मेरे दिल में दर्द सा होने लगा। मेरा जी चाहा कि मैं पलक झपकते ही उनके पास जाऊं और उन्हें अपने सीने से छुपका लूं लेकिन मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर सका।

"भगवान के लिए ऐसे मत रोइए भाभी।" मुझसे रहा न गया तो मैंने आहत भाव से कहा____"मैं सच में बहुत शर्मिंदा हूं। आज तक मैं अपनी दुनिया में मस्त था। ये सच है कि आज तक मुझे अपने सिवा किसी से कोई मतलब नहीं था लेकिन अब मैं मतलब रखूंगा भाभी। आज मुझे अपने आप पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा है कि मैंने आज तक जो कुछ किया वो मैंने क्यों किया? क्यों आज तक मैं अपनों से और अपनी ज़िम्मेदारियों से भागता रहा था? अगर मैंने ऐसा न किया होता तो आज हालात ऐसे न होते।"

"नहीं वैभव।" भाभी ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा____"तुम इस सबके लिए अपने आपको दोष मत दो। हां ये सच है कि तुम्हें अपनों का और अपनी ज़िम्मेदारियों का ख़याल रखना चाहिए था लेकिन ये भी सच है कि जो कुछ भी होता है वो उस ऊपर वाले की मर्ज़ी से ही होता है। इस दुनिया में वही होता है वैभव जो सिर्फ ऊपर वाला चाहता है। उसकी मर्ज़ी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। हम मामूली इंसान तो उसके हाथ की कठपुतली हैं।"

"मैं ये सब नहीं जानता भाभी।" मैंने दुखी भाव से कहा____"मैं तो बस इतना समझ रहा हूं कि आज जैसे भी हालात बने हैं उन हालातों के लिए कहीं न कहीं मैं ख़ुद भी ज़िम्मेदार हूं। अपनी ख़ुशी के लिए मैंने हमेशा वही किया जिसने इस ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर ग्रहण लगाया। मैं बहुत बुरा हूं भाभी।"

"सुबह का भूला अगर शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते वैभव।" भाभी बिस्तर से उतर कर मेरे पास आते हुए बोलीं____"मुझे ख़ुशी है कि तुम्हें अपनी ग़लतियों का एहसास है और तुम अपनी ग़लतियों के लिए पछतावा कर रहे हो। मैं हमेशा यही कामना करती थी कि तुम सही रास्ते पर आ जाओ और अपने बिखर रहे परिवार को सम्हाल लो। आज ईश्वर ने शायद मेरी कामनाओं को पूरा कर दिया है। कोई इंसान ईश्वर के लेख को तो नहीं मिटा सकता लेकिन सब कुछ अच्छा करने का प्रयास तो कर ही सकता है। इस लिए मैं चाहती हूं कि अब से तुम वही करो जिससे ठाकुर खानदान की इज़्ज़त पर कोई आंच न आए। मैंने तो अपने उस दुःख को किसी तरह जज़्ब कर लिया है वैभव लेकिन माँ जी अपने बेटे के बारे में वो सब जान कर ख़ुद को सम्हाल नहीं पाएँगी। मैं नहीं चाहती कि किसी दिन ऐसा भी लम्हा आ जाए जो इस हवेली की दरो दीवार को हिला कर रख दे।"

"आप बहुत महान हैं भाभी।" मैंने श्रद्धा भाव से कहा____"इतने बड़े दुःख के बाद भी आप इस हवेली में रहने वालों और इस खानदान के बारे में इतना कुछ सोचती हैं। आप इतनी अच्छी कैसे हो सकती हैं भाभी? एक मैं हूं जो अपनी देवी सामान भाभी को देख कर अपनी नीयत ख़राब कर बैठता है। काश! वो ऊपर वाला बड़े भैया की जगह मेरे जीवन काल को समाप्त कर देता।"

"नहीं वैभव।" भाभी ने जल्दी से आगे बढ़ कर मेरे सिर को अपने पेट के पास छुपकाते हुए कहा____"भगवान के लिए ऐसा मत कहो। बस यही प्रार्थना करो कि किसी को भी कुछ न हो।"

भाभी की बात सुन कर मैं कुछ न बोला बल्कि भाभी के पेट से छुपका हुआ मैं बस यही सोच कर दुखी होता रहा कि काश मेरे भैया को मेरी उम्र लग जाए। कुछ देर बाद मैं भाभी से अलग हुआ। मैंने देखा उनकी आँखों में आंसू तैर रहे थे। संसार भर की मासूमियत विद्यमान थी उस पाक़ चेहरे में।

"एक बात बताइए भाभी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"भैया को अपने बारे में वो सब बातें कैसे पता हैं? क्या आपने उन्हें बताया है?"
"वो असल में बात ये हुई थी।" भाभी ने कहा____"कि एक दिन दादा ठाकुर मुझे उन्हीं सब बातों के लिए समझा रहे थे तो तुम्हारे भैया ने सुन लिया था। उसके बाद उन्होंने मुझसे उस बारे में पूछा था लेकिन मैंने जब उन्हें कुछ नहीं बताया तो उन्होंने अपनी कसम दे दी। उनकी कसम से मजबूर हो कर मुझे उन्हें सब कुछ बताना ही पड़ा।
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☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 29
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अब तक,,,,,,

भाभी की बात सुन कर मैं कुछ न बोला बल्कि भाभी के पेट से छुपका हुआ मैं बस यही सोच कर दुखी होता रहा कि काश मेरे भैया को मेरी उम्र लग जाए। कुछ देर बाद मैं भाभी से अलग हुआ। मैंने देखा उनकी आँखों में आंसू तैर रहे थे। संसार भर की मासूमियत विद्यमान थी उस पाक़ चेहरे में।

"एक बात बताइए भाभी।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"भैया को अपने बारे में वो सब बातें कैसे पता हैं? क्या आपने उन्हें बताया है?"
"वो असल में बात ये हुई थी।" भाभी ने कहा____"कि एक दिन दादा ठाकुर मुझे उन्हीं सब बातों के लिए समझा रहे थे तो तुम्हारे भैया ने सुन लिया था। उसके बाद उन्होंने मुझसे उस बारे में पूछा था लेकिन मैंने जब उन्हें कुछ नहीं बताया तो उन्होंने अपनी कसम दे दी। उनकी कसम से मजबूर हो कर मुझे उन्हें सब कुछ बताना ही पड़ा।"


अब आगे,,,,,



"तो इस तरीके से भैया को अपने बारे में वो सब पता चला।" मैंने सोचने वाले भाव से कहा____"ख़ैर भैया के उस बर्ताव ने मुझे बड़ी हैरत में डाल रखा है भाभी। होली के दिन वो मुझसे ऐसे मिले थे जैसे हमारा भरत मिलाप हुआ था। उन्होंने बड़ी ख़ुशी से मुझे अपने गले लगाया था और फिर उसी ख़ुशी में उन्होंने ये कह कर मुझे भांग वाला शरबत भी पिलाया था कि आज वो बहुत खुश हैं। उनके उस बर्ताव से मैं भी बेहद खुश हो गया था लेकिन कल शाम को जब मैं उनसे मिलने उनके कमरे में गया तो वो मुझे बेहद गुस्से में नज़र आए थे और उसी गुस्से में मुझे ये तक कहा था कि वो मुझसे कोई बात नहीं करना चाहते और अगर मैं उनके सामने से न गया तो वो मेरे टुकड़े टुकड़े कर देंगे। मैं उस वक़्त उनके उस वर्ताव से आश्चर्य चकित था भाभी। मुझे अब भी समझ नहीं आ रहा कि उनका अचानक से वैसा वर्ताव कैसे हो गया? आख़िर अचानक से उन्हें क्या हो गया था कि वो मुझे देखते ही बेहद गुस्से में आ गए थे जबकि मैंने तो उन्हें कुछ कहा भी नहीं था?"

"उनका ऐसा वर्ताव मेरे साथ भी है वैभव।" भाभी ने गहरी सांस ले कर उदास भाव से कहा____"पिछले कुछ समय से बड़ा अजीब सा वर्ताव कर रहे हैं वो। किसी किसी दिन वो अपने आप ही मुझसे गुस्सा हो जाते हैं और उस गुस्से में वो ऐसी बातें बोलते हैं जो बताने में भी मुझे शर्म आएगी। शुरू शुरू में मैं भी तुम्हारी तरह उनके ऐसे वर्ताव से चकित हो जाती थी किन्तु अब आदत हो गई है।"

"क्या पिता जी को बड़े भैया के ऐसे वर्ताव के बारे में पता है?" मैंने भाभी की तरफ देखते हुए पूछा____"क्या आपने पिता जी को उनके ऐसे वर्ताव के बारे में बताया नहीं?"
"हां उन्हें पता है।" भाभी ने कहा____"मैंने ही उन्हें बताया था। मेरे बताने पर पिता जी ने यही कहा कि तुम्हारे भैया का ऐसा वर्ताव शायद इस वजह से होगा कि उन्हें अपने बारे में वो भविष्यवाणी पता चल गई है जिसकी वजह से वो रात दिन उस बारे में सोचते होंगे और वो सब सोच सोच कर खुद को हलकान करते होंगे। इस वजह से किसी किसी दिन वो थोड़ा चिड़चिड़े हो कर ऐसा वर्ताव करते हैं।"

"क्या आपने और पिता जी ने बड़े भैया से उनके ऐसे वर्ताव के बारे में कुछ नहीं पूछा?" मैंने कहा____"जब आपको और पिता जी को उनके बारे में सब पता है तो उनके लिए आप दोनों को फिक्रमंद होना चाहिए था। उन्हें हर हाल में खुश रखने की कोशिश करनी चाहिए थी।"

"तुम्हें क्या लगता है वैभव कि हमने ऐसी कोशिश ही नहीं की?" भाभी ने गंभीर भाव से कहा____"नहीं वैभव, हमने इस बारे में तुम्हारे भैया से बहुत पूछा लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया। दादा ठाकुर कई बार उन्हें अपने साथ ले कर शहर गए और वहां अकेले में उनसे उनके उस वर्ताव के बारे में पूछा लेकिन तुम्हारे भैया ने उन्हें कुछ नहीं बताया। सिर्फ ये कहा कि उन्हें अब हर चीज़ से नफ़रत सी हो गई है। मैं उनकी पत्नी हूं वैभव और मुझे उनके लिए सबसे ज़्यादा दुःख है। हर रोज़ उनसे पूछती हूं और समझाती भी हूं। थोड़े समय के लिए उनका वर्ताव बहुत अच्छा हो जाता है लेकिन सुबह आँख खुलते ही उनका वर्ताव फिर से वैसा ही हो जाता है। मैं रात दिन इसी सोच में कुढ़ती रहती हूं कि आख़िर उन्हें कैसे खुश रखूं? संसार के सभी देवी देवताओं की पूजा भक्ति करती हूं लेकिन कोई फायदा नहीं हो रहा। आज जिस तरह के हालात बने हुए हैं उसे देख कर ये भी ख़याल रखना पड़ता है कि उनके बारे में ऐसी बात हवेली के बाहर न जाए वरना जो भी हमारा दुश्मन होगा उसे इस बात से यकीनन कोई न कोई फायदा हो जाएगा। हवेली में भी उनके बारे में ऐसी बात बाकी किसी को पता नहीं है। हवेली में किसी को उनके बारे में इसी लिए नहीं बताया गया क्योंकि ऐसी बातें माँ जी के कानों तक भी पहुंच जाएंगी और माँ जी उनके बारे में ऐसी बातें सहन नहीं कर पाएंगी। झूठी ही सही लेकिन अपने चेहरे पर हंसी और मुस्कान सजा कर रखनी पड़ती है ताकि हवेली में इस बात की भनक किसी भी तरह से किसी को न लग सके। सबसे ज़्यादा दुखी तो मैं हूं वैभव क्योंकि उन्हीं से तो मेरा सब कुछ है। अगर उन्हें ही कुछ हो गया तो मेरा तो सब कुछ उजड़ ही जायेगा न।"

भाभी ये सब कहने के बाद फफक फफक कर रोने लगीं थी। उनकी बातों ने मेरे दिलो दिमाग़ को झकझोर कर रख दिया था। मुझे एहसास हो रहा था कि इतना सब कुछ होने के बाद भाभी के लिए इस हवेली में सबके सामने अपने होठों पर मुस्कान सजा के रहना कितना मुश्किल होता होगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि ईश्वर मेरी देवी सामान भाभी के भाग्य में ऐसा दुःख क्यों लिख दिया था? इतनी छोटी सी उम्र में उन्हें विधवा बना देने का अन्याय क्यों कर रहा था? मेरी नज़र भाभी के रोते हुए चेहरे पर पड़ी। दुःख और पीड़ा के भाव से उनका खूबसूरत चेहरा बिगड़ गया था। मेरे दिल में एक हूक सी उठी और मैंने धीरे से उनके कंधे पर अपना एक हाथ रखा तो उन्होंने चेहरा उठा कर मेरी तरफ देखा और फिर एक झटके से मेरे सीने से लिपट ग‌ईं। उनके लिपटते ही मेरा वजूद जैसे हिल सा गया। इस वक़्त मेरे मन में उनके लिए कोई भी ग़लत भावना नहीं थी बल्कि मैं बड़े प्यार से उन्हें खुद से छुपका कर उन्हें दिलाशा देने लगा था।

"मत रोइए भाभी।" मैंने उन्हें चुप कराने की गरज़ से कहा____"बड़े भैया को कुछ नहीं होगा। मैं अपने बड़े भैया को कुछ होने भी नहीं दूंगा। भगवान के लिए चुप हो जाइए। आप तो मेरी सबसे अच्छी और बहादुर भाभी हैं। आप इस तरह से हिम्मत नहीं हार सकती हैं। सब कुछ ठीक हो जाएगा। मेरे रहते भैया को कुछ नहीं होगा।"

"मुझे झूठा दिलासा मत दो वैभव।" भाभी ने मुझसे अलग हो कर और दुखी भाव से कहा____"तुम किसी के प्रारब्ध को नहीं बदल सकते और न ही तुम भगवान के लिखे को मिटा सकते हो। अब तो सारी ज़िन्दगी मुझे यूं ही तड़प तड़प के जीना है।"

"माना कि मैं किसी के प्रारब्ध को नहीं बदल सकता और न ही भगवान के लिखे को मिटा सकता हूं।" मैंने भाभी से कहा____"लेकिन अपनी आख़िरी सांस तक सब कुछ ठीक कर देने की कोशिश तो कर ही सकता हूं न भाभी? अभी तक तो मुझे अपनी किसी भी ज़िम्मेदारी का एहसास ही नहीं था लेकिन अब मैं हर ज़िम्मेदारी को अपनी जान दे कर भी निभाउंगा और ये मैं यूं ही नहीं कह रहा बल्कि ये वैभव सिंह का वादा है आपसे...और हां एक वादा मैं आपसे भी चाहता हूं।"

"मुझसे??" भाभी ने थोड़े हैरानी भरे भाव से मुझे देखा।
"हां भाभी।" मैंने कहा____"आपसे भी मुझे एक वादा चाहिए और वो ये कि आप ख़ुद को दुखी नहीं रखेंगी और अपनी आँखों से इस तरह आँसू नहीं बहाएंगी। मुझसे वादा कीजिए भाभी।"

"बहुत मुश्किल है वैभव।" भाभी की आँख से आंसू का एक कतरा छलक कर उनके खूबसूरत गाल पर बह आया जिसे मैंने अपने एक हाथ से पोंछा और फिर उनकी तरफ देखते हुए कहा____"ये आख़िरी आंसू था भाभी जो आपकी आँखों से निकला है। अब से कोई आंसू नहीं निकलना चाहिए। मुझसे वादा कीजिए कि अब से आप न तो ख़ुद को दुखी रखेंगी और न ही अपनी आँखों से आंसू बहाएंगी।"

मेरे कहने पर भाभी मुझे कुछ पलों तक अपलक देखती रहीं और फिर हल्के से अपना सिर हां में हिलाया। रोने की वजह से उनका बेदाग़ और खूबसूरत चेहरा थोड़ा मलिन हो गया था। मैं ख़ामोशी से कुछ पलों तक उन्हें देखता रहा और फिर बिना कुछ कहे उसी ख़ामोशी से पलट कर कमरे से बाहर निकल गया। इस वक़्त मेरे ज़हन में भैया और भाभी ही थे और मैं उन दोनों के बारे में सोचते हुए हवेली से बाहर निकल गया।

☆☆☆

उस वक़्त शाम पूरी तरह से घिर चुकी थी और रात का अँधेरा धीरे धीरे पूरी कायनात को अपनी आगोश में समेटने लगा था। हालांकि इस वक़्त ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ था क्योंकि गांव के लोग अभी जाग ही रहे थे। बिजली इस वक़्त गई हुई थी इस लिए घरों में लालटेन के जलने का प्रकाश दिख रहा था। मैं पैदल ही अँधेरे में चलता हुआ एक तरफ तेज़ी से बढ़ा चला जा रहा था। ये गांव का पूर्वी छोर था और इस छोर पर मैं साढ़े चार महीने बाद आया था। मैं अकेला था और पैदल ही चल रहा था इस लिए इस बात का भी ख़याल था मुझे कि मेरे आस पास मेरा कोई दुश्मन न मौजूद हो जो आज कल मेरी ही फ़िराक में है। हालांकि दादा ठाकुर ने मेरी सुरक्षा के लिए एक साए को लगा रखा है लेकिन अपनी तरफ से भी सतर्क रहना मेरे लिए निहायत ही ज़रूरी था।

काफी देर तक पैदल चलने के बाद मैं एक पक्के मकान के पास आ कर रुक गया। मकान के बगल से नीम का एक बड़ा सा पेड़ था जिसके नीचे चबूतरा बना हुआ था। इस वक़्त चबूतरे पर कोई नहीं था। मैंने देखा मकान का दरवाज़ा खुला हुआ है और अंदर लालटेन का हल्का प्रकाश फैला हुआ है। मैं नीम के पेड़ के पास ही अँधेरे में खड़ा हुआ था। आस पास और भी घर थे लेकिन घर के बाहर इस वक़्त कोई नहीं दिख रहा था। मैंने आस पास का अच्छे से मुआयना किया और फिर उस पक्के मकान के खुले हुए दरवाज़े की तरफ बढ़ चला।

मैं चलते हुए अभी उस दरवाज़े के क़रीब पंहुचा ही था कि तभी अंदर से मेरी ही उम्र का जो शख़्स आता हुआ दिखा मुझे वो चेतन था। उसे देख कर मैं अपनी जगह पर रुक गया। बाहर क्योंकि अँधेरा था इस लिए वो मुझे देख नहीं सकता था। ख़ैर कुछ ही पलों में जब वो दरवाज़े के बाहर अँधेरे में आया तो मैंने उसे दबोच लिया और जल्दी से उसके मुख पर अपने एक हाथ ही हथेली रख दी। चेतन मेरे द्वारा अचानक की गई इस हरकत से बुरी तरह डर गया और मुझसे छूटने की कोशिश करने ही लगा था कि तभी मैंने गुर्राते हुए धीमी आवाज़ में कहा____"ज़्यादा फड़फड़ा मत वरना एक ही झटके में तेरी गर्दन मरोड़ दूंगा। उसके बाद क्या होगा ये बताने की ज़रूरत नहीं है मुझे।"

चेतन मेरी सर्द आवाज़ सुन कर एकदम से ढीला पड़ गया। वो मेरी आवाज़ से मुझे पहचान चुका था। जब वो ढीला पड़ गया तो मैंने धीरे से ही कहा____"डर मत, मैं तेरे साथ कुछ नहीं करुंगा लेकिन हां ज़्यादा तेज़ आवाज़ की तो जान से मार दूंगा तुझे। बात समझ में आई कि नहीं?"

मेरे कहने पर उसने हां में अपने सिर को जल्दी से हिलाया तो मैंने उसे छोड़ दिया। मेरे छोड़ देने पर चेतन एकदम से मुझसे दूर हुआ और अपनी उखड़ी हुई साँसों को काबू करते हुए कहा____"ये क्या था वैभव? तूने तो मेरी जान ही निकल दी थी।"

"मेरे साथ चल।" मैंने कहा तो उसने चौंक कर पूछा____"कहां चलूं?"
"जहन्नुम में।" मैंने शख़्त भाव से कहा तो चेतन अँधेरे में मुझे कुछ पलों तक घूरा और फिर मेरे पीछे चल पड़ा।

मैं चलते हुए नीम के पेड़ के पास आ कर रुक गया तो चेतन भी रुक गया। वो मेरे पास ही खड़ा था इस लिए उसके चेहरे के भावों से मैं समझ सकता था कि इस वक़्त उसके मन में क्या चल रहा है।

"मुझे समझ नहीं आ रहा कि तू इस वक़्त यहाँ कैसे?" चेतन से जब न रहा गया तो उसने मुझसे कहा____"क्या मेरी ग़लती की सज़ा देने आया है यहाँ?"
"भूल जा उस बात को।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"मैंने तुम दोनों को माफ़ कर देने का फैसला किया है लेकिन....।"

"लेकिन???" चेतन हकलया।
"लेकिन ये कि उसके लिए मैं तुम दोनों को जो कहूंगा वो करना पड़ेगा।" मैंने शख़्त भाव से ये कहा तो चेतन जल्दी से बोल पड़ा____"बिल्कुल करेंगे भाई। तू बस एक बार बोल के तो देख।"

"ठीक है।" मैंने कहा____"कल सुनील के साथ गांव के बाहर उसी जगह पर मिलना जहां पर हम पहले मिला करते थे।"
"क्या कोई नई माल हाथ लगी है?" चेतन ने खुश होते हुए जल्दी से पूछा तो मैंने उसके पेट में हल्के से एक मुक्का जड़ते हुए कहा____"बुरचटने साले। तुझे क्या मैं दल्ला नज़र आता हूं?"

"तो फिर मेरा सुनील के साथ उस जगह मिलने से तेरा क्या मतलब है?" चेतन ने कराहते हुए कहा तो मैंने कहा____"मेरा मतलब तुम दोनों की गांड मारने से है। आज रात तू अपनी गांड में अच्छे से तेल लगा लेना ताकि कल जब मैं तेरी गांड में अपना सूखा लंड डालूं तो तुझे दर्द न हो गांडू।"

"ये क्या कह रहा है तू?" चेतन की हवा निकल गई, घबरा कर बोला____"भगवान के लिए ऐसा मत करना वैभव। क्या गांड मारने के लिए तुझे कोई लड़की नहीं मिली जो अब तू हम दोनों की मारने की बात कह रहा है?"

"बकवास बंद कर भोसड़ी के।" मैंने इस बार गुस्से में कहा____"मुझे तुम दोनों की सड़ियल गांड में कोई दिलचस्पी नहीं है। अब जा अपनी गांड मरा। कल समय से उस जगह पर मिल जाना वरना तेरे घर आ कर तेरी गांड मारुंगा।"

चेतन मेरी बात सुन कर मूर्खों की तरह मेरी तरफ देखता रह गया था और मैं पलट कर हवेली की तरफ वापस चल पड़ा था। मेरे ज़हन में इस वक़्त कई सारी बातें चल रहीं थी जिनके बारे में मैं गहराई से विचार करता जा रहा था।

☆☆☆

जब मैं हवेली पंहुचा तो माँ से सामना हो गया मेरा। उन्होंने मुझे देखते ही पूछा कि कहां चला गया था तू? उन्होंने बताया कि उन्होंने खुद मुझे हवेली में हर जगह खोजा था लेकिन मैं उन्हें कहीं नहीं मिला था। उनके पूछने पर मैंने उन्हें बताया कि मैं बाहर खुली हवा लेने गया था। मेरी बात सुनने के बाद माँ ने कुछ पलों तक मुझे देखा और फिर बोलीं कि खाने के लिए सब मेरा इंतज़ार कर रहे हैं।

गुसलखाने में जा कर मैंने हाथ मुँह धोया और सबके साथ खाना खाने आ गया। आज खाने पर काफी सारे लोग बैठे हुए थे। जगताप चाचा जी के लड़के भी थे किन्तु मेरी नज़र बड़े भैया पर थी। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। मुझ पर नज़र पड़ते ही उन्होंने इस तरह से अपना मुँह फेर लिया जैसे वो मुझे देखना ही नहीं चाहते थे। मुझे उनके इस वर्ताव से थोड़ा दुःख तो हुआ लेकिन फिर ये सोच कर खुद को समझा लिया कि इसमें शायद उनकी कोई ग़लती नहीं है बल्कि इसके पीछे वही वजह है जिसके बारे में भाभी ने बताया था। मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब मुझे क्या करना है। ख़ैर हम सबने पिता जी की इजाज़त मिलते ही ख़ामोशी से भोजन करना शुरू किया।

खाना खाने के बाद सब अपने अपने कमरों की तरफ चले गए। मैं भी चुपचाप अपने कमरे की तरफ चल दिया तो आगे बरामदे के पास मुझे कुसुम मिल गई। मैंने उसे खाना खाने के बाद मेरे कमरे में आने को कहा तो उसने सिर हिला दिया। बिजली आ गई थी इस लिए हवेली में हर तरफ उजाला फैला हुआ था। मैं आँगन से न जा कर लम्बे चौड़े बरामदे से चल कर दूसरी तरफ जा रहा था। असल में मेरी नज़र उस नौकरानी को खोज रही थी जो मेनका चाची से बातें कर रही थी और मुझे देखते ही घबरा सी गई थी।

बरामदे से चलते हुए मैं दूसरी तरफ आ गया। इस बीच मुझे दूसरी कई नौकरानियाँ दिखीं लेकिन वो नौकरानी मुझे नज़र न आई। हवेली इतनी बड़ी थी कि उसमे कमरों की कोई कमी नहीं थी। हवेली के सभी नौकर और नौकरानियों के लिए अलग अलग कमरे थे जो हवेली के बाएं छोर पर थे। हालांकि कुछ नौकर और नौकरानी शाम को अपने अपने घर चले जाते थे लेकिन कुछ हवेली में ही रहते थे। माँ और चाची के लिए दो दो नौकरानियाँ थी। जिनमे से एक एक माँ और चाची के कपड़े धोती थी और दूसरी उनका श्रृंगार करती थी। भाभी के लिए भी इसी तरह दो नौकरानियाँ थी। हालांकि भाभी को अपने काम खुद करना पसंद था किन्तु माँ की बात रखने के लिए उन्हें नौकरानियों को काम देना पड़ता था। बाकी की नौकरानियाँ मर्दों के कपड़े धोती थी और हवेली की साफ़ सफाई करती थी। नौकरों का काम हवेली के बाहर की साफ़ सफाई का था जिसमे बग्घी वाले घोड़ों की देख भाल करना भी शामिल था।

मैं दूसरी तरफ आ चुका था। मेरी नज़र अभी उस नौकरानी को खोज रही थी। मेरे मन में ख़याल उभरा कि क्या वो नौकरानी मेनका चाची की होगी? क्योंकि वो उन्हीं के पास खड़ी थी और चाची उससे बातें कर रही थी। मैंने कभी इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया था कि हवेली में रहने वाली नौकरानियों में कौन किसका काम करती हैं। पहले वाली सभी नौकरानियों को पिता जी ने मेरी वजह से हवेली से निकाल दिया था। आज अगर वो नौकरानियाँ हवेली में होतीं तो मेरे कहने पर वो कुछ भी कर सकती थीं। ख़ैर मैं सीढ़ियों पर चढ़ कर ऊपर अपने कमरे की तरफ चल पड़ा।

कमरे में आ कर मैंने अपनी कमीज उतारी और पंखा चालू कर के पलंग पर लेट गया। पलंग पर लेटा मैं सोच रहा था कि आज के समय में मेरे सामने कई सारे ऐसे मामले थे जिनको मुझे सुलझाना था। पहला मामला मुरारी काका की हत्या का था जो कि दिन-ब-दिन एक रहस्य सा बनता जा रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर किस वजह से मुरारी काका का क़त्ल किया गया होगा? क्या सिर्फ इस लिए कि उनकी हत्या कर के मुझे फंसा दिया जाए और उनकी हत्या के जुर्म में कानूनन मुझे जेल हो जाए? पिता जी का तो यही सोचना था इस बारे में। ख़ैर दूसरा मामला था साहूकारों का कि उन्होंने क्या सोच कर हमसे अपने रिश्ते सुधारे होंगे? क्या ऐसा करने के पीछे सच में उनका कोई मकसद छिपा है? तीसरा मामला था हवेली में रहने वाले मेरे चचेरे भाइयों का। आख़िर मैंने उनका क्या बुरा किया है जिसकी वजह से वो दोनों मुझसे दूर दूर रहते हैं? चौथा मामला था मेरे बड़े भाई साहब का जो कि किसी रहस्य से कम नहीं था। कुल गुरु ने उनके बारे में भविष्यवाणी की है कि उनका जीवन काल बस कुछ ही समय का है। सवाल है कि आख़िर ऐसा क्यों? वहीं एक तरफ सोचने वाला सवाल ये भी है कि आख़िर बड़े भैया का वर्ताव ऐसा क्यों हो जाता है कि वो मुझसे या भाभी से गुस्सा हो जाते हैं? हालांकि एक सवाल तो ये भी है कि क्या उनका ऐसा वर्ताव हवेली के बाकी लोगों के साथ भी है या उनके ऐसे वर्ताव के शिकार सिर्फ मैं और भाभी ही हैं? पांचवा मामला था कुसुम का। हमेशा अपनी नटखट और चुलबुली हरकतों से हवेली में शोर मचाने वाली कुसुम कभी कभी इतना गंभीर क्यों हो जाती है? आख़िर चार महीने में ऐसा क्या हो गया है जिसने उसे गंभीर बना दिया है? ऐसे अभी और भी मामले थे जो मेरे लिए रहस्य ही बनते जा रहे थे जैसे कि रजनी का रूपचन्द्र के साथ सम्बन्ध और वो दो साए जो मुझे उस दिन बगीचे में मारने आये थे।

मैं इन सभी मामलों में इतना खो गया था कि मुझे पता ही नहीं चला कि कब मेरे कमरे में कुसुम आ कर खड़ी हो गई थी। उसने जब मुझे आवाज़ दी तो मैं चौंक कर विचारों के समुद्र से बाहर आया।

"मैंने आपका नाम सोचन देव ठीक ही रखा है।" कुसुम ने पलंग के किनारे पर बैठते हुए कहा____"पता नहीं आज कल आपको क्या हो गया है कि हर वक़्त कहीं न कहीं खोए हुए ही नज़र आते हैं।"

"वक़्त और हालात ही ऐसे हैं कि मुझे हर पल खो जाने पर मजबूर किए रहते हैं।" मैंने थोड़ा सा उठ कर पलंग की पुष्ट पर अपनी पीठ टिकाते हुए कहा____"ख़ैर ये सब छोड़ और ये बता खाना खा लिया तूने?"

"हां खाना खा कर ही आई हूं यहां।" कुसुम ने कहा____"आप बताइए किस लिए बुलाया था मुझे?"
"अगर मैं तुझसे ये पूछूं कि तू मुझसे कितना प्यार करती है।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए ख़ास भाव से कहा____"तो क्या तू इसका सच सच जवाब देगी?"

"ये...ये क्या कह रहे हैं आप?" कुसुम ने हैरत से मेरी तरफ देखते हुए कहा तो मैंने कहा____"क्यों क्या ग़लत कह रहा हूं मैं? क्या तू अपने इस भाई से प्यार नहीं करती?"
"वो तो मैं करती हूं।" कुसुम ने कहा____"एक आप ही तो हैं जो मेरे सबसे अच्छे वाले भैया हैं। भला कौन ऐसी बहन होगी जो ऐसे भाई से प्यार नहीं करेगी? आप ये क्यों पूछ रहे हैं?"

"वो इस लिए कि तू अपने इस भाई से सच छुपा रही है।" मैंने उसके चेहरे की तरफ देखते हुए कहा____"अगर तू सच में अपने इस भाई से प्यार करती है तो मुझे वो बता जिसे तू मुझसे छुपा रही है। मुझे बता कि इन चार महीनों में यहाँ पर ऐसा क्या हुआ है जिसने तुझे गंभीर बना दिया है?"

"ऐसी कोई बात नहीं है भइया।" कुसुम ने नज़रें चुराते हुए कहा____"आप बेवजह ही इस बात की शंका कर रहे हैं। मैं तो वैसी ही हूं जैसी हमेशा से थी। आपको ऐसा क्यों लगता है कि चार महीनों में यहाँ पर कुछ ऐसा हुआ है जिसने मुझे गंभीर बना दिया है?"

"तूने शायद भुला दिया होगा लेकिन मुझे अभी भी याद है।" मैंने कहा____"जब मैं चार महीने बाद यहाँ आया था तब इसी कमरे में मेरी तुझसे बातें हो रही थी। उन्हीं बातों में तूने मुझसे कहा था कि यहाँ तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ख़ुशी से ऐसे भी काम करते हैं जिसे वो गुनाह नहीं समझते। अब बता बहना, तू उस वक़्त ऐसे किन लोगों की बात कर रही थी और हां मुझसे झूठ मत बोलना। मुझे सच सुनना है तुझसे।"

मेरी बात सुन कर कुसम के चेहरे पर एकदम से कई सारे भाव आते जाते दिखाई देने लगे। वो एकदम से मुझे कुछ परेशान सी और कुछ घबराई हुई सी दिखाई देने लगी थी। उसके खूबसूरत और मासूम से चेहरे पर बेचैनी से पसीना उभर आया था। मैं अपलक उसी को देख रहा था और समझ भी रहा था कि उसके मन में बड़ी तेज़ी से कुछ चलने लगा है।

"क्या हुआ?" जब वो कुछ न बोली तो मैंने कहा____"तू इतना परेशान और घबराई हुई सी क्यों दिखने लगी है? आख़िर क्या बात है बहना? मुझसे बेझिझक हो कर बता। तू अच्छी तरह जानती है कि तेरा ये भाई तुझे किसी भी हालत में परेशान या दुखी होते नहीं देख सकता। अगर कोई बात है तो तू मुझे बिना संकोच के बता दे। मैं तुझसे वादा करता हूं कि मेरे रहते तुझे कोई कुछ नहीं कहेगा।"

मेरी बात सुन कर कुसुम ने नज़र उठा कर मेरी तरफ देखा। उसके चेहरे पर दुःख और पीड़ा के भाव उभर आये थे। उसकी आँखों में आंसू तैरते हुए नज़र आए मुझे। उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठ कांप रहे थे। अभी शायद वो कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी कमरे के बाहर से एक आवाज़ आई जिसे सुन कर कुसुम के साथ साथ मेरा भी ध्यान उस आवाज़ पर गया। कमरे के बाहर विभोर था और वो कुसुम को आवाज़ दे कर ये कहा था कि माँ बुला रही हैं उसे। विभोर की ये बात सुन कर कुसुम ने मेरी तरफ बेबस भाव से देखा और फिर चुपचाप पलंग से उठ कर कमरे से बाहर चली गई।

कुसुम तो चली गई थी लेकिन मैं ये सोचने पर मजबूर हो गया था कि आख़िर ऐसी क्या बात थी कि मेरे पूछने पर उसके चेहरे पर इस तरह के भाव मानो तांडव सा करने लगे थे? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी मैं चौंका। मेरे ज़हन में बिजली की तरह ये ख़याल उभरा कि विभोर की आवाज़ ठीक उसी वक़्त क्यों आई थी जब कुसुम शायद मुझसे कुछ बोलने वाली थी? क्या ये इत्तेफ़ाक़ था या फिर जान बूझ कर उसने उसी वक़्त कुसुम को आवाज़ दी थी? यानि हो सकता है कि वो कमरे के बाहर छुप कर हमारी बातें सुन रहा होगा और जैसे ही उसे आभास हुआ कि कुसुम मुझे कुछ बताने वाली है तो उसने उसे आवाज़ लगा दी। मुझे अपना ये ख़्याल जंचा तो ज़रूर किन्तु मैं ख़ुद ये निर्णय नहीं ले सका कि मेरे इस ख़्याल में कोई सच्चाई है भी अथवा नहीं?
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