Hindi Xkahani - प्यार का सबूत

☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 30
----------☆☆☆----------





अब तक,,,,,,

कुसुम तो चली गई थी लेकिन मैं ये सोचने पर मजबूर हो गया था कि आख़िर ऐसी क्या बात थी कि मेरे पूछने पर उसके चेहरे पर इस तरह के भाव मानो तांडव सा करने लगे थे? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी मैं चौंका। मेरे ज़हन में बिजली की तरह ये ख़याल उभरा कि विभोर की आवाज़ ठीक उसी वक़्त क्यों आई थी जब कुसुम शायद मुझसे कुछ बोलने वाली थी? क्या ये इत्तेफ़ाक़ था या फिर जान बूझ कर उसने उसी वक़्त कुसुम को आवाज़ दी थी? यानि हो सकता है कि वो कमरे के बाहर छुप कर हमारी बातें सुन रहा होगा और जैसे ही उसे आभास हुआ कि कुसुम मुझे कुछ बताने वाली है तो उसने उसे आवाज़ लगा दी। मुझे अपना ये ख़्याल जंचा तो ज़रूर किन्तु मैं ख़ुद ये निर्णय नहीं ले सका कि मेरे इस ख़्याल में कोई सच्चाई है भी अथवा नहीं?

अब आगे,,,,,,,


अगले दिन मैं सुबह ही नहा धो कर और कपड़े पहन कर कमरे से नीचे आया तो आँगन में तुलसी की पूजा करते हुए भाभी दिख ग‌ईं। सुबह सुबह भाभी को पूजा करते देख मेरा मन खुश सा हो गया। मैं चल कर जब उनके क़रीब पंहुचा तो उनकी नज़र मुझ पर पड़ी। पूजा की थाली लिए वो बस हल्के से मुस्कुराईं तो मेरे होठों पर भी मुस्कान उभर आई। मैं उन्हें मुस्कुराता देख खुश हो गया था। मैं यही तो चाहता था कि भाभी ऐसे ही मुस्कुराती रहें। ख़ैर मैं उनके क़रीब आया तो उन्होंने मुझे लड्डू का प्रसाद दिया। प्रसाद ले कर मैंने ईश्वर को और फिर उन्हें प्रणाम किया और फिर होठों पर मुस्कान सजाए हवेली से बाहर निकल गया।

मुख्य द्वार से बाहर आया तो मेरी नज़र एक छोर पर खड़ी मेरी मोटर साइकिल पर पड़ी। फिर कुछ सोच कर मैं पैदल ही हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ गया। मैंने रूपा को आज मंदिर में मिलने के लिए बुलाया था। मैं चाहता था कि रूपा से जब मेरी मुलाक़ात हो तो हम दोनों के पास कुछ देर का समय ज़रूर हो ताकि मैं बिना किसी बिघ्न बाधा के उससे ज़रूरी बातें कर सकूं। मैं ये तो जानता था कि रूपा हर दिन मंदिर जाती थी किन्तु मैं ये नहीं जनता था कि इन चार महीनों में उसमे भी कोई बदलाव आया था या नहीं। मुझे अंदेशा था कि मुझे गांव से निष्कासित कर दिए जाने पर शायद उसने मंदिर में आना जाना बंद कर दिया होगा। ऐसे में आज जब वो मंदिर आएगी तो यकीनन उसके घर वालों के ज़हन में ये बात आएगी कि उसने आज मंदिर जाने का विचार क्यों किया होगा? रूपचंद्र अगर उसे मंदिर जाते देखेगा तो वो ज़रूर समझ जाएगा कि वो मुझसे मिलने ही मंदिर जा रही है। ये सोच कर संभव है कि वो रूपा का पीछा करते हुए मंदिर की तरफ आ जाए।

मैं तेज़ क़दमों से चलते हुए मुख्य सड़क से एक छोटी सी पगडण्डी पर मुड़ गया। इस छोटी पगडण्डी से मैं कम समय में उस जगह पहुंच सकता था जहां पर मैंने चेतन और सुनील को मिलने के लिए कहा था। बताई हुई जगह पर जब मैं पहुंचा तो महुआ के पेड़ के पास मुझे चेतन और सुनील खड़े हुए दिख ग‌ए।

"कैसा है भाई?" मैं उन दोनों के क़रीब पंहुचा तो सुनील ने मुझसे कहा____"मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है कि तूने हम दोनों को माफ़ कर दिया है। चेतन ने बताया कि तूने हम दोनों को मिलने के लिए कहा है तो हम दोनों समय से पहले ही यहाँ आ गए थे और तेरे आने का इंतज़ार कर रहे थे।"

"अब बता भाई।" चेतन ने बड़ी उत्सुकता से पूछा____"तूने हम दोनों को यहाँ पर किस लिए मिलने को कहा था? मैं रात भर यही सोचता रहा कि आख़िर ऐसा कौन सा ज़रूरी काम होगा तेरा हम दोनों से?"

"मैं चाहता हूं कि तुम दोनों साहूकारों और मुंशी चंद्रकांत के घर वालों पर नज़र रखो।" मैंने दोनों की तरफ बारी बारी से देखते हुए कहा____"चेतन तू रूपचन्द्र और उसके सभी भाइयों पर नज़र रखेगा और सुनील तू मुंशी के घर वालों पर नज़र रखेगा।"

"साहूकारों का तो समझ में आ गया भाई।" चेतन ने सोचने वाले भाव से कहा____"लेकिन मुंशी के घर वालों पर नज़र रखने की क्या ज़रूरत है भला?"
"अगर ज़रूरत न होती।" मैंने कहा____"तो मैं उन पर नज़र रखने के लिए क्यों कहता?"

"बड़ी हैरानी की बात है भाई।" सुनील ने कहा____"आख़िर बात क्या है वैभव? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुझे मुंशी के घर वालों पर इस बात का शक है कि वो साहूकारों से मिले हुए हो सकते हैं? देख अगर तू ऐसा सोचता है तो समझ ले कि तू ग़लत सोच रहा है। क्योंकि हमने कभी उसके घर वालों को साहूकारों के किसी भी सदस्य से मिलते जुलते नहीं देखा।"

"तू ज़्यादा दिमाग़ मत चला।" मैंने कठोर भाव से कहा____"जितना कहा है उतना कर। तेरा काम सिर्फ इतना है कि तू मुंशी के घर वालों पर नज़र रख और ये देख कि उसके घर पर या उनसे मिलने कौन कौन आता है और वो ख़ुद किससे मिलते हैं।"

"ठीक है।" सुनील ने कहा____"अगर तू यही चाहता है तो मैं मुंशी के घर पर और उसके घर वालों पर आज से ही नज़र रखूंगा।"
"बहुत बढ़िया।" कहने के साथ ही मैंने चेतन की तरफ देखा____"मैं आज रूपचन्द्र की बहन रूपा से मिलने मंदिर जा रहा हूं इस लिए मैं चाहता हूं कि तू ये देख कि रूपा का पीछा करते हुए वो रूप का चंद्र तो नहीं आ रहा। अगर वो आए तो तू फ़ौरन मुझे बताएगा।"

"लगता है रूपा को पेलने का इरादा है तेरा।" चेतन ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन ये ग़लत बात है भाई। तू तो उसके साथ मज़ा करेगा और यहाँ हम जो चार महीने से सिर्फ मुट्ठ मार कर जी रहे हैं उसका क्या?"

"बुरचटने साले, मैं उसके साथ मज़ा करने नहीं जा रहा समझे।" मैंने आँखें दिखाते हुए कहा____"मेरा उससे मिलना बहुत ज़रूरी है। इस लिए मैं चाहता हूं कि तुम दोनों फिलहाल रूपचन्द्र पर नज़र रखो। उसे पता चल चुका है कि मेरा उसकी बहन के साथ सम्बन्ध है। अब जब कि मैं वापस आ गया हूं तो वो यकीनन अपनी बहन पर नज़र रखे हुए होगा।"

"फिर तो वो तुझसे खार खाए बैठा होगा।" सुनील ने हंसते हुए कहा____"उसकी गांड ये सोच कर सुलगती होगी कि तूने उसकी बहन की अच्छे से बजाई है।"
"उसकी सुलगती है तो सुलगती रहे।" मैंने लापरवाही से कहा____"लेकिन फिलहाल मैं नहीं चाहता कि उससे मेरा टकराव हो क्योंकि तुझे भी पता है कि अब साहूकारों ने हमसे अपने रिश्ते सुधार लिए हैं। इस लिए किसी भी तरह के लफड़े की पहल मैं ख़ुद नहीं करना चाहता। अगर उनकी तरफ से कोई लफड़ा होता है तो उनकी गांड तोड़ने में कोई कसर भी नहीं छोड़ूंगा।"

"मुझे पता चला था कि तूने मानिक का हाथ तोड़ दिया था।" चेतन ने कहा____"काश! उस वक़्त हम दोनों भी होते तो हम दोनों को भी हांथ साफ़ करने का मौका मिल जाता।"

"हांथ साफ़ करने का भी वक़्त आएगा।" मैंने कहा____"लेकिन इस वक़्त जो ज़रूरी है वो करो। अब तुम दोनों जाओ और रूपचन्द्र पर नज़र रखो। मैं भी मंदिर की तरफ निकल रहा हूं।"

चेतन और सुनील मेरे कहने पर चले गए और मैं भी मंदिर की तरफ जाने के लिए मुड़ गया। आज मुरारी काका की तेरहवीं भी है इस लिए मुझे मुरारी काका के घर भी समय से पंहुचना था। ख़ैर मैं तेज़ क़दमों से चलते हुए मंदिर की तरफ बढ़ा चला जा रहा था। चेतन और सुनील मेरी तरह ही किसी से न डरने वाले और शातिर लौंडे थे। हालांकि किसी से न डरने की वजह भी मैं ही था। गांव में सब जानते थे कि वो मेरे साथी हैं इस लिए कोई उन दोनों से भिड़ने की कोशिश ही नहीं करता था। दोनों के घर वाले भी मेरी वजह से उनसे कुछ नहीं कहते थे।

उस वक़्त सुबह के नौ बज चुके थे जब मैं मंदिर में पंहुचा था। गांव के इक्का दुक्का लोग मंदिर में पूजा करने और दर्शन करने आए हुए थे। मैंने भी पहले माता रानी के दर्शन किए और फिर मंदिर के पीछे की तरफ बढ़ गया। पीछे काफी सारे पेड़ पौधे लगे हुए थे जहां एक पेड़ के पास जा कर मैं बैठ गया और रूपा के आने का इंतज़ार करने लगा।

मंदिर में मैं जब भी रूपा से मिलता था तो यहीं पर मिलता था क्योंकि यहाँ पर लोगों की नज़र नहीं जाती थी। कुछ देर के अंतराल में मैं पेड़ से सिर निकाल कर मंदिर की तरफ देख लेता था। कोई आधा घंटा इंतज़ार करने के बाद मुझे रूपा आती हुई नज़र आई। खिली हुई धुप में वो बेहद सुन्दर लग रही थी। मेरे अंदर उसे देखते ही जज़्बात उछाल मारने लगे थे जिन्हें मैंने बेदर्दी से दबाने की कोशिश की।

कुछ ही देर में वो मेरे पास आ गई। आज साढ़े चार महीने बाद मैं रूपा जैसी खूबसूरत बला को अपने इतने क़रीब देख रहा था। हल्के सुर्ख रंग के शलवार कुर्ते में वो बहुत ही खूबसूरत दिख रही थी। उसके गले पर पतला सा दुपट्टा था जिसकी वजह से उसके सीने के उन्नत और ठोस उभार स्पष्ट दिख रहे थे। गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठों पर हल्की सी मुस्कान सजाए वो कुछ पलों तक मुझे देखती रही और फिर उसकी नज़रें झुकती चली गईं। जाने क्या सोच कर वो शर्मा गई थी जिसकी वजह से उसका गोरा सफ्फाक़ चेहरा हल्का सुर्ख पड़ गया था।

मैं रूपा के रूप सौंदर्य को कुछ पलों तक ख़ामोशी से देखता रहा और फिर आगे बढ़ कर उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में ले लिया। मेरे छूते ही उसके समूचे जिस्म में कम्पन हुआ और उसने अपनी बड़ी बड़ी और कजरारी आँखों से मेरी तरफ देखा।

"दिल तो करता है कि खा जाऊं तुम्हें।" मैंने उसकी आँखों में देखते हुए कहा____"इन साढ़े चार महीनों में तुम और भी ज़्यादा सुन्दर लगने लगी हो। तुम्हारा ये जिस्म पहले से ज़्यादा भरा हुआ और खिला हुआ नज़र आ रहा है। मैंने तो सोचा था कि मेरी याद में तुम्हारी हालत शायद ख़राब हो गई होगी।"

"शुरुआत में दो महीने तो मेरी हालत ख़राब ही थी जनाब।" रूपा ने अपनी खनकती हुई आवाज़ से कहा____"किन्तु फिर मैंने ख़ुद को ये सोच कर समझाया कि मेरी हालत देख कर कहीं मेरे घर वालों को मेरी वैसी हालत की असल वजह न पता चल जाए। तुम क्या जानो कि मैंने कितनी मुश्किल से ख़ुद को समझाया था।"

"हां मैं समझ सकता हूं।" मैंने उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में लिए हुए ही कहा____"पर क्या तुम्हें एहसास है कि मैं चार महीने कितनी तक़लीफ में था?"
"जिसे हम दिल की गहराइयों से चाहते हैं उसकी हर चीज़ का हमें दूर से भी एहसास हो जाता है।" रूपा ने कहा____"मेरे दिल पर हांथ रख कर देख लो, ये तुम्हें ख़ुद बता देगा कि ये किसके नाम से धड़कता है।"

"मेरे मना करने के बाद भी तुमने मेरे प्रति ऐसे ख़याल अपने दिल से नहीं निकाले।" मैंने उसकी आँखों में अपलक देखते हुए कहा____"तुम्हें अच्छी तरह पता है कि हम दोनों कभी एक नहीं हो सकते। फिर ऐसी हसरत दिल में पालने का क्या फ़ायदा?"

"अब तक मैं भी यही समझती थी कि तुम मेरी किस्मत में नहीं हो सकते।" रूपा ने मेरी आँखों में झांकते हुए बड़ी मासूमियत से कहा____"किन्तु अब मैं समझती हूं कि तुम मेरी किस्मत में ज़रूर हो सकते हो। हां वैभव, अब तो मेरे घर वालों ने दादा ठाकुर से अपने रिश्ते भी सुधार लिए हैं। अब तो हम एक हो सकते हैं। किसी को भी हमारे एक होने में ऐतराज़ नहीं होगा।"

"तुम्हें क्या लगता है रूपा?" मैंने उसके चेहरे को अपनी हथेलियों से आज़ाद करते हुए कहा____"तुम्हारे घर वालों ने हमसे अपने रिश्ते सुधारे हैं तो उसके पीछे क्या वजह हो सकती है?"

"क्या मतलब??" रूपा ने आँखें सिकोड़ कर मेरी तरफ देखा तो मैंने कहा_____"मतलब ये कि मुझे लगता है कि इसके पीछे ज़रूर कोई वजह है। इतिहास गवाह है कि हम ठाकुरों से साहूकारों के रिश्ते कभी अच्छे नहीं रहे थे। हमारे दादा पुरखों के ज़माने से ही दोनों खानदानों के बीच मन मुटाव और बैर भावना जैसी बात रही है। सवाल उठता है कि अब ऐसी कौन सी ख़ास बात हो गई है जिसके लिए साहूकारों ने ख़ुद ही आगे बढ़ कर हमसे अपने रिश्ते सुधार लेने की पहल की? इस गांव के ही नहीं बल्कि आस पास गांव वाले भी आज कल यही सोचते हैं कि आख़िर किस वजह से साहूकारों ने दादा ठाकुर से अपने रिश्ते सुधार लेने की पहल की होगी?"

"मैं ये मानती हूं कि शुरू से ही इन दोनों खानदानों के बीच अच्छे रिश्ते नहीं रहे थे।" रूपा ने कहा____"लेकिन तुम भी जानते हो कि संसार में कोई भी चीज़ हमेशा के लिए एक जैसी नहीं बनी रहती। कल अगर हमारा कोई दुश्मन था तो यकीनन एक दिन वो हमारा दोस्त भी बन जाएगा। परिवर्तन इस सृष्टि का नियम है वैभव। हमें तो खुश होना चाहिए कि शादियों से दोनों खानदानों के बीच जो अनबन थी या बैर भाव था वो अब ख़त्म हो गया है और अब हम एक दूसरे के साथ हैं। मैं मानती हूं कि ऐसी चीज़ें जब पहली बार होती हैं तो वो सबके मन में कई सारे सवाल पैदा कर देती हैं लेकिन क्या ये सही है कि दोनों परिवारों के बीच क़यामत तक दुश्मनी ही बनी रहे? आज अगर दोनों परिवार एक हो गए हैं तो इसमें ऐसी वैसी किसी वजह के बारे में सोचने की क्या ज़रूरत है?"

"मेरे कहने का मतलब ये नहीं है रूपा कि मैं दोनों परिवारों के एक हो जाने से खुश नहीं हूं।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"बल्कि इस बात से तो हम भी बेहद खुश हैं लेकिन ऐसा हो जाने से मन में जो सवाल खड़े हुए हैं उनके जवाब भी तो हमें पता होना चाहिए।"

"तो तुम किस तरह के जवाब पता होने की उम्मीद रखते हो?" रूपा ने कहा____"क्या तुम ये सोचते हो कि मेरे घर वालों के मन में कुछ ऐसा वैसा है जिसके लिए उन्होंने दादा ठाकुर से अपने रिश्ते सुधारे हैं?"

"मेरे सोचने से क्या होता है रूपा?" मैंने कहा____"इस तरह की सोच तो गांव के लगभग हर इंसान के मन में है।"
"मुझे गांव वालों से कोई मतलब नहीं है वैभव।" रूपा ने मेरी तरफ अपलक देखते हुए कहा____"मैं सिर्फ ये जानना चाहती हूं कि मेरे घर वालों के ऐसा करने पर तुम क्या सोचते हो?"

"हर किसी की तरह मैं भी ये सोचने पर मजबूर हूं कि साहूकारों के ऐसा करने के पीछे कोई तो वजह ज़रूर है।" मैंने रूपा की आँखों में देखते हुए सपाट लहजे में कहा_____"और ऐसा सोचने की मेरे पास वजह भी है।"

"और वो वजह क्या है?" रूपा ने मेरी तरफ ध्यान से देखा।
"जैसा कि तुम्हें भी पता है कि मेरे और तुम्हारे भाइयों के बीच हमेशा ही बैर भाव रहा है।" मैंने कहा_____"जिसका नतीजा हमेशा यही निकला था कि मेरे द्वारा तुम्हारे भाइयो को मुँह की खानी पड़ी थी। उस दिन तो मानिक का मैंने हाथ ही तोड़ दिया था। अब सवाल ये है कि मेरे द्वारा ऐसा करने पर भी तुम्हारे घर वालों ने कोई आपत्ति क्यों नहीं जताई और दादा ठाकुर से न्याय की मांग क्यों नहीं की?"

"क्या सिर्फ इतनी सी बात के लिए तुम ये सोच बैठे हो कि दादा ठाकुर से अपने रिश्ते सुधार लेने के पीछे कोई ऐसी वैसी वजह हो सकती है?" रूपा के चेहरे पर तीखे भाव उभर आए थे जो कि मेरे लिए थोड़ा हैरानी की बात थी, जबकि उसने आगे कहा____"जब कि तुम्हें सोचना चाहिए कि इस सबके बाद भी अगर मेरे घर वालों ने सब कुछ भुला कर दादा ठाकुर से अच्छे रिश्ते बना लेने का सोचा तो क्या ग़लत किया उन्होंने?"

"कुछ भी ग़लत नहीं किया और ये बात मैं भी मानता हूं।" मैंने कहा____"लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है बल्कि इसके अलावा भी कुछ ऐसी बाते हैं जिन्हें जान कर शायद तुम ये समझने लगोगी कि मैं बेवजह ही तुम्हारे परिवार वालों ऊँगली उठा रहा हूं।"

"और कैसी बातें हैं वैभव?" रूपा ने कहा____"मुझे भी बताओ। मुझे भी तो पता चले कि मेरे घर वालों ने ऐसा क्या किया है जिसके लिए तुम ये सब कह रहे हो।"

"मेरे पास इस वक़्त कोई प्रमाण नहीं है रूपा।" मैंने गहरी सांस ली____"किन्तु मेरा दिल कहता है कि मेरा शक बेवजह नहीं है। जिस दिन मेरे पास प्रमाण होगा उस दिन तुम्हें ज़रूर बताऊंगा। उससे पहले ये बताओ कि क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारे भाई को मेरे और तुम्हारे रिश्ते के बारे में सब पता है?"

"ये क्या कह रहे हो तुम?" रूपा मेरी ये बात सुन कर बुरी तरह चौंकी थी, चेहरे पर घबराहट के भाव लिए बोली____"मेरे भाई को कैसे पता चला और तुम ये कैसे कह सकते हो कि उसे सब पता है?"

"उसी के मुख से मुझे ये बात पता चली है।" मैंने कहा____"तुम्हारा भाई रूपचन्द्र मुझसे इसी बात का बदला लेने के लिए आज कल कई ऐसे काम कर रहा है जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।"

"क्या कर रहा है वो?" रूपा ने चकित भाव से पूछा।
"क्या तुम सोच सकती हो कि तुम्हारे भाई का सम्बन्ध मुंशी चंद्रकांत की बहू रजनी से हो सकता है?"

"नहीं हरगिज़ नहीं।" रूपा ने इंकार में सिर हिलाते हुए कहा____"सबको पता है कि मुंशी चंद्रकांत से हमारे सम्बन्ध अच्छे नहीं हैं। मेरे लिए ये यकीन करना मुश्किल है कि मेरे भाई का सम्बन्ध मुंशी की बहू से हो सकता है।"

"जबकि यही सच है।" मैंने कहा____"मैंने ख़ुद अपनी आँखों से तुम्हारे भाई को मुंशी की बहू रजनी के साथ देखा है। वो दोनों मुंशी के ही घर में पूरी तरह निर्वस्त्र हो कर रास लीला कर रहे थे और उसी रास लीला में रूपचन्द्र ने रजनी को बताया था कि मेरा उसकी बहन रूपा के साथ जिस्मानी सम्ब्नध है और इसके लिए वो मुझे हर हाल में सज़ा देगा। मुझे सज़ा देने के लिए वो मेरी बहन कुसुम को अपने जाल में फ़साने की बात कर रहा था।"

मेरी बातें सुन कर रूपा आँखें फाड़े मुझे देखती रह गई थी। कुछ कहने के लिए उसके होठ ज़रूर फड़फड़ा रहे थे किन्तु आवाज़ हलक से बाहर नहीं निकल रही थी।

"इतना ही नहीं।" उसकी तरफ देखते हुए मैंने आगे कहा____"तुम्हारे भाई ने दूसरे गांव में मुरारी काका के घर में भी झंडे गाड़ने की कोशिश की थी। वो तो वक़्त रहते मैं मुरारी काका के घर पहुंच गया था वरना वो मुरारी काका की बेटी अनुराधा के साथ ग़लत ही कर देता।"

मैने संक्षेप में रूपा को उस दिन की सारी कहानी बता दी जिसे सुन कर रूपा आश्चर्य चकित रह ग‌ई। हालांकि रूपा को मैंने ये नहीं बताया था कि मेरा जिस्मानी सम्बन्ध मुरारी काका की बीवी सरोज से था जिसका पता उसके भाई रूपचन्द्र को चल गया था और इसी बात को लेकर वो सरोज को मजबूर कर रहा था।

"बड़ी हैरत की बात है।" फिर रूपा ने कुछ सोचते हुए कहा____"मेरा भाई इस हद तक भी जा सकता है इसका मुझे यकीन नहीं हो रहा लेकिन तुमने ये सब बताया है तो यकीन करना ही पड़ेगा।"

"मैं भला तुमसे झूठ क्यों बोलूंगा रूपा?" मैंने कहा____"ये तो मेरे लिए इत्तेफ़ाक़ की ही बात थी कि मैं ऐन वक़्त पर दोनों जगह पहुंच गया था और मुझे रूपचन्द्र का ये सच पता चल गया था। मुंशी की बहू रजनी से जब वो ये कह रहा था कि वो मुझसे अपनी बहन का बदला लेने के लिए मेरी बहन कुसुम को अपने जाल में फसाएगा और फिर उसके साथ भी वही सब करेगा जो मैं तुम्हारे साथ कर चुका हूं तो मैं चाहता तो उसी वक़्त रूपचन्द्र के सामने जा कर उसकी हड्डियां तोड़ देता लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। क्योंकि मैं पहले ये जानना चाहता था कि रूपचन्द्र का सम्बन्ध मुंशी की बहू के साथ कब और कैसे हुआ?"

"मैं मानती हूं कि मेरे भाई रूपचन्द्र को तुमसे बदला लेने की भावना से ये सब नहीं करना चाहिए था और ना ही रजनी से ये सब कहना चाहिए था।" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"लेकिन इन सब बातों से तुम ये कैसे कह सकते हो कि मेरे घर वालों के मन में कुछ ऐसा वैसा है जिसके लिए उन्होंने दादा ठाकुर से अपने रिश्ते सुधारे हैं? मुझे तो लगता है कि तुम बेवजह ही मेरे घर वालों पर शक कर रहे हो वैभव। मेरे भाई का मामला अलग है, उसके मामले को ले कर अगर तुम इस सबके लिए ऐसा कह रहे हो तो ये सरासर ग़लत है।"

"जैसा कि मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूं कि मेरे पास फिलहाल इसका कोई प्रमाण नहीं है।" मैंने कहा____"और मैं खुद भी ये चाहता हूं कि मेरा शक बेवजह ही निकले लेकिन मन की तसल्ली के लिए क्या तुम्हें नहीं लगता कि हमें सच का पता लगाना चाहिए?"

"किस तरह के सच का पता?" रूपा के माथे पर शिकन उभरी।
"सच हमेशा ही कड़वा होता है रूपा।" मैंने कहा____"और सच को हजम कर लेना आसान भी नहीं होता लेकिन सच जैसा भी हो उसका पता होना निहायत ही ज़रूरी होता है। अगर तुम समझती हो कि मैं तुम्हारे घर वालों पर बेवजह ही शक कर रहा हूं तो तुम खुद सच का पता लगाओ।"

"म...मैं कैसे???" रूपा के चेहरे पर उलझन के भाव नुमायां हुए____"भला मैं कैसे किसी सच का पता लगा सकती हूं और एक पल के लिए मैं ये मान भी लू कि मेरे घर वालों के मन में कुछ ऐसी वैसी बात है भी तो क्या तुम समझते हो कि मैं वो सब तुम्हें बताऊंगी?"

"ख़ुद से ज़्यादा तुम पर ऐतबार है मुझे।" मैंने रूपा को प्यार भरी नज़रों से देखते हुए कहा____"मुझे पूरा भरोसा है कि तुम सच को जान कर भी किसी के साथ पक्षपात नहीं करोगी। अगर मैं ग़लत हुआ तो मैं इसके लिए अपने घुटनों के बल बैठ कर तुमसे माफ़ी मांग लूंगा।"

मेरे ऐसा कहने पर रूपा मुझे अपलक देखने लगी। उसके चेहरे पर कई तरह के भाव आते जाते नज़र आये मुझे। मैं ख़ामोशी से उसी को देखे जा रहा था। कुछ देर तक जाने क्या सोचने के बाद रूपा ने कहा____"तुमने मुझे बड़ी दुविधा में डाल दिया है वैभव। एक तरह से तुम मुझे मेरे ही घर वालों की जासूसी करने का कह रहे हो। क्या तुम मेरे प्रेम की परीक्षा ले रहे हो?"

"ऐसी बात नहीं है रूपा।" मैंने फिर से उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में लेते हुए कहा____"मैं अच्छी तरह जानता हूं कि तुम मुझे बेहद प्रेम करती हो। तुम्हारे प्रेम की परीक्षा लेने का तो मैं सोच भी नहीं सकता।"

"तो फिर क्यों मुझे इस तरह का काम करने को कह रहे हो?" रूपा ने मेरी आँखों में अपलक देखते हुए कहा____"अगर तुम सही हुए तो मैं कैसे तुमसे नज़रें मिला पाऊंगी और कैसे अपने ही घर वालों के खिलाफ़ जा पाऊंगी?"

"इतना कुछ मत सोचो रूपा।" मैंने कहा____"अगर मैं सही भी हुआ तो तुम्हें अपने मन में हीन भावना रखने की कोई ज़रूरत नहीं होगी बल्कि सच जानने के बाद हम उसे अपने तरीके से सुलझाएंगे। तुम्हारे घर वालों के मन में मेरे खानदान के प्रति जैसी भी बात होगी उसे दूर करने की कोशिश करेंगे। शदियों बाद दो खानदान एक हुए हैं तो उसमे किसी के भी मन में कोई ग़लत भावना नहीं रहनी चाहिए बल्कि एक दूसरे के प्रति सिर्फ और सिर्फ प्रेम रहना चाहिए। क्या तुम ऐसा नहीं चाहती?"

"तुमसे मिलने से पहले तो मैं यही सोच कर खुश थी कि अब हमारे परिवार वाले खुशी खुशी एक हो गए हैं।" रूपा ने गंभीरता से कहा____"लेकिन तुम्हारी ये बातें सुनने के बाद मेरे अंदर की वो ख़ुशी गायब सी हो गई है और अब मेरे मन में एक डर सा बैठ गया है कि अगर सच में मेरे परिवार वाले अपने मन में तुम्हारे प्रति कोई ग़लत विचार रखे हुए होंगे तो फिर उसका परिणाम क्या होगा?"

"सब कुछ अच्छा ही होगा रूपा।" मैंने रूपा के चेहरे पर लटक आई उसके बालों की एक लट को अपने एक हाथ से हटाते हुए कहा____"मैं भी अब यही सोचता हूं कि हमारे परिवारों के बीच किसी भी तरह का मन मुटाव न रहे बल्कि अब से हमेशा के लिए एक दूसरे के प्रति प्रेम ही रहे।"

"अच्छा अब मुझे जाना होगा वैभव।" रूपा दो क़दम पीछे हटते हुए बोली____"काफी देर हो गई है। तुम्हारे अनुसार अगर सच में मेरे भाई को हमारे सम्बन्धों के बारे में पता है तो वो ज़रूर मुझ पर नज़र रख रहा होगा। मैं जब घर से चली थी तब वो मुझे घर पर नहीं दिखा था। ख़ैर मैं जा रही हूं और तुम्हारे कहे अनुसार सच का पता लगाने की कोशिश करुंगी।"

"क्या ऐसे ही चली जाओगी?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"मैंने तो सोचा था कि इतने महीनों बाद मिले हैं तो कम से कम तुम मेरा मुँह तो मीठा करवाओगी ही।"
"यहां आने से पहले मेरे ज़हन में भी यही सब चल रहा था।" रूपा ने कहा____"और मैं ये सोच कर खुश थी कि तुमसे जब मिलूंगी तो तुम्हारे सीने से लिपट कर अपने दिल की आग को शांत करुँगी लेकिन इन सब बातों के बाद दिल की वो हसरतें जैसे बेज़ार सी हो गई हैं।"

रूपा की आँखों में आंसू के कतरे तैरते हुए नज़र आए तो मैंने आगे बढ़ कर उसे अपने सीने से छुपका लिया। उसके एक हाथ में पूजा की थाली थी इस लिए वो मुझे अपने एक हाथ से ही पकड़े हुए थी। कुछ पलों तक उसे खुद से छुपकाए रखने के बाद मैंने उसे अलग किया और फिर उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में ले कर उसके चेहरे की तरफ झुकता चला गया। कुछ ही पलों में मेरे होठ उसके शहद की तरह मीठे और रसीले होठों से जा मिले। मेरे पूरे जिस्म में एक सुखद और मीठी सी लहार दौड़ती चली गई। रूपा का जिस्म कुछ पलों के लिए थरथरा सा गया था और फिर वो सामान्य हो गई थी। मैंने उसके होठों को अपने मुँह में भर कर उसके होठों की शहद जैसी चाशनी को पीना शुरू कर दिया। पहले तो वो बुत की तरह खड़ी ही रही किन्तु फिर उसने भी सहयोग किया और मेरे होठों को चूमना शुरू कर दिया। ऐसा लगा जैसे कुछ ही पलों में सारी दुनियां हमारे ज़हन से मिट चुकी थी।

मैं रूपा के होठों को मुँह में भर कर चूसे जा रहा था और मेरे दोनों हाथ उसकी पीठ से लेकर उसकी कमर और उसके रुई की तरह मुलायम नितम्बों को भी सहलाते जा रहे थे। पलक झपकते ही मेरे जिस्म में अजीब अजीब सी तरंगें उठने लगीं जिसके असर से मेरी टांगों के बीच मौजूद मेरा लंड सिर उठा कर खड़ा हो गया था। जी तो कर रहा था कि रूपा को उसी पेड़ के नीचे लिटा कर उसके ऊपर पूरी तरह से सवार हो जाऊं लेकिन वक़्त और हालात मुनासिब नहीं थे। हम दोनों की जब साँसें हमारे काबू से बाहर हो गईं तो हम दोनों एक दूसरे से अलग हो गए। आँखें खुलते ही मेरी नज़र रूपा पर पड़ी तो देखा उसका गोरा चेहरा सुर्ख पड़ गया था और उसकी साँसें भारी हो गईं थी। गुलाब की पंखुड़ियां मेरे चूसने से थोड़ी मोटी सी दिखने लगीं थी।

रूपा की आँखेन बंद थी, जैसे वो अभी भी उस पल को अपनी पलकों के अंदर समाए उसमे खोई हुई थी। मैंने उसके बाजुओं को पकड़ कर उसे हिलाया तो उसने चौंक कर मेरी तरफ पलकें उठा कर देखा और फिर एकदम से शर्मा कर उसने अपनी नज़रें झुका ली। उसकी इस हया को देख कर मेरा जी चाहा कि मैं उसे फिर से अपने आगोश में ले लूं लेकिन फिर मैंने अपने जज़्बातों को काबू किया और मुस्कुराते हुए कहा____"तुम्हारे होठों की शहद चख कर दिल ख़ुशी से झूम उठा है रूपा। मन तो यही करता है कि तुम्हारे होठों पर मौजूद शहद को चखता ही रहूं लेकिन क्या करें, वक़्त और हालात इसकी इजाज़त ही नहीं दे रहे।"

"ये तुमने अच्छा नहीं किया वैभव।" रूपा पहले तो शरमाई फिर उसने थोड़ा उदास भाव से कहा____"मेरे अंदर के जज़्बातों को बुरी तरह झिंझोड़ दिया है तुमने। घर जा कर अब मुझे चैन नहीं आएगा।"

"कहो तो आज रात तुम्हारे घर आ जाऊं।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मेरा वादा है तुमसे कि उसके बाद तुम्हारे अंदर की सारी बेचैनी और सारी तड़प दूर हो जाएगी।"

"अगर ये सच में आसान होता तो मैं तुम्हें आने के लिए फौरन ही हां कह देती।" रूपा ने कहा____"ख़ैर अब जा रही हूं। कहीं मेरा भाई मुझे खोजते हुए यहाँ न पहुंच जाए।"

रूपा जाने के लिए मुड़ी तो मैंने जल्दी से उसका हाथ पकड़ लिया जिससे उसने गर्दन घुमा कर मेरी तरफ देखा। मैंने उसे अपनी तरफ खींच लिया जिससे वो मेरे सीने से आ टकराई। उसके सीने के हाहाकारी उभार मेरी चौड़ी छाती में जैसे धंस से ग‌ए, जिसका असर मुझ पर तो हुआ ही किन्तु उसके होठों से भी एक आह निकल गई। रूपा के सुन्दर चेहरे को सहलाते हुए मैंने पहले उसकी समंदर की तरह गहरी आंखों में देखा और फिर झुक कर उसके होठों को हल्के चूम लिया। इस वक़्त मेरे जज़्बात खुद ही मेरे काबू में नहीं थे। मेरे ऐसा करने पर रूपा बस हल्के से मुस्कुराई और फिर वो अपने दुपट्टे को ठीक करते हुए मंदिर की तरफ बढ़ गई। रूपा के जाने के कुछ देर बाद मैं भी उस जगह से चल दिया।

रास्ते में चेतन और सुनील मुझे मिले तो दोनों ने मुझे बताया कि उन्हें रूपचन्द्र कहीं मिला ही नहीं। हालांकि वो मंदिर जाने वाले रास्ते पर पूरी तरह से नज़र रखे हुए था। उन दोनों की बात सुन कर मैंने मन ही मन सोचा कि रूपचन्द्र अगर घर पर भी नहीं था तो कहां गया होगा? ख़ैर मैंने चेतन और सुनील को फिर से यही कहा कि वो दोनों साहूकारों और मुंशी के घर वालों पर नज़र रखें।

चेतन और सुनील को कुछ और ज़रूरी निर्देश देने के बाद मैं हवेली की तरफ चल पड़ा। रूपा से हुई मुलाक़ात का मंज़र बार बार मेरी आँखों के सामने दिखने लगता था। ख़ैर रूपा के ही बारे में सोचते हुए मैं हवेली आ गया। मेरे ज़हन में कुसुम से एक बार फिर से बात करने का ख़याल उभर आया किन्तु इस बार मैं चाहता था कि जब मैं उससे बात करूं तो किसी भी तरह की बाधा हमारे दरमियान न आए। इतना तो अब मैं भी समझने लगा था कि चक्कर सिर्फ हवेली के बाहर ही बस नहीं चल रहा है बल्कि हवेली के अंदर भी एक चक्कर चल रहा है जिसका पता लगाना मेरे लिए अब ज़रूरी था।

हवेली में आ कर मैं अपने कमरे में गया और दूसरे कपड़े पहन कर नीचे आया तो माँ से मुलाक़ात हो गई। माँ ने मुझसे पूछा कि कहां जा रहे तो मैंने उन्हें बताया कि मुरारी काका की आज तेरहवीं है इस लिए उनके यहाँ जा रहा हूं। मेरी बात सुन कर माँ ने कहा ठीक है लेकिन समय से वापस आ जाना। माँ से इजाज़त ले कर मैं हवेली से बाहर आया और मोटर साइकिल में बैठ कर मुरारी काका के गांव की तरफ निकल गया।
---------☆☆☆---------
 
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 31
----------☆☆☆----------




अब तक,,,,,

हवेली में आ कर मैं अपने कमरे में गया और दूसरे कपड़े पहन कर नीचे आया तो माँ से मुलाक़ात हो गई। माँ ने मुझसे पूछा कि कहां जा रहे तो मैंने उन्हें बताया कि मुरारी काका की आज तेरहवीं है इस लिए उनके यहाँ जा रहा हूं। मेरी बात सुन कर माँ ने कहा ठीक है लेकिन समय से वापस आ जाना। माँ से इजाज़त ले कर मैं हवेली से बाहर आया और मोटर साइकिल में बैठ कर मुरारी काका के गांव की तरफ निकल गया।

अब आगे,,,,,


मुरारी काका के घर पहुंचते पहुंचते मुझे ग्यारह बज गए थे। रूपा से मिलने और उससे बात चीत में ही काफी समय निकल गया था। हालांकि मुरारी काका के घर में हर चीज़ की ब्यवस्था मैंने करवा दी थी, बाकी का काम तो घर वालों का ही था। ख़ैर मैं पहुंचा तो देखा वहां पर काफी सारे लोग जमा हो रखे थे। पूजा का कार्यक्रम समाप्त ही होने वाला था। मैं जगन से मिला और उससे हर चीज़ के बारे में पूछा और ये भी कहा कि अगर किसी चीज़ की कमी हो रही हो तो वो मुझे खुल कर बताए। मैं दिल से चाहता था कि मुरारी काका की तेरहवीं का कार्यक्रम अच्छे से ही हो।

मुरारी काका के गांव वाले वहां मौजूद थे जिनसे मुरारी काका के अच्छे सम्बन्ध थे। मुझे जो काम नज़र आ जाता मैं उसी को करने लगता था। हालांकि जगन ने मुझे इसके लिए कई बार मना भी किया मगर मैं तब भी लगा ही रहा। वहां मौजूद सब लोग मुझे देख रहे थे और यकीनन सोच रहे होंगे कि दादा ठाकुर का बेटा एक मामूली से आदमी के घर पर आज एक मामूली इंसान की तरह काम कर रहा है। ऐसा नहीं था कि वो लोग मेरे चरित्र के बारे में जानते नहीं थे बल्कि सब जानते थे लेकिन उनके लिए ये हैरानी की बात थी कि मैं अपने स्वभाव के विपरीत ऐसे काम कर रहा था जिसकी किसी ने उम्मीद भी नहीं की थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि मैं कोई पराया इंसान हूं बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे ये मेरा ही घर था और मैं इस घर का एक ज़िम्मेदार सदस्य जो हर काम के लिए तैयार था।

मुरारी काका के घर के बाहर और अंदर दोनों तरफ औरतें और मर्द भरे पड़े थे। मैं कभी किसी काम के लिए अंदर जाता तो कभी बाहर आता। सरोज काकी मेरे इस कार्य से बेहद खुश थी। वहीं अनुराधा की नज़र जब भी मुझसे टकराती तो वो बस हल्के से मुस्कुरा देती थी। ख़ैर पूजा होने के बाद खाने पीने का कार्यक्रम शुरू हुआ जिसमे सबसे पहले तेरह ब्राम्हणों को भोज के लिए बैठाया गया। वहीं बाहर गांव वालों को ज़मीन पर ही बोरियां और चादर बिछा कर बैठा दिया गया। भोजन के बाद सभी ब्राम्हणों को नियमानुसार दान और दक्षिणा मुरारी काका के बेटे अनूप के हाथों दिलवाया गया।

एक के बाद एक पंगत खाने के लिए बैठती रही। मैं जगन के साथ बराबर सबको खाना परोसने में लगा हुआ था। हालांकि गांव के कुछ लड़के लोग भी खाना परोस रहे थे। जगन काका ने मुझे भी खाना खा लेने के लिए कहा लेकिन मैंने ये कह कर मना कर दिया कि सबके भोजन करने के बाद ही मैं उसके साथ बैठ कर खाऊंगा। ख़ैर दोपहर तीन बजते बजते सभी गांव वाले खा चुके और धीरे धीरे सब अपने अपने घर चले गए। सभी गांव वालों के मुख से एक ही बात निकल रही थी कि मुरारी की तेरहवीं का कार्यक्रम बहुत ही बढ़िया था और बहुत ही बढ़िया भोजन बनवाया गया था। हालांकि सब ये जान चुके थे कि ये सब मेरी वजह से ही संभव हुआ है।

सबके खाने के बाद मैं और जगन खाने के लिए बैठे। घर के अंदर जगन के बीवी बच्चे और गांव की दो चार औरतें अभी मौजूद थीं जो बची कुची औरतों को खाना खिला कर अब आराम से सरोज काकी के पास बैठी हुईं थी। मैं और जगन खाने के लिए बैठे तो अनुराधा और जगन की बेटी ने खाना परोसना शुरू कर दिया। खाने के बाद जगन ने मुझे पान सुपारी खिलाई। मैंने अपने जीवन में आज तक इतना काम नहीं किया था इस लिए मेरे जिस्म का ज़र्रा ज़र्रा अब दुःख रहा था किन्तु मैं अपनी तक़लीफ को दबाए बैठा हुआ था। जगन मुझसे बड़ा खुश था। वो जानता था कि सारे गांव ने आज जो वाह वाही उसकी और उसके घर वालों की है उसकी वजह मैं ही था। वो ये भी जानता था कि अगर मैंने मदद न की होती तो इतना बड़ा कार्यक्रम करना उसके लिए मुश्किल ही था। उस दिन शहर जाते वक़्त जगन ने मुझसे कहा था कि उसके भाई की तेरहवीं के लिए अगर मैंने उसकी मदद न की होती तो वो ये सब अकेले नहीं कर पाता क्योंकि उसके पास इस सबके लिए पैसा ही नहीं था। कुछ महीने पहले उसकी बड़ी बेटी बीमार हो गई थी जिसके इलाज़ के लिए उसने गांव के सुनार से कर्ज़ में रूपया लिया था। मैंने जगन को कहा था कि मेरे रहते हुए उसे मुरारी काका की तेरहवीं के लिए फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है।

"आज तो बहुत थक गए होंगे न बेटा?" सरोज काकी मेरे पास आते हुए बोली____"क्या ज़रूरत थी इतनी मेहनत करने की? यहाँ लोग तो थे ही काम करवाने के लिए।"

"अगर ये सब नहीं करता काकी तो मुझे अंदर से सुकून नहीं मिलता।" मैंने कहा____"सच कहूं तो मैंने अपने जीवन में पहली बार ऐसा कोई काम किया है जिसके लिए मुझे अंदर से ख़ुशी महसूस हो रही है। थकान का क्या है काकी, वो तो दूर हो जाएगी लेकिन मुरारी काका के लिए ये सब करना फिर दुबारा क्या नसीब में होगा? आज जो कुछ भी मैंने किया है उसे मुरारी काका ने ऊपर से ज़रूर देखा होगा और उनकी आत्मा को ये सोच कर शान्ति मिली होगी कि उनके जाने के बाद उनके परिवार को किसी बात के लिए परेशान नहीं होना पड़ा।"

"तुम सच में बदल गए हो बेटा।" जगन ने खुशदिली से कहा____"गांव के कई लोगों ने आज मुझसे तुम्हारे बारे में बातें की थी और कहा था कि उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा कि दादा ठाकुर का सबसे बिगड़ा हुआ बेटा किसी के लिए इतना कुछ कर सकता है। इसका तो यही मतलब हुआ कि इस लड़के का कायाकल्प हो चुका है।"

"मेरे पास बैठी वो औरतें भी यही कह रही थीं मुझसे।" सरोज काकी ने कहा____"वो छोटे ठाकुर को इस तरह काम करते देख हैरान थीं। मुझसे पूछ रहीं थी कि तुम यहाँ इस तरह कैसे तो मैंने उन सबको बताया कि तुम ये सब अपने काका के प्रेम की वजह से कर रहे हो।"

"मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता काकी।" मैंने सपाट भाव से कहा____"लोग क्या सोचते हैं ये उनका अपना नज़रिया है। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि अपनी पिछली ज़िन्दगी का सब कुछ भुला कर मुझे एक ऐसी ज़िन्दगी की शुरुआत करनी है जिसमे मैं किसी के भी साथ बुरा न करूं।"

"ये तो बहुत ही अच्छी बात है बेटा।" सरोज काकी ने कहा____"इन्सान जब सबके साथ अच्छा करता है तब खुद उसके साथ भी अच्छा ही होता है।"
"अच्छा अब मैं चलता हूं काका।" मैंने खटिया से उठते हुए जगन से कहा____"किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े तो मुझे बता देना।"

"ज़रूर वैभव बेटा।" जगन ने भी खटिया से उठते हुए कहा____"मेरे लिए भी कोई काम या कोई सेवा हो तो बेझिझक बता देना। मैं तुम्हारे किसी काम आऊं ये मेरे लिए ख़ुशी की बात होगी।"

"बिल्कुल काका।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"मुझे जब भी आपकी ज़रूरत होगी तो मैं आपको बता दूंगा। ख़ैर अब चलता हूं।"
"ठीक है बेटा।" जगन ने कहा____"और हां आते रहना यहां। अब तुम्हारे आने से मुझे कोई समस्या नहीं होगी बल्कि ख़ुशी ही होगी।"

जगन की ये बात सुन कर मैं बस हल्के से मुस्कुराया और फिर सरोज काकी के साथ साथ जगन काका की बीवी और भतीजी अनुराधा की तरफ बारी बारी से देखने के बाद मैं घर से बाहर निकल गया। मेरे पीछे जगन भी मुझे बाहर तक छोड़ने के लिए आया। घर के बाएं तरफ मेरी मोटर साइकिल खड़ी थी जिस पर मैं बैठा और उसे चालू कर के अपने गांव की तरफ निकल गया।

मुरारी काका के कार्यक्रम से अब मैं फुर्सत हो गया था और अब मुझे अपनी उन समस्याओं की तरफ ध्यान देना था जिनकी वजह से आज कल मैं कुछ ज़्यादा ही सोचने लगा था और उन सबको सोचते हुए परेशान भी हो चला था। मुझे जल्द से जल्द इन सभी चीज़ों का रहस्य जानना था।

हवेली पहुंचते पहुंचते दिन ढलने को आ गया था। आज बुरी तरह थक गया था मैं। हवेली के अंदर आया तो बैठक में पिता जी से सामना हो गया। उन्होंने मुझसे यूं ही पूछा कि आज कल कहां गायब रहता हूं मैं तो मैंने उन्हें मुरारी काका की तेरहवीं के कार्यक्रम के बारे में सब बता दिया जिसे सुन कर पिता जी कुछ देर तक मेरी तरफ देखते रहे उसके बाद बोले____"चलो कोई तो अच्छा काम किया तुमने। वैसे हमें पता तो था कि आज कल तुम मुरारी के घर वालों की मदद कर रहे हो किन्तु इस तरह से मदद कर रहे हो इसकी हमें उम्मीद नहीं थी। ख़ैर हमें ख़ुशी हुई कि तुमने मुरारी के घर वालों की इस तरह से मदद की। मुरारी की हत्या की वजह चाहे जो भी हो लेकिन कहीं न कहीं उसकी हत्या में तुम्हारा भी नाम शामिल हुआ है। ऐसे में अगर तुम उसके परिवार की मदद नहीं करते तो उसके गांव वाले तुम्हारे बारे में कुछ भी उल्टा सीधा सोचने लगते।"

"जी मैं समझता हूं पिता जी।" मैंने अदब से कहा____"हालाँकि किसी के कुछ सोचने की वजह से मैंने मुरारी काका के घर वालों की मदद नहीं की है बल्कि मैंने इस लिए मदद की है क्योंकि मेरे बुरे वक़्त में एक मुरारी काका ही थे जिन्होंने मेरी मदद की थी। मेरे लिए वो फरिश्ता जैसे थे और उनकी हत्या के बाद अगर मैं उनके एहसानों को भुला कर उनके परिवार वालों से मुँह फेर लेता तो कदाचित मुझसे बड़ा एहसान फ़रामोश कोई न होता।"

"बहुत खूब।" पिता जी ने प्रभावित नज़रों से देखते हुए मुझसे कहा____"हमे सच में ख़ुशी हो रही है कि तुम किसी के बारे में इतनी गहराई से सोचने लगे हो। आगे भी हम तुमसे ऐसी ही उम्मीद रखते हैं। ख़ैर हमने तुम्हें इस लिए रोका था कि तुम्हें बता सकें कि कल तुम्हें मणि शंकर के घर जाना है। असल में मणि शंकर और उसकी पत्नी हमसे मिलने आए थे। बातों के दौरान ही उन्होंने हमसे तुम्हारे बारे में भी चर्चा की और फिर ये भी कहा कि वो तुम्हें अपने घर पर बुला कर तुम्हारा सम्मान करना चाहते हैं। इस लिए हम चाहते हैं कि कल तुम उनके घर जाओ।"

"बड़ी अजीब बात है ना पिता जी।" मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"गांव का शाहूकार दादा ठाकुर के एक ऐसे लड़के को अपने घर बुला कर उसका सम्मान करना चाहता है जिस लड़के ने अपनी ज़िन्दगी में सम्मान पाने लायक कभी कोई काम ही नहीं किया है।"

"कहना क्या चाहते हो तुम?" पिता जी ने मेरी तरफ घूरते हुए कहा।
"यही कि अगर मणि शंकर हवेली के किसी सदस्य को अपने घर बुला कर सम्मान ही देना चाहता है तो मुझे ही क्यों?" मैंने एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा____"इस हवेली के सबसे बड़े सदस्य आप हैं तो आपका सम्मान क्यों नहीं? आपके बाद जगताप चाचा जी हैं, उनका सम्मान क्यों नहीं? चाचा जी के बाद बड़े भैया हैं तो उनका सम्मान क्यों नहीं? मणि शंकर के ज़हन में मुझे ही सम्मान देने की बात कैसे आई? आख़िर मैंने ऐसा कौन सा बड़ा नेक काम किया है जिसके लिए वो मुझे ब्यक्तिगत तौर पर अपने घर बुला कर मुझे सम्मान देना चाहता है? क्या आपको नहीं लगता कि इसके पीछे कोई ख़ास वजह हो सकती है?"

"हमारे या तुम्हारे कुछ लगने से क्या होता है?" पिता जी ने सपाट लहजे में कहा____"लगने को तो इसके अलावा भी बहुत कुछ लगता है लेकिन उसका फायदा क्या है? किसी भी बात को साबित करने के लिए प्रमाण की ज़रूरत होती है। जब तक हमारे पास किसी बात का प्रमाण नहीं होगा तब तक हमारे शक करने से या हमारे कुछ लगने से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। चलो मान लेते हैं कि मणि शंकर किसी ख़ास वजह से तुम्हें अपने घर बुला कर तुम्हें सम्मान देना चाहता है लेकिन हमें ये कैसे पता चल जाएगा कि इस सबके पीछे उसकी वो ख़ास वजह क्या है? उसके लिए तो हमें वही करना होगा न जो वो चाहता है, तब शायद हमें कुछ पता चलने की संभावना नज़र आए कि वो ऐसा क्यों करना चाहता है?"

"तो इसी लिए आप कह रहे हैं कि कल मैं मणि शंकर के घर जाऊं?" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"ताकि वहां जाने से ही समझ आए कि मुझे सम्मान देने के पीछे उसकी क्या वजह है?"

"ठीक समझे।" पिता जी ने कहा____"अगर हमें ये शक है कि साहूकारों ने हमसे अपने रिश्ते किसी ख़ास मकसद के तहत सुधारे हैं तो उनके उस ख़ास मकसद को जानने और समझने के लिए हमें ये बहुत अच्छा मौका मिला है। इस अवसर का लाभ उठाते हुए तुम्हें उसके घर जाना चाहिए और उसके साथ साथ उसके परिवार के हर सदस्य से घुलना मिलना चाहिए। उनसे अपने सम्बन्धों को ऐसा बनाओ कि उन्हें यही लगे कि हमारे मन में उनके प्रति अब शक जैसी कोई बात ही नहीं है। तुम एक लड़के हो इस लिए उनके लड़कों के साथ अपने बैर भाव मिटा कर बड़े आराम से घुल मिल सकते हो। जब ऐसा हो जाएगा तभी संभव है कि हमें उनके असल मकसद के बारे में कुछ पता चल सके।"

"आप ठीक कह रहे हैं।" मैंने बात को समझते हुए कहा____"जब तक हम सांप के बिल में हाथ नहीं डालेंगे तब तक हमें पता ही नहीं चलेगा कि उसकी गहराई कितनी है।"

"एक बात और।" पिता जी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"अपनी अकड़ और अपने गुस्से को कुछ समय के लिए किनारे पर रख दो। क्योंकि हो सकता है कि जब तुम साहूकारों के घर जाओ और उनके लड़कों से मिलो जुलो तो उनके बीच रहते हुए कुछ ऐसी बातें भी हो जाएं जिनकी वजह से तुम्हें गुस्सा आ जाए। उस सूरत में तुम्हारा सारा काम ख़राब हो जाएगा। इस लिए तुम्हें अपने गुस्से पर काबू रखना होगा। उनकी कोई बात बुरी भी लगे तो तुम्हें उसे जज़्ब करना होगा। उनके साथ रहते हुए तुम्हें हर वक़्त इसी बात का ख़याल रखना होगा कि तुम्हारी किसी हरकत की वजह से ना तो ख़ुद अपना काम ख़राब हो और ना ही वो ये सोच बैठें कि तुम अभी भी उन्हें अपने से कमतर समझते हो।"

"जी मैं इन सब बातों का ख़याल रखूंगा पिता जी।" मैंने कहा तो पिता जी ने कहा____"अब तुम जा सकते हो।"

पिता जी के कहने पर मैं पलटा और अंदर की तरफ चला गया। पिता जी से हुई बातों से मैं काफी हद तक संतुलित व मुतम‌ईन हो गया था और मुझे समझ भी आ गया था कि आने वाले समय में मुझे किस तरह से काम करना होगा।

अंदर आया तो देखा माँ और मेनका चाची कुर्सियों पर बैठी बात कर रहीं थी। मुझे देखते ही माँ ने मेरा हाल चाल पूछा तो मैंने उन्हें बताया कि आज मैं बहुत थक गया हूं इस लिए मुझे मालिश की शख़्त ज़रूरत है। मेरी बात सुन कर माँ ने कहा____"ठीक है, तू जा पहले नहा ले। उसके बाद तेरी चाची तेरी मालिश कर देगी।"

"चाची को क्यों परेशान कर रही हैं माँ?" मैंने चाची की तरफ नज़र डालते हुए कहा____"भला चाची के कोमल कोमल हाथों में अब इतनी ताक़त कहां होगी कि वो मेरे बदन के दर्द को दूर कर सकें।"

"अच्छा जी।" मेरी बात सुन कर चाची ने आँखें चौड़ी करते हुए कहा____"तो तुम्हारे कहने का मतलब है कि मुझमे अब इतनी ताक़त ही नहीं रही?"
"और नहीं तो क्या?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"आप तो एकदम फूल की तरफ नाज़ुक हैं और मैं ठहरा हट्टा कट्टा मर्द। भला आपके छूने मात्र से मेरी थकान कैसे दूर हो जाएगी?"

"देख रही हैं न दीदी?" मेनका चाची ने मानो माँ से शिकायत करते हुए कहा____"ये वैभव क्या कह रहा है मुझे? मतलब कि ये अब इतना बड़ा हो गया है कि मैं इसकी मालिश ही नहीं कर सकती?" कहने के साथ ही चाची ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"बेटा ये मत भूलो कि तुम चाहे जितने बड़े हो जाओ लेकिन तुम हमारे लिए आज भी छोटे से बच्चे ही हो।"

"आपकी इस बात से मैं कहां इंकार कर रहा हूं चाची जी?" मैंने कहा____"मैं तो आज भी आपका छोटा सा बेटा ही हूं लेकिन एक सच ये भी तो है ना कि आपका ये बेटा पहले से अब थोड़ा बड़ा हो गया है।"

"हां हां ठीक है।" चाची ने कहा____"रहेगा तो मेरा बेटा ही न। अब चलो बातें बंद करो और गुसलखाने में जा कर नहा लो। मैं सरसो का तेल गरम कर के आती हूं तुम्हारे कमरे में।"

"ठीक है चाची।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा और अपने कमरे में जाने के लिए आँगन से होते हुए दूसरे छोर की तरफ बढ़ गया। कुछ ही देर में मैं अपने कमरे में पहुंच गया। कमरे में मैंने अपने कपड़े उतारे और एक तौलिया ले कर नीचे गुसलखाने में चला गया।

☆☆☆

नीचे गुसलखाने से नहा धो कर जब मैं आँगन से होते हुए इस तरफ आया तो मुझे कुसुम दिख गई। उसकी नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी। मैंने साफ़ देखा कि मुझ पर नज़र पड़ते ही उसने अपनी नज़रे झुका ली थी। ज़ाहिर था कि वो किसी बात से मुझसे नज़रें चुरा रही थी। उसके ऐसे वर्ताव से मेरे मन में और भी ज़्यादा शक घर गया और साथ ये जानने की उत्सुकता भी बढ़ गई कि आख़िर ऐसी कौन सी बात हो सकती है जिसके लिए कुसुम इतनी गंभीर हो जाती है और मुझसे वो बात बताने में कतराने लगती है? उसे देखते ही मेरे ज़हन में पहले ख़याल आया कि उसे आवाज़ दूं और अपने कमरे में बुला कर उससे पूछूं लेकिन फिर याद आया कि ये सही वक़्त नहीं है क्योंकि उसकी माँ यानी कि मेनका चाची मेरे कमरे में मेरी मालिश करने आने वाली हैं। इस ख़याल के साथ ही मैंने उसे आवाज़ देने का इरादा मुल्तवी किया और ख़ामोशी से सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।

कमरे में आ कर मैंने पंखा चालू किया और तौलिया लपेटे ही पलंग पर लेट गया। मेनका चाची आज से पहले भी कई बार सरसो के तेल से मेरी मालिश कर चुकीं थी और यकीनन उनके मालिश करने से मेरी थकान भी दूर हो जाती थी। उनके पहले मेरी मालिश करने का काम हवेली की कोई न कोई नौकरानी ही करती थी लेकिन जब से पिता जी ने पुरानी नौकरानियों को हटा कर दूसरी नौकरानियों को हवेली पर काम करने के लिए रखा था तब से उनके लिए ये शख़्त हुकुम भी दिया था कि कोई भी नौकरानी मेरे कमरे न जाए और ना ही मेरा कोई काम करे। शुरू शुरू में तो मैं इस बात से बेहद गुस्सा हुआ था किन्तु दादा ठाकुर के हुकुम के खिलाफ़ भला कौन जाता? ख़ैर इस सबके बाद जब एक दिन मेरा बदन दर्द कर रहा था और मुझे मालिश की शख़्त ज़रूरत हुई तो माँ ने कहा कि वो ख़ुद अपने बेटे की मालिश करेंगी। माँ की ये बात सुन कर मेनका चाची ने उनसे कहा था कि वैभव उनका भी तो बेटा है इस लिए वो ख़ुद मेरी मालिश कर देंगी। असल में चाची के मन में माँ के प्रति बेहद सम्मान की भावना थी इस लिए वो नहीं चाहतीं थी कि मालिश करने जैसा काम हवेली की बड़ी ठकुराइन करें। मेनका चाची की इस बात से माँ ने खुश हो कर यही कहा था कि ठीक है अब से जब भी वैभव को मालिश करवाना होगा तो तुम ही कर दिया करना।

मेरा स्वभाव भले ही ऐसा था कि मैं अपनी मर्ज़ी का मालिक था और किसी की नहीं सुनता था लेकिन मैं अपने से बड़ों की इज्ज़त ज़रूर करता था। मैं गुस्सा तब होता था जब कोई मेरी मर्ज़ी या मेरी इच्छा के विरुद्ध काम करता था। जहां मेरे तीनो भाई दादा ठाकुर और जगताप चाचा जी के सामने आ कर उनसे बात करने में झिझकते थे वहीं मैं बेख़ौफ़ हो कर और उनसे आँख मिला कर बात करता था। जिसके लिए मुझे शुरुआत में बहुत बातें सुनने को मिलती थी और दादा ठाकुर के हुकुम से बदन पर कोड़े भी पड़ते थे लेकिन मैं भी कुत्ते की दुम की तरह ही था जो किसी भी शख़्ती के द्वारा सीधा ही नहीं हो सकता था। बढ़ती उम्र के साथ साथ मैं और भी ज़्यादा निडर होता गया और मेरा गुस्सा भी बढ़ता गया। मेरे गुस्से का शिकार अक्सर हवेली के नौकर चाकर हो जाते थे जिनको मेरे गुस्से का सामना करते हुए मार भी खानी पड़ जाती थी। यही वजह थी कि जब तक मैं हवेली में रहता तब तक हवेली के सभी नौकर एकदम सतर्क रहते थे।

मेरा स्वभाव बाहर से बेहद कठोर था किन्तु अंदर से मैं बेहद नरम दिल था। हालांकि मैं किसी को भी अपनी नरमी दिखाता नहीं था सिवाए माँ और कुसुम के। हवेली में कुसुम को मैं अपनी सगी बहन से भी ज़्यादा मानता था। इसकी वजह ये थी कि एक तो हवेली में सिर्फ वही एक लड़की थी और दूसरे मेरी कोई बहन नहीं थी। कुसुम शुरू से ही नटखट चंचल और मासूम थी। सब जानते थे कि हवेली में सबसे ज़्यादा मैं कुसुम को ही मानता हूं। मेरे सामने कोई भी कुसुम को डांट नहीं सकता था। हर किसी की तरह कुसुम भी जानती थी कि हवेली की नौकरानियों से मेरे जिस्मानी सम्बन्ध हैं लेकिन इसके लिए उसने कभी भी मुझसे कोई शिकायत नहीं की बल्कि जब भी ऐसे मौकों पर मैं फंसने वाला होता था तो अक्सर वो कुछ ऐसा कर देती थी कि मैं सतर्क हो जाता था। बाद में जब कुसुम से मेरा सामना होता तो मैं उससे यही कहता कि आज उसकी वजह से मैं दादा ठाकुर के कोड़ों की मार से बच गया। मेरी इस बात पर वो बस यही कहती कि मैं अपने भैया को किसी के द्वारा सज़ा पाते हुए नहीं देख सकती। हर बार उसका इतना ही कहना होता था। उसने ये कभी नहीं कहा कि आप ऐसे गंदे काम करते ही क्यों हैं?

मैं पलंग पर आँखे बंद किए लेटा हुआ ही था कि तभी मेरे कानों में पायल के छनकने की आवाज़ सुनाई दी। मैं समझ गया कि मेनका चाची मेरी मालिश करने के लिए मेरे कमरे में आ रही हैं। लगभग छह महीने हो गए थे मैंने उनसे मालिश नहीं करवाई थी।

मेनका चाची के पायलों की छम छम करती मधुर आवाज़ मेरे कमरे में आ कर रुक गई। उनके गोरे सफ्फाक़ बदन पर काले रंग की साड़ी थी जिस पर गुलाब के फूलों की नक्कासी की गई थी। साड़ी का कपड़ा ज़्यादा तो नहीं पर थोड़ा पतला ज़रूर था जिसकी वजह से साड़ी में ढंका हुआ उनका पेट झलक रहा था। मेनका चाची का शरीर न तो पतला था और ना ही ज़्यादा मोटा था। यही वजह थी कि तीन बच्चों की माँ हो कर भी वो जवान लगतीं थी। मैं अक्सर उन्हें छेड़ दिया करता था जिस पर वो मुस्कुराते हुए मेरे सिर पर चपत लगा देती थीं। इधर जब से मैं चार महीने की सज़ा काट कर हवेली आया था तब से मेरे बर्ताव में भी थोड़ा बदलाव आ गया था। हालांकि मैं पहले भी ज़्यादा किसी से बात नहीं करता था किन्तु हवेली से निकाले जाने के बाद जब मैं चार महीने उस बंज़र ज़मीन पर रहा और इस बीच हवेली से कोई मुझे देखने नहीं आया था तो हवेली के सदस्यों के प्रति मेरे अंदर गुस्सा भर गया था जिसके चलते मैंने बिलकुल ही बात करना बंद कर दिया था। ये अलग बात है कि पिछले कुछ समय से मेरे बर्ताव में नरमी आ गई थी और मैं थोड़ा गंभीर हो चला था।

"अरे! चाची आप तो सच में मेरी मालिश करने आ ग‌ईं।" चाची पर नज़र पड़ते ही मैंने पलंग पर बैठते हुए कहा तो चाची ने मेरे क़रीब आते हुए कहा____"तो तुम्हें क्या लगा था कि मैं मज़ाक कर रही थी?"

"वैसे सच कहूं तो मेरी भी यही इच्छा थी कि मेरी मालिश आप ही करें।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"वो क्या है न कि आपके हाथों में जादू है। जिस्म की सारी थकान ऐसे ग़ायब हो जाती है जैसे उसका कहीं नामो निशान ही न रहा हो।"

"चलो अब मस्का मत लगाओ।" चाची ने लकड़ी के स्टूल पर तेल की कटोरी को रखते हुए कहा____"और उल्टा हो कर लेट जाओ।"
"जी ठीक है चाची।" मैंने कहा और पलंग पर नीचे की तरफ पेट कर के लेट गया।

मेनका चाची ने अपनी साड़ी के पल्लू को समेट कर अपनी कमर के एक किनारे पर खोंस लिया। उसके बाद उन्होंने स्टूल से तेल की कटोरी को उठाया और उसमे से कुछ तेल अपनी हथेली पर डाला। हथेली पर लिए हुए तेल को उन्होंने अपनी दूसरी हथेली में भी बराबर मिलाया और फिर झुक कर मेरी पीठ पर उसे मलने लगीं। चाची के कोमल कोमल हाथ मेरी पीठ पर घूमने लगे। गुनगुना तेल उनके हाथों द्वारा मेरी पीठ पर लगा तो मेरी आँखें एक सुखद एहसास के चलते बंद हो ग‌ईं।

"आह्ह चाची कितना अच्छा लग रहा है।" मैंने आँखें बंद किए हुए कहा____"सच में आपके हाथों में जादू है, तभी तो उस जादू के असर से मुझे सुकून मिल रहा है और इस सुकून की वजह से मेरी पलकें बंद हो गई हैं।"

"दीदी के सामने तो बड़ा कह रहे थे कि मेरे कोमल हाथों में वो ताकत कहां जिससे तुम्हारी थकान दूर हो सके।" चाची ने थोड़ा ज़ोर डालते हुए अपनी हथेली को मेरी पीठ पर घिसते हुए कहा तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा_____"वो तो मैं आपको छेड़ रहा था चाची वरना क्या मैं जानता नहीं हूं कि आप चीज़ क्या हैं।"

"झूठी तारीफ़ करना तो कोई तुमसे सीखे।" चाची ने स्टूल से कटोरी उठा कर उसमे से थोड़ा तेल अपनी हथेली में डालते हुए कहा____"तुम्हें अच्छी तरह जानती हूं मैं। जब ज़रूरत होती है तभी तुम्हें अपनी इस चाची का ख़याल आता है।"

"ऐसी कोई बात नहीं है चाची।" मैंने आँखें खोल कर उनकी तरफ देखते हुए कहा_____"आप बेवजह ही मेरे बारे में ऐसा कह रही हैं।"
"अच्छा..।" चाची ने तेल को अपनी दोनों हथेलियों में मिलाने के बाद मेरी पीठ पर मलते हुए कहा____"तो मैं ऐसा बेवजह ही कह रही हूं? ज़रा ये तो बताओ कि जब से तुम यहाँ आए हो तब से तुम कितने दिन अपनी इस चाची के पास बैठे हो? अरे बैठने की तो बात दूर तुमने तो दूर से भी मेरा हाल चाल नहीं पूछा...हुह...बात करते हैैं।"

"अच्छा तो अब आप झूठ भी बोलने लगी हैं।" मैंने चाची के चेहरे की तरफ देखने की कोशिश की लेकिन मेरी गर्दन पूरी तरफ से पीछे न घूम सकी, अलबत्ता उनकी तरफ देखने के चक्कर में मेरी नज़र उनके सपाट और बेदाग़ पेट पर ज़रूर जा कर ठहर गई। चाची ने अपनी साड़ी के पल्लू को समेट कर उसे अपनी कमर के किनारे पर खोंस लिया था। चाची के गोरे और बेदाग़ पेट पर मेरी नज़र पड़ी तो कुछ पलों के लिए तो मेरी साँसें जैसे रुक सी गईं। पेट के नीचे उनकी गहरी नाभी साड़ी के पास साफ़ दिख रही थी। मैंने जल्दी से खुद को सम्हाला और आगे कहा____"जब कि सच तो यही है कि जब भी आपसे मेरी मुलाक़ात हुई है तब मैंने आपको प्रणाम भी किया है और आपका हाल चाल भी पूछा है।"

"इस तरह तो चलते हुए लोग गै़रों से भी उनका हाल चाल पूंछ लेते हैं।" चाची ने मेरे कंधे पर अपनी हथेली को फिराते हुए कहा____"तुमने भी मेरा हाल तभी पूछा था न जब आते जाते मैं तुम्हे संयोग से मिली थी। अगर तुम अपनी इस चाची को दिल से मानते तो खुद चल कर मेरे पास आते और मुझसे मेरा हाल चाल पूंछते।"

"हां आपकी ये बात मैं मानता हूं चाची।" मैंने उनके चेहरे की तरफ देखने के लिए फिर से गर्दन घुमानी चाही लेकिन इस बार भी मेरी नज़र उनके चेहरे तक न पहुंच सकी, बल्कि वापसी में फिर से उनके पेट पर ही जा पड़ी। चाची मेरे इतने क़रीब थीं और उनका दूध की तरह गोरा और सपाट पेट मेरे चेहरे के एकदम पास ही था। उनके पेट पर नज़र पड़ते ही मेरे जिस्म में सनसनी सी होने लगती थी। मेरी आँखों के सामने न जाने कितनी ही लड़कियों और औरतों के नंगे जिस्म जैसे किसी चलचित्र की तरह दिखने लग जाते थे। मैंने गर्दन दूसरी तरफ कर के अपने मन को शांत करने की कोशिश करते हुए आगे कहा_____"लेकिन ये आप भी जानती हैं कि मैंने ऐसा क्यों नहीं किया? पिता जी ने मुझे एक मामूली सी ग़लती के लिए इतनी बड़ी सज़ा दी और सज़ा की उस अवधि के दौरान इस हवेली का कोई भी सदस्य एक बार भी मुझे देखने नहीं आया। उस समय हर गुज़रता हुआ पल मुझे ये एहसास करा रहा था जैसे इस संसार में मेरा अपना कोई नहीं है। इस भरी दुनिया में जैसे मैं एक अनाथ हूं जिसके प्रति किसी के भी दिल में कोई दया भाव नहीं है। आप उस समय की मेरी मानसिकता का एहसास कीजिए चाची कि वैसी सूरत में मेरे दिल में मेरे अपनों के प्रति किस तरह की भावना हो जानी थी?"

"हां मैं अच्छी तरह समझती हूं वैभव।" चाची ने खेद प्रकट करते हुए कहा_____"किन्तु यकीन मानो उस समय हम सब बेहद मजबूर थे। तुम अच्छी तरह जानते हो कि दादा ठाकुर के हुकुम के खिलाफ़ कोई नहीं जा सकता। हम सब तुम्हारे लिए दुखी तो थे लेकिन तुम्हारे लिए कुछ कर नहीं सकते थे। ख़ैर छोड़ो इस बात को, अब तो सब ठीक हो गया है न? मैं चाहती हूं कि तुम सब कुछ भुला कर एक अच्छे इंसान के रूप में अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत करो।"

मेनका चाची की इस बात पर इस बार मैं कुछ नहीं बोला। कुछ देर बाद चाची ने मुझे सीधा लेटने के लिए कहा तो मैं सीधा लेट गया। मेरी नज़र चाची पर पड़ी। वो कटोरी से अपनी हथेली पर तेल डाल रहीं थी। मेरी नज़र उनके खूबसूरत चेहरे से फिसल कर उनके सीने के उभारों पर ठहर गई। काले रंग का ब्लाउज पहन रखा था उन्होंने। ब्लाउज का गला ज़्यादा तो नहीं पर थोड़ा बड़ा ज़रूर था लेकिन मुझे उनके उभारों के बीच की दरार नहीं दिखी थी। एक तो उन्होंने साड़ी को सीने में पूरी तरफ लपेट रखा था दूसरे वो सीधी खड़ी हुई थीं। मैं साड़ी के ऊपर से ही उनके सीने के बड़े बड़े उभार को देख कर बस कल्पना ही कर सकता था कि वो कैसे होंगे। हालांकि अगले ही पल मैं ये सोच कर अपने आप पर नाराज़ हुआ कि अपनी माँ सामान चाची को मैं किस नज़र से देख रहा हूं।

अपनी दोनों हथेलियों में तेल को अच्छी तरह मिलाने के बाद चाची आगे बढ़ीं और झुक कर मेरे सीने पर दोनों हथेलियों को रखा। मेरे सीने पर घुंघराले बाल उगे हुए थे जो यकीनन चाची को अपनी हथेलियों पर महसूस हुए होंगे। चाची ने एक नज़र मेरी तरफ देखा। मेरी नज़र उनकी नज़र से मिली तो उनके गुलाबी होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। मेरे दिलो-दिमाग़ में न चाहते हुए भी एक अजीब तरह की हलचल शुरू हो गई। चाची का खूबसूरत चेहरा अब मेरी आँखों के सामने ही था और न चाहते हुए भी इतने पास होने की वजह से मेरी नज़र उनके चेहरे पर बार बार पड़ रही थी। मेरे मन में न चाहते हुए भी ये ख़्याल उभर आता था कि चाची इस उम्र में भी कितनी सुन्दर और जवान लगती हैं। हालांकि पहले भी कई बार चाची ने मेरी इस तरह से मालिश की थी किन्तु इस तरीके से मैं कभी भी उनके बारे में ग़लत सोचने पर मजबूर नहीं हुआ था। इसकी वजह शायद ये हो सकती है कि तब आए दिन मेरे अंदर की गर्मी कहीं न कहीं किसी न किसी की चूत के ऊपर निकल जाती थी और मेरा मन शांत रहता था लेकिन इस बार ऐसा नहीं था। मुंशी की बहू रजनी को पेले हुए मुझे काफी समय हो गया था। किसी औरत का जिस्म जब मेरे इतने पास मुझे इस रूप में दिख रहा था तो मेरे जज़्बात मेरे काबू से बाहर होते नज़र आ रहे थे। मैं एकदम से परेशान सा हो गया। मैं नहीं चाहता था कि चाची के बारे में मैं ज़रा सा भी ग़लत सोचूं और साथ ही ये भी नहीं चाहता था कि उनके जिस्म के किसी हिस्से को देख कर मेरे अंदर हवस वाली गर्मी बढ़ने लगे जिसकी वजह से मेरी टांगों के दरमियान मौजूद मेरा लंड अपनी औक़ात से बाहर होने लगे।

---------☆☆☆---------
 
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 32
----------☆☆☆----------




अब तक,,,,,,

अपनी दोनों हथेलियों में तेल को अच्छी तरह मिलाने के बाद चाची आगे बढ़ीं और झुक कर मेरे सीने पर दोनों हथेलियों को रखा। मेरे सीने पर घुंघराले बाल उगे हुए थे जो यकीनन चाची को अपनी हथेलियों पर महसूस हुए होंगे। चाची ने एक नज़र मेरी तरफ देखा। मेरी नज़र उनकी नज़र से मिली तो उनके गुलाबी होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। मेरे दिलो-दिमाग़ में न चाहते हुए भी एक अजीब तरह की हलचल शुरू हो गई। चाची का खूबसूरत चेहरा अब मेरी आँखों के सामने ही था और न चाहते हुए भी इतने पास होने की वजह से मेरी नज़र उनके चेहरे पर बार बार पड़ रही थी। मेरे मन में न चाहते हुए भी ये ख़्याल उभर आता था कि चाची इस उम्र में भी कितनी सुन्दर और जवान लगती हैं। हालांकि पहले भी कई बार चाची ने मेरी इस तरह से मालिश की थी किन्तु इस तरीके से मैं कभी भी उनके बारे में ग़लत सोचने पर मजबूर नहीं हुआ था। इसकी वजह शायद ये हो सकती है कि तब आए दिन मेरे अंदर की गर्मी कहीं न कहीं किसी न किसी की चूत के ऊपर निकल जाती थी और मेरा मन शांत रहता था लेकिन इस बार ऐसा नहीं था। मुंशी की बहू रजनी को पेले हुए मुझे काफी समय हो गया था। किसी औरत का जिस्म जब मेरे इतने पास मुझे इस रूप में दिख रहा था तो मेरे जज़्बात मेरे काबू से बाहर होते नज़र आ रहे थे। मैं एकदम से परेशान सा हो गया। मैं नहीं चाहता था कि चाची के बारे में मैं ज़रा सा भी ग़लत सोचूं और साथ ही ये भी नहीं चाहता था कि उनके जिस्म के किसी हिस्से को देख कर मेरे अंदर हवस वाली गर्मी बढ़ने लगे जिसकी वजह से मेरी टांगों के दरमियान मौजूद मेरा लंड अपनी औक़ात से बाहर होने लगे।

अब आगे,,,,,


कमरे में एकदम से ख़ामोशी छा गई थी। न चाची कुछ बोल रहीं थी और ना ही मैं। मैं तो ख़ैर कुछ बोलने की हालत में ही नहीं रह गया था क्योंकि अब आलम ये था कि मेरे लाख प्रयासों के बावजूद मेरा मन बार बार चाची के बारे में ग़लत सोचने लगा था जिससे अब मैं बेहद चिंतित और परेशान हो गया था। मुझे डर था कि चाची के बारे में ग़लत सोचने की वजह से मेरा लंड तौलिए के अंदर अपनी औक़ात में आ कर कुछ इस तरीके से न खड़ा हो जाए कि चाची की नज़र उस पर पड़ जाए। उसके बाद क्या होगा ये तो भगवान ही जानता था। अभी तक तो मेरे अपने यही जानते थे कि मैं भले ही चाहे जैसा भी था लेकिन मेरी नीयत मेरे अपने परिवार की स्त्रियों पर ख़राब नहीं हो सकती। किन्तु अब मैं ये सोच सोच कर घबराने लगा था कि इस वक़्त अगर मेरा लंड तौलिए के अंदर अपनी पूरी औक़ात में आ कर खड़ा हो गया तो दादा ठाकुर के द्वारा मेरी गांड फटने में ज़रा भी विलम्ब नहीं होगा।

उधर चाची मेरे मनोभावों से बेख़बर मेरे सीने पर और मेरे पेट पर मालिश करने में लगी हुईं थी। मैं आँखें बंद किए हुए दो काम एक साथ कर रहा था। एक तो भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि आज वो मुझे नपुंसक ही बना दे ताकि मेरा लंड खड़ा ही न हो पाए और दूसरी ये कि चाची खुद ही किसी काम का बहाना बना कर यहाँ से चली जाएं। क्योंकि अगर मैं उन्हें इतने पर ही रोक देता और जाने के लिए कह देता तो वो मुझसे सवाल करने लगतीं कि क्या हुआ...अभी तो दोनों पैरों की भी मालिश करनी है। भला मैं उन्हें कैसे बताता कि अब मुझे मालिश की नहीं बल्कि उनके यहाँ पर रुकने की चिंता है?

रागिनी भाभी की तरफ भी मैं आकर्षित होता था लेकिन मेनका चाची की तरफ आज मैं पहली बार ही आकर्षित हो रहा था और वो भी इस क़दर कि मेरी हालत ख़राब हो चली थी। जब मैं समझ गया कि भगवान मेरी दो में से एक भी प्रार्थना स्वीकार नहीं करने वाला तो मैंने मजबूरन चाची से कहा कि अब वो मेरे पैरों की मालिश कर दें और फिर वो जाएं यहाँ से। हालांकि मैंने ऐसा इस अंदाज़ से कहा था कि चाची के चेहरे पर सोचने वाले भाव न उभर पाएं।

"अब तुम्हें भी शादी कर लेनी चाहिए वैभव।" मेरे एक पैर में तेल की मालिश करते हुए चाची ने अचानक मुझे देखते हुए ये कहा तो मैंने चौंक कर उनकी तरफ देखा और मेरा ये देखना जैसे मुझ पर ही भारी पड़ गया। चाची इस तरीके से मेरी तरफ मुँह कर के थोड़ा झुकी हुईं थी कि जैसे ही मैंने उनकी तरफ देखा तो मेरी नज़र पहले तो उनके चेहरे पर ही पड़ी किन्तु फिर उनके ब्लाउज से झाँक रहे उनके बड़े बड़े उभारों पर जा कर ठहर गई। ब्लाउज से उनकी बड़ी बड़ी छातियों की गोलाइयाँ स्पष्ट दिख रहीं थी। दोनों गोलाइयों के बीच की लम्बी दरार की वजह से ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उस दरार के अगल बगल मौजूद दोनों पर्वत शिखर एक दूसरे से चिपके हुए हैं। पलक झपकते ही मेरी हालत और भी ख़राब होने लगी। मेरी धड़कनें अनायास ही बढ़ ग‌ईं। माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिलाती महसूस हुई। जिस बात से मैं डर रहा था वही होता जा रहा था। उधर मेरे लंड में बड़ी तेज़ी से चींटियां रेंगती हुई सी महसूस होने लगीं थी। बिजली की तरह मेरे ज़हन में ये ख़याल उभरा कि अगर इस कम्बख्त लौड़े ने अपना सिर उठाया तो इसके सिर उठाने की वजह से आज ज़रूर मेरी गांड फाड़ दी जाएगी।

मेनका चाची के सीने के उस हिस्से से साड़ी का वो हिस्सा हट गया था जो इसके पहले उनके उभारों के ऊपर था। अभी मैं अपने ज़हन में चल रहे झंझावात से जूझ ही रहा था कि तभी मैं चाची की आवाज़ सुन कर हड़बड़ा गया।

"क्या हुआ वैभव?" मुझे कहीं खोए हुए देख मेनका चाची ने पूछा था____"किन ख़यालों में गुम हो तुम? कहीं ऐसा तो नहीं कि मैंने तुम्हें शादी कर लेने की बात कही तो तुम अपने मन में किसी सुन्दर लड़की की सूरत बनाने लग गए हो?"

"न..नहीं तो।" मैंने हड़बड़ाते हुए कहा____"ऐसी तो कोई बात नहीं है चाची। मैं भला क्यों अपने ज़हन में किसी लड़की की सूरत बनाने लगा?"
"अच्छा, अगर सूरत नहीं बना रहे थे तो कहां गुम हो गए थे अभी?" चाची ने मुस्कुराते हुए कहा तो मेरी नज़र एक बार फिर से न चाहते हुए भी ब्लाउज से झाँक रहे उनके उभारों पर पड़ गई किन्तु मैंने जल्दी ही वहां से नज़र हटा कर चाची से कहा____"कहीं भी तो नहीं चाची। वो तो मैं ऐसे ही आपके द्वारा की जा रही मालिश की वजह से सुकून महसूस कर रहा था।"

"ये मालिश के सुकून की बात छोड़ो।" चाची ने कहा____"मैं ये कह रही हूं कि अब तुम्हें भी शादी कर लेनी चाहिए।"
"ऐसा क्यों कह रही हैं आप?" मैं मन ही मन ये सोच कर थोड़ा घबरा सा गया कि कहीं चाची ने मेरी मनोदशा को ताड़ तो नहीं लिया, बोला_____"अभी तो मेरी खेलने कूदने की उमर है चाची। अभी से शादी के बंधन में क्यों फंसा देना चाहती हैं आप?"

"हो सकता है कि तुम्हें मेरी बात बुरी लगे।" चाची ने मेरी तरफ देखते हुए थोड़ा संजीदगी से कहा____"किन्तु तुम भी इतना समझते ही होंगे कि जिनकी खेलने कूदने की उमर होती है वो किसी की बहू बेटियों को अपने नीचे सुलाने वाले काम नहीं करते।"

मेनका चाची की इस बात को सुन कर मैं कुछ बोल न सका बल्कि उनसे नज़रें चुराते हुए इधर उधर देखने लगा। उनके कहने का मतलब मैं बखूबी समझ गया था और मैं चाहता तो अपने तरीके से उन्हें इस बात का जवाब भी दे सकता था किन्तु मैं ये सोच कर कुछ न बोला था कि मेरे कुछ बोलने से कहीं बात ज़्यादा न बढ़ जाए।

"ऐसा नहीं है कि तुम जो करते हो वो कोई और नहीं करता।" मुझे ख़ामोश देख चाची ने कहा____"आज के युग में सब ऐसे काम करते हैं। कुछ लोग इस तरीके से ऐसे काम करते हैं कि किसी दूसरे को उनके ऐसे काम की भनक भी नहीं लगती और कुछ लोग इतने हिम्मत वाले होते हैं कि वो ऐसे काम करते हुए इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं करते कि उनके द्वारा किए जा रहे ऐसे काम के बारे में जब लोगों को पता चलेगा तो वो लोग उसके और उसके घर परिवार के बारे में क्या सोचेंगे? ख़ैर छोड़ो इस बात को और ये बताओ कि शादी करने का विचार है कि नहीं?"

"शादी तो एक दिन करनी ही पड़ेगी चाची।" मैंने गहरी सांस ली____"कहते हैं शादी ब्याह और जीवन मरण इंसान के हाथ में नहीं होता बल्कि ईश्वर के हाथ में होता है। इस लिए जब वो चाहेगा तब हो जाएगी शादी।"

"मैं तो ये सोच रही थी कि जल्दी से एक और बहू आ जाएगी इस हवेली मे।" चाची ने हल्की मुस्कान के साथ कहा____"और तुम्हें भी बीवी के साथ साथ एक मालिश करने वाली मिल जाएगी।"

"क्या चाची आप भी कैसी बातें करती हैं?" मैंने बुरा सा मुँह बनाते हुए कहा____"आज के युग में भला ऐसी कौन सी बीवी है जो अपने पति को परमेश्वर मान कर उसकी इतनी सेवा करती है? नहीं चाची, जिस औरत से बीवी का रिश्ता हो उससे मालिश या किसी सेवा की उम्मीद तो हर्गिज़ भी नहीं करनी चाहिए। सच्चे दिल से मालिश या तो माँ करती है या फिर आप जैसी प्यार करने वाली चाची।"

"फिर से मस्का लगाया तुमने।" चाची ने आंखें चौड़ी करके कहा____"लेकिन एक बात अब तुम भी मेरी सुन लो कि अब से मैं तुम्हारी कोई मालिश वालिश नहीं करने वाली। अब तो तुम्हारी धरम पत्नी ही तुम्हारी मालिश करेगी।"

"ये तो ग़लत बात है चाची।" मैंने मासूम सी शकल बनाते हुए कहा तो चाची ने कहा____"कोई ग़लत बात नहीं है। चलो हो गई तुम्हारी मालिश। तुम्हारी मालिश करते करते अब मेरी खुद की कमर दिखने लगी है। इसी लिए कह रही हूं कि शादी कर लो अब।"

"कोई बात नहीं चाची।" मैंने उठते हुए कहा____"अगर सच में आपकी कमर दुखने लगी है तो चलिए मैं आपके कमर की मालिश कर देता हूं। अब अपनी प्यारी चाची के लिए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकता?"

"रहने दो तुम।" चाची ने कमर से अपनी साड़ी के पल्लू को निकालते हुए कहा____"मुझे तुम अपना ये झूठ मूठ का प्यार न दिखाओ। वैसे भी कहीं ऐसा न हो कि मेरी मालिश करने के बाद तुम फिर से ये न कहने लगो कि मैं बहुत थक गया हूं, इस लिए चाची मेरी मालिश कर दो। अब क्या मैं रात भर तुम्हारी मालिश ही करती रहूंगी? बड़े आए अपनी प्यारी चाची की मालिश करने वाले...हुंह...बात करते हैं।"

"अरे! मैं ऐसा कुछ नहीं कहूंगा चाची।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अगर सच में आपकी कमर दुखने लगी है तो चलिए मैं आपकी मालिश कर देता हूं। इतने में थोड़ी न मैं थक जाऊंगा मैं।"

"अच्छा।" चाची ने कटोरी उठाते हुए कहा____"तो फिर तुमसे अपनी मालिश मैं तब करवाउंगी जब तुम मेरी मालिश करते हुए पूरी तरह थक जाने वाले होगे।"
"अब ये क्या बात हुई चाची।" मैंने नासमझने वाले भाव से कहा____"कहीं आप ये सोच कर तो नहीं डर गई हैं कि एक हट्टा कट्टा इंसान जब आपकी कमर की मालिश करेगा तो उसके द्वारा मामूली सा ज़ोर देने पर ही आपकी नाज़ुक कमर टूट जाएगी?"

"मैं इतनी भी नाज़ुक नहीं हूं बेटा।" चाची ने हाथ को लहरा कर कहा____"जितना कि तुम समझते हो। ठाकुर की बेटी हूं। बचपन से घी दूध खाया पिया ही नहीं है बल्कि उसमें नहाया भी है।"

"ओह! तो छुपी रुस्तम हैं आप।" मैंने मुस्कुरा कर कहा तो चाची ने मुस्कुराते हुए कहा____"अपने चाचा जी को तो देखा ही होगा तुमने। मेरे सामने कभी शेर बनने की कोशिश नहीं की उन्होंने, बल्कि हमेशा भीगी बिल्ली ही बने रहते हैं।"

"ऐसी कोई बात नहीं है चाची।" मैंने राज़दाराना अंदाज़ में कहा____"बल्कि वो आपके सामने इस लिए भीगी बिल्ली बने रहते हैं क्योंकि वो आपको बहुत प्यार करते हैं...लैला मजनू जैसा प्यार और आप ये समझती हैं कि वो आपके डर की वजह से भीगी बिल्ली बने रहते हैं। आप भी हद करती हैं चाची।"

"तुम क्या मुझे बेवकूफ समझते हो?" भाभी ने हंसते हुए कहा तो मैंने कहा____"हर्गिज़ नहीं चाची, बल्कि मैं तो ये समझता हूं कि आप मेरी सबसे प्यारी चाची हैं। काश! आप जैसी एक और हसीन लड़की होती तो मैं उसी से ब्याह कर लेता।"

"रूको मैं अभी जा कर दीदी को बताती हूं कि तुम मुझे क्या क्या कह कर छेड़ते रहते हो।" चाची ने आँखें दिखाते हुए ये कहा तो मैंने हड़बड़ा कर कहा____"क्या चाची आप तो हर वक़्त मेरी पिटाई करवाने पर ही तुली रहती हैं। जाइए मुझे आपसे कोई बात नहीं करना।"

मैं किसी छोटे से बच्चे की तरह मुँह फुला कर दूसरी तरफ फिर गया तो चाची ने मुस्कुराते हुए मेरे चेहरे को अपनी तरफ घुमाया और फिर कहा____"अरे! मैं तो मज़ाक कर रही थी। क्या ऐसा हो सकता है कि मैं तुम्हारी पिटाई करवाने का सोचूं भी? चलो अब मुस्कुराओ। फिर मुझे जाना भी है यहाँ से। बहुत काम पड़ा है करने को।"

चाची की बात सुन कर मैं मुस्कुरा दिया तो उन्होंने झुक कर मेरे माथे पर हल्के से चूमा और फिर मुस्कुराते हुए कमरे से चली गईं। चाची के जाने के बाद मैं फिर से पलंग पर लेट गया और ये सोचने लगा कि कितना बुरा हूं मैं जो अपनी चाची के बारे में उस वक़्त कितना ग़लत सोचने लगा था, जबकि चाची तो मुझे बहुत प्यार करती हैं।

☆☆☆

मेनका चाची को गए हुए अभी कुछ ही समय हुआ था कि तभी मेरे कमरे में कुसुम आई। कमरे का दरवाज़ा क्योंकि खुला हुआ था इस लिए मेरी नज़र कुसुम पर पड़ गई थी। मुझे उम्मीद नहीं थी कि मौजूदा हालात में कुसुम इस तरह ख़ुद ही मेरे कमरे में आ जाएगी किन्तु उसके यूं आ जाने पर मुझे थोड़ी हैरानी हुई। मैंने ध्यान से उसके चेहरे की तरफ देखा तो पता चला कि उसकी साँसें थोड़ी उखड़ी हुई हैं। ये जान कर मैं मन ही मन चौंका।

"भैया आपको ताऊ जी ने बुलाया है।" कुसुम ने अपनी उखड़ी साँसों को सम्हालते हुए कहा____"जल्दी चलिए, वो आपका इंतज़ार कर रहे हैं।"
"क्या हुआ है?" उसकी बात सुन कर मेरे माथे पर सोचने वाले भाव उभरे____"और तू इतना हांफ क्यों रही है?"

"वो मैं भागते हुए आपको बुलाने आई हूं ना।" कुसुम ने कहा____"इस लिए मेरी साँसें थोड़ी भारी हो गई हैं। आप जल्दी से चलिए। ताऊ जी कहीं जाने के लिए तैयार खड़े हैं। मुझसे कहा कि मैं जल्दी से आपको बुला लाऊं।"

"अच्छा ठीक है।" मैं कुछ सोचते हुए जल्दी से उठा_____"तू चल मैं कपड़े पहन कर आता हूं थोड़ी देर में।"
"जल्दी आइएगा।" कुसुम ने कहा____"कहीं ऐसा न हो कि आपकी वजह से मुझे भी डांट पड़ जाए।"

कुसुम इतना कह कर वापस चली गई और मैं ये सोचने लगा कि आख़िर पिता जी ने मुझे इतना जल्दी आने को क्यों कहा होगा? आख़िर ऐसी कौन सी बात हो गई होगी जिसके लिए उन्होंने मुझे बुलाया था? शाम घिर चुकी थी और रात का अँधेरा फैलने लगा था। कुसुम के अनुसार पिता जी कहीं जाने के लिए तैयार खड़े हैं, इसका मतलब इस वक़्त वो मुझे भी अपने साथ ले जाना चाहते हैं किन्तु सवाल है कि कहां और किस लिए?

मैंने मेनका चाची से कुछ देर पहले ही अपने बदन की मालिश करवाई थी इस लिए मेरे पूरे बदन पर अभी भी तेल की चिपचिपाहट थी। मेरा कहीं जाने का बिलकुल भी मन नहीं था किन्तु पिता जी ने बुलाया था तो अब उनके साथ जाना मेरी मज़बूरी थी। ख़ैर फिर से नहाने का मेरे पास समय नहीं था इस लिए तौलिए से ही मैंने अपने बदन को अच्छे से पोंछा ताकि तेल की चिपचिपाहट दूर हो जाए। उसके बाद मैंने कपड़े पहने और कमरे से बाहर आ गया। थोड़ी ही देर में मैं नीचे पहुंच गया।

"पिता जी आपने बुलाया मुझे?" मैंने बाहर बैठक में पहुंचते ही पिता जी से पूछा तो उन्होंने कहा____"जीप की चाभी लो और फ़ौरन हमारे साथ चलो।"
"जी..।" मैंने कहा और पास ही दीवार पर दिख रही एक कील पर से मैंने जीप की चाभी ली और बाहर निकल गया। बाहर आ कर मैंने जीप निकाली और मुख्य दरवाज़े के पास आया तो पिता जी दरवाज़े से निकले और सीढ़ियां उतर कर नीचे आए।

पिता जी जब जीप में मेरे बगल से बैठ गए तो उनके ही निर्देश पर मैंने जीप को आगे बढ़ा दिया। मेरे ज़हन में अभी भी ये सवाल बना हुआ था कि पिता जी मुझे कहां ले कर जा रहे हैं?

"कुछ देर पहले दरोगा ने अपने एक हवलदार के द्वारा हमें ख़बर भेजवाई थी कि मुरारी के गांव के पास उसे एक आदमी की लाश मिली है।" रास्ते में पिता जी ने ये कहा तो मैंने बुरी तरह चौंक कर उनकी तरफ देखा, जबकि उन्होंने शांत भाव से आगे कहा____"दरोगा ने हवलदार के हाथों हमें एक पत्र भेजा था। दरोगा को शक है कि उस लाश का सम्बन्ध मुरारी की हत्या से हो सकता है।"

"ऐसा कैसे हो सकता है?" मैंने चकित भाव से कहा____"भला किसी की लाश मिलने से दरोगा को ये शक कैसे हो सकता है कि उसका सम्बन्ध मुरारी काका की हत्या से हो सकता है? क्या उसे लाश के पास से ऐसा कोई सबूत मिला है जिसने उसे ये बताया हो कि उसका सम्बन्ध किससे है?"

"इस बारे में तो उसने कुछ नहीं लिखा था।" पिता जी ने कहा____"किन्तु मुरारी के गांव के पास किसी की लाश का मिलना कोई मामूली बात नहीं है बल्कि गहराई से सोचने वाली बात है कि वो लाश किसकी हो सकती है और उसकी हत्या किसी ने किस वजह से की होगी?"

"हत्या???" मैंने चौंक कर पिता जी की तरफ देखा____"ये आप क्या कह रहे हैं? अभी आप कह रहे थे कि किसी की लाश मिली है और अब कह रहे हैं कि उसकी हत्या किसी ने किस वजह से की होगी? भला आपको या दरोगा को ये कैसे पता चल गया कि जिसकी लाश मिली है उसकी किसी ने हत्या की है?"

"बेवकूफों जैसी बातें मत करो।" पिता जी ने थोड़े शख़्त भाव से कहा____"कोई लाश अगर सुनसान जगह पर लहूलुहान हालत में मिलती है तो उसका एक ही मतलब होता है कि किसी ने किसी को बुरी तरह से मार कर उसकी हत्या कर दी है। हवलदार से जब हमने पूछा तो उसने यही बताया कि जिस आदमी की लाश मिली है उसे देख कर यही लगता है कि किसी ने उसे बुरी तरह से मारा था और शायद बुरी तरह मारने से ही उस आदमी की जान चली गई है।"

"अगर ऐसा ही है।" मैंने लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा____"फिर तो ज़ाहिर ही है कि किसी ने उस आदमी की हत्या ही की है लेकिन सवाल ये है कि उस लाश के मिलने से दरोगा ये कैसे कह सकता है कि उसका सम्बन्ध मुरारी काका की हत्या वाले मामले से हो सकता है? ऐसा भी तो हो सकता है कि इस वाली हत्या का मामला कुछ और ही हो।"

"बिल्कुल हो सकता है।" पिता जी ने कहा____"किन्तु जाने क्यों हमें ये लगता है कि उस लाश का सम्बन्ध किसी और से नहीं बल्कि मुरारी की हत्या वाले मामले से ही है।"
"फिर तो उस दरोगा को भी यही लगा होगा।" मैंने पिता जी की तरफ देखते हुए कहा____"और शायद यही वजह थी कि लाश मिलते ही उसने उस लाश के बारे में आप तक ख़बर पहुंचाई।"

"ज़ाहिर सी बात है।" पिता जी ने अपने कन्धों को उचका कर कहा____"ख़ैर अभी तो ये सिर्फ सम्भावनाएं ही हैं। सच का पता तो लाश की जांच पड़ताल और उस आदमी की हत्या की छान बीन से ही चलेगा।"

पिता जी की इस बात पर मैंने इस बार कुछ नहीं कहा किन्तु मेरे ज़हन में बड़ी तेज़ी से विचारों का आवा गवन चालू हो गया था कि वो लाश किसकी होगी और मुरारी काका के गांव के पास दरोगा को उस हालत में क्यों मिली होगी? अगर सच में उस आदमी की हत्या की गई होगी तो ये बेहद सोचने वाली बात होगी कि ऐसा कौन कर सकता है और क्यों किया होगा? मुरारी काका की हत्या वाले रहस्य से अभी पर्दा उठा भी नहीं था कि एक और आदमी की रहस्यमय तरीके से हत्या हो गई थी। हालांकि मुरारी काका की हत्या की तरह इस हत्या से भी मेरा दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था किन्तु रह रह कर मेरे ज़हन में ये ख़याल उभर रहा था कि कहीं इस हत्या में भी मेरा नाम न आ जाए।

अंधेरा पूरी तरह से हो चुका था। जीप की हेडलाइट जल रही थी जिसके प्रकाश की मदद से आगे बढ़ते हुए हम उस जगह पर पहुंच गए जहां पर दरोगा ने अपने हवलदार के द्वारा पिता जी को घटना स्थल का पता बताया था। जीप के रुकते ही पिता जी जीप से नीचे उतरे, उनके साथ मैं भी जीप के इंजन को बंद कर के नीचे उतर आया। जीप की हेडलाइट को मैंने जलाए ही रखा था क्योंकि अँधेरे में ठीक से कुछ दिखाई नहीं देता।

दरोग़ा के साथ तीन पुलिस वाले थे। इस जगह से मुरारी काका का गांव मुश्किल से एक किलो मीटर की दूरी पर था। लाश के सम्बन्ध में अभी किसी को कुछ पता नहीं चला था किन्तु ये भी सच था कि देर सवेर इस सनसनीखेज काण्ड की ख़बर दूर दूर तक फ़ैल जाने वाली थी।

ये एक ऐसी जगह थी जहां पर खेत नहीं थे बल्कि बंज़र ज़मीन थी जिसमें कहीं कहीं पेड़ पौधे थे और पथरीला मैदान था। जिस जगह पर मेरा नया मकान बन रहा था वो इस जगह के बाईं तरफ क़रीब दो सौ गज की दूरी पर था। यहाँ से मुख्य सड़क थोड़ी दूर थी किन्तु मुरारी काका के गांव जाने के लिए एक छोटा रास्ता जिसे पगडण्डी कहते हैं वो इसी जगह से हो कर जाता था।

पिता जी के साथ मैं भी उस जगह पहुंचा जहां पर दरोगा अपने तीन पुलिस वालों के साथ खड़ा शायद हमारे ही आने की प्रतीक्षा कर रहा था। पिता जी जैसे ही दरोगा के पास पहुंचे तो दरोगा ने सबसे पहले पिता जी को अदब से सलाम किया उसके बाद हाथ के इशारे से उन्हें लाश की तरफ देखने के लिए कहा।

पिता जी के साथ साथ मैंने भी लाश की तरफ देखा। लाश किसी आदमी की ही थी जिसकी उम्र यही कोई पैंतीस के आस पास रही होगी। लाश के जिस्म पर जो कपड़े थे उन्हें देख कर मैं बुरी तरह चौंका और साथ ही पिता जी की तरफ भी जल्दी से देखा। पिता जी के चेहरे पर भी चौंकने वाले भाव नुमायां हुए थे किन्तु उन्होंने फ़ौरन ही अपने चेहरे के भावों को ग़ायब कर लिया था। लाश के बदन पर काले कपड़े थे जो एक दो जगह से फटे हुए थे और खून से भी सन गए थे। सिर फट गया था जहां से भारी मात्रा में खून बहा था और उसी ख़ून से आदमी का चेहरा भी नहाया हुआ था। ख़ून से नहाए होने की वजह से चेहरा पहचान में नहीं आ रहा था।

"क्या आप जानते हैं इसे?" दरोगा ने पिता जी की तरफ देखते हुए पूछा तो पिता जी ने गर्दन घुमा कर दरोगा से कहा____"इसका चेहरा खून में नहाया हुआ है इस लिए इसे पहचानना संभव नहीं है। वैसे तुम्हें इस लाश के बारे में कैसे पता चला?"

"बस इसे इत्तेफ़ाक़ ही समझिए।" दरोगा ने अजीब भाव से कहा और फिर उसने उन तीनों पुलिस वालों से मुखातिब हो कर कहा____"तुम लोग इस लाश को सम्हाल कर जीप में डालो और पोस्ट मोर्टेम के लिए शहर ले जाओ। मैं ठाकुर साहब से ज़रूरी पूंछतांछ के लिए यहीं रुकूंगा।"

दरोग़ा के कहने पर तीनों पुलिस वाले अपने काम पर लग ग‌ए। कुछ ही देर में उन लोगों ने लाश को एक बड़ी सी पन्नी में लपेट कर पुलिस की जीप में रखा और फिर दरोगा और पिता जी को सलाम कर के चले गए।

"अब बताओ असल बात क्या है?" तीनों पुलिस वालों के जाने के बाद पिता जी ने दरोगा से कहा____"और ये सब कैसे हुआ?"
"असल में जब आपने पिछले दिन मुझे ये बताया था कि छोटे ठाकुर(वैभव सिंह) के साथ आज कल अजीब सी घटनाएं हो रही हैं।" दरोगा ने कहा____"जिनमें किसी ने इन्हें नुकसान पहुंचाने की भी कोशिश की गई थी तो मैंने अपने तरीके से इस सबका पता लगाने का सोचा। कल रात भी मैं इस क्षेत्र में देर रात तक भटकता रहा था लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा था। आज शाम होने के बाद भी मैं यही सोच कर इस तरफ आ रहा था कि अचानक ही मेरे कानों में एक तरफ से ऐसी आवाज़ आई जैसे कोई दर्द से चीखा हो। मैंने आवाज़ सुनते ही अपने कान खड़े कर दिए और फिर जल्दी ही मुझे पता चल गया कि आवाज़ किस तरफ से आई थी। मैं फ़ौरन ही आवाज़ की दिशा की तरफ भाग चला। कुछ ही देर में जब मैं भागते हुए एक जगह आया तो मेरी नज़र अँधेरे में दो सायों पर पड़ी। एक साया तो मुझे कुछ हद तक साफ़ ही दिखा क्योंकि उसके जिस्म पर सफ़ेद कपड़े थे किन्तु दूसरा साया काले कपड़ों में था। मैंने देखा और सुना कि काला साया उस सफ़ेद कपड़े वाले से दर्द में गिड़गिड़ाते हुए बोला कि बस एक आख़िरी मौका और दे दीजिए, उसके बाद भी अगर मैं नाकाम हो गया तो बेशक मेरी जान ले लीजिएगा। काले साए द्वारा इस तरह गिड़गिड़ा कर कहने से भी शायद उस सफ़ेद कपड़े वाले पर कोई असर न हुआ था तभी तो उसने हाथ में लिए हुए लट्ठ को उठा कर बड़ी तेज़ी से उस काले साए के सिर पर मार दिया था जिससे वो वहीं ढेर होता चला गया।"

"अगर ये सब तुम्हारी आँखों के सामने ही हो रहा था।" पिता जी ने थोड़े नाराज़ लहजे में कहा____"तो तुमने आगे बढ़ कर इस सबको रोका क्यों नहीं?"
"मैं इस सबको रोकने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ा ही था ठाकुर साहब लेकिन।" दरोगा ने पैंट को घुटने तक ऊपर उठा कर अपनी दाहिनी टांग को दिखाते हुए कहा____"लेकिन तभी मेरा पैर ज़मीन पर पड़े एक पत्थर से टकरा गया जिससे मैं भरभरा कर औंधे मुँह ज़मीन पर जा गिरा। जल्दबाज़ी में वो पत्थर मुझे दिखा ही नहीं था और अँधेरा भी था। मैं औंधे मुँह गिरा तो मेरा दाहिना घुटना किसी दूसरे पत्थर से टकरा गया जिससे मेरे मुख से दर्द भरी कराह निकल गई। उस सफ़ेद साए ने शायद मेरी कराह सुन ली थी इसी लिए तो वो वहां से उड़न छू हो कर ऐसे गायब हुआ कि फिर मुझे बहुत खोजने पर भी नहीं मिला। थक हार कर जब मैं वापस आया तो देखा काले कपड़े वाले साए ने दम तोड़ दिया था। उसका सिर लट्ठ के प्रहार से फट गया था जिससे बहुत ही ज़्यादा खून बह रहा था। उसके बाद मैं वापस आपके द्वारा मिले कमरे में गया और मोटर साइकिल से शहर निकल गया। मुझे डर था कि मेरे पीछे वो सफ़ेद कपड़े वाला आदमी उस लाश को कहीं ग़ायब न कर दे किन्तु शुक्र था कि ऐसा नहीं हुआ। शहर से मैं जल्दी ही तीन पुलिस वालों को ले कर यहाँ आया और आपको भी इस सबकी ख़बर भेजवाई।"

"वो सफ़ेद कपड़े वाला भाग कर किस तरफ गया था?" दरोगा की बातें सुनने के बाद सहसा मैंने उससे पूछा तो दरोगा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"वो आपके गांव की तरफ ही भागता हुआ गया था छोटे ठाकुर और फिर अँधेरे में गायब हो गया था। ज़ाहिर है कि वो आपके ही गांव का कोई आदमी था। काले कपड़े वाला ये आदमी जिस तरह गिड़गिड़ाते हुए उससे दूसरा मौका देने की बात कह रहा था उससे यही लगता है कि सफ़ेद कपड़े वाले ने इसे कोई ऐसा काम दिया था जिसमें उसे हर हाल में सफल होना चाहिए था किन्तु वो सफल नहीं हो पाया और आख़िर में इस असफलता के लिए उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।"

दरोगा की इस बात से न पिता जी कुछ बोले और ना ही मैं। असल में उसकी इस बात से हम दोनों ही सोच में पड़ गए थे। मेरे ज़हन में तो बस एक ही सवाल खलबली सा मचाए हुए था कि जिस काले कपड़े वाले की लाश मिली है कहीं ये वही तो नहीं जो एक और दूसरे काले साए के साथ उस शाम बगीचे में मुझे मारने आया था? उस शाम बगीचे में चाँद की चांदनी थी जिसके प्रकाश में मैंने देखा था कि उन दोनों के जिस्म पर इसी तरह का काला कपड़ा लिपटा हुआ था और चेहरा भी काले कपड़े से ढंका हुआ था। अब सवाल ये था कि अगर ये वही था तो दूसरा वाला वो साया कहां है और जिस किसी ने भी इन दोनों को मुझे मारने के लिए भेजा रहा होगा तो उसने उस दूसरे वाले को भी जान से क्यों नहीं मार दिया? आख़िर दोनों एक ही तो काम कर रहे थे यानी कि मुझे मारने का काम, तो अगर ये वाला काला साया अपने काम में नाकाम हुआ है तो वो दूसरा वाला भी तो नाकाम ही कहलाया गया न, फिर उसकी लाश इस वाले साए के पास क्यों नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसकी भी हत्या कर दी गई हो किसी दूसरी जगह पर या फिर मैं बेवजह ही ये समझ रहा हूं कि ये साया वही है जो उस शाम मुझे बगीचे में मिला था। मेरा दिमाग़ जैसे चकरा सा गया था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर ये चक्कर क्या है?

"तुम्हारे लिए आज ये बेहतर मौका था।" मैं सोचो में ही गुम था कि तभी मेरे कानों में पिता जी का वाक्य पड़ा तो मैंने उनकी तरफ देखा, जबकि उन्होंने दरोगा से आगे कहा____"जिसे तुमने गंवा दिया। ऐसा मौका बार बार नहीं मिलता। आज अगर ये काले कपड़े वाला उस सफ़ेद कपड़े वाले के साथ तुम्हारी पकड़ में आ जाता तो हमें बहुत कुछ पता चल सकता था। हमें पता चल जाता कि वो सफ़ेद कपड़े वाला कौन था और वो इस आदमी के द्वारा ये सब क्यों करवा रहा था?"

"माफ़ कर दीजिए ठाकुर साहब।" दरोगा ने खेद प्रकट करते हुए कहा____"ये मेरा दुर्भाग्य ही था जो मैं ऐन वक़्त पर पत्थर से टकरा कर ज़मीन पर गिर गया था जिसकी वजह से मैं उस सफ़ेद कपड़े वाले तक पहुंचने में नाकाम रहा।"

"हमें पूरा यकीन है कि मुरारी की हत्या में उस सफ़ेद कपड़े वाले का ही हाथ है।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"आज अगर वो तुम्हारी पकड़ में आ जाता तो पलक झपकते ही सब कुछ हमारे सामने आ जाता। ख़ैर अब भला क्या हो सकता है?"

"आप बिलकुल सही कह रहे हैं ठाकुर साहब।" दरोगा ने गहरी सांस लेते हुए कहा____"अगर वो पकड़ में आ जाता तो कई सारी चीज़ों से पर्दा उठ जाता। ख़ैर एक चीज़ तो अच्छी ही हुई है और वो ये कि अभी तक तो हम अंदाज़े से चल रहे थे किन्तु इस सबके बाद इतना तो साफ़ हो गया है कि कोई तो ज़रूर है जो कोई बड़ा खेल खेल रहा है आपके परिवार के साथ।"

"अभी जिस आदमी की लाश हमने देखी है उसके जिस्म पर वैसे ही काले कपड़े थे जैसे कि हमने तुम्हें बताया था।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"इसका मतलब यही हुआ कि ये वही है जिसने काले कपड़ों में छुप कर हमारे इस बेटे को मारने की कोशिश की थी किन्तु इसके अनुसार वो दो लोग थे, जबकि यहाँ पर तो एक ही मिला हमें। अब सवाल है कि दूसरा कहां है? उसकी लाश भी तो हमें मिलनी चाहिए।"

"ये क्या कह रहे हैं आप?" दरोगा ने चौंकते हुए कहा____"किस दूसरे की लाश के बारे में बात कर रहे हैं आप?"
"तुम भी हद करते हो दरोगा।" पिता जी ने कहा____"क्या तुम खुद को मूर्ख साबित करना चाहते हो जबकि हमें लगा था कि तुम सब कुछ समझ गए होगे।"

"जी???" दरोगा एकदम से चकरा गया।
"जिस आदमी की लाश मिली है हम उसके दूसरे साथी की बात कर रहे हैं।" पिता जी ने अपने शब्दों पर ज़ोर देते हुए कहा____"इतना तो अब ज़ाहिर हो चुका है कि ये वही काले कपड़ों वाला साया है जो हमारे इस बेटे को मारने के लिए कुछ दिन पहले बगीचे में मिला था लेकिन उस दिन ये अकेला नहीं था बल्कि इसके साथ एक दूसरा साया भी था। तुम्हारे अनुसार अगर इसके मालिक ने इसे इस लिए जान से मार दिया है कि ये अपने काम में नाकाम हुआ था तो ज़ाहिर है कि इसके दूसरे साथी को भी इसके मालिक ने जान से मार दिया होगा। हम उसी की बात कर रहे हैं।"

"ओह! हॉ।" दरोगा को जैसे अब सारी बात समझ में आई थी, बोला____"अगर ये वही है तो यकीनन इसके दूसरे साथी की भी लाश हमें मिलनी चाहिए। इस तरफ तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था।"
"इस पूरे क्षेत्र को बारीकी से छान मारो दरोगा।" पिता जी ने जैसे हुकुम सा देते हुए कहा____"हमे यकीन है कि इसके दूसरे साथी की भी हत्या कर दी गई होगी और उसकी लाश यहीं कहीं होनी चाहिए।"

"ऐसा भी तो हो सकता है कि इसके मालिक ने इसके दूसरे साथी को मार कर किसी ऐसी जगह पर छुपा दिया हो जहां पर हमें उसकी लाश मिले ही न।" दरोगा ने तर्क देते हुए कहा____"इसकी लाश तो हमें इस लिए मिल गई क्योंकि सफ़ेद कपड़े वाले ने मुझे देख लिया था और उसको फ़ौरन ही इसे लावारिश छोड़ कर भाग जाना पड़ा था।"

"होने को तो कुछ भी हो सकता है दरोगा।" पिता जी ने कहा____"ऐसा भी हो सकता है कि सफेद कपड़े वाले ने इसके दूसरे साथी के साथ कुछ न किया हो और वो अभी भी ज़िंदा ही हो। सफेद कपड़े वाले के द्वारा इसके दूसरे साथी को भी जान से मार देने की बात भी हम सिर्फ इसी आधार पर कह रहे हैं क्योंकि उसने इन दोनों को ही एक काम सौंपा था जिसमें ये दोनों नाकाम हुए हैं और उसी नाकामी के लिए इन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। ख़ैर बात जो भी हो किन्तु अपनी तसल्ली के लिए हमें ये तो पता करना ही पड़ेगा न कि इसका दूसरा साथी कहां है।"

"जी मैं समझ गया ठाकुर साहब।" दरोगा ने सिर हिलाते हुए कहा____"रात के इस अँधेरे में उसके दूसरे साथी को या उसकी लाश को खोजना मुश्किल तो है लेकिन मैं कोशिश करुंगा उसे खोजने की, नहीं तो फिर दिन के उजाले में मैं इस पूरे क्षेत्र का बड़ी बारीकी से निरीक्षण करुंगा। अगर सफेद कपड़े वाले ने इसके दूसरे साथी को भी इसी की तरह जान से मार दिया होगा तो यकीनन कहीं न कहीं उसके निशान मौजूद ही होंगे और अगर वो अभी ज़िंदा है तो ज़ाहिर है कि उसके निशान मिलना संभव नहीं होगा, बल्कि उस सूरत में उसे ढूंढना टेढ़ी खीर जैसा ही होगा।"

थोड़ी देर और दरोगा से इस सम्बन्ध में बातें हुईं उसके बाद पिता जी के कहने पर मैं उनके पीछे हमारी जीप की तरफ बढ़ गया जबकि दरोगा वहीं खड़ा रहा।
---------☆☆☆---------
 
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 33
----------☆☆☆----------





अब तक,,,,,,

"जी मैं समझ गया ठाकुर साहब।" दरोगा ने सिर हिलाते हुए कहा____"रात के इस अँधेरे में उसके दूसरे साथी को या उसकी लाश को खोजना मुश्किल तो है लेकिन मैं कोशिश करुंगा उसे खोजने की, नहीं तो फिर दिन के उजाले में मैं इस पूरे क्षेत्र का बड़ी बारीकी से निरीक्षण करुंगा। अगर सफेद कपड़े वाले ने इसके दूसरे साथी को भी इसी की तरह जान से मार दिया होगा तो यकीनन कहीं न कहीं उसके निशान मौजूद ही होंगे और अगर वो अभी ज़िंदा है तो ज़ाहिर है कि उसके निशान मिलना संभव नहीं होगा, बल्कि उस सूरत में उसे ढूंढना टेढ़ी खीर जैसा ही होगा।"

थोड़ी देर और दरोगा से इस सम्बन्ध में बातें हुईं उसके बाद पिता जी के कहने पर मैं उनके पीछे हमारी जीप की तरफ बढ़ गया जबकि दरोगा वहीं खड़ा रहा।


अब आगे,,,,,,


"क्या सोच रहे हैं पिता जी?" रास्ते में मैंने पिता जी को कुछ सोचते हुए देखा तो हिम्मत कर के पूंछ ही बैठा____"जिस आदमी की लाश मिली है क्या वो सच में वही काला साया हो सकता है जो अपने एक और साथी के साथ मुझे मारने आया था?"

"बेशक़ हो सकता है।" पिता जी ने सोचने वाले भाव से ही कहा____"लेकिन हम ये सोच रहे हैं कि जिस किसी ने भी उसकी जान ली है क्या उसी ने मुरारी की भी हत्या की होगी या फिर करवाई होगी?"

"आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?" मैंने उनकी तरफ एक नज़र डाल कर कहा____"जबकि मुरारी काका की हत्या करने में और इस आदमी की हत्या करने में बहुत फ़र्क है। मुरारी काका की हत्या तेज़ धार वाले किसी हथियार से गला काट कर की गई थी जबकि इस आदमी की जान उसके सिर पर लट्ठ मारने से ली गई है और ये बात दरोगा खुद ही बता चुका है।"

"हम मानते हैं कि दोनों की हत्या करने का तरीका अलग अलग है।" पिता जी ने कहा____"किन्तु उस सफ़ेद कपड़े वाले को मत भूलो जिसने इस मरे हुए आदमी को कोई काम सौंपा था और जिस काम के नाकाम होने पर इस आदमी को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।"

"आप कहना क्या चाहते हैं?" मैंने उलझ गए भाव से उनकी तरफ देखा____"मुझे कुछ समझ में नहीं आई आपकी बात।"
"दरोग़ा की सारी बातें सुनने के बाद इस मामले के सम्बन्ध में हमारे ज़हन में कुछ बातें चल रही हैं।" पिता जी ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"दरोगा के अनुसार सफ़ेद कपड़े वाले ने इस आदमी को कोई काम सौंपा था जिसके नाकाम होने पर उसने इसे जान से मार दिया। मरे हुए आदमी के कपड़ों से ये बात साफ़ हो गई है कि ये वही आदमी है जो अपने एक दूसरे साथी के साथ उस शाम तुम्हें मारने आया था। इससे ये बात साफ़ समझ में आ जाती है कि सफ़ेद कपड़े वाले ने इसे कौन सा काम सौपा था। इन सब बातों को मद्दे नज़र रखते हुए कहानी को कुछ इस तरीके से समझो_____'कोई अज्ञात आदमी शुरू से ही तुम पर नज़र रख रहा था और उसका मकसद था तुम्हें हर हाल में नुकसान पहुंचाना। जिसके लिए उसने गुप्त तरीके से दो ऐसे आदमियों को चुना जो किसी भी तरह के काम करने में माहिर हों। उसके बाद उसने अपने उन आदमियों के द्वारा मुरारी की हत्या करवाई और उस हत्या में तुम्हें फ़साने की कोशिश की। उसे अच्छी तरह पता था कि मुरारी की हत्या में तुम्हें फ़साने से तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ सकता किन्तु इसके बावजूद उसने तुम्हें फंसाया। कदाचित उसका मकसद था तुम्हारे नाम को हत्या जैसे मामले में शामिल कर के तुम्हें हर तरफ बदनाम कर देना और ज़ाहिर है कि तुम्हारी वजह से हमारी और हमारे पूरे खानदान की भी छवि ख़राब हो जाती। ख़ैर इस सबके बाद जब उसने देखा कि वो अपने मकसद में उस तरीके से कामयाब नहीं हुआ है जिस तरीके से वो चाहता था तो गुस्से में आ कर उसने अपने उन आदमियों के द्वारा तुम पर ही हमला करवाना शुरू कर दिया और जब उसके आदमी अपने हर प्रयास के बावजूद तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सके तो गुस्से में आग बबूला हो कर आज उस अज्ञात आदमी ने अपने ही आदमी की जान ले ली।"

लम्बी चौड़ी बात कहने के बाद जब पिता जी चुप हो गए तो जैसे ख़ामोशी छा गई। ये अलग बात है कि जीप के इंजन की आवाज़ फिज़ा में गूँज रही थी। पिता जी की इन बातों ने मेरे मनो मस्तिष्क को जैसे कुछ देर के लिए कुंद सा कर दिया था। उन्होंने जो कुछ भी कहा था वो यकीनन वजनदार था और सच्चाई भी यही हो सकती थी।

"अगर आपकी बातों को सच मान लिया जाए तो फिर इसमें कई सवाल खड़े होते हैं।" कुछ देर सोचने के बाद मैंने कहा____"जैसे कि अगर वो अज्ञात आदमी मुझे कोई नुकसान ही पहुंचाना चाहता था तो उसे इतना सब कुछ करने की क्या ज़रूरत थी? मेरा मतलब है कि वो खुद भी कोई अच्छा सा मौका देख कर मुझे नुकसान पहुंचा सकता था? इसके लिए उसे गुप्त रूप से आदमी लगाने की और उन आदमियों के द्वारा मुरारी की हत्या करवाने की क्या ज़रूरत थी। अगर वो मुझे ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझता था तो वो सिर्फ मुझे ही नुकसान पहुँचाता या फिर मुझे जान से ही मार देता।"

"यही तो सोचने वाली बात है बरखुर्दार।" पिता जी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"उसका मकसद सिर्फ तुम्हें नुकसान पहुंचाना ही बस नहीं था बल्कि तुम्हारे द्वारा हम सबकी छवि को ख़राब करना भी था। अगर वो तुम्हें हत्या जैसे मामले में न फंसाता तो क्या तुम्हारे साथ साथ हम सबकी छवि भी ख़राब हो सकती थी? उसके दुश्मन सिर्फ तुम ही नहीं हो बल्कि हम सब हैं।"

"हां यही बात हो सकती है।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"तो क्या लगता है आपको? ये सब किसने किया होगा? वो सफ़ेद कपड़े वाला कौन हो सकता है? क्या ये सब गांव के साहूकारों का किया धरा है?"

"ये सच है कि गांव के साहूकारों से हमेशा ही हमारा मन मुटाव रहा है और वो हमें अपना दुश्मन भी समझते रहे हैं।" पिता जी ने कहा____"लेकिन इस सबके लिए हम फिलहाल उन पर आरोप नहीं लगा सकते। जैसा कि हमने पहले भी तुमसे कहा था कि हमें भले ही उन पर हर चीज़ के लिए शक हो लेकिन जब तक हमारे पास उनके खिलाफ़ कोई ठोस प्रमाण नहीं होगा तब तक हम इस बारे में उनके खिलाफ़ कोई भी क़दम नहीं उठा सकते।"

"इसका मतलब तो यही हुआ कि इस सबके लिए हम कुछ कर ही नहीं सकते।" मैंने थोड़ा खीझते हुए कहा तो पिता जी ने कहा____"ऐसी बात नहीं है बल्कि हमें तो अब ऐसा लग रहा है कि हमें कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।"

"ये आप क्या कह रहे हैं?" मैंने चौंक कर उनकी तरफ देखा।
"हमारे सामने दो तरह के मामले हैं।" पिता जी ने शांत भाव से जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"एक तो ऐसा मामला है जो प्रत्यक्ष रूप से हमारे सामने है और दूसरा वो है जो हमारी नज़र से दूर है, जिसके बारे में हम सिर्फ अनुमान ही लगाते रहे हैं। अभी का ये मामला अप्रत्यक्ष रूप वाला है लेकिन प्रत्यक्ष रूप वाला मामला ये है कि कल तुम्हें मणि शंकर के घर जाना है और उसके घर वालों से अच्छे सम्बन्ध बनाने हैं। हमें यकीन है कि उसमे भी कुछ न कुछ पता चलेगा और आज के इस मामले में भी जल्द ही कुछ न कुछ होता नज़र आएगा।"

"ये आप कैसे कह सकते हैं?" मैंने हैरानी से उनकी तरफ देखा तो उन्होंने कहा____"तुम्हें क्या लगता है इतना सब कुछ होने के बाद अब वो सफ़ेद कपड़े वाला शान्ति से बैठ जाएगा? हरगिज़ नहीं, बल्कि वो अपनी इस नाकामी से बुरी तरह झुलस रहा होगा और जल्द ही कुछ ऐसा करने का सोचेगा जिससे वो अपने मकसद में कामयाब हो सके। हमें भी उसके अगले क़दम के लिए पूरी तरह से तैयार रहना होग, ख़ास कर तुम्हें।"

"वैसे उस दरोगा के बारे में आपका क्या ख़याल है पिता जी?" कुछ सोचते हुए मैंने पिता जी से कहा____"क्या आपको लगता है कि वो भरोसेमंद आदमी है?"
"हमें अच्छा लगा कि अब तुम इस मामले में गहराई से सोचने लगे हो।" पिता जी ने मेरी तरफ देखने के बाद कहा____"जिस तरह के हालात बने हुए हैं उसके लिए हमें हर पहलू के बारे में गहराई से सोचना ज़रूरी है। दरोगा के भरोसे पर सवाल खड़ा करना मौजूदा वक़्त में जायज़ भी है बुद्धिमानी भी है किन्तु हम तुम्हें बता दें कि दरोगा पर पूरी तरह भरोसा किया जा सकता है।"

"दरोग़ा पर भरोसा करने की वजह?" मैंने एक नज़र पिता जी की तरफ डालने के बाद कहा तो पिता जी ने कहा____"क्योंकि एक तरह से वो हमारा ही आदमी है। कुछ साल पहले हमने ही उसकी नौकरी लगवाई थी। उसका बाप बहुत अच्छा आदमी था। हमसे काफी अच्छे सम्बन्ध थे उसके। दरोगा उस समय पढ़ ही रहा था जब गंभीर बिमारी के चलते उसके पिता की मृत्यु हो गई थी। उसकी मृत्यु पर हम गए थे उसके घर। धनञ्जय पढ़ने लिखने में बड़ा होशियार था और हम उसे बहुत मानते भी थे। उसके पिता रमाकांत की मृत्यु के बाद हमने खुद ही उसके परिवार की जिम्मेदारी के ली थी। ख़ैर धनञ्जय की जब पढ़ाई पूरी हो गई तो हमने पुलिस में उसकी नौकरी लगवा दी। असल में उसके पिता रमाकांत का सपना था कि उसका बेटा एक पुलिस वाला बने। धनञ्जय पुलिस वाला बन गया और अपनी माँ के साथ साथ छोटी बहन का भी सहारा बन गया। अभी पिछले साल ही धनञ्जय का तबादला इस शहर में हुआ है। इसके पहले वो अपनी माँ और बहन को ले कर दूसरी जगह रहता था।"

"इसका मतलब दरोगा हमारे लिए भरोसेमंद है।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा।
"बिल्कुल।" पिता जी ने कहा____"हमने कुछ समय पहले यहीं पर उसे रहने के लिए एक जगह कमरा दिलवा दिया था और गुप्त रूप से मुरारी की हत्या की जांच करने के लिए कहा था। शहर से हर रोज़ यहाँ आना उसके लिए आसान तो था लेकिन हम नहीं चाहते थे कि वो यहाँ पर हमारे किसी अज्ञात दुश्मन की नज़र में आ जाए। इसके लिए हमने उसके उच्च अधिकारियों से बात भी कर ली थी।"

"तो उसके यहाँ रहने से।" मैंने कहा____"क्या मुरारी काका की हत्या के मामले में कुछ पता चला?"
"उसी काम में तो वो लगा हुआ था।" पिता जी ने कहा____"और शायद वो सफल भी हो जाता अगर वो सफ़ेद कपड़े वाला उसकी पकड़ में आ जाता।"

"मेरे मन में एक सवाल खटक रहा है पिता जी।" मैंने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"आपने बताया था कि मेरी सुरक्षा के लिए आपने एक आदमी को लगा रखा है जो तभी मेरे पीछे लग जाता है जब मैं हवेली से निकलता हूं। सवाल है कि अगर वो मेरे पीछे ही लगा रहता है तो अब तक वो उन दो सायों को पकड़ क्यों नहीं पाया? इतना तो अब उसे भी पता ही है कि मुझे मारने के लिए उस शाम दो साए आए थे तो फिर उसने अब तक उनका पता क्यों नहीं लगाया?"

"उसका काम किसी का पता लगाने नहीं है।" पिता जी ने कहा____"उसका काम सिर्फ इतना ही है कि शाम को जब भी तुम हवेली से बाहर जाओ तो वो तुम्हारा साया बन कर तुम्हारे पीछे लग जाए और अगर तुम पर कोई हमला करता है तो वो उस हमले से तुम्हारी रक्षा करे।"

"बड़ी अजीब बात है।" मैंने कहा___"वैसे एक और बात भी है पिता जी और वो ये कि उस सफ़ेद कपड़े वाले का मकसद पूरा न होने देने के पीछे आपके उस आदमी का भी थोड़ा बहुत हाथ है जिसे आपने मेरी रक्षा के लिए लगाया हुआ है। उसकी वजह से उस शाम वो दोनों साए मुझे नुक्सान नहीं पहुंचा पाए थे।" मैंने ये कहा ही था कि तभी मेरे ज़हन में बिजली की तरह एक बात कौंधी तो मैंने चौंक कर पिता जी से कहा____"इसका मतलब आपके उस आदमी की जान को भी ख़तरा है पिता जी।"

"क्या मतलब???" पिता जी मेरी बात सुन कर चौंके।
"हां पिता जी।" मैंने जोशपूर्ण भाव से कहा____"कहीं न कहीं आपके उस आदमी का भी हाथ है उस सफ़ेद कपड़े वाले की नाकामी में। सफ़ेद कपड़े वाला अगर अपनी नाकामी में गुस्सा हो कर अपने आदमी को जान से मार सकता है तो आपके उस आदमी को भी तो जान से मार देना चाहेंगा।"

"यकीनन।" पिता जी के मस्तिष्क की जैसे बत्ती जल उठी____"ऐसा भी हो सकता है। ज़रूर वो सफ़ेद कपड़े वाला हमारे उस आदमी को भी जान से मारने की कोशिश करेगा लेकिन....!"
"लेकिन क्या पिता जी??" मैंने उनकी तरफ देखा तो उन्होंने कहा____"लेकिन चिंता की कोई बात नहीं है। हमारा वो आदमी इतना कमज़ोर नहीं है कि कोई ऐरा गैरा उसका कुछ बिगाड़ सके। हमें यकीन है कि अगर ऐसा कुछ हुआ तो वो सफ़ेद कपड़े वाला खुद ही मात खाएगा और संभव है कि हमारे आदमी के द्वारा पकड़ा भी जाए।"

"अब ये तो आने वाला समय ही बताएगा पिता जी।" मैंने कहा____"कि आगे क्या होता है इस सम्बन्ध में।"
"फिलहाल तुम इन सब बातों से ध्यान हटा कर कल के बारे में सोचो।" पिता जी ने कहा____"कल तुम्हें मणि शंकर के घर जाना है। इस बात का ख़ास ख़याल रहे कि तुम्हारी किसी बचकानी हरकत की वजह से कुछ उल्टा सीधा न हो।"

"आप बेफिक्र रहिए पिता जी।" मैंने दृढ भाव से कहा____"मैं आपको शिकायत का मौका नहीं दूंगा। मुझे भी लगता है कि उन लोगों से बेहतर सम्बन्ध बना कर ही मुझे उनकी असलियत का पता चल पाएगा। वैसे एक सवाल है पिता जी, अगर आपकी इजाज़त हो तो पूछूं आपसे?"

"इसके पहले क्या तुमने अपने किसी सवाल के लिए हमसे इजाज़त मांगी थी?" पिता जी ने मेरी तरफ घूर कर देखा तो मैं एकदम से झेंप सा गया, जबकि उन्होंने कहा____"ख़ैर पूछो क्या पूछना चाहते हो?"

"गांव के साहूकारों से।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए कहा____"क्या सच में हमारी कोई दुश्मनी है या फिर वो बेवजह ही हमें अपना दुश्मन समझते रहे हैं?"

"समय आने पर तुम्हें तुम्हारे इस सवाल का जवाब ज़रूर देंगे हम।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"फिलहाल हम ये चाहते हैं कि तुम सिर्फ़ एक चीज़ पर ध्यान दो और वो ये कि साहूकारों से अपने सम्बन्धों को अच्छा बनाओ और इस क़दर बनाओ कि वो ये यही समझने लगें कि अब तुम्हारे ज़हन में उनके प्रति कोई ग़लत भावना नहीं है।"

पिता जी की बात सुन कर मैंने हां में अपना सिर हिलाया और ख़ामोशी से जीप चलाता रहा। ख़ैर कुछ ही देर में जीप हवेली पहुंच ग‌ई। हवेली के मुख्य दरवाज़े के पास मैंने जीप को रोका तो पिता जी जीप से उतर गए। मैं दूसरे छोर पर जीप को खड़ी करने चला गया। कुछ देर बाद मैं भी हवेली के अंदर आ गया।

अंदर आ कर सबसे पहले मैं ऊपर अपने कमरे में गया और कपड़े उतार कर नीचे गुसलखाने में चला गया। नहा धो कर मैं वापस अपने कमरे में आया और दूसरे कपड़े पहन ही रहा था कि भाभी मेरे कमरे में आईं और बोलीं कि खाना बन गया है इस लिए जल्दी से खाना खाने के लिए नीचे आ जाओ। भाभी इतना बोल कर वापस चली गईं।

कुछ देर बाद मैं नीचे गया और सबके साथ बैठ कर भोजन करना शुरू कर दिया। खाते वक़्त हमेशा की तरह सब ख़ामोश ही थे। मेरी नज़र बड़े भैया पर पड़ी तो देखा वो चुपचाप खाना खा रहे थे। उनके बगल से विभोर और अजीत भी बैठे खा रहे थे। हवेली की दो नौकरानियाँ खाना परोस रहीं थी।

☆☆☆

रात लगभग आधी गुज़र चुकी थी। हवेली में हर तरफ गहन सन्नाटा ब्याप्त था। हर रोज़ की तरह आज भी आधी रात को बिजली जा चुकी थी। खाना खाने के बाद मैं ऊपर अपने कमरे में आ गया था। पलंग पर लेटे लेटे ही मैंने फैसला कर लिया था कि आज तब तक नहीं सोऊंगा जब तक मेरे कुछ सवालों के जवाब नहीं मिल जाते। आज शाम की घटना ने भी मेरे मन में कुछ सवाल खड़े कर दिए थे जो पहले के सवालों के साथ ही जुड़ गए थे और सच तो ये था कि अब मैं इन सभी सवालों के बारे में सोचते सोचते पके हुए फोड़े की तरह ही पक गया था। मुझे अब हर हाल में सभी सवालों के जवाब चाहिए थे।

मेरे ज़हन में सबसे पहले कुसुम का ही ख़याल था और मैं हर हाल में जानना चाहता था कि कुसुम के सीने में ऐसी कौन सी बात या रहस्य दफ़न है जिसकी वजह से उसका ब्यक्तित्व बदल सा गया है? पलंग पर लेटे लेटे मैं सबके सो जाने का इंतज़ार कर रहा था और जब मुझे लगा कि हवेली का हर सदस्य अब गहरी नींद में जा चुका होगा तो मैंने अपने कमरे से निकलने का विचार बनाया।

मैं चुपके से अपने कमरे से निकला और लम्बी चौड़ी राहदारी की तरफ आहिस्ता से बढ़ चला। वैसे तो मैं किसी के बाप से भी नहीं डरता था लेकिन जाने क्यों इस वक़्त मेरे दिल की धड़कनें सामान्य से थोड़ा बढ़ गईं थी। अँधेरे में चलते हुए मैं उस जगह पर आया जहां से एक तरफ को नीचे जाने के लिए सीढ़ियां थी और एक तरफ वो गलियारा था जिसमें सबसे पहले बड़े भैया का कमरा था और उनके आगे विभोर अजीत तथा कुसुम का कमरा था।

मैं दबे पाँव गलियारे की तरफ बढ़ते हुए कुछ ही पलों में बड़े भैया के कमरे में के पास पहुंच गया। दरवाज़े के एकदम नज़दीक आ कर मैंने दरवाज़े पर अपना एक कान सटा दिया और कमरे के अंदर की आवाज़ सुनने की कोशिश करने लगा। हालांकि मैं जानता था कि मेरा ऐसा करना सरासर ग़लत है क्योंकि कमरे के अंदर बड़े भैया और भाभी थे और इस वक़्त वो किसी भी हालत में हो सकते थे। ख़ैर इस वक़्त मैं सही ग़लत के बारे में न सोचते हुए वही कर रहा था जो मेरे लिए निहायत ही ज़रूरी हो गया था। दरवाज़े पर अपना कान सटाए मैं कमरे के अंदर की आवाज़ सुनने की कोशिश कर रहा था किन्तु काफी देर तक कान सटाए रहने के बाद भी जब अंदर से किसी तरह की कोई आवाज़ नहीं सुनाई दी तो मैं दरवाज़े से अपना कान हटा कर सीधा खड़ा हो गया। मैं समझ गया कि अंदर भैया और भाभी गहरी नींद में हैं, क्योंकि अगर वो जाग रहे होते तो यकीनन उनके द्वारा कोई न कोई आवाज़ सुनने को मुझे मिलती।

बड़े भैया के कमरे से हट कर मैं गलियारे में आगे की तरफ बढ़ चला। इस वक़्त मैं अपनी ही हवेली में चोर बना हुआ था और इस वक़्त अगर कोई मुझे इस जगह पर देख लेता तो यकीनन मेरे चरित्र के बारे में सोच कर वो मुझ पर लानत भेजने लगता और ये भी संभव ही था कि उसके बाद दादा ठाकुर तक बात पहुंच जाती। उसके बाद दादा ठाकुर मेरा क्या हश्र करते इसका अंदाज़ा लगाना ज़रा भी मुश्किल नहीं था। ख़ैर मैं दबे पाँव आगे बढ़ते हुए दाहिने तरफ विभोर और अजीत के कमरे के पास पहुंच गया। वैसे तो उन दोनों भाइयों का कमरा अलग अलग ही था किन्तु अक्सर वो दोनों एक ही कमरे में सो जाया करते हैं। दोनों भाइयों का आपस में बहुत गहरा प्रेम था।

बड़े भैया के कमरे के बाद दाहिनी तरफ विभोर का ही कमरा पड़ता था। मैंने विभोर के कमरे के पास पहुंच कर वही किया जो इसके पहले बड़े भैया के कमरे के पहुंच कर किया था। यानि दरवाज़े पर अपना कान सटा कर अंदर की आवाज़ सुनने की कोशिश करने लगा किन्तु परिणाम वही निकला जो बड़े भैया के कमरे के पास पहुंच कर निकला था। ख़ैर विभोर के कमरे से हट कर मैं थोड़ा आगे बढ़ा और अजीत के कमरे के पास पहुंच गया। अँधेरा गहरा था किन्तु मुझे हवेली के हर ज़र्रे का पता था इस लिए मैं बड़ी ही कुशलता से आगे बढ़ रहा था।

अजीत के कमरे के पास पहुंच कर एक बार फिर से मैंने वही क्रिया दोहराई जो इसके पहले बड़े भैया और विभोर के कमरे के पास पहुंच कर की थी। काफी देर तक मैं दरवाज़े पर अपना कान सटाए रहा लेकिन यहाँ भी मुझे निराशा ही मिली। मैं सीधा खड़ा हुआ और सोचने लगा कि ये साला हर तरफ सन्नाटा क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं बेकार में ही यहाँ झक मारने आ गया हूं? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी मेरी बाईं तरफ कुछ आवाज़ हुई तो मैं एकदम से चौंका और साथ ही बिजली की तरह घूम कर बाएं तरफ देखा। बाएं तरफ गलियारे के उस पार कुसुम का कमरा था। आवाज़ उसी तरफ से आई थी और ये मेरा वहम नहीं था क्योंकि सन्नाटे में तो सुई के गिरने से भी तेज़ आवाज़ उत्पन्न होती है।

मैं कुसुम के कमरे की तरफ बढ़ा ही था कि फिर से आवाज़ आई। इस बार मेरे कान खड़े हो गए और मन में तरह तरह के ख़याल उभरने लगे। दिल की धड़कनें पहले से थोड़ा और ज़्यादा तेज़ हो ग‌ईं। मैं बड़ी ही सतर्कता से कुसुम के कमरे के पास पहुंचा और दरवाज़े पर अपना कान सटा दिया। मेरे ज़हन में ऐसे ऐसे ख़याल उभरने लगे थे जिनके बारे में मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। हालांकि मेरे ख़याल बेवजह या फिर ग़लत भी हो सकते थे किन्तु फिर भी इस वक़्त मेरे मन पर मेरा कोई ज़ोर नहीं था और मैं मन ही मन ईश्वर से सब कुछ अच्छा ही होने की कामना करने लगा था।

"आह्हहह मादरचोद दाँत क्यों गड़ा रही है?" मेरे कानों में विभोर की ये आवाज़ पड़ी तो मैं ये सोच कर बुरी तरह चौंका कि कुसुम के कमरे से विभोर की आवाज़ कैसे? उधर विभोर ने हल्के गुस्से में आगे कहा____"क्या लंड को ही खा जाएगी साली? आराम से नहीं चूस सकती?"

"हाहाहा ज़रा सम्हाल के भाई।" अजीत की इस आवाज़ से मैं एक बार फिर से चौंका, जबकि उधर अजीत ने धीमी आवाज़ में हंसते हुए कहा____"अँधेरे में इस रांड को कुछ दिख नहीं रहा है न इस लिए तुम्हारे लौड़े में अपने दाँत गड़ा देती है।"

"तू पीछे से इस बुरचोदी की गांड में अपना लंड डाल।" विभोर ने धीमी आवाज़ में कहा_____"और एक ही बार में पूरा लंड इसकी गांड में डाल दे, तभी इसको पता चलेगा कि दर्द क्या होता है।"
"इसको अब दर्द कहां होता है भाई?" अजीत ने कहा____"इसके तीनों बिल तो हम दोनों ने चोद चोद के बड़े कर दिए हैं इस लिए अब इसे दर्द नहीं होगा। वैसे इसकी गांड में अगर उस साले वैभव का लंड चला जाए तो पूरी हवेली इसकी दर्द भरी चीख से झनझना जाएगी।"

"तुझसे कितनी बार कहा है छोटे कि उस हरामज़ादे का नाम मेरे सामने मत लिया कर।" विभोर ने गुस्से से कहा____"उसका नाम सुन कर खून खौल जाता है मेरा। पता नहीं कब उस कम्बख़्त से मुक्ति मिलेगी हमें? उसकी वजह से होली वाले दिन पिता जी ने हमें सब के सामने थप्पड़ मारा था।"

"उसके थप्पड़ का हिसाब हम ज़रूर लेंगे भाई।" अजीत ने कहा____"बहुत जल्द उसकी गांड मारने का हमें मौका मिलेंगा।"
"बस उसी दिन के इंतज़ार में तो बैठा हूं मैं।" विभोर ने कहा____"बस कुछ समय की ही बात है। दवा के असर से जल्दी ही उसकी मर्दानगी उसके पिछवाड़े से निकल जाएगी। उसके बाद हम जैसे चाहेंगे उसकी गांड मारेंगे।"

"उस दवा को अभी कब तक चाय के साथ उसे पिलाना पड़ेगा भाई?" अजीत ने धीमी आवाज़ में पूछा____"दवा का असर धीरे धीरे न हो कर जल्दी हो जाता तो अच्छा होता। मुझे डर है कि कहीं किसी दिन उसे इस बात का पता न चल जाए।"

"गौराव ने बताया था कि उस दवा को नियमित रूप से उसे चाय के साथ पिलाना होगा।" विभोर ने कहा____"अगर नियमित रूप से दवा पिलाई जाएगी तो बीस दिन के अंदर ही उस हरामज़ादे की मर्दानगी फुस्स हो जाएगी। उसके बाद न तो कभी उसका लंड खड़ा होगा और ना ही उसमें इतनी ताक़त रहेगी कि वो हमारी झाँठ का बाल भी उखाड़ सके।"

कमरे के अंदर चल रही दोनों भाइयों की ये बातें जैसे मेरे कानों में खौलता हुआ लावा उड़ेलती जा रहीं थी। मैं सोच भी नहीं सकता था कि मेरे चाचा के इन दोनों सपूतों के अंदर मेरे प्रति इतना ज़हर भरा हुआ हो सकता है जिसकी वजह से वो मुझसे इतनी नफ़रत करते हैं। दोनों की ऐसी बातें सुन कर मेरे तन बदन में भयंकर आग लग गई थी और मेरा मन कर रहा था कि अभी अंदर जाऊं और दोनों की गांड में अपना हलब्बी लंड डाल कर दोनों के मुख से निकाल दूं लेकिन मैंने अपने खौलते हुए गुस्से को किसी तरह शांत करने की कोशिश की और ये सोच कर चुप चाप खड़ा ही रहा कि सुनूं तो सही कि ये और क्या बातें करते हैं मेरे बारे में। दूसरी बात मेरे लिए अब ये जानना भी ज़रूरी था कि अंदर दोनों के साथ तीसरी कौन है? न चाहते हुए भी मेरे मन में कुसुम का ख़याल आ जाता था किन्तु फिर मैं ये सोच कर अपने ऐसे ख़याल को झटक दे रहा था कि नहीं नहीं अंदर इन दोनों के साथ कुसुम नहीं हो सकती। माना कि ये दोनों बहुत हरामी हैं लेकिन इतने भी नहीं होंगे कि अपनी ही बहन के साथ मुँह काला करने लगें।

"दवा तो उसे नियमित रूप से ही चाय के साथ पिलाई जा रही है भाई।" अजीत की आवाज़ ने मुझे सोचो से बाहर किया____"मैं हर रोज़ कुसुम से इस बारे में पूछता हूं।"
"कुसुम पर अच्छे से नज़र रख तू।" विभोर ने कहा____"वो उस हरामज़ादे को हमसे ज़्यादा चाहती है। अगर किसी दिन वो आत्म ग्लानि का बोझ सह न पाई तो यकीनन हमारा सारा काम ख़राब कर देगी। वैसे मुझे लगता है कि उसे कुसुम पर किसी बात का शक हो गया है और इसी लिए वो अपने कमरे में कुसुम से कुरेद कुरेद कर कुछ पूंछ रहा था। वो तो अच्छा हुआ कि मुझे इस रांड ने समय पर बता दिया था कि कुसुम वैभव के कमरे में गई है। इसकी बात सुन कर मैं फ़ौरन ही उसके कमरे की तरफ बढ़ गया था। उसके कमरे के बाहर खड़े हो कर मैंने दोनों की सारी बातें सुनी थी और फिर जैसे ही मुझे महसूस हुआ कि कुसुम का मुख खुलने वाला है तो मैंने उसे आवाज़ लगा दी थी।"

"मुझे लगता है भाई की कुसुम अब ज़्यादा दिनों तक अपने अंदर इस बात को दफ़न नहीं कर पाएगी।" अजीत ने कहा____"वो अपराध बोझ में दबी जा रही है जिसके चलते वो यकीनन टूट जाएगी और सब कुछ बता देगी उसे। हमें कुछ न कुछ करना होगा इसके लिए।"

"तू सही कह रहा है छोटे।" विभोर ने कहा____"हमें कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा। अरे! बस कर रे मादरचोद, झड़ा ही देगी क्या मुझे? अभी तो तुझे एक बार और जम के चोदना है।"

"इसकी बुर में अपना लंड डालो भाई।" अजीत ने धीमी आवाज़ में कहा____"तब तक मैं इसके मुँह में अपना लंड डालता हूं। बड़े मस्त तरीके से लंड चूसती है ये।"
"चल साली अपनी टाँगें फैला कर लेट जा।" विभोर ने कहा____"और हां अपनी हवस में ये मत भूल जाना कि तुझे क्या काम सौंपा है हमने। हमारे यहाँ न रहने पर तुझे कुसुम पर पैनी नज़र रखना है। अगर वो उस कमीने के कमरे में जाए तो उसे रोकना है तुझे। बाकी तो तुझे सब कुछ समझा ही दिया था मैंने।"

"आप चिंता क्यों करते हो छोटे ठाकुर?" अंदर से पहली बार किसी औरत की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी____"आपकी बहन मेरी नज़रों में धूल झोंक कर कहीं नहीं जाएगी। मैंने उसे अच्छे से समझा दिया है कि अगर उसने आपके दुश्मन को इस बारे में कुछ भी बताने का सोचा तो उसके लिए बिलकुल भी अच्छा नहीं होगा।"

"शाबाश!" विभोर ने कहा____"वैसे तूने मेरी बहन की मज़बूरी का कोई फ़ायदा तो नहीं उठाया न?"
"मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती छोटे ठाकुर।" औरत ने कहा____"आह्हहह ऐसे ही, थोड़ा और ज़ोर से चोदिए मेरी इस प्यासी चूत को...शशशश...आहहहह...मैं तो बस समय समय पर आपकी बहन को याद दिलाती रहती हूं कि अगर उसने आपके दुश्मन को कुछ भी बताने का सोचा तो उसके लिए अच्छा नहीं होगा।"

औरत की इस बात के बाद दोनों में से किसी की भी आवाज़ नहीं आई। ये अलग बात है कि औरत की मस्ती में चूर सिसकारियों की आवाज़ ज़रूर आ रही थी जो कि धीमी ही थी। मैं समझ गया कि अंदर दोनों भाई उस औरत को पेलने में लग गए हैं। इधर बाहर दरवाज़े के पास खड़ा मैं ये सोच रहा था कि दोनों भाई एक साथ कैसे इस तरह का काम कर सकते हैं? वहीं मेरे ज़हन में ये भी सवाल था कि ऐसी कौन सी बात होगी जिसके लिए ये लोग कुसुम को मजबूर किए हुए हैं??
---------☆☆☆---------
 
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 34
----------☆☆☆----------




अब तक,,,,,

"शाबाश!" विभोर ने कहा____"वैसे तूने मेरी बहन की मज़बूरी का कोई फ़ायदा तो नहीं उठाया न?"
"मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती छोटे ठाकुर।" औरत ने कहा____"आह्हहह ऐसे ही, थोड़ा और ज़ोर से चोदिए मेरी इस प्यासी चूत को...शशशश...आहहहह...मैं तो बस समय समय पर आपकी बहन को याद दिलाती रहती हूं कि अगर उसने आपके दुश्मन को कुछ भी बताने का सोचा तो उसके लिए अच्छा नहीं होगा।"

औरत की इस बात के बाद दोनों में से किसी की भी आवाज़ नहीं आई। ये अलग बात है कि औरत की मस्ती में चूर सिसकारियों की आवाज़ ज़रूर आ रही थी जो कि धीमी ही थी। मैं समझ गया कि अंदर दोनों भाई उस औरत को पेलने में लग गए हैं। इधर बाहर दरवाज़े के पास खड़ा मैं ये सोच रहा था कि दोनों भाई एक साथ कैसे इस तरह का काम कर सकते हैं? वहीं मेरे ज़हन में ये भी सवाल था कि ऐसी कौन सी बात होगी जिसके लिए ये लोग कुसुम को मजबूर किए हुए हैं??


अब आगे,,,,,



अपने कमरे में आ कर मैंने दरवाज़ा बंद किया और पलंग पर लेट गया। मेरे कानों में अभी भी दोनों भाइयों की बातें गूँज रही थी। मैं ये जान कर हैरत में पड़ गया था कि वो दोनों मुझे नामर्द बना देना चाहते हैं जिसके लिए वो हर रोज़ मुझे चाय के साथ दवा पिला रहे हैं। सुबह शाम मुझे चाय देने के लिए कुसुम ही मेरे कमरे में आती थी। उन दोनों ने कुसुम को जरिया बनाया हुआ था किन्तु सबसे ज़्यादा सोचने वाली बात ये थी कि कुसुम को इसके लिए उन लोगों ने मजबूर कर रखा है। मैं अच्छी तरह जानता था कि वो दोनों भले ही कुसुम के सगे भाई थे लेकिन कुसुम सबसे ज़्यादा मुझे ही मानती है और वो मेरी लाड़ली भी है लेकिन सोचने वाली बात थी कि कुसुम उनके कहने पर ऐसा काम कैसे कर सकती थी जिसमें मुझे किसी तरह का नुकसान हो? यकीनन उन लोगों ने कुसुम को कुछ इस तरीके से मजबूर किया हुआ है कि कुसुम के पास उनकी बात मानने के सिवा दूसरा कोई रास्ता ही नहीं होगा। अब सवाल ये था कि उन लोगों ने आख़िर किस बात पर कुसुम को इतना मजबूर कर रखा होगा कि वो उनके कहने पर अपने उस भाई को चाय में नामर्द बनाने वाली दवा मिला कर पिला रही है जिसे वो सबसे ज़्यादा मानती है?

पलंग पर लेटा मैं इस सवाल के बारे में गहराई से सोच रहा था किन्तु मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरे लिए जैसे ये सवाल भी एक बहुत बड़ा रहस्य बन गया था। वहीं सोचने वाली बात ये भी थी कि वो लोग कुसुम के कमरे में किसी औरत के साथ ऐसा काम कैसे कर सकते हैं? क्या कुसुम को उनके इस काम के बारे में सब पता है और क्या कुसुम खुद भी उसी कमरे में होगी? क्या ये दोनों भाई इतना नीचे तक गिर चुके हैं कि अपनी ही बहन की मौजूदगी में किसी औरत के साथ ऐसा काम करने में कोई शर्म ही नहीं करते? मेरा दिल इस बात को ज़रा भी नहीं मान रहा था कि कुसुम भी उसी कमरे में होगी। कुसुम ऐसी लड़की है ही नहीं कि इतना सब कुछ अपनी आँखों से देख सके और उसे सहन कर सके। वो खुदख़ुशी कर लेगी लेकिन ऐसी हालत में वो अपने कमरे में नहीं रुक सकती। मतलब साफ़ है कि वो या तो विभोर व अजीत के कमरे में रही होगी या फिर नीचे बने किसी कमरे में चली गई होगी। ऐसी परिस्थिति में कुसुम की क्या दशा होगी इसका एहसास मैं बखूबी कर सकता था।

इस सब के बारे में सोच सोच कर जहां गुस्से में मेरा खून खौलता जा रहा था वहीं मैं ये भी सोच रहा था कि मैं कुसुम से हर हाल में जान कर रहूंगा कि इन लोगों ने उसे आख़िर किस बात पर इतना मजबूर कर रखा है कि उनके कहने पर उसने अपने इस भाई को चाय में ऐसी दवा पिलाना भी स्वीकार कर लिया जिस दवा के असर से उसका ये भाई नामर्द बन जाएगा?

मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि मेरे ये दोनों चचेरे भाई इस हद तक मुझसे नफ़रत करते हैं। हालांकि मैंने कभी भी उनके साथ कुछ ग़लत नहीं किया था, बल्कि मैं तो हमेशा अपने में ही मस्त रहता था। हवेली के किसी सदस्य से जब मुझे कोई मतलब ही नहीं होता था तो किसी के साथ कुछ ग़लत करने का सवाल कहां से पैदा हो जाएगा?

मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी मेरे ज़हन में बिजली की तरह एक ख़याल उभरा। बड़े भैया भी तो ज़्यादातर उन दोनों के साथ ही रहते हैं तो क्या उन्हें इस सबके बारे में पता है? क्या वो जानते हैं कि वो दोनों भाई हवेली के अंदर और बाहर कैसे कैसे कारनामें करते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि उन दोनों ने बड़े भैया को भी मेरी तरह नामर्द बनाने का सोचा हो और भैया को इस सबके बारे में पता ही न हो? मेरी आँखों के सामने बड़े भैया का चेहरा उजागर हो गया और फिर मेरी आँखों के सामने होली के दिन का वाला वो दृश्य भी दिखने लगा जब बड़े भैया ने मुझे ख़ुशी से गले लगाया था और उसी ख़ुशी में मुझे भांग वाला शरबत पिलाया था। ये दृश्य देखते हुए मैं सोचने लगा कि क्या बड़े भैया उन दोनों के साथ मिले हुए हो सकते हैं? मेरा दिल और दिमाग़ चीख चीख कर इस बात से इंकार कर रहा था कि नहीं बड़े भैया उनसे मिले हुए नहीं हो सकते। उनके संस्कार उन्हें इतना नीचे तक नहीं गिरा सकते कि वो उन दोनों के साथ ऐसे घिनौने काम करने लगें। मेरे मन में सहसा एक सवाल उभरा कि क्या उनके ऐसे बर्ताव के पीछे विभोर और अजीत का कोई हाथ हो सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्होंने बड़े भैया को कोई ऐसी दवा खिलाई हो जिसकी वजह से उनका बर्ताव ऐसा हो गया है? मुझे मेरा ये ख़याल जंचा तो ज़रूर लेकिन मैं अपने ही ख़याल पर मुतमईन नहीं था।

मेरे सामने फिर से कई सारे सवाल खड़े हो गए थे। कहां मैं अपने कुछ सवालों के जवाब खोजने के लिए अँधेरे में निकला था और कहां मैं कुछ ऐसे सवाल लिए लौट आया था जिन्होंने मुझे हैरत में डाल दिया था। हालांकि इतना तो मुझे पता चल चुका था कि मेरे चाचा जी के ये दोनों सपूत किस फ़िराक में हैं और किस बात के लिए उन दोनों ने कुसुम को मजबूर कर के उसे चारा बना रखा है लेकिन इसी के साथ अब ये सवाल भी खड़ा हो गया था कि आख़िर ऐसी कौन सी बात हो सकती है जिसकी वजह से कुसुम उनका हर कहा मानने पर इतना मजबूर है?

मैं सोच ही रहा था कि तभी मेरे मन में ख़याल आया कि कुसुम के कमरे में विभोर और अजीत जिस औरत के साथ पेलम पेल वाला काम कर रहे थे वो कौन है? मुझे उसके बारे में पता करना होगा। उन दोनों की बातों से ये ज़ाहिर हो गया था कि उन्हीं के इशारे पर वो औरत कुसुम को कोई बात याद दिला कर उसे मजबूर करती है। इसका मतलब उसे कुसुम की वो मजबूरी पता है जिसकी वजह से वो मुझे दवा वाली चाय पिलाने पर मजबूर है।

मैं फ़ौरन ही पलंग से उठा और कमरे का दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल आया। बिजली अभी भी नहीं आई थी इस लिए अभी भी हर तरफ अँधेरा था। मैं दबे पाँव कुछ ही देर में कुसुम के कमरे के पास पहुंच गया और दरवाज़े पर अपने कान सटा दिए।

"आज तो आप दोनों ने मुझे बुरी तरह पस्त कर दिया है।" अंदर से किसी औरत की आवाज़ मेरे कानो में पड़ी। औरत की ये आवाज़ मेरे लिए निहायत ही अजनबी थी। हालांकि मैं अपने ज़हन पर ज़ोर डाल कर सोचने लगा था कि वो कौन हो सकती है। अभी मैं उसके बारे में सोच ही रहा था कि तभी मेरे कानों में अजीत की आवाज़ पड़ी____"तुने भी तो हमें खुश कर दिया है। ख़ैर अब तू जा यहाँ से और हां सतर्कता से जाना। कहीं ऐसा न हो कि उस रात की तरह आज भी वो हरामज़ादा तुझे मिल जाए और तुझे दुम दबा कर भागना पड़ जाए।"

"उस रात तो मेरी जान हलक में ही आ कर फंस गई थी छोटे ठाकुर।" औरत ने धीमी आवाज़ में कहा____"वो तो अच्छा हुआ कि अँधेरा था इस लिए मैं अँधेरे में एक जगह छुप गई थी वरना अगर मैं उसकी पकड़ में आ जाती तो फिर मेरा तो भगवान ही मालिक हो सकता था। हालांकि वो काफी देर तक सीढ़ियों के पास खड़ा रहा था, इस उम्मीद में कि शायद उसे मेरे पायलों की आवाज़ कहीं से सुनाई दे जाए लेकिन मैं भी कम होशियार नहीं थी। मुझे पता था कि वो अभी ताक में ही होगा इस लिए मैं उस जगह से निकली ही नहीं, बल्कि तभी निकली जब मुझे उसके चले जाने की आहट सुनाई दी थी।"

"माना कि उस रात तूने होशियारी दिखाई थी।" विभोर ने कहा____"लेकिन तेरी उस होशियारी में भी काम बिगड़ गया है। अभी तक उस वैभव के ज़हन में दूर दूर तक ये बात नहीं थी कि हवेली के अंदर ऐसा वैसा कुछ हो रहा है लेकिन उस रात की घटना के बाद उसके ज़हन में कई सारे सवाल खड़े हो गए होंगे और मुमकिन है कि वो ये जानने की फ़िराक में हो कि आख़िर उस रात वो कौन सी औरत थी जो आधी रात को इस तरह ऊपर से नीचे भागती हुई गई थी?"

"अगर सच में ऐसा हुआ।" औरत ने घबराए हुए लहजे में कहा____"तो फिर अब क्या होगा छोटे ठाकुर? मेरी तो ये सोच कर ही जान निकली जा रही है कि अगर उसने किसी तरह मुझे खोज लिया और पहचान लिया तो मेरा क्या हश्र होगा?"

"चिंता मत कर तू।" विभोर ने जैसे उसे आस्वाशन देते हुए कहा____"हमारे रहते तुझे किसी से डरने की ज़रूरत नहीं है लेकिन हां अब से तू हर पल होशियार और सतर्क ही रहना। चल अब जा यहाँ से।"
"ठीक है छोटे ठाकुर।" औरत की इस आवाज़ के साथ ही अंदर से पायल के बजने की आवाज़ हुई तो मैं समझ गया कि वो औरत अब कमरे से बाहर आने वाली है। इस लिए मैं भी दरवाज़े से हट कर फ़ौरन ही दबे पाँव लौट चला।

मैं अँधेरे में उस जगह पर आ कर छुप गया था जहां से मेरे कमरे की तरफ जाने वाला गलियारा था। कुछ ही दूरी पर नीचे जाने वाली सीढ़ियां थी। ख़ैर कुछ ही पलों में मुझे पायल के छनकने की बहुत ही धीमी आवाज़ सुनाई दी। मतलब साफ़ था कि वो औरत दबे पाँव इस तरफ आ रही थी। उसे भी पता था कि उसके पायलों की आवाज़ रात के इस सन्नाटे में कुछ ज़्यादा ही शोर मचाती है।

मैं चाहता तो इसी वक़्त उस औरत को पकड़ सकता था और उसके साथ साथ उन दोनों सूरमाओं का भी क्रिया कर्म कर सकता था लेकिन मैंने ऐसा करने का इरादा फिलहाल मुल्तवी कर दिया था। मैं इस वक़्त सिर्फ उस औरत का चेहरा देख लेना चाहता था लेकिन अँधेरे में ये संभव नहीं था। मैं बड़ी तेज़ी से सोच रहा था कि आख़िर ऐसा क्या करूं जिससे मुझे उस औरत का चेहरा देखने को मिल जाए? अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी अँधेरे में मुझे एक साया नज़र आया। वो उस औरत का ही साया था क्योंकि उस साए के पास से ही पायल की आवाज़ धीमें स्वर में आ रही थी। मेरी धड़कनें फिर से थोड़ा तेज़ हो गईं थी।

वो औरत धीमी गति से सीढ़ियों की तरफ बढ़ती जा रही थी। इधर मैं समझ नहीं पा रहा था कि किस तरह उस औरत का चेहरा देखूं। वो औरत अभी सीढ़ियों के पास ही पहुंची थी कि तभी एक झटके से पूरी हवेली बिजली के आ जाने से रोशन हो गई। शायद भगवान ने मुझ पर मेहरबानी करने का फैसला किया था। बिजली के आ जाने से पहले तो मैं भी उछल ही पड़ा था किन्तु फिर जल्दी से ही सम्हल कर छुप गया। उधर हर तरफ प्रकाश फैला तो वो औरत भी बुरी तरह चौंक गई थी और मारे हड़बड़ाहट के इधर उधर देखने लगी थी। घाघरा चोली पहने उस औरत ने हड़बड़ा कर जब पीछे की तरफ देखा तो मेरी नज़र उसके चेहरे पर पड़ गई। मैंने उसे पहचानने में कोई ग़लती नहीं की। ये वही औरत थी जो उस दिन मेनका चाची के पास खड़ी उनसे बातें कर रही थी।

हड़बड़ाहट में इधर उधर देखने के बाद वो फ़ौरन ही पलटी और सीढ़ियों से नीचे उतरती चली गई। उसकी सारी सतर्कता और सारी होशियारी मेरे सामने मानो बेनक़ाब हो गई थी। ये देख कर मेरे होठों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। अभी मैं मुस्कुराया ही था कि तभी मेरे कानों में खट खट की आवाज़ पड़ी तो मैं आवाज़ की दिशा में देखने के लिए आगे बढ़ा। बाएं तरफ गलियारे पर विभोर और अजीत खड़े नज़र आए मुझे।

मैंने देखा कि अजीत ने अपने कमरे के दरवाज़े को अपने एक हाथ से हल्के से थपथपाया, जबकि विभोर अपने कमरे के दरवाज़े के पास खड़ा इधर उधर देख रहा था। कुछ ही देर में दरवाज़ा खुला तो अजीत ने शायद कुछ कहा जिसके बाद फ़ौरन ही दरवाज़े से कुसुम बाहर निकली और चुप चाप अपने कमरे में चली गई। उसके जाने के बाद अजीत ने विभोर की तरफ देखा और फिर वो दोनों अपने अपने कमरे के अंदर दाखिल हो ग‌ए।

कुछ पल सोचने के बाद मैं भी अपने कमरे की तरफ बढ़ चला। कुसुम अजीत के कमरे में थी। जैसा कि मुझे यकीन था कि कुसुम किसी भी कीमत पर उन लोगों के साथ उस कमरे में नहीं रह सकती थी। इतना कुछ देखने के बाद ये बात भी साफ़ हो गई थी कि कुसुम को अपने उन दोनों भाइयों की हर करतूत के बारे में अच्छे से पता है।

अपने कमरे में आ कर मैंने दरवाज़ा बंद किया और पलंग पर लेट कर ये सोचने लगा कि दोनों भाइयों को उस औरत के साथ अगर वही सब करना था तो उन्होंने वो सब अपने कमरे में क्यों नहीं किया? कुसुम के ही कमरे में वो सब करने की क्या वजह थी?

☆☆☆

रात में सोचते सोचते पता नहीं कब मेरी आँख लग गई थी। सुबह कुसुम के जगाने पर ही मेरी आँख खुली। मौजूदा हालात में मुझे कुसुम के इस तरह आने की उम्मीद नहीं थी क्योंकि मैं समझ रहा था कि वो एक दो दिन से मुझसे कतरा रही थी। मैंने कुसुम को ध्यान से देखा तो उसके चेहरे पर गुमसुम से भाव झलकते नज़र आए। मैं समझ सकता था कि कल रात जो कुछ मैंने देखा सुना था उसी बात को ले कर शायद वो गुमसुम थी। हालांकि इस वक़्त वो मेरे सामने सामान्य और खुश दिखने की कोशिश कर रही थी। मैंने भी सुबह सुबह इस बारे में कुछ पूंछ कर उसे परेशान करना ठीक नहीं समझा इस लिए मैंने मुस्कुराते हुए उसके हाथ से चाय ले ली।

"सुबह सुबह तेरा चेहरा देख लेता हूं तो मेरा मन खुश हो जाता है।" मैंने उसकी तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"एक तू ही तो है जिसमें तेरे इस भाई की जान बसती है। हर रोज़ सुबह सुबह तू अपने इस भाई के लिए चाय ले कर आती है। सच में कितना ख़याल रखती है मेरी ये लाड़ली बहन। वैसे ये तो बता कि आज भी इस चाय में तूने कुछ मिलाया है कि नहीं?"

"क्..क्..क्या मतलब???" मेरी आख़िरी बात सुन कर कुसुम एकदम से हड़बड़ा ग‌ई और पलक झपकते ही उसके चेहरे पर घबराहट के भाव उभर आए। किसी तरह खुद को सम्हाल कर उसने कहा____"ये आप क्या कह रहे हैं भैया? भला मैं इस चाय में क्या मिलाऊंगी?"

"वही, जो तू हर रोज़ मिलाती है।" मैंने मुस्कुराते हुए उसकी तरफ देखा तो मारे घबराहट के कुसुम के माथे पर पसीना उभर आया। बड़ी मुश्किल से खुद को सम्हाला उसने और फिर बड़ी मासूमियत से पूछा____"पता नहीं आप ये क्या कह रहे हैं? मैं भला क्या मिलाती हूं चाय में?"

"क्या तू इस चाय में अपने प्यार और स्नेह की मिठास नहीं मिलाती?" मैंने जब देखा कि उसकी हालत ख़राब हो चली है तो मैंने बात को बनाते हुए कहा____"मुझे पता है कि मेरी ये लाड़ली बहना अपने इस भाई से बहुत प्यार करती है। मेरी बहना का वही प्यार इस चाय में मिला होता है, तभी तो इस चाय का स्वाद हर रोज़ इतना मीठा होता है।"

"अच्छा तो आपके कहने का ये मतलब था?" मेरी बात सुन कर कुसुम के चेहरे पर राहत के भाव उभर आए और फिर उसने जैसे ज़बरदस्ती मुस्कुरा कर कहा था।
"और नहीं तो क्या?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"पर लगता है कि तूने कुछ और ही समझ लिया था, है ना?"

"आपने बात ही इस तरीके से की थी कि मुझे कुछ समझ में ही नहीं आया था।" कुसुम ने मासूम सी शक्ल बना कर कहा____"ख़ैर अब जल्दी से चाय पीजिए और फिर नित्य क्रिया से फुर्सत हो कर नीचे आ जाइए। नास्ता बन गया है।"

"चल ठीक है।" मैंने कहा____"तू जा मैं चाय पीने के बाद ही नित्य क्रिया करने जाऊंगा।"
"जल्दी आइएगा।" कुसुम ने दरवाज़े की तरफ बढ़ते हुए कहा____"ऐसा न हो कि देरी करने पर आपको ताऊ जी के गुस्से का शिकार हो जाना पड़े।"

कुसुम ये कह कर बाहर निकल गई थी और मैं अपने दाहिने हाथ से पकड़े हुए चाय के प्याले की तरफ देखने लगा था। अब जबकि मुझे पता था कि इस चाय में मेरी मासूम बहन के प्यार की मिठास के साथ साथ वो दवा भी मिली हुई थी जो मुझे नामर्द बनाने के लिए कुसुम के द्वारा दी जा रही थी तो मैं सोचने लगा कि अब इस चाय को कहां फेंकूं? कुसुम को मुझ पर भरोसा था कि मैं उसके हाथ की चाय ज़रूर पी लूँगा इस लिए वो मेरे कहने पर चली गई थी वरना अगर उसे ज़रा सा भी शक होता तो वो मेरे सामने तब तक खड़ी ही रहती जब तक कि मैं चाय न पी लेता। आख़िर ये उसकी विवशता जो थी।

चाय के प्याले को पकड़े मैं उसे फेंकने के बारे में सोच ही रहा था कि तभी मेरी नज़र कमरे की खिड़की पर पड़ी। खिड़की को देखते ही मेरे होठों पर मुस्कान उभर आई। मैं पलंग से उठा और चल कर खिड़की के पास पहुंचा। खिड़की के पल्ले को खोल कर मैंने खिड़की के उस पार देखा। दूर दूर तक हरा भरा मैदान दिख रहा था जिसमें कुछ पेड़ पौधे भी थे। मैंने खिड़की की तरफ हाथ बढ़ाया और प्याले में भरी चाय को खिड़की के उस पार उड़ेल दिया। चाय उड़ेलने के बाद मैंने खिड़की को बंद किया और वापस पलंग के पास आ गया। खाली प्याले को मैंने लकड़ी के एक छोटे से स्टूल पर रख दिया और फिर नित्य क्रिया के लिए कमरे से बाहर निकल गया।

नित्य क्रिया से फुर्सत हो कर मैं नहाया धोया और अच्छे वाले कपड़े पहन कर नीचे आ गया। इस बीच एक सवाल मेरे ज़हन में विचरण कर रहा कि मेरे दोनों चचेरे भाई मुझे नामर्द क्यों बना देना चाहते हैं? आख़िर इससे उन्हें क्या लाभ होने वाला है? उन दोनों का सम्बन्ध साहूकार के लड़के गौरव से है और उस गौरव के ही द्वारा उन्हें वो दवा मिली है, जिसे चाय में मिला कर मुझे पिलाई जा रही थी। गौरव के ही निर्देशानुसार ये दोनों भाई ये सब कर रहे थे। मुझे उस गौरव को पकड़ना होगा और अच्छे से उसकी गांड तोड़नी होगी। तभी पता चलेगा कि ये सब चक्कर क्या है।

नीचे आया तो कुसुम फिर से मुझे मिल गई। उसने मुझे बताया कि अभी अभी ताऊ जी ने मुझे बैठक में बुलाया है। कुसुम की ये बात सुन कर मैं बाहर बैठक की तरफ बढ़ गया। कुछ ही देर में जब मैं बैठक में पंहुचा तो देखा बैठक में पिता जी और जगताप चाचा जी के साथ साथ साहूकार मणि शंकर भी बैठा हुआ था। मणि शंकर को सुबह सुबह यहाँ देख कर मैं हैरान नहीं हुआ क्योंकि मैं समझ गया था कि वो यहाँ क्यों आया था। ख़ैर मैंने एक एक कर के सबके पैर छुए और उन सबका आशीर्वाद लिया। मेरे इस शिष्टाचार पर सबके चेहरे पर ख़ुशी के भाव उभर आए।

"हालाँकि हमने इन्हें उसी दिन कह दिया था कि वैभव समय से इनके घर पहुंच जाएगा।" पिता जी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"किन्तु फिर भी ये तुम्हें लेने आए हैं।"
"आपने भले ही कह दिया था ठाकुर साहब।" मणि शंकर ने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन ये मेरा फ़र्ज़ ही नहीं बल्कि मेरी ख़ुशी की भी बात है कि मैं खुद छोटे ठाकुर को यहाँ लेने के लिए आऊं और फिर अपने साथ इन्हें सम्मान के साथ अपने घर ले जाऊं।"

"इस औपचारिकता की कोई ज़रूरत नहीं थी मणि काका।" मैंने नम्र भाव से कहा____"मैं एक मामूली सा लड़का हूं जिसे आप अपने घर बुला कर सम्मान देना चाहते हैं, जबकि मुझ में ऐसी कोई बात ही नहीं है जिसके लिए मेरा सम्मान किया जाए। अब तक मैंने जो कुछ भी किया है उसके लिए मैं बेहद शर्मिंदा हूं और अब से मेरी यही कोशिश रहेगी कि मैं एक अच्छा इंसान बनूं। आपके मन में मेरे प्रति प्रेम भाव है और आप मुझे अपने घर बुला कर मेरा मान बढ़ाना चाहते हैं तो ये मेरे लिए ख़ुशी की ही बात है।"

"हमे बेहद ख़ुशी महसूस हो रही है कि हमारा सबसे प्यारा भतीजा पूरी तरह बदल गया है।" सहसा जगताप चाचा जी ने कहा____"आज वर्षों बाद अपने भतीजे को इस रूप में देख कर बहुत अच्छा लग रहा है।"

"आपने बिलकुल सही कहा मझले ठाकुर।" मणि शंकर ने कहा____"छोटे ठाकुर में आया ये बदलाव सबके लिए ख़ुशी की बात है। समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता। वक़्त बदलता है और वक़्त के साथ साथ इंसान को भी बदलना पड़ता है। छोटे ठाकुर के अंदर जो भी बुराइयां थी वो सब अब दूर हो चुकी हैं और अब इनके अंदर सिर्फ अच्छाईयां ही हैं।"

"नहीं काका।" मैंने मणि शंकर की तरफ देखते हुए कहा____"आप मेरे बारे में इतनी जल्दी ऐसी राय मत बनाइए, क्योंकि अभी मैंने अच्छाई वाला कोई काम ही नहीं किया है और जब ऐसा कोई काम किया ही नहीं है तो मैं अच्छा कैसे साबित हो गया? सच तो ये है काका कि मुझे अपने कर्म के द्वारा ये साबित करना होगा कि मुझ में अब कोई बुराई नहीं है और मैं एक अच्छा इंसान बनने की राह पर ही चल रहा हूं।"

"वाह! क्या बात कही है छोटे ठाकुर।" मणि शंकर ने कहा____"तुम्हारी इस बात से अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि तुम पहले वाले वो इंसान नहीं रहे जिसके अंदर सिर्फ और सिर्फ बुराईयां ही थी बल्कि अब तुम सच में बदल गए हो और अब तुम्हारे अंदर अच्छाईयों का उदय हो चुका है।"

मणि शंकर की इस बात पर कुछ देर ख़ामोशी छाई रही उसके बाद मणि शंकर ने पिता जी से जाने की इजाज़त ली और कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। पिता जी का हुकुम मिलते ही मैं मणि शंकर के साथ बाहर निकल गया। बाहर मणि शंकर की बग्घी खड़ी थी। मणि शंकर ने मुझे सम्मान देते हुए बग्घी में बैठने को बड़े आदर भाव से कहा तो मैंने उनसे कहा कि आप मुझसे बड़े हैं इस लिए पहले आप बैठिए। मेरे ऐसा कहने पर मणि शंकर ख़ुशी ख़ुशी बग्घी में बैठ गया और उसके बैठने के बाद मैं भी उसके बगल से बैठ गया। हम दोनों बैठ गए तो बग्घी चला रहे एक आदमी ने घोड़ो की लगाम को हरकत दे कर बग्घी को आगे बढ़ा दिया।

बग्घी में मणि शंकर के बगल से बैठा मैं सोच रहा था कि यहाँ से मेरी ज़िन्दगी का शायद एक नया अध्याय शुरू होने वाला है। अब देखना ये है कि इस अध्याय में कौन सी इबारत लिखी जाने वाली है। रास्ते में मणि शंकर से इधर उधर की बातें होती रही और कुछ ही देर में बग्घी मणि शंकर के घर के अंदर दाखिल हो गई। मणि शंकर के घर के सामने एक बड़ा सा मैदान था जहां घर के मुख्य दरवाज़े के सामने ही बग्घी को रोक दिया गया था। मैंने देखा दरवाज़े के बाहर मणि शंकर के सभी भाई और उनके लड़के खड़े थे। मणि शंकर के बाद मैं भी बग्घी से नीचे उतरा और आगे बढ़ कर मणि शंकर के सभी भाइयों के पैर छू कर उन सबका आशीर्वाद लिया। मेरे ऐसा करने पर जहां वो सब खुश हो गए थे वहीं उनके लड़के थोड़ा हैरान हुए थे। वो सब मुझे अजीब सी नज़रों से देख रहे थे लेकिन मैंने उन्हें थोड़ा और भी हैरान तब किया जब मैंने खुद ही उनसे नम्र भाव से उनका हाल चाल पूछा।
---------☆☆☆---------
 
☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 35
----------☆☆☆----------


अब तक....

बग्घी में मणि शंकर के बगल से बैठा मैं सोच रहा था कि यहाँ से मेरी ज़िन्दगी का शायद एक नया अध्याय शुरू होने वाला है। अब देखना ये है कि इस अध्याय में कौन सी इबारत लिखी जाने वाली है। रास्ते में मणि शंकर से इधर उधर की बातें होती रही और कुछ ही देर में बग्घी मणि शंकर के घर के अंदर दाखिल हो गई। मणि शंकर के घर के सामने एक बड़ा सा मैदान था जहां घर के मुख्य दरवाज़े के सामने ही बग्घी को रोक दिया गया था। मैंने देखा दरवाज़े के बाहर मणि शंकर के सभी भाई और उनके लड़के खड़े थे। मणि शंकर के बाद मैं भी बग्घी से नीचे उतरा और आगे बढ़ कर मणि शंकर के सभी भाइयों के पैर छू कर उन सबका आशीर्वाद लिया। मेरे ऐसा करने पर जहां वो सब खुश हो गए थे वहीं उनके लड़के थोड़ा हैरान हुए थे। वो सब मुझे अजीब सी नज़रों से देख रहे थे लेकिन मैंने उन्हें थोड़ा और भी हैरान तब किया जब मैंने खुद ही उनसे नम्र भाव से उनका हाल चाल पूछा।

अब आगे....


(दोस्तों यहाँ पर मैं एक बार फिर से गांव के साहूकारों का संक्षिप्त परिचय देना ज़रूरी समझता हूं।)

वैसे तो गांव में और भी कई सारे साहूकार थे किन्तु बड़े दादा ठाकुर की दहशत की वजह से साहूकारों के कुछ परिवार ये गांव छोड़ कर दूसरी जगह जा कर बस गए थे। उनके बाद दो भाई ही बचे थे। जिनमें से बड़े भाई का ब्याह हुआ था जबकि दूसरा भाई जो छोटा था उसका ब्याह नहीं हुआ था। ब्याह न होने का कारण उसका पागलपन और मंदबुद्धि होना था। गांव में साहूकारों के परिवार का विवरण उन्हीं दो भाइयों से शुरू करते हैं।

☆ चंद्रमणि सिंह (बड़ा भाई/बृद्ध हो चुके हैं)
☆ इंद्रमणि सिंह (छोटा भाई/अब जीवित नहीं हैं)

इन्द्रमणि कुछ पागल और मंदबुद्धि था इस लिए उसका विवाह नहीं हुआ था या फिर कहिए कि उसके भाग्य में शादी ब्याह होना लिखा ही नहीं था। कुछ साल पहले गंभीर बिमारी के चलते इंद्रमणि का स्वर्गवास हो गया था।

चंद्रमणि सिंह को चार बेटे हुए। चंद्रमणि की बीवी का नाम सुभद्रा सिंह था। इनके चारो बेटों का विवरण इस प्रकार है।

☆ मणिशंकर सिंह (बड़ा बेटा)
फूलवती सिंह (मणिशंकर की बीवी)
मणिशंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) चन्द्रभान सिंह (बड़ा बेटा/विवाहित)
कुमुद सिंह (चंद्रभान की बीवी)
इन दोनों को एक बेटी है अभी।

(२) सूर्यभान सिंह (छोटा बेटा/अविवाहित)
(३) आरती सिंह (मणिशंकर की बेटी/अविवाहित)
(४) रेखा सिंह (मणिशंकर की छोटी बेटी/अविवाहित)

☆ हरिशंकर सिंह (चंद्रमणि का दूसरा बेटा)
ललिता सिंह (हरिशंकर की बीवी)
हरिशंकर को तीन संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) मानिकचंद्र सिंह (हरिशंकर का बड़ा बेटा/पिछले साल विवाह हुआ है)
नीलम सिंह (मानिक चंद्र की बीवी)
इन दोनों को अभी कोई औलाद नहीं हुई है।

(२) रूपचंद्र सिंह (हरिशंकर का दूसरा बेटा/ अविवाहित)
(३) रूपा सिंह (हरिशंकर की बेटी/अविवाहित)

☆ शिव शंकर सिंह (चंद्रमणि का तीसरा बेटा)
विमला सिंह (शिव शंकर की बीवी)
शिव शंकर को चार संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) नंदिनी सिंह (शिव शंकर की बड़ी बेटी/विवाहित)
(२) मोहिनी सिंह (शिव शंकर की दूसरी बेटी/अविवाहित)
(३) गौरव सिंह (शिव शंकर का बेटा/अविवाहित)
(४) स्नेहा सिंह (शिव शंकर की छोटी बेटी/ अविवाहित)

☆ गौरी शंकर सिंह (चंद्रमणि का चौथा बेटा)
सुनैना सिंह (गौरी शंकर की बीवी)
गौरी शंकर को दो संतानें हैं जो इस प्रकार हैं।

(१) राधा सिंह (गौरी शंकर की बेटी/अविवाहित)
(२) रमन सिंह (गौरी शंकर का बेटा/अविवाहित)

चंद्रमणि सिंह की एक बेटी भी थी जिसके बारे में मैंने सुना था कि वो क‌ई साल पहले गांव के ही किसी आदमी के साथ भाग गई थी उसके बाद आज तक उसका कहीं कोई पता नहीं चला।

☆☆☆

जैसा कि मैंने बताया था कि गांव के ये साहूकार गांव के बाकी सभी लोगों से कहीं ज़्यादा संपन्न थे। इस गांव के ही नहीं बल्कि आस पास न जाने कितने ही गांव के मुखिया मेरे पिता दादा ठाकुर थे और हमारे बाद आस पास के इलाकों में अगर कोई दबदबा बना के रखा था तो वो थे मेरे गांव के साहूकार। चंद्रमणि क्योंकि अब काफ़ी वृद्ध हो चुके थे इस लिए उनके बाद उनका सारा कार्यभार उनके बड़े बेटे मणिशंकर सिंह के हाथों में था। गांव के ये साहूकार छल कपट करने वाले या बुरी नीयत वाले भले ही थे लेकिन इनमें एक बात काफी अच्छी थी कि ये चारो भाई हमेशा एकजुट रहते थे। आज तक कभी भी ऐसा नहीं सुना गया कि इन भाइयों के बीच कभी किसी तरह का वाद विवाद हुआ हो और यही हाल उनके बच्चों का भी था। जिस तरह गांव के एक छोर पर हमारी एक विशाल हवेली बनी हुई थी उसी तरह गांव के दूसरे छोर पर इन साहूकारों का भी विशाल मकान बना हुआ था जो कि दो मंजिला था। मकान के बाहर विशाल मैदान था और उस मैदान के बाद सड़़क के किनारे से क़रीब छह फिट ऊँची चारदीवारी बनी हुई थी जिसके बीच में एक बड़ा सा लोहे का दरवाज़ा लगा हुआ था।

मकान के मुख्य दरवाज़े पर भीड़़ सी लगी हुई थी जिनमें मर्द, औरत, लड़के और लड़़कियां भी थीं। सबके चेहरों में जहां एक चमक थी वहीं उस चमक के साथ साथ हैरानी और आश्चर्य भी विद्यमान था। मैं भले ही पक्का लड़कीबाज़ या औरतबाज़ था लेकिन ये भी सच था कि मैंने कभी साहूकारों की बहू बेटियों पर बुरी नज़र नहीं डाली थी और ये बात रूपचंद्र के अलावा सब जानते थे। कहते हैं कि इंसान जो भी अच्छा बुरा कर्म करता है उसके बारे में वो खुद भी अच्छी तरह जान रहा होता है कि उसने अच्छा कर्म किया है या बुरा। कहने का मतलब ये कि मेरी जब भी साहूकारों के लड़कों से लड़ाई झगड़ा हुआ था उसके बारे में साहूकार भी ये बात अच्छी तरह जानते थे कि लड़ाई झगड़े की पहल करने वाला हमेशा मैं नहीं बल्कि उनके ही घर के लड़के होते थे। इंसान जब गहराई से किसी चीज़ के बारे में सोचता है तो उसे वास्तविकता का बोध होता है और अंदर ही अंदर उसे खुद उस वास्तविकता को मानना पड़ता है। शायद यही वजह थी कि आज ऐसे हालात बने थे और मैं साहूकारों के घर सम्मान के लिए लाया गया था।

मैं उन सबके पाँव छू कर आशीर्वाद ले रहा था जो उम्र में मुझसे बड़े़ थे, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़कों के भी। साहूकारों के आधे से ज़्यादा लड़के उम्र में मुझसे बड़े थे। उस वक़्त उनके चेहरे देखने लायक हो गए थे जब मैं झुक कर उनके पाँव छू रहा था। उनके मुँह भाड़ की तरह खुले के खुले रह गए थे। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि किसी के बाप के भी सामने न झुकने वाला ठाकुर वैभव सिंह आज अपने ही दुश्मनों के सामने झुक कर उनके पाँव छू रहा था।

"ये तो ग़लत बात है चंद्र भइया।" मैंने चंद्रभान की तरफ देखते हुए मुस्कुरा कर कहा____"मैंने आपके पाँव छुए और आपने मुझे कोई आशीर्वाद भी नहीं दिया?"

सच कहूं तो अपने इस आचरण से अंदर ही अंदर मैं खुद भी हैरान था लेकिन ये सोच कर मन ही मन मुझे मज़ा भी आ रहा था कि ये साले कैसे मेरे इस शिष्टाचार से बुत बन गए हैं। ख़ैर मेरी बात सुन कर चंद्रभान बुरी तरह हड़बड़ाया और फिर सबकी तरफ देखने के बाद ज़बरदस्ती अपने होठों पर मुस्कान सजा कर धीमी आवाज़ में खुश रहो कहा।

"मैं जानता हूं कि आज से पहले मैं किस तरह का इंसान था।" मैंने सबकी तरफ बारी बारी से देखते हुए शांत भाव से कहा_____"और मैंने अपने जीवन में कभी कोई अच्छा काम नहीं किया। मेरी वजह से हमेशा मेरे खानदान का नाम ख़राब हुआ लेकिन कहते हैं ना कि वक़्त की तरह इंसान भी हमेशा एक जैसा नहीं बना रह सकता। वक़्त और हालात अच्छे अच्छों को सही रास्ते पर ले आते हैं, मैं तो फिर भी एक अदना सा बच्चा हूं। मैं अभी तक ये सोच कर हैरान हूं कि मैंने ऐसा कौन सा महान काम किया है जिसके लिए मणि काका अपने घर मुझे सम्मान देने के लिए ले आए हैं लेकिन कहीं न कहीं इस बात से ये महसूस भी करता हूं कि ऐसा कर के उन्होंने मेरे ऊपर एक ऐसी जिम्मेदारी रख दी है जिसे अब से पहले मैं समझ ही नहीं पाया था। वो जिम्मेदारी यही है कि अब से मैं वैसा ही बना रहूं जिसके लिए मुझे मणि काका ने ये सम्मान दिया है। मैं ये तो नहीं कह सकता कि मैं पूरी तरह अब बदल ही जाऊंगा क्योंकि जो इंसान अब से पहले सिर्फ और सिर्फ बुराई का ही पुतला था वो एकदम से अच्छा कैसे बन जाएगा? उसे अच्छा बनने में थोड़ा तो समय लगेगा ही, पर मैं वचन देता हूं कि अब से मैं आप सबकी उम्मीदों पर खरा उतरुंगा। मैं अपने इन छोटे और बड़े़ भाइयों से भी यही कहता हूं कि आज से पहले हमारे बीच जो कुछ भी हुआ है उसे हम बुरा सपना समझ कर भुला देते हैं और अब से हम सब एक हो कर एक ऐसे रिश्ते का आग़ाज़ करते हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ प्रेम और विश्वास हो।"

मैं लम्बा चौड़ा भाषण दे कर चुप हुआ तो फ़िज़ा में गहरा सन्नाटा छा गया। हर आँख मुझ पर ही टिकी हुई थी। हर चेहरे पर एक अलग ही तरह का भाव तैरता हुआ नज़र आ रहा था। सहसा फ़िज़ा में ताली बजने की आवाज़ हुई तो मैंने देखा मणि शंकर काका ज़ोर ज़ोर से ताली बजा रहे थे। उन्हें ताली बजाता देख एक एक कर के हर कोई ताली बजाने लगा, यहाँ तक कि साहूकारों के लड़के भी। सभी के चेहरों में ख़ुशी की चमक उभर आई थी।

"चलो अब ये सब बहुत हुआ।" मणि शंकर ने सबकी तरफ देखते हुए कहा____"छोटे ठाकुर को अब क्या बाहर ही खड़ा रखोगे तुम लोग?"

"रूकिए मणि काका।" मैंने मणि शंकर की तरफ देखते हुए कहा____"आज के बाद आप में से कोई भी मुझे छोटे ठाकुर नहीं कहेंगे। मैं आप सबको और इस घर को अपना मान चुका हूं इस लिए मेरे लिए किसी भी तरह की औपचारिकता निभाने की आप लोगों को ज़रूरत नहीं है। आप सब मुझे मेरे नाम से पुकारेंगे तो मुझे ज़्यादा अच्छा लगेगा।"

"ठीक है वैभव बेटा।" मणि शंकर ने मुस्कुराते हुए कहा____"हमें अच्छा लगा कि तुम इतना कुछ सोचते हो। ख़ैर अब चलो अंदर चलो।"

उसके बाद एक एक कर के भीड़ छटने लगी और मैं मणि काका और उनके भाइयों के साथ मुख्य दरवाज़े के अंदर जाने लगा। मेरे आगे पीछे औरतें और लड़के लड़कियां भी थीं। उन्हीं के बीच रूपा भी थी लेकिन मैंने इस बात का ख़ास ख़याल रखा कि इस वक़्त मैं साहूकारों की किसी भी लड़की की तरफ न देखूं। ख़ास कर रूपा की तरफ तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि उसका भाई रूपचंद्र इस वक़्त ज़रूर यही ताड़ने की कोशिश कर रहा होगा कि मैं उसकी बहन की तरफ देखता हूं कि नहीं। ख़ैर थोड़ी ही देर में मैं सबके साथ अंदर एक बड़े से हाल में आ गया जहां पर चारो तरफ कतार से कुर्सियां लगी हुई थीं। मुख्य कुर्सी बाकी कुर्सियों से अलग थी। ज़ाहिर था वो परिवार के मुखिया जी कुर्सी थी।

मैं पहली बार साहूकारों के मकान के अंदर आया था। वैसे इसके पहले भी मैं कई बार आया था लेकिन तब मैं रूपा के कमरे में ही खिड़की के रास्ते आया गया था। हाल में लगी कुर्सियों के सामने एक एक कर के कई सारे स्टूल रखे हुए थे। मणि शंकर ने मुझे जिस कुर्सी पर बैठने का इशारा किया मैं उसी पर बैठ गया।

"मणि काका।" इससे पहले कि बाकी लोग भी अपनी अपनी कुर्सी पर बैठते मैं एकदम से बोल पड़ा____"यहां पर बैठने से पहले मैं इस घर के मुख्य सदस्य से मिल कर उनका आशीर्वाद लेना चाहता हूं।"

मेरी बात सुन कर सबके चेहरों पर चौकने वाले भाव उभर आए। कदाचित उन्हें मेरी बात समझ नहीं आई थी और ऐसा इस लिए क्योंकि घर के मुखिया तो मणि शंकर ही थे तो फिर मैंने किसका आशीर्वाद लेने की बात की थी?

"आप लोग हैरान क्यों हो रहे हैं?" मैंने सबकी तरफ नज़रें घुमाते हुए कहा____"मैं इस घर के असली मुखिया यानी दादा दादी का आशीर्वाद लेने की बात कर रहा हूं।"

"ओह! अच्छा अच्छा हाहाहा।" मेरी बात सुनते ही मणि शंकर एकदम से हंसते हुए बोल पड़ा। उसके साथ उसके भाई भी मुस्कुरा उठे थे, इधर मणि काका ने कहा____"बहुत खूब वैभव बेटा। हमें तो लगा था कि तुम्हें वो याद ही नहीं होंगे लेकिन ग़लत लगा था हमें। ख़ैर हमें ख़ुशी हुई तुम्हारी इस बात से। चलो हम खुद तुम्हें उनके कमरे में ले चलते हैं। असल में वो दोनों ज़्यादातर अपने कमरे में ही रहते हैं। एक तो उम्र ज़्यादा हो गई है दूसरे बिमारी की वजह से कहीं आने जाने में उन्हें भारी तकलीफ़ होती है।"

मैं मणि शंकर के साथ हाल के दूसरे छोर की तरफ बढ़ चला। मैं क्योंकि मणि शंकर के पीछे चल रहा था इस लिए इधर उधर बड़ी आसानी से देख सकता था। मैं ये देख कर थोड़ा चकित था कि साहूकारों का ये मकान अंदर से कितना सुन्दर बना हुआ था। हालांकि हमारी हवेली के मुकामले ये मकान कुछ भी नहीं था लेकिन जितना भी था वो अपने आप में ही उनकी हैसियत और उनके रुतबे का सबूत दे रहा था। कुछ ही देर में चलते हुए हम एक बड़े से कमरे के दरवाज़े पर पहुंचे। मणि काका ने दरवाज़ा खोला और मुझे अपने साथ अंदर आने का इशारा किया। कमरा काफी बड़ा था और काफी सुन्दर भी। कमरे के अंदर दो भारी बेड रखे हुए थे। एक बेड पर एक बूढ़ा शख़्स रेशमी चद्दर ओढ़े लेटा हुआ था और दूसरे में एक बुढ़िया। दोनों के ही जिस्म कमज़ोर और बीमार नज़र आ रहे थे।

मणि शंकर ने आगे बढ़ कर बूढ़े चंद्रमणि को आवाज़ दी तो बूढ़े ने अपनी कमज़ोर सी आँखें खोल कर उसकी तरफ देखा। मणि शंकर की आवाज़ सुन कर दूसरे बेड पर लेटी बुढ़िया की भी आँखें खुल गईं थी। मणि शंकर ने बूढ़े को मेरे बारे में बताया तो बूढ़ा सीधा लेटने की कोशिश करने लगा। मैं फ़ौरन ही आगे बढ़ कर बेड के क़रीब पहुंचा।

"ख़ु...खुश रहो बेटा।" मैंने जैसे ही बूढ़े चंद्रमणि के पाँव छुए तो उसने अपनी मरियल सी आवाज़ में कहा____"भगवान हमेशा तुम्हारा कल्याण करे।"

बूढ़े से आशीर्वाद लेने के बाद मैंने दूसरे बेड पर लेटी उसकी बूढ़ी बीवी सुभद्रा के भी पाँव छुए तो उसने भी मुझे स्नेह और आशीष दिया। कुछ देर मैं वहीं बूढ़े के पास ही खड़ा रहा। इस बीच बूढ़े ने अपने बेटे मणि शंकर से मेरे और मेरे खानदान के बारे में और भी बहुत सी बातें पूछी जिनके कुछ जवाब मणि शंकर काका ने दिए और कुछ के मैंने। वापट लौटते समय मैंने एक बार फिर से उन दोनों का आशीर्वाद लिया और फिर मणि शंकर काका के साथ वापस हाल में आ गया।

हाल में आया तो देखा घर के सभी मर्द अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठे हुए थे। मणि शंकर के इशारे पर मैं भी उसके क़रीब ही एक कुर्सी पर बैठ गया। मैंने एक बार हाल में बैठे सभी लोगों पर निगाह घुमाई। मणि शंकर और उसके भाइयों के चेहरों पर जहां ख़ुशी के भाव दिख रहे थे वहीं उनके बेटों के चेहरों पर थोड़ी उलझन सी दिखाई दे रही थी। मैं समझ सकता था कि उनके लिए मेरा यहाँ पर आना इतनी आसानी से हजम नहीं हो सकता था। जहां तक मेरा सवाल था तो मैंने पूरी तरह पक्का कर लिया था कि पूरे मन से वही करुंगा जिस उद्देश्य के तहत मैं यहाँ आया था या ये कहूं कि पिता जी ने मुझे भेजा था। मैं अपने बर्ताव से कुछ ऐसा करुंगा जिससे साहूकार और उनके बेटों के ज़हन से मेरे प्रति हर तरह की बुरी धारणा मिट जाए। हालांकि ये न तो मेरे लिए आसान था और ना ही उन सबके लिए।

अभी मुझे कुर्सी पर बैठे हुए कुछ पल ही हुए थे कि अंदर से एक के बाद एक औरतें हाथों में थाली लिए हाल में आने लगीं। उन सबने एक एक कर के हम सबके सामने रखे स्टूल पर थालियों को रख दिया। उनके जाते ही एक बार फिर से कुछ औरतें आती दिखीं जिनके हाथों में पानी से भरा लोटा ग्लास था जिसे उन सबने हम सबकी थाली के बगल से रख दिया। मैं मन ही मन मणि शंकर के यहाँ की इस ब्यवस्था को देख कर थोड़ा हैरान हुआ और तारीफ़ किए बिना भी न रह सका। पूरे हाल में हम सबके बीच एक ख़ामोशी विद्यमान थी जबकि मेरा ख़याल ये था कि इस बीच बड़े बुजुर्ग किसी न किसी विषय पर बात चीत ज़रूर शुरू करेंगे। मैंने भी बीच में कुछ भी बोलना सही नहीं समझा था। हर कोई एक दूसरे की तरफ एक बार देखता और फिर अपनी नज़रें हटा लेता। एक अजीब सा वातावरण छा गया था हाल में। अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि तभी फिर से अंदर से वही औरतें आने लगीं। इस बार उनके हाथों में छोटी थाली यानी प्लेट्स थीं जिन्हें उन लोगों ने एक एक कर के हम सबके सामने स्टूल पर रख दिया। मैंने देखा उन प्लेट्स में कई प्रकार के फल रखे हुए थे। पहले जो थालियां आईं थी उनमें खाने का गरमा गरम पकवान था। ख़ैर उनके जाने के बाद मुझे लगा अब खाना पीना शुरू होगा लेकिन अगले ही पल मैं ग़लत साबित हो गया क्योंकि तभी कुछ औरतें फिर से आती नज़र आईं। उनके हाथों में बड़ी बड़ी परात जैसी थाली थी। जब वो क़रीब आईं तो मैंने देखा उन परात में कई सारी कटोरियां रखी हुईं थी जिनमें खीर और रसगुल्ले रखे हुए थे। थोड़ी ही देर में उन सबने दो दो कटोरियां सबके सामने थाली के बगल से रख दिया। ऐसा तो नहीं था कि मैंने ये सब कभी खाया ही नहीं था लेकिन जिस तरीके से ये सब पेश किया जा रहा था वो गज़ब था।

सामने रखे स्टूल पर इतना सारा खाना एक ही बार में देख कर अपना तो पेट ही भर गया था। हमारी हवेली में इससे भी बढ़ कर ब्यंजन बनाए जाते थे लेकिन अपने को साधारण खाना ही पसंद था। अगर दिल की बात बताऊं तो मुझे अपने जीवन में वो खाना पसंद था जो अनुराधा बनाती थी। अनुराधा के खाने की याद आई तो एकदम से उसका मासूम चेहरा मेरी आँखों के सामने उजागर हो गया। उसका मेरे सामने छुई मुई सा हो जाना, उसका झिझकना, उसका शर्माना और मेरे द्वारा अपने खाने की तारीफ़ सुन कर हौले से मुस्कुराना ये सब एकदम से मुझे याद आया तो दिल में एक हलचल सी पैदा हो गई। पता नहीं क्या बात थी उसमें कि जब भी उसके बारे में सोचता था एक अजीब ही तरह का एहसास जागृत हो जाता था। मेरे दिल में एकदम से उसको देखने की इच्छा जागृत हो गई। मैंने किसी तरह अपनी इस इच्छा को दबाया और उसकी तरफ से अपना ध्यान हटा लिया।

"वैभव बेटा चलो शुरू करो।" मणि शंकर ने एकदम से कहा तो मैंने उसकी तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा_____"वैसे हमें पता है कि इससे कहीं ज़्यादा बेहतर पकवान तुम्हें अपनी हवेली में खाने को मिलते हैं लेकिन हमारे पास तो बस यही रुखा सूखा है।"

"ऐसा क्यों कहते हैं मणि काका?" मैंने हल्के से मुस्कुरा कर कहा_____"आपको शायद पता नहीं लेकिन मैं हमेशा साधारण भोजन ही खाना पसंद करता हूं। ये सच है कि हवेली में न जाने कितने ही प्रकार के पकवान बनते हैं लेकिन मेरा उन पकवानों से कोई मतलब नहीं होता। ख़ैर पहले में और अब में ज़मीन आसमान का फ़र्क हो गया है। आज अगर आपके यहाँ मुझे नमक रोटी भी मिलती तो मुझे ज़रा सा भी बुरा नहीं लगता क्योंकि मुझे आपकी उस नमक रोटी में भी आपके प्यार और स्नेह की मीठी सुगंध का आभास होता। मैंने तो आपसे पहले भी कहा था कि मेरे लिए इतना सब करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। मुझे अपने लिए ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब मैंने सम्मान पाने लायक वाकई में कोई काम किया होता।"

"तुम्हारी बातें हमें आश्चर्य चकित कर देती हैं बेटा।" सहसा हरी शंकर ने कहा_____"ऐसा शायद इस लिए है क्योंकि हमें तुमसे ऐसी बातों की उम्मीद नहीं है। इतना तो हम भी समझते हैं कि जो सच में अच्छा होता है और सच्चे मन से कोई कार्य करता है उसके अंदर का हर भाव और हर सोच बहुत ही खूबसूरत होती है। तुम इतनी सुन्दर बातें करने लगे हो इससे ज़ाहिर है कि तुम अब वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे। हमें ये देख कर बेहद ख़ुशी हो रही है।"

"तुम कहते हो कि तुम्हें ये सम्मान पाना तब और भी अच्छा लगता जब तुम ऐसा सम्मान पाने लायक कोई काम करते।" मणि शंकर ने कहा_____"जबकि कोई ज़रूरी नहीं कि अच्छा काम करने के बाद ही किसी के द्वारा सम्मान मिले। कभी कभी अच्छी सोच और अच्छी भावना को देख कर भी सम्मान दिया जाता है और हमने वही किया है। हमें तुम में अब अच्छी सोच और अच्छी भावना ही नज़र आती है और इस लिए अब हमें यकीन भी हो चुका है कि अब आगे तुम जो भी करोगे वो सब अच्छा ही करोगे इस लिए उसके लिए पहले से ही तुम्हें सम्मान दे दिया तो ये ग़लत नहीं है।"

"ये तो मेरी खुशनसीबी है मणि काका।" मैंने नम्र भाव से कहा_____"कि आप मेरे बारे में ऐसा सोचते हैं और मुझ पर इतना विश्वास कर बैठे हैं। मेरी भी यही कोशिश रहेगी कि मैं आपके विश्वास को कभी न टूटने दूं और आपकी उम्मीदों पर खरा उतरुं।" कहने के साथ ही मैंने उन सबके लड़कों की तरफ मुखातिब हुआ और फिर बोला____"आप सब मेरे भाई हैं, मित्र हैं। आपस की रंजिश भुला कर हमें अपने बीच भाईचारे का एक अटूट रिश्ता बनाना चाहिए। मेरा यकीन करो जब ऐसा होगा तो जीवन एक अलग ही रूप में निखरा हुआ नज़र आएगा।"

"तुम सही कह रहे हो वैभव।" मणि शंकर के बड़े बेटे चन्द्रभान ने कहा_____"हमारे बीच बेकार में ही इतने समय से अनबन रही। हालांकि हम दिल से कबूल करते हैं कि जब भी तुम्हारा मेरे भाइयों से लड़ाई झगड़ा हुआ तब उस झगड़े की पहल तुम्हारी तरफ से नहीं हुई थी। हर बार मेरे भाइयों ने ही तुम्हें नीचा दिखाने के उद्देश्य से तुमसे झगड़ा किया। ये अलग बात है कि हर बार उन्हें तुम्हारे द्वारा मुँह की ही खानी पड़ी। जहां तक मेरा सवाल है तो तुम भी जानते हो कि मैं किस तरह की फितरत का इंसान हूं। मुझे किसी से द्वेष रखना या किसी से बेवजह झगड़ा करना पसंद ही नहीं है। मैं तो अपने इन भाइयों को भी समझाता था कि ये लोग तुमसे बेवजह बैर न बनाएं, पर ख़ैर जो हुआ उसे भूल जाना ही बेहतर है। अब हम सब एक हो गए हैं तो यकीनन हमारे बीच एक अच्छा भाईचारा होगा।"

"अच्छा अब ये सब बातें छोड़ो तुम लोग।" मणि शंकर ने कहा____"ये समय इन बातों का नहीं है बल्कि भोजन करने का है। तुम लोग आपस के मतभेद खाने के बाद दूर कर लेना। अभी सिर्फ भोजन करो।"

मणि शंकर की इस बात के बाद ख़ामोशी छा गई। उसके बाद ख़ामोशी से ही भोजन शुरू हुआ। बीच बीच में भोजन परोसने वाली औरतें आती और हम सबकी थाली में कुछ न कुछ रख जातीं। मैं ज़्यादा खाने का आदी नहीं था इस लिए मैंने कुछ भी लेने से मना कर दिया था लेकिन मणि शंकर और उसके भाई न माने। मैंने महसूस किया था कि उनके बेटों में से ज़्यादातर लड़के अब मेरे प्रति सहज हो गए थे और जब भी मेरी उनसे नज़रें चार हो जाती थीं तो वो बस हल्के से मुस्कुरा देते थे। उनके चेहरे के भावों से मैं समझ जाता था कि उनके अंदर कैसी भावना होगी। ख़ैर किसी तरह भोजन का कार्यक्रम संपन्न हुआ और हम सब वहां से उठ कर बाहर बनी एक बड़ी सी बैठक में आ गए।

---------☆☆☆---------
 
अध्याय - 36
----------☆☆☆----------


अब तक....

मणि शंकर की इस बात के बाद ख़ामोशी छा गई। उसके बाद ख़ामोशी से ही भोजन शुरू हुआ। बीच बीच में भोजन परोसने वाली औरतें आती और हम सबकी थाली में कुछ न कुछ रख जातीं। मैं ज़्यादा खाने का आदी नहीं था इस लिए मैंने कुछ भी लेने से मना कर दिया था लेकिन मणि शंकर और उसके भाई न माने। मैंने महसूस किया था कि उनके बेटों में से ज़्यादातर लड़के अब मेरे प्रति सहज हो गए थे और जब भी मेरी उनसे नज़रें चार हो जाती थीं तो वो बस हल्के से मुस्कुरा देते थे। उनके चेहरे के भावों से मैं समझ जाता था कि उनके अंदर कैसी भावना होगी। ख़ैर किसी तरह भोजन का कार्यक्रम संपन्न हुआ और हम सब वहां से उठ कर बाहर बनी एक बड़ी सी बैठक में आ गए।

अब आगे....


"प्रणाम दादा ठाकुर।" इंस्पेक्टर धनञ्जय ने दादा ठाकुर के पैर छुए और फिर खड़ा हो गया।
"ख़ुश रहो।" दादा ठाकुर ने अपनी प्रभावशाली आवाज़ में कहा और फिर एक नज़र आस पास घुमाने के बाद दरवाज़े के अंदर दाखिल हो ग‌ए। उनके पीछे दरोगा भी आ गया। अंदर आने के बाद धनञ्जय ने दरवाज़ा बंद कर दिया।

"आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया?" दरोगा ने नम्र भाव से कहा____"मुझे सन्देश भेजवा दिया होता तो मैं खुद ही हवेली आ जाता।"

"कोई बात नहीं।" दादा ठाकुर ने सपाट लहजे में कहा और कमरे में रखी चारपाई पर जा कर बैठ गए जबकि धनञ्जय ज़मीन पर ही हाथ बांधे खड़ा रहा।

"उस आदमी के बारे में क्या पता चला तुम्हें?" दादा ठाकुर ने ख़ामोशी को चीरते हुए कहा____"और ये भी कि मुरारी की हत्या के सम्बन्ध में तुमने अब तक क्या पता किया?"

"उस रात जिस काले नक़ाबपोश की हत्या हुई थी उसके बारे में मैंने आस पास के कई गांवों में पता किया था दादा ठाकुर।" दरोगा ने गंभीरता से कहा____"लेकिन हैरत की बात ये पता चली कि वो आदमी इस गांव का ही क्या बल्कि आस पास के किसी भी गांव का नहीं था। मैंने अपने मुखबिरों को उसके बारे में पता करने के लिए लगाया था और आज ही मेरे एक मुखबिर ने बताया कि वो आदमी असल में कौन था।"

"साफ साफ़ बताओ।" दादा ठाकुर ने धनञ्जय की तरफ उत्सुकता से देखा।
"मेरे मुखबिर ने बताया कि वो आदमी पास के ही शहर का था।" दरोगा ने कहा____"उसका नाम बनवारी था। बनवारी का एक साथी भी है जिसका नाम नागेश नामदेव है। दोनों ही शहर के छंटे हुए बदमाश हैं। चोरी डकैती लूट मार और क़त्ल जैसी वारदातों को अंजाम देना उनके लिए डाल चावल खा लेने जैसा आसान काम है। पुलिस फाइल में दोनों के ही जुर्म की दास्तान दर्ज है। मुखबिर के बताने पर जब मैंने उन दोनों का शहर में पता लगवाया तो पता चला कि वो दोनों काफी टाईम से शहर में देखे नहीं गए हैं और ना ही उनके द्वारा किसी वारदात को अंजाम दिया गया है। इसका मतलब यही हुआ कि आपका जो कोई भी दुश्मन है उसने उन दोनों को ही अपने काम के लिए चुना है और कुछ इस तरीके से उनको काम करने के लिए कहा है कि वो दोनों ग़लती से भी किसी की नज़र में न आएं। अब क्योंकि शहर में वो दोनों काफी टाइम से देखे नहीं गए थे तो ज़ाहिर है वो दोनों शहर में थे ही नहीं बल्कि वो यहीं थे, इसी गांव में लेकिन सबकी नज़रों से छुप कर। ख़ैर उन दोनों में से एक को तो उस सफेदपोश ने उस रात जान से मार दिया लेकिन दूसरे की अभी लाश नहीं मिली है तो ज़ाहिर है कि वो अभी ज़िंदा है।"

"हमें भी यही आशंका थी कि ऐसा कोई आदमी हमारे गांव का या आस पास के किसी गांव का नहीं हो सकता।" दादा ठाकुर ने गहरी स्वास छोड़ते हुए कहा____"हमारा जो भी दुश्मन है वो ऐसे किसी आदमी को इस तरह के काम के लिए चुनेगा भी नहीं जो इस गांव का हो अथवा किसी दूसरे गांव का। क्योंकि उसे अपनी गोपनीयता का ख़ास तौर पर ख़याल रखना है। खैर जैसा कि तुमने कहा कि उनमें से एक मारा गया है और एक की लाश नहीं मिली है तो ज़ाहिर है उस दूसरे वाले से हमें या हमारे बेटे को अभी भी ख़तरा है।"

"सही कह रहे हैं आप।" दरोगा ने सिर हिलाते हुए कहा____"उस दूसरे वाले नक़ाबपोश से अभी भी ख़तरा है और संभव है कि कई बार की नाकामी के बाद इस बार वो पूरी योजना के साथ आप पर या छोटे ठाकुर पर हमला करे इस लिए आपको और छोटे ठाकुर को थोड़ा सम्हल कर रहना होगा।"

"ह्म्म्म।" दादा ठाकुर ने सिर हिलाया____"और मुरारी की हत्या के विषय में क्या पता किया तुमने? हमारे लिए अब ये सहन करना मुश्किल होता जा रहा है कि मुरारी का हत्यारा अभी भी खुली हवा में सांस ले रहा है। हमें यकीन है कि मुरारी की हत्या किसी और वजह से नहीं बल्कि हमारी ही वजह से हुई है। हम ये बोझ अपने सीने में ले कर नहीं बैठे रह सकते। जिस किसी ने भी उस निर्दोष की हत्या की है उसे जल्द से जल्द हम सज़ा देना चाहते हैं।"

"मेरा ख़याल है कि मुरारी की हत्या उसी सफेदपोश ने अपने उन दो चुने हुए आदमियों के द्वारा करवाई है।" दरोगा ने सोचने वाले भाव से कहा_____"ये तो उस दिन हमारा दुर्भाग्य था कि वो सफेदपोश हाथ से निकल गया और उसने उस काले नक़ाबपोश यानी बनवारी को जान से मार दिया था वरना अगर वो दोनों ही पकड़ में आ जाते तो सच का पता चल जाता।"

"जो नहीं हो पाया उसकी बात मत करो धनञ्जय।" दादा ठाकुर ने खीझते हुए से लहजे में कहा_____"बल्कि एड़ी से चोटी तक का ज़ोर लगा कर या तो उस दूसरे नकाबपोश का पता लगाओ या फिर उस सफेदपोश का। हम जानना चाहते हैं कि इस गांव में अथवा आस पास के गांव में ऐसा कौन है जो हमसे ऐसी दुश्मनी निभा रहा है और हमारा हर तरह से नाम ख़राब करना चाहता है? सिर्फ शक के आधार पर हम किसी पर हाथ नहीं डालना चाहते, बल्कि हमें ठोस सबूत चाहिए उस ब्यक्ति के बारे में।"

"मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा हूं दादा ठाकुर।" दरोगा धनञ्जय ने कहा_____"मगर शायद वो ब्यक्ति ज़रूरत से ज़्यादा ही शातिर है। वो पूरी सावधानी बरत रहा है और नहीं चाहता कि उससे कोई छोटी सी भी ग़लती हो। हालांकि ऐसा हर बार नहीं हो सकता, मुझे पूरा यकीन है कि एक दिन वो अपनी ही होशियारी के चलते पकड़ में आ जाएगा।"

"हम और इंतज़ार नहीं कर सकते धनञ्जय।" दादा ठाकुर ने दरोगा की तरफ देखते हुए कहा____"हमें जल्द से जल्द मुरारी का हत्यारा चाहिए। एक बात और, अगर तुम्हें किसी पर शक है तो तुम बेझिझक उसे उठा सकते हो और उससे सच का पता लगा सकते हो। हमारी तरफ से तुम्हें पूरी छूट है लेकिन इस बात का ख़ास ध्यान रहे कि इसके बारे में बाहर किसी को भनक भी न लग सके।"

"आप बेफिक्र रहें दादा ठाकुर।" धनञ्जय ने कहा____"जल्द ही इस बारे में आपको बेहतर ख़बर दूंगा मैं।"

कुछ देर और दादा ठाकुर दरोगा के पास रुके और फिर वो जिस तरह बिना किसी की नज़र में आए हुए आए थे उसी तरह चले भी गए। दरोगा के चेहरे पर दृढ़ता के भाव गर्दिश करते नज़र आने लगे थे।
☆☆☆

बाहर बैठक में हम सब बैठे हुए थे और हर विषय पर बातें कर रहे थे। मणि शंकर और उसके भाई मेरे बदले हुए रवैए से बेहद खुश और सहज हो गए थे। यही हाल उनके बेटों का भी था। कुछ ही देर में मैं उन सबके बीच पूरी तरह घुल मिल गया था। मैंने पूरी तरह से अपनी योजना के अनुसार उनको ये एहसास करा दिया था कि अब उनमें से किसी को भी मुझसे किसी भी तरह से न तो डरने की ज़रूरत है और ना ही असहज होने की।

हरि शंकर के बेटे मानिकचंद्र के हाथ में अभी भी प्लास्टर चढा हुआ था। मैंने उससे उसकी उस दशा के लिए कई बार माफ़ी मांगी थी जिससे वो बार बार यही कहता रहा कि नहीं इसमें ज़्यादातर उसी की ग़लती थी। मणि शंकर की पोती और चंद्रभान की बेटी जो कि अभी छोटी सी ही थी वो जब खेलते हुए बाहर आई तो मैंने उसे उठा कर अपनी गोद में बैठा लिया था और उसे खूब लाड प्यार दे रहा था। वो छोटी सी बच्ची मुझे बहुत ही प्यारी लग रही थी। मुझे उसको इस तरह ख़ुशी ख़ुशी लाड प्यार देते देख उसका बाप चंद्रभान और बाकी सब ख़ुशी से मुस्कुरा रहे थे। वो छोटी सी बच्ची कुछ ही पलों में मुझसे घुल मिल ग‌ई थी। उसकी तोतली बातें मुझे बहुत ही अच्छी लग रहीं थी।

"चन्द्र भैया, आपकी ये बेटी आज से मेरी गुड़िया है।" मैंने चन्द्रभान की तरफ देखते हुए कहा____"और मैं इसे अपने साथ हवेली ले जाऊंगा।" कहने के साथ ही मैंने उस बच्ची से बड़े प्यार से कहा____"अपने इस चाचा के साथ हवेली चलोगी न गुड़िया?"

"हां मैं तलूंगी।" उसने अपनी तोतली भाषा में कहा____"आप मुधे लड्दू थाने को दोगे न?"
"बिल्कुल दूंगा मेरी गुड़िया।" मैंने हल्के से हंसते हुए कहा____"मैं अपनी इस प्यारी सी गुड़िया के लिए ढेर सारे लड्डू बनवाऊंगा और सारा का सारा लड्डू तुम्हें दे दूंगा।"

"पल मैं थारे लड्दू तैसे था पाऊंगी?" उसने बड़ी मासूमियत से देखते हुए मुझसे कहा____"मेला पेत तो बहुत थोता है।"
"तो तुम थोड़ा थोड़ा कर के खाना गुड़िया।" मैंने उसे समझाते हुए कहा____"थोड़ा थोड़ा करके तुम सारे लड्डू खा जाओगी।"

"थारा लड्दू था दाऊंगी तो लड्दू तुक नहीं दाएंगे?" उसने मुड़ कर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"फिल मैं ता थाऊगी?"
"अरे! तो मैं अपनी इस प्यारी सी गुड़िया के लिए फिर से बहुत सारा लड्डू बनवा दूंगा।" मैंने उसके फूले हुए गालों को प्यार से सहला कर कहा____"उसके बाद तुम फिर से लड्डू खाने लगना।"

"हां पल मैं अपने लड्दू किथी को नहीं दूंगी।" उसने अपनी प्यारी और तोतली भाषा में कहा____"थाले लड्दू मैं ही थाऊंगी।"
"हां मेरी गुड़िया।" मैंने फिर से उसके गाल सहला कर कहा____"सारे लड्डू तुम्हीं खाओगी और अगर कोई तुमसे तुम्हारे लड्डू ले ले तो तुम सीधा आ कर अपने इस चाचा को बताना। मैं उसकी खूब पिटाई करुंगा। ठीक है ना?"

मेरी बात सुन कर वो छोटी सी बच्ची बड़ा खुश हुई और खिलखिला कर हंसने लगी। कुछ ही देर में आलम ये हो गया कि वो अब मेरी गोद से नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रही थी। बैठक में बैठे सभी लोग हम दोनों की बातों से मुस्कुरा रहे थे। तभी मणि शंकर की बीवी फूलवती आई और उस छोटी सी बच्ची को अपने पास बुलाने लगी लेकिन उसने मेरी गोद से उसके पास जाने से साफ़ इंकार कर दिया।

"मैं नहीं आऊंगी दादी।" उसने अपनी दादी से इंकार में सिर हिलाते हुए कहा____"मैं अपने ताता के थात दाऊंगी। मेले ताता मुधे बूथाला लड्दू देंगे।"

बच्ची की बात सुन कर जहां मैं मुस्कुरा उठा वहीं बैठक में बैठे बाकी कुछ लोग ठहाका लगा कर हसने लगे। उस मासूम सी बच्ची ने उन हंसने वालों की तरफ देखा और फिर मेरी तरफ देखते हुए बोली____"मैं आपके थात दाऊंगी न ताता?"

"हां मेरी गुड़िया।" मैंने उसके माथे को प्यार से चूमते हुए कहा____"तुम मेरे साथ ही हवेली जाओगी। वहां पर तुम्हारी एक बुआ है जो तुम्हें ढेर साड़ी मिठाई देगी और तुम्हें अपने साथ ही रखेगी।"

"तो मैं लड्दू औल मिथाई दोनों थाऊगी ताता?" उसने इस बार हैरानी से पूछा था।
"और नहीं तो क्या।" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"मेरी ये प्यारी गुड़िया सब कुछ खाएगी। तुम जो जो कहोगी वो सब तुम्हें खाने को मिलेंगा।"

मेरी बात सुन कर बच्ची एक बार फिर से ख़ुशी से उछलने लगी। उसके साथ मेरी ये बातें, मेरा प्यार और स्नेह कोई दिखावा नहीं था बल्कि सच में वो मुझे बहुत प्यारी लगने लगी थी और मेरा जी चाह रहा था कि मैं बस उसे यूं ही प्यार और स्नेह देता रहूं। फूलवती को खाली हाथ ही अंदर जाना पड़ा। वो बच्ची मेरी गोद से उपरी ही नहीं।

"बड़ी हैरानी की बात है वैभव कि ये तुमसे इतना जल्दी इतना घुल मिल ग‌ई है।" हरी शंकर ने कहा____"वरना जिसे ये पहचानती नहीं उससे दूर ही रहती है। अपनी माँ से ज़्यादा ये अपनी दादी के पास रहती है लेकिन देखा न कि इसने अपनी दादी के पास जाने से भी साफ इंकार कर दिया।"

"बच्चों को जहां प्यार और स्नेह मिलता है वो वहीं जाते हैं हरि काका।" मैंने कहा____"ख़ैर अब तो ये पक्की बात है कि इसे मैं अपने साथ ही ले जाऊंगा। चंद्र भैया आज से ये आपकी बेटी नहीं बल्कि मेरी प्यारी सी गुड़िया है। आपको कोई दिक्कत तो नहीं है न?"

"मुझे भला क्यों कोई दिक्कत होगी वैभव?" चन्द्रभान ने मुस्कुराते हुए कहा____"हम सब तो इसके कारनामों के आदी हैं लेकिन दिक्कत तुम्हें ही होगी क्योंकि जब इसकी शैतानियां देखोगे तो तब यही सोचोगे कि किस आफ़त को हवेली में ले आए हो।"

"अब जो भी होगा देखा जाएगा चंद्र भइया।" मैंने कहा____"वैसे भी मुझे तो इसकी शैतानियों से भी इस पर प्यार ही आएगा और साथ ही बेहद आनंद भी आएगा।"

ऐसी ही बातों के बाद मैंने उन सबसे जाने की इजाज़त ली जिस पर सब बोलने लगे कि अभी कुछ देर और रुको। मैंने उन सबसे कहा कि अब तो मेरा आना जाना लगा ही रहेगा। मेरी बातें सुन कर मणि शंकर ने कहा कि ठीक है, वो मुझे बग्घी में खुद हवेली तक छोड़ने जाएंगे तो मैंने उन्हें ये कह कर मना कर दिया कि आप मुझसे उम्र में बहुत बड़े हैं।

उस बच्ची को क्योंकि अब मैं खुद ही ले जाना चाहता था इस लिए मैं उसे ले कर चल पड़ा। अपने से बड़ों का मैंने पैर छू कर आशीर्वाद लिया और फिर बैठक से बाहर निकल आया। मुझे बग्घी में हवेली तक छोड़ने के लिए सूर्यभान और मानिकचंद्र तैयार हुए। सबके चेहरों पर खुशी की चमक दिखाई दे रही थी। बाहर आ कर मैं उस बच्ची के साथ बग्घी में बैठ गया। मेरे बगल से हरि शंकर का बेटा मानिकचंद्र बैठ गया जबकि मणि शंकर का दूसरा बेटा आगे बैठ कर बग्घी चलाने लगा। सारे रास्ते मैं ज़्यादातर उस बच्ची से ही बातें करता रहा था। उसकी तोतली भाषा और मीठी मीठी बातें मुझे बेहद आनंद दे रहीं थी। बीच बीच में मैं मानिकचंद्र और सूर्यभान से भी बातें करता जा रहा था। हमारे बीच अब अच्छा खासा ताल मेल बन गया था। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि हमारे बीच आज से पहले कितनी दुश्मनी थी।

हवेली में पहुंच कर हम सब बग्घी से उतरे। वहां मौजूद नौकरों ने हम सबका सिर नवा कर अभिवादन किया। अभी मैं हवेली के मुख्य द्वार की तरफ ही मुड़ा था कि अंदर से बड़े भैया अभिनव के साथ विभोर और अजीत बाहर निकले। उन तीनों की नज़र हम पर पड़ी तो पहले तो वो अपनी जगह पर ठिठक गए फिर सामान्य भाव से आगे बढ़ते हुए हमारे पास आ ग‌ए। मैंने बड़े भैया को प्रणाम किया तो उन्होंने हल्के से सिर हिला दिया। उधर विभोर और अजीत ने पहले मुझे और फिर सूर्यभान और मानिकचंद्र को प्रणाम किया। सूर्यभान और मानिकचंद्र को मेरे साथ देख कर बड़े भैया का चेहरा तो सामान्य ही रहा लेकिन विभोर और अजीत के चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए थे।

बड़े भैया और वो दोनों कहीं जाने की तयारी में थे इस लिए वो औपचारिक बातों के बाद जीप ले कर निकल गए जबकि मैं उस बच्ची को गोद में लिए हवेली के अंदर की तरफ चल पड़ा। मेरे साथ सूर्यभान और मानिकचंद्र भी आ रहे थे। हालांकि उन दोनों ने वापस लौट जाने को कहा था पर मैंने उन्हें वापस जाने नहीं दिया था। कुछ ही देर में हम सब अंदर बैठक में आ गए। अंदर जगताप चाचा मिले। सूर्यभान और मानिकचंद्र ने उन्हें प्रणाम किया और फिर ख़ुशी ख़ुशी बैठक में बैठाया। पिता जी मुझे नज़र नहीं आए। मेरे साथ छोटी सी बच्ची को देख कर जगताप चाचा पहले तो चौंके थे फिर पूछने लगे कि ये तुम्हारे साथ कैसे तो मैंने उन्हें सारी कहानी संक्षेप में बता दी जिसे सुन कर वो बस मुस्कुरा कर रह ग‌ए।

सूर्यभान और मानिकचंद्र का जगताप चाचा ने यथोचित स्वागत किया। हवेली की ठकुराइन यानी कि मेरी माँ भी उनसे मिली। कुछ देर बाद वो दोनों जाने की इजाज़त मांगने लगे और उस बच्ची से भी चलने को कहा लेकिन उस बच्ची में उनके साथ जाने से इंकार कर दिया। वो अभी तक मेरी गोद में ही चढ़ी हुई थी। खैर दोनों के जाने के बाद मैं भी अंदर चला गया।

अंदर कुसुम मुझे मिली और उसने जब मेरे साथ एक छोटी बच्ची को देखा तो पूछने लगी कि ये कौन है और मेरे पास कैसे आई तो मैंने उसे भी सब कुछ बताया। उसके बाद मैं उस बच्ची को लिए अपने कमरे की तरफ चल दिया। कुसुम को ये भी बोलता गया कि वो उस बच्ची के लिए लड्डू ले कर आए।

माहौल एकदम से बदल सा गया था और मुझे भी इस माहौल में थोड़ा अच्छा महसूस हो रहा था। मेरे कमरे में वो बच्ची मेरे बेड पर बैठी ख़ुशी ख़ुशी लड्डू खा रही थी। कुसुम उसके पास ही बैठी थी। थोड़ी देर में रागिनी भाभी और मेनका चची भी मेरे कमरे में आ ग‌ईं थी। वो सब उस प्यारी सी बच्ची को देख कर खुश थीं और उससे बातें करती जा रही थी। वो बच्ची जब अपनी तोतली भाषा में बातें करती तो वो सब मुस्कुरा उठतीं थी। सहसा मेरी नज़र रागिनी भाभी पर पड़ी तो मैं चौंका।
---------☆☆☆---------
 
अध्याय - 37
━━━━━━༻♥༺━━━━━━


अब तक....

माहौल एकदम से बदल सा गया था और मुझे भी इस माहौल में थोड़ा अच्छा महसूस हो रहा था। मेरे कमरे में वो बच्ची मेरे बेड पर बैठी ख़ुशी ख़ुशी लड्डू खा रही थी। कुसुम उसके पास ही बैठी थी। थोड़ी देर में रागिनी भाभी और मेनका चची भी मेरे कमरे में आ ग‌ईं थी। वो सब उस प्यारी सी बच्ची को देख कर खुश थीं और उससे बातें करती जा रही थी। वो बच्ची जब अपनी तोतली भाषा में बातें करती तो वो सब मुस्कुरा उठतीं थी। सहसा मेरी नज़र रागिनी भाभी पर पड़ी तो मैं चौंका।

अब आगे....


रागिनी भाभी बेड के पास ही खड़ी थीं और उनका चेहरा भी उस बच्ची की ही तरफ था लेकिन वो मुझे कहीं खोई हुई सी नज़र आ रहीं थी। चाँद की मानिन्द खिला हुआ चेहरा एकदम से बेनूर सा नज़र आने लगा था। जाने क्यों उनके चेहरे पर आ गई इस उदासी को देख कर मुझे अच्छा नहीं लगा। अब क्योंकि मैं जानता था कि उन्होंने अपने सीने में किस तरह का दर्द सबसे छुपा रखा था इस लिए मुझे उनके लिए दुःख का एहसास हुआ। अभी मैं उनके उदास और मलिन पड़े चेहरे को देख ही रहा था कि तभी जैसे उनका ध्यान टूटा और वो किसी से बिना कुछ बोले पलटीं और कमरे से बाहर चली गईं। दरवाज़े के पास पहुंचते पहुंचते मैंने ये देख लिया कि उन्होंने अपने दाहिने हाथ से अपने आंसू पोंछे थे।

कमरे में उस छोटी सी बच्ची की वजह से बाकी सब खुश थे और उस बच्ची में ही मगन थे। किसी का इस बात पर ध्यान ही नहीं गया कि उनकी ख़ुशी के बीच से कोई बेहद उदास और दुखी हो कर चुप चाप चला गया है। मैंने कुसुम और मेनका चाची से ज़रूरी काम का बहाना बनाया और बेड से उतर कर कमरे से बाहर चला गया। मैं अपनी उस भाभी को उदास और दुखी कैसे देख सकता था जिनका कुल गुरु की भविष्यवाणी के अनुसार सब कुछ छिन जाने वाला था और जो भाभी इतने बड़े दुःख दर्द को अपने सीने में छुपा कर सबके सामने ज़बरदस्ती मुस्कुराने पर बेबस थीं।

जल्दी ही मैं भाभी के कमरे के पास पहुंच गया। उनके कमरे का दरवाज़ा बंद था। मैंने धड़कते दिल से दरवाज़े को हल्के से खटखटाया लेकिन अंदर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। मैंने फिर से दरवाज़ा खटखटाया और उन्हें आवाज़ भी दी। कुछ ही पलों में दरवाज़ा खुला और मेरी आँखों के सामने भाभी का आंसुओं से तर चेहरा नज़र आया। उनकी ये हालत देख कर मुझे झटका सा लगा और मेरे दिल में एक टीस सी उभरी।

"मुझे इस वक़्त किसी से कोई बात नहीं करनी वैभव।" भाभी ने अपने जज़्बातों को दबाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा_____"भगवान के लिए मुझे इस वक़्त अकेला छोड़ दो।"

"नहीं छोड़ सकता।" मैंने उनकी तरफ देखते हुए गंभीरता से कहा____"मैं अपनी उस भाभी को ऐसे हाल में हर्गिज़ नहीं छोड़ सकता जिसने अपने सीने में इतने बड़े दुःख दर्द को दबा रखा है और जो किसी को अपना दर्द और अपने आंसू नहीं दिखा सकती।"

"मेरे भाग्य में यही सब लिखा है वैभव।" भाभी ने दुखी भाव से कहा____"अब तक किसी तरह खुद को सम्हालते ही रखा था लेकिन आज उस बच्ची को देख कर मैं अपने दर्द को काबू में नहीं रख पाई। वो मासूम सी बच्ची मेरी कोई दुश्मन नहीं है लेकिन जाने क्यों उसे देख कर मेरे दिलो दिमाग़ में एक झंझावात सा उठ खड़ा हुआ और मेरे मन में उस मासूम के प्रति जलन ईर्ष्या और न जाने क्या क्या पैदा हो गई।"

"इसमें आपका कोई दोष नहीं है भाभी।" मैंने अपने हाथों को बढ़ा कर भाभी के आंसू पोंछते हुए कहा____"और मैं ये भी अच्छी तरह जानता हूं कि मेरी महान भाभी किसी के भी प्रति बुरा नहीं सोच सकती हैं। मेरी भाभी तो दुनिया की सबसे महान और सबसे बहादुर भाभी हैं जिनके सीने में भले ही दुःख दर्द भरा हुआ है लेकिन उनके उसी सीने में सबके लिए प्रेम और सबके बारे में भला सोचने की भावना भी प्रबल रूप से मौजूद है।"

"तुम मुझे बहलाने की कोशिश मत करो वैभव।" भाभी ने पलट कर कमरे के अंदर की तरफ जाते हुए कहा____"मुझे थोड़ी देर के लिए अकेले में जी भर के रो लेने दो।"

"आपने उस दिन मुझे वचन दिया था भाभी कि ना तो आप कभी खुद को दुखी करेंगी और ना ही आंसू बहाएंगी।" मैं अंदर उनके क़रीब बढ़ते हुए बोला_____"फिर आज ये सब क्यों? आप अपने ही वचन को कैसे तोड़ सकती हैं?"

"मुझे इसके लिए माफ़ कर दो वैभव।" भाभी ने मेरी तरफ पलट कर दुखी भाव से कहा_____"लेकिन अपने इस दुःख दर्द को बरदास्त कर लेना मेरे अख़्तियार में नहीं है। मैं बहुत कोशिश करती हूं कि मेरा दर्द मुझे कमज़ोर न बना पाए लेकिन हर बार हार जाती हूं मैं।"

"नहीं भाभी आप हारी नहीं हैं।" मैंने उनको उनके कन्धों से पकड़ कर नम्र भाव से कहा____"आप बस थोड़ी सी कमज़ोर पड़ गई हैं। ख़ैर अब चलिए अपने ये आंसू पोंछिए। मुझे अपनी प्यारी सी भाभी की आँखों में ये आंसू बिल्कुल भी अच्छे नहीं लग रहे हैं। मुझे तो बस अपनी भाभी का ये चेहरा आसमान के चाँद की तरह चमकता हुआ और बाग़ के फूलों की तरह खिला हुआ ही चाहिए।"

मेरी बातें सुन कर भाभी मेरी तरफ एकटक देखने लगीं। आंसुओं से भीगी हुई उनकी आँखें समंदर से भी ज़्यादा गहरी थीं। उनको मैंने कभी भी ज़्यादा श्रृंगार वगैरह किए हुए नहीं देखा था। वो बिना श्रृंगार के ही बेहद खूबसूरत लगतीं थी। इस वक़्त जब वो मुझे एकटक देखे जा रहीं थी तो मुझे उनके चेहरे पर किसी छोटी सी बच्ची की तरह मासूमियत नज़र आई। मेरा जी चाहा कि मैं उन्हें खींच कर अपने सीने से छुपका लूं लेकिन फिर ये सोच कर मैंने अपने जज़्बातों को कुचल दिया कि ऐसा करने से कहीं मेरे मन में उनके प्रति ग़लत भावना न जन्म ले ले। बस यहीं तो मात खा जाता था मैं। उनमें गज़ब का आकर्षण महसूस करता था मैं और फिर उनकी तरफ खिंचने लगता था।

"क्या हुआ भाभी?" मैंने जब उन्हें अपनी तरफ एकटक देखते हुए देखा तो धड़कते दिल से पूछ ही बैठा____"आप मुझे ऐसे क्यों देख रही हैं? क्या मैंने कोई ग़लत बात कह दी है आपसे?"

"नहीं वैभव।" मेरी बात सुन कर जैसे उनकी तन्द्रा टूट गई थी, सम्हल कर बोलीं____"तुमने कोई ग़लत बात नहीं कही है। मैं बस ये सोच कर मन ही मन थोड़ा हैरान हूं कि मेरा देवर अपनी भाभी की कितने सुन्दर शब्दों में तारीफ़ की। कहां से सीखी हैं ऐसी सुन्दर बातें? क्या ऐसी ही बातों से तुम गांवों की लड़कियों को फंसाते हो?"

"क्या भाभी, आप तो मेरा मज़ाक उड़ाने लगीं।" मैंने झेंपते हुए कहा___"और मैंने कब की आपकी तारीफ़?"
"ये भी तो एक तरह की तारीफ़ करना ही हुआ न वैभव।" भाभी ने अपने आंसू पोंछते हुए और फीकी सी मुस्कान के साथ कहा_____"कि तुम्हें अपनी इस भाभी का चेहरा आसमान के चाँद की तरह चमकता हुआ और बाग़ के फूलों की तरह खिला हुआ ही चाहिए।"

"हां तो क्या ग़लत कहा मैंने?" मैंने अपने कंधे उचकाते हुए लावरवाही से कहा____"मुझे आपकी रोनी सूरत बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती इस लिए कहा कि मुझे आपका चेहरा वैसा ही चाहिए। वैसे भी, आप ठाकुर वैभव सिंह की भाभी हैं। आप में काफी ऊँचे दर्ज़े की बात होनी चाहिए।"

"अच्छा जी।" भाभी इस बार मुस्कुराए बगैर न रह सकीं थी। उसी मुस्कान में उन्होंने आगे कहा____"पर मुझे तुम्हारी तरह इतने ऊँचे दर्ज़े वाली नहीं बनना। ऊँचा दर्ज़ा तुम्हें ही मुबारक हो।"

"अरे! देख लेना आप।" मैंने गर्व से सीना तानते हुए कहा____"एक दिन ऐसा आएगा जब आप इस हवेली की ठकुराइन बनेंगी और बड़े भैया दादा ठाकुर बनेंगे। तब आपकी शख्सियत ऊँचे दर्ज़े वाली ही होगी और आपका ये तुच्छ देवर आप दोनों के कदमों में बैठ कर आपके हर हुकुम की तामील करेगा।"

"ये सब छोड़ो।" भाभी ने सहसा आँखें दिखाते हुए कहा____"तुमने तुच्छ किसे कहा? ख़बरदार, आज के बाद मेरे देवर को तुच्छ मत कहना। मेरा देवर तो वो शख़्स है जिसके नाम का डंका दूर दूर तक बजता है और जिसकी दहशत गांव के साहूकारों के दिलों में भरी पड़ी है। मेरा देवर तो इस हवेली की शान है वैभव और इस हवेली का होने वाला दादा ठाकुर है।"

रागिनी भाभी ने जिस जोश और जिस अंदाज़ में ये सब कहा था उसे देख कर मैं हैरान रह गया था। उनके चेहरे पर उभर आए भावों को देख कर मैं चकित रह गया था। मुझे पहली बार एहसास हुआ उनके मन में मेरे प्रति कितना स्नेह था। वो मेरे चरित्र को अच्छी तरह जानती थीं इसके बावजूद उनको मेरे बारे में ऐसा सुनना ज़रा सा भी पसंद नहीं आया था। इस एहसास के साथ ही मुझे एक अलग ही ख़ुशी का एहसास हुआ लेकिन मैं वो नहीं चाहता था जो उन्होंने आख़िर में कहा था। इस हवेली के असली उत्तराधिकारी बड़े भैया थे और पिता जी के बाद उन्हें ही दादा ठाकुर का पद मिलना चाहिए।

"अब जो सच है वही तो बोला मैंने।" मैंने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"मैं तो आप दोनों के सामने खुद को तुच्छ ही समझता हूं भाभी।"
"अब तुम मार खाओगे मुझसे।" भाभी ने फिर से मुझे आँखें दिखाई____"मैंने कहा न कि तुम मेरे देवर को तुच्छ नहीं कह सकते। तुम शायद कभी नहीं समझ सकते वैभव कि हमारे दिलों में तुम्हारे लिए कैसी भावना है। ख़ैर छोडो, अब जाओ तुम।"

"ठीक है मैं जा रहा हूं।" मैंने कहा____"लेकिन ख़बरदार अब अगर फिर से मेरी प्यारी भाभी को आपने रुलाया तो।"
"जिसका तुम जैसा प्यारा देवर हो।" भाभी ने आगे बढ़ कर मेरे दाहिने गाल को सहलाते हुए बड़े स्नेह से कहा____"वो ज़्यादा देर तक भला कहां खुद को दुखी रख पाएगी? मुझे बहुत अच्छा लगा वैभव कि तुम मेरे अंदर के दुःख को समझ कर फ़ौरन ही मेरे पीछे यहाँ मुझे सम्हालने के लिए आ गए। मैं भगवान से बस यही दुआ करती हूं कि तुम ऐसे ही हमेशा सबके बारे में सोचो और अपने कर्तव्यों को निभाओ।"

भाभी का प्यार और स्नेह पा कर मैं अंदर ही अंदर बेहद खुश हो गया था। कितनी अच्छी थीं वो और कितना मानती थीं मुझे। एक मैं था जो उन्हें देख कर हमेशा अपना मन ख़राब कर बैठता था। ये सोच कर एकदम से मेरा दिल ग्लानि से भर उठा जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से शांत किया और फिर कमरे से बाहर निकल गया।

ज़िन्दगी में विचित्र सा मोड़ आ गया था जिसने मुझ जैसे इंसान को सच में बदलना शुरू कर दिया था। कहां मैं दूसरों की बहू बेटियों के साथ ऐय्याशियां करता फिरता था और कहां अब एकदम से संजीदा हो गया था। कभी कभी सोचता था कि क्या सच में मैं वही ठाकुर वैभव सिंह हूं या फिर मेरी शक्लो सूरत में कोई और ही मेरे अंदर समां गया है?

अपने कमरे में आया तो देखा कोई नहीं था। मैं समझ गया कि कुसुम उस बच्ची को अपने कमरे में ले गई होगी या फिर नीचे माँ के पास ले गई होगी। ख़ैर मैंने कुछ देर आराम किया और फिर बुलेट ले कर हवेली से बाहर निकल गया। मुझे अपने नए मकान का निर्माण कार्य भी देखना था और वहीं से मुझे मुरारी काका के घर भी जाना था। अनुराधा का चेहरा बार बार आँखों के सामने घूम जाता था। मुझे उसको देखने का बहुत मन कर रहा था। थोड़े ही समय में मेरी बुलेट उस जगह पहुंच गई जहां मेरा नया मकान बन रहा था। भुवन वहीं मौजूद था, मुझे देखते ही उसने मुझे सलाम किया और वहां के कार्य के बारे में बताने लगा। मैंने देखा मकान की दीवारें दरवाज़े के ऊपर तक पहुंच गईं थी। सामने कुएं को पक्का कर दिया गया था और कुछ मिस्त्री चारो तरफ से बाउंड्री वाली दीवारें खड़ी कर रहे थे। भुवन ने बताया जल्दी ही मकान बन कर तैयार हो जाएगा, हालांकि उसकी छपाई में थोड़ा और भी समय लग जाएगा। इस जगह पर कई सारे मिस्त्री थे और ढेर सारे मजदूर जिसकी वजह से मकान का निर्माण कार्य बड़ी तेज़ी से अपने आख़िरी पड़ाव की तरफ बढ़ रहा था।

कुछ देर उधर रुकने के बाद मैं मुरारी काका के घर की तरफ बुलेट ले कर चल पड़ा। मन में अनुराधा को ले कर तरह तरह के ख़याल बुनता हुआ मैं जल्द ही मुरारी के घर पहुंच गया। बुलेट की तेज़ आवाज़ का ही असर था कि घर के दरवाज़े पर जैसे ही मैं पहुंचा तो दरवाज़ा खुल गया। दरवाज़े के पार मुझे वही खड़ी नज़र आई जिसे देखने के लिए मैं आया था। उसे देख कर दिल को एक सुकून सा महसूस हुआ और मेरे होठों पर अनायास ही मुस्कान उभर आई। यही हाल अनुराधा का भी हुआ था। मुझे देखते ही वो हल्के से मुस्कुराई और फिर नज़र नीचे की तरफ कर ली। मुझसे नज़रें मिलाने में वो हमेशा ही झिझकती थी।

"मां घर पर नहीं है।" उसने नज़र नीचे किए ही धीमी आवाज़ में कहा____"वो अनूप को ले कर जगन काका के घर गई है।"

"तो क्या ऐसे में मैं अंदर नहीं आ सकता?" मैंने मुस्कुराते हुए उससे पूछा तो उसने सिर उठा कर मुझे देखा और फिर से नज़र नीचे कर के कहा____"ऐसा तो मैंने नहीं कहा। आप अंदर आ जाइए, माँ को गए हुए काफी देर हो गई है। शायद आती ही होगी।"

अनुराधा कहने के साथ ही दरवाज़े से हट गई थी इस लिए मैं अंदर दाखिल हो गया था। मेरी ये सोच कर दिल की धड़कनें थोड़ा बढ़ गईं थी कि इस वक़्त अनुराधा घर पर अकेली ही है। वो मेरे आ जाने से असहज महसूस करने लगती थी। हालांकि मैंने कभी ऐसा कुछ भी नहीं किया था जिसकी वजह से उसे मुझसे कोई समस्या हो लेकिन इसके बावजूद वो अकेले में मेरे सामने रहने से असहज महसूस करने लगती थी। एकदम छुई मुई सी नज़र आने लगती थी वो।

"बैठिए।" दरवाज़ा बंद कर के अनुराधा ने पलट कर मुझसे कहा____"मैं आपके लिए गुड़ और बताशा ले कर आती हूं।"
"इसकी कोई ज़रूरत नहीं है अनुराधा।" मैंने आँगन में रखी खटिया पर बैठते हुए कहा____"लेकिन हाँ तुम्हारे हाथ का पानी ज़रूर पिऊंगा।"

मेरी बात सुन कर अनुराधा ने सिर हिलाया और कोने में रखे मटके की तरफ जाने लगी। हल्के सुर्ख रंग की कमीज और घाघरा पहन रखा था उसने। गले में दुपट्टा नहीं था। शायद उसे दुपट्टा डालने का ध्यान ही नहीं रहा था। मटके से पानी निकालने के लिए जैसे ही वो झुकी तो कमीज का गला फ़ैल गया और मुझे उसके अंदर उसके सीने के उभार आधे से ज़्यादा दिखने लगे। उन्हें देख कर एकदम से मेरे अंदर हलचल सी मच गई। ये पहली बार था कि मैंने अनुराधा के जिस्म के किसी गुप्त अंग को देखा था। एकाएक मुझे उसको इस तरह से देखना बहुत ही बुरा लगा तो मैंने झट से अपनी नज़रें उसके उभारों से हटा ली। खुद पर ये सोच कर थोड़ा गुस्सा भी आया कि मेरी नज़र क्यों उस मासूम के गुप्त अंगों पर इस तरह चली गई?

"ये लीजिए छोटे ठाकुर।" अनुराधा की आवाज़ से मैं हल्के से चौंका और उसकी तरफ देखा। वो मेरे सामने खड़ी थी। पानी से भरा गिलास उसने मेरी तरफ बढ़ा रखा था। मेरी नज़र पहले गिलास पर पड़ी और फिर ऊपर उठते हुए उसके उस चेहरे पर जिसमें इस वक़्त ढेर साड़ी मासूमियत और झिझक के साथ हल्की शर्म भी विद्यमान थी।

"कैसी हो ठकुराईन?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए हल्के से मुस्कुरा कर कहा तो वो एकदम से चौंक गई और हैरानी से मेरी तरफ देखने लगी, जबकि ऐसा कहने के बाद मैं उसके हाथ से पानी का गिलास ले कर पानी पीने लगा था।

"आ...आपने मुझे ठकुराईन क्यों कहा छोटे ठाकुर?" उसने कांपती हुई आवाज़ में पूछा।
"क्योंकि तुमने मुझे छोटे ठाकुर कहा इस लिए।" मैंने उसके चेहरे की तरफ देखते हुए कहा_____"मैंने उस दिन तुमसे कहा था न कि अगर तुम मुझे छोटे ठाकुर कहोगी तो मैं भी तुम्हें ठकुराईन कहूंगा। अब अगर तुम्हें मेरे द्वारा अपने लिए ठकुराईन सुनना पसंद नहीं आया तो तुम भी मुझे छोटे ठाकुर मत कहो क्योंकि मुझे भी तुम्हारे मुख से अपने लिए छोटे ठाकुर सुनना अच्छा नहीं लगता है।"

"पर आपको तो हर कोई छोटे ठाकुर ही कहता है न।" अनुराधा ने नज़रे नीची किए धीमे स्वर में कहा____"मेरे बाबू जी भी आपको छोटे ठाकुर कहते थे। फिर भला मैं कैसे आपको छोटे ठाकुर न कहूं?"

"हर किसी के कहने में और तुम्हारे कहने में ज़मीन आसमान का फ़र्क है अनुराधा।" मैंने कहा____"मैंने इस घर का नमक खाया है। तुम्हारे हाथों का बना हुआ दुनियां का सबसे स्वादिष्ट भोजन खाया है इस लिए मैं चाहता हूं कि तुम मुझे मेरे नाम से पुकारो। जब तुम मुझे छोटे ठाकुर कहती हो तो मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं तुम सबके लिए कोई ग़ैर हूं जबकि मैं तो इस घर को और इस घर के लोगों को अपना मानता हूं। तुम्हारे बाबू जी भी मेरे कहने पर मुझे वैभव कह कर ही पुकारने लगे थे। काकी भी मुझे मेरे नाम से ही पुकारती है तो फिर तुम क्यों मुझे ग़ैर समझती हो?"

"ऐसी तो कोई बात नहीं है छोटे ठाकुर।" अनुराधा ने बेचैन भाव से कहा____"हम सब भी आपको अपना ही मानते हैं। आपने हमारे लिए जो कुछ किया है वो कोई ग़ैर थोड़े न करता?"

"मैंने इस घर के लिए कोई भी बड़ा काम नहीं किया है अनुराधा।" मैंने उसके झुके हुए चेहरे की तरफ देखते हुए कहा____"बल्कि मैंने तो बस अपना एक मामूली सा फ़र्ज़ निभाने की कोशिश की थी और आगे भी ऐसी कोशिश करता ही रहूंगा। मेरा मन तो ये भी करता है कि मैं इस घर को स्वर्ग बना दूं लेकिन हर चीज़ मेरे चाहने से भला कहां होगी? ख़ास कर तब तो बिल्कुल भी नहीं जब इस घर की बेटी अनुराधा मुझे ग़ैर समझे।"

मेरी बातें सुन कर अनुराधा ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा। उसके मासूम से चेहरे पर उलझन और बेचैनी के भाव गर्दिश कर रहे थे। मेरे सामने अक्सर उसका यही हाल हो जाता था। मैं समझ नहीं पाता था कि आख़िर क्यों वो मेरे सामने इतना असहज हो जाती थी? क्या इस लिए
कि उसको मेरे चरित्र के बारे में पता है और वो कहीं न कहीं ये समझती होगी कि मैं उसे भी अपनी हवस का शिकार बनाना चाहता हूं? उसको रूपचंद्र के द्वारा ये भी पता चल चुका था कि मेरा उसकी अपनी ही माँ के साथ जिस्मानी सम्बन्ध बन चुका है। हालांकि अपनी माँ के बारे में तो उसे बाद में पता चला था लेकिन वो तो पहले से ही मेरे सामने असहज होती आई थी।

"तुम्हें पता है मैं यहाँ क्यों आया हूं?" मैंने उसको ख़ामोशी और बेचैनी से अपनी तरफ देखते हुए देखा तो धड़कते दिल से कह उठा____"सिर्फ तुम्हें देखने के लिए। हाँ अनुराधा, सिर्फ तुम्हें देखने के लिए आया हूं। पांच महीने पहले तक ऐसा कभी नहीं हुआ था कि मुझे कोई लड़की या कोई औरत इस कदर याद आए कि मैं अपने दिल के हाथों मजबूर हो कर उसको देखने चला जाऊं लेकिन इस घर से जुड़ने के बाद बहुत कुछ बदल गया। इस घर ने मुझे मुकम्मल तौर पर बदल दिया, ख़ास कर तुमने अनुराधा। मैंने तुमसे उस दिन भी यही कहा था कि मेरी फितरत बदलने में सबसे बड़ा योगदान तुम्हारा है और इसके लिए मुझे कोई रंज या मलाल नहीं है बल्कि मैं खुश हूं कि तुमने मुझे बदल दिया।"

मेरी बातें सुन कर अनुराधा कुछ न बोली। सिर झुकाए वो चुप चाप आंगन की कच्ची ज़मीन को घूरे जा रही थी। मेरी बातों ने शायद उसे किसी और ही दुनियां में पहुंचा दिया था। इधर मेरे दिल की धड़कनें बढ़ी हुईं थी, ये सोच कर कि कहीं मैंने अपने दिल की बात उसको बता कर ग़लत तो नहीं कर दिया। कहीं अनुराधा ये न सोचने लगे कि मैं उसे यहाँ अकेला देख कर फंसाने की कोशिश कर रहा हूं।

"क्या हुआ? तुम मेरी बात सुन रही हो न?" मैंने उसका ध्यान भंग करने की गरज़ से कहा तो उसने चौंक कर मेरी तरफ देखा। मैं कुछ पलों तक उसके मासूम से चेहरे को देखता रहा फिर बोला_____"आख़िर क्या बात है अनुराधा? तुम हर बार मेरे सामने यूं चुप्पी क्यों साध लेती हो और असहज क्यों हो जाती हो? क्या तुम्हें मुझसे डर लगता है?"

"जी...नहीं तो।" उसने इंकार में सिर हिलाते हुए धीमे स्वर में कहा____"ऐसी तो कोई बात नहीं है?""
"तो फिर खुल कर बताओ अनुराधा।" मैंने ब्यग्रता से कहा____"आख़िर ऐसी क्या बात है कि तुम मेरे सामने हमेशा चुप्पी साध लेती हो और असहज महसूस करने लगती हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम मेरे बारे में ये सोचती हो कि मैं यहाँ पर तुम्हें बाकी लड़कियों की तरह ही अपने जाल में फंसाने के लिए आता हूं?"

मेरी बात सुन कर अनुराधा ने फिर से सिर झुका लिया। कुछ देर पता नहीं वो क्या सोचती रही फिर धीमे से बोली____"मैं आपके बारे में ऐसा कुछ भी नहीं सोचती हूं। मुझे आपके बारे में सारी बातें पता हैं। अगर आपकी नीयत में मुझे अपने जाल में फंसाना ही होता तो क्या मुझे कभी इस बात का एहसास न होता? इतना तो मैं भी समझती हूं कि एक पुरुष किसी के प्रति कैसी नीयत रखे हुए होता है। आप यहाँ इतने समय से आते जाते रहे हैं तो इतने समय में मैंने ऐसा कभी भी महसूस नहीं किया जिससे मुझे ये लगे कि आपके मन में मेरे प्रति कोई बुरी भावना है।"

"ये सब कह कर तुमने मेरे अंदर का बहुत बड़ा बोझ निकाल दिया है अनुराधा।" मैंने ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"मैं नहीं जानता कि तुम्हें मेरी बातों पर यकीन होगा कि नहीं लेकिन सच यही है कि मैं चाहे भले ही कितना भी बुरा इंसान होऊं लेकिन तुम्हारे बारे में ज़रा सा भी ग़लत नहीं सोच सकता। जैसे तुम मुरारी काका का गुरूर और अभिमान थी वैसे ही अब तुम मेरा भी गुरूर बन चुकी हो। मुझे ये कहने में अब कोई संकोच नहीं है कि तुम्हारे प्रति मेरे दिल में बेहद ही ख़ास जगह बन गई है। अगर तुम मानती हो कि मेरी नीयत तुम्हारे लिए ग़लत नहीं है तो तुम बेझिझक हो कर मुझसे बातें करो। तुम्हारे मन में जो कुछ भी कहने का विचार उठे वो कहो और हाँ मुझे मेरे नाम से पुकारो।"

अनुराधा मेरी बातें सुन कर हैरान थी। एकटक मुझे ही देखे जा रही थी। उसके मासूम से चेहरे पर कई तरह के भाव आते जाते नज़र आ रहे थे। उसके सुर्ख होठ हल्के हल्के काँप रहे थे। ऐसा लगता था जैसे वो कुछ कहना चाहती हो लेकिन हिम्मत न जुटा पा रही हो।

"कुछ तो बोलो ठकुराईन।" मैंने मज़ाकिया लहजे में जब ये कहा तो वो चौंकी और इस बार मुझे घूरते हुए उसने कहा____"अगर आप ऐसे मुझे इस नाम से पुकारेंगे तो मैं आपसे बिल्कुल भी बात नहीं करुंगी।"

"बात तो तुम्हें मुझसे करनी ही पड़ेगी ठकुराईन।" मैंने उसी मज़ाकिया लहजे में मुस्कुराते हुए कहा____"और अगर नहीं करोगी तो मैं काकी को सब कुछ बता दूंगा।"
"क्..क्या मतलब?" वो बुरी तरह चौंकी। आँखें फैला कर बोली____"आप क्या बता देंगे माँ को?"

"यही कि तुमने मुझे सिर्फ पानी पिलाया और खाने का पूछा ही नहीं।" मैंने उसे घबराए हुए देखा तो बात को बदलते हुए कहा____"कोई अपने घर आए मेहमान के साथ इतना बड़ा अत्याचार करता है भला?"

"क्या आपको भूख लगी है??" अनुराधा एकदम से चिंतित भाव से बोली____"आप बैठिए मैं आपके लिए ताज़ा खाना तैयार करती हूं।"
"कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने कहा_____"मैं बिना खाए ही चला जाऊंगा यहाँ से। अगली बार जब काकी मिलेगी तो बताऊंगा उससे कि तुमने मुझे भूखा ही जाने दिया था।"

"अरे! आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?" अनुराधा ने बुरी तरह घबराए हुए लहजे में कहा____"मैं आपके लिए खाना बनाने जा तो रही हूं न। आप खाना खा के ही जाइएगा। माँ को अगर ये बात पता चलेगी तो वो मुझे बहुत डांटेगी।"

"कोई तुम्हें डांट के तो दिखाए।" मैंने उसके घबराए हुए चेहरे की तरफ देखते हुए कहा____"मैं पलट झपकते ही खून न कर दूंगा उसका।"

"ये...ये क्या कह रहे हैं आप??" अनुराधा एक बार फिर से बुरी तरह चौंक पड़ी थी। इस वक़्त वो जिस तरह से घबराई हुई और परेशान सी नज़र आ रही थी उससे वो मुझे बहुत ही प्यारी लग रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर मैं कहना क्या चाहता हूं?

"अरे! मैं तो तुमसे मज़ाक कर रहा था यार।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"तुम तो मेरी इतनी सी बात पर ही बुरी तरह घबरा गई। इतना क्यों डरती हो काकी से? क्या वो सच में तुम्हें बहुत डांटती है?"

अनुराधा मेरी बात सुन कर हल्के से मुस्कुराई फिर सिर झुका कर न में सिर हिलाया। उसके चेहरे पर राहत के भाव उभर आए थे। मैं उससे बहुत कुछ कहना चाहता था और उससे बहुत सारी बातें करना चाहता था लेकिन कुछ बातें ऐसी थी जिन्हें कहने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी।

"तो अब जाने की आज्ञा दो ठकुराईन।" मैंने उसे छेड़ने वाले अंदाज़ से कहा तो उसने झट से मेरी तरफ देखा। चेहरे पर नाराज़गी के भाव उभर आए उसके, बोली___"आपने फिर मुझे ठकुराईन कहा?"

"तुम मुझे मेरे नाम से पुकारो तो मैं भी तुम्हें ठकुराइन कहना बंद कर दूंगा।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"अभी तो मैं अकेले में ही तुम्हें ठकुराईन कह रहा हूं लेकिन अब से काकी के सामने भी मैं तुम्हें ठकुराईन कहूंगा।"

"आप क्यों तंग कर रहे हैं मुझे?" अनुराधा ने बेचैन भाव से कहा____"मां के सामने कहेंगे तो वो क्या सोचेगी मेरे बारे में?"
"सोचने वाले तो बहुत कुछ सोच लेते हैं।" मैंने अर्थपूर्ण लहजे में कहा____"सम्भव है काकी भी बहुत कुछ सोच बैठे। अब ये तुम पर है कि तुम क्या चाहती हो या फिर क्या करना चाहती हो।"

अनुराधा के चेहरे पर चिंता और परेशानी के भाव उभर आये थे। वो एकटक मुझे ही देखे जा रही थी। मुझे उसको यूं सताने में बड़ा मज़ा आ रहा था। हालांकि थोड़ा बुरा भी लग रहा क्योंकि मैं उस मासूम को बेवजह ही सता रहा था लेकिन मैं चाहता था कि वो मुझसे खुल जाए और मुझे मेरे नाम से ही पुकारे।

"अच्छा चलता हूं अब।" मैंने चारपाई से उठते हुए कहा____"कल सुबह फिर आऊंगा और काकी के सामने तुम्हें ठकुराईन कह कर पुकारुंगा। ठीक है न?"

"नहीं न।" उसने रो देने वाले भाव से कहा____"भगवान के लिए ऐसा मत कीजिएगा। अगर आप यही चाहते हैं कि मैं आपको आपके नाम से ही पुकारूं तो ठीक है। मैं अब से ऐसा ही करुंगी।"

"तो फिर एक बार मेरा नाम ले कर पुकारो मुझे।" मैं अंदर ही अंदर खुश होते हुए झट से बोल पड़ा था____"मैं तो जाने कब से ये देखना चाहता था कि जब तुम मेरा नाम लोगी तो वो नाम कैसा लगेगा और मुझे कैसा महसूस होगा?"

अनुराधा बेचैनी से मेरी तरफ देख रही थी। उसके माथे पर पसीना झिलमिला रहा था। अपने हाथों की उंगलियों को वो आपस में उमेठ रही थी। उसकी शक्ल पर उभरे हुए भाव बता रहे थे कि इस वक़्त वो अंदर ही अंदर किस द्वंद्व से जूझ रही थी।

"बोलो भी जल्दी।" मुझसे रहा न गया तो मैं बोल ही पड़ा___"इतना क्या सोच रही हो अब?"
"व...वैभव जी।" उसने कांपती आवाज़ में लेकिन धीरे से मेरा नाम लिया।

"वैभव..जी.??" मैंने सुनते ही आँखें फैला कर कहा____"सिर्फ वैभव कहो न। मेरे नाम के आगे जी क्यों लगा रही हो तुम?"
"इस तरह मुझसे नहीं कहा जाएगा वैभव जी।" अनुराधा ने अपनी उसी कांपती आवाज़ में कहा____"कृपया मुझे और मजबूर मत कीजिए। मेरे लिए तो आपका नाम लेना ही बड़ा मुश्किल काम है।"

"अच्छा चलो कोई बात नहीं।" मैंने भी उसे ज़्यादा मजबूर करना ठीक नहीं समझा____"वैसे तुम्हारे मुख से अपना नाम सुन कर मुझे बहुत ही अच्छा लगा। अब से तुम मुझे मेरे नाम से ही पुकारोगी। सिर्फ अकेले में ही नहीं बल्कि सबके सामने भी। इसके लिए अगर तुम्हें कोई कुछ कहेगा तो मैं देख लूंगा उसे।"

मेरी बात सुन कर अनुराधा बस मुस्कुरा कर रह गई। अब वो सामान्य हो गई थी और पहले की अपेक्षा उसके चेहरे में एक अलग ही चमक दिखने लगी थी। मेरा मन तो उससे बहुत सारी बातें करने का कर रहा था लेकिन वक़्त ज़्यादा हो गया था। हम दोनों ही अकेले थे और अगर इस वक़्त उसके गांव का कोई ब्यक्ति यहाँ आ जाता तो निश्चय ही वो हमारे बारे में ग़लत सोच लेता जो कि हम दोनों के लिए ही ठीक नहीं होता।

मैंने अनुराधा से कहा कि मैं कल का खाना यही खाऊंगा, वो भी उसके हाथ का बना हुआ। मेरी बात सुन कर अनुराधा ने मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया। उसके बाद मैं ख़ुशी ख़ुशी घर से बाहर निकल गया। अनुराधा मेरे पीछे पीछे दरवाज़े तक आई। मैंने जब बुलेट में बैठ कर उसकी तरफ देखा तो हमारी नज़रें आपस में मिल ग‌ईं। मैं उसे देख कर मुस्कुराया तो उसके होठों पर भी शर्म मिश्रित हल्की मुस्कान उभर आई। उसके बाद मैंने बुलेट को आगे बढ़ा दिया। तेज़ आवाज़ करती हुई बुलेट कच्ची पगडण्डी पर दौड़ी चली जा रही थी। सारे रास्ते मैं अनुराधा के बारे में ही सोचता रहा। उसके साथ हुई हमारी बातों के बारे में सोचता रहा। आज उससे बातें कर के एक अलग ही तरह का एहसास हो रहा था मुझे।
 
अध्याय - 38
━━━━━━༻♥༺━━━━━━


अब तक....

मैंने अनुराधा से कहा कि मैं कल का खाना यही खाऊंगा, वो भी उसके हाथ का बना हुआ। मेरी बात सुन कर अनुराधा ने मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया। उसके बाद मैं ख़ुशी ख़ुशी घर से बाहर निकल गया। अनुराधा मेरे पीछे पीछे दरवाज़े तक आई। मैंने जब बुलेट में बैठ कर उसकी तरफ देखा तो हमारी नज़रें आपस में मिल ग‌ईं। मैं उसे देख कर मुस्कुराया तो उसके होठों पर भी शर्म मिश्रित हल्की मुस्कान उभर आई। उसके बाद मैंने बुलेट को आगे बढ़ा दिया। तेज़ आवाज़ करती हुई बुलेट कच्ची पगडण्डी पर दौड़ी चली जा रही थी। सारे रास्ते मैं अनुराधा के बारे में ही सोचता रहा। उसके साथ हुई हमारी बातों के बारे में सोचता रहा। आज उससे बातें कर के एक अलग ही तरह का एहसास हो रहा था मुझे।

अब आगे....

मैं जब मुंशी चंद्रकांत के घर के पास पहुंचा तो मुझे अचानक रजनी का ख़याल आया। उसे तो मैं जैसे भूल ही गया था। मुझे याद आया कि कैसे उस दिन वो रूपचंद्र से चुदवा रही थी। साली रांड मेरे पीठ पीछे उसका लंड भी गपक रही थी। मैंने बुलेट को मुंशी के घर की तरफ मोड़ा और खाली जगह पर खड़ी कर दिया। बुलेट की तेज़ आवाज़ शायद घर के अंदर तक गई थी इस लिए जैसे ही मैं दरवाज़े की कुण्डी को पकड़ कर खटखटाना चाहा वैसे ही दरवाज़ा खुल गया। मेरी नज़र दरवाज़ा खोलने वाली रजनी पर पड़ी। उसे देखते ही मेरे अंदर गुस्सा और नफरत दोनों ही उभर आई, लेकिन मैंने ज़ाहिर नहीं होने दिया।

"छो..छोटे ठाकुर आप?" उसने धीमे स्वर में हकला कर मुझसे कहा तो मैंने सपाट लहजे में कहा____"क्यों क्या मैं यहाँ नहीं आ सकता?"
"न...नहीं ऐसा तो मैंने नहीं कहा आपसे।" वो एकदम से बौखला गई थी_____"आइए अंदर आइए।"

वो दरवाज़े से हटी तो मैं अंदर दाखिल हो गया। सहसा मेरी नज़र उसके चेहरे पर फिर से पड़ी तो मैंने देखा वो कुछ परेशान सी नज़र आ रही थी और साथ ही चेहरे का रंग भी उड़ा हुआ दिखा। मुझे उसकी ये हालत देख कर उस पर शंका हुई। ज़हन में एक ही ख़याल उभरा कि कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं है?

"मुंशी जी कहां हैं?" मैंने उसकी तरफ ही गौर से देखते हुए पुछा।
"ससुर जी हवेली गए हैं।" रजनी ने खुद को सम्हालते हुए संतुलित लहजे में कहा____"और माँ की तबियत ख़राब थी तो ये (उसका पति रघु) उन्हें ले कर वैद जी के पास गए हैं।"

रजनी आज मुझे अलग ही तरह से नज़र आ रही थी। उसके चेहरे पर परेशानी के भाव अभी भी कायम थे। माथे पर पसीना झिलमिला रहा था। वो बार बार बेचैनी से अपने हाथों की उंगलियों को आपस में उमेठ रही थी। मैं समझ चुका था कि भारी गड़बड़ है। वो इस वक़्त घर में अकेली है और निश्चय की अंदर उसके साथ कोई ऐसा है जिसके साथ वो अपनी गांड मरवाने वाली थी लेकिन मेरे आ जाने से उसका काम ख़राब हो गया था।

"क्या हुआ तू इतनी परेशान क्यों दिख रही है?" मैंने उसको देखते हुए उससे पूछा____"सब ठीक तो है न?"
"जी...जी हाँ छोटे ठाकुर।" वो एकदम से चौंकी थी और फिर हकलाते हुए बोली____"स..सब कुछ ठीक है।"

"पर मुझे तो कुछ और ही लग रहा है।" मैंने उसकी हालत ख़राब करने के इरादे से कहा____"लगता है अपनी सास को अपने मरद के साथ भेज कर इधर तेरी भी तबियत ख़राब हो गई है। चल अंदर आ, तेरा इलाज़ करता हूं मैं।"

मेरी बात सुनते ही रजनी की मानो अम्मा मर गई। चेहरे पर जो पहले से ही परेशानी और बेचैनी थी उसमें पलक झपकते ही इज़ाफ़ा हो गया। वो मेरी तरफ ऐसे देखने लगी थी जैसे मैं अचानक ही किसी जिन्न में बदल गया होऊं।

"य...ये क्या कह रहे हैं छोटे ठाकुर?" फिर वो खुद को किसी तरह सम्हालते हुए बोल पड़ी____"मुझे भला क्या हुआ है? मैं तो एकदम ठीक हूं, हाँ थोड़ा सिर ज़रूर दुःख रहा है।"

मैं समझ चुका था कि उसके साथ कुछ तो भारी गड़बड़ ज़रूर है लेकिन क्या, ये देखना चाहता था मैं। इस लिए उसकी बात सुन कर मैं उसको बिना कोई जवाब दिए अंदर की तरफ चल पड़ा। मुझे अंदर की तरफ जाते देख वो और भी बुरी तरह बौखला गई। डर और घबराहट के मारे उसका बुरा हाल हो गया लेकिन उसकी बिवसता ये थी कि वो मुझे अंदर जाने से रोक भी नहीं सकती थी। ख़ैर जल्दी ही मैं अंदर आँगन में पहुंच गया।

आंगन में एक तरफ एक खटिया बिछी हुई थी लेकिन वो खाली थी। मैंने आस पास नज़र घुमाई पर कोई न दिखा। तभी मेरे पीछे पीछे रजनी भी आ गई। उसके चेहरे पर अभी भी डर और घबराहट के भाव तांडव सा करते दिख रहे थे। रजनी की जो हालत थी उससे मुझे यकीन हो चुका था कि वो मुझसे कोई बड़ी बात छुपाना चाहती थी। मेरी नज़रें हर तरफ घूम रहीं थी कि तभी सहसा मुझे कुछ दिखा। कुछ दूरी पर बने दो कमरों में से एक का दरवाज़ा हल्का सा खुला हुआ था और वो कुछ पल मुझे हिलता सा प्रतीत हुआ था। मेरी नज़रें उसी जगह पर जम ग‌ईं। मुझे उस तरफ देखते देख रजनी और भी घबरा गई।

"अरे! खड़ी क्या है?" मैंने पलट कर रजनी से शख़्त लहजे में कहा____"घर आए इंसान से जल पान का भी नहीं पूछेगी क्या?"
"जी...जी माफ़ करना छोटे ठाकुर।" रजनी बुरी तरह हड़बड़ा कर बोली____"आप खटिया पर बैठिए मैं अभी आपके लिए पानी लाती हूं।"

रजनी दूसरी तरफ रखे मटके की तरफ तेज़ी से बढ़ी और इधर मैं उस कमरे की तरफ जिस कमरे का दरवाज़ा हल्का सा खुला हुआ था और थोड़ा सा हिलता प्रतीत हुआ था मुझे। रजनी को कुछ महसूस हुआ तो उसने पलट कर मेरी तरफ देखा। मुझे उस कमरे की तरफ जाता देख वो बुरी तरह घबरा गई। मारे दहशत के उसके माथे पर पसीना उभर आया। पलक झपकते ही उसकी हालत ऐसी हो गई मानो काटो तो खून नहीं। उसके होठ कुछ कहने के लिए खुले तो ज़रूर मगर आवाज़ न निकल सकी। मटके से पानी निकालना भूल गई थी वो।

मैं दरवाज़े के पास पहुंचा और एक झटके से उसे खोल कर अंदर दाखिल हो गया। अंदर दरवाज़े के अगल बगल मैंने निगाह घुमाई तो दाएं तरफ मुझे रूपचन्द्र छुपा खड़ा नज़र आया। मुझ पर नज़र पड़ते ही वो बेजान सा खड़ा रह गया था। मारे डर के उसका चेहरा पीला ज़र्द पड़ गया था। उसकी हालत देख कर मैं मन ही मन मुस्कुराया लेकिन क्योंकि अब उससे और उसके पूरे परिवार वालों से मैंने अपने अच्छे सम्बन्ध बना लिए इस लिए ऐसे वक़्त में उससे कुछ उल्टा सीधा कहना मैंने ठीक नहीं समझा।

"रुपचंद्र तुम, यहाँ??" उसे देख कर मैंने बुरी तरह चौकने का नाटक किया और फिर हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"क्या बात है, लगता है रजनी को पेलने आए थे यहाँ लेकिन मैंने तुम्हारा काम ख़राब कर दिया, है ना?"

"ये...ये क्या कह रहे हो वैभव?" रूपचंद्र बुरी तरह हकलाते हुए बोला____"मैं तो यहाँ ब....।"
"अरे! यार मुझसे डरने की कोई ज़रूरत नहीं है तुम्हें।" मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा____"अब तो तुम मेरे छोटे भाई भी हो और दोस्त भी। वैसे मुझे पहले से ही पता है कि तुम्हारा और रजनी का जिस्मानी सम्बन्ध है। ख़ैर मुझे तुम्हारे इस सम्बन्ध से कोई ऐतराज़ नहीं है और ना ही मैं किसी को बताऊंगा कि तुम्हारा मुंशी की बहू से ऐसा रिश्ता है।"

"क्...क्या तुम सच कह रहे हो वैभव?" रूपचंद्र के चेहरे पर राहत के साथ साथ आश्चर्य के भाव उभरे____"क्या सच में तुम्हें इससे कोई आपत्ति नहीं है?"

"अब कितनी बार तुमसे कहूं भाई?" मैंने मुस्कुरा कर कहा____"ये सब तुम दोनों की रज़ामंदी से हो रहा है तो किसी को इससे क्या समस्या होगी भला? वैसे, तुम्हें पता है मैं भी उस रजनी को दबा के पेलता हूं। साली बड़ी चुदक्कड़ है। हुमच हुमच के चुदवाती है। एक काम करते हैं, चलो हम दोनों मिल के आज उसकी मस्त पेलाई करते है।"

मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुझे इस तरह देखने लगा था जैसे मेरे चेहरे पर अचानक ही उसे आगरे का ताजमहल नज़र आने लगा हो। मैं समझ सकता था कि मौजूदा परिस्थिति में उसका मुझ पर यकीन कर पाना संभव नहीं था लेकिन सच तो उसकी आँखें खुद ही देख रहीं थी और कान सुन रहे थे।

मैं रूपचंद्र को कंधे से पकड़ कर कमरे से बाहर ले आया। मुझे रूपचन्द्र को इस तरह साथ लिए आते देख रजनी एकदम से बुत बन गई थी। भाड़ की तरह मुँह खुला रह गया था। जिस तरह कुछ देर पहले रूपचंद्र का चेहरा मारे डर के पीला पड़ गया था उसी तरह अब रजनी का पीला पड़ गया था।

"इतना लम्बा मुँह क्यों फाड़ लिया अभी से?" मैंने रजनी को होश में लाने की गरज़ से कहा____"पहले हम दोनों के कपड़े तो उतार। उसके बाद हम दोनों तेरे हर छेंद में अपना लंड डालेंगे, क्यों रूपचंद्र?"

मैंने आख़िरी वाक्य रूपचंद्र को देख कर कहा तो वो एकदम से हड़बड़ा गया और फिर खुद को सम्हालते हुए ज़बरदस्ती मुस्कुरा कर बोला____"हां हाँ क्यों नहीं भाई।"

उधर रजनी को काटो तो खून नहीं। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि उसकी आँखें क्या देख रहीं थी और कान क्या सुन रहे थे। उसे तो शायद ये लगा था कि आज मैं उसकी और रूपचंद्र की मस्त गांड तोड़ाई करुंगा लेकिन अब जो होने जा रहा था उसकी तो उसे ख़्वाब में भी उम्मीद नहीं थी। बड़ी मुश्किल से उसे होश आया और उसके ज्ञान चच्छू जागे।

मैं जानता था कि हमारे पास समय नहीं है क्योंकि कोई भी यहाँ आ सकता था। मेरी बुलेट भी बाहर ही खड़ी थी और उसे देख कर किसी के भी मन में मुंशी के घर में आने का विचार आ सकता था इस लिए मैंने इस काम को फटाफट करने का सोचा। रजनी को शख़्त लहजे में बोला कि वो पूरी तरह नंगी हो जाए। मेरे कहने पर वो पहले तो झिझकी क्योंकि रूपचंद्र सामने था लेकिन मेरे आगे भला कहां उसकी चलने वाली थी। इस लिए जल्दी ही उसने अपना साड़ी ब्लाउज उतार दिया। रांड ने अंदर ना तो कच्छी पहन रखी थी और ना ही ब्रा। उसकी बड़ी बड़ी छातियां आँगन में आ रही धूप में चमक रहीं थी। जांघों के बीच उसकी चूत घने बालों में छुपी हुई थी। मेरी वजह से जहां रूपचंद्र को ये आलम थोड़ा असहज महसूस करा था वहीं रजनी का भी यही हाल था। वो अपनी छातियों और चूत को छुपाने का प्रयास कर रही थी।

"देखा रूपचंद्र।" मैंने रूपचंद्र को रजनी की तरफ इशारा करते हुए कहा____"ये रांड कितना करारा माल लग रही है। क्या लगता है तुझे, इसकी ये बड़ी बड़ी छातियां कितने लोगों की मेहनत का नतीजा होंगी?"

"म..मैं भला क्या बताऊं वैभव?" रूपचंद्र झिझकते हुए धीमी आवाज़ में बोला तो मैंने उससे कहा____"लगता है तू अभी भी मुझसे डर रहा है यार, जबकि अब हमारे बीच ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। अब से हम दोनों पक्के वाले यार हैं और जो कुछ करेंगे साथ ही करेंगे, क्या बोलता है?"

रूपचंद्र मेरी तरफ अपलक देखने लगा। शायद वो मेरे चेहरे के भावों को पढ़ कर ये समझने की कोशिश कर रहा था कि इस वक़्त मैं उससे जो कुछ कह रहा हूं उसके पीछे कितना सच है?

"हद है यार।" मैंने खीझने का नाटक किया____"तुझे अब भी मुझ पर यकीन नहीं हुआ है?"
"नहीं ऐसी बात नहीं है वैभव।" फिर उसने गहरी सांस लेते हुए कहा____"बात ये है कि हमारे बीच इतना जल्दी सब कुछ बदल गया है तो उसे मैं इतना जल्दी हजम नहीं कर पा रहा हूं।"

"अरे! तो पगले इसी लिए तो मैं कह रहा हूं कि हम दोनों मिल के इस रांड को पेलेंगे।" मैंने उसके दोनों कन्धों पर हाथ रख कर समझाते हुए कहा____"जब हम दोनों साथ मिल कर इसके साथ पेलम पिलाई करेंगे तो हमारे बीच सब कुछ खुल्लम खुल्ला वाली बात हो जाएगी। फिर न तुझे मुझसे झिझकने की ज़रूरत होगी और ना इस रांड को।"

रूपचंद्र को देर से ही सही लेकिन मैंने आस्वस्त कर दिया था। उसके बाद मेरे कहने पर रजनी ने फ़ौरन ही हम दोनों के कपड़े उतारे। रूपचंद्र नंगा हो जाने के बाद मेरे सामने थोड़ा शरमा रहा था। अपना मुरझाया हुआ लंड वो अपने ही हाथ से छुपाने की कोशिश कर रहा था जबकि मैं आराम से खड़ा था।

"चल अब पहले रूपचंद्र का लंड मुँह में ले कर चूस।" मैंने रजनी से कहा____"और हाँ थोड़ा जल्दी करना क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी के आ जाने से हमारा ये खेल ख़राब हो जाए।"

रजनी मरती क्या न करती वाली हालत में थी। उसे तो अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि ये सब आज हो क्या रहा है। उसने घुटनों के बल बैठ कर रूपचंद्र के मुरझाए हुए लंड को पकड़ा तो रूपचंद्र की सिसकी निकल गई। रजनी उसके लंड को पकड़ कर सहलाने लगी जिससे रूपचंद्र को धीरे धीरे आनंद आने लगा और उसने अपनी आँखें बंद कर ली। इधर मैं खुद ही अपने हाथ से अपने लंड को सहला रहा था। कुछ ही देर में रूपचन्द्र का लंड अपने अकार में आ गया। मैंने पहली बार उसके लंड पर नज़र डाली तो ये देख कर मन ही मन हँसा कि इसका तो मेरे लंड का आधा भी नहीं है।

रजनी रूपचंद्र के लंड को मुँह में ले कर चूस रही थी और रूपचंद्र मज़े में उसके सिर को थामे अपनी कमर हिलाए जा रहा था। रजनी अपने सिर को आगे पीछे कर के उसका लंड चूस रही थी। हिलने से उसकी बड़ी बड़ी चूंचियां भी हिल रहीं थी।

"चल अब क्या उसे ऐसे ही झड़ा देगी रांड?" मैंने रजनी से कहा तो दोनों को होश आया। रजनी ने उसका लंड अपने मुख से निकाल कर मेरी तरफ देखा।
"अब इसे भी अपने मुँह में ले कर चूस।" मैंने कहा_____"उसके बाद तेरी पेलाई शुरू करते हैं हम दोनों।"

रजनी चुप चाप मेरी तरफ सरकी और मेरे लंड को पकड़ कर सहलाने लगी। मैंने रूपचंद्र की तरफ देखा। वो आँखें फाड़े मेरे लंड को देख रहा था। मैं मन ही मन मुस्कुराया लेकिन लंड के बारे में उससे कुछ कहना ठीक नहीं समझा क्योंकि ऐसे में वो अपनी कमी महसूस करता। रजनी कुछ पलों तक मेरा लंड सहलाती रही उसके बाद उसने मेरे लंड को मुँह में भर लिया। उसका गरम मुख जैसे ही मेरे लंड के टोपे पर लगा तो मैंने उसकी तरफ देखा। मेरा लंड अभी अपने पूरे अकार में नहीं आया था इस लिए उसे अभी कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। मैंने रजनी के सिर को दोनों हाथों से पकड़ा और उसे अपने लंड की तरफ खींचने लगा। मेरा आधे से ज़्यादा लंड रजनी के मुँह में समां गया जिससे रजनी को झटका लगा और वो मेरी जाँघों को पकड़ कर ज़ोर लगाने लगी। एक तो रजनी के ऊपर पहले से ही मुझे गुस्सा था ऊपर से आज वो फिर से रूपचंद्र से चुदवाने जा रही थी इस लिए मेरे मन में अब उसे ऐसे ही सज़ा देने का ख़याल उभर आया था।

कुछ ही देर में रजनी की हालत ख़राब हो गई। मेरा लंड अपने पूरे आकार में आ चुका था और मैं मजबूती से उसके सिर को पकड़े उसके मुँह में अपने लंड को पेले जा रहा था। आँगन में रजनी के मुँह से निकलने वाली गूं गूं की आवाज़ें गूंजने लगीं थी। रूपचंद्र आश्चर्य से आँखें फाड़े कभी रजनी की हालत को देखता तो कभी मुझे। इधर मुझे रजनी को इस तरह पेलने में बड़ा मज़ा आ रहा था। जब मैंने देखा कि रजनी की आँखों से आंसू निकलने लगे हैं तो मैंने उसे छोड़ दिया। मुँह से लंड निकलते ही रजनी बुरी तरह खांसने लगी। उसके साँसें बुरी तरह उखड़ ग‌ईं थी। उसके थूक और लार से सना हुआ मेरा लंड धूप में अलग ही चमक रहा था। रूपचंद्र मेरे मोटे और लम्बे लंड को देख कर मानो सकते में आ गया था।

"छो...छोटे ठाकुर...खौं खौं...छोटे ठाकुर।" रजनी अपनी उखड़ी साँसों को सम्हालते हुए और खांसते हुए बोली____"आपने तो मेरी जान ही ले ली थी।"
"चिंता मत कर।" मैंने कहा_____"लंड लेने से कोई नहीं मरता, ख़ास कर तेरे जैसी रांड तो बिल्कुल भी नहीं।"

मैंने रूपचंद्र को आँगन में लेटने के लिए कहा तो उसने न समझने वाले भाव से मेरी तरफ देखा। मैंने उसे समझाया कि वो ज़मीन पर सीधा लेट जाए ताकि रजनी उसकी तरफ अपनी पीठ कर के उसके ऊपर लेट जाए। नीचे से वो रजनी की गांड में अपना लंड डाले और उसके बाद मैं ऊपर से रजनी की चूत में अपना लंड डाल कर उसकी चुदाई करुंगा। सारी बात समझ में आते ही रूपचंद्र झट से ज़मीन पर लेट गया। मैंने रजनी को इशारा किया तो वो रूपचंद्र के ऊपर अपनी पीठ कर के लेट गई। घुटनों को उसने ज़मीन पर टिका लिया था और दोनों हाथों को पीछे रूपचंद्र के सीने में। उसके लेटते ही रूपचंद्र ने नीचे से अपने लंड को रजनी की गांड में डाल दिया और फिर अपनी कमर को हिलाने लगा।

खिली धूप में वो दोनों इस आसान में अलग ही नज़ारा पेश कर रहे थे। रजनी की गोरी गोरी लेकिन भारी छातियां रूपचंद्र के धक्के लगाने से हिल रहीं थी। रजनी मुझे ही देख रही थी। मैं वक़्त को बर्बाद न करते हुए आगे बढ़ा और रजनी के ऊपर आसान ज़माने लगा। एक हाथ से अपने लंड को पकड़ कर मैंने रजनी की बालों से भरी चूत पर टिकाया और ज़ोर का झटका दिया जिससे रजनी उछल गई और नीचे उसकी गांड से रूपचंद्र का लंड निकल गया। रूपचंद्र ने जल्दी से अपने लंड को पकड़ कर उसकी गांड में डाला और धीरे धीरे धक्के लगाने लगा। इधर मैं अपने दोनों हाथ ज़मीन पर टिकाए तेज़ तेज़ कमर हिलाने लगा था। रजनी की पानी बहाती चूत पर मेरा लंड सटासट अंदर बाहर हो रहा था जिससे अब रजनी की सिसकियां और दर्द में डूबी आहें निकलने लगीं थी।

रजनी के लिए शायद ये पहली बार था जब वो दो दो लंड एक ही बार में अपनी चूत और गांड में ले रही थी। जल्दी ही वो मस्ती में आ गई और ज़ोर ज़ोर आहें भरने लगी। नीचे से रूपचंद्र अपना पिछवाड़ा उठा उठा कर रजनी की गांड में अपना लंड डाल रहा था और ऊपर से मैं रजनी की चूत को पेले जा रहा था। कुछ देर तक तो गज़ब का रिदम बना रहा लेकिन फिर रूपचंद्र हिच्च बोल गया। वो कहने लगा कि नीचे से कमर उठा उठा कर रजनी की गांड मारने से उसकी कमर दुखने लगी है इस लिए अब वो ऊपर आना चाहता है। मैंने भी सोचा चलो उसकी ही इच्छा पूरी कर देते हैं। जल्दी ही हमने अपना अपना आसन बदला। अब रूपचंद्र की जगह मैं रजनी के नीचे था और रूपचंद्र मेरी जगह पर। एक बार फिर से चुदाई का खेल शुरू हो गया। बीच में फंसी रजनी आँखें बंद किए अलग ही दुनिया में खो गई थी। वो ज़ोर से चिल्ला उठती थी जिससे मुझे उसको कहना पड़ता था कि साली रांड पूरे गांव को घर बुला लेगी क्या।

क़रीब दस मिनट भी न हुआ था कि रूपचंद्र बुरी तरह आहें भरते हुए रजनी की चूत में झड़ गया और उसके ऊपर पसर कर बुरी तरह हांफने लगा।

"क्या हुआ रूपचंद्र जी?" रजनी ने हांफते हुए किन्तु हल्की मुस्कान में कहा____"इतने में ही दम निकल गया तुम्हारा?"
"साली कुतिया।" रूपचंद्र उसके ऊपर से उठते हुए बोला____"मेरा दम निकल गया तो क्या हुआ, मेरा दोस्त तो लगा हुआ है न?"

"छोटे ठाकुर तो अपने दम पर लगे हुए हैं।" रजनी ने आहें भरते हुए कहा____"मैं तुम्हारी बात कर रही हूं। क्या तुम में भी छोटे ठाकुर जितना दम है?"

"साली रांड ये क्या बकवास कर रही है?" मैंने उसे अपने ऊपर से हटाते हुए कहा____"रुक अभी बताता हूं तुझे।"
"इस बुरचोदी की गांड फाड़ दो वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार आवेश में आ कर कहा_____"इसके अंदर बहुत गर्मी भरी हुई है।"

मैंने रजनी को खटिया की बाट पर हाथ रख कर झुकने को कहा तो वो झुक गई। पीछे उसकी गांड उभर कर आ गई थी। मैंने जल्दी जल्दी चार पांच थप्पड़ उसकी गांड पर मारे जिससे वो दर्द से सिहर उठी। उसके बाद मैंने उसकी गांड को फैला कर अपने लंड को उसकी गांड के छेंद पर टिकाया और एक ही झटके में पूरा डाल दिया।

"आह्ह्ह्ह मररर गईईईई मां।" रजनी की दर्द भरी चीख फ़िज़ा में गूँज गई____"धीरे से डालिए...आह्ह्ह्ह मेरी गांड फट गई छोटे ठाकुर?"
"क्या हुआ रांड?" मैंने उसकी गांड पर ज़ोर का थप्पड़ लगाते हुए कहा____"दम निकल गया क्या तेरा?"

"आह्ह्ह्ह आपके ही करने से तो दम निकल जाता है मेरा।" रजनी आहें भरते हुए बोली____"आपका लंड किसी घोड़े के लंड से कम नहीं है। चूत और गांड में जब जाता है....आह्ह्ह्ह तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने गरमा गरम सरिया डाल दिया हो।"

"रुपचंद्र खटिया पर चढ़ो तुम।" मैंने रूपचंद्र से कहा____"और इसके मुँह में अपना लंड डालो। साली बहुत बोलती है।"
"अभी डालता हूं इस साली के मुँह में।" रूपचंद्र अपने लंड को सहलाते हुए फ़ौरन ही खटिया में चढ़ गया और रजनी के सिर को बालों से पकड़ कर उठाया। रजनी मेरी बात सुन चुकी थी इस लिए उसने अपना मुँह खोल दिया जिससे रूपचंद्र ने अपना लंड गप्प से उसके मुँह में डाल दिया।

एक तरफ से रूपचंद्र रजनी के सिर को पकड़े उसके मुँह की पेलाई कर रहा था और दूसरी तरफ से मैं रजनी की गांड फाड़ रहा था। सहसा मैंने अपना लंड उसकी गांड से निकाला और पलक झपकते ही नीचे उसकी चूत में एक झटके से डाल दिया। रजनी दर्द से कराही लेकिन मुँह में रूपचन्द्र का लंड होने की वजह से उसकी आवाज़ दब कर रह गई। मैं भीषण गति से उसकी चूत को चोदे जा रहा था। जल्दी ही रजनी का जिस्म थरथराता महसूस हुआ और फिर वो झटके खाते हुए झड़ने लगी। झड़ते वक्त वो बुरी तरह चिल्लाने लगी थी लेकिन रूपचंद्र ने जल्दी से उसके मुंह में अपना लंड घुसा दिया था। उसकी चूत का गरम पानी मेरे लंड को भिगोता चला गया मगर मैं रुका नहीं बल्कि तेज़ तेज़ लगा ही रहा। रूपचंद्र हैरानी से मुझे देख रहा था। कभी कभी मेरी नज़र उससे मिलती तो वो अपनी नज़रें हटा लेता था। शायद खुद को मुझसे कमज़ोर समझने लगा था जिससे वो नज़रें नहीं मिला पा रहा था।

"आह्ह्ह छोटे ठाकुर रुक जाइए थोड़ी देर।" रजनी रूपचंद्र का लंड मुँह से निकाल कर बोल पड़ी थी____"मुझे बहुत तेज़ जलन हो रही है...आह्ह्ह रुक जाइए कुछ देर के लिए।"

"चिंता मत कर बुरचोदी।" मैंने उसकी गांड में ज़ोर का थप्पड़ लगाते हुए कहा____"तेरी जलन को मैं अपने लंड के पानी से बुझा दूंगा।"
"आह्ह्ह छोटे ठाकुर।" रजनी दर्द से बोली____"झुके झुके मेरी कमर दुखने लगी है। आह्ह्ह भगवान के लिए थोड़ी देर रुक जाइए। मैं विनती करती हूं आपसे।"

"क्या बोलता है रूपचंद्र?" मैंने खटिया में खड़े रूपचंद्र से कहा____"छोड़ दूं उसे?"
"छोड़ ही दो यार।" रूपचंद्र ने रजनी की तरफ देखते हुए कहा____"इसके चेहरे से लग रहा है कि ये तकलीफ़ में है।"

मैंने एक झटके से अपना लंड रजनी की चूत से निकाल लिया। रजनी फ़ौरन ही सीधा खड़ी हो गई लेकिन अगले ही पल वो लड़खड़ा कर वापस खटिया पर झुक गई। शायद इतनी देर में उसके खून का दौड़ान रुक गया था या फिर उसकी कमर अकड़ गई थी। कुछ देर वो खटिया की बाट को पकड़े झुकी हुई गहरी गहरी साँसें लेती रही उसके बाद वो खड़ी हो कर खटिया में ही बैठ गई और मेरी तरफ देखते हुए गहरी गहरी साँसें लेती रही।

"अब इसको क्या तेरी अम्मा आ के शांत करेगी रांड?" मैंने शख़्त भाव से कहा तो रजनी ने जल्दी से मेरे लंड को पकड़ लिया और सिर को आगे कर के उसे मुँह में भर लिया।

उसके बाद रजनी की ना चूत में लंड डलवाने की हिम्मत हुई और ना ही गांड में। उसने मेरे लंड को चूस चूस कर ही मुझे शांत किया। इस बीच रूपचंद्र मेरी क्षमता देख कर बुरी तरह हैरान था। रजनी को पेलने के बाद हम दोनों ने अपने अपने कपड़े पहने और घर से बाहर आ गए। रजनी खटिया पर ही बैठी रह गई थी। उसमें उठ कर बाहर दरवाज़ा बंद करने के लिए आने की शक्ति नहीं थी।

बाहर आ कर मैं बुलेट में बैठ गया और रूपचंद्र से पूछा कि मेरे साथ घर चलेगा या उसका कहीं और जाने का इरादा है? मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुस्कुराते हुए बोला दोस्त अब तो घर ही जाऊंगा। उसके बाद मैं और रूपचन्द्र बुलेट से चल पड़े। थोड़ी ही दूरी पर उसका घर था इस लिए वो उतर गया और बाद में मिलने का बोल कर ख़ुशी ख़ुशी चला गया। मैं रास्ते में सोच रहा था कि अब रूपचंद्र मुझसे खुल गया है तो यकीनन अब वो ज़्यादातर मेरे साथ ही रहना पसंद करेगा। अगर ऐसा हुआ तो एक तरह से वो मेरी निगरानी में ही रहेगा। धीरे धीरे मैं इन सभी भाइयों से इसी तरह घुल मिल जाना चाहता था ताकि इनके मन से मेरे प्रति हर तरह का ख़याल निकल जाए। ये सब करने के बाद मैं अपने उस कार्य को आगे बढ़ाना चाहता था जिसके बारे में मैंने काफी पहले सोच लिया था।

━━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
 
अध्याय - 39
━━━━━━༻♥༺━━━━━━


अब तक....

बाहर आ कर मैं बुलेट में बैठ गया और रूपचंद्र से पूछा कि मेरे साथ घर चलेगा या उसका कहीं और जाने का इरादा है? मेरी बात सुन कर रूपचंद्र मुस्कुराते हुए बोला दोस्त अब तो घर ही जाऊंगा। उसके बाद मैं और रूपचन्द्र बुलेट से चल पड़े। थोड़ी ही दूरी पर उसका घर था इस लिए वो उतर गया और बाद में मिलने का बोल कर ख़ुशी ख़ुशी चला गया। मैं रास्ते में सोच रहा था कि अब रूपचंद्र मुझसे खुल गया है तो यकीनन अब वो ज़्यादातर मेरे साथ ही रहना पसंद करेगा। अगर ऐसा हुआ तो एक तरह से वो मेरी निगरानी में ही रहेगा। धीरे धीरे मैं इन सभी भाइयों से इसी तरह घुल मिल जाना चाहता था ताकि इनके मन से मेरे प्रति हर तरह का ख़याल निकल जाए। ये सब करने के बाद मैं अपने उस कार्य को आगे बढ़ाना चाहता था जिसके बारे में मैंने काफी पहले सोच लिया था।

अब आगे....

हवेली पहुंचा तो बैठक में अपनी ऊँची कुर्सी पर बैठे पिता जी मुझे नज़र आए। उनके अलावा बैठक में जगताप चाचा और मुंशी चंद्रकांत भी बैठे थे। मुझ पर नज़र पड़ते ही पिता जी ने मुझे अपने पास आने का इशारा किया। मैं उनके पास जा कर पहले उनके पाँव छुए और फिर जगताप चाचा के। दोनों ने खुश हो कर मुझे आशीर्वाद दिया।

"अब आप जाइए मुंशी जी।" पिता जी ने मुंशी की तरफ देखते हुए कहा____"कल पंचायत के लिए हम सुबह ही निकलेंगे। हमने फैसला किया है कि कल सुबह वैभव हमारे साथ जाएगा और आप जगताप के साथ जा कर उस मसले को सुलझाएं।"

"जैसी हुकुम की इच्छा।" मुंशी ने अदब से सिर झुकाते हुए कहा और फिर उठ कर बैठक से बाहर निकल गया।
"तो कैसा रहा साहूकारों के घर में हमारे प्यारे भतीजे का स्वागत सत्कार?" जगताप चाचा ने मुस्कुराते हुए मुझसे पूछा____"वैसे सुना है बहुत वाह वाही कर रहे थे वो लोग तुम्हारी।"

"इस बारे में जानने के लिए हम भी बड़े उत्सुक हैं जागताप।" पिता जी ने कहा____"तुमने जिस तरह हमें इसकी वाह वाही वाली बातें बताई थी उससे हमें हैरानी हुई थी। वैसे तो हमने इसे ख़ास तौर पर समझा बुझा कर वहां भेजा था लेकिन अंदर ही अंदर हम इसके उग्र स्वभाव के चलते चिंतित भी थे कि ये कहीं वहां पर कोई बवाल न कर बैठे।"

"आप बेवजह ही चिंता कर रहे थे बड़े भइया।" जगताप चाचा ने मुस्कुराते हुए कहा____"आप अभी भी मेरे भतीजे को नासमझ और गैरजिम्मेदार समझ रहे हैं जबकि मुझे इस पर पूरा यकीन था कि ये वहां पर ऐसा कुछ भी नहीं करेगा जिससे किसी तरह का बवाल हो सके। ख़ैर उड़ती हुई ख़बर तो यही थी कि हमारे वैभव ने उन सभी साहूकारों का दिल जीत लिया है लेकिन हम अपने भतीजे के मुख से सुनना चाहते हैं कि इसने वहां क्या क्या किया अथवा इसके साथ वहां पर क्या क्या हुआ?"

मैंने देखा पिता जी के चेहरे पर एक अलग ही चमक थी और ये मैंने पहली बार ही देखी थी। वो मेरी तरफ ही देख रहे थे। चेहरे पर ख़ुशी के भाव थे। मैंने देर न करते हुए वहां का सारा किस्सा उन्हें संक्षेप में बता दिया जिसे सुन कर पिता जी और जगताप चाचा हैरानी से मेरी तरफ देखने लगे थे। मैं समझ सकता था कि साहूकारों की तरह उन्हें भी मेरे बदले हुए चरित्र को हजम करना इतना आसान नहीं था।

"अगर तुम्हारी बातें सच है।" पिता जी ने कहा____"और तुमने वाकई में वहां धैर्य और नम्र स्वभाव का परिचय दिया है तो ये यकीनन अच्छी बात है। हम आगे भी तुमसे यही उम्मीद करते हैं।"

"आज मैं बहुत खुश हूं बड़े भइया।" जगताप चाचा ने ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"आज मेरा सबसे प्यारा और सबसे बहादुर भतीजा उसी रूप में अपना कार्य कर के लौटा है जिस रूप में और जैसे कार्य की मैं हमेशा इससे उम्मीद करता था।"

"अब तक मैंने जो कुछ भी किया है।" मैंने नम्र भाव से कहा____"उसके लिए मैं आप दोनों से माफ़ी मांगता हूं और यकीन दिलाता हूं कि आगे भी मैं वैसा ही कार्य करुगा जैसे ही आप दोनों मुझसे उम्मीद करते हैं।"

दोनों मेरी बात सुन कर ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे। हालांकि पिता जी अपनी ख़ुशी को छुपाने की पूरी कोशिश कर रहे थे लेकिन वो उनके छुपाए न छुप रही थी। ख़ैर पिता जी ने मुझे कल सुबह जल्दी तैयार हो कर चलने की बात कही तो मैंने हाँ में सर हिलाया अंदर चला गया।

अंदर माँ और मेनका चाची से मुलाक़ात हुई। थोड़ी देर उन दोनों से बातें करने के बाद मैं सीढ़ियों से ऊपर अपने कमरे की तरफ बढ़ चला। सीढ़ियों से जैसे ही मैं ऊपर पहुंचा तो मुझे बड़े भैया आते हुए दिखे। उन्हें देखते ही मुझे उस दिन का किस्सा याद आ गया जब उन्होंने मुझे थप्पड़ मारा था। मैं सोचने लगा कि आख़िर ऐसा कैसे किया होगा उन्होंने?

"अरे! वैभव आ गया तू?" बड़े भैया मेरे क़रीब पहुंचते ही बोले____"मैंने सुना कि तू साहूकारों के घर गया था? कैसा रहा वहां सब?"

"प्रणाम बड़े भइया!" मैं उनके बदले हुए ब्योहार और प्रसन्न चेहरे को देख कर मन ही मन हैरान हुआ था लेकिन ज़ाहिर नहीं होने दिया।
"हमेशा खुश रह।" उन्होंने मेरे बाएं कंधे को अपने हाथ द्वारा हल्के से थपकाते हुए कहा____"अभी तेरी भाभी से पता चला कि तुझे मणि शंकर काका अपने घर ले गए थे तेरा स्वागत सत्कार करने के लिए। कसम से वैभव इस बात से मैं बेहद खुश हूं लेकिन अब ये जानने को उत्सुक भी हूं कि वहां पर सब कैसा रहा?"

मैं बड़े भैया के चेहरे पर छाई ख़ुशी को देख कर हैरान था। समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या चक्कर है? कभी तो वो मुझसे इतना गुस्सा होते थे कि मुझे थप्पड़ तक मार देते थे और कभी वो मुझ पर इतना खुश होते थे कि लगता ही नहीं था कि उन्होंने कभी मुझ पर गुस्सा किया होगा।

"क्या हुआ?" मुझे सोच में डूबा देख वो बोल पड़े_____"क्या सोचने लगा तू? वहां सब ठीक तो था न मेरे भाई?"
"हां भइया।" मैंने सम्हल कर और नम्र भाव से उन्हें जवाब दिया____"आपके आशीर्वाद से वहां सब कुछ बढ़िया ही रहा और अब उन सबके मन में मेरे लिए कोई भी बैर भाव नहीं है। साहूकारों के सभी लड़के भी अब मुझसे अच्छी तरह घुल मिल गए हैं और मुझे अपना भाई और दोस्त समझने लगे हैं।"

"क्या सच में?" बड़े भैया ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा____"अगर ऐसा है तो ये बहुत ही ज़्यादा ख़ुशी की बात है वैभव। मेरे लिए तो सबसे बड़ी ख़ुशी की बात ये है कि मेरा भाई अब बदल गया है और अब अच्छे काम करने लगा है। आ मेरे गले लग जा।"

कहने के साथ ही उन्होंने मुझे खींच कर अपने गले से लगा लिया। मैं उनके इस बर्ताव से जहां एक तरफ बुरी तरह हैरान था वहीं खुश भी हुआ कि उन्होंने मुझे ख़ुशी से अपने गले लगाया। मन ही मन मैंने भगवान से यही दुआ की कि हम दोनों भाइयो के बीच हमेशा ऐसा ही प्रेम बनाए रखे और ये भी कि मेरे भैया के बारे में कुल गुरु ने जो भविष्यवाणी की है वो ग़लत हो जाए।

"मुझे जब तेरी भाभी ने इस बारे में बताया।" बड़े भैया ने मुझे खुद से अलग कर के कहा____"तो मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था लेकिन फिर मुझे होली वाला दिन आया कि कैसे तू अपने से बड़ों का आशीर्वाद ले रहा था और कैसे मेरे साथ ख़ुशी ख़ुशी भांग वाला शरबत पी रहा था। मैं जानता हूं मेरे भाई कि मैंने शायद कभी भी तुझे वैसा प्यार और स्नेह नहीं दिया जैसा एक बड़े भाई को देना चाहिए लेकिन अब से ऐसा नहीं होगा। अब से मैं तुझे दुखी नहीं होने दूंगा। जितने समय का मेरा जीवन बचा है उतने दिन मैं तेरे साथ हंसी ख़ुशी रहना चाहता हूं। तेरे साथ वो सब कुछ करना चाहता हूं जो बड़े भाई के रूप में मैंने अब तक नहीं किया था।"

"मुझे भाभी ने आपके बारे में सब कुछ बता दिया है भइया।" मैंने थोड़ा दुखी भाव से कहा____"और मुझे इस बात से बहुत तकलीफ़ हो रही है कि मेरे जान से भी ज़्यादा प्यारे बड़े भैया के बारे में कुल गुरु ने ऐसी घटिया भविष्यवाणी की। आप उस गुरु की बातों पर विश्वास मत कीजिए भैया। उस धूर्त की भविष्यवाणी झूठी है। आपको कुछ नहीं होगा, आप हमेशा हमारे साथ ही रहेंगे। मुझे अपने बड़े भैया का हमेशा साथ चाहिए। मैं अपनी भाभी की खुशियां उजड़ने नहीं दूंगा।"

"नियति के लेख को कोई नहीं मिटा सकता छोटे।" बड़े भैया ने मेरे चेहरे को प्यार से सहला कर और साथ ही फीकी सी मुस्कान में कहा____"हम सारी दुनिया से लड़ सकते हैं लेकिन अपने नसीब और अपने प्रारब्ध से नहीं लड़ सकते। सच तो यही है कि बहुत जल्द मुझे तुम सबको छोड़ कर इस दुनिया से रुखसत होना पड़ेगा।"

"नहीं नहीं।" मेरी आँखें छलक पड़ीं। भावावेश में आ कर मैंने एक झटके में बड़े भैया को सीने से लगा लिया, बोला_____"ऐसा मत कहिए भैया। भगवान के लिए आप हमें छोड़ कर जाने की बात मत कीजिए। मैं आपको कहीं जाने भी नहीं दूंगा। अगर किसी ने आपको मुझसे छीनने की कोशिश की तो मैं सारी दुनिया को आग लगा दूंगा।"

"पगलपन की बातें मत कर छोटे।" बड़े भैया ने लरज़ते स्वर में मेरी पीठ को सहलाते हुए कहा____"मुझे ख़ुशी है कि तू मुझे इतना प्यार करता है लेकिन ये भी सच ही है कि तेरा ये प्यार ज़्यादा दिनों तक नसीब नहीं है मुझे। तुझसे एक बात कहना चाहता हूं, तू मेरी बात को समझने की कोशिश करना मेरे भाई। अपनी भाभी का हमेशा ख़याल रखना। उसके चेहरे पर कभी दुःख के बादलों को मंडराने न देना। वो किसी को अपने दुःख दर्द नहीं दिखाती बल्कि अंदर ही अंदर उस दुःख दर्द में जलती रहती है। ये मेरी बदकिस्मती है कि मैं उसे इस हाल में छोड़ कर चला जाऊंगा वरना जी तो यही चाहता है कि उसे संसार की हर वो खुशियां दूं जिससे कि उसके चेहरे का नूर कभी फीका न पड़ सके। तुझसे मेरी बस यही विनती है मेरे भाई कि तू अपनी भाभी का हमेशा ख़याल रखना।"

"ऐसा मत कहिए भइया।" मैं और भी ज़ोरों से फफक कर रो पड़ा____"भाभी का ख़याल आप ही रखेंगे और हमेशा रखेंगे। मैंने कहा न कि आपको कुछ नहीं होगा। आप हमेशा हमारे साथ ही रहेंगे।"

"भावनाओ में मत बह मेरे भाई।" बड़े भैया ने मुझसे अलग हो कर मेरी आँखों के आंसू पोंछते हुए कहा____"सच को किसी भी तरह से नाकारा नहीं जा सकता। तू मुझे वचन दे कि तू मेरे बाद अपनी भाभी का ख़याल रखेगा और उसे कभी भी दुखी नहीं होने देगा। मुझे वचन दे मेरे भाई।"

भैया ने अपनी हथेली मेरे आगे कर दी थी और मैं बेबस व लाचार सा दुखी भाव से उनकी उस हथेली को देखे जा रहा था। दिलो दिमाग़ में एकदम से बवंडर सा चल पड़ा था जो मुझे बुरी तरह हिलाए जा रहा था। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे वक़्त में क्या करूं और क्या कहूं?

"धीरज से काम ले मेरे भाई।" भैया ने मेरी मनोदशा को महसूस करते हुए अधीरता से कहा____"अब सब कुछ तुझे ही सम्हालना होगा। पिता जी के बाद उनकी बागडोर भी तुझे ही सम्हालनी होगी और सच कहूं तो मैं खुद भी हमेशा यही चाहता था कि पिता जी के बाद तू ही उनकी बागडोर सम्हाले क्योंकि दादा ठाकुर बनने के लायक मैं कभी नहीं था। हमेशा मेरी आँखों के सामने तू ही दादा ठाकुर के रूप में नज़र आ जाता था और यकीन मान मैं तुझे उस रूप में देख कर बेहद खुश होता था। दुआ करता था कि कितना जल्दी वो दिन आए जब तू दादा ठाकुर बने और तेरे दादा ठाकुर बन जाने के बाद भी तेरा बड़ा भाई होने नाते मैं तुझ पर अपना रौब जमाऊं। तू जब खिसिया जाता तो मुझे बहुत मज़ा आता।"

"बस कीजिए भइया।" मैं बुरी तरह तड़प कर रो पड़ा____"मैं ये अब और नहीं सुन सकता।"
"चल ठीक है।" बड़े भैया ने फिर से मेरे चेहरे को प्यार से सहलाया और कहा____"अब मुझे वचन दे कि अपनी भाभी का ख़याल हमेशा रखेगा तू।"

माहौल बहुत ही ग़मगीन था। मुझे भैया के लिए बहुत दुःख हो रहा था। मेरा बस नहीं चल रहा था वरना मैं एक पल में सब कुछ ठीक कर देता। फिर भी मैंने मन ही मन फैसला किया कि कुछ तो करना ही होगा मुझे। मैंने बड़े भैया की हथेली पर अपनी हथेली रखी और उन्हें वचन दिया कि मैं भाभी का हमेशा ख़याल रखूंगा। भैया अपनी नम आँखों को पोंछते हुए चले गए और मैं दुखी मन से अपने कमरे की तरफ चला ही था कि बगल में जो राहदारी थी वहां दीवार से चिपकी खड़ी भाभी नज़र आईं मुझे। शायद वो छुप कर हमारी बातें सुन रहीं थी। उनका चेहरा आंसुओं से भीगा हुआ था। उनकी ये हालत देख कर मैं एकदम से तड़प उठा। उधर वो मुझे देखते ही हड़बड़ाईं और जल्दी से अपनी साड़ी के छोर से अपने आंसुओं को पोंछने लगीं। मैं अभी उनसे कुछ कहने ही वाला था कि वो पलट कर वापस अपने कमरे में चली गईं।

भाभी को ऐसे जाते देख पहले तो मेरा मन किया कि मैं उनके पास जाऊं और उन्हें सांत्वना दूं लेकिन फिर ये सोच कर नहीं गया कि उन्हें इस वक़्त अकेले रहने देना ही उचित होगा। मैं भारी मन से चलते हुए अपने कमरे में दाखिल हुआ। नज़र बेड पर सोई पड़ी कुसुम और चंद्रभान की छोटी सी बच्ची पर पड़ी। वो बच्ची कुसुम से छुपकी सो रही थी और कुसुम भी गहरी नींद में थी। मैं सोचने लगा कि वो बच्ची उतने समय से मेरे यहाँ थी और अभी तक उसके घर वालों ने उसकी ख़बर तक नहीं ली या फिर ये कहें कि उस बच्ची को अपने लोगों की याद ही नहीं आई। दोनों को गहरी नींद में सोता देख मैंने उन्हें जगाना सही नहीं समझा इस लिए पलट कर बाहर आया और दरवाज़ा बंद कर के वापस चल दिया।

भाभी के कमरे के पास वाली राहदारी के पास पहुंच कर मैं रुका। ज़हन में ख़याल उभरा कि क्या भाभी के पास जाऊं या फिर नीचे चला जाऊं? मैं सोच ही रहा था कि सहसा मेरे ज़हन में एक ख़याल उभरा। मैं सीढ़ियों से उतरते हुए नीचे पहुंचा। माँ से पिता जी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वो अपने कमरे में आराम कर रहे हैं। मैं जानता था कि ये समय पिता जी के आराम का ही होता था इस लिए मैंने उनके आराम पर ख़लल डालना सही नहीं समझा। मुझे याद आया कि कल सुबह मुझे उनके साथ पंचायत पर जाना है। मैं उनके पास जिस मकसद से आया था उसके लिए मुझे कल का ही समय सही लगा। ये सोच कर मैं वापस माँ के ही पास बैठ गया।

मां और मेनका चाची कुर्सियों पर बैठी थीं और कुछ नौकरानियाँ उनके निर्देश पर कपड़े में कुछ आकृतियां बना रहीं थी। मैं जब कुर्सी पर बैठ गया तो माँ ने उन नौकरानियों को कहा कि वो यहाँ से दूसरी जगह जा कर अपना काम करें। माँ के कहने पर सब उठीं और अपना अपना सामान समेट कर चली गईं। मैं समझ गया कि माँ ने मेरी वजह से उनसे ऐसा कहा था।

"क्या बात है।" मेनका चाची ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा____"आज कल तो हमारे बेटे की बड़ी तारीफें होने लगी हैं। गांव के साहूकार हमारे बेटे को इज़्ज़त सम्मान देने के लिए खुद लेने आते हैं।"

"आपके बेटे में कोई तो ख़ास बात होगी ही चाची जिसके लिए वो लोग ऐसा कर रहे हैं।" मैंने भी मुस्कुरा कर चाची से कहा____"पर लगता है हमारी प्यारी चाची को उनके द्वारा अपने बेटे को यूं इज्ज़त सम्मान देना पसंद नहीं आया।"

"अरे! ये क्या कह रहे हो तुम?" मेनका चाची ने हैरानी से मेरी तरफ देखा____"भला मुझे अपने बेटे के लिए ये सब करना पसंद क्यों नहीं आएगा? तुम क्या जानो वैभव कि इस सबसे हमें कितनी ख़ुशी हुई है। तुम्हारे चाचा तो इतने खुश थे कि दीदी से कहने लगे कि इस ख़ुशी में हम एक बहुत बड़ा उत्सव करेंगे और आस पास के सभी गांव वालों को भोजन कराएंगे।"

"मेनका सही कह रही है बेटा।" माँ ने कहा_____"अभी कुछ ही देर पहले जगताप हमारे पास आए थे। जब उन्होंने तुम्हारे मुख से वहां का सारा किस्सा सुना तो वो सीधा हमारे पास आए और ख़ुशी ख़ुशी कहने लगे कि मेरे भतीजे ने बहुत बड़ा काम किया है और इस ख़ुशी में हम बहुत बड़ा उत्सव करेंगे।"

मैं माँ की बात सुन कर सोचने लगा कि जगताप चाचा सच में मुझे कितना प्यार करते हैं। वैसे ये सच ही था कि वो मुझे बचपन से ही बहुत मानते थे। माँ से उनके बारे में ऐसी बात सुन कर मुझे भी अंदर ही अंदर बेहद ख़ुशी महसूस हुई। मन में ख़याल उभरा अभी तक कौन सी दुनिया में खोया था मैं और क्यों खोया था मैं?

"हम सब अभी से उस बड़े उत्सव की तैयारी शुरू करने वाले हैं।" मेनका चाची ने ख़ुशी से चहकते हुए कहा____"कल जब दादा ठाकुर पंचायत से लौट कर हवेली आएंगे तो उनसे इसके बारे में बात करेंगे।"

"नहीं चाची।" मैंने एकदम से संजीदा हो कर कहा____"हवेली में ऐसा कोई उत्सव नहीं होगा और ना ही आप में से कोई पिता जी से इस बारे में बात करेगा।"
"अरे! ये क्या कह रहा है तू?" माँ ने बुरी तरह चौंकते हुए कहा____"क्यों नहीं होगा उत्सव भला? तू नहीं जानता बेटा कि इस सबसे हमें कितनी ख़ुशी मिली है। गांव के साहूकारों से हमारे सम्बन्ध अच्छे हो गए हैं। हम चाहते हैं कि उस उत्सव में वो लोग भी हमारे साथ मिल कर इस ख़ुशी का आनंद लें।"

"मेरी नज़र में मैंने अभी ऐसा कोई भी बड़ा काम नहीं किया है मां।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"जिसके लिए इतने बड़े उत्सव का आयोजन किया जाए। हो सकता है कि ये सब आप लोगों के लिए ख़ुशी की बात हो लेकिन मेरे लिए नहीं है।"

"व...वैभव आख़िर बात क्या है" मेनका चाची ने हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"अचानक से तुम इतने गंभीर क्यों हो गए? अगर कोई बात है तो साफ़ साफ़ बताओ हमें।"

"ऐसी कोई बात नहीं है चाची।" मैं भला उन्हें कैसे बताता कि मैं अपने बड़े भैया की वजह से ऐसा कोई उत्सव नहीं होने देना चाहता था? मैं भला कैसे ऐसे उत्सव से खुश होता जबकि मेरे भैया और भाभी के जीवन में इतने बड़े दुःख के बादल छाए हुए थे।

"कुछ तो बात ज़रूर है बेटा।" माँ ने सहसा चिंतित भाव से कहा____"मुझे बता, आख़िर क्या छुपा रहा है हमसे?"
"कुछ नहीं मां।" मैं सहसा ये सोच कर अंदर ही अंदर घबरा गया कि मैंने ये कैसा माहौल बना दिया है, सम्हल कर बोला____"मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि अभी मैंने इतना बड़ा कोई भी काम नहीं है। अभी तो मुझे बहुत कुछ समझना है और बहुत कुछ करना है। जिस दिन वाकई में कोई बड़ा काम करुंगा उस दिन ख़ुशी ख़ुशी उत्सव मना लेना लेकिन अभी नहीं। "

मैं जानता था कि अब अगर और मैं उनके पास रुका तो वो दोनों मुझसे पूछती ही रहेंगी इस लिए मैं उठा और वापस अपने कमरे की तरफ बढ़ चला। मैं अंदर से एकदम दुखी सा हो गया था। आज बड़े भैया ने जिस तरह से मुझसे बातें की थी उसने मुझे हिला कर रख दिया था। मैं ये सहन नहीं कर सकता था कि मेरे बड़े भैया हम सबको इस तरह छोड़ कर चले जाएंगे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं? आख़िर कैसे मैं उनके जीवन को बचाऊं? एक तरफ भाभी थीं जो अंदर ही अंदर अपने पति के बारे में ये सब सोच सोच कर दुखी थीं और उनकी बिवसता ये थी कि वो अपना दुःख किसी को दिखा नहीं सकती थीं। मेरे सामने इतना कुछ मौजूद था जिसे मैं समेटने में सफल नहीं हो पा रहा था।

अपने कमरे में पहुंचा तो देखा कुसुम जग गई थी और किसी सोच में डूबी हुई नज़र आ रही थी। उसके कानों में दरवाज़ा खुलने की आवाज़ तक न पड़ी थी। ज़ाहिर है वो किसी गहरे ख़यालो में गुम थी। उसके मासूम से चेहरे पर कई तरह के भाव उभरते हुए दिख रहे थे। मुझे याद आया कि वो भी अपने सीने में कोई ऐसी बात छुपाए हुए थी जो उसे अंदर ही अंदर दुखी किए हुए थी। अपनी लाड़ली बहन के उदास चेहरे को देख कर मेरे दिल में एक टीस सी उभरी। मैं सोचने लगा कि कैसा भाई हूं मैं जो अपनी मासूम बहन का दुःख भी दूर नहीं कर पा रहा? बड़ी मुश्किल से मैंने खुद को सम्हाला और आगे बढ़ा।

"अब अगर मैं तेरा नाम सोचन देवी रख दूं तो कैसा रहेगा?" उसके सिरहाने पास बैठ कर मैंने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा तो वो एकदम से चौंकी और फिर हड़बड़ा कर उठ बैठी।

"भ...भइया???" फिर वो खुद को सम्हालते हुए बोली_____"आप कब आए?"
"मुझे आए हुए तो ज़माना गुज़र गया।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"लेकिन मैं ये समझने की कोशिश कर रहा था कि अपनी इस बहन का नया नाम सोचन देवी रखूं कि नहीं?"

"क्..क्या कहा आपने?" कुसुम ने आँखें फैलाते हुए कहा____"आप मेरा इतना गन्दा नाम कैसे रख सकते हैं? जाइए मुझे आपसे कोई बात नहीं करना।"

"यानि कि मुझे तेरा ये नया नाम नहीं रखना चाहिए।" उसके रूठ जाने पर मैंने उसे उसके कन्धों से पकड़ कर अपनी तरफ घुमाया और फिर प्यार से बोला____"पर भला ये कहां का इन्साफ़ हुआ कि मेरी प्यारी बहन ने अपने इस भाई का एक नाम सोचन देव रख दिया है?"

"वो तो आप पर जंचता है इस लिए रख दिया है मैंने।" कुसुम ने शरारत से मुस्कुराते हुए कहा____"आप जब देखो तब कहीं न कहीं खोए ही रहते थे इस लिए मैंने आपका वो नाम रख दिया था। वैसे भैया क्या आप मुझे नहीं बताएँगे कि इतना क्या सोचते रहते थे आप कि मुझे मजबूर हो कर आपका नाम सोचन देव रखना पड़ा?"

"सच बताऊं या झूठ?" मैंने उसकी मासूमियत से भरी आँखों में देखते हुए पूछा तो उसने मासूमियत से ही जवाब दिया____"झूठ क्यों बताएँगे? एकदम सच्चा वाला सच बताइए मुझे।"

"ठीक है फिर।" मैंने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"असल में मैं हमेशा ये सोचता रहता हूं कि ऐसी क्या बात हो सकती है जिसने मेरी मासूम सी बहन को इतना गंभीर बना दिया है और तो और उसे इतना बेबस भी कर दिया है कि वो अपने दिल की बात अपने इस भाई से बता भी नहीं सकती?"

मेरी बात सुन कर एकदम से कुसुम के चेहरे पर घबराहट के भाव उभर आए। उसका खिला हुआ चेहरा एकदम से बुझ सा गया। वो मुझसे नज़रें चुराने लगी। मैं उसी को देख रहा था। उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ थरथराए जा रहे थे।

"क्या हुआ?" मैंने उसे उसके कन्धों से पकड़ कर प्यार से ही पूछा____"मेरी बात सुन कर तेरा खिला हुआ चेहरा क्यों उतर गया? आख़िर ऐसी क्या बात है जो तुझे इतना परेशान कर देती है? तू जानती है न कि तेरा ये भाई तुझे किसी भी कीमत पर उदास नहीं देख सकता। तू जब शरारत से मुस्कुराती है तो लगता है जैसे हर तरफ खुशियों की बहार आ गई है और जब तू ऐसे उदास हो जाती है तो लगता है जैसे इस दुनिया में अब कुछ भी नहीं रहा।"

"भ...भइया।" कुसुम बुरी तरह फफक कर रोते हुए मुझसे लिपट गई। मैंने भी उसे अपने सीने से छुपका लिया और उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगा। उसे यूं रोता देख मेरी आँखें भी भर आईं। दिल में एक हूक सी उठी जिसे मैंने बड़ी मुश्किल से दबाया।

"क्या तुझे अपने इस भाई पर ज़रा भी भरोसा नहीं है?" मैंने उसे खुद से छुपकाए हुए ही कहा____"क्या तुझे लगता है कि तेरा ये भाई तेरा दुःख दूर करने में असमर्थ है? तू जानती है न कि मैं तेरे एक इशारे पर सारी दुनिया को आग लगा सकता हूं।"

"मुझे माफ़ कर दीजिए भइया।" मेरी बातें सुन कर कुसुम और भी ज़्यादा सिसक उठी____"मैं आपको तकलीफ़ नहीं देना चाहती। मैं जानती हूं कि आप मेरे लिए दुनिया का कोई भी काम कर सकते हैं लेकिन मैं क्या करूं भैया? मैं आपको कुछ भी नहीं बता सकती। मुझे माफ़ कर दीजिए।"

"अच्छा चल ठीक है।" मैंने उसे खुद से अलग किया और उसके आंसुओं को पोंछते हुए कहा____"तू रो मत। तू जानती है न कि मैं तेरी आँखों में आंसू नहीं देख सकता। चल अब शांत हो जा।"

"मुझे माफ़ कर दीजिए भइया।" कुसुम ने मेरी तरफ देखते हुए दुखी भाव से कहा। उसकी आँखें फिर से छलक पड़ीं थी जिन्हें मैंने अपने हाथों से पोंछा और फिर कहा_____"तुझे किसी बात के लिए मुझसे माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है और हाँ मैं वादा करता हूं कि अब तुझसे इस बारे में कुछ भी नहीं पूछूंगा। मैं बस ये चाहता हूं कि तू हमेशा खुश रहे और अपनी शरारतों से अपने इस भाई को परेशान करती रहे।"

कुसुम की आँखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे समझा बुझा कर शांत किया। सहसा मेरी नज़र दरवाज़े पर खड़ी मेनका चाची पर पड़ी। जब उन्होंने देखा कि मैं उन्हें देखने लगा हूं तो उन्होंने जल्दी से अपनी आँखों के आंसू पोंछे और फिर मुस्कुराती हुई कमरे के अंदर हमारे पास आ ग‌ईं।

"मैं नहीं जानती कि ऐसी कौन सी बात है जिसे तुम कुसुम से पूछ रहे थे।" फिर उन्होंने उसी मुस्कान में कहा____"और ये तुम्हें बताने की जगह इस तरह रोने लगी थी लेकिन ये देख कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई कि तुम इसे आज भी उतना ही मानते हो जितना पांच महीने पहले मानते थे।"

"सारी दुनिया से नफ़रत कर सकता हूं चाची।" मैंने कुसुम के चेहरे को प्यार से सहला कर कहा____"लेकिन अपनी इस बहना से कभी नाराज़ नहीं हो सकता और ना ही इसे कभी दुखी देख सकता हूं। ये मेरी जान है, मेरा गुरूर है, मेरी शान है।"

कुसुम मेरी बात सुन कर फिर से मुझसे छुपक गई। उसकी आँखें फिर से भर आईं थी। मेनका चाची ने मेरे चेहरे को प्यार से सहलाया और कहा____"इस हवेली में एक तुम ही हो जो इसे इतना मानते हो। इसके बाकी भाई तो हमेशा इसे डांटते ही रहते हैं।"

"कोई मेरे सामने इसे डांट के दिखाए भला।" मैंने कहा____"मैं डाटने वाले का मुँह तोड़ दूंगा।"
"जिस तरह तुम इसे स्नेह करते हो।" मेनका चाची ने कहा____"मैं सोचती हूं कि जिस दिन ये ब्याह कर अपने ससुराल जाएगी तब क्या करोगे तुम?"

"समाज के बनाए नियमों का किसी तरह पालन तो करना ही पड़ेगा चाची।" मैंने गंभीरता से कहा____"पर इतना ज़रूर समझ लीजिए कि जिस दिन ये अपने भाई को छोड़ कर अपने ससुराल जाएगी उस दिन मेरा दिल टुकड़ों में बिखर जाएगा। इस हवेली में गूंजने वाली इसकी हंसी और इसकी शरारतें कहीं खो जाएंगी।"

कहते कहते सहसा मेरी आवाज़ भर्रा गई और मुझसे आगे कुछ बोला न गया। आँखों ने बगावत कर दी थी। मेरी बातें सुन कर जहां कुसुम रोते हुए मुझसे फिर से लिपट गई थी वहीं चाची ने मुझे खुद से छुपका लिया था। माहौल एकदम से ग़मगीन सा हो गया था।

"ताता बुआ त्यों लो लही है?" अचानक हम तीनों ही उस बच्ची की इस बात से चौंके। वो जग गई थी और अब बेड पर उठ कर बैठ गई थी। उसने कुसुम को रोते देखा तो मुझसे पूछ लिया था।

"अरे! मेरी प्यारी गुड़िया जग गई क्या?" कुसुम मुझसे अलग हुई तो मैंने उस बच्ची को उठा कर अपनी गोद में बैठाते हुए उससे पूछा तो वो बड़ी मासूमियत से मेरी तरफ देखते हुए मुस्कुरा उठी।

"आप तहां तले द‌ए थे ताता?" उसने मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"मैंने बुआ थे पूथा आपके बाले में तो बुआ ने तहा आप मेले लिए लद्दू लेने द‌ए हैं।"
"तो क्या अभी तक तुमने लड्डू नहीं खाया गुड़िया?" मैंने हैरानी से उसकी तरफ देखते हुए पूछा जिसका जवाब उसने मुस्कुराते हुए दिया____"मैंने तो बूत थाले लद्दू थाए ताता औल आपतो पता है बुआ ने मुधे मिथाई भी थिलाइ।"

"अरे वाह!" मैंने उसके गालों को सहलाते हुए कहा____"फिर तो हमारी गुड़िया का पेट भर गया होगा।"
"हां ताता।" उसने मासूमियत से कहा____"पल मुधे औल लद्दू थाने हैं।"

मेनका चाची और कुसुम उस बच्ची की बातों से मुस्कुरा रहीं थी। उस बच्ची की वजह से माहौल सामान्य और खुशनुमा सा हो गया था। मैंने कुसुम से कहा कि वो गुड़िया के लिए लड्डू ले आए। थोड़ी ही देर में कुसुम लड्डू और मिठाई ले कर आ गई और उसे दे दिया। बच्ची लड्डू और मिठाई देख कर बेहद खुश हुई और एक लड्डू उठा कर खाने लगी।

मेनका चाची और कुसुम कुछ देर बाद चली गईं। वो बच्ची लड्डू खाने में ब्यस्त थी और मैं ये सोचने में कि विभोर और अजीत के पास कुसुम की आख़िर ऐसी कौन सी कमज़ोरी है जिसके बल पर वो लोग कुसुम को मेरे खिलाफ़ मोहरा बनाए हुए हैं? आख़िर ऐसी क्या बात हो सकती है जिसके चलते कुसुम उनकी बात मानने के लिए इस हद तक मजबूर है कि वो अपने उस भाई को भी कुछ नहीं बता रही जो उसे दुनिया में सबसे ज़्यादा प्यार और स्नेह देता है? मैंने फैसला किया कि सबसे पहला काम मुझे इसी सच का पता लगाना होगा।
━━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
 
Back
Top