Hindi Xkahani - प्यार का सबूत

अध्याय - 159
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"आय हाय! समय नहीं है तेरे पास।" शालिनी ने आंखें फैलाई____"ज़्यादा बातें न कर मेरे सामने। मुझे पता है कि आज कल तू खाली बैठी जीजा जी के हसीन ख़यालों में ही खोई रहती है, बात करती है।"

उसकी बात सुन कर रागिनी झूठा गुस्सा दिखाते हुए उसे मारने के लिए दौड़ी तो शालिनी हंसते हुए भाग ली। उसके जाने के बाद रागिनी भी मंद मंद मुस्कुराते हुए घर के अंदर चली गई।

अब आगे....


अगले दो दिनों के भीतर ही हवेली में नात रिश्तेदार आ गए। मेरे ननिहाल वाले और चाची के मायके से भी आ गए। मेरे ननिहाल से नाना नानी और बड़े मामा मामी को छोड़ कर सभी आ गए जिनमें उनके बच्चे भी थे। उधर चाची के मायके से उनके बड़े भैया भाभी आए। उनके मझले भाई अवधराज नहीं आए। ऐसा शायद इस लिए कि जगताप चाचा को जो ज्ञान उन्होंने दिया था उसके चलते अब वो यहां किसी को अपना मुंह नहीं दिखाना चाहते थे। किंतु अपने बच्चों को ज़रूर भेज दिया था।

हवेली में एकदम भीड़ सी जमा हो गई थी। अंदर इंसान ही इंसान नज़र आने लगे थे। पिता जी के कहने पर मैंने सबके रहने की उचित व्यवस्था की जोकि इतनी बड़ी हवेली में कोई मुश्किल काम नहीं था। नीचे ऊपर के बहुत से कमरे खाली ही रहते थे। सबके आ जाने से एक अलग ही रौनक और चहल पहल नज़र आने लगी थी।

मेरे मझले मामा यानि अवधेश सिंह राणा और छोटे मामा यानि अमर सिंह राणा बैठक में पिता जी के पास बैठे हुए थे। मझले मामा का बेटा महेश सिंह राणा जोकि शादी शुदा था वो भी बैठक में ही था। इसके साथ ही चाची के बड़े भाई हेमराज सिंह भी बैठे हुए थे। उनकी पत्नी सुजाता अंदर मां लोगों के पास थीं। अमर मामा के लड़के लड़कियां भी अंदर ही थे।

छोटे मामा की दोनों बेटियां यानि सुमन और सुषमा जोकि उमर में कुसुम से क़रीब एक डेढ़ साल छोटी थीं वो अंदर कुसुम के साथ थीं और उनका छोटा किंतु इकलौता भाई विजय मां लोगों के पास बैठा हुआ था। मैं जब छोटा था तो अपने ननिहाल अक्सर जाया करता था और ज़्यादा समय तक वहीं रहता था लेकिन फिर जैसे जैसे बड़ा हुआ और मुझमें बदलाव आया तो मैंने वहां जाना कम कर दिया था।

मुझे भीड़ भाड़ वाला माहौल ज़्यादा पसंद नहीं था इस लिए मैं सबकी व्यवस्था करने के बाद चुपचाप अपने कमरे में पहुंच गया था। एकाएक ही हालात के बदलने से मेरे अंदर अजीब सा एहसास होने लगा था। बार बार यही ख़याल उभर आता कि अब बस कुछ ही दिनों में मेरा विवाह हो जाएगा और मैं भी शादी शुदा हो जाऊंगा। लोगों के एक ही बीवी होती है जबकि मेरी दो हो जाएंगी। एक तरफ रूपा और दूसरी तरफ रागिनी...हां अब तो भाभी को मुझे उनके नाम से पुकारना होगा। इस एहसास के साथ ही मेरे अंदर अजीब सी सिहरन दौड़ गई। पलक झपकते ही भाभी का खूबसूरत चेहरा आंखों के सामने उजागर हो गया।

उफ्फ! कितनी सुंदर हैं वो। जब भैया जीवित थे तब वो सुहागन थीं और सुहागन के रूप में उनकी सुंदरता देखते ही बनती थी। मैं यूं ही तो नहीं उनके सम्मोहन में फंस जाता था। मैंने अपने ख़यालों में फिर से उन्हें सुहागन के रूप में सजा हुआ देखा तो मेरे अंदर फिर से अजीब सी सिहरन दौड़ गई। बिजली की तरह ज़हन में ख़याल भी उभर आया कि सुंदरता की यही मूरत अब मेरी पत्नी बनने वाली है। विवाह के बाद मुझे उनके साथ पति की तरह ही पेश आना होगा। मैं सोचने लगा कि क्या मैं सहजता से ऐसा कर पाऊंगा? आख़िर वो अब तक मेरी भाभी थीं और उमर में भी मुझसे बड़ी थीं। आख़िर कैसे एक पति के रूप में मैं उनके साथ पेश आ पाऊंगा? रूपा के मामले में मुझे कोई फ़िक्र नहीं थी क्योंकि उसके मामले में मैं पहले से ही पूरी तरह सहज था। उसके साथ मैं पहले भी वो सब कुछ कर चुका था जो शादी के बाद पति पत्नी करते हैं लेकिन भाभी के बारे में तो मैंने कभी इस तरह की कोई कल्पना ही नहीं की थी। भाभी के रिश्ते में उनसे थोड़ा बहुत हंसी मज़ाक कर लेता था लेकिन उसमें भी मैं हमारे बीच की मर्यादा का सबसे ज़्यादा ख़याल रखता था।

मैं जैसे जैसे इस सबके बारे में सोचता जा रहा था वैसे वैसे मेरे अंदर बेचैनी और घबराहट सी पैदा होती का रही थी। मैं चाह कर भी खुद को सामान्य नहीं कर पा रहा था। ऐसा नहीं था कि मैं भाभी को अब अपनी पत्नी की नज़र से देखने और सोचने नहीं लगा था लेकिन जहां बात इसके आगे की आती थी वहां की बातें सोच कर मेरे जिस्म में सिहरन दौड़ने लगती थी और बड़ा अजीब सा लगने लगता था।

"क्या हाल है मेरे दूल्हे राजा?" अचानक कमरे में गूंज उठी किसी की आवाज़ से मैं उछल ही पड़ा। आंखें खोल कर देखा तो मेरे छोटे मामा अमर सिंह कमरे में दाख़िल हो कर मुझे ही देख रहे थे। चेहरे पर खुशी और होठों पर गहरी मुस्कान लिए जैसे वो मुझे चिढ़ाते से नज़र आए। छोटे मामा से मेरी खूब पटती थी।

"अरे! मामा ये आप हैं?" मैंने उठते हुए कहा____"अचानक से आपकी आवाज़ सुन कर मैं चौंक ही पड़ा था। आइए बैठिए।"

"वो तो मैं बैठूंगा ही।" मामा ने मुस्कुराते हुए कहा और फिर आ कर पलंग के किनारे पर बैठ गए। कुछ पलों तक मुझे ध्यान से देखते रहे फिर बोले____"अच्छा तो यहां अपने कमरे में अकेले पड़ा तू खुद को तैयार करने में जुटा हुआ है।"

"क...क्या मतलब है आपका?" मैं समझ तो गया लेकिन फिर भी अंजान बनते हुए पूछा।

"बेटा अच्छी तरह जानता हूं तुझे।" मामा ने घूरते हुए कहा____"मेरे सामने अंजान बनने की कोशिश मत कर। मुझे पता है कि तू आने वाले दिनों के लिए खुद को तैयार का रहा है। वैसे अच्छा ही है, तैयार करना भी चाहिए। आदमी जब एक बीवी के लिए खुद को तैयार करने की कोशिश करता है तो तेरे जीवन में तो दो दो बीवियां होंगी। ऐसे में तेरा खुद को तैयार करना उचित ही है। ख़ैर तो अब तक कितना तैयार कर लिया है तूने खुद को?"

"ऐसा कुछ नहीं है मामा।" मैंने अपनी झेंप को जबरन छुपाने की कोशिश करते हुए कहा____"क्या आपको सच में लगता है कि आपके भांजे को किसी बात के लिए तैयार करने की ज़रूरत है? आप तो जानते हैं कि औरतों के मामले में मैं बहुत आगे रहा हूं।"

"बिल्कुल जानता हूं भांजे और मानता भी हूं कि इस मामल में तू बहुत आगे रहा है।" मामा ने कहा____"लेकिन बेटा तुझे ये भी समझना चाहिए कि आम औरतों में और खुद की बीवी में धरती आसमान का फ़र्क होता है। आम औरतों के साथ तू कैसा भी बर्ताव कर के अपनी जान छुड़ा सकता है लेकिन अपनी बीवी से किसी कीमत पर जान नहीं छुड़ा सकता। इसी लिए कहता हूं कि इस मामले में तेरी बयानबाज़ी से कुछ नहीं हो सकता।"

"आप तो मुझे बेवजह डरा रहे हैं मामा।" मैंने अपने अंदर झुरझुरी सी महसूस की____"मैं भला क्यों अपनी बीवियों से जान छुड़ाने का सोचूंगा? बल्कि मैं तो खुद ही ये चाहूंगा कि वो मुझसे दूर न हों।"

"अच्छा ऐसा है क्या?" मामा ने आंखें फैला कर कहा____"फिर तो ये बड़ी अच्छी बात है। कम से कम इसी बहाने अब तू भी सही रास्ते पर आ जाएगा। सच कहूं तो मुझे बहुत खुशी हुई थी ये जान कर कि तेरा ब्याह होने वाला है लेकिन ये जान कर थोड़ी हैरानी भी हुई थी कि तेरा एक नहीं दो दो लड़कियों से ब्याह होने वाला है। तेरे नाना को भी बड़ी हैरानी हुई थी लेकिन फिर जब उन्होंने मामले की गंभीरता को समझा तो फिर वो यही कहने लगे कि ये अच्छा ही हो रहा है। इस तरह से कम से कम रागिनी बहू का जीवन भी फिर से संवर जाएगा। अन्यथा विधवा के रूप में बाकी का सारा जीवन गुज़ारना उसके लिए यकीनन हद से ज़्यादा कठिन होता।"

"ये सब तो ठीक है मामा।" मैंने थोड़ा बेचैन भाव से कहा____"लेकिन सच कहूं तो भाभी से विवाह होने की बात से मुझे बड़ा अजीब सा महसूस होता है। जिस दिन से मुझे इस बारे में पता चला है उसी दिन से जाने क्या क्या सोचते हुए खुद को समझाने की कोशिश कर रहा हूं कि आगे जो भी होगा उसका मैं सहजता से सामना कर लूंगा। मगर सच तो ये है कि अब तक मैं भाभी के लिए खुद को पूरी तरह से तैयार नहीं कर पाया हूं।"

"हां समझ सकता हूं।" मामा ने कहा____"लेकिन अब तो तुझे इसके लिए खुद को तैयार करना ही पड़ेगा। वैसे मैं तो यही कहूंगा कि तुझे इस बारे में ज़्यादा सोचना नहीं चाहिए। असल में कभी कभी ऐसा होता है कि हमें मौजूदा समय में किसी समस्या को सुलझाने का तरीका समझ में नहीं आता लेकिन जब वैसा समय आ जाता है तो सब कुछ बहुत ही सहजता से हो जाता है। इस लिए तू ये सब वक्त पर छोड़ दे। ये सोच कर कि जो होगा देखा जाएगा।"

"हम्म्म्म शायद आप सही कह रहे हैं।" मैंने सिर हिलाते हुए कहा____"और वैसे भी इसके अलावा मेरे पास कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं है। ख़ैर आप अपनी सुनाएं, मामी के साथ कैसी कट रही है जिंदगी?"

"क्या बताऊं भांजे?" मामा ने सहसा गहरी सांस ली____"बस यूं समझ ले कि किसी तरह कट ही रही है।"

"ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" मैं एकदम से चौंका____"सब ठीक तो है ना?"

"क्या ख़ाक ठीक है यार।" मामा ने जैसे खीझते हुए कहा____"साला बच्चे बड़े हो जाते हैं तो हम मर्दों को जाने कैसे कैसे समझौते करने पड़ते हैं। तेरी मामी को बहुत समझाता हूं लेकिन वो मूर्ख कुछ समझती ही नहीं है। मैंने बहुत सी ऐसी औरतों को देखा है जो ज़्यादा उमर हो जाने के बाद भी संभोग सुख का मज़ा लेती रहती हैं और एक तेरी मामी है कि साली अभी से खुद को बुड्ढी कहने लगी है।"

"फिर तो ये आपके लिए बड़ी भारी समस्या हो गई है।" मैंने चकित भाव से कहा____"ख़ैर अब आप क्या करेंगे?"

"करूंगा नहीं बल्कि करने लगा हूं भांजे।" मामा ने कहा____"तू ही बता कि ऐसे में मैं इसके अलावा करता ही क्या कि अपनी भूख मिटाने के लिए बाहर किसी औरत के पास जाऊं? तेरी मामी को भी कहा था कि अगर वो इस बारे में मेरा साथ नहीं देगी तो मुझे बाहर किसी दूसरी औरत के साथ ये सब करना पड़ेगा।"

"तो क्या ये सुनने के बाद भी मामी को समझ नहीं आया?" मैंने हैरानी से पूछा।

"पहले तो गुस्सा हो रही थी।" मामा ने कहा____"कह रही थी कि मेरे अंदर ये कैसी गर्मी चढ़ी है कि मैं इतने बडे बड़े बच्चों का बाप हो जाने के बाद भी ये सब करने पर तुला हुआ हूं? मैंने उसे समझाया कि ये तो उसके लिए अच्छी बात है कि मैं अब भी उसे संभोग का सुख देना चाहता हूं वरना ऐसी भी औरतें हैं जो अपने पति से संभोग सुख पाने के लिए तरसती हैं और फिर वो मज़बूरी में ग़ैर मर्दों से संबंध बना लेती हैं।"

"फिर क्या कहा मामी ने?" मैंने उत्सकुता से पूछा।

"दो तीन दिनों तक बात ही नहीं की उसने।" मामा ने बताया____"मैं भी गुस्सा हो गया था इस लिए मैंने भी उसे मनाने का नहीं सोचा। जब उसे ही कुछ समझ नहीं आ रहा था तो मैंने भी सोच लिया कि अब उससे इस सबकी उम्मीद रखना ही बेकार है। उसके बाद मैंने वही किया जो करने का मैंने मन बना लिया था। तुझे तो पता ही है कि हमारे खेतों में काम करने वाली ऐसी औरतों की कमी नहीं है। मैंने उन्हीं में से एक को इशारा किया और फिर उसके साथ मज़ा किया। तब से यही चल रहा है।"

"और मामी को भी ये सब पता है?" मैंने बेयकीनी से पूछा।

"हां, मैंने बता दिया था उसको।" मामा ने कहा____"जब वो अपने से ही मुझसे बोलने लगी तो मैंने एक दिन उसे सब कुछ बता दिया। ये भी कहा कि अगर वो अब भी मेरे बारे में सोचेगी तो मैं बाहर की औरतों के साथ ये सब करना बंद कर दूंगा।"

"तो फिर क्या कहा मामी ने?" मैंने बड़ी उत्सुकता से पूछा।

"अभी तो कुछ नहीं कहा।" मामा ने कहा____"लेकिन लगता है कि मान जाएगी। ऐसा मैं इस लिए कह रहा हूं क्योंकि दो दिन पहले जब इस बारे में मैंने उसे बताया था तब उसने यही कहा था कि मैं बाहर ये सब करना बंद कर दूं।"

"इसका मतलब ये दो दिन पहले की बात है।" मैंने कहा____"और मामी के ऐसा कहने का शायद मतलब भी यही है कि वो अब आपका कहना मानेंगी।"

"लगता तो यही है।" मामा ने कहा____"लेकिन दो दिन से अभी तक उसने अपनी तरफ से कोई पहल नहीं की है।"

"हो सकता है कि वो खुद पहल करने में शर्म महसूस करती हों।" मैंने जैसे संभावना ज़ाहिर की____"एक काम कीजिए, आज रात आप यहीं पर हवेली के किसी कमरे में एक साथ सोइए। मैं आप दोनों के लिए ऐसी व्यवस्था कर दूंगा। उसके बाद कमरे में आप और मामी जम के मज़ा कीजिएगा।"

"योजना तो बढ़िया है तेरी।" मामा ने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"लेकिन यहां पर अगर किसी को पता चल गया तो क्या सोचेंगे सब हम दोनों के बारे में?"

"किसी के सोचने की फ़िक्र क्यों करते हैं आप?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"सबको पता है कि मामी आपकी अपनी ज़ायदाद हैं। उनके साथ ये सब करना किसी के लिए कोई बड़ी बात कैसे हो जाएगी?"

"हां तू सही कह रहा है।" मामा का चेहरा चमक उठा था____"तो फिर ठीक है भांजे। तू आज रात हमारे लिए बढ़िया सा इंतज़ाम कर दे। मैं भी आज तेरी मामी के साथ इतने समय की पूरी कसर निकालूंगा। साली बहुत मना करती थी ना तो अब बताऊंगा उसे।"

"अपने जज़्बातों पर काबू रखिए मामा।" मैंने हंसते हुए कहा____"जो भी करना बड़े एहतियात से और बड़े प्यार से करना। ये नहीं कि आपकी करतूतों से बाकी सबको भी पता चल जाए कि ठाकुर अमर सिंह अपनी बीवी की चीखें निकाल रहे हैं।"

"मर्द को मज़ा भी तो तभी आता है भांजे।" मामा ने मुस्कुराते हुए कहा____"जब औरत उसके द्वारा पेले जाने से हलक फाड़ कर चीखे। रहम की भीख मांगे।"

"चीखने तक तो ठीक है मामा।" मैंने कहा____"लेकिन रहम की भीख मांगने वाली स्थिति अच्छी नहीं होती। वो स्थिति पाशविक होती है जोकि मर्दों को शोभा नहीं देती।"

"अरे वाह!" मामा ने हैरानी से मेरी तरफ देखा____"ये तू कह रहा है? बड़ी हैरानी की बात है ये तो। मतलब कमाल ही हो गया। हद है, तू तो सच में देव मानुष बन गया है मेरे भांजे।"

"देव मानुष तो नहीं।" मैंने जैसे संशोधन किया____"लेकिन हां एक अच्छा इंसान ज़रूर बनना चाहता हूं। अपने उस अतीत को भूल जाना चाहता हूं जिसमें मैंने जाने कैसे कैसे कुकर्म किए थे।"

"चल अच्छी बात है।" मामा ने मेरा कंधा दबाते हुए कहा____"मैं तो पहले भी तुझसे कहा करता था कि ये सब छोड़ दे लेकिन तब शायद तू ऐसी मानसिकता में ही नहीं था कि तेरे समझ में कुछ आता। ख़ैर अच्छा हुआ कि अब तेरी सोच बदल गई है और तू अच्छा इंसान बनने का सोचने लगा है। उम्मीद करता हूं कि भविष्य में तू जीजा जी से भी बड़ा इंसान बन जाएगा।"

"नहीं मामा।" मैंने अधीरता से कहा____"मैं कभी भी पिता जी से बड़ा या उनके जैसा नहीं बन पाऊंगा। ऐसा इस लिए क्योंकि उनका नाम शुरू से ही हर मामले में साफ और बेदाग़ रहा है। उन्होंने शुरू से ही हर किसी के साथ अच्छा बर्ताव किया था और सबके दुख दूर करते आए हैं। मैंने तो अपने अब तक के जीवन में ऐसे कोई नेक काम किए ही नहीं हैं बल्कि जो भी किया है बुरा ही किया है। इस लिए उनके जैसा इस जन्म में तो बन ही नहीं सकता। किंतु हां ये कोशिश ज़रूर रहेगी कि अब से जो भी करूं वो अच्छा ही करूं।"

कुछ देर और मामा से बातें हुईं उसके बाद दोपहर के खाने का समय हो गया तो हम दोनों कमरे से बाहर निकल गए। मामा से बातें कर के मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा था।

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दोपहर को थोड़ी देर आराम करने के बाद पिता जी और मझले मामा एक साथ किसी काम से बाहर चले गए जबकि बाकी लोग बैठक में बातें करने लगे। मैं भी बैठक में बैठा था और सबकी बातें सुन रहा था। अंदर सभी औरतें और लड़कियां काम में लगीं हुईं थी। ऐसा लग रहा था जैसे किसी को भी एक पल के लिए फुर्सत नहीं थी। कुछ औरतें गेंहू चावल और दाल साफ कर रहीं थी। हवेली के मुलाजिम हवेली को चमकाने में लगे हुए थे, कुछ हवेली के बाहर चारो तरफ की सफाई में लगे हुए थे।

अमर मामा दो बार मुझसे पूछ चुके थे कि आज रात मैंने उनका और मामी का हसीन मिलन कराने के लिए व्यवस्था की है या नहीं? मैंने मुस्कुराते हुए यही कहा कि वो फ़िक्र न करें। बच्चे बड़े हो रहे थे उनके फिर भी उनका अपना बचपना जैसे अभी तक नहीं गया था। मैंने उनसे कह तो दिया था कि वो फ़िक्र न करें लेकिन मैं खुद नहीं जानता था कि मैं सब कुछ करूंगा कैसे? कमरे का इंतज़ाम तो मैं बड़ी आसानी से कर सकता था लेकिन भीड़ भाड़ के माहौल में मामी को उनके पास पहुंचाना जैसे टेढ़ी खीर थी।

बहरहाल शाम तक दुनिया जहान की बातें चलती रहीं उसके बाद अंदर से एक नौकरानी सबके लिए चाय ले कर आ गई। हम सबने चाय पी। इस बीच सबने ये इच्छा जताई कि कुछ देर के लिए गांव घूम लिया जाए। मर्दों के पास फिलहाल के लिए जैसे कोई काम ही नहीं था। उधर पिता जी अभी तक नहीं आए थे।

मामा लोग गांव घूमने चले गए जबकि मैं हवेली के अंदर चला गया। मुझे समय रहते मामा का काम करना था लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि कैसे करूं? मामी के पास जा कर उनसे खुल कर कुछ कह भी नहीं सकता था। यही सब सोचते हुए मैं अपने कमरे में लेटा हुआ था कि तभी मेरे कमरे का दरवाज़ा खुला और कुसुम के साथ मामा की लड़कियां आ गईं।

"आप यहां हैं और हम आपको बैठक में ढूंढने गए थे।" कुसुम ने आते ही कहा____"चलिए उठिए आपको बड़ी मां बुला रहीं हैं।"

"आप यहां अकेले कमरे में क्या कर रहे हैं भैया?" सुमन ने मेरे क़रीब आ कर कहा____"हम सबके साथ क्यों नहीं बैठते हैं?"

"वो इस लिए मेरी प्यारी बहना क्योंकि तेरे इस भैया को भीड़ भाड़ में रहना पसंद नहीं है।" मैंने बड़े स्नेह से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"ख़ैर ये बता यहां तुम दोनों को अच्छा लग रहा है ना?"

"हां भैया।" सुषमा ने खुशी से कहा____"हमें यहां बहुत अच्छा लग रहा है। कुसुम दीदी से हमने बहुत सारी बातें की। दोनों बुआ से बातें की और हां छोटी बुआ के यहां से जो उनके भैया भाभी आए हैं उनसे भी बातें की।"

"ओह! तुम दोनों ने तो सबसे बातें कर ली और सबसे जान पहचान कर ली।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"और अपने इस भैया से बातें करने का अब ध्यान आया है तुम दोनों को, हां?"

"वो हम लोग सबके पास बैठे बातें कर रहे थे न इस लिए आपसे मिलने का समय ही नहीं मिला हमें।" सुमन ने मासूमियत से कहा____"पर अब तो हम अपने भैया के पास आ ही गए ना?"

"चलो अच्छा किया।" मैंने कहा____"अच्छा अब तुम लोग जाओ। मैं भी जा कर देखता हूं कि मां ने किस लिए बुलाया है मुझे?"

थोड़ी ही देर में हम सब नीचे आ गए। मैं मां से मिला और पूछा कि किस लिए मुझे बुलाया है उन्होंने तो मां ने कहा कि मेरी मामियां मुझे पूछ रहीं थी इस लिए बुलाया। ख़ैर मैं दोनों मामियों से मिला। बड़ी मामी ने तो कुशलता ही पूछी किंतु छोटी मामी थोड़ा मज़ाकिया अंदाज़ से मुझे छेड़ने लगीं। सबके सामने मैं शर्माने लगा तो सब हंसने लगीं। कुछ देर बाद मैंने छोटी मामी से कहा कि मुझे उनसे ज़रूरी बात करनी है इस लिए क्या वो रात में मेरे कमरे में आ सकती हैं? मामी मेरी इस बात से राज़ी हो गईं। मैं मन ही मन ये सोच कर खुश हो गया कि चलो काम बन गया।

बहरहाल समय गुज़रा और रात हो गई। पिता जी आ गए थे। हम सब उनके साथ खाना खाने बैठे। आज काफी समय बाद हवेली में इस तरह की रौनक देखने को मिल रही थी। सब खुश थे, इसी हंसी खुशी में खाना ख़त्म हुआ और फिर सब बैठक में आ गए। बैठक में थोड़ी देर इस बारे में चर्चा हुई कि कल क्या क्या करना है उसके बाद सब सोने चले गए। मैं पहले ही अपने कमरे में पहुंच गया था। थोड़ी ही देर में छोटे मामा आ गए।

"अरे! भांजे तूने कुछ किया है या नहीं?" उन्होंने आते ही अपने मतलब की बात पूछी____"देख अब तो सोने का समय भी हो गया है और तूने अब तक अपनी मामी को मेरे पास नहीं भेजा।"

"फ़िक्र मत कीजिए मामा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने मामी को अपने कमरे में बुलाया है। वो आएंगी तो उन्हें किसी बहाने आपके पास भेज दूंगा। थोड़ा सबर कीजिए, आप तो ऐसे उतावले हो रहे हैं जैसे ये सब आप पहली बार करने वाले हैं।"

"अरे! पहली बार नहीं है मानता हूं।" मामा ने खिसियाते हुए कहा____"लेकिन साला लगता तो यही है कि तेरी मामी को पहली बार ही भोगने को मिलेगा। मुझे लगता है कि ऐसा इस लिए लग रहा है क्योंकि काफी समय हो गया उसके साथ मज़ा किए।"

"हां हां समझ गया मैं।" मैंने हल्के से हंसते हुए कहा____"अब आप जाइए। मामी खा पी कर ही आएंगी तब तक आपको इंतज़ार करना पड़ेगा।"

"अब तो इंतज़ार ही करना पड़ेगा भांजे।" मामा ने गहरी सांस ली____"बस तू बीच में धोखा मत करवा देना।"

मामा की इस बात पर मैं हंसा, जबकि वो बाहर निकल गए। मैंने ऊपर ही उनके लिए एक कमरे की व्यवस्था कर दी थी। अब बस इन्तज़ार था मामी के आने का। अगर वो मेरे कमरे में आएंगी तभी कुछ हो सकता था।​
 
अध्याय - 160
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मामा मामी के चक्कर में मैं ना तो रूपा के बारे में सोच पा रहा था और ना ही रागिनी भाभी के बारे में। ज़हन में बस यही चल रहा था कि क्या मामी मेरे कमरे में आएंगी? उनका मेरे कमरे में आना इस लिए भी थोड़ा मुश्किल था क्योंकि औरतें जब सबके पास बैठ कर बातें करने में मशगूल हो जाती हैं तो फिर उन्हें बाकी किसी चीज़ का होश ही नहीं रहता है। दूसरी बात ये भी हो सकती थी कि रात के इस वक्त शायद वो सच में ही न आएं।

बहरहाल, मैं इंतज़ार ही कर सकता था। मुझे ये सोच कर भी हंसी आ रही थी कि मामा बेचारे मन में जाने कैसे कैसे ख़याली पुलाव बनाते हुए अपनी बीवी के आने की प्रतिक्षा कर रहे होंगे। अगर आज वो नहीं आईं तो यकीनन सुबह मुझे उनके गुस्से का शिकार हो जाना पड़ेगा।

क़रीब एक घंटे बाद मेरे कमरे में दस्तक हुई। रात के क़रीब ग्यारह बज रहे थे। आम दिनों की अपेक्षा ये समय ज़्यादा ही था किंतु शादी ब्याह वाले माहौल में थोड़ी देर सवेर हो ही जाती थी। खैर, दत्सक हुई तो मैं समझ गया कि ज़रूर मामी ही आई होंगी। मामी के आने के एहसास से अचानक ही मेरी धड़कनें तेज़ हो गईं।

इससे पहले कि उन्हें दुबारा दस्तक देनी पड़ती मैं फ़ौरन ही दरवाज़े के पास पहुंचा और दरवाज़ा खोल दिया। बाहर सचमुच मामी ही खड़ी थीं। सुर्ख साड़ी में इस वक्त वो ग़ज़ब ही ढा रहीं थी। तीन तीन बच्चों की मां होने के बाद भी रोहिणी मामी भरपूर जवान नज़र आती थीं।

"माफ़ करना वैभव आने में देर हो गई मुझे।" मुझ पर नज़र पड़ते ही उन्होंने अपनी मधुर आवाज़ में कहा____"असल में खाना पीना करने के बाद बर्तन धुलवाने में व्यस्त हो गई थी मैं। अभी जब काम से फारिग हुई तो एकदम से याद आया कि तुमने कोई ज़रूरी बात करने के लिए मुझे बुलाया था।"

"कोई बात नहीं मामी।" मैं दरवाज़े से एक तरफ हटते हुए बोला____"आप अंदर आ जाइए।"

मेरे कहने पर मामी कमरे में आ गईं। इधर मेरी धड़कनें ये सोच कर तेज़ हो गईं कि अब कैसे मामी को मामा तक पहुंचाऊं?

"अब बताओ वैभव।" मैं सोच ही रहा था कि तभी मेरे कानों में मामी की आवाज़ पड़ी____"मुझसे कौन सी ज़रूरी बात करनी थी तुम्हें?"

"वो आपको मुझे मामा के बारे में कुछ बताना था।" मैंने खुद को सम्हालते हुए बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा____"आज मामा मुझसे मिले तो मैंने देखा कि वो बहुत परेशान थे। मेरे पूछने पर भी मुझे कुछ नहीं बताया। फिर मैंने सोचा कि इस बारे में आपसे पूछूंगा। मैं आपसे जानना चाहता हूं मामी कि मेरे मामा आख़िर किस बात से इतना परेशान हैं? आख़िर ऐसी कौन सी बात थी जिसे वो मुझको भी नहीं बता सके?"

मामी मेरी ये बातें सुन कर फ़ौरन कुछ ना बोल सकीं। उनके चेहरे पर सोचो के भाव उभर आए थे। इधर मेरी धड़कनें धाड़ धाड़ कर के बजे जा रहीं थी। मैं खुल कर इस बारे में उनसे कुछ कह नहीं सकता था इस लिए मैंने इस तरह से उनसे बात की ताकि वो इस बात से शर्मिंदगी न महसूस करें कि मुझे उनके बीच की इतनी बड़ी बात पता है। आख़िर हमारे बीच रिश्ता ही ऐसा था जिसके चलते मुझे मर्यादा का ख़याल रखना था।

"क्या हुआ मामी?" मामी जब सोचो में ही गुम रहीं तो मैंने चिंता ज़ाहिर करते हुए उन्हें सोचो से बाहर खींचा____"आप एकदम से क्या सोचने लगीं? मुझे बताइए मामी कि आख़िर बात क्या है? मेरे मामा आख़िर किस बात से इतना ज़्यादा परेशान हैं?"

"कोई बड़ी बात नहीं है वैभव।" मामी ने थोड़ी झिझक और थोड़ा गंभीरता से कहा____"तुम उनके लिए इतनी चिंता मत करो।"

"ऐसे कैसे चिंता न करूं मामी?" मैंने फिक्रमंदी से कहा____"वो मेरे मामा हैं। मैं भला ये कैसे सहन कर लूंगा कि मेरे मामा किसी बात से परेशान रहें? मैं जानना चाहता हूं कि आख़िर उन्हें हुआ क्या है? आपको तो पता ही होगा तो बताइए ना मुझे?"

"वो असल में बात ये है वैभव कि मुझे भी इस बारे में ठीक से पता नहीं है।" मामी ने नज़रें चुराते हुए कहा____"वो कई दिनों से परेशान हैं और मैंने उनसे पूछा भी था लेकिन उन्होंने ठीक से कुछ नहीं बताया।"

"ऐसा कैसे हो सकता है मामी?" मैंने हैरानी ज़ाहिर की____"आप उनकी पत्नी हैं, आपको तो उनसे पूछना ही चाहिए था। उनकी परेशानी के बारे में जान कर आपको उनकी परेशानी भी दूर करनी चाहिए थी।"

"हां मैं समझती हूं वैभव।" मामी ने कहा____"मैं भी चाहती हूं कि उनकी परेशानी दूर हो जाए।"

"अगर आप सच में ऐसा चाहती हैं तो आपको इस बारे में बिल्कुल भी देर नहीं करनी चाहिए।" मैंने अच्छा मौका जान कर कहा____"वो आपके पति हैं और आप उनकी पत्नी इस लिए आप दोनों को एक दूसरे से अपनी अपनी परेशानी बतानी चाहिए और फिर उसको दूर करने का भी प्रयास करना चाहिए।"

"हां ये तो तुम सही कह रहे हो।" मामी ने कहा____"तुम्हारे विवाह के बाद जब हम वापस घर जाएंगे तो मैं उनसे उनकी परेशानी के बारे में ज़ोर दे कर पूछूंगी।"

"मेरा विवाह होने में अभी काफी समय है मामी।" मैंने कहा____"क्या इतने समय तक मामा को परेशानी की हालत में रखना ठीक होगा? मेरा ख़याल है कि बिल्कुल भी ठीक नहीं होगा, इस लिए आपको जल्द से जल्द उनकी परेशानी दूर करने का क़दम उठाना चाहिए।"

"हां लेकिन यहां मैं उनसे कैसे बात कर सकूंगी वैभव?" मामी ने जैसे अपनी समस्या ज़ाहिर की____"तुम्हें तो पता ही है कि यहां इतने लोगों के रहते मैं इस बारे में उनसे बात नहीं कर पाऊंगी और ये उचित भी नहीं होगा।"

"बात जब समस्या वाली हो मामी तो इंसान को ना तो उचित अनुचित के बारे में सोचना चाहिए और ना ही लोगों की परवाह करनी चाहिए।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"इंसान को सिर्फ ये सोचना चाहिए कि उसकी समस्या का जल्द से जल्द निदान हो जाए। वैसे इस समय भी कोई समस्या वाली बात नहीं है। इत्तेफ़ाक से मैंने मामा के सोने का इंतज़ाम यहीं ऊपर ही एक कमरे में कर दिया था। आप एक काम कीजिए, इसी समय उनके पास जाइए और उनसे उनकी परेशानी जान कर उनकी परेशानी को दूर करने का प्रयास कीजिए।"

"ये...ये तुम क्या कह रहे हो वैभव?" मामी ने एकदम से घबराहट जैसे अंदाज़ से मेरी तरफ देखा____"यहां सबके बीच इस तरह मैं उनसे कैसे मिल सकती हूं। लोगों को पता चला तो सब क्या सोचेंगे इस बारे में?"

"फिर से वही बात।" मैंने कहा____"आप फिर लोगों के बारे में सोचने लगीं? जबकि आपको किसी की परवाह न करते हुए सिर्फ अपनी समस्याओं को दूर करने के बारे में सोचना चाहिए। वैसे भी यहां किसी को कुछ पता नहीं चलने वाला। सब दिन भर के थके हुए हैं, बिस्तर में पहुंचते ही घोड़े बेंच कर सो गए होंगे। आप बेझिझक हो कर मामा के पास जाइए और मेरे बारे में तो आपको कुछ सोचने की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि मैं समझता हूं कि इस समय आपके लिए यही उचित है।"

मामी मुझे अपलक देखने लगीं। जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहीं हों। मैंने सोचा कि अगर उन्होंने इस बारे में ज़्यादा दिमाग़ लगाया तो इसी समय समझ जाएंगी कि मुझे सब कुछ पता है और इसी के चलते मैं उनको मामा के पास जाने के लिए ज़ोर दे रहा हूं। ज़ाहिर है इस बात को समझते ही उन्हें मेरे सामने शर्मिंदगी भी होगी जोकि इस वक्त मैं बिल्कुल भी नहीं चाहता था।

बहरहाल मामी ने थोड़ी सी ना नुकुर की लेकिन मैंने किसी तरह उन्हें समझा बुझा कर मामा के कमरे में जाने के लिए मना ही लिया और खुद उन्हें ले कर मामा के कमरे के पास पहुंच गया। मामी मेरी वजह से बहुत ज़्यादा असहज महसूस कर रहीं थी। चेहरे पर लाज की सुर्खी भी छा गई थी। मैंने दरवाज़े पर दस्तक दी और फिर चुपचाप पलट कर अपने कमरे में आ गया। इस बीच मैंने दरवाज़ा खुलने की हल्की आवाज़ सुन ली थी। ज़ाहिर है दरवाज़े के बाहर अपनी पत्नी को खड़ा देख मामा उन्हें अंदर बुला ही लेंगे। अब इतना तो वो कर ही सकते थे।

✮✮✮✮

अगली सुबह मामा नीचे बरामदे में कुर्सी पर बैठे चाय पी रहे थे। उनके चेहरे पर खुशी की चमक दिख रही थी। कुछ दूरी पर मां चाची मामी और बाकी लड़कियां बैठी काम कर रहीं थी। मामा चाय पीते हुए बार बार मामी को देख रहे थे। मैंने जब ये देखा तो मुस्कुरा उठा।

"क्या हाल है मामा।" मैं उनके पास पहुंचते ही उनसे मुस्कुराते हुए पूछा____"इस हवेली में कल की रात कैसी गुज़री आपकी?"

मेरी बात सुनते ही मामा पहले तो सकपकाए फिर एकदम से मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखा और धीरे से कहा____"एकदम ज़बरदस्त भांजे।"

उधर मेरी आवाज़ रोहिणी मामी के कानों में भी पड़ चुकी थी जिसके चलते उन्होंने एक झटके से गर्दन घुमा कर मेरी तरफ देखा। इत्तेफ़ाक से मेरी नज़र भी उनकी तरफ घूम गई। मेरी और मामी की नज़र मिली। घूंघट तो किया हुआ था उन्होंने लेकिन घूंघट का पल्लू इस वक्त सिर्फ उनके सिर को ढंके हुए था। मुझसे नज़र मिलते ही उनके चेहरे पर लाज और शर्म की लाली छा गई और उन्होंने शर्मा कर झट से अपना चेहरा वापस घुमा लिया। मेरे लिए ये समझ लेना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं था कि उनको पता चल गया है कि ये सारा किया धरा मेरा ही था, बल्कि ये कहना चाहिए कि ये सारी योजना ही मामा भांजे की थी।

"फिर तो अच्छी बात है मामा।" मैंने अपनी आवाज़ को सामान्य से थोड़ा ऊंचा करते हुए कहा ताकि मामी भी सुन सकें____"उम्मीद करता हूं अब से हर रोज़ इसी तरह आपकी रात ज़बरदस्त गुज़रेगी।"

"तू मेरा सबसे अच्छा भांजा है वैभव।" मामा कुछ ज़्यादा ही खुश थे इस लिए अपनी खुशी को ज़ाहिर करते हुए बोले____"और मुझे हमेशा तुझ पर नाज़ रहेगा।"

"अरे! ऐसा क्यों कहते हैं मामा?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने भला ऐसा क्या कर दिया है जिसके चलते आपको हमेशा मुझ पर नाज़ रहेगा?"

"अरे! तेरी ही वजह से तो सबको खुशियां मिली हैं।" मामा ने अपनी बात एक बहाने के रूप में कही____"वरना सबके सब खुशियों के लिए तरस ही रहे थे।"

मैंने देखा, मामी ने गर्दन घुमा कर फिर से हमारी तरफ देखा। एक बार फिर से इत्तेफ़ाकन मेरी नज़र उनसे टकरा गई और उन्होंने एकदम से शर्मा कर अपना चेहरा वापस घुमा लिया। मैं समझ गया कि इस वक्त मामी अंदर ही अंदर बुरी तरह शर्मा रही हैं और शायद वो ये सोच कर भी चकित होंगी कि हम दोनों मामा भांजे कैसे इस तरह की बातें बहाने बहाने से कर रहे हैं।

"वैसे तो इसमें मेरा कोई विशेष योगदान नहीं है मामा।" मैंने उसी मुस्कान के साथ कहा____"पर यदि आप इसके लिए मुझे ही श्रेय दे रहे हैं तो मैं आपको बता दूं कि बदले में मुझे भी आपको कुछ देना होगा। सिर्फ बातें कह देने से काम नहीं चलेगा।"

"अरे! तू बता ना भांजे कि बदले में तुझे क्या चाहिए?" मामा ने एकदम से सीना चौड़ा करते हुए कहा____"तेरा ये मामा तुझे वचन देता है कि तू जो मांगेगा मैं तुझे दूंगा।"

"अच्छा क्या सच में?" मैंने ग़ौर से उनकी तरफ देखा।

"अरे! क्या तुझे अपने मामा पर भरोसा नहीं है भांजे?" मामा ने इस तरह की शक्ल बना कर कहा जैसे मैंने उनकी तौहीन कर दी हो।

"नहीं ऐसी तो बात नहीं है मामा।" मैंने एक नज़र मामी पर डालने के बाद कहा____"मैं तो बस ये कहना चाहता था कि वचन देने से पहले आपको अच्छी तरह सोच लेना चाहिए था कि मैं जो मांगूंगा आप वो दे भी सकेंगे या नहीं?"

"देख भांजे।" मामा ने जैसे निर्णायक भाव से कहा____"अब तो मैं तुझे वचन दे चुका हूं इस लिए अब कुछ सोचने विचारने का सवाल ही पैदा नहीं होता। तू बस बेझिझक हो के मांग जो तुझे चाहिए।"

मैंने देखा मामी चकित भाव से हमारी तरफ ही देखने लगीं थी। मैं उन्हें देख मुस्कुराया और फिर मामा से कहा____"ठीक है मामा, लेकिन मैं अपने लिए आपसे कुछ नहीं मागूंगा। मैं तो सिर्फ इतना ही चाहता हूं कि जैसे कल की रात आपके लिए अच्छी गुज़री है वैसी ही हर रात आपकी गुज़रे।"

"अरे! तू तो सच में मेरा कमाल का भांजा है वैभव।" मामा पहले तो हैरान हुए फिर खुशी से मुस्कुराते हुए बोले____"अपने लिए कुछ नहीं मांगा बल्कि मेरी खुशी की चाहत रखी।"

"क्यों न रखूं मामा।" मैंने एक बार फिर से मामी की तरफ एक नज़र डाली, फिर कहा____"आप मेरे सबसे अच्छे वाले मामा हैं और मुझे पता है कि खुशियों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत आपको है। रही मेरी बात तो, आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि मुझे मौजूदा समय में किसी से कुछ मांगने की ज़रूरत ही नहीं है।"

"तुम दोनों मामा भांजे किस बारे में बातें कर रहे हो?" अचानक मां ने गर्दन घुमा कर हमारी तरफ देखते हुए पूछा तो मैं और मामा एकदम से हड़बड़ा गए। उधर मामी के चेहरे का भी रंग उड़ता नज़र आया। मां की बात सुन कर मामा ने जल्दी से खुद को सम्हाला और संतुलित भाव से कहा____"अरे! ये हमारी आपस की बातें हैं दीदी, आप नहीं समझेंगी।"

"अच्छा।" मां के माथे पर शिकन उभरी___"ऐसी भला कौन सी बातें कर रहे हो तुम दोनों जिन्हें मैं समझ ही नहीं सकती, हां?"

"भांजे अब क्या करें यार?" मामा एकदम से चिंतित हो कर मेरी तरफ देख बोले____"दीदी को क्या जवाब दूं? तू ही जल्दी से कुछ सोच और बता उन्हें।"

"क्या हुआ कुछ बोल क्यों नहीं रहा तू?" मां ने मामा की तरफ ध्यान से देखते हुए पूछा और फिर मेरी तरफ देखने लगीं।

"क्या मां आप भी अपना काम छोड़ कर हम मामा भांजे की बातों पर ध्यान देने लगीं।" मैंने झूठी नाराज़गी दिखाते हुए कहा____"हम तो बस ऐसे ही बातें कर रहे हैं, है ना मामा?"

"ह...हां हां और नहीं तो क्या?" मामा एकदम से हकलाते हुए बोल पड़े____"हम तो ऐसे ही समय बिताने के लिए बातें कर रहे हैं दीदी। आप मन लगा कर अपना काम कीजिए ना।"

मैंने देखा मामी हमारी तरफ देखते हुए मुस्कुराए जा रहीं थी। इधर मामा की बात सुन कर मां ने हम दोनों को बारी बारी से घूर कर देखा और फिर पलट कर सबके साथ काम में लग गईं। कहने की ज़रूरत नहीं कि हम दोनों मामा भांजे ने राहत की लंबी सांस ली।

"तूने फंसवा दिया था हम दोनों को।" फिर मामा ने धीरे से मुझसे कहा____"क्या ज़रूरत थी ऊंची आवाज़ में बातें करने की। अच्छा हुआ कि दीदी को समझ नहीं आया वरना हम दोनों की ख़ैर नहीं थी।"

"सही कह रहे हैं आप।" मैंने कहा____"बाल बाल बचे। मैं तो बस मामी को सुनाने के चक्कर में थोड़ा ऊंची आवाज़ में बोल रहा था। मुझे नहीं पता था कि मां भी हमारी बातें सुनने लगेंगी। वैसे क्या लगता है आपको, उन्हें हमारी बातें समझ आ गई होंगी?"

"क्या पता।" मामा ने कंधे उचकाए____"लेकिन अब इतना पता है कि हमें अब यहां से खिसक लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो तेरी मामी नाराज़ हो जाए और फिर वो मुझे अपने पास आने ही न दे। अगर एसा हुआ तो समझ ही सकता है कि तेरी दुआएं और चाहतें मिट्टी में ही मिल जाएंगी।"

मैंने मुस्कुराते हुए हां में सिर हिलाया। उसके बाद हम दोनों ही अपना अपना चाय का खाली प्याला वहीं छोड़ कर बाहर की तरफ खिसक लिए। मामी मुस्कुराते हुए हमें जाता देख रहीं थी।

बाहर बैठक में बाकी सब बैठे हुए थे और आज के कार्यक्रम की रणनीति बना रहे थे। मामा भी उनके बीच जा कर बैठ गए जबकि मैं हवेली से बाहर निकल गया। कई दिनों से मैं हवेली में ही था और इस वजह से मुझे घुटन सी होने लगी थी। वैसे तो मां चाची और मामी लोगों ने भी मुझसे कहा था कि अब से मैं हवेली में ही रहूं लेकिन मेरा मन अब थोड़ा ऊब चुका था। मैं बाहर की खुली हवा लेना चाहता था इस लिए मोटर साईकिल में बैठ कर चल दिया।

✮✮✮✮

मेरी मोटर साईकिल सीधा उस जगह पर पहुंच कर रुकी जहां पर अनुराधा का विदाई स्थल था। आज वातारण में थोड़ा कोहरे जैसी धुंध छाई हुई थी जिसकी वजह से धूप के ताप का बिल्कुल भी एहसास नहीं हो रहा था। मैंने अपने बदन पर ऊन का स्वेटर पहन रखा था।

अनुराधा के विदाई स्थल के पास पहुंच कर मैं घुटनों के बल कच्ची ज़मीन पर बैठ गया। इस जगह आने से एक अलग ही अनुभूति होती थी। कुछ समय के लिए जैसे मैं सब कुछ भूल जाता था। बंद पलकों में अनुराधा के साथ बिताए हुए लम्हों की तस्वीरें देखते हुए मैं बस उन्हीं में खो जाता था। उसके बाद सामने देखते हुए उससे काफी देर तक अपने दिल की बातें करता रहता। मैं उसको सब कुछ बताता था कि आज मेरे साथ क्या क्या हुआ और आगे क्या होने वाला है। फिर एकाएक मेरा मन उससे ये कहते हुए भारी हो जाता कि काश! तुम जीवित अवस्था में मेरे पास होती तो मुझे अलग ही खुशी होती। ऊपर बैठे विधाता से उसे वापस करने की मिन्नतें करता और अनुराधा से ये कहते हुए माफियां मांगता कि मेरे कुकर्मों की वजह से आज वो इस दुनियां में नहीं है।

कुछ समय बाद मैं उठा और वहीं से सरोज काकी के घर चल पड़ा। आज कई दिनों बाद मैं उसके घर आया था। मुझे आया देख वो बड़ा खुश हुई। मैंने पहले ही उसको बता दिया था कि भाभी के साथ मेरा विवाह होने वाला है और फिर रूपा के साथ भी।

"कल मेरी बेटी रूपा भी यहां अपनी एक बहन के साथ आई थी।" सरोज काकी ने कहा____"मुझसे कह रही थी कि अब वो विवाह होने तक मेरे पास नहीं आ पाएगी। इस लिए मैं अनूप के साथ ही उसके घर पर रहूं।"

"हां तो इसमें ग़लत क्या है काकी?" मैंने अधीरता से कहा____"तुम्हें उसके विवाह तक उसके घर पर ही रहना चाहिए।"

"हां मैं समझती हूं।" सरोज काकी ने कहा____"लेकिन थोड़ा संकोच होता है, ये सोच कर कि मैं एक मामूली से किसान की औरत हूं और वो बड़े लोग हैं।"

"छोटे बड़े जैसी कोई बात नहीं है काकी।" मैंने कहा____"अगर होती तो अब तक जो कुछ हुआ है वो न हुआ होता। क्या तुमने कभी महसूस किया है कि मैंने या मेरे घर वालों ने तुम्हें छोटा होने का एहसास कराया है अथवा रूपा और उसके घर वालों ने ऐसा कभी किया है?"

"मैं मानती हूं कि ऐसा तुम में से किसी ने नहीं किया वैभव।" सरोज काकी ने कहा____"और सच कहूं तो इसके लिए मैं खुद को बहुत सौभाग्यशाली समझती हूं लेकिन कहीं न कहीं मुझे अपनी स्थिति का एहसास तो होता ही है कि मैं एक छोटी हैसियत वाली हूं और मुझे अपनी हद में रहना चाहिए।"

"ऐसा कह कर तुम हम सबकी भावनाओं को ठेस पहुंचा रही हो काकी।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"हम में से किसी ने भी कभी तुम्हारे बारे में ऐसा कुछ नहीं सोचा है। जहां प्रेम होता है वहां हैसियत वाली बात ही नहीं होती। अनुराधा से मिलने से पहले मैं हैसियत के बारे में सोच भी सकता था लेकिन उससे मिलने के बाद और उससे प्रेम होने के बाद मेरे दिलो दिमाग़ से हैसियत संबंधित बातों का वजूद ही मिट चुका है। अगर ऐसा न होता तो अनुराधा की मौत के बाद मैं उसे अपनी दुल्हन बना कर विदा न करता। आज भी मैं उसको अपनी पहली पत्नी ही मानता हूं और उस नाते तुम मेरी सास हो, अनूप मेरा साला है। क्या अब भी तुम्हें लगता है कि इसमें हैसियत की बात है? क्या अब भी तुम्हें लगता है कि तुम हम में से किसी से छोटी हो?"

"मुझे माफ़ कर दो वैभव।" सरोज काकी की आंखें भर आईं____"मैं यही समझ बैठी थी कि मेरी बेटी अनू के जाने के बाद तुमने ये रिश्ता मिटा दिया होगा।"

"नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं कर सकता काकी।" मैंने गंभीरता से कहा____"और ना ही कभी करूंगा। मेरा प्रेम अनुराधा के गुज़र जाने से मिट जाने वाला नहीं है। मैंने तो उसके गुज़र जाने पर ही उसको अपनी पत्नी बनाया था तो अब ये रिश्ता मरते दम तक क़ायम रहेगा। तुम ही इस रिश्ते को ना मानो तो अलग बात है।"

"नहीं नहीं।" सरोज काकी जैसे तड़प उठी____"ऐसा मत कहो। ये सच है कि अभी तक मैं इस रिश्ते को महत्व नहीं दे रही थी लेकिन तुम्हारी ये बातें सुन कर मुझे एहसास हो गया है कि मैं ग़लत थी। मेरा यकीन करो बेटा, अब से मैं भी तुमको अपना दामाद ही मानूंगी और जीवन भर मानूंगी।"

"अगर तुम सच में ऐसा मानती हो।" मैंने कहा____"तो फिर अपने दामाद की बातें भी मानों काकी। रूपा ने तुम्हें अपनी मां कहा है और तुमने भी उसको अनुराधा की तरह अपनी बेटी माना है तो फिर इस रिश्ते को पूरी ईमानदारी से और पूरी निष्ठा से निभाओ। अगर उसके घर वाले चाहते हैं कि विवाह तक तुम उनके साथ ही रहो तो तुम्हें खुशी खुशी वहीं रहना चाहिए।"

"मैं अब रहूंगी बेटा।" सरोज काकी ने दृढ़ता से कहा____"अपनी बेटी रूपा को उसी तरह तुमसे विवाह कर के विदा करूंगी जैसे मैं अनुराधा को करती।"

कुछ देर और सरोज काकी से बातें हुईं उसके बाद मैं वहां से चल पड़ा। थोड़े ही समय में मैं भुवन से मिलने अपने खेतों पर पहुंच गया। भुवन खेतों पर ही था। मैं उससे मिला और उसे बरात में चलने का निमंत्रण भी दिया। भुवन इस बात से बड़ा खुश हुआ। उसके बाद मैं हवेली निकल गया।​
 
अध्याय - 161
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"मैं अब रहूंगी बेटा।" सरोज काकी ने दृढ़ता से कहा____"अपनी बेटी रूपा को उसी तरह तुमसे विवाह कर के विदा करूंगी जैसे मैं अनुराधा को करती।"

कुछ देर और सरोज काकी से बातें हुईं उसके बाद मैं वहां से चल पड़ा। थोड़े ही समय में मैं भुवन से मिलने अपने खेतों पर पहुंच गया। भुवन खेतों पर ही था। मैं उससे मिला और उसे बरात में चलने का निमंत्रण भी दिया। भुवन इस बात से बड़ा खुश हुआ। उसके बाद मैं हवेली निकल गया।

अब आगे....


वक्त बड़ा जल्दी जल्दी गुज़र रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसको कुछ ज़्यादा ही जल्दी थी रागिनी का अपने होने वाले पति वैभव से मिलन करवाने की। अभी कुछ दिन पहले ही उसके घर वाले वैभव का तिलक चढ़ाने रुद्रपुर गए थे और अब हल्दी की रस्म होने लगी थी। अब बस कुछ ही दिनों बाद घर में बरात आने वाली थी। सच में समय बड़ी तेज़ गति से गुज़र रहा था।

पूरे घर में खुशी का माहौल छाया हुआ था। सभी सगे संबंधी आ गए थे। सुबह से ही हर कोई भाग दौड़ करते हुए अपने अपने काम में लग गया था। गांव की औरतें आंगन में बैठी ढोलक बजा रहीं थी, गीत गा रहीं थी। संगीत की धुन में सब लड़कियां मिल कर नाच रहीं थीं।

वहीं एक तरफ रागिनी को हल्दी लगाई जा रही थी। हल्दी लगाने वालों की जैसे कतार सी लगी हुई थी। हर कोई उतावला सा दिख रहा था। उसकी भाभियां, उसकी बहनें, गांव की कुछ भाभियां और उसकी सहेली शालिनी। सब गाते हुए उसको हल्दी लगा रहीं थी।

रागिनी के गोरे बदन पर एक मात्र कपड़ा था जोकि उसका कुर्ता ही था जिसकी बाहें उसके कंधों से कटी हुईं थी। नीचे उसने सलवार नहीं पहनी थी लेकिन हां कच्छी ज़रूर पहन रखी थी। उसकी भाभियां जान बूझ कर उसके बदन के ऐसे ऐसे हिस्से पर हल्दी मल रहीं थी जहां पर उनके हाथों की छुवन और मसलन से रागिनी शर्म से पानी पानी हुई जा रही थी। वो ऐसी जगहों पर हाथ लगाने से विरोध भी कर रही थी लेकिन कोई उसकी सुन ही नहीं रहा था। बार बार उसके कुर्ते के अंदर हाथ डाल दिया जाता। फिर उसके पेट, उसकी जांघें, उसकी पिंडलियां, उसके पैर, उसकी पीठ और उसके गले व सीने से होते हुए उसकी ठोस छातियों में भी ज़ोर लगा लगा कर हल्दी मली जाती। रागिनी कभी आह कर उठती तो कभी उसकी सिसकियां निकल जाती तो कभी चीख ही निकल जाती। शर्म के मारे उसका चेहरा हल्दी लगे होने बाद भी सुर्ख पड़ा हुआ नज़र आ रहा था। कुछ समय बाद बाकी सब चली गईं लेकिन शालिनी, वंदना और सुषमा उसके पास ही बैठी उसे हल्दी लगाती रहीं।

"क्यों मेरी बेटी को इतना परेशान किए जा रही हो तुम लोग?" सुलोचना देवी बरामदे में किसी काम से आईं तो उन्होंने रागिनी की हालत देख कर जैसे उन तीनों को डांटा____"कुछ तो शर्म करो। हल्दी लगाने का ये कौन सा तरीका है?"

"ये अवसर रोज़ रोज़ नहीं आता चाची।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"पिछली बार मेरी हसरत पूरी नहीं हो पाई थी लेकिन इस बार सारी ख़्वाहिश पूरी करूंगी मैं। आप जाइए यहां से। हमें हमारा काम करने दीजिए।"

"ठीक है तुम अपनी ख़्वाहिश पूरी करो।" सुलोचना देवी ने कहा____"लेकिन बेटी थोड़ा दूसरों का भी तो ख़याल करो। क्या सोचेंगे सब?"

"चिंता मत कीजिए चाची।" शालिनी ने कहा___"यहां अब कोई नहीं आने वाला। जिनको शुरू में रागिनी को हल्दी लगाना था वो लगा चुकी हैं। अब सिर्फ मैं और ये भाभियां ही हैं। बाकी बाहर वालों पर नज़र रखने के लिए मैंने कामिनी को बोल रखा है।"

सुलोचना देवी कुछ न बोलीं। वो बस रागिनी के शर्म से लाल पड़े चेहरे को देखती रहीं। रागिनी भी उन्हीं को देख रही थी। उसकी आंखों में एक याचना थी। जैसे कह रही हो कि इन बेशर्मों से उसकी जान बचा लीजिए। सुलोचना देवी को रागिनी की इस हालत पर बड़ी दया आई। वो जानतीं थी कि रागिनी इन मामलों में बहुत शर्म करती है लेकिन वो ये भी जानती थीं कि आज का दिन खुशी का दिन है। किसी को भी नाखुश करना ठीक नहीं था। वैसे भी सब उसके घर की ही तो थीं।

"इन्हें अपने मन की कर लेने दे बेटी।" फिर उन्होंने रागिनी को बड़े प्यार से देखते हुए कहा____"ये सब तेरी खुशियों से खुश हैं इस लिए आज के दिन तू भी किसी बात की शर्म न कर और इस खुशी को दिल से महसूस कर।"

ये कह कर सुलोचना देवी चली गईं। उनके जाने के बाद शालिनी जो उनके जाने की प्रतीक्षा ही कर थी वो फिर से शुरू हो गई। उसने बड़े से कटोरे से हाथ में हल्दी ली और वंदना भाभी को इशारा किया। वंदना ने मुस्कुराते हुए झट से रागिनी का कुर्ता पकड़ कर एकदम से उठा दिया। इधर जैसे ही कुर्ता उठा शालिनी ने हल्दी लिया हाथ झट से रागिनी के कुर्ते में घुसा दिया और उसकी सुडोल छातियों पर हल्दी मलने लगी। जैसे ही रागिनी को ये पता चला उसकी एकदम से चीख निकल गई।

"ऐसे मत चीख मेरी लाडो।" शालिनी ने हंसते हुए कहा____"ये तो कुछ भी नहीं है। सुहागरात को जब जीजा जी तेरी इन छातियों को मसलेंगे तब क्या करेगी तू? क्या तब भी तू ऐसे ही चीखेगी और हवेली में रहने वालों को पता लगवा देगी कि तेरे पतिदेव तेरे साथ क्या कर रहे हैं?"

"चुप कर कमीनी वरना मुंह तोड़ दूंगी तेरा।" रागिनी ने एक हाथ से उसके बाजू में ज़ोर से मारते हुए कहा____"कैसी बेशर्म हो गई है तू। जो मुंह में आता है बोल देती है।"

"मार ले जितना मारना है मुझे।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन मैं तो आज तेरे साथ ऐसे ही मज़े लूंगी, क्यों वंदना भाभी?"

"हां शालिनी।" वंदना ने जैसे उसका साथ देते हुए कहा____"आज तो पूरा मज़ा लेना है रागिनी से। आज हम दोनों मिल कर इसकी सारी शर्म दूर कर देंगे ताकि सुहागरात को इसे अपने पति से कोई शर्म महसूस न हो।"

"हाय राम! भाभी आप भी इस कलमुही का साथ दे रही हैं?" रागिनी ने आश्चर्य से आंखें फैला कर वंदना को देखा____"कम से कम आप तो मुझ पर रहम कीजिए।"

"रागिनी सही कह रही हैं दीदी।" बलवीर सिंह की पत्नी सुषमा ने वंदना से मुस्कुराते हुए कहा____"हमें रागिनी पर रहम करना चाहिए। मेरा मतलब है कि इनकी छातियों पर हल्दी लगा कर छातियों को नहीं मसलना चाहिए। आख़िर वहां पर हाथ लगाने का हक़ तो हमारे जीजा जी का है। शायद इसी लिए हमारी ननद रानी को भी हमारा इनकी छातियों पर हाथ लगाना पसंद नहीं आ रहा है।"

"अरे! हां ये तो तुमने सही कहा सुषमा।" वंदना ने हैरानी से उसकी तरफ देखा____"अब समझ आया कि मेरी लाडो क्यों इतना गुस्सा कर रहीं हैं।"

रागिनी ये सुन कर और भी बुरी तरह शर्मा गई। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वो ऐसा क्या करे जिसके चलते उसे ये सब न सुनना पड़े। ऐसा नहीं था कि उसे इन सबकी बातों से सचमुच का गुस्सा आ रहा था बल्कि सच ये था कि उसको ज़रूरत से ज़्यादा शर्म आ रही थी।

"बात तो आपने सच कही भाभी।" शालिनी ने कहा____"मुझे भी मज़ा लेने के चक्कर में ये ख़याल नहीं रहा था कि वहां पर हाथ लगाने का हक़ तो हमारे जीजा जी का है।" कहने के साथ ही शालिनी ने रागिनी से कहा____"अगर ऐसी ही बात थी तो तूने बताया क्यों नहीं हमें? यार सच में ग़लती हो गई ये तो।"

"तू ना चुप ही रह अब।" रागिनी को कुछ न सुझा तो झूठा गुस्सा दिखाते हुए बोल पड़ी____"और अब मुझे हाथ मत लगाना। मुझे नहीं लगवानी अब हल्दी वल्दी। जाओ सब यहां से।"

"अरे! गुस्सा क्यों होती है?" शालिनी ने हल्दी लिया हाथ उसके गाल पर मलते हुए कहा____"अभी तो और भी जगह बाकी है जहां हल्दी लगानी है।"

"तू ऐसे नहीं मानेगी ना रुक तू।" कहने के साथ ही रागिनी ने बिजली की सी तेज़ी से कटोरे से हल्दी ली और झपट कर शालिनी के ब्लाउज में हाथ डाल कर उसकी बड़ी बड़ी छातियों को हल्दी लगाते हुए मसलने लगी।

अब चीखने चिल्लाने की बारी शालिनी की थी। वो सच में इतना ज़ोर से चिल्लाई कि आंगन में गीत गा रही औरतें एकदम से चौंक कर इधर देखने लगीं। शालिनी को बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि उसकी इतनी संस्कारी सहेली इतना बड़ा दुस्साहस कर बैठेगी। उधर वंदना और सुषमा भी चकित भाव से रागिनी को देखने लगीं थी।

"अब बोल कमीनी।" रागिनी बदस्तूर उसकी छातियों को मसलते हुए बोली____"बता अब कैसा लग रहा है तुझे? बहुत देर से तेरा नाटक देख रही थी मैं। अब बताती हूं तुझे।"

"वंदना भाभी बचाइए मुझे।" शालिनी चिल्लाई____"कृपया बचाइए इससे। इस पर भूत सवार हो गया है लगता है। रागिनी छोड़ दे, ना कर ऐसा।"

"क्यों न करूं?" रागिनी ने अचानक ही उसकी एक छाती को ज़ोर से मसल दिया जिससे शालिनी और जोरों से चीख पड़ी, उधर रागिनी ने कहा____"अभी तक तू जो कर रही थी वो क्या सही कर रही थी तू, हां बता ज़रा?"

"माफ़ कर दे मुझे।" शालिनी उससे छूटने का प्रयास करते हुए बोली____"मैं तो बस हल्दी लगा रही थी तुझे।"

"हां तो मैं भी अब हल्दी ही लगा रही हूं तुझे।" रागिनी ने कहा____"तू भी अब वैसे ही लगवा जैसे मुझे लगा रही थी तू।"

इससे पहले कि आंगन में बैठी गीत गा रही औरतें इस तरफ आतीं वंदना और सुषमा ने हस्ताक्षेप किया और किसी तरह रागिनी को समझा बुझा कर शालिनी से छुड़वाया। दोनों ही बुरी तरह हांफने लगीं थी।

"तेरे अंदर कोई भूत आ गया था क्या?" शालिनी ने अपनी उखड़ी सांसों को काबू में करने का प्रयास करते हुए रागिनी से कहा____"ऐसा कैसे कर सकती थी तू? पागल तो नहीं हो गई थी?"

"तुम सब मेरी शर्म दूर कर रही थी ना?" रागिनी ने हांफते हुए कहा____"तो ऐसा कर के मैं भी अपनी शर्म ही दूर कर रही थी। अब बता कैसा लगा तुझे?"

"कैसा लगा की बच्ची।" शालिनी ने अपने सीने पर लगी हल्दी को देखते हुए कहा____"पूरा ब्लाउज ख़राब कर दिया मेरा। अब घर कैसे जाऊंगी मैं?"

"सबको दिखाते हुए जाना।" रागिनी ने सहसा मुस्कुराते हुए कहा____"लोगों को पता तो चलेगा कि तू हल्दी लगवा रही थी किसी से।"

"रुक जा बेटा।" शालिनी ने जैसे धमकी देते हुए कहा____"इसका बदला ले कर रहूंगी मैं। जिस दिन जीजा जी बरात ले कर आएंगे उस दिन उनसे ही शिकायत करूंगी तेरी।"

"हां कर देना।" रागिनी के चेहरे पर शर्म की हल्की लाली उभर आई____"मैं क्या डरती हूं किसी से।"

"हां ये बात तो मैं मानती हूं रागिनी।" सहसा वंदना ने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम अपने होने वाले पति से नहीं बल्कि वो खुद ही तुमसे डरते हैं।"

"अच्छा क्या सच में?" सुषमा पूछे बगैर न रह सकी____"क्या सच में जीजा जी रागिनी से डरते हैं?"

"और नहीं तो क्या?" वंदना ने कहा____"पिछली बार जब आए थे तो मैंने इन दोनों की बातें सुनी थी।"

"भाभी नहीं।" रागिनी एकदम से हड़बड़ा गई, फिर मिन्नत सी करते हुए बोली____"कृपया उन बातों को किसी को मत बताइए ना। आपने मुझसे वादा किया था कि आप किसी से नहीं कहेंगी।"

"अच्छा ठीक है नहीं कहती।" वंदना ने रागिनी की मासूम सी शक्ल देखी तो उसे उस पर तरस सा आ गया____"लेकिन ये तो सच ही है ना कि हमारे होने वाले जीजा जी मेरी प्यारी ननद रानी से डरते हैं।"

"ऐसा कुछ नहीं है।" रागिनी ने शर्म से नज़रें चुराते हुए कहा____"आप ऐसे ही झूठ मूठ मत बोलिए।"

"हां तो तू ही बता दे ना कि सच क्या है?" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"वो डरते हैं या तुझसे बेपनाह प्यार करते हैं?"

"मुझे नहीं पता।" रागिनी शर्म से सिमट सी गई____"अच्छा अब अगर हल्दी वाला काम हो गया हो तो मैं नहा लूं। अंदर बहुत अजीब सा महसूस हो रहा है।"

"अंदर??" शालिनी हौले से चौंकी____"अंदर कहां अजीब सा महसूस हो रहा है तुझे। नीचे या ऊपर?"

"तू न अब पिटेगी मुझसे।" रागिनी ने उसको घूरते हुए कहा____"बहुत ज़्यादा मत बोल।"

"लो मैं कहां ज़्यादा बोल रही हूं?" शालिनी ने बुरा सा मुंह बना कर कहा____"पूछ ही तो रही हूं कि नीचे अजीब सा महसूस हो रहा है या ऊपर?"

"शालिनी मत तंग करो मेरी लाडो को।" वंदना को रागिनी पर बहुत ज़्यादा स्नेह आ रहा था इस लिए उसने उसके चेहरे को प्यार से सहलाते हुए कहा____"बड़ी मुद्दत के बाद तो मेरी ननद रानी के चेहरे पर खुशियों के रंग नज़र आए हैं।"

वंदना की इस बात से सहसा माहौल गंभीर सा होता नज़र आया किंतु जल्दी ही शालिनी ने इस माहौल को अपने मज़ाक से दूर कर दिया। थोड़ी देर और इधर उधर का हंसी मज़ाक हुआ उसके बाद सुलोचना देवी के आवाज़ देने पर वंदना उठ कर उनके पास चली गईं। इधर शालिनी और सुषमा रागिनी को ले कर चल पड़ीं

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हवेली के बड़े से आंगन में एक जगह तंबू बनाया गया था जिसके नीचे मैं एक छोटे से सिंघासन पर बैठा था। मेरे जिस्म पर इस वक्त मात्र कच्छा ही था, बाकी पूरा बलिष्ट जिस्म बेपर्दा था। तीन तरफ के बरामदे में औरतें बैठी गीत गा रहीं थी। कुछ गांव की औरतें थीं कुछ दूसरे गांव की जो पिता जी के मित्रों के घर से आई हुईं थी। बड़े से आंगन में दोनों तरफ मेरी बहनें और मेरी मामियां नाच रहीं थी। पूरा वातावरण संगीत, ढोल नगाड़े और नाच गाने से गूंज रहा था और गूंजता भी क्यों नहीं...आज हल्दी की रस्म जो थी।

आंगन के बीच लगे तंबू के नीचे मैं सिंघासन पर बैठा था और एक एक कर के सब मुझे हल्दी लगा रहे थे। मां, मेनका चाची, निर्मला काकी, महेंद्र सिंह की पत्नी सुभद्रा देवी, ज्ञानेंद्र सिंह की पत्नी माया देवी, अर्जुन सिंह की पत्नी रुक्मणि देवी, संजय सिंह की पत्नी अरुणा देवी सबने एक एक कर के मुझे हल्दी लगाई। उसके बाद सभी मामियों ने मुझे हल्दी लगाया। कुसुम ने खुशी से चहकते हुए मुझे हल्दी लगाई। मामी की दोनों बेटियां सुमन और सुषमा ने भी लगाई।

छोटे मामा की पत्नी यानि रोहिणी मामी जब मुझे हल्दी लगाने आईं तो मैं उन्हें देख मुस्कुराने लगा। पहले तो उन्होंने ध्यान नहीं दिया और शायद उन्हें याद भी नहीं था किंतु जब मैं उन्हें देखते हुए अनवरत मुस्कुराता ही रहा तो मानों एकदम से उन्हें उस रात का किस्सा याद आ गया जिसके चलते एकदम से उनके चेहरे पर शर्म की लाली उभर आई और वो नज़रें चुराते हुए मुझे हल्दी लगाने लगीं। गुलाबी होठों पर शर्म मिश्रित मुस्कान थी जिसे वो छुपा नहीं पा रहीं थी।

"क्या हुआ मामी?" मैं उनकी हालत पर मज़ा लेने का सोच कर पूछा____"अब तो आपके चेहरे पर अलग ही नूर दिखने लगा है। मामा की परेशानी दूर हो गई है क्या?"

"चुप करो।" वो एकदम से झेंप सी गईं____"बहुत बदमाश हो गए हो तुम।"

"अब ये क्या बात हुई मेरी प्यारी मामी?" मैंने उन्हें छेड़ा____"मैंने भला ऐसा क्या कर दिया है जिसके चलते आप मुझे बदमाश कहने लगीं?"

"अब तुम मेरा मुंह न खोलवाओ।" मामी ने अपनी शर्म को छुपाते हुए मुस्कुरा कर कहा____"तुम दोनों मामा भांजे की बदमाशी समझ गई हूं मैं।"

"ये आप क्या कह रही हैं मामी?" मैंने इधर उधर नज़र घुमा कर उनसे कहा____"खुल कर बताइए ना कि आप क्या समझ गईं हैं?"

"तुम्हें शर्म नहीं आती लेकिन मुझे तो आती है ना?" मामी ने हल्दी लगे हाथ से मेरे दाहिने गाल पर थोड़ा जोर से ठेला। स्पष्ट था कि उन्होंने एक तरह से मुझे इस तरीके से चपत लगाई थी, बोलीं____"मुझे उस रात ही समझ जाना चाहिए था कि तुम दोनों मामा भांजे कौन सी खिचड़ी पका रहे थे।"

"लो जी, अब ये क्या बात हुई भला?" मैं मन ही मन हंसा____"मैं मासूम भला कौन सी खिचड़ी पका सकता हूं? मैं तो बस मामा की परेशानी दूर करना चाहता था और इसी लिए आपको उनके पास भेजा था। क्या उस रात उन्होंने आपको परेशान किया था?"

"और नहीं तो क्या?" मामी का चेहरा कुछ ज़्यादा ही शर्म से लाल पड़ गया। नज़रें चुराते हुए बोलीं____"उन्होंने मुझे बहुत ज़्यादा परेशान किया और ये सब तुम्हारी वजह से हुआ है।"

"हे भगवान!" मैंने जैसे आश्चर्य ज़ाहिर किया____"मैंने तो अच्छा ही सोचा था। ख़ैर ये तो बताइए कि मामा ने आपको किस बात से परेशान किया था? सुबह उनसे पूछा था लेकिन उन्होंने मुझे कुछ बताया ही नहीं था। आप ही बताइए ना कि आख़िर उस रात क्या हुआ था?"

"सच में बहुत बदमाश हो तुम।" मामी ने मुझे घूरते हुए किंतु मुस्कुरा कर कहा____"और बेशर्म भी। अपनी मामी से ऐसी बातें करते हुए ज़रा भी शर्म नहीं आती तुम्हें।"

"पर मैंने तो ऐसा कुछ आपसे कहा ही नहीं जिसमें मुझे शर्म करनी चाहिए।" मैंने अंजान बनने का दिखावा करते हुए कहा____"मैं तो बस आपसे पूछ रहा हूं कि उस रात क्या हुआ था?"

"क्या सच में तुम नहीं जानते?" मामी ने इस बार मुझे उलझनपूर्ण भाव से देखा।

"अगर जानता तो आपसे पूछता ही क्यों?" मैंने मासूम सी शक्ल बना कर कहा____"बताइए ना कि क्या हुआ उस रात?"

"कुछ नहीं हुआ था।" मामी ने सहसा मुस्कुराते हुए कहा____"और अगर कुछ हुआ भी था तो तुम्हारे बताने लायक नहीं है। अब चुपचाप हल्दी लगवाओ, बातें न करो।"

उसके बाद मामी ने मुझे हल्दी लगाई और फिर वो मुस्कुराते हुए चलीं गईं। मैं भी ये सोचते हुए मुस्कुराता रहा कि मामी भी कमाल ही हैं। ख़ैर ऐसे ही कार्यक्रम चलता रहा।

✮✮✮✮

रूपचंद्र के घर में नात रिश्तेदारों का आना शुरू हो गया था। हर रोज़ कोई न कोई आ ही रहा था। साहूकारों के चारो भाईयों के ससुराल वाले, बेटियों के ससुराल वाले। शिव शंकर की बड़ी बेटी नंदिनी का विवाह पहले ही हो चुका था वो भी अपने पति के साथ आ गई थी। मणि शंकर की नव विवाहिता बेटियां आरती और रेखा तो पहले से ही यहीं थी इस लिए उनके ससुराल से दोनों के पति आए हुए थे जो आपस में भाई ही थे।

मणि शंकर के बड़े बेटे चंद्रभान की ससुराल से यानि रूपा की भाभी कुमुद के मायके से उसके भैया भाभी आ गए थे। दूसरी तरफ हरि शंकर के बड़े बेटे और रूपचंद्र के बड़े भाई यानि मानिकचंद्र की ससुराल से उसकी पत्नी नीलम के भैया भाभी कल आने वाले थे। कहने का मतलब ये कि हर रोज़ कोई न कोई मेहमान आ रहा था। हर कोई अपने साथ कुछ न कुछ ले कर आ रहा था। यही सब लोग कुछ समय पहले तब जमा हुए थे जब मणि शंकर की दोनों बेटियों का विवाह हुआ था।

घर काफी बड़ा था इस लिए मेहमानों के रहने की कोई दिक्कत नहीं थी। गौरी शंकर और रूपचंद्र जो अब तक अकेले ही सब कुछ सम्हाल रहे थे उनकी मदद के लिए अब काफी सारे लोग हो गए थे। घर की साफ सफाई और पोताई तो कुछ समय पहले ही हुई थी लेकिन रूपा के विवाह के लिए उसे फिर से पोताया जा रहा था। घर में काफी चहल पहल हो गई थी। इस घर में औरतें और बहू बेटियां तो पहले से ही ज़्यादा थीं लेकिन नात रिश्तेदारों से भी आ गईं थी जिसके चलते और भी भीड़ जमा हो गई थी।

सबको पता था कि रूपा का विवाह इसी गांव के दादा ठाकुर के बेटे वैभव सिंह से होने वाला है। सबको ये भी पता लग चुका था कि रूपा अपने होने वाली पति की दूसरी पत्नी बनने वाली है और उसकी पहली पत्नी दादा ठाकुर की अपनी ही विधवा बहू होगी। इतना ही नहीं सबको ये भी पता लग चुका था कि आज हवेली में रूपा के होने वाले पति की हल्दी की रस्म है। हर कोई इस बात के बारे में अपनी अपनी समझ से चर्चा कर रहा था। गौरी शंकर और रूपचंद्र से जब भी कोई इस बारे में कुछ कहता अथवा पूछता तो वो बड़े तरीके से सबको बताते और समझाते भी जिसके चलते सब उनकी बातों से सहमत हो जाते। आख़िर इतना तो सबको पता ही था कि कुछ समय पहले इन लोगों ने दादा ठोकर के परिवार के साथ क्या किया था।

घर के अंदर रूपा के कमरे में अलग ही नज़ारा था। ढेर सारी औरतें और लड़कियों ने उसे घेर रखा था और तरह तरह की बातों के द्वारा वो रूपा की हालत ख़राब किए हुए थीं। कमरे में हंसी ठिठोली गूंज रही थी।

सबकी सर्व सम्मति से ये तय हुआ था कि अगले हप्ते रूपा की हल्दी वाली रस्म होगी। हालाकि सबको इतनी खुशी थी कि समय से पहले ही घर में रूपा की बड़ी भाभी यानि कुमुद उसको हल्दी और आटे का उपटन लगाने लगीं थी ताकि रूपा के बदन पर अलग ही निखार आ जाए।

घर के अंदर बाकी औरतें ऐसी ऐसी चीज़ें बनाने में लगी हुईं थी जो विवाह के समय बनाई जाती हैं। मसलन, आटे की, बेसन की और मैदे की चीज़ें पूरियां और गोली वगैरह। कुछ औरतें अनाज बीनने में लगीं हुईं थी। कुछ काम करते हुए गाना भी गाए जा रही थीं। एक अलग ही मंज़र नज़र आ रहा था।​
 
अध्याय - 162
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सूर्य पश्चिम दिशा में उतरने लगा था। आसमान में लालिमा छा गई थी और शाम घिरने लगी थी। आसमान में उड़ते पंक्षी खुशी से मानों गाना गाते हुए अपने अपने घोंसलों की तरफ लौट रहे थे। घर के पीछे अमरूद के पेड़ के पास बैठी रागिनी जाने किन ख़यालों में खोई हुई थी। कुछ दूर कुएं के पास उसकी छोटी बहन कामिनी कपड़े धो रही थी। इस वक्त पीछे के इस हिस्से में दोनों बहनों के सिवा कोई न था किंतु हां घर के अंदर ज़रूर लोगों की भीड़ थी जिनके बोलने की आवाज़ें यहां तक आ रहीं थी।

आज रागिनी का चेहरा अलग ही नज़र आ रहा था। हल्दी का उपटन तो कई दिन पहले से ही लगाया जा रहा था किंतु आज विशेष रूप से हल्दी की रस्म हुई थी जिसके चलते उसका पूरा बदन ही अलग तरह से चमक रहा था। खूबसूरत चेहरे पर चांद जैसी चमक तो थी ही किंतु उसमें हल्की लालिमा भी विद्यमान थी। शायद ख़यालों में वो कुछ ऐसा सोच रही थी जिसके चलते उसके चेहरे पर लालिमा छाई हुई थी।

"तू यहां है और मैं तुझे तेरे कमरे में ढूंढने गई थी?" शालिनी ने उसके क़रीब आते हुए उससे कहा____"यहां बैठी किसके ख़यालों में गुम है तू और ये क्या तूने स्वेटर भी नहीं पहन रखा? क्या ठंड नहीं लग रही तुझे?"

शालिनी की बातों से रागिनी चौंकते हुए ख़यालों की दुनिया से बाहर आई और उसको देखने लगी। उधर कामिनी जो कपड़े धो रही थी वो भी इस तरफ देखने लगी थी।

"अच्छा हुआ दीदी कि आप आ गईं।" कामिनी ने हौले से मुस्कुराते हुए कहा____"वरना मेरी दीदी जाने कब तक इसी तरह जीजा जी के ख़यालों में खोई रहतीं।"

"देख ले तेरी बहन भी सब समझती है।" शालिनी ने रागिनी को छेड़ा____"अब तू कहेगी कि वो भी तुझे छेड़ने लगी जबकि इसमें किसी की कोई ग़लती नहीं है। तू खुद ही सबको मौका दे देती है छेड़ने का।"

"हां और तू तो कुछ ज़्यादा ही मौका तलाशती रहती है मुझे छेड़ने का।" रागिनी पहले तो शरमाई किंतु फिर उसे घूरते हुए बोली____"ख़ैर बड़ा जल्दी आ गई तू। अपने घर में तेरा मन नहीं लगता क्या? या फिर जीजा जी के बिना अकेले रहा नहीं जाता तुझसे? लगता है बहुत याद आती है तुझे उनकी।"

"आती तो है।" शालिनी ने थोड़ा धीरे से कहा____लेकिन उतना नहीं जितना तुझे अपने होने वाले पतिदेव की आती है। जब भी तेरे पास आती हूं तुझे उनके ख़यालों में ही खोया हुआ पाती हूं। मुझे भी तो बता दे कि आख़िर कैसे कैसे ख़याल आते हैं तुझे? विवाह के बाद क्या क्या करने का सोच लिया है तूने?"

"तू ना सच में बहुत अजीब हो गई है।" रागिनी ने कहा____"पहले तो ऐसी नहीं थी तू। जीजा जी के साथ रहने से कुछ ज़्यादा ही बदल गई है तू।"

"हर लड़की बदल जाती है यार।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"इसमें नई बात क्या है। ख़ैर तू ये सब छोड़ और ये बता कि वैभव जी के बारे में सोच कर किस तरह के ख़याल बुनने लगी है तू?"

"ऐसा कुछ नहीं है।" रागिनी ने हल्की शर्म के साथ कहा____"और अगर है भी तो क्यों बताऊं तुझे? क्या तूने कभी मुझे अपने और जीजा जी के बारे में बताया है कि तू उनके बारे में कैसे कैसे ख़याल बुनती थी?"

"अच्छा तो अब तू झूठ भी बोलने लगी है?" शालिनी ने हैरानी से उसे देखा____"तूने जो पूछा था मैंने बिना संकोच के तुझे सब बताया था?"

"अच्छा।" रागिनी ने उसे गौर से देखा____"ठीक है तो अपनी सुहागरात के बारे में बता मुझे।"

"आय हाय!" शालिनी के सुर्ख होठों पर गहरी मुस्कान उभर आई____"तो मेरी सहेली को मेरी सुहागरात का किस्सा जानना है। ठीक है, मैं तुझे बिना संकोच के एक एक बात बता दूंगी लेकिन मेरी भी एक शर्त है। उसके बाद तू भी अपनी सुहागरात का एक एक किस्सा मुझे बताएगी, बोल मंज़ूर है?"

"ना बाबा ना।" रागिनी एक ही पल में मानों धराशाई हो गई____"मुझसे नहीं बताया जाएगा। मैं तेरी तरह बेशर्म नहीं हूं।"

"तो फिर मुझसे मेरी सुहागरात के बारे में क्यों पूछ रही है?" शालिनी ने कहा।

"वो तो मैंने ऐसे ही कह दिया था।" रागिनी ने कहा___"तुझे नहीं बताना तो मत बता, वैसे भी मैं ऐसी बातें सुनने की तलबगार भी नहीं हूं।"

"हां हां जानती हूं कि तू बहुत ज़्यादा शरीफ़ और सती सावित्री है।" शालिनी ने कहा____"अब ये सब छोड़ और जा के पहले स्वेटर पहन ले। कहीं ऐसा न हो कि तुझे सर्दी हो जाए और तेरी नाक बहने लगे। ऐसे में बेचारे मेरे जीजा जी कैसे तेरे साथ सुहागरात मनाएंगे?"

"कमीनी धीरे बोल कामिनी सुन लेगी।" रागिनी ने कपड़े धो रही कामिनी की तरफ देख कर उससे कहा____"कुछ तो शर्म किया कर और ये तू एक ही बात पर क्यों अटकी हुई है?"

"क्या करूं यार?" शालिनी ने गहरी मुस्कान के साथ कहा____"माहौल ही उस अकेली बात पर अटके रहने का है। सुहागरात नाम की चीज़ ही इतनी आकर्षक है कि ऐसे समय में बार बार उसी का ख़याल आता है। ख़ास कर तब तो और भी ज़्यादा जब मेरी बहुत ज़्यादा शर्म करने वाली सहेली की होने वाली हो।"

रागिनी ने घूर कर देखा उसे। फिर उसने कामिनी को आवाज़ दे कर उससे अपनी स्वेटर मंगवाई। कामिनी जब चली गई तो उसने कहा____"अब बकवास बंद कर और ये बता यहां किस लिए आई थी?"

"क्या तुझे मेरा आना अच्छा नहीं लगता?" शालिनी ने मासूम सी शक्ल बना कर उसे देखा।

"अच्छा लगता है।" रागिनी ने कहा____"लेकिन तेरा हर वक्त मुझे छेड़ना अच्छा नहीं लगता।"

"क्यों भला?" शालिनी ने भौंहें ऊपर की____"क्या मेरे छेड़ने से तेरे अंदर गुदगुदी नहीं होती?"

"क्यों होगी भला?" रागिनी ने कहा____"बल्कि मुझे तो तेरे इस तरह छेड़ने पर तुझ पर गुस्सा ही आता है। मन करता है तेरा सिर फोड़ दूं।"

"अब तो तू सरासर झूठ बोल रही है।" शालिनी ने बुरा सा मुंह बना कर कहा____"मैं मान ही नहीं सकती कि मेरे छेड़ने पर तुझे अपने अंदर मीठा मीठा एहसास नहीं होता होगा। सच यही है कि तुझे भी बहुत आनंद आता है लेकिन खुल कर बताने में लाज आती है तुझे। कह दे भला कि मेरी ये बातें सच नहीं है?"

रागिनी बगले झांकने लगी। वो फ़ौरन कुछ बोल ना सकी थी। या फिर उसे कुछ सूझा ही नहीं था कि क्या कहे? तभी कामिनी उसका स्वेटर ले कर आ गई जिससे उसने थोड़ी राहत की सांस ली और उससे स्वेटर ले कर पहनने लगी। कामिनी वापस कुएं के पास जा कर कपड़े धोने लगी।

"वैसे मैं ये भी सोचती हूं कि वैभव जी की किस्मत कितनी अच्छी है।" शालिनी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"मतलब कि पहले वो तुझे ब्याह कर ले जाएंगे और फिर कुछ दिनों के बाद उस रूपा को भी ब्याह कर अपनी हवेली ले जाएंगे। उसके बाद कमरे में पलंग पर उनके एक तरफ तू लेटेगी और दूसरी तरफ रूपा। उफ्फ! दोनों तरफ से उनकी दोनों बीवियां उनसे चिपकेंगी और वो किसी महाराजा की तरह आनंद उठाएंगे। काश! ये मंज़र देखने के लिए मैं भी वहां रहूं तो मज़ा ही आ जाए।"

"हाय राम! कैसी कैसी बातें सोचती है तू?" रागिनी ने आश्चर्य और शर्म से उसको देखते हुए कहा____"क्या सच में तुझे ऐसी बातें करते हुए शर्म नहीं आती?"

"अरे! शर्म क्यों आएगी?" शालिनी ने उसके दोनों कन्धों को पकड़ कर कहा___"तुझसे ही तो बोल रही हूं और तुझसे ऐसा बोलने में कैसी शर्म? तू तो मेरी सहेली है, मेरी जान है।"

"लेकिन मुझे आश्चर्य हो रहा है कि तेरे जैसी निर्लज्ज मेरी सहेली है।" रागिनी ने उसे घूरते हुए कहा____"कैसे कर लेती है ऐसी गन्दी बातें?"

"ये सब छोड़।" शालिनी ने कहा____"और ये बता कि क्या सच में विवाह के बाद ऐसा ही मंज़र होगा हवेली के तेरे कमरे में?"

"हे भगवान! फिर से वही बात।" रागिनी के चेहरे पर हैरानी उभर आई____"मत कर ना ऐसी बातें। कह तो तेरे आगे हाथ जोड़ लूं, पैरों में गिर जाऊं।"

"अरे! मैं तो तेरी शर्म दूर कर रही हूं यार।" शालिनी ने बड़े स्नेह से कहा____"ताकि विवाह के बाद जब तेरी सुहागरात हो तो उस समय तुझे ज़्यादा शर्म न आए। सच कहती हूं मैं तुझे उन पलों के लिए तैयार कर रही हूं।"

"हां तो मत कर।" रागिनी ने गहरी सांस ली____"तू ऐसी बातों से मेरी शर्म नहीं बल्कि हालत ख़राब कर रही है। तुझे अंदाज़ा भी नहीं है कि तेरी ऐसी बातों से मुझे कितना अजीब महसूस होता है।"

"हां मैं समझ सकती हूं यार।" शालिनी ने कहा____"मैं समझ सकती हूं कि तेरे जैसी स्वभाव वाली लड़की का शुरू से ही इस रिश्ते के बारे में सोच सोच कर अब तक क्या हाल हुआ होगा। मैं सब समझती हूं रागिनी लेकिन तू भी इस बात से इंकार नहीं कर सकती कि आने वाले समय में जो कुछ होने वाला है उसका सामना तुझे करना ही पड़ेगा। उससे तू भाग नहीं सकती है।"

"हां जानती हूं मैं।" रागिनी ने अपने कंधों से शालिनी के हाथों को हटाते हुए कहा____"और सच कहूं तो जब भी उस आने वाले पल के बारे में ख़याल आता है तो समूचे बदन में सर्द लहर दौड़ जाती है। मैं मानती हूं कि इस रिश्ते को मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया है और अब उनसे विवाह भी होने वाला है मेरा लेकिन विवाह के बाद जो होगा उसके बारे में सोच कर ही कांप जाती हूं मैं। मुझे समझ नहीं आता कि कैसे मैं उन पलों में खुद को सामान्य रख पाऊंगी और उनका साथ दे पाऊंगी? अगर अपने अंदर का सच बयान करूं तो वो यही है कि उस वक्त शायद मैं पीछे ही हट जाऊंगी। उनको अपने पास नहीं आने दूंगी।"

"ये....ये तू क्या कह रही है रागिनी?" शालिनी के चेहरे पर मानों आश्चर्य नाच उठा। फिर एकदम चिंतित भाव से कहा उसने____"ऐसा ग़ज़ब मत करना यार। उन हसीन पलों में अगर तू पीछे हटेगी अथवा उन्हें अपने क़रीब नहीं आने देगी तो खुद ही सोच कि ऐसे में उनको कैसा लगेगा? क्या उन्हें तकलीफ़ नहीं होगी? क्या वो ये नहीं सोच बैठेंगे कि तू अभी भी शायद उनको अपना देवर ही मानती है?"

"मैं ये सब सोच चुकी हूं शालिनी।" रागिनी ने गंभीरता से कहा____"और फिर खुद को यही समझाती हूं कि मुझे ऐसा करने का सोचना भी नहीं चाहिए। भला इसमें उनका या मेरा क्या दोष है कि हमारा आपस में इस तरह का रिश्ता बन गया है? ये सब तो नियति में ही लिखा था।"

"अगर तू सच में ऐसा सोचती है तो फिर तुझे बाकी कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।" शालिनी ने कहा____"और ना ही उन पलों में ऐसी वैसी हरकत करने का सोचना चाहिए। तुझे अपने दिलो दिमाग़ में सिर्फ ये बात बैठा के रखनी चाहिए कि उनसे तेरा पहली बार ही विवाह हुआ है। इसके पहले तेरा उनसे कोई भी दूसरा रिश्ता नहीं था। एक बात और, तू उमर में उनसे बड़ी है, तेरा रिश्ता भी उनसे बड़ा रहा है इस लिए अगर तू ऐसा करेगी तो वो भी ऐसा ही सोचेंगे और आगे कुछ भी नहीं हो सकेगा उनसे। इस लिए मैं तुझसे यही कहूंगी कि सब कुछ अच्छा चल रहा है तो आगे भी सब कुछ अच्छा ही चलने देना। ना तू बीच चौराहे पर रुकना और ना ही उन्हें रुकने के बारे में सोचने देना।"

"ऊपर वाला ही जाने उस वक्त मुझसे क्या हो सकेगा और क्या नहीं।" रागिनी ने अधीरता से कहा।

"ऊपर वाला भी उसी के साथ होता है रागिनी जो बिना झिझक के और बिना रुके अपने कर्तव्य पथ पर चलते हैं।" शालिनी ने कहा____"तेरे जीवन में ऊपर वाले ने इतना अच्छा समय ला दिया है तो अब ये तेरी भी ज़िम्मेदारी है कि तू ऊपर वाले की दी हुई इस सौगात को पूरे मन से स्वीकार करे और पूरे आत्म विश्वास के साथ हर चुनौती को पार करती चली जाए।"

"मैं पूरी कोशिश करूंगी शालिनी।" रागिनी ने अधीरता से कहा____"बाकी जो मेरी किस्मत में लिखा होगा वही होगा।"

"तू चिंता मत कर।" शालिनी ने फिर से उसके कंधों पर अपने हाथ रखे____"मुझे पूरा भरोसा है कि आगे सब कुछ अच्छा ही होगा। मुझे वैभव जी पर भी भरोसा है कि वो तुझे ऐसे किसी भी धर्म संकट में फंसने नहीं देंगे बल्कि तेरे मनोभावों को समझते हुए वही करेंगे जिसमें तेरी खुशी होगी और जो तेरे हित में होगा।"

कुछ देर और दोनों के बीच बातें हुईं उसके बाद शालिनी के कहने पर रागिनी उसके साथ ही अंदर की तरफ चली गई। कामिनी धुले हुए कपड़ों को वहीं बंधी डोरी पर डाल रही थी। कुछ बातें उसके कानों में भी पहुंचीं थी।

✮✮✮✮

मैंने मेनका चाची को इशारा कर के उन्हें कमरे में आने को कहा और खुद उनके कमरे की तरफ बढ़ चला। शाम हो चुकी थी। सबको चाय दी गई थी। इतने लोग थे कि बड़े से बर्तन में चाय बनाई गई थी। बहरहाल, कुछ ही देर में चाची मेरी तरफ आती नज़र आईं। मैं दरवाज़े के पास ही खड़ा हुआ था। अचानक मुझे कुसुम दिखी तो मैंने उसको भी आवाज़ दे कर अपने पास बुलाया। वो खुशी से उछलती हुई जल्दी ही मेरे पास आ गई और मुझे सवालिया नज़रों से देखने लगी।

चाची ने दरवाज़ा खोला तो उनके पीछे मैं और कुसुम कमरे में दाख़िल हो गए। इत्तेफ़ाक से बिजली गुल नहीं थी इस लिए कमरे में बल्ब का पीला प्रकाश फैला हुआ था। चाची अपने पलंग पर जा कर बैठ गईं। मैंने कुसुम को भी उनके पास बैठ जाने को कहा और खुद वहीं उनके पास ही कुर्सी को खिसका कर बैठ गया।

"क्या बात है वैभव बेटा?" चाची ने बड़े स्नेह से मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"तुमने किसी ख़ास वजह से मुझे यहां आने का इशारा किया था क्या?"

"हां चाची।" मैंने कहा____"असल में आपसे एक ज़रूरी बात करनी थी। उम्मीद करता हूं कि आप मेरी बात ज़रूर मानेंगी और सिर्फ आप ही नहीं कुसुम भी।"

"बिल्कुल मानूंगी बेटा।" मेनका चाची ने उसी स्नेह के साथ कहा____"बताओ ऐसी क्या बात है?"

"आप तो जानती हैं कि कल विभोर और अजीत विदेश से यहां आ जाएंगे।" मैंने थोड़ा गंभीर हो कर कहा____"मैं आप दोनों से ये कहना चाहता हूं कि उन्हें इस बारे में पता नहीं चलना चाहिए कि आपने या चाचा ने क्या किया था।"

"ऐसा क्यों कहते हो वैभव?" चाची ने सहसा अधीर हो कर कहा____"उनसे इतनी बड़ी बात छुपाने को क्यों कह रहे हो तुम? मैं तो यही चाहती हूं कि उनको भी अपने माता पिता के घिनौने सच का पता चले।"

"नहीं चाची, कृपया ऐसा मत कीजिएगा।" मैंने कहा____"जो गुज़र गया उसे भूल जाने में ही सबकी भलाई है। वो दोनों विदेश में अच्छे मन से शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं तो उन्हें पूरे मन से पढ़ने दीजिए। अगर उन्हें इस बात का पता चला तो वो दोनों जाने क्या क्या सोच कर दुखी हो जाएंगे। इससे उनकी पढ़ाई लिखाई पर गहरा असर पड़ जाएगा। मैं ये किसी भी कीमत पर नहीं चाहता कि मेरे वो दोनों छोटे भाई हम सबके बीच खुद के बारे में उल्टा सीधा सोचने लगें। मेरी आपसे हाथ जोड़ कर विनती है चाची कि आप उन्हें इस बारे में कुछ मत बताइएगा।"

"तुम कहते हो तो नहीं बताऊंगी।" मेनका चाची ने अधीरता से कहा____"लेकिन अगर उन्हें किसी और से इस बात का पता चल गया तो?"

"उन्हें किसी से कुछ पता नहीं चलेगा चाची।" मैंने दृढ़ता से कहा____"वैसे भी इस बारे में बाहर के लोगों को कुछ पता नहीं है और जिन एक दो लोगों को पता है उन्हें पिता जी ने समझा दिया है कि इस बारे में वो विभोर और अजीत को भनक तक न लगने दें।"

"चलो मान लिया कि उन्हें मौजूदा समय में इस बारे में किसी से पता नहीं चलेगा।" चाची ने कहा____"लेकिन कभी न कभी तो उन्हें इस बारे में पता चल ही जाएगा ना। अगर उन्हें किसी और से पता चला तो वो ये सोच कर दुखी हो जाएंगे कि उनकी मां ने इस बारे में खुद उन्हें क्यों नहीं बताया?"

"वैसे तो ये मुमकिन नहीं है चाची।" मैंने कहा____"लेकिन दुर्भाग्य से अगर कभी उन्हें पता चल भी गया तो वो आज के मुकाबले इतना दुखदाई नहीं होगा। इस वक्त ज़रूरी यही है कि उन्हें इस बारे में कुछ भी पता नहीं चलना चाहिए ताकि वो साफ मन से अपनी पढ़ाई कर सकें।"

"भैया सही कह रहे हैं मां।" कुसुम ने मासूमियत से कहा____"विभोर भैया और अजीत को इस समय इस बारे में नहीं बताना चाहिए। मैं तो कभी नहीं बताऊंगी उनको, आप भी कभी मत बताना।"

"ठीक है वैभव।" चाची ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"वैसे तो कभी न कभी उनको पता चल ही जाएगा किंतु मैं तुम्हारी बात से सहमत हूं कि इस समय उन्हें ये घिनौना सच बताना ठीक नहीं है।"

"तो फिर मुझे वचन दीजिए चाची कि आप मेरे छोटे भाइयों को इस बारे में कभी कुछ नहीं बताएंगी।" मैंने कहा____"आप वैसा ही करेंगी जिसमें उन दोनों का भविष्य उज्ज्वल बने।"

"क्या वचन देने की ज़रूरत है वैभव?" मेनका चाची ने अधीरता से मेरी तरफ देखा।

"वैसे तो ज़रूरत नहीं है चाची।" मैंने कहा____"लेकिन मेरी तसल्ली के लिए मुझे आपसे इस बात का वचन चाहिए। मैं ये कभी नहीं चाहूंगा कि मेरी प्यारी चाची और मेरे दोनों प्यारे भाई भविष्य में कभी भी दुखी हों।"

"ओह! वैभव, मेरे अच्छे बेटे।" चाची ने मेरे चेहरे को अपने दोनों हाथों में ले कर अपनी तरफ खींचा और फिर बड़े स्नेह से मेरे माथे को चूम लिया____"क्यों मुझ जैसी चाची को इतना मानते हो? क्यों मुझे इतना मान सम्मान देते हो?"

"क्योंकि आपका ये बेटा ऐसा ही है।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए प्यार से कहा____"आपका ये बेटा अपनी सबसे सुंदर चाची से बहुत प्यार करता है और चाहता है कि उसकी प्यारी चाची हमेशा खुश रहें।"

मेरी बात सुन कर चाची की आंखें छलक पड़ी। एक झटके से पलंग से उठी और फिर झपट कर मुझे अपने सीने से छुपका लिया। ये देख कुसुम की भी आंखें छलक पड़ीं। वो भी झट से आई और एक तरफ से मुझसे चिपक गई।

"काश! विधाता ने मेरी और तुम्हारे चाचा की बुद्धि न हर ली होती।" चाची ने सिसकते हुए कहा____"तो हम दोनों से इतना बड़ा अपराध न होता।"

"ये सब सोच कर खुद को दुखी मत कीजिए चाची।" मैंने उन्हें खुद से अलग करते हुए कहा____"आप जानती हैं ना कि मैं अपनी प्यारी सी चाची को ना तो दुखी होते देख सकता हूं और ना ही आंसू बहाते हुए।"

"हमने जो किया है उसका दुख एक नासूर बन कर सारी उमर मुझे तड़पाएगा मेरे बेटे।" चाची ने रुंधे गले से कहा____"मैं कितना भी चाहूं इससे बच नहीं सकूंगी। हमेशा ये सोच कर मुझे तकलीफ़ होगी कि मैंने अपने देवता समान जेठ जी और देवी समान अपनी दीदी के प्यार, स्नेह और भरोसे को तोड़ा है।"

"शांत हो जाइए चाची।" मैंने उठ कर उनके चेहरे को अपनी हथेलियों में भर कर कहा____"मैंने आपसे कहा है ना कि मैं अपनी प्यारी सी चाची को दुखी और आंसू बहाते नहीं देख सकता। इस लिए ये सब मत सोचिए। क्या आप अपने बेटे के विवाह जैसे खुशी के अवसर पर इस तरह खुद को दुखी रखेंगी? क्या आप चाहती हैं कि आपका बेटा खुशी के इस अवसर पर अपनी प्यारी सी चाची को दुखी देख खुद भी दुखी हो जाए?"

"नहीं नहीं।" चाची की आंखें छलक पड़ीं। मानों तड़प कर बोलीं____"मैं ऐसा कभी नहीं चाह सकती मेरे बेटे। मैं तो यही चाहती हूं कि मेरे सबसे अच्छे बेटे को दुनिया भर की खुशियां मिल जाएं। मैं अब नहीं रोऊंगी। इस खुशी के मौके पर तुम्हें दुखी नहीं करूंगी।"

"ये हुई न बात। मेरी सबसे प्यारी चाची।" मैंने झुक कर चाची के माथे पर चूम लिया____"चलिए अब, बाहर आपके बिना कहीं कोई काम न बिगड़ जाए। आप तो जानती हैं कि मां को आपके सहारे की कितनी ज़रूरत है।"

आख़िर मेरी बातों से चाची के चेहरे पर से दुख के भाव मिटे और फिर वो मुस्कुराते हुए पलंग से नीचे उतर आईं। कुसुम मुझे भाव विभोर सी देखे जा रही थी। उसकी आंखें भरी हुई थी। ख़ैर कुछ ही पलों में हम तीनों कमरे से बाहर आ गए। चाची और कुसुम अपने अपने काम में लग गईं जबकि मैं खुशी मन से ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ता चला गया।​
 
अध्याय - 163
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आख़िर मेरी बातों से चाची के चेहरे पर से दुख के भाव मिटे और फिर वो मुस्कुराते हुए पलंग से नीचे उतर आईं। कुसुम मुझे भाव विभोर सी देखे जा रही थी। उसकी आंखें भरी हुई थी। ख़ैर कुछ ही पलों में हम तीनों कमरे से बाहर आ गए। चाची और कुसुम अपने अपने काम में लग गईं जबकि मैं खुशी मन से ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ता चला गया।

अब आगे....


अगले दिन दोपहर को विभोर और अजीत हवेली आ गए। पिता जी ने उन्हें शहर से ले आने के लिए शेरा के साथ अमर मामा को भेजा था। दोनों जब हवेली पहुंचे तो मां और पिता जी ने उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। जाने क्या सोच कर पिता जी की आंखें नम हो गईं। उनसे मिलने के बाद वो अपनी मां से मिले। चाची की आंखों में आंसुओं का समंदर मानों हिलोरें ले रहा था। बड़ी मुश्किल से उन्होंने खुद को सम्हाला और दोनों को खुद से छुपका लिया। कुसुम, विभोर से उमर में दस महीने छोटी थी जबकि अजीत से वो साल भर बड़ी थी। विभोर ने उसके चेहरे को प्यार और स्नेह से सहलाया और अजीत ने उसके पांव छुए। सब उन्हें देख कर बड़ा खुश थे।

विदेश की आबो हवा में रहने से दोनों अलग ही नज़र आ रहे थे। दोनों जब मेरा पांव छूने के लिए झुके तो मैंने बीच में ही रोक कर उन्हें अपने सीने से लगा लिया। ये देख मेनका चाची की आंखों से आंसू कतरा छलक ही पड़ा। साफ दिख रहा था कि वो अपने अंदर मचल रहे गुबार को बहुत मुश्किल से रोके हुए हैं। मैंने अपने दोनों छोटे भाइयों को खुद से अलग किया और फिर हाल चाल पूछ कर आराम करने को कहा।

दोपहर को खाना पीना करने के बाद मैं अपने कमरे में लेटा हुआ था कि तभी मेनका चाची कमरे में आ गईं। मैं उन्हें देख उठ कर बैठ गया।

"क्या बात है चाची?" मैंने उनसे पूछा____"मुझसे कोई काम था क्या?"

"नहीं ऐसी बात नहीं है वैभव।" चाची ने कहा____"मैं यहां तुमसे ये कहने आई हूं कि अभी थोड़ी देर में सरला (हवेली की नौकरानी) यहां आएगी। वो तुम्हारे पूरे बदन की मालिश करेगी इस लिए तुम अपने कपड़े उतार कर तैयार हो जाओ मालिश करवाने के लिए।"

"पर मालिश करने की क्या ज़रूरत है चाची?" मैंने उनसे पूछा।

"अरे! ज़रूरत क्यों नहीं है?" चाची ने मेरे पास आ कर कहा____"मेरे सबसे अच्छे बेटे का विवाह होने वाला है। उसकी सेहत का हर तरह से ख़याल रखना ज़रूरी है। अब तुम ज़्यादा कुछ मत सोचो और अपने सारे कपड़े उतार कर तैयार हो जाओ। मैं तो खुद ही तुम्हारी मालिश करना चाहती थी लेकिन दीदी ही नहीं मानी। कहने लगीं कि मालिश का काम नौकरानी कर देगी और मुझे उनके कामों में मेरी सहायता चाहिए।"

"हां तो ग़लत क्या कहा उन्होंने?" मैंने कहा____"आपके बिना हवेली में ढंग से कोई काम हो भी नहीं सकेगा और ये बात वो भी जानती हैं। तभी तो वो आपको ऐसा कह रहीं थी। ख़ैर ये सब छोड़िए और ये बताइए कि विभोर और अजीत से उनका हाल चाल पूछा आपने?"

"अभी तो वो दोनों सो रहे हैं।" चाची ने अधीरता से कहा____"शायद लंबे सफ़र के चलते थके हुए थे। शाम को जब उठेंगे तो पूछूंगी। वैसे सच कहूं तो उन्हें देख कर मन में सिर्फ एक ही ख़याल आता है कि उन दोनों से कैसे पूरे मन से बात कर सकूंगी? बार बार मन में वही सब उभर आता है और हृदय दुख से भर जाता है।"

"आपको अपनी भावनाओं को काबू में रखना होगा चाची।" मैंने कहा____"उन्हें आपके चेहरे पर ऐसे भाव नहीं दिखने चाहिए जिससे उन्हें ये लगे कि आप अंदर से दुखी हैं। ऐसे में आप भी जानती हैं कि वो भी दुखी हो जाएंगे और आपसे आपके दुख का कारण पूछने लगेंगे जोकि आप हर्गिज़ नहीं बता सकतीं हैं।"

"अभी तक उन्हें देखने को बहुत मन करता था वैभव।" चाची ने दुखी हो कर कहा____"लेकिन अब जब वो आंखों के सामने आ गए हैं तो उनसे मिलने से घबराने लगी हूं। समझ में नहीं आता कि कैसे दोनों के सामने खुद को सामान्य रख पाऊंगी मैं?"

"मैं आपके अंदर का हाल समझता हूं चाची।" मैंने कहा____"लेकिन ये भी सच है कि आपको उनसे मिलना तो पड़ेगा ही। आख़िर वो आपके बेटे हैं। माता पिता तो हर हाल में अपने बच्चों को खुश ही रखते हैं तो आपको भी उनसे खुशी से मिलना होगा और उन्हें अपना प्यार व स्नेह देना होगा।"

मेरी बात सुन कर चाची कुछ कहने ही वाली थीं कि तभी कमरे के बाहर से किसी के आने की पदचाप सुनाई पड़ी।

"लगता है सरला आ गई है।" चाची ने कहा____"तुम उससे अच्छे से मालिश करवाओ। मैं अब जा रही हूं, बाकी चिंता मत करो। किसी न किसी तरह मैं खुद को सम्हाल ही लूंगी।"

इतना कह कर मेनका चाची पलट कर कमरे से निकल गईं। उनके जाते ही कमरे में सरला दाख़िल हुई। उसके एक हाथ में मोटी सी चादर थी और दूसरे में एक कटोरी जिसमें तेल भरा हुआ था। सरला तीस साल की एक शादी शुदा औरत थी। रंग गेहुंआ था और जिस्म गठीला। उसे देखते ही मेरे जिस्म में झुरझुरी सी हुई। दो ही पलों में मेरी आंखों ने उसके समूचे बदन का मुआयना कर लिया। पहले वाला वैभव पूरी तरह से अभी ख़त्म नहीं हुआ था।

"छोटे कुंवर।" तभी सरला ने कहा____"मालकिन ने मुझे आपकी मालिश करने भेजा है। आप अपने कपड़े उतार लीजिए।"

"क्या सारे कपड़े उतारने पड़ेंगे मुझे?" मैंने उसे देखते हुए पूछा तो उसने कहा____"जी छोटे कुंवर। मालकिन ने कहा है कि आपके पूरे बदन की मालिश करनी है।"

"पूरे बदन की?" मैंने थोड़ी उलझन में उसकी तरफ देखा____"मतलब क्या मुझे अपना कच्छा भी उतारना पड़ेगा?"

सरला मेरी इस बात से थोड़ा शरमा गई। नज़रें चुराते हुए हुए बोली____"हाय राम! ये आप क्या कह रहे हैं छोटे कुंवर?"

"अरे! मैं तो तुम्हारी बात सुनने के बाद ही पूछ रहा हूं तुमसे।" मैंने कहा____"तुमने कहा कि पूरे बदन की मालिश करनी है। इसका तो यही मतलब हुआ कि मुझे अपने बाकी कपड़ों के साथ साथ अपना कच्छा भी उतार देना होगा। तभी तो पूरे बदन की मालिश होगी। भला उस जगह को क्यों छोड़ दोगी तुम?"

मेरी बात सुन कर सरला का चेहरा शर्म से लाल हो गया। मंद मंद मुस्कुराते हुए उसने बड़ी मुश्किल से कहा____"अगर आप कहेंगे तो मैं हर जगह की मालिश कर दूंगी।"

"अच्छा क्या सच में?" मैंने हैरानी से उसे देखा।

"आप अपने कपड़े उतार लीजिए।" उसने बिना मेरी तरफ देखे कहा और कमरे के फर्श पर हाथ में ली हुई मोटी चादर को बिछाने लगी।

मैं कुछ पलों तक उलझन में पड़ा उसे देखता रहा फिर अपने कपड़े उतारने लगा। जल्दी ही मैंने अपने कपड़े उतार दिए। अब मैं सिर्फ कच्छे में था। ठंड का मौसम था इस लिए थोड़ी थोड़ी ठंड लगने लगी थी मुझे। सरला ने कनखियों से मेरी तरफ देखा और फिर अपनी साड़ी के पल्लू को निकाल कर उसे कमर में खोंसने लगी।

"अब आप यहां पर लेट जाइए छोटे कुंवर।" उसने पलंग से एक तकिया ले कर उसको चादर के सिरहाने पर रखते हुए कहा____"अ...और ये क्या आपने अपना कच्छा नहीं उतारा? क्या आपको अपने बदन के हर हिस्से की मालिश नहीं करवानी है?"

"मुझे कोई समस्या नहीं है।" मैंने कहा____"वो तो मैंने इस लिए नहीं उतारा क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम्हें असहज महसूस हो।"

"कहते तो आप ठीक हैं।" उसने कहा____"लेकिन मैं आपकी अच्छे से मालिश करूंगी। आख़िर आपका विवाह होने वाला है। खुशी के ऐसे अवसर पर आपको पूरी तरह से हष्ट पुष्ट करना ज़रूरी ही है।"

"क्या मतलब है तुम्हारा?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूछा____"क्या तुम ये सोचती हो कि मैं अभी हष्ट पुष्ट नहीं हूं?"

"अरे! ये क्या बातें कर रहा है भांजे?" अमर मामा कमरे में आते ही बोले____"जब ये कह रही है कि हष्ट पुष्ट करना ज़रूरी है तो तुझे मान लेना चाहिए।"

"मामा आप यहां?" मैं मामा को देखते ही चौंक पड़ा।

"तुझे ढूंढ रहा था।" मामा ने कहा____"दीदी ने बताया कि तू अपने कमरे में मालिश करवा रहा है तो यहीं चला आया। मैं भी देखना चाहता था कि मेरा भांजा किस तरीके से अपनी मालिश करवाता है?"

सरला, मामा के आ जाने से और उनकी बातों से बहुत ज़्यादा असहज हो गई।

"तो देख लिया आपने?" मैंने पूछा____"या अभी और देखना है?"

"हां देख लिया और समझ भी लिया।" मामा ने मुस्कुराते हुए कहा_____"अब अगर मैं देखने बैठ जाऊंगा तो तू अच्छे से मालिश नहीं करवा सकेगा इस लिए चलता हूं मैं।" कहने के साथ ही मामा सरला से बोले____"और तुम, मेरे भांजे की अच्छे से मालिश करना। किसी भी तरह की कसर बाकी मत रखना, समझ गई न तुम?"

सरला ने शर्माते हुए हां में सिर हिलाया। उधर मामा ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा____"और तू भी ज़्यादा नाटक मत करना, समझ गया ना?"

उनकी बात पर मैं मुस्कुरा उठा। वो जब चले गए तो सरला ने मानों राहत की सांस ली। उसके बाद उसने कमरे की खिड़की खोली और जा कर दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया। ये देख मेरी धड़कनें ये सोच कर तेज़ हो गईं कि कहीं ये सच में तो मुझे पूरा नंगा नहीं करने वाली है?

मैं उसी को देखे जा रहा था। उसने अपनी साड़ी को निकाल कर एक तरफ रखा और फिर पेटीकोट को अपने घुटनों तक उठा कर बाकी का हिस्सा कमर में खोंस लिया। ब्लाउज में कैद उसकी बड़ी बड़ी छातियां मानों ब्लाउज फाड़ने को तैयार थीं। उसका गदराया हुआ बदन मेरे अंदर तूफ़ान सा पैदा करने लगा।

"ऐसे मत देखिए छोटे कुंवर मुझे शर्म आ रही है?" सहसा सरला की आवाज़ से मैं चौंका____"ऐसे में कैसे मैं आपकी अच्छे से मालिश कर पाऊंगी?"

"तुम ऐसे हाल में मालिश करोगी मेरी?" मैंने उसे देखते हुए पूछा।

"और नहीं तो क्या?" उसने कहा____"साड़ी पहने पहने मालिश करूंगी तो ठीक से नहीं कर पाऊंगी और मेरी साड़ी में तेल भी लग जाएगा।"

बात तो उसने उचित ही कही थी इस लिए मैंने ज़्यादा कुछ न कहा किंतु ये ज़रूर सोचने लगा कि क्या सच में सरला मेरे पूरे बदन की मालिश करेगी?

बहरहाल सरला ने कटोरी को उठाया और मेरे पैरों के पास बगल से बैठ गई। वो अब मेरे इतना पास थी कि मेरी निगाह एक ही पल में ब्लाउज से झांकती उसकी छातियों पर जम गईं। सच में काफी बड़ी और ठोस नज़र आ रहीं थी उसकी छातियां। मेरे पूरे बदन में सनसनी सी दौड़ने लगी। धड़कनें तो पहले ही तेज़ तेज़ चल रहीं थी। मैंने फ़ौरन ही उससे नज़र हटा ली और खुद पर नियंत्रण रखने के लिए आंखें बंद कर ली।

पहले तो सरला आराम से ही तेल लगा रही थी किंतु जल्दी ही उसने ज़ोर लगा कर मालिश करना शुरू कर दिया। मुझे अच्छा तो लग ही रहा था किंतु मज़ा भी आ रहा था। तेल से चिपचिपी हथेलियां जब मेरी जांघों के अंतिम छोर तक आती तो मेरे अंडकोशों में झनझनाहट होने लगती। पूरे बदन में मज़े की लहर दौड़ जाती।

"कैसा लग रहा है छोटे कुंवर?" सहसा उसकी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मैंने आंखें खोल कर उसे देखा।

उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। वो घुटनों के बल झुकी सी थी जिससे मेरी नज़र जल्द ही उसके ब्लाउज से आधे से ज़्यादा झांकती छातियों पर जा कर जम गई। वो ज़ोर लगा कर नीचे से ऊपर आती तो उसकी छातियों में लहर सी पैदा हो जाती। फ़ौरन ही वो ताड़ गई कि मैं उसकी छातियां देख रहा हूं। उसे शर्म तो आई लेकिन उसने न तो कुछ कहा और ना ही अपनी छातियों को छुपाने का उपक्रम किया। बल्कि वो उसी तरह मालिश करते हुए मुझे देखती रही।

"क्या हुआ कुंवर जी?" जब मैं बिना कोई जवाब दिए उसकी छातियों को ही देखता रहा तो उसने फिर कहा____"आपने जवाब नहीं दिया?"

"ओह! हां तुमने कुछ कहा क्या?" मैं एकदम से हड़बड़ा सा गया तो इस बार वो खिलखिला कर हंस पड़ी। उसके हंसने पर मैं थोड़ा झेंप गया।

"मैं आपसे पूछ रही थी कि मेरे मालिश करने से आपको कैसा लग रहा है?" फिर उसने कहा।

"अच्छा लग रहा है।" मैंने कहा____"बस ऐसे ही करती रहो।"

वो मुस्कुराई और पलट कर कटोरी को उठा लिया। कटोरी से ढेर सारा तेल उसने मेरी जांघ पर डाला और उसे अपनी हथेली से फैला कर फिर से मालिश करने लगी। सहसा मेरी नज़र मेरे कच्छे पर पड़ी तो मैं चौंक गया। मेरा लंड अपने पूरे अवतार में खड़ा था और कच्छे को तंबू बनाए हुए था। ज़ाहिर है सरला भी ये देख चुकी होगी। मुझे बड़ा अजीब लगा और थोड़ी शर्मिंदगी भी हुई।

"क्या अब मैं उल्टा लेट जाऊं?" मैंने अपने लंड के उठान को छुपाने के लिए उससे पूछा।

"अभी नहीं छोटे कुंवर।" सरला ने मुस्कुराते हुए कहा____"अभी तो पैरों के बाद आपके पेट और सीने की मालिश करूंगी मैं। उसके बाद ही आपको उल्टा लेटना होगा।"

"ठीक है जल्दी करो फिर।" मैं अब असहज सा महसूस करने लगा था। अभी तक मुझे अपने लंड का ख़याल ही नहीं रहा था। वो साला बैठने का नाम ही नहीं ले रहा था। मैंने देखा सरला बार बार मेरे लंड को घूरने लगती थी।

आख़िर कुछ देर में जब पैरों की मालिश हो गई तो वो तेल ले कर ऊपर की तरफ आई। ना चाहते हुए भी मेरी निगाह उस पर ठहर गई। दिल की धड़कनें और भी तेज़ हो गई। उसका पेट कमर नाभि सब साफ दिख रही थी मुझे।

"आपके मामा जी कह गए हैं कि मैं आपकी मालिश करने में कोई कसर बाकी ना रखूं।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"इस लिए अब मैं वैसी ही मालिश करूंगी और हां आप भी विरोध मत कीजिएगा।"

"कैसी मालिश करेगी तुम?" मैंने आशंकित भाव से उसे देखा।

"बस देखते जाइए।" उसने गहरी मुस्कान से कहा____"आप भी क्या याद करेंगे कि सरला ने कितनी ज़बरदस्त मालिश की थी आपकी।"

"अगर ऐसा है तो फिर ठीक है।" मैंने उत्सुकता से कहा____"मैं भी तो देखूं तुम आज कैसे मालिश करती हो मेरी।"

"ठीक है।" सरला के चेहरे पर एकाएक चमक उभर आई____"लेकिन आपको भी मेरी एक बात माननी होगी। मैं जो भी करूं आप करने देंगे और सिर्फ मालिश का आनंद लेंगे।"

"ठीक है।" मैं मुस्कुराया____"मैं तुम्हें किसी बात के लिए नहीं रोकूंगा।"

सरला मेरी बात सुन कर खुश हो गई। उसने कटोरी से मेरे सीने पर तेल डाला और उसे हथेली से फैलाने लगी। जल्दी ही वो मेरे पूरे सीने और पेट पर तेल फैला कर मालिश करने लगी। मैं बस उसको देखता रहा। मैंने पहली बार गौर किया कि वो नौकरानी ज़रूर थी लेकिन बदन से क़हर ढा रही थी। तभी मैं चौंका। वो मेरे कच्छे को पकड़ कर नीचे खिसकाने लगी।

"ये क्या कर रही हो?" मैंने झट से उसे रोका।

"आपने तो कहा था कि आप मुझे नहीं रोकेंगे?" उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा____फिर अब क्यों रोक रहे हैं? देखिए, कच्छा नहीं उतारूंगी तो तेल लग जाएगा इसमें और वैसे भी पूरे बदन की मालिश करनी है ना तो इसे उतारना ही पड़ेगा।"

मेरे ज़हन में बिजली की तरह ख़याल उभरा कि कहीं आज ये मेरा ईमान न डगमगा दे। मुझसे ऐसी ग़लती न करवा दे जो न करने का मैंने भाभी को वचन दिया था। फिर सहसा मुझे ख़याल आया कि ये तो मेरे ऊपर निर्भर करता है कि मैं खुद पर काबू रख सकता हूं या नहीं।

मेरी इजाज़त मिलते ही सरला ने खुशी से मेरा कच्छा उतार कर मेरी टांगों से अलग कर दिया। कच्छे के उतरते ही मेरा लंड उछल कर छत की तरफ तन गया।

"हाय राम! ये....ये इतना बड़ा क्या है।" सरला की मानों चीख निकल गई।

"तुम तो ऐसे चीख उठी हो जैसे ये तुम्हारे अंदर ही घुस गया हो।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

"हाय राम! छोटे कुंवर ये क्या कह रहे हैं?" सरला एकदम से चौंकी____"ना जी ना। ये मेरे अंदर घुस गया तो मैं तो जीवित ही ना बचूंगी।"

"फ़िक्र मत करो।" मैंने कहा____"ये तुम्हारे अंदर वैसे भी नहीं घुसेगा। अब चलो मालिश शुरू करो। मैं भी तो देखूं कि तुम कैसी मालिश करती हो आज।"

सरला आश्चर्य से अभी भी मेरे लंड को ही घूरे जा रही थी। फिर जैसे उसे होश आया तो उसके चेहरे पर शर्म की लाली उभर आई। उधर मेरा लंड बार बार ठुमक रहा था। मेरी शर्म और झिझक अब ख़त्म हो चुकी थी।

"अब तो मैं पक्का आपकी वैसी ही मालिश करूंगी छोटे कुंवर।" फिर उसने खुशी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"जैसा मैं कह रही थी। अब बस आप मेरा कमाल देखिए।"

कहने के साथ ही सरला अपना ब्लाउज खोलने लगी। ये देख मैं चौंका लेकिन मैंने उसे रोका नहीं। अब मैं भी देखना चाहता था कि वो क्या करने वाली है। जल्दी ही उसने अपने बदन से ब्लाउज निकाल कर एक तरफ रख दिया। उसकी छातियां सच में बड़ी और ठोस थीं। कुंवारी लड़की की तरह तनी हुईं थी। मेरा ईमान फिर से डोलने लगा। पूरे जिस्म में झुरझुरी होने लगी। उधर ब्लाउज एक तरफ रखने के बाद वो खड़ी हुई और अपना पेटीकोट खोलने लगी।

मेरी धड़कनें ये सोच कर तेज़ हो गईं क्या वो मुझसे चुदने का सोच ली‌‌ है? नहीं नहीं, ऐसा मैं कभी नहीं होने दे सकता।

"ये क्या कर रही हो तुम?" मैंने उसे रोका____"अपने कपड़े क्यों उतार रही हो तुम?"

"फ़िक्र मत कीजिए कुंवर।" उसने कहा____"मैं आपके साथ वो नहीं करूंगी और कपड़े इस लिए उतार रही हूं ताकि मालिश करते समय मेरे इन कपड़ों पर तेल न लग जाए।"

मैंने राहत की सांस ली लेकिन अब ये सोचने लगा कि क्या ये नंगी हो कर मेरी मालिश करेगी? सरला ने पेटीकोट उतार कर उसे भी एक तरफ रख दिया। पेटीकोट के अंदर उसने कुछ नहीं पहना था। मोटी मोटी जांघों के बीच बालों से भरी उसकी चूत पर मेरी नज़र पड़ी तो एक बार फिर से मेरे पूरे जिस्म में सनसनी फ़ैल गई।

उधर जैसे ही सरला को एहसास हुआ कि मैं उसे देख रहा हूं तो उसने जल्दी से अपनी योनि छुपा ली। उसके चहरे पर शर्म की लाली उभर आई लेकिन हैरानी की बात थी कि वो इसके बाद भी पूरी नंगी हो गई थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर अब ये क्या करने वाली है?

"छोटे कुंवर, अपनी आंखें बंद कर लीजिए ना।" सरला ने कहा____"आप मुझे इस तरह देखेंगे तो मुझे बहुत शर्म आएगी और मैं पूरे मन से आपकी मालिश नहीं कर पाऊंगी।"

मुझे भी लगा कि यही ठीक रहेगा। मैं भी उसे नहीं देखना चाहता था क्योंकि इस हालत में देखने से मेरा अपना बुरा हाल होने लगा था। मैंने आंखें बंद कर ली तो वो मेरे क़रीब आई। कुछ देर तक पता नहीं वो क्या करती रही लेकिन फिर अचानक ही मुझे अपने ऊपर कुछ महसूस हुआ। वो तेल था जो मेरे सीने से होते हुए पेट पर आया और फिर उसकी धार मेरे लंड पर पड़ने लगी। मेरे पूरे जिस्म में आनंद की लहर दौड़ पड़ी। थोड़ी ही देर में सरला के हाथ उस तेल को मेरे पूरे बदन में फैलाने लगे।

मैं उस वक्त चौंक उठा जब सरला के हाथों ने मेरे लंड को पकड़ लिया। सरला के चिपचिपे हाथ मेरे लंड को हौले हौले सहलाते हुए उस पर तेल मलने लगे। आज काफी समय बाद किसी औरत का हाथ मेरे लंड पर पहुंचा था। आनंद की तरंगें पूरे बदन में दौड़ने लगीं थी। मैं सरला को रोकना चाहता था लेकिन मज़ा भी आ रहा था इस लिए रोक नहीं रहा था। उधर सरला बड़े आराम से मेरे लंड को तेल से भिंगो कर उसकी मालिश करने लगी थी। पहले तो वो एक हाथ से कर रही थी लेकिन अब दोनों हाथों से जैसे उसे मसलने लगी थी। मेरा लंड बुरी तरह अकड़ गया था।

"ये...ये क्या कर रही हो तुम?" आनंद से अपनी पलकें बंद किए मैंने उससे कहा।

"चुपचाप लेटे रहिए कुंवर।" सरला ने भारी आवाज़ में कहा____"ये तो अभी शुरुआत है। आगे आगे देखिए क्या होता है। आप बस मालिश का आनंद लीजिए।"

सरला की बातों से मेरे पूरे बदन में झुरझुरी हुई। उसकी आवाज़ से ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसकी सांसें भारी हो चलीं थी। कुछ देर तक वो इसी तरह मेरे लंड को तेल लगा लगा कर मसलती रही फिर एकदम से उसके हाथ हट गए। मैंने राहत की सांस ली। एकाएक मैं ये महसूस कर के चौंका कि मेरी दोनों जांघों पर कोई बहुत ही मुलायम चीज़ रख गई है। मैंने उत्सुकता के चलते आंखें खोल कर देखा तो हैरान रह गया।

सरला पूरी तरह नंगी थी। मेरी तरफ मुंह कर के वो मेरी जांघों पर बैठ गई थी। उसके दोनों पैर अलग अलग तरफ फ़ैल से गए थे। जांघों के बीच बालों से भरी चूत भी फैल गई थी जिससे उसके अंदर का गुलाबी हिस्सा थोड़ा थोड़ा नज़र आने लगा था। तभी सरला ने कटोरा उठाया। उसका ध्यान मेरी तरफ नहीं था। कटोरे में भरे तेल को उसने अपने सीने पर उड़ेलना शुरू कर दिया। कटोरे का तेल बड़ी तेज़ी से उसकी छातियों को भिगोता हुआ नीचे तरफ आया। कुछ नीचे मेरे लंड पर गिरा। सरला थोड़ा सा आगे सरक आई जिससे तेल मेरे पेट पर गिरने लगा।

सरला ने कटोरा एक तरफ रखा और फिर जल्दी जल्दी तेल को अपनी छातियों पर और पेट पर मलने लगी। उसके बाद वो आहिस्ता से मेरे ऊपर झुकने लगी। मैं उसकी इस क्रिया को चकित भाव देखे जा रहा था। कुछ ही पलों में वो मेरे ऊपर लेट सी गई। उसकी छातियां मेरे सीने में धंस गई। उसकी नाभि के नीचे मेरा लंड दब गया। मेरे पूरे जिस्म में मज़े की लहर दौड़ गई।

"ये क्या कर रही हो?" मैं भौचक्का सा बोल पड़ा तो उसने मेरी तरफ देखा।

हम दोनों की नज़रें मिलीं। वो मुस्कुरा उठी। अपने दोनों हाथ मेरे आजू बाजू जमा कर वो अपने बदन को मेरे बदन पर रगड़ने लगी। उसकी बड़ी बड़ी और ठोस छातियां मेरे जिस्म में रगड़ खाते हुए नीचे की तरफ जा कर मेरे लंड पर ठहर गईं। मेरा लंड उसकी दोनों छातियों के बीच फंस गया। सरला से मुझे ऐसे करतब की उम्मीद नहीं थी। तभी वो मेरे चेहरे की तरफ सरकने लगी। मेरा लंड उसकी छातियों का दबाव सहते हुए उसके पेट की तरफ जाने लगा। इधर उसकी छातियां मेरे सीने पर आईं उधर मेरा लंड उसकी नाभि के नीचे पहुंच कर उसकी चूत के बालों पर जा टकराया। मेरे पूरे जिस्म में मज़े की लहर दौड़ रहीं थी।

"कैसा लग रहा है कुंवर।" सरला मेरे चेहरे के एकदम पास आ कर मानों नशे में बोली____"आपको अच्छा तो लग रहा है ना?"

"तुम अच्छे की बात करती हो।" मैं मज़े के तरंग में बोला____"मुझे तो अत्यधिक मज़ा आ रहा है सरला। मुझे नहीं पता था कि तुम्हें ये कला भी आती है। कहां से सीखा है ये?"

"कहीं से नहीं सीखा कुंवर।" उसने कहा____"ये तो अचानक ही सूझ गया था मुझे।"

"यकीन नहीं होता।" मैंने कहा____"ख़ैर बहुत मज़ा आ रहा है। ऐसे ही करती रहो।"

सरला का चेहरा मेरे चेहरे के बिल्कुल क़रीब था। उसके गुलाबी होंठ मेरे एकदम पास ही थे। मेरा जी तो किया कि लपक लूं लेकिन फिर मैंने इरादा बदल दिया। मैं अपने से कुछ भी नहीं करना चाहता था।

"खुद को मत रोकिए छोटे कुंवर।" सरला मेरी मंशा समझ कर बोल पड़ी____"आज इस मालिश का भरपूर आनंद लीजिए। मुझ पर भरोसा रखिए, मैं आपको बिल्कुल भी निराश नहीं करूंगी।"

"पर तुम्हें मुझसे निराश होना पड़ेगा।" मैंने दृढ़ता से कहा____"तुम जिस चीज़ के बारे में सोच रही हो वो नहीं हो सकेगा। मैं तुम्हें इतना करने दे रहा हूं यही बहुत बड़ी बात है।"

"ठीक है जैसी आपकी मर्ज़ी।" कहने के साथ ही सरला फिर से नीचे को सरकने लगी।

मेरा बुरा हाल होने लगा था। जी कर रहा था कि एक झटके से उठ जाऊं और सरला को नीचे पटक कर उसको बुरी तरह चोदना शुरू कर दूं। अपनी इस भावना को मैंने बड़ी बेदर्दी से कुचला और आंखें बंद कर ली। उधर सरला नीचे पहुंच कर मेरे लंड को अपनी दोनों छातियों के बीच फंसाया और फिर दोनों तरफ से अपनी छातियों का दबाद देते हुए मानों मुट्ठ मारने लगी। मेरे जिस्म में और भी ज़्यादा मज़े की तरंगें उठने लगीं।

कुछ देर तक सरला अपनी छातियों से मेरे लंड को मसलती रही उसके बाद वो फिर से ऊपर सरकने लगी। उसकी ठोस छातियां मेरे जिस्म से रगड़ खाते हुए ऊपर की तरफ आने लगीं। तेल लगा होने से बड़ा अजीब सा मज़ा आ रहा था।

तभी मैं चौंका। सरला की छातियां मेरे सीने से उठ कर अचानक मेरे चेहरे से टकराईं। तेल की चिपचिपाहट मेरे चेहरे पर लग गई और तेल की गंध मेरे नथुनों में समा गई। मैंने फ़ौरन अपनी आंखें खोली। सरला एकदम से मेरे ऊपर ही सवार नज़र आई। उसकी तेल में नहाई बड़ी बड़ी छातियां मेरे चेहरे को छू रहीं थी। सरला की ये हिम्मत देख मुझे हैरानी भी हुई और थोड़ा गुस्सा भी आया। यकीनन वो मुझे उकसा रही थी। यानि वो चाहती थी कि मैं अपना आपा खो दूं और फिर वही कर बैठूं जो मैं किसी भी कीमत पर नहीं करना चाहता था। मैंने अब तक सरला के जिस्म के नाज़ुक अंगों को हाथ तक नहीं लगाया था जबकि में अंदर का हाल तो अब ऐसा था कि उसको बुरी तरह रौंद डालने के लिए मन कर रहा था मेरा। मेरे हाथ उसकी बड़ी बड़ी चूचियों को आटे की तरह गूंथ डालने को मचल रहे थे मगर मैं बेतहाशा सब्र किए हुए था। ये अलग बात है कि अपने अंदर मज़े की लहर को रोकना मेरे बस में नहीं था।

"कितनी भी कोशिश कर लो तुम।" मैंने उसकी आंखों में देखते हुए कहा____"ठाकुर वैभव सिंह को मज़बूर नहीं कर पाओगी तुम। बेहतर होगा कि तुम सिर्फ अपने काम पर ध्यान दो।"

"क्या आप मुझे चुनौती दे रहे हैं कुंवर?" सरला ने भी मेरी आंखों में देखा____"इसका मतलब आप चाहते हैं कि मैं ऐसी कोशिश करती रहूं?"

"तुम अपनी सोच के अनुसार कुछ भी मतलब निकाल सकती हो।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"बाकी मेरे कहने का मतलब ये नहीं है कि तुम कोई कोशिश करो। तुम मेरी मालिश करने आई हो तो सिर्फ वही करो। मुझसे चुदने का ख़याल ज़हन से निकाल दो क्योंकि वो मैं नहीं करूंगा और ना ही करने दूंगा। मैंने अपनी होने वाली बीवी को बहुत पहले वचन दिया था कि मैं उनकी उम्मीदों पर खरा उतरूंगा। ऐसा कोई काम नहीं करूंगा जिसके लिए मैं अब तक बदनाम रहा हूं।"

"वाह! कुंवर जी।" सरला मुस्कुराई____"आपकी ये बात सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा। इस स्थिति में भी आप खुद को रोके हुए हैं और आपको अपने वचन का ख़याल है। ये बहुत बड़ी बात है। मैं भी आपको अब मजबूर नहीं करूंगी बल्कि आपके वचन का सम्मान करते हुए सिर्फ आपकी मालिश करूंगी। अब मैं उन सबको बताऊंगी कि आप बदल गए हैं और एक अच्छे इंसान बन गए हैं जो कहती थीं कि आप इन मामलों में बहुत बदनाम हैं।"

"तुम्हें ये सब किसी से कहने की ज़रूरत नहीं है सरला।" मैंने कहा____"तुम बस अपना काम करो और खुशी खुशी जाओ यहां से।"

"ठीक है कुंवर।" सरला ने मुस्कुराते हुए कहा____"वैसे आपसे एक विनती है।"

"कैसी विनती?"

"मेरे मालिश के चलते आपका ये मूसल।" उसने मेरे खड़े हुए लंड को देखते हुए कहा____"पूरी तरह से संभोग के लिए तैयार हो चुका है। इसके अंदर की आग को बाहर निकालना ज़रूरी है। क्या मैं आपको शांत कर दूं?"

"कैसे शांत करोगी?" मैंने पूछा।

"हाथ से ही करूंगी और कैसे?" वो हल्के से हंसी।

"ठीक है।" मैंने कहा____"तुम अपनी ये इच्छा पूरी कर सकती हो।"

सरला खुश हो गई। वो मेरे ऊपर से उठी और नंगी ही मेरे लंड के पास बैठ गई। तेल तो पहले से ही लगा हुआ था इस लिए वो लंड को पकड़ कर मुठियाने लगी।

"वैसे आपकी होने वाली दोनों पत्नियां बहुत भाग्यशाली हैं छोटे कुंवर।" फिर उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"उनके नसीब में इतना बड़ा औजार जो मिलने वाला है। मुझे पूरा यकीन है कि इस मामले में वो हमेशा खुश रहेंगी।"

उसकी इस बात से मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हुआ। पलक झपकते ही मेरी आंखों के सामने रूपा और रागिनी भाभी का चेहरा चमक उठा। रूपा से तो कोई समस्या नहीं थी लेकिन रागिनी भाभी का सोच कर ही जिस्म में अजीब सा एहसास होने लगा।

"क्या मैं इसे चूम लूं कुंवर?" सरला की आवाज़ से मैं चौंका।

"ठीक है जो तुम्हें ठीक लगे कर लो।" मैंने कहा____"लेकिन जल्दी करो। मुझे बाहर भी जाना है।"

सरला फ़ौरन ही अपने काम में लग गई। वो कभी मुट्ठ मारती तो कभी झुक कर मेरे लंड को चूम लेती। फिर एकाएक ही उसने मेरे लंड को मुंह में भर लिया। उसके गरम मुख का जैसे ही एहसास हुआ तो मजे से मेरी आंखें बंद हो गईं। दोनों हाथों से लंड पकड़े वो उसे चूसे जा रही थी। मैं हैरान भी था उसकी इस हरकत से लेकिन मज़े में बोला कुछ नहीं।

मेरा बहुत मन कर रहा था कि सरला के सिर को थाम लूं और कमर उठा उठा कर उसके मुंह को ही चोदना शुरू कर दूं लेकिन मैंने अपनी इस इच्छा को बड़ी मुश्किल से रोका। हालाकि मज़े के चलते मेरी कमर खुद ही उठ जा रही थी। सरला कभी मेरे अंडकोशों को सहलाती तो कभी मुट्ठी मारते हुए लंड चूसने लगती। मेरा मज़े में बुरा हाल हुआ जा रहा था। अपनी इच्छाओं को दबा के रखना बड़ा ही मुश्किल होता जा रहा था। सरला किसी कुशल खिलाड़ी की तरह मेरा लंड चूसने में लगी हुई थी।

आख़िर दस मिनट बाद मुझे लगने लगा कि मेरी नशों में दौड़ता लहू बड़ी तेज़ी से मेरे अंडकोशों की तरफ भागता हुआ जा रहा है। सरला को भी शायद एहसास हो गया था। वो और तेज़ी से मुठ मारनी लगी।

"आह!" मेरे मुंह से मज़े में डूबी आह निकली और मुझे झटके लगने लगे।

सरला ने लपक कर मेरे लंड को मुंह में भर लिया और मेरा वीर्य पीने लगी। आनंद की चरम सीमा में पहुंचने के बाद मैं एकदम शांत पड़ गया। उधर सरला सारा वीर्य गटकने के बाद अब मेरे लंड को चाट रही थी। बड़ी की कौमुक और चुदक्कड़ औरत थी शायद।​
 
अध्याय - 164
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सरला ने लपक कर मेरे लंड को मुंह में भर लिया और मेरा वीर्य पीने लगी। आनंद की चरम सीमा में पहुंचने के बाद मैं एकदम शांत पड़ गया। उधर सरला सारा वीर्य गटकने के बाद अब मेरे लंड को चाट रही थी। बड़ी की कौमुक और चुदक्कड़ औरत थी शायद।

अब आगे....


तीन दिन मानों पंख लगा कर उड़ गए और विवाह का दिन आ गया। हवेली किसी दुल्हन की तरह सजी हुई थी। पिता जी मानों सब कुछ भूल कर इस पल को जी लेना चाहते थे। तभी तो ठीक उसी तरह हवेली को सजवाया था जैसे बड़े भैया के विवाह के समय सजवाया था। थोड़ा भावुक से नज़र आ रहे थे वो, कदाचित बड़े बेटे का इसी तरह विवाह करना याद आ गया था उन्हें। मां का भी यही हाल था लेकिन वो किसी तरह अपने जज़्बातों को काबू में रखे हुए थीं।

एक तरफ मुझे सजाया जा रहा था। अमर मामा मुझे सजता देख बड़ा खुश थे। हर कोई खुश था। मेरी बहनें पहले से ही सज धज कर तैयार थीं और मेरे पास ही बैठी हुईं थी। कुसुम का बस चलता तो वो खुशी के मारे उछलने कूदने लगती लेकिन जाने कैसे खुद को रोक रखा उसने? विभोर और अजीत भी सज धज कर तैयार थे। दोनों के चेहरे खुशी से चमक रहे थे। हवेली के अंदर औरतें गीत गा रहीं थी।

हवेली के बाहर पहले से ही ढोल नगाड़े बज रहे थे। बारात में जाने के लिए काफी लोग जमा हो गए थे। पिता जी को पहले से ही पता था कि लोग ज़्यादा होंगे इस लिए शहर से उन्होंने एक बस गाड़ी बुला लिया था। मेरे लिए यानि दूल्हे के लिए एक चमचमाती एंबेसडर कार आ गई थी। हमारे पास पहले से ही चार जीपें थी। महेंद्र सिंह की दो जीपें थी, अर्जुन भी अपनी दो जीपें ले आए थे। वहीं अवधेश मामा और अमर मामा की जीपें भी थी। हवेली के विशाल मैदान में वाहन ही वाहन दिख रहे थे। पिता जी ने बारात में चलने के लिए रूपचंद्र और गौरी शंकर को भी निमंत्रण दिया था इस लिए वो भी आ गए थे। उनके घर से फूलवती और सुनैना देवी भी इस वक्त हवेली में मौजूद थी और सबके साथ गीत गा रहीं थी।

आख़िर शाम होने से पहले ही मुझे दूल्हा बना कर अंदर से बाहर लाया जाने लगा। औरतें गीत गा रहीं थी और धीरे धीरे मुझे बाहर ला रहीं थी। मैं आज दूल्हा बना हुआ था। मुझे इस तरह सजाया गया था कि जैसे ही मैं बाहर आया सबके सब मुझे ही देखते रह गए। अचानक ही वातावरण बंदूकों के तेज़ धमाकों से गूंजने लगा। सबसे पहले महेंद्र सिंह ने अपनी बंदूक की नाल ऊपर कर के मानों सलामी। उनके बाद ज्ञानेंद्र सिंह, अर्जुन सिंह, संजय सिंह। पिता जी की बंदूक बड़े मामा ले रखे थे इस लिए उन्होंने एक के बाद एक फायर किया। ढोल नगाड़ों का शोर कुछ और ज़्यादा होने लगा। रूपचंद्र मुझे देखते ही मेरे पास भाग कर आया। मुझे देख वो बड़ा खुश हुआ।

अमर मामा ने मुझे कार में बैठाया। मां और मेनका चाची मेरी आरती उतार कर मुझे तिलक करने लगीं। एकाएक फिर से वातावरण में शोर उठा। मैंने देखा कार के सामने अमर मामा नाचने लगे थे। ये देख एक एक कर के बाकी लोग भी नाचने लगे। थोड़ी देर बाद जब वो रुके तो मेरी मामियां नाचने लगीं। कुसुम, सुमन और सुषमा भी नाचने लगीं।

"भाभी श्री बेटे का विवाह होने जा रहा है आज।" सहसा महेंद्र सिंह मां के पास आ कर बोले____"इस शुभ अवसर पर आपको भी खुशी से नाचना चाहिए।"

"हां जी क्यों नहीं।" मां ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन आपको भी हमारे साथ नाचना होगा।"

"अरे! ये भी कोई कहने की बात है भला।" महेंद्र सिंह ने हंसते हुए कहा____"हम तो वैसे भी अपने मित्र के साथ नाचने का सोच चुके थे। आपके साथ नाचना तो हमारे लिए बड़े सौभाग्य की बात है।"

"अच्छा जी ऐसा है क्या?" मां मुस्कुराईं___"तो फिर चलिए। हम भी तो देखें कि आप हमारे साथ कितना उछलते हैं।"

सबने मां और महेंद्र सिंह की बातें सुन ली थी। इस लिए सब उन्हें ही देखने लगे थे। अर्जुन सिंह तेज़ी से आए और गाना बजाने वालों को रोक कर अच्छा सा गाना बजाने को कहा। फिर क्या था वो बजाने लगे। इधर जैसे ही गाना बजना शुरू हुआ तो मां आगे बढ़ीं और नाचने लगीं। उन्हें नाचता देख सभी औरतें लड़कियां आंखें फाड़ कर उन्हें देखने लगीं। महेंद्र सिंह मुस्कुराते हुए आगे बढ़े और मां के साथ वो भी नाचने लगे। ये देख अर्जुन सिंह वगैरह सब के सब खुशी से चीखने लगे। ज्ञानेंद्र सिंह आज अपने बड़े भाई साहब को इस तरह नाचते देख पहले तो हैरान हुआ फिर खुशी से तालियां बजाने लगा। पलक झपकते ही सबको पता चल गया कि हवेली की बड़ी ठकुराईन और महेंद्र सिंह नाच रहे हैं। इस लिए सब के सब उस जगह की तरफ भागते हुए आए।

मां और महेंद्र सिंह नाचने में लगे हुए थे। मां का तो ख़ैर समझ में भी आ रहा था लेकिन महेंद्र सिंह ऐसे ही उछल रहे थे। उन्हें ताल अथवा रिदम से कोई मतलब नहीं था। सहसा उनकी नज़र मेनका चाची पर पड़ी तो नाचते हुए एकाएक वो उनकी तरफ बढ़ चले। मेनका चाची ये देख चौंकी।

"मझली ठकुराईन आप इस तरह चुपचाप क्यों खड़ी हैं?" फिर उन्होंने चाची से कहा____"आप तो वैभव की चाची हैं। आपको भी तो इस खुशी के अवसर पर नाचना चाहिए, आइए न।"

मेनका चाची उनकी बात सुन कर घबरा सी गईं। घूंघट किए वो पिता जी की तरफ देखने लगीं। उनके पीछे खड़ी औरतें उन्हें पीछे से धकेलने लगीं और कहने कि आप भी नाचिए मझली ठकुराईन। पिता जी ने शायद इशारा कर दिया था इस लिए चाची ने पलट कर महेंद्र सिंह की तरफ देखा।

"आइए न ठकुराईन।" महेंद्र सिंह ने बड़े प्रेम भाव से कहा____"हमसे अब शर्माने की ज़रूरत नहीं है। हम तो वैसे भी आने वाले समय में एक नए रिश्ते में बंध जाएंगे। क्या आपको अभी भी हमारा प्रस्ताव मंज़ूर नहीं है?"

मेनका चाची बोली तो कुछ न लेकिन आगे ज़रूर बढ़ कर आ गईं। ये देख महेंद्र सिंह खुश हो गए। मां थोड़ी देर के लिए रुक गईं थी। शायद नाचने से उनकी सांसें फूल गईं थी। उधर जैसे ही चाची आगे आईं तो अर्जुन सिंह ने दूसरा गाना बजाने का हुकुम दिया। जैसे ही दूसरा गाना बजा महेंद्र सिंह ने खुद ही नाचना शुरू कर दिया। मैं कार में बैठा ये सब देख रहा था। सबको इस तरह नाचते देख मुझे भी अच्छा लग रहा था।

महेंद्र सिंह को नाचता देख चाची भी नाचने लगीं। ये देख विभोर और अजीत खुशी से झूम उठे। वो दोनों भी अपनी मां के साथ नाचने लगे। मैंने देखा मेनका चाची सच में बहुत अच्छा नाच रहीं थी। महेंद्र सिंह ने फिर से मां को बुला लिया तो मां भी आगे बढ़ कर नाचने लगीं। पिता जी दूर से ये सब देख रहे थे। उनके चेहरे पर भी खुशी के भाव थे। सहसा महेंद्र सिंह पलटे और जा कर पिता जी का हाथ पकड़ लिया।

"ठाकुर साहब।" फिर वो बोले____"आप भी आइए न। इस शुभ अवसर पर आज आपको भी नाचना पड़ेगा। कृपया इंकार मत कीजिएगा।"

पिता जी सच में इंकार नहीं कर सके। उन्होंने मुस्कुराते हुए हां कहा और फिर उन्होंने अर्जुन सिंह और संजय सिंह को भी बुला लिया। वो दोनों भी हंसते हुए आ गए। उसके बाद शुरू हुआ ठुमकना। ये देख हर कोई ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा। एक बार फिर से वातावरण में बंदूकें गरज उठीं।

जीवन में आज पहली लोग दादा ठाकुर को नाचते हुए देख रहे थे। उनके लिए जैसे ये पल बड़ा ही अद्भुत था। देखते ही देखते मामा लोग और बाकी लोग भी नाच में शामिल हो गए। शेरा, भुवन और रूपचंद्र भी नाचने लगे। सच में अद्भुत नज़ारा दिखने लगा था।

आख़िर कुछ देर बाद सबका नाचना बंद हुआ। पिता जी ने कहा कि अब चलना चाहिए, आगे देवी मां के मंदिर में अभी पूजा भी करनी है। उनके कहने पर सब बाराती लोग वाहनों में बैठने लगे। कुछ ही देर में काफ़िला हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ चला। सभी औरतें भी गीत गाते हुए आने लगीं।

थोड़ी ही देर में हम सब मंदिर पहुंच गए। मामा जी के कहने पर मैं कार से उतरा और जूते उतार कर मंदिर की तरफ बढ़ चला। मंदिर में पूजा की मैंने, नारियल तोड़ा। थोड़ी देर वहां भी नाच गाना हुआ उसके बाद फिर से बारात चल पड़ी। कुसुम के साथ सुमन और सुषमा मेरी कार में मेरे साथ ही बैठ गईं थी। उनके साथ अमर मामा भी थे। सभी औरतें मंदिर से ही वापस हवेली लौट गईं जबकि हम सब चंदनपुर के लिए चल पड़े थे।

✮✮✮✮

चंदनपुर में भी कम रौनक नहीं थी। पूरा घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था। घर के बाहर बड़े से मैदान में चारो तरफ चांदनी लगी हुई थी। चाचा ससुर का घर बगल से ही था इस लिए दोनों घरों के बीच जो लकड़ी की बाउंड्री होती थी उसे हटा कर चौगान को एक कर दिया गया था ताकि ना तो इधर से उधर आने जाने में समस्या हो और ना ही बारातियों को बैठने के लिए जगह कम पड़े। हर जगह चांदनी लगी हुई थी। मैदान अच्छे से साफ कर दिया गया था।

वीरेंद्र सिंह, बलवीर सिंह और वीर सिंह तीनों भागे भागे फिर रहे थे। उनकी ससुराल से आए लोग भी कामों में लगे हुए थे। सबको समझा दिया गया था कि बारात के आते ही क्या क्या करना है और कैसे कैसे करना है। सबसे पहले बारातियों का अच्छे से स्वागत करना है। जल पान, नाश्ता वगैरह देना है। ये सारी बातें कल से ही समझाई जा रहीं थी।

घर के अंदर आंगन में मंडप था जहां पर विवाह होना था। ढेर सारी औरतें अलग अलग कामों में लगी हुईं थी। एक तरफ बरातियों के लिए तरह तरह के पकवान बनाए जा रहे थे।

वहीं एक कमरे में रागिनी पलंग पर मेंहदी लगाए बैठी थी। उसके चारो तरफ लड़कियों की भीड़ थी। उन सबकी मुखिया मानों शालिनी थी। गांव की कुछ और लड़कियां आ गईं थी। सब रागिनी को चारो तरफ से घेरे हुए थीं और हंसी ठिठोली कर के रागिनी का बोलना बंद किए हुए थीं।

कामिनी बीच बीच में बाहर से आती और अपनी दीदी पर एक भरपूर नज़र डाल कर चली जाती। अपनी बड़ी बहन के लिए आज वो बहुत खुश थी। हमेशा शांत और गंभीर रहने वाली लड़की इन कुछ महीनों में बहुत बदल गई थी।

ऐसे ही हंसी खुशी वक्त गुज़रता रहा और शाम घिर गई। अंदर बाहर हर जगह बल्ब लगे हुए थे जो शाम होते ही जनरेटर के द्वारा रोशन हो उठे। रंग बिरंगी चांदनी बल्बों के रोशन हो जाने से जगमग जगमग करने लगी।

"क्या सोच रही हो रागिनी?" शालिनी ने पूछा____"देख अब तो बारात के आने समय भी होने लगा है। कुछ ही देर में तेरे दूल्हे राजा आ जाएंगे। आज रात तू उनकी पत्नी बन जाएगी और कल सुबह वो तुझे अपने साथ ले जाएंगे। उसके बाद वहां हवेली के उनके कमरे में तू उनके साथ....।"

"चुप कर बेशर्म।" रागिनी झट से बोल पड़ी____"जब देखो यही चलता रहता है तेरे मन में।"

"चल मान लिया कि मेरे मन में चलता रहता है लेकिन।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन अब तो तेरे मन में भी चलने ही लगा होगा। मुझे यकीन है सुहागरात के बारे में सोच सोच कर ही खुशी के लड्डू फूट रहे होंगे तेरे मन में।"

"मुझे अपनी तरह मत समझ तू।" रागिनी पहले तो शरमाई फिर घूरते हुए बोली____"मैं तेरे जैसी नहीं हूं जो हर वक्त एक ही बात सोचती रहूं।"

"अच्छा, ऐसे माहौल में इसके अलावा भी क्या कोई कुछ और सोचता है?" शालिनी ने कहा____"बड़ी आई शरीफ़जादी। सब समझती हूं मैं। तू जितना शरीफ बन रही है ना उतनी है नहीं।"

"तुझे जो समझना है समझ।" रागिनी ने बुरा सा मुंह बनाया____"तुझे समझाना ही बेकार है।"

"अच्छा छोड़ गुस्सा न कर।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"और ये बता कि तूने साफ सफ़ाई तो कर ली है ना?"

"स...साफ सफ़ाई?" रागिनी को जैसे समझ ना आया____"कैसी साफ सफ़ाई?"

"अरे! अंदर की साफ सफ़ाई।" शालिनी की मुस्कान गहरी हो गई____"मेरा मतलब है कि अपने जंगल की साफ सफ़ाई कर ली है ना तूने? पता चले जीजा जी जंगल में भटक जाएं और बाहर ही ना निकल पाएं।"

रागिनी को पहले तो समझ ना आया लेकिन फिर एकदम से उसके दिमाग़ की बत्ती जली। उसे बड़ा तेज़ झटका लगा। उसने आश्चर्य से आंखें फाड़ कर शालिनी को देखा।

"कुत्ती कमीनी।" फिर वो थोड़ा गुस्से से बोली____"क्या बकवास कर रही है ये?"

"अरे! ये बकवास नहीं है मेरी लाडो।" शालिनी हंसते हुए बोली____"बल्कि मैं तो तेरी अच्छी सहेली होने के नाते तुझे याद दिला रही हूं कि तूने अपनी सारी तैयारी कर ली है कि नहीं।"

"तू ना सच में बहुत बेशर्म हो गई है।" रागिनी ने उसे घूरते हुए कहा____"अब अपनी बकवास बंद कर और जा अपने घर।"

"अरे! मुझे क्यों भगा रही है?" शालिनी चौंकी____"कहीं अकेले में कुछ करने का तो नहीं सोच लिया है तूने?"

"कुछ भी मत बोल।" रागिनी ने कहा____"मैं अकेले में भला क्या करूंगी? वो तो मैं तुझे जाने को इस लिए कह रही हूं कि घर जा कर तू भी खुद को तैयार कर ले। उसके बाद क्या पता तुझे जाने का मौका मिले या न मिले।"

"तू मेरी चिंता मत कर।" शालिनी ने कहा____"सविता आने वाली है। उसके आते ही चली जाऊंगी।"

✮✮✮✮

उस वक्त शाम के क़रीब साढ़े सात बज रहे थे जब बारात चंदनपुर पहुंची। बारात के रुकने की व्यवस्था घर से कुछ ही दूरी पर कर दी गई थी अतः बारात वहीं पहुंच कर रुकी। वीरेंद्र सिंह और बलवीर सिंह फ़ौरन ही पहुंच गए सबको उचित जगह पर बैठाने के लिए। जनवासे में भी अच्छा खासा इंतज़ाम था।

बलवीर और वीरेंद्र दोनों ही सबको बैठाने के बाद जल पान करवाने लगे। मैं भी एक जगह बैठ गया था। मेरे पास मेरी बहनें थीं, अमर मामा थे, भुवन था और रूपचंद्र भी था। बड़े मामा का लड़का थोड़ी दूरी पर बैठा था। वो उमर में मुझसे काफी बड़ा था इस लिए उससे ज़्यादा मैं घुला मिला नहीं था। हालाकि वो मुझे छोटा भाई मान कर बहुत स्नेह देता था।

ख़ैर कुछ समय रुकने के बाद हम सब वहां से वीरेंद्र सिंह के घर की तरफ चल पड़े। मैं और मेरी बहनें फिर से कार में बैठ गए। कार के आगे बैंड बाजा वाले चलने लगे। मामा का लड़का रूपचंद्र के साथ मिल कर आतिशबाजियां करते हुए आगे आगे चलने लगा। बैंड बाजा वालों के बीच कई लोग नाचने भी लगे थे। इस चक्कर में चलने की रफ़्तार धीमी हो गई।

"वो देखिए भैया।" कार की पिछली सीट में बैठी कुसुम एकदम से बोल पड़ी____"लगता है भाभी का घर वहां पर है। देखिए कितना जगमग जगमग दिख रहा है वहां।"

कुसुम की खुशी और उत्साह में कही गई ये बात सुन कर मैं बरबस ही मुस्कुरा उठा। मेरी निगाह भी उस तरफ चली गई जहां पर कुसुम ने इशारा किया था। सचमुच रागिनी भाभी का घर काफी जगमग कर रहा था। मुझे याद आया कि इसी तरह बड़े भैया के विवाह के समय भी जगमग जगमग हो रहा था।

एकाएक ही भैया का ख़याल आ गया मुझे। आंखों के सामने उनका चेहरा उभर आया। मेरे अंदर अजीब सी अनुभूति हुई। मन में ख़याल उभरा कि ये ऊपर वाले का कैसा विचित्र खेल है कि जो मेरे बड़े भैया की पत्नी थीं आज मैं उन्हें ही अपनी पत्नी बनाने आया हूं। मन थोड़ा सा बोझिल हो गया। मैंने मन ही मन भैया से इसके लिए माफ़ी मांगी।

कुछ ही देर में आख़िर हम सब वीरेंद्र सिंह के घर पहुंच गए। वहां पहले से ही द्वार पर हमारे स्वागत के लिए सब घर वाले खड़े थे। मेरी कार चौगान के बाहर ही फूलों के द्वारा बनाए गए दरवाज़े के पास जा कर रुक गई थी। बाकी बाराती लोग आगे बढ़े। वहां स्वागत में खड़े लोग फूल माला पहना कर सबका स्वागत करने लगे। बलभद्र जी ने सबसे पहले पिता जी के गले में फूल माला डाल कर उनका स्वागत किया और तिलक लगाया। उनके बाद महेंद्र सिंह, मामा लोग आदि का इसी तरह स्वागत हुआ।

कुछ समय बाद भाभी के पिता यानि वीरभद्र सिंह हाथों में आरती की थाली लिए मेरे पास आए। अमर मामा ने कार का दरवाज़ा खोल दिया तो उन्होंने मेरी आरती उतार कर तिलक लगाया। मामा ने मुझे कार से बाहर आने का इशारा किया तो मैं चुपचाप आ गया। मेरे पीछे पीछे मेरी बहनें भी उतर आईं।

जब बड़े भैया का विवाह हुआ था तब इसी तरह वीरभद्र जी उन्हें लेने आए थे और फिर उन्हें अपनी गोद में उठा कर उस जगह तक ले गए थे जहां पर द्वारचार होना था।

"मेरी दिली इच्छा तो यही है महाराज कि आपको अपनी गोद में उठा कर ले चलूं।" फिर उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए भारी गले से कहा____"किंतु बात के चलते पांव में ताक़त नहीं है। इस लिए मुझे माफ़ करना महाराज, मैं आपको गोद में उठा कर नहीं ले जा सकूंगा। आपको अपने पैरों पर ही चल कर आना होगा।"

"कोई बात नहीं समधी जी।" अमर मामा प्रेम भाव से बोल पड़े____"कोई ज़रूरी नहीं कि गोद में दामाद को उठा कर ले जाने पर ही आपका प्रेम भाव दिखेगा। वो तो कैसे भी दिख सकता है। आप इस बात के लिए चिंतित न हों, मेरा भांजा अपने पैरों पर चल कर ही जाएगा।"

वीरभद्र जी ने कृतज्ञता से मामा को देखा और फिर हाथ जोड़ कर मुझे चलने को कहा तो मैं चल पड़ा। कुछ ही पलों में मैं उस जगह पर आ गया जहां पर द्वारचार और पूजा होनी थी। ढेर सारी औरतें और लड़कियां सिर पर कलशा लिए गाना गाने लगीं थी।

बहरहाल बड़े ही विधिवत तरीके से द्वारचार हुआ। कलशा ली हुई औरतों और लड़कियों को पिता जी ने उनका नेग दिया। उसके बाद मामा मुझे वापस ले गए। अगली विधि लड़की के चढ़ाव की थी जो घर के अंदर आंगन में मंडप के नीचे होती थी। तब तक यहां बारातियों का खाना पीना होता था। चढ़ाव के बाद दूल्हा अंदर जाता था और विवाह की शुभ लग्न में दुल्हन के साथ पूरे रीति रिवाज से दोनों का विवाह होता था।

बहरहाल द्वारचार के बाद बारातियों का खाना पीना शुरू हो गया था। उधर घर के अंदर मंडप के नीचे रागिनी भाभी का चढ़ाव होने लगा था। पिता जी, मामा लोग और महेंद्र सिंह सब वहीं बैठे थे। सबकी नज़रें भाभी पर टिकीं थी। रागिनी भाभी सिर झुकाए बैठी थीं। पंडित अपने मंत्र पढ़ रहे थे। नाउ और पंडित अलग अलग रीति रिवाज तथा विधि के अनुसार अपना काम कर रहे थे। पिता जी अपनी होने वाली बहू के लिए गहने लाए थे जिन्हें उन्होंने सौंप दिया था। आंगन में भारी मात्रा में बैठी औरतें एक साथ गाना गा रहीं थी।

चढ़ाव संपन्न हुआ तो बधू को उठा कर अंदर ले जाया गया। अब इसके बाद उस समय का इंतज़ार था जब विवाह के प्रारंभ होने का शुभ मुहूर्त आता। तब तक पिता जी और बाकी लोगों ने भी वीरभद्र जी के कहने पर खाना खाया।

विवाह का शुभ मुहूर्त कुछ ही देर में आ गया तो मुझे अंदर मंडप में ले जाया गया। मेरी धड़कनें एकाएक ही बढ़ चलीं थी। मेरे मन में ख़याल उभरा कि अब मैं एक पति के रूप में अपनी भाभी के साथ मंडप में बैठने वाला हूं। इसके बाद से मेरा उनसे पुराना रिश्ता हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा। ज़ाहिर है इसके साथ ही उस रिश्ते के सारे एहसास और सारी मर्यादाएं भी समाप्त हो जाएंगी। उन सबकी जगह एक नया रिश्ता बन जाएगा और फिर उस नए रिश्ते के साथ ही नए एहसास और नए विचारों का जन्म हो जाएगा। ये सब सोचते ही मेरे समूचे जिस्म में एक अजीब सी सर्द लहर दौड़ गई। मुझे पता ही न चला कि कब मैं अंदर मंडप में आ गया। चौंका तब जब मामा ने मुझे हौले से पुकार कर बैठने को कहा।

मेरे आते ही आंगन में बैठी औरतों का गीत एक अलग ही तरह से गूंजने लगा। घर के बाहर बैंड बाजा वाले अपना काम किए जा रहे थे और अंदर औरतें मीठे मीठे गीत गाने में मगन थीं।

मेरे आसन पर बैठते ही दोनों तरफ के पंडित जी शुरू हो गए। उनके कहे अनुसार मैं क्रियाएं करने लगा। रागिनी भाभी को अभी बुलाया नहीं गया था। शायद थोड़ी पूजा के बाद ही उनका आगमन होना था। मेरा मन बार बार उनकी तरफ ही चला जाता था और मैं ये सोचने लगता था कि जब वो आएंगी और मेरे बगल से बैठ जाएंगी तब कैसा महसूस होगा मुझे? क्या उनका भी इस समय मेरे जैसा ही हाल होगा?

कुछ समय बाद आख़िर उन्हें भी बुलाया गया। थोड़ी ही देर में वो अंदर से आती दिखीं। ना चाहते हुए भी मेरी गर्दन घूम गई और मेरी नज़रें उन पर जा टिकीं। कई सारी लड़कियों से घिरी वो सोलह श्रृंगार किए धीरे धीरे चली आ रहीं थी। मैं अपलक उस सुंदरता की मूरत को देखता ही रह गया। तभी किसी ने मुझे मानों नींद से जगाया तो मैं एकदम से हड़बड़ा गया। पलट कर देखा तो रूपचंद्र मेरे पास ही बैठा मुस्करा रहा था।

"कम से कम सबके सामने तो दीदी को ऐसे न घूरो।" उसने धीमें से कहा____"वरना लोग सोचेंगे कि दूल्हा तो बड़ा बेशर्म है।"

मैं रूपचंद्र की इस बात से बुरी तरह झेंप गया। मुझे शर्मिंदगी भी महसूस हुई। मन ही मन सोचा कि सच ही तो कह रहा है वो। अगर मैं ऐसे ही अपलक उन्हें घूरता रहूंगा तो सच में लोग मुझे बेशर्म समझ बैठेंगे। वैसे भी ज़्यादातर लोगों को तो पता ही है कि मैं कैसे चरित्र का इंसान रहा हूं। बात अगर किसी और की होती तो शायद इतना कोई न सोचता मगर यहां बात उनकी है जिनसे मेरा देवर भाभी का रिश्ता था।

मेरी धड़कनें उस वक्त थम सी गईं जब उन सारी लड़कियों ने भाभी को ला कर मेरे बगल से बैठा दिया। उफ्फ! कितना अद्भुत एहसास था वो। अगर रूपा एक अद्भुत लड़की है तो इस वक्त रागिनी भाभी भी मेरे लिए अद्भुत ही लगने लगीं थी। मेरे बगल से उनके बैठ जाने से बड़ा अद्भुत एहसास होने लगा था मुझे। मेरा जी चाहा कि अपनी गर्दन को हल्का सा मोड़ कर उन्हें फिर से एक नज़र देख लूं मगर चाह कर भी मैं ऐसा करने की हिम्मत न जुटा सका। धाड़ धाड़ बजती धड़कनों की धमक किसी हथौड़े की तरह कानों में पड़ती सी महसूस हो रहीं थी। मेरे अंदर एक अजीब सी हलचल मच गई थी। मैंने खुद को बड़ी मुश्किल से सम्हाल कर सामान्य होने की कोशिश की।

एक तरफ औरतों के मधुर गीत तो दूसरी तरफ पंडितों के मंत्रोच्चार वातावरण में अलग ही नाद का आभास कराने लगे। बड़े भैया के विवाह के समय मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था क्योंकि मैं लड़कियां ताड़ने में व्यस्त हो गया था लेकिन आज पता चल रहा था कि विवाह में कितनी सारी विधियां और कितने सारे रीति रिवाज़ होते हैं। रात आधी गुज़र गई थी किंतु विवाह अभी तक संपन्न न हुआ था। जाने कैसी कैसी विधियां और रस्में होती चली जा रहीं थी।

भाभी के पीछे ही उनकी छोटी बहन कामिनी और उनकी सहेली शालिनी बैठी हुई थी। बीच बीच में वो भाभी की चुनरी को ठीक करने लग जाती थीं। उनके पीछे औरतें बनरा बियाह जैसे गीत गाने में मशगूल थीं। उनके गाने ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। इधर मेरी तरफ थोड़ी पीछे कुसुम, सुमन और सुषमा बैठी सारी क्रियाएं देख रहीं थी। थोड़ी दूरी पर विभोर और अजीत भी बैठे हुए थे। रूपचंद्र उठ कर अमर मामा के पास चला गया था। अमर मामा औरतों के पास ही बैठे हुए थे और उनके गीतों का आनंद ले रहे थे।

रात भर जाने कैसी कैसी विधियां और रस्में हुईं। मैं और भाभी ख़ामोशी से पंडित के निर्देशों पर अपना कार्य एक साथ करते रहे।

उस वक्त सुबह होने लगी थी जब वीरेंद्र लावा परसने की रस्म के लिए आया। उसके हाथ में एक सूपा था और सूपे में कुछ चीज़ें पड़ीं थी। पंडित जी के निर्देशानुसार भाभी मेरे आगे खड़ी हो गईं और मैं उनके पीछे। उनके दोनों हाथ आगे की तरफ अंजुली की शक्ल में जुड़ गए थे। इधर पीछे से मुझे उनके हाथों की अंजुली के नीचे अपने हाथों की अंजुली बना कर रखनी थी। ख़ैर लावा परसना शुरू हुआ। वीरेंद्र सूपे से चीजें उठा कर भाभी की अंजुली में डालता, इधर भाभी पंडित के कहने पर अपनी अंजुली को नीचे की तरफ से खोल कर सारी चीज़ें मेरी अंजुली में गिरा देतीं और फिर मैं नीचे गिरा देता। यही प्रक्रिया काफी देर तक चलती रही। पीछे से मेरा पूरा जिस्म भाभी से सटा हुआ था और इस स्थिति में मुझे बड़ा अजीब भी लग रहा था। ख़ैर क्या कर सकता था, ये विधि अथवा रस्म ही ऐसी थी।

वीरभद्र जी ने कन्यादान वगैरह किया। फेरे हुए, सिंदूर चढ़ाया, मंगलसूत्र पहनाया मैंने। पंडित जी ने पति पत्नी के सात वचन बता कर हमसे क़बूल करवाया। सातों वचन क़बूल करने के बाद भाभी को मेरे बाएं तरफ बैठा दिया गया। यानि अब वो पूर्ण रूप से मेरी पत्नी बन चुकीं थी।

सुबह का उजाला होने लगा था। पांव पूजने की रस्म शुरू हो गई। पीतल की एक बड़ी सी परात में पीला पीला गाढ़ा सा थोड़ा पानी भरा हुआ था। उसके बीच आटे की गोलाकार मोटी सी लोई पड़ी थी, बीच में कुछ था उसके। बहरहाल, एक एक कर के सभी घर वाले हम दोनों का पांव पूजने आने लगे। अपने साथ कोई न कोई वस्तु भेंट अथवा दान करने के लिए भी लाते। तिलक लगाते, पांव पूजते, उपहार देते और फिर प्रणाम करके चले जाते। ऐसे ही सूरज निकलने तक चलता रहा।

विवाह संपन्न हुआ तो रागिनी को अंदर ले जाया गया। अमर मामा जब मुझे ले जाने लगे तो मैने देखा मेरे जूते ग़ायब हैं। विवाह के समय सालियां अपने जीजा के जूते चुराती थीं और वापस तभी करती थीं जब नेग के रूप में उनकी मनचाही मांग पूरी की जाती थी।

मैं समझ चुका था कि मेरे जूते कामिनी ने ही चुराए होंगे और अब वो मेरे जूते तभी लौटाएगी जब मैं उसकी मनचाही मांग पूरी करूंगा। कुसुम को शायद इस रस्म का पता था इस लिए वो अब मुझे देख मुस्कुराने लगी थी।

"भांजे कब तक चुपचाप खड़ा रहेगा?" अमर मामा ने मुझसे कहा____"अपने जूते मांग अपनी साली से।"

"क्या हुआ जीजा जी?" शालिनी भागती हुई आई और मुस्कुराते हुए बोली____"कुछ खो गया है क्या आपका?"

"अरे! आप भी यहीं हैं?" मैं शालिनी को देख चौंक सा गया था____"सारी रात कहां ग़ायब थीं आप?"

"मैं तो आपके बिल्कुल पास ही बैठी थी?" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"अपनी सहेली रागिनी के ठीक पीछे। शायद आपने देखा ही नहीं।"

"हां शायद।" मैं हल्के से मुस्कुराया।

"देखते भी कैसे जनाब।" शालिनी ने मानों मुझे छेड़ा____"आप तो बस अपनी दुल्हन को ही देखने में व्यस्त थे। किसी और को तो तब देखते जब उसके जैसा कोई होता आस पास।"

"ऐसा कुछ नहीं है।" मैं थोड़ा झेंप गया____"ख़ैर ये तो बताइए कि मेरे जूते कौन ले गया है? मुझे जाना है यहां से। रात भर बैठा रहा हूं, सुबह की क्रिया के लिए जाना है अब।"

"अच्छा जी, ज़्यादा परेशानी वाली बात तो नहीं है ना?" शालिनी मुस्कुराई____"रही बात जूतों की तो वो कामिनी चुरा के ले गई है।"

"उनको बुलाइए।" मैंने कहा____"और कहिए कि मेरे जूते दे दें। चोरी करना अच्छी बात नहीं होती है।"

"दुनिया में यही एक रस्म है जीजा जी।" शालिनी ने कहा____"जिसमें चोरी करना बहुत अच्छा माना जाता है। ख़ैर अगर आपको अपने जूते वापस चाहिए तो मनचाहा नेग देना पड़ेगा आपको।"

"ठीक है।" मैंने कहा____"कामिनी को बुलाइए, उन्हें नेग दिया जाएगा।"

शालिनी ने खड़े खड़े ही कामिनी को आवाज़ दे कर बुला लिया। वो भागते हुए आई और मुझे मुस्कुराते हुए देखने लगी।

"क्या हुआ दीदी?" फिर उसने शालिनी से कहा____"किस लिए बुलाया है आपने मुझे?"

"जीजा जी अपने जूते मांग रहे हैं।" शालिनी ने उसे बताया____"और बदले में तुझे तेरा नेग भी देने को कह रहे हैं। अब तू बेझिझक हो के मांग ले इनसे जो तुझे चाहिए।"

"हां मांग लीजिए सरकार।" मैं मुस्कुराया____"आप तो वैसे भी मेरी पहली मोहब्बत हैं। आपके लिए तो जां हाज़िर है।"

"ज़्यादा फ़िज़ूल की बातें मत कीजिए।" कामिनी ने झूठी नाराज़गी दिखाई____"मुझे नेग के रूप में आपसे और तो कुछ नहीं चाहिए लेकिन हां एक वचन ज़रूर चाहिए। क्या आप दे सकते हैं?"

"बिल्कुल दे सकता हूं।" मैंने दृढ़ता से कहा____"आपने पहली बार मुझसे कुछ मांगा है तो यकीन मानिए मैं आपकी मांग ज़रूर पूरी करूंगा। कहिए कैसा वचन चाहिए आपको?"

"यही कि आप मेरी दीदी को हमेशा खुश रखेंगे।" कामिनी ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"उन्हें कभी दुखी नहीं होने देंगे और बहुत सारा प्यार देंगे उनको। मुझे अपने नेग के रूप में आपसे इन्हीं बातों का वचन चाहिए।"

मैं देखता रह गया कामिनी को और मैं ही क्या बल्कि अमर मामा, कुसुम, सुमन, सुषमा, रूपचंद्र और यहां तक कि खुद शालिनी भी। मुझे कामिनी से ऐसी उम्मीद हर्गिज़ नहीं थी। अवाक् सा देखता रह गया था मैं।

"क्या हुआ जीजा जी?" जब मैं उसे देखता ही रहा तो वो जैसे मुझे होश में लाई____"क्या आप मुझे मेरा ऐसा नेग नहीं देंगे?"

"आपको मुझसे इस तरह का नेग मांगने की ज़रूरत नहीं थी कामिनी।" मैंने कहा____"क्योंकि मैं तो वैसे भी अपनी तरफ से यही करने वाला था लेकिन फिर भी अगर आप इन बातों का मुझसे वचन ही चाहती हैं तो ठीक है। मैं आपको वचन देता हूं कि मैं हमेशा आपकी दीदी को खुश रखूंगा। उन्हें कभी दुखी नहीं करूंगा और सच्चे दिल से उनसे प्रेम करूंगा।"

मेरा इतना कहना था कि कामिनी का चेहरा खुशी से चमक उठा लेकिन आंखें नम हो गईं उसकी। वो फ़ौरन ही पलटी और भागती हुई अंदर की तरफ चली गई। कुछ ही पलों में जब वो आई तो उसके हाथ में मेरे जूते थे। उसने जूतों को मेरे पैरों के पास रख दिया।

"ये रहे आपके जूते।" फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा____"पहन लीजिए और ख़ुशी से जाइए।"

"आप बहुत अच्छी लड़की हैं कामिनी।" मैंने उससे कहा____"मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वो आपको हमेशा खुश रखे और आपको पति के रूप में एक ऐसा व्यक्ति मिले जो आपको अथाह प्रेम करे।"

"तुमने भले ही अपने जीजा से नेग के रूप में ये वचन लिया है बेटी।" अमर मामा ने अधीरता से कहा____"लेकिन तुम्हारी बातें हृदय को छू गई हैं। ऐसे शुभ अवसर पर हर रस्म और हर नेग का अपना महत्व होता है। अतः अपने भांजे की तरफ से मैं अपनी खुशी से तुम्हें ये कुछ रुपए देना चाहता हूं। इसे अन्यथा मत लेना बेटी, ये बस एक अच्छी लड़की के प्रति सच्ची भावना को ब्यक्त करने जैसा है।"

कहने के साथ ही मामा ने अपने पैंट की जेब से पचास के नोटों की एक गड्डी निकाल कर कामिनी की तरफ बढ़ा दिया। कामिनी थोड़ा झिझकी लेकिन फिर उसने हाथ बढ़ा कर वो गड्डी ले ली।

"आपने मुझे बेटी कहा और सच्ची भावना से दिया है।" फिर उसने कहा____"इस लिए मैं इन्हें आपसे न ले कर आपकी भावनाओं को आहत नहीं करूंगी।"

उसके बाद मैंने अपने जूते पहने और सबके साथ बाहर की तरफ चल पड़ा। कुछ ही समय में विदाई का कार्यक्रम शुरू हो जाने वाला था।

"मुझे तो लगा था कि तू अपने जीजा जी से बहुत कुछ मांगेगी।" शालिनी ने कामिनी से कहा____"लेकिन तूने तो ऐसी चीज़ मांग ली जिसके बारे में शायद ही किसी ने कल्पना की होगी। वैसे सच कहती हूं तूने जीजा जी से नेग में इस तरह का वचन मांग कर बहुत ही अद्भुत कार्य किया है। इससे ये भी पता चलता है कि तू अपनी दीदी को कितना चाहती है और उसकी कितनी फ़िक्र करती है। मुझे तुझ पर नाज़ है छोटी। ख़ैर चल आ जा, रागिनी को विदाई के लिए तैयार भी करना है।"

कामिनी उसके साथ खुशी खुशी अंदर की तरफ चली दी। विदाई के लिए हर कोई जल्दी जल्दी काम में लग गया था। पांव पूजन में बहुत सारा उपहार मिल गया था जिसे उठा कर बाहर रखा जा रहा था।​
 
अध्याय - 165
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कामिनी उसके साथ खुशी खुशी अंदर की तरफ चली दी। विदाई के लिए हर कोई जल्दी जल्दी काम में लग गया था। पांव पूजन में बहुत सारा उपहार मिल गया था जिसे उठा कर बाहर रखा जा रहा था।

अब आगे....


सुबह सभी बारातियों को चाय नाश्ता करवाया गया। इसके साथ ही विदाई की तैयारियां भी शुरू हो गईं। घर से और लोगों द्वारा जो उपहार और सामान मिला था उसको ट्रैक्टर में रखवा दिया गया। बाहर बैंड बाजा वाले गाना बजाना कर रहे थे। हर कोई किसी न किसी काम के लिए दौड़ लगा रहा था।

दूसरी तरफ रागिनी भाभी के पिता वीरभद्र सिंह जी पिता जी के पास बैठे हुए थे और उनसे हाथ जोड़ कर बार बार यही कह रहे थे कि उनके स्वागत में अगर कहीं कोई त्रुटि हुई हो तो वो उन्हें माफ़ करें। पिता जी बार बार उन्हें समझा रहे थे कि उनसे कोई त्रुटि नहीं हुई है और अगर हो भी जाती तो वो बुरा नहीं मानते। उनके लिए सबसे ज़्यादा खुशी इस बात की है कि उनकी बहू ने इस रिश्ते को हां कहा और अब ये विवाह भी हो गया। अपनी जिस बहू को बेटी मान कर वो इतना प्यार और स्नेह देते थे वो उन्हें फिर से उसी रूप में मिल गई जिस रूप में वो उसे देखना चाहते थे। वीरभद्र सिंह जी पिता जी की ये बातें सुन कर उनका आभार मान रहे थे और कह रहे थे कि ये सब उनकी ही वजह से हुआ है। ये उनकी बेटी का सौभाग्य है कि उसे उनके जैसे ससुर पिता के रूप में मिले हैं।

आख़िर विदाई का समय आ ही गया। घर के अंदर से रोने धोने की आवाज़ें आने लगीं। जाने कितनी ही औरतों का करुण क्रंदन वातावरण में गूंजने लगा। मैं कार में बैठा हुआ था। मेरे पीछे कुसुम सुमन और सुषमा बैठी हुईं थी। आते समय अमर मामा भी साथ में थे लेकिन अब क्योंकि भाभी भी मेरे साथ ही कार में जाने वाली थीं तो उनके बैठने के लिए कार में जगह नहीं थी। अमर मामा ने सुमन और सुषमा को कार से उतार कर अपने साथ जीप में चलने को कहा जिससे वो उतर गईं।

थोड़ी ही देर में अंदर से औरतें बाहर आती नज़र आईं। सब की सब रो रहीं थी। उनके बीच रागिनी भाभी सबसे लिपट कर बुरी तरह विलाप कर रहीं थी। उनकी मां, चाची, भाभियां, बहनें, शालिनी और गांव की बहुत सी औरतें सब रो रहीं थी। कुछ ही पलों में वो घर से बाहर आ गई। सहसा भाभी की नज़र अपने पिता वीरभद्र पर पड़ी तो उनके पास जा कर उनसे लिपट गईं और बिलख बिलख कर रोने लगीं। वीरभद्र जी खुद को सम्हाल न सके। अपनी बेटी को हृदय से लगा कर वो खुद भी सिसक उठे। पास में ही उनके छोटे भाई बलभद्र जी खड़े थे। रागिनी भाभी उनसे भी लिपट गईं और चाचा चाचा कहते हुए रोने लगीं। बलभद्र जी भी खुद को सम्हाल न सके। दोनों परिवार में रागिनी ही एक ऐसी लड़की थी जिसमें इतने सारे गुण थे और वो हमेशा से ही सबकी चहेती रही थी।

वीर सिंह, बलवीर सिंह और वीरेंद्र सिंह कुछ ही दूरी पर खड़े आंसू बहाए जा रहे थे। अपनी बहन को यूं रोते देख उनकी आंखें भी बरसने लगीं थी और फिर जब रागिनी उनके पास आ कर उनसे लिपट कर रोने लगी तो उनकी हिचकियां भी निकल गईं। पूरा वातावरण गमगीन सा हो गया। यहां तक कि पिता जी की आंखों में भी आंसू भर आए।

बेटी की विदाई का ये पल घर वालों के लिए बड़ा ही भावुक और संवेदनशील होता है। पत्थर से पत्थर दिल इंसान भी भावनाओं में बह जाता है और मोम की तरह पिघल कर रो पड़ता है। यही हाल था सबका। औरतों का तो पहले से ही रुदन चालू था। भाभी की मां सुलोचना देवी को बार बार चक्कर आ जाता था। यही हाल उनकी देवरानी पुष्पा देवी का भी था। उनकी बहुएं और गांव की औरतें उन्हें सम्हालने लगतीं थी।

रागिनी भाभी की छोटी बहनें, सभी भाभियां और सहेली शालिनी सभी के चेहरे आंसुओं से तर थे। आख़िर भाइयों के बहुत समझाने बुझाने पर रागिनी भाभी उनसे अलग हुईं। शालिनी और कामिनी भाग कर आईं और उन्हें कार की तरफ ले चलीं। उनके पीछे औरतें भी आ गईं। ऐसा लगा जैसे एक बार फिर से भाभी पलट कर सबसे जा लिपटेंगी और रोने लगेंगी किंतु तभी शालिनी और वंदना ने उन्हें सम्हाल लिया और दुखी भाव से समझाते हुए उन्हें कार के अंदर बैठ जाने के लिए ज़ोर देने लगीं। इधर कार के अंदर बैठा मैं अपनी भाभी....नहीं नहीं अपनी पत्नी का रुदन देख खुद भी दुखी हो उठा था। मेरे अंदर एक तूफ़ान सा उठ गया था। उन्हें इस तरह तकलीफ़ से रोते देख मुझसे सहन नहीं हो रहा था लेकिन क्या कर सकता था। ये वक्त ही ऐसा था।

आख़िर किसी तरह वो कार के अंदर आ कर मेरे बगल से बैठ ही गईं लेकिन उनका रोना अब भी कम नहीं हो रहा था। कार की खिड़की से अपने हाथ बार बार बाहर निकाल कर रो ज़ोरों से रोने लगती थीं और बाहर निकलने को उतारू हो जातीं थी। कार के बाहर तरफ शालिनी, कामिनी, वंदना, सुषमा और उनकी मां चाची वगैरह खड़ी सिसक रहीं थी और साथ ही तरह तरह की बातें उन्हें समझाए जा रहीं थी।

कुछ समय बाद सबकी सहमति मिलते ही कार के ड्राइवर ने कार को स्टार्ट कर आगे बढ़ाना शुरू कर दिया लेकिन थोड़ी ही दूर जा कर वो रुक गया। अगले ही पल एक रस्म यहां भी हुई उसके बाद ड्राइवर ने कार को आगे बढ़ा दिया। कार के अंदर भाभी का रोना अभी भी चालू था। वो कभी बाबू जी कह कर रोती तो कभी मां कह कर। कभी भैया कह कर तो कभी भाभी कह कर। मेरे दूसरी तरफ बैठी कुसुम उन्हें इस तरह रोते देख खुद भी आंसू बहाने लगी थी। उससे अपनी भाभी का रोना देखा नहीं जा रहा था। पहले तो वो चुपचाप बस आंसू ही बहाए जा रही थी किंतु जब कार कुछ दूर आ गई तो वो भाभी को न रोने के लिए कहने लगी। आख़िर उसके बहुत कहने पर उनका रोना बंद हुआ लेकिन सिसकियां तब भी बंद न हुईं।

कार के पीछे पीछे अन्य लोग वाहनों में चले आ रहे थे। कच्ची सड़क पर एक लंबा काफ़िला नज़र आ रहा था। बीच में एक बस थी। सबसे पीछे ट्रैक्टर था जिसमें सामान लदा हुआ था।

क़रीब आधा घंटा समय गुज़रा था कि पीछे से एक जीप आई। उसमें अमर मामा बैठे थे। वो बोले कि आगे एक जगह कार रोक देना क्योंकि बहू को पानी पिलाना है जोकि उसका देवर पिलाएगा। ऐसा ही हुआ, कुछ दूर आने के बाद एक अनुकूल जगह पर ड्राइवर ने कार रोक दी।

थोड़ी ही देर में एक जीप हमारे पास आ कर रुकी। उसमें से विभोर और अजीत उतर कर हमारे पास आए। कुछ और लोग भी आ गए। थोड़ी ही दूर एक गांव दिख रहा था। सड़क के किनारे किसी का घर था जहां पर एक कुआं भी था। मामा विभोर को कुएं पर ले गए। विभोर ने कुएं से पानी खींचा और फिर मामा के दिए लोटे में पानी भर कर हमारे पास आया।

अजब और विचित्र संयोग था। एक वक्त था जब मैंने देवर के रूप में रागिनी भाभी को इसी तरह पानी पिलाया था और नेग में उन्होंने मुझे एक सोने की अंगूठी दी थी। आज वही भाभी मेरी पत्नी बन चुकीं थी और उनके देवर के रूप में विभोर उन्हें पानी पिलाने आया था। कितनी कमाल की बात थी कि उनके जीवन में ये रस्म अजीब तरह से दो बार हो रही थी।

बहरहाल, विभोर पानी ले कर आया और बहुत ही खुशी मन से उसने कार का दरवाज़ा खोल कर रागिनी भाभी की तरफ पानी से भरा लोटा बढ़ाया। रागिनी भाभी ने घूंघट के अंदर से एक नज़र विभोर को देखा और अपना हाथ बढ़ा कर उससे लोटा ले लिया। उसके बाद एक हाथ से उन्होंने अपने घूंघट को उठाया और लोटे को अपने मुंह के पास ले जा कर पानी पीने लगीं। मैं और कुसुम उन्हीं को देख रहे थे।

थोड़ी देर बाद रागिनी भाभी ने लोटा वापस विभोर को दे दिया और अपने गले से सोने की चैन उतार कर विभोर को पहना दिया। विभोर बड़ा खुश हुआ और उनके पैर छू कर मुस्कुराते हुए चला गया।

काफ़िला फिर से चल पड़ा। रागिनी भाभी घूंघट किए अब शांति से बैठी हुईं थी। इधर जैसे जैसे रुद्रपुर क़रीब आ रहा था मेरी धड़कनें बढ़ती जा रहीं थी। यूं तो कार में ड्राइवर के अलावा सिर्फ कुसुम ही थी इस लिए मैं उनसे बात कर सकता था लेकिन जाने क्यों उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी।

"वैसे भैया।" अचानक कुसुम मुस्कुराते हुए बोल पड़ी____"विभोर भैया को तो बड़ा फ़ायदा हुआ। भाभी को उन्होंने बस पानी पिलाया और उन्हें सोने की चैन मिल गई। मुझे और अजीत को तो कुछ दिया ही नहीं भाभी ने। हमारे साथ ये नाइंसाफी क्यों?"

"इस बारे में भला मैं क्या कहूं गुड़िया?" मैंने भाभी पर एक नज़र डालने के बाद उससे कहा____"मैंने तो ऐसा कुछ किया नहीं है। जिन्होंने किया है तुझे उनसे ही पूछना चाहिए।"

"मतलब आप कुछ नहीं कहेंगे?" कुसुम ने हैरानी से मेरी तरफ देखा____"वाह! क्या कहने आपके। भाभी के आते ही आप अपनी लाडली बहन को नज़रअंदाज़ करने लगे। बड़ी मां से शिकायत करूंगी आपकी, हां नहीं तो।"

"अरे! ये क्या कह रही है तू?" मैं उसकी बातों से चौंका____"तू मुझ पर गुस्सा क्यों होती है गुड़िया? मैंने तो कुछ किया ही नहीं है।"

"हां यही तो बात है कि आपने कुछ किया ही नहीं।" कुसुम ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा____"वैसे तो बड़ा कहते हैं कि तू मेरी गुड़िया है, मेरी जान है, मेरा सब कुछ है।"

मुझे समझ ना आया कि अब क्या करूं? भाभी भी कुछ बोल नहीं रहीं थी और गुड़िया थी कि मुझे घूरे ही जा रही थी। मैं सोचने लगा कि अब कैसे अपनी गुड़िया का पक्ष ले कर उसकी नाराज़गी दूर करूं?

"इ...इन पर क्यों गुस्सा होती हो कुसुम?" सहसा भाभी ने धीरे से कुसुम की तरफ देखते हुए कहा____"मुझे बताओ क्या चाहिए तुम्हें?"

"अरे वाह!" भाभी की बात सुनते ही कुसुम का चेहरा खुशी से खिल उठा। फिर मुझे देखते हुए बोली____"देखा भैया, आपने तो अपनी गुड़िया के लिए कुछ नहीं किया लेकिन मेरी सबसे अच्छी वाली भाभी ने झट से पूछ लिया कि मुझे क्या चाहिए। इसका मतलब आपसे ज़्यादा भाभी मुझे मानती हैं।"

"वाह! क्या बात है।" मैंने उसे घूरा____"कुछ मिलने की बात आई तो बड़ा जल्दी पाला बदल लिया तूने। अभी तक तो मैं ही तेरा सबसे अच्छे वाला भैया था और तुझे अपनी जान मानता था और अब ऐसा बोल रही है तू? चल कोई बात नहीं, अब से मैं भी तुझे नहीं विभोर और अजीत को सबसे ज़्यादा प्यार करूंगा और उन्हें अपनी जान कहूंगा।"

"अरे अरे! ये क्या कह रहे हैं आप?" कुसुम बुरी तरह बौखला गई____"नहीं नहीं ऐसा नहीं करेंगे आप। मुझसे ग़लती हो गई, अपनी गुड़िया को माफ़ कर दीजिए ना। आप तो मेरे सबसे अच्छे वाले भैया हैं ना?"

"अच्छा।" मैं मुस्कुराया____"बड़ा जल्दी समझ आ गया तुझे।"

"क्यों मेरी मासूम सी ननद को सता रहे हैं?" भाभी ने लरजते स्वर में धीरे से कहा____"इसका हम दोनों पर बराबर हक़ है। इसे हमसे जो भी चाहिए वो देना हमारा फर्ज़ है।"

"ये, देखा आपने।" कुसुम खुशी से मानों उछल ही पड़ी____"भाभी को आपसे ज़्यादा पता है। अब बताइए, क्या अब भी कुछ कहेंगे आप मुझे?"

"अरे! मैंने तो पहले भी तुझे कुछ नहीं कहा था पागल।" मैंने उसके चेहरे को प्यार से सहला कर कहा____"ख़ैर चल बता अब, क्या चाहिए तुझे?"

"मुझे।" कुसुम सोचने लगी, फिर जैसे उसे कुछ समझ आया तो बोली____"मुझे ना आप दोनों से सिर्फ एक ही चीज़ चाहिए। मैं आप दोनों से बस यही मांगती हूं कि आप दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करें और जैसे अब तक आप दोनों मुझे इतना ज़्यादा प्यार देते आए हैं वैसे ही हमेशा देते रहें।"

कुसुम की बात सुन कर मैं दंग रह गया। मैंने रागिनी भाभी की तरफ देखा। उन्होंने भी गर्दन घुमा कर मुझे देखा। घूंघट के अंदर उनके चेहरे पर लाज की सुर्खी छा गई नज़र आई और होठों पर शर्म से भरी हल्की मुस्कान।

"क्या हुआ?" हमें कुछ न बोलता देख कुसुम बोल पड़ी____"आप दोनों कुछ बोल क्यों नहीं रहे? क्या आप दोनों मेरी ये मांग पूरी नहीं करेंगे?"

"मुझे तो तेरी ये मांग मंज़ूर है गुड़िया।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"बाकी तेरी भाभी का मुझे नहीं पता।"

"म...मुझे भी मंज़ूर है कुसुम।" रागिनी भाभी ने थोड़े झिझक के साथ कहा____"बाकी तुम्हें तो मैं पहले भी बहुत मानती थी और आगे भी मानूंगी। तुम सच में हमारी गुड़िया हो।"

भाभी की बात सुनते ही जहां कुसुम खुशी से झूम उठी वहीं मेरी धड़कनें ये सोच कर तेज़ हो गईं कि क्या सच में रागिनी भाभी वही करेंगी जो अभी उन्होंने कहा है? यानि क्या सच में वो मुझसे प्यार करेंगी? पलक झपकते ही ज़हन में न जाने कैसे कैसे ख़याल उभर आए। मैंने फ़ौरन खुद को सम्हाला। ख़ैर ऐसी ही हंसी खुशी के साथ बाकी का सफ़र गुज़रा और हम रुद्रपुर में दाख़िल हो कर हवेली पहुंच गए।

✮✮✮✮

हवेली में मां और चाची हमारे स्वागत के लिए पहले से ही तैयार थीं। जैसे ही हम सब वहां पहुंचे तो आगे का कार्यक्रम शुरू हो गया।

कार मुख्य द्वार के सामने खड़ी थी। मां बाकी औरतों के साथ हमारा परछन करने के लिए आगे बढ़ीं। सब एक साथ गीत गा रहीं थी। एक तरफ बैंड बाजा वाले लगे पड़े थे। हवेली के बाहर विशाल मैदान में भारी भीड़ इकट्ठा हो गई थी। इधर मां मेरी और अपनी नई नवेली बहू की गाते हुए आरती उतार रहीं थी। कुछ देर परछन की उनकी क्रियाएं चलती रहीं उसके बाद हम दोनों कार से उतरे।

एक बार फिर से वातावरण में बंदूकें गरज उठीं थी। एक बार फिर से नाच गाना शुरू हो गया था। इस बार ऐसा हुआ कि जल्दी थमा ही नहीं। मामा लोग नाचने वालियों पर रुपए उड़ा रहे थे। महेंद्र सिंह, अर्जुन सिंह और संजय सिंह भी पीछे नहीं हटे। वो भी पैसे उड़ाने लगे। बैंड बाजा वाले अपना गाना बजाना भूल कर रुपए पैसे बिनने लगे। गांव के कुछ छोटे बच्चे घुस आए थे वो भी बिनने लगे।

काफी देर तक नाच गाना चलता रहा। इस बीच मैं और रागिनी भाभी वापस कार में बैठ कर नाच गाना देखने लगे थे। जब वो सब बंद हुआ तो मां और मेनका चाची मेरे पास आईं और हम दोनों को अंदर चलने को कहा।

मुख्य द्वार की दहलीज़ पर पहुंचते ही मां ने रुकने का इशारा किया। डेढी के अंदर पीतल का एक लोटा रखा हुआ था जिसमें चावल थे। मां के कहने पर रागिनी भाभी ने अपने एक पांव से उस लोटे को ठेला तो वो आगे की तरफ लुढ़क गया। सभी मुस्कुराते हुए आगे बढ़ीं। कुछ ही क़दम पर एक बड़ी सी थाली रखी हुई थी जिसमें रंग घुला हुआ था। चाची के कहने पर भाभी ने उसमें अपने दोनों पैर रखे और फिर आगे बढ़ चलीं। मैं उनके साथ ही चल रहा था।

कुछ ही समय में हम सब अंदर आ गए। उसके बाद अंदर कुछ परंपरा के अनुसार रस्में और रीतियां होने लगीं, पूजा वगैरह हुई। एक तरफ सबके भोजन की व्यवस्था शुरू हो गई।


आज खिचड़ी भी थी जिसमें बहू के हाथों सबको खिचड़ी परोसी जानी थी। खाने वाले अपनी स्वेच्छा से उपहार अथवा रुपए पैसे बहू को देते थे। कुछ समय बाद ऐसा ही हुआ। सबने अपनी अपनी तरफ से अनेकों उपहार और रुपए पैसे उन्हें दिए जिन्हें कुसुम कजरी सुमन और सुषमा पकड़ती जा रहीं थी।

आख़िर इस सबके संपन्न होने के बाद थोड़ी राहत मिली। पिता जी के मित्रगण अपने अपने घरों को लौट गए। अब हवेली में सिर्फ नात रिश्तेदार ही रह गए थे। मैं गुसलखाने में नहा धो कर मामा के पास आ कर बैठ गया था। रात भर का थका था और अब मुझे बिस्तर ही दिखाई दे रहा था लेकिन कमरे में जाने से झिझक रहा था क्योंकि मेरे कमरे में रागिनी भाभी पहुंच चुकीं थी। हालाकि दुल्हन को देखने वालों का आगमन शुरू हो गया था जोकि गांव की औरतें ही थीं किंतु उन्हें कुछ देर आराम करने के लिए कमरे में पहुंचा दिया गया था।

"क्या हुआ भांजे?" मैं जैसे ही मामा के पास बैठा तो मामा ने कहा____"थक गया होगा ना तू? रात भर बैठे रहना आसान बात नहीं होती। एक काम कर कमरे में जा के आराम कर।"

"थक तो गया हूं मामा।" मैंने कहा____"लेकिन कमरे में कैसे जाऊं? वहां तो....।"

"ओह! समझ गया।" मामा हल्के से मुस्कुराए____"तो किसी दूसरे कमरे में जा कर आराम कर ले। हवेली में कमरों की कमी थोड़ी ना है। या फिर तू अपने कमरे में ही आराम करना चाहता है?"

"नहीं, ऐसी बात नहीं है।" मैं थोड़ा झेंप गया____"ठीक है मैं किसी दूसरे कमरे में आराम करने चला जाता हूं।"

अभी मैं जाने ही लगा था कि तभी रोहिणी मामी आ गईं। शायद उन्होंने हमारी बातें सुन लीं थी। अतः मुस्कुराते हुए बोलीं____"क्या हुआ वैभव? अपने कमरे में आराम करने में क्या समस्या है?"

"क...कोई समस्या नहीं है मामी।" मैं हकलाते हुए बोला____"लेकिन बात ये है कि फिलहाल मैं अकेले स्वतंत्र रूप से कहीं आराम कर लेना चाहता हूं।"

"हां ज़रूरी भी है।" मामी ने गहरी मुस्कान के साथ कहा____"क्या पता बाद में आराम करने का मौका मिले न मिले।"

"अरे अरे! ये कैसी बातें कर रही हो तुम?" मामा एकदम से चौंक कर बोल पड़े____"भांजे से थोड़ा तो लिहाज करो, जाओ यहां से।"

मामी हंसते हुए चली गईं। मामा ने मुझे आराम करने को कहा तो मैं ये सोचते हुए एक कमरे की तरफ बढ़ चला कि मामी भी मौका देख कर व्यंग बाण चला ही देती हैं। ख़ैर मैं नीचे ही एक कमरे में जा कर पलंग पर लेट गया। बड़ा ही सुखद एहसास हुआ। पहली बार एहसास हुआ कि गद्देदार बिस्तर कितना आरामदायक और सुखदाई होता है। कुछ ही देर में मुझे नींद ने अपनी आगोश में ले लिया। बंद पलकों में एकदम से एक हसीन ख़्वाब चलचित्र की तरह दिखने लगा। उसके बाद शाम तक मैं सोता ही रहा।

✮✮✮✮

रूपा खा पी कर अपने कमरे में बिस्तर पर लेटी हुई थी। पिछले कुछ दिनों से उसे अकेले रहने का बहुत ही कम अवसर मिला था। जैसे जैसे विवाह का दिन क़रीब आ रहा था उसकी धड़कनें बढ़ती जा रहीं थी। मन में तो बहुत पहले ही उसने न जाने कैसे कैसे ख़्वाब बुन लिए थे जिनके बारे में सोच कर ही उसके अंदर एक सुखद अनुभूति होने लगती थी लेकिन आज का दिन बाकी दिनों से बहुत अलग महसूस हो रहा था उसे। आज उसका होने वाला पति अपनी पहली पत्नी को ब्याह कर ले आया था। हवेली में बैंड बाजा बजने की गूंज उसके कानों तक भी पहुंची थी। कल उसकी बड़ी मां यानि फूलवती और चाची सुनैना देवी हवेली गई हुईं थी जब वैभव की बारात हवेली से निकलने वाली थी।

बिस्तर पर लेटी रूपा के मन में बहुत सी बातें चल रहीं थी। उन सब बातों को सोचते हुए कभी उसकी धड़कनें तेज़ हो जातीं तो कभी थम सी जातीं। आंखों के सामने कभी वैभव का चेहरा उभर आता तो कभी रागिनी का तो कभी दोनों का एक साथ। वो कल्पना करने लगती कि उसका प्रियतम आज अपनी पहली पत्नी के साथ एक ही कमरे में रहेगा, उसके साथ एक ही बिस्तर पर होगा और....और फिर दोनों एक साथ प्रेम में डूब जाएंगे। इस एहसास के साथ ही रूपा को थोड़ा झटका सा लगता और वो एकदम से वर्तमान में आ जाती। फिर वो खुद को समझाने लगती कि बहुत जल्द वो भी अपने प्रियतम की पत्नी बन कर हवेली में पहुंच जाएगी और रागिनी दीदी की ही तरह वैभव उसे भी प्रेम करेंगे।

"अरे! रूपा सुना तुमने?" सहसा कमरे में उसकी बड़ी भाभी कुमुद दाख़िल हुई और उससे बोली____"तुम्हारे होने वाले पतिदेव अपनी पहली दुल्हन ले आए। हमारे घर के सामने से ही वो सब निकले हैं। अब तक तो परछन भी हो गया होगा।"

"हां बैंड बाजा बजने की आवाज़ें मैंने भी सुनी हैं भाभी।" रूपा बिस्तर से उठ कर बोली____"क्या बड़ी मां नहीं गईं वहां?"

"गईं हैं।" कुमुद ने कहा____"उनके साथ राधा भी गई है।"

"रूप भैया आ गए क्या?" रूपा ने पूछा____"वो भी तो उनकी बारात में गए थे।"

"जब बारात आ गई है तो वो भी आ ही गए होंगे।" कुमुद ने कहा____"फिलहाल घर तो अभी नहीं आए वो। आ जाएंगे थोड़ी देर में। ख़ैर तुम बताओ, अकेले में किसके ख़यालों में गुम थी?"

"किसी के तो नहीं।" रूपा एकदम से शरमाते हुए बोली____"मैं तो बस ऐसे ही लेटी हुई थी।"

"झूठ ऐसा बोलो जिसे सामने वाला यकीन कर ले।" कुमुद ने मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे अच्छी तरह पता है कि इस वक्त तुम अपने होने वाले पतिदेव के बारे में ही सोचने में गुम थी। ज़रा बताओ तो कि क्या क्या सोच लिया है तुमने?"

"ऐसा कुछ नहीं है भाभी।" रूपा ने शर्म से मुस्कुराते हुए कहा____"मैं भला क्यों कुछ सोचूंगी?"

"क्या सच में?" कुमुद ने अपनी भौंहें उठा कर उसे देखा____"क्या सच में तुम आज की स्थिति के बारे में नहीं सोच रही थी? मैं मान ही नहीं सकती कि तुम्हारे मन में अपने होने वाले पति और अपनी सौतन के संबंध में कोई ख़याल ही न आया होगा।"

"उन्हें मेरी सौतन मत कहिए भाभी।" रूपा ने सहसा अधीर हो कर कहा____"वो तो मेरी दीदी हैं, सबसे अच्छी वाली बड़ी दीदी। मैं बहुत खुश हूं कि उनका फिर से विवाह हो गया और अब उनका जीवन खुशी के रंगों से भर जाएगा। मैं यही दुआ करती हूं कि आज की रात वो उन्हें खूब प्यार करें और उनके सारे दुख को भुला दें।"

"तुम सच में बहुत अद्भुत हो रूपा।" कुमुद ने पास आ कर रूपा के कंधे को दबाते हुए कहा____"दुनिया की हर औरत अपने पति की दूसरी पत्नी को अपनी सौतन ही मानती है और ये भी सच ही है कि वो कभी उस औरत को पसंद नहीं करती लेकिन तुम इसका अपवाद हो मेरी ननद रानी। तुम अपने पति की उन नव विवाहिता पत्नी को सच्चे दिल से अपनी दीदी कहती हो और उनकी खुशियों की कामना कर रही हो। ऐसा तुम्हारे अलावा शायद ही कोई सोच सकता है।"

"मैं ये सब नहीं जानती भाभी।" रूपा ने कहा____"मैं तो बस इतना चाहती हूं कि उनसे जुड़ा हर व्यक्ति खुश रहे। ईश्वर से यही कामना करती हूं कि मेरे दिल में भी हमेशा उनसे जुड़े हर व्यक्ति के लिए आदर, सम्मान और प्रेम की ही भावना रहे।"

"तुम प्रेम की मूरत हो रूपा।" कुमुद ने कहा____"तुम कभी किसी के बारे में कुछ बुरा सोच ही नहीं सकती हो। काश! दुनिया की हर औरत का हृदय तुम्हारे जैसा हो जाए।"

"मैं सोच रही हूं कि इस वक्त रागिनी दीदी सुहागन के पूरे श्रृंगार में कैसी दिखती होंगी?" रूपा ने कहा____"उनकी सुंदरता के बारे में मैंने पहले भी बहुत सुना था। विधवा के लिबास में उन्हें देखा भी है। वो सादगी और सौम्यता से भरी हुई हैं। उनका हृदय बहुत साफ और निश्छल है। मेरा बहुत मन कर रहा है कि मैं उन्हें दुल्हन के रूप में सजा हुआ देखूं। फिर आपसे आ कर कहूं कि आप भी मुझे उस दिन उनके जैसा ही सजाना।"

"पागल हो तुम।" कुमुद ने प्यार से उसका चेहरा सहलाया____"चिंता मत करो, मैं तुम्हें तुम्हारी रागिनी दीदी से भी ज़्यादा अच्छे तरीके से सजाऊंगी। तुम अपनी दीदी से कम सुंदर नहीं लगोगी देख लेना।"

"नहीं भाभी।" रूपा ने झट से कहा____"मैं उनसे ज़्यादा नहीं सजना चाहती। मैं चाहती हूं कि मेरी दीदी को मुझसे ज़्यादा उनका प्यार मिले। मैं तो बस अपनी दीदी के साथ रह कर उनके जैसा बनने की कोशिश करूंगी। मैं चाहती हूं कि जैसे वो कुसुम को अपनी गुड़िया कहते हैं और उसे जी जान से प्यार करते हैं वैसे ही मेरी दीदी मुझे अपनी छोटी सी गुड़िया मान कर मुझे प्यार करें। जब ऐसा होगा तो कितना अच्छा होगा ना भाभी?"

"ओह! रूपा बस करो।" कुमुद ने भावना में बह कर उसे अपने सीने से लगा लिया। उसकी आंखें भर आईं थी, बोली____"किस मिट्टी की बनी हुई हो तुम? तुम्हारे हृदय में क्यों ऐसी अनोखी भावनाएं जन्म ले लेती हैं? मेरी प्यारी ननद, मेरी प्यारी रूपा। भगवान तुम्हें हमेशा ऐसा ही बनाए रखे। हमेशा तुम्हें खुश रखे। हमेशा तुम्हें तुम्हारे प्रियतम के प्रेम का उपहार दे।"

कुमुद सच में रूपा की बातों से भाव विभोर सी हो गई थी। उसका बस चलता तो वो रूपा को अपने सीने के अंदर समा लेती। उधर रूपा के सुर्ख होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई और आंख से आंसू का एक कतरा छलक गया।​
 
अध्याय - 166
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"ओह! रूपा बस करो।" कुमुद ने भावना में बह कर उसे अपने सीने से लगा लिया। उसकी आंखें भर आईं थी, बोली____"किस मिट्टी की बनी हुई हो तुम? तुम्हारे हृदय में क्यों ऐसी अनोखी भावनाएं जन्म ले लेती हैं? मेरी प्यारी ननद, मेरी प्यारी रूपा। भगवान तुम्हें हमेशा ऐसा ही बनाए रखे। हमेशा तुम्हें खुश रखे। हमेशा तुम्हें तुम्हारे प्रियतम के प्रेम का उपहार दे।"

कुमुद सच में रूपा की बातों से भाव विभोर सी हो गई थी। उसका बस चलता तो वो रूपा को अपने सीने के अंदर समा लेती। उधर रूपा के सुर्ख होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई और आंख से आंसू का एक कतरा छलक गया।

अब आगे....


शाम को कुसुम ने आ कर मुझे जगाया। वो बड़ा खुश दिख रही थी और बड़ा जल्दी में भी थी। मुझे फटाफट हाथ मुंह धो कर आने को कहा और कमरे से चली गई। मैंने इधर उधर दृष्टि घुमाई तो मुझे शाम हो जाने का आभास हुआ। एकाएक मेरी नज़र मेरे हाथों पर पड़ी तो मैं हल्के से चौंका। मेरे हाथों में मेंहदी लगी हुई थी। एकदम से बिजली सी कौंधी मस्तिष्क में। मैंने रजाई हटा कर अपने पैरों को देखा। पांवों में रंग लगा हुआ था। पलक झपकते ही मस्तिष्क में ये बात आ गई कि मेरा विवाह हो गया है और रागिनी भाभी अब मेरी पत्नी बन चुकी हैं। इस बात का एहसास होते ही दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। आंखों के सामने वो सोलह श्रृंगार किए दुल्हन के रूप में चमक उठीं। उफ्फ! कितनी सुंदर हैं वो, कितनी सादगी है उनमें। कितना नूर है उनमें। ऐसे न जाने कितने ही ख़याल पलक झपकते ही मेरे ज़हन में उभरते चले गए।

थोड़ी देर मैं यही सब सोचता रहा उसके बाद कपड़े पहन कर कमरे से बाहर आ गया। बाहर लंबे चौड़े बरामदे में औरतें बैठी हुईं थी। मेनका चाची, निर्मला काकी, कुसुम, कजरी ये सब किसी न किसी काम से इधर उधर आती जाती नज़र आईं।

मैं सीधा गुसलखाने में गया। हाथ मुंह धोया और फिर वापस आया। मैंने देखा औरतों के बीच में मेरी भाभी....नहीं नहीं मेरी पत्नी घूंघट किए बैठी हुई थी। सब दुल्हन देखने आईं थी। हालाकि वो उन्हें पहले से ही जानती थीं और उन्हें देख चुकीं थी लेकिन आज की बात ही अलग थी। अब वो दुबारा सुहागन हो गईं थी। पहले वो बड़े भैया की पत्नी थीं किंतु अब वो मेरी पत्नी बन कर आईं थी। मेरी नज़र जैसे उन पर ही चिपक गई थी। कुसुम की नज़र मुझ पर पड़ी तो वो भाग कर मेरे पास आई।

"ओहो! तो आप भाभी को देख रहे हैं?" फिर वो अपने अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोल पड़ी____"अब अगर अच्छे से देख लिया हो तो बताइए अपनी गुड़िया के हाथ की बनी चाय पीनी है कि नहीं आपको?"

मैं कुसुम की बात से एकदम चौंक पड़ा। वो नटखट मुझे छेड़ रही थी। मैंने मुस्कुराते हुए प्यार से उसके सिर पर चपत लगाई____"बहुत बोलने लगी है तू। जा जल्दी से चाय ले के आ।"

"मैं बहुत बोलने लगी हूं।" वो शरारत से मुस्कुराते हुए बोली____"और मेरे सबसे अच्छे वाले भैया भाभी को दूर से देखने में लगे हैं...ही ही ही।"

कहने के साथ ही वो हंसते हुए भाग गई। मैं मुस्कुराते हुए वापस कमरे में आ गया। अंदर औरतें ही दिखीं थी बाकी मर्द लोग शायद बाहर थे। ख़ैर कुसुम चाय ले कर आई तो मैं उससे चाय ले कर पीने लगा और सोचने लगा कि आज का दिन बड़ा जल्दी गुज़र गया। सो जाने से पता ही न चला कि कब शाम हो गई। ज़ाहिर है अब बहुत जल्द रात भी हो जाएगी और फिर वो घड़ी भी आ जाएगी जब मुझे अपनी पत्नी के साथ एक ही कमरे में एक ही बिस्तर पर सोना होगा।

मैं सोचने लगा कि कैसे मैं उस वक्त एक पति के रूप में उनके सामने मौजूद रह पाऊंगा? इतना तो मैं भी जानता था कि विवाह के बाद रात में पति पत्नी की सुहागरात होती है। सुहागरात में दो जिस्मों के साथ साथ दो आत्माओं का भी मिलन हो जाता है लेकिन मेरे लिए सोचने का विषय ये था कि जो औरत कल तक मेरी भाभी थीं और जिन्हें मैं बहुत मान सम्मान देता था उन्हें अपनी पत्नी समझ कर कैसे उनके साथ सुहागरात जैसा अनोखा, अद्भुत और दुस्साहस से भरा कार्य कर पाऊंगा? सवाल तो ये भी था कि क्या वो भी ऐसा कर पाएंगी? आख़िर सुहागरात का ख़याल उनके मन में भी तो होगा। स्थिति बड़ी ही गंभीर और मुश्किल सी नज़र आने लगी थी मुझे। मैंने बड़ी मुश्किल से ये सब अपने दिमाग़ से झटका और चाय पीने के बाद बैठक की तरफ चल पड़ा।

बाहर बैठक में सभी पिता जी के पास बैठे हुए थे। मुझे समझ ना आया कि मैं उनके बीच बैठूं या नहीं? एकाएक मुझे एहसास हुआ कि इस समय मेरा उनके बीच बैठना उचित नहीं होगा। अतः मैं पलट गया और वापस कमरे में आ कर पलंग पर लेट गया।

रात खाना पीना हुआ। सब अपने अपने कमरों में जाने लगे। मैं चुपचाप उठ कर वापस उसी कमरे में आ कर पलंग पर लेट गया। मेरी हिम्मत न हुई थी ऊपर अपने कमरे में जाने की। शर्म तो लग ही रही थी लेकिन उससे ज़्यादा झिझक और घबराहट हो रही थी। एक वक्त था जब ठाकुर वैभव सिंह किसी औरत जात के सामने जाने में ना तो झिझकता था और ना ही कोई शर्म करता था। दुस्साहस इतना था कि पलक झपकते ही औरत अथवा लड़की को अपनी आगोश में ले लेता था लेकिन आज ऐसा कुछ भी करने का साहस नहीं कर पा रहा था मैं। मेरे अंदर हलचल सी मची हुई थी। समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं और कैसे ये मुश्किल वक्त मेरे जीवन से गुज़र जाए?

क़रीब एक घंटे बाद किसी के आने का आभास हुआ मुझे। मैं एकदम से सतर्क हो गया। दिल की धड़कनें एकदम से बढ़ चलीं। कुछ ही पलों में दरवाज़ा खुला और रोहिणी मामी के साथ मेनका चाची कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! तुम यहां क्यों पड़े हो बेटा?" मेनका चाची ने बड़े प्रेम से कहा____"ऊपर अपने कमरे में जाओ। वहां बेचारी बहू अकेले तुम्हारे आने का इंतज़ार कर रहीं होंगी।"

"म...म...मैं यहीं सो जाऊंगा चाची।" मैं बुरी तरह हकलाते हुए बोला____"आप वहां कुसुम को भेज दीजिए।"

"अरे! ये क्या बात हुई भला?" चाची ने हैरानी से मुझे देखा____"आज पहले ही दिन तुम अपनी पत्नी को अकेला छोड़ दोगे? भूल गए क्या पंडित जी ने कौन कौन से सात वचन तुम्हें बताए थे?"

"ह...हां पर चाची।" मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूं____"आज की ही बस तो बात है। आप कुसुम को बोल दीजिए ना कि वो वहां चली जाए। मैं कल ऊपर चला जाऊंगा।"

"ऐसा नहीं होता बेटा।" मेनका चाची मेरे पास आ कर बोलीं____"हर चीज़ का अपना एक तरीका होता है। तुम अब बच्चे तो हो नहीं जो ये सब समझते नहीं हो। चलो उठो और जाओ बहू के पास।"

"दीदी सही कह रहीं हैं वैभव।" रोहिणी मामी ने कहा____"तुम उन्हें ब्याह कर लाए हो इस लिए अब ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है कि अपनी पत्नी का हर तरह से ख़याल रखो। अपने लिए ना सही उनके बारे में सोचो कि अगर तुम उनके पास नहीं जाओगे तो उन्हें कैसा लगेगा? एक बात और, मत भूलो कि कुछ दिनों में तुम एक और लड़की को ब्याह कर तथा अपनी पत्नी बना कर यहां ले आओगे। क्या तब भी तुम ऐसा ही कहोगे? सच तो ये है कि तुम्हें अपनी दोनों बीवियों का अच्छे से ख़याल रखना होगा। ख़ैर चलो उठो अब।"

आख़िर मुझे उठना ही पड़ा। ऐसा नहीं था कि मैं भाभी का सामना करने से डरता था लेकिन बात ये थी कि मैं ये सोच के झिझक रहा था कि वो क्या सोचेंगी मुझे अपने सामने देख कर? क्या वो मेरे सामने खुद को सहज और सामान्य रख पाएंगी? मैं नहीं चाहता था कि उन्हें मेरी वजह से कोई तकलीफ़ हो या उन्हें किसी तरह की असहजता का सामना करना पड़े।

बहरहाल, मेनका चाची तो चली गईं किंतु मामी मेरे साथ ही चलते हुए ऊपर कमरे तक आईं। इस बीच वो और भी कई बातें मुझे समझा चुकीं थी। दरवाज़े तक आ कर उन्होंने मुझे अंदर जाने का इशारा किया और फिर मुस्कुराते हुए पलट कर चली गईं। उनके जाने के बाद मैं दरवाज़े को घूरने लगा। दिल की धड़कनें धाड़ धाड़ कर के पसलियों पर चोट कर रहीं थी। मैं सोचने लगा कि अब जब यहां तक आ ही गया हूं तो मुझे इसके आगे भी जाना ही पड़ेगा। अब जो होगा देखा जाएगा। ऐसा तो है नहीं कि अंदर जाने पर भाभी मुझे एकदम से बाहर ही चले जाने को कह देंगी।

मैंने धड़कते दिल से दरवाज़े को अंदर की तरफ धकेला। दोनों पल्ले हल्की सी आवाज़ के साथ खुलते चले गए। अंदर बिजली का बल्ब तो जल ही रहा था किंतु उसके साथ साथ दो दो लालटेनें भी जल रहीं थी जिससे कमरे में पर्याप्त रोशनी थी। मैं बड़े एहतियात से अंदर दाख़िल हुआ। ठंड में भी अपने माथे पर पसीने का आभास हो रहा था मुझे। मैंने देखा कमरा काफी अलग नज़र आ रहा था। पूरे कमरे को फूलों से सजाया गया था। फूलों की महक से कमरा भरा पड़ा था। पलंग के चारो तरफ भी फूलों की झालरें पर्दे की शक्ल में झूल रहीं थी। मैं ये सब देख ये सोच कर हैरान हुआ कि मेरे कमरे का ऐसा कायाकल्प किसने किया होगा? मुझे याद आया कि बड़े भैया का जब विवाह हुआ था तब मैंने खुद बड़े उत्साह के साथ भैया के कमरे को इसी तरह फूलों से सजाया था। उस समय की तस्वीर मेरी आंखों के सामने चमक उठी।

बहरहाल मैं धड़कते दिल के साथ आहिस्ता से आगे बढ़ा। मेरी नज़र पलंग के चारो तरफ फूलों की झालरों के पार बैठी भाभी पर पड़ी। उन्हें देख मेरा दिल बड़े जोर से धड़क उठा। समूचे जिस्म में एक लहर दौड़ गई। मैंने खुद को सम्हाला और पलट कर दरवाज़े को आहिस्ता से बंद कर दिया। उसके बाद मैं वापस पलटा और पलंग की तरफ ऐसे चल पड़ा जैसे मेरे पांवों में मेंहदी लगी हो। धड़कनें तो पहले से ही धाड़ धाड़ कर के बज रहीं किंतु अब घबराहट भी बढ़ती जा रही थी। अपनी हालत को सम्हालना जैसे मेरे लिए बड़ा ही मुश्किल हो गया था। ऐसा लगा जैसे मेरी टांगें भी कांपने लगीं थी।

कमरे में एकदम से सन्नाटा छाया हुआ था किंतु मुझे अपने दिल की धड़कनें साफ बजती हुई सुनाई दे रहीं थी। आख़िर कुछ ही पलों में मैं पलंग के चारो तरफ झूलती फूलों की झालरों के एकदम पास पहुंच कर रुका। मैंने साफ देखा, पलंग पर रागिनी भाभी घूंघट किए बैठी थीं। उनके दोनों घुटने ऊपर की तरफ आपस में जुड़े हुए थे और पांव पलंग पर ऐसे जुड़े हुए थे जैसे विवाह के समय पांव पूजे गए थे। उनके दोनों हाथ घुटनों को ऐसी शक्ल में समेटे हुए थे जैसे उन्होंने उन्हें थाम रखा हो। मैं अपनी सांसें रोके ख़ामोशी से उन्हें ही देखे जा रहा था। कोई और जगह होती तो शायद उन्हें पुकारने में अथवा उनसे बात करने में मुझे किसी हिम्मत की ज़रूरत ही न पड़ती किंतु इस वक्त इस जगह पर और ऐसी परिस्थिति में उन्हें आवाज़ देना अथवा उनसे कुछ कहना मेरे लिए जैसे बहुत ही मुश्किल हो गया था।

तभी सहसा उनमें हलचल हुई। कदाचित उन्हें मेरी मौजूदगी का एहसास हो गया था। अपने हाथों को घुटनों से हटा कर उन्होंने बहुत ही आहिस्ता से अपना सिर उठाया। घूंघट किए हुए ही उन्होंने मेरी तरफ देखा। मेरी धड़कनें एकाएक थम गईं सी महसूस हुईं।

"व...वो आपको क...कोई असुविधा तो नहीं हुई मेरे यहां आने से?" मैंने धड़कते दिल से किंतु बड़ी मुश्किल से उनसे पूछा____"अ...अगर कोई समस्या हो तो बता दीजिए। मैं चला जाऊंगा यहां से।"

कहने के साथ ही मैं पलंग से दो क़दम पीछे हट गया। उधर वो मेरी बात सुन कर बिना कोई जवाब दिए आहिस्ता से पलंग से नीचे उतर आईं। ये देख मेरे अंदर हलचल सी शुरू हो गई और साथ ही मैं ये सोच के घबरा भी उठा कि मुझसे कहीं कोई ग़लती तो नहीं हो गई?

अभी मैं घबराहट के चलते ये सोच ही रहा था कि तभी मैं बुरी तरह चौंका। वो पलंग से उतरने के बाद मेरे क़रीब आईं और फिर एकदम से नीचे बैठ कर मेरे पांव छूने लगीं। उफ्फ! ये क्या करने लगीं थी वो? मैं झट से पीछे हट गया।

"ये...ये क्या कर रहीं हैं आप?" फिर मैं बौखलाया सा बोल पड़ा____"कृपया ऐसा मत कीजिए।"

"ऐ..ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" उन्होंने बैठे बैठे ही सिर उठा कर धीमें से कहा____"आप मेरे पति हैं और मैं आपकी पत्नी। पत्नी होने के नाते अपने पति के पांव छूना मेरा धर्म है। क्या आप मुझे मेरा धर्म नहीं निभाने देंगे?"

उनकी ये बातें सुन कर मैं हक्का बक्का सा देखता रह गया उन्हें। मैंने तो इस बारे में सोचा ही नहीं था कि वो मेरे पांव भी छुएंगी। हालाकि ये मैं जानता था कि एक पत्नी अपने पति के पांव छूती है लेकिन उनसे अपना पांव छुआने की ना तो मैंने कल्पना की थी और ना ही ये मैं चाहता था। मेरे दिल में उनके लिए पहले से ही बहुत ज़्यादा आदर सम्मान और श्रद्धा की भावना थी।

"क...क्या ऐसा करना ज़रूरी है?" मुझे कुछ न सुझा तो पूछ बैठा____"देखिए, मैं मानता हूं कि हमारा रिश्ता पति पत्नी का हो गया है लेकिन अगर आप मेरे पांव छुएंगी तो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगेगा।"

"पर मेरा धर्म तो यही है कि मैं अपने पति के पांव छू कर आशीर्वाद लूं।" उन्होंने कहा____"मैं समझ सकती हूं कि आप मुझसे अपना पांव क्यों नहीं छुआना चाहते हैं लेकिन इस सच्चाई को तो अब आपको भी मानना ही पड़ेगा कि मैं अब आपकी भाभी नहीं बल्कि पत्नी हूं।"

"म...मैं इस सच्चाई को पूरी तरह मान चुका हूं।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"और यकीन मानिए मैं अपने आपको बहुत ज़्यादा सौभाग्यशाली समझता हूं कि आप मुझे पत्नी के रूप में मिल गईं हैं, और सिर्फ इस लिए ही नहीं बल्कि इस लिए भी कि अब पूरे हक के साथ मैं आपको खुशियां देने का प्रयास कर सकता हूं।"

"अगर सच में आप मुझे खुशियां देना चाहते हैं तो इस वक्त मुझे मेरा धर्म निभाने से मत रोकिए।" उन्होंने कहा____"मुझे अपना पत्नी धर्म निभाने दीजिए। इसी से मुझे खुशी और संतोष प्राप्त होगा।"

उनकी बात सुन कर जैसे मैं निरुत्तर हो गया। मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा था लेकिन मैं ये भी नहीं चाहता था कि मैं उनकी इच्छा के बग़ैर कोई कार्य करूं। आख़िर मेरा भी तो धर्म था कि उनकी इच्छा का सम्मान करूं और उनकी भावनाओं को समझूं। जब उन्होंने देखा कि मैं अब कुछ नहीं बोल रहा हूं तो वो समझ गईं कि मैंने उन्हें पांव छूने की अनुमति दे दी है। अगले ही पल वो आगे बढ़ीं और मेरे पांव छू कर अपने हाथों को अपने माथे पर लगा लिया। मुझे समझ ना आया कि अब क्या प्रतिक्रिया दूं। बस, मन ही मन ऊपर वाले से यही दुआ की कि वो उन्हें हमेशा खुश रखे।

✮✮✮✮

सच ही कहा था अमर मामा ने कि जो चीज़ पहले बहुत ज़्यादा मुश्किल प्रतीत हुआ करती है वो ऐन वक्त पर कभी कभी बहुत ही सहज हो जाती है और फिर सारी मुश्किल मानों छू मंतर सी हो जाती है। इस वक्त ऐसा ही अनुभव कर रहा था मैं। इसके पहले मैं यही सोच सोच के घबरा रहा था कि कैसे रागिनी भाभी का सामना करूंगा, कैसे उनसे बात कर पाऊंगा किंतु जिस तरह से आगाज़ हुआ था उसे देख अनायास ही एहसास हुआ कि ये इतना भी मुश्किल नहीं था। हालाकि अगर गहराई से सोचा जाए तो मुश्किल वक्त तो अभी आया ही नहीं था। ये तो ऐसा था जैसे उस मुश्किल वक्त पर पहुंचने के लिए ऊपर वाले ने मुझे बड़ी आसानी से दरवाज़े के अंदर पहुंचा दिया था ताकि मैं पीछे न हट सकूं और आगे बढ़ना ही मेरी मज़बूरी बन जाए।

मैं बहुत हिम्मत जुटा कर पलंग पर बैठ गया था। वो अभी भी चेहरे पर लंबा सा घूंघट किए हुए थीं और मेरे सामने ही बैठी थीं। मैं जानता था कि इसके आगे अब मुझे घूंघट उठा कर उनका चांद सा चेहरा देखना होगा मगर ऐसा करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कोई और स्त्री होती तो शायद मैं अब तक काफी आगे बढ़ गया होता लेकिन यहां तो वो बैठी थीं जिनके बारे में मैंने कभी ग़लत सोचा ही नहीं था। उनकी तरफ आकर्षित ज़रूर हुआ करता था लेकिन वो भी अब मानों गुज़रे ज़माने की बातें हो गईं थी।

"क...क्या मैं घूंघट उठा कर आपका चेहरा देख सकता हूं भाभी?" मैंने बड़ी हिम्मत जुटा कर उनसे पूछा।

"ह...हम्म्म्म।" उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"ल...लेकिन आप मुझे भाभी क्यों कह रहे हैं? अब तो मैं आपकी पत्नी हूं ना?"

"ओह! हां माफ़ कर दीजिए मुझे।" मैं हड़बड़ा सा गया____"आपने सच कहा, अब आप मेरी भाभी नहीं हैं बल्कि पत्नी हैं। तो...फिर आपको क्या कहूं मैं?"

"अ...आप ही ने तो कहा था कि जिस दिन हमारा विवाह हो जाएगा।" उन्होंने कहा____"उ..उस दिन से आप मुझे भाभी कहना बंद कर देंगे।"

"तो फिर आप ही बताइए।" मैंने धड़कते दिल से पूछा____"मैं आपको क्या कहूं?"

"म..मेरा नाम लीजिए।" उन्होंने लरजते स्वर में कहा____"भाभी की जगह रागिनी कहिए।"

"क..क्या सच में???" मैंने हैरत से उन्हें देखा____"आपको बुरा तो नहीं लगेगा ना?"

"न..नहीं।" उन्होंने धीमें से कहा____"जैसे पिता जी मां जी को उनका नाम ले कर पुकारते हैं वैसे ही आप भी मेरा नाम ले कर पुकारिए।"

मेरे अंदर अजीब सी गुडमुड़ होने लगी थी। धड़कनें तो अब तक सामान्य ही न हुईं थी। मन में कई तरह के ख़यालों का मानों बवंडर सा चल रहा था।

"क..क्या हुआ?" जब मैं कुछ न बोला तो वो लरजते स्वर में पूछ बैठीं____"क्या आपको मेरा नाम ले कर मुझे पुकारना अच्छा नहीं लग रहा?"

"न...नहीं ऐसी बात नहीं है।" मैंने हड़बड़ा कर कहा____"वो बात ये है कि आपका नाम लेने में झिझक रहा हूं मैं। हमेशा आपको भाभी ही कहा है इस लिए अचानक से आपका नाम लेने में संकोच हो रहा है मुझे।"

"हां समझती हूं।" उन्होंने सिर हिलाया____"मैं भी तो पहले आपका नाम ही लेती थी लेकिन अब नहीं ले सकती।"

"ऐसा क्यों?" मैंने हैरानी और उत्सुकता से पूछा____"अब आप मेरा नाम क्यों नहीं ले सकतीं?"

"पत्नियां अपने पति का नाम नहीं लेतीं।" उन्होंने धीमें से कहा____"पहले आप मेरे देवर थे इस लिए आपका नाम लेती थी लेकिन अब आप मेरे पति हैं तो आपका नाम नहीं ले सकती।"

"तो फिर अब आप क्या कह कर पुकारेंगी मुझे?" मैंने उत्सुकता से पूछा।

"मां जी तो पिता जी को ठाकुर साहब कहती हैं।" रागिनी भाभी ने कहा____"और कभी कभी सुनिए जी भी कहती हैं तो मैं भी आपको यही कहा करूंगी।"

"अच्छा।" मैं अनायास ही मुस्कुरा उठा____"ये तो बड़ा ही रोचक होगा फिर तो। वैसे क्या आप इस वक्त मुझे ऐसे ही पुकार सकती हैं?"

"प...पहले आप मेरा नाम ले कर मुझे पुकारिए।" भाभी ने कहा____"फिर मैं भी आपको वैसे ही पुकारूंगी।"

भाभी के साथ ऐसी बातें करने से अब मुझे बड़ा ही सहज महसूस होने लगा था और साथ ही बड़ा सुखद एहसास भी होने लगा था। मेरे अंदर का डर घबराहट और संकोच धीरे धीरे कम होता जा रहा था।

"आपके लिए मुझे वैसा पुकारना शायद मुश्किल नहीं लगेगा।" मैंने कहा____"लेकिन मेरे लिए आपका नाम ले कर आपको पुकारना मुश्किल लग रहा है। बहुत अजीब भी लग रहा है। ऐसा भी लग रहा है जैसे अगर मैं आपका नाम लूंगा तो मेरे द्वारा आपका मान सम्मान कम हो जाएगा।"

"ऐसा क्यों सोचते हैं आप?" भाभी की आवाज़ एकाएक कांप सी गई____"मैं जानती हूं कि आप मुझे बहुत मान सम्मान देते हैं। यकीन मानिए आप अगर मेरा नाम लेंगे तो उससे मुझे अच्छा ही लगेगा।"

"क्या आप सच कह रहीं हैं?" मैंने बेयकीनी से उन्हें देखा____"क्या सच में आपको मेरा नाम लेने से अच्छा लगेगा?"

"ह...हां।" उन्होंने कहा____"मैं आपकी पत्नी हूं तो आप बिना संकोच के मेरा नाम ले सकते हैं।"

"ठीक है भा....मेरा मतलब है र...रागिनी।" मैंने अटकते हुए कहा____"लीजिए मैंने आपका नाम ले लिया। अब आप भी मुझे वैसे ही पुकारिए जैसे आपने कहा था।"

"ठीक है ठ...ठाकुर स..साहब।" रागिनी ने कहा____"अब ठीक है ना?"

कहने के साथ ही उन्होंने घुटनों में अपना चेहरा छुपा लिया। शायद उन्हें शर्म आ गई थी। मैं उनके इस अंदाज़ पर मुस्कुरा उठा। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि हमने एक दूसरे से इतनी सारी बातें बिना कहीं रुके कर ली हैं और आगे भी अभी करने वाले थे।

"वाह! आपके मुख से अपने लिए ठाकुर साहब सुन कर मुझे अंदर से एक अलग ही तरह की सुखद अनुभूति होने लगी है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्या मेरे द्वारा आपका नाम लिए जाने से आपको भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी?"

"हम्म्म्म।" उन्होंने चेहरा ऊपर किया____"आपके मुख से अपना नाम सुन कर मुझे भी ऐसा ही महसूस हुआ है।"

"वैसे आपका नाम आपकी ही तरह बहुत सुंदर है।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"क्या अब मैं घूंघट उठा कर आपका चेहरा देख सकता हूं र..रागिनी?"

"हम्म्म्म।" उन्होंने धीरे से कहा।

एकाएक ही मेरी धड़कनें फिर से तेज़ हो ग‌ईं। उनकी सहमति मिलते ही मैं हिम्मत करके थोड़ा सा उनकी तरफ खिसका और फिर अपने दोनों हाथ बढ़ा कर बहुत ही आहिस्ता से उनके घूंघट के छोर को इस तरह पकड़ा जैसे वो कपड़ा उनकी ही तरह बेहद नाज़ुक हो। इतनी सारी बातों के बाद मैं जो अब तक थोड़ा सहज महसूस करने लगा था उनका घूंघट पकड़ते ही एकाएक फिर से मेरे अंदर हलचल मच गई थी। अंदर थोड़ा घबराहट भी उभर आई थी मगर मैं रुका नहीं बल्कि धाड़ धाड़ बजते दिल के साथ मैं घूंघट को धीरे धीरे ऊपर की तरफ उठाने लगा। जब मेरा ये हाल था तो मैं समझ सकता था कि रागिनी का भी यही हाल होगा।

कुछ ही पलों में जब घूंघट पूरा उठ गया तो एकदम से उनके चेहरे पर मेरी नज़र पड़ी। उफ्फ! मेरी उम्मीद से कहीं ज़्यादा इस वक्त वो सुंदर दिख रहीं थी। ऐसा लगा जैसे घने बादलों से अचानक ही चमकता हुआ चांद मेरी आंखों के सामने रोशन हो गया हो। मैं पलकें झपकना भूल गया। दोनों हाथों से घूंघट को ऊपर उठाए मैं अपलक उनके उस चेहरे को देखता रह गया जो चांद को भी मात दे रहा था। उधर रागिनी की सीप सी पलकें झुकी हुईं थी। उनके होंठ जो पहले से ही गुलाब की पंखुड़ियों जैसे थे उन पर हल्की सी लाली लगी हुई थी। नाक में सोने की नथ जो उनकी सुंदरता को मानों हज़ारों गुना बढ़ा रही थी। मैं एक ही पल में जैसे उनकी सुंदरता में डूब गया। पहले भी उनकी सुंदरता से सम्मोहित हो जाया करता था किंतु आज तो जैसे मैं डूब ही गया था। अपने वजूद का आभास ही नहीं हो रहा था मुझे।

एकाएक ही जैसे मुझे होश आया। मैंने उनके घूंघट को उनके सिर पर रख दिया और फिर बहुत ही आहिस्ता से किंतु कांपते हाथ की तीन उंगलियों के सहारे उनकी ठुड्ढी को थोड़ा सा ऊपर उठाया जिससे उनका चेहरा थोड़ा ऊपर उठ गया। उनकी पलकें अभी भी झुकी हुईं थी। मैंने पहली बार ध्यान दिया कि उनका सुंदर और गोरा चेहरा एकाएक लाज और शर्म से सुर्ख सा पड़ गया था। गुलाब की पंखुड़ियां बहुत ही मध्यम लय में कांप रहीं थी।

"अ...आप बहुत ख़ूबसूरत हैं र..रागिनी।" मैंने धाड़ धाड़ बजती अपनी धड़कनों को काबू करते हुए धीमें स्वर में कहा____"आपकी सुंदरता के सामने आसमान में चमकता हुआ चांद मानों कुछ भी नहीं है। मेरे जीवन में आ के मुझे रोशन करने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया। मन तो करता है कि पहरों आपको यूं ही देखता रहूं लेकिन डर लग रहा है कि कहीं मेरी ही नज़र ना लग जाए आपको। कृपया एक बार अपनी पलकें उठा कर देखिए ना मुझे।"

मेरी बातें सुन कर रागिनी का चेहरा और भी शर्म से सुर्ख हो गया। गुलाब की पंखुड़ियों का कंपन थोड़ा तेज़ हो गया। मैंने महसूस किया कि उनकी सांसें पहले से तेज़ चलने लगीं थी। तभी उनकी सीप सी पलकें बहुत ही आहिस्ता से उठीं और मैंने उनकी वो आंखें देखीं जो समंदर क्या बल्कि ब्रह्मण्ड जैसी अथाह गहरी थीं। इसके पहले मैं उनकी खूबसूरती के सम्मोहन में डूब गया था और अब आंखों की अथाह गहराई में मानों गोते लगाने लगा। एक मदहोश कर देने वाला नशा महसूस किया मैंने। अचानक रागिनी ने शर्मा कर अपनी पलकें फिर से झुका ली और मैं पलक झपकते ही उस अनंत गहराई से बाहर आ गया।

मैंने देखा रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। उनके होठ कांप रहे थे। शायद अब तक उन्होंने खुद को बड़ी मुश्किल से सम्हाल रखा था। घूंघट किए होने पर वो थोड़ा सहज थीं किंतु चेहरे से घूंघट हटते ही उनके अंदर की शर्म बड़ी तेज़ी से बाहर आ गई थी।

"काश! शायरों की तरह मेरे पास कल्पना शक्ति होती।" मैंने उन्हें देखते हुए अधीरता से कहा____"और उनकी तरह मेरे पास खूबसूरत शब्दों के भंडार होते तो मैं आपकी खूबसूरती में कोई ग़ज़ल कहता। बस इतना ही कह सकता हूं कि आप बहुत...बहुत खूबसूरत हैं। आपका तो नहीं पता लेकिन यकीन मानिए आपको इस रूप में पा कर मैं बहुत खुश हूं। अच्छा, मैंने सुना है कि पत्नी को मुंह दिखाई में कोई उपहार दिया जाता है तो बताएं। आपको मुझसे कैसा उपहार चाहिए? आप जो कहेंगी अथवा जो भी मांगेंगी मैं दूंगा आपको।"

"म...मुझे आपसे उपहार के रूप में कुछ नहीं चाहिए।" रागिनी ने अधीरता से कहा____"सिर्फ इतना ही चाहती हूं कि आप हमेशा अच्छे कर्म कीजिए और एक अच्छे इंसान के रूप में अपनी पहचान बनाइए।"

"वो तो आपके कहने पर पहले से ही कर रहा हूं मैं।" मैंने कहा____"और यकीन मानिए आगे भी कभी आपको निराश नहीं करूंगा।"

"बस तो फिर इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए।" रागिनी ने अपनी सीप सी पलकें उठा कर मेरी तरफ देखा____"एक और बात, मेरी छोटी बहन रूपा को हमेशा ढेर सारा प्यार देना। जैसे वो आपसे प्रेम करती है वैसे ही प्रेम आप भी उससे करना। मेरे हिस्से का प्यार और खुशियां भी उसको देना। उसके चेहरे पर कभी उदासी न आए इसका ख़याल रखना। बस इतनी ही चाहत है मेरी।"

"ठीक है।" मैंने कहा____"मैं आपको वचन देता हूं कि जैसा आप चाहती हैं वैसा ही होगा किंतु आपका क्या? क्या आपको अपने लिए कुछ नहीं चाहिए?"

"आप दोनों मेरे अपने ही तो हैं।" रागिनी ने कहा____"इसके अलावा और क्या चाहिए मुझे?"

"ठीक है।" मैंने गहरी सांस ली____"अच्छा अब हमें सो जाना चाहिए। आप भी बहुत ज़्यादा थकी होंगी इस लिए आराम से सो जाइए। वैसे आपको मेरे साथ इस पलंग पर सोने में असुविधा तो नहीं होगी ना? अगर असुविधा जैसी बात हो तो बता दीजिए, मैं नीचे सो जाऊंगा।"

"ए..ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" रागिनी ने कहा____"आप मेरे पति हैं। आपके साथ सोने में भला कैसी असुविधा होगी मुझे?"

रागिनी की इस बात से मैं उन्हें ध्यान से देखने लगा। वो पूरी तरह सजी धजी बैठी थीं। मैंने महसूस किया कि उनके चेहरे पर कई तरह के भावों का आना जाना लगा हुआ था। शायद बहुत कुछ उनके मन में चल रहा था।​
 
अध्याय - 167
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"क्या हुआ?" रागिनी को कुछ सोचते देख मैंने पूछा____"आप ठीक तो हैं? कोई समस्या तो नहीं है ना?"

"न..नहीं।" उन्होंने कहा____"ऐसी कोई बात नहीं है। मैं ठीक हूं।"

"ठीक है।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"तो फिर आप अब आराम कीजिए। कल रात से आपको ठीक से आराम करने को नहीं मिला है अतः आप अब आराम से लेट जाइए।"

"ह...हां पर।" वो झिझकते हुए बोलीं____"मैं ऐसे नहीं सो पाऊंगी। मे...मेरा मतलब है कि इतने सारे ये गहने पहने और ये भारी सी साड़ी पहने सोना मुश्किल है।"

"ओह! हां।" मैंने उनके पूरे बदन को देखते हुए कहा____"तो ठीक है आप इन्हें उतार दीजिए। मेरा मतलब है कि आपको जैसे ठीक लगे वैसे आराम से सो जाइए।"

रागिनी मेरी बात सुन कर असमंजस जैसी हालत में बैठी कभी मुझे एक नज़र देखती तो कभी नज़रें घुमा कर कहीं और देखने लगतीं। मुझे समझ ना आया कि आख़िर अब उन्हें क्या समस्या थी?

"क्या हुआ?" मैं बेचैनी से पूछ बैठा____"देखिए अगर कोई बात है तो आप बेझिझक बता दीजिए मुझे। आप जानती हैं ना कि मैं आपको किसी भी तरह की परेशानी में नहीं देख सकता। आपको खुश रखना पहले भी मेरी प्राथमिकता थी और अब तो और भी हो गई है। आपको पता है आपकी छोटी बहन कामिनी ने मुझसे जूता चुराई के नेग में मुझसे क्या मांगा था?"

"क...क्या मांगा था उसने?" भाभी ने मेरी तरफ उत्सुकता से देखा।

"यही कि मैं हमेशा उनकी दीदी को खुश रखूं।" मैंने अधीरता से कहा____"उनको कभी दुखी न होने दूं और हमेशा उन्हें प्यार करूं।"

"क...क्या???" रागिनी के चेहरे पर हैरत के भाव उभरे____"उसने ऐसा कहा आपसे?"

"हां।" मैंने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"और जवाब में मैंने ऐसा करने का उन्हें वचन भी दिया। मुझे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि कामिनी मुझसे नेग के रूप में ऐसा करने का वचन लेंगी। पर मैं खुश हूं कि उन्होंने चंद रुपयों की जगह आपकी खुशियों को ज़्यादा महत्व दिया। ज़ाहिर है उन्हें आपसे बहुत प्यार है।"

"हां।" रागिनी ने गहरी सांस ली____"वो मुझसे बहुत प्यार करती है। हालाकि उसका स्वभाव शुरू से ही शांत और गंभीर रहा था लेकिन मुझसे हमेशा लगाव था उसे। जब उसे पता चला कि मेरा आपसे विवाह करने की बात चली है तब उसे इस बात से बड़ा झटका लगा था। वो फ़ौरन ही मेरे पास आई थी और कहने लगी कि मैं इस रिश्ते के लिए साफ इंकार कर दूं। मैं जानती थी कि वो आपको पसंद नहीं करती थी इसी लिए इंकार करने को कह रही थी लेकिन मैं उस समय कोई भी फ़ैसला लेने की हालत में नहीं थी। मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि ऐसा भी कुछ होगा।"

"मैंने भी कल्पना नहीं की थी।" मैंने कहा____"मुझे तो किसी ने पता ही नहीं चलने दिया था। अगर मैं आपको लेने चंदनपुर न जाता तो शायद पता भी न चलता।"

"एक बात पूछूं आपसे?" रागिनी ने धीमें से कहा।

"आपको किसी बात के लिए इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है।" मैंने कहा____"आप बेझिझक हो कर मुझसे कुछ भी पूछ सकती हैं और मुझे कुछ भी कह सकती हैं।"

"मैं ये पूछना चाहती हूं कि क्या आपने ये रिश्ता मजबूरी में स्वीकार किया था?" रागिनी ने अपलक मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"अगर आपके बस में होता तो क्या आप इस रिश्ते से इंकार कर देते?"

"मैं नहीं जानता कि आप क्या सोच कर ये पूछ रहीं हैं।" मैंने कहा____"फिर भी अगर आप जानना चाहती हैं तो सुनिए, सच ये है कि आपकी खुशी के लिए अगर मुझे कुछ भी करना पड़ता तो मैं बेझिझक करता। इस रिश्ते को मैंने मजबूरी में नहीं बल्कि ये सोच कर स्वीकार किया था कि ऐसे में पूरे हक के साथ मैं अपनी भाभी को खुश रखने का प्रयास कर सकूंगा। सवाल आपका था रागिनी। सवाल आपके जीवन को संवारने का था और सवाल आपकी खुशियों का था। मैं ये हर्गिज़ नहीं चाह सकता था कि आपके चेहरे पर कभी दुख की परछाईं भी पड़े। पहले मेरे बस में नहीं था लेकिन अब है। हां रागिनी, अब मैं हर वो कोशिश करूंगा जिसके चलते आप अपना हर दुख भूल जाएं और खुश रहने लगें। जब मुझे इस रिश्ते के बारे में पता चला था तो शुरू में बड़ा आश्चर्य हुआ था मुझे लेकिन धीरे धीरे एहसास हुआ कि एक तरह से ये अच्छा ही हुआ। कम से कम ऐसा होने से आपका जीवन फिर से तो संवर जाएगा। आपको जीवन भर विधवा के रूप में कोई कष्ट तो नहीं उठाना पड़ेगा। हां ये सोच कर ज़रूर मन व्यथित हो उठता था कि जाने आप क्या सोचती होंगी मेरे बारे में? आख़िर पता तो आपको भी था कि मेरा चरित्र कितने निम्न दर्जे का था। यही सब सोच कर आपसे मिलने चंदनपुर गया था। मैं आपसे अपने दिल की सच्चाई बताना चाहता था। मैं बताना चाहता था कि भले ही हमारे माता पिता ने हमारे बीच ये रिश्ता बनाने का सोच लिया है लेकिन इसके बाद भी मेरे मन में आपके लिए कोई ग़लत ख़याल नहीं आए हैं। अपने दामन पर हर तरह के दाग़ लग जाना स्वीकार कर सकता था लेकिन आपके ऊपर कोई दाग़ लग जाए ये हर्गिज़ मंजूर नहीं था मुझे।"

"हां मैं जानती हूं।" रागिनी ने अधीरता से कहा____"आपको ये सब कहने की ज़रूरत नहीं है। सच कहूं तो मुझे भी इसी बात की खुशी है कि इस बारे में मेरी शंका और बेचैनी बेवजह थी। मुझे यकीन था कि आप सिर्फ मेरी खुशियों के चलते ही इस रिश्ते को स्वीकार करेंगे।"

"सच सच बताइए।" मैंने अधीरता से पूछा____"आप इस रिश्ते से खुश तो हैं ना? आपके मन में जो भी हो बता दीजिए मुझे। मैं हर सूरत में आपको खुश रखूंगा। आपके जैसी गुणवान पत्नी मिलना मेरे लिए सौभाग्य की बात है किंतु ये भी सोचता हूं कि क्या मेरे जैसे इंसान का पति के रूप में मिलना आपके लिए अच्छी बात है या नहीं?"

"ऐसा मत कहिए।" रागिनी का स्वर लड़खड़ा गया____"आपको पति के रूप में पाना मेरे लिए भी सौभाग्य की बात है।"

"क्या सच में???" मैंने आश्चर्य से उन्हें देखा।

"पहले कभी हिम्मत ही नहीं जुटा पाई थी।" रागिनी ने अधीरता से कहा____"लेकिन आज शायद इस लिए जुटा पा रही हूं क्योंकि अब मैं आपकी पत्नी बन चुकी हूं।"

"आप ये क्या कह रही हैं?" मैं चकरा सा गया____"मुझे कुछ समझ नहीं आया।"

"क्या आप इस बात की कल्पना कर सकते हैं कि अनुराधा और रूपा की तरह मैं भी आपसे प्रेम करती होऊंगी?" रागिनी ने ये कह कर मानों धमाका किया____"क्या आप कल्पना कर सकते हैं आपकी ये पत्नी आपको पहले से ही प्रेम करती थी?"

"ये....ये आप क्या कह रहीं हैं???" मेरे मस्तिष्क में सचमुच धमाका हो गया____"अ...आप मुझसे पहले से ही प्रेम करती हैं? ये...ये कैसे हो सकता है?"

"मैं भी अपने आपसे यही सवाल किया करती थी?" रागिनी ने कहा____"जवाब तो नहीं मिलता था लेकिन हां शर्म से पानी पानी ज़रूर हो जाती थी। अपने आपको ये कह कर धिक्कारने लगती थी कि रागिनी तू अपने ही देवर से प्रेम करने का सोच भी कैसे सकती है? ये ग़लत है, ये पाप है।"

मैं भौचक्का सा उन्हें ही देखे जा रहा था। कानों में सांय सांय होने लगा था। दिल की धड़कनें हथौड़े जैसा चोट करने लगीं थी।

"अ...आप तो बड़ी ही आश्चर्यजनक बात कर रहीं हैं।" मैंने खुद को सम्हालते हुए कहा____"यकीन नहीं हो रहा मुझे।"

"जब मुझे ही यकीन नहीं हो रहा था तो आपको भला कैसे इतना जल्दी यकीन हो जाएगा?" रागिनी ने कहा____"अपने देवर के रूप में तो आपको मैं पहले ही पसंद करती थी। हमेशा गर्व होता था कि आपके जैसा लड़का मेरा देवर है। आगे चल कर ये पसंद कब रिश्ते की मर्यादा को लांघ गई मुझे आभास ही नहीं हुआ। फिर जब मैं विधवा हो गई और जिस तरह से आपने मुझे सम्हाला तथा मुझे खुश करने के प्रयास किए उससे मेरे हृदय में फिर से पहले वाले जज़्बात उभरने लगे लेकिन मैं उन्हें दबाती रही। खुद पर ये सोच कर क्रोध भी आता कि ये कैसी नीचतापूर्ण सोच हो गई है मेरी? अगर किसी को भनक भी लग गई तो क्या सोचेंगे सब मेरे बारे में? सच कहूं तो जितना विधवा हो जाने का दुख था उतना ही इस बात का भी था। अकेले में बहुत समझाती थी खुद को मगर आपको देखते ही बावरा मन फिर से आपकी तरफ खिंचने लगता था। ऊपर से जब आप मुझे इतना मान सम्मान देते और मेरा ख़याल रखते तो मैं और भी ज़्यादा आप पर आकर्षित होने लगती। मन करता कि आपके सीने से लिपट जाऊं मगर रिश्ते का ख़याल आते ही खुद को रोक लेती और फिर से खुद को कोसने लगती। ये सोच कर शर्म भी आती कि हवेली का हर सदस्य मुझे कितना चाहता है और मैं अपने ही देवर के प्रेम में पड़ गई हूं। मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि ऊपर वाला मेरे जीवन में मुझे ऐसे दिन भी दिखाएगा और मेरे हृदय में मेरे अपने ही देवर के प्रति प्रेम के अंकुर पैदा कर देगा।"

रागिनी एकाएक चुप हो गईं तो कमरे में सन्नाटा छा गया। मैं जो उनकी बातों के चलते किसी और ही दुनिया ने पहुंच गया था फ़ौरन ही उस दुनिया से बाहर आ गया।

"प्रेम का अंकुर फूटना ग़लत नहीं है क्योंकि ये तो एक पवित्र एहसास होता है।" रागिनी ने एक लंबी सांस ले कर कहा____"लेकिन प्रेम अगर उचित व्यक्ति से न हो कर किसी ऐसे व्यक्ति से हो जाए जो रिश्ते में देवर लगता हो तो फिर उस प्रेम के मायने बदल जाते हैं। लोगों की नज़र में वो प्रेम पवित्र नहीं बल्कि एक निम्न दर्ज़े का नाम प्राप्त कर लेता है जिसके चलते उस औरत का चरित्र भी निम्न दर्ज़े का हो जाता है। यही सब सोचती रहती थी मैं और अकेले में दुखी होती रहती थी। हर रोज़ फ़ैसला करती कि अब से आपके प्रति ऐसे जज़्बात अपने दिल में नहीं रखूंगी लेकिन आपको देखते ही जज़्बात मचल उठते। मैं सब कुछ भूल जाती और आपके साथ हंसी खुशी से नोक झोंक करने लगती। आपको छेड़ती, आपकी टांगें खींचती तो मुझे बड़ा आनंद आता। आप जब नज़रें चुराने लगते तो मुझे अपने आप पर गर्व तो होता लेकिन ये देख कर खुश भी होती कि आप कितना मानते हैं मुझे। मैं खुद ही ये सोच लेती कि शायद आप मुझे बहुत चाहते हैं इसी लिए मेरी हर बात मानते हैं और हर तरह से मुझे खुश रखने की कोशिश करते रहते हैं। कोई पुरुष जब किसी औरत के लिए इतना कुछ करने लगता है तो उस औरत के हृदय में उसके प्रति कोमल भावनाएं पैदा हो ही जाती हैं। अकेले में भले ही मैं इस प्रेम की भावना को सोच कर खुद को कोसती और दुखी होती थी लेकिन आपके साथ होने पर जो खुशियां मिलती उनसे जुदा भी नहीं कर पाती थी। यूं समझिए कि जान बूझ कर हर रोज़ यही गुनाह करती थी क्योंकि दिल नहीं मानता था। क्योंकि दिल मजबूर करता था। क्योंकि आपके साथ दो पल की खुशी पाने की ललक होती थी।"

"अगर आप सच में मुझसे प्रेम करने लगीं थी।" मैंने अपने अंदर के तूफ़ान को काबू करते हुए कहा____"तो आपको मुझे बताना चाहिए था।"

"आपके लिए ये बात बताना आसान हो सकता था ठाकुर साहब।" रागिनी ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"लेकिन मेरे लिए कतई आसान नहीं हो सकता था। मैं एक बड़े खानदान की बहू थी। एक ऐसी बहू जिसके सास ससुर को इस बात का गुमान था कि उनकी बहू दुनिया की सबसे गुणवान बहू है। एक ऐसी बहू जिसे उसके सास ससुर अपनी हवेली की शान समझते थे। एक ऐसी बहू जिसे हर किसी ने अपनी पलकों पर बिठा रखा था। एक ऐसी बहू जिसका पति ईश्वर के घर में था और वो एक विधवा थी। सोचिए ठाकुर साहब, अगर ऐसी बहू के बारे में किसी को पता चल जाता कि वो अपने ही देवर से प्रेम करती है तो क्या होता? अरे! उनका तो जो होता वो होता ही लेकिन मेरा क्या होता? इतना तो यकीन था मुझे कि ये बात जानने के बाद भी मेरे पूज्यनीय सास ससुर मुझे कुछ न कहते लेकिन क्या मैं उनके सामने खड़े होने की स्थिति में रहती? सच तो ये है कि उस सूरत में मेरे लिए सिर्फ एक ही रास्ता होता...शर्म से डूब मरने का रास्ता। आप कहते हैं कि मुझे आपको बताना चाहिए था तो खुद बताइए कि कैसे बताती आपको? आप भले ही मेरे बारे में ग़लत न सोच बैठते लेकिन मेरे मन में तो यह होता ही न कि आप यही सोचेंगे कि पति के गुज़र जाने के बाद मैं आपसे प्रेम करने का स्वांग सिर्फ इसी लिए कर रही हूं क्योंकि इसके पीछे मेरी अपनी कुत्सित मानसिकता है।"

"मैं आपके बारे में ऐसा ख़वाब में भी नहीं सोच सकता था।" मैंने अधीरता से कहा।

"मानती हूं।" रागिनी ने कहा____"लेकिन मैं अपने मन का क्या करती? उस समय मन में ऐसी ही बातें उभर रहीं थी जिसके चलते मैं ये तक सोच बैठी थी कि कितनी बुरी हूं मैं जो अपने अंदर की भावनाओं को काबू ही नहीं रख पा रही हूं। कितनी निर्लज्ज हूं जो अपने ही देवर से प्रेम करने लगी हूं।"

"ईश्वर के लिए ऐसी बातें कर के खुद की तौहीन मत कीजिए।" मैं बोल पड़ा____"मैं समझ सकता हूं कि इस सबके चलते आपके मन में कैसे कैसे विचार उभरे रहे होंगे। मैं ये भी समझ सकता हूं कि आपने इसके लिए क्या क्या सहा होगा। सच कहूं तो इसमें आपकी कोई ग़लती नहीं है इस लिए आप ये सब कह कर खुद को दुखी मत कीजिए।"

"आपको पता है।" रागिनी ने उसी अधीरता से कहा____"जब आपके साथ मेरा विवाह कर देने की बात चली थी तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ था। ऐसा लगा था जैसे मैं दिन में ही कोई ख़्वाब देखने लगी हूं। फिर जब यकीन हो गया कि यही हकीक़त है तो उस दिन पहली बार सच्ची खुशी का एहसास हुआ था मुझे। अकेले में अपने सामने यही सोच कर चकित होती थी कि ये कैसा विचित्र संयोग बना बैठा है ऊपर वाला। हालाकि आपसे मेरा विवाह होने की मैंने कभी कल्पना नहीं की थी लेकिन हां ये ज़रूर सोचा करती थी कि काश! मेरी भी किस्मत में ऐसे असंभव प्रेम का मिल जाना लिखा होता। कई दिन तो इस हकीक़त को यकीन करने में ही निकल गए। मेरी मां, मेरी भाभियां और मेरी बहन सब इस बारे में मुझसे बातें करती लेकिन मुझे कुछ समझ ही न आता कि क्या कहूं? उनमें से किसी को बता भी नहीं सकती थी कि मेरे अंदर का सच क्या है? बताने का मतलब था उनका भी यही सोच बैठना कि कितनी निर्लज्ज हूं मैं जो पहले से ही अपने देवर को प्रेम करती आ रही हूं। इस लिए कभी किसी को अपने अंदर के सच का आभास तक नहीं होने दिया। दिखावे के लिए उनसे ऐसी ऐसी बातें कहती जिससे उन्हें यही लगे कि मैं इस रिश्ते के लिए बहुत ज़्यादा परेशान हूं। दूसरी तरफ मैं ये भी सोचने लगी थी कि इस रिश्ते के बारे में अब आप क्या सोच रहे होंगे? कहीं आप भी तो सबकी तरह मुझे ग़लत नहीं सोचने लगे होंगे? हालाकि मुझे यकीन था कि आप ऐसा कभी सोच ही नहीं सकते थे लेकिन मन था कि जाने कैसी कैसी शंकाएं करता ही रहता था। मां, भाभी, कामिनी और शालिनी जब मुझे समझाने आतीं तो उनसे भी दिखावे के रूप में अपनी परेशानी ही ज़ाहिर करती और ये परखने की कोशिश करती कि वो सब इस रिश्ते के बारे में अपने क्या विचार प्रस्तुत करती हैं? आख़िर वो सब क्या सोचती हैं इस संबंध के बारे में? अकेले में मैं अपने नाटक और नासमझी के बारे में सोचती तो मुझे ये सोच कर दुख होता कि सबको कैसे उलझाए हुए हूं मैं। कैसे सबके साथ छल कर रही हूं मैं। वो सब मुझे इतना समझाती हैं और मैं नाटक किए जा रही हूं? सच तो ये था कि किसी से सच बताने की हिम्मत ही नहीं होती थी। मुझे ऐसा लगता था कि अगर मैं किसी से अपने अंदर का सच बता दूंगी तो जाने वो मेरे बारे में क्या क्या सोच बैठेंगी? फिर मैं कैसे उनकी शक भरी नज़रों का सामना कर सकूंगी?"

रागिनी इतना सब बोल कर चुप हुईं तो एक बार फिर से कमरे में सन्नाटा छा गया। मेरे ज़हन में अब भी धमाके हो रहे थे। मैं सोचने लगा था कि क्या अभी और भी ऐसा कोई सच मुझे जानने को मिलने वाला है जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता हूं?

"आप ये सब सुन कर परेशान मत होइए।" फिर रागिनी ने कहा____"मैं तो ये सब आपको भी न बताती लेकिन इस लिए बताया क्योंकि अब आप मेरे पति हैं और मैं आपकी पत्नी। आपको अपने बारे में और अपने दिल की बातें छुपाना मेरा धर्म है। मैं आपसे कभी नहीं कहूंगी कि आप ये सब जानने के बाद मुझे प्रेम करें। आप पर अनुराधा का हक़ था, उसके बाद रूपा का हक़ है और मैं उस मासूम का हक़ छीनने का सोच भी नहीं सकती कभी।"

"मुझे समझ नहीं आ रहा कि इस संबंध में आपसे क्या कहूं?" मैंने गहरी सांस ले कर कहा____"आप पहले से मुझे पसंद करती थीं या मुझसे प्रेम करने लगीं थी ये मेरे लिए ऐसी बात है जिसकी मैं कल्पना तक नहीं कर सकता था। अपने दिल का सच बताऊं तो वो यही है कि मैंने हमेशा आपको आदर सम्मान की भावना से ही देखा है। ये सच है कि कभी कभी मेरे मन में आपको देख कर ये ख़याल उभर आता था कि काश! आपके जैसी खूबसूरत और नेकदिल औरत मेरे भी नसीब में होती। आप पर हमेशा आकर्षित होता था मैं। डरता था कि कहीं इस आकर्षण के चलते किसी दिन मुझसे कोई गुनाह न हो जाए इस लिए हमेशा आपसे दूर दूर ही रहता था। आपकी पवित्रता पर किसी कीमत में दाग़ नहीं लगा सकता था मैं। आप हर तरह से हमारे लिए अनोखी थीं। ख़ैर छोड़िए इन बातों को। मुझे आपका सच जान कर आश्चर्य तो हुआ है लेकिन कहीं न कहीं खुशी भी हो रही है कि आपके दिल में मेरे प्रति प्रेम की भावना है। एक बार फिर से ऊपर वाले को धन्यवाद देता हूं कि उसने मुझ जैसे इंसान के जीवन में अनुराधा, रूपा और आपके जैसी नेकदिल औरतों को भेजा। अनुराधा के जाने का दुख तो हमेशा रहेगा क्योंकि उसी की वजह से मैं प्रेम के मार्ग पर चला था किंतु आप दोनों का अद्भुत प्रेम पा कर भी मैं अपने आपको खुश किस्मत समझता हूं। अच्छा अब बातें बंद करते हैं। रात ज़्यादा हो गई है। आपको सो जाना चाहिए।"

मेरी बात सुन कर रागिनी ने सिर हिलाया और फिर झिझकते हुए पलंग से नीचे उतरीं। मेरे देखते ही देखते उन्होंने झिझकते हुए अपने गहनें निकाल कर एक तरफ रख दिए। फिर वो मेरी तरफ पलटीं। मेरी धड़कनें फिर से तेज़ हो गईं थी। मैं जानता था कि विवाह के बाद पति पत्नी सुहागरात भी मनाते हैं लेकिन हमारे बीच ऐसा होना कितना संभव था ये हम दोनों ही जानते थे।

"वो आप उधर घूम जाइए ना।" उन्होंने झिझकते हुए कहा तो मैंने फ़ौरन ही लेट कर दूसरी तरफ करवट ले ली। मैं सोचने लगा कि अब वो अपने कपड़े उतारने लगेंगी, उसके बाद वो मेरे पास आ कर मेरे साथ लेट जाएंगी।

कुछ देर बाद पलंग में हलचल हुई। मैं समझ गया कि वो अपने कपड़े उतार कर या फिर दूसरे कपड़े पहन कर पलंग पर सोने के लिए आ गईं हैं। मैंने महसूस किया कि हमारे बीच कुछ फांसला था। मैं सोचने लगा कि क्या मुझे उनसे कुछ कहना चाहिए? मेरा मतलब है कि क्या मुझे उनसे सुहागरात के बारे में कोई बात करनी चाहिए? मेरा दिल धाड़ धाड़ कर के बजने लगा।

"स...सुनिए।" काफी देर की ख़ामोशी के बाद सहसा रागिनी ने धीमें से मुझे पुकारा____"सो गए क्या आप?"

"न...नहीं तो।" मैं फ़ौरन ही बोल पड़ा किंतु फिर अचानक ही मुझे एहसास हुआ कि मुझे फ़ौरन नहीं बोल पड़ना चाहिए था। क्या सोचेंगी अब वो कि जाने क्या सोचते हुए जग रहा हूं मैं?

"वो...मैंने दिन में सो लिया था न।" फिर मैंने उनकी तरफ पलटते हुए कहा____"इस लिए इतना जल्दी नींद नहीं आएगी मुझे लेकिन आप सो जाइए।"

"हम्म्म्म।" उन्होंने धीमें से कहा____"वैसे रूपा को कब ब्याह कर लाएंगे आप?"

"आज का दिन तो गुज़र ही गया है।" मैंने कहा____"तो इस हिसाब से चौथे दिन जाना होगा।"

"त...तो फिर जब मेरी छोटी बहन आपकी पत्नी बन कर यहां आ जाएगी।" रागिनी ने जैसे उत्सुकता से पूछा____"तो क्या वो भी इसी कमरे में हमारे साथ रहेगी या फिर...?"

"इस बारे में क्या कहूं मैं?" मैं उनकी इस बात से खुद भी सोच में पड़ गया था, फिर सहसा मुझे शरारत सी सूझी तो मुस्कुराते हुए बोला____"वैसे तो शायद मां उसे दूसरे कमरे में रहने की व्यवस्था करवा सकती हैं लेकिन अगर आपकी इच्छा हो तो उसको अपने साथ ही इस कमरे में सुला लेंगे। मुझे तो कोई समस्या नहीं है, क्या आपको है?"

"धत्त।" रागिनी एकदम से सिमट गईं____"ये क्या कह रहे हैं?"

"बस पूछ ही तो रहा हूं आपसे।" मैं मुस्कुराया____"जैसे आप मेरी पत्नी हैं वैसे ही वो भी तो मेरी पत्नी ही होगी और पत्नी तो अपने पति के साथ ही कमरे में रहती हैं।"

"हां ये तो है।" रागिनी ने कहा____"लेकिन वो भी अगर साथ में रहेगी तो कितना अजीब लगेगा मुझे। मुझे तो बहुत ज़्यादा शर्म आएगी।"

"शर्म किस बात की भला?" मैंने पूछा।

"व...वो...मुझे नहीं पता।" रागिनी को जैसे जवाब न सूझा।

"अब ये क्या बात हुई?" मैं मुस्कुरा उठा। मेरा हौंसला धीरे धीरे बढ़ने लगा____"आपको उसके साथ रहने से शर्म तो आएगी लेकिन क्यों आएगी यही नहीं पता आपको? ऐसा कैसे हो सकता है?"

"क्योंकि ये अच्छी बात नहीं होगी इस लिए।" उन्होंने झिझकते हुए कहा____"वो आपकी पत्नी बन कर आएगी तो उसे आपके साथ अकेले में रहने का अवसर मिलना चाहिए। मेरे सामने वो बेचारी आपसे कुछ कह भी नहीं पाएगी। उसका कुछ कहने और करने का मन होगा तो वो कर भी नहीं पाएगी। इस लिए उसका आपके साथ दूसरे कमरे में रहना ही ठीक होगा।"

"वैसे क्या नहीं कर पाएगी वो?" मैंने ध्यान से उनकी तरफ देखते हुए पूछा____"क्या कुछ करना भी होता है?"

"ह...हां...नहीं...मतलब।" वो एकदम से हकलाने लगीं____"क...क्या आपको नहीं पता?"

"कैसे पता होगा भला?" मैं मुस्कुराया____"पहली बार तो विवाह हुआ है मेरा। मुझे क्या पता विवाह के बाद क्या क्या होता है? आपको तो पता होगा ना तो आप ही बताइए।"

मेरी इस बात से रागिनी इस बार कुछ न बोलीं। मैंने महसूस किया कि एकदम से ही उनके चेहरे पर संजीदगी के भाव उभर आए थे। मैं समझ गया कि मेरी इस बात से उन्हें अपने पूर्व विवाह की याद आ गई थी जिसके चलते यकीनन उन्हें बड़े भैया का भी ख़याल आ गया होगा। मुझे खुद पर गुस्सा आया कि मैंने ऐसी बात कही ही क्यों उनसे?

मैं हिम्मत कर के उनके पास खिसक कर आया और फिर हाथ बढ़ा कर उन्हें अपनी तरफ खींच लिया। वो मेरी इस क्रिया से पहले तो चौंकी, थोड़ी घबराई भी लेकिन फिर जैसे खुद को मेरे हवाले कर दिया। हालत तो मेरी भी ख़राब हो गई थी लेकिन मैंने भी सोचा कि अब जो होगा देखा जाएगा। वैसे भी मैं उन्हें इस वक्त किसी बात से दुखी नहीं करना चाहता था।

मैंने रागिनी को थोड़ा और अपने पास खींचा और खुद से छुपका लिया। मैंने महसूस किया कि उनका नाज़ुक बदन हल्के हल्के कांप सा रहा था।

"माफ़ कर दीजिए मुझे।" फिर मैंने उनके मन का विकार दूर करने के इरादे से कहा____"मेरा इरादा आपको ठेस पहुंचाने का या दुखी करने का नहीं था। मैं तो बस आपको छेड़ रहा था, ये सोच कर कि शायद आपको भी इससे हल्का महसूस हो।"

"आ...आप माफ़ी मत मांगिए।" उन्होंने मुझसे छुपके हुए ही कहा____"मैं जानती हूं कि आप मुझे दुखी नहीं कर सकते।"

"चलिए इसी बहाने कम से कम आप मेरे इतना पास तो आ गईं।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"आपको इस तरह खुद से छुपका लिया तो एक अलग ही एहसास हो रहा है मुझे। क्या आपको भी हो रहा है?"

"हम्म्म्म।" उन्होंने धीमें से कहा।

"तो बताइए ना कि विवाह के बाद क्या होता है?" मैंने धड़कते दिल से पूछा।

"वो तो आपको पता ही होगा।" उन्होंने मेरे सीने में खुद को सिमटाते हुए कहा____"मुझे कुछ नहीं मालूम।"

"वाह! तो आप झूठ भी बोलती हैं?" मैं मुस्कुरा उठा____"वो भी इतने मधुर अंदाज़ में, जवाब नहीं आपका।"

मेरी बात सुन कर वो और भी ज़्यादा सिमट गईं। मैं समझ सकता था कि उन्हें इस बारे में बात करने से शर्म आ रही थी। मैं ये भी समझ सकता था कि वो चाहती थीं कि मैं ही पहल करूं। अगर ऐसा न होता तो वो इस वक्त मुझसे छुपकी लेटी ना होती।

"ठीक है।" मैंने बड़ी हिम्मत के साथ कहा____"अगर आप बताना नहीं चाहती तो मैं भी आपको परेशान नहीं करूंगा। अच्छा एक बात पूछूं आपसे?"

"हम्म्म्म।"

"मैंने सुना है कि विवाह के बाद पति पत्नी सुहागरात की अनोखी रस्म निभाते हैं।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"उस रस्म में वो दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं और फिर दोनों एकाकार हो जाते हैं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या आप चाहती हैं कि हम भी ये रस्म निभाएं और फिर एकाकार हो जाएं?"

"आ...आपको जो ठ..ठीक लगे कीजिए।" रागिनी ने अटकते हुए धीमें से कहा।

"मैं आपकी इच्छा के बिना कोई कार्य नहीं करूंगा।" मैंने कहा____"आपकी इच्छाओं का और आपकी भावनाओं का सम्मान करना मेरी सबसे पहली प्राथमिकता है। आपको हर दुख से दूर करना और आपको खुश रखना मेरा कर्तव्य है। अतः जब तक आपकी इच्छा नहीं होगी तब तक मैं कुछ नहीं करूंगा।"

मेरी बातें सुन कर रागिनी ने एकदम से अपने हाथ बढ़ाए और मुझे पकड़ कर खुद से जकड़ लिया। शायद मेरी बातें उनके दिल को छू गईं थी। अचानक ही उनकी सिसकियां फूट पड़ीं।

"अरे! क्या हुआ आपको?" मैं एकदम से घबरा गया____"क्या मुझसे कोई ग़लती हो गई है?"

"न..नहीं।" उन्होंने और भी जोरों से मुझे जकड़ लिया, रुंधे गले से बोलीं_____"बस मुझे प्यार कीजिए। मुझे खुद में समा लीजिए।"

"क...क्या आप सच कह रही हैं?" मैं बेयकीनी से पूछ बैठा____"क्या सच में आप चाहती हैं कि मैं आपको प्रेम करूं और हम दोनों एकाकार हो जाएं?"

"ह...हां म...मैं चाहती हूं।" रागिनी कहने के साथ ही मुझसे अलग हुईं, फिर बोलीं____"मैं आपका प्रेम पाना चाहती हूं। पूरी तरह आपकी हो जाना चाहती हूं।"

मैंने देखा उनकी आंखों में आंसू थे। चेहरे पर दुख के भाव नाच रहे थे। मेरे एकदम पास ही थीं वो। उनकी तेज़ चलती गर्म सांसें मेरे चेहरे पर पड़ रहीं थी। तभी जाने उन्हें क्या हुआ कि वो ऊपर को खिसकीं और इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता उन्होंने मेरे सूखे होठों को झट से चूम लिया।

मेरे होठों को चूमने के बाद वो फ़ौरन ही नीचे आ कर मेरे सीने में शर्म के मारे छुपक गईं। मैं भौचक्का सा किसी और ही दुनिया में पहुंच गया था। फिर जैसे मुझे होश आया तो मैंने उनकी तरफ देखा।

"ये...ये क्या था रागिनी?" मैंने उत्सुकता से पूछा।

"मे...मेरे प्यार का सबूत।" उन्होंने धीमें स्वर में कहा____"इससे आगे अब कुछ मत पूछिएगा मुझसे। बाकी आपकी पत्नी अब आपकी बाहों में है।"

"क्या सच में?" मैं मुस्कुरा उठा।

सारा डर, सारी घबराहट न जाने कहां गायब हो गई थी। ऐसा लगने लगा था जैसे अब कुछ भी मुश्किल नहीं रह गया था। मैंने बड़े प्यार से उनके चेहरे को अपनी हथेलियों में लिया। रागिनी ने शर्म से अपनी पलकें बंद कर ली। उनके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठ थोड़ा सा खुले हुए थे और थोड़ा थोड़ा कांप भी रहे थे। मैं आगे बढ़ा और गुलाब की पंखुड़ियों पर अपने होठ रख दिया। मेरे ऐसा करते ही उनका पूरा बदन कांप उठा। उन्होंने पूरी तरह से खुद को जैसे मेरे हवाले कर दिया था। उनका बदन कांप रहा था लेकिन वो कोई विरोध नहीं कर रहीं थी। खुद से कुछ कर भी नहीं रहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे वो मेरे साथ किसी और ही दुनिया में खोने लगीं थी।

सुहागरात की रस्म बड़े प्रेम के साथ रफ़्ता रफ़्ता आगे बढ़ती रही और हम दोनों कुछ ही समय में दो जिस्म एक जान होते चले गए। रागिनी अब पूर्ण रूप से मेरी पत्नी बन चुकीं थी।​
 
अध्याय - 168
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दो दिन ऐसे ही हंसी खुशी में निकल गए। रागिनी के साथ प्रेम करना बड़ा ही सुखद अनुभव था। वो अब पहले से खुल तो गईं थी लेकिन शर्मा अभी भी रहीं थी। दिन भर तो मैं बाहर ही सबके साथ अपना समय गुज़ारता लेकिन जैसे ही रात में हम दोनों अपने कमरे में पहुंचते तो हम प्रेम क्रीड़ा में खोने लगते। कहने की ज़रूरत नहीं कि पहल मैं ही करता था। वो शर्म के चलते खुद कोई पहल नहीं करती थीं लेकिन मेरे पहल करने पर विरोध भी नहीं करती थीं। कुछ देर बाद जब वो आनंद के तरंग में डूब जातीं तो खुद भी मेरा साथ देने लगतीं थी। चरम सुख के बाद जब मदहोशी का नशा उतरता तो वो मारे शर्म के अपना बेपर्दा जिस्म झट से रजाई के अंदर ढंक लेतीं और खुद भी चेहरा छुपा कर सिमट जातीं। मैं उनके इस अंदाज़ पर बस मुस्कुरा उठता। मुझे उन पर बेहद प्यार आता तो मैं उन्हें अपने सीने से छुपका लेता। फिर हम दोनों एक दूसरे से छुपके ही सो जाते। सुबह मेरे जागने से पहले ही वो उठ जातीं और झट से कपड़े पहन लेतीं।

शाम को गौरी शंकर और रूपचंद्र अपने नात रिश्तेदारों के साथ मेरा तिलक चढ़ाने आए। मैं एक बार फिर से नया दूल्हा बन कर अपनी दूसरी पत्नी को ब्याह कर लाने के लिए तैयार हो गया था। तिलक बड़े धूम धाम से चढ़ा। गौरी शंकर और उसके साथ आए लोग खुशी खुशी घर लौट गए।

चौथे दिन एक बार फिर से हवेली में धूम धड़ाका गूंजने लगा। रूपचंद्र के घर बारात जाने को तैयार हो गई थी। एक बार फिर से बारात में जाने के लिए सब लोग आ गए थे। हवेली के बाहर बैंड बाजा बज रहा था। नाच गाना हो रहा था।

शाम घिरते घिरते बारात निकली। सबसे पहले देवी मां के मंदिर में मैंने नारियल तोड़ा, पूजा की। उसके बाद रूपचंद्र के घर की तरफ चल पड़े। पिता जी ने कोई भेद भाव नहीं किया था। वैसा ही उल्लास और ताम झाम कर रखा था जैसा पहले किया था। मैं एंबेसडर कार में दूल्हा बना बैठा जल्दी ही जनवासे पर पहुंच गया। वहीं पास में ही जनवास था। रूपचंद्र और उसके नात रिश्तेदारों ने सभी बारातियों को जल पान कराया। कुछ समय बाद हम सब गौरी शंकर के घर की ओर चल दिए। रास्ते में विभोर और अजीत आतिशबाज़ी कर रहे थे, बैंड बाजा के साथ नाच रहे थे। जल्दी ही हम लोग गौरी शंकर के घर पहुंच गए।

पूरा घर सजा हुआ था। पूरे चौगान से ले कर बाहर सड़क तक चांदनी लगी हुई थी। द्वार पर फूलों का दरवाज़ा बनाया गया था। बारात जब द्वार पर पहुंची तो सबका फूल मालाओं से स्वागत हुआ। गौरी शंकर मेरे पास आया और मेरी आरती करने के बाद मुझसे अंदर आने का आग्रह किया। मैं खुशी मन से उसके साथ अंदर द्वारचार की रस्म के लिए आ गया। बाहर चौगान में एक जगह पूजा करवाने के लिए पंडित जी बैठे हुए थे। उनके पीछे ढेर सारी औरतें, लड़कियां खड़ी हुईं गीत गा रहीं थी। सामने कुछ औरतें और लड़कियां सिर पर कलश लिए खड़ी थी।

द्वारचार शुरू हुआ। एक तरफ घर वाले बरातियों को चाय नाश्ता परोस रहे थे। कुछ समय बाद द्वारचार की रस्म पूरी हुई। पिता जी ने कलश ली हुई औरतों और लड़कियों को उनका नेग दिया।

द्वारचार के बाद लड़की का चढ़ाव शुरू हुआ जोकि अंदर आंगन में बने मंडप के नीचे हो रहा था। रूपा मंडप में सजी धजी बैठी थी और पंडित जी अपने मंत्रोच्चार कर रहे थे। सभी बारातियों की नज़रें रूपा पर जमी हुईं थी। रूपा आज अपने नाम की ही तरह रूप से परिपूर्ण नज़र आ रही थी। चेहरे पर मासूमियत तो थी ही किंतु खुशी की एक चमक भी थी।

चढ़ाव के बाद क़रीब ग्यारह बजे विवाह का शुभ मुहूर्त आया तो मैं मंडप में पहुंच गया। कुछ देर पूजा हुई उसके बाद रूपा को बुलाया गया। रूपा अपनी बहनों और भाभियों से घिरी हुई आई। ना चाहते हुए भी उसकी तरफ मेरी गर्दन घूम गई। उफ्फ! कितनी सुंदर लग रही थी वो। मेरे अंदर सुखद अनुभूति हुई। वो छुई मुई सी धीरे धीरे आई और मेरे बगल से बैठ गई। उसकी बड़ी भाभी कुमुद पीछे से उसकी चुनरी को ठीक करने लगीं। उसे इस रूप में अपने क़रीब बैठा देख मेरे अंदर खुशी की लहर दौड़ गई और साथ ही धड़कनें भी थोड़ा तेज़ हो गईं।

बहरहाल, विवाह शुरू हुआ। पंडित जी मंत्रोच्चार के साथ साथ अलग अलग विधियां करवाते रहे। मैं और रूपा उनके बताए अनुसार एक साथ सारे कार्य करते रहे। तीसरे पहर पंडित जी के कहने पर मैंने रूपा की मांग में सिंदूर भरा, उसे मंगलसूत्र पहनाया, फेरे हुए। मैं उस वक्त थोड़ा चौंका जब कन्यादान के समय मैंने सरोज काकी को आया देखा। वो अकेली ही थी। रूपा की मां ललिता देवी कुछ दूरी पर खड़ी देख रहीं थी। मुझे समझते देर न लगी कि रूपा का कन्यादान उसकी अपनी मां नहीं बल्कि उसकी नई मां सरोज करने वाली है। ये समझते ही मुझे एक अलग ही तरह की खुशी का एहसास हुआ। मुझे ऐसा लगा जैसे सरोज रूपा का नहीं बल्कि अनुराधा का कन्यादान करने के लिए मेरे सामने आ कर बैठ गई थी। आस पास बैठे कुछ लोगों को थोड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पिता जी से दबी जुबान में कुछ कहा जिस पर पिता जी ने मुस्कुराते हुए उन्हें कोई जवाब दिया। पिता जी के जवाब पर वो लोग भी मुस्कुरा उठे, सबकी आंखों में वाह वाही करने जैसे भाव नुमाया हो उठे।

खैर, सरोज ने नम आंखों से रूपा का कन्यादान किया। वो बहुत कोशिश कर रही थी कि उसकी आंखें नम ना हों लेकिन शायद ये उसके बस में नहीं था। चेहरे पर खुशी तो थी लेकिन वेदना भी छुपी हुई थी। वहीं रूपा उसे बड़े स्नेह भाव से देखने लगती थी।

सुबह होते होते विवाह संपन्न हो गया और रूपा को विदा करने की तैयारी शुरू हो गई। एक तरफ कलावा का कार्यक्रम शुरू हो गया। घर के आंगन में एक तरफ मुझे बैठाया गया। मेरे साथ विभोर और अजीत बैठ गए। मामा की लड़कियां बैठ गईं। उसके बाद कलावा शुरू हुआ। घर की सभी औरतें एक एक कर के आतीं और मुझे टीका चंदन कर के मेरे सामने रखी थाली में रुपए पैसे के साथ कोई न कोई वस्तु नेग में डाल जाती। कुमुद भाभी जब आईं तो मेरा चेहरा और भी बिगाड़ने लगीं। ये सब मज़ाक ठिठोली जैसा ही था। मज़ाक में कुछ न कुछ कहतीं जिससे मैं मुस्कुरा उठता। बहरहाल इसके बाद मैं बाहर चला आया। विदा की तैयारी तो हो ही रही थी किंतु तभी अंदर से किसी ने बाहर आ कर पिता जी से कहा कि उन्हें घर की औरतें यानि उनकी समधिनें बुला रहीं हैं मड़वा हिलाने के लिए। ये भी एक रस्म थी।

पिता जी, बड़े मामा और छोटे मामा को भी अपने साथ अंदर ले गए। वहां अंदर आंगन में मड़वा हिलाने की रस्म होने के बाद उनकी समधिनों ने उन्हें रंगों से रंगना शुरू कर दिया। पिता जी ने तो शांति से रंग लगवा लिया लेकिन मामा लोग शांत नहीं बैठे। बल्कि वो खुद भी जवाब में उन्हें रंग डालने लगे। हंसी मज़ाक का खेल पलक झपकते ही हुड़दंग में बदल गया। आख़िर गौरी शंकर के समझाने पर औरतें शांत हुईं। उसके बाद पिता जी और मामा लोग बाहर आ गए। सबके सब रंग में नहाए हुए थे।

बाहर बैंड बजे जा रहा था। अंदर से रोने धोने की आवाज़ें आने लगीं थी। लड़की विदा हो रही थी। माहौल थोड़ा ग़मगीन हो गया। आख़िर ये वक्त किसी तरह गुज़रा और रूपा को कार में मेरे साथ बैठा दिया गया। रूपा अपने घर वालों को देख रोए जा रही थी। थोड़ी देर बाद कार आगे बढ़ चली। पीछे सभी बाराती भी चल पड़े। गौरी शंकर, पिता जी से हाथ जोड़ कर कुछ कहता नज़र आ रहा था जिस पर पिता जी उसके कंधे को हल्के से दबाते हुए उसे आश्वासन सा दे रहे थे।

✮✮✮✮

हम सब थोड़ी ही देर में हवेली पहुंच गए। वहां पहले से ही मां और चाची बाकी औरतों के साथ हमारा स्वागत करने की तैयारी कर चुकीं थी। हवेली के बड़े से मैदान में जैसे ही हम सब पहुंच कर रुके तो परछन शुरू हो गया। एक तरफ बैंड बाजा बज रहा था, नाच शुरू हो गया था। काफी देर तक धूम धड़ाका हुआ। उसके बाद मां के कहने पर मैं और रूपा हवेली के अंदर की तरफ बढ़ चले। नई बहू के साथ जो विधियां और जो रस्में होती हैं वो एक एक कर के हुईं और फिर पूजा हुई। मां ने रागिनी की तरह ही रूपा से हवेली के द्वार पर हल्की से सनी हथेली का चिन्ह लगवाया।

मैं एक बार फिर से नहा धो कर कमरे में आराम करने के लिए पहुंच गया था। इस बार मैं ऊपर ही अपने कमरे में था। रागिनी नीचे थीं। रात भर का जगा था इस लिए जल्दी ही मैं सो गया। उसके बाद क्या हुआ मुझे पता न चला।

शाम को किसी के हिलाने डुलाने पर नींद खुली तो मैंने देखा रागिनी मुझे हिला रहीं थी। उनके चेहरे पर शर्म के भाव थे। बार बार दरवाज़े की तरफ देखने लगती थीं। मैंने देखा वो सजी धजी थीं और इस वक्त बहुत ही प्यारी लग रहीं थी।

अभी उन्होंने पलट कर दरवाज़े की तरफ देखा ही था कि मैंने लपक कर उनका हाथ पकड़ा और अपनी तरफ खींच लिया। मेरे ऐसा करते ही उनकी डर के मारे चीख निकलते निकलते रह गई और वो झोंक में मेरे ऊपर आ गिरी।

"य...ये क..क्या कर रहे हैं आप?" फिर वो बदहवाश सी बोलीं____"छोड़िए न कोई आ जाएगा।"

"आने दीजिए।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मैंने किसी ग़ैर को थोड़े ना पकड़ रखा है, अपनी ख़ूबसूरत पत्नी को पकड़ रखा है।"

"अ..अच्छा जी।" रागिनी घबराई हुई सी बोली____"अब छोड़िए न, मुझे बहुत शर्म आ रही है। कोई आ गया और इस तरह देख लिया तो क्या सोचेगा मेरे बारे में?"

"वो यही सोचेगा कि हवेली की बड़ी बहू अपने पति के साथ प्रेम कर रहीं हैं।" मैंने थोड़ा और ज़ोर से उन्हें खुद से छुपका लिया____"और प्रेम करना तो बहुत अच्छी बात है ना?"

"धत्त।" रागिनी बुरी तरह शर्मा गई____"आपको लज्जा नहीं आती ऐसा बोलने में? बड़ा जल्दी बिगड़ गए आप?"

"अपनी ख़ूबसूरत पत्नी से प्रेम करना अगर बिगड़ जाना होता है तो फिर मैं और भी ज़्यादा बिगड़ जाना चाहूंगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"और मैं चाहता हूं कि आप भी इस मामले में थोड़ा बिगड़ जाएं ताकि प्रेम का अच्छे से आनंद ले सकें।"

"ना जी ना।" रागिनी मेरे सीने में सिमट कर बोली____"बिगड़ना अच्छी बात नहीं होती है। अब छोड़िए मुझे, सच में कोई आ ना जाए।"

"छोड़ दूंगा लेकिन।" मैंने कहा____"लेकिन पहले मुंह तो मीठा करवाइए।"

"म...मुंह मीठा??" रागिनी ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा।

"हां जी।" मैं मुस्कुराया____"आपकी छोटी बहन रूपा आई है। उसके आने की खुशी तो है ना आपको?"

"हां जी, बहुत खुशी है मुझे।" रागिनी ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"अ...और आज रात आपको उसके साथ ही सोना है।"

"वो तो ठीक है।" मैं फिर मुस्कुराया____"लेकिन उसके आने की खुशी में मेरा मुंह तो मीठा करवाइए आप।"

"ठीक है छोड़िए फिर मुझे।" रागिनी ने मुझसे छूटने की कोशिश की____"मैं नीचे जा कर आपको मिठाई ले आती हूं।"

"पर मुझे मिठाई से मुंह मीठा थोड़े न करना है।" मैंने कहा____"मुझे तो आपके शहद जैसे मीठे होठों को चूम कर मुंह मीठा करना है।"

"धत्त।" रागिनी ने शर्म से सिर झुका लिया, मुस्कुराते हुए बोलीं____"कितने गंदे हैं आप।"

"लो जी अपनी पत्नी के होठों को चूमना गंदा होना कैसे हो गया भला?" मैंने कहा____"अरे! ये तो प्रेम करना होता है और मैं आपको बहुत ज़्यादा प्रेम करना चाहता हूं। चलिए अब देर मत कीजिए और अपने होठों की शहद से मुंह मीठा करवाइए मेरा।"

रागिनी बुरी तरह शर्मा रहीं थी। मेरे सीने में शर्म से चेहरा छुपाए मुस्कुराए भी जा रहीं थी। मैं जानता था कि अगर मैं पहल करूंगा तो वो विरोध नहीं करेंगी किंतु हां शर्म के चलते खुद ना तो पहल करेंगी और ना ही ये कहेंगी चूम लीजिए।

अतः मैंने दोनों हथेलियों में उनका चेहरा लिया और ऊपर उठाया। उनका चेहरा एकदम शर्म से सुर्ख पड़ गया था। वो समझ गईं थी कि अब मैं उनके होठ चूमे बग़ैर उन्हें नहीं छोडूंगा इस लिए उन्होंने अपनी पलकें बंद कर कर के जैसे मूक सहमति दे दी। मैंने सिर उठा कर उनकी कांपती हुई पंखुड़ियों को पहले हल्के से चूमा और फिर उन्हें होठों के बीच दबा कर उनका मीठा रस चूसने लगा। रागिनी का पूरा बदन थरथरा उठा लेकिन फिर जल्दी ही उनका जिस्म शांत सा पड़ गया। शायद आनंद की अनुभूति के चलते वो खुद को भूलने लगीं थी।

अभी मैं उनके शहद जैसे होठों का रस पी ही रहा था कि सहसा बाहर से किसी की आवाज़ आई जिससे हम दोनों ही बुरी तरह हड़बड़ा गए। रागिनी उछल कर मुझसे दूर हो गईं। तभी कमरे में कुसुम दाख़िल हुई।

"अरे! भाभी आप यहां हैं?" फिर उसने रागिनी को देखते ही थोड़ी हैरानी से कहा____"मैं आपको नीचे खोज रही थी। वो बड़ी मां ने बुलाया है आपको।"

कुसुम ने इतना कहा ही था कि रागिनी ने सिर हिलाया और फिर बिना कुछ कहे फ़ौरन ही बाहर चली गईं। उनके जाते ही कुसुम मेरी तरफ पलटी।

"अब अगर आपकी नींद पूरी हो गई हो तो जा कर हाथ मुंह धो लीजिए" फिर उसने मुझसे कहा____"फिर मैं आपको चाय ले कर आती हूं या कहिए तो भाभी के हाथों ही भेजवा दूं?"

"उनके हाथों क्यों?" मैं चौंका____"मुझे तो अपनी गुड़िया के हाथों ही पीना है।"

"शुक्र है अपनी गुड़िया का ख़याल तो है अभी आपको।" उसने मंद मंद मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे लगा भाभी के आते ही आप बाकी सबको भूल ही गए होंगे।"

"क्या कहा तूने।" उसके तंज़ पर मेरी आंखें फैलीं____"रुक अभी बताता हूं तुझे। बहुत बोलने लगी है तू।"

"भूल तो जाएंगे ही भैया।" वो फ़ौरन ही पलट कर दरवाज़े की तरफ भागी, फिर सहसा पलट कर बोली____"अभी तक रागिनी भाभी ही थीं और अब तो रूपा भाभी भी आ गईं हैं। जाने अब आप किसी और को देखेंगे भी या नहीं।"

"तू गई नहीं अभी?" मैं उछल कर पलंग से कूदा____"रुक तू, सच में बहुत बोल रही है तू।"

कुसुम खिलखिला कर हंसते हुए भाग गई। उसके जाने के बाद मैं भी मुस्कुराते हुए वापस पलंग पर बैठ गया। मैं सोचने लगा कि मेरी गुड़िया भी मौका देख कर व्यंग्य बाण चला ही देती है। फिर सहसा मुझे महेंद्र सिंह की बातों का ख़याल आ गया। वो चाची से अपने बेटे के लिए कुसुम का हाथ मांग रहे थे। ज़ाहिर है चाची इस रिश्ते से इंकार कर ही नहीं सकती थीं। इसका मतलब तो ये हुआ कि मेरी लाडली बहन सच में अब बड़ी हो गई है जिसके चलते आगे चल कर जल्द ही उसके भी विवाह की बातें होने लगेंगी। मैं सोचने लगा कि कैसे मैं अपनी गुड़िया को विदा होते देख सकूंगा?

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रात खाना पीना कर के मैं अपने कमरे में आ कर लेट गया था। रोहिणी मामी से इत्तेफ़ाकन मुलाकात हो गई थी और वो इस मौके का भरपूर फ़ायदा उठा कर मुझे छेड़ने से नहीं चूकी थीं। उन्होंने ही बताया कि मां ने ऊपर ही एक दूसरा कमरा रूपा के लिए तैयार करवा दिया है। विभोर और अजीत ने मिल कर उसे बढ़िया से सजा भी दिया है।

मैं जानता था कि इस वक्त रूपा खा पी कर अपने कमरे में पहुंच गई होगी और मेरे आने का इंतज़ार कर रही होगी। मन तो मेरा भी था कि झट से उस अद्भुत लड़की के पास पहुंच जाऊं जिसने मुझे नया जीवन ही बस नहीं दिया था बल्कि अपने प्रेम, अपने कर्म से मुझे धन्य भी कर दिया था। तभी रागिनी कमरे में दाख़िल हुईं।

"अरे! आप अभी तक यहीं हैं?" फिर उन्होंने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आप मेरी मासूम बहन के पास गए नहीं अभी? चलिए उठिए, वो बेचारी आपके आने की प्रतिक्षा कर रही होगी।"

"तो क्या आप खुद मुझे ले कर उसके पास जाएंगी?" मैंने थोड़ी हैरानी से उन्हें देखते हुए पूछा।

"हां बिल्कुल।" रागिनी ने पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ता से कहा____"मैं अपनी छोटी बहन को तनिक भी किसी बात के लिए इंतज़ार नहीं करवाना चाहती। चलिए उठिए जल्दी।"

"जो हुकुम आपका।" मैं मुस्कुराते हुए उठा।

उसके बाद रागिनी मुझे ले कर चल पड़ीं। उनके चेहरे पर खुशी के भाव थे। बिल्कुल भी नहीं लग रहा था कि इस वक्त उन्हें किसी बात से कोई तकलीफ़ है। वो पूरी तरह निर्विकार भाव से चल रहीं थी।

"सुनिए, वो अभी नादान है।" फिर जाने क्या सोच कर उन्होंने धीमें से कहा____"बहुत मासूम भी है इस लिए मेरी आपसे विनती है कि उसे किसी भी तरह की तकलीफ़ मत दीजिएगा। मेरी बहन फूल सी नाज़ुक है अतः उसके साथ बहुत ही प्रेम से पेश आइएगा।"

मैं उनकी बात सुन कर मुस्कुरा उठा। ये सोच कर अच्छा भी लगा कि उन्हें रूपा की फ़िक्र है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों रूपा के कमरे के पास पहुंच गए। रागिनी ने खुद आहिस्ता से दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही नथुनों में फूलों की खुशबू समा गई। कमरे के अंदर जगमग जगमग हो रहा था।

"देखिए।" रागिनी ने धीमें से कहा____"मेरी फूल सी नाज़ुक बहन पलंग पर फूलों से घिरी बैठी है। अब आप जाइए, और उसको अपना सच्चा प्रेम दे कर उसे तृप्त कर दीजिए।"

"आप भी चलिए।" मैं पलट कर मुस्कुराया____"आप रहेंगी तो शायद मैं सब कुछ अच्छे से कर पाऊं।"

"ना जी।" रागिनी के चेहरे पर शर्म की लाली उभर आई____"आप खुद ही बहुत ज्ञान के सागर हैं। मुझे पता है आपको किसी से कुछ जानने समझने की ज़रूरत नहीं है। अब बातें छोड़िए और जाइए।"

रागिनी ने कहने के साथ ही मुझे अंदर की तरफ आहिस्ता से धकेला। मैं मन ही मन मुस्कराते हुए अंदर दाख़िल हुआ तो रागिनी ने पीछे से दरवाज़ा बंद कर दिया।

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रूपा सचमुच पलंग पर फूलों से घिरी बैठी थी। दोनों पांव सिकोड़े और लंबा सा घूंघट किए। दूध सी गोरी कलाइयों से उसने अपने घुटनों को समेट रखा था। जैसे ही उसे अपने पास मेरे पहुंचने का आभास हुआ तो उसने आहिस्ता से सिर उठ कर मेरी तरफ देखा। फिर वो आहिस्ता से आगे बढ़ कर पलंग से नीचे उतर आई। मैं समझ गया कि रागिनी की तरह वो भी मेरे पांव छुएंगी लेकिन मैंने उसे बीच में ही थाम लिया।

"इस औपचारिकता की ज़रूरत नहीं है मेरी जान।" मैंने अधीरता से उसके कंधों को पकड़ कर कहा____"तुम्हारा स्थान मेरे पैरों में नहीं बल्कि मेरे हृदय में हैं। तुम जैसी प्रेम की मूरत को मैं बस अपने हृदय से लगा कर सच्चे प्रेम का एहसास करना चाहता हूं।"

कहने के साथ ही मैंने रूपा को हल्के से अपनी तरफ खींचा और उसे अपने सीने से लगा लिया। वाह! सचमुच उसे सीने से लगाने से एक अलग ही एहसास होने लगा था। उसने खुद भी मुझे दोनों हाथों से समेट सा लिया था।

"आख़िर आप मुझे मिल ही गए।" फिर उसने मुझसे छुपके हुए ही भारी गले से कहा____"देवी मां ने मुझे हमेशा के लिए आपसे मिला दिया। मैं बता नहीं सकती कि इस वक्त मैं कितना खुश हूं।"

"मुझे भी तुम्हें पा कर बहुत खुशी हो रही है रूपा।" मैंने कहा____"मैंने तो अपने लिए कभी इतना अधिक पाने की कल्पना ही नहीं की थी। करता भी कैसे, मेरे जैसे निम्न चरित्र वाला इंसान ऐसी कल्पना भला कर भी कैसे सकता था कि उसके जीवन में कभी तुम्हारे जैसी प्रेम की देवियां आएंगी और मेरा जीवन धन्य कर देंगी।"

"अच्छा ये बताइए।" फिर उसने मुझसे अलग हो कर कहा____"आपने मेरी दीदी को अच्छे से प्यार तो किया है ना? उन्हें किसी तरह का दुख तो नहीं दिया है ना आपने?"

"क्या ऐसा हो सकता था भला?" मैंने बड़े प्यार से उसकी तरफ देखा____"तुम सबके प्रेम ने इतना तो असर डाला ही है मुझ पर कि मैं किसी को तकलीफ़ ना दे सकूं। तुम चिंता मत करो मेरी जान, मैंने उन्हें वैसा ही प्यार किया है जैसा तुम चाहती थी। तुम्हें पता है, अभी वो ही मुझे यहां ले कर आईं थी और कह कर गईं हैं कि मैं उनकी फूल सी नाज़ुक बहन को किसी भी तरह की तकलीफ़ न दूं और बहुत ज़्यादा प्यार करूं।"

"मैं जानती थी।" रूपा ने गदगद भाव से कहा____"मेरी दीदी अपने से ज़्यादा अपनी इस छोटी बहन के बारे में ही सोचेंगी। देवी मां ने मुझे सब कुछ दे दिया है। मुझे आप मिल गए, इतनी अच्छी दीदी मिल गईं, माता पिता के रूप में इतने अच्छे सास ससुर मिल गए और इतना अच्छा परिवार मिल गया। इतना कुछ मिल गया है कि अब कुछ और पाने की हसरत ही नहीं रही।"

"ऐसा मत कहो यार।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"अगर कुछ और पाने की हसरत न रखोगी तो इस वक्त हम प्रेम क्रीड़ा कैसे कर पाएंगे? सुहागरात कैसे मनाएंगे? मुझे तो अपनी रूपा को बहुत सारा प्यार करना है। उसे अपने सीने से लगा कर खुद में समा लेना है। उसे ढेर सारी खुशियां देनी हैं। अपनी रूपा से प्रेम का अद्भुत पाठ पढ़ना है। हां मेरी जान, मुझे तुमसे सीखना है कि किसी से टूट टूट कर प्रेम कैसे किया जाता है? मैं भी अपनी रूपा से टूट कर प्रेम कर चाहता हूं।"

"आपको जैसे प्रेम करना आता हो वैसे ही कीजिए मेरे दिलबर।" रूपा ने कहा____"मैं तो आपकी दीवानी हूं। आप जैसे प्रेम करेंगे उसी में मदहोश हो जाऊंगी, तृप्त हो जाऊंगी। अब जल्दी से प्रेम कीजिए ना, अब क्यों देर कर रहे हैं? मेरा घूंघट उठाइए ना।"

रूपा का यूं अचानक से उतावला हो जाना देख मैं मुस्कुरा उठा। वो बच्चों जैसी ज़िद करती नज़र आई। मुझे सच में उस पर बहुत प्यार आया। मैंने उसे हौले से पकड़ कर पलंग पर सलीके से बैठाया। फिर मैं खुद बैठा और फिर दोनों हाथों से उसका घूंघट उठाने लगा। कुछ ही पलों में उसका चांद सा चमकता चेहरा मेरी आंखों के सामने उजागर हो गया। सचमुच, बहुत सुंदर थी वो। साहूकारों के घर की लड़कियां एक से बढ़ कर एक सुंदर थीं लेकिन रूपा की बात ही अलग थी। वो जितनी सुंदर थी उससे कहीं ज़्यादा सुंदर और अद्भुत उसका चरित्र था।

"मैं कैसी लग रही हूं जी?" उसने हौले से अपना चेहरा खुद ही ऊपर उठा कर पूछा____"रागिनी दीदी जितनी सुंदर नहीं लग रही हूं ना मैं?"

"ऐसा क्यों कह रही हो?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"अरे! तुम उनसे कहीं ज़्यादा सुंदर लग रही हो। मेरी रूपा किसी से भी कम नहीं है।"

"ये तो आप मेरा दिल रखने के लिए कह रहे हैं।" उसने अपनी सीप सी पलकें झपका कर मासूमियत से कहा____"मैं अच्छी तरह जानती हूं कि मेरी दीदी बहुत सुंदर हैं। वो बहुत गुणवान हैं। मुझे खुशी है कि उनसे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।"

"अब ये तुम और तुम्हारी दीदी जानें।" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"लेकिन जहां तक मेरी बात है तो वो यही है कि मेरी रूपा सबसे सुंदर है। उसके अंदर गुणों की कोई कमी नहीं है। अरे! मेरी रूपा के दिल में सच्चा प्रेम बसता है जो उसे सबसे ख़ास बनाता है। ख़ैर अब ये बातें छोड़ो, और ये बताओ कि आगे का कार्यक्रम शुरू करें या सोना है। वैसे सोना ही चाहिए क्योंकि तुम भी थकी हुई होगी। इस लिए आराम से सो जाओ।"

"अरे! ये क्या कह रहे हैं आप?" रूपा एकदम से चौंकी____"देखिए, ना तो मैं थकी हुई हूं और ना ही मुझे नींद आ रही है। मुझे तो बस अपने प्रियतम को प्यार करना है और ये भी चाहती हूं कि मेरा प्रियतम भी मुझे जल्दी से प्यार करने लगें।"

"ठीक है।" मैं मन ही मन उसकी मासूमियत और उसके निश्छल प्रेम पर आनंदित हुआ____"अगर तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही करते हैं। वैसे मुंह दिखाई का नेग तो तुमने मांगा ही नहीं मुझसे?"

"आप मुझे मिल गए।" रूपा ने कहा____"इससे बड़ा कोई नेग हो सकता है क्या? ना जी, मुझे कोई नेग वेग नहीं चाहिए। मुझे तो बस अपने जान जी का बहुत सारा प्यार चाहिए। चलिए अब जल्दी से शुरू कीजिए ना। आप तो बातों में सारा समय ही बर्बाद किए जा रहे हैं।"

रूपा ने सहसा बुरा सा मुंह बना लिया तो मेरी हंसी छूट गई। वो सुहागरात मनाने के लिए मानों उतावली हो रही थी। जैसे कोई बच्चा अपनी मनपसंद चीज़ को पाने के लिए उतावला हो जाता है। रूपा इस वक्त बच्चों जैसा उतावलापन दिखा रही थी पर सच कहूं तो मुझे उसकी ये अदा बहुत ही भा रही थी। मेरा जी किया कि उसे सच में अपने अंदर समा लूं।

और फिर मैंने ऐसा ही किया। देर रात तक मैं रूपा को प्यार करता रहा और उसे खुद में समाता रहा। परम संतुष्टि मिलने के बाद पता ही न चला कब हम दोनों की आंख लग गई।

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ऐसे ही ज़िंदगी का सफ़र आगे बढ़ने लगा। रागिनी और रूपा के आ जाने से हवेली में फिर से रौनक आ गई थी। मेरे माता पिता तो खुश थे ही मैं भी बहुत ज़्यादा खुश था। मैं पूरी ईमानदारी से अपनी ज़िम्मेदारियां निभाने में व्यस्त हो गया था। विभोर और अजीत पढ़ने के लिए वापस विदेश चले गए थे। मेनका चाची अब काफी हद तक सामान्य हो गईं थी। मां भी अब पहले की तरह उन्हें स्नेह देती थीं। शायद उन्होंने सोच लिया था कि जो गुज़र गया अथवा जो हो गया उस बात को ले कर बैठे रहने से आख़िर सिर्फ दुख ही तो मिलेगा। इस लिए उन्होंने सब कुछ भुला कर अपनी दो दो नई बहुओं के साथ हंसी खुशी जीवन यापन करने लगीं थी।

महेंद्र सिंह एक दिन फिर से हवेली आए थे। उन्होंने पिता जी से रिश्ते की बात की तो पिता जी ने इस बार खुशी से रिश्ते के लिए हां कह दिया। मेनका चाची ये बात जान कर खुश हो गईं थी। तय हुआ कि गर्मियों में ये विवाह किया जाएगा।

दूसरी तरफ गौरी शंकर और उसके घर वाले भी अब खुशी खुशी और हमसे मिल जुल कर रहने लगे थे। गांव में विद्यालय और अस्पताल का निर्माण कार्य लगभग पूरा हो चुका था। पिता जी को अधिकारियों ने बताया कि वो जल्द ही अस्पताल में एक चिकित्सक और विद्यालय में कुछ शिक्षकों की नियुक्ति कर देंगे।

मैंने ग़ौर किया था कि रूपचंद्र और उसकी छोटी भाभी नीलम के बीच कुछ चल रहा था। मेरे पूछने पर रूपचंद्र ने मुझसे स्पष्ट रूप से बताया कि वो अपनी छोटी भाभी नीलम को पसंद करने लगा है। उसकी भाभी भी उसे चाहती है लेकिन दोनों ही घर वालों से इस संबंध को ले कर डरते हैं कि अगर किसी को पता चला तो क्या होगा। मैंने रूपचंद्र को भरोसा दिलाया कि इस मामले में मैं उसकी मदद ज़रूर करूंगा।

मैंने एक दिन ये बात अपने पिता जी को बताई। पहले तो वो सोच में पड़ गए थे फिर उन्होंने कहा कि वो गौरी शंकर से इस बारे में बात करेंगे और उन्हें समझाएंगे कि अगर दोनों लोग खुशी से एक नया रिश्ता बना लेना चाहते हैं तो वो उनकी खुशी के लिए दोनों का एक दूसरे से ब्याह कर दें। ज़ाहिर है पिता जी की बात टालने का साहस गौरी शंकर अथवा उसके घर की औरतें नहीं कर सकती थीं। यानि रूपचंद्र का विवाह उसकी भाभी से होना निश्चित ही था।

सरोज काकी का अब हवेली और साहूकारों के घर से पक्का रिश्ता बन चुका था इस लिए उसका हमारे यहां आना जाना शुरू हो गया था। मैं पूरी ईमानदारी से उसके दामाद होने का फर्ज़ निभा रहा था। रागिनी और रूपा समय मिलने पर अक्सर सरोज के घर उससे मिलने जाती थीं। कभी कभी मां भी साथ में चली जाती थीं।

रुद्रपुर गांव में एक अलग ही खुशनुमा माहौल हो गया था। हर कोई पिता जी से, मुझसे और साहूकारों से खुश रहने लगा था। उड़ती हुई खबरें आने लगीं थी कि आस पास के गांव वाले भी चाहते हैं कि पिता जी फिर से उनके मुखिया बन जाएं। इस बारे में पिता जी से जब बात हुई तो उन्होंने कहा कि महत्वपूर्ण मुखिया बनना नहीं बल्कि अच्छे कर्म करना होता है। गरीब और दुखी व्यक्ति की सहायता करना होता है। जब तुम ये सब करने लगोगे तो लोग खुद ही तुम्हें अपने सिर पर बिठा लेंगे, तुम्हें पूजने लगेंगे और अपनी हर समस्या ले कर तुम्हारे पास आने लगेंगे। जब ऐसा होगा तो तुम अपने आप ही सबके विधाता बन जाओगे।

पिता जी की ज्ञान भरी ये बातें सुन कर मैंने खुशी मन से सहमति में सिर हिलाया। उसके बाद दृढ़ निश्चय के साथ अच्छे कर्म करते हुए मैं अपने सफ़र में आगे बढ़ चला। इस सबके बीच मैं अपनी अनुराधा को नहीं भूलता था। हर रोज़ उसके विदाई स्थल पर जा कर उसको फूल अर्पित करता और उससे अपने दिल की बातें करता। जल्द ही उस जगह पर मैं मंदिरनुमा चबूतरा बनवाने का सोच बैठा था। अपनी अनुराधा को किसी तकलीफ़ में कैसे रहने दे सकता था मैं?



━━━━༻"समाप्त"༺━━━━
 
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