Hindi Xkahani - प्यार का सबूत

अध्याय - 149
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माहौल थोड़ा संजीदा सा हो गया था। कुछ देर और हम लोग वहां बैठे रहे उसके बाद जीप में बैठ कर चल दिए। दोपहर होने वाली थी, अतः मैंने जीप की रफ़्तार बढ़ा दी। जल्दी ही मैं रूपा को लिए उसके घर पहुंच गया। मेरे द्वारा हार्न दिए जाने पर रूपचंद्र जल्दी ही घर से बाहर निकला और भागता हुआ आया। उसके आने से पहले ही रूपा जीप से उतर गई थी। रूपचंद्र ने आ कर मुझे धन्यवाद कहा और फिर रूपा को ले कर चला गया। उसके जाने के बाद मैं भी हवेली की तरफ चल पड़ा।

अब आगे....


दूसरे दिन दोपहर के समय दादा ठाकुर अपने मुंशी किशोरी लाल के साथ बैठक में बैठे हुए थे। गौरी शंकर भी एक कुर्सी पर बैठा हुआ था। वो क़रीब बीस मिनट पहले ही आया था।

"आप क्या सोचने लगे ठाकुर साहब?" गौरी शंकर ने कहा____"मैं आपसे जानना चाहता हूं कि इस बारे में आपकी क्या सलाह है? जवाब में मैं उन्हें क्या कहूं?"

"हमारा ख़याल है कि इस बारे में तुम्हें ज़्यादा कुछ सोचना ही नहीं चाहिए।" दादा ठाकुर ने कहा____"वो लड़के वाले हैं इस लिए उनके मन का ही करना होगा और वैसे भी उनका कहना भी ग़लत नहीं है। रिश्ता जब पहले से ही तय था तो अब संबंध बनाने में देरी करने का कोई मतलब भी नहीं बनता।"

"यानि मैं उन्हें जवाब में ये कह दूं कि मुझे उनका सुझाव मंज़ूर है?" गौरी शंकर ने व्याकुल से लहजे में पूछा।

"बिल्कुल।" दादा ठाकुर ने सिर हिलाया____"और फिर जल्द से जल्द तुम्हें ब्याह की तैयारियां शुरू कर देनी चाहिए। वैसे भी घर की बड़ी बेटियों का ब्याह हो जाने के बाद ही छोटी बेटियों का नंबर लगेगा।"

"हां ये तो आपने सही कहा।" गौरी शंकर हल्के से मुस्कुराया____"मैं आज ही उन्हें अपनी मंजूरी की ख़बर भिजवा देता हूं। उसके बाद मुझे अपने पुरोहित जी से भी मिलना होगा और उनसे लग्न बनाने को कहना होगा।"

"हमारा ख़याल है कि ज़्यादा परेशानी वाली बात नहीं है।" दादा ठाकुर ने कहा____"एक महीने का समय ठीक रहेगा।"

"ए...एक महीना?" गौरी शंकर की आंखें फैलीं____"ठाकुर साहब इतने कम समय में क्या तैयारियां हो पाएंगी?"

"क्यों नहीं होंगी?" दादा ठाकुर ने कहा____"कहीं तुम ये तो नहीं सोच रहे कि ये सब तुम्हें अकेले ही करना पड़ेगा? अरे! भई तुम अब अकेले नहीं हो, हम भी तो तुम्हारे संबंधी ही बनने वाले हैं। वैसे भी तुम्हारी बेटियां हमारी बेटियां ही हैं। अतः उनके ब्याह की ज़िम्मेदारियां हमें भी तो लेनी हैं।"

"आपने ये कह दिया तो अब मैं सच में निश्चिंत हो गया हूं।" गौरी शंकर ने खुशी से कहा____"वरना सच में मैं ये सोच के घबराने सा लगा था कि अकेले सब कुछ कैसे कर सकूंगा?"

"फ़िक्र मत करो।" दादा ठाकुर ने कहा____"सब कुछ वक्त से पहले और बहुत अच्छे तरीके से हो जाएगा।"

"क्या चंदनपुर से कोई ख़बर आई ठाकुर साहब?" गौरी शंकर ने सहसा कुछ सोचते हुए पूछा____"मेरा मतलब है कि क्या रागिनी बहू वैभव के साथ ब्याह करने को राज़ी हो गईं?"

"वहां से इस बारे में अभी कोई ख़बर नहीं आई है गौरी शंकर।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ले कर कहा____"हम भी उसके राज़ी होने की ख़बर सुनने का बड़ी शिद्दत से इंतज़ार कर रहे हैं। हम जानते हैं कि रागिनी बहू के लिए इस रिश्ते को स्वीकार करना मुश्किल होगा लेकिन हमें यकीन है कि अंततः वो इस रिश्ते को स्वीकार कर लेगी। वो समझेगी कि ये सब हम उसके भले के लिए ही करना चाहते हैं और सबसे ज़्यादा इस लिए भी कि हम उसके जैसी बेटी को खोना नहीं चाहते। उसको फिर से उसी तरह खुश देखना चाहते हैं जैसे वो हमारे बेटे के जीवित रहते खुश रहा करती थी।"

"हलकान मत होइए ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने अधीरता से कहा____"मुझे भी भरोसा है कि रागिनी बहू इस रिश्ते को ज़रूर स्वीकार कर लेंगी। वैसे मुझे पता चला है कि वैभव को पता चल गया है इस बारे में।"

"हां।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैसे उसको तो पता चलना ही था। हमें बस इस बात का डर था कि अनुराधा की वजह से वो इस रिश्ते के बारे में कोई बखेड़ा न खड़ा कर दे। ख़ैर अच्छा हुआ कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। यकीनन ये तुम्हारी भतीजी के ही प्रयासों से संभव हुआ हैं। उसने बहुत ही अच्छी तरह से सम्हाला है उसको और उसके अंदर से हर उस विकार को निकाल कर दूर कर दिया है जिसके चलते वो किसी की कुछ सुन ही नहीं सकता था।"

"ये सब तो ठीक है ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने कहा____"लेकिन और भी अच्छा तब हो जाए जब वो सफ़ेदपोश पकड़ा जाए। जब तक वो पकड़ में नहीं आता तब तक किसी न किसी अनहोनी अथवा अनिष्ट की आशंका बनी ही रहेगी।"

गौरी शंकर की इस बात से दादा ठाकुर फ़ौरन कुछ बोल ना सके। अलबत्ता किशोरी लाल की तरफ ज़रूर देखा उन्होंने। किशोरी लाल ख़ामोशी से बैठा बातें सुन रहा था।

"वैसे तुम्हारी जानकारी के लिए हम बता देना चाहते हैं कि सफ़ेदपोश का अब हमें कोई ख़तरा नहीं है।" दादा ठाकुर ने गौरी शंकर से मुखातिब हो कर कहा____"हमारा मतलब है कि उसे कुछ समय पहले पकड़ लिया गया था।"

"क...क्या सच कह रहे हैं आप?" गौरी शंकर हैरत से बोल पड़ा____"स...सफ़ेदपोश को सच में पकड़ लिया है आपने? ये...ये कब हुआ? कैसे पकड़ा आपने उसे?"

"कुछ दिन पहले हमारे आदमियों ने उसके पकड़ लिए जाने की हमें ख़बर दी थी।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ले कर कहा____"ज़ाहिर है उसके बाद हम उससे मिले भी।"

"तो...तो क्या पता चला फिर?" गौरी शंकर ने एकदम उत्सुकता से पूछा____"कौन था वो और क्या आपने उससे पूछा कि ये सब क्यों कर रहा था वो?"

"इस बारे में तुम हमसे ना ही पूछो तो बेहतर है गौरी शंकर।" दादा ठाकुर ने एकाएक गंभीर हो कर कहा____"हालाकि हम जानते हैं कि तुम्हें इस बारे में ना बताना ठीक नहीं है। आख़िर अब तुम हमारे अपने ही हो किंतु यकीन मानो इस संबंध में कुछ भी बताना मानो हमारे लिए बहुत ही मुश्किल है।"

"अगर ऐसी बात है तो जाने दीजिए ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने कहा____"मैं खुद भी वो सब जानने का इच्छुक नहीं हूं जिसे बताना आपके लिए मुश्किल हो। मेरे लिए तो इतना जान लेना ही जैसे बड़ी बात हो गई है कि सफ़ेदपोश पकड़ लिया गया है और अब उससे कोई ख़तरा नहीं है। सच कहूं तो मैं भी आपकी तरह सफ़ेदपोश के ना पकड़े जाने से बेहद चिंतित था। आख़िर वो वैभव का जानी दुश्मन था, उस वैभव का जिससे मेरी भतीजी प्रेम करती है और जिसके साथ उसका ब्याह होने वाला है। ख़ैर अब जबकि सब कुछ ठीक हो गया है तो मैं भी इस बात से चिंता मुक्त हो गया हूं।"

कुछ देर बाद गौरी शंकर चला गया। दादा ठाकुर अंदर ही अंदर इस बात से ग्लानि सी महसूस करने लगे थे कि उन्होंने गौरी शंकर को सफ़ेदपोश का सच नहीं बताया। इस ग्लानि के चलते उनके चेहरे पर गहन पीड़ा के भाव भी उभर आए थे।

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"कुंदनपुर किस लिए गए थे आप?" दादा ठाकुर अपने कमरे में आ कर जब पलंग पर लेट गए तो सुगंधा देवी ने पूछा____"क्या ख़ास तौर पर मेनका के भाई अवधराज से मिलने गए थे आप?"

"कई दिनों से जाने का सोच रहे थे।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन समय ही नहीं मिल रहा था। असल में हम वहां जा कर अवधराज से पूछना चाहते थे कि जिस मकसद से उसने अपने बहनोई को ये सब करने का पाठ पढ़ाया था उससे क्या हासिल हो गया उसे? क्या उसके पाठ पढ़ाए जाने से उसकी बहन को वो खुशियां मिलीं जिनके लिए उसके बहनोई ने उसके सिखाने पर ये सब किया था?"

"तो क्या आपने वहां जा कर सच में ये सब उससे पूछा?" सुगंधा देगी ने हैरानी से उनकी तरफ देखते हुए पूछा।

"पूछने के लिए ही तो गए थे हम।" दादा ठाकुर ने कहा____"अतः बिना पूछे कैसे वापस आ जाते?"

"बड़ी अजीब बातें कर रहे हैं आप।" सुगंधा देवी ने बेयकीनी से कहा____"ख़ैर तो आपके पूछने पर क्या कहा उसने?"

"क्या कहता?" दादा ठाकुर ने कहा____"हमें वहां देखते ही वो समझ गया था कि उसका भेद खुल चुका है हमारे सामने। उसके बाद जब हमने सबके सामने उससे ये सारे सवाल किए तो सिर झुका लिया उसने। एक बात और, इस सारे खेल में सिर्फ उसी बस का हाथ था। हमारे कहने का मतलब है कि हमारे भाई जगताप को ऐसा करने का ज्ञान देने वाला सिर्फ वही था। उसके बाकी घर वालों को इस बारे में कुछ भी पता नहीं था। कल जब हमने सबके सामने उससे ये सब पूछा था तो बाकी घर वाले भाड़ सा मुंह फाड़े देखते रह गए थे उसे। किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सब होने की असल वजह क्या थी। उसके बाकी घर वाले तो यही समझते थे कि जगताप की हत्या हमसे दुश्मनी रखने वालों ने की थी। यानि साहूकार और चंद्रकांत ने। वो तो इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि अवधराज ने अपने बहनोई को क्या करने का ज्ञान दिया था। ये भी कि उसके ज्ञान देने पर हमारे भाई ने क्या क्या किया और फिर जगताप की हत्या के बाद वही सब करने का बीड़ा उनकी बहन बेटी ने उठा लिया था।"

"ये सब जानने के बाद उसके बाकी घर वालों ने क्या फिर उसे कुछ नहीं कहा?" सुगंधा देवी ने जिज्ञासा से पूछा।

"पहले तो सबके पैरों तले से ज़मीन ही सरक गई थी।" दादा ठाकुर ने कहा____"किसी को यकीन ही नहीं हो रहा था कि हमने जो बताया वो सच है। उसके बाद उन लोगों ने अवधराज से पूछना शुरू किया। अवधराज की चुप्पी ने सबको यकीन दिला दिया। उसके बाद सबकी हालत ख़राब हो गई। बहुत बुरा भला कहा उन लोगों ने अवधराज को और वो ख़ामोशी से सिर झुकाए खड़ा रहा। पश्चाताप से जल रहा था वो। सबके सामने फूट फूट कर ये कहते हुए रो पड़ा कि उसकी वजह से आज उसकी बहन विधवा बनी बैठी है। उसी की वजह से आज ये स्थिति बन गई है।"

"बुरी नीयत से किए कर्मों का फल बुरा ही मिलता है।" सुगंधा देवी ने गहरी सांस ले कर कहा____"उसको अपने बहन और बहनोई के लिए हवेली की सारी संपत्ति और ज़मीन जायदाद चाहिए थी लेकिन मिला क्या? ख़ैर उसके बाद क्या हुआ?"

"होना क्या था?" दादा ठाकुर ने कहा____"और अब भला हो भी क्या सकता था? सब बहुत दुखी थे किंतु हम उन सबको ये कह कर आए हैं कि जब तक हमारे छोटे भाई के दोनों बच्चों की पढ़ाई चल रही है तब तक हम सच्चे दिल से और पूरी ईमानदारी से इस हवेली में रहते हुए उनके लिए वो सब करेंगे जो उनके लिए बेहतर होगा। जिस दिन दोनों बच्चों की पढ़ाई पूरी हो जाएगी उस दिन हम ये हवेली और सारी ज़मीन जायदाद उनकी बहन बेटी यानी मेनका को सौंप देंगे और हम अपने परिवार को ले कर कहीं दूसरी जगह चले जाएंगे।"

"ये...ये क्या कह रहे हैं आप?" सुगंधा देवी ने बुरी तरह चौंकते हुए कहा____"आपने उनसे ऐसा क्यों कहा?"

"क्योंकि हमारा छोटा भाई यही तो चाहता था और इसी चाहत में तो वो अपनी जान भी गंवा कर चला गया।" दादा ठाकुर ने सहसा दुखी हो कर कहा____"मरने के बाद भी अगर उसकी ये चाहत पूरी न हुई तो उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी। इसी लिए हमने उनसे ऐसा कहा और सच कहें तो हम खुद भी यही चाहते हैं। इतना कुछ होने के बाद अब ज़रा भी किसी चीज़ का मोह नहीं रहा हमें। बस यही मन करता है कि इस सबको छोड़ कर कहीं ऐसी जगह चले जाएं जहां दूर दूर तक कोई न हो, कोई छल कपट न हो, सिर्फ शांति हो।"

"मन तो हमारा भी यही करता है ठाकुर साहब।" सुगंधा देवी ने कहा____"लेकिन फिर ये ख़याल आता है कि ऐसे में हमारे बेटे का क्या होगा? बेटे के साथ साथ उनका क्या होगा जो हमारे बेटे के जीवन में उसकी पत्नियां बन कर आने वाली हैं? अपनी तरह उन्हें भी दरबदर कर देना क्या उचित होगा?"

"हम मानते हैं कि ऐसा करना उचित नहीं होगा सुगंधा।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन हम ये भी जानते हैं कि वो हमारे हर फ़ैसले का सम्मान करेंगे और वही करेंगे जो हम चाहेंगे। बाकी ऊपर वाले की इच्छा।"

सुगंधा देवी कुछ कह न सकीं। मन में तरह तरह के विचारों का मानों तूफ़ान सा आ गया था। कुछ देर तक वो दादा ठाकुर को देखती रहीं उसके बाद उनके बगल में लेट गईं।

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"ये सुन कर तो बड़ी राहत महसूस हुई कि सफ़ेदपोश पकड़ लिया गया था।" फूलवती ने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"लेकिन ये जान कर बड़ा अजीब लग रहा है कि दादा ठाकुर ने तुम्हें इस बारे में कुछ बताया क्यों नहीं? आख़िर ऐसी क्या वजह हो सकती है इसके पीछे?"

"हां काका।" रूपचंद्र मानों खुद को बोलने से रोक न सका____"दादा ठाकुर ने सफ़ेदपोश के बारे में भला क्यों आपको कुछ नहीं बताया? अब तो हम उनके अपने ही हैं और उनके बेटे वैभव से रूपा का ब्याह होने के बाद तो हमारा उनसे एक अटूट रिश्ता भी बन जाएगा। ऐसे में अगर वो सफ़ेदपोश के बारे में आपको बता भी देते तो क्या हो जाता?"

"शायद कोई ऐसी बात है जिसे वो बताना नहीं चाहते थे।" गौरी शंकर ने कहा____"उनकी बातों से तो यही प्रतीत हुआ था। सफ़ेदपोश के बारे में ज़िक्र होते ही वो एकदम से बेहद गंभीर और संजीदा हो गए थे।"

"बड़ी अजीब बात है।" फूलवती ने कहा____"जो रहस्यमय व्यक्ति उनके बेटे की जान का दुश्मन बना हुआ था उसके पकड़ लिए जाने की बात उन्होंने हमसे छुपाई और तुम्हारे पूछने पर उन्होंने कुछ बताया भी नहीं। क्या तुम्हें नहीं लगता कि ऐसा कर के उन्होंने कहीं न कहीं हमें ये एहसास दिला दिया है कि हम अब भी उनके लिए पराए हैं और वो अभी भी हम पर पूर्ण रूप से भरोसा नहीं करते हैं?"

"वैसे इसमें उनकी कोई ग़लती भी तो नहीं है भौजी।" गौरी शंकर ने गहरी सांस ली____"हमने जो कुछ उनके साथ किया है उसके चलते क्या आपको लगता है कि इतना जल्दी वो हम पर इस क़दर भरोसा करने लगेंगे कि वो हमें अपनी कोई बहुत ही व्यक्तिगत बातें बताने लगें?"

"मैं मानती हूं कि हम पर वो इतना जल्दी इतना ज़्यादा भरोसा नहीं कर सकते।" फूलवती ने कहा____"लेकिन सवाल है कि सफ़ेदपोश के बारे में तुम्हें बताने में क्या समस्या थी उन्हें? भला ऐसा क्या था सफ़ेदपोश में कि उन्होंने तुम्हें उसके बारे में बताया नहीं?"

गौरी शंकर ख़ुद भी जाने कितनी ही देर से इस सवाल के जवाब को सोचने समझने की कोशिश कर रहा था। जब से वो हवेली से आया था तभी से सोच रहा था लेकिन कुछ समझ नहीं आया था उसे। ये अलग बात है कि उसके मन में कई तरह की आशंकाएं उठ रहीं थी।

"सफ़ेदपोश उनके बेटे का जानी दुश्मन था गौरी।" फूलवती ने कहा____"ज़ाहिर है ऐसे व्यक्ति के पकड़े जाने से दादा ठाकुर को सफलता के साथ साथ बेहद खुशी भी हुई होगी। उनके जैसा व्यक्ति अपने सबसे बड़े ख़तरे के पकड़े जाने पर पूरे गांव वालों को ख़बर करता कि उन्होंने उस सफ़ेदपोश को पकड़ लिया है जो अब तक उनके बेटे की जान का दुश्मन बना हुआ था। इतना ही नहीं जिस तरह से सफ़ेदपोश के बारे में दूर दूर तक सबको पता था उसके चलते उसके पकड़े जाने पर भी ये बात जंगल में लगी आग की तरह हर जगह फैल जाती मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सफ़ेदपोश को उन्होंने कई दिनों पहले पकड़ लिया था और अभी तक इस बारे में गांव में किसी को पता ही नहीं चला है। क्या ये सोचने वाली बात नहीं है कि उन्होंने ऐसे ख़तरनाक व्यक्ति के बारे में सबसे क्यों छुपाया और तो और तुम्हारे पूछने पर भी उन्होंने उसके बारे में तुम्हें कुछ नहीं बताया....क्यों?"

"शायद बदनामी हो जाने की वजह से।" रूपचंद्र ने जैसे संभावना ब्यक्त की।

"किस तरह की बदनामी?" फूलवती ने चौंक कर पूछा।

"सच पता चल जाने की बदनामी।" गौरी शंकर सहसा कहीं खोए हुए से लहजे में बोल पड़ा था।

"क...क्या मतलब?" फूलवती और रूपचंद्र एक साथ चौंके।

"मुझे ऐसा लग रहा है कि सफ़ेदपोश कोई ऐसा व्यक्ति रहा होगा जिसके पकड़े जाने पर अब वो उसका सच नहीं बताना चाहते हैं।" गौरी शंकर ने अजीब भाव से कहा____"वरना ऐसे ख़तरनाक व्यक्ति के बारे में सबको बताने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी? एक बात और, उन्होंने उसके बारे में जब मुझे कुछ नहीं बताया तो यकीनन महेंद्र सिंह को भी नहीं बताया होगा।"

"ये सब तो ठीक है।" रूपचंद्र कुछ ज़्यादा ही उत्सुक और व्याकुल सा हो कर बोला____"पर अब सवाल ये है कि ऐसा वो कौन व्यक्ति रहा होगा जो सफ़ेदपोश बना हुआ था और जिसका सच पता चलने के बाद दादा ठाकुर बाकी किसी को भी उसके बारे में बताना नहीं चाहते हैं?"

"कहीं वो सफ़ेदपोश उनका अपना ही तो कोई न रहा होगा?" फूलवती ने चौंकने वाले अंदाज़ से संभावना ज़ाहिर करते हुए कहा।

"ह...हां शायद।" गौरी शंकर के मस्तिष्क में मानों बिजली चमकी____"बिल्कुल ऐसा ही हो सकता है और यकीनन यही वजह हो सकती है उनके द्वारा सफ़ेदपोश के बारे में कुछ भी न बताने की। वो शायद किसी भी सूरत में ये नहीं चाहते हैं कि किसी को उसके बारे में पता चले। शायद यही वजह है कि इतने दिनों के बाद भी किसी को सफ़ेदपोश के पकड़ लिए जाने की भनक तक नहीं लग पाई है।"

"हाय राम!" फूलवती ने आश्चर्य से आंखें फाड़ कर कहा____"मुझे तो अब यकीन सा होने लगा है कि यही बात हो सकती है। मेरा मतलब है कि वाकई में सफ़ेदपोश उनका अपना ही कोई था।"

"लेकिन कौन?" रूपचंद्र बोल पड़ा____"दादा ठाकुर के अपनों में से ऐसा वो कौन हो सकता है जो सफ़ेदपोश बना हुआ था? इससे भी बड़ा सवाल ये है कि अगर वाकई में उनका अपना ही कोई सफ़ेदपोश था तो क्यों था? आख़िर वो ये सब क्यों कर रहा था?"

"सफ़ेदपोश का संबंध दादा ठाकुर के बेटे वैभव से ही नहीं बल्कि चंद्रकांत से भी जुड़ा हुआ नज़र आया था।" गौरी शंकर ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"उसने चंद्रकांत को उसके बेटे के हत्यारे के बारे में बताया था जिसके चलते चंद्रकांत ने अपनी बहू को मार डाला था। इस मामले में दादा ठाकुर और महेंद्र सिंह दोनों ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि सफ़ेदपोश ने चंद्रकांत को उसके बेटे के हत्यारे के बारे में जो कहानी सुनाई थी वो झूठ थी। यानि सफ़ेदपोश ने अपने किसी मकसद के चलते ही ये सब किया था अथवा करवाया था। अब सवाल ये है कि सफ़ेदपोश ने चंद्रकांत को उसके बेटे के हत्यारे के बारे में झूठी कहानी सुना कर उससे अपनी ही बहू को क्यों मरवा डाला? आख़िर ऐसा कर के क्या हासिल हो गया था उसे?"

"अगर ये मान कर चलें कि सफ़ेदपोश दादा ठाकुर के अपनों में से ही कोई था।" रूपचंद्र ने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"तो शायद ये समझना आसान ही है कि सफ़ेदपोश ने चंद्रकांत के साथ ऐसा क्यों किया था?"

"क्या मतलब है तुम्हारा?" गौरी शंकर ने आशंकित भाव से उसे देखा।

"मुझे अब समझ आ रहा है काका कि सफ़ेदपोश कौन रहा होगा।" रूपचंद्र सहसा उत्साहित भाव से बोल पड़ा____"शायद दादा ठाकुर का छोटा भाई।"

"ये...ये क्या कह रहे हो तुम?" गौरी शंकर के साथ साथ फूलवती भी बुरी तरह चौंकी।

"हां काका।" रूपचंद्र उत्साहित भाव से ही बोला____"अगर वाकई में सफ़ेदपोश दादा ठाकुर का ही कोई अपना था तो चंद्रकांत से उसका संबंध भी समझ में आ जाता है। आप लोगों ने चंद्रकांत और उसके बेटे के साथ मिल कर मझले ठाकुर यानि जगताप और दादा ठाकुर के बड़े बेटे अभिनव की हत्या की थी। दादा ठाकुर ने बदले के रूप में हमसे तो बदला ले लिया लेकिन चंद्रकांत से नहीं ले सके।"

"इस हिसाब से तो दादा ठाकुर को ही सफ़ेदपोश होना चाहिए।" गौरी शंकर ने उलझन भरे से कहा____"जगताप ठाकुर कैसे हो सकता है सफ़ेदपोश? वो तो हमारे द्वारा मार ही दिया गया था, जबकि उसके मरने के बाद भी सफ़ेदपोश देखा गया था।"

"दादा ठाकुर सफ़ेदपोश इस लिए नहीं हो सकते क्योंकि इस सारे मामले के शुरू होने से पहले किसी की हत्या नहीं हुई थी।" रूपचंद्र ने कहा____"वैसे भी छोटे ठाकुर और अभिनव की हत्या के बाद दादा ठाकुर ने बदले में जो किया वो खुले आम किया था। अगर वो सफ़ेदपोश होते तो उन्हें खुले आम ऐसा करने की क्या ज़रूरत थी? वो छुप कर भी हमारा खात्मा कर सकते थे। जबकि उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि खुले आम किया और इस चक्कर में उन्हें अपना मुखिया वाला पद भी गंवा देना पड़ा। इसी से स्पष्ट है कि सफ़ेदपोश वो नहीं बल्कि उनके भाई थे।"

"हैरत की बात है।" गौरी शंकर ने जैसे बड़ी मुश्किल से इस बात को हजम करने की कोशिश करते हुए कहा____"सबसे पहले तो सवाल यही उठता है कि जगताप ठाकुर सफ़ेदपोश क्यों बना होगा और उसने किस वजह से अपने ही बड़े भाई और उसके बेटे का दुश्मन बन गया होगा? दूसरे उसकी हत्या हो जाने के बाद भी सफ़ेदपोश कैसे देखा जाता रहा?"

"आज के युग में राम भरत जैसे भाई नहीं पाए जाते काका।" रूपचंद्र ने कहा____"आज के युग की सच्चाई ये है कि रिश्ते नातों के लिए कोई कुर्बान नहीं होता। संभव है कि छोटे ठाकुर ने सारी धन दौलत को हथिया लेने का सोचा रहा हो और इसी वजह से उन्होंने सफ़ेदपोश का रूप धारण किया रहा हो। खुल कर तो वो कुछ कर नहीं सकते थे इस लिए उन्होंने इस तरह का रास्ता अपनाया होगा। उसके बाद उनकी हत्या हो जाने के चलते सफ़ेदपोश का रूप उनके ही किसी अपने ने धारण कर लिया होगा।"

"यकीन तो नहीं हो रहा।" गौरी शंकर ने कहा____"लेकिन जाने क्यों कहीं न कहीं तुम्हारी इन बातों पर यकीन करने का मन भी कर रहा है। बहरहाल, अगर ऐसा ही रहा होगा तो वाकई में ये बड़े ही आश्चर्य की बात है। अगर इस तरीके से सोचा जाए तो कहीं न कहीं सच में ये आभास होता है कि ऐसा ही कुछ रहा होगा। अब सवाल ये है कि अगर वाकई में सफ़ेदपोश जगताप ही था तो वो ख़ुद कैसे मौत का शिकार हो गया? क्या उसे हमारी योजनाओं के बारे में ज़रा भी भनक न लगी रही होगी? दूसरे, उसकी मौत के बाद उसकी जगह सफेदपोश कौन बना होगा?"

"उनके दोनों बेटे तो हो नहीं सकते।" रूपचंद्र ने कहा____"क्योंकि वो दोनों बेहतर शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश में हैं तो अब बचती हैं उनकी धर्म पत्नी और बेटी। कुसुम में इतना साहस और क्षमता नहीं है कि वो सफ़ेदपोश बन कर कोई ख़तरनाक काम कर सके। अब बचीं मझली ठकुराईन तो संभव है कि वो ही जगताप चाचा के बाद सफ़ेदपोश बन गईं रहीं हों।"

"क्या सच में वो सफ़ेदपोश के रूप के ऐसे ख़तरनाक काम कर सकती हैं?" फूलवती ने हैरत से देखते हुए कहा।

"जगताप की हत्या के बाद।" गौरी शंकर ने कुछ सोचते हुए कहा____"दादा ठाकुर ने हमारे अपनों का नर संघार किया था। उसके बाद मामला ठंडा सा पड़ गया था। कुछ दिनों बाद मुरारी के छोटे भाई जगन की मौत हुई और फिर रघुवीर की। जगन को तो ख़ैर वैभव ने गोली मार दी थी लेकिन रघुवीर की हत्या एक रहस्य बन गई थी जोकि अब भी बनी हुई है। रघुवीर की हत्या के बाद उसकी बीवी रजनी की हत्या उसके ही ससुर ने की और नाम जुड़ा सफ़ेदपोश का।"

"मुझे तो लगता है काका कि रघुवीर की हत्या भी सफ़ेदपोश ने ही की होगी।" रूपचंद्र ने तपाक से कहा____"अगर मझली ठकुराईन ही सफ़ेदपोश बनी होंगी तो यकीनन उन्होंने ही रघुवीर की हत्या की होगी। आख़िर उनके पति की हत्या में उसका भी तो हाथ था।"

"हां अब तो मुझे भी ऐसा ही लगता है।" गौरी शंकर ने सिर हिलाया____"लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि अगर सफ़ेदपोश के रूप में अपने पति का बदला लेने के लिए मझली ठकुराईन ने ही रघुवीर की हत्या की थी तो फिर उसने चंद्रकांत के हाथों रजनी को क्यों मरवा डाला? रजनी का तो कोई दोष ही नहीं था, बल्कि असली दोषी तो चंद्रकांत था। उसने चंद्रकांत को क्यों नहीं मार डाला?"

"शायद उसके हाथों बहू को मरवा कर वो चंद्रकांत को दुख और संताप में डुबा देना चाहती थीं।" फूलवती ने जैसे संभावना ब्यक्त की____"जैसा कि ऐसा करने के बाद वो हो भी गया था।"

"हां शायद यही हो सकता है।" गौरी शंकर ने सिर हिलाया।

"तो इसका मतलब ये हुआ कि अब हम जान चुके हैं कि सफ़ेदपोश कौन था?" रूपचंद्र ने कहा____"और क्यों उसके पकड़ लिए जाने की बात दादा ठाकुर ने आपसे ही नहीं बल्कि हर किसी से छिपाई? यानि वो नहीं चाहते कि किसी को उनके घर की इतनी बड़ी हैरतअंगेज
बात पता चले?"

"हां शायद इसी लिए उन्होंने मुझे इस बारे में नहीं बताया।" गौरी शंकर को जैसे अब पूर्ण रूप से मान लेना पड़ा। वो मन ही मन इस रहस्योद्घाटन से बड़ा चकित था____"ख़ैर जो भी हो लेकिन अब हमें भी इस बात को अपने तक ही रखना चाहिए। हमारी बेटी उनकी होने वाली बहू है। आने वाले समय में वो भी उन्हीं के परिवार का हिस्सा बन जाएगी। अतः इस संगीन बात को छुपा के रखना ही बेहतर होगा। मैं नहीं चाहता कि इससे उसकी आने वाली पीढ़ियों पर कोई असर हो।"

"हां सही कहा तुमने।" फूलवती ने कहा____"जो हो गया उसे भुला देना ही बेहतर है। हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि आज दादा ठाकुर की वजह से ही हमारी बेटियों का ब्याह होने वाला है और लोगों के बीच हम सर उठा कर चलने के क़ाबिल बने हैं।"​
 
अध्याय - 150
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दिन ऐसे ही गुज़रने लगे।
गांव में अस्पताल और विद्यालय का निर्माण कार्य अच्छे तरीके से चलता रहा। गांव के लोग इस सबसे बड़ा खुश और उत्साहित थे। हर तरफ इसी की चर्चा होती थी। मैं और रूपचंद्र निर्माण कार्य की देख रेख में लगे हुए थे। ठंड अब ज़्यादा ही होने लगी थी जिसकी वजह से धूप अब कम ही देखने को मिलती थी। हर तरफ धुंध सी छाई रहती थी। काम करने वालों को तो मेहनत करने से गर्मी मिलती थी जिसकी वजह से उन्हें मज़ा आता था लेकिन जो बैठे हुए सिर्फ देखने वाले थे उन्हें ठंड कंपाने लगी थी।

रूपचंद्र के द्वारा ही मुझे पता चल गया था कि उसके घर में उसके बड़े ताऊ की लड़कियों के ब्याह की तैयारियां होने लगीं हैं। उसकी बहनों के ससुराल वालों ने ब्याह की लग्न बनवा ली थी और सवा महीने बाद शादी होनी थी। दोनों बहनें एक ही घर में ब्याही जाने वाली थीं इस लिए ज़्यादा परेशानी की बात नहीं थी। इस बीच रूपचंद्र के बहुत ज़ोर देने पर मैं एक दो बार उसके घर भी गया। उसके घर वालों ने बहुत ही अच्छे ढंग से मेरा स्वागत सत्कार किया था। रूपा ने भी छुप कर मुझे देखा था।

इधर हवेली में भी अब सामान्य हालात थे। मेनका चाची सबके सामने पहले की ही तरह खुद को सामान्य दिखाने की कोशिश करती रहती थीं। मां भी उनसे तरीके से ही बातें करती थीं। कुसुम तो भोली और मासूम थी, अतः जल्दी ही वो अपने रंग में आ गई थी और पहले की ही तरह अपनी चंचलता से सबका मन मोहती रहती थी।

मैं भी सबके बीच सामान्य ही था। एक तरफ रूपा के प्रति प्रेम उमड़ रहा था जिसके चलते मन में कई तरह के मीठे ख़याल उभरने लगते थे तो वहीं दूसरी तरफ अनुराधा का ख़याल आते ही दिल में एक टीस सी उभर आती थी। मैं हर रोज़ उसके विदाई स्थल पर जाता था और कुछ देर वहां बैठ कर उसकी यादों में खो जाता था। वहीं से सरोज काकी से मिलने जाता और फिर उसका हाल चाल ले कर खेतों की तरफ निकल जाता। रात को जब खा पी कर अपने कमरे में सोने आता तो मन देर रात तक जाने कहां कहां भटकता रहता और मैं जाने कैसे कैसे ख़यालों में खोता रहता था।

रागिनी भाभी के बारे में जब भी ख़याल आता तो मेरे जिस्म में एक अजीब सी झुरझुरी दौड़ जाती थी। ना चाहते हुए भी मैं सोचने पर मजबूर हो जाता कि ये नियति का कैसा खेल है कि जिस भाभी के प्रति मेरे अंदर सिर्फ आदर और सम्मान की ही भावना है उनके साथ नियति मेरा ब्याह करवाने पर तुल गई है। इसमें कोई शक नहीं कि उनके बेहतर जीवन के लिए सबने जो फ़ैसला किया था वो अपनी जगह सर्वथा उचित था लेकिन अब इसका क्या किया जाए कि इस रिश्ते के प्रति मन में अब भी अजीब से ख़याल उभरते थे।

मैं तो रूपा की सहमति पर भाभी से ब्याह करने को राज़ी हो गया था लेकिन अक्सर सोचता था कि क्या भाभी इस रिश्ते को दिल से स्वीकार करेंगी? मैं जानता था कि अंततः उन्हें भी इस रिश्ते को स्वीकार करना ही पड़ेगा लेकिन मैं ये भी सोचता था कि उनका राज़ी होना एक मज़बूरी ही होगी। यानि दिल से वो यही चाहती हैं कि उनका मुझसे ब्याह न हो।

अजीब से हालात हो गए थे। अजीब सी दुविधा हो गई थी। अजीब से धर्म संकट में फंस गए थे हम दोनों। कुछ दिनों से मेरा बहुत मन कर रहा था भाभी से मिलने का और उनसे इस बारे में बात करने का लेकिन फिर ये सोच कर हिम्मत जवाब दे जाती थी कि आख़िर कैसे नज़र मिला सकूंगा उनसे? मुझे अपने पास आया देख कर कहीं वो मेरे बारे में ग़लत न सोच बैठें। कहीं वो ये न सोच बैठें कि मेरे मन में पहले से ही उनके बारे में ग़लत सोच थी और मैं पहले से ही ये सब चाहता था। जबकि सच तो यही था कि मेरे मन में आज से पहले कभी उनके बारे में ऐसा कुछ भी नहीं था। मैं ये मानता हूं कि एक वक्त था जब मैं उनके रूप सौंदर्य से सम्मोहित हो कर उनकी तरफ आकर्षित हो जाया करता था लेकिन इसमें मेरा क्या दोष था? एक तो मेरा चरित्र ही ऐसा था और दूसरे वो थीं ही इतनी सुंदर कि कोई भी उनकी तरफ आकर्षित हुए बग़ैर नहीं रह सकता था।

मैं जानना चाहता था कि भाभी इस बारे में क्या फ़ैसला करती हैं और ख़ास कर इस बारे में क्या सोचती हैं? कभी कभी मैं खुद को अपराधी सा महसूस करने लगता था। मैं अपनी भाभी को बताना चाहता था कि मेरे मन में ना पहले कभी कोई ग़लत ख़याल था और ना ही आज है। हम दोनों के घर वालों ने भले ही हमारा आपस में विवाह कर देने का फ़ैसला ले लिया है लेकिन इसके बावजूद मैं उनके बारे में ग़लत नहीं सोच सकता हूं। मैं उन्हें बताना चाहता था कि मेरे दिल में आज भी उनके प्रति वैसी ही मान सम्मान की भावना मौजूद है जैसे हमेशा से थी। मेरा उनसे ब्याह होना बस नियति की ही मर्ज़ी थी, इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है। इस लिए भगवान के लिए वो इस संबंध के चलते मेरे बारे में ऐसा वैसा कुछ भी ना सोचें।

मैं कुछ दिनों से इस सबके बारे में इतना सोचने लगा था कि मेरी हालत अब अजीब सी हो गई थी। मैं बहुत ज़्यादा परेशान, चिंतित और बेचैन रहने लगा था। इस बात को मेरे घर वालों ने भी महसूस किया। मां ने तो एक दिन मुझसे पूछा भी लेकिन मैंने ये सोच कर उन्हें कुछ नहीं बताया कि बेवजह ही वो परेशान और चिंतित हो जाएंगी। हालाकि वो मेरे ना बताने पर भी फिक्रमंद हो उठीं थीं, और फिर एक दिन।

"क्या बात है बेटा?" मेरे कमरे में आ कर मां ने पूछा____"कई दिनों से देख रही हूं तुझे। तू कुछ परेशान और गुमसुम सा नज़र आने लगा है। आख़िर ऐसी कौन सी बात है जिसके चलते तेरी ये हालत हो गई है? मैंने दो दिन पहले भी तुझसे पूछा था लेकिन तूने कुछ नहीं बताया। आख़िर बात क्या है मेरे लाल? क्या अपनी मां को नहीं बताएगा? क्या तू चाहता है कि तेरी मां तुझे ऐसी हालत में देख कर चिंतित हो उठे और दुखी हो जाए?"

"नहीं मां।" मैंने अधीरता से कहा____"मैं ये सपने में भी नहीं चाह सकता कि आप किसी बात से दुखी हो जाएं।"

"तो फिर बता ना बेटा।" मां ने अधीर हो कर कहा____"आख़िर किस बात से तू इतना परेशान दिखने लगा है? कौन सी ऐसी बात है जो तुझे अंदर ही अंदर परेशान किए हुए है? क्या अनुराधा की वजह से तेरी ये हालत है?"

"नहीं मां।" मैंने कहा____"उसकी वजह से नहीं है। उससे तो मैं रोज़ ही मिलता हूं और अपने दिल की बातें भी उसे बताता हूं। मेरी परेशानी कुछ और है मां।"

"तो बता ना बेटा।" मां एकदम व्याकुल सी हो कर बोलीं____"कौन सी परेशानी हो गई है मेरे बेटे को?"

"रागिनी भाभी।" मैंने गंभीरता से कहा____"हां मां, भाभी की वजह से परेशान रहता हूं आज कल।"

"उसकी वजह से?" मां एकदम से चौंकी____"पर उसकी वजह से क्यों बेटा? कहीं तू इस वजह से तो नहीं परेशान है कि हम उससे तेरा ब्याह करवा देना चाहते हैं?"

"नहीं मां, ऐसी बात नहीं है।" मैंने कहा___"बात ये है कि इस रिश्ते के संबंध में वो क्या सोचती होंगी? इससे भी बढ़ कर मेरे बारे में क्या सोचती होंगी?"

"वो क्या सोचेगी?" मां ने कहा____"यही ना कि ये कैसी किस्मत है कि उसे अपने देवर से ब्याह करना पड़ रहा है? मैं मानती हूं बेटा कि उसके लिए भी इस रिश्ते को स्वीकार करना आसान नहीं होगा लेकिन ये भी तो सच ही है कि ऐसा हम इसी लिए करना चाहते हैं क्योंकि इसी में उसका भला है। इसी में उसका जीवन संवर सकता है और वो अपने जीवन में खुश रह सकेगी। तू इस बारे में ज़्यादा मत सोच। मैं मानती हूं कि ये रिश्ता शुरू शुरू में अजीब लगेगा लेकिन बाद में तुम दोनों इस रिश्ते को दिल से अपना कर एक दूसरे से प्रेम करने लगोगे।"

"ये सब तो बाद की बातें हैं मां।" मैंने बेचैन भाव से कहा____"लेकिन इस वक्त मेरी परेशानी ये है कि मैं खुद को उनका अपराधी सा महसूस करता हूं। मेरे चरित्र के बारे में तो उन्हें भी पता रहा है। ऐसे में अब जब उनसे ब्याह करने का फ़ैसला हो गया तो कहीं न कहीं वो मेरे बारे में ये भी सोचेंगी कि मैं शुरू से ही उनके बारे में ग़लत सोच रखता रहा होऊंगा और अब जब उनसे ब्याह करने की बात हुई तो मैंने झट से इस रिश्ते को क़बूल कर लिया।"

"ऐसा कुछ भी नहीं है बेटा।" मां ने मेरे बाएं गाल को प्यार से सहलाते हुए कहा____"तू बेवजह ही ये सब सोच कर खुद को दुखी कर रहा है। तू भी जानता है कि तेरी भाभी ने तुझे कभी ग़लत नहीं समझा है। अगर वो तुझे ग़लत समझती तो वो कभी एक पल के लिए भी तेरा पक्ष न लेती और ना ही तुझे एक अच्छा इंसान बनने के लिए तुझ पर ज़ोर डालती। इतना ही नहीं, तेरे साथ कभी वो खेतों पर घूमने भी न जाती। उसे तेरे चरित्र का भले ही पता था लेकिन उसे तुझ पर भरोसा भी था कि तू उसके प्रति कभी ग़लत नहीं सोच सकता है। इसी लिए तो वो तुझे इतना मानती थी और तेरे हर दुख में तेरी ही तरह वो भी दुखी हो जाती थी। जब तेरा बड़ा भाई गुज़रा तो वो सदमे में चली गई थी। हम सबने पूरी कोशिश की थी उसको दुख से उबारने की लेकिन तेरी वजह से वो अपने उस असहनीय दुख से उबर गई। वो अक्सर मुझसे कहती थी कि अगर वैभव जैसा उसका देवर न होता तो आज वो अपने दुख से बाहर न निकल पाती। वो ये भी कहा करती थी कि उसे गर्व है कि ईश्वर ने उसे वैभव जैसा देवर दिया है जो उसके चेहरे पर खुशी लाने के लिए कुछ भी कर सकता है। ये सारी बातें यही ज़ाहिर करती हैं मेरे बेटे कि वो कभी तेरे बारे में ग़लत नहीं सोच सकती। तेरे साथ उसके ब्याह होने वाली बात से भी वो यही सोचती होगी कि इसमें तेरा कोई दोष नहीं है। जो भी हो रहा है उसमें सबसे ज़्यादा क़िस्मत का हाथ है। इस लिए तू ये सब फ़िज़ूल की बातें सोच कर ख़ुद को दुखी मत रख।"

"क्या मैं एक बार भाभी से मिल आऊं?" मैंने धड़कते दिल से मां को देखते हुए उनसे पूछा____"मैं मानता हूं कि मेरा अब उनसे मिलना उचित नहीं होगा लेकिन फिर भी मैं एक बार उनसे मिलना चाहता हूं। उनके सामने घुटनों पर बैठ कर उनसे कहना चाहता हूं कि मेरे मन में उनके प्रति ना पहले कभी कोई ग़लत भावना थी और ना ही आगे कभी हो सकती है। इस रिश्ते के बाद भी उनके प्रति मेरे दिल में वैसी ही मान सम्मान की भावना रहेगी जैसे हमेशा से रही है।"

मेरी बातें सुन कर मां की आंखें भर आईं और अगले ही पल उनकी आंखों से आंसू के कतरे छलक पड़े। उन्होंने लपक कर मुझे अपने कलेजे से लगा लिया। मैं भी किसी छोटे से बच्चे की तरह उनसे छुपक गया। एक असीम सुख और शांति का एहसास हुआ मुझे।

"मैं जानती हूं कि तेरे मन में रागिनी के प्रति बहुत ही ज़्यादा आदर और श्रद्धा जैसा भाव है।" मां ने मुझे खुद से छुपकाए हुए ही कहा____"और सच कहूं तो मुझे इस बात के लिए तुझ पर गर्व है। ख़ैर, तू अपनी भाभी से मिलना चाहता है ना तो ठीक है। मैं आज ही तेरे पिता जी से इस बारे में बात करूंगी और उन्हें समझाऊंगी कि वो इसके लिए तुझे चंदनपुर जाने की अनुमति दे दें।"

"ओह! मां।" मैंने खुशी से उन्हें जोरों से कस लिया____"आपका बहुत बहुत धन्यवाद मां। मैं बता नहीं सकता कि आपके मुख से ये सुन कर मुझे कितना सुकून मिला है।"

"मां को धन्यवाद करता है पागल।" मां ने मुझे खुद से अलग कर के कहा____"अरे! मां तो होती ही है अपने बच्चों के लिए कुछ भी कर गुज़रने के लिए। ख़ैर अब तू आराम कर और इस बारे में अब कुछ भी सोच कर खुद को परेशान मत कर। चल अब जाती हूं मैं।"

मां ने मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और फिर वो कमरे से चली गईं। इतने दिनों से जिन बातों को सोचते हुए मैं परेशान था वो अब मानों किसी जादू के जैसे छू मंतर हो गईं लगने लगीं थी। मेरा मन अब बहुत हल्का महसूस हो रहा था।

✮✮✮✮

"अरे! शालिनी तू कब आई अपनी ससुराल से?" रागिनी अपनी बचपन की सहेली को अपनी तरफ आते देख एकदम से चौंकी थी।

घर के पीछे कुछ खाली जगह थी जिसे चारो तरफ से लकड़ी की ऊंची दीवार बना कर घेरा हुआ था। उस खाली जगह में एक तरफ कुवां था और दूसरी तरफ कुछ पेड़ पौधे लगे हुए थे जिनमें से कुछ अमरूद के, कुछ कटहल के और एक दो केले के पेड़ थे। रागिनी खाली समय में ज़्यादातर यहीं आ कर बैठ जाया करती थी। गांव में किसी के घर जाना उसे शुरू से ही पसंद नहीं था। एक शालिनी ही थी जिसके घर वो चली जाया करती थी किंतु उसकी शादी के बाद वहां भी जाना बंद हो गया था। अपने चाचा जी के घर भी चली जाती थी जहां पर वो अपनी भाभियों के पास थोड़ा समय गुज़ार लेती थी।

"आज ही आई हूं।" शालिनी ने उसके क़रीब आ कर कहा____"तेरे बारे में मां ने बताया तो तुझसे मिलने चली आई। सच कहूं तो तेरे बारे में जब वो सब सुना था तो बहुत दुख हुआ था मुझे। यकीन ही नहीं हुआ था कि मेरी इतनी अच्छी सहेली के साथ ऊपर वाला इस तरह का अन्याय कर सकता है।"

"सब किस्मत की बातें हैं शालिनी।" रागिनी ने फीकी सी मुस्कान होठों पर सजा कर कहा____"ख़ैर तू बता, कैसी है तू और जीजा जी कैसे हैं?"

"मैं ठीक हूं और तेरे जीजा जी भी ठीक हैं।" शालिनी ने कहा____"मुझे वंदना भाभी ने बताया कि तेरा फिर से ब्याह करने का फ़ैसला किया है चाचा जी ने?"

शालिनी की इस बात पर रागिनी कुछ बोल ना सकी। उसके चेहरे पर कई तरह के भाव आते जाते नज़र आए। शालिनी ग़ौर से उसको देखने लगी थी।

"उन्होंने बताया कि तेरा ब्याह तेरे ही देवर से करने का फ़ैसला किया है।" शालिनी ने आगे कहा____"मैं तो उनके मुख से ये सब सुन कर हैरान ही हो गई थी। वैसे सच कहूं तो मुझे तेरा फिर से ब्याह होने की बात सुन कर बहुत खुशी हुई है। ऊपर वाले से यही प्रार्थना करती थी कि मेरी सहेली के जीवन को फिर से खुशियों से भरने का कोई इंतज़ाम कर दो और देखो ऊपर वाले ने मेरी प्रार्थना सुन ली। बस यही जान कर थोड़ी हैरानी हुई कि तेरा ब्याह तेरे ही देवर से करने का फ़ैसला किया चाचा जी ने।"

"पता नहीं ऊपर वाला मुझसे क्या चाहता है शालिनी?" रागिनी ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"जो कुछ मैंने सपने में भी नहीं सोचा था वही सब मेरे साथ करता जा रहा है वो। समझ में नहीं आ रहा अपनी ऐसी किस्मत पर रोऊं या खुश होऊं?"

"अरे! ऐसा क्यों कह रही है तू?" शालिनी ने हैरानी से उसे देखते हुए कहा____"मैं मानती हूं कि ऊपर वाले ने इसके पहले तेरे साथ जो किया था वो बहुत ही ग़लत और दुखदाई था लेकिन ये तो बहुत ही अच्छी बात है कि तेरा फिर से ब्याह हो जाएगा और तेरा दुखों से भरा ये जीवन फिर से खुशियों से भर जाएगा।"

"कहना बहुत आसान होता है शालिनी।" रागिनी ने उदास भाव से कहा____"लेकिन अमल करना बहुत मुश्किल होता है। अपने ही देवर को अब पति की नज़र से देखना अथवा सोचना बहुत ही अजीब सी अनुभूति कराता है मुझे।"

"हां मैं समझती हूं इस बात को।" शालिनी ने सिर हिलाते हुए कहा____"समझ सकती हूं कि इस बारे में तेरे मन में जाने कैसे कैसे ख़याल उभरते होंगे लेकिन मैं तुझसे यही कहूंगी कि देवर से ब्याह करने का मामला कोई नया नहीं है। दुनिया में अक्सर परिस्थितियों को देख कर लोगों ने ऐसे निर्णय लिए हैं। तुझे भी इस बात को समझना चाहिए और फ़िज़ूल की बातें अपने मन से निकाल कर सिर्फ अपने जीवन के बारे में सोचना चाहिए। ऊपर वाले की कृपा से तुझे इतना अच्छा ससुराल मिला है। अपनी बेटी की तरह प्यार करने वाले इतने अच्छे सास ससुर मिले हैं और सबसे बड़ी बात तेरा भला चाहते हुए तेरे जीवन को फिर से संवारने के लिए वो तेरा फिर से ब्याह कर देना चाहते हैं। सबके नसीब में ऐसे इंसान नहीं होते रागिनी जो अपनी बहू के लिए इतना कुछ सोचें और करने लगें। क्या हुआ अगर देवर से ब्याह हो जाएगा तेरा? शुरू शुरू में ज़रूर अजीब लगेगा लेकिन धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा। मुझे तो इस बात का भी यकीन है कि आगे चल कर तू खुद अपने देवर के साथ ब्याह हो जाने की बात से यही सोचने लगेगी कि ये अच्छा ही हुआ।"

"मतलब तुझे भी लगता है कि मेरा अपने देवर के साथ ब्याह हो जाने की बात हर तरह से उचित है?" रागिनी ने शालिनी की तरफ ध्यान से देखते हुए कहा।

"हां बिल्कुल।" शालिनी ने स्पष्ट भाव से कहा____"तेरे भले के लिए वो जो भी कर रहे हैं एकदम सही कर रहे हैं। तुझे भी बेकार की बातें नहीं सोचनी चाहिए और इस रिश्ते के लिए राज़ी हो जाना चाहिए। अपने ही पैरों से अपनी अच्छी किस्मत को ठोकर मत मार।"

रागिनी अपलक देखती रह गई शालिनी को। उसे समझ ही न आया कि अब क्या कहे? दिलो दिमाग़ में एकाएक ही हलचल सी मच गई थी।

"अच्छा ये तो बता मेरे होने वाले जीजा जी अभी भी वैसे ही हैं क्या?" शालिनी ने सहसा मुस्कुराते हुए पूछा____"या अब बदल गए हैं वो? और हां, इस रिश्ते के बारे में उनका क्या ख़याल है?"

रागिनी को समझ ना आया कि वो अपनी सहेली से वैभव के बारे में क्या बताए? शालिनी के मुख से होने वाले जीजा जी सुन कर ही उसके समूचे जिस्म में झुरझुरी सी दौड़ गई थी। मन में बड़े अजीब अजीब से ख़याल उभरने लगे थे।

"क्या हुआ?" उसे कुछ न बोलता देख शालिनी ने जैसे उसे ख़यालों से बाहर खींचा____"चुप क्यों हो गई तू? बता ना मेरे होने वाले जीजा जी के बारे में?"

"व...वो अब पहले से बदल गए हैं।" रागिनी ने झिझकते हुए बड़ी मुश्किल से कहा।

"हाय राम! क्या सच में?" शालिनी ने आश्चर्य से आंखें फैला कर रागिनी को देखा____"बड़े आश्चर्य की बात है ये। क्या वो सच में बदल गए हैं?"

रागिनी अजीब सा महसूस करने लगी थी। शालिनी के पूछने पर उसने सिर्फ हां में सिर हिला दिया। ये देख शालिनी को फिर से हैरानी हुई। उसकी आंखों के सामने वैभव का चेहरा चमक उठा और साथ ही गुज़रे समय की यादें भी।

(दोस्तो, ये वही शालिनी है जिसके बारे में वैभव ने अपनी भाभी से उस समय मज़ाक करते हुए ज़िक्र किया था जब वो अपनी भाभी को ले कर उनके मायके चंदनपुर जा रहा था।)

"क्या हुआ?" शालिनी को कहीं खो सा गया देख रागिनी ने उसे देखते हुए पूछा____"अब तू कहां खो गई?"

"व...वो मैं न।" शालिनी एकदम से हड़बड़ा गई। फिर जल्दी से खुद को सम्हालते हुए बोली____"अरे! मैं तो ये सोचने लगी थी कि क्या सच में मेरे होने वाले जीजा जी बदल गए हैं? मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा।"

"क्यों नहीं हो रहा भला?" रागिनी को जाने क्यों उसकी बात से बुरा महसूस हुआ जिसके चलते उसने सहसा उसे घूरते हुए कहा____"और हां मुझे पता है कि तू भी उनसे नैन मटक्का कर चुकी है।"

"अ....अरे! ये...ये क्या कह रही है तू?" शालिनी ने बुरी तरह हड़बड़ाते हुए रागिनी को हैरत से देखा____"मेरा उनसे इस तरह का कोई चक्कर नहीं था। पता नहीं क्यों ऐसा बोल रही है तू?"

"मैं ऐसा इस लिए कह रही हूं क्योंकि मुझे उन्होंने ही बताया था जिनसे तेरा नैन मटक्का चला था।" रागिनी ने कहा____"और इतना तो मैं समझती ही हूं कि इस मामले में वो महाशय कितने पहुंचे हुए थे। अगर उन्होंने तेरा ज़िक्र किया था तो मेरे लिए ये यकीन कर लेना सहज ही था कि तेरा उनसे चक्कर था।"

शालिनी भौचक्की सी देखती रह गई रागिनी को। एकदम से ही वो नज़रें चुराने लगी थी। फिर उसने अपनी हालत को काबू किया और चेहरे पर खुशी के भाव लाते हुए कहा____"हां यार, मेरा उनसे चक्कर चल गया था लेकिन यकीन कर बस थोड़ा सा ही चल पाया था। बात इतनी भी नहीं बढ़ी थी कि हमारे बीच कुछ ग़लत हो जाता।"

रागिनी को याद आया कि वैभव ने भी उससे ऐसा ही कुछ कहा था। शालिनी के आख़िरी वाक्य से जाने क्यों रागिनी को राहत सी महसूस हुई।

"ख़ैर ये सब छोड़।" शालिनी ने एकदम सामान्य भाव से कहा____"और ये तो बता कि मेरे होने वाले जीजा जी क्या सच में ही बदल गए हैं?"

"तू तो ऐसे कह रही है जैसे वो कभी बदल ही नहीं सकते थे?" रागिनी को फिर से बुरा लगा, इस लिए उसने उसे घूरा____"वैसे भी उन्होंने कोई क़सम तो खाई नहीं थी कि वो कभी बदलेंगे ही नहीं।"

"हां ये तो है।" शालिनी ने कहा____"लेकिन मैं ये जानने को उत्सुक हूं कि वो बदल कैसे गए और बदले भी हैं तो कितना बदले हैं? क्या एकदम से शरीफ़ ही बन गए हैं वो?"

"हां कुछ ऐसा ही है।" रागिनी के ज़हन में गुज़रे समय की ढेर सारी बातें जैसे चमक उठीं और साथ ही आंखों के सामने ढेर सारी तस्वीरें भी।

"कुछ ऐसा ही है का क्या मतलब है?" शालिनी जैसे बाल की खाल निकालने पर उतारू हो गई____"जो इंसान हमेशा मौज मस्ती करता था और भी ना जाने क्या क्या करता था वो अचानक से शरीफ़ कैसे बन गया?"

"इसके जवाब में बस इतना ही कहूंगी कि हर इंसान वक्त के साथ बदल जाता है।" रागिनी ने थोड़ा बेचैन भाव से कहा____"जीवन में कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं जिसके चलते इंसान को खुद पर बदलाव करना पड़ता है।"

"हां ये तो तू सही कह रही है।" शालिनी ने सिर हिलाते हुए कहा____"वैसे उनका इस तरह से बदल जाना तेरे हिसाब से ठीक है या नहीं?"

"ठीक ही है।" रागिनी ने कहा____"अगर कोई अच्छा इंसान बन जाए और अच्छे अच्छे कर्म करने लगे तो भला इससे अच्छा क्या हो सकता है?"

"यानि मेरे होने वाले जीजा जी अब अच्छे इंसान बन गए हैं।" शालिनी ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"और अब अच्छे अच्छे काम करने लगे हैं। ये तो कमाल ही हो गया रागिनी। कहीं ऐसा तो नहीं कि वो तुम्हारे लिए अच्छे बन गए हैं? आख़िर अब तुमसे ब्याह जो होना है उनका।"

"क्या फ़ालतू की बातें कर रही है तू?" रागिनी थोड़ा उखड़ कर बोली____"बिना मतलब कहीं की बात कहीं जोड़े जा रही है तू।"

"अरे! तू गुस्सा क्यों हो रही है?" शालिनी ने हैरानी ज़ाहिर की____"मैंने तो वही कहा है जो मुझे लगा। अब अगर ऐसा नहीं है तो तू ही बता कि उनके इस तरह बदल जाने की क्या वजह है?"

"मैं इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहती।" रागिनी ने स्पष्ट भाव से कहा____"तू कोई और बात कर।"

"अच्छा ठीक है।" शालिनी को महसूस हुआ कि रागिनी शायद उसकी बातों से चिढ़ रही है इस लिए कोई और बात करने का ही उसने सोचा____"और बता, यहां कैसा लग रहा है तुझे? मेरा मतलब है कि ससुराल से आए क़रीब ढाई महीने हो गए हैं तुझे तो क्या तुझे अपने ससुराल वालों की याद नहीं आती?"

"आती है।" रागिनी ने सहसा उदास हो कर कहा____"लेकिन अब वहां जा ही नहीं सकती। मेरे सास ससुर और मेरे माता पिता ने अचानक से मेरे सामने ये रिश्ता जो रख दिया है।"

"उन्होंने ये तेरे भले के लिए ही किया है रागिनी।" शालिनी ने थोड़ा गंभीर हो कर कहा____"आज भले ही तुझे ये रिश्ता अजीब और बेमन सा लग रहा है लेकिन यकीन मान आगे चल कर इसी रिश्ते से तुझे लगाव हो जाएगा। ख़ैर अपने लिए न सही अपने घर और ससुराल वालों की खुशी के लिए इस रिश्ते के लिए हां कह दे।"

"वो तो कहना ही पड़ेगा मुझे।" रागिनी ने कहा____"इतने दिनों से खुद को इस रिश्ते के लिए ही तो समझा रही हूं। सबके बारे में ही तो सोच रही हूं। ख़ास कर अपने सास ससुर के बारे में। मैं भी जानती हूं कि ऊपर वाले ने मुझे दुनिया के सबसे अच्छे सास ससुर दिए हैं जो मुझे अपनी बेटी मान कर मुझे बहुत प्यार और स्नेह देते हैं। मैं इस रिश्ते को ना कह कर उनकी पवित्र भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचा सकती।"

"चल यही सही।" शालिनी के चेहरे पर खुशी की चमक उभर आई____"यही सोच के अब तू इस रिश्ते के लिए हां कह दे। तुझे शायद अंदाज़ा भी नहीं है कि सब तेरे हां कहने का कितनी शिद्दत से इंतज़ार कर रहे हैं और साथ ही तेरे लिए बहुत ज़्यादा फिक्रमंद भी हैं।"

"हां जानती हूं मैं।" रागिनी ने सिर हिलाया।

"तो मैं जा कर वंदना भाभी को बता दूं कि तूने इस रिश्ते के लिए हां कह दिया है?" शालिनी ने खुशी से पूछा।

"न..नहीं नहीं रुक जा ना।" रागिनी एकदम से हड़बड़ा कर बोल पड़ी।

"अब किस बात के लिए रुक जाऊं?" शालिनी ने भौंहें उठा कर देखा उसे____"जो कहना है उसे साफ शब्दों में जल्द से जल्द कह देना चाहिए। बेवजह समय बर्बाद करना अच्छा नहीं होता, समझी।"

रागिनी को समझ ना आया कि क्या कहे? अवाक सी देखती रह गई शालिनी को। उसकी धड़कनें एकदम से तेज़ तेज़ चलने लगीं थी। दिलो दिमाग़ में हलचल सी मच गई थी।

"चल अब यहां से।" शालिनी ने उसका हाथ पकड़ कर खींचते हुए कहा____"हर वक्त अकेले में फ़ालतू की बातें मत सोचा कर। खुशियां खुद चल कर तेरे क़दमों के पास आईं हैं तो उन्हें फ़ौरन अपनी झोली में भर ले।"

रागिनी बदहवास सी उसके साथ खिंचती चली गई। उसकी धड़कनें अब धाड़ धाड़ कर के बजने लगीं थी। गोरे चेहरे पर लाज की सुर्खी भी छाने लगी थी। कदाचित ये सोच कर कि उसकी सहेली अभी कुछ ही पलों में वंदना भाभी को बता देगी कि वो वैभव से ब्याह करने के लिए राज़ी हो गई है।

रागिनी को ये सोच कर बड़ा अजीब सा लगने लगा कि जाने क्या सोचेंगे अब उसके माता पिता और भैया भाभी और साथ ही उसकी छोटी बहन भी। कहीं वो सब उसके बारे में कुछ ऊटपटांग तो नहीं सोच बैठेंगे? रागिनी का चेहरा इस एहसास के चलते ही लाज से सुर्ख पड़ता चला गया।​
 
अध्याय - 151
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रागिनी को ये सोच कर बड़ा अजीब सा लगने लगा कि जाने क्या सोचेंगे अब उसके माता पिता और भैया भाभी और साथ ही उसकी छोटी बहन भी। कहीं वो सब उसके बारे में कुछ ऊटपटांग तो नहीं सोच बैठेंगे? रागिनी का चेहरा इस एहसास के चलते ही लाज से सुर्ख पड़ता चला गया।

अब आगे....


वक्त कभी किसी के लिए नहीं रुकता और ना ही उसे रोक लेने की किसी में क्षमता होती है। शाम को जब मैं खेतों से वापस हवेली आया तो मां ने मुझे पास बुला कर धीमें से बताया कि पिता जी ने मुझे चंदनपुर जाने की अनुमति दे दी है।

मां की इस बात को सुन कर जहां एक तरफ मुझे बेहद खुशी हुई वहीं दूसरी तरफ अचानक ही ये सोच कर अब घबराहट सी होने लगी कि कैसे मैं चंदनपुर जा कर अपनी भाभी का सामना कर सकूंगा? मुझे देख कर वो कैसा बर्ताव करेंगी? क्या वो मुझ पर गुस्सा होंगी? क्या वो इस सबके के लिए मुझसे शिकायतें करेंगी? कहीं वो ये तो नहीं कहेंगी कि मैं अब क्या सोच के उनसे मिलने आया हूं? कहीं वो....कहीं वो चंदनपुर में मुझे आया देख मेरे बारे में ग़लत तो नहीं सोचने लगेंगी? ऐसे न जाने कितने ही ख़याल सवालों के रूप में मेरे ज़हन में उभरने लगे जिसके चलते मेरा मन एकदम से भारी सा हो गया।

बहरहाल, मां ने ही कहा कि मैं कल सुबह ही चंदनपुर जा कर अपनी भाभी से मिल आऊं। उसके बाद मैं गुसलखाने में जा कर हाथ मुंह धोया और अपने कमरे में चला आया। कुछ ही देर में कुसुम चाय ले कर आ गई।

"मैं आपसे बहुत नाराज़ हूं।" मैंने उसके हाथ में मौजूद ट्रे से जैसे ही चाय का प्याला उठाया तो उसने सीधा खड़े हो कर मुझसे कहा।

"अच्छा वो क्यों भला?" मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा। उसने एकदम से मुंह फुला लिया था। ज़ाहिर है वो अपनी नाराज़गी दिखा रही थी मुझे।

"क्योंकि आपने मुझे....यानि अपनी गुड़िया को।" उसने अपनी एक अंगुली खुद की तरफ मोड़ कर कहा___"मेरी होने वाली भाभी से एक बार भी नहीं मिलाया। मेरी होने वाली भाभी का घर इतना पास है इसके बावजूद मैं उन्हें एक दिन भी देख नहीं सकी।"

"अरे! तो इसमें मुश्किल क्या है?" मैंने चाय की एक चुस्की ले कर कहा____"तुझे अगर उससे मिलना ही है तो जब चाहे उसके घर जा कर मिल सकती है।"

"वाह! बहुत अच्छे।" कुसुम ने मुझे घूरते हुए कहा____"कितनी अच्छी सलाह दी है आपने मुझे। ऐसी सलाह कैसे दे सकते हैं आप?"

"अरे! अब क्या हुआ?" मैं सच में इस बार चौंका____"क्या तुझे ये ग़लत सलाह लगती है?"

"और नहीं तो क्या?" उसने ट्रे को पलंग पर रख दिया और फिर अपने दोनों हाथों को अपनी कमर पर रख कर कहा____"मैंने तो सोचा था कि आप अपनी गुड़िया को बढ़िया जीप में बैठा कर भाभी से मिलवाने ले चलेंगे लेकिन नहीं, आपने तो गंदी वाली सलाह दे दी मुझे।"

"अब मुझे क्या पता था कि तुझे अपनी होने वाली भाभी से मिलने का कम बल्कि जीप में बैठ कर घूमने का ज़्यादा मन है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुझे पहले ही साफ साफ बता देना था कि जीप में बैठ कर घूमने जाना है तेरा।"

"ऐसा कुछ नहीं है।" कुसुम ने बुरा सा मुंह बनाया____"जीप में बैठ कर घूमने जाना होगा तो वो मैं कभी भी घूम सकती हूं। मैं जब भी आपको कहूंगी तो आप मुझे घुमाने ले जाएंगे लेकिन मुझे सच में अपनी होने वाली भाभी से मिलना है।"

"मतलब तू सच में ही मिलना चाहती है उससे?" मैंने ग़ौर से देखा उसे।

"हे भगवान!" कुसुम ने अपने माथे पर हल्के से हथेली मारते हुए कहा____"क्या आपको अपनी लाडली बहन की बात पर बिल्कुल भरोसा नहीं है? सच में बहुत गंदे हो गए हैं आप। जाइए मुझे आपसे बात ही नहीं करना अब।"

कहने के साथ ही वो लपक कर पलंग के किनारे बैठ गई और फिर मेरी तरफ अपनी पीठ कर के मुंह फुला कर बैठ गई। मैं समझ गया कि वो रूठ जाने का नाटक कर रही है और चाहती है कि मैं उसे हमेशा की तरह प्यार से मनाऊं...और ऐसा होना ही था। मैं हमेशा की तरह उसको मनाने ही लगा। आख़िर मेरी लाडली जो थी, मेरी जान जो थी।

"अच्छा ठीक है।" मैं उसके पास आ कर बोला____"अब नाराज़ होने का नाटक मत कर। कल सुबह तुझे ले चलूंगा उससे मिलवाने।"

"ना, मैं अभी भी नाराज़ हूं।" उसने बिना मेरी तरफ पलटे ही कहा____"पहले अच्छे से मनाइए मुझे।"

"हम्म्म्म तो फिर तू ही बता कैसे मनाऊं तुझे?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा___"अगर तू नन्ही सी गुड़िया होती तो तुझे दोनों हाथों में ले कर हवा में उछालता, तुझे गोद में लेता। लेकिन तू तो अब थोड़ी बड़ी हो गई है और इतनी भारी भी हो गई है कि मैं तुझे दोनों हाथों में ले कर उछाल ही नहीं पाऊंगा।"

"हाय राम! कितना झूठ बोलते हैं आप?" कुसुम एकदम से पलट कर मेरी तरफ आश्चर्य से आंखें फैला कर बोली____"मैं कहां बड़ी हो गई हूं और जब बड़ी ही नहीं हुई हूं तो भारी कैसे हो सकती हूं? आप अपनी गुड़िया के बारे में ऐसा कैसे बोल सकते हैं?"

"चल मान लिया कि तू बड़ी नहीं हुई है।" मैंने कहा____"लेकिन तू नन्ही सी भी तो नहीं है ना। क्या तुझे खुद ये नहीं दिख रहा?"

"हां ये तो सही कह रहे हैं आप।" कुसुम एक नज़र खुद को देखने के बाद मासूमियत से बोली____"पर मैं तो आपकी गुड़िया ही हूं ना तो आप मुझे उठा ही सकते हैं। वैसे भी, मैं जानती हूं कि मेरे सबसे अच्छे वाले भैया बहुत शक्तिशाली हैं। वो किसी को भी उठा सकते हैं।"

"चल अब मुझे चने के झाड़ पर मत चढ़ा।" मैंने कहा____"मैं सच में तुझे गोद में उठाने वाला नहीं हूं लेकिन हां अपनी गुड़िया को प्यार से गले ज़रूर लगा सकता हूं, आ जा।"

मेरा इतना कहना था कि कुसुम लपक कर मेरे गले से लग गई। मेरे सामने छोटी सी बच्ची बन जाती थी वो और वैसा ही बर्ताव करती थी। कुछ देर गले लगाए रखने के बाद मैंने उसे खुद से अलग किया।

"चल अब जा।" फिर मैंने उसके चेहरे को प्यार से सहला कर कहा____"और कल सुबह तैयार रहना अपनी होने वाली भाभी से मिलने के लिए।"

"कल क्यों?" उसने हौले से मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे तो आज और अभी मिलना है अपनी भाभी से।"

"अरे! पागल है क्या तू?" मैं बुरी तरह चौंकते हुए बोला____"देख नहीं रही शाम हो गई है। इस समय कैसे मैं तुझे उससे मिलवा सकता हूं?"

"क्यों नहीं मिलवा सकते?" कुसुम ने अपनी भौंहें ऊपर कर के कहा____"भाभी का घर कौन सा बहुत दूर है? क्या मेरी ख़ुशी के लिए इसी समय आप मुझे भाभी से मिलवाने नहीं ले जा सकते?"

कुसुम की इन बातों से मैं सकते की सी हालत में देखता रह गया उसे। अजीब दुविधा में डाल दिया था उसने। मैं सोच में पड़ गया कि अब क्या करूं? ऐसा नहीं था कि मैं इस समय उसे रूपा से मिलवा नहीं सकता था लेकिन मैं ये भी सोचने लगा था कि अगर मैंने ऐसा किया तो रूपा के घर वाले क्या सोचेंगे?

"अच्छा ठीक है।" फिर मैंने कुछ सोच कर कहा____"मैं तुझे इसी समय ले चलता हूं लेकिन मेरी भी एक शर्त है।"

"कैसी शर्त?" उसके माथे पर शिकन उभरी।

"यही कि मैं उसके घर के अंदर नहीं जाऊंगा।" मैंने कहा____"बल्कि तुझे उसके घर पहुंचा दूंगा, ताकि तू उससे मिल ले और मैं बाहर ही तेरे वापस आने का इंतज़ार करूंगा।"

"अब ये क्या बात हुई भला?" कुसुम ने हैरानी से कहा____"आप अकेले बाहर मेरे आने का इंतज़ार करेंगे? नहीं नहीं, ऐसे में मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगेगा। आप भी मेरे साथ अंदर चलेंगे।"

"समझने की कोशिश कर कुसुम।" मैंने कहा____"इस वक्त मेरा उन लोगों के घर जाना बिल्कुल भी उचित नहीं है। मैं रूपचंद्र को बाहर ही बुला लूंगा। वो तुझे अपनी बहन के पास छोड़ आएगा और मैं तेरे आने तक उसके साथ बाहर ही पेड़ के नीचे बने चबूतरे में बैठ कर उससे बातें करता रहूंगा। जब तू वापस आएगी तो तुझे ले कर वापस हवेली आ जाऊंगा।"

"और अगर भाभी के घर वालों को पता चला कि आप बाहर ही बैठे हैं तो क्या ये उन्हें अच्छा लगेगा?" कुसुम ने कहा____"क्या वो ये नहीं सोचेंगे कि आप क्यों अंदर नहीं आए?"

"उनके कुछ सोचने से मुझे फ़र्क नहीं पड़ता मेरी बहना।" मैंने कहा____"इस समय जो उचित है मैं वही करूंगा। ख़ैर तू ये सब छोड़ और जा कर तैयार हो जा। मैं कुछ ही देर में नीचे आता हूं।"

कुसुम खुशी खुशी चाय का खाली प्याला उठा कर कमरे से चली गई। उसके जाने के बाद मैं सोचने लगा कि मेरी बहन का भी हिसाब किताब अलग ही है। ख़ैर मुझे उसकी ख़ुशी के लिए अब ये करना ही था इस लिए मैं भी उठ कर कपड़ों के ऊपर गर्म सूटर पहनने लगा।

✮✮✮✮

कुछ ही देर में मैं कुसुम को जीप में बैठाए रूपचंद्र के घर के सामने सड़क पर पहुंच गया। इत्तेफ़ाक से रूपचंद्र सड़क के किनारे मोड़ पर ही मौजूद पेड़ के पास ही मिल गया। वो पेड़ के नीचे बने चबूतरे में गांव के किसी लड़के के साथ बैठा उससे बातें कर रहा था। मुझे जीप में इस वक्त कुसुम के साथ आया देख वो चौंका और जल्दी ही चबूतरे से उतर कर मेरे पास आ गया।

"अरे! अच्छा हुआ कि तुम यहीं मिल गए मुझे।" वो जैसे ही मेरे पास आया तो मैंने उससे कहा____"मैं तुम्हें ही बुलाने की सोच रहा था।"

"क्या बात है वैभव?" उसने एक नज़र कुसुम की तरफ देखने के बाद मुझसे पूछा____"तुम इस वक्त कहीं जा रहे हो क्या?"

"वो असल में मेरी ये बहन तुम्हारी बहन से मिलने की ज़िद कर रही थी।" मैंने थोड़े संकोच के साथ कहा____"इस लिए मैं इसको उससे मिलाने के लिए ही यहां लाया हूं। तुम एक काम करो, इसको अपने साथ ले जाओ और अपनी बहन के पास छोड़ आओ।"

"अरे! ये तो बहुत अच्छी बात है।" रूपचंद्र के चेहरे पर खुशी चमक उभर आई____"लेकिन तुम इन्हें छोड़ आने को क्यों कह रहे हो? क्या तुम नहीं चलोगे?"

"नहीं यार, मैं अंदर नहीं जाऊंगा।" मैंने बेचैन भाव से कहा____"मैंने इससे भी यही कहा था कि मैं बाहर ही रहूंगा और तुम इसको अपनी बहन के पास छोड़ आओगे।"

"ये सब तो ठीक है।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन तुम्हें अंदर चलने में क्या समस्या है? अब जब यहां तक आ ही गए हो तो अंदर भी चलो। हम सबको अच्छा ही लगेगा।"

"समझने की कोशिश करो भाई।" मैंने कहा____"मुझे अंदर ले जाने की कोशिश मत करो। तुम मेरी गुड़िया को अपनी बहन के पास ले जाओ। मैं यहीं पर इसके वापस आने का इंतज़ार करूंगा।"

"ठीक है, अगर तुम नहीं चलना चाहते तो कोई बात नहीं।" रूपचंद्र ने कहा____"मैं इन्हें रूपा के पास छोड़ कर वापस आता हूं।"

मेरे इशारा करने पर कुसुम चुपचाप जीप से नीचे उतर गई। उसके बाद वो रूपचंद्र के साथ उसके घर के अंदर की तरफ बढ़ गई। इधर मैंने भी जीप को वापस मोड़ा और फिर उससे उतर कर पेड़ के चबूतरे पर जा कर बैठ गया। सच कहूं तो इस वक्त मुझे बड़ा ही अजीब महसूस हो रहा था लेकिन मजबूरी थी इस लिए बैठा रहा। रूपचन्द्र जिस लड़के से बातें कर रहा था वो पता नहीं कब चला गया था और अब मैं अकेला ही बैठा था। मन में ये ख़याल भी उभरने लगा कि अंदर मेरी गुड़िया अपनी होने वाली भाभी से जाने क्या बातें करेगी?

कुछ ही देर में रूपचंद्र आ गया और मेरे पास ही चबूतरे पर बैठ गया। आते ही उसने बताया कि उसके घर वाले कुसुम को देख बड़ा खुश हुए हैं लेकिन ये जान कर उन्हें अच्छा नहीं लगा कि उनका होने वाला दामाद गैरों की तरह बाहर सड़क के किनारे बैठा है।

"मैंने फिलहाल उन्हें समझा दिया है कि तुम अंदर नहीं आना चाहते।" रूपचंद्र ने कहा____"इस लिए तुम्हें अंदर बुलाने की वो भी ज़िद न करें। ख़ैर और बताओ, कुसुम का अचानक से मेरी बहन से मिलने का मन कैसे हो गया?"

"सब अचानक से ही हुआ भाई।" मैंने गहरी सांस ले कर कहा____"वो ऐसी ही है। कब उसके मन में क्या आ जाए इस बारे में उसे खुद भी पता नहीं होता। अभी कुछ देर पहले वो मेरे कमरे में मुझे चाय देने आई थी और फिर एकदम से कहने लगी कि उसे अपनी होने वाली भाभी से मिलना है। मैंने उससे कहा कि सुबह मिलवा दूंगा लेकिन नहीं मानी। कहने लगी कि उसे अभी मिलना है। बहुत समझाया लेकिन नहीं मानी, आख़िर मुझे उसे ले कर आना ही पड़ा।"

"हा हा हा।" रूपचंद्र ठहाका लगा कर हंस पड़ा____"सचमुच कमाल की हैं वो। ख़ैर, जब मैं उन्हें ले कर अंदर पहुंचा तो सबके सब पहले तो बड़ा हैरान हुए, फिर जब मैंने उन्हें बताया कि वो अपनी होने वाली भाभी से मिलने आई हैं तो सब मुस्कुरा उठे। थोड़ा हाल चाल पूछने के बाद मां ने रूपा को आवाज़ दी जो रसोई में थी। मां के कहने पर रूपा कुसुम के साथ अपने कमरे में चली गई थी।"

"और घर में कैसी चल रही हैं शादी की तैयारियां?" मैंने पूछा।

"सब के सब लगे हुए हैं।" रूपचंद्र ने कहा____"दीदी के ससुराल वाले तो जल्द ही शादी का मुहूर्त बनवाना चाहते थे लेकिन महीने के बाद से पहले कोई मुहूर्त ही नहीं था इस लिए मजबूरन उन्हें उसी मुहूर्त पर सब कुछ तय करना पड़ा।"

"हां विवाह जैसे संबंध शुभ मुहूर्त पर ही तो होते हैं।" मैंने सिर हिलाते हुए कहा____"ख़ैर सबसे अच्छी बात यही है कि लगन तय हो गया और अब तुम्हारी बहनों का ब्याह होने वाला है।"

"ये सब दादा ठाकुर की ही कृपा से संभव हो सका है वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"उनका हाथ न होता तो इस विवाह का होना संभव ही नहीं था। हम सब भी न जाने कैसी मानसिकता का शिकार थे जिसके चलते ये सब कर बैठे। अब भी जब वो सब याद आता है तो खुद से घृणा होने लगती है।"

"सच कहूं तो मेरा भी यही हाल है।" मैंने गहरी सांस ली____"इसके पहले मैंने जो कर्म किए थे उनकी वजह से मेरे साथ जो हुआ उसके लिए मैं भी ऐसा ही सोचता हूं। अपने कर्मों के लिए मुझे भी खुद से घृणा होती है और तकलीफ़ होती है। काश! ऐसा हुआ करे कि इस दुनिया का कोई भी व्यक्ति ग़लत कर्म करने का सोचे ही नहीं।"

"ये तो असंभव है।" रूपचंद्र ने कहा____"आज के युग में हर कोई अच्छा कर्म करे ऐसा संभव ही नहीं है। ख़ैर छोड़ो, ये बताओ रागिनी दीदी की कोई ख़बर आई?"

"नहीं।" रूपचंद्र के मुख से अचानक भाभी का नाम सुनते ही मेरे समूचे जिस्म में झुरझुरी सी दौड़ गई____"अभी तक तो नहीं आई लेकिन मैं कल उनसे मिलने चंदनपुर जा रहा हूं।"

"अच्छा।" रूपचंद्र ने हैरानी से कहा____"किसी विशेष काम से जा रहे हो क्या?"

"कुछ बातें हैं जिन्हें मैं उनसे कहना चाहता हूं यार।" मैंने सहसा गंभीर हो कर कहा____"तुम शायद यकीन न करो लेकिन सच ये है कि जब से मुझे ये पता चला है कि हम दोनों के घर वालों ने हमारा आपस में ब्याह कर देने का फ़ैसला किया है तब से मेरे मन में बड़े अजीब अजीब से ख़याल उभर रहे हैं। मैं खुद को अपराधी सा महसूस करता हूं। मुझे ये सोच कर पीड़ा होने लगती है कि इस रिश्ते के चलते कहीं भाभी मुझे ग़लत न समझने लगीं हों। बस इसी के चलते मैं उनसे एक बार मिलना चाहता हूं और उन्हें बताना चाहता हूं कि इस रिश्ते के बाद भी मेरे मन में उनके प्रति कोई ग़लत भावना नहीं है। मेरे अंदर उनके लिए वैसा ही आदर सम्मान है जैसे हमेशा से रहा है।"

"तुम्हारे मुख से ऐसी अद्भुत बातें सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा करता है वैभव।" रूपचंद्र ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर कहा____"सच कहता हूं, यकीन तो अब भी नहीं होता कि तुम इतने अच्छे इंसान बन गए हो लेकिन यकीन इस लिए कर लेता हूं क्योंकि मैंने अपनी आंखों से देखा है और दिल से महसूस किया है। मैं खुद भी तो बदल गया हूं। इसके पहले तुमसे बहुत ज़्यादा ईर्ष्या और नफ़रत करता था लेकिन आज जितना अपनी बहन से प्यार और स्नेह करता हूं उतना ही तुमसे भी करने लगा हूं। हो सकता है कि ये कोई चमत्कार हो या कोई नियति का खेल लेकिन सच यही है। ख़ैर तुम अगर ऐसा सोचते हो तो यकीनन रागिनी दीदी से मिल लो और उनसे अपने दिल की बातें कह डालो। शायद इसके चलते तुम्हें भी हल्का महसूस हो और उधर रागिनी दीदी के मन से भी किसी तरह की अथवा आशंका दूर हो जाए। वैसे सच कहूं तो जैसे अनुराधा को मेरी बहन ने अपना लिया था और मैं खुद भी तुम्हारे साथ उसका ब्याह होने से खुश था उसी तरह रागिनी दीदी को भी मेरी बहन ने अपना लिया है और मैं भी चाहता हूं उनका तुम्हारे साथ ब्याह हो जाए।"

"वैसे अगर तुम बुरा न मानो तो क्या तुमसे एक बात पूछूं?" मैंने कहा।

"हां बिल्कुल पूछो।" रूपचंद्र ने कहा____"और बुरा मानने का तो सवाल ही नहीं है।"

"सच कहूं तो अभी अभी मेरे मन में एक ख़याल उभरा है।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"और अगर भाभी से ब्याह होने वाली बात का ज़िक्र न हुआ होता तो शायद मेरे मन में ये ख़याल उभरता भी नहीं। मैं तुमसे ये पूछना चाहता हूं कि जिस तरह मेरे माता पिता ने अपनी विधवा बहू की खुशियों का ख़याल रखते हुए उनका ब्याह मुझसे कर देने का निर्णय लिया है तो क्या वैसे ही तुम भी अपनी किसी भाभी के साथ ब्याह करने का नहीं सोच सकते?"

"ये...ये क्या कह रहे हो तुम?" रूपचंद्र ने चकित भाव से मेरी तरफ देखा____"मैं भला क्यों ऐसा सोचूंगा यार?"

"मानता हूं कि तुम नहीं सोच सकते।" मैंने कहा____"लेकिन तुम्हारे घर वाले तो सोच ही सकते हैं?"

"नहीं।" रूपचंद्र ने कहा____"इस तरह की कोई बात मेरे घर में किसी के भी मन में नहीं है।"

"ये तुम कैसे कह सकते हो?" मैंने जैसे तर्क़ किया____"हो सकता है कि ये बात तुम्हारे घर में किसी न किसी के ज़हन में आई ही हो। मैं ऐसा इस लिए भी कह रहा हूं क्योंकि भाभी के साथ मेरा ब्याह होने की बात तुम्हारे घर वालों को भी पता है। ऐसे में कभी न कभी किसी न किसी के मन में ये ख़याल तो उभरा ही होगा कि जब दादा ठाकुर अपनी बहू के भले के लिए ऐसा सोच कर उनका ब्याह मेरे साथ करने का फ़ैसला कर सकते हैं तो उन्हें भी अपनी बहुओं के भले के लिए ऐसा ही कुछ करना चाहिए।"

रूपचंद्र मेरी बात सुन कर फ़ौरन कुछ बोल ना सका। उसके चेहरे पर हैरानी के भाव तो उभरे ही थे किंतु एकाएक वो सोच में भी पड़ गया नज़र आने लगा था। इधर मुझे लगा कहीं मैंने कुछ ज़्यादा ही तो नहीं बोल दिया?

"क्या हुआ?" वो जब सोच में ही पड़ा रहा तो मैंने पूछा____"क्या मैंने कुछ गलत कह दिया?"

"नहीं।" रूपचंद्र ने गहरी सांस ली____"तुम्हारा ऐसा सोचना और कहना एक तरह से जायज़ भी है लेकिन ये भी सच है कि मेरे घर में फिलहाल ऐसा कुछ कोई भी नहीं सोच रहा।"

"हो सकता है कि उन्होंने ऐसा सोचा हो लेकिन इस बारे में तुम्हें पता न लगने दिया हो।" मैंने जैसे संभावना ज़ाहिर की।

"हां ये हो सकता है।" रूपचन्द्र ने अनिश्चित भाव से कहा____"लेकिन मुझे यकीन है कि मेरे घर वाले ऐसा करने का नहीं सोच सकते।"

"चलो मान लिया कि नहीं सोच सकते।" मैंने उसकी तरफ गौर से देखते हुए कहा____"लेकिन अगर ऐसी कोई बात तुम्हारे सामने आ जाए तो तुम क्या करोगे? क्या तुम अपनी किसी भाभी से ब्याह करने के लिए राज़ी हो जाओगे?"

"यार ये बड़ा मुश्किल सवाल है।" रूपचंद्र ने बेचैन भाव से कहा____"सच तो ये है कि मैंने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं है और ना ही कभी अपनी भाभियों के बारे में कुछ गलत सोचा है।"

"सोचा तो मैंने भी नहीं था कभी।" मैंने कहा____"लेकिन देख ही रहे हो कि हर किसी की उम्मीदों से परे आज ऐसे हालात बन चुके हैं कि मुझे अपनी भाभी का जीवन फिर से संवारने के लिए उनके साथ ब्याह करने को राज़ी होना पड़ा है। इसी तरह क्या तुम अपनी किसी भाभी की खुशियों का खयाल कर के ऐसा नहीं कर सकोगे? मान लो मेरी तरह तुम्हारे घर वालों ने भी तुम्हारे सामने भी ऐसा प्रस्ताव रख दिया तब तुम क्या करोगे? क्या अपनी किसी भाभी से ब्याह करने से इंकार कर दोगे तुम?"

"तुमने बिल्कुल ठीक कहा वैभव।" रूपचंद्र ने एक बार फिर बेचैनी से गहरी सांस ली____"वाकई में अगर ऐसा हुआ तो मुझे भी तुम्हारी तरह ऐसे रिश्ते के लिए राज़ी होना ही पड़ेगा। हालाकि ऐसा अगर कुछ महीने पहले होता तो शायद मैं ऐसे रिश्ते के लिए राज़ी न होता लेकिन अब यकीनन हो सकता हूं। ऐसा इस लिए क्योंकि तुम्हारी तरह मैं भी अब पहले जैसी मानसिकता वाला इंसान नहीं रहा। ख़ैर क्योंकि ऐसी कोई बात है ही नहीं इस लिए बेकार में इस बारे में क्या सोचना?"

मैं रूपचंद्र को बड़े ध्यान से देखे जा रहा था। ऐसी बातों के ज़िक्र से एकाएक ही उसके चेहरे पर कुछ अलग ही किस्म के भाव उभरे हुए दिखाई देने लगे थे।

"हां ये तो है।" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"वैसे तुम्हारी बड़ी भाभी को संतान के रूप में एक बेटी तो है जिसके सहारे वो अपना जीवन गुज़ार सकती हैं लेकिन छोटी भाभी का क्या? मेरा मतलब है कि उनकी शादी हुए भी तो अभी ज़्यादा समय नहीं हुआ है, उनको कोई औलाद भी नहीं है। ऐसे में क्या वो इसी तरह विधवा के रूप में अपना सारा जीवन गुज़ारेंगी?"

"इस बारे में क्या कह सकता हूं मैं?" रूपचंद्र ने कहा____"उनके नसीब में शायद ऐसे ही जीवन गुज़ारना लिखा है।"

"नसीब ऐसे ही नहीं लिखा होता भाई।" मैंने कहा____"इस दुनिया में कर्म प्रधान है। हमें हर चीज़ के लिए कर्म करना पड़ता है, फल मिले या न मिले वो अलग बात है। जैसे मेरे माता पिता ने अपनी बहू के जीवन को फिर से संवारने के लिए ये क़दम उठाया उसी तरह तुम्हारे घर वाले भी उठा सकते हैं। जब ऐसा होगा तो यकीनन तुम्हारी भाभी का नसीब भी दूसरी शक्ल में नज़र आने लगेगा। अब ये तुम पर और तुम्हारे घर वालों पर निर्भर करता है कि वो कैसा कर्म करते हैं या नहीं।"

"मैं तुम्हें अपनी राय और अपना फ़ैसला बता चुका हूं वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"बाकी मेरे घर वालों की मर्ज़ी है कि वो क्या करना चाहते हैं और क्या नहीं। मैं अपनी तरफ से इस बारे में किसी से कुछ भी नहीं कहूंगा।"

"ख़ैर जाने दो।" मैंने कहा____"जो होना होगा वो होगा ही।"

अभी मैंने ये कहा ही था कि तभी मेरे कानों में कुछ आवाज़ें पड़ीं। मैंने और रूपचंद्र ने पलट कर आवाज़ की दिशा में देखा। कुसुम दो तीन औरतों के साथ घर से बाहर आ गई थी। शाम पूरी तरह से हो चुकी थी और अंधेरा फैल गया था इस लिए उन औरतों में से एक ने अपने हाथ में लालटेन ले रखा था। कुछ ही देर में कुसुम उन औरतों के साथ बाहर सड़क पर आ गई। इधर मैं और रूपचंद्र भी चबूतरे से उतर आए थे।

"तुमने अपने होने वाले बहनोई को यहां ऐसे ही बैठा रखा था रूप।" फूलवती ने थोड़ी नाराज़गी से कहा____"ना पानी का पूछा और ना ही चाय का?"

"अरे! नहीं बड़ी मां।" मैं झट से रूपचन्द्र से पहले बोल पड़ा____"ऐसी बात नहीं है। रूपचंद्र ने मुझसे इस सबके लिए पूछा था लेकिन मैंने ही मना कर दिया था। आप बेवजह नाराज़ मत होइए।"

मेरे मुख से ये बात सुनते ही रूपचंद्र ने हल्के से चौंक कर मेरी तरफ देखा, फिर हौले से मुस्कुरा उठा। बहरहाल मैंने कुसुम को जीप में बैठने को कहा और खुद भी जीप की स्टेयरिंग शीट पर बैठ गया। कुसुम ने सबको हाथ जोड़ कर नमस्ते किया। उसके बाद मैंने जीप को हवेली की तरफ बढ़ा दिया। कुसुम बड़ा ही खुश नज़र आ रही थी।​
 
अध्याय - 152
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अगली सुबह।
चाय नाश्ता कर के मैं हवेली से चंदनपुर जाने के लिए जीप से निकला। मां ने मुझे समझाया था कि मैं वहां किसी से भी बेवजह उलझने जैसा बर्ताव न करूं और ना ही अपनी भाभी से ऐसी कोई बात कहूं जिससे कि उन्हें कोई तकलीफ़ पहुंचे। हालाकि ऐसा मैं कर ही नहीं सकता था लेकिन मां तो मां ही थीं, शायद फिक्रमंदी के चलते उन्होंने मुझे ऐसी सलाह दी थी।

पूरे रास्ते मैं भाभी के बारे में ही जाने क्या क्या सोचता रहा। मन में तरह तरह की आशंकाएं उभर आतीं थी जिनके चलते मेरे अंदर एक घबराहट सी होने लगी थी। मैं अपने आपको इस बात के लिए तैयार करता जा रहा था कि जब भाभी से मेरा सामना होगा तब मैं उनके सामने बहुत ही सभ्य और शांत तरीके से अपने दिल की बातें रखूंगा। यूं तो मुझे पूरा भरोसा था कि भाभी मुझे समझेंगी लेकिन इसके बावजूद जाने क्यों मेरे मन में आशंकाएं उभर आतीं थी।

बहरहाल, दोपहर होने से पहले ही मैं चंदनपुर गांव यानि रागिनी भाभी के मायके पहुंच गया। अभी कुछ समय पहले ही मैं यहां आया था, इस लिए जैसे ही भैया के ससुराल वालों ने मुझे फिर से आया देखा तो सबके चेहरों पर हैरानी के भाव उभर आए। ये अलग बात है कि बाद में जल्दी ही उनके चेहरों पर खुशी के भाव भी उभर आए थे।

"अरे! क्या बात है।" भाभी का भाई वीरेंद्र सिंह लपक कर मेरे पास आते हुए बोला____"हमारे वैभव महाराज तो बड़ा जल्दी जल्दी हमें दर्शन दे रहे हैं।"

वीरेंद्र ने कहने के साथ ही झुक कर मेरे पैर छुए। उसकी बातों से जाने क्यों मैं थोड़ा असहज सा हो गया था। ये अलग बात है कि मैं जल्दी ही खुद को सामान्य रखने का प्रयास करते हुए हल्के से मुस्कुरा उठा था। ख़ैर वीरेंद्र मुझे ले कर अंदर बैठक में आया, जहां बाकी लोग पहले से ही मौजूद थे। सबने एक एक कर के मेरे पांव छुए। एक बार फिर से वही क्रिया दोहराई जाने लगी, यानि पीतल की थाल में मेरे पांव धोना वगैरह। थोड़ी देर औपचारिक तौर पर हाल चाल हुआ। इसी बीच अंदर से वीरेंद्र सिंह की पत्नी वंदना भाभी मेरे लिए जल पान के कर आ गईं।

घर में इस वक्त मर्दों के नाम पर सिर्फ वीरेंद्र सिंह ही था, बाकी मर्द खेत गए हुए थे। मेरे आने की ख़बर फ़ौरन ही भैया के चाचा ससुर के घर तक पहुंच गई थी इस लिए उनके घर की औरतें और बहू बेटियां भी आ गईं।

"और बताईए महाराज बड़ा जल्दी आपके दर्शन हो गए।" वीरेंद्र सिंह ने पूछा____"यहां किसी विशेष काम से आए हैं क्या?"

"हां कुछ ऐसा ही है।" मैंने थोड़ा झिझकते हुए कहा____"असल में उस समय जब मैं यहां आया था तो भाभी को लेने आया था। उस समय मुझे बाकी बातों का बिल्कुल भी पता नहीं था। उसके बाद जब यहां से गया तो मां से ऐसी बातें पता चलीं जिनके बारे में मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था।"

"हां मैं समझ सकता हूं महाराज।" वीरेंद्र ने गहरी सांस लेते हुए थोड़ा गंभीर हो कर कहा____"और कृपया मुझे भी माफ़ करें मैंने भी इसके पहले इस बारे में आपको कुछ नहीं बताया। सच कहूं तो मुझे समझ ही नहीं आया था कि आपसे कैसे कहूं? दूसरी बात ये थी कि हम चाहते थे कि ये सब बातें आपको अपने ही माता पिता से पता चलें तो ज़्यादा उचित होगा।"

अभी मैं कुछ कहने ही वाला था कि तभी अंदर से भाभी की मां सुलोचना देवी आ गईं। उन्हें देख कर मैं फिर से थोड़ा असहज सा महसूस करने लगा।

"कोई ख़ास काम था क्या महाराज?" सुलोचना देवी ने आते ही थोड़ी फिक्रमंदी से पूछा____"जिसके लिए आपको फिर से यहां आना पड़ा है?"

"वैभव महाराज को रिश्ते के बारे में पता चल चुका है मां।" मेरे कुछ बोलने से पहले ही वीरेंद्र ने अपनी मां की तरफ देखते हुए कहा____"और ये शायद उसी सिलसिले में यहां आए हैं।"

"ओह! सब ठीक तो है ना महाराज?" सुलोचना देवी एकदम से चिंतित सी नज़र आईं।

"हां मां जी सब ठीक ही है।" मैंने खुद को सामान्य रखने का प्रयास करते हुए कहा____"मैं यहां बस भाभी से मिलने आया हूं। उनसे कुछ ऐसी बातें कहने आया हूं जिन्हें कहे बिना मुझे चैन नहीं मिल सकता। आप कृपया मेरी इस बात को अन्यथा मत लें और कृपा कर के मुझे भाभी से अकेले में बात करने का अवसर दें।"

मेरी बात सुन कर सुलोचना देवी और वीरेंद्र सिंह एक दूसरे की तरफ देखने लगे। चेहरों पर उलझन के भाव उभर आए थे। फिर सुलोचना देवी ने जैसे खुद को सम्हाला और होठों पर मुस्कान सजा कर कहा____"ठीक है, अगर आप ऐसा ही चाहते हैं तो मैं रागिनी से अकेले में आपकी मुलाक़ात करवा देती हूं। आप थोड़ी देर रुकिए, मैं अभी आती हूं।"

कहने के साथ ही सुलोचना देवी पलट कर अंदर की तरफ चली गईं। इधर वीरेंद्र सिंह जाने किस सोच में गुम हो गया था। मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि उससे क्या कहूं। बस ख़ामोशी से वक्त के गुज़रने का इंतज़ार करने लगा।

क़रीब पांच मिनट बाद सुलोचना देवी बाहर आईं। उन्होंने मुझे अपने साथ अंदर चलने को कहा तो मैं एक नज़र वीरेंद्र सिंह पर डालने के बाद पलंग से उठा और सुलोचना देवी के साथ अंदर की तरफ बढ़ चला। एकाएक ही मेरी धड़कनें तीव्र गति से चलने लगीं थी और साथ ही ये सोच कर घबराहट भी होने लगी थी कि भाभी के सामने कैसे खुद को सामान्य रख पाऊंगा मैं? कैसे उनसे नज़रें मिला कर अपने दिल की बातें कह पाऊंगा? क्या वो मुझे समझेंगी?

सुलोचना देवी मुझे ले कर घर के पिछले हिस्से में आ गईं। घर के पीछे खाली जगह थी जहां पर एक तरफ कुआं था और बाकी कुछ हिस्सों में कई सारे पेड़ पौधे लगे हुए थे।

"महाराज।" सुलोचना देवी ने पलट कर मुझसे कहा____"आप यहीं रुकें, मैं रागिनी को भेजती हूं।"

"जी ठीक है।" मैंने कहा और कुएं की तरफ यूं ही बढ़ चला।

उधर सुलोचना देवी वापस अंदर चली गईं। मैं कुएं के पास आ कर उसमें झांकने लगा। कुएं में क़रीब पांच फीट की दूरी पर पानी नज़र आया। मैं झांकते हुए कुएं के पानी को ज़रूर देखने लगा था लेकिन मेरा मन इसी सोच में डूबा हुआ था कि भाभी के आने पर क्या होगा? क्या मेरी तरह उनका भी यही हाल होगा? क्या मेरी तरह वो भी घबराई हुई होंगी?

अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी मुझे किसी के आने का आभास हुआ। किसी के आने के एहसास से एकाएक मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे दिल ने एकदम से धड़कना ही बंद कर दिया हो। सब कुछ थम गया सा महसूस हुआ। मैंने बड़ी मुश्किल से ख़ुद को सम्हाला और फिर धीरे से पलटा।

मेरी नज़र रागिनी भाभी पर पड़ी। गुलाबी कुर्ते सलवार में वो मेरी तरफ पीठ किए अमरूद के पेड़ के पास ठहर ग‌ईं थी। उनके बालों की चोटी उनकी पीठ से होते हुए नीचे उनके नितम्बों को भी पार गई थी। सहसा वो थोड़ा सा घूमीं जिसके चलते मुझे उनके चेहरे की थोड़ी सी झलक मिली। दोनों हाथों में पकड़े अपने दुपट्टे के छोर को हौले हौले उमेठने में लगीं हुईं थी वो।

कुछ देर तक ख़ामोशी से उनकी तरफ देखते रहने के बाद मैं हिम्मत जुटा कर उनकी तरफ बढ़ा। मेरी धड़कनें जो इसके पहले थम सी गई थी वो चलने तो लगीं थी लेकिन हर गुज़रते पल के साथ वो धाड़ धाड़ की शक्ल में बजते हुए मेरी पसलियों पर चोट करने लगीं थी। आख़िर कुछ ही पलों में मैं उनके थोड़ा पास पहुंच गया। शायद उन्हें भी एहसास हो गया था कि मैं उनके पास आ गया हूं इस लिए दुपट्टे को उमेठने वाली उनकी क्रिया एकदम से रुक गई थी।

"भ...भाभी।" मैंने धाड़ धाड़ बजते अपने दिल के साथ बड़ी मुश्किल से उन्हें पुकारा।

एकाएक ही मेरे अंदर बड़ी तेज़ हलचल सी मच गई थी जिसे मैं काबू में करने का प्रयास करने लगा था। उधर मेरे पुकारने पर भाभी पर प्रतिक्रिया हुई। वो बहुत धीमें से मेरी तरफ को पलटीं। अगले ही पल उनका खूबसूरत चेहरा पूरी तरह से मुझे नज़र आया। वो पलट तो गईं थी लेकिन मेरी तरफ देख नहीं रहीं थी। पलकें झुका रखीं थी उन्होंने। सुंदर से चेहरे पर हल्की सी सुर्खी छाई नज़र आई।

"अ...आप ठीक तो हैं ना?" मैंने खुद को सम्हालते हुए बड़ी मुश्किल से पूछा।

"हम्म्म्म।" उन्होंने धीमें से सिर हिलाया।

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर किस तरह से उनसे वो बातें कहूं जो मैं उनसे कहने आया था। मेरे दिलो दिमाग़ में हलचल सी मची हुई थी। हल्की ठंड में भी मेरे चहरे पर घबराहट के चलते पसीना उभर आया था।

"व..वो मुझे समझ नहीं आ रहा कि कैसे मैं आपको अपने दिल की बात कहूं?" फिर मैंने किसी तरह उनकी तरफ देखते हुए कहा।

उनकी पलकें अभी भी झुकी हुईं थी किन्तु मेरी बात सुनते ही उन्होंने धीरे से पलकें उठा कर मेरी तरफ देखा। अगले ही पल हमारी नज़रें आपस में टकरा गईं। मुझे अपने अंदर एकदम से झुरझरी सी महसूस हुई। वो सवालिया भाव से मेरी तरफ देखने लगीं थी।

"कृपया आप मुझे ग़लत मत समझिएगा।" मैंने झिझकते हुए कहा____"मैं यहां आपसे ये कहने आया हूं कि मेरे दिल में आपके लिए ना पहले कभी कोई ग़लत ख़याल था और ना ही आगे कभी हो सकता है। मैं पहले भी आपका दिल की गहराइयों से आदर और सम्मान करता था और आगे भी करता रहूंगा।"

मेरी ये बातें सुनते ही भाभी के चेहरे पर राहत और खुशी जैसे भाव उभरे। उनकी आंखें जो विरान सी नज़र आ रहीं थी उनमें एकाएक नमी सी नज़र आने लगी। कुछ कहने के लिए उनके होठ कांपे किंतु शायद उनसे कुछ बोला नहीं गया।

"उस दिन जब मैं यहां आपको लेने आया था तो मुझे कुछ भी पता नहीं था।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"यहां कामिनी ने जब मुझसे आपके ब्याह होने की बात बताई तो मुझे सच में धक्का लगा था क्योंकि आपका फिर से ब्याह होने की मैंने कल्पना ही नहीं की थी। फिर जब उन्होंने मुझे आपके जीवन को संवारने और आपकी खुशियों की बातें की तो मुझे भी एहसास हुआ कि वास्तव में आपके लिए यही उचित है। उसके बाद जब आपसे बातें हुईं और आपने ब्याह करने से मना कर दिया तो मुझे अच्छा तो लगा लेकिन फिर ये सोचा कि अगर आपका फिर से ब्याह नहीं हुआ तो भला कैसे आपका जीवन संवर सकता है और कैसे आपको सच्ची खुशियां मिल सकती हैं? इसी लिए मैंने आपसे कहा था कि आप हमारे लिए अपना जीवन बर्बाद मत कीजिए। ख़ैर उसके बाद मैं वापस चला गया था। वापस जाते समय मैं रास्ते में यही सोच रहा था कि आपके बारे में इतना बड़ा फ़ैसला ले लिया गया और किसी ने मुझे बताया तक नहीं। इतना तो मैं समझ गया था कि आपके ब्याह होने की बात मां और पिता जी को भी पहले से ही पता थी लेकिन मैं ये सोच कर नाराज़ सा हो गया था कि ये बात मुझसे क्यों छुपाई गई? जब हवेली पहुंचा तो मैंने मां से नाराज़गी दिखाते हुए यही सब पूछा, तब उन्होंने बताया, लेकिन पूरा सच तब भी नहीं बताया। वो तो रूपचंद्र की बातों से मुझे आभास हुआ कि अभी भी मुझसे कुछ छुपाया गया है। हवेली में जब दुबारा मां से पूछा तो उन्होंने बताया कि वास्तव में सच क्या है।"

इतना सब बोल कर मैं एकाएक चुप हो गया और भाभी को ध्यान से देखने लगा। वो पहले की ही तरह चुपचाप अपनी जगह पर खड़ीं थी। चेहरे पर अजीब से भाव उभर आए थे उनके। नज़रें फिर से झुका लीं थी उन्होंने।

"मां ने जब बताया कि आपका ब्याह असल में मेरे साथ करने का फ़ैसला किया गया है तो मैं आश्चर्यचकित रह गया था।" मैंने फिर से कहना शुरू किया____"मैंने तो ऐसा होने की कल्पना भी नहीं की थी लेकिन मां के अनुसार सच यही था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरे और आपके माता पिता हम दोनों का आपस में ब्याह करने का कैसे सोच सकते हैं? जब मैंने मां से ये सवाल किया तो उन्होंने पता नहीं कैसी कैसी बातों के द्वारा मुझे समझाना शुरू कर दिया। ये भी कहा कि क्या मैं अपनी भाभी के जीवन को फिर से संवारने के लिए और उनको सच्ची खुशियां देने के लिए इस रिश्ते को स्वीकार नहीं कर सकता? मां के इस सवाल पर मैं अवाक सा रह गया था और फिर आख़िर में मुझे स्वीकार करना ही पड़ा। सब लोग यही चाहते थे, सबको लगता है कि यही उचित है और इसी से आपका भला हो सकता है तो मैं भला कैसे इंकार कर देता? मैं भला ये कैसे चाह सकता था भाभी कि मेरी वजह से आपका जीवन खुशियों से महरूम हो जाए? मैं तो पहले से ही सच्चे दिल से यही चाहता था कि आप हमेशा खुश रहें, आपके जीवन में एक पल के लिए कभी दुख का साया न आए।"

भाभी अब भी नज़रें झुकाए ख़ामोश खड़ीं थी। उन्हें यूं ख़ामोश खड़ा देख मुझे घबराहट भी होने लगी थी लेकिन मैंने सोच लिया था कि उनसे जो कुछ कहने आया था वो कह कर ही जाऊंगा।

"उस दिन से अब तक मैं इसी रिश्ते के बारे में सोचता रहा हूं भाभी।" मैंने गहरी सांस ले कर कहा____"आपकी खुशी के लिए मैं दुनिया का कोई भी काम कर सकता हूं। आपके होठों पर मुस्कान लाने के लिए मैं खुशी खुशी ख़ुद को भी मिटा सकता हूं। मेरे इस बदले हुए जीवन में आपका बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज मैं जो बन गया हूं उसमें आपका ही सहयोग था और आपका ही मार्गदर्शन रहा है। मुझे खुशी है कि मैं अपनी भाभी की बदौलत आज एक अच्छा इंसान बनने लगा हूं। मैं आपसे यही कहना चाहता हूं कि आप ये कभी मत समझना कि इस रिश्ते के चलते आपके प्रति मेरी भावनाओं में कोई बदलाव आ जाएगा। आप ये कभी मत सोचना कि मेरे दिल से आपके प्रति आदर और सम्मान मिट जाएगा। मेरे दिल में हमेशा आपके लिए मान सम्मान और श्रद्धा की भावना रहेगी।"

"तु...तुम्हें ये सब कहने की ज़रूरत नहीं है।" भाभी ने नज़रें उठा कर अधीरता से कहा____"मैं जानती हूं और समझती हूं कि तुम मेरी कितनी इज्ज़त करते हो।"

"आपको पता है।" मैंने सहसा अधीर हो कर कहा____"कुछ दिनों से मैं अपने आपको अपराधी सा महसूस करने लगा हूं।"

"ऐसा क्यों?" भाभी के चेहरे पर चौंकने वाले भाव उभरे और साथ ही फिक्रमंदी के भी।

"मेरे मन में बार बार यही ख़याल उभरता रहता है कि इस रिश्ते के चलते आप मेरे बारे में जाने क्या क्या सोचने लगी होंगी।" मैंने कहा____"इतना तो सबको पता रहा है कि मेरा चरित्र कैसा था। अब जब आपका ब्याह मुझसे करने का फ़ैसला किया गया तो मेरे मन में यही ख़याल उभरा कि आप भी अब मेरे चरित्र के आधार पर यही सोच रही होंगी कि मैं आपके बारे में पहले से ही ग़लत सोच रखता रहा होऊंगा, इसी लिए रिश्ते को झट से मंजूरी दे दी।"

"न...नहीं नहीं।" भाभी ने झट से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"ऐसा नहीं है। मैं तुम्हारे बारे में ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकती। तुम ऐसा क्यों सोचते हो?"

"क्या करूं भाभी?" मेरी आंखें भर आईं____"मेरा चरित्र ही ऐसा रहा है कि अब अपने उस चरित्र से मुझे ख़ुद ही बहुत घृणा होती है। बार बार यही एहसास होता है कि इस रिश्ते का ज़िक्र होने के बाद अब हर कोई मेरे बारे में ग़लत ही सोच रहा होगा। मेरा यकीन कीजिए भाभी, भले ही मेरा चरित्र निम्न दर्ज़े का रहा है लेकिन मैंने कभी भी आपके बारे में ग़लत नहीं सोचा है। मैं इतना भी गिरा हुआ नहीं था कि अपने ही घर की औरतों और बहू बेटी पर नीयत ख़राब कर लेता। काश! हनुमान जी की तरह मुझमें भी शक्ति होती तो इस वक्त मैं अपना सीना चीर कर आपको दिखा देता। मैं दिखा देता और फिर कहता कि देख लीजिए....मेरे सीने में आपके लिए सिर्फ और सिर्फ आदर सम्मान और श्रद्धा की ही भावना मौजूद है।"

"ब..बस करो।" रागिनी भाभी की आंखें छलक पड़ीं, रुंधे हुए गले से बोलीं____"मैंने कहा ना कि तुम्हें ऐसा कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं है और ना ही कुछ कहने की। मैं अच्छी तरह जानती हूं और हमेशा महसूस भी किया है कि तुमने कभी मेरे बारे में ग़लत नहीं सोचा है। सच कहती हूं, मुझे हमेशा से ही तुम्हारे जैसा देवर मिलने का गर्व रहा है।"

"आप सच कह रही हैं ना भाभी?" मैं अधीरता से बोल पड़ा____"क्या सचमुच आपको मुझ पर भरोसा है।"

"हां, ख़ुद से भी ज़्यादा।" भाभी ने लरजते स्वर में कहा____"वैसे सच कहूं तो मेरी भी दशा तुम्हारे जैसी ही है। इतने दिनों से मैं भी यही सोचते हुए ख़ुद को दुखी किए हूं कि इस रिश्ते के चलते तुम मेरे बारे में पता नहीं क्या सोचने लगे होगे। अपनी मां और भाभी से यही कहती थी कि अगर तुमने इस रिश्ते के चलते एक पल के लिए भी मेरे बारे में ग़लत सोच लिया तो मेरे लिए वो बहुत ही शर्म की बात हो जाएगी। उस सूरत में मुझे ऐसा लगने लगेगा कि ये धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊं।"

"नहीं भाभी नहीं।" मैं तड़प कर बोल पड़ा____"मैं आपके बारे में कभी ग़लत नहीं सोच सकता। आप तो देवी हैं मेरे लिए जिनके प्रति हमेशा सिर्फ श्रद्धा ही रहेगी। दुनिया इधर से उधर हो जाए लेकिन मैं कभी आपके प्रति कुछ भी उल्टा सीधा नहीं सोच सकता। आप इस बात से बिलकुल निश्चिंत रहें भाभी। मैं नहीं जानता कि ऊपर बैठा विधाता मुझसे या आपसे क्या चाहता है लेकिन इतना यकीन कीजिए कि ये संबंध मेरे और आपके बीच मौजूद सच्ची भावनाओं को कभी मैला नहीं कर सकता।"

"तुम्हारा बहुत बहुत धन्यवाद वैभव।" भाभी की आंखों से फिर से आंसू का एक कतरा छलक गया____"तुमने ये कह कर मेरे मन को बहुत बड़ी राहत दी है। तुम्हें अंदाज़ा भी नहीं है कि इतने दिनों से मैं ये सब सोच सोच कर कितना व्यथित थी।"

"आप खुद को दुखी मत रखिए भाभी।" मैंने कहा____"आप अच्छी तरह जानती हैं कि मैं आपको दुखी होते नहीं देख सकता। इसके पहले आपको खुश रखने के लिए मेरे बस में जो था वो कर रहा था लेकिन इस रिश्ते के बाद मेरी हमेशा यही कोशिश रहेगी कि मैं आपको कभी एक पल के लिए भी दुख में न रहने दूं।"

मेरी बात सुन कर रागिनी भाभी बड़े गौर से मेरी तरफ देखने लगीं थी। उनके चेहरे पर खुशी के भाव तो थे ही किंतु एकाएक लाज की सुर्खी भी उभर आई थी। उनकी आंखों में समंदर से भी ज़्यादा गहरा प्यार और स्नेह झलकता नज़र आया मुझे।

"क्या रूपा को पता है इस बारे में?" फिर उन्होंने खुद को सम्हालते हुए पूछा____"उस बेचारी के साथ फिर से एक ऐसी स्थिति आ गई है जहां पर उसे समझौता करना पड़ेगा। उसके बारे में जब भी सोचती हूं तो पता नहीं क्यों बहुत बुरा लगता है। तुम्हारे जीवन में सिर्फ उसी का हक़ है।"

"उसे मैंने ही इस बारे में बताया है।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"पहले तो उसे यकीन ही नहीं हुआ लेकिन जब मैंने सारी बातें बताई तो वो भी यही कहने लगी कि आपके लिए यही उचित है।"

"क्या उसे इस बारे में जान कर तकलीफ़ नहीं हुई?" भाभी ने हैरानी ज़ाहिर करते हुए पूछा।

"उसने क्या कहा जब आप ये सुनेंगी तो आपको बड़ा आश्चर्य होगा।" मैंने हौले से मुस्कुरा कर कहा।

"अच्छा, क्या कहा उसने?" भाभी ने उत्सुकता से पूछा।

मैंने संक्षेप में उन्हें रूपा से हुई अपनी बातें बता दी। सुन कर सचमुच भाभी के चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आए। कुछ देर जाने क्या सोचती रहीं फिर एक गहरी सांस लीं।

"सचमुच बहुत अद्भुत लड़की है वो।" भाभी ने चकित भाव से कहा____"आज के युग में ऐसी लड़कियां विरले ही कहीं देखने को मिलती हैं। तुम बहुत किस्मत वाले हो जो ऐसी लड़की तुमसे इतना प्रेम करती है और तुम्हारी जीवन संगिनी बनने वाली है। मेरा तुमसे यही कहना है कि तुम कभी भी उसके प्रेम का निरादर मत करना और ना ही कभी उसको कोई दुख तकलीफ़ देना।"

"कभी नहीं दूंगा भाभी।" मैंने अधीरता से कहा____"उसे दुख तकलीफ़ देने का मतलब है हद दर्ज़े का गुनाह करना। कभी कभी सोचा करता हूं कि मैंने तो अपने अब तक के जीवन में हमेशा बुरे कर्म ही किए थे इसके बावजूद ऊपर वाले ने मेरी किस्मत में मुझे इतना प्रेम करने वाली लड़कियां कैसे लिखी थीं?"

"शायद इस लिए क्योंकि ऐसी अद्भुत लड़कियों के द्वारा वो तुम्हें मुकम्मल रूप से बदल देना चाहता था।" भाभी ने कहा____"काश! ईश्वर ने अनुराधा के साथ ऐसा न किया होता। उस मासूम का जब भी ख़याल आता है तो मन बहुत ज़्यादा व्यथित हो उठता है।"

अनुराधा का ज़िक्र होते ही मेरे दिलो दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से एक तूफ़ान सा आया और फिर मुझे अंदर तक हिला कर चला गया। ख़ैर कुछ देर और मेरी भाभी से बातें हुईं उसके बाद वो चली गईं। उनके जाने के थोड़ी देर बाद मैं भी वापस बैठक में आ गया। वीरेंद्र सिंह खेतों की तरफ चला गया था इस लिए मैं चुपचाप पलंग पर लेट गया और फिर भाभी से बातों के बारे में सोचने लगा। भाभी से अपने दिल की बातें कह देने से और उनका जवाब सुन लेने से अब मैं बहुत हल्का महसूस कर रहा था।​
 
अध्याय - 153
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अनुराधा का ज़िक्र होते ही मेरे दिलो दिमाग़ में बड़ी तेज़ी से एक तूफ़ान सा आया और फिर मुझे अंदर तक हिला कर चला गया। ख़ैर कुछ देर और मेरी भाभी से बातें हुईं उसके बाद वो चली गईं। उनके जाने के थोड़ी देर बाद मैं भी वापस बैठक में आ गया। वीरेंद्र सिंह खेतों की तरफ चला गया था इस लिए मैं चुपचाप पलंग पर लेट गया और फिर भाभी से बातों के बारे में सोचने लगा। भाभी से अपने दिल की बातें कह देने से और उनका जवाब सुन लेने से अब मैं बहुत हल्का महसूस कर रहा था।


अब आगे....


वीरेंद्र सिंह ने खेतों में जा कर सबको मेरे आने की ख़बर दे दी थी इस लिए दोपहर तक सब आ गए थे। हाल चाल के बाद मैं सबके साथ खाना खाने बैठ गया था। सबके चेहरे खिले हुए थे। ख़ास कर इस बात के चलते कि रागिनी भाभी मुझसे ब्याह करने को राज़ी हो गईं थी और साथ ही उन्हें ये भी पता चल गया था कि मैं भी अपनी भाभी से ब्याह करने को राज़ी हूं।

खाना खाने के बाद हम सब बैठक में आ गए। बैठक में ससुर जी ने कहा कि वो दादा ठाकुर को अपनी बेटी के राज़ी होने की ख़बर भिजवाने का ही सोच रहे थे। यूं तो मेरे यहां आ जाने से वो मेरे द्वारा भी ये ख़बर भिजवा सकते हैं लेकिन फिर उन्होंने कहा कि इस तरह से ख़बर भिजवाना उचित नहीं होगा इस लिए वीरेंद्र सिंह मेरे साथ रुद्रपुर जाएगा। वहां पर वो ख़ुद अपनी बहन के राज़ी होने की ख़बर दादा ठाकुर को देगा।

क़रीब एक डेढ़ घंटा आराम करने के बाद वीरेंद्र सिंह ये कह कर खेतों की तरफ चला गया कि वो शाम होने से पहले ही आ जाएगा। उसके जाने के बाद ससुर जी भी किसी काम से चले गए। बैठक में अब मैं ही बचा था।

आज भाभी से बातें करने के बाद मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा था। इसके पहले मन में जिन ख़यालों के चलते मैं खुद को अपराधी सा महसूस कर रहा था उससे अब मुक्ति सी मिल गई थी मुझे। मैं आंखें बंद करता तो बंद पलकों में भाभी का ख़ूबसूरत चेहरा चमक उठता था। एकाएक बंद पलकों में ही भाभी के साथ हुई बातों के दृश्य किसी चलचित्र की तरह चलने लगे।

"सच में सो रहे हैं या आंखें बंद किए किसी के हसीन ख़यालों में खोए हुए हैं महाराज?" एकाएक मेरे कानों में एक मधुर आवाज़ पड़ी तो मैंने पट्ट से आंखें खोल दी।

वीरेंद्र सिंह की पत्नी वंदना भाभी खड़ीं थी। मुझे आंखें खोल कर अपनी तरफ देखता देख वो हल्के से मुस्कुराईं। उन्हें आया देख मैं भी उठ कर बैठ गया।

"आप कब आईं भाभी?" मैंने खुद को सम्हालते हुए उनसे पूछा।

"बस अभी ही आई हूं।" वंदना भाभी ने कहा____"आपको आंखें बंद किए लेटे देखा तो लगा सो गए हैं आप।"

"नहीं, ऐसी बात नहीं है।" मैंने कहा____"मुझे इतना जल्दी नींद नहीं आती।"

"क्यों भला?" भाभी मुस्कुराईं____"कहीं आंखें बंद किए अपनी होने वाली दुल्हन के हसीन ख़्वाब तो नहीं देख रहे थे आप?"

"ये..ये आप क्या कह रहीं हैं भाभी।" मैं बुरी तरह झेंप गया।

"आप नहीं बताना चाहते तो कोई बात नहीं।" वंदना भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"अच्छा ये तो बताइए कि अपनी होने वाली दुल्हन से आपने अच्छे से बात की या नहीं?"

उनके इस तरह पूछने पर मुझे शर्म सी महसूस हुई। जवाब में मैंने सिर्फ हां में सिर हिला दिया। मुझे समझ ही न आया कि क्या कहूं?

"अगर और बात करनी हो तो बेझिझक हो के बता दीजिए मुझे।" वंदना भाभी ने पूर्व की भांति ही मुस्कुराते हुए कहा____"इतनी दूर से मिलने आए हैं तो जी भर के देख लीजिए और जी भर के बातें कर भी लीजिए। वापस जाते समय मन में किसी तरह का मलाल नहीं रहना चाहिए।"

"ऐसी कोई बात नहीं है भाभी।" मैं शर्म तो महसूस कर ही रहा था किंतु साथ ही मुझे अजीब भी लग रहा था उनके ऐसा कहने पर____"उनसे मुझे जो कहना था कह चुका हूं।"

"तो क्या अब फिर से उनसे बात करने का अथवा उन्हें देखने का मन नहीं कर रहा आपका?" वंदना भाभी जैसे मुझे छेड़ने से बाज नहीं आ रहीं थी____"वैसे जब तक आपसे उनका ब्याह नहीं हो जाता तब तक तो वो आपकी भाभी ही हैं तो इसी नाते से आप उनसे बात कर सकते हैं।"

"उनकी जगह कोई और होता तो बेशक मैं बात करता और देखता भी।" मैंने कहा____"लेकिन उनसे मेरा बहुत ही साफ और पवित्र भावनात्मक रिश्ता रहा है। बड़ी मुश्किल से मैं उनसे अपने दिल की सच्चाई बता पाया हूं। अब अगर फिर से उनसे मिलने की बात कहूंगा तो जाने वो क्या सोच बैठेंगी मेरे बारे में। इस लिए मैं ऐसा कोई क़दम नहीं उठाना चाहता जिससे कि उन्हें मेरे किसी आचरण से धक्का लगे अथवा उनका मन दुखी हो जाए।"

"वाह! आप तो सच में बदल गए हैं महाराज।" वंदना भाभी ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"और यकीन मानिए आपका बदला हुआ ये रूप देख कर और अपनी भाभी के प्रति आपकी ये बातें सुन कर व्यक्तिगत रूप से मुझे बहुत ही अच्छा लगा है।"

"मैं नहीं जानता कि मैं कितना बदल गया हूं अथवा मुझमें कोई अच्छाई आई है या नहीं।" मैंने थोड़ा गंभीर हो कर कहा____"लेकिन इतना दावे के साथ कहता हूं कि मुझे अच्छा इंसान बनने के लिए मुझ पर ज़ोर डालने वाली मेरी भाभी ही थीं। हर क़दम पर मेरा मार्गदर्शन करने वाली वही थीं। मेरे अंदर हर किसी के प्रति कोमल भावनाएं पैदा करने वाली वही थीं। मेरी मुश्किलों को आसान बनाने वाली मेरी भाभी ही थीं। मेरे दुख में हद से ज़्यादा दुखी हो जाने वाली और मुझे अपने सीने से लगा कर मुझे सम्हालने वाली वहीं थी। मेरे मन में उनके प्रति बहुत ही ज़्यादा श्रद्धा भाव है। मैं अगर अपनी देवी समान भाभी के बारे में ग़लत ख़याल लाऊंगा तो समझिए इस धरती पर मुझसे बड़ा नीच और पापी कोई नहीं हो सकता। मेरी बस एक ही चाहत है कि मेरी भाभी हमेशा खुश रहें। उनकी खुशी के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं।"

"आपको ये सब कहने की ज़रूरत नहीं है महाराज।" वंदना भाभी ने अधीरता से कहा____"रागिनी के द्वारा मैं पहले ही आपके बारे में ये सब जान चुकी हूं और समझ चुकी हूं कि आप उनके प्रति क्या सोचते हैं। मेरी ननद का चरित्र शुरू से ही बेहद साफ और पवित्र रहा है। वो कभी किसी पर पुरुष का ख़याल अपने मन में नहीं लाईं। विधवा होने के बाद जब आपसे उनका ब्याह होने का उन्हें पता चला तो बहुत धक्का लगा था उन्हें। पिछले काफी दिनों से हम उन्हें हर तरह से समझाते आए हैं तब जा कर उन्हें इस रिश्ते के लिए राज़ी कर पाए हैं। वो यही कहती थीं कि जिसे उन्होंने हमेशा अपने देवर और अपने छोटे भाई की नज़र से देखा है उसको अचानक से पति की नज़र से कैसे देखूं? जब आपको पता चलेगा तो आप क्या सोचेंगे अपनी भाभी के बारे में? यही सब बातें सोचते हुए वो दुखी हो जातीं थी। मेरी भी यही दिली तमन्ना थी कि रागिनी जैसी उत्तम चरित्र वाली लड़की को उत्तम चरित्र वाला लड़का ही जीवन साथी के रूप में मिले। सच कहूं तो जिस तरह से आप बदल गए हैं और आपकी सोच तथा विचाराधारा इतनी अच्छी हो गई उससे मुझे बहुत खुशी हुई है। अब मुझे यकीन हो गया है कि उन्हें जिस तरह का जीवन साथी मिलना चाहिए था वो आपके रूप में मिल गया है।"

"आप मुझे बहुत ज़्यादा बड़ा बना रही हैं भाभी।" मैंने कहा____जबकि मैं अभी भी कुछ नहीं हूं। भाभी को अपनी पत्नी के रूप में पाना मेरा बहुत बड़ा सौभाग्य होगा लेकिन सच ये है कि मैं उनके लायक कभी नहीं हो सकता। वो आसमान का चमकता हुआ चांद हैं और मैं धरती में पड़ा एक मामूली सा कंकड़।"

"हाय! क्या बात कह दी आपने।" वंदना भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा____"काश! हमें भी कोई आसमान का चांद कहता।"

"वीरेंद्र भैया के लिए आप आसमान का चांद ही हैं भाभी।" मैंने सहसा हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"क्या वो आपको ऐसा नहीं कहते?"

"कैसे कहेंगे महाराज?" वंदना भाभी ने आह सी भरी____"आसमान में चांद तो एक ही होता है ना और वो चांद मेरी ननद रानी हैं जो आपको मिलने वाली हैं।"

मैं बस मुस्कुरा कर रह गया। मेरे अंदर अजीब सी गुदगुदी होने लगी थी। दिल में एक मीठा सा एहसास होने लगा था। आंखों के सामने भाभी का ख़ूबसूरत चेहरा चमक उठा।

थोड़ी देर और वंदना भाभी से बातें हुईं उसके बाद वो चली गईं। मैं भी पलंग पर वापस लेट कर उनकी बातों के बारे में सोचने लगा। अभी कुछ ही देर हुई थी कि अंदर से फिर कोई आ गया। मैंने आंखें खोल कर देखा तो कामिनी पर मेरी नज़र पड़ी।

"ओहो! आप हैं? कैसी हैं कामिनी जी?" मैंने उठ कर उससे पूछा___"आइए बैठिए।"

"वाह जी वाह! आज तो आप बड़ी इज्ज़त दे रहे हैं मुझे?" कामिनी ने हैरानी ज़ाहिर करते हुए कहा और फिर आ कर दूसरे पलंग पर मेरे सामने बैठ गई।

"इज्ज़त तो मैं पहले भी देता था आपको।" मैं हल्के से मुस्कुराया____"आपको ही ग़लत लगता था तो क्या करें?"

"ग़लत जो होता है वो ग़लत ही लगता है जीजा जी।" कामिनी ने कहा____"ख़ैर जाने दीजिए, वैसे आज आपने मुझे सच में हैरान कर दिया है।"

"अच्छा जी, मैंने ऐसा क्या कर दिया?" मैं चौंक सा गया।

"वंदना भाभी से आपने जो बातें की और जिस तरीके से की उन्हें सुन कर मैं सच में हैरान थी।" कामिनी ने कहा____"माफ़ कीजिए, वो मैं दरवाज़े के पीछे ही खड़ी आप दोनों की बातें सुन रही थी। वैसे अच्छा ही हुआ कि मैंने आपकी बातें सुनी वरना कैसे जान पाती कि आप कितना बदल गए हैं।"

"ऐसा शायद इस लिए हुआ है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"क्योंकि कामिनी जी से मोहब्बत करने पर मुझे उनकी मोहब्बत नहीं मिली। सुना है जब दिल टूट जाता है तो इंसान की सोच ऐसी ही हो जाती है।"

"ओह! ऐसा है क्या?" कामिनी मेरी उम्मीद के विपरीत मुस्कुरा उठी____"फिर तो ये अच्छा ही हुआ कि आपको मेरी मोहब्बत नहीं मिली और आपका दिल टूट गया। कम से कम इसी बहाने आप सुधर तो गए।"

"बहुत ज़ालिम हो आप।" मैंने कहा____"किसी का दिल तोड़ना अच्छी बात नहीं होती है।"

"अगर दिल तोड़ने से सामने वाला सुधर जाए और एक अच्छा इंसान बन जाए।" कामिनी ने कहा____"तो यकीन मानिए मैं सौ बार नहीं बल्कि हज़ारों बार दिल तोड़ने वाला ही काम करूंगी।"

"दिल तोड़ना हुस्न वालों की अदा होती है।" मैंने गहरी सांस ली____"और आप में वो अदा कूट कूट कर भरी हुई है। ख़ैर कोई बात नहीं, ये बताइए कि उस दिन आपने मुझसे झूठ क्यों बोला था?"

"झूठ???" कामिनी चौंकी____"मैंने क्या झूठ बोला था आपसे?"

"भाभी के ब्याह के बारे में ग़लत बताया था आपने मुझे।" मैंने शिकायती लहजे से कहा____"आपको तो पहले से ही सब पता था ना तो आपने मुझे उस दिन सब कुछ सच सच क्यों नहीं बताया था?"

"आपने पूछा ही नहीं।" कामिनी शरारती अंदाज़ से मुस्कुराई____"वैसे भी मैं तो ये देखना चाहती थी कि दीदी के ब्याह वाली बात सुन कर आप पर क्या असर होता है?"

"सच में बहुत ज़ालिम हो।" मैंने कहा____"एक बार भी नहीं सोचा कि आपकी उन बातों से मुझे दिल का दौरा भी पड़ सकता था।"

"अच्छा, क्या सच में?" कामिनी ने हल्के से हंस कर कहा____"ठाकुर वैभव सिंह इतने कमज़ोर दिल के हैं क्या?"

"हाय! राम।" अचानक सुलोचना देवी की इस आवाज़ से हम दोनों ही चौंके, उधर उन्होंने कामिनी से कहा____"कुछ तो शर्म कर। ये क्या बोल रही है अपने जीजा जी को?"

"मैंने ऐसा क्या बोल दिया मां?" कामिनी ने कहा____"मैं तो बस जीजा जी से थोड़ा मज़ाक कर रही थी।"

"अच्छा।" सुलोचना देवी ने उसे घूरा____"इसके पहले तो कभी मज़ाक नहीं करती थी इनसे। पहले तो हमेशा गुस्सा ही करती थी और इनसे झगड़ती ही रहती थी। अब अचानक से मज़ाक कैसे करने लगी तू?"

"लीजिए जीजा जी।" कामिनी ने मुझसे मुखातिब हो कर कहा____"आपकी सासू मां तो अभी से आपका पक्ष लेने लगीं। बेटी ने कुछ कहा भी नहीं फिर भी डांट मिल गई।"

"चुप कर।" सुलोचना देवी ने कहा____"और अंदर जा कर चाय बना अपने जीजा जी को। थोड़ी देर में वीरेंद्र भी आ जाएगा। उसे महाराज के साथ रुद्रपुर जाना है। दिन ढलते ही ठंड बढ़ने लगती है इस लिए समय रहते ये दोनों चले जाएंगे तो अच्छा रहेगा।"

कामिनी उठी और मुझे घूरते हुए अंदर चली गई। मैं उसके घूरने पर बस मुस्कुरा कर रह गया। मैं सच में इस बात से हैरान था कि कामिनी का मेरे प्रति बर्ताव अचानक से इस तरह नर्म कैसे हो गया था? इसके पहले तो उसका मुझसे छत्तीस का ही आंकड़ा रहता था।

"उसकी बातों का बुरा मत मानिएगा महाराज।" उधर सुलोचना देवी ने मुझसे बड़े ही प्रेम भाव से कहा____"वो बड़ी ज़रूर हो गई है लेकिन भेजे में रत्ती भर का भी दिमाग़ नहीं है उसमें।"

"अरे! नहीं मां जी।" मैंने कहा____"मुझे उनकी बातों का बिल्कुल भी बुरा नहीं लगा है। वैसे भी हम दोनों के बीच थोड़ी सी नोक झोंक ही चल रही थी। वैसे मैं इस बात से हैरान ज़रूर हूं कि इस समय वो मुझसे बड़े ही नर्म और तरीके से ही बातें करने लगी हैं। जबकि इसके पहले तो वो हमेशा मुझसे गुस्सा ही रहती थीं। मुझे समझ नहीं आ रहा कि अचानक से उनमें मेरे प्रति इतना बदलाव कैसे हो गया है?"

"मैं क्या बताऊं बेटा?" सुलोचना देवी ने कहा____"मुझे भी उसके बर्ताव से हैरानी हुई है। पता नहीं उसमें ये बदलाव कहां से और कैसे आ गया है? ख़ैर आप बैठिए, मैं ज़रा देखूं वो आपके लिए चाय बनाने गई भी है या अपने कमरे में लंबा तान कर लेट गई है?"

मैंने बस सिर हिला दिया जिसके बाद वो पलट कर अंदर की तरफ बढ़ गई। क़रीब दस मिनट बाद अंदर से किसी के आने की आहट हुई तो मैं सम्हल कर बैठ गया।

अगले कुछ ही पलों में मेरी उम्मीद के विपरीत रागिनी भाभी हाथ में ट्रे लिए आईं और मेरे सामने खड़ी हो गईं। मैं थोड़ी हैरानी से उनकी तरफ देखने लगा, उधर उनके चेहरे पर हल्के शर्म के भाव उभर आए थे।

"ए..ऐसे क्यों देख रहे हो?" उन्होंने धीमें स्वर में कहा तो मैं एकदम से हड़बड़ा सा गया और फिर खुद को सम्हालते हुए जल्दी ही उनसे नज़र हटा कर ट्रे में से चाय का कप उठा लिया।

"वो मां ने कहा कि मैं ही तुम्हें चाय देने जाऊं।" भाभी ने कहा____"इस लिए मुझे ही आना पड़ा।"

"ये तो बहुत ही अच्छा हुआ मेरे लिए।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"इसी बहाने कम से कम अपनी प्यारी सी भाभी को एक बार फिर से देख लिया मैंने।"

मेरी ये बात सुन कर भाभी ने शर्म के चलते अपनी नज़रें झुका लीं। उनके होठों पर इस बार बारीक सी मुस्कान उभर आई जिसे जल्दी ही उन्होंने छुपा लेने की नाकाम कोशिश की।

"एक बात पूछूं?" फिर उन्होंने हल्के से नज़रें उठा कर धीमें स्वर में मुझसे कहा।

"जी बिलकुल पूछिए।" मैंने धाड़ धाड़ बजते अपने दिल के साथ उनकी तरफ देखा____"आपको मुझसे कुछ भी पूछने के लिए इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है।"

"अ...अब भाभी क्यों कहते हो मुझे?" भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए थोड़े झिझक के साथ पूछा।

"तो क्या नहीं कहना चाहिए मुझे?" मैंने थोड़ी हैरानी से उन्हें देखा।

"ह...हमारे बीच एक दूसरा रिश्ता तय हो चुका है।" भाभी ने उसी झिझक के साथ कहा____"उस हिसाब से क्या अब तुम्हें मुझको भाभी कहना ठीक लगता है?"

"ओह! हां, पर अभी सिर्फ रिश्ता ही तो तय हुआ है।" मैंने अपलक उनकी तरफ देखते हुए कहा____"जिस दिन आपसे मेरा विवाह हो जाएगा उस दिन से आपको भाभी कहना बंद कर दूंगा।"

"हम्म्म्म।" भाभी ने धीमें से कहा____"फिर क्या कहा करोगे मुझे?"

"आपको जो सुनना अच्छा लगेगा वही कहूंगा।" मैंने धड़कते दिल से किंतु बड़े नम्र भाव से कहा____"हमारे बीच चाहे जो रिश्ता हो जाए अथवा चाहे जैसी भी परिस्थितियां आ जाएं मेरे मन में आपके लिए वैसा ही आदर सम्मान रहेगा जैसा हमेशा से रहा है।"

मेरी ये बात सुन कर भाभी अपलक देखने लगीं मुझे। उनके चेहरे पर कई तरह के भाव उभरे और फिर गायब होते नज़र आए। समंदर सी गहरी आंखों में कुछ झिलमिलाता हुआ नज़र आया मुझे।

"एक बात और।" मुझे सहसा कुछ याद आया तो मैंने कहा____"आप इस सबके बाद भी मुझे पूरे हक के साथ डांट सकती हैं, छेड़ सकती हैं, मेरी टांगें खींच सकती हैं और कहीं ग़लती करूं तो मेरी पिटाई भी कर सकती हैं।"

"य...ये क्या कह रहे हो?" भाभी का गला भर आया। पलक झपकते ही आंखों में आंसू तैरते नज़र आने लगे।

"मैं सिर्फ ये चाहता हूं कि आप हमेशा मेरे साथ सहज रहें।" मैंने अधीरता से कहा____"और वो सब कुछ करें जिससे आपको ख़ुशी मिले।"

भाभी ने अपनी दोनों आंखें बंद कर लीं। जैसे ही उनकी आंखें बंद हुईं तो आंसू के कतरे पलकों की झिरी से निकल कर उनके गुलाबी गालों पर टप्प से गिर आए जो एक लंबी लकीर भी बना गए। ये देख मैं एकदम से चौंका और थोड़ा घबरा भी गया।

"अरे! क्या हुआ आपको?" मैं उसी घबराहट में पूछ बैठा____"क्या मैंने कुछ ग़लत कह दिया आपको? अगर ऐसा है तो माफ़ कर दीजिए मुझे।"

"नहीं नहीं।" भाभी ने आंखें खोल कर झट से कहा____"तुमने कुछ ग़लत नहीं कहा है। ये...ये आंसू तो बस ये सोच के छलक पड़े हैं कि तुम इस सबके बाद भी मुझे इतना सम्मान दे रहे हो।"

"वो तो मैं हमेशा दूंगा।" मैंने कहा____"और मेरी भी आपसे एक विनती है कि आप भी मुझे कभी भटकने मत देना।"

मेरी बात सुन कर भाभी ने हां में सिर हिलाया। उनके चेहरे पर वेदना जैसे भाव उभर आए थे। मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे उनके अंदर बहुत कुछ चलने लगा था जिसे वो बड़ी मुश्किल से काबू में करने का प्रयास कर रहीं थी। ख़ैर कुछ ही देर में वो मेरा चाय का खाली कप ले कर चली गईं। इस बार भाभी से बातें करने में मुझे ज़्यादा झिझक नहीं हुई थी। एक अलग ही सुखद एहसास हो रहा था।

कुछ देर में वीरेंद्र सिंह खेतों से आ गया। हाथ मुंह धोने के बाद वो मेरे पास ही आ कर बैठ गया। कामिनी उसके लिए चाय ले आई। ऐसे ही थोड़ा और समय गुज़रा। वीरेंद्र के पिता जी, चाचा जी और उनके दोनों बेटे भी आ गए। थोड़ी देर इधर उधर की बातों के बाद चलने का समय हो गया। वीरेंद्र सिंह को क्योंकि मेरे साथ ही जाना था इस लिए वो जल्दी ही कपड़े पहन कर आ गया।

सभी घर वालों ने आ कर मेरे पांव छुए और विदाई दी। उसके बाद मैं और वीरेंद्र सिंह अपनी अपनी जीप में चल पड़े। पूरे रास्ते मैं भाभी से हुईं बातों और मुलाक़ातों के बारे में सोचता रहा और जाने कैसे कैसे अद्भुत एहसास में खोता रहा। क़रीब सवा घंटे में हम हवेली पहुंच गए।​
 
अध्याय - 154
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मेरे साथ वीरेंद्र सिंह को आया देख पिता जी थोड़ा हैरान से नज़र आए। उन्होंने बड़े ध्यान से मुझे और वीरेंद्र सिंह को देखा। उधर वीरेंद्र सिंह ने झुक कर पिता जी पांव छुए। मैं चुपचाप अंदर की तरफ चला गया।

जल्दी ही ये ख़बर हवेली के अंदर फैल गई कि चंदनपुर से रागिनी भाभी के बड़े भैया यानि वीरेंद्र सिंह आए हैं। मां तो लगभग भागते हुए मेरे पास आईं और फिर सारा हाल समाचार पूछने लगीं। ख़ास कर ये कि वीरेंद्र सिंह मेरे साथ किस सिलसिले में यहां आया है? मां के पूछने पर मैंने उन्हें बता दिया कि वो पिता जी को ये बताने आए हैं कि भाभी मेरे साथ ब्याह करने को राज़ी हो गईं हैं।

मेरे मुख से ये बात सुनते ही मां के चेहरे पर खुशी की चमक आ गई। इतने दिनों में पहली बार मैं उनके चेहरे को खुशी से जगमगा उठा देख रहा था। मां को इस बात की इतनी खुशी हुई कि वो खुद को सम्हाल न सकीं बल्कि फ़ौरन ही सबको बताने लगीं कि उनकी बेटी रागिनी ने ब्याह की मंजूरी दे दी है। मां की ये बात सुन कर मेनका चाची, कुसुम और निर्मला काकी के चेहरे भी खिल उठे।

बहरहाल, वीरेंद्र सिंह का स्वागत सत्कार शुरू हो चुका था। मैं ऊपर अपने कमरे में आ कर कपड़े बदल कर पलंग पर लेट गया। मैं सोचने लगा कि भाभी के राज़ी होने की बात सुन कर मां कितना खुश हो गईं हैं। आज काफी दिनों बाद उनके चेहरे पर सच्ची खुशी देखा था मैंने। ज़ाहिर है यही हाल पिता जी का भी हुआ होगा जब वीरेंद्र सिंह ने उन्हें ये बताया होगा कि उनकी बहन मुझसे ब्याह करने को राज़ी हो गई है।

अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी कमरे में कुसुम आ गई। मेरे पास आ कर उसने मुझे चाय दी और फिर मेरे पास ही बैठ गई। उसके चेहरे पर खुशी छाई हुई थी और होठों पर मुस्कान।

"क्या हुआ?" मैंने उसे मुस्कुराते हुए देखा तो पूछा____"किस बात से इतना मुस्कुरा रही है?"

"वो मैं ना बहुत खुश हूं इस लिए।" उसने अपने ही अंदाज़ में कहा____"आपको पता है सुबह जब आप चंदनपुर चले गए थे तो बड़ी मां ने सबको बताया कि भाभी का फिर से ब्याह करने का फ़ैसला किया है ताऊ जी ने। उनकी बात सुन कर हम सब बड़ा हैरान हुए। फिर जब मां ने उनसे पूछा कि भाभी का ब्याह कहां और किसके साथ करने का फ़ैसला किया गया है तो बड़ी मां ने बताया कि आपके साथ।"

"ओह! मतलब हवेली में ये बात बाकी सबको आज ही पता चली है?" मुझे बड़ी हैरानी हुई।

"हां।" कुसुम ने कहा____"बड़ी मां ने बताया कि ये सब अचानक से ही सोच कर फ़ैसला किया गया है। वो चाहते हैं कि भाभी का जीवन फिर से संवर जाए और वो खुश रहें इस लिए उनका ब्याह करने का फ़ैसला किया है उन्होंने। उनका आपसे ब्याह करने का फ़ैसला इस लिए किया गया है ताकि भाभी जैसी बहू हमेशा इस हवेली में ही रहें।"

"मुझे भी इस बारे में पहले कुछ नहीं पता था गुड़िया।" मैंने चाय का एक घूंट लेने के बाद कहा____"अभी कुछ दिन पहले ही मां से पता चला था। ख़ैर तू ये सब छोड़ और ये बता कि कल वहां तू मिली अपनी होने वाली भाभी से?"

"हां भैया।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"पहले तो उनके घर के बाकी लोगों से ही मिली फिर बाद में भाभी से मिली। भाभी मुझे अपने कमरे में ले गईं थीं।"

"ओह! तो फिर क्या बातें की तूने उससे?" मैंने उत्सुकतावश पूछा।

"मैंने तो बहुत सारी बातें की थी उनसे।" कुसुम ने कहा____"लेकिन अब याद नहीं कि क्या क्या बातें की थी मैंने, पर इतना याद है कि मैं ही बोले जा रही थी और वो बस हां हूं ही कर रहीं थीं।"

"वाह! क्या बात है।" मैं मन ही मन मुस्कुरा उठा____"मतलब तेरे सामने तेरी होने वाली भाभी की बोलती ही बंद थी?"

"अरे! ऐसा क्यों कह रहे हैं आप?" कुसुम एकदम से चौंक कर बोली____"उनकी बोलती नहीं बंद थी, वो तो मैं ही बोले जा रही थी इस लिए वो बेचारी हां हूं ही करती रहीं। सारी मेरी ही ग़लती थी, बाद में मुझे एहसास हुआ कि मुझे उनको भी बोलने का मौका देना चाहिए।"

"अच्छा ये तो बड़ी समझदारी दिखाई तूने।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"ख़ैर तो फिर तूने क्या उसे मौका दिया?"

"और तो नहीं क्या?" कुसुम ने हाथ झटकते हुए कहा____"मैंने उनसे कहा कि अब वो भी कुछ बोलें। तब फिर वो बोलीं, मेरा हाल चाल पूछने लगीं और भी बहुत कुछ। पूरा मुझे याद नहीं है।"

"ओह! चल कोई बात नहीं।" मैंने कहा____"तुझे ये तो याद है ना कि तुझे उससे मिल के कैसा लगा था?"

"अरे! मैं इतनी भी भुलक्कड़ नहीं हूं जितना आप समझ रहे हैं।" कुसुम ने पहले बुरा सा मुंह बनाया फिर खुश होते हुए बोली____"मुझे अपनी होने वाली भाभी से मिल के और उनसे बात कर के बहुत अच्छा लगा था। वैसे भैया ये कितनी हैरानी वाली बात है ना कि आपकी शादी दो दो से होगी। मतलब मेरे दो दो भाभियां हो जाएंगी।"

"अब क्या कहूं गुड़िया।" मैंने कहा____"तेरे नसीब में दो दो भाभियां ही लिखीं हैं।"

"मुझे तो इस बात की खुशी है भैया कि मेरी सबसे अच्छी वाली भाभी का फिर से ब्याह होगा।" कुसुम ने खुशी से चहकते हुए कहा____"और वो फिर से नई नवेली दुल्हन बन कर और मेरी भाभी बन कर इस हवेली में आ जाएंगी। वैसे उनसे आपकी शादी कब होगी भैया?"

"मुझे क्या पता?" मैंने कहा____"इस बारे में मां और पिता जी ही जानें।"

थोड़ी देर बाद कुसुम चाय का खाली कप ले कर चली गई। उसके जाने के बाद मैं भी आराम से पलंग पर लेट गया और अपनी होने वाली दो दो बीवियों के बारे में सोचने लगा।

✮✮✮✮

बैठक में वीरेंद्र सिंह से बातें हो ही रहीं थी कि तभी दरबान ने आ कर कहा कि ठाकुर महेंद्र सिंह आए हैं। दादा ठाकुर के कहने पर दरबान फ़ौरन ही बाहर गया और फिर कुछ ही पलों में वो महेंद्र सिंह को ले के आ गया।

महेंद्र सिंह का इस वक्त यूं अचानक से आ जाना दादा ठाकुर के मन में कई तरह के विचार पैदा कर गया था। बहरहाल उन्होंने एक नौकरानी को बुला कर महेंद्र सिंह के लिए चाय लाने को कहा।

"और बताइए मित्र?" दादा ठाकुर ने महेंद्र सिंह से मुखातिब हो कर कहा____"शाम के इस वक्त अचानक से यहां कैसे आना हुआ? सब ठीक तो है ना?"

"सब ठीक ही है ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने मुस्कुराते हुए कहा____"इस वक्त आपके पास हम एक ख़ास सिलसिले में आए हैं। असल में बात ये है कि आज हमारे छोटे भाई ज्ञानेंद्र के बेटे का जन्मदिन है। आज से वो दो साल का हो गया है। हम घर पर थे नहीं क्योंकि एक ज़रूरी काम से कहीं गए हुए थे और वापस लौटने की भी उम्मीद नहीं थी। इस चक्कर में ज्ञानेंद्र ने अपने बेटे के जन्मदिन पर कोई ख़ास कार्यक्रम भी नहीं रखा था। अभी एक घंटे पहले जब हम वापस आ गए तो हमें इस सबका पता चला। हमारे ही ज़ोर देने पर जल्दी जल्दी में कार्यक्रम का आयोजन शुरू किया गया। इस खुशी के मौके पर हमारे मित्र यानि आप ना हों ऐसा हो ही नहीं सकता था इस लिए हम फ़ौरन ही आपको लेने यहां आ गए।"

"ओह! ये तो बड़ी खुशी की बात है मित्र।" दादा ठाकुर ने मन ही मन राहत की सांस लेते हुए कहा____"हम ज़रूर आपके साथ बच्चे के जन्मदिन पर चलेंगे और आप सबकी ख़ुशी पर शरीक होंगे।"

"हमें आपसे यही उम्मीद थी ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने खुश हो कर कहा____"आप हमेशा हमारे आग्रह पर हमारी खुशी में शामिल होते रहे हैं। माना कि पिछले कुछ समय से हालात ठीक नहीं थे जिसके चलते आप थोड़ा व्यथित थे किंतु फिर भी हमें पूरी उम्मीद थी कि आप हमारे आग्रह को ठुकराएंगे नहीं।"

"इंसान के जीवन में सुख दुख और उतार चढ़ाव तो बने ही रहते हैं मित्र।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ले कर कहा____"पिछले कुछ समय से हम सब जिस तरह के हालातों में घिरे हुए थे उससे यकीनन बहुत प्रभाव पड़ा है लेकिन अब तो जैसे इसके आदी हो गए हैं हम। ख़ैर, हम आपके साथ ज़रूर चलेंगे।"

"हमारा आपसे एक और आग्रह है ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"और वो ये कि रात आप हमारे यहां ही रुकेंगे। बात ये है कि कार्यक्रम को देखने सुनने में रात ज़्यादा गुज़र जाएगी जिसके चलते आपका रात के उस समय वापस लौटना उचित नहीं होगा। इस लिए हम चाहते हैं कि रात आप हमारे यहां ही गुजारें। सुबह नाश्ता पानी करने के बाद आप वापस आ जाइएगा यहां।"

"वैसे तो हमें रात के किसी भी वक्त वापस लौटने में कोई समस्या नहीं होगी मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन आप कहते हैं तो हम आपके यहां ही रुक जाएंगे।"

कुछ देर और इधर उधर की बातें हुईं उसके बाद महेंद्र सिंह के कहने पर दादा ठाकुर उठ कर बैठक से तैयार होने के लिए अंदर अपने कमरे की तरफ बढ़ गए। क़रीब पंद्रह मिनट बाद वो आए।

"किशोरी लाल जी यहां सभी का ख़याल रखिएगा।" दादा ठाकुर किशोरी से कहने के साथ ही वीरेंद्र सिंह से मुखातिब हुए____"और बेटा तुम कुछ दिन यहीं रुकोगे। हम कल सुबह जल्द ही वापस आने का प्रयास करेंगे।"

"माफ़ कीजिए दादा ठाकुर जी लेकिन मैं यहां रुक नहीं सकूंगा।" वीरेंद्र सिंह ने थोड़ा झिझक के साथ कहा____"आप तो जानते हैं कि खेती बाड़ी में सब कुछ मुझे ही देखना पड़ता है। पिता जी घुटने के बात के चलते ज़्यादा मेहनत वाला काम नहीं कर पाते हैं। वैसे भी इस समय खेतों में जंगली जानवर और मवेशियों ने बहुत उत्पात मचा रखा है जिसके चलते रात में भी रखवाली करनी पड़ती है। आप जाएं, मैं सुबह आपके आने तक यहीं रुका रहूंगा। उसके बाद ही यहां से जाऊंगा।"

"अगर ऐसी बात है तो फिर हम तुम्हें रुकने के लिए ज़ोर नहीं देंगे।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर, तुम किशोरी लाल जी के पास बैठो और बातें करो, या फिर अंदर बाकी सबसे मिलो। हम अब जा रहे हैं, सुबह जल्दी ही वापस आने की कोशिश करेंगे।"

कहने के साथ ही दादा ठाकुर बैठक से बाहर निकल गए। उनके पीछे महेंद्र सिंह भी चल पड़े। थोड़ी ही देर में दादा ठाकुर महेंद्र सिंह की जीप में बैठ कर चले गए।

✮✮✮✮

रागिनी अपनी भाभी वंदना के साथ रसोई में सबके के लिए खाना बनाने में उनका हाथ बंटा रही थी। जब से रागिनी आई थी तब से ज़्यादातर वही वंदना के साथ रसोई में खाना बनाने में हाथ बंटाती थी। इसके पहले कामिनी अपनी भाभी का हाथ बंटाया करती थी। शुरुआत में जब रागिनी रसोई में आई तो कामिनी ने उसको काम करने से मना किया था लेकिन रागिनी ने कहा कि अब से वो आराम करे और वो खुद अपनी भाभी के साथ सबके लिए खाना बनाया करेगी।

कामिनी शुरू से ही अपनी रागिनी दीदी को बहुत चाहती थी। ऊपर वाले ने जब उसकी दीदी पर इतना बड़ा दुख बरपाया तो उसे भी बहुत दुख हुआ था। उसका बड़ा भाई वीरेंद्र सिंह जब रागिनी को यहां ले कर आया था तो रो रो कर सबका बुरा हाल हो गया था। उसकी मां सुलोचना देवी को तो शहर ही ले जाना पड़ गया था। आख़िर बड़ी मुश्किल से सब सम्हले थे। सब रागिनी का ख़याल रखते थे। कामिनी ज़्यादातर अपनी दीदी के साथ ही रहने की कोशिश करती थी और उसका मन बहलाने की कोशिश करती थी। वैभव से रागिनी का ब्याह होने की बात जब उसको पता चली थी तो उसे बड़ा तेज़ झटका लगा था। हालाकि उसके मन में वैभव के बारे में जो छवि बनी हुई थी वो अब बहुत हद तक मिट चुकी थी। ऐसा इस लिए क्योंकि रागिनी के द्वारा उसको पता चल चुका था कि वैभव अब पहले जैसा नहीं रहा। अपनी दीदी के साथ रहने से उसे वैभव से संबंधित बहुत सी ऐसी बातों का पता चल गया था।

कामिनी को जब रागिनी ने ये बताया था कि वैभव अनुराधा नाम की एक लड़की से बहुत ज़्यादा प्रेम करता था और उससे ब्याह भी करना चाहता था तो उसको बड़ा आश्चर्य हुआ था। फिर जब रागिनी ने ये बताया कि अभी कुछ समय पहले ही अनुराधा की हत्या हो चुकी है तो कामिनी को ये सुन कर झटका लगा था और साथ ही वैभव के प्रति सहानुभूति भी हुई थी। रागिनी ने उसे रूपा के बारे में भी सब कुछ बताया था। ये सारी बातें सुनने के बाद कामिनी शुरू शुरू में बहुत हैरान होती थी। ऐसे ही धीरे धीरे उसके मन से वैभव के प्रति नफ़रत ख़त्म हो गई थी। वो चकित थी कि वैभव जैसा लड़का जो हमेशा अय्याशियां ही करता था वो इस क़दर बदल गया था। यही वजह थी कि जब वैभव यहां आया तो उसने उसे ख़ुद परखना चाहा था।

"अब तक तो तुम्हारे सास ससुर को पता चल ही चुका होगा कि तुम वैभव के साथ ब्याह करने के लिए राज़ी हो गई हो।" वंदना ने हल्के से मुस्कुराते हुए रागिनी से कहा____"मुझे यकीन है कि तुम्हारे भैया के मुख से ये ख़बर सुनने के बाद वहां सब लोग बहुत ही ज़्यादा खुश हो गए होंगे।"

वंदना की ये बातें सुन कर रागिनी कुछ न बोली। कदाचित उसे समझ ही नहीं आया कि क्या कहे? ये अलग बात है कि उसके सुंदर चेहरे पर लाज की हल्की सुर्खी छा गई थी।

"क्या हुआ?" वंदना ने उसी मुस्कान के साथ कहा____"अब चुप मत रहो मेरी लाडो। कुछ तो बोलो, मेरे होने वाले जीजा जी के बारे में सोच कर अब कैसा महसूस होता है तुम्हें?"

"क्या भाभी, कुछ भी बोलती हैं आप?" रागिनी बुरी तरह झेंपते हुए बोल पड़ी। चेहरे पर छाई लाज की सुर्खी में पलक झपकते ही इज़ाफा हो गया।

"अच्छा जी।" वंदना की आंखें फैलीं____"तो अब मैं कुछ भी बोल रही हूं...हां?"

"और नहीं तो क्या।" रागिनी ने खुद को सम्हालते हुए कहा____"मैंने इस रिश्ते के लिए मंजूरी दी है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि मैं किसी के बारे में कुछ सोचने लगी हूं। मेरे लिए तो अभी भी उस बारे में सोचना बहुत ही ज़्यादा असहज करने वाला और शर्मिंदगी भरा है।"

"अब छोड़ो भी रागिनी।" वंदना ने कहा____"यूं बहाने मत बनाओ। मैं अच्छी तरह जानती हूं कि तुमने इस रिश्ते को मंजूरी तभी दी है जब तुमने इस रिश्ते के लिए खुद को पूरी तरह से तैयार कर लिया है। इस वक्त तुम ऐसा इस लिए कह रही हो क्योंकि तुम्हें इस बारे में बात करने से शर्म आ रही है। कह दो भला कि ये सच नहीं है?"

रागिनी बगले झांकने लगी। शर्म से उसका चेहरा जो पहले से ही सुर्ख पड़ा हुआ था वो और भी ज़्यादा लाल पड़ गया। वंदना उसकी ये हालत देख कर बरबस ही मुस्कुरा उठी। उसे अपनी ननद रागिनी पर बहुत ज़्यादा प्यार आया। वो जानती थी कि रागिनी के लिए इस रिश्ते को स्वीकार करना बहुत ही मुश्किल था। इसके बावजूद अगर उसने इस रिश्ते को स्वीकार किया था तो ज़ाहिर है कि उसमें उसने सबकी खुशी का सबसे ज़्यादा ख़याल किया था। वैभव को पति की नज़र देखना अभी भी उसके लिए शायद आसान नहीं है।

"ओह! मेरी रागिनी।" वंदना लपक कर उसके क़रीब आई और उसे कंधों से पकड़ कर बड़े स्नेह से बोली____"तुम्हें मेरे सामने इतना लजाने की अथवा असहज महसूस करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मेरा यकीन करो, मैं इस रिश्ते के संबंध में तुम्हारे बारे में कोई भी ग़लत बात नहीं सोचती हूं। सच तो ये है कि मैं तुम्हारे लिए बहुत ज़्यादा खुश हूं। तुम्हें अपनी ननद से ज़्यादा मैंने हमेशा अपनी सहेली समझा था और ये बताने की ज़रूरत नहीं है कि ब्याह से पहले हम दोनों की आपस में कितनी पटती थी।"

"हां जानती हूं भाभी।" रागिनी ने पलकें उठा कर उसे देखा____"और मुझे हमेशा आपके जैसी भाभी के साथ साथ आपके जैसी सहेली मिलने की खुशी थी।"

"इसी लिए कहती हूं कि इस वक्त तुम्हें ऐसा वैसा कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं है।" वंदना ने बड़े प्यार से कहा____"वैभव के प्रति जो भी तुम्हारे मन में हो वो तुम मुझसे बेझिझक हो कर बता सकती हो। वैसे भी अब तो तुमने खुद ही इस रिश्ते को मंजूरी दे दी है तो अब कैसा शर्माना और कैसी झिझक?"

"कहती तो आप ठीक हैं भाभी।" रागिनी ने कहा____"लेकिन जाने क्यों अभी भी मैं खुद को इसके लिए सहज नहीं महसूस कर रही हूं।"

"फ़िक्र मत करो।" वंदना ने कहा____"धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा। असल में बात ये है कि तुम अभी भी वैभव को अपने देवर की ही नज़र से सोचती हो और यही वजह है कि तुम्हें बहुत अजीब महसूस होता होगा और साथ ही शर्म भी महसूस होती होगी। मेरा तुमसे यही कहना है कि अब जब तुम उनसे विवाह करने के लिए राज़ी हो गई हो तो तुम्हें वैभव को अपने देवर की नज़र से नहीं बल्कि एक ऐसे लड़के की नज़र से देखना चाहिए जिससे तुम्हारा विवाह होना तय हो चुका है। बिल्कुल ही भूल जाओ कि वैभव तुम्हारे देवर हैं या उनसे तुम्हारा क्या रिश्ता रहा है।"

"कोशिश कर रही हूं भाभी।" रागिनी ने धीमें से कहा____"हर वक्त अपने आपको यही सोच कर समझाती हूं लेकिन हर बार मन में यही ख़याल उभर आता है कि वो मेरे देवर थे और मैं उनकी भाभी। हम दोनों के बीच भावनाओं और मर्यादा का एक पवित्र रिश्ता था।"

"हां मैं समझती हूं।" वंदना ने कहा____"तुम्हारे जैसी उत्तम चरित्र वाली लड़की के लिए ये सब भुला देना इतना आसान नहीं है लेकिन तुम्हें भी पता है कि अब भूल जाने में ही भलाई है। अगर भूलोगी नहीं तो उसके साथ पति पत्नी के रूप में रहना भी आसान नहीं होगा।"

रागिनी को समझ ना आया कि क्या कहे? हालाकि ये बातें अब वो भी सोचने लगी थी और खुद को इसके लिए समझाती भी थी लेकिन अब इसका क्या किया जाए कि उसका मन घूम फिर कर फिर से वहीं पर आ कर ठहर जाता था।

"वैसे आज मैंने भी तुम्हारी और वैभव की बातें सुनी थी।" वंदना ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"और उनके मुख से जो कुछ तुम्हारे लिए सुना उससे मैं दावे के साथ कह सकती हूं वो तुम्हें बहुत ज़्यादा चाहते हैं। तभी तो तुम्हारी खुशी के लिए वो कुछ भी करने की बात कर रहे थे। उनकी नज़र में तुम्हारी अहमियत क्या है ये भी सुना था मैंने।"

"क...क्या सच में आपने ये सब सुना था?" रागिनी ने आश्चर्य और घबराहट के मिले जुले भाव से कहा____"हाय राम! आप छुप के हमारी बातें सुन रहीं थी उस वक्त?"

"हां तो क्या हो गया?" वंदना ने हल्के से हंसते हुए कहा____"असल में मैं बड़ा उत्सुक थी ये जानने के लिए कि तुम्हारे ब्याह की बात जान लेने के बाद वैभव महाराज तुमसे अब क्या बातें करेंगे? मुझे नहीं पता था कि वो इस क़दर दुखी और संजीदा हो जाएंगे।"

रागिनी को बहुत ज़्यादा शर्म आई। ऐसा नहीं था कि वैभव ने अपनी बातों में उसको कुछ ऐसा वैसा कहा था लेकिन फिर भी जाने क्यों उसको शर्म महसूस हुई। पता नहीं क्या सोच बैठी थी वो।

"मुझे तो सोच के ही गुदगुदी होती है कि जो व्यक्ति पहले से ही तुम्हें इतना पसंद करता रहा है और इतना चाहता रहा है।" वंदना ने मुस्कुराते हुए कहा____"वो तब कितना तुम्हें चाहेगा जब तुम उनकी पत्नी बन कर उनके घर पहुंच जाओगी? मुझे तो ऐसा लगता है कि तब उनकी चाहत की पराकाष्ठा ही हो जाएगी।"

"हाय राम! बस भी कीजिए भाभी।" रागिनी का मारे शर्म के बुरा हाल हो गया____"ये क्या क्या बोले जा रही हैं आप?"

"उफ्फ! क्या बताऊं मेरी लाडो।" वंदना ने उसके दोनों हाथ पकड़ कर खींचा और फिर उसको ज़बरदस्ती गोल गोल घुमाते हुए बोली____"विवाह तुम्हारा होने वाला है और विवाह के बाद जो होगा उसका एहसास मुझे हो रहा है।"

रागिनी उसकी बात सुन कर और भी बुरी तरह शर्मा गई। जब उसे बर्दास्त न हुआ तो उसने वंदना से अपने हाथ छुड़ाए और रसोई से बाहर की तरफ जाने लगी। उसको यूं भाग कर जाते देख वंदना पीछे से थोड़ा ऊंचे स्वर में बोली____"आज रात इसी तरह के हसीन ख़्वाब देखना मेरी प्यारी ननद रानी।"

रागिनी तब तक रसोई से का चुकी थी लेकिन वंदना को पूरा यकीन था कि उसने उसका ये वाक्य ज़रूर सुन लिया होगा। बहरहाल, रागिनी को शर्म के मारे यूं भाग गई देख वंदना हल्के से हंसने लगी थी। फिर एकदम से उसने मन ही मन ऊपर वाले को याद कर के कहा____"हे ऊपर वाले! अब कुछ भी बुरा मत करना मेरी ननद के साथ।"​
 
अध्याय - 155
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रागिनी तब तक रसोई से का चुकी थी लेकिन वंदना को पूरा यकीन था कि उसने उसका ये वाक्य ज़रूर सुन लिया होगा। बहरहाल, रागिनी को शर्म के मारे यूं भाग गई देख वंदना हल्के से हंसने लगी थी। फिर एकदम से उसने मन ही मन ऊपर वाले को याद कर के कहा____"हे ऊपर वाले! अब कुछ भी बुरा मत करना मेरी ननद के साथ।"

अब आगे....


वीरेंद्र सिंह के आने से और उसके द्वारा रागिनी भाभी के राज़ी हो जाने की बात सुन लेने से मां बहुत ज़्यादा खुश थीं। जगताप चाचा और मेनका चाची के दिए हुए झटके और दुख को जैसे वो एक ही पल में भूल गईं थी। आज काफी दिनों बाद मैं उनके चेहरे पर खुशी की असली चमक देख रहा था।

सबको पता चल चुका था कि रागिनी भाभी मुझसे विवाह करने को राज़ी हो गईं हैं। कुसुम कुछ ज़्यादा ही खुशी से उछल रही थी। उधर मेनका चाची भी खुश थीं, ये अलग बात है कि कभी भी उनके चेहरे पर दुख और पीड़ा के भाव उभर आते थे। कदाचित उन्हें अपने और जगताप चाचा द्वारा किए गए कर्म याद आ जाते थे जिसके चलते वो दुखी हो जातीं थी।

रसोई में वीरेंद्र सिंह के लिए बढ़िया बढ़िया पकवान बन रहे थे। आम तौर पर मां रसोई में कम ही जातीं थी लेकिन आज वो रसोई में ही मौजूद थीं। निर्मला काकी और मेनका चाची दोनों ही पकवान बनाने में लगी हुईं थी। मेनका चाची सब कुछ वैसा ही करती जा रहीं थी जैसा मां कहती जा रहीं थी। कुसुम और कजरी बाकी के छोटे मोटे काम में उनकी मदद कर रहीं थी।

इधर मैं अपने कमरे से निकल कर सीधा बैठक में आ गया था, जहां पर किशोरी लाल और वीरेंद्र सिंह बैठे हुए थे। बैठक में काफी देर तक हमारी आपस में दुनिया जहान की बातें होती रहीं। उसके बाद जब अंदर से कुसुम ने आ कर हम सबको खाना खाने के लिए अंदर चलने को कहा तो हम सब बैठक से उठ गए।

गुसलखाने से स्वच्छ होने के बाद मैं, वीरेंद्र भैया और किशोरी लाल भोजन करने बैठे। मेनका चाची और निर्मला काकी ने हम सबके सामने थाली रखी। सच में काफी अच्छा भोजन नज़र आ रहा था। खाने की खुशबू भी बहुत बढ़िया आ रही थी। हम सबने खाना शुरू किया। पिता जी नहीं थे इस लिए खाने के दौरान थोड़ी बहुत इधर उधर की बातें हुईं। खाने के बाद हम सब उठे।

अब सोने का समय था इस लिए मैं वीरेंद्र सिंह को मेहमान कक्ष में ले गया और वहां पर उसको सोने को कहा। वीरेंद्र सिंह उमर में मुझसे बहुत बड़ा था इस लिए मेरी उससे ज़्यादा बातें नहीं हुईं। वैसे भी ये जो नया रिश्ता बन गया था उसके चलते मैं उसके सामने थोड़ा संकोच और झिझक महसूस करने लगा था। मैंने उसको आराम से सो जाने को कहा और सुबह मिलने का कह कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।

✮✮✮✮

महेंद्र सिंह की हवेली में काफी चहल पहल थी। रात के समय हवेली में काफी रौनक नज़र आ रही थी। गांव में बिजली का कोई भरोसा नहीं रहता था इस लिए ज्ञानेंद्र सिंह शहर से जनरेटर ले आया था ताकि हवेली के अंदर और बाहर पर्याप्त मात्रा में रोशनी रहे। कम समय में जितना इंतज़ाम किया जा सकता था उससे ज़्यादा ही किया था ज्ञानेंद्र सिंह ने।

ज्ञानेंद्र सिंह के बेटे का जन्मदिन था इस लिए ख़ास ख़ास लोगों को ही बुलाया गया था जिनमें से सर्व प्रथम दादा ठाकुर यानि ठाकुर प्रताप सिंह ही थे। ज्ञानेंद्र सिंह के भी कुछ ख़ास मित्रगण थे। महेंद्र सिंह ने अर्जुन सिंह को भी बुलवाया था।

हवेली के बाहर लंबे चौड़े मैदान में चांदनी लगी हुई थी। उसी के नीचे एक मंच बनाया गया था। नाच गाने का प्रबंध था जिसके लिए ज्ञानेंद्र सिंह ने शहर से कलाकार बुलाए थे। दूसरी तरफ हवेली के अंदर एक बड़े से हाल में अलग ही नज़ारा था। पूजा तो दिन में ही हो गई थी किंतु रात में मेहमानों को भोजन कराने के लिए हाल में ही बढ़िया व्यवस्था की गई थी। एक बड़ी सी आयताकार मेज़ थी जिसके दोनों तरफ लकड़ी की कुर्सियां लगी हुईं थी। मेज़ पर नई नवेली चादर बिछी हुई थी और बड़ी सी मेज में थोड़ी थोड़ी दूरी के अंतराल में ख़ूबसूरत फूलों के छोटे छोटे गमले रखे हुए थे जिनकी महक दूर तक फैल रही थी।

सभी मेहमान आ चुके थे। सब दादा ठाकुर से मिले और उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। दादा ठाकुर की मौजूदगी सबके लिए जैसे बहुत ही ख़ास थी। सब जानते थे कि दादा ठाकुर कितनी महान हस्ती हैं। बहरहाल, मिलने मिलाने के बाद महेंद्र सिंह ने सबसे पहले सभी से भोजन करने का आग्रह किया, उसके बाद नाच गाना देखने का।

भोजन वाकई में बहुत स्वादिष्ट बना हुआ था। सभी मेहमानों ने भर पेट खाया और फिर बाहर मंच पर आ गए। मंच के ऊपर मोटे मोटे गद्दे बिछे हुए थे और उनके पीछे मोटे मोटे तकिए रखे हुए थे। मंच काफी विशाल था जिसके चलते सभी ख़ास मेहमान बड़े आराम से उसमें आ सकते थे। मंच के नीचे एक बड़े से घेरे में नाचने वाली कई लड़कियां मौजूद थीं। उनके एक तरफ संगीत बजाने वाले कुछ कलाकार बैठे हुए थे। उसके बाद बाकी का जो मैदान था उसमें गांव के लोगों की भीड़ जमा थी जो नाच गाना देखने आए थे।

ऐसा नहीं था कि दादा ठाकुर को नाच गाना पसंद नहीं था लेकिन उन्हें ये तब पसंद आता था जब ये सब मर्यादा के अनुकूल हो। ज़्यादातर वो शास्त्रीय संगीत सुनना पसंद करते थे। उनके पिता के समय में जो नाच गाना होता था वो बहुत ही ज़्यादा अमर्यादित होता था जिसे वो कभी पसंद नहीं करते थे। यहां पर ज्ञानेंद्र सिंह ने जो कार्यक्रम शुरू करवाया था वो कुछ हद तक उन्हें पसंद था, हालाकि लड़कियों का अभद्र तरीके से नाचना उन्हें ज़रा भी पसंद नहीं आ रहा था लेकिन ख़ामोशी से इस लिए बैठे हुए थे कि वो नहीं चाहते थे कि उनकी वजह से महेंद्र सिंह और ज्ञानेंद्र सिंह की खुशियों पर कोई खलल पड़े। दूसरी वजह ये भी थी कि वो इसी बहाने कुछ देर के लिए अपने अंदर की पीड़ा को भूल जाना चाहते थे।

बहरहाल नाच गाना चलता रहा। लोग ये सब देख कर खुशी से झूमते रहे। वातावरण में संगीत कम लोगों का शोर ज़्यादा सुनाई दे रहा था। आख़िर दो घण्टे बाद नाच गाना बंद हुआ और सभी मेहमान जाने लगे। महेंद्र सिंह के आग्रह पर अर्जुन सिंह भी रुक गए। दादा ठाकुर और अर्जुन सिंह को मेहमान कक्ष में सोने की व्यवस्था थी।

अर्जुन सिंह जब अपने कमरे में सोने लगे तो महेंद्र सिंह दादा ठाकुर के कमरे में आए। दादा ठाकुर पलंग पर लेट चुके थे और खुली आंखों से कुछ सोच रहे थे। महेंद्र सिंह को आया देख वो उठे और अधलेटी सी अवस्था में आ गए।

"हमने आपको तकलीफ़ तो नहीं दी ना ठाकुर साहब?" महेंद्र सिंह ने बड़े नम्र भाव से पास ही रखी एक कुर्सी पर बैठते हुए पूछा____"असल में सबके बीच आपसे ज़्यादा बातें करने का अवसर ही नहीं मिला।"

"ऐसी कोई बात नहीं है मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"हमें भी अभी नींद नहीं आ रही थी। अच्छा हुआ आप आ गए।"

"काफी समय से हम आपसे एक बात कहना चाहते थे लेकिन फिर कहने का मौका ही नहीं मिला।" महेंद्र सिंह ने थोड़ी गंभीरता अख़्तियार करते हुए कहा____"हालात कुछ ऐसे हो गए जिनकी आपके साथ साथ हमने भी कभी कल्पना नहीं की थी। उन हालातों में हमने उस बात को आपसे कहना उचित नहीं समझा था। अब जबकि सब कुछ ठीक हो गया है तो हम सोचते हैं कि आपसे वो बात कह ही दें। शायद इससे बेहतर मौका हमें कहीं और ना मिले।"

"बिल्कुल कहिए मित्र।" दादा ठाकुर ने सामान्य भाव से कहा____"हम भी जानना चाहते हैं कि ऐसी कौन सी बात है जिसे कहने के लिए हमारे मित्र को इतना इंतज़ार करना पड़ा?"

"उस बात को कहने में हमें थोड़ा झिझक हो रही है ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने सच में झिझकते हुए कहा____"लेकिन दिल यही चाहता है कि आपसे अपने मन की बात कह ही दें। हमारी आपसे गुज़ारिश है कि आप बेहद शांत मन से हमारी वो बात सुन लें उसके बाद आपका जो भी फ़ैसला होगा उसे हम अपने सिर आंखों पर रख लेंगे।"

"आपको अपने दिल की कोई भी बात हमसे कहने में झिझकने की आवश्यकता नहीं है।" दादा ठाकुर ने कहा____"आप हमारे मित्र हैं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि आप हमसे जो भी कहेंगे अच्छा ही कहेंगे।"

"हमारी मंशा तो यही है ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"और यकीन मानिए, हमारे मन में आपके लिए ना पहले कभी कोई ग़लत ख़याल आया था और ना ही कभी आ सकता है।"

"आपको ये सब कहने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है।" दादा ठाकुर ने अधीरता से कहा____"हम अच्छी तरह जानते हैं कि आप हमारे ऐसे मित्र हैं जिन्होंने जीवन में कभी भी हमारे लिए ग़लत नहीं सोचा। आप अपनी बात बेफ़िक्र हो कर और बेझिझक हो के कहिए। हम आपको वचन देते हैं कि हम आपकी बात पूरी शांति से और पूरे मन से सुनेंगे।"

"आपका बहुत बहुत धन्यवाद ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने जैसे मन ही मन राहत की सांस लेते हुए कहा____"बात दरअसल ये है कि हम काफी समय से आपसे ये कहना चाहते थे कि क्यों न हम अपनी मित्रता को एक हसीन रिश्ते में बदल लें। स्पष्ट शब्दों में कहें तो ये कि हम अपने बेटे राघवेंद्र का विवाह आपकी भतीजी कुसुम के साथ करने की हसरत रखते हैं। क्या आप हमारी मित्रता को ऐसे हसीन रिश्ते में बदलने की कृपा करेंगे? हम जानते हैं कि आपसे हमने ऐसी बात कह दी है जिसे आपसे कहने की हमारी औकात नहीं है लेकिन फिर भी एक मित्र होने के नाते आपसे अपने बेटे के लिए आपकी भतीजी का हाथ मांगने की गुस्ताख़ी कर रहे हैं।"

महेंद्र सिंह की ये बातें सुन कर दादा ठाकुर फ़ौरन कुछ बोल ना सके। चेहरे पर हैरानी के भाव लिए वो कुछ सोचते नज़र आए। ये देख महेंद्र सिंह की धड़कनें रुक गईं सी महसूस हुई।

"क...क्या हुआ ठाकुर साहब?" महेंद्र सिंह ने घबराए से लहजे में पूछा____"क्या आपको हमारी बातों से धक्का लगा है? देखिए अगर आपको हमारी बातों से चोट पहुंची हो तो हमें माफ़ कर दीजिए।"

"नहीं नहीं मित्र।" दादा ठाकुर ने अधीरता से कहा____"आप माफ़ी मत मांगिए। आपकी बातों से हमें बिलकुल भी चोट नहीं पहुंची है लेकिन हां, धक्का ज़रूर लगा है। धक्का इस बात का लगा है कि जो बात कभी हम आपसे कहना चाहते थे वही बात आज आपने खुद ही हमसे कह दी।"

"ये...ये क्या कह रहे हैं आप?" महेंद्र ने अविश्वास भरे भाव से कहा____"हमारा मतलब है कि क्या सच में आप हमसे ऐसा कहना चाहते थे?"

"हां मित्र।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"ये तब की बात है जब हमारे परिवार के सदस्यों पर वैसे संकट जैसे हालात नहीं थे जैसों से जूझ कर हम सब यहां पहुंचे हैं और इतना ही नहीं उनमें हमने अपनों को भी खोया। ख़ैर कुसुम भले ही हमारे छोटे भाई जगताप की बेटी थी लेकिन उसको हम अपनी ही बेटी मानते आए हैं। हमारे मन में कई बार ये ख़याल आया था कि हम अपनी बेटी का विवाह आपके बेटे राघवेंद्र से करें। बहरहाल, हमारा ये ख़याल ख़याल ही रह गया और हालात ऐसे हो गए जैसे कुदरत का क़हर ही हम पर बरसने लगा था। हमने अपने बड़े बेटे और छोटे भाई को खो दिया। अगर अपने अंदर का सच बताएं मित्र तो वो यही है कि अंदर से अब हम पूरी तरह से टूट चुके हैं। इस सबके बाद अगर हमें बाकी सबका ख़याल न होता तो कब का हम सब कुछ छोड़ कर किसी ऐसी दुनिया में चले गए होते जहां न कोई माया मोह होता और ना ही किसी तरह का बंधन....अगर कुछ होता तो सिर्फ शांति।"

"ऐसा मत कहिए ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने अधीरता से कहा____"आप जैसे विशाल हृदय वाले इंसान को इस तरह से विचलित होना शोभा नहीं देता। हम मानते हैं कि पिछले कुछ समय में आपने जो कुछ सहा है और जो कुछ खोया है वो वाकई में असहनीय था लेकिन आप भी जानते हैं कि ये सब ऊपर वाले के ही खेल होते हैं। वो हम इंसानों को मोहरा बना कर जाने कैसे कैसे खेल खेलता रहता है।"

"अगर बात सिर्फ खेल की ही होती तो कदाचित हमें इतनी तकलीफ़ ना हुई होती मित्र।" दादा ठाकुर ने सहसा दुखी हो कर कहा____"यहां तो ऐसी बात हुई है जिसके बारे में हम कल्पना ही नहीं कर सकते थे। उस दिन जब आप हमारे यहां आए थे और सफ़ेदपोश के बारे में पूछ रहे थे तो हमने आपको उसके बार में पूछने से मना कर दिया था। जानते हैं क्यों? क्योंकि हम ऐसी हालत में ही नहीं हैं कि किसी को सफ़ेदपोश के बारे में बता सकें। आप जब वापस चले गए तो हमें ये सोच कर दुख हो रहा था कि हमने अपने मित्र को इस बारे में नहीं बताया। भला ये कैसी मित्रता है कि हम अपने मित्र से ही कोई बात छुपाएं? मित्र तो वो होता है ना जो अपने मित्र से कुछ भी न छुपाए लेकिन हमने छुपाया मित्र। अपने दिल पर पत्थर रख कर छुपाया हमने।"

"ऐसा मत कहिए ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह दादा ठाकुर को आहत और दुखी हालत में देख खुद भी दुखी नज़र आए____"यकीन मानिए आपके छुपाए जाने से हमें बिलकुल भी बुरा नहीं लगा था। हां, ये सोच कर दुख ज़रूर हुआ था कि ये विधाता की कैसी क्रूरता है जिसके चलते आपकी ऐसी दशा हो गई थी? आप इस बारे में ये सब सोच कर खुद को दुखी मत कीजिए मित्र। हमारी आपसे वर्षों की मित्रता है और हम वर्षों से आपको जानते हैं कि आप कितने महान इंसान हैं।"

"नहीं मित्र।" दादा ठाकुर के चेहरे पर एकाएक कठोरता के भाव उभर आए____"हमारे जैसा इंसान अब महान नहीं रहा। भला वो इंसान महान हो भी कैसे सकता है जिसने एक ही झटके में इतने सारे लोगों को मार डाला हो? वो इंसान महान कैसे हो सकता है जिसने हर किसी से सफ़ेदपोश का सच छुपाया और....और वो व्यक्ति भला कैसे महान हो सकता है मित्र जिसके अपने ही छोटे भाई ने सफ़ेदपोश के रूप में अपने ही बड़े भाई और उसके समूचे परिवार को नेस्तनाबूत कर देने का षडयंत्र रचा?"

"ये....ये क्या कह रहे हैं आप?" महेंद्र सिंह को ज़बरदस्त झटका लगा____"आपके छोटे भाई जगताप थे सफ़ेदपोश? हे भगवान! ये कैसे हो सकता है?"

"यही सच है मित्र।" दादा ठाकुर ने आहत भाव से कहा____"इसी लिए तो हम ये बात किसी को बता नहीं सकते कि सफ़ेदपोश असल में हमारा ही छोटा भाई जगताप था।"

"बड़ी हैरतअंगेज़ बात बता रहे हैं आप।" महेंद्र सिंह के चेहरे पर अभी भी आश्चर्य नाच रहा था____"लेकिन अगर आपके भाई ही सफ़ेदपोश थे तो फिर वो आपके द्वारा पकड़े कैसे गए? हमारा मतलब है कि उनकी तो साहूकारों ने चंद्रकांत के साथ मिल कर हत्या कर दी थी ना? फिर वो ज़िंदा कैसे हुए?"

"उसके ज़िंदा होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"सच बात ये है कि उसकी मौत के बाद सफ़ेदपोश का लिबास उसकी पत्नी यानि मेनका ने पहन लिया था और फिर उसी ने उसके काम को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया था।"

"हे भगवान! ये तो और भी ज़्यादा आश्चर्यचकित कर देने वाली बात है।" महेंद्र सिंह ने आश्चर्य से आंखें फैलाते हुए कहा____"यकीन नहीं होता कि एक औरत होने के बावजूद उन्होंने सफ़ेदपोश बन कर ऐसे दुस्साहस से भरे काम किए।"

"सच जानने के बाद हम भी इसी तरह चकित हुए थे।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन उससे ज़्यादा ये सोच कर दुखी हुए कि हमारे अपने ही हमें अपना जन्म जात शत्रु माने हुए थे और हमें मिटाने पर तुले हुए थे।"

महेंद्र सिंह के पूछने पर दादा ठाकुर ने संक्षेप में सारा किस्सा बता दिया जिसे सुन कर महेंद्र की मानों बोलती ही बंद हो गई। आख़िर कुछ देर में उनकी हालत सामान्य हुई।

"वाकई, ये सच तो यकीनन दिल दहला देने वाला और पूरी तरह जान निकाल देने वाला है।" फिर उन्होंने कहा____"आपके मुख से ये सब सुनने के बाद जब हमारी ख़ुद की हालत बहुत अजीब सी हो गई है तो आपकी हालत का अंदाज़ा हम बखूबी लगा सकते हैं। समझ में नहीं आ रहा कि जगताप जैसे सुलझे हुए इंसान के मन में ये सब करने का ख़याल कैसे आ गया था? क्या सच में इंसान की सोच इतना जल्दी गिर जाती है? क्या सच में इंसान धन दौलत के लालच में और सिर्फ अपने हितों के बारे में सोचने के चलते इतना क्रूर बन जाता है? ठाकुर साहब, आपकी तरह हम भी ये कल्पना नहीं कर सकते थे लेकिन सच तो सच ही है। हम आपसे यही कहेंगे कि इस सबके बारे में सोच कर अपने आपको दुखी मत रखिए। इस संसार में सच की सूरत ज़्यादातर कड़वी ही देखने को मिलती है।"

"सही कहा आपने।" दादा ठाकुर ने कहा____"हम भी इस कड़वे सच को हजम करने की नाकाम कोशिशों में लगे हुए हैं। ख़ैर अब हम आपसे ये कहना चाहते हैं कि इस सच को जानने के बाद भी क्या आप अपने बेटे का विवाह हमारी बेटी से करने का सोचते हैं?"

"बिल्कुल ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने दृढ़ता से कहा____"मानते हैं कि जो कुछ हुआ बहुत भयानक और हैरतअंगेज़ था लेकिन इसमें उस बच्ची का तो कहीं कोई दोष ही नहीं है। जिसने बुरी नीयत से दुष्कर्म किया उसको उसकी करनी की सज़ा मिल चुकी है। मंझली ठकुराईन को भी अपनी ग़लतियों का एहसास हो चुका है जिसके चलते वो प्रायश्चित कर रही हैं। ऐसे में हम भला ये क्यों सोचेंगे कि हम अपने बेटे का विवाह आपकी भतीजी से न करें? ठाकुर साहब, आप हमारे मित्र हैं और संबंध हमें आपसे बनाना है।"

"हमने भले ही उसे अपनी बेटी माना है मित्र।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन जिस सच्चाई से हम रूबरू हुए हैं उसके बाद ऐसा लगने लगा है जैसे अब हमारा अपने के रूप में कोई नहीं है। काश! वो सचमुच में हमारी ही बेटी होती तो हम खुशी खुशी आपका ये प्रस्ताव स्वीकार कर लेते लेकिन उसमें अब हमारा कोई हक़ नहीं है। अगर आप सच में चाहते हैं कि उसी के साथ आपके बेटे का विवाह हो तो इसके लिए आपको उसकी मां से बात करना होगा जिसने सचमुच में उसे पैदा किया है।"

"शायद आप ठीक कह रहे हैं।" महेंद्र सिंह ने सिर हिलाते हुए कहा____"इतना सब कुछ होने के बाद आपकी मानसिकता इस तरह की हो जाना स्वाभाविक ही है। वाकई पहले जैसी बात नहीं हो सकती है। ख़ैर, अगर आप सच में ऐसा ही चाहते हैं तो हम ज़रूर उन्हीं से बात करेंगे। उम्मीद है कि वो अपनी बेटी का विवाह हमारे बेटे से करने को तैयार हो जाएंगी।"

कुछ देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद महेंद्र सिंह चले गए। उनके जाने के बाद दादा ठाकुर काफी देर तक इस बारे में सोचते रहे। मन में जाने कैसे कैसे ख़्याल उभर रहे थे जिसके चलते उनका मन व्यथित होने लगता था। बड़ी मुश्किल से उन्हें नींद आई।

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अपने कमरे में मैं पलंग पर लेटा हुआ था। मन में बहुत कुछ चल रहा था। ख़ास कर भाभी से हुई बातें। मैंने महसूस किया जैसे आज का दिन बड़ा ही ख़ास था। आज एक अजब संयोग भी हुआ था। इधर मैं अपने दिल की बातें भाभी से कहने पहुंचा और उधर मेरी तमाम उम्मीदों के विपरीत मुझे ये पता चला कि भाभी भी मुझसे विवाह करने को राज़ी हो गईं हैं। इतना ही नहीं इस बात की ख़बर देने उनका भाई मेरे साथ ही हवेली आ गया था। माना कि अब यही सच था लेकिन मुझे अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि सचमुच ये रिश्ता एक दिन अटूट बंधन के रूप में और पूरी मान्यताओं के साथ बंध जाएगा।

मैं सोचने लगा कि वाकई में किस्मत बड़ी हैरतअंगेज़ बला होती है। या फिर ये कहूं कि ऊपर वाले का खेल बड़ा ही अजीब होता है। इंसान की हर कल्पना से परे होता है। मैं एकदम से अपनी ज़िंदगी में हुए इस अविश्वसनीय परिवर्तनों के बारे में सोचने लगा।

एक वक्त था जब मैं सिर्फ मौज मस्ती और अय्याशियों में ही मगन रहता था। मेरे लिए जैसे ज़िंदगी का असली आनंद ही इसी सब में था। मैं शुरू से ही बड़ा निडर, दुस्साहसी और गुस्सैल स्वभाव का रहा था लेकिन इस सबके बीच मेरे अंदर कहीं न कहीं कोमल भावनाएं भी थी और इस बात का बोध भी था कि कम से कम मैं अपनी कुदृष्टि अपने ही घर की बहू बेटी पर न डालूं। यानि मैं ये समझता था कि ऐसा करना ऊंचे दर्ज़े का पाप है। शायद यही वजह थी कि मैंने कभी ऐसा किया भी नहीं था। हां, भाभी के रूप सौंदर्य पर ज़रूर आकर्षित हो जाया करता था जोकि सच कहूं तो ये मेरे बस में था भी नहीं। पहले भी बता चुका हूं कि वो थीं ही इतनी सुंदर और सादगी से भरी हुईं।

जब मुझे एहसास हो गया कि मैं उनके रूप सौंदर्य से खुद को आकर्षित होने से रोक नहीं सकता तो मैंने हवेली में रहना ही कम कर दिया था। कभी दोस्तों के घर में तो कभी कहीं, यही मेरी ज़िंदगी बन गई थी। दो दो तीन तीन दिन मैं हवेली से ग़ायब रहता। जैसा कि मैंने बताया मैं बहुत ही निडर दुस्साहसी और गुस्सैल स्वभाव का था इस लिए मैं जहां भी जाता अपनी छाप छोड़ देता था। हालाकि इस सबके पीछे पिता जी का नाम भी जैसे मेरा मददगार ही होता था। कोई भी मुझसे उलझने की कोशिश नहीं करता था। यही वजह थी कि मेरे नाम का डंका दूर दूर तक बज चुका था।

मेरे दुस्साहस की वजह से बड़े बड़े लोग भी मेरे संपर्क में आ गए थे जो अपने मतलब के लिए मुझसे सहायता मांगते थे और मैं बड़े शान से उनकी सहायता कर भी देता था। ये उसी का परिणाम था कि मेरी पहुंच और मेरे संबंध आम लोगों की नज़र में हैरतअंगेज़ बात थी। जिस जगह पर और जिस चीज़ पर मैंने हाथ रख दिया वो मेरी होती थी और अगर किसी ने विरोध किया तो परिणाम बुरा ही होता था। मेरे इन कारनामों की वजह से पिता जी चकित तो होते ही थे किंतु परेशान और चिंतित भी रहते थे। मेरी हरकतों की वजह से उनका नाम ख़राब होता था। इसके लिए मुझे हर बार दंड दिया जाता था जोकि कोड़ों की मार की शक्ल में ही होता था लेकिन मजाल है कि ठाकुर वैभव सिंह में कभी कोई बदलाव आया हो। मैं बड़े शौक से पिता जी की सज़ा क़बूल करता था और कोड़ों की मार सहता था उसके बाद फिर से उसी राह पर चल पड़ता था जिसमें मुझे अत्यधिक आनन्द आता था।

गांव के साहूकारों के लड़के शुरू से ही मुझे अपना दुश्मन समझते थे। इसकी वजह सिर्फ ये नहीं थी कि बड़े दादा ठाकुर ने उनके साथ बुरा किया था बल्कि ये भी थी कि मैं उनकी सोच और कल्पनाओं से बहुत ज़्यादा उड़ान भर रहा था। ये सच है कि मैं उनसे उलझने की कभी पहल नहीं करता था लेकिन जब वो पहल करते थे तो उन्हें बक्शता भी नहीं था। अपने गांव में ही नहीं बल्कि आस पास गांवों में भी मेरा यही रवैया था। मैं मौज मस्ती और अय्याशियों में इतना खो गया था कि मुझे इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि कब मेरे दामन पर बदनामी की कालिख लग चुकी थी?

ऐसे ही ज़िंदगी गुज़र रही थी और फिर एक दिन पिता जी ने मुझे गांव से निष्कासित कर दिया। बस, यहीं से मेरी ज़िंदगी में जैसे परिवर्तन होना शुरू हो गया था। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे जीवन में कभी ऐसे दिन आएंगे जो मुझे धीरे धीरे बदलना शुरू कर देंगे। मुरारी की लड़की अनुराधा पर जब मेरी नज़र पड़ी थी तो ये सच है कि उसको भी मैंने बाकी लड़कियों की तरह भोगना ही चाहा था लेकिन ऐसा नहीं कर सका। कदाचित ये सोच कर कि जिस घर के मुखिया ने मुझे अपना समझा और मेरी इतनी मदद की मैं उसी की बेटी की इज्ज़त कैसे ख़राब कर सकता हूं? सरोज से नाजायज़ संबंध ज़रूर बन गया था लेकिन इसमें भी सिर्फ मेरा ही बस दोष नहीं था। सरोज ने ही मुझे इसके लिए इशारा किया था और अपना जिस्म दिखा दिखा कर ये जताया था कि वो मुझसे चुदना चाहती है। मैं तो जिस्म का भूखा था ही, दूसरे निष्कासित किए जाने से अंदर गुस्सा भी भरा हुआ था इस लिए मैंने बिल्कुल भी नहीं सोचा कि ये मैं किसके साथ दुष्कर्म करने जा रहा हूं?

कई बार मन बनाया कि किसी दिन अकेले में अनुराधा को पटाने की कोशिश करूंगा और उसको अपने मोह जाल में फंसाऊंगा लेकिन हर बार जाने क्यों ऐसा करने के लिए मेरे ज़मीर ने मुझे रोक लिया। उसकी मासूमियत, उसका भोलापन धीरे धीरे ही सही लेकिन मेरे दिलो दिमाग़ में जैसे घर करने लगा था। मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैं उसकी मासूमियत, उसके भोलेपन और उसकी सादगी पर मर मिटा था। मेरे सामने उसका छुई मुई हो जाना, शर्म से सिमट जाना, मेरे ठकुराईन कहने पर पहले तो नाराज़ होना और फिर शर्म के साथ मुस्कराने लगना ये सब मेरे दिल में रफ़्ता रफ़्ता एक अलग ही एहसास पैदा करते जा रहे थे। एक समय ऐसा आया जब मैं खुद महसूस करने लगा कि मेरे दिल में अनुराधा के प्रति एक ऐसी भावना ने जन्म ले लिया है जो अब तक किसी के लिए भी पैदा नहीं हुई थी। फिर एक दिन उसने मुझे बड़ी कठोरता से दुत्कार दिया और मुझे ये एहसास करा दिया कि मैं किसी कीमत पर उसे हासिल नहीं कर सकता हूं। हालाकि ऐसा मेरा कोई इरादा भी नहीं था लेकिन उसकी नज़र में तो ऐसा ही था। उस दिन बड़ी तकलीफ़ हुई थी मुझे। ऐसा लगा था जैसे पहली बार किसी ने मेरे दिल को चीर दिया हो। मामला जब दिल से संबंध रखने लगता है तो उसकी एक अलग ही कहानी शुरू हो जाती है जिसके एहसास में इंसान बड़ा विचित्र सा हो जाता है। वही मेरे साथ हुआ। अनुराधा से दूर हो जाना पड़ा, किंतु ये दूरी भी जैसे नियति का ही कोई खेल थी। यकीनन मेरे जैसे चरित्र का लड़का इस दूरी से इतना विचलित नहीं होता और एक बार फिर से अपने पुराने अवतार में आ जाता लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नियति मुझे प्रेम का पाठ पढ़ाना चाहती थी। मेरे दिल में ठूंस ठूंस कर प्रेम के एहसास भर देना चाहती थी और ऐसा ही हुआ। मैं भला कैसे नियति के विरुद्ध चला जाता? आज तक भला कोई जा पाया है जो मैं चला जाता?

मैं क्या जनता था कि नियति मेरे साथ आगे चल कर कितना बड़ा धोखा करने वाली थी। एक तरफ तो वो मेरे दिल में प्रेम के एहसास भर रही थी और दूसरी तरफ जिसके लिए एहसास भर रही थी उसको हमेशा के लिए मुझसे दूर कर देने का समान भी जुटाए जा रही थी। अगर मुझे पता होता कि मेरे प्रेम के चलते उस मासूम का ऐसा भनायक अंजाम होगा तो मैं कभी उसके क़रीब न जाता। मुझे ऐसा प्रेम नहीं चाहिए था और ना ही अपने लिए ऐसा बदलाव चाहिए था जिसके चलते किसी निर्दोष का जीवन ही छिन जाए। मगर ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ, बल्कि हुआ तो वो जिसने हम सबको हिला कर रख दिया।

बहरहाल, वक्त कभी नहीं रुकता। वो चलता ही जाता है और उसी के साथ चीज़ें भी बदलती जाती हैं। मेरे जीवन में रूपा का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। बड़ी अजीब लड़की है वो। एक ऐसे लड़के से प्रेम कर बैठी थी जो हमेशा प्रेम को बकवास कहता था। इतना सब कुछ होने के बाद जब फिर से उससे मुलाक़ात हुई तो इस बार मैं उसके प्रेम को बकवास नहीं कह सका। कहता भी कैसे? प्रेम जैसी बला से अच्छी तरह वाकिफ़ जो हो गया था मैं, बल्कि ये कहना चाहिए कि नियति ने मुझे अच्छी तरह प्रेम से परिचित करा दिया था।

मैं पूरे यकीन से कहता हूं कि रूपा इस युग की लड़की नहीं हो सकती। वो ग़लती से इस युग में पैदा हो गई है। इस युग की लड़की के अंदर इतने अद्भुत गुण नहीं हो सकते। ख़ैर, सच जो भी हो लेकिन ये तो सच ही था कि ऐसी अद्भुत लड़की ने मुझे एक नया जीवन दिया और उससे भी बढ़ कर मुझसे प्रेम किया। एक ऐसा प्रेम जिसके बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। उसका हृदय मानों ब्रम्हांड की तरह विशाल है। वो सब कुछ क़बूल कर सकती है। वो सबको अपना समझ सकती है। मुझे बेइंतहा प्रेम करती है लेकिन मुझ पर अपना कोई हक़ नहीं समझती। मैं नतमस्तक हूं उसके इस प्रेम के सामने। काश! हर जन्म में वो मुझे इसी रूप में मिले, लेकिन एक शर्त है कि मेरे अंदर भी उसके जैसा ही प्रेम हो ताकि मैं भी उसको उसी के जैसा प्रेम कर सकूं।

बहरहाल, ये सब कुछ मेरी कल्पनाओं से परे था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि ऐसा भी कभी होगा लेकिन हुआ। उधर नियति का जैसे अभी भी मन नहीं भरा था तो उसने फिर से एक बार कुछ ऐसा किया जो एक बार फिर मेरे लिए कल्पना से परे था। मेरी भाभी को मेरी पत्नी बनाने का खेल रचा नियति ने। वजह, आप सब जानते हैं। माना कि ये एक जायज़ वजह है लेकिन ये भी तो ख़याल रखना चाहिए था कि क्या कोई इतनी आसानी से ये हजम भी कर लेगा? ख़ैर ऐसा लगता है जैसे कुछ सवालों के जवाब ही नहीं होते और अगर होते हैं तो बताए नहीं जाते।

पलंग पर लेटा मैं जाने क्या क्या सोचे जा रहा था। कुछ ही देर में जैसे मैंने अपने जीवन को शुरू से जी लिया था। आज के हालात और आज की तस्वीर बड़ी अजब थी। बहरहाल, जो कुछ भी था उसको क़बूल करना ही जैसे अब सबके हित में था और ये मैं समझ भी चुका था। मैं अपनी भाभी को हमेशा ख़ुश देखना चाहता हूं। अगर उनकी ख़ुशी के लिए मुझे इस हद तक भी गुज़र जाना लिखा है तो यकीनन गुज़र जाऊंगा।​
 
अध्याय - 156
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सुबह हुई।
नित्य कर्म से फुर्सत होने के बाद हम सब नाश्ता करने बैठे हुए थे। इस बीच मां बड़ी ही खुशदिली से वीरेंद्र से उसके घर वालों का हाल चाल पूछ रहीं थी। हालाकि कल भी वो ये सब पूछ चुकीं थी लेकिन जाने क्यों वो फिर से उससे पूंछे जा रहीं थी। मेनका चाची भी अपने चेहरे पर खुशी के भाव लिए रागिनी भाभी के बारे में पूछने में लगी हुईं थी। सबके बीच मैं ख़ामोशी से नाश्ता कर रहा था। एक तरफ किशोरी लाल भी बैठा नाश्ता कर रहा था। उधर कुसुम का अपना अलग ही हिसाब किताब था। वो भी कुरेद कुरेद कर वीरेंद्र सिंह से रागिनी भाभी के बारे में जाने क्या क्या पूछे जा रही थी। वीरेंद्र सिंह नाश्ता कम और जवाब देने में ज़्यादा व्यस्त हो गया था। मैं मन ही मन ये सोच कर मुस्कुरा उठा कि बेचारे को शांति से कोई नाश्ता भी नहीं करने दे रहा है।

आख़िर सबने वीरेंद्र सिंह पर मानो रहम किया और उसे शांति से नाश्ता करने दिया। नाश्ते के बाद हम सब बैठक में आ गए। बैठक में बैठे हुए हमें अभी थोड़ा ही समय हुआ था कि पिता जी आ गए। महेंद्र सिंह ख़ुद यहां तक उन्हें छोड़ने आए थे। पिता जी ने उन्हें अंदर आने को कहा लेकिन वो ज़रूरी काम का बोल कर वापस चले गए।

पिता जी पर नज़र पड़ते ही हम सब अपनी अपनी कुर्सी से उठ कर खड़े हो गए। उधर पिता जी आए और अपने सिंहासन पर बैठ गए। मैंने नौकरानी को आवाज़ दे कर कहा कि वो पिता जी के लिए पानी ले आए।

"हमें देर तो नहीं हुई ना यहां आने में?" पिता जी ने वीरेंद्र सिंह से मुखातिब हो कर नर्म भाव से कहा____"हमने अपने मित्र महेंद्र सिंह को स्पष्ट शब्दों में कहा था कि सुबह जितना जल्दी हो सके वो हमें हवेली वापस भेजने चलेंगे। ख़ैर नास्था वगैरह हुआ या नहीं?"

"जी अभी कुछ देर पहले ही हुआ है।" वीरेंद्र सिंह ने कहा____"आपका आदेश था कि मैं आपसे मिल कर ही जाऊं इस लिए आपके आने की प्रतीक्षा कर रहा था।"

"बहुत अच्छा किया बेटा।" पिता जी ने कहा____"हमें बहुत अच्छा लगा। ख़ास कर ये सुन कर अच्छा लगा है कि हमारी बहू ने वैभव से विवाह करना स्वीकार कर लिया है। वैसे सच कहें तो हम ख़ुद को अपनी बहू का अपराधी भी महसूस करते हैं। ऐसा इस लिए क्योंकि हमने बिना उससे कुछ पूछे उसके जीवन का इतना बड़ा फ़ैसला कर लिया था और फिर इस विवाह के संबंध में समधी जी से चर्चा भी कर डाली। बस इसी बात को सोच कर हमें लगता है कि हमने अपनी बहू पर ज़बरदस्ती ये रिश्ता थोप दिया है। हमें सबसे पहले उससे ही इस संबंध में पूछना चाहिए था।"

"आप ऐसा न कहें दादा ठाकुर जी।" महेंद्र सिंह ने अधीरता से कहा____"आपने जो भी किया है वो मेरी बहन की भलाई और खुशी के लिए ही किया है। वैसे भी, आपने तो स्पष्ट रूप से यही कहा था कि ये रिश्ता तभी होगा जब रागिनी की तरफ से स्वीकृति मिलेगी अन्यथा नहीं। ऐसे में अपराधी महसूस करने का सवाल ही नहीं पैदा होता।"

तभी नौकरानी पानी ले कर आ गई। उसने पिता जी को पानी दिया जिसे पिता जी ने पी कर गिलास को उसे वापस पकड़ा दिया। नौकरानी चुपचाप वापस चली गई।

"तुम्हें तो सब कुछ पता ही है वीरेंद्र बेटा।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"कि पिछले कुछ महीनों में हमने यहां क्या क्या देखा सुना और सहा है। सच कहें तो इस सबके चलते दिलो दिमाग़ ऐसा हो गया है कि कुछ सूझता ही नहीं है कि क्या करें और कैसे करें? जो गुज़र गए उनका तो दुख सताता ही है लेकिन अपनी बहू का बेरंग जीवन देख के और भी बहुत तकलीफ़ होती है। अब तो एक ही इच्छा है कि हमारी बहू का जीवन फिर से संवर जाए और वो खुश रहने लगे, उसके बाद फिर हमें उस परवरदिगार से किसी भी चीज़ की चाहत नहीं रहेगी।"

"कृपया ऐसा मत कहें आप।" वीरेंद्र सिंह ने अधीरता से कहा____"आप ही ऐसी निराशावादी बातें करेंगे तो उनका क्या होगा जो आपके अपने हैं?"

"जिसके भाग्य में जो होता है उसे वही मिलता है वीरेंद्र।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"कोई लाख कोशिश कर ले किन्तु ऊपर वाले की मर्ज़ी के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता। ख़ैर, छोड़ो इन बातों को। हम तुमसे ये कहना चाहते हैं कि हमारी तरफ से हमारी बहू से माफ़ी मांग लेना और उससे कहना कि हमने उससे बिना पूछे उसके जीवन का फ़ैसला ज़रूर किया है लेकिन इसके पीछे हमारी भावना सिर्फ यही थी कि उसका जीवन फिर से संवर जाए और उसकी बेरंग ज़िन्दगी फिर से खुशियों के रंगों से भर जाए। उससे ये भी कहना कि वो इस रिश्ते को स्वीकार करने के लिए ख़ुद को मजबूर न समझे, बल्कि वो वही करे जो करने को उसकी आत्मा गवाही दे। हम उसके हर फ़ैसले का पूरे आदर के साथ सम्मान करेंगे।"

"ये आप कैसी बातें कर रहे हैं दादा ठाकुर जी?" वीरेंद्र सिंह ने चकित भाव से कहा____"कृपया ऐसा न कहें। ये तो मेरी बहन का सौभाग्य है कि उसे आपके जैसे देवता समान ससुर मिले हैं जो उसकी इतनी फ़िक्र करते हैं। दुख सुख तो हर इंसान के जीवन में आते हैं लेकिन दुख दूर करने वाले आप जैसे माता पिता बड़े भाग्य से मिलते हैं। सच कहूं तो मुझे बहुत खुशी हो रही है कि आपने मेरी बहन के बारे में इतना बड़ा फ़ैसला लिया ताकि उसका जीवन जो उमर भर के लिए दुख और तकलीफ़ों से भर जाने वाला था वो फिर से ख़ुशहाल हो जाए।"

"इस वक्त ज़्यादा कुछ नहीं कहेंगे बेटा।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"समधी जी से कहना कि किसी दिन हम समय निकाल कर उनसे मिलने आएंगे।"

वीरेंद्र सिंह ने सिर हिलाया। कुछ देर बाद वीरेंद्र सिंह ने जाने की इजाज़त मांगी तो पिता जी ने ख़ुशी से दे दी। वीरेंद्र सिंह ने पिता जी के पैर छुए, फिर मेरे छुए और फिर अंदर मां और चाची के पैर छूने चला गया। थोड़ी देर में वापस आया और फिर हवेली के बाहर की तरफ चल पड़ा। पिता जी भी बाहर तक उसे छोड़ने गए। कुछ ही पलों में वीरेंद्र सिंह अपनी जीप में बैठ कर चला गया।

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मैं जब निर्माण कार्य वाली जगह पर पहुंचा तो रूपचंद्र मुझे वहीं मिला। मुझे देखते ही वो मेरे पास आया। उसके चेहरे पर चमक थी। मुझे समझ ना आया कि सुबह सुबह किस बात के चलते उसके चेहरे पर चमक दिख रही है?

"तो रागिनी दीदी तुमसे विवाह करने के लिए राज़ी हो गईं हैं ना?" फिर उसने मुस्कुराते हुए जब ये कहा तो मैं एकदम से चौंक गया।

"तुम्हें कैसे पता चला?" मैंने हैरानी से पूछा।

"कुछ देर पहले मैंने रागिनी दीदी के भाई साहब को जीप में बैठे जाते देखा था।" रूपचंद्र ने बताया____"वो हवेली की तरफ से आए थे और मेरे घर के सामने से ही निकल गए थे। उस दिन तुम्हीं ने बताया था कि जब दीदी इस रिश्ते के लिए राज़ी हो जाएंगी तो उनके राज़ी होने की ख़बर यहां भेज दी जाएगी अथवा कोई न कोई ख़बर देने तुम्हारे पिता जी के पास आएगा। थोड़ी देर पहले जब मैंने दीदी के भाई को देखा तो समझ गया कि रागिनी दीदी तुमसे ब्याह करने को राज़ी हो गई हैं और इसी लिए उनके भाई साहब यहां आए थे। ख़ैर कल तुम भी तो गए थे ना दीदी से मिलने तो क्या हुआ वहां? क्या दीदी से तुम्हारी बात हुई?"

"हां।" मैंने कहा____"पहले तो लगा था कि पता नहीं कैसे मैं उनसे अपने दिल की बात कह सकूंगा लेकिन फिर आख़िरकार कह ही दिया। सच कहूं तो जिन बातों के चलते मैं परेशान था वैसी ही बातें सोच कर वो खुद भी परेशान थीं। बहरहाल, उनसे बातें करने के बाद मेरे मन का बोझ दूर हो गया था।"

"तो अब क्या विचार है?" रूपचंद्र ने पूछा____"मेरा मतलब है कि अब तो दीदी भी राज़ी हो गईं हैं तो अब तुम्हारे पिता जी क्या करेंगे?"

"पता नहीं।" मैंने कहा____"लेकिन इस सबके बीच मुझे एक बात बिल्कुल भी पसंद नहीं आई और वो ये कि इस सबके बारे में हर किसी ने रूपा से छुपाया। जबकि इस बारे में तुम लोगों से पहले उसको जानने का हक़ था।"

"मैं तो उसी दिन उसको सब बता देने वाला था वैभव।" रूपचंद्र ने गहरी सांस ली____"लेकिन तुम्हारे पिता जी का ही ये कहना था कि इस बारे में उसे न बताया जाए, बल्कि बाद में बताया जाए। यही वजह थी कि जब गौरी शंकर काका ने भी मुझे बताने से रोका तो मैं रुक गया। ख़ैर तुमने तो बता ही दिया है उसे और जान भी गए हो कि उसका क्या कहना है इस बारे में। मुझे तो पहले ही पता था कि मेरी बहन को इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं होगी।"

"आपत्ति हो या ना हो।" मैंने कहा____"लेकिन इस बारे में सबसे पहले उसको ही जानने का हक़ था। क्या अब भी किसी को उसकी अहमियत का एहसास नहीं है? क्या हर कोई उसको सिर्फ स्तेमाल करने वाली वस्तु ही समझता है? मैं मानता हूं कि मैंने कभी उसकी और उसके प्रेम की कद्र नहीं की थी लेकिन अब करता हूं और हद से ज़्यादा करता हूं। जिस शिद्दत के साथ उसने मुझे प्रेम किया है उसी तरह मैं भी उससे प्रेम करने की हसरत रखता हूं। हर रोज़ ऊपर वाले से यही प्रार्थना करता हूं कि मेरे दिल में उसके लिए इतनी चाहत भर दे कि उसके सिवा कोई और मुझे नज़र ही न आए।"

"मुझे यकीन है कि ऐसा ही होगा वैभव।" रूपचंद्र ने अधीरता से कहा____"तुम्हारे मुख से निकले ये शब्द ही बताते हैं कि ऐसा ज़रूर होगा, बल्कि ये कहूं तो ग़लत न होगा कि बहुत जल्द होगा।"

कुछ देर और मेरी रूपचंद्र से बातें हुई उसके बाद मैं विद्यालय वाली जगह पर चला गया, जबकि रूपचंद्र अस्पताल वाली जगह पर ही काम धाम देखने लगा। मैं सबको देख ज़रूर रहा था लेकिन मेरा मन कहीं और भटक रहा था। कभी रूपा के बारे में सोचने लगता तो कभी रागिनी भाभी के बारे में।

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"बिल्कुल सही जवाब दिया आपने महेंद्र सिंह को।" कमरे में पलंग पर दादा ठाकुर के सामने बैठी सुगंधा देवी ने कहा____"उनको अगर अपने बेटे का विवाह कुसुम के साथ करना है तो वो इस बारे में मेनका से ही बात करें। उसके बारे में किसी भी तरह का फ़ैसला करने का ना तो हमें हक़ है और ना ही हम इस बारे में कुछ सोचना चाहते हैं।"

"ये आप क्या कह रही हैं?" दादा ठाकुर के चेहरे पर तनिक हैरानी के भाव उभरे____"उसके बारे में हम नहीं सोचेंगे तो कौन सोचेगा? आख़िर हम उसके अपने हैं।"

"अपने होने का कितना अच्छा सिला मिला है हमें क्या इतना जल्दी आप भूल गए हैं?" सुगंधा देवी ने सहसा तीखे स्वर में कहा____"ठाकुर साहब, आप भी जानते हैं कि हम दोनों ने माता पिता की तरह सबको समान भाव से प्यार और स्नेह दिया था। कभी किसी चीज़ का अभाव नहीं होने दिया और ना ही कभी ये एहसास होने दिया कि इस हवेली में वो किसी के हुकुम का पालन करने के लिए बाध्य हैं। बिना माता पिता के आपने तो संघर्ष किया लेकिन अपने छोटे भाई को कभी किसी संघर्ष का हिस्सा नहीं बनाया, सिवाय इसके कि हमेशा उसे एक अच्छा इंसान बनने को प्रेरित करते रहे। इसके बावजूद हमारी नेकियों, हमारे त्याग और हमारे प्यार का ये फल मिला हमें।"

"अब इन सब बातों को मन में रखने से सिर्फ तकलीफ़ ही होगी सुगंधा।" दादा ठाकुर ने अधीरता से कहा____"हम जानते हैं कि ऐसी बातें दिलो दिमाग़ से इतना जल्दी जाने वाली नहीं हैं। हमारे खुद के दिलो दिमाग़ से भी नहीं जाती हैं लेकिन इसके बावजूद हमें सब कुछ हजम कर के सामान्य आचरण ही करना होगा। इस हवेली के, इस परिवार के सबसे बड़े सदस्य हैं हम। परिवार के मुखिया पर परिवार की सारी ज़िम्मेदारियां होती हैं। मुखिया को हर हाल में अपने परिवार की भलाई के लिए ही सोचना पड़ता है और कार्य करना पड़ता है। अपने सुखों का, अपने हितों का त्याग कर के परिवार के लोगों की खुशियों के लिए कर्म करने पड़ते हैं। गांव समाज के लोग ये नहीं देखते कि किसने क्या किया है बल्कि वो ये देखते हैं कि परिवार के मुखिया ने क्या किया है?"

"ये सब हम जानते हैं ठाकुर साहब।" सुगंधा देवी ने कहा____"और इसी लिए शुरू से ले कर अब तक हम वही करते आए हैं जिसमें सबका भला हो और सब खुश रहें लेकिन इतना कुछ करने के बाद भी अगर हमें ये सिला मिले तो हृदय छलनी हो जाता है।"

"हमारा भी आपके जैसा ही हाल है।" दादा ठाकुर ने कहा____"सच कहें तो इस संसार में अब हमें एक पल के लिए भी जीने की इच्छा नहीं होती लेकिन क्या करें? कुछ कर्तव्य, कुछ फर्ज़ निभाने अभी बाकी हैं इस लिए मन को मार कर बस करते जा रहे हैं। हम ये नहीं चाहते कि लोग ये कहने लगें कि छोटे भाई की मौत के बाद बड़े भाई ने उसके बीवी बच्चों को अनाथ बना कर बेसहारा छोड़ दिया। छोटा भाई तो रहा नहीं इस लिए उनका अच्छा बुरा सोचने वाले अब हम ही हैं और उनको अच्छा बुरा बनाने वाले भी अब हम ही हैं। जब तक हमारे भाई के बच्चों का भविष्य संवर नहीं जाता तब तक हमें एक पिता की ही तरह उनके बारे में सोचना होगा। हम आपसे सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि आप अपने मन से सारी पीड़ा और सारी बातों को निकाल दीजिए। जितना हो सके मेनका और उसके बच्चों के हितों के बारे में सोचिए। वैसे भी उसे अपनी ग़लतियों का एहसास है और वो पश्चाताप की आग में झुलस भी रही है तो अब हमें भी उसके प्रति किसी तरह की नाराज़गी अथवा द्वेष नहीं रखना चाहिए।"

"जिन्हें जीवन भर मां बन कर प्यार और स्नेह दिया है उनसे ईर्ष्या अथवा द्वेष हो ही नहीं सकता ठाकुर साहब।" सुगंधा देवी ने गहरी सांस ली____"हां नाराज़गी ज़रूर है जोकि इतना जल्दी नहीं जाएगी। बाकी हर वक्त यही कोशिश करते हैं कि उनको पहले जैसा ही प्यार और स्नेह दें।"

"हम जानते हैं कि आप कभी भी उनके बारे में बुरा नहीं सोच सकती हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"सच कहें तो हमारे जीवन में अगर आप न होती तो हम संघर्षों से भरा ये सफ़र कभी तय नहीं कर पाते। आपने हमारे परिवार को जिस तरह से सम्हाला है उसके लिए हम हमेशा आपके ऋणी रहेंगे।"

"ऐसा मत कहिए।" सुगंधा देवी ने अधीरता से कहा____"ये सब तो हमारा फर्ज़ था, आख़िर ये हमारा भी तो परिवार ही था। ख़ैर ये सब छोड़िए और ये बताइए कि अब बहू के बारे में क्या सोच रहे हैं आप? अब तो उसने हमारे बेटे से विवाह करने की मंजूरी भी दे दी है तो अब आगे क्या करना है?"

"हां मजूरी तो दे दी है उसने।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन ये भी सच है कि उसकी इस मंजूरी में उसकी मज़बूरी भी शामिल है। असल में हमने बहुत ज़ल्दबाज़ी कर दी थी। हमें इस बारे में फ़ैसला करने से पहले उससे भी एक बार पूछ लेना चाहिए था। उसको इतने बड़े धर्म संकट में नहीं डालना चाहिए था हमें।"

"हां ये तो सही कहा आपने।" सुगंधा देवी ने सिर हिला कहा____"ज़ल्दबाज़ी तो सच में की है हमने। वैसे हमने इस बारे में उससे बात करने का सोचा था लेकिन तभी वीरेंद्र आ गए और वो रागिनी को ले गए। उसके कुछ समय बाद आप इस बारे में बात करने रागिनी के पिता जी के पास चंदनपुर पहुंच गए।"

"हमें वहां पर इस बात का ख़याल तो आया था लेकिन वहां पर इस बारे में बहू से बात करना हमें ठीक नहीं लगा था।" दादा ठाकुर ने कहा____"इस तरह की बातें हम अपने सामने उससे यहीं पर करते तो ज़्यादा बेहतर होता। ख़ैर अब जो हो गया उसका क्या कर सकते हैं लेकिन हमने तय किया है कि हम किसी दिन फिर से चंदनपुर जाएंगे और इस बार ख़ास तौर पर अपनी बहू से बात करेंगे। उससे कहेंगे कि हमने उससे बिना पूछे उसके बारे में ये जो फ़ैसला किया है उसके लिए वो हमें माफ़ कर दे। उससे ये भी कहेंगे कि उसको हमारे बारे में सोचने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है। अगर वो वैभव से विवाह करना उचित नहीं समझती है तो वो बेझिझक इससे इंकार कर सकती है। हम उसका जीवन संवारना ज़रूर चाहते हैं लेकिन उसे किसी धर्म संकट में डाल कर और मज़बूर कर के नहीं।"

"बिल्कुल ठीक कहा आपने।" सुगंधा देवी ने कहा____"उसे ये नहीं लगना चाहिए कि हम ज़बरदस्ती उसके ऊपर ये रिश्ता थोप रहे हैं। ख़ैर तो कब जा रहे हैं आप? वैसे हमारी राय तो यही है कि आपको इसके लिए ज़्यादा समय नहीं लगाना चाहिए।"

"सही कहा।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैसे तो हमने वीरेंद्र के द्वारा बहू को संदेश भिजवा दिया है लेकिन एक दो दिन में हम ख़ुद भी वहां जाएंगे।"

"अच्छा एक बात बताइए।" सुगंधा देवी ने सोचने वाले अंदाज़ से पूछा____"आपने महेंद्र सिंह जी को सफ़ेदपोश का सच क्यों बताया?"

"वो इस लिए क्योंकि अगर न बताते तो मित्र से सच छुपाने की ग्लानि में डूबे रहते।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ले कर कहा_____"वो भी सोचते कि एक तरफ हम उन्हें अपना सच्चा मित्र कहते हैं और दूसरी तरफ मित्र से सच छुपाते हैं।"

"तो इस वजह से आपने उन्हें सफ़ेदपोश का सारा सच बता दिया?" सुगंधा देवी ने कहा।

"एक और वजह है।" दादा ठाकुर ने कहा____"और वो वजह ये जानना भी था कि जिनकी बेटी से वो अपने बेटे का विवाह करना चाहते हैं उनके बारे में ये सब जानने के बाद वो क्या कहते हैं? हमारा मतलब है कि क्या इस सच के बाद भी वो अपने बेटे का विवाह कुसुम से करने का सोचेंगे?"

"तो फिर क्या सोचा उन्होंने?" सुगंधा देवी ने पूछा____"क्या इस बारे में उन्होंने कुछ कहा आपसे?"

"ये सच जानने के बाद भी वो अपने बेटे का विवाह कुसुम से करने को तैयार हैं।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन हमने यही कहा कि अब क्योंकि पहले जैसे हालात नहीं रहे इस लिए इस बारे में हम कुछ नहीं कह सकते। अगर वो सच में ये रिश्ता करना चाहते हैं तो वो यहां आ कर लड़की की मां से बात करें।"

"तो क्या लगता है आपको?" सुगंधा देवी ने पूछा____"क्या वो मेनका से रिश्ते की बात करने यहां आएंगे?"

"उन्होंने कहा है तो अवश्य आएंगे।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैसे अगर कुसुम महेंद्र सिंह के घर की बहू बन जाएगी तो ये मेनका के लिए अच्छा ही होगा। अच्छे खासे संपन्न लोग हैं वो। एक ही बेटा है उनके तो ज़ाहिर है कुसुम उनके घर की रानी बन कर ही रहेगी। सबसे बड़ी बात ये कि ऐसा होने से वो भी कभी किसी को सफ़ेदपोश का काला सच नहीं बताएंगे। आख़िर रिश्ता होने के बाद बदनामी के डर से वो भी कभी इस सच को उजागर करने का नहीं सोचेंगे।"

"कहते तो आप उचित ही हैं।" सुगंधा देवी ने सोचने वाले भाव से कहा____"लेकिन क्या ज़रूरी है कि वो ऐसा ही करेंगे जैसा कि आप कह रहे हैं? ऐसा भी तो हो सकता है कि वो इस सच को एक ढाल के रूप में स्तेमाल करने का सोच लें। अगर उनके मन में किसी तरह की दुर्भावना आ गई तो उससे वो हमें ही नुकसान पहुंचाने का सोच सकते हैं।"

"होने को तो कुछ भी हो सकता है।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन हमें यकीन है कि वो ऐसी गिरी हुई हरकत करने का नहीं सोच सकते। बाकी जिसकी किस्मत में जो लिखा है वो तो हो के ही रहेगा।"

थोड़ी देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद सुगंधा देवी उठ कर कमरे से बाहर चली गईं। इधर दादा ठाकुर पलंग पर अधलेटी अवस्था में बैठे ख़ामोशी से जाने क्या सोचने लगे थे।​
 
अध्याय - 157
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"होने को तो कुछ भी हो सकता है।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन हमें यकीन है कि वो ऐसी गिरी हुई हरकत करने का नहीं सोच सकते। बाकी जिसकी किस्मत में जो लिखा है वो तो हो के ही रहेगा।"

थोड़ी देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद सुगंधा देवी उठ कर कमरे से बाहर चली गईं। इधर दादा ठाकुर पलंग पर अधलेटी अवस्था में बैठे ख़ामोशी से जाने क्या सोचने लगे थे।

अब आगे....


वक्त हमेशा की तरह अपनी रफ़्तार से चलता रहा। दिन इसी तरह गुज़रने लगे। दो दिन बाद पिता जी चंदनपुर गए और वहां पर वो ख़ास तौर पर रागिनी भाभी से मिले। हालाकि वीरेंद्र सिंह ने अपने घर वालों को बता दिया था लेकिन इसके बावजूद पिता जी जब चंदनपुर गए तो वो खुद भी भाभी से मिले। हर कोई हैरान था और ये सोच कर खुश भी था कि इतने बड़े इंसान होने के बाद भी वो ग़लत होने पर किसी के सामने झुकने पर झिझक नहीं करते हैं और ना ही माफ़ी मांगने में शर्म महसूस करते हैं।

रागिनी भाभी के लिए वो पल बहुत ही अद्भुत और बहुत ही ज़्यादा संवेदनशील बन गया था जब पिता जी उनके सामने अपनी बात कहते हुए उनसे माफ़ी मांग रहे थे। भाभी ये सब सहन न कर सकीं थी और ये सोच कर रो पड़ीं थी कि उसके ससुर उससे माफ़ी मांगने इतनी दूर उसके पास आए थे। इतना तो वो पहले से ही जानतीं थी कि उनके सास ससुर कितने अच्छे थे और कितने महान थे लेकिन अपनी बहू की खुशियों का ख़याल वो इस हद तक भी करेंगे इसका आभास आज हुआ था उन्हें। ऐसी महान शख्सियत को अपने से माफ़ी मांगते देख वो अंदर तक हिल गईं थी और साथ ही बुरी तरह तड़प उठीं थी। उनकी छोटी बहन कामिनी उनके साथ ही थी इस लिए उन्होंने उससे कहलवाया कि वो ऐसा न करें। उसकी नज़र में उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया है, बल्कि ये उनका सौभाग्य है कि उन्हें उनके जैसे पिता ससुर के रूप में मिले हैं जो उनकी खुशियों का इतना ख़याल रखते हैं।

बहरहाल, इस सबके बाद वहां पर ये चर्चा शुरू हुई कि जल्द ही विवाह करने के लिए पुरोहित जी से शुभ मुहूर्त की लग्न बनवाई जाए और फिर ये विवाह संपन्न किया जाए। सारा दिन पिता जी वहीं पर रुके रहे और इसी संबंध में बातें करते रहे उसके बाद वो शाम को वापस रुद्रपुर आ गए।

हवेली में उन्होंने मां को सब कुछ बताया और फिर जल्दी ही पुरोहित जी से मिलने की बात कही। मां इस सबसे बहुत खुश थीं। हवेली में एक बार फिर से खुशियों की झलक दिखने लगी थी। हर किसी के चेहरे पर एक अलग ही चमक दिखने लगी थी।

मुझे भी मां से सब कुछ पता चल चुका था। मैं समझ चुका था कि अब भाभी के साथ मेरा विवाह होना बिल्कुल तय हो चुका है। इस बात के एहसास से मेरे अंदर एक अलग ही एहसास जागने लगे थे। मैं अब भाभी को एक पत्नी की नज़र से सोचने लगा था। ये अलग बात है कि उनको पत्नी के रूप में सोचने से मुझे बड़ा अजीब सा महसूस होता था। मैं सोचने पर मज़बूर हो जाता था कि उस समय क्या होगा जब भाभी को मैं विवाह के पश्चात अपनी पत्नी बना कर हवेली ले आऊंगा? आख़िर कैसे मैं एक पति के रूप में उनसे इस रिश्ते को आगे बढ़ा पाऊंगा? क्या भाभी मेरी पत्नी बनने के बाद मेरे साथ जीवन का सफ़र सहजता से आगे बढ़ा सकेंगी? क्या मैं पूर्ण रूप से उनके साथ वो सब कर पाऊंगा जो एक पति पत्नी के बीच होता है और जिससे एक नई पीढ़ी का जन्म होता है?

ये सारे सवाल ऐसे थे जिनके सोचने से बड़ी अजीब सी अनुभूति होने लगी थी। सीने में मौजूद दिल की धड़कनें घबराहट के चलते एकाएक धाड़ धाड़ कर के बजने लगतीं थी।

वहीं दूसरी तरफ, मैं रूपा के बारे में भी सोचने लगता था लेकिन उसके बारे में मुझे इस तरह की असहजता अथवा इस तरह की घबराहट नहीं महसूस होती थी क्योंकि उसके साथ मैं वो सब पहले भी कई बार कर चुका था जो विवाह के बाद पति पत्नी के बीच होता है। लेकिन हां अब उसके प्रति मेरे दिल में प्रेम ज़रूर पैदा हो चुका था जिसके चलते अब मैं उसे एक अलग ही नज़र से देखने लगा था। उसके प्रति भी मेरे दिल में वैसा ही आदर सम्मान था जैसा भाभी के प्रति था।

ऐसे ही एक महीना गुज़र गया। विद्यालय और अस्पताल का निर्माण कार्य अब लगभग अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गया था। रूपचंद्र कुछ दिनों से कम ही आता था क्योंकि उसके घर में विवाह की तैयारियां जोरों से चल रहीं थी। अतः यहां की देख रेख अब मैं ही कर रहा था। पिता जी भी अपनी तरफ से गौरी शंकर की यथोचित सहायता कर रहे थे।

आख़िर वो दिन आ ही गया जब रूपचंद्र के घर बरात आई और मणि शंकर की बेटियों का विवाह हुआ। इस विवाह में हवेली से पिता जी मुंशी किशोरी लाल के साथ तो गए ही किंतु साथ में मां, मेनका चाची, निर्मला काकी, कुसुम और कजरी भी गईं। थोड़े समय के लिए मैं भी गया लेकिन फिर मैं वापस आ गया था।

साहूकार मणि शंकर की बेटियों का बहुत ही विधिवत तरीके से विवाह संपन्न हुआ। नात रिश्तेदार तो भारी संख्या में थे ही किंतु आस पास के गांवों के उसके जानने वाले भी थे। महेंद्र सिंह और अर्जुन सिंह भी आए हुए थे। सुबह दोनों बेटियों की विदाई हुई। बेटियों ने अपने करुण रुदन से सबकी आंखें छलका दी थी। बहरहाल विवाह संपन्न हुआ और धीरे धीरे सब लोग अपने अपने घरों को लौट गए।

एक दिन महेंद्र सिंह हवेली में आए और पिता जी से बोले कि वो मेनका चाची से रिश्ते की बात करने आए हैं। इत्तेफ़ाक से मैं भी उस वक्त बैठक में ही था। मुझे महेंद्र सिंह से रिश्ते की बात सुन कर थोड़ी हैरानी हुई। उधर पिता जी ने मुझसे कहा कि मैं अंदर जा कर मेनका चाची को बैठक में ले कर आऊं। उनके हुकुम पर मैंने ऐसा ही किया। मेनका चाची को समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर बात क्या है?

चाची जब बैठक में आईं तो उन्होंने सिर पर घूंघट कर लिया था। बैठक में पिता जी और किशोरी लाल के साथ महेंद्र सिंह को बैठा देख उनके चेहरे पर सोचो के भाव उभर आए।

"हमारे मित्र महेंद्र सिंह जी तुमसे कुछ बात करना चाहते हैं बहू।" पिता जी ने मेनका चाची से मुखातिब हो कर सामान्य भाव से कहा____"हम चाहते हैं कि तुम इत्मीनान से इनकी बातें सुन लो। उसके बाद तुम्हें जो ठीक लगे जवाब दे देना।"

मेनका चाची पिता जी की ये बात सुन कर मुख से तो कुछ न बोलीं लेकिन कुछ पलों तक उन्हें देखने के बाद महेंद्र सिंह की तरफ देखने लगीं। महेंद्र सिंह समझ गए कि वो उन्हें इस लिए देखने लगीं हैं क्योंकि वो जानना चाहती हैं कि वो उनसे क्या कहना चाहते हैं?

"वैसे तो हमने ठाकुर साहब से अपनी बात कह दी थी।" महेंद्र सिंह ने जैसे भूमिका बनाते हुए कहा____"लेकिन ठाकुर साहब का कहना था कि इस बारे में हम आपसे भी बात करें। इस लिए आज हम आपसे ही बात करने आए हैं।"

महेंद्र सिंह की इस बात से चाची चुप ही रहीं। उनके चेहरे पर उत्सुकता के भाव नुमायां हो रहे थे। उधर महेंद्र सिंह कुछ पलों तक शांत रहे। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वो अपनी बात कहने के लिए खुद को अच्छे से तैयार कर रहे हों।

"असल में हम आपके पास एक प्रस्ताव ले कर आए हैं।" फिर उन्होंने चाची की तरफ देखते हुए कहा____"हम अपने बेटे राघवेंद्र के लिए आपसे आपकी बेटी कुसुम का हाथ मांगने आए हैं। हमारी दिली ख़्वाईश है कि हम ठाकुर साहब से अपनी मित्रता को रिश्तेदारी के अटूट एवं हसीन बंधन में बदल लें। क्या आपको हमारा ये प्रस्ताव स्वीकार है मझली ठकुराईन?"

मेनका चाची तो चौंकी ही लेकिन मैं भी हैरानी से महेंद्र सिंह की तरफ देखने लगा था। उधर पिता जी चुपचाप अपने सिंहासन पर बैठे थे। बैठक में एकदम से सन्नाटा सा छा गया था।

"आप चुप क्यों हैं ठकुराईन?" चाची को कुछ न बोलते देख महेंद्र सिंह ने व्याकुलता से कहा____"हम आपसे जवाब की उम्मीद किए बैठे हैं। एक बात और, आपको इस बारे में किसी भी तरह का संकोच करने की ज़रूरत नहीं है। यकीन मानिए हमें आपके द्वारा हमारे प्रस्ताव को ठुकरा देने पर बिल्कुल भी बुरा नहीं लगेगा।"

"मैं चुप इस लिए हूं क्योंकि मैं ये सोच कर चकित हूं कि इस बारे में आपने मुझसे बात करना क्यों ज़रूरी समझा?" मेनका चाची कहने साथ ही पिता जी से मुखातिब हुईं____"जेठ जी, क्या अभी भी आपने मुझे माफ़ नहीं किया है? क्या सच में आपने मुझे पराया समझ लिया है और इस लिए आप मेरे और मेरी बेटी के बारे में खुद कोई फ़ैसला नहीं करना चाहते हैं?"

"तुम ग़लत समझ रही हो बहू।" पिता जी ने कहा____"हमने किसी को भी पराया नहीं समझा है बल्कि अभी भी हम सबको अपना ही समझते हैं। रही बात किसी का फ़ैसला करने की तो बात ये है कि हम नहीं चाहते कि हमारे किसी फ़ैसले से बाद में किसी को कोई आपत्ति हो जाए अथवा कोई नाखुश हो जाए। कुसुम तुम्हारी बेटी है इस लिए उसके जीवन का फ़ैसला करने का हक़ सिर्फ तुम्हें है। अगर हमारा भाई जगताप ज़िंदा होता तो शायद हमें इस बारे में कोई फ़ैसला करने में संकोच नहीं होता।"

मेनका चाची कुछ देर तक पिता जी को देखती रहीं। घूंघट किए होने से नज़र तो नहीं आ रहा था लेकिन ये समझा जा सकता था कि पिता जी की बातों से उन्हें तकलीफ़ हुई थी।

"ठीक है, अगर आप इसी तरह से सज़ा देना चाहते हैं तो मुझे भी आपकी सज़ा मंजूर है जेठ जी।" कहने के साथ ही चाची महेंद्र सिंह से बोलीं____"आप इस बारे में मुझसे जवाब सुनने चाहते हैं ना तो सुनिए, मैं आपके इस प्रस्ताव को ना ही स्वीकार करती हूं और ना ही ठुकराती हूं। अगर आप सच में अपनी मित्रता को रिश्तेदारी में बदलना चाहते हैं तो इस बारे में जेठ जी से ही बात कीजिए। मुझे कुछ नहीं कहना अब।"

कहने के साथ ही मेनका चाची पलटीं और बिना किसी की कोई बात सुने बैठक से चलीं गई। हम सब भौचक्के से बैठे रह गए। किसी को समझ ही नहीं आया कि ये क्या था?

"माफ़ करना मित्र।" ख़ामोशी को चीरते हुए पिता जी ने कहा____"आपको ऐसी अजीब स्थिति में फंस जाना पड़ा।"

"हम समझ सकते हैं ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"सच कहें तो हमें मझली ठकुराईन से इसी तरह के जवाब की उम्मीद थी। उनकी बातों से स्पष्ट हो चुका है कि वो क्या चाहती हैं। यानि वो चाहती हैं कि इस बारे में आप ही फ़ैसला करें।"

"हमारी स्थिति से आप अच्छी तरह वाक़िफ हैं मित्र।" पिता जी ने कहा____"समझ ही सकते हैं कि इस बारे में कोई भी फ़ैसला करना हमारे लिए कितना मुश्किल है।"

"बिल्कुल समझते हैं ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"लेकिन ये भी समझते हैं कि आपको किसी न किसी नतीजे पर तो पहुंचना ही पड़ेगा। हम इस वक्त आपको किसी परेशानी में डालना उचित नहीं समझते हैं इस लिए आप थोड़ा समय लीजिए और सोचिए कि वास्तव में आपको क्या करना चाहिए? हम फिर किसी दिन आपसे मुलाक़ात करने आ जाएंगे। अच्छा अब हमें जाने की इजाज़त दीजिए।"

पिता जी ने भारी मन सिर हिलाया और उठ कर खड़े हो गए। महेंद्र सिंह कुछ ही देर में अपनी जीप में बैठ कर चले गए। इधर मैंने महसूस किया कि मामला थोड़ा गंभीर और संजीदा सा हो गया है। मैं इस बात से भी थोड़ा हैरान था कि महेंद्र सिंह के सामने चाची ने ऐसी बातें क्यों की? क्या उन्हें इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं था कि उनकी ऐसी बातों से महेंद्र सिंह के मन में क्या संदेश गया होगा?

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अंदर मेनका चाची मां के पास बैठी सिसक रहीं थी। मां को समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर ऐसा क्या हो गया है जिसके चलते मेनका चाची यूं अचानक से सिसकने लगीं हैं। इतना तो वो भी जानती थीं कि मैं उन्हें ले कर बैठक में गया था लेकिन बैठक में क्या हुआ ये उन्हें पता नहीं था।

"अब कुछ बताओगी भी कि हुआ क्या है?" मां ने चाची से पूछा____"तुम तो वैभव के साथ बैठक में ग‌ई थी ना?"

"मैं तो समझी थी कि आपने और जेठ जी ने मुझे माफ़ कर दिया है।" मेनका चाची ने दुखी भाव से कहा____"लेकिन सच तो यही है कि आप दोनों ने मुझे अभी भी माफ़ नहीं किया है।"

"ये क्या कह रही हो तुम?" मां के चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे____"भला ऐसा कैसे कह सकती हो तुम कि हमने तुम्हें माफ़ नहीं किया है?"

"अगर आप दोनों ने सच में मुझे माफ़ कर दिया होता।" चाची ने कहा____"तो आज जेठ जी मुझसे ऐसी बातें नहीं कहते। वो मुझे और मेरी बेटी को पराया समझने लगे हैं दीदी।"

"तुम होश में तो हो?" मां हैरत से आंखें फैला कर जैसे चीख ही पड़ीं____"ये कैसी ऊटपटांग बातें कर रही हो तुम? तुम्हारे जेठ जी ने भला ऐसा क्या कह दिया है तुमसे जिससे तुम ऐसा समझ रही हो?"

"आपको पता है बैठक में मुझे किस लिए बुलाया गया था?" चाची ने पूर्व की भांति ही दुखी लहजे में कहा____"असल में वहां पर महेंद्र सिंह जी बैठे हुए थे जो अपने बेटे का विवाह प्रस्ताव ले कर आए थे। शायद उन्होंने पहले जेठ जी से इस बारे में बता की थी लेकिन जेठ जी ने ये कह दिया रहा होगा कि वो इस बारे में कोई फ़ैसला नहीं करेंगे बल्कि मैं करूंगी। यानि उनके कहने का मतलब ये है कि वो मेरी बेटी के बारे में कोई फ़ैसला नहीं कर सकते।"

"हां तो इसमें क्या हो गया?" मां ने कहा____"कुसुम तुम्हारी बेटी है तो उसके बारे में कोई भी फ़ैसला करने का हक़ सबसे पहले तुम्हारा ही है। क्या तुम सिर्फ इतनी सी बात पर ये समझ बैठी हो कि हमने तुम्हें माफ़ नहीं किया है?"

"आज से पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ न दीदी कि जेठ जी ने किसी के बारे में कोई फ़ैसला खुद से न किया रहा हो।" मेनका चाची ने कहा____"फिर अब क्यों वो मेरी बेटी का फ़ैसला खुद नहीं कर सकते? क्यों उन्होंने ये कहा कि कुसुम मेरी बेटी है तो उसके बारे में मुझे ही फ़ैसला करना होगा? अभी तक तो मुझसे ज़्यादा आप दोनों ही मेरे बच्चों को अपना समझते रहे हैं, फिर अब क्यों ये ज़ाहिर कर रहे हैं कि आप दोनों का उन पर कोई हक़ नहीं है?"

"तुम बेवजह ये सब सोच कर खुद को हल्कान कर रही हो मेनका।" मां ने कहा____"हमने ना पहले तुम में से किसी को ग़ैर समझा था और ना ही अब समझते हैं। रही बात कुसुम के बारे में निर्णय लेने की तो ये सच है कि तुम उसकी मां हो इस लिए तुमसे पूछना और तुम्हारी राय लेना हर तरह से उचित है। अगर तुम्हारे जेठ जी ऐसा कुछ कह भी दिए हैं तो तुम्हें इस बारे में ऐसा नहीं सोचना चाहिए।"

मां की बात सुन कर मेनका चाची नम आंखों से अपलक उन्हें देखती रहीं। उनके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे। रोने से उनकी आंखें हल्का सुर्ख हो गईं थी।

"देखो मेनका सच हमेशा सच ही होता है।" मां ने फिर से कहा____"उसे किसी भी तरह से झुठलाया नहीं जा सकता। माना कि हम तुम्हारे बच्चों को हमेशा तुमसे कहीं ज़्यादा प्यार और स्नेह देते आए हैं लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं हो जाएगा कि वो तुम्हारे नहीं बल्कि असल में हमारे बच्चे कहलाएंगे। तुमने उन्हें जन्म दिया है तो वो हर सूरत में तुम्हारे बच्चे ही कहलाएंगे। भविष्य में कभी भी अगर उनके बारे में कोई बात आएगी तो सबसे पहले तुमसे भी तुम्हारी राय अथवा इच्छा पूछी जाएगी, क्योंकि मां होने के नाते ये तुम्हारा हक़ भी है और हर तरह से जायज़ भी है। इस लिए तुम बेवजह ये सब सोच कर खुद को दुखी मत करो।"

"हे भगवान!" मेनका चाची को एकदम से जैसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ____"इसका मतलब मुझसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई है। मैंने अपनी नासमझी में जेठ जी पर आरोप लगा दिया और ना जाने क्या कुछ कह दिया। कितनी बुरी हूं मैं, मैंने अपने देवता समान जेठ जी को फिर से दुख पहुंचा दिया।"

"शांत हो जाओ।" मां ने उन्हें सम्हालते हुए कहा____"तुमने अंजाने में भूल की है इस लिए मैं तुम्हें दोषी नहीं मानती।"

"नहीं दीदी।" मेनका चाची ने झट से उठ कर कहा____"मुझसे ग़लती हुई है और मैं अभी जा कर जेठ जी से अपनी ग़लती की माफ़ी मांगूंगी।"

इससे पहले कि मां कुछ कहतीं मेनका चाची पलट कर तेज़ी से बाहर बैठक की तरफ बढ़ चलीं। कुछ ही देर में वो बैठक में दाख़िल हुईं। मैं पिता जी और किशोरी लाल अभी भी वहीं सोचो में गुम बैठे हुए थे। चाची को फिर से आया देख हम सबकी तंद्रा टूटी।

"मुझे माफ़ कर दीजिए जेठ जी।" उधर चाची ने घुटनों के बल बैठ कर पिता जी से कहा____"मैंने आपकी बातों को ग़लत समझ लिया था। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ था जैसे आपने मुझे अभी तक माफ़ नहीं किया है और मेरे साथ साथ मेरे बच्चों को भी पराया समझ लिया है। कृपया मेरी नासमझी और मेरी भूल के लिए माफ़ कर दीजिए मुझे।"

"कोई बात नहीं बहू।" पिता जी ने थोड़ी गंभीरता से कहा____"हम समझ सकते हैं कि तुमसे अंजाने में ये ग़लती हुई है। ख़ैर हम तो सिर्फ यही चाहते थे कि अपनी बेटी के संबंध में तुम्हें जो सही लगे उस बारे में अपनी राय हमारे सामने ज़ाहिर कर दो।"

"मेरी राय आपकी राय से जुदा नहीं हो सकती जेठ जी।" मेनका चाची ने कहा____"कुसुम को मुझसे ज़्यादा आपने अपनी बेटी माना है इस लिए उसके बारे में आप जो भी फ़ैसला लेंगे मुझे वो स्वीकार ही होगा।"

"ठीक है।" पिता जी ने कहा____"अगर तुम्हें महेंद्र सिंह जी का ये विवाह प्रस्ताव स्वीकार है तो हम उन्हें इस बारे में बता देंगे। ख़ैर अब तुम जाओ।"

मेनका चाची वापस चली गईं। इधर मैं काफी देर से इस संबंध के बारे में सोचे जा रहा था। मुझे पहली बार एहसास हुआ था कि मेरी लाडली बहन सच में अब बड़ी हो गई है, तभी तो उसके विवाह के संबंध में इस तरह की बातें होने लगीं हैं।

महेंद्र सिंह के बेटे राघवेंद्र सिंह को मैं अच्छी तरह जानता था। अपने माता पिता की वो भले ही इकलौती औलाद था लेकिन उसके माता पिता ने लाड़ प्यार दे कर बिगाड़ा नहीं था। महेंद्र सिंह वैसे भी थोड़ा सख़्त मिज़ाज इंसान हैं। ज्ञानेंद्र सिंह भी अपने बड़े भाई की तरह ही सख़्त मिज़ाज हैं। ज़ाहिर हैं ऐसे में राघवेंद्र का ग़लत रास्ते में जाना संभव ही नहीं था। कई बार मेरी उससे भेंट हुई थी और मैंने यही अनुभव किया था कि वो एक अच्छा लड़का है। कुसुम का उसके साथ अगर विवाह होगा तो यकीनन ये अच्छा ही होगा। वैसे भी महेंद्र सिंह का खानदान आज के समय में काफी संपन्न है और बड़े बड़े लोगों के बीच उनका उठना बैठना भी है।

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रागिनी आज कल थोड़ा खुश नज़र आने लगी थी। इसके पहले जहां वो उदास और गंभीर रहा करती थी वहीं अब उसका चेहरा खिला खिला रहने लगा था। उसके चेहरे की चमक देख घर का हर सदस्य भी खुश था और साथ ही ये समझ चुका था कि अब वो अपने देवर को यानि वैभव को एक पति के रिश्ते से सोचने लगी है।

रागिनी की भाभी वंदना अपनी ननद को यूं खुश देख खुद भी खुश थी और अब कुछ ज़्यादा ही उसे छेड़ने लगी थी। अपनी भाभी के द्वारा इस तरह से छेड़े जाने से रागिनी शर्म से पानी पानी हो जाती थी। उसका ऐसा हाल तब भी नहीं हुआ करता था जब उसका अभिनव से पहली बार विवाह होना था। उसके इस तरह अत्यधिक शर्माने की वजह शायद ये हो सकती थी कि अब जिसके साथ उसका विवाह हो रहा था वो अब से पहले उसका देवर था और अब पति बनने वाला था। दो तरह के रिश्तों का एहसास उसे कुछ ज़्यादा ही शर्माने पर मज़बूर कर देता था।

दूसरी तरफ उसकी छोटी बहन कामिनी भी अपनी बड़ी बहन के लिए खुश थी। आज कल उसके मन में बहुत कुछ चलने लगा था। उसमें अजब सा परिवर्तन आ गया था। पहले वो जब भी वैभव के बारे में सोचती थी तो उसके मन में वैभव के प्रति गुस्सा और नफ़रत जैसे भाव उभर आते थे लेकिन अब ऐसा नहीं रह गया था। वैभव का इस तरह से बदल जाना उसे हैरान तो करता ही था किंतु वो इस बात से खुश भी थी कि अब वो एक अच्छा इंसान बन गया है। इस वजह से वो उसकी बड़ी बहन से एक सभ्य इंसानों की तरह बर्ताव करेगा और उसकी खुशियों का ख़याल भी रखेगा। एक समय था जब उसके घर वाले उसका विवाह वैभव से करने की चर्चा किया करते थे। जब उसे इस बात का पता चला था तो उसने अपनी मां से स्पष्ट शब्दों में बोल दिया था कि वो वैभव जैसे चरित्रहीन लड़के से किसी कीमत पर विवाह नहीं करेगी। उसकी इस बात से फिर कभी उसके घर वालों ने वैभव के साथ उसका विवाह करने का ज़िक्र नहीं किया था। बहरहाल समय गुज़रा और अब वो उसी वैभव के बदले स्वभाव से खुश और संतुष्ट सी हो गई थी। यही वजह थी कि दोनों बार जब वैभव उसके घर आया था तो उसने खुद जा कर वैभव से बातें की थी। वो खुद परखना चाहती थी कि क्या वैभव सच में एक अच्छा इंसान बन गया है?​
 
अध्याय - 158
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दोपहर का वक्त था।
हवेली की बैठक में पिता जी तो बैठे ही थे किंतु उनके साथ किशोरी लाल, गौरी शंकर, रूपचंद्र और वीरेंद्र सिंह भी बैठे हुए थे। वीरेंद्र सिंह को पिता जी ने संदेशा भिजवा कर बुलाया था।

"हमने आप सबको यहां पर इस लिए बुलवाया है ताकि हम सब एक दूसरे के समक्ष अपनी अपनी बात रखें और उस पर विचार कर सकें।" पिता जी ने थोड़े गंभीर भाव से कहा_____"अब जबकि हमारी बहू भी वैभव से विवाह करने को राज़ी हो गई है तो हम चाहते हैं कि जल्द से जल्द ये विवाह संबंध भी हो जाए।" कहने के साथ ही पिता जी गौरी शंकर से मुखातिब हुए____"हम तुमसे जानना चाहते हैं गौरी शंकर कि इस बारे में तुम्हारा क्या कहना है? हमारा मतलब है कि वैभव की बरात सबसे पहले तुम्हारे घर में आए या फिर चंदनपुर जाए? हमारे लिए तुम्हारी भतीजी भी उतनी ही अहमियत रखती है जितना कि हमारी बहू रागिनी। हम ये कभी नहीं भूल सकते हैं कि तुम्हारी भतीजी के बदौलत ही हमारे बेटे को नया जीवन मिला है। हम ये भी नहीं भूल सकते कि तुम्हारी भतीजी ने अपने प्रेम के द्वारा वैभव को किस हद तक सम्हाला है। इस लिए तुम जैसा चाहोगे हम वैसा ही करेंगे।"

"आपने मेरी भतीजी के विषय में इतनी बड़ी बात कह दी यही बड़ी बात है ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने अधीरता से कहा____"यकीन मानिए आपकी इन बातों से मुझे अंदर से बेहद खुशी महसूस हो रही है। मुझे भी इस बात का एहसास है कि मेरी भतीजी की वजह से ही आज मैं और मेरा पूरा परिवार आपकी नज़र में दया के पात्र बने हैं वरना हम भी समझते हैं कि जो कुछ हमने आपके साथ किया था उसके चलते हमारा पतन हो जाना निश्चित ही था।"

"जो गुज़र गया उसके बारे में अब कुछ भी मत कहो गौरी शंकर।" पिता जी ने कहा____"हम उस सबको कभी याद नहीं करना चाहते। अब तो सिर्फ यही चाहते हैं कि आगे जो भी हो अच्छा ही हो। ख़ैर इस वक्त हम तुमसे यही जानना चाहते हैं कि तुम क्या चाहते हो? क्या तुम ये चाहते हो कि वैभव की बरात सबसे पहले तुम्हारे द्वार पर आए या फिर चंदनपुर जाए?"

"आपको इस बारे में मुझसे कुछ भी पूछने की ज़रूरत नहीं है ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने कहा____"आप अपने मन से जैसा भी करेंगे हम उसी से खुश और संतुष्ट हो जाएंगे।"

"नहीं गौरी शंकर।" पिता जी ने कहा____"इस बारे में तुम्हें बिल्कुल भी संकोच करने की अथवा कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं है। तुम जैसा चाहोगे हम वैसा ही करेंगे और ये हम सच्चे दिल से कह रहे हैं।"

"अगर आप मेरे मुख से ही सुनना चाहते हैं तो ठीक है।" गौरी शंकर ने गहरी सांस ली____"ये सच है कि हर मां बाप की तरह मेरी भी तमन्ना यही थी कि वैभव की बरात सबसे पहले मेरे ही द्वार पर आए। वैभव का जब अनुराधा के साथ ब्याह होने की बात पता चली थी तो मुझे या मेरे परिवार को उसके साथ वैभव का ब्याह होने में कोई आपत्ति नहीं थी किंतु हां इच्छा यही थी कि वैभव की बरात सबसे पहले मेरी ही चौखट पर आए। यही इच्छा रागिनी बहू के साथ वैभव का विवाह होने पर भी हुई थी लेकिन मैं ये भी समझता हूं कि ऐसा उचित नहीं होगा। रागिनी बहू पहले भी आपकी बहू थीं और अब भी होने वाली बहू ही हैं। वो उमर में भी मेरी भतीजी से बड़ी हैं। ऐसे में अगर उनका विवाह मेरी भतीजी के बाद होगा तो ये हर तरह से अनुचित लगेगा। इस लिए मेरा कहना यही है कि आप वैभव की बरात ले कर सबसे पहले चंदनपुर ही जाएं और रागिनी बिटिया के साथ वैभव का विवाह कर के उन्हें यहां ले आएं। उसके कुछ समय बाद आप वैभव की बरात ले कर हमारे घर आ जाइएगा।"

"इस बारे में तुम्हारा क्या कहना है वीरेंद्र सिंह?" पिता जी ने वीरेंद्र सिंह की तरफ देखते हुए पूछा।

"आप सब मुझसे बड़े हैं और उचित अनुचित के बारे में भी मुझसे ज़्यादा जानते हैं।" वीरेंद्र सिंह ने शालीनता से कहा____"इस लिए मैं इस बारे में आप लोगों के सामने कुछ भी कहना उचित नहीं समझता हूं। बस इतना ही कहूंगा कि आप सबका जो भी फ़ैसला होगा वो मुझे तहे दिल से मंज़ूर होगा।"

"मेरा तो यही कहना है ठाकुर साहब कि इस बारे में आपको अब कुछ भी सोचने की ज़रूरत नहीं है।" गौरी शंकर ने कहा____"मैं आपसे कह चुका हूं कि आप सबसे पहले चंदनपुर ही वैभव की बरात ले कर जाइए। सबसे पहले रागिनी बिटिया का विवाह होना ही हर तरह से उचित है।"

"किशोरी लाल जी।" पिता जी ने मुंशी किशोरी लाल की तरफ देखा____"आपका क्या कहना है इस बारे में?"

"मैं गौरी शंकर जी की बातों से पूरी तरह सहमत हूं ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने कहा____"इन्होंने ये बात बिल्कुल उचित कही है कि रागिनी बहू का विवाह सबसे पहले होना चाहिए। उमर में बड़ी होने के चलते अगर उनका विवाह रूपा बिटिया के बाद होगा तो उचित नहीं लगेगा। छोटी बड़ी हो जाएंगी और बड़ी छोटी हो जाएंगी। लोगों को जब इस बारे में पता चलेगा तो वो भी ऐसी ही बातें करेंगे। इस लिए मैं गौरी शंकर जी की बातों से सहमत हूं।"

"ठीक है।" पिता जी ने एक लंबी सांस लेने के बाद कहा____"अगर आप सबका यही विचार है तो फिर ऐसा ही करते हैं। पुरोहित जी से मिल कर जल्द ही हम दोनों बहुओं के विवाह की लग्न बनवाएंगे। हम चाहते हैं कि इस हवेली में जल्द से जल्द हमारी दोनों बहुएं आ जाएं जिससे इस हवेली में और हमारे परिवार में फिर से रौनक आ जाए।"

कुछ देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद सभा समाप्त हो गई। गौरी शंकर और रूपचंद्र चले गए, जबकि वीरेंद्र सिंह बैठक में ही बैठे रहे। वीरेंद्र सिंह को जल्द ही जाना था इस लिए पिता जी के कहने पर उसने थोड़ी देर आराम किया और फिर खुशी मन से चले गए।

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गौरी शंकर और रूपचंद्र ने अपने घर पहुंच कर सबको ये बताया कि हवेली में दादा ठाकुर से क्या बातें हुईं हैं। सबके चेहरों पर खुशी के भाव उभर आए। किसी को भी इस बात से आपत्ति नहीं हुई कि वैभव की बरात सबसे पहले उनके यहां न आ कर चंदनपुर जाएगी। शायद सबको लगता था कि सबसे पहले रागिनी का ही वैभव के साथ विवाह होना चाहिए। जल्दी ही ये ख़बर रूपा के कानों तक पहुंच गई जिसके चलते उसके चेहरे पर भी खुशी के भाव उभर आए। उसकी दोनों भाभियां उसे छेड़ने लगीं जिससे वो शर्माने लगी। फूलवती की वो दोनों बेटियां भी अपनी ससुराल से आ गईं थी जिनका कुछ समय पहले विवाह हुआ था। वो दोनों भी रूपा को छेड़ने में लग गईं थी।

घर में एकदम से ही ख़ुशी का माहौल छा गया था। रूपा को उसकी भाभियों ने और उसकी बहनों ने बताया कि वैभव का विवाह सबसे पहले उसकी भाभी रागिनी से होगा, उसके बाद उससे। रूपा को पहले से ही इस बात का अंदेशा था और वो खुद भी चाहती थी कि पहले उसकी रागिनी दीदी ही वैभव की पत्नी बनें।

बहरहाल, जल्द ही विवाह की तैयारियां शुरू हो गईं। एक बार फिर से सब अपने अपने काम पर लग गए। घर के सबसे बड़े बुजुर्ग यानि चंद्रमणि को बताया गया कि आख़िर वो दिन जल्द ही आने वाला है जब उनके घर की बेटी दादा ठाकुर की बहू बन कर हवेली जाएगी। चंद्रमणि इस बात से बेहद खुश हुए। उन्होंने गौरी शंकर और बाकी सबसे यही कहा कि सब कुछ अच्छे से करना। हर बात का ख़याल रखना, किसी भी तरह की ग़लती न हो।

"कैसी है मेरी प्यारी बहन?" रूपा के कमरे में दाख़िल होते ही रूपचंद्र ने अपनी बहन से बड़े प्यार से पूछा____"तुझे किसी ने खुशी वाली ख़बर दी कि नहीं?"

रूपचंद्र की इस बात से रूपा शर्माते हुए मुस्कुरा उठी। रूपचंद्र समझ गया कि उसे पता चल चुका है। वो चल कर उसके पास आया और पलंग के किनारे पर बैठ गया।

"वैसे एक बात कहूं।" फिर उसने रूपा की तरफ देखते हुए कहा____"विवाह तेरा होने वाला है और इसकी खुशी सबसे ज़्यादा मुझे हो रही है। मुझे इस बात की खुशी हो रही है कि मेरी बहन की तपस्या पूरी होने वाली है। मेरी बहन ने इस संबंध के चलते जितना कुछ सहा है आख़िर अब उसका पूरी तरह से अंत हो जाएगा और उसकी जगह उसे ढेर सारी खुशियां मिल जाएंगी।"

रूपा को समझ ना आया कि क्या कहे? बड़े भाई के सामने उसे शर्म आ रही थी। हालाकि उसकी बातों से उसके ज़हन में वो सारी बातें भी ताज़ा हो गईं थी जो उसने अब तक सहा था। उस सबके याद आते ही उसके चेहरे पर कुछ पलों के लिए गंभीरता के भाव उभर आए थे।

"मैं अक्सर ये बात बड़ी गहराई से सोचा करता हूं कि ये जो कुछ भी हुआ है उसके पीछे आख़िर असल वजह क्या थी?" रूपचंद्र ने थोड़े गंभीर भाव से कहा____"क्या इसकी वजह सिर्फ ये थी कि अंततः ऐसा समय आ जाए जब हम सबके दिलो दिमाग़ में दादा ठाकुर और उनके परिवार वालों के प्रति सचमुच का मान सम्मान और प्रेम भाव पैदा हो जाए? क्या इसकी वजह ये थी कि अंततः तेरे प्रेम के चलते दोनों ही परिवारों का कायाकल्प हो जाए? क्या इसकी वजह सिर्फ ये थी कि अंततः प्रेम की ही वजह से वैभव का इस तरह से हृदय परिवर्तन हो जाए और वो एक अच्छा इंसान बन जाए? और क्या इसकी वजह ये भी थी कि अंततः मैं अपनी बहन को समझने लगूं और फिर मैं भी सबके बारे में सच्चे दिल से अच्छा ही सोचने लगूं? अगर वाकई में यही वजह थी तो इस सबके बीच उन्हें क्यों इस दुनिया से गुज़र जाना पड़ा जो हमारे अपने थे? इस सबके बीच उन्हें क्यों गुज़र जाना पड़ा जो निर्दोष थे? मैं अक्सर ये सोचता हूं रूपा लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं सूझता। ख़ैर जाने दे, खुशी के इस मौके पर बीती बातों को याद कर के खुद को क्यों दुखी करना।"

"मैं ये सब तो नहीं जानती भैया।" रूपा ने थोड़ी झिझक के साथ कहा____"लेकिन बड़े बुजुर्गों से सुना है कि एक नया अध्याय तभी शुरू होता है जब उसके पहले का अध्याय समाप्त हो जाता है। जैसे प्रलय के बाद नए सिरे से सृष्टि का निर्माण होता है, ये भी शायद वैसा ही है।"

"हां शायद ऐसा ही होगा।" रूपचंद्र ने सिर हिला कर कहा____"ख़ैर छोड़ इन बातों को। अगर ये सच में नए सिरे से एक नया अध्याय शुरू करने जैसा ही है तो मैं खुशी से इस नए अध्याय का हिस्सा बनना चाहता हूं। अब से मेरी यही कोशिश रहेगी कि अपने जीवन में जो भी करूं अच्छा ही करूं। बाकी ऊपर वाले की इच्छा। अच्छा अब तू आराम कर, मैं चलता हूं।"

कहने के साथ ही रूपचंद्र उठा और कमरे से बाहर चला गया। उसके जान के बाद रूपा पलंग पर लेट गई और जाने किन ख़यालों में खो गई।

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दूसरे दिन पिता जी पुरोहित जी से मिले। उनके साथ गौरी शंकर भी था। पिता जी ने पुरोहित जी को विवाह की लग्न देखने की गुज़ारिश की तो वो अपने काम पर लग गए। वो अपने पत्रे में काफी देर तक देखते रहे। उसके बाद उन्होंने बताया कि आज से पंद्रह दिन बाद का दिन विवाह के लिए शुभ है। पिता जी ने उनसे पूछा कि और कौन सा दिन शुभ है तो पुरोहित जी ने पत्रे में देखने के बाद बताया कि उसके बाद बीसवां दिन शुभ है। पिता जी ने उन दोनों दिनों की लग्न बनाने को कह दिया।

कुछ समय बाद जब लग्न बन गई तो पिता जी और गौरी शंकर पुरोहित जी से इजाज़त ले कर वापस आ गए। पिता जी ने गौरी शंकर से कहा कि आज से बीसवें दिन वो बरात ले कर उसके घर आएंगे इस लिए वो विवाह की तैयारियां शुरू कर दें। गौरी शंकर ने खुशी से सिर हिलाया और अपने घर चला गया।

इधर हवेली में पिता जी ने सबको बता दिया कि लग्न बन गई है इस लिए विवाह की तैयारियां शुरू कर दी जाएं। मां के पूछने पर उन्होंने बताया कि आज से पंद्रहवें दिन यहां से बरात प्रस्थान करेगी चंदनपुर के लिए। मां ने कहा कि ऐसे शुभ अवसर पर मेनका चाची के दोनों बेटों को भी यहां होना चाहिए इस लिए उनको भी समय से पहले बुला लिया जाए।

समय क्योंकि ज़्यादा नहीं था इस लिए फ़ौरन ही सब लोग काम पर लग गए। पिता जी ने अपने एक मुलाजिम के हाथों लग्न की एक चिट्ठी चंदनपुर भी भिजवा दी। उसके बाद शुरू हुआ नात रिश्तेदारों को और अपने घनिष्ट मित्रों को निमंत्रण देने का कार्य।

मैं निर्माण कार्य वाली जगह पर था। रूपचंद्र ने आ कर बताया कि विवाह की लग्न बन गई है इस लिए अब मुझे हवेली पर ही रहना चाहिए और अपनी सेहत का ख़याल रखना चाहिए। उसकी ये बात सुन कर मेरे दिल की धड़कनें एकदम से बढ़ गईं। मन में एकाएक जाने कैसे कैसे ख़याल आने लगे जो मुझे रोमांचित भी कर रहे थे और थोड़ा अधीर भी कर रहे थे। रूपचंद्र के ज़ोर देने पर मुझे हवेली लौटना ही पड़ा। सच में वो मेरा पक्का साला बन गया था।

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"अरे वाह! विवाह की लग्न बन गई है और पंद्रहवें दिन तेरा विवाह हो जाएगा?" शालिनी ने मुस्कुराते हुए रागिनी को छेड़ा____"यानि मेरी प्यारी रागिनी अब जल्द से जल्द दुल्हन बन कर वैभव जीजा जी के पास पहुंच जाएगी और....और फिर रात को सुहागरात भी मनाएगी।"

"धत्त, कुछ भी बोलती है।" रागिनी बुरी तरह शर्मा गई____"शर्म नहीं आती तुझे ऐसा बोलने में?"

"लो अब इसमें शर्म कैसी भला?" शालिनी ने आंखें नचाते हुए कहा____"विवाह के बाद सुहागरात तो होती ही है और तेरे नसीब में तो दो दो बार सुहागरात का सुख लिखा है। हाय! कैसी हसीन रात होगी वो जब जीजा जी मेरी नाज़ुक सी सहेली के नाज़ुक से बदन पर से एक एक कर के कपड़े उतारेंगे और फिर उसके पूरे बदन को चूमेंगे, सहलाएंगे और फिर ज़ोर से मसलेंगे भी। उफ्फ! कितना मज़ा आएगा ना रागिनी?"

"हे भगवान! शालिनी चुप कर ना।" रागिनी उसकी बातें सुन कर शर्म से पानी पानी हो गई____"कैसे बेशर्म हो कर ये सब बोले जा रही है तू?"

"अरे! तो क्या हो गया मेरी लाडो?" शालिनी ने एकदम से उसके दोनों हाथ पकड़ लिए, फिर बोली_____"तू मेरी सहेली है। तुझसे मैं कुछ भी बोल सकती हूं और तू भी इतना शर्मा मत। तू भी मेरे साथ इन सब बातों का लुत्फ़ उठा।"

"मुझे कोई लुत्फ़ नहीं उठाना।" रागिनी ने उसको घूरते हुए कहा____"मैं तेरी तरह बेशर्म नहीं हूं।"

"बेशर्म तो तुझे बनना ही पड़ेगा अब।" शालिनी ने मुस्कुराते हुए कहा____"जब सुहागरात को जीजा जी तेरे बदन से सारे कपड़े निकाल कर तुझे पूरा नंगा कर देंगे तब क्या करेगी तू? जब वो तुझे हौले हौले प्यार करेंगे तब क्या करेगी तू? मुझे यकीन है तब तू शर्म नहीं करेगी बल्कि जीजा जी के साथ पूरी बेशर्मी से मज़ा करेगी।"

"सच में बहुत बेशर्म हो गई है तू।" रागिनी के समूचे जिस्म में झुरझुरी दौड़ गई, बुरी तरह लजाते हुए बोली____"देख अब इस बारे में कुछ मत बोलना। मैं सुन नहीं सकती, मुझे बहुत शर्म आती है। पता नहीं क्या हो गया है तुझे? शादी से पहले तो तू इतनी बेशर्म नहीं थी।"

"शादी के बाद ही तो इंसान में बदलाव आता है रागिनी।" शालिनी ने कहा____"मैं हैरान हूं कि तू शादी के बाद भी नहीं बदली क्यों? नई नवेली कुंवारी दुल्हन की तरह आज भी शर्माती है।"

"हां मैं शर्माती हूं क्योंकि मुझे शर्म आती है।" रागिनी ने कहा____"मैं तेरी तरह हर बात खुल कर नहीं बोल सकती।"

"अच्छा ये तो बता कि अब तो तू वैभव जीजा जी को पति की नज़र से ही सोचने लगी है ना?" शालिनी ने गौर से उसकी तरफ देखते हुए पूछा____"या अभी भी उनको देवर ही समझती है?"

"पहले वाला रिश्ता इतना जल्दी कैसे भूल जाऊंगी भला?" रागिनी ने थोड़ा गंभीर हो कर कहा____"जब भी उनके बारे में सोचती हूं तो सबसे पहले यही ख़याल आता है कि वो मेरे देवर थे? तू शायद अंदाज़ा भी नहीं लगा सकती कि इस ख़याल के आते ही मेरा समूचा बदन कैसे कांप उठता है? शायद ही कोई ऐसा होगा जो इस रिश्ते के बारे में अब तक मुझसे ज़्यादा सोच चुका होगा? जब तक आंखें खुली रहती हैं तब तक मन में ख़यालों का तूफ़ान चलता रहता है। मैं अब तक हर उस बात की कल्पना कर चुकी हूं जो इस रिश्ते के बाद मेरे जीवन में होने वाला है।"

"हां मैं समझ सकती हूं यार।" शालिनी ने कहा____"मैं समझ सकती हूं कि तूने इस बारे में अब तक क्या क्या नहीं सोचा होगा। सच में तेरे लिए इस रिश्ते को स्वीकार करना बिल्कुल भी आसान नहीं रहा होगा। ख़ैर जाने दे, अब तो सब ठीक हो गया है ना तो अब सिर्फ ये सोच कि तुझे अपनी आने वाली ज़िंदगी को कैसे खुशहाल बनाना है? मैं तुझे यही सलाह दूंगी कि विवाह के बाद ऐसी बातें बिल्कुल भी मत सोचना जिससे कि तेरे जीवन में और तेरी खुशियों में उसका असर पड़े। नियति ने तुझे नए सिरे से जीवन जीने का अवसर दिया है तो तू इसको उसी हिसाब से और उसी सोच के साथ जी। तेरे होने वाले पति तेरी खुशियों के लिए अगर कुछ भी कर सकते हैं तो तेरी भी यही कोशिश होनी चाहिए कि तू भी उन्हें कभी निराश न करे और हर क़दम पर उनका साथ दे।"

"हम्म्म्म।" रागिनी ने कहा____"सोचा तो यही है बाकी देखती हूं क्या होता है?"

"अच्छा ये बता कि तू अपनी होने वाली सौतन के बारे में क्या सोचती है?" शालिनी ने जैसे उत्सुकता से पूछा____"तेरे मुख से ही सुना था कि वो वैभव जी को बहुत प्रेम करती है और जिस समय वैभव जी अनुराधा नाम की लड़की की वजह से सदमे में चले गए थे तो उसने ही उन्हें उस हाल से बाहर निकाला था।"

"मैं उससे मिल चुकी हूं।" रागिनी ने अधीरता से कहा_____"उसके बारे में उन्होंने सब कुछ बताया था मुझे। सच में वो बहुत अच्छी लड़की है। उसका हृदय बहुत विशाल है। उसके जैसी अद्भुत लड़की शायद ही इस दुनिया में कहीं होगी। जब उसे अनुराधा के बारे में पता चला था तो उसने उसको भी अपना बना लिया था। अनुराधा की मौत के बाद उसने उन्हें तो सम्हाला ही लेकिन उनके साथ साथ अनुराधा की मां और उसके भाई को भी सम्हाला। बेटी बन कर अनुराधा की कमी दूर की उसने। उसके बाद जब उनके साथ मेरा विवाह होने की बात चली तो उसने मुझे भी अनुराधा की तरह अपना मान लिया। उसे इस बात से कोई आपत्ति नहीं हुई कि एक बार फिर से उसे समझौता करना पड़ेगा और अपने प्रेमी को मुझसे साझा करना पड़ेगा। उस पगली ने तो यहां तक कह दिया कि वो मुझे अपनी बड़ी दीदी मान कर मुझसे वैसा ही प्यार करेगी जैसा वो उनसे करती है। अब तुम ही बताओ शालिनी ऐसी नेकदिल लड़की के बारे में मैं कुछ उल्टा सीधा कैसे सोच सकती हूं? पहले भी कभी नहीं सोचा तो अब सोचने का सवाल ही नहीं है। ये तो नियति ने इस तरह का खेल रचा वरना सच कहती हूं उनके जीवन में सिर्फ और सिर्फ उस अद्भुत लड़की रूपा का ही हक़ है। ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूं कि मेरे हिस्से का प्यार भी उसे मिले। उसने बहुत कुछ सहा है इस लिए मैं चाहती हूं कि अब उसे कुछ भी न सहना पड़े बल्कि उसकी ज़िंदगी का हर पल खुशियों से ही भरा रहे।"

"ज़रूर ऐसा ही होगा रागिनी।" शालिनी ने रागिनी के दोनों कन्धों को पकड़ कर कहा____"तेरी बातें सुन कर मुझे यकीन हो गया है कि उस नेकदिल लड़की के जीवन में ऐसा ही होगा। तू भी उसको कभी सौतन मत समझना, बल्कि अपनी छोटी बहन समझना और उसका हमेशा ख़याल रखना।"

"वो तो मैं रखूंगी ही।" रागिनी ने कहा____"पहले भी यही सोचा था मैंने और अब भी यही सोचती हूं।"

"अच्छी बात है।" शालिनी ने कहा____"मुझे तो अब ये सब सोच कर एक अलग ही तरह की अनुभूति होती है यार। वैसे कमाल की बात है ना कि जीजा जी की किस्मत कितनी अच्छी है। मेरा मतलब है कि विवाह के बाद दो दो बीवियां उनके कमरे में पलंग पर उनके दोनों तरफ होंगी और वो दोनों को एक साथ प्यार करेंगे। हाय! कितना मज़ेदार होगा ना वो मंज़र?"

"ज़्यादा बकवास की तो गला दबा दूंगी तेरा।" रागिनी उसकी बात सुन कर फिर से शर्मा गई बोली____"जब देखो ऐसी ही बातें सोचती रहती है। चल अब जा यहां से, मुझे तुझसे अब कोई बात नहीं करना।"

"अरे! गुस्सा क्यों करती है मेरी लाडो?" शालिनी ने हल्के से हंसते हुए कहा____"मैं तो वही कह रही हूं जो भविष्य में होने वाला है।"

"तुझे बड़ा पता है भविष्य के बारे में।" रागिनी ने उसे घूर कर देखा____"तेरी जानकारी के लिए बता दूं कि ऐसा कुछ नहीं होगा। अब चुपचाप यहां से जा। मुझे भाभी के साथ काम करना है, तेरी तरह फ़ालतू की बातें करने का समय नहीं है मेरे पास।"

"आय हाय! समय नहीं है तेरे पास।" शालिनी ने आंखें फैलाई____"ज़्यादा बातें न कर मेरे सामने। मुझे पता है कि आज कल तू खाली बैठी जीजा जी के हसीन ख़यालों में ही खोई रहती है, बात करती है।"

उसकी बात सुन कर रागिनी झूठा गुस्सा दिखाते हुए उसे मारने के लिए दौड़ी तो शालिनी हंसते हुए भाग ली। उसके जाने के बाद रागिनी भी मंद मंद मुस्कुराते हुए घर के अंदर चली गई।​
 
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