Hindi Xkahani - प्यार का सबूत

अध्याय - 129
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मैं अपने खेतों पर पहुंचा तो भुवन वहीं था। मैंने उसे जीप में बैठाया और वहां से चल पड़ा। रास्ते में मैंने उसे बताया कि हमें कहां और किस काम के लिए जाना है। भुवन ने साथ में भीमा और बलवीर को भी ले चलने की सलाह दी जो मुझे भी उचित लगी। असल में मुझे अंदेशा था कि ये मामला आसानी से निपट जाने वाला नहीं है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों भीमा और बलवीर के घर पहुंचे। वहां से दोनों को जीप में बैठा कर मैं निकल पड़ा।

अब आगे....


सबसे पहले हम मुरारी काका के गांव पहुंचे। मुझे इतने समय बाद आया देख गांव वाले थोड़ा हैरान हुए। मैंने एक बरगद के पेड़ के पास जीप को रोका। पेड़ के चारो तरफ चबूतरा बना हुआ था जिसमें कुछ लोग बैठे हुए थे। हमें देखते ही वो सब चबूतरे से उतर कर ज़मीन में खड़े हो गए और फिर सलाम करने लगे। मैंने भुवन को समझा दिया था कि क्या करना है इस लिए उसने भीमा और बलवीर को इशारा किया। वो दोनों अलग अलग दिशा में चले गए जबकि भुवन उन लोगों से बात करने लगा।

बात करने का तात्पर्य ये पता करना था कि मालती का पति जगन कैसा था और किन लोगों के साथ जुवां खेलता था? जुएं खेलने के लिए उसके पास पैसा किस तरीके से आता था और साथ ही जिन लोगों से उसने कर्ज़ा लिया था वो उससे अपना रुपिया वसूलने के लिए क्या करते थे?

क़रीब बीस मिनट बाद भीमा और बलवीर वापस आए। उन लोगों का काम भी यही था कि वो गांव के अलग अलग लोगों से इस बारे में पूछताछ करें। उन दोनों ने आ कर मुझे वही सब बताया जो भुवन के द्वारा इन लोगों से पता चला था। ये अलग बात है कि अलग अलग लोगों के बताने का तरीका थोड़ा अलग था किंतु मतलब एक ही था।

सारी बातों को समझने के बाद मैंने सबको जीप में बैठने को कहा और फिर चल पड़े हम। मुरारी के गांव से क़रीब डेढ़ दो किलो मीटर पर ही एक दूसरा गांव हिम्मतपुर था। जल्दी ही मेरी जीप हिम्मतपुर में दाख़िल हो गई और उस मकान के सामने रुकी जहां से जगन ने कर्ज़ा लिया था।

हिम्मतपुर गांव ज़्यादा बड़ा नहीं था। आबादी भी ज़्यादा नहीं थी। क़रीब पचास साठ घर थे गांव में। गांव का सबसे संपन्न आदमी था शंकर लाल श्रीवास्तव। गांव में सबसे ज़्यादा उसी के पास ज़मीनें थीं जिनसे उसे खूब पैदावार होती थी। गांव के लोगों को वो उधारी में अनाज देता था और फिर उसके नियम के अनुसार ग़रीब आदमी अपनी ज़मीन से अनाज उगा कर उसका उधार तो चुकाता ही था किंतु ब्याज के साथ। इसके अलावा उसका मुख्य पेशा लोगों को ब्याज में पैसा देना भी था। लोग मज़बूरी में कर्ज़ लेते थे लेकिन कर्ज़ा चुकाना उनके बस से बाहर हो जाता था। ऐसा इस लिए भी कि ग़रीब आदमी अपनी खुद की ज़रूरतें ही ढंग से पूरी नहीं कर पाता था तो कर्ज़ा कैसे चुकाता? इस चक्कर में ब्याज बढ़ता जाता। ब्याज को चुकाते चुकाते इंसान का कचूमर निकल जाता था। जब समय थोड़ा लम्बा हो जाता था तो शंकर लाल नया नियम लागू कर देता। नए नियम में कर्ज़ चुकाने का समय नियुक्त कर देता था और जब ग़रीब आदमी तय समय पर कर्ज़ा न दे पाता तो वो उनकी पहले से ही गिरवी रखी ज़मीन को अपने कब्जे में कर लेता था। ग़रीब आदमी रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। शंकर लाल ने लोगों को डराने धमकाने के लिए बकायदा मुस्टंडे पाल रखे थे।

शंकर लाल के दो बेटे और दो बेटियां थी। दोनों बेटों की शादी हो चुकी थी और दो बेटियों में से एक अभी अविवाहित थी। उसके दोनों बेटे यानि हीरा लाल और मणि लाल अपने बाप के नक्शे क़दम पर ही चल रहे थे।

मकान के सामने एक लंबा चौड़ा मैदान था। उसके बाद पुराने समय का बड़ा सा मकान बना हुआ था जिसकी सामने वाली दीवार पर सिर्फ लकड़ी के मोटे मोटे खम्भे थे जिनमें नक्काशी की हुई थी। उन खंभों के एक तरफ बड़ी सी चौपार थी जिनमें क़रीब पांच मजबूत पलंग बिछे हुए थे जबकि दूसरी तरफ उसका बैठका था। उस बैठके में उसका आसन बना हुआ था जहां पर बैठ कर वो उन लोगों से मिलता था जो लोग उसके पास कर्ज़ लेने आते थे। बैठके से सटी ही एक दीवार थी जिसमें लोहे की मजबूत अलमारी लगभग आधी धंसी हुई थी। उसी अलमारी में उसके बही खातों की जाने कितनी ही मोटी मोटी किताबें रखी हुई थी। उस अलमारी से क़रीब तीन फिट की दूरी पर एक दरवाज़ा था जो एक ऐसे कमरे का था जिसमें उसकी पूंजी रखी हुई होती थी। दरवाज़ा हमेशा एक मजबूत ताले के साथ बंद रहता था जिसकी चाभी सिर्फ उसके पास ही होती थी।

जीप जब मकान के सामने मैदान में पहुंच कर रुकी तो वहां मौजूद उसके मुस्टंडे एकदम से तन कर खड़े हो गए। बैठके में शंकर लाल बैठा हुआ था और उसके पास दो तीन लोग भी थे जो शकल से ही उससे कर्ज़ लेने आए लोग लग रहे थे। शंकर लाल के बगल से उसका बड़ा बेटा हीरा लाल बैठा हुआ था। जीप को देख सबकी नज़रें हमारी तरफ ही केंद्रित हो गईं थी।

शंकर लाल और उसका बेटा उस वक्त चौंके जब उन्होंने जीप से मुझे उतरते देखा। दोनों बाप बेटे एकदम से हड़बड़ा से गए। शंकर लाल ने अपने बेटे को कोई इशारा किया और फिर उठ कर मेरी तरफ लपका। उसका बेटा भी उठ कर मेरी तरफ आने लगा था।

"अरे! छोटे कुंवर आप यहां?" शंकर लाल चेहरे पर खुशी के भाव लाते हुए और ज़ुबान को मीठा बनाते हुए बोला____"धन्य भाग हमारे जो आप खुद चल कर मेरी छोटी सी कुटिया में पधारे। आइए आइए, अंदर आइए।"

"मेरे पास अंदर बैठने का वक्त नहीं है शंकर काका।" मैंने सपाट और स्पष्ट भाव से कहा____"मैं यहां एक ज़रूरी काम से आया हूं और उम्मीद करता हूं कि आप मुझे ज़रा भी निराश नहीं करेंगे।"

"अरे! हुकुम कीजिए छोटे कुंवर।" शंकर लाल फ़ौरन ही अपने दांत निपोरते हुए बोल पड़ा____"मुझे बताइए कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?" कहने के साथ ही वो अपने मुस्टंडों से मुखातिब हुआ____"अरे! बेवकूफों खड़े क्या हो। जाओ चारपाई ले कर आओ छोटे कुंवर के बैठने के लिए और हीरा बेटा तू ज़रा इनके जल पान की फ़ौरन व्यवस्था कर। बड़े लोग हैं ये....बार बार हमारे घर को पवित्र करने नहीं आएंगे।"

शंकर लाल की बात सुनते ही उसका एक मुस्टंडा फ़ौरन ही चारपाई ले आया और चौगान में रख कर उस पर एक गद्दा बिछा दिया। उधर उसका बेटा हीरा भी अंदर की तरफ दौड़ गया था। शंकर लाल ने हाथ जोड़ कर मुझे चारपाई पर बैठने को कहा तो मैं बैठ गया। जबकि भुवन, भीमा और बलवीर मेरे समीप ही बगल से खड़े हो गए।

"और बताइए छोटे कुंवर दादा ठाकुर कैसे हैं?" शंकर लाल ने अपने स्वर को मधुर बनाते हुए पूछा____"काफी समय हो गया उनके दर्शन नहीं हुए। वैसे कुछ समय पहले ख़बर मिली थी आपके साथ हुई दुखद घटना के बारे में।"

"सब किस्मत की बातें हैं काका।" मैंने कहा____"जिसकी किस्मत में जो होना लिखा होता है वो तो होता ही है। आख़िर किसी का अपनी किस्मत पर और ऊपर वाले पर कहां कोई ज़ोर चलता है।"

"हां ये तो सही कहा आपने।" शंकर लाल ने सहसा बेचैन हो कर कहा____"अब क्या कह सकते हैं किंतु जो भी हुआ बहुत बुरा हुआ। अच्छा अगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं आपसे ये पूछने की गुस्ताख़ी कर सकता हूं कि आप यहां मुझ जैसे अदने से व्यक्ति के घर किस उद्देश्य से पधारे हैं?"

शंकर लाल ने ये कहा ही था कि उसका बेटा हीरा आ गया। उसके पीछे एक औरत भी थी। मैंने अंदाज़ा लगाया शायद वो औरत उसकी मां थी। उसने आते ही मुझे सलाम किया। मेरी उम्र से बड़े लोग जब मुझे यूं सलाम करते थे तो मुझे बड़ा अजीब लगता था किंतु क्या कर सकता था। रुद्रपुर के ठाकुरों का इतिहास ही ऐसा रहा है कि लोग झुक कर सलाम किए बिना नहीं रहते थे। ख़ैर हीरा ने बड़े आदर भाव से मुझे जल पान कराया और फिर मेरे साथ आए मेरे लोगों को भी।

मैंने देखा शंकर लाल के चेहरे पर बेचैनी के साथ साथ अब थोड़े चिंता के भाव भी उभर आए थे। शायद वो ये सोच कर चिंता में पड़ गया रहा होगा कि मेरे जैसे चरित्र का लड़का उसके गांव में उसके ही घर आख़िर किस मकसद से आया है? कहीं मेरी नज़र उसकी छोटी बेटी सुषमा पर तो नहीं पड़ गई है? अगर वो वाकई में यही सोच के चिंतित हो उठा रहा होगा तो इसमें उसका कोई दोष नहीं था। मेरे बारे में सब जानते थे इस लिए उनका ऐसा सोच लेना कोई बड़ी बात नहीं थी।

"कहिए छोटे कुंवर और क्या सेवा करें आपकी?" शंकर लाल खुल कर पूछने में शायद झिझक रहा था इस लिए उसने मेरे यहां आने का मकसद जानने के लिए ये तरीका अपनाया।

"सेवा करने की कोई ज़रूरत नहीं है काका।" मैंने उसकी बेचैनी और चिंता को दूर करने के इरादे से कहा____"जैसा कि मैंने आपको बताया था कि मैं यहां एक ज़रूरी काम से आया हूं। असल में मैं आपसे ये जानने आया हूं कि मुरारी के भाई जगन ने कितना कर्ज़ लिया था आपसे? ख़याल रहे, मुझे बिल्कुल सच सच ही बताना क्योंकि झूठ और दोगलापन मुझे ज़रा भी पसंद नहीं है।"

"ज...जगन???" शंकर लाल के साथ साथ उसका बेटा भी ये नाम सुन कर चौका। उधर कुछ पलों तक सोचने के बाद शंकर लाल ने कहा____"अच्छा अच्छा आप उस जगन की बात कर रहे हैं लेकिन....आप उसके कर्ज़ लेने के संबंध में क्यों पूछ रहे हैं कुंवर?"

"क्योंकि आपकी मेहरबानियों के चलते जगन की पत्नी और उसके बच्चे बेघर हो चुके हैं।" मैंने इस बार सख़्त भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"अपना कर्ज़ा वसूलने के चक्कर में आपने ज़रा भी ये सोचना गवारा नहीं किया कि एक असहाय औरत बेघर होने के बाद अपने बच्चों को कहां रखेगी और उन्हें क्या खिला कर ज़िंदा रखेगी? क्या आपको लगता है कि ऐसा कर के आपने कोई महान काम किया है? अगर ये महान काम है तो फिर आपको ये भी समझ लेना चाहिए कि जो मैं करता हूं वो इससे भी ज़्यादा महान काम है। क्या आप चाहते हैं कि मैं अपनी महानता आपके ही घर पर दिखाऊं?"

मेरी बातें सुनते ही शंकर लाल सन्नाटे में आ गया। उधर उसका बेटा और पत्नी भी सन्न रह गई थी। फिर जैसे एकदम से उन्हें होश आया। कुछ दूरी पर खड़े उसके मुस्टंडे भी मेरी बातें सुन चुके थे जिसके चलते उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका हो गई थी। अतः वो पूरी तरह मुस्तैद नज़र आने लगे थे।

"य...ये आप कैसी बातें कर रहे हैं छोटे कुंवर?" शंकर लाल ने बौखलाए हुए लहजे से कहा____"आपको ज़रूर कोई ग़लतफहमी हुई है। हमने ऐसा कुछ भी नहीं किया है।"

"ख़ामोश।" मैं एक झटके में चारपाई से उठ कर गुस्से में गुर्रा उठा____"मैंने पहले ही आपको बता दिया है कि मुझे झूठ और दोगलापन ज़रा भी पसंद नहीं है। इस लिए झूठ बोलने की कोशिश मत करना वरना अच्छा नहीं होगा।"

"ये आप ठीक नहीं कर रहे हैं कुंवर।" हीरा लाल नागवारी भरे लहजे से बोला_____"आप मेरे पिता जी से ऐसे लहजे में बात नहीं कर सकते।"

"अभी तुमने मेरा लहजा ठीक से देखा ही नहीं है हीरा लाल।" मैंने सर्द लहजे में कहा____"मैं अगर अपने लहजे में आ गया तो तुम सोच भी नहीं सकते कि किस तरह का जलजला आ जाएगा तुम सबके जीवन में।"

"च...छोटे कुंवर भगवान के लिए ऐसा न कहें।" मेरी बातों से घबरा कर सहसा उसकी मां बोल पड़ी____"अगर कोई संगीन बात है तो उसे शांति से सुलझा लीजिए।"

"मैं यहां शांति से सुलझाने ही आया था काकी।" मैंने कहा____"लेकिन आपके पति महाशय को शायद शांति से बात करना पसंद नहीं है बल्कि झूठ बोलना पसंद है। इन्हें लगता है कि मुझे कुछ पता ही नहीं है।"

"मु...मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे कुंवर।" शंकर लाल सहसा हाथ जोड़ कर बोल पड़ा____"पता नहीं कैसे मेरे मुंह से झूठ निकल गया? हां, ये सच है कि मुरारी के भाई जगन ने मुझसे कर्ज़ा लिया था और एक बार नहीं बल्कि चार चार बार लिया था। मैंने भी उसकी ज़मीनों को हड़पने की नीयत से कर्ज़ा दे दिया था। दोनों भाईयों की ज़मीनें नहर के पास हैं जिसके चलते उनमें फसल अच्छी होती है। अगर ऐसा न होता तो मैं बार बार उसे कर्ज़ा नहीं देता। मैं जानता था कि जुवां खेलने वाला जगन कभी कर्ज़ा नहीं चुका सकेगा और अंत में वही होगा जो मैं चाहता था। तय समय पर जब उसने कर्ज़ा नहीं लौटाया तो मैंने जबरन उसके खेतों पर कब्ज़ा कर लिया और फिर कागज़ातों पर उसका अंगूठा लगवा लिया।"

"और जब इतने पर भी तुम्हें तसल्ली नहीं हुई तो तुमने उसके बीवी बच्चों को उनके ही घर से निकाल दिया?" मैंने सख़्त नज़रों से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"उसके बीवी बच्चों को मरने के लिए छोड़ दिया तुमने। एक बार भी तुम्हें तरस न आया कि बेसहारा हो जाने के बाद उनका क्या होगा?"

शंकर लाल ने सिर झुका लिया। उसके बेटे हीरा लाल से भी मानों कुछ कहते ना बन पड़ा था। उधर शंकर लाल की पत्नी कभी अपने पति को देखती तो कभी अपने बेटे को। उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे।

"ऐसी ज़मीन जायदाद और धन संपत्ति का क्या करोगे काका जिसे मरने के बाद अपने साथ ले कर ही नहीं जा सकोगे?" मैंने कहा____"लोगों की मज़बूरी का फ़ायदा उठा कर जो तुम पाप कर रहे हो ना असल में यही तुम्हारी कमाई है। इसी कमाई हुई दौलत को ले कर तुम ऊपर वाले के पास जाओगे और इतना तो तुम्हें भी पता है कि पाप की गठरी लिए जब इंसान ऊपर वाले के पास जाता है तो ऊपर वाला उसके साथ कैसा सुलूक करता है। ख़ैर तुम्हें तो ईश्वर ने पहले से ही इतना संपन्न बना रखा है तो फिर क्यों ऐसे कर्म करते हो? ईश्वर ने दिया है तो उससे ग़रीब इंसानों का भला करो। भला करने से ग़रीबों की दुआएं मिलेंगी, पुण्य होगा। वही दौलत ऊपर वाले के पास पहुंचने पर तुम्हारे काम आएगी।"

"आप बिल्कुल सही कह रहे हैं छोटे कुंवर।" शंकर लाल की बीवी ने अधीरता से कहा____"लेकिन इन बाप बेटों को कभी समझ नहीं आएगा। मैं तो इन्हें समझा समझा कर थक गई हूं। ये तो मुझे डरा धमका कर चुप ही करा देते हैं। अच्छा हुआ जो आज आप यहां आ गए और इनकी अकल ठिकाने लगा दी।"

"मैं ये नहीं कहता काकी कि जगन से इन्हें अपना कर्ज़ा नहीं उसूलना चाहिए था।" मैंने कहा____"वो तो इनका हक़ था क्योंकि उन्होंने उसे दिया था लेकिन जगन के गुज़र जाने के बाद उसके बीवी बच्चों को बेघर नहीं करना चाहिए था। ऐसा करना तो हद दर्जे का गुनाह होता है। हम भी ग़रीबों को कर्ज़ा देते हैं लेकिन हमने आज तक कभी किसी को नहीं सताया बल्कि हमेशा ऐसा होता है कि हम कर्ज़ा ही माफ़ कर देते हैं। मेरे पिता जी कभी किसी ग़रीब को तड़पते हुए नहीं देख सकते।"

"मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे कुंवर।" शंकर लाल ने कहा____"अब से ऐसा नहीं होगा। मुझे समझ आ गया है कि मैंने ऐसा कर के अब तक कितना अपराध किया है। मैं आज और अभी जगन का कर्ज़ा माफ़ करता हूं और उसका जो घर मैंने अपने क़ब्जे में लिया है उसे भी मुक्त करता हूं।"

"नहीं काका।" मैंने कहा____"सिर्फ घर ही नहीं बल्कि उसकी ज़मीनें भी। मुझे बताओ कितना कर्ज़ा होता है उसका?"

"अब आपसे झूठ नहीं बोलूंगा।" शंकर लाल थोड़ा झिझकते हुए बोला____"यही कोई इक्कीस हज़ार के क़रीब उसका ब्याज समेत कर्ज़ा होगा।"

"ठीक है।" मैंने अपनी जेब से रुपयों की एक गड्डी निकाली और उसमें से इक्कीस हज़ार निकाल कर शंकर लाल की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये लो इक्कीस हज़ार और इसी वक्त अपने बही खाते से जगन के नाम का खाता खारिज़ करो।"

शंकर लाल ने कांपते हाथों से रुपए लिए और फिर पलट कर बैठके की तरफ चला गया। कुछ ही देर में वो बही खाते की मोटी सी किताब ले कर मेरे पास आ गया। मेरे सामने ही उसने वो किताब खोली। पन्ने पलटते हुए वो जल्द ही जगन के खाते पर पहुंचा और फिर क़लम से उस खाते पर कई आड़ी तिरछी लकीरें खींच दी। यानि अब जगन का खाता खारिज़ हो चुका था। उसके बाद वो फिर से वापस गया और इस बार कोठरी से कागज़ात ले कर आया।

"ये लीजिए कुंवर।" फिर उसने उन कागज़ातों को मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये जगन की ज़मीनों के वो कागज़ात हैं जिनमें मैंने उसका अंगूठा लगवाया था।"

कुछ देर इधर उधर की बातों के बाद मैं अपनी जीप में आ कर बैठ गया। मेरे बैठते ही भुवन, भीमा और बलवीर भी बैठ गए। अगले ही पल जीप लंबी चौड़ी चौगान में घूमने के बाद सड़क की तरफ बढ़ती चली गई।

"मुझे आपसे ये उम्मीद बिल्कुल भी नहीं थी पिता जी कि आप उससे इतना घबरा जाएंगे।" हीरा लाल ने अपने पिता से कहा____"और इतनी आसानी से उसके सामने हथियार डाल कर वही करने लग जाएंगे जो वो चाहता था। आपने ऐसा क्यों किया पिता जी?"

"अगर मैं ऐसा न करता तो बहुत बड़ी मुसीबत हो जाती बेटे।" शंकर लाल ने कहा____"वो दादा ठाकुर का बेटा ज़रूर है लेकिन अपने पिता की तरह वो नर्म मिज़ाज का हर्गिज़ नहीं है। मैंने अक्सर सुना है कि उसके आचरण बिल्कुल बड़े दादा ठाकुर जैसे हैं। जिस लड़के पर उसके अपने पिता का कोई ज़ोर नहीं चलता उस पर किसी और का ज़ोर कैसे चल सकता है? इस लिए ऐसे ख़तरनाक लड़के से दुश्मनी मोल लेना बुद्धिमानी नहीं थी बेटा। क्या हुआ अगर जगन की ज़मीनें हमारे हाथ से निकल गईं, कर्ज़ का रुपिया तो हमें मिल ही गया है उससे। अभी जीवन बहुत शेष है मेरे बेटे और गांव में बहुत से ग़रीब अभी बाकी हैं जिनके पास ज़मीनें हैं और इतना ही नहीं जो किसी न किसी मज़बूरी के चलते हमसे कर्ज़ा लेने आएंगे ही।"

"शायद आप सही कह रहे हैं पिता जी।" हीरा लाल अपने पिता की बातों को समझ कर हौले से मुस्कुराते हुए बोला____"सच में हमें ऐसे ख़तरनाक लड़के से दुश्मनी नहीं मोल लेना चाहिए था।"

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भुवन, भीमा और बलवीर को वापस उनके यथा स्थान पर छोड़ने के बाद मैं सीधा मुरारी काका के घर पहुंचा। घर के बाहर जीप रोक कर मैं उतरा और दरवाज़े के पास आ कर अभी खड़ा ही हुआ था कि तभी दरवाज़ा खुल गया। सामने रूपा नज़र आई जो मुझे देखते ही खुश हो गई।

घर के अंदर दाख़िल हो कर मैं आंगन में आ गया। सब लोग आंगन में ही बैठे हुए थे किंतु मुझे आया देख सब खड़े हो गए। सरोज और मालती के चेहरों पर उत्सुकता के भाव थे। दोनों को बारी बारी से देखने के बाद मैं सीधा मालती के क़रीब पहुंचा।

"काकी, ये रहे तुम्हारी ज़मीनों के वो कागज़ात जिनमें साहूकार शंकर लाल ने तुम्हारे पति जगन से अंगूठा लगवाया था।" मैंने कागज़ातों को मालती की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"चाहो तो इन्हें रखे रहना या फिर जला देना और हां, अब तुम अपने बच्चों के साथ अपने घर में भी रह सकती हो। अब वो लोग तुम्हें कभी परेशान नहीं करेंगे।"

मालती ने ये सुना तो उसकी आंखें छलक पड़ीं। एकाएक वो मेरे पैरों में गिर पड़ी और फिर रोते हुए बोली____"तुम धन्य हो छोटे कुंवर। तुमने इतना कुछ हो जाने के बाद भी मेरा और मेरे बच्चों का भला किया। मैं जीवन भर तुम्हारे पांव धो कर भी पीती रहूं तब भी तुम्हारा ये एहसान नहीं चुका सकूंगी।"

"अरे! ये क्या कर रही हो काकी?" मैं उससे दूर हटते हुए बोला____"तुम्हें ये सब करने और कहने की ज़रूरत नहीं है। अपने घर में अपने बच्चों के साथ बेफ़िक्र हो कर रहो। अब तुम्हारे ऊपर किसी का कोई कर्ज़ा नहीं है इस लिए अपने खेतों पर आराम से फसल उगा कर जीवन यापन करो।"

कहने के साथ ही मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले और उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये कुछ पैसे भी रख लो। इससे अपनी थोड़ी बहुत ज़रूरतें पूरी कर लेना।"

मालती ने कांपते हाथों से पैसे ले लिए। उसकी आंखों में आंसू थे लेकिन खुशी के। वो मुझे इस तरह देखे जा रही थी जैसे मैं कोई फ़रिश्ता था जिसने एक ही पल में उसकी सारी समस्याओं का अंत कर दिया था। ख़ैर मैंने रूपा को चलने का इशारा किया और पलट कर दरवाज़े की तरफ बढ़ा ही था पीछे से सरोज काकी की आवाज़ सुन कर ठिठक गया।

"मुझे माफ़ कर दो वैभव।" फिर वो मेरे सामने आ कर बोली____"पिछले कुछ समय से तुम्हारे प्रति मेरा बर्ताव अच्छा नहीं था। मैंने तुम्हारे बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था और बोल भी दिया था। मेरे मन में जाने कैसे ये बात बैठ गई थी कि तुम मनहूस हो और इसी लिए मेरी बेटी आज इस दुनिया में नहीं है। मैं भूल गई थी कि इंसान का जीना मरना तो ऊपर वाले की मर्ज़ी से होता है। मुझ अभागन को माफ़ कर दो बेटा।"

"तुम्हें माफ़ी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है काकी।" मैंने कहा____"तुमने मेरे बारे में अगर ऐसा सोच लिया था तो ग़लत नहीं सोच लिया था। तुम्हारी जगह कोई भी होता तो शायद ऐसा ही सोचता। ख़ैर, ये मत समझना कि अनुराधा के ना रहने से तुमसे या तुम्हारे घर से मेरा कोई रिश्ता नहीं रहा, बल्कि ये रिश्ता तो हमेशा बना रहेगा। जब तक तुम्हारा बेटा बड़ा हो कर तुम्हारी ज़िम्मेदारी उठाने के लायक नहीं हो जाता तब तक तुम दोनों की ज़िम्मेदारी मेरी ही रहेगी। चलता हूं अब।"

कहने के साथ ही मैं दरवाज़े के बाहर निकल गया। मेरे पीछे पीछे रूपा भी आ गई थी। थोड़ी ही देर में हम दोनों जीप में बैठे अपने मकान की तरफ बढ़े चले जा रहे थे।

"मालती काकी के इस काम में तुम्हें कोई समस्या तो नहीं हुई ना?" रास्ते में रूपा ने मुझसे पूछा____"सब कुछ बिना किसी वाद विवाद के ही हो गया था न?"

"हां।" मैंने कहा____"उनकी इतनी औकात नहीं थी कि वो मुझे खाली हाथ वापस लौटा देते।"

"मुझे तो बड़ी घबराहट हो रही थी कि जाने वहां क्या होगा?" रूपा ने गंभीर हो कर कहा____"जल्बाज़ी में मैं ये भी भूल गई थी कि मुझे इस तरह तुम्हें ख़तरे में नहीं डालना चाहिए था। आख़िर किसी सफ़ेदपोश का ख़तरा तो है ही तुम्हें जो न जाने कब से तुम्हारी जान का दुश्मन बना बैठा है।"

"फ़िक्र मत करो।" मैंने कहा____"सफ़ेदपोश ऐसी चीज़ नहीं है जो सच्चे मर्द की तरह दिन के उजाले में सामने से आ कर मेरा सामना करे।"

"जो भी हो लेकिन हमें बिना सोचे समझे ऐसा क़दम नहीं उठाना चाहिए था।" रूपा ने सहसा भारी गले से कहा____"अगर आज तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा हो जाता तो मैं जीते जी मर जाती।"

"अरे! ऐसा कुछ नहीं होता?" मैंने कहा____"तुम बेकार में ये सब मत सोचो।"

"नहीं, आज के बाद मैं कभी तुम्हें इस तरह के कामों को करने को नहीं कहूंगी।" रूपा ने नम आंखों से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"सारी दुनिया का दुख दूर करने का ठेका नहीं लिया है तुमने। जिसके साथ जो होना है होता रहे, सबको अपने भाग्य के अनुसार ही सुख दुख मिलता है। उसके लिए तुम्हें अपनी जान को मुसीबत में डालने की कोई ज़रूरत नहीं है।"

मैंने इस बार कुछ न कहा। थोड़ी ही देर में जीप मकान के बाहर पहुंच गई। हम दोनों अपनी अपनी तरफ से नीचे उतरे। एकाएक ही मेरी घूमती हुई नज़र एक जगह जा कर ठहर गई।

मकान की चौकीदारी करने वाले दोनों मज़दूर मकान के बाहर खाली मैदान में लकड़ी की चार मोटी मोटी बल्लियां गाड़ रहे थे। मैंने आवाज़ लगा कर पूछा कि वो क्या कर रहे हैं तो दोनों ने जवाब दिया कि वो घोंपा बना रहे हैं ताकि उसमें बैठ कर आस पास नज़र रख सकें। इसी तरह का एक घोंपा मकान के पिछले भाग में भी बना दिया था दोनों ने। मैं ये सोचने पर मजबूर हो गया कि मेरी और मकान की सुरक्षा के लिए वो दोनों क्या क्या सोचते रहते हैं। दोनों की ईमानदारी पर मुझे बड़ा ही फक्र हुआ।​
 
अध्याय - 130
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दो हफ़्ते ऐसे ही गुज़र गए।
इन दो हफ़्तों में काफी कुछ बदलाव आ गया था। रूपा ने जिस तरह से मेरा ख़याल रखा था और जिस तरह से मेरा मनोबल बढ़ाया था उसके चलते मैं अब काफी बेहतर महसूस करने लगा था। अनुराधा की यादें मेरे दिल में थीं और जब भी उसकी याद आती थी तो मैं उदास सा हो जाता था लेकिन रूपा हर बार मुझे सम्हाल लेती थी। पिछले कुछ दिनों से हमारे बीच अच्छा ताल मेल हो गया था। अब मैं उससे किसी बात के लिए संकोच नहीं करता था। वो जब भी शरारतें करती तो मैं भी उसे छेड़ देता था। कहने का मतलब ये कि हम दोनों एक दूसरे से काफी सहज हो गए थे।

सरोज काकी भी अब पहले से काफी बेहतर थी। रूपा हर रोज़ उसके घर जाती थी और उसकी बेटी बन कर उसका ख़याल रखती थी। सरोज भी उसे अब खुल कर स्नेह करने लगी थी। उसका बेटा अनूप रूपा से काफी घुल मिल गया था। रूपा उसे अक्सर पढ़ाती थी और कहती थी कि अगले साल से वो विद्यालय में पढ़ेगा।

उधर मालती भी अपने बच्चों के साथ अपने घर में रहने लगी थी और अपने खेतों पर मेहनत करने लगी थी। इस काम में उसकी बड़ी और मझली बेटी भी उसकी मदद करतीं थी।

कहते हैं वक्त अगर किसी तरह का दुख देता है तो उस दुख को दूर करने का कोई न कोई इंतज़ाम भी करता है। देर से ही सही लेकिन इंसान अपने दुख और अपनी तकलीफ़ों से उबर कर जीवन में आगे बढ़ ही जाता है। सबकी तकलीफ़ें पूरी तरह भले ही दूर नहीं हुईं थी लेकिन काफी हद तक सामान्य हालत हो गई थी।

इधर मैं हर रोज़ अपने वचन को निभाते हुए हवेली में मां से मिलने जाता था जिससे मां भी खुश रहतीं थीं। भाभी को अपने मायके गए हुए पंद्रह दिन हो गए थे। मैं हर रोज़ मां से उनके बारे पूछता था कि वो कब आएंगी? जवाब में मां यही कहतीं कि उन्हें अपने माता पिता के पास कुछ समय रहने दो।

इधर पिता जी आज कल बहुत भाग दौड़ कर रहे थे। हर रोज़ मुंशी किशोरी लाल के साथ किसी न किसी काम से निकल जाते थे। सुरक्षा के लिए शेरा उनके साथ ही साए की तरह रहता था।

रूपचंद्र हर दिन अपनी बहन से मिलने दूध देने के बहाने आता था। अपनी बहन को मेरे साथ खुश देख वो भी खुश था। ज़ाहिर है वो सारी बातें अपने घर वालों को भी बताता था जिसके चलते उसके घर वाले भी खुश और बेफ़िक्र थे। उन्हें बस इसी बात की चिंता थी कि क्या होगा उस दिन जब मुझे, भाभी को और रूपा को कुल गुरु की भविष्यवाणी के बारे में पता चलेगा? रूपा के बारे में तो उन्हें यकीन था कि उसे कोई समस्या नहीं होगी किंतु इस बारे में मेरी और भाभी की क्या प्रतिक्रिया होगी यही सबसे बड़ी चिंता की बात थी सबके लिए।

अपने संबंधों को लोगों की नज़र में बेहतर दिखाने के लिए अक्सर दादा ठाकुर और गौरी शंकर एक साथ कहीं न कहीं जाते हुए लोगों को नज़र आते जिसके चलते लोग आपस में दबी ज़ुबान में कुछ न कुछ बोलते थे। हालाकि जैसे जैसे दिन गुज़र रहे थे लोगों की सोच और राय बदलती जा रही थी। इसी बीच पिता जी एक दिन गौरी शंकर के साथ उसकी परेशानी को दूर करने के लिए उस गांव में गए जहां पर गौरी शंकर के बड़े भाईयों की बेटियों का रिश्ता हुआ था। पिता जी के साथ रहने का ही ऐसा असर हुआ था कि उन लोगों ने फ़ौरन ही रिश्ते को फिर से बनाने के लिए हां कह दिया था। ये देख गौरी शंकर बड़ा खुश हुआ था। उसे पहले से ही इस बात का यकीन था कि दादा ठाकुर का अगर दखल हो गया तो उसकी ये सबसे बड़ी समस्या चुटकियों में दूर हो जाएगी और वही हुआ भी था। गौरी शंकर ने जब ये खुश ख़बरी अपने घर की औरतों को सुनाई तो पूरे घर में दर्द मिश्रित ख़ुशी का माहौल छा गया था।

ऐसे ही एक दिन जब मैं रूपा को सरोज के घर से वापस मकान की तरफ ला रहा था तो रूपा को थोड़ा उदास देखा। आम तौर पर वो जब भी मेरे साथ होती थी तो खुश ही रहती थी लेकिन आज उसके चेहरे पर उदासी थी। मैं जानता था कि पिछले बीस दिनों से वो मेरे साथ यहां रह रही थी और अपने घर नहीं गई थी। यूं तो हर रोज़ ही वो अपने भाई से मिलती थी लेकिन बाकी घर वालों से वो नहीं मिली थी। मैं समझ सकता था कि उसकी उदासी का कारण शायद यही था।

"क्या हुआ?" मैंने अंजान बनते हुए उससे पूछा____"तुम उदास नज़र आ रही हो आज? क्या कुछ हुआ है अथवा कोई ऐसी बात है जिसके चलते तुम उदास हो गई हो?"

"ऐसी कोई बता नहीं है।" उसने अनमने भाव से जवाब दिया____"अपने प्रियतम के साथ हूं तो भला मैं क्यों उदास होऊंगी?"

"झूठ मत बोलो।" मैंने कहा____"मैं अच्छी तरह जानता हूं कि तुम किसी बात से उदास हो। तुम्हारे चेहरे पर आज वैसा नूर नहीं दिख रहा जैसे हर रोज़ दिखता है। बताओ ना क्या बात है? क्या घर वालों की बहुत याद आती है?"

"हां थोड़ी सी आती है।" रूपा ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"ख़ैर जाने दो, देखो हम पहुंच गए अपने घर।"

जीप जैसे ही रुकी तो रूपा अपनी तरफ से उतर गई और फिर बोली____"मैं चाय बनाती हूं, तब तक तुम हाथ मुंह धो लो।"

इतना कह कर वो चली गई किंतु मैं अब सोच में पड़ गया था। आज उसके चेहरे की उदासी देख कर मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। अचानक ही ये सोच कर बुरा लगने लगा था कि मेरी वजह से वो कितना कुछ सह रही थी। पिछले बीस दिनों से वो मेरा एक बीवी की तरह ख़याल रख रही थी। अपने और मेरे कपड़े धोना, मेरी छोटी से छोटी बात का ख़याल रखना। मेरे हिस्से के काम भी वो ख़ुद ही कर रही थी। एक साथ रहने पर भी हमने अपनी मर्यादा भंग नहीं की थी और ना ही उसने कभी इसकी तरफ मेरा ध्यान आकर्षित किया था। हम दोनों ही नहीं चाहते थे कि हम अपने घर वालों के भरोसे को तोड़ कोई नाजायज़ क़दम उठाएं।

ख़ैर, एकदम से मुझे एहसास हुआ कि अंजाने में ही मेरे ऊपर उसके कितने एहसास हो गए हैं जिन्हें चुका पाना शायद ही कभी मुमकिन हो सकेगा।

जीप से उतर कर मैं गुसलखाने की तरफ चला गया। वहां से हाथ मुंह धो कर आया और अंदर ही चला गया। अंदर रूपा चूल्हे के पास बैठी चाय बना रही थी। मुझे आया देख उसके सूखे लबों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई। मैं कुर्सी को खिसका कर उसके पास ही बैठ गया। उसने चाय छान कर कप में डाली और मेरी तरफ बढ़ा दिया।

"कल सुबह अपना सामान समेट कर थैले में डाल लेना।" मैंने उसके हाथ से चाय का कप लेने के बाद कहा____"कल सुबह तुम्हें वापस अपने घर जाना है।"

"य...ये क्या कह रहे हो तुम?" रूपा मेरी बात सुन कर चौंकी____"क्या मुझसे कोई भूल हो गई है? क्या मेरे यहां रहने से तुम्हें तकलीफ़ होती है?

"ऐसी कोई बात नहीं है रूपा।" मैंने कहा____"बल्कि सच ये है कि अब मैं और ज़्यादा तुम्हें तकलीफ़ नहीं दे सकता। मेरी बेहतरी के लिए तुम पिछले बीस दिनों से अपना घर परिवार छोड़े मेरे साथ हो और मेरा हर तरह से ख़याल रख रही हो। इस लिए अब बहुत हुआ, मैं अब बिल्कुल ठीक हूं। मेरा ख़याल रखने के लिए तुमने इतने दिनों से इतना कुछ सहा है और मैंने एक बार भी तुम्हारी तकलीफ़ों के बारे में नहीं सोचा। मुझे अब जा कर एहसास हो रहा है कि कितना स्वार्थी हूं मैं।"

"तुम ये कैसी बातें कर रहे हो वैभव?" रूपा ने आहत भाव से कहा____"मैंने जो कुछ किया है वो मेरा फर्ज़ था, मेरा कर्तव्य था। तुम कोई ग़ैर नहीं हो, मेरे अपने हो। मेरे दिल के सरताज हो, मेरे सब कुछ हो। अपने महबूब के लिए मैंने जो भी किया है उससे मुझे अत्यंत खुशी मिली है और मैं चाहती हूं कि सारी ज़िंदगी मैं इसी तरह अपने दिलबर की सेवा करूं।"

"ठीक है, लेकिन मेरा भी तो कोई फर्ज़ होता है।" मैंने कहा____"तुम मुझसे प्रेम करती हो तो मेरे दिल में भी तो तुम्हारे प्रति वैसी ही भावनाएं हैं। मैं भी चाहता हूं कि जो लड़की मुझे इतना प्रेम करती है और मेरा इतना ख़याल रखती है उसकी ख़ुशी के लिए मैं भी कुछ करूं। उसे बहुत सारा प्यार करूं और उसे अपनी धड़कन बना लूं।"

"हां तो बना लो ना।" रूपा के चेहरे पर एकाएक ख़ुशी की चमक उभर आई____"मैंने कब मना किया है कि मुझे प्यार ना करो अथवा मुझे अपनी धड़कन न बनाओ? अरे! मैं तो कब से तरस रही हूं अपने दिलबर की आगोश में समा जाने के लिए।"

"आगोश में समाने का अभी वक्त नहीं आया है जानेमन।" मैंने सहसा मुस्कुराते हुए कहा____"जिस दिन आएगा उस दिन देखूंगा कि कितनी तड़प है तुम्हारे अंदर। फिलहाल तो मैं ये चाहता हूं कि तुम अपने घर जाओ और अपने परिवार के लोगों से मिलो।"

"हाय! मेरा महबूब कितना ज़ालिम है क्या करूं?" रूपा ने ठंडी आह सी भरी____"ख़ैर कोई बात नहीं सरकार। जब इतना इंतज़ार किया है तो थोड़ा समय और सही।"

"आज यहां पर तुम्हारी आख़िरी रात है।" मैंने कहा____"कल सुबह मैं तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ आऊंगा।"

"तो क्या तुम यहीं रहोगे?" रूपा ने हैरानी से देखा मुझे____"क्या हवेली नहीं जाओगे तुम? देखो, अगर तुम ऐसा करने का सोच रखे हो तो फिर मैं भी अपने घर नहीं जाऊंगी। यहीं रहूंगी, तुम्हारे साथ।"

"अब ये क्या बात हुई?" मैंने कहा____"देखो, अब तुम्हें मेरे साथ यहां रहने की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हारे प्रयासों से और तुम्हारे सच्चे स्नेह के चलते मैं अब बिल्कुल ठीक हूं। इस लिए तुम्हें अब मेरे साथ रहने की ज़रूरत नहीं है। अब तुम्हारा अपने घर में ही रहना उचित होगा। वैसे भी मेरे खातिर तुमने और तुम्हारे घर वालों ने बहुत बड़ा क़दम उठाया था। ऐसा हर कोई नहीं कर सकता। मुझे ख़ुशी है कि तुमने और तुम्हारे घर वालों ने सच्चे दिल से मेरी बेहतरी के बारे में सोचा। अब मुझे भी ये सोचना चाहिए कि इस सबके चलते गांव समाज के लोग तुम्हारे और तुम्हारे घर वालों के बारे में कोई ग़लत बात न सोचें।"

"मुझे इसकी कोई परवाह नहीं है।" रूपा ने दृढ़ता से कहा____"और ना ही मेरे घर वालों को है। वैसे भी तुमने तो सुना ही होगा कि जब मियां बीवी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी? जिस दिन हम दोनों शादी के बंधन में बंध जाएंगे और दोनों परिवारों के बीच एक अटूट रिश्ता जुड़ जाएगा तो गांव समाज के लोगों के मुंह अपने आप ही बंद हो जाएंगे।"

"बहुत खूब।" मैंने कहा____"मेरी होने वाली बीवी शादी से पहले ही अपने होने वाले पति से ज़ुबान लड़ाते हुए बहस किए जा रही है। धन्य हो आज की नारी।"

"चिंता मत करो पति देव।" रूपा ने मुस्कुराते हुए कहा____"शादी के बाद आपकी ये बीवी आपको शिकायत का कोई मौका नहीं देगी।"

"क्या पता।" मैंने गहरी सांस ली____"जब शादी के पहले ये हाल है तो बाद में ऊपर वाला ही जाने क्या होगा। तुम्हें पता है मेरी चाची तो एक दिन मुझे चिढ़ा भी रहीं थी कि मैं अभी से जोरु का गुलाम बनने की कोशिश करने लगा हूं।"

"चाची जी से कहना कि उनकी होने वाली बहू उनके बेटे को अपना गुलाम नहीं बनाएगी।" रूपा ने कहा____"बल्कि वो अपने पति की दासी बन कर ही रहेगी।"

"ग़लत बात।" मैंने कहा____"पत्नी को दासी बना के रखना गिरे हुए लोगों की निम्न दर्जे की मानसिकता है। कम से कम ठाकुर वैभव सिंह की मानसिकता ऐसी गिरी हुई हर्गिज़ नहीं हो सकती। सच्चे दिल से प्रेम करने वाली को तो बस अपने हृदय में ही बसा के रखूंगा मैं।"

"फिर तो मैं यही समझूंगी कि जीवन सफल हो गया मेरा।" रूपा ने गदगद भाव से मुझे देखते हुए कहा____"मेरे दिलबर ने इतनी बड़ी बात कह दी। जी करता है अपने महबूब के होठों को चूम लूं।"

"घूम फिर कर तुम्हारी सुई वहीं आ कर अटक जाती है।" मैंने उसे घूर कर देखा____"बहुत बिगड़ गई हो तुम।"

"क्या करें जनाब?" रूपा ने शरारत से कहा____"तुम सुधरने की राह पर चल पड़े और हम बिगड़ने की राह पर। है ना कमाल की बात?"

"कमाल की बच्ची रुक अभी बताता हूं तुझे।" कहने के साथ ही मैं उसकी तरफ झपटा तो वो चाय का कप छोड़ अंदर कमरे की तरफ भाग चली। मैं भी उसके पीछे लपका।

रूपा मेरे कमरे में दाख़िल हो कर अभी दरवाज़े को बंद ही करने जा रही थी कि मैंने दरवाज़े पर अपने दोनों हाथ जमा दिए जिससे रूपा दरवाज़े को पूरी ताक़त लगाने के बावजूद भी बंद न कर सकी। उसकी हंसी और चीखें पूरे मकान में गूंजने लगीं थी। मैंने थोड़ी सी ताक़त लगा कर उसे पीछे धकेला और कमरे के अंदर दाख़िल हो गया। उधर रूपा ने जब देखा कि मैं अंदर आ गया हूं तो वो पलट कर पीछे की तरफ भागी किंतु ज़्यादा देर तक वो मुझसे भाग न सकी। जल्दी ही मैंने उसे पकड़ लिया। रूपा थोड़ी सी ही भाग दौड़ में बुरी तरह हांफने लगी थी। जैसे ही मैंने उसे पकड़ा तो एकाएक उसने खुद को मेरे हवाले कर दिया।

"अब दिखाऊं मैं अपना कमाल?" मैंने उसके दोनों हाथों को पकड़ कर ऊपर दीवार में सटाते हुए कहा तो दीवार में पीठ के बल चिपकी रूपा ने मेरी आंखों में देखते हुए बड़ी मोहब्बत से कहा____"हां दिखाओ ना।"

रूपा अपलक मुझे ही देखने लगी थी। उसकी सांसें भारी हो चलीं थी जिसके चलते उसके सीने के उभार ऊपर नीचे हो रहे थे। उसके खूबसूरत चेहरे पर पसीने की बूंदें किसी शबनम की तरह झिलमिला रहीं थी। आज उसे इतने क़रीब से देख मैं खोने सा लगा लेकिन फिर जल्दी ही मैंने खुद को सम्हाला और उसको छोड़ कर उससे थोड़ा दूर हो गया।

"क्या हुआ?" उसने मुस्कुराते हुए कहा____"डर गए क्या मुझसे?"

"डर नहीं गया हूं।" मैंने थोड़ा संजीदा हो कर कहा____"लेकिन ये सही नहीं है। हम दोनों को अपनी सीमाओं का भी ख़याल रहना चाहिए। हम दोनों के घर वालों ने यही विश्वास कर रखा होगा कि हम ऐसा कोई भी काम नहीं करेंगे जिसके चलते मर्यादा का उल्लंघन हो और समाज के लोग तरह तरह की बातें करने लगें।"

"हां मैं समझती हूं।" रूपा ने भी खुद को सम्हालते हुए गंभीर हो कर कहा____"और सच कहूं तो मेरा भी ऐसा कोई इरादा नहीं था। मैं तो बस तुम्हें छेड़ रही थी। अगर तुम्हें इस सबसे बुरा लगा हो तो माफ़ कर दो मुझे।"

"अरे! माफ़ी मत मांगो तुम।" मैंने कहा____"मुझे पता है कि तुम बस नोक झोंक ही कर रही थी। ख़ैर छोड़ो, आओ अब चलें। हम दोनों की चाय ठंडी हो गई होगी।"

"चलो मैं फिर से गर्म कर देती हूं।" कहने के साथ ही रूपा दरवाज़े की तरफ बढ़ चली। मैं भी उसके पीछे पीछे बाहर आ गया।

रात को खाना खाने के बाद हम दोनों कमरे में आ गए। रूपा अपना सामान इकट्ठा करने लगी और फिर उन्हें एक थैले में रखने लगी। उसके ज़ोर देने पर मैं भी हवेली जाने के लिए तैयार हो गया था। अपना सामान थैले में डालने के बाद वो मेरे कपड़े भी समेटने लगी। थोड़ी ही देर में सामान को एक जगह रखने के बाद वो नीचे ज़मीन में बिछे बिस्तर पर लेट गई। कुछ देर इधर उधर की बातें हुईं उसके बाद हम दोनों सोने की कोशिश करने लगे। रात देर से निदिया रानी ने आ कर हमें अपनी आगोश में लिया।

✮✮✮✮

सुबह क़रीब आठ बजे हम दोनों मकान से निकलने ही वाले थे कि रूपचंद्र डल्लू में दूध लिए आ गया। मुझे जीप में सामान रखते देख वो एकदम से चौंक पड़ा। उसके पूछने पर मैंने बताया कि मैं आज से हवेली में ही रहूंगा इस लिए वो भी अपनी बहन को ले कर घर जाए। पहले तो रूपचंद्र को लगा कि उसकी बहन और मेरे बीच कोई झगड़ा हो गया है जिसके चलते मैं ऐसा कह रहा हूं किंतु फिर उसे यकीन हो गया कि ऐसी कोई बात नहीं है। वो सबसे ज़्यादा ये जान कर खुश हुआ कि उसकी बहन की कोशिशें रंग लाईं जिसके चलते अब मैं बेहतर हो गया हूं और इतना ही नहीं ख़ुशी ख़ुशी हवेली भी लौट रहा हूं।

बहरहाल, कुछ ही देर में ज़रूरी सामान रख गया। रूपचंद्र मोटर साईकिल से आया था इस लिए सामान के साथ रूपा को मोटर साईकिल में बैठा कर ले जाना उसके लिए संभव नहीं था। अतः तय ये हुआ कि रूपा अपने सामान को ले कर मेरे साथ जीप में ही चलेगी।

मकान की चौकीदारी कर रहे मज़दूरों को मैंने कुछ ज़रूरी निर्देश दिए और फिर चल पड़ा वहां से। रूपचंद्र अपनी मोटर साईकिल से आगे आगे चला जा रहा था जबकि मैं और रूपा जीप में बैठे उसके पीछे थे। रूपा के चेहरे पर उदासी के भाव थे और वो जाने किन ख़यालों में खो गई थी?

"क्या हुआ?" मैंने उसकी तरफ एक नज़र डालने के बाद कहा____"अब क्यों उदास नज़र आ रही हो?"

"उदास न होऊं तो क्या करूं?" रूपा ने मेरी तरफ देखा____"इतने दिनों से तुम्हारे साथ रह रही थी तो बड़ा खुश थी लेकिन अब फिर से तुम मुझसे दूर हो जाओगे। इसके पहले तो किसी तरह तुम्हारे बिना रह ही लेती थी लेकिन अब अकेले नहीं रहा जाएगा मुझसे।"

"अच्छा तो ये सोच कर उदास हो?" मैंने हौले से मुस्कुरा कर कहा____"अरे! जिसके पास रूपचंद्र जैसा प्यार करने वाला भाई हो उसे किसी बात से उदास होने की क्या ज़रूरत है?"

"हां ये तो है।" रूपा ने उसी उदासी से कहा____"लेकिन इसमें मेरे भैया भी क्या कर सकेंगे?"

"अरे! कमाल करती हो तुम।" मैंने कहा____"क्या तुम इतना जल्दी ये भूल गई कि तुम्हारा भाई तुम्हारी ख़ुशी के लिए कुछ भी कर सकता है? याद करो कि उसी ने तुम्हें मुझसे मिलाने का इंतज़ाम किया था। मुझे यकीन है कि आगे भी वो तुम्हारी ख़ुशी के लिए ऐसा ही करेगा।"

"हां लेकिन मैं अपने भैया से ये नहीं कह सकूंगी कि मुझे तुम्हारी याद आती है और मैं तुमसे मिलना चाहती हूं।।" रूपा ने कहा____"और लाज शर्म के चलते जब मैं ऐसा कह ही न सकूंगी तो वो भला कैसे कोई इंतज़ाम करेंगे?"

"तो क्या इसके पहले उसने तुम्हारे कहने पर मुझसे मिलवाने का इंतज़ाम किया था?" मैंने पूछा।

"न...नहीं तो।" रूपा ने झट से कहा____"मैंने तो उनसे ऐसा कुछ भी नहीं कहा था।"

"फिर भी उसने तुम्हें मुझसे मिलवाया था ना।" मैंने कहा____"इसका मतलब यही हुआ कि उसे अपनी बहन की चाहत का और उसकी ख़ुशी का बखूबी ख़याल था इसी लिए उसने बिना तुम्हारे कुछ कहे ही ऐसा किया था। यकीन मानो वो आगे भी ऐसा ही करेगा और तुम्हें उससे कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।"

"हां शायद तुम सही कह रहे हो।" रूपा के चेहरे पर एकाएक ख़ुशी की चमक उभर आई____"मेरे भैया ज़रूर मेरी ख़ुशी के लिए फिर से तुमसे मिलाने का कोई इंतज़ाम कर देंगे। कितने अच्छे हैं ना मेरे भैया?"

"हां।" मैं उसकी आख़िरी बात पर मुस्कुराए बिना न रह सका____"काश! दुनिया की हर बहन के पास तुम्हारे भाई जैसा भाई हो जो अपनी बहन के लिए इतने महान काम करे।"

"अब तुम मेरे भैया पर व्यंग्य कर रहे हो।" रूपा ने मुझे घूरते हुए कहा____"ऐसा कैसे कर सकते हो तुम? तुम्हें अभी पता नहीं है कि मेरे भैया कितने अच्छे हैं।"

"अरे! मैं कहां कुछ कह रहा हूं तुम्हारे भाई को?" मैं उसकी बात से एकदम से चौंक पड़ा____"मैं भी तो वही कह रहा हूं कि तुम्हारा भाई बहुत अच्छा है।"

"अच्छा ये बताओ अब कब मिलोगे?" रूपा ने एकाएक बड़ी उत्सुकता से मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"पहले की तरह मुझे तड़पाओगे तो नहीं ना?"

"एक काम करना तुम।" मैंने कहा____"अगर मैं तुमसे ना मिलूं अथवा अगर तुम्हें तड़पाऊं तो तुम सीधा हवेली आ जाना। वहां तो तुम मुझसे मिल ही लोगी।"

"हाय राम! ये क्या कह रहे हो?" रूपा एकदम से आंखें फैला कर बोली____"न बाबा न, हवेली नहीं आऊंगी मैं। वहां सब लोग होंगे और मुझे इस तरह हवेली में आते देखेंगे तो सब क्या सोचेंगे मेरे बारे में? मैं तो शर्म से ही मर जाऊंगी।"

"अरे! क्या सोचेंगे वो...यही ना कि उनकी होने वाली बहू बिना ब्याह किए ही अपने ससुराल में पधार गई है।" मैंने मुस्कुराते हुए कहा____"और ऐसा शायद इस लिए कि उनकी होने वाली बहू को अपने होने वाले पति से दूरी सहन नहीं हुई। इस लिए ब्याह होने से पहले ही ससुराल आ गई है।"

"हाय राम! कितने ख़राब हो तुम।" रूपा ने बुरी तरह लजाते हुए और झेंपते हुए कहा____"क्या तुम मुझे ऐसी वैसी समझते हो जो ऐसा कह रहे हो?"

"लो कर लो बात।" मैं उसकी दशा पर मन ही मन हंसते हुए बोला____"मैंने कब तुम्हें ऐसा वैसा समझा?"

"अब बातें न बनाओ तुम।" रूपा ने मुंह बनाते हुए कहा____"अच्छा मज़ाक मत करो और बताओ ना कब मिलोगे? मैं सच कह रही हूं घर में मुझसे अकेले न रहा जाएगा अब।"

"पर रहना तो पड़ेगा ना।" मैंने उसे ज़्यादा परेशान करना ठीक नहीं समझा इस लिए कहा____"हम दोनों को ही समाज के नियमों का पालन करना होगा वरना हम दोनों के ही खानदान पर समाज के लोग कीचड़ उछालने लगेंगे। क्या तुम्हें ये अच्छा लगेगा?"

"हां ये तो तुम सही कह रहे हो।" रूपा ने एकाएक गहरी सांस ली____"लेकिन पिछले बीस दिनों से तो हम दोनों साथ ही रहे हैं। अभी तक तो किसी ने कीचड़ नहीं उछाला हमारे खानदान पर?"

"हो सकता है कि लोगों को इस बारे में पता ही न चला हो।" मैंने कहा____"लेकिन ज़रूरी नहीं कि ऐसी बातें आगे भी लोगों को पता नहीं चलेंगी। तुमने भी सुना ही होगा कि इश्क़ मुश्क ज़्यादा दिनों तक दुनिया वालों से छुपे नहीं रहते।"

"हाय राम! अब क्या होगा?" रूपा मानों हताश हो उठी____"अगर ऐसा है तो फिर कैसे हमारी मुलाक़ात हो पाएगी? मैं सच कह रही हूं, मैं अब अपने कमरे में अकेले नहीं रह पाऊंगी। मुझे तुम्हारी बहुत याद आएगी। आख़िर हमारे मिलने का कोई तो उपाय होगा।"

"फ़िक्र मत करो।" मैंने उसकी हताशा को देखते हुए कहा____"कोई न कोई उपाय सोचूंगा मैं और हां, तुम भी बेकार में खुद को दुखी मत रखना। तुम तो वैसे भी एक महान और बहादुर लड़की हो यार। जब इतने समय तक इतना कुछ सहा है तो थोड़ा समय और सह लेना। हालाकि अब तो दुखी होने जैसी बात भी नहीं है क्योंकि हमारा मिलना ब्याह के रूप में तय ही हो चुका है। इस लिए ख़ुशी मन से उस तय वक्त का इंतज़ार करो। बाकी उसके पहले एक दूसरे से मिलने का कोई न कोई रास्ता निकाल ही लिया जाएगा।"

"ठीक है।" रूपा की हताशा दूर होती नज़र आई____"मैं सम्हाल लूंगी खुद को लेकिन तुम जल्दी ही मिलने का कोई रास्ता निकाल लेना।"

मैंने पलकें झपका कर हां कहा और सामने देखने लगा। जीप गांव में दाख़िल हो चुकी थी। चंद्रकांत का घर आ गया था और उसके बाद रूपा का ही घर था। अचानक रूपा को जैसे कुछ याद आया तो उसने चौंक कर मेरी तरफ देखा।

"अरे! हां मैं तो भूल ही गई।" फिर उसने जल्दी से कहा____"आते समय मां (सरोज) से नहीं मिल पाई मैं। आज जब मैं उनके घर नहीं पहुंचूंगी तो वो ज़रूर परेशान हो जाएंगी मेरे लिए। मुझे ध्यान ही नहीं रहा था उनसे मिलने का और ये बताने का कि मैं घर जा रही हूं तो अब से उनसे नहीं मिल पाऊंगी।"

"चिंता मत करो।" मैंने कहा____"मैं दोपहर के बाद एक चक्कर लगा लूंगा उसके घर का और उसे बता दूंगा तुम्हारे बारे में। ख़ैर देखो तुम्हारा घर भी आ गया। तुम्हारा भाई घर के बाहर ही सड़क पर खड़ा तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है।"

कुछ ही पलों में जीप रूपचंद्र के सामने पहुंच कर रुकी। जीप के रुकते ही रूपा चुपचाप उतर गई। उधर रूपचंद्र जीप से रूपा का जो थोड़ा बहुत सामान था उसे निकालने लगा। रूपा ने एक नज़र अपने भाई की तरफ डाली और फिर जल्दी से मेरी तरफ देखा। चेहरे पर जबरन ख़ुशी के भाव लाने का प्रयास कर रही थी वो। उसकी आंखों में झिलमिलाते आंसू नज़र आए मुझे। ये देख मुझे भी अच्छा नहीं लगा। अगर रूपचंद्र न होता तो यकीनन अभी वो मुझसे कुछ कहती। फिर उसने आंखों के इशारों से मुझे समझाने का प्रयास किया कि मैं जल्दी ही उससे मिलने का कोई रास्ता निकाल लूंगा।

थोड़ी ही देर में जब रूपचंद्र जीप से उसका सामान निकाल चुका तो वो थैला लिए मेरे क़रीब आया। मैंने देखा उसके चेहरे पर खुशी तो थी किंतु झिझक के भाव भी थे, बोला____"मेरी बहन से अगर कोई भूल हुई हो तो उसे नादान और नासमझ समझ कर माफ़ कर देना वैभव।"

"ऐसी कोई बात नहीं है भाई।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"सच तो ये है कि भूल तो हमेशा मुझसे हुई है उसकी सच्ची भावनाओं को समझने में। ख़ैर मुझे खुशी है कि उसके जैसी नेकदिल लड़की को ऊपर वाले ने मेरी किस्मत में लिखा है।"

मेरी बात सुन कर रूपचंद्र के चेहरे पर मौजूद ख़ुशी में इज़ाफा होता नज़र आया। फिर उसने अलविदा कहा और अपनी बहन को ले कर घर के अंदर की तरफ बढ़ता चला गया। उसके जाने के बाद मैंने भी जीप को हवेली की तरफ बढ़ा दिया।

रास्ते में मैं सोच रहा था कि जिस तरह मुझमें बदलाव आया था उसी तरह रूपचंद्र में भी बदलाव आया था। किसी जादू की तरह बदल गया था वो और अब अपनी बहन की ख़ुशी के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार था। ख़ैर यही सब सोचते हुए मैं हवेली पहुंच गया।​
 
अध्याय - 131
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रास्ते में मैं सोच रहा था कि जिस तरह मुझमें बदलाव आया था उसी तरह रूपचंद्र में भी बदलाव आया था। किसी जादू की तरह बदल गया था वो और अब अपनी बहन की ख़ुशी के लिए कुछ भी कर गुज़रने को तैयार था। ख़ैर यही सब सोचते हुए मैं हवेली पहुंच गया।

अब आगे....


रूपचंद्र के घर का आलम ही अलग था। घर की औरतें, दोनों बहुएं और सभी लड़कियां रूपा को घेर कर बैठ गईं थी। सबके चेहरे खिले हुए थे और रूपा के लिए बेहद प्यार और स्नेह झलक रहा था। रूपा को शर्म तो आ रही थी लेकिन ये देख कर उसे ख़ुशी भी हो रही थी कि मुद्दतों बाद आज सब उसे बड़े स्नेह से देख रहे थे और साथ ही ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसे अपनी पलकों में बैठा लेंगे।

गौरी शंकर खेतों की तरफ चला गया था इस लिए उसे रूपा के आने का पता ही नहीं था। रूपचंद्र ने ही सबको सारा हाल चाल बताया था जिसके बाद से ही सबके चेहरे खिले हुए थे। रूपा की मां, ताई और चाचियों ने तो उससे बस उतने ही सवाल किए थे जो मर्यादा के अनुकूल थे और जो वो सुनना चाहतीं थी किंतु जैसे ही रूपा अपने कमरे में पहुंची तो उसकी भाभियां और बहनें उससे ऐसे ऐसे सवाल करने लगीं जिनके जवाब देना तो दूर रूपा शर्म से ही पानी पानी हो गई थी। सब उसे छेड़े जा रहीं थी और पूरे कमरे में उनकी हंसी ठिठोली चालू थी। बड़ी मुश्किल से रूपा का उन सबसे पीछा छूटा था।

रूपा आज सही मायनों में ख़ुश थी और उसे आभास हो रहा था कि उसके घर वाले उसे सच्चे दिल से प्यार दे रहे थे। सहसा उसे पुरानी बातें याद आ गईं जिसके चलते अनायास ही उसका खिला हुआ चेहरा वेदना से बिगड़ने लगा और फिर अगले ही पल उसकी आंखों में आंसू तैरते नज़र आने लगे। उसने जल्दी ही ख़ुद को सम्हाला और फिर अपने कपड़े ले कर गुसलखाने में नहाने चली गई।

✮✮✮✮

उस वक्त पिता जी मुंशी किशोरी लाल के साथ कहीं बाहर जाने के लिए हवेली से निकले ही थे जब उनकी नज़र मुझ पर पड़ी। मैं जीप से उतरा और आगे बढ़ कर उनके पैर छुए। ये देख पहले तो वो हल्के से चौंके फिर सामान्य भाव से मुस्कुराते हुए मुझे आशीर्वाद दिया।

"सब ठीक तो है ना?" पिता जी ने मुझे बड़े ध्यान से देखते हुए पूछा।
"जी पिता जी।" मैंने कहा____"अब पहले से बेहतर हूं।"

"बहुत बढ़िया।" पिता जी के चेहरे पर चमक उभर आई____"हमें पूरा यकीन था कि हमारा खून बड़े से बड़ा ज़ख्म और दर्द सह जाएगा और खुद को सम्हाल कर वापस लौट आएगा। ख़ैर हमें अच्छा लगा कि अब तुम बेहतर हो और वापस आ गए हो। अंदर जाओ और सबसे मिलो। हम एक ज़रूरी काम से बाहर जा रहे हैं। दोपहर बाद ही आना संभव होगा।"

"जी ठीक है।" मैंने कहा____"और अब से आपको अकेले कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है। आपने जीवन भर दूसरों की खुशी के लिए संघर्ष किया है इस लिए मैं चाहता हूं कि अब आप आराम करें और अच्छे से अपना ख़याल रखें।"

"लगता है तुम हमें एकदम से बूढ़ा समझ बैठे हो बर्खुरदार।" पिता जी ने हौले से मुस्कुराते हुए कहा____"अरे! अभी भी हम में वो जान है कि तुम्हारे जैसे जवान लड़कों को एक पल में पटकनी दे सकते हैं।"

"मेरे कहने का ये मतलब नहीं था पिता जी।" मैंने झेंपते हुए कहा____"लेकिन हां, मेरी ऊपर वाले से यही प्रार्थना है कि आपके अंदर हमेशा ऐसा ही जोशो जुनूं रहे।"

"इस संसार में हर इंसान प्रकृति और समय चक्र के नियमों से बंधा होता है।" पिता जी ने दार्शनिकों वाले अंदाज़ से कहा____"इस लिए कोई भी इंसान सदा के लिए एक जैसा नहीं बना रह सकता। ख़ैर,अच्छा लगा हमें कि तुम अपने पिता के प्रति ऐसा स्नेह रखते हो। वैसे एक पिता के अंदर सच्चा जोशो जुनूं उसकी औलाद के अच्छे कर्मों से आता है। जब तुम हमारी जगह पर पहुंचोगे तो समझ जाओगे। फिलहाल अभी जाओ, बाद में मिलते हैं।"

मैंने ख़ामोशी से सिर हिलाया और फिर जीप से अपना थैला निकाल कर हवेली के अंदर की तरफ बढ़ चला। उधर पिता जी मंद मंद मुस्कुराते हुए किशोरी लाल और शेरा के साथ दूसरी जीप में बैठ कर निकल गए।

मां लोगों को जब पता चला कि अब मैं हवेली में ही रहूंगा तो सब बड़ा खुश हुईं। कुछ देर सबसे इधर उधर की बातें हुईं उसके बाद मैं अपना थैला ले कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया।

दोपहर को खाना पीना खा कर मैं मोटर साईकिल से निकल गया और सीधा सरोज काकी के घर पहुंचा। सरोज काकी रूपा को ले कर सच में परेशान थी। मैंने उसे सारी बात बताई तब जा कर उसे राहत मिली। थोड़ी देर उससे ज़रूरी मुद्दों पर बातें करने के बाद मैं अपने मकान की तरफ आ गया जहां कुछ देर मैं अनुराधा के विदाई स्थल पर बैठ कर उसको महसूस करने की कोशिश की। उसके बाद मैं अपने खेतों की तरफ निकल गया।

पिछले एक महीने से मैं अपनी ज़िम्मेदारियों से विमुख था। हालाकि मेरी ग़ैर मौजूदगी में भुवन ने सब कुछ सम्हाला हुआ था किंतु अब सब कुछ देखने की मेरी ज़िम्मेदारी थी।

भुवन से काफी देर तक अलग अलग विषय पर चर्चा की मैंने। ख़ास कर इस विषय पर कि सफ़ेदपोश को पकड़ने का जो जाल हमने फैलाया था उसका क्या हुआ?

बड़ी हैरत की बात थी कि चंद्रकांत के मामले के बाद से सफ़ेदपोश अब तक किसी को नज़र ही नहीं आया था। हम में से किसी को भी समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों था? आख़िर चाहता क्या है वो? अगर वो मेरी जान का दुश्मन था तो उसने मेरी जान लेने का कोई प्रयास क्यों नहीं किया अब तक? क्यों अपने वजूद से हमारे लिए ख़तरा बना हुआ बैठा है? बहरहाल, हमारे पास उसका इंतज़ार करने के सिवा कोई चारा नहीं था।

शाम को बैठक में पिता जी से मुलाक़ात हुई। पिता जी इस बात से खुश थे कि मैं अब बेहतर हूं और वापस पहले की तरह सामान्य स्थिति में आ गया हूं।

"क्या तुम अब ठीक हो?" पिता जी ने मेरी तरफ देखते हुए पूछा____"और क्या अब तुम अपनी ज़िम्मेदारियों को सम्हालने के लिए फिर से तैयार हो?"

"जी पिता जी।" मैंने कहा____"मैं अब ठीक हूं और हर ज़िम्मेदारी को सम्हालने के लिए अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगा।"

"बहुत बढ़िया।" पिता जी ने कहा____"तुम्हारी ग़ैर मौजूदगी में यहां हमने कुछ मुद्दों को ले कर कुछ विशेष क़दम उठाए हैं। आशा है कि जल्द ही बेहतर परिणाम निकलेंगे। ख़ैर बाकी सब तो ठीक रहा लेकिन सफ़ेदपोश का अब भी कोई पता नहीं चल सका है और जब पता ही नहीं चल सका तो उसे पकड़ पाना तो असंभव ही था। हमें उम्मीद थी कि हवेली से बाहर एकांत जगह पर तुम्हारे रहने से शायद वो तुम पर कोई हमला करने की कोशिश करेगा। इसके लिए हम और हमारे ढेर सारे आदमी पूरी तरह से तैयार भी थे लेकिन सब व्यर्थ ही रहा। कहने का मतलब ये कि पिछले एक महीने से सफ़ेदपोश का कहीं पता नहीं चला। उसे पकड़ने के लिए तैयार बैठे हमारे आदमियों को सिर्फ और सिर्फ निराशा ही मिली है। हमें समझ नहीं आ रहा कि जो सफ़ेदपोश एक समय तुम्हारी जान का दुश्मन बना हुआ था और तुम्हारी हस्ती मिटाने के लिए जाने कैसे कैसे ताव पेंच आजमा रहा था वो अचानक से इस तरह अपने इरादों से पीछे क्यों हट गया है? इतना तो अब हम समझ चुके हैं कि चंद्रकांत से उसकी अपनी कोई दुश्मनी नहीं थी, क्योंकि अगर होती तो वो बहुत पहले ही उसे और उसके परिवार को तबाह कर देता किंतु उसने ऐसा नहीं किया था बल्कि किया भी तो तब जब उसके ऐसा करने का किसी को कोई कारण ही समझ में नहीं आया। महेंद्र सिंह को भी अब तक रघुवीर का हत्यारा नहीं मिला। उन्हें भी समझ नहीं आ रहा कि आख़िर रघुवीर की हत्या किसने की होगी?"

"वाकई, ये बहुत ही ज़्यादा हैरानी और सोचने वाली बात है।" मैंने लंबी सांस ली____"सफ़ेदपोश का रहस्य तो ऐसा हो गया है जैसे वो कभी सुलझेगा ही नहीं। वैसे क्या लगता है आपको कि उसने मुझ पर हमला करने की कोई कोशिश क्यों नहीं की?"

"इस बारे में हम यही कहेंगे कि कुछ समय पहले तुमने जो कयास लगाया था वही सच हो सकता है।" पिता जी ने कहा____"हमारा मतलब है कि वो कभी तुम्हें जान से मारना ही नहीं चाहता था बल्कि तुम्हें इस हद तक बदनाम कर देना चाहता था कि लोगों की नज़र में तुम्हारी छवि एकदम शून्य हो जाए और लोग तुम्हें ऐसा व्यक्ति समझने लगें जिसे नर्क में भी जगह नहीं मिलनी चाहिए। ऐसी सूरत में तुम्हारी मानसिक हालत क्या हो जाती ये तुम खुद भी अंदाज़ा लगा सकते हो।"

"हां हो सकता है कि ऐसा ही हो।" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"लेकिन मुझे ये भी लगता है कि ये पूर्ण सत्य नहीं है। मेरे ऐसा कहने का मतलब उस कयास से है कि सफ़ेदपोश मुझे जान से नहीं मारना चाहता था। हां पिता जी, उसकी शुरुआत की गतिविधियों पर ग़ौर करेंगे तो यही लगेगा कि वो हर कीमत पर मुझे जान से मार डालना चाहता था। याद कीजिए जब उसने अपने दो नक़ाबपोशों के द्वारा मुझ पर आमों के बाग़ में हमला करवाया था। उस शाम अगर शेरा न होता तो यकीनन वो दोनों नक़ाबपोश मेरी जीवन लीला समाप्त कर चुके होते। इस तरह का हमला तो यही दर्शाता है कि सफ़ेदपोश की मंशा मेरी जान लेना ही थी।"

मेरी ये बात सुन कर पिता जी फ़ौरन कुछ बोल ना सके। शायद वो मेरी इन बातों से पूर्णतया सहमत थे और इसी लिए थोड़े सोच में पड़ गए थे।

"शायद तुम सही कह रहे हो।" फिर उन्होंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"सफ़ेदपोश की शुरुआती गतिविधियां यकीनन तुम्हारी जान लेने वाली ही थीं। अब सवाल ये है कि अगर वो सच में तुम्हारी जान ही लेना चाहता था तो अब तक उसने ली क्यों नहीं? क्या वो अपनी नाकामियों से इस हद तक निराश और हताश हो गया कि उसने तुम्हारी जान लेने का अपना इरादा ही बदल दिया या फिर कोई और बात है?"

"यकीनन कोई और ही बात है पिता जी।" मैंने सोचने वाले अंदाज़ में कहा____"हालाकि मैं ये बात भी नहीं मान सकता कि उसने अपनी नाकामियों से निराश हो कर मेरी जान लेने का इरादा बदल दिया होगा। आप भी समझते हैं कि जो व्यक्ति मुझे अपना कट्टर दुश्मन समझता हो और मेरी जान लेने के लिए इतना कुछ कर सकता हो क्या वो महज अपनी कुछ नाकामियों के चलते मेरी जान लेने का अपना इरादा बदल देगा? उसकी जगह अगर मैं होता तो ऐसा हर्गिज़ नहीं करता क्योंकि अपने कट्टर दुश्मन को जीवित छोड़ कर मैं कभी अपने जीवन में चैन और सुकून से जी ही न पाता। अपने दुश्मन को ख़त्म करके जो असीम सुख और शांति मुझे मिलती उसे मैं किसी भी कीमत पर प्राप्त करता, फिर भले ही चाहे इसके चलते मेरी खुद की जान ही क्यों न चली जाती। यानि स्पष्ट है कि सफ़ेदपोश ने कभी मेरी जान लेने का अपना इरादा नहीं बदला। अब रहा सवाल ये कि इसके बावजूद उसने मेरी जान लेने के लिए इतने सुनहरे मौकों के बाद भी मुझ पर कोई हमला नहीं किया तो इस बारे में यही कह सकता हूं कि ज़रूर इसके पीछे कोई ऐसी वजह है जिसकी हम कल्पना नहीं कर पा रहे हैं।"

"हम तुम्हारी दलीलों से पूरी तरह सहमत हैं।" पिता जी ने कुछ पलों तक सोचने के बाद कहा____"किंतु सोचने वाला सवाल ये भी है कि सफ़ेदपोश ने आख़िर किस मकसद से चंद्रकांत के साथ वैसा खेल खेला? आख़िर चंद्रकांत के हाथों उसकी अपनी ही बहू को हत्या करवा के उसे क्या हासिल हो गया होगा?"

"इससे भी पहले एक सवाल है पिता जी।" मैंने कहा____"और वो ये कि उसने चंद्रकांत से ये क्यों कहा कि वो उसके बेटे के हत्यारे को जानता है जोकि खुद उसकी ही बहू है? चंद्रकांत को उसने मनगढ़ंत कहानी क्यों सुनाई? इसकी वजह सिर्फ उसके हाथों अपनी ही बहू की हत्या कर देना बस तो नहीं हो सकता।"

"क्या मतलब है तुम्हारा?" पिता जी के चेहरे पर चौंकने वाले भाव उभरे। किशोरी लाल तो सांसें रोके बड़ी दिलचस्पी से हमारी बातें सुनने में मगन था।

"मेरा ख़याल ये है पिता जी कि रघुवीर का हत्यारा कोई और नहीं बल्कि सफ़ेदपोश ही है।" मैंने जैसे धमाका सा किया।

मेरी ये बात सुनते ही पिता जी आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगे जबकि किशोरी लाल कुर्सी पर बैठा इस तरह उछल पड़ा था मानों उसके पिछवाड़े में किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो।

"हो सकता है कि मेरा ये ख़याल ग़लत भी हो पिता जी।" उन्हें आश्चर्य से आंखें फाड़े देख मैंने आगे कहा____"लेकिन मेरे ऐसा सोचने का एक कारण भी है।"

"ऐसा सोचने का क्या कारण है तुम्हारे पास?" पिता जी ने जिज्ञासावश पूछ ही लिया। किशोरी लाल के चेहरे पर भी गहन उत्सुकता के भाव उभर आए थे।

"रघुवीर की हत्या हुए आज लगभग दो महीना होने को हैं।" मैंने एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा____"लेकिन उसके हत्यारे का पता अब तक ना महेंद्र सिंह चाचा लगा पाए और ना ही हम लोग। इतना ही नहीं आगे भी उसके हत्यारे का पता लगने के दूर दूर तक कोई आसार नज़र नहीं आ रहे। बिल्कुल यही हाल सफ़ेदपोश के बारे में भी है। उसका भी पता अब तक हम में से कोई नहीं लगा पाया। हमें ये तक पता नहीं है कि आख़िर उसकी मुझसे क्या दुश्मनी है जिसके चलते वो मेरी जान का दुश्मन बना हुआ है? ज़रा ग़ौर कीजिए पिता जी....रघुवीर के हत्यारे में और सफ़ेदपोश में क्या एक जैसी समानता नहीं है? ना उसके हत्यारे के बारे में किसी को कुछ पता है और ना ही सफ़ेदपोश के बारे में। क्या आपको नहीं लगता कि सफ़ेदपोश ही वो व्यक्ति हो सकता है जिसने रघुवीर की हत्या की होगी?"

सन्नाटा छा गया बैठक में। पिता जी और किशोरी लाल मेरी तरफ ऐसे अंदाज़ में आंखें फाड़े देखते रह गए थे मानों मैं दुनिया का आठवां अजूबा था। काफी देर तक उनमें से किसी के मुख से कोई बोल ना फूटा था।

"ठ...ठाकुर साहब।" एकाएक किशोरी लाल पिता जी से मुखातिब हो कर बोला____"मुझे लगता है कि छोटे कुंवर बिलकुल ठीक कह रहे हैं। वो...वो सफ़ेदपोश ही होगा रघुवीर का हत्यारा।"

"सफ़ेदपोश रघुवीर का हत्यारा हो या न हो।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"किंतु इसकी बातों में वजन तो है और सच्चाई की बू भी आ रही है। हैरत की बात है कि हमारे ज़हन में अब तक ये समानता वाली बात क्यों नहीं आई थी? वाकई, दोनों में सबसे बड़ी और आश्चर्य कर देने वाली समानता यही है।"

"मुझे यकीन है पिता जी कि सिर्फ यही एक समानता काफी है ये मान लेने के लिए कि सफ़ेदपोश ने ही रघुवीर की हत्या की है।" मैंने बड़े जोश के साथ कहा____"और यही एक वजह भी है कि हमें अब तक ना रघुवीर का हत्यारा मिला और ना ही सफ़ेदपोश।"

"हां बिल्कुल।" पिता जी के मुख से बरबस ही निकल गया____"अब तो हमें भी यही लगता है।"

"देखा ठाकुर साहब आपने।" किशोरी लाल ने पिता जी की तरफ देखते हुए बड़े उत्साह से कहा____"छोटे कुंवर के सोचने समझने की शक्ति कितनी तीव्र है। कितनी कुशलता से इन्होंने इतनी बड़ी उलझन को सुलझा दिया है।"

किशोरी लाल की इस बात से पिता जी बस हल्के से मुस्कुराए। इधर मैं भी ये सोच कर थोड़ा खुशी का अनुभव कर रहा था कि मैंने पिता जी से पहले ही इस उलझन को सुलझा कर सफ़ेदपोश को रघुवीर का हत्यारा साबित कर दिया है।

"बहरहाल, अगर यही मान कर चलें कि सफ़ेदपोश ही रघुवीर का हत्यारा है।" पिता जी ने थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद कहा____"तो अब हमें सिर्फ सफ़ेदपोश पर ही अपना सारा ध्यान केंद्रित करना है और हर मुमकिन कोशिश कर के उसे पकड़ना है।"

"हां लेकिन सवाल ये है कि क्या ये इतना आसान है?" मैंने कहा____"मेरा मतलब है कि पिछले एक महीने से वो ग़ायब है और हम में से किसी को भी उसके बारे में छोटा सा कोई सुराग़ तक नहीं मिला है तो ऐसे में कैसे हम उसे पकड़ सकेंगे? अगर आगे भी वो इसी तरह ग़ायब रहा तो हमारे लिए उसे पकड़ पाना असम्भव ही है।"

"सबसे बड़ी समस्या यही तो है कि वो ग़ायब है और किसी को कहीं नज़र ही नहीं आ रहा।" पिता जी ने कहा____"ज़ाहिर है जब तक वो कहीं नज़र नहीं आएगा तब तक उसे पकड़ना असंभव ही है।"

"उसके ग़ायब रहने पर भी उसे पकड़ लेना बस एक ही सूरत में संभव है।" मैंने कहा____"यानि हमें ये पता चल जाए कि वो मुझे अपना दुश्मन क्यों समझता है अथवा उसने रघुवीर की हत्या क्यों की? वैसे सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि हमें उसके कारण का ना तो इल्म है और ना ही हम कोई अंदाज़ा लगा पा रहे हैं।"

"एक बात तो तय है कि जब तक वो अपने मकसद के लिए आर या पार कर डालने वाली बात नहीं कर लेगा तब तक वो पूर्ण रूप से शांत नहीं बैठेगा।" पिता जी ने जैसे अपनी संभावना ब्यक्त करते हुए कहा____"हमें नहीं पता कि वो इस तरह ग़ायब क्यों है अथवा आज कल उसके मन में क्या खिचड़ी पक रही है लेकिन ये निश्चित बात है कि किसी न किसी दिन वो फिर अपने किसी कारनामे को अंजाम देने के लिए अपने बिल से बाहर निकलेगा।"

"बिल्कुल।" मैंने सिर हिलाया____"किंतु समस्या यही है कि तब तक हमें उसकी तरफ से सावधान भी रहना पड़ेगा और उसे पकड़ने के लिए घात भी लगाए रखनी होगी।"

"ख़ैर अब एक दूसरी बात सुनो।" पिता जी ने जैसे विषय बदला____"पिछले कुछ समय से हम कुछ ऐसे काम की तरफ ज़ोर दे रहे हैं जो इस गांव के लोगों की भलाई के लिए हों।"

"जी मैं कुछ समझा नहीं पिता जी।" मैंने उलझन पूर्ण भाव से उन्हें देखा।

"हमने लोगों की भलाई के लिए इस गांव में एक अस्पताल और साथ ही एक विद्यालय बनवाने की पहल की है।" पिता जी ने कहा____"इसके लिए हमने ऊपर के अधिकारियों और मंत्रियों से भी बात की है। कुछ दिन पहले हमने एक याचिका भी दायर की है। उम्मीद है जल्द ही इस बारे में ऊपर से प्रस्ताव पारित हो जाएगा। उसके बाद जल्द ही इस गांव में अस्पताल और विद्यालय का निर्माण कार्य शुरू हो जाएगा।"

"ये तो बहुत ही अच्छी बात है पिता जी।" मैंने खुश होते हुए कहा____"वैसे सोचने वाली बात है कि हमारे पूर्वज ही नहीं बल्कि दादा जी ने भी कभी ये नहीं सोचा कि लोगों की भलाई के लिए इस गांव में ये दो चीज़ें होनी चाहिए। जबकि पास के ही गांव में इस तरह की एक सुविधा जाने कब से उपलब्ध है। ये अलग बात है कि ग़रीब आदमी उस सुविधा का लाभ नहीं उठा पा रहा।"

"हमारे पूर्वज ऐसी सोच ही नहीं रखते थे।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"दूसरी बात ये भी है कि पहले लोग शिक्षा पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते थे। ग़रीब इंसानों की सोच बहुत ही सीमित थी। वो इसी सोच के साथ जीते थे कि वो पैदा ही बड़े लोगों की सेवा करने के लिए हुए हैं। जीवन भर वो बड़े लोगों की ज़मीनों पर मेहनत मज़दूरी करते थे और अपनी आने वाली पीढ़ी को भी यही पाठ पढ़ाते थे। ख़ैर धीरे धीरे समय बदला और बड़े लोगों ने सिर्फ अपने लिए शिक्षा को प्राथमिकता दी। ग़रीब आदमी को शिक्षा की तरफ ये सोच कर बढ़ने नहीं दिया कि अगर वो शिक्षित हो जाएंगे तो फिर वो लोग उनकी सेवा नहीं करेंगे और ना ही उनकी ज़मीनों पर मज़दूरी करेंगे। बहरहाल, रही तुम्हारे दादा जी की बात तो उनके बारे में तुम्हें भी पता है कि वो कैसे इंसान थे। उनकी नज़र में तो आम इंसान उनके पैरों की धूल ही थे। वो भला कैसे ये चाह सकते थे कि उनके पैरों की धूल उड़ कर उनके सिर तक पहुंच जाए इसी लिए उन्होंने इस सबके बारे में कभी सोचना ही गवारा नहीं किया। उनके बाद जब हम दादा ठाकुर की गद्दी पर बैठे तो हमारे लिए सिर्फ एक ही काम रह गया था और वो था गांव समाज के डरे सहमे लोगों को सबसे पहले सामान्य अवस्था में लाना और फिर उन्हें अपनी खुशी से पूर्ण आज़ादी के साथ जीने के लिए प्रेरित करना। तब से ले कर अब तक हम सिर्फ यही करते आए हैं और लोगों का इंसाफ़ करते रहे हैं। हम मानते हैं कि हमें इन दो चीज़ों की तरफ भी ध्यान देना चाहिए किंतु ऐसा इस लिए नहीं हुआ क्योंकि इसका शायद उचित समय ही नहीं आया था। सब कुछ इंसान के अख़्तियार में नहीं होता बल्कि नियति के लेख के अनुसार ही होता है। आज जिस तरह के हालात हैं उससे प्रतीत होता है कि अब हमें ऐसी चीज़ों पर सिर्फ ध्यान ही नहीं देना चाहिए बल्कि पूरे जोश के साथ अमल भी करना चाहिए। वैसे भी पिछले कुछ समय से हमारे साथ जो कुछ हुआ है उससे हमारी शाख पर बहुत असर पड़ा है। दूर दूर तक के लोगों के मन में भी हमारे बारे में जाने कैसे कैसे ख़याल पैदा हो गए होंगे। ऐसे में अगर हम लोगों की भलाई के लिए इस तरह के काम करेंगे तो लोगों के दिलों में फिर से हमारे प्रति पहले जैसी आस्था कायम हो जाएगी। हालाकि हमें अपने लिए किसी से आस्था की कोई ख़्वाहिश नहीं है बल्कि हम तो सच्चे दिल से चाहते हैं कि हम अगर पूर्ण रूप से सक्षम हैं तो हमें सबकी भलाई के लिए ऐसे काम करने ही चाहिए।"

"आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं पिता जी।" मैंने दृढ़ता से कहा____"लोग हमें अपना सब कुछ मानते हैं तो उनकी खुशी और भलाई के लिए हमें भी बहुत कुछ करना चाहिए।"

"आने वाले समय में इन सारे कामों के चलते व्यस्तता बढ़ जाएगी।" पिता जी ने कहा____"हमारा प्रयास यही होना चाहिए कि सब कुछ बिना किसी परेशानी से सफलतापूर्वक हो जाए। इस बीच हमें सफ़ेदपोश को भी नज़रअंदाज़ नहीं करना है। गुप्त रूप से हमारे आदमी इस बात का ख़ास ख़याल रखेंगे कि वो कब अपने बिल से निकलता है और क्या करने वाला है? इधर ऊपर से जैसे ही प्रस्ताव के लिए मंजूरी मिल जाएगी वैसे ही यहां पर अस्पताल और विद्यालय का निर्माण कार्य भी शुरू करवा दिया जाएगा। उसके लिए एक दिन पहले ही डिग्गी पिटवा कर गांव वालों को सूचित कर दिया जाएगा जिससे कि सही समय पर मज़दूर मिल जाएं और निर्माण कार्य में कोई विलम्ब न हो। गौरी शंकर को भी इस सबके बारे में पता है। उसने कहा है कि उससे जितना हो सकेगा वो इस काम में हमारी सहायता करेगा। उसकी तरफ से उसका भतीजा रूपचंद्र ख़ास तौर से इन कामों में उपस्थित रहेगा। हम चाहते हैं कि तुम भी उससे अपना बढ़िया ताल मेल मिला कर रखो और उसके साथ इन सभी चीज़ों पर ध्यान दो।"

"आप बेफ़िक्र रहें पिता जी।" मैंने दृढ़ता से कहा____"मैं अपनी तरफ से आपको शिकायत का कोई मौका नहीं दूंगा।"

कुछ देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद मैं बैठक से बाहर निकल कर मोटर साईकिल से खेतों की तरफ निकल गया। आज पिता जी से इस सबके बारे में सुन कर और चर्चा कर के मुझे अच्छा महसूस हो रहा था। इस बात की खुशी भी हो रही थी कि जल्द ही हमारे गांव का विकास होने वाला है जिसके चलते आम लोगों को काफी राहत मिलेगी।​
 
अध्याय - 132
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तीन दिन बाद।
उस वक्त रात के क़रीब बारह बज रहे थे।
हर तरफ अंधेरा और सन्नाटा छाया हुआ था।
इसी अंधेरे और सन्नाटे से घिरा एक ऐसा साया बड़ी तेज़ी से एक तरफ को बढ़ा चला जा रहा था जिसके समूचे जिस्म पर सफ़ेद लिबास था। गांव की आबादी से थोड़ा दूर किनारे किनारे चलते हुए वो जल्दी ही धान बुए हुए खेतों में दाखिल हो गया। खेतों पर धान के घने पौधे थे जो उसके घुटनों के थोड़ा ऊपर तक थे। आसमान में छाए घने बादलों की वजह से आधे से कम मौजूद चांद की रोशनी खेतों पर नहीं पहुंच रही थी। गांव की आबादी से थोड़ी दूरी पर खेत थे। चारो तरफ खेत ही खेत थे। अगर अंधेरा न होता तो उसके जिस्म पर मौजूद सफ़ेद लिबास चांद की मध्यम रोशनी में भी चमकता हुआ नज़र आता।

खेतों के बीच धान के पौधों को रौंदता हुआ वो सफ़ेदपोश तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ा चला जा रहा था। बीच बीच में ठिठक कर वो आस पास का जायजा भी ले लेता था और फिर से पलट कर उसी रफ़्तार से चल पड़ता था। कुछ ही समय में वो खेत पार कर के एक ऊंची मेढ़ पर आ गया। उसने अपनी भारी हो चली सांसों को कुछ पलों तक रुक कर नियंत्रित किया और फिर एक तरफ बढ़ता चला गया।

क़रीब पंद्रह मिनट बाद वो चंद्रकांत के घर के सामने पहुंच गया। रात के नीम अंधेरे में चंद्रकांत का घर किसी भूत की तरह नज़र आ रहा था। घर के तीन तरफ लकड़ी की बल्लियों द्वारा क़रीब चार फुट ऊंची चारदीवारी बनी हुई थी जिसके सामने बीचों बीच अंदर जाने के लिए रास्ता यानि द्वारा बना हुआ था। उस द्वार पर लकड़ी का ही बना हुआ दरवाज़ा लगा हुआ था। सफ़ेदपोश उस द्वार के पास आ कर रुक गया और चंद्रकांत के घर के दरवाज़े को घूरने लगा। घर के दरवाज़े पर बाहर से ताला लगा हुआ था। ज़ाहिर था चंद्रकांत के घर के अंदर इस वक्त कोई नहीं था। चंद्रकांत की मौत के बाद उसकी बीवी प्रभा और बेटी कोमल को आज से क़रीब दस दिन पहले उसके ससुराल वाले ले गए थे। कहने का मतलब ये कि चंद्रकांत की बीवी अपनी बेटी के साथ अब अपने मायके में ही रह रही थी। शायद उसके मायके वाले दोनों मां बेटी को अकेले यहां नहीं रहने देना चाहते थे।

सफ़ेदपोश काफी देर तक घर के दरवाज़े को देखता रहा। उसका चेहरा क्योंकि सफ़ेद नक़ाब में छुपा हुआ था इस लिए कोई नहीं बता सकता था कि इस वक्त उसके चेहरे पर किस तरह के भाव मौजूद होंगे? बहरहाल, वो वापस पलटा और आस पास का जायजा लेने के बाद एक तरफ को बढ़ चला। अभी वो क़रीब दस बारह क़दम ही चला था कि सहसा तभी सन्नाटे में उसे किसी हलचल का आभास हुआ जिसके चलते उसके क़दम अपनी जगह पर जाम से हो गए। उसने मात्र दो पल रुक कर हलचल को महसूस करने की कोशिश की और अगले ही पल मानों उसके जिस्म पर बिजली भर गई।

सफ़ेदपोश पूरी रफ़्तार से दौड़ते हुए एक तरफ भाग चला। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सैकड़ों भूत उसके पीछे पड़ गए हों। वैसे सच कुछ ऐसा ही था, फ़र्क बस इतना ही था कि उसके पीछे सैकड़ों भूत नहीं लग गए थे बल्कि कुछ इंसानी साए लग गए थे।

सफ़ेदपोश पूरी जी जान लगा कर एक तरफ को भागता चला जा रहा था किंतु वो महसूस कर रहा था कि उसका पीछा करने वाले निरंतर उसके क़रीब ही पहुंचते जा रहे हैं। इस एहसास के चलते वो और भी ज़्यादा तेज़ी से भागने की कोशिश करता जा रहा था किंतु अब इसका क्या किया जाए कि पीछा करने वालों के बीच का फ़ासला बढ़ने की बजाय निरंतर कम ही होता जा रहा था।

जल्दी ही सफ़ेदपोश को अपने सामने ऊंचे ऊंचे पेड़ पौधे नज़र आने लगे। इससे पहले कि वो उन पेड़ पौधों के क़रीब पहुंच कर उनमें खुद को ओझल करता पीछे से एक मर्दाना आवाज़ उसके कानों में पड़ी। मर्दाना आवाज़ में चेतावनी दी। एक पल के लिए तो सफ़ेदपोश की रफ़्तार धीमी हुई किंतु अगले ही पल जैसे उसने सब कुछ भुला कर फिर से अपनी रफ़्तार बढ़ा दी।

एक मिनट के अंदर ही सफ़ेदपोश ऊंचे ऊंचे पेड़ पौधों के क़रीब पहुंच गया और पेड़ों के बीच दाख़िल हो गया। ये कोई बग़ीचा था शायद जहां पहुंच कर सफ़ेदपोश ने थोड़ी राहत की सांस ली थी मगर आज शायद उसकी किस्मत ही ख़राब थी। क्योंकि तभी उसे महसूस हुआ कि बग़ीचे में उसके चारो तरफ बड़ी तेज़ी से हलचल होने लगी है। इस एहसास ने ही मानों उसके होश उड़ा दिए कि उसे चारो तरफ से घेर लिया गया है। उसने साफ महसूस किया कि बग़ीचे में उसके सामने और दाएं बाएं कई सारे लोग मौजूद हैं जो फिलहाल अंधेरे में उसे नज़र नहीं आ रहे थे। लेकिन वो उन्हें नज़र आ रहा होगा क्योंकि नीम अंधेरे में भी उसके जिस्म पर मौजूद सफ़ेद लिबास धुंधली शक्ल में नज़र आ रहा था।

"तुम्हारा खेल ख़त्म हो चुका है सफ़ेदपोश।" तभी पीछे से उसके कानों में मर्दाना स्वर सुनाई दिया____"अगर तुमने कोई होशियारी दिखाने की कोशिश की तो यकीन मानों एक पल भी नहीं लगेगा तुम्हें यमराज के पास पहुंचाने में। तुम्हारे चारो तरफ मौजूद लोग तुम्हारी ज़रा सी भी ग़लत हरकत पर तुम्हें गोलियों से भून कर रख देंगे। इस लिए बेहतर यही होगा कि बग़ैर कोई हरकत किए तुम खुद को हमारे हवाले कर दो।"

सफ़ेदपोश के समूचे जिस्म में मौत की सर्द लहर दौड़ गई। मौत रूपी सर्द चेतावनी सुन कर वाकई उसने कोई ग़लत हरकत करने का इरादा नहीं बनाया बल्कि अपने दोनों हाथ उसने धीरे धीरे कर के सिर के ऊपर उठा दिए। नीम अंधेरे में उसकी हर क्रिया धुंधली सी नज़र आ रही थी जिससे स्पष्ट नज़र आ रहा था कि वो क्या कर रहा है।

"बहुत खूब।" तभी वही मर्दाना आवाज़ फिर उसके कानों में पड़ी____"तुमसे मुझे ऐसी ही समझदारी की उम्मीद थी। साथियों पूरी सतर्कता से आगे बढ़ो और सफ़ेदपोश को अपने क़ब्ज़े में ले लो।"

मर्दाना आवाज़ का इतना कहना था कि तभी वातावरण में हलचल होने लगीं। सफ़ेदपोश ने महसूस किया कि उसके चारो तरफ मौजूद साए उसकी तरफ बढ़ने लगे हैं। बग़ीचे की ज़मीन पर सूखे पत्ते पड़े हुए थे जिसके चलते चलने वालों की आवाज़ें स्पष्ट सुनाई दे रहीं थी। सफ़ेदपोश चाह कर भी कुछ न कर सका और कुछ ही देर में उसे कई सारे लोग नज़र आने लगे जिन्होंने उसे अपनी गिरफ़्त में ले लिया।

"तुमने बहुत छकाया हमें।" सफ़ेदपोश के सामने आ कर उसी व्यक्ति ने कहा जिसने उसे चेतावनी दी थी। वो शेरा था, बोला____"तुम्हें पकड़ने के लिए हमने कैसे कैसे पापड़ बेले हैं ये हम ही जानते हैं। आख़िर आज हमारे हाथ लग ही गए तुम।"

सफ़ेदपोश ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। सफेद नक़ाब में छुपे उसके चेहरे पर इस वक्त किस तरह के भाव थे ये अब भी कोई नहीं बता सकता था।

"इसके दोनों हाथ पीछे कर के रस्सी से बांध दो।" शेरा ने अपनी भारी आवाज़ में बाकी लोगों को जैसे हुकुम दिया____"तुम में से एक आदमी इसकी तलाशी लो। इसके पास रिवॉल्वर जैसा हथियार भी है। उसके बाद इसे मकान में ले जा कर एक कमरे में बंद कर दो।"

जल्दी ही शेरा के हुकुम का पालन हुआ और कुछ ही पलों में सफ़ेदपोश के दोनों हाथों को पीछे कर के दो आदमियों ने रस्सी से बांध दिया। हाथ बांधते वक्त दोनों आदमियों के चेहरों पर थोड़े चौंकने के भाव उभरे थे किंतु बोले कुछ नहीं।

"इसके पास कोई हथियार नहीं है शेरा भाई।" सफ़ेदपोश की तलाशी लेने वाले व्यक्ति ने कहा____"ये बिल्कुल निहत्था है।"

"ऐसा कैसे हो सकता है?" शेरा के चेहरे पर हैरत के भाव उभर आए, बोला____"अच्छे से तलाशी लो। ये ऐसा शख़्स नहीं है जो बिना किसी हथियार के ऐसे ख़तरनाक कामों को अंजाम देने के लिए अपने बिल से निकलेगा। अच्छे से तलाशी लो इसकी।"

वो आदमी फिर से सफ़ेदपोश की तलाशी लेने लगा। तलाशी लेते वक्त वो एक दो बार हल्के से चौंका किंतु फिर ध्यान हटा कर वो तलाशी लेने लगा।

"नहीं है शेरा भाई।" फिर उसने कहा____"इसके पास कोई हथियार नहीं है। मैंने अच्छे से तलाशी ले ली है इसकी।"

"हैरत की बात है।" शेरा सफ़ेदपोश के क़रीब आते हुए उससे बोला____"ऐसा कैसे हो सकता है कि इसके पास कोई हथियार ही नहीं है? पिछली बार जब हमने इसका पीछा किया था तो इसने हमारे एक आदमी पर इसी जगह गोली चलाई थी और हमारा वो आदमी मरते मरते बचा था।"

सफ़ेदपोश के दोनों हाथ रस्सी से बंधे हुए थे। चेहरे पर सफेद नक़ाब था। शेरा उसके थोड़ा और पास आया और ग़ौर से उसकी तरफ देखने लगा, फिर बोला____"मन तो बहुत कर रहा है कि तुम्हारा ये नक़ाब हटा कर देखूं कि कौन हो तुम मगर नहीं, मैं चाहता हूं कि सबसे पहले तुम्हारी सूरत पर मेरे मालिक की ही नज़र पड़े।"

"इसे ले जाओ यहां से और मकान के एक कमरे में बंद कर दो।" शेरा ने पलट कर अपने आदमियों से कहा____"और तुम में से दो लोग फ़ौरन हवेली जाओ और मालिक को इस बात की ख़बर दो कि हमने सफ़ेदपोश को पकड़ लिया है।"

"ठीक है शेरा भाई।" एक आदमी ने झट से कहा____"मैं और संपत अभी हवेली जाते हैं।"

कहने के साथ ही उसने संपत को इशारा किया और फिर वो दोनों हवेली की तरफ तेज़ी से बढ़ गए। इधर शेरा के कहने पर कुछ लोग सफ़ेदपोश को मकान के अंदर ले आए और उसे एक कमरे में बंद कर दिया। मकान में लालटेन जल रही थी। लालटेन की रोशनी में सभी के चेहरे खुशी से जगमगाते हुए नज़र आ रहे थे। आएं भी क्यों न, आख़िर उन सबने उस रहस्यमय इंसान को पकड़ लिया था जिसने इतने समय से दादा ठाकुर जैसे इंसान का सुख चैन हराम कर रखा था।

✮✮✮✮

हवेली में रात के उस वक्त थोड़ी हलचल सी मच गई जब एक दरबान ने दादा ठाकुर को ये बताया कि सफ़ेदपोश की खोजबीन करने वाले आदमियों में से दो लोग कोई ख़बर देने आए हैं। दादा ठाकुर फ़ौरन ही अपने कमरे से निकल कर बाहर आए जहां पर खड़े संपत और दसुआ बड़ी बेसब्री से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

दादा ठाकुर पर नज़र पड़ते ही दोनों ने सबसे पहले उन्हें हाथ जोड़ कर प्रणाम किया उसके बाद उन्हें बताया कि अभी कुछ देर पहले उन लोगों ने सफ़ेदपोश को आमों के बग़ीचे में पकड़ा है। दादा ठाकुर उनके मुख से ये सुनते ही पहले तो अवाक् से रह गए किंतु फिर जल्दी ही खुद को सम्हाला। उनके चेहरे पर पलक झपकते ही खुशी और जोश के भाव उभर आए थे।

"क्या तुम सच कह रहे हो?" ये जानते हुए भी कि उनसे वो झूठ बोलने का दुस्साहस नहीं कर सकते पूछ बैठे।

"जी हां मालिक।" संपत ने अपनी घबराहट को काबू करने का प्रयास करते हुए कहा____"हम दोनों सच कह रहे हैं। कुछ देर पहले ही हम सबने मिल कर उसे घेर लिया था और फिर उसे पकड़ लिया। शेरा भाई के कहने पर हमने उस सफ़ेदपोश को मकान के एक कमरे में बंद कर दिया है। फिर शेरा भाई ने हमसे कहा कि इस बात की सूचना हम हवेली में जा कर आपको दें इस लिए हम दोनों आपको बताने यहां आ गए।"

"बहुत बढ़िया।" दादा ठाकुर ने कहा____"वैसे कौन था वो जो सफेद लिबास में खुद को छुपा के रखता था?"

"ये तो हमने नहीं देखा मालिक।" दसुआ ने दीन हीन भाव से कहा____"बल्कि किसी ने भी उसका चेहरा नहीं देखा। शेरा भाई ने भी नहीं देखा है। उनका कहना है कि सबसे पहले आप ही उसका चेहरा देखें।"

"हम्म्म्म अच्छी बात है।" दादा ठाकुर ने सिर हिलाया____"ख़ैर बहुत ही बढ़िया काम किया है तुम लोगों ने। इस बड़े काम के लिए हम तुम सबको पुरस्कार देंगे।"

"आपका बहुत बहुत धन्यवाद मालिक।" संपत ने हाथ जोड़ कर खुशी से कहा____"आप बहुत महान हैं। हम सबके दाता हैं। हमारे भगवान हैं आप।"

"अच्छा अभी तुम लोग रुको।" दादा ठाकुर ने कहा____"हम तैयार हो कर आते हैं।"

"जी ठीक है मालिक।" दसुआ झट से बोला।

दादा ठाकुर पलट कर अंदर अपने कमरे की तरफ बढ़ गए। उनके चेहरे की चमक बता रही थी कि इस वक्त वो बेहद खुश हैं। खुशी की तो बात ही थी, क्योंकि ये वो ही जानते थे कि सफ़ेदपोश ने अब तक उनके दिलो दिमाग़ में कितना गहरा प्रभाव डाला हुआ था।

✮✮✮✮

मैं अपने कमरे में पलंग पर लेटा गहरी नीद में सो रहा था। नींद में ही मुझे ऐसा आभास हो रहा था कि कहीं कुछ बज रहा है। एकाएक मेरे कानों में नारी स्वर टकराया तो मेरी नींद टूट गई। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। आंखें मलते हुए मैंने इधर उधर नज़रें घुमाई। कमरे में लालटेन का बहुत ही धीमा प्रकाश फैला हुआ था। तभी मैं बुरी तरह चौंक पड़ा। कारण कमरे के दरवाज़े से मां की आवाज़ आई थी। रात के इस वक्त मां की आवाज़ सुन कर मैं फ़ौरन ही हरकत में आ गया। एक ही झटके में पलंग से कूद कर दरवाज़े के पास पहुंच गया और फिर दरवाज़ा खोला।

"क...क्या हुआ मां?" दरवाज़ा खोलते ही जब मेरी नज़र मां पर पड़ी तो मैंने उनसे पूछा____"आप इस वक्त यहां कैसे और....और दरवाज़ा क्यों पीट रहीं थी आप?"

"दरवाज़ा न पीटूं तो क्या करूं?" मां ने थोड़ी नाराज़गी दिखाते हुए कहा____"तू तो एकदम हाथी घोड़े बेंच कर ही सो जाता है।"

"अब इसमें मेरी क्या ग़लती है मां?" मैंने मासूम सी शक्ल बनाते हुए कहा____"नींद तो नींद ही होती है ना। ख़ैर आप बताइए, रात के इस वक्त ऐसी क्या बात हो गई थी जिसके लिए आपको सीढियां चढ़ कर मुझे जगाने के लिए मेरे कमरे तक आना पड़ा?"

"हां वो...तेरे पिता जी ने बुलाया है तुझे।" मां ने कहा____"जल्दी से कपड़े पहन ले और नीचे आ जा।"

"अरे! ये क्या कह रही हैं आप?" मैं उनकी बात सुनते ही चौंक पड़ा____"रात के इस वक्त पिता जी ने किस लिए बुलाया है मुझे और कपड़े वगैरा पहन कर आने का क्या मतलब है? क्या मुझे उनके साथ कहीं जाना है?"

"हां, असल में बात ये है कि वो नासपीटा पकड़ा गया है।" मां ने कहा____"अभी थोड़ी देर पहले ही हमारे दो आदमियों ने यहां आ कर ये बताया है कि उन लोगों ने सफ़ेदपोश को पकड़ लिया है।"

"क्या????" मैं उछल ही पड़ा____"क्या आप सच कह रही हैं मां?"

"अरे! मैं भला तुझसे झूठ क्यों बोलूंगी?" मां ने मुझे घूरा____"और अब तू बातों में समय मत गवां। जल्दी से कपड़े पहन कर नीचे आ जा। तेरे पिता जी तैयार हो के बैठे हैं।"

कहने के साथ ही मां पलट कर चली गईं। इधर मैं अभी भी चकित अवस्था में खड़ा उन्हें जाता देख रहा था। बहरहाल मैंने अपने ज़हन को झटका दिया और पलट कर जल्दी जल्दी अपने कपड़े पहनने लगा। मनो मस्तिष्क में एकाएक ही तूफ़ान सा चल पड़ा था। सफ़ेदपोश के पकड़े जाने की बात ने अभी तक मुझे हैरान कर रखा था। मेरे लिए ये बड़ी ही हैरान कर देने वाली बात थी कि सफ़ेदपोश को पकड़ लिया गया है। वैसे झूठ का तो सवाल ही नहीं था किंतु फिर भी जाने क्यों ये बात हजम ही नहीं हो रही थी मुझे। ख़ैर जल्दी ही मैंने कपड़े पहने। उसके बाद अपनी रिवॉल्वर ले कर नीचे आ कर पिता जी से मिला। वो भी तैयार बैठे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे।

"मां बता रहीं थी कि हमारे आदमियों ने सफ़ेदपोश को पकड़ लिया है?" मैंने आते ही पिता जी से पूछा____"क्या ये सच है पिता जी?"

"तुम भी अच्छी तरह जानते हो कि हमारे आदमी हमसे किसी भी कीमत पर झूठ नहीं बोल सकते हैं।" पिता जी ने कहा____"ज़ाहिर है सफ़ेदपोश के पकड़े जाने वाली उनकी बात सच है और अब हम दोनों को वहीं जाना है।"

"तो क्या सफ़ेदपोश को पकड़ कर वो लोग यहां नहीं लाए?" मैंने उत्सुकतावश पूछा।

"उसे हमारे आमों वाले बाग़ में पकड़ा गया है।" पिता जी ने कहा____"शेरा ने उसे वहीं मकान के एक कमरे में बंद कर के रखा है।"

मैंने इसके बाद उनसे कोई सवाल नहीं किया। जल्दी ही हम दोनों बाहर आ गए। मैं जीप ले कर आया तो पिता जी उसमें बैठ गए। उनके कहने पर संपत और दसुआ भी उसमें बैठ गए। उसके बाद मैंने जीप को हाथी दरवाज़े की तरफ बढ़ा दिया।

"क्या हमें इस बात की सूचना गौरी शंकर को भी देनी है?" रूपचंद्र के घर के पास पहुंचते ही मैंने पिता जी से पूछा____"क्या आप उसे भी साथ ले चलना चाहते हैं?"

"नहीं।" पिता जी सपाट लहजे से बोले____"इस वक्त हमें किसी को अपने साथ ले जाने में समय नहीं बर्बाद करना है। हम जल्द से जल्द उस सफ़ेदपोश के सामने पहुंच जाना चाहते हैं और फिर ये जानना चाहते हैं कि वो कौन है और उसने ये सब क्यों किया?"

पिता जी की बात सुन कर मैंने जीप को धीमा नहीं किया बल्कि आमों वाले बाग़ में बने मकान में पहुंच कर ही रोका। जीप की हेड लाइट जान बूझ कर मैंने बंद नहीं की ताकि रोशनी रहे। मकान के बाहर ही शेरा अपने सारे आदमियों के साथ मौजूद था। पिता जी को देखते ही उसने अदब से झुक कर सलाम किया। बाकी लोगों ने भी उसका अनुसरण किया।

"कोई समस्या तो नहीं हुई उसे पकड़ने में?" पिता जी ने शेरा से पूछा।

"बिल्कुल नहीं मालिक।" शेरा ने कहा____"हमने बहुत ही आसानी से उसे पकड़ लिया है। हमने उसे बच निकलने का कोई मौका ही नहीं दिया था। हमारे आदमियों ने उसे बाग़ में चारो तरफ से घेर लिया था।"

"अच्छा।" पिता जी ने अविश्वास से आंखें फैला कर पूछा____"क्या उसने तुम लोगों की पकड़ से खुद को बचाने के लिए बिल्कुल भी प्रयास नहीं किया?"

"कैसे करता मालिक?" शेरा ने कहा____"हमारे आदमियों ने उसे चारो तरफ से घेर लिया था। उसके बाद मैंने उसे सख़्त चेतावनी भी दे दी थी कि अगर उसने किसी भी तरह की बेजा हरकत की तो हमारे आदमी उसे गोलियों से भून देंगे जिसके चलते उसकी जीवन लीला यहीं समाप्त हो जाएगी।"

"यानि मौत के डर से उसने कोई ग़लत हरकत नहीं की और ना ही खुद को बचाने का प्रयास किया?" पिता जी ने पूछा____"ख़ैर कहां नज़र आया था वो?"

"साहूकारों के खेतों की तरफ से आया था।" शेरा ने कहा____"वहां से चंद्रकांत के घर के बाहर ही आ कर रुका था वो। काफी देर तक उसके घर के बाहर खड़ा दरवाज़े को देखता रहा था। किसी काम से वहां पर आया था वो किंतु शायद उसे पता नहीं था कि वर्तमान में चंद्रकांत के घर में कोई नहीं रहता है। मैं वहीं पर अपने चार आदमियों के साथ आ गया था। मुझे लगा पिछली बार की तरह वो कहीं इस बार भी हमारे हांथ से ना निकल जाए इस लिए फ़ौरन ही मैंने उसे पकड़ लेने का सोच लिया था। मैंने जान बूझ कर उसे ये आभास कराया कि वो ख़तरे में है ताकि वो अपने बचाव के लिए आमों के बाग़ की तरफ ही जाए और फिर हम उसे चारो तरफ से घेर कर पकड़ लें।"

"हम्म्म्म।" पिता जी ने कहा____"ख़ैर उसकी तलाशी ली तुमने?"

"जी ली थी मालिक।" शेरा ने कहा____"लेकिन उसके पास से हमें कोई हथियार नहीं मिला। वो बिल्कुल निहत्था था।"

"क्या???" पिता जी के साथ साथ मैं भी चौंक पड़ा____"ये क्या कह रहे हो तुम? वो बिल्कुल निहत्था था? ऐसा कैसे हो सकता है?"

"यही सच है मालिक।" शेरा ने कहा____"मैंने दो बार उसकी अच्छे से तलाशी करवाई थी किंतु उसके पास से कुछ नहीं मिला।"

पिता जी ने मेरी तरफ देखा। उनके चेहरे पर सोचो के गहन भाव उभर आए थे। मैं भी ये सोच कर चकित था कि सफ़ेदपोश जैसा शातिर व्यक्ति रात के इस वक्त निहत्था कैसे कहीं जा सकता था जबकि उसे भली भांति पता था कि हर पल उसके पकड़े जाने का ख़तरा उसके आस पास बना हुआ है?

पिता जी के पूछने पर शेरा ने बताया कि उसने सफ़ेदपोश को मकान के अंदर कौन से कमरे में बंद कर रखा है। ख़ैर मैं, पिता जी और शेरा कमरे के पास पहुंचे। बाकियों का तो पता नहीं किंतु मेरा दिल अब ये सोच कर धाड़ धाड़ कर के बजने लगा था कि आख़िर कौन होगा सफ़ेदपोश?

शेरा ने दरवाज़े की कुंडी खोल कर दरवाज़े के दोनों पल्ले खोल दिए। कमरे के अंदर लालटेन का तीव्र प्रकाश था। गलियारे में एक मशाल भी जल रही थी। उधर मैं और पिता जी धड़कते दिल के साथ कमरे में दाख़िल हो गए। अगले ही पल कमरे के एक कोने में सिमटे बैठे सफ़ेदपोश पर हमारी नज़र पड़ी।

लालटेन के पीले प्रकाश में आज पहली बार मैं और पिता जी उसे स्पष्ट रूप से देख रहे थे। उसको, जिसके समूचे बदन पर सफ़ेद चमकीला लिबास था। हाथों में सफ़ेद दस्ताने, पैरों में सफ़ेद जूते और चेहरे पर सफ़ेद नक़ाब। कुल मिला कर उसका समूचा जिस्म सफ़ेद लिबास में ही ढंका हुआ था। नक़ाब में कुल तीन छेंद थे जिनमें से दो आंखों पर और एक मुख पर।

हमें अंदर आया देख सफ़ेदपोश ने गर्दन घुमा कर हमारी तरफ देखा। नक़ाब के अंदर से झांकती आंखों में एकाएक कई भाव आते नज़र आए। मैं उसी को देखे जा रहा था। सहसा मैं उसकी तरफ बढ़ चला। चार क़दमों में ही मैं उसके पास पहुंच गया और फिर पैरों के पंजों के बल बैठ कर उसे बड़े ध्यान से देखने लगा। नक़ाब से झांकती आंखों ने दो पल के लिए मेरी तरफ देखा और फिर झट से अपना चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया। उसके दोनों हाथ पीछे की तरफ थे जोकि रस्सी से बंधे हुए थे।

"इसके चेहरे से नक़ाब हटाओ।" पीछे से पिता जी की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी____"ज़रा हम भी तो देखें कि सफ़ेद लिबास में छुपा वो चेहरा किसका है जिसने हमारे रातों की नींद उड़ा रखी थी?"

उधर पिता जी का वाक्य ख़त्म हुआ और इधर मैंने हाथ बढ़ा कर सफ़ेदपोश के चेहरे पर मौजूद नक़ाब को पकड़ कर एक झटके में खींच कर उसके ऊपर से निकाल दिया। नक़ाब के हटते ही जिस चेहरे पर मेरी नज़र पड़ी उसे देख चीख निकल गई मेरी। पिता जी को तो मानो चक्कर सा आ गया। शेरा ने फ़ौरन ही उन्हें सम्हाल लिया।

"त...तू?????" पिता जी की तरह मैं भी चकरा गया____"तू है सफ़ेदपोश??? न....नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता।"

मैं हलक फाड़ कर चीखा और पीछे हटता‌ चला गया। मुझे तेज़ झटका लगा था और साथ ही इतनी तेज़ पीड़ा हुई थी कि मेरी आंखों के सामने अंधेरा सा छाता नज़र आया।​
 
अध्याय - 133
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"त...तू?????" पिता जी की तरह मैं भी चकरा गया____"तू है सफ़ेदपोश??? न....नहीं नहीं ऐसा नहीं हो सकता।"


मैं हलक फाड़ कर चीखा और पीछे हटता‌ चला गया। मुझे तेज़ झटका लगा था और साथ ही इतनी तेज़ पीड़ा हुई थी कि मेरी आंखों के सामने अंधेरा सा छाता नज़र आया।


अब आगे....





हवेली में अजीब सा आलम था।
हर किसी की नींद खुल चुकी थी। सुगंधा देवी को जब से पता चला था कि सफ़ेदपोश पकड़ा गया है तभी से उनकी ये सोच सोच कर धड़कनें बढ़ीं हुईं थी कि जाने कौन होगा सफ़ेदपोश। दादा ठाकुर और वैभव के जाने के बाद एकाएक ही उनकी बेचैनी बढ़ने लगी थी। मन में जहां सफ़ेदपोश के बारे में जानने की तीव्र उत्सुकता थी वहीं मन ही मन वो ये प्रार्थना भी कर रहीं थी कि उनके पति और बेटे को सफ़ेदपोश के द्वारा कोई नुकसान न पहुंचे। हालाकि ऐसा संभव तो नहीं था क्योंकि उन्हें भी पता था कि सुरक्षा के लिए ढेरों आदमी वहां पर मौजूद हैं किंतु नारी का कोमल हृदय प्रतिपल नई नई आशंकाओं के चलते घबराहट से भर उठता था।

हवेली में हुई हलचल से एक एक कर के सबकी नींद खुल चुकी थी। सबसे पहले तो निर्मला ही जगी थी और उसने अपने पति किशोरी लाल को भी जगा दिया था। उसके बाद वो कमरे से निकल कर नीचे सुगंधा देवी के पास आ गई थी जोकि अंदर वाले छोटे से हाल में ही कुर्सी पर बैठीं थी। उसके बाद हवेली में ही रहने वाली दो नौकरानियां भी जग कर आ गईं थी।

रात के सन्नाटे में आवाज़ें गूंजी तो हवेली की मझली ठकुराईन मेनका भी जग कर अपने कमरे से आ गई थी। बदहवासी के आलम में जब मेनका ने पूछा कि क्या हुआ है तो सुगंधा देवी ने सबको बताया कि सफ़ेदपोश पकड़ा गया है। ये भी बताया कि ठाकुर साहब और वैभव कुछ देर पहले ही ये देखने के लिए हवेली से गए हैं कि सफ़ेदपोश कौन है?

सुगंधा देवी की बात सुन कर सभी के चेहरों पर आश्चर्य के भाव उभर आए थे। कुछ पलों तक तो किसी को यकीन ही नहीं हुआ कि जो उन्होंने सुना है वो सच है किंतु यकीन न करने की कोई वजह भी नहीं थी क्योंकि सच तो सच ही था।

"अगर ये सच है।" किशोरी लाल ने खुद को सम्हालते हुए संतुलित भाव से कहा____"तो ये बहुत ही बढ़िया हुआ। जाने कब से ठाकुर साहब उसके चलते चिंतित और परेशान थे। ऊपर वाले का लाख लाख शुक्र है कि वो पकड़ा गया लेकिन ये सब हुआ कैसे?"

"इस बारे में तो फिलहाल उन्होंने कुछ नहीं बताया था।" सुगंधा देवी ने कहा____"शायद सारी बात उन्हें भी उस वक्त पता नहीं थी। उनसे इतना ही पता चला था कि दो लोग आए थे उन्हें इस बात की सूचना देने।"

"फिर तो मुझे पूरा भरोसा है कि सफ़ेदपोश के पकड़े जाने वाली बात सच ही है।" किशोरी लाल ने दृढ़ता से कहा____"क्योंकि इतनी बड़ी बात बेवजह ही कोई ठाकुर साहब को बताने यहां नहीं आएगा। ठाकुर साहब से झूठ बोलने का दुस्साहस भी कोई नहीं कर सकता। यानि ये सच बात है कि हम सबका सुख चैन हराम करने वाला वो सफ़ेदपोश पकड़ा गया है।"

"बिल्कुल।" सुगंधा देवी ने कहा____"अब तो बस ये जानने की उत्सुकता है कि आख़िर वो मरदूद है कौन जो मेरे बेटे का जानी दुश्मन बना हुआ था? काश! मैं भी ठाकुर साहब के साथ जा पाती ताकि मैं भी उसे अपनी आंखों से देखती और फिर उससे पूछती कि मेरे बेटे ने आख़िर उसका क्या बिगाड़ा था जिसके चलते वो मेरे बेटे की जान लेने पर तुला हुआ था?"

"फ़िक्र मत कीजिए दीदी।" मेनका ने कहा____"अब तो वो पकड़ा ही गया है ना। देर सवेर हमें भी पता चल ही जाएगा उसके बारे में। उसके बाद हम सब उससे पूछेंगे कि उसने ऐसा क्यों किया था?"

"मैं तो उस कमीने का मुंह नोच लूंगी मेनका।" सुगंधा देवी ने एकाएक गुस्से वाले लहजे में कहा____"काश! ठाकुर साहब उसे घसीट कर मेरे पास ले आएं।"

"शांत हो जाइए दीदी।" मेनका ने कहा____"जेठ जी गए हैं न तो यकीन रखिए उन पर। मुझे उन पर पूरा भरोसा है कि वो उसे यहां ज़रूर ले आएंगे। आप अपने जी को शांत रखिए, रुकिए मैं आपके लिए पानी ले कर आती हूं।"

कहने के साथ ही मेनका पानी लेने के लिए चली गई। इधर सुगंधा देवी खुद को शांत करने लगीं किंतु मन शांत होने का जैसे नाम ही नहीं ले रहा था। एक तूफ़ान सा उठा हुआ था उनके अंदर।

थोड़ी ही देर में मेनका पानी ले आई और सुगंधा देवी को दिया। सुगंधा देवी ने पानी पिया और गिलास वापस मेनका की तरफ बढ़ा दिया।

"आप बैठिए दीदी।" फिर उसने कहा____"मैं ज़रा कुसुम को देख कर आती हूं। वैभव भी जेठ जी के साथ गया हुआ है तो इस वक्त ऊपर वो अकेली ही होगी।"

"हां देख तो ज़रा उसे।" सुगंधा देवी ने कहा____"सबकी नींद खुल गई है लेकिन वो लगता है अपने प्यारे भैया की तरह ही हाथी घोड़े बेंच कर सो रही है। जा देख ज़रा।"

मेनका फ़ौरन ही कुसुम के कमरे की तरफ बढ़ गई। सीढ़ियों से चढ़ कर कुछ ही पलों में वो ऊपर कुसुम के कमरे के दरवाज़े के पास पहुंच गई। अगले ही पल वो ये देख कर चौंकी कि कमरे का दरवाज़ा पूरी तरह बंद नहीं है। किसी अंजानी आशंका के तहत उसने दरवाज़ा पूरी तरह खोला और कमरे में दाख़िल हो गई।

कमरे में एक तरफ रखे पलंग पर कुसुम नहीं थी। पलंग पूरी तरह खाली था। मेनका को तीव्र झटका लगा। बिजली की तरह मन में सवाल उभरा कि कहां गई कुसुम? अपने इस सवाल के जवाब में उसने पूरा कमरा छान मारा मगर कुसुम कहीं नज़र ना आई।

अचानक ही उसके मन में बिजली सी कौंधी और वो जड़ सी हो गई। चेहरा फक्क सा पड़ गया किंतु जल्दी ही उसने खुद को सम्हाला और पलट कर दरवाज़े की तरफ लपकी। चेहरे पर एकाएक घबराहट के भाव उभर आए थे और साथ ही पसीना छलछला आया था। अगले ही पल ख़ुद को सुलझाते हुए वो सीढ़ियों से उतर कर अपने कमरे की तरफ भागती नज़र आई।

✮✮✮✮

बड़ी मुश्किल से मैंने खुद को सम्हाला। हालाकि अंदर से टूट सा गया था मैं। आंखें जो देख रहीं थी उस पर अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था मुझे लेकिन आख़िर कब तक मैं उस पर विश्वास न करता? जीता जागता सच तो मेरी आंखों के सामने ही मूर्तिमान हो कर बैठा था, एकदम सहमा सा।

"य...ये तू है मेरी गुड़िया??" दुख और पीड़ा के चलते फूट पड़ने वाली अपनी रुलाई को बड़ी मुश्किल से काबू करते हुए मैं लगभग चीख पड़ा था____"नहीं नहीं, मैं नहीं मान सकता कि ये तू है। मेरी आंखें ज़रूर धोखा खा रही हैं।"

मेरी बातें सुनते ही सामने सफ़ेद लिबास में बैठी कुसुम की आंखें छलक पड़ीं। उसके चेहरे पर अथाह पीड़ा के भाव उभर आए और अगले ही पल वो फूट फूट कर रो पड़ी। ये देख मेरा कलेजा हाहाकार कर उठा। अपनी पीड़ा को भूल कर मैं झपट पड़ा उसकी तरफ और अगले ही पल खींच कर उसे अपने गले से लगा लिया।

"मत रो, तू अच्छी तरह जानती है कि तेरा ये भाई तेरी आंखों में आंसू नहीं देख सकता।" मैं उसे सीने से लगाए रो पड़ा____"तू वो नहीं हो सकती जो मुझे दिखा रही है। कह दे ना गुड़िया कि ये तू नहीं है। तू सफ़ेदपोश नहीं हो सकती। तू मुझसे बहुत प्यार करती है। तू मेरी जान की दुश्मन नहीं हो सकती। मैं सच कह रहा हूं ना गुड़िया? बोल ना....चुप क्यों है तू?"

"मुझे माफ़ कर दीजिए भैया।" कुसुम ने बुरी तरह मुझे जकड़ लिया____"ये मैं ही हूं। हां भैया, मैं ही सफ़ेदपोश हूं। मैं ही आपकी जान की दुश्मन बनी हुई थी।"

"नहीं।" मैं उसे खुद से अलग कर के हलक फाड़ कर चीखा____"मैं किसी कीमत पर नहीं मान सकता कि मेरी इतनी नाज़ुक सी गुड़िया अपने इस भाई की जान की दुश्मन हो सकती है। तू सफ़ेदपोश नहीं हो सकती। मुझे बता कि सच क्या है? आख़िर किसे बचाने की कोशिश कर रही है तू?"

"क...किसी को नहीं भैया।" कुसुम ने एकदम से नज़रें चुराते हुए कहा____"मेरा यकीन कीजिए, मैं ही सफ़ेदपोश हूं और शुरू से ही आपकी जान लेना चाहती थी।"

"तो फिर ठीक है।" मैंने एक झटके में उसका हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रख लिया, फिर बोला_____"यही बात मेरी क़सम खा कर बोल। मेरी आंखों में देखते हुए बता कि तू ही सफ़ेदपोश है और तू ही मेरी जान की दुश्मन बनी हुई थी।"

"न...नहीं।" कुसुम ने रोते हुए एक झटके में अपना हाथ मेरे सिर से खींच लिया, फिर बोली_____"मैं ये नहीं कर सकती लेकिन मेरा यकीन कीजिए। मैं ही सफेदपो....।"

"झूठ...झूठ बोल रही है तू।" मैं फिर से चीख पड़ा____"अगर सच में तू सफ़ेदपोश होती और मेरी जान की दुश्मन होती तो मेरी क़सम खाने में तुझे कोई संकोच न होता। आख़िर तेरे हिसाब से मैं तेरा सबसे बड़ा दुश्मन जो होता लेकिन तू मेरी क़सम नहीं खा सकती। इसका मतलब यही है कि तू अपने इस भाई को बहुत प्यार करती है। मेरे साथ बुरा हो ऐसा तू सपने में भी नहीं सोच सकती। फिर तू सफ़ेदपोश कैसे हो सकती है? मेरी जान की दुश्मन कैसे हो सकती है गुड़िया? नहीं नहीं, ज़रूर तू किसी को बचाने की कोशिश कर रही है।"

"नहीं, मैं किसी को नहीं बचा रही।" कुसुम ने सिसकते हुए कहा____"आप मेरी बात का यकीन क्यों नहीं कर रहे? मैं ही सफ़ेदपोश हूं।"

"तुम्हारे भाई की बात से हम भी सहमत हैं बेटी।" सहसा पिता जी ने हमारे क़रीब आ कर कुसुम से कहा_____"हमें भी इस बात का यकीन नहीं है कि हमारी फूल जैसी बेटी सफ़ेदपोश हो सकती है और जिस भाई पर उसकी जान बसती है उसकी जान की वो दुश्मन हो सकती है। एक बात और, हम इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि अगर सचमुच तू ही सफ़ेदपोश होती तो इस वक्त अपने भाई के सामने तू इस तरह रो नहीं रही होती बल्कि उसे अपना दुश्मन समझ कर उसकी आंखों में आंखें डाल कर उससे नफ़रत से बातें कर रही होती। इसी से ज़ाहिर हो जाता है कि तू सफ़ेदपोश नहीं है।"

कुसुम को कोई जवाब न सूझा। बस सिर झुकाए सिसकती रही वो। मुझे उसको इस हालत में देख कर बहुत तकलीफ़ हो रही थी लेकिन वक्त की नज़ाकत को देख कर मैं फिलहाल ख़ामोश था।

"तू खुद को ज़बरदस्ती सफ़ेदपोश कह रही है बेटी।" पिता जी ने पुनः कहा____"जबकि सफ़ेदपोश जैसी शख्सियत से तेरा दूर दूर तक कोई नाता नहीं है। स्पष्ट है कि तू किसी को बचाने का प्रयास कर रही है। यकीनन वो कोई ऐसा व्यक्ति है जो तेरा अपना है और जिसे तू बहुत प्यार करती है। हम सच कह रहे हैं ना बेटी?"

पिता जी की बातों पर कुसुम ने कोई जवाब नहीं दिया। ऐसा लगा जैसे उसने एकदम से चुप्पी साध ली हो। उधर पिता जी की आख़िरी बातें सुन कर मैं एकदम से चौंक पड़ा। बिजली की सी तेज़ी से मेरे ज़हन में कई सवाल चकरा उठे। कुसुम के तो सभी अपने ही थे किंतु उसके सगे वाले अपनों में उसकी मां ही थी। उसके दोनों भाई तो विदेश पढ़ने गए हुए थे। तो क्या मेनका चाची????? नहीं नहीं, मेनका चाची सफ़ेदपोश नहीं हो सकतीं और ना ही वो मेरी जान की दुश्मन हो सकती हैं। वो मुझे अपने बेटे की तरह प्यार करती हैं। तो फिर दूसरा कौन हो सकता है? मेरे दिमाग़ में एकाएक हलचल सी मच गई थी। कई चेहरे, कई नाम ज़हन में उभरने लगे। क्या रागिनी भाभी? वो भी तो कुसुम की अपनी ही थीं। रागिनी भाभी को कुसुम बहुत मानती है तो क्या रागिनी भाभी सफ़ेदपोश हो सकती हैं? मगर....मगर वो तो यहां हैं ही नहीं, तो फिर और कौन हो सकता है? सोचते सोचते मेरा बुरा हाल सा हो गया।

"चुप क्यों हो बेटी?" पिता जी की आवाज़ से मैं सोचो से बाहर आया_____"आख़िर किसे बचाने का प्रयास कर रही हो तुम?"

"आपके इस सवाल का जवाब मैं देती हूं जेठ जी।" अचानक कमरे में एक नारी की मधुर आवाज़ गूंजी तो हम सब चौंक पड़े।

गर्दन घुमा कर दरवाज़े की तरफ देखा। दरवाज़े के बीचो बीच मेनका चाची खड़ीं थी। कुसुम ने उन्हें देखा तो उसके चेहरे पर गहन पीड़ा के भाव उभर आए। आंखों में आंसू भर आए।

"च...चाची आप?" मैं सकते की सी हालत में उन्हें देखा।

"क्यों, क्या मैं यहां नहीं हो सकती?" मेनका चाची ने फीकी सी मुस्कान के साथ मेरी तरफ देखा।

मुझे समझ ना आया कि क्या जवाब दूं? बस हैरत से उनके चेहरे की तरफ देखता रहा। उधर पिता जी और शेरा भी चकित से देखे जा रहे थे उन्हें। मेनका चाची अपने विधवा लिबास में थीं। सिर पर हल्का सा घूंघट लिया हुआ था उन्होंने।

"तो तुम हो वो।" पिता जी ने चाची की तरफ देखते हुए कहा____"जिसे कुसुम बचाने का प्रयास कर रही थी?"

"दुर्भाग्य से यही सच है जेठ जी।" मेनका चाची ने कहा_____"हालाकि मैं ये सोच कर चकित हूं कि मेरी बेटी को ये कैसे पता चला कि उसकी मां ही सफ़ेदपोश है? इस वक्त इसे यहां पर इस रूप में बैठा देख कर मैं समझ सकती हूं कि इसने अपनी मां को बचाने के लिए खुद का बलिदान देना चाहा।"

"आपको यहां नहीं आना चाहिए था मां।" कुसुम ने पीड़ा भरे भाव से कहा।

"दुनिया में अक्सर माता पिता ही औलाद के लिए खुद का बलिदान देते हैं मेरी बच्ची।" मेनका चाची ने दर्द भरे स्वर में कहा____"तू तो मेरी बहुत ही ज़्यादा मासूम और निर्दोष बेटी है। भला मैं ये कैसे सहन कर लेती कि मेरी बेटी अपनी मां को बचाने के लिए अपना बलिदान दे दे? हवेली में दीदी के द्वारा जब मुझे ये पता चला कि सफ़ेदपोश को पकड़ लिया गया है तो मैं ये सोच कर चकित रह गई थी कि मेरे अलावा कोई दूसरा सफ़ेदपोश कहां से पैदा हो गया? और पैदा हुआ भी तो इतना जल्दी पकड़ा कैसे गया? यही सोच सोच कर मेरा सिर फटा जा रहा था। तभी मैं ये देख कर चौंकी कि हवेली में लगभग सभी जग चुके हैं और एक जगह इकट्ठा हो गए हैं लेकिन मेरी बेटी घोड़े बेंच कर अपने कमरे में कैसे सोई हुई है? अपनी बेटी के बारे में इतना तो मैं जानती ही थी कि वो इस तरह कभी घोड़े बेंच कर नहीं सोती है। इसके बाद भी अगर वो जग कर सबके पास नहीं आई है तो ज़रूर कोई वजह है। मैं फ़ौरन ही इसके कमरे में इसे देखने पहुंची लेकिन ये अपने कमरे में नहीं थी। स्वाभाविक रूप से मुझे बड़ी हैरानी हुई और सोचने पर मजबूर हो गई कि आख़िर ये गई कहां? फिर अचानक से मुझे ख़याल आया कि इसके साथ कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गई? आख़िर मां हूं फ़िक्र तो होनी ही थी मुझे। मन में ये ख़याल भी बार बार उभरने लगा था कि कहीं ये ही तो नहीं सफ़ेदपोश बन कर हवेली से चली गई थी और पकड़ ली गई है? बात असंभव ज़रूर थी लेकिन ऐसी परिस्थिति में हर असंभव बात सच ही लगने लगती है। यही सोच कर मैं अपने कमरे की तरफ भागी। कमरे में पहुंच कर मैंने झट से संदूक खोला और ये देख कर मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई कि संदूख से सफ़ेदपोश वाले कपड़े गायब हैं। बस, ये देख मन में मौजूद रही सही शंका भी दूर हो गई। पहले तो समझ ही न आया कि इस पगली ने ऐसा क्यों किया लेकिन जब गहराई से सोचा तो अनायास ही आंखें भर आईं। मैं समझ गई कि मेरी बेटी को मेरे सफ़ेदपोश होने का राज़ पता चल गया है। यकीनन इस भेद के चलते उसे बहुत पीड़ा हुई होगी लेकिन अपनी मां को इस हाहाकारी संकट से बचाने के लिए इस पगली को जो सूझा वही कर बैठी। उस वक्त लगा कि धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊं लेकिन बेटी को कलंकित कर के मौत के मुंह पर अकेला छोड़ कर दुनिया से नहीं जा सकती थी मैं। इस लिए हवेली से चुपचाप यहां चली आई।"

मेनका चाची के चुप होते ही सन्नाटा छा गया कमरे में। कुसुम का सफ़ेदपोश बनना तो समझ आ गया था लेकिन अब सबसे ज़्यादा ये जानने की उत्सुकता थी कि अगर मेनका चाची ही सफ़ेदपोश हैं तो क्यों हैं? आख़िर ऐसी क्या वजह थी कि उन्होंने सफ़ेदपोश का रूप धारण किया? मैं तो हमेशा यही समझता था कि मेनका चाची मुझे अपने बेटे की तरह प्यार करती हैं तो फिर ऐसा क्यों था कि वो मुझे अपना दुश्मन समझती थीं और मेरी जान लेने पर आमादा थीं?

पहले ये देख कर तीव्र झटका और पीड़ा हुई थी कि मेरी लाडली बहन सफ़ेदपोश है और जब उससे उबरा तो अब ये जान कर झटके पे झटका लगे जा रहा था कि मेनका चाची ने सफ़ेदपोश बन कर ऐसा क्यों किया?

कुछ ही क़दम की दूरी पर खड़े पिता जी के चेहरे पर सोचो के भाव तो थे ही किंतु गहन पीड़ा के भाव भी थे। उन्हें देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे अचानक ही उन्हें किसी गंभीर बीमारी ने घेर लिया हो जिसके चलते वो एकदम से असहाय हो गए हैं।

हम सबके मन में अनगिनत सवाल थे जिनके जवाब सिर्फ और सिर्फ मेनका चाची के पास थे। मेरे और पिता जी के लिए ये बड़ा ही पीड़ादायक पल था। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेनका चाची सफ़ेदपोश हो सकती हैं।​
 
अध्याय - 134
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कमरे में एकदम से सन्नाटा छाया हुआ था। मेनका चाची एकाएक चुप हो गईं थी और अपनी बेटी को देखे जा रहीं थी। उस बेटी को जिसके चेहरे पर दुख और संताप के गहरे भाव थे। पिता जी किसी सदमे जैसी हालत में थे। शेरा एक कुर्सी ले आया था जिसमें वो बैठ गए थे। इधर मैं कुसुम से कुछ ही दूरी पर कमरे की ज़मीन पर असहाय सा बैठा था। दिलो दिमाग़ में आंधियां सी चल रहीं थी और मस्तिष्क एकदम से कुंद पड़ गया था।

"क्यों चाची?" फिर मैं अपने अंदर मचलते जज़्बातों को किसी तरह काबू करते हुए बोल पड़ा____"आख़िर क्यों किया आपने ऐसा? भगवान के लिए कह दीजिए कि आपने जो कुछ कहा है वो सब झूठ है। कह दीजिए कि ना तो आप सफ़ेदपोश हैं और ना ही आप मुझसे नफ़रत करती हैं। चाची, मेरी सबसे प्यारी चाची। मैंने हमेशा आपको अपनी मां ही समझा है और आपको वैसा ही प्यार व सम्मान दिया है। आप भी तो मुझे अपना बेटा ही मानती हैं। फिर मैं ये कैसे मान लूं कि आपने ही ये सब किया है?"

"इस दुनिया में हर कोई अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगाए रखता है वैभव।" चाची ने धीर गंभीर भाव से कहा____"ऐसा शायद इस लिए क्योंकि इसी से उन्हें खुशी मिलती है, उनका भला होता है और हमेशा वो दूसरों की नज़रों में महान बने रहते हैं। मगर वो अपनी होशियारी में ये भूल जाते हैं कि वो ज़्यादा समय तक अपने असल चेहरे को दुनिया से छुपा के नहीं रख सकते। एक दिन दुनिया वालों को उनका चेहरा ही नहीं बल्कि उनकी असलियत भी पता चल जाती है और फिर पलक झपकते ही उनकी वो महानता चूर चूर हो जाती है जिसे बुलंदी तक पहुंचाने के लिए उन्होंने जाने कितने ही जतन किए थे और जाने कितने ही लोगों के विश्वास को अपने दोगलेपन से छला था। तुम सोच रहे होगे कि मैं ये सब क्या कह रही हूं जबकि तुम्हें समझना चाहिए कि इंसानी दुनिया के इस जंगल में ऐसे ही कुछ लोग पाए जाते हैं।"

मैं एकटक उन्हें ही देखे जा रहा था। उन्हें, जिनके सुंदर चेहरे पर इस वक्त बड़े ही अजीब से भाव गर्दिश करते नज़र आ रहे थे। कभी कभी उस चेहरे पर दुख और पीड़ा के भाव भी आ जाते थे जिन्हें वो पूरी बेदर्दी से दबा देती थीं।

"ये बड़ी लंबी कहानी है वैभव।" मेनका चाची ने एक नज़र पिता जी पर डालने के बाद मुझसे कहा____"कब शुरू हुई, कैसे शुरू हुई और क्यों शुरू हुई ये तो जैसे ठीक से किसी को पता ही नहीं चला मगर इतना ज़रूर पता था कि इस कहानी को इसके अंजाम तक हर कीमत पर पहुंचाना है। आज की दुनिया में हर इंसान सिर्फ और सिर्फ अपने और अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए ही कर्म करता है। हर इंसान की यही हसरत होती है कि उनकी और उनके बच्चों की स्थिति बाकी हर किसी से लाख गुना बेहतर हो। ऐसी हसरतें जब अंधा जुनून का रूप ले लेती हैं तो इंसान अपनी उन हसरतों को पूरा करने के लिए किसी भी हद से गुज़र जाता है। मैं और तुम्हारे चाचा ऐसी ही हद से गुज़र गए थे।"

"क...क्या मतलब???" मैं बुरी तरह चौंका____"चाचा भी? ये क्या कह रही हैं आप?"

"तुम्हें क्या लगता है वैभव कि इस तरह का काम एक अकेली औरत जात कर सकती थी?" चाची ने फीकी मुस्कान के साथ कहा____"नहीं वैभव, ये तो किसी भी कीमत पर संभव नहीं हो सकता था। मैंने तो सिर्फ उनके गुज़र जाने के बाद उनकी जगह ली थी। उनके बाद सफ़ेदपोश का सफ़ेद लिबास पहनना शुरू कर दिया था मैंने और इस कोशिश में लग गई थी कि उनकी तरह पूरी कुशलता से मैं उनका काम पूरा करूंगी। लेकिन ऐसा हो न सका क्योंकि मर्द तो मर्द ही होता है ना वैभव। एक औरत कैसे भला एक मर्द की तरह हर काम कर सकती है? मैंने बहुत कोशिश की लेकिन नहीं कर सकी। मेरे लिए तो सबसे बड़ी समस्या मेरा अपना ही डर था। किसी के द्वारा पकड़ लिए जाने का डर। फिर भी मैंने हार नहीं मानी और ऐसे दो काम कर ही डाले जिसके तहत मुझे आत्मिक खुशी प्राप्त हुई। जेठ जी ने अपने भाई और बेटे की हत्या का बदला साहूकारों से तो ले लिया था लेकिन चंद्रकांत और उसके बेटे को सही सलामत छोड़ दिया था। ऐसा शायद इस लिए क्योंकि उस समय उन्हें चंद्रकांत की असलियत पता नहीं थी। उसके बाद पंचायत में भी चंद्रकांत और उसके बेटे की करतूत के लिए कोई सज़ा नहीं दी गई। मैं भला कैसे ये सहन कर लेती कि मेरे पति का हत्यारा बड़ी शान से अपनी जिंदगी की सांसें लेता रहे? बस, मैंने फ़ैसला कर लिया कि चंद्रकांत और उसके बेटे को उसकी करनी की सज़ा अब मैं दूंगी।"

"तो आपने रघुवीर की हत्या की थी?" मैं चकित भाव से पूछ बैठा____"मगर कैसे?"

"मैं तो इसे अपनी अच्छी किस्मत ही मानती हूं वैभव।" चाची के कहा____"क्योंकि मुझे खुद उम्मीद नहीं थी कि मैं ऐसा कर पाऊंगी। हालाकि ऐसा करने का दृढ़ संकल्प ज़रूर लिया हुआ था मैंने। अपने मरे हुए पति की क़सम खा रखी थी मैंने। अक्सर रात के अंधेरे में चंद्रकांत के घर पहुंच जाती थी और मुआयना करते हुए ये सोचती थी कि मैं किस तरह अपना बदला ले सकती हूं? क‌ई रातें ऐसे ही गुज़र गईं किंतु मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर कैसे अपना बदला लूं? किंतु तभी एक बात ने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींच लिया। मैंने महसूस किया कि चंद्रकांत और उसका बेटा रघुवीर लगभग हर रात पेशाब करने के लिए घर से बाहर आते हैं। मेरे ज़हन में बिजली की तरह ख़याल उभरा कि मुझे उनकी इसी स्थिति पर कुछ करने का सोचना चाहिए। उसके बाद मैंने और भी तीन चार रातों में दोनों बाप बेटे की उस आदत को परखा। जब मैं निश्चिंत हो गई कि वो दोनों अलग अलग समय पर लगभग हर रात ही पेशाब करने के लिए घर से बाहर आते हैं तो मैंने उनमें से किसी एक की जान लेने का निश्चय कर लिया। आख़िर एक रात मैं पहुंच गई चंद्रकांत के घर और वहां उस जगह पर जा कर छुप गई जिस जगह पर वो दोनों बाप बेटे पेशाब करने आते थे। शायद किस्मत भी उस रात मुझ पर मेहरबान थी क्योंकि पास ही रखी एक कुल्हाड़ी पर मेरी नज़र पड़ गई थी। वैसे मेरे पास तुम्हारे चाचा का रिवॉल्वर था जिससे मैं उनमें से किसी एक की जान ले सकती थी लेकिन मैं ये भी जानती थी कि रिवॉल्वर से गोली चलने पर तेज़ आवाज़ होगी जिससे लोगों के जाग जाने का पूरा अंदेशा था और उस सूरत में मेरे लिए ख़तरा ही हो जाना था। हालाकि मैं यही सोच कर आई थी कि एक को गोली मार कर फ़ौरन ही गायब हो जाऊंगी लेकिन उस रात जब मेरी नज़र कुल्हाड़ी पर पड़ी तो मैंने सोचा इससे तो और भी बढ़िया तरीके से मैं अपना काम कर सकती हूं और कोई शोर शराबा भी नहीं होगा। बस, कुल्हाड़ी को अपने हाथ में ले लिया मैंने और फिर बाप बेटे में से किसी एक के बाहर आने का इंतज़ार करने लगी। इत्तेफ़ाक से उस रात रघुवीर ही बाहर आया और फिर मैंने वही किया जिसका मैं पहले ही निश्चय कर चुकी थी। रघुवीर को जान से मार डालने में मुझे कोई समस्या नहीं हुई। उस कमीने को स्वप्न में भी ये उम्मीद नहीं थी कि उस रात वो पेशाब करने के लिए नहीं बल्कि मेरे हाथों मरने के लिए घर से बाहर निकला था।"

"और उसके बाद आपने चंद्रकांत के हाथों उसकी ही बहू की हत्या करवा दी।" मैंने पूछा____"ऐसा क्यों किया आपने? मेरा मतलब है कि आप तो दोनो बाप बेटे को मारना चाहती थीं न तो फिर रजनी की हत्या उसके हाथों क्यों करवाई आपने?"

"रजनी का भले ही मेरे पति अथवा तुम्हारे भाई की मौत में कोई हाथ नहीं था।" मेनका चाची ने कहा____"लेकिन दूध की धुली तो वो भी नहीं थी। उसके जैसी चरित्र हीन औरत के जीवित रहने से कौन सा इस संसार में सतयुग का आगमन हो जाना था? उसके पति को मारने के बाद मैं चंद्रकांत का ही क्रिया कर्म करना चाहती थी लेकिन फिर ख़याल आया कि एक झटके में उसे मौत देना ठीक नहीं होगा। उसने और उसके बेटे ने मेरे पति की हत्या कर के मुझे जीवन भर का दुख दे दिया था तो बदले में उसी तरह उसे भी तो जीवन भर दुख भोगना चाहिए। इससे भी बढ़ कर अगर कुछ हो जाए तो उससे अच्छा कुछ हो ही नहीं सकता था। मैं हर रोज़ यही सोचती थी कि ऐसा क्या करूं जिससे चंद्रकांत सिर्फ दुखी ही न हो बल्कि हमेशा तड़पता भी रहे? उधर रघुवीर की हत्या हो जाने से पूरे गांव में हंगामा सा मचा हुआ था। जेठ जी और महेंद्र सिंह जी उसके हत्यारे को खोजने में लगे हुए थे। मैं जानती थी कि अगर ऐसे हालात में मैंने कुछ करने का सोचा तो मैं जल्द ही किसी न किसी के द्वारा पकड़ ली जाऊंगी और मेरे पकड़ लिए जाने से सिर्फ यही बस पता नहीं चलेगा कि रघुवीर की हत्या मैंने की है बल्कि ये भी खुलासा हो जाएगा कि जिस सफ़ेदपोश ने जेठ जी की रातों की नींद हराम कर रखी थी वो कोई और नहीं बल्कि मैं थी, यानि हवेली की मझली ठकुराईन।"

"तब मैंने हालात के ठंडा पड़ जाने का इंतज़ार करना ही उचित समझा।" एक गहरी सांस लेने के बाद मेनका चाची ने फिर से बताना शुरू किया____"जब मैंने महसूस किया कि हालात वाकई में ठंडे पड़ गए हैं तो मैं अपने अगले काम को अंजाम देने के बारे में सोचने लगी। इस बीच मैंने सोच लिया था कि चंद्रकांत को किस तरीके से जीवन भर तड़पने की सज़ा देनी है। उसकी बहू के बारे में मैं ही क्या लगभग सभी जानते थे कि वो कैसे चरित्र की औरत है इस लिए मैंने उसके इसी चरित्र के आधार पर एक योजना बनाई जिसको मुझे चंद्रकांत के कानों तक पहुंचानी थी। मैं जानती थी कि चंद्रकांत अपने इकलौते बेटे की हत्या हो जाने से और उसके हत्यारे का अभी तक पता न लग पाने से बहुत ज़्यादा पगलाया हुआ है। मैं समझ गई कि अगर उसकी ऐसी मानसिक स्थिति में मैं सफ़ेदपोश बन कर उसके पास जाऊं और उसे बता दूं कि उसके बेटे का हत्यारा कौन है तो यकीनन वो पागल हो जाएगा। वही हुआ....एक रात सफ़ेदपोश बन कर मैं पहुंच गई उसके घर और उसके बाहर निकलने का इंतज़ार करने लगी। कुछ ही समय में जब वो बाहर आया और पेशाब करने के बाद वापस घर के अंदर जाने लगा तो मैंने हल्की सी आवाज़ के साथ उसका ध्यान अपनी तरफ खींच लिया। उसके बाद तुम्हें और जेठ जी को भी पता है कि सफ़ेदपोश के रूप में मैंने उससे क्या कहा था जिसके बाद उसने अपनी ही बहू की हत्या कर दी थी।"

"ऐसा करने के पीछे क्या सिर्फ यही वजह थी कि उसने और उसके बेटे ने चाचा जी की हत्या की थी?" मैंने उनकी तरफ देखते हुए पूछा____"या कोई और भी वजह थी?"

"हां सही कहा तुमने।" चाची ने इस बार बड़े स्नेह से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"मेरे ऐसा करने के पीछे एक दूसरी वजह भी थी और वो वजह थे तुम। हां वैभव, तुम भी एक वजह बन गए थे।"

"म...मैं कुछ समझा नहीं।" मैं उलझ सा गया____"मैं भला कैसे वजह बन गया था?"

"नफ़रत, गुस्सा और ईर्ष्या एकाएक प्यार और ममता में बदल गई थी।" चाची ने अजीब भाव से कहा____"इतना कुछ होने के बाद भी जब मैंने ये देखा कि तुम अपने छोटे भाइयों की कितनी फ़िक्र करते हो और उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए उन्हें विदेश भेजना चाहते हो तो मुझे ये सोच कर पहली बार एहसास हुआ कि कितने ग़लत थे हम। आत्मग्लानि से डूबती चली गई थी मैं। उस दिन खुद को बहुत छोटा और बहुत ही गिरा हुआ महसूस किया था मैंने। ये सोच कर हृदय हाहाकार कर उठा था कि जिस लड़के ने हमेशा मुझे अपनी मां समझ कर मुझे मान सम्मान दिया, जिस लड़के ने हमेशा अपने चाचा को अपने पिता से भी ज़्यादा महत्व दिया उस लड़के से हमने सिर्फ नफ़रत की? अगर उसका कोई नाम था, कोई शोहरत थी तो ये उसके कर्मों का ही तो परिणाम था ना। हमारे बेटे भी तो ऐसा कर्म कर के नाम और पहचान बना सकते थे मगर ये उनकी कमी थी कि वो ऐसा नहीं कर पाए। तो फिर इसमें तुम्हारा क्या दोष था? यकीन मानों वैभव, उस दिन किसी जादू की तरह जैसे सारे एहसास बदल गए। वो सब कुछ याद आने लगा जो हमने किया था और जो हमारे साथ हुआ था। उस दिन एहसास हुआ कि कितनी गिरी हुई सोच थी हमारी। इतने बड़े खानदान में ऊपर वाले ने हमें भेजा था और हम इतने गिरे हुए काम करने पर आमादा थे। ऐसा लगा जैसे धरती फटे और मैं उसमें समाती चली जाऊं। उसी समय तुम्हें अपने सीने से लगा कर फूट फूट कर रोने को जी चाह रहा था। तुमसे अपने गुनाहों की माफ़ियां मांगने का मन कर रहा था लेकिन नहीं कर सकी। हां वैभव, नहीं कर सकी ऐसा...हिम्मत ही नहीं हुई। ये सोच सोच कर जान निकली जा रही थी कि सब कुछ जानने के बाद तुम क्या सोचोगे मेरे बारे में? पलक झपकते ही तुम्हारी चाची तुम्हारी नज़रों में क्या से क्या बन जाएगी? जिस चाची को तुम हमेशा बड़े स्नेह से अपनी सबसे प्यारी और सबसे सुंदर चाची कहते थे वो एक ही पल में एक डायन नज़र आने लगती तुम्हें। ये सब सोच कर ही जान निकली जा रही थी मेरी। मैं ये सहन नहीं कर सकती थी कि मैं तुम्हारी नज़रों से गिर जाऊं या तुम्हारी नज़रों में मेरी छवि बदसूरत बन जाए। इस लिए उस दिन कुछ नहीं बताया तुम्हें। अंदर ही अंदर पाप का बोझ ले कर घुट घुट के मरना मंजूर कर लिया मैंने। आख़िर दिल को ये तसल्ली तो थी कि तुम्हारी नज़र में मैं अब भी तुम्हारी सबसे प्यारी चाची हूं। मगर किस्मत देखो कि इसके बाद भी कभी एक पल के लिए भी सुकून नहीं मिला मुझे। हर पल ईश्वर से यही प्रार्थना करती थी कि या तो मुझे अपने पास बुला ले या फिर कुछ ऐसा कर दे कि कोई मुझे ग़लत न समझे। चंद्रकांत के बेटे को और फिर उसके द्वारा उसकी बहू को मरवा देने के पीछे एक वजह यही थी कि ऐसा कर के मैं तुम्हारे भाई की मौत का बदला भी ले लूंगी। शायद मेरे अपराध कुछ तो कम हो जाएं।"

"वैसे ये सब कब से चल रहा था?" सहसा पिता जी ने गंभीरता से पूछा____"हम जानना चाहते हैं कि हमारे प्यार में कहां कमी रह गई थी जिसके चलते हमारे ही भाई ने ऐसा करने का मंसूबा बना लिया था? अगर उसको हवेली, धन संपत्ति और ज़मीन जायदाद की ही चाह थी तो उसे हमसे कहना चाहिए था। यकीन मानो बहू, अपने छोटे के कहने पर हम पलक झपकते ही सब कुछ उसके नाम कर देते और खुद अपने बीवी बच्चों को ले कर कहीं और चले जाते।"

"माफ़ कर दीजिए जेठ जी।" मेनका चाची उनके सामने घुटनों के बल गिर पड़ीं। फिर रोते हुए बोलीं____"हमसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है। पता नहीं वो कौन सी मनहूस घड़ी थी जब हमारे मन में ऐसा नीच कर्म करने का ख़याल आया था।"

"इतना बड़ा धोखा, इतना बड़ा छल?" पिता जी ने आहत भाव से कहा____"हे विधाता! ये जानने के बाद भी हमारे प्राण नहीं निकले...क्यों? आख़िर अब और कौन सी बिजली हमारे हृदय पर गिराने का सोच रखा है तुमने?"

"ऐसा मत कहिए जेठ जी।" चाची ने सिसकते हुए कहा____"ईश्वर करे आपको कभी कुछ न हो। हम सबकी उमर लग जाए आपको।"

"मत दो हमें ऐसी बद्दुआ।" पिता जी खीझ कर बोले____"ईश्वर जानता है कि हमने कभी किसी के बारे में ग़लत नहीं सोचा। हमेशा सबका भला ही चाहा है। सारा जीवन हमने लोगों की भलाई के लिए समर्पित किया। कभी अपने और अपनी औलाद के लिए कुछ नहीं चाहा इसके बावजूद हमारे साथ इतना बड़ा छल किया गया। बताओ बहू, आख़िर किस अपराध की सज़ा दी है तुम दोनों ने हमें? इतने समय से हम अपने छोटे भाई के जाने का दुख सहन कर रहे थे और आज तुम हमें ये बता रही हो कि उसने और तुमने मिल कर हमारे साथ इतना बड़ा छल किया? क्यों बताया तुमने बहू? हमें इसी भ्रम में जीने दिया होता कि हमारा भाई हमें बहुत मानता था?"

पिता जी की हालत एकाएक दयनीय हो गई। मैंने उनकी आंखों में तब आंसू देखे थे जब चाचा जी और भैया की मौत हुई थी और अब देख रहा था। यकीनन ऐसा होने की उन्होंने कल्पना नहीं की थी। हालाकि शुरआत में हमारे मन में चाचा जी के प्रति शक भी पनपा था किंतु तब हमने यही सोचा था कि ऐसा शायद इस लिए हो सकता है क्योंकि हमारा दुश्मन है ही इतना शातिर। यानि वो चाहता ही यही है कि हम आपस में ही एक दूसरे पर शक करें जिसका परिणाम ये निकले कि हम बिखर जाएं। नहीं पता था कि उस समय हमारा चाचा जी पर शक करना हमारे किसी दुश्मन की शातिराना चाल नहीं थी बल्कि कहीं न कहीं उसमें सच्चाई ही थी।

"आप तो महान हैं जेठ जी।" चाची की करुण आवाज़ से मेरा ध्यान भंग हुआ____"आपके जैसा दूसरा कभी कोई नहीं होगा। आपने हमेशा दूसरों का भला चाहा। ये तो हमारा दुर्भाग्य था कि ऐसे महान इंसान के पास रह कर भी हम बुरे बन गए। हमें माफ़ कर दीजिए।"

"तुम दोनों ने जो किया वो तो किया ही लेकिन जिस बेटी को हमने हमेशा अपनी बेटी समझा।" पिता जी ने सहसा कुसुम की तरफ देखते हुए कहा____"उसने भी हमें सिर्फ दुख ही दिया। हमारे विश्वास और हमारे प्यार का मज़ाक बना दिया।"

"नहीं ताऊ जी।" कुसुम भाग कर आई और पिता जी के घुटनों से लिपट कर रोने लगी____"मैंने आपके प्यार का मज़ाक नहीं बनाया। अपने माता पिता से ज़्यादा मैं आपको, ताई जी को और अपने सबसे अच्छे वाले भैया को मानती हूं। मेरा यकीन कीजिए ताऊ जी। आपकी बेटी आपको दुख देने का सोच भी नहीं सकती है। वो तो....वो तो मेरी बदकिस्मती थी कि अपनी मां को बचाने के लिए मुझे जो सुझा कर दिया मैंने। अपनी बेटी की इस नादानी के लिए माफ़ कर दीजिए ना।"

"हां जेठ जी इसे माफ़ कर दीजिए।" चाची ने दुखी भाव से कहा____"इस पगली का इसमें कोई दोष नहीं है। इसे इस बारे में कुछ भी पता नहीं था लेकिन आज इसने ये सब कैसे किया मुझे नहीं पता। शायद किसी दिन इसने मुझे सफ़ेद लिबास पहने देख लिया होगा।"

"मैंने आपको तब देखा था जब एक रात आप सफ़ेदपोश के रूप में कमरे से बाहर जाने वाली थीं।" कुसुम ने सिसकते हुए कहा____"उस रात मेरा पेट दर्द कर रहा था इस लिए मैं दवा लेने के लिए आपके कमरे में आई थी। आपके कमरे का दरवाज़ा बंद तो था लेकिन दो उंगली के बराबर खुला हुआ भी नज़र आ रहा था। अंदर बल्ब जल रहा था। मैं जैसे ही आपको आवाज़ देने को हुई तो अचानक दो अंगुल खुले दरवाज़े के अंदर मेरी नज़र आप पर पड़ी। आपको सफ़ेद मर्दाना कपड़ों में देख मैं हक्की बक्की रह गई थी। अगर आपने अपने चेहरे पर नक़ाब लगाया होता तो मैं जान भी न पाती कि वो आप थीं। आपको उन कपड़ों में देख कर मैं डर भी गई थी। सफ़ेदपोश के बारे में तो मैंने भी सुना था लेकिन मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि जो सफ़ेदपोश मेरे सबसे अच्छे वाले भैया की जान का दुश्मन था वो आप हैं। उसके बाद फिर मेरी हिम्मत ही न हुई कि आपको आवाज़ दूं या कमरे में जाऊं। कुछ देर डरी सहमी मैं आपको देखती रही और फिर वहां से चुपचाप चली आई थी।"

"अगर तुझे पता चल ही गया था कि वो मैं ही थी।" चाची ने कहा____"तो इतने दिनों से चुप क्यों थी? मुझे या हवेली में किसी को बताया क्यों नहीं इस बारे में?"

"मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था।" कुसुम ने कहा____"और फिर किसी से क्या बताती मैं? क्या ये कि आप ही सफ़ेदपोश हैं ताकि आप पकड़ी जाएं और फिर आपको मौत की सज़ा दे दी जाए? नहीं मां, मैं भला कैसे ये चाह सकती थी कि मेरी मां सफ़ेदपोश के रूप में पकड़ी जाएं और फिर कोई उनकी जान ले ले? अपने पिता जी को तो खो ही चुकी थी। अब मां को नहीं खोना चाहती थी। यही सोच सोच कर रात दिन हालत ख़राब थी मेरी। जानती थी कि आज नहीं तो किसी न किसी दिन लोग सफ़ेदपोश के रूप में आपको पकड़ ही लेंगे और फिर जाने अंजाने आपकी जान भी ले सकते हैं। मुझे लगा अगर आपको कुछ हो गया तो मेरे दोनों भाई बिना मां के हो जाएंगे। इस लिए सोचा कि मैं ही सफ़ेदपोश बन जाती हूं। अगर किसी के द्वारा पकड़ी गई या जान से मार दी गई तो सफ़ेदपोश का किस्सा ही हमेशा के लिए ख़त्म हो जाएगा। उसके बाद कोई भी आपके साथ कुछ नहीं कर पाएगा।"

"तो ऐसे पता चला तुझे और इसी लिए तूने मुझे बचाने के लिए सफ़ेदपोश बन कर अपनी बली देनी चाही?" मेनका चाची का गला भर आया, आंखों से आंसू छलक पड़े, बोलीं____"तुझे मुझ जैसी मां के लिए अपना बलिदान देने की कोई ज़रूरत नहीं थी मेरी बच्ची। मैंने और तेरे पिता ने जो किया है वो माफ़ी के लायक नहीं है।"

बड़ा गमगीन माहौल हो गया था। समझ नहीं आ रहा था कि किसको क्या कहें किंतु अभी भी बहुत कुछ ऐसा था जिसे जानना बाकी था। इतना तो समझ आ गया था कि ये सब अपने और अपने बच्चों के लिए किया था उन्होंने लेकिन ये कब शुरू हुआ और कैसे शुरू हुआ ये जानना बाकी था।​
 
अध्याय - 135
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"तो ऐसे पता चला तुझे और इसी लिए तूने मुझे बचाने के लिए सफ़ेदपोश बन कर अपनी बली देनी चाही?" मेनका चाची का गला भर आया, आंखों से आंसू छलक पड़े, बोलीं____"तुझे मुझ जैसी मां के लिए अपना बलिदान देने की कोई ज़रूरत नहीं थी मेरी बच्ची। मैंने और तेरे पिता ने जो किया है वो माफ़ी के लायक नहीं है।"

बड़ा गमगीन माहौल हो गया था। समझ नहीं आ रहा था कि किसको क्या कहें किंतु अभी भी बहुत कुछ ऐसा था जिसे जानना बाकी था। इतना तो समझ आ गया था कि ये सब अपने और अपने बच्चों के लिए किया था उन्होंने लेकिन ये कब शुरू हुआ और कैसे शुरू हुआ ये जानना बाकी था।

अब आगे....


हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ये दिन भी देखना पड़ेगा। एक ऐसी कड़वी सच्चाई से रूबरू होना पड़ेगा जो हम सबको अंदर से तोड़ कर रख देगी। आज ऐसा लग रहा था कि वक्त अगर मरहम होता है तो वो बहुत बेरहम भी होता है। वक्त ये नहीं देखता कि जिस सच से वो सामने वाले को रूबरू कराने वाला है, सामने वाला उस सच को सहन कर भी पाएगा या नहीं? वक्त के सीने में कोई दिल नहीं होता। शायद यही वजह है कि उसे किसी के दुख सुख अथवा किसी की भावनाओं से कोई मतलब नहीं होता है।

"क़रीब साल भर पहले की बात है।" मेनका चाची ने पिता जी के पूछने पर बताना शुरू किया____"कुसुम के पिता जी कुंदनपुर यानि मेरे मायके और अपनी ससुराल गए हुए थे। मेरे मझले भैया से उनकी खूब पटती थी। उनकी आपस में दुनिया जहान की बहुत सी बातें होती थीं। जब वो कुछ दिनों बाद वापस यहां आए तो मुझे कुछ बदले हुए से नज़र आए। मेरे बहुत ज़ोर देने पर उन्होंने अपने अंदर की बात बताने से पहले मुझे हमारे बच्चों की क़सम दी और कहा कि वो मुझे जो कुछ बताने वाले हैं उसका ज़िक्र मैं हवेली में कभी किसी से न करूं, यहां तक कि अपने बच्चों से भी नहीं। उनके क़सम देने पर मैं बड़ा हैरान हुई और सोचने पर मजबूर हो गई कि आख़िर ऐसी कौन सी बात हो सकती है जिसके लिए उन्होंने बिना किसी भूमिका के सीधा मुझे मेरे बच्चों की क़सम ही दे दी? हालाकि वो अगर क़सम ना भी देते तो मैं उनकी कोई भी बात कभी किसी से ना कहती, क्योंकि एक पत्नी होने के नाते ये मेरा धर्म था कि मैं अपने पति की ऐसी किसी भी बात का ज़िक्र किसी से ना करूं जिसके लिए मेरे पति ने मुझे मना किया हो। ख़ैर, उन्होंने क़सम दी थी तो मैं समझ सकती थी कि कोई गंभीर बात ज़रूर है अन्यथा वो मुझे कभी हमारे बच्चों की क़सम न देते। मैंने जब क़सम खा ली तो उन्होंने मुझे बताया कि उनके मन में क्या है और वो हमारे व हमारे बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए क्या करना चाहते हैं? उन्होंने मुझे बताया कि इस बार कुंदनपुर में मेरे मझले भैया अवधराज से उनकी किस सिलसिले में बातें हुई है और उन्होंने उन्हें क्या सुझाव दिया है। मेरे भैया से उनकी जो बातें हुईं थी वो यही थीं कि उन्हें अपने बड़े भाई के आधीन हो कर अपना जीवन नहीं जीना चाहिए, क्योंकि ऐसे में आगे चल कर उनके बच्चों को भी आधीनता के साथ ही जीवन जीना पड़ेगा। इस सबके चलते उनकी तरह ही उनके अपने बच्चों का भी कोई नाम नहीं होगा। जिस तरह आज दादा ठाकुर का नाम और उनकी शोहरत हर तरफ फैली हुई है उसी तरह उनके बेटों का भी नाम फैलेगा....और वैभव का तो फैलने भी लगा था। वैभव तो वैसे भी अपने दादा जी यानि बड़े दादा ठाकुर पर गया है जिसके चलते दूर दूर तक उसके नाम और उसके ख़ौफ का साम्राज्य फैलता जा रहा है। भैया ने उन्हें समझाया कि वो दिन दूर नहीं जब वैभव दादा ठाकुर की गद्दी पर बैठ जाएगा और फिर अपने दादा जी की तरह ही सब पर हुकूमत करेगा। जब ऐसा हो जाएगा तो वो और उनके बच्चे भी उनकी तरह जीवन भर वैभव की सेवा करते रहेंगे। वो हमेशा वैभव के हुकुम पर ही कोई कार्य कर सकेंगे। ऐसे में ना तो उनकी अपनी कोई इच्छाएं रह जाएंगी और ना ही गुलाम बन जाने से कभी उनका नाम हो सकेगा। इस लिए अगर वो चाहते हैं कि उनके बच्चे उनकी तरह किसी के हुकुम के गुलाम न बनें तो उन्हें वैभव को दादा ठाकुर बनने से रोकना होगा। मेरे भैया ने इसके दो रास्ते बताए उन्हें। पहला ये कि वो दादा ठाकुर से अपना हिस्सा मांग लें और अपने परिवार के साथ उनसे अलग रहें, ताकि उन्हें या उनके बच्चों को कभी किसी की सेवा अथवा गुलामी न करनी पड़े। दूसरा ये कि पूरी हवेली तथा पूरी ज़मीन जायदाद पर अपना कब्ज़ा जमा लें। कहने का मतलब ये कि मेरे भैया ने कुसुम के पिता जी का दो चार दिनों में इतना दिमाग़ घुमा दिया था कि वो सच में ऐसा ही करने पर उतारू हो गए थे और पूरा निश्चय कर लिया था कि वो और उनके बच्चे कभी किसी के हुकुम का गुलाम नहीं बनेंगे। उसके बाद उन्होंने कई बार आपसे अपना हक़ मांगने का सोचा किंतु हर बार उनकी हिम्मत जवाब दे जाती। इतना तो वो जानते थे कि अपना हक़ मांगने पर आप उन्हें उनका हक़ देने से बिल्कुल भी इंकार नहीं करेंगे लेकिन आपसे हक़ मांगने की उनमें हिम्मत ही नहीं होती थी। रात में जब वो कमरे में आते तो अक्सर हताश हो कर मुझसे यही कहते कि भैया से अपना हिस्सा मांगने की हिम्मत ही नहीं होती। हर बार ज़हन में बस यही ख़याल आ जाता है कि आज तक हमारे खानदान के इतिहास में ऐसा कभी भी नहीं हुआ तो फिर वो कैसे इस तरह का काम कर सकते हैं? ऐसे ही दिन गुज़रने लगे। वो हर रोज़ हक़ मांगने का निश्चय करते मगर ऐन वक्त पर उनकी हिम्मत जवाब दे जाती। अपनी इस हालत से वो बुरी तरह हतोत्साहित हो उठे थे। दिन भर उनके मन में अपने लिए गुस्सा और एक चिड़चिड़ापन भरा रहता था। एक दिन अपनी इसी समस्या से परेशान हो कर वो कुंदनपुर मेरे भैया से मिलने पहुंच गए। दूसरे दिन जब वो वापस आए तो ऐसा लगा जैसे उनकी सारी समस्या हल हो गई है। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्होंने दूसरा रास्ता चुन लिया है। यानि हवेली और पूरी धन संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेने का रास्ता। इसके लिए उन्होंने जो कुछ करने की बात मुझे बताई उसे सुन कर मेरी रूह थर्रा गई। इतने समय में मेरे मन में भी उनकी तरह ये बात बैठ गई थी कि अपने और अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए ये सब करना ही उचित है। यही वजह थी कि उस वक्त जब उन्होंने रूह को थर्रा देने वाली बातें बताई तो एक बार भी मेरे मन में ये ख़याल नहीं आया कि ऐसा करना सरासर ग़लत ही नहीं बल्कि हद दर्जे का गुनाह भी है।"

"इंसान जब सिर्फ अपने हितों की बातें सोचने लगता है तो फिर उसे दूसरे की किसी भी बात से कोई मतलब नहीं रह जाता।" एक लंबी सांस लेने के बाद मेनका चाची ने पुनः बोलना शुरू किया____"उसे सिर्फ अपना भला और सिर्फ अपना सुख ही नज़र आता है। अपने भले और सुख के लिए वो इंसान किसी भी हद तक गुज़र जाता है। फिर भले ही हद पार करते हुए उसे कितने ही बड़े अपराध क्यों न करने पड़ें। जब ये निश्चित हो गया कि उन्हें हवेली और पूरी धन संपत्ति पर कब्ज़ा करने का रास्ता ही अपनाना है तो फिर ये सोच विचार भी शुरू हो गया कि ये सब कैसे हो सकेगा? इतना तो हम भी जानते थे कि इतना कुछ हासिल कर लेना बिल्कुल भी आसान नहीं है। एक तरफ उनके बड़े भाई साहब यानि दादा ठाकुर थे तो दूसरी तरफ उनका भतीजा वैभव जो दादा ठाकुर से भी कहीं ज़्यादा पहुंची हुई चीज़ था। छोटी सी उमर में ही उसके ऐसे ऐसे लोगों से संबंध थे जिनके बारे में आम इंसान कल्पना भी नहीं कर सकता था। ख़ैर हमारे लिए सबसे ज़्यादा ध्यान रखने वाली बात यही थी कि हमारे मंसूबों के बारे में ग़लती से भी हवेली में रहने वालों को पता न चल सके और सिर्फ हवेली वालों को ही क्यों बल्कि किसी को भी पता नहीं चलना चाहिए। क्योंकि आपके चाहने वाले हर क़दम पर मौजूद थे जो ऐसी किसी भी बात की भनक लगते ही इस बात की ख़बर आप तक पहुंचा देते और फिर एक ही पल में हमारा खेल ख़त्म।"

"तो फिर तुम दोनों ने ये सब शुरू कैसे किया?" पिता जी पूछे बग़ैर न रह सके।

"गांव के साहूकार लोग हमें अपना दुश्मन समझते थे।" मेनका चाची ने बताना शुरू किया____"उनका तो जीवन में जैसे एक ही ख़्वाब था....हमारा नामो निशान मिटा देना। कुसुम के पिता जी ने साहूकारों की इसी मानसिकता को आधार बनाया और उनकी दुश्मनी को अपनी कामयाबी का माध्यम बनाया। ख़ैर, खेल शुरू हुआ किन्तु ज़ाहिर सी बात है कि खुल कर वो कुछ भी नहीं कर सकते थे इस लिए कुछ करने के लिए उन्हें एक ऐसा व्यक्ति बनना पड़ा जो हर किसी के लिए रहस्य ही बना रहे। यानि एक रहस्यमय व्यक्ति, जिसे बाद में आप सबने सफ़ेदपोश का नाम दिया। ख़ैर बहुत सोच विचार करने के बाद ही खेल शुरू किया गया। सबसे पहले वो शहर गए और वहां से दो ऐसे लोगों को अपने लिए काम करने के लिए चुना जो हर तरह के काम में माहिर थे। उन दो लोगों से वो सफ़ेदपोश के रूप में ही मिले। खुद की पहचान छुपाए रखना सबसे महत्वपूर्ण था क्योंकि अगर पहचान ही खुल गई तो इतने बड़े खेल में मात खाने और पकड़े जाने की संभावना बहुत ही ज़्यादा हो जानी थी। उन दो लोगों का शुरू में यही काम था कि वो वैभव के बारे में हर चीज़ पता करें। इसी बीच एक घटना ये घटी कि आपने वैभव को गांव से निष्कासित कर दिया जिसके चलते ये गांव से दूर हमारी बंज़र ज़मीन पर झोपड़ा बना कर रहने लगा। उन दो नक़ाबपोशों से पता चला कि वहां पर इसकी मदद दूसरे गांव का मुरारी नाम का एक किसान करने लगा है। उस मुरारी के परिवार के बारे में पता किया तो पता चला कि उसका भाई भी वैसी ही मानसिकता का था जैसे कि हम थे। यानि अपने ही बड़े भाई की धन संपत्ति और ज़मीन जायदाद को हड़पना लेकिन ऐसा करना उसके अकेले बस का नहीं था इस लिए सफ़ेदपोश के रूप में कुसुम के पिता जी ने जगन को अपने नक़ाबपोशों के द्वारा अपने पास बुलवाया और फिर उससे एक सौदा किया। सौदा यही था कि वो वैभव को बदनाम करने के लिए जो कुछ कर सकता है कर डाले, बदले में उसे इतना पैसा दे दिया जाएगा जिससे कि वो अपना सारा कर्ज़ चुका सकता है। जगन राज़ी तो हो गया लेकिन हिचकिचाया भी। असल में उसे सिर्फ कर्ज़ से ही मुक्ति नहीं चाहिए थी बल्कि अपनी गिरवी रखी हुई ज़मीनें भी वापस चाहिए थी। तब उससे कहा गया कि उसे उसकी ज़मीनों के साथ साथ मुरारी की ज़मीनें भी मिल जाएंगी लेकिन इसके लिए उसे अपने ही भाई की हत्या करनी होगी और उसकी हत्या में वैभव को फंसाना होगा। जगन ऐसी ख़तरनाक बात सुन कर अंदर तक कांप गया था। काफी देर तक उसके मुख से बोल ना फूटा था लेकिन फिर जाने कैसे मान गया? शायद अपने भाई की ज़मीनों का कुछ ज़्यादा ही लालच था उसे। ख़ैर उसके बाद तो आपको पता ही है कि कैसे उसने अपने भाई की हत्या की और फिर कैसे उसने वैभव को उसकी हत्या में फंसाया?"

"वैभव को उसकी हत्या में फंसाने का और उसे बदनाम करने के पीछे क्या उद्देश्य था जगताप का?" पिता जी ने पूछा____"आख़िर इससे हासिल क्या होता उसे?"

"शायद आपने अभी तक ठीक से किसी इंसान के हद से ज़्यादा बदनाम होने पर उसके परिणाम का अंदाज़ा नहीं लगाया है जेठ जी।" मेनका चाची ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"बदनाम होने वाला अगर वैभव हो तो सोचिए उससे क्या होता? क्या आप एक ऐसे इंसान को दादा ठाकुर की गद्दी सौंपते जो ज़माने भर में हर तरह के गंदे कामों के लिए बदनाम हो? एक पल के लिए अगर ये मान भी लें कि आप इसके बावजूद उसे दादा ठाकुर की गद्दी सौंपने का सोच लेते तो क्या लोग वैभव को वैसे ही स्वीकार करते जैसा आपको कर रखे थे? मेरा ख़याल है कि हर्गिज़ नहीं। आप तो ऐसे इंसान हैं जिन्हें लोग देवता की तरह मानते हैं और पूजते हैं। ऐसे में गांव के लोग आपसे क्या ये उम्मीद नहीं करेंगे कि आपके बाद आपकी गद्दी पर आपके जैसा ही कोई धर्मात्मा व्यक्ति बैठे जो लोगों का आपकी ही तरह भला करे? आप हमेशा दूसरों के सुख दुख का ख़याल रखने वाले इंसान हैं, तो क्या आप खुद वैभव जैसे बदनाम लड़के को लोगों का मसीहा बना देते? अब शायद आप समझ गए होंगे कि वैभव को बदनाम करने के पीछे हमारा क्या उद्देश्य था।"

"इसका तो ये भी मतलब हुआ कि तुम इसे जान से नहीं मारना चाहते थे।" पिता जी ने कहा____"अगर ऐसा था तो फिर अपने दोनों नक़ाबपोशों के द्वारा जगताप ने इस पर जान लेवा हमला क्यों करवाया था?"

"ऐसा मैंने कब कहा कि हम वैभव को जान से नहीं मारना चाहते थे?" चाची ने कहा____"आप ग़लत सोच रहे हैं जेठ जी। योजना के अनुसार पहले वैभव को हद से ज़्यादा बदनाम करना था ताकि लोगों के मन में उसके प्रति कोई सहानुभूति बाकी न रहे। आगे चल कर अगर उसकी जान भी चली जाए तो लोग उसके लिए ज़्यादा दुखी न हों। और ऐसा तो तभी होता है ना जब लोगों के अंदर ऐसे व्यक्ति के प्रति कोई लगाव अथवा कोई सहानुभूति ही न रहे। हमारी योजना यही थी कि पहले उसे बदनाम करना है और फिर उसे जान से मार देना है।"

मैं मेनका चाची की बातें सुन तो रहा था किंतु ये सोच कर दुखी भी हो रहा था कि जिन चाचा चाची को मैं इतना मानता था, इतना प्यार करता था वो असल में मुझसे कितना नफ़रत करते थे। मेरे प्रति कैसी सोच रखे हुए थे वो।

"अभिनव पर तंत्र मंत्र करवाने के पीछे क्या मकसद था तुम्हारा?" उधर पिता जी ने चाची से पूछा____"अगर तुम्हारी मंशा उसकी भी जान लेना ही थी तो उसे इस तरह तंत्र मंत्र द्वारा मारने की क्या ज़रूरत थी?"

"आपका मानसिक संतुलन भी तो बिगाड़ना था हमें।" मेनका चाची ने कहा____"और आपके साथ साथ दीदी व रागिनी बहू का भी। अभिनव पर तंत्र मंत्र करवाया और फिर कुल गुरु को धमका कर उनसे अभिनव के बारे में भविष्यवाणी करवाई। मकसद यही था कि आपको ऐसी हौलनाक बात पता तो चले लेकिन आप अपने बेटे को बचाने में खुद को असमर्थ समझें।"

"ऐसा करने से क्या हासिल होता तुम्हें?" पिता जी ने पूछा।

"सोचिए जेठ जी।" मेनका चाची ने अजीब भाव से कहा____"ज़रा कल्पना कीजिए अपनी उस बेबसी की जिसमें आप सब कुछ जानते हुए चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे होते। आपके जैसा महान व्यक्ति जिसके पास इतनी दौलत है और इतनी ताकत है इसके बावजूद जब आप अपने बेटे की जान नहीं बचा पाते तो क्या दशा हो जाती आपकी? हालाकि तंत्र मंत्र ऐसी चीज़ है जिसका वक्त रहते अगर उपचार किया जाए तो प्राणी यकीनन ठीक हो जाता है और उसके प्राण भी बच जाते हैं लेकिन आपके जैसा व्यक्ति जो कुल गुरु की भविष्यवाणी को ही अंतिम सत्य मान लेता हो वो भला तंत्र मंत्र का इलाज़ कराने का कैसे सोच सकता था? ज़ाहिर है ऐसी सूरत में आपका अपने बेटे से हाथ धो लेना निश्चित था। उसके बाद आप खुद सोचिए कि क्या आप इस तरह से अपने बेटे के गुज़र जाने पर खुद को सम्हाल पाते? मेरा ख़याल है बिल्कुल भी नहीं। यही सब सोच कर तंत्र मंत्र जैसा तरीका अपनाया था अभिनव को जान से मारने के लिए। वो तो वैभव था जिसने अपनी सूझ बूझ और ज़िद से अपने भाई का इलाज़ करवाने का सोच लिया था। उसके बाद क्या हुआ आप भी जानते हैं।"

"और फिर जगन के हाथों तुमने उस तांत्रिक को मरवा दिया जिसने अभिनव पर तंत्र मंत्र का प्रभाव डाला था, है ना?" पिता जी ने पूछा।

"उसे मज़बूरी में मरवाना ही पड़ा।" चाची ने गहरी सांस ली____"वैभव के चलते जब अभिनव का उपचार शुरू हुआ तो हम समझ गए कि देर सवेर आप उस व्यक्ति का भी पता लगाने का सोचेंगे जिसने अभिनव पर तंत्र मंत्र किया था। अब इससे पहले कि आप उस तांत्रिक के पास पहुंचते हमने जगन के हाथों उसे मरवा दिया। आख़िर हम ये कैसे चाह सकते थे कि तांत्रिक के द्वारा आपको जगन के बारे में पता चल जाए और फिर उसके द्वारा आपको ये पता चले कि ये सब किसी सफ़ेदपोश के द्वारा करवाया गया है। शुरू से ही आपका शक साहूकारों पर था और हम तो चाहते ही यही थे कि आप साहूकारों पर ही अटके रहें।"

"कमाल की बात है।" पिता जी ने गहरी सांस ले कर कहा____"हमारा भाई सफ़ेदपोश के रूप में ये सब कुछ कर रहा था और हमारे सामने हमेशा यही ज़ाहिर करता रहा कि वो भी हमारे जैसे ही मानसिक अवस्था का शिकार है। ख़ैर, उसके बाद क्या करना चाहते थे तुम दोनों?"

"हमारी योजना बेहद पुख़्ता थी।" चाची ने फिर से बताना शुरू किया____"हम जानते थे कि अभिनव और वैभव के न रहने से आप, दीदी और रागिनी बहू हद से ज़्यादा टूट जाएंगे और यकीनन दुनिया से मोह भंग हो जाएगा आप सबका। उस सूरत में बहुत मुमकिन था कि आप दादा ठाकुर के रूप में अपना काम काज करना भी बंद कर देते। ज़ाहिर है ऐसे में आपका सारा काम काज कुसुम के पिता जी ही सम्हालते। उसके बाद ऐसा भी हो सकता था कि आप अपनी ऐसी मानसिक अवस्था के चलते एक दिन आधिकारिक तौर पर उन्हें (जगताप) ही दादा ठाकुर की गद्दी सौंप देते। हालाकि हमें ये भी मंज़ूर नहीं था क्योंकि हम तो यही चाहते थे कि हवेली में सिर्फ और सिर्फ हम और हमारे बच्चे ही रहें। एक तरह से ये समझिए कि हम आपको कहीं पर भी मौजूद होना नहीं देखना चाहते थे। ख़ैर, क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सका इस लिए वैभव और अभिनव को मारने के लिए फिर से एक दूसरी योजना बनानी पड़ी। आपको याद होगा कि उस समय वैभव रागिनी बहू को ले कर उसके मायके चंदनपुर गया हुआ था। हमने योजना बनाई कि अपने कुछ विश्वास पात्र आदमियों को चंदनपुर भेज कर वहीं पर वैभव को मरवा देंगे। उसके बाद अभिनव को भी ऐसे ही किसी प्रकार से मरवा देंगे। इस योजना को जैसे ही उन्होंने (जगताप) अमल करने का इरादा किया तो पता चला कि ऐसी ही योजना साहूकार लोग भी बनाए हुए हैं।"

"क्या तुम लोगों को पहले से उनके मंसूबों के बारे में कुछ नहीं पता था?" पिता जी ने सहसा बीच में ही चाची की बात को काटते हुए पूछा।

"पहले नहीं पता था।" चाची ने बताया____"किंतु हां ये आभास ज़रूर हो रहा था कि हमारे अलावा भी कहीं कोई कुछ कर रहा है।"

"ऐसा आभास कैसे हुआ तुम्हें?" पिता जी ने पूछा____"और फिर तुमने क्या किया उसके लिए?"

"रूपचंद्र की वजह से पता चला था।" चाची ने कहा____"सफ़ेदपोश के रूप में एक दिन कुसुम के पिता जी जगन से मिले। जगन ने बताया कि आज कल रूपचंद्र कुछ ज़्यादा ही वैभव पर नज़र रख रहा है। इन्हें भी पहले से पता था कि रूपचंद्र वैभव पर नज़र रखता है किंतु ये इस बात को ज़्यादा तवज्जो इस लिए नहीं देते थे क्योंकि जानते थे कि रूपचंद्र वैभव को पसंद नहीं करता है। कारण यही था कि रूपचंद्र की बहन से वैभव का संबंध था और इस बात से रूपचंद्र वैभव से बहुत घृणा करता था। ख़ैर, एक दिन उन्होंने (जगताप) चंद्रकांत को मणि शंकर से बात चीत करते देख लिया। चंद्रकांत को मणि शंकर से मिलते देख ये चौंक गए थे क्योंकि हम सब जानते थे कि चंद्रकांत का साहूकारों से छत्तीस का आंकड़ा था। दोनों का मिलना गहरा संदेह पैदा कर गया था इस लिए उन्होंने दोनों पर नज़र रखी। जल्दी ही पता चल गया कि मामला क्या है? एक रात कुसुम के पिता जी चंद्रकांत पर नज़र रखे हुए थे तो उन्होंने देखा कि उसका बेटा रघुवीर रात के अंधेरे में चोरी छुपे कहीं बढ़ा चला जा रहा है। जब उन्होंने उसका पीछा किया तो देखा कि वो साहूकारों के बगीचे में जा पहुंचा है। उन्हें ये देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि रघुवीर रात के वक्त साहूकारों के बगीचे में भला क्या करने आया होगा? कुछ ही समय में उन्होंने देखा कि दो तीन लोग अंधेरे में उसके पास पहुंच गए और आपस में बातें करने लगे। (ये वही दृश्य था जहां पर रूपा ने भी बगीचे में बातें सुनी थी) थोड़ा पास जा कर जब उन्होंने उनकी बातें सुनी तो उनके पैरों तले से ज़मीन ग़ायब हो गई। तभी उसी वक्त किसी की आहट के चलते उन्हें वहां से फ़ौरन ही चले आना पड़ा किंतु जितना उन्होंने सुना था उससे ये पता चल गया था कि साहूकार भी वैभव को जान से मारने के लिए मरे जा रहे हैं। इसके लिए उन्होंने भी वही योजना बनाई है जो कुसुम के पिता जी ने बनाई थी। रात में उन्होंने मुझे भी इस बारे में सब कुछ बताया। हमने फ़ैसला किया कि जब हमारा काम साहूकार लोग ही करने वाले हैं तो हमें कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है। बस यही सोच कर हम बस वक्त के गुज़रने का इंतज़ार करने लगे।"

"अगर जगताप को उस शाम उन लोगों की बातों से ये सब पता चल ही गया था।" पिता जी ने पूछा____"तो ये भी तो पता चल ही गया रहा होगा कि साहूकार लोग चंद्रकांत से मिले हुए हैं और वो लोग सिर्फ वैभव को ही नहीं बल्कि उसके साथ साथ अभिनव और जगताप को भी जान से मार देना चाहते थे।"

"यही तो दुर्भाग्य की बात हुई थी।" मेनका चाची ने कहा____"कुसुम के पिता जी उन लोगों की पूरी बात सुन ही नहीं पाए थे। किसी की आहट के चलते उन्हें फ़ौरन ही वहां से वापस आना पड़ गया था। इस वजह से उन्हें ये पता ही नहीं चल सका था कि साहूकारों का पूरा षड्यंत्र क्या था? हालाकि उनके लिए भी हमने बहुत कुछ सोच रखा था। वैभव की मौत के बाद वो (जगताप) आपके सामने साहूकारों पर ही सारा आरोप लगाते और आपको उनका वो आरोप सच ही लगता। क्योंकि बेटे की मौत के बाद आप ऐसी मानसिक स्थिति में ही नहीं रहते कि कुछ और सोच सकें, जैसा कि बाद में आप सच में थे भी नहीं।"

"चलो यहां तक तो समझ आ गया।" पिता जी ने कहा____"अब ये बताओ कि अगली सुबह जगताप अचानक से चंदनपुर जाने की ज़िद क्यों करने लगा था? क्या ये भी योजना का ही हिस्सा था?"

"वैसे तो इसकी दो ही वजहें थी और उनमें से एक थी कुसुम के पिता जी का अपनी आंखों से वहां का मंज़र देखना और दूसरी आपको ये दिखाना कि उन्हें अपने भतीजे की कितनी फ़िक्र है।" चाची ने कहा____"किंतु अब सोचती हूं तो यही लगता है कि इसकी एक तीसरी वजह ये भी थी कि उस दिन सुबह उनका दुर्भाग्य उनसे चंदनपुर जाने की ज़िद करवा रहा था।"

"ऐसा भी तो हो सकता है कि वो अभिनव की वजह से चंदनपुर जाने पर ज़ोर दे रहा था।" पिता जी ने मानों संभावना ज़ाहिर की____"आख़िर मारना तो वो अभिनव को भी चाहता था। सुबह जब उसने देखा कि अभिनव अपने छोटे भाई के लिए बहुत ज़्यादा फिक्रमंद हो गया है और छोटे भाई की सुरक्षा के लिए चंदनपुर जाने की बात कह रहा है तो उसने भी मौके का फ़ायदा उठाना चाहा होगा। ये कह कर कि वैभव उसका भतीजा है और उसके रहते कोई उस पर खरोंच भी नहीं लगा सकता। हमें अच्छी तरह याद है कि उस दिन सुबह वो इस सबके बारे में जान कर हमें भी उल्टा सीधा बोलने लगा था। मकसद यही हो सकता था कि हम उसे चंदनपुर जाने की फ़ौरन इजाज़त दे दें। उसने सोचा होगा कि अभिनव को ले कर जाएगा और रास्ते में कोई अच्छा सा मौका देख कर उसे मार देगा।"

"इस बारे में मैं कुछ नहीं कह सकती।" मेनका चाची ने कहा____"क्योंकि उस वक्त वो मुझसे मिले ही नहीं थे। आपकी इजाज़त मिलते ही वो अभिनव और कुछ आदमियों को ले कर चले गए थे। काश! उन्हें पता होता कि हवेली से जाने के बाद उनकी और उनके भतीजे की लाशें ही वापस आएंगी।"

"ये काश ही तो नहीं होता बहू।" पिता जी ने गंभीरता से कहा____"बल्कि वही होता है जो नियति ने लिखा होता है। जगताप की बुरी नीयत की वजह से उस दिन हमने उसे तो खोया ही लेकिन उसके साथ ही हमने अपने निर्दोष बेटे को भी खो दिया। तुम्हें तो तुम्हारे और तुम्हारे पति के कर्मों की वजह से विधवा हो जाना पड़ा लेकिन ज़रा ये बताओ कि रागिनी बहू ने तो कभी किसी के साथ बुरा नहीं किया था, फिर क्यों उसे इतनी छोटी सी उमर में विधवा हो जाना पड़ा? कहना तो नहीं चाहते लेकिन ये सच है कि तुम दोनों प्राणियों से कहीं ज़्यादा बेहतर और महान सोच वाली तुम्हारी बेटी निकली। इसने ये जानते हुए भी कि इसकी मां ने कितना बड़ा अपराध किया है अपनी मां के जीवन को सलामत रखने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे देना सहज ही चुन लिया। इस मासूम को अपने माता पिता के बारे में आज ये सब जान कर कितनी पीड़ा हो रही होगी क्या तुम्हें इसका एहसास है?"

पिता जी की इन बातों से कमरे में सन्नाटा छा गया लेकिन ये सन्नाटा कुछ ही पलों का मेहमान रहा। अगले ही पल दोनों मां बेटी के सिसक सिसक कर रोने की आवाज़ें गूंजने लगीं। मैं तो जाने कब से जड़ सा, असहाय सा एक कोने में बैठा हुआ था। दिलो दिमाग़ में अभी भी धमाके हो रहे थे। दिमाग़ सुन्न पड़ा हुआ था।​
 
अध्याय - 136
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"दरोगा धनंजय का क्या मामला था?" कुछ देर बाद पिता जी ने चाची से पूछा_____"हमारा मतलब है कि उसे किस मकसद के तहत जगताप ने अपना मोहरा बनाया था?"

"वो हमारे लिए ख़तरा बन रहा था।" चाची ने खुद को सम्हालते हुए कहा____"मुरारी की हत्या के बाद जब जगन ने उसकी हत्या में वैभव को फंसाया था तो वो मामले की तहक़ीकात करने लगा था। यूं तो इससे हमें कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि हम तो चाहते ही यही थे कि वैभव मुरारी की हत्या में फंसने के बाद जेल चला जाए और उसके माथे पर जेल जाने का भी बदनामी रूपी कलंक लग जाए किंतु तभी हमें पता चला कि दरोगा स्वाभाविक रूप से मामले की तहक़ीकात नहीं कर रहा है बल्कि आपके कहने पर कर रहा है। यानि आपने गुप्त रूप से उसको इस मामले के बारे में पता करने के लिए नियुक कर दिया था। हम समझ गए कि इससे हमारे लिए भारी संकट पैदा हो सकता है। मतलब कि वो अपनी तहक़ीकात से असलियत का पता तो लगा ही लेता किंतु संभव था कि वो हम तक भी पहुंच जाता। अगर ऐसा होता तो ज़ाहिर है कि हम बेनक़ाब हो जाते जोकि हम किसी भी कीमत पर नहीं चाहते थे। इस लिए उसका पूरी तरह से संतुलन बिगाड़ने के लिए हमने उसको अपने जाल में फंसाया। वो पुलिस वाला तो था ही किंतु इसके साथ ही उसे आपकी सर परस्ती भी प्राप्त हो गई थी जिसके तहत उसे किसी का भय ही नहीं था। इस लिए उसके तेवर को ठंडा करने के लिए हमने सबसे पहले उसकी मां का अपहरण करवाया। हम जानते थे कि वो अपनी मां से बहुत लगाव रखता है और जब उसकी मां पर ही कोई संगीन बात आ जाएगी तो वो फिर वही करेगा जो करने को हम कहेंगे।"

"तो क्या करवाना चाहते थे उससे?" पिता जी पूछे बिना न रह सके____"हमारे द्वारा पकड़े जाने पर उसने हमें जो कुछ बताया था वो निहायत ही बेतुका था। आख़िर उसके द्वारा ऐसा करवाने का क्या मतलब था जगताप का?"

"पहला तो यही कि उसके द्वारा इस तरह की बयानबाज़ी से आपको बुरी तरह उलझा देना।" चाची ने कहा____"और दूसरी असल वजह थी उसको अपने रास्ते से हमेशा के लिए हटा देना। पहले तो हमने उसे उसकी मां को जान से मार देने की कोरी धमकी ही दी थी। हमें लगा था कि इससे डर कर वो मामले की तहक़ीकात करना छोड़ वापस शहर लौट जाएगा किंतु जब वो धमकी देने पर भी न माना तो हमें धमकी को सच का रूप देना पड़ा। उसे क्योंकि आपकी सर परस्ती प्राप्त थी इस लिए वो धमकियों से डर नहीं रहा था किंतु जब सच में ही उसकी मां मर गई तो उसके होश ठिकाने पर आ गए। इतना ही नहीं आप भी उसकी मौत से हिल गए थे। यही वजह थी कि आपने भी उसे मामले को छोड़ देने को कहा और उसे वापस चले जाने को भी। अपनी मां की मौत के बाद तो वो वैसे भी अब कुछ करने वाला नहीं था क्योंकि मां के बाद वो अपनी उस छोटी बहन को नहीं खोना चाहता था जिसका उसके सिवा दूसरा कोई सहारा ही नहीं था। बहरहाल, उसके चले जाने के बाद हम निश्चिंत हो गए थे।"

"बात कुछ समझ में नहीं आई।" पिता जी ने उलझन पूर्ण भाव से कहा____"अगर जगताप का इरादा उस दरोगा को अपने रास्ते से हटा देना ही था तो इसके लिए उसे पहले ही वो रास्ता चुन लेना था जिसे उसने आख़िर में उसकी मां की हत्या कर देने के रूप में चुना था। बेमतलब उसको अपने जाल में फांस कर इतना झमेला फ़ैलाने की क्या ज़रूरत थी?"

"ऐसा झमेला बेवजह नहीं फैलाया गया था जेठ जी बल्कि ऐसा करने के पीछे भी एक ख़ास वजह थी।" चाची ने कहा____"और वो वजह थी आपको सही दिशा से भटकाए रखना और साथ ही आपके दिमाग़ को उलझाए रखना। शुरू में ही हमने सोच लिया था कि आख़िर में जो कुछ भी हमारे द्वारा होगा उसका सारा इल्ज़ाम हमें साहूकारों पर ही थोपना है। आपके साथ साथ हर कोई यही समझता कि जो कुछ भी हुआ है उसको अंजाम देने वाले साहूकार ही हैं। सब जानते थे कि साहूकार हमें अपना दुश्मन समझते हैं और उनकी एक ही ख़्वाईश है, यानि हमें मिट्टी में मिला देना। खैर, तो जैसा कि मैंने कहा हमारा ऐसा करने का यही मकसद था....मतलब आपको सही दिशा से भटकाए रखना और उलझाए रखना। याद कीजिए, जब भी बैठक में इस मामले की चर्चा होती थी तो अंततः यही निष्कर्ष निकलता था कि ये सब करने वाले साहूकार ही हैं। अब उस समय क्योंकि आप में से किसी के भी पास साहूकारों के खिलाफ़ कोई प्रमाण नहीं होता था इस लिए आप खुल कर उन पर कोई कार्यवाही नहीं करते थे और यही हमारे लिए फ़ायदेमंद होता था। यानि आप हमेशा साहूकारों पर ही अटके रहते थे और किसी दूसरे की तरफ आपका ध्यान ही नहीं जाता था। वैसे आपके छोटे भाई पर शक ज़रूर किया जाता था किंतु आप ख़ुद इस बात का यकीन नहीं करते थे कि आपका छोटा भाई ऐसा कुछ सोच भी सकता है, करने की तो बहुत दूर की बात है।"

"चलो ये तो समझ आ गया।" पिता जी ने गहरी सांस ली____"किंतु ये भी तो सच है कि साहूकार लोग भी हमारे खिलाफ़ षड्यंत्र रच रहे थे तो उनके बारे में जगताप को कैसे पता नहीं चला? तुम्हारी अब तक की बातों से तो यही ज़ाहिर हुआ है कि जगताप को भी नहीं पता था कि साहूकार लोग क्या करने की फ़िराक में थे? हमारा सवाल ये है कि जब जगताप ने इतना बड़ा खेल रचा और फिर उसे शुरू भी किया तो वो साहूकारों की मानसिकता से कैसे अंजान रहा? मान लो उस रात अगर जगताप ने उनके बाग़ में उनकी बात न सुनी होती तो क्या होता? क्या अगले दिन चंदनपुर में जगताप का उनसे सामना न हो जाता? ज़ाहिर है जब सामना होता तो जगताप उनके सामने बेनक़ाब भी हो जाता। ऐसे में क्या करता जगताप?"

"ऐसा नहीं था कि वो साहूकारों की तरफ से पूरी तरह बेफिक्र थे।" चाची ने कहा____"हर किसी की तरह वो भी ये जानते थे कि साहूकारों की हसरत हम सबको मिट्टी में मिला देना ही है। इसी लिए वो इस बात को ध्यान में रखते हुए साहूकारों पर भी नज़र रखते थे किंतु शायद वो इस बात की कल्पना भी नहीं किए थे कि साहूकारों ने हमें मिट्टी में मिलाने के लिए कितना बड़ा षडयंत्र बनाया हुआ है। उनकी ख़ास बात यही थी कि वो लोग बुरी नीयत से अपना कोई भी काम खुल कर नहीं कर रहे थे बल्कि उनकी सारी कार्यविधि पूरी तरह से गुप्त थी। आप खुद भी तो उनकी कार्यविधि का कभी पता नहीं लगा पाए। वो तो उस दिन उन्होंने इत्तेफ़ाक से चंद्रकांत को मणि शंकर से बातें करते देख लिया था इस लिए उनके ज़हन में ये बात आई थी कि जिनके बीच छत्तीस का आंकड़ा है वो इस तरह कैसे एक दूसरे से बातें कर रहे थे? जब संदेह हुआ तो संदेह की पुष्टि के लिए उन्होंने क़दम भी उठाया और तभी इत्तेफ़ाक से उन्हें वो सब पता चला था।"

"यानि अगर हम ये कहें तो ग़लत न होगा कि यहां पर जगताप का खेल कमज़ोर था।" पिता जी ने कहा____"जबकि इतना बड़ा खेल खेलने वाले को अपने आस पास की ही नहीं बल्कि दूर दूर तक के लोगों की भी ख़बर रखनी चाहिए थी। ख़ैर ये तो संयोग की बात थी कि उसने बाग़ में पहुंच कर साहूकारों की बातें सुन ली और जान गया कि वो क्या करने वाले हैं। अगर उसे ये सब पता न चलता तो यकीनन आगे चल कर उसे बुरी तरह मात ही खा जाना था।"

"इंसान की जितनी समझ होती है उतना ही तो कर पाता है जेठ जी।" चाची ने कहा____"और मज़े की बात देखिए कि वो उतने को ही पूरी तरह सुदृढ़ और सुनियोजित समझ लेता है। वो समझता है कि उसकी योजना में अब कहीं कोई चूक अथवा ख़राबी नहीं है। अपनी होशियारी के नशे में चूर वो भूल जाता है कि हर इंसान की अपनी एक अलग ही सोच और कल्पना शक्ति होती है जिसके तहत वो उससे भी आगे की सोच सकता है।"

"ख़ैर, एक बात समझ नहीं आई।" पिता जी ने सोचने वाले भाव से कहा____"सफ़ेदपोश के रूप में जगताप ने अपने ही नक़ाबपोश की हत्या क्यों की थी?"

"इसकी दो वजह थीं।" चाची ने कहा____"पहली तो यही कि वो उनकी नाकामियों से बहुत ज़्यादा गुस्सा थे। दूसरे, वो दोनों मना करने के बाद भी उनके (सफ़ेदपोश) बारे में जानने की कोशिश करने से बाज नहीं आ रहे थे। इसी लिए उन्होंने गुस्से में आ कर एक को मार डाला और दूसरे को आख़िरी मौका दे कर छोड़ दिया था।"

"और जब वो दूसरा नक़ाबपोश शेरा के द्वारा पकड़ा गया और हमने उसे हवेली के एक कमरे में बंद करवाया।" पिता जी ने पूछा____"तो सुबह वो कमरे में हमें मरा हुआ मिला, क्यों? हालाकि हमने देखा था कि उसने खुरपी से खुद की जान ले ली थी किंतु अब हमें ये संदेह हो रहा है कि कहीं जगताप ने ही तो खुरपी से उसकी जान नहीं ली थी?"

"नहीं, उन्होंने उसे नहीं मारा था।" चाची ने बताया____"उसने उनके (सफ़ेदपोश) ख़ौफ के चलते ही अपनी जान ले ली थी। वैसे भी वो उस समय उसे वहां नहीं मार सकते थे क्योंकि ऐसा करने से उन पर संदेह जाता, जैसा कि बैठक में विचार विमर्श करते समय आपके मन में पैदा भी हुआ था। ये अलग बात है कि आपका मन उस समय भी ये नहीं मान रहा था कि आपका छोटा भाई ऐसा कुछ करने का सोच भी सकता है।"

"मुरारी के भाई जगन को हमारी क़ैद से भगा ले जाने वाला वो सफ़ेदपोश तुम ही थी।" पिता जी ने कुछ सोचते हुए पूछा____"हम जानना चाहते हैं कि तुम्हें इतना बड़ा ख़तरा उठा कर जगन को क़ैद से निकालने की क्या ज़रूरत थी? आख़िर उसके द्वारा क्या करवाना चाहती थी तुम?"

"वैभव को जान से मारने की एक आख़िरी कोशिश करना चाहती थी मैं।" चाची ने धीमें स्वर में कहा____"इसी लिए इतना बड़ा ख़तरा मोल ले कर मैं सफ़ेदपोश के रूप में हवेली के उस कमरे से जगन को निकाल ले गई थी। उसके बाद उसे वैभव को जान से मारने का हुकुम दिया था। वैभव को मारने में उसे कोई कठिनाई न हो इसके लिए मैंने उसको एक रिवॉल्वर भी दिया था। हालाकि मैं जानती थी कि वैभव को जान से मार देना जगन के बस का नहीं था लेकिन फिर भी एक आख़िरी कोशिश में वो सब किया मैंने।"

"आख़िर में क्या होता?" पिता जी ने पूछा____"हमारा मतलब है कि जगताप का अंतिम पड़ाव क्या था? आख़िर इतना कुछ करने के बाद वो हमारी नज़रों में ख़ुद को कैसे निर्दोष साबित करता? या फिर इसके बारे में भी उसकी कोई ऐसी योजना थी जिससे कि हम आख़िर में भी ये न सोच सकते कि ये सब हमारे भाई ने ही किया है?"

"इसके बारे में अगर योजना की बात बताऊं तो वो यही थी कि वो इस सारे फ़साद को साहूकारों के सिर मढ़ते।" चाची ने कहा____"उस समय तक आप क्योंकि इस सबके चलते अपना मानसिक संतुलन खो चुके होते इस लिए साहूकारों पर क़हर बन कर टूट पड़ते, जिसमें वो (जगताप) भी आपका साथ देते हुए साहूकारों को मारते। आप ये सोचते ही नहीं कि साहूकारों से कहीं ज़्यादा दोषी और अपराधी तो आपका अपना ही छोटा भाई है। ख़ैर आपके क़हर का शिकार होने से साहूकारों का नामो निशान मिट जाता और एक तरह से हमेशा के लिए उनका किस्सा भी ख़त्म हो जाता। उसके बाद वही होता जिसके बारे में मैंने शुरुआत में ही बताया था। ये तो थी योजना के अनुरूप बात किंतु हम ये भी जानते थे कि आख़िर तक वैसा ही नहीं होता चला जाएगा जैसा कि हमने सोच रखा है। यानि संभव है कि कहीं किसी मोड़ पर हालात बदल भी जाएं। ऐसे में अपने मंसूबों को परवान चढ़ाने के लिए यही सोचा था कि आगे जो भी हालत बनेंगे उस हिसाब से आगे की योजना बनाएंगे।"

"एक सवाल हम अपनी बेटी से भी पूछना चाहते हैं।" पिता जी सहसा कुसुम से मुखातिब हुए____"शेरा ने हमें बताया कि उसने सफ़ेदपोश को साहूकारों के खेतों की तरफ से आते देखा था। उसके बाद वो चंद्रकांत के घर पहुंचा। हम ये जानना चाहते हैं कि तुम सफ़ेदपोश बन कर चंद्रकांत के घर किस लिए गई थी?"

"वो मैंने एक दिन बैठक में आप लोगों की बातें सुनी थी।" कुसुम ने धीमें स्वर में कहा____"आप लोगों से ही मुझे पता चला था कि सफ़ेदपोश हर बार हमारे आमों के बाग़ की तरफ जाता है और फिर वहीं पर ग़ायब हो जाता है। यही सोच कर मैंने मां के कमरे में जा कर पहले सफ़ेदपोश के ये कपड़े पहने और फिर वैसे ही कमरे की खिड़की से बाहर निकल गई जैसे उस रात मैंने मां को जाते देखा था। इतना तो मैं भी समझ गई थी कि मां सफ़ेदपोश बन कर गांव के रास्ते से तो कहीं जाती नहीं रहीं होंगी, क्योंकि ऐसे में उन्हें कोई भी देख सकता था। मैं समझ गई कि मां गांव की आबादी से दूर दूर हो कर ही कहीं जाती रहीं होंगी। मैंने भी ऐसा ही किया। उधर साहूकारों के खेत थे तो वहीं से जाना पड़ा और फिर घूम कर चंद्रकांत के घर के सामने पहुंच गई। उसके घर के सामने जाने का सिर्फ यही मतलब था कि अगर आपके आदमी सफ़ेदपोश की खोज में कहीं छुपे हों तो वो मुझे देख लें। कुछ देर में ऐसा ही हुआ। मैंने एक आहट सुनी तो समझ गई कि शायद आस पास ही कहीं पर आपके आदमी मौजूद हैं। उस समय डर तो बहुत लग रहा था मुझे लेकिन सोच लिया था कि अब चाहे जो हो जाए वही करूंगी, यानि अपनी मां को बचाने के लिए अपनी जान दे दूंगी। मैं वहां से हमारे बाग़ की तरफ भागने लगी। सोचा था कि पीछे से मेरा पीछा करने वाले लोग मुझ पर गोली चलाएंगे मगर ऐसा नहीं हुआ। मुझे नहीं पता था कि वो लोग मुझे यहां बाग़ में घेरने के लिए गोली नहीं चला रहे थे।"

"अच्छा ही हुआ कि शेरा ने किसी को भी गोली चलाने को नहीं कहा था।" पिता जी ने कहा____"वरना सचमुच अनर्थ हो जाता।" कहने के साथ ही पिता जी चाची से मुखातिब हुए____"अपने लिए और अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए हमारे भाई ने इतना बड़ा षडयंत्र रचा और उसे अंजाम भी दिया। ईश्वर जानता है कि हमने कभी भी अपने और अपने भाई के बच्चों में कोई भेदभाव नहीं किया है। इसके बावजूद हमारे भाई ने हमारे बारे में ऐसा सोचा और हमारे साथ इतना बड़ा छल किया। तुम दोनों को वो हवेली, धन संपत्ति और ये सारी ज़मीन जायदाद ही चाहिए थी ना तो ठीक है। हम कल ही ये सब तुम्हारे नाम करवा देंगे। इतना ही नहीं हम अपनी पत्नी, बेटे और उस अभागन बहू को ले कर कहीं और चले जाएंगे।"

"नहीं..।" मेनका चाची एकाएक रोते हुए चीख पड़ीं____"ऐसा मत कहिए जेठ जी। मुझे कुछ नहीं चाहिए। ये सब आपका है और आपका ही रहेगा। आपके भाई ने और मैंने बहुत बड़े पाप किए हैं। इसके लिए आप मुझे जो चाहे सज़ा दे दीजिए लेकिन कहीं और जाने की बात मत कीजिए।"

"तुम्हें पता है बहू।" पिता जी ने संजीदगी से कहा____"हमें कभी भी इस धन दौलत का कोई मोह अथवा लालच नहीं था। पिता जी के बाद जब हम दादा ठाकुर की गद्दी पर बैठे तब सिर्फ यही सोचा था कि कभी किसी के साथ ग़लत नहीं करेंगे। हमारे पिता जी के द्वारा जो कुछ तबाह हुआ था उस सबको संवारना ही हमारे जीवन का मूल मकसद था। यहां के लोग ही नहीं बल्कि दूर दूर तक के लोग जाने कैसे कैसे दुखों में डूबे हुए थे जिनका उद्धार करना ही हमारा मकसद था। पिता जी तो अय्याशियों में डूबे रहते थे। अपनी शान और अपनी शाख को बुलंदी पर पहुंचाने के लिए न जाने क्या क्या करते रहते थे जिसके चलते पुरखों द्वारा बनाई गई धन संपत्ति उनके द्वारा पानी की तरह बहाई जा रही थी। दादा ठाकुर की गद्दी पर बैठने के बाद जब हमने पहली बार ख़ज़ाने की तिज़ोरी देखी थी तो सन्न रह गए थे। इतने बड़े खानदान की इतनी बड़ी हवेली में कोई खज़ाना नहीं बचा था। अब तुम खुद सोचो कि उस इंसान की क्या हालत हुई होगी जो खुद खाली पेट था लेकिन दूसरों को भर पेट खाना खिलाने की क़सम खा चुका था। उस हालत में भी हम निराश अथवा हताश नहीं हुए बल्कि ये सोच के मुस्कुरा उठे थे कि शायद ईश्वर यही देखना चाहता है कि हम कैसे खाली पेट दूसरों का पेट भरते हैं? हमने मेहनत की, अपने छोटे भाई को भी यही सिखाया और उसे हमेशा प्रेरित किया। लोगों से मिले उन्हें समझाया बुझाया और भरोसा दिलाया कि हम सब कुछ ठीक कर देंगे। कल्पना करो बहू कि कैसे हमने ये सब कुछ किया होगा? वर्षों लग गए बिखरी हुई चीज़ों को सम्हालने में। लोगों की मानसिकता ऐसी थी कि लोग हमें देख कर अंदर छुप जाते थे, डर की वजह से। उन्हें लगता था कि बड़े दादा ठाकुर का बेटा है तो वो भी उनके जैसा ही अत्याचार करेगा उन पर। किसी को यकीन ही नहीं होता था कि हम उन्हें अपने सीने से लगाने आते हैं। ख़ैर संघर्ष करना लिखा था तो किया लेकिन कभी हार नहीं मानी। शुक्र था कि ईश्वर साथ था। परीक्षा तो ली उसने लेकिन आख़िर में सफलता भी दी। वक्त गुज़रा, लोगों के दुख दूर हुए, और वही लोग एक दिन हमें देवता की तरह पूजने लगे। हमने कभी नहीं चाहा था कि लोग हमें पूजें, ये उनकी अपनी सोच थी। हमारे प्रति उनकी आस्था थी इस लिए लोग हमें पूजने लगे थे। ख़ैर लोगों को खुश देख कर हम भी खुश थे लेकिन नहीं जानते थे कि एक दिन ऐसा भी वक्त आएगा जब अपनों के द्वारा हमारे हृदय पर इस तरह की बिजलियां गिरेंगी। समझ नहीं आता कि अपने जीवन में हमने कब ऐसा कोई गुनाह किया था जिसके चलते आज हमें ऐसे ऐसे दुख मिल रहे हैं।"

"ऐसा मत कहिए जेठ जी।" मेनका चाची दुखी भाव से बोलीं____"आप तो बहुत महान हैं। आपके जैसा कोई नहीं हो सकता। ये तो...ये तो हमारा दुर्भाग्य था जो धन दौलत के लालच में पड़ कर इतना बड़ा पाप कर बैठे।"

"तुमने सही कहा था बहू कि हम आख़िर में ऐसी मानसिकता में पहुंच जाएंगे कि हमारा मुकम्मल रूप से संतुलन बिगड़ जाएगा।" पिता जी ने आहत भाव से कहा____"यकीन मानों सच में अब हमारा मानसिक संतुलन बिगड़ चुका है। अब शायद ही कभी हमें होश आएगा। जी करता है ये ज़मीन फट जाए और हम रसातल तक उसमें समाते चले जाएं।"

पिता जी की बातें सुन कर चाची कुछ बोल ना सकीं बल्कि वहीं फूट फूट कर रो पड़ीं। दुख, तकलीफ़ से कहीं ज़्यादा आत्म ग्लानि की पीड़ा थी जिसमें अब वो झुलसती जा रहीं थी। अपनी मां की ये हालत देख कुसुम भी सिसक रही थी। मेरा तो दिलो दिमाग़ पहले से ही सुन्न पड़ा हुआ था।

"शेरा।" सहसा पिता जी ने पलट कर शेरा की तरफ देखा____"अपने सभी आदमियों को समझा दो कि वो लोग आज की इस घटना का ज़िक्र जीवन में कभी भी किसी से न करें।"

"जैसी आपकी आज्ञा मालिक।" शेरा ने अदब से सिर झुका कर कहा____"मैं अभी सबको इस बारे में समझा देता हूं।"

"रुक जाओ शेरा।" मेनका चाची ने शेरा को फ़ौरन ही आवाज़ दे कर कहा____"तुम्हें अपने आदमियों को ऐसा कहने की कोई ज़रूरत नहीं है। सफ़ेदपोश का सच सबको पता चलना चाहिए। सबको पता चलना चाहिए कि हमने एक देवता समान इंसान के साथ कितना बड़ा अपराध किया है, कितना बड़ा छल किया है।"

"ये आप क्या कह रही हैं चाची?" मैं एकदम से होश में आते हुए बोल पड़ा____"नहीं नहीं, आप ऐसा नहीं करेंगी।"

"इतना कुछ जानने के बाद भी तुम मुझे बचाना चाहते हो वैभव?" चाची ने दुखी भाव से कहा____"क्या इसके बाद भी तुम्हें मुझसे घृणा नहीं हो रही?"

"नहीं, बिल्कुल नहीं।" मैंने अपनी पीड़ा को सह कर पूरी मजबूती से इंकार में सिर हिलाते हुए कहा____"अपनी प्यारी चाची से कभी घृणा नहीं हो सकती मुझे। मैं मानता हूं कि जगताप चाचा ने और आपने जो किया है उससे बहुत तकलीफ़ हुई है मुझे लेकिन मैं ये भी जानता हूं कि दुनिया में ऐसा करने वाले सिर्फ आप ही बस नहीं हैं बल्कि न जाने कितने ही होंगे। आगे भी भविष्य में लोग अपनी खुशी और अपने भले के लिए ऐसा ही करेंगे। मैं बस ये चाहता हूं कि जो गुज़र गया उसे भूल जाइए और सबके साथ एक नई शुरुआत कीजिए।"

"इतने अच्छे मत बनो वैभव।" चाची ने क़रीब आ कर मेरे चेहरे को प्यार से सहलाते हुए कहा____"आज की दुनिया में अच्छा बन के रहना बहुत घातक होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुद जेठ जी हैं। वैसे भी हमने जो किया है उसके लिए सज़ा तो मिलनी ही चाहिए हमें। मैं खुद दिल से यही चाहती हूं कि देवता समान जिस इंसान के साथ हमने इतना बड़ा विश्वास घात और छल किया है उसके लिए मुझे ऐसी सज़ा मिले जिसे वर्षों तक लोग याद रखें। मेरा और तुम्हारे चाचा का जब भी कहीं ज़िक्र हो तो लोग हमारे नाम पर थूंकें।"

"नहीं नहीं चाची।" मैं बुरी तरह तड़प उठा____"ऐसी भयानक बातें मत कीजिए।"

"तुमने अपने अच्छे कर्म से मेरा हृदय परिवर्तन किया था वैभव।" चाची ने अधीरता से कहा____"वरना आज स्थिति ना जाने कैसी हो चुकी होती। उस दिन से अब तक यही सोचती रही हूं कि कैसी भयानक मानसिक बीमारी लग गई थी हम दोनों को। ऊपर वाले का शुक्र था कि समय रहते उसने मेरा हृदय परिवर्तन कर दिया वरना तुम्हारे चाचा के मरने के बाद भी मैं होश में न आती और जाने क्या क्या करती चली जाती। फिर भले ही उस सबके चलते किसी दिन मैं जेठ जी के आदमियों द्वारा जान से मार दी जाती।"

"जो नहीं हो सका उस सबको भूल जाइए।" मैंने अधीरता से कहा____"मैं बस ये चाहता हूं कि अब से आप सब कुछ भुला कर फिर से एक नई शुरुआत कीजिए।"

"अब ये संभव नहीं हो सकेगा बेटा।" चाची ने दुखी भाव से कहा____"हमारे द्वारा किए गए अपराध चाह कर भी मुझसे भुलाए नहीं जा सकेंगे और जब भुलाए ही नहीं जा सकेंगे तो सब कुछ बेहतर होने का तो सवाल ही नहीं उठता।"

"अच्छा एक बात बताइए।" मैंने कुछ सोचते हुए पूछा____"सफ़ेदपोश के रूप में आप और चाचा जी हमेशा हमारे बाग़ की तरफ ही क्यों जा कर ग़ायब हो जाते थे? आख़िर इतना लंबा रास्ता अपना कर ख़ुद को ख़तरे में क्यों डालते थे?"

"सबको उलझाए रखने के लिए।" चाची ने गंभीरता से कहा____"बाग़ में दाख़िल हो कर हम किसी न किसी पेड़ पर चढ़ जाते थे। इससे होता ये था कि हमारा पीछा करने वाले बुरी तरह चकरा जाते थे और आख़िर में वो इसी नतीजे पर पहुंचते थे कि सफ़ेदपोश किसी जादू की तरह ग़ायब हो गया है। ऐसा सोचने के बाद फिर वो वापस चले जाते थे। उनके जाने के बाद हम आराम से पेड़ से नीचे उतरते और फिर निकल जाते। बाग़ से सीधा साहूकारों के खेतों की तरफ से होते हुए सीधा हवेली पहुंचते थे। हवेली में हमारे कमरे की खिड़की के नीचे रस्सी लटकी हुई होती थी जिसके सहारे हम वापस अपने कमरे में पहुंच जाते थे। हम जानते थे कि देर सवेर बाग़ से हमारे ग़ायब होने का ये राज़ खुल जाएगा और फिर ये भी पता लगा लिया जाएगा कि बाग़ से हम सफ़ेदपोश के रूप में कहां जाते हैं। पता लगाते हुए आप लोग हमारी उस ऊंची मेढ़ पर पहुंचते जहां से साहूकारों की ज़मीनें शुरू होती थीं और कुछ दूरी पर उनके घर भी दिखते थे। ज़ाहिर है इतना सब देखते ही आप लोग यही समझते ही सफ़ेदपोश साहूकारों के घर का ही कोई व्यक्ति है। बस, आप लोगों के मन में यही बैठाए रखना चाहते थे हम ताकि आप लोगों का शक साहूकारों पर ही रहे और इसके अलावा और कुछ सोचें ही नहीं।"

"और मेरे दोनों दोस्त सुनील और चेतन को किस मकसद से अपना मोहरा बनाया था चाचा जी ने?" मैंने पूछा।

"सच कहूं तो उन्हें मोहरा नहीं बनाया था तुम्हारे चाचा जी ने।" मेनका चाची ने कहा____"बल्कि सिर्फ नाम के लिए उनका स्तेमाल करते थे।"

"ये क्या कह रही हैं आप?" मैं बुरी तरह चकरा गया____"सिर्फ नाम के लिए स्तेमाल करते थे? भला ऐसा करने का क्या मतलब था?"

"ताकि तुम और जेठ जी यही समझते रहें कि सफ़ेदपोश कोई बहुत ही बड़ा खेल खेल रहा है।" चाची ने कहा____"जिसमें उसने तुम्हारे दोस्तों को भी अपना मोहरा बना रखा है। आप लोग सफ़ेदपोश का असल मकसद जानने के लिए बुरी तरह उलझे रहते जबकि समझ में कभी कुछ न आता। तुम्हारे दोस्तों को भी पता नहीं था कि उन्हें सिर्फ नाम के लिए ही स्तेमाल कर रहा था सफ़ेदपोश। ख़ौफ के मारे वैसे ही उनका बुरा हाल रहता था जिसके चलते कुछ सोच ही नहीं पाते थे वो। अगर हमने उन दोनों को सच में मोहरा बनाया गया होता तो उनके द्वारा तुम्हारे चाचा ने कुछ तो ऐसा करवाया ही होता जो उनके बस से बाहर होता, जैसे जगन से करवाया...उसके अपने ही भाई की हत्या और फिर तांत्रिक की हत्या। सुनील और चेतन से हमने कभी ऐसा कुछ नहीं करवाया।"

मैं भौचक्का सा देखता रह गया चाची को। मनो मस्तिष्क में सांय सांय होने लगा था। सच ही तो कह रहीं थी वो। सुनील और चेतन के द्वारा ऐसा कुछ भी तो हुआ नज़र नहीं आया था हमें। इसका मतलब सच में वो दोनों सफ़ेदपोश के नाम मात्र के ही मोहरे थे।

✮✮✮✮

जब काफी देर तक मेनका लौट कर न आई तो सुगंधा देवी को ही नहीं बल्कि हर किसी को बड़ी हैरानी हुई। सबके चेहरों पर चिंता की लकीरें उभर आईं। मां के कहने पर कजरी फ़ौरन ही मेनका और कुसुम का पता लगाने के लिए उनके कमरों की तरफ दौड़ पड़ी। सबसे पहले वो कुसुम के कमरे में पहुंची और जब उसने कुसुम के कमरे में कुसुम और मेनका को न देखा तो वो मेनका के कमरे की तरफ भागी।

कजरी जब दौड़ते हुए मेनका के कमरे में पहुंची तो उसे वहां भी कोई नज़र ना आया। ये देख चकरा सी गई वो। उसे समझ न आया कि दोनों मां बेटी अगर अपने अपने कमरे में नहीं हैं तो कहां हैं? उसने वापस आ कर सुगंधा देवी को सब कुछ बता दिया जिसे सुन कर सबके मानों होश उड़ गए। अगले ही पल वो सब हवेली में मेनका और कुसुम को खोजने लगे। कुछ ही समय में उन सबने पूरी हवेली को छान मारा लेकिन दोनों उन्हें कहीं नज़र ना आईं। सबके सब थक हार कर वापस नीचे वाले बरामदे में आ गए।

सुगंधा देवी के चेहरे पर गहन चिंता के भाव थे और साथ ही किसी अनिष्ट की आशंका के चलते वो भयभीत भी दिखने लगीं थी। किसी को भी समझ में नहीं आ रहा था कि दोनों मां बेटी अचानक से कहां गायब हो गई हैं?

"धीरज से काम लीजिए दीदी।" निर्मला क्योंकि सुगंधा देवी के मायके से थी और रिश्ते में सुगंधा देवी उसकी ननद भी लगती थीं इस लिए वो उन्हें दीदी ही कहती थी, बोली____"उन्हें कुछ नहीं होगा। ज़रूर वो हमें बिना बताए वहीं गई होंगी जहां ठाकुर साहब गए हुए हैं।"

"लेकिन वहां जाने की क्या ज़रूरत थी उन्हें?" सुगंधा देवी ने हताश भाव से कहा____"रात के वक्त हवेली से नहीं जाना चाहिए था उन्हें। वो दोनों ये कैसे भूल गईं कि हमारे हालत ख़राब हैं और ऐसे वक्त में किसी के साथ कुछ भी हो सकता है।"

"शायद वो इस लिए बिना बताए चली गईं हैं ताकि वो ठाकुर साहब से उस सफ़ेदपोश को आपके सामने लाने को कह सकें।" निर्मला ने कहा____"आपने उस समय कहा था ना कि काश! वो सफ़ेदपोश आपके सामने आ जाए ताकि आप भी उसे देख सकें और उससे पूछ सकें कि उसने ये सब क्यों किया है? आपकी बात सुन कर उन्हें लगा होगा कि ठाकुर साहब कहीं वहीं पर न उस सफ़ेदपोश को मार कर फेंक आएं इस लिए वो उसको यहां आपके सामने लाने के उद्देश्य से गईं हो सकती हैं।"

"हां लेकिन इसके लिए उसे कुसुम को अपने साथ ले जाने की क्या ज़रूरत थी?" सुगंधा देवी ने उसी हताशा भरे भाव से कहा____"अपने साथ साथ उसने अपनी बेटी को भी ख़तरे में डाल दिया। हे भगवान! दोनों की रक्षा करना।"

सुगंधा देवी अपनी देवरानी और उसकी बेटी के लिए बहुत ज़्यादा चिंतित और परेशान हो उठीं थी। निर्मला उन्हें धीरज देने की कोशिश में लगी हुई थी। उधर किशोरी लाल ख़ामोश था। उसके चेहरे पर गहन सोचो के भाव उभरे हुए थे।

रात आधे से ज़्यादा गुज़र गई थी। उनमें से किसी की भी आंखों में नींद का नामों निशान तक नहीं था। सबके सब बरामदे में ही बैठे थे और दादा ठाकुर के साथ साथ बाकी सबके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। पूरी हवेली सन्नाटे में डूबी हुई थी।​
 
अध्याय - 137
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रात आधे से ज़्यादा गुज़र गई थी। उनमें से किसी की भी आंखों में नींद का नामों निशान तक नहीं था। सबके सब बरामदे में ही बैठे थे और दादा ठाकुर के साथ साथ बाकी सबके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। पूरी हवेली सन्नाटे में डूबी हुई थी।

अब आगे....


उस वक्त रात का आख़िरी पहर चल रहा था जब हम सब हवेली पहुंचे। बड़ा ही तनाव पूर्ण माहौल था। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि आगे क्या करना है और कैसे करना है? उधर मां ने जैसे ही हम सबको आया देखा तो वो भागते हुए हमारे पास आ गईं।

"क...कहां चली गई थी तू?" मेनका चाची पर नज़र पड़ते ही मां ने व्याकुल भाव से पूछा____"और अपने साथ मेरी बेटी को भी ले गई थी? ऐसा क्यों किया तूने? तुझे पता है यहां मेरी क्या हालत हो गई थी?"

चाची ने मां के इन सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। ये अलग बात है कि उनकी आंखों से आंसू बहने लगे थे। यही हाल कुसुम का भी था। उधर मां ने जब चाची को आंसू बहाते देखा तो वो चौंक पड़ीं। घबरा कर पूछने लगीं कि वो रो क्यों रहीं हैं? आख़िर हुआ क्या है?

सच तो ये था कि कोई भी जवाब देने की हालत में नहीं था। पिता जी चुपचाप अपने कमरे की तरफ बढ़ गए। किशोरी लाल ने उनसे बहुत कुछ पूछना चाहा लेकिन हिम्मत न जुटा सका। इधर मैंने कुसुम को इशारा किया तो वो अपनी मां को ले कर उनके कमरे की तरफ बढ़ गई।

ये सब देख मां ही नहीं बल्कि सबके सब बुरी तरह चकरा गए। समझ ही न आया कि आख़िर क्यों कोई जवाब देने की जगह चुपचाप अपने अपने कमरे की तरफ चल पड़ा था? सहसा मां ने मेरी तरफ सवालिया भाव से देखा।

"आख़िर क्या चल रहा है ये सब?" मां ने लगभग झल्लाते हुए कहा____"कोई कुछ बता क्यों नहीं रहा कि हुआ क्या है? तू बता....बता कि सब चुप क्यों हैं? तेरे पिता जी चुपचाप कमरे में क्यों चले गए? तेरी चाची रो क्यों रही थी? और...और बिना कुछ बताए कुसुम उसे अपने साथ कमरे की तरफ क्यों ले गई?"

"शांत हो जाइए मां।" मां के इतने सारे सवाल एक साथ सुन कर मैंने उन्हें कंधों से पकड़ कर कहा____"इस वक्त कोई भी किसी के सवालों का जवाब देने की हालत में नहीं है। आप जाइए और आराम से सो जाइए। इस बारे में कल दिन में बात करेंगे।"

इससे पहले कि मां फिर से कुछ कहतीं मैं जबरन उन्हें खींचते हुए उनके कमरे की तरफ ले गया और उन्हें कमरे में जा कर सो जाने को कहा। मेरी इस क्रिया से मां मुझे हैरानी से देखे जा रहीं थी। चेहरे पर नाराज़गी विद्यमान थी। बहुत कुछ कहना चाह कर भी वो कुछ बोल ना सकीं। आख़िर किसी तरह वो कमरे में गईं तो मैंने दरवाज़े के पल्लों को आपस में भिड़ा दिया।

वापस आ कर मैं किशोरी लाल, उसकी बीवी और बेटी को भी बोला कि वो सब अपने कमरे में जाएं। वो तीनों मन में कई सारे सवाल लिए चुपचाप चले गए। हवेली की दोनों नौकरानियां भी चली गईं। उन सबके जाने के बाद मैं भी ऊपर अपने कमरे में आ गया।

मैं अपने कमरे में पलंग पर लेट तो गया था लेकिन ना मन शांत था और ना ही आंखों में नींद का कोई नामो निशान था। अंदर असहनीय पीड़ा थी जिसे ज़बरदस्ती दबाने की और सहने की कोशिश कर रहा था मैं। मनो मस्तिष्क में घुमड़ता तूफ़ान मानों शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा था।

मैं ये कल्पना भी नहीं कर सकता था कि जिस सफ़ेदपोश से मिलने को और जिसको पकड़ने को हम सब इतने बेताब थे उसका असल चेहरा ऐसा नज़र आएगा। काश! ऐसा होता कि सफ़ेदपोश कभी हमारी पकड़ में आता ही नहीं। कम से कम इतनी भयंकर और इतनी पीड़ा दायक सच्चाई से हृदय पर वज्रपात तो ना होता।

बार बार आंखों के सामने जगताप चाचा और मेनका चाची का चेहरा उभर आता था और इसके साथ ही वो सब यादें तरो ताज़ा हो उठती थीं जो उनसे जुड़ी हुईं थी। वो सारी यादें मेरे लिए बड़ी सुखद और बड़ी अनमोल सी थीं लेकिन उन चेहरों का असली सच बड़ा ही असहनीय था। अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि जो कुछ देखा और सुना था वो सच हद से ज़्यादा कड़वा था। मैंने आंखें बंद कर के ऊपर वाले से गुहार सी लगाई कि मेरे ज़हन से इस सच्चाई की सारी यादें मिटा दे।

पता ही न चला कब मेरी आंखों की कोरों से आंसू के कतरे निकल कर मेरी कनपटियों से होते हुए नीचे तकिए में फ़ना हो गए। बाकी की रात इन्हीं पीड़ा दायक ख़यालों में गुज़र गई।

✮✮✮✮

मैंने रास्ते में कुसुम को समझा दिया था कि वो अपनी मां को अकेला न छोड़े और हमेशा उनके साथ रहे। यही वजह थी कि कुसुम आज अपनी मां के कमरे में उनके साथ ही पलंग पर लेटी हुई थी। मेनका चाची अंदर से बहुत दुखी थीं। आंखों के आंसू बार बार आंखों से छलक पड़ते थे। कुसुम खुद भी इस सब से दुखी थी किंतु वो भी समझती थी कि अब जो हो गया है उसके लिए कोई क्या कर सकता है?

"आज तुझे भी अपनी इस मां से घृणा होने लगी होगी ना मेरी बच्ची?" मेनका चाची ने दुखी लहजे से कहा____"आज तू भी सोच रही होगी ना कि ईश्वर ने तुझे ऐसे माता पिता की बेटी क्यों बनाया जिनकी सोच इतनी नीच और गिरी हुई थी?"

"नहीं मां।" कुसुम की आंखें छलक पड़ीं____"मैं ऐसा कुछ भी नहीं सोच रही। भगवान के लिए आप ऐसी बातें अपने मन में मत लाइए।"

"तो तू ही बता कि कैसे ये सब भूल जाऊं मैं?" चाची ने आहत हो कर कहा____"कैसे भूल जाऊं उस सबको जो मैंने और तेरे पिता जी ने सबके साथ किया है? मैं अच्छी तरह जानती हूं कि तू ये सब भूल जाने के लिए मुझे कोई उपाय नहीं बता सकती। पर इसमें तेरा कोई दोष नहीं है। सच तो ये है कि दुनिया में ऐसा कोई उपाय है ही नहीं जिससे इंसान अपने किए गए गुनाहों को भूल जाए। उसे तो सारी ज़िंदगी अपने गुनाहों और अपने पापों को याद करते हुए ही जीना पड़ता है....घुट घुट कर, तड़प तड़प कर।"

"ऐसा मत कहिए मां।" कुसुम को समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर वो किस तरह अपनी मां को शांत कराए, बोली____"सबसे ग़लतियां होती हैं। आपसे और पिता जी से भी हुईं लेकिन इस ग़लती के चलते आपने अथवा पिता जी ने ना तो बड़े भैया की जान ली और ना ही मेरे अच्छे वाले भैया की।"

"लेकिन जान लेने की तो पूरी कोशिश की थी ना हमने।" चाची कह उठीं____"अगर साहूकारों का दखल न हुआ होता तो उनकी जान लेने का पाप तो कर ही डालते ना हम? तू मुझे बहलाने की कोशिश मत कर कुसुम। सच यही है कि मैं और तेरे पिता भी उतने ही बड़े अपराधी और पापी हैं जितने बड़े साहूकार और चंद्रकांत थे। उन्हें तो उनके अपराधों के लिए सज़ा मिल गई लेकिन मुझे नहीं मिली है अभी। उन लोगों की तरह मुझे भी इस दुनिया में जीने का हक़ नहीं है।"

"चुप हो जाइए ना मां।" कुसुम रोने लगी____"भगवान के लिए ऐसी बातें मत कीजिए। मैं नहीं सुन सकती ऐसी बातें। अगर आपने जीने मरने की बातें की तो सोच लीजिएगा मैं भी आपके साथ साथ मर जाऊंगी। मुझे भी अपनी मां के बिना इस दुनिया में नहीं जीना।"

"नहीं मेरी बच्ची।" मेनका चाची ने तड़प कर कहा____"तू अपनी ऐसी मां के लिए खुद की जान मत लेना। तू तो मेरी सबसे अच्छी बेटी है। एक तू ही तो है जिसे अपनी कोख से जन्म देने पर गर्व महसूस करती हूं। एक तू ही तो है जिसके दिल में किसी के लिए भी कभी कोई ग़लत भावना नहीं जन्मी। मुझे गर्व है कि तू मेरी बेटी है।"

"अगर आपको सच में मुझ पर गर्व है तो मेरी क़सम खा कर कहिए कि आज के बाद जीने मरने की बातें कभी नहीं करेंगी आप।" कुसुम ने चाची का एक हाथ अपने सिर पर रखते हुए कहा।

"ठीक है।" चाची ने कहा____"अगर तू यही चाहती है कि तेरी ये मां जीवन भर इन सारी बुरी यादों के साथ ही घुट घुट कर और तड़प तड़प कर जिए तो क़सम खाती हूं मैं तेरी कि अब कभी जीने मरने की बातें नहीं करुंगी।"

"किसने कहा आप घुट घुट कर जिएंगी?" कुसुम ने चाची के आंसू पूछते हुए कहा____"अरे! आपकी ये बेटी आपको कभी कोई दुख नहीं होने देगी। और आपकी ये बेटी ही क्यों, मेरे सबसे अच्छे अच्छे वाले भैया भी आपको इस तरह दुख में नहीं जीने देंगे। देख लेना, मेरे भैया आपको कभी दुखी नहीं होने देंगे।"

"हां जानती हूं।" मेनका चाची के अंदर एक हूक सी उठी____"तेरा भैया दुनिया का सबसे अच्छा भैया है। वो सबसे अच्छा बेटा भी है। उसे अपना बेटा कहने का झूठा दंभ रखने वाली मैं ही उसकी सच्ची मां न बन सकी लेकिन वो पागल हमेशा मुझे अपनी सगी मां से भी ज़्यादा महत्व देता रहा। कितनी अभागन हूं ना मैं? जिस युग में बेटे अपने माता पिता का आदर नहीं करते वही बेटा मुझ जैसी हत्यारिन को अपनी मां कहता रहा और मान सम्मान देता रहा। और मैं...मुंह में शहद रख कर अंदर से उसे ज़हरीली नागिन बन कर डसने की कोशिश करती रही। इतना कुछ होने के बाद भी वो मुझे कहता है कि मैं उसकी प्यारी चाची हूं। इतने पर भी उसे मुझसे घृणा नहीं हुई।"

"यही तो विशेषता है उनकी।" कुसुम ने बड़े गर्व के साथ कहा____"इसी लिए तो वो मेरे सबसे अच्छे वाले भैया हैं। वो हम सबसे बहुत प्यार करते हैं। दुनिया उन्हें बुरा समझती है लेकिन मैं जानती हूं कि मेरे भैया कितने अच्छे हैं।"

"इस हवेली में सब अच्छे हैं मेरी बच्ची।" चाची ने कहा____"बस हम दोनों प्राणी ही अच्छे नहीं थे। काश! मेरे भैया ने उनके दिमाग़ में वो ज़हर न भरा होता। काश! वो मेरे भैया की बातों में न आए होते तो आज ये सब न होता। उन्होंने अपने देवता समान भाई के साथ बुरा करना चाहा और खुद मिट्टी में मिल गए। उन्हें तो उनके अपराध के लिए मिट्टी में मिल जाने की सज़ा मिल गई लेकिन मैं अभागन ज़िंदा रह गई।"

मेनका चाची सच में पश्चाताप की आग में जल रहीं थी। कुसुम उन्हें बहुत समझा रही थी लेकिन कामयाबी नहीं मिल रही थी उसे। अपनी मां के दुख से वो भी दुखी थी। जितनी उसके पास समझ थी उतना वो प्रयास कर रही थी।

✮✮✮✮

सुगंधा देवी का मन बहुत विचलित था। मन में ऐसे ऐसे ख़याल उभर रहे थे जिसके चलते उनका बुरा हाल हुआ जा रहा था। कमरे में आने के बाद जब उनकी नज़र पलंग पर सीधा लेटे दादा ठाकुर पर पड़ी तो वो फ़ौरन ही उनकी तरफ लपकीं। दादा ठाकुर छत पर झूल रहे पंखे को अपलक घूरे जा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे पंखे पर ही उनकी नजरें चिपक कर रह गईं थी। चेहरे पर गहन वेदना के भाव थे।

"आख़िर ये सब हो क्या रहा है ठाकुर साहब?" सुगंधा देवी ने पलंग पर बैठने के बाद दादा ठाकुर से कहा_____"जब से वापस आए हैं तब से हर कोई चुप क्यों है? आख़िर ऐसा क्या हुआ है जिसकी वजह से सबके सब इतना विचित्र नज़र आने लगे हैं? मेनका रो रही थी, उससे रोने की वजह पूछी हमने लेकिन उसने कुछ नहीं बताया। ऊपर से कुसुम उसे उसके कमरे में ही ले गई। बेटे से पूछा तो उसने भी कुछ नहीं बताया, बल्कि हमें यहां कमरे में आराम करने भेज दिया। समझ में नहीं आ रहा कि आख़िर ये सब क्या है? क्यों कोई किसी बात का जवाब नहीं दे रहा? यहां आप भी एकदम से चुप हो कर लेटे हुए हैं? भगवान के लिए कुछ तो बताइए कि आख़िर हुआ क्या है? आप तो अपने बेटे के साथ उस सफ़ेदपोश के पास गए थे न? फिर ऐसा क्या हुआ कि वहां से आते ही आप सब चुप से हो गए हैं?"

सुगंधा देवी जाने क्या क्या बोलती चली जा रहीं थी किंतु उनके द्वारा इतना कुछ बोले जाने के बाद भी दादा ठाकुर की हालत पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। वो पहले की ही तरह छत के पंखे को अपलक घूरते रहे। ऐसा लगा जैसे उनके कानों में सुगंधा देवी की आवाज़ पहुंची ही नहीं थी। ये देख सुगंधा देवी के चेहरे पर आश्चर्य उतर आया। भौचक्की सी वो उन्हें अपलक देखने लगीं।

"ठाकुर साहब???" फिर उन्होंने एकदम से घबरा कर उन्हें झिंझोड़ ही दिया_____"आप कुछ बोलते क्यों नहीं? क्या हो गया है आपको?"

सुगंधा देवी के झिंझोड़ने और उनकी बातें सुन कर दादा ठाकुर एकदम से चौंक पड़े। गर्दन घुमा कर उन्होंने अपनी धर्म पत्नी की तरफ देखा। सुगंधा देवी चेहरे पर घबराहट लिए उन्हें ही देखे जा रहीं थी।

"क्या हुआ है आपको?" दादा ठाकुर को अपनी तरफ देखता देख उन्होंने पूछा____"कहां खोए हुए थे आप?"

"क...कहीं नहीं।" दादा ठाकुर ने अजीब भाव से कहा____"आप बैठी क्यों हैं? आराम से सो जाइए।"

"आपको ऐसी हालत में देख कर क्या हम सो पाएंगे?" सुगंधा देवी ने अधीरता से कहा____"आप बता क्यों नहीं रहे हैं कि हुआ क्या है?"

"कुछ नहीं हुआ है।" दादा ठाकुर ने पलंग पर थोड़ा दूर खिसकते हुए कहा____"आप सो जाएं।"

"नहीं, हमें नहीं सोना।" सुगंधा देवी ने जैसे ज़िद करते हुए कहा____"आपको बताना पड़ेगा कि आप क्या छुपा रहे हैं हमसे? आप अपने बेटे के साथ सफ़ेदपोश के पास गए थे। वहां से लौटने के बाद से ही आप सब चुप हैं। हम जानना चाहते हैं कि आख़िर ऐसा क्या हुआ है जिसके चलते सबकी ये हालत हो गई है?"

"हमने कहा न कुछ नहीं हुआ है।" दादा ठाकुर ने बेचैन भाव से कहा____"आप हमारी बात क्यों नहीं मान रहीं?"

"क्योंकि हमे यकीन हो चुका है कि कुछ न कुछ ज़रूर हुआ है।" सुगंधा देवी ने कहा____"और जब तक आप हमें सब कुछ बताएंगे नहीं तब तक हम शांति से नहीं बैठेंगे। हमें इसी वक्त जानना है कि ये सब क्या माजरा है? आप हमें सब कुछ बताते हैं या फिर हम आपको हमारे बेटे की क़सम दें?"

दादा ठाकुर क़सम की बात सुनते ही मानों पूरी तरह से ढेर हो गए। चेहरे पर दुख बेबसी और पीड़ा के भाव नुमायां हो उठे। अपनी पत्नी की तरफ देखते हुए उन्होंने बेबस भाव से आंखें बंद कर लीं। ऐसा लगा जैसे खुद को किसी बात के लिए मजबूत बनाने की कोशिश कर रहे हों।

सुगंधा देवी अपलक उन्हीं को देखे जा रहीं थी। उनकी आंखों में सब कुछ जानने की उत्सुकता साफ दिख रही थी। उधर कुछ पलों बाद दादा ठाकुर ने अपनी आंखें खोली और फिर संक्षेप में सब कुछ बताते चले गए।

सुगंधा देवी पूरी बात भी न सुन पाईं थी कि उन्हें चक्कर आ गया और वो पलंग पर ही लुढ़क गईं। ये देख दादा ठाकुर ने घबरा कर फ़ौरन ही उन्हें सम्हाला और फिर उन्हें पलंग पर सीधा लेटा दिया। दुख और तकलीफ़ उनके चेहरे पर भी दिख रही थी।

पलंग के पास ही टेबल पर पानी से भरा गिलास रखा हुआ था जिसके द्वारा उन्होंने सुगंधा देवी को होश में लाने का प्रयास किया जिसमें वो कुछ देर में सफल हो गए। होश में आते ही सुगंधा देवी का ज़हन जब सक्रिय हुआ तो एकाएक उनकी रुलाई फूट पड़ी। दादा ठाकुर ने फ़ौरन ही उन्हें खुद से छुपका लिया। वो नहीं चाहते थे कि रोने की आवाज़ कमरे से बाहर जाए। कुछ समय बाद सुगंधा देवी का रोना थोड़ा बंद हुआ।

"इतना बड़ा छल कोई कैसे कर सकता है?" फिर उन्होंने दर्द से सिसकते हुए कहा____"हमारे प्यार और स्नेह में आख़िर कहां कमी रह गई थी जिसकी वजह से जगताप ने हमें और हमारे बच्चों को अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझ लिया। हे विधाता! ये दिन दिखाने से पहले हमारे प्राण क्यों नहीं ले लिए तूने?"

उसके बाद बाकी की रात सुगंधा देवी को सम्हालने और समझाने में ही गुज़र गई। दादा ठाकुर की हालत भी कुछ ठीक नहीं थी लेकिन फिर भी खुद को मजबूत बनाए वो अपनी पत्नी को सम्हाले रहे।

✮✮✮✮

सुबह हुई।
एक नया दिन शुरू हुआ।
किन्तु एक अजीब सा दिन।
हवेली में सन्नाटा सा छाया हुआ था। मातम जैसा माहौल था। ऐसा आभास हो रहा था जैसे कोई मर गया हो। दादा ठाकुर से ले कर कुसुम तक के चेहरों पर मातम मिश्रित उदासी, गंभीरता और पीड़ा विद्यमान थी। एक ही रात में जैसे सब कुछ बदल गया था। चेहरे वही थे लेकिन ऐसा लगता था जैसे सबने आज पहली बार एक दूसरे को पहचाना था। इसके बावजूद एक अजनबीपन का एहसास हो रहा था।

सुबह हवेली में रहने वाली और बाहर से आने वाली नौकरानियां ख़ामोशी से अपने काम में लग ग‌ईं थी किंतु उनके चेहरों पर कौतूहल और सवालिया भाव थे। ये अलग बात है कि किसी से कुछ पूछने की उनमें हिम्मत न थी। दूसरी तरफ निर्मला और उसकी बेटी ख़ामोशी से रसोई में सबके लिए चाय नाश्ता बनाने में लगीं थी। दोनों के मन में ढेरों सवाल थे जिनके जवाब पाने की उत्सुकता हर पल के साथ बढ़ती ही चली जा रही थी।

मेनका चाची और कुसुम अपने कमरे से अभी भी नहीं निकलीं थी। ज़ाहिर था इतना कुछ पता चल जाने के बाद उनमें किसी का सामना करने की हिम्मत नहीं थी, ख़ास कर मेनका चाची में। इधर मां ख़ामोशी की प्रतिमूर्ति बनी हाल में रखी एक कुर्सी पर बैठी हुईं थी। वो बैठी तो कुर्सी पर ही थीं लेकिन ऐसा लगता था जैसे उनका अस्तित्व कहीं और था।

पिता जी, अपने बैठक में ख़ामोशी से बैठे हुए थे। उनके साथ उनका मुंशी किशोरी लाल भी बैठा हुआ था और मैं भी। किशोरी लाल बहुत कुछ पूछना चाहता था किंतु पिता जी का गंभीर चेहरा देख उसकी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी। हवेली में इतने सारे लोगों के रहते हुए भी अजीब सा सन्नाटा तो था ही किंतु अजीब सी सनसनी भी फैली हुई थी।

"ठ...ठाकुर साहब??" सहसा गहन सन्नाटे को भेद कर किशोरी लाल ने पिता जी की तरफ देखते हुए मानों हिम्मत जुटा कर कहा____"आप रात से ही एकदम चुप और संजीदा हैं। आख़िर बात क्या है?"

"बात कुछ ऐसी है किशोरी लाल जी।" पिता जी ने धीर गंभीर लहजे में कहा____"जिसे शब्दों में बयान करना हमारे लिए बिल्कुल भी आसान नहीं है। अपने अब तक के जीवन में हमने दूसरों की भलाई और खुशी के लिए बहुत कुछ किया, बहुत संघर्ष किया है। कभी किसी का बुरा नहीं चाहा इसके बावजूद हमारे ऐसे कर्मों का फल ईश्वर ने कुछ ऐसे रूप में दिया है जिसका हम तसव्वुर भी नहीं कर सकते थे।"

"आख़िर हुआ क्या है ठाकुर साहब?" किशोरी लाल को किसी बात की शंका तो हो ही रही थी, अतः अपनी शंका की पुष्टि करने के उद्देश्य से पूछा____"आज आप इतने गंभीर, इतने संजीदा और इतनी अजीब बातें क्यों कर रहे हैं? जहां तक मुझे पता चला है कल रात आप और छोटे कुंवर सफ़ेदपोश से मिलने गए थे। उसके बाद जब आप सब वापस आए थे तो ऐसे ही गंभीर और संजीदा थे। मझली ठकुराईन और कुसुम बिटिया भी आपके साथ ही आईं थी। मैं जानना चाहता हूं कि आख़िर ऐसा क्या हुआ है जिसके चलते सफ़ेदपोश से मिलने के बाद आप सब इतने ख़ामोश से हो गए थे?"

"इस बारे में फिलहाल हम कुछ नहीं कहना चाहते किशोरी लाल जी।" पिता जी ने बेचैनी से पहलू बदला____"और हम चाहते हैं कि आप भी हमसे इस बारे में कुछ न पूछें।"

"जैसी आपकी इच्छा ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने सिर हिलाया।

"हम ये भी चाहते हैं कि रात से ले कर अब तक की किसी भी घटना का ज़िक्र आप किसी से भी न करें।" पिता जी ने कहा____"आप हमारी इन बातों को अन्यथा मत लीजिएगा। बात दरअसल ये है कि हम पहले खुद अपने हालात से उबर जाना चाहते हैं। इस बारे में ना तो हम किसी से कुछ कहना चाहते हैं और ना ही किसी की कुछ सुनना चाहते हैं। अगर ऊपर वाले ने चाहा तो उचित समय पर हम खुद ही आपको सब कुछ बता देंगे।"

"जी मैं समझ गया ठाकुर साहब।" किशोरी लाल को भी हालात की गंभीरता का एहसास हुआ इस लिए उसने इस बारे में ज़्यादा कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा____"आप बेफिक्र रहें किंतु मेरा आपसे बस इतना ही कहना है कि जो कुछ भी हुआ हो उसके लिए आप खुद को ज़्यादा तकलीफ़ ना दें।"

"हमारे भाग्य में जो लिखा है वो तो हमें मिलेगा ही किशोरी लाल जी।" पिता जी ने फीकी सी मुस्कान के साथ कहा____"बाकी हम तो इस बात से चकित हैं कि हमारे भाग्य में ऊपर वाले ने ये सब क्यों लिखा था? काश! मौत आ जाती तो जल्दी ही ऊपर वाले से हम ये सवाल कर पाते और उससे जवाब सुन पाते। ख़ैर जाने दीजिए, आप हमें बताएं आज का क्या कार्यक्रम है?"

"आज का तो विशेष रूप से बस एक ही काम है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने खुद को सम्हालते हुए झट से कहा____"आपको शहर जाना है और वहां शिवराज सिंदे जी से मिलना है। शिवराज सिंदे जी के बड़े बेटे की विदेश जाने की आज की ही टिकट है। आपको उनके बेटे के हाथ रुपए भेजवाने हैं अपने दोनों भतीजों के लिए।"

"ठीक है।" पिता जी ने कहा____"आप रुपए ले लीजिए। उसके बाद चलते हैं।"

पिता जी की बात सुनते ही किशोरी लाल उठ कर रुपए लाने के लिए चला गया। उसके जाने के बाद पिता जी ने मेरी तरफ देखा।

"आज तुम हवेली में ही रहना।" फिर उन्होंने मुझसे कहा____"और विशेष रूप से अपनी मां का ख़याल रखना। रात से ही उनकी तबीयत थोड़ी ख़राब है। वैसे तो हमने वैद्य जी को बुलवाया है किंतु अगर उनकी दवा से भी आराम न मिले तो तुम उन्हें शहर ले जाना।"

"आप बेफिक्र हो कर जाएं पिता जी।" मैंने दृढ़ता से कहा____"मैं मां का अच्छे से ख़याल रखूंगा और हां आप भी कृपया अपना रखिएगा।"

कुछ ही समय बाद पिता जी किशोरी लाल के साथ बैठक से बाहर निकल गए। शेरा ने जीप निकाली जिसमें बैठ कर वो दोनों शहर चले गए। मैं कुछ देर बैठक में ही बैठा जाने क्या क्या सोचता रहा। उसके बाद उठ कर हवेली के अंदर चला आया।​
 
अध्याय - 138
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हवेली का एक नौकर वैद्य जी को अंदर ले कर आया। मैं अंदर ही था इस लिए वैद्य जी को ले कर सीधा मां के कमरे में पहुंच गया। मां पलंग पर लेटी हुईं थी। औपचारिक हाल चाल के बाद वैद्य जी ने मां की नाड़ी देखी। कुछ देर तक आंख बंद किए वैद्य जी जाने क्या महसूस करते रहे उसके बाद उन्होंने मां की कलाई को छोड़ दिया।

"चिंता की कोई विशेष बात नहीं है छोटे कुंवर।" फिर उसने मुझसे मुखातिब हो कर कहा____"मानसिक तनाव और अत्यधिक चिंता करने की वजह से इनकी ऐसी हालत है। वैसे तो मैं कुछ दवाइयां दे देता हूं किंतु इसका बेहतर उपचार यही है कि ये किसी भी प्रकार का ना तो तनाव रखें और ना ही किसी बात की इतनी ज़्यादा चिंता करें।"

"ठीक है वैद्य जी।" मैंने कहा____"आप दवा दे दीजिए। बाकी मैं देख लूंगा।"

वैद्य जी को विदा करने के बाद मैं वापस मां के पास आया। सुनंदा नाम की एक नौकरानी विशेष रूप से मां की ही सेवा में लगी रहती थी। मैंने उसे मां के लिए कुछ खाना ले आने को कहा। खाली पेट मां को दवा देना उचित नहीं था।

कुछ समय बाद जब मां ने मेरे बहुत ज़ोर देने पर थोड़ा बहुत खाया तो मैंने उन्हें दवा दे दी। मैं अच्छी तरह जानता था कि मां की ऐसी हालत किस वजह से है। उन्हें मेनका चाची और अपने देवर यानि जगताप चाचा के बारे में ये सब जान कर बहुत गहरा आघात लगा था। पिता जी ने रात में अगर उन्हें समझाया न होता तो बहुत हद तक मुमकिन था कि इस अघात की वजह से उनकी हालत बहुत ही गंभीर हो जाती।

"अब आप आराम कीजिए मां।" मैंने मां को ऊपर चादर से ओढ़ाते हुए कहा____"और अपने दिलो दिमाग़ से हर तरह की बातों को निकाल दीजिए।"

"वही तो नहीं कर पा रही मैं।" मां ने दुखी भाव से कहा____"जितना भुलाने की कोशिश करती हूं उतना ही सब कुछ याद आता है। बार बार मन में एक ही सवाल उभरता है कि क्यों किया ऐसा?"

"आप तो जानती हैं ना मां कि इंसान ग़लतियों का पुतला होता है।" मैंने उन्हें समझाने वाले अंदाज़ से कहा____"इस दुनिया में ऐसा कौन है जो अपने जीवन में ग़लतियां नहीं करता? सब करते हैं मां। मैंने भी तो न जाने कितनी ग़लतियां की हैं जिनकी वजह से आपका और पिता जी का बहुत दिल दुखा था। इसी तरह हर कोई किसी न किसी वजह से कोई न कोई ग़लतियां करता ही है। जगताप चाचा और चाची ने जो किया वो उन्होंने अपने बच्चों की भलाई के लिए किया। यकीनन उनका ऐसा करना हम सबकी नज़र में ग़लत था किंतु उनकी नज़र में तो वो सब उचित और सही ही था ना मां? आख़िर हर माता पिता अपने बच्चों का भला ही तो चाहते हैं। इस संसार में ऐसा ही तो होता है। लोग अपनों की खुशी के लिए क्या क्या कर जाते हैं। उन्होंने भी वही किया। आप उन सब बातों को इसी नज़रिए से सोचिए और अपने मन को शांत रखिए।"

"तुझे पता है।" मां ने अधीरता से कहा____"मैंने हमेशा जगताप को देवर से ज़्यादा अपने बेटे की तरह माना था और उसे स्नेह किया था। मेनका को अपनी छोटी बहन मान कर उसे प्यार दिया। उसके बच्चों को अपने बच्चों से ज़्यादा माना और प्यार किया। क्या मेरा ऐसा करना ग़लत था? क्या मैंने उन्हें अपना मान कर और उन्हें प्यार कर के कोई गुनाह किया था जिसके लिए उसने उस सबका ये सिला दिया?"

"आप फिर से वही सब सोचने लगीं।" मैंने उन्हें समझाते हुए कहा____"आप मेरी मां हैं और जीवन के साथ साथ दुनियादारी का भी मुझसे ज़्यादा आपको अनुभव है, इसके बावजूद आप ऐसा सोचती हैं? आप तो जानती हैं ना कि जब कोई इंसान सिर्फ अपने और अपने बच्चों के हितों के बारे में ही सोचते हुए आगे बढ़ता है तो फिर वो दूसरे के बारे में कुछ भी नहीं सोचता। ऐसा इंसान फिर ये नहीं सोचता कि किसने उसके साथ अच्छा किया है अथवा किसने उसे अपना माना है? जगताप चाचा और चाची की मानसिकता कुछ इसी तरह की हो गई थी। यही वजह थी कि उन्होंने ये सब नहीं सोचा। अगर सोचा होता तो आप खुद सोचिए कि क्या फिर वो ये सब करते?"

"जगताप के मन में इस तरह का ज़हर उसके साले अवधराज ने डाला था।" मां ने कहा____"उसी ने मेरे देवर के मन में ऐसी सोच डाली थी वरना वो कभी ऐसा न करता। उसी की वजह से इतना कुछ हुआ और इस हवेली की खुशियों पर ग्रहण लग गया। एक हंसते खेलते और खुशहाल परिवार में आग लगवा दी उस नासपीटे ने। उस समय आया तो था वो, उसे देख कर ज़रा भी तो एहसास नहीं हुआ था कि वो इस हवेली को तहस नहस करने वाला शकुनी है। अपने बहनोई को इस सबके चलते मौत के घाट उतार कर और अपनी बहन को विधवा बना कर क्या खुशी से जी रहा होगा वो?"

"उन्होंने जो किया है उसका फल ऊपर वाला उन्हें एक दिन ज़रूर देगा मां।" मैंने कहा____"आप कृपया इस सबके बारे में सोच कर अपने आपको दुखी मत कीजिए। पिता जी के बारे में भी सोचिए। उन्हें भी तो इस सबके चलते बहुत गहरा सदमा लगा है। वो किसी को कुछ दिखाते नहीं हैं लेकिन मैं जानता हूं कि वो अंदर ही अंदर किस क़दर दुखी हैं।"

"दुखी तो होंगे ही।" मां की आंखें भर आईं____"जीवन भर उन्हें अपने भाई पर इस बात का गुमान था कि उनके भाई जैसा कोई नहीं हो सकता। जिस तरह तुम दोनों भाई उनके जिगर के टुकड़े थे उसी तरह उनका भाई भी उनकी जान था। बहुत गर्व करते थे वो जगताप पर। अपने भाई की नेक नीयती पर वो ख़्वाब में भी शक नहीं करते थे। खुद से ज़्यादा उन्हें अपने छोटे भाई पर भरोसा था। अपने पिता जी के बाद उन्होंने अपने भाई को अपने जैसा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। क्या जानते थे कि जिस भाई को उन्होंने छोटे से ले कर अब तक अपनी खुशियों और अपनी इच्छाओं का बलिदान दे कर इस क़ाबिल बनाया था वही एक दिन उनके भरोसे को तोड़ कर उनकी मुकम्मल दुनिया को बर्बाद करने की राह पर चल पड़ेगा। इंसान जिसे अपना सब कुछ मानता है, जिस पर खुद से ज़्यादा भरोसा करता है, अपनी औलाद से ज़्यादा प्यार करता है अगर वही एक दिन इतना बड़ा झटका दे दे तो ये गनीमत ही है उस झटके के बाद सामने वाला मौत से बच जाए।"

मां की ये बातें ऐसी थीं जिनका एक एक शब्द एक अलग ही एहसास पैदा कर रहा था। पहले भले ही कभी मैं अपनी अय्याशियों के चलते ये सब नहीं सोचता था किंतु अब सारी बातें मेरे मानस पटल पर उभरती थीं। मुझे एहसास होता था कि मेरे पिता जी ने अब तक क्या कुछ किया था और क्या कुछ सहा था।

"जब उन्हें पता चला था कि उनके भाई और बेटे की साहूकारों ने हत्या की थी तो जीवन में पहली बार वो इतना विचलित हुए थे।" मां ने आगे कहा____"औलाद का दुख तो था ही लेकिन सबसे ज़्यादा उन्हें अपने भाई की मौत का दुख हुआ था। उसकी इस तरह से हुई मौत से वो इतना ज़्यादा विचलित हुए कि अपना आपा ही खो बैठे थे। यही वजह थी कि साहूकारों का पता लगने के बाद भी उन्होंने उन्हें पकड़ कर उनका फ़ैसला पंचायत में करने का नहीं सोचा बल्कि सीधा उन्हें गोलियों से ही भून डाला था। उन्हें इस बात का कोई होश नहीं रह गया था कि उनके ऐसा करने से लोग उनके बारे में क्या सोचेंगे अथवा ऐसा करने से क्या अंजाम होगा। एक इंसान जिसने कभी अपना धैर्य और संयम नहीं खोया, जिसने कभी किसी पर बेवजह क्रोध नहीं किया उसने पहली बार इस तरह का नर संघार करने जैसा जघन्य अपराध कर दिया। आज जब उन्हें ये पता चला कि जिसकी वजह से उन्होंने ये नर संघार किया था वो तो खुद ही सबसे बड़ा क़ातिल था उनका। उनके प्रेम का, उनके भरोसे का और उनकी भावनाओं का। कल रात भर नहीं सोए वो, खुद अंदर से दुखी रहे लेकिन मुझे समझाते रहे ताकि मेरी हालत बद्तर न हो जाए।"

"इसी लिए तो कहता हूं मां कि आप इस सबके बारे में सोच कर खुद को दुखी मत कीजिए।" मैंने कहा____"पिता जी दुखी हैं तो उन्हें सहारा दीजिए। उनका बेटा होने के नाते मैं हर तरह से उनका सहारा बनने की कोशिश करूंगा, भले ही इसके लिए मुझे किसी भी हद से गुज़र जाना पड़े।"

"चिंता मत कर बेटे।" मां ने कहा____"मैं अब खुद का ख़याल रखूंगी और तेरे पिता जी को भी समझाऊंगी कि वो इस सबके बारे में सोच कर खुद को इतना दुखी न करें। ख़ैर अब तू जा, और ज़रा देख तेरी चाची के क्या हाल हैं? उसने कुछ खाया पिया है कि नहीं? उसे भी समझाना होगा कि जो हो गया उसे भूल जाए। बाकी अगर उसकी यही इच्छा है कि उसे ये हवेली और इस हवेली की सारी धन संपत्ति चाहिए तो ऐसा ही होगा। उसका पति इसी चाह में मर गया है तो ऐसा नहीं होना चाहिए कि उसके मरने के बाद उसके बीवी बच्चे उसकी उस चाहत से वंचित रह जाएं।"

"ऐसा मत कहिए दीदी।" मां ने इतना कहा ही था कि सहसा दरवाज़े से चाची की करुण आवाज़ आई।

मैंने पलट कर दरवाज़े की तरफ देखा। मेनका चाची आंखों में आंसू लिए अजीब हालत बनाए खड़ी थीं। मां ने भी गर्दन घुमा कर उन्हें देखा।

"मत कहिए दीदी ऐसा।" कहते हुए चाची आईं और मां के पैरों में सिर रख रोने लगीं, फिर बोली____"मुझे कुछ नहीं चाहिए। कुछ चाहने की वजह से ही आज मेरी ये हालत है। अपने और अपने बच्चों के बारे में सोच कर हमने जो किया ये उसी का परिणाम है कि आज वो इस दुनिया में नहीं हैं। हमने बहुत बड़ा अपराध किया है दीदी, बहुत बड़ा पाप किया है। हमने आपके प्यार और विश्वास का खून किया है। आप इसके लिए मुझे सज़ा दीजिए।"

"नहीं मेनका।" मां ने कहा____"तुझे मेरे पैरों में पड़ने की ज़रूरत नहीं है। और हां, तुझे या तेरे बच्चों को कोई कुछ नहीं कहेगा। तेरा पति जो चाहता था वो तुझे ज़रूर मिलेगा, बस कुछ समय की मोहलत दे दे हमें। थोड़ा इस दुख तकलीफ़ से उबर जाने दे हमें। उसके बाद हम दोनों प्राणी अपने इस बेटे को ले कर कहीं चले जाएंगे। विधवा बहू है तो उसे भी अपने साथ ही ले जाएंगे। उसके बाद ये हवेली और ये सारी धन संपत्ति, ज़मीन जायदाद सब तेरी और तेरे बच्चों की होगी।"

"नहीं दीदी नहीं।" मेनका चाची बुरी तरह रो पड़ीं____"मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। मुझे सिर्फ अपनी दीदी का प्यार और स्नेह चाहिए। अपने जेठ जी का दुलार चाहिए। अपने बेटे का वैसा ही प्यार और मान सम्मान चाहिए जैसा ये मुझे अब तक देता आया था।"

"यही तो हम सब दे रहे थे तुझे।" मां ने कहा____"पर शायद ये अच्छा नहीं लगा था तुम दोनों को और ना ही ये काफ़ी था। तभी तो हमें मिटा कर सब कुछ पा लेने का मंसूबा बनाया था तुम दोनों ने।"

"मति मारी गई थी दीदी।" मेनका चाची रोते हुए बोलीं____"तभी तो सिर्फ अपने बारे में सोच बैठे और इतना घिनौना षड्यंत्र रच डाला था। ये उसी घिनौनी मानसिकता का परिणाम है कि आज मैं अपने पति को खो कर इस हाल में हूं। मेरे बच्चे बिना पिता के हो गए। मेरे बच्चों को उनके माता पिता की करनी की सज़ा मिल गई।"

"सज़ा तो हमें मिली है मेनका।" मां ने कहा____"हद से ज़्यादा प्यार करने की, हद से ज़्यादा भरोसा करने की और हद से ज़्यादा अपना समझने की। हम भूल गए थे कि पराया तो पराया ही होता है। नाग को कितना ही दूध पिलाओ वो एक दिन दूध पिलाने वाले को ही डस लेता है। इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, दोष हमारा है। ख़ैर कोई बात नहीं, देर से ही सही अब समझ आ गया है हमें। तुझे ये हवेली और धन संपत्ति की चाह थी तो तुझे ये सब मिल जाएगा। उसके बाद जैसे चाहे अपने बच्चों के साथ यहां रहना।"

"ऐसा मत कहिए न दीदी।" चाची और बुरी तरह तड़प कर रो पड़ीं____"आप तो मेरी सबसे अच्छी दीदी हैं। मुझे अपनी छोटी बहन की तरह प्यार करती हैं। अपनी छोटी बहन के इस अपराध को क्षमा कर दीजिए ना। बस एक बार दीदी, सिर्फ एक बार माफ़ कर दीजिए ना मुझे।"

इस बार मां ने कुछ न कहा। पैरों से लिपटी रो रहीं चाची को नम आंखों से देखती रहीं। यकीनन उनके अपने दिलो दिमाग़ में भी इस वक्त आंधियां चल रहीं थी जिन्हें वो काबू में करने का भरसक प्रयास कर रहीं थी।

"मैं जानती हूं कि मेरा अपराध माफ़ी के लायक नहीं है।" उधर चाची ने फिर कहा____"किंतु आप तो मेरी सबसे अच्छी दीदी हैं ना। मुझे अपनी छोटी बहन जैसा प्यार करती हैं। मुझे यकीन है कि आप मुझे झट से माफ़ कर देंगी। मेरे अपराधों को मेरी नासमझी जान कर माफ़ कर देंगी। अगर आप मुझे माफ़ नहीं करेंगी तो यकीन मानिए अपनी बेटी की क़सम तोड़ कर मैं ज़हर खा कर खुदकुशी कर लूंगी।"

"ख़बरदार जो ऐसी मनहूस बात कही तूने।" मां ने झट से डांट दिया उन्हें____"और पैर छोड़ मेरे, दूर हट जा।"

"नहीं, आपके पैर छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी।" मेनका चाची ने कहा____"मुझे अपनी दीदी के पास रहना है। मुझे अपनी दीदी का वैसा ही प्यार और स्नेह चाहिए जैसा अब तक मेरी दीदी दे रहीं थी।"

मेनका चाची छोटी बच्ची की तरह रोए जा रहीं थी और ज़िद कर रहीं थी। उनका ये बर्ताव देख मां की नाराज़गी और गुस्सा दूर होता गया। माना कि चाचा चाची का अपराध माफ़ी के लायक नहीं था लेकिन मेरे माता पिता ऐसे थे ही नहीं जो पिघल न सकें, खास मां। आख़िर कुछ देर में मां ने चाची को मजबूरन माफ़ कर ही दिया। हालाकि मन अभी भी उनका इस सबके चलते दुखी था। बहरहाल, मां के कहने और समझाने पर चाची कमरे से चली गईं। मैं भी मां के कहने पर बाहर निकल गया।

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दिन यूं ही गुज़रने लगे।
कुछ दिनों के लिए लगा था जैसे वक्त थम गया हो और उस थमे हुए पलों में उसने हम सबको जाने कौन सी भयावह दुनिया में पहुंचा दिया हो किंतु फिर जैसे एक लहर आई और हम सबको साहिल पर ला फेंका। शायद ऊपर वाला नहीं चाहता था कि हम महज इतने में ही डूब कर मर जाएं।

हवेली के अंदर का माहौल यूं तो सामान्य हो गया था लेकिन रिश्तों में पहले जैसी पाकीज़गी नहीं महसूस होती थी। कहने के लिए भले ही हम सब दिल से सब कुछ कर रहे थे लेकिन जाने क्यों ये सब एक दिखावा सा महसूस होता था। पहले जैसा बेबाकपन, बेफिक्री, अपनापन और भरोसा नहीं महसूस होता था और ना ही दिल से कोई खुश होता था। सब कुछ बनावटी लगने लगा था।

पिता जी, बहुत गंभीर से हो गए थे। उनके चेहरे पर गंभीरता के अलावा कोई भाव नज़र नहीं आते थे। ना कोई खुशी, ना कोई उत्साह और ना ही कोई तेज़। ऐसा लगता था जैसे उनके लिए सब कुछ बेमानी और बेमतलब हो गया था। सबके सामने वो खुद को सामान्य रखते लेकिन मां और मैं अच्छी तरह समझते थे कि अंदर से वो टूट चुके थे। इंसान के भरोसे और उम्मीद का जब इस तरह से हनन हो जाता है तो इंसान ज़िंदा होते हुए भी एक लाश जैसा बन जाता है।

मां को तो किसी तरह सम्हाल लिया गया था लेकिन पिता जी को सम्हालना जैसे नामुमकिन सा हो गया था। बाहर से वो पूरी तरह सामान्य ही नज़र आते थे लेकिन अंदर से जैसे वो घुट रहे थे।

गांव में अस्पताल और विद्यालय बनवाने की मंजूरी मिल गई थी इस लिए निर्माण कार्य शुरू हो गया था। पिता जी ने गांव वालों की सुविधा को देखते हुए अस्पताल और विद्यालय गांव के अंदर ही बनवाने की मंजूरी प्राप्त की थी जिसके लिए हमने अपनी ज़मीन को सरकार के सुपुर्द की जिसका हमें मुआवजा भी मिला किंतु मुआवजे की रकम हमने निर्माण कार्य में ही लगाने का फ़ैसला किया था।

एक दिन पहले पिता जी के हुकुम पर पूरे गांव में डिग्गी पिटवा कर गांव वालों को सूचित कर दिया गया था कि गांव में सरकारी अस्पताल और सरकारी विद्यालय बनने वाला है। इसके लिए जो भी अपनी खुशी से निर्माण कार्य में मदद करेगा उसे उसका उचित मेहनताना मिलेगा।

गांव वाले इस बात से बड़ा खुश हुए। उनके चेहरों पर मौजूद खुशी और उत्साह देखते ही बनता था। सब खुशी से नाचने लगे थे और ये खुशी तब और भी ज़्यादा बढ़ गई जब सबको ये पता चला कि गांव में विद्यालय बनने के बाद हर कोई अपने बच्चों को विद्यालय में पढ़ने के लिए दाखिला दिलवा सकता है।

उस रात पूरे गांव में लोगों ने खुशी से नाच गाना किया और इसके लिए पिता जी को दुआएं दे कर उनकी लंबी उमर की कामना की। सारी रात जश्न का माहौल बना रहा। ये ख़बर जंगल की आग की तरह दूर दूर तक फैलती चली गई। हर किसी की ज़ुबान पर इसी बात की चर्चा थी कि रुद्रपुर में दादा ठाकुर की कृपा से विद्यालय और अस्पताल दोनों बन रहे हैं।

यूं तो ये सब सरकार का काम था लेकिन पिता जी ने ये सारा काम खुद करने का जिम्मा ले लिया था। सरकार का काम सिर्फ इतना ही था कि जब विद्यालय और अस्पताल बन कर तैयार हो जाए तो वो विद्यालय में बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक और अस्पताल में लोगों का बेहतर इलाज़ करने के लिए चिकित्सक नियुक्त कर दें।

गांव के पूर्व में देवी मां के मंदिर के बगल से निर्माण कार्य शुरू हुआ। मंदिर के एक तरफ विद्यालय और दूसरी तरफ अस्पताल का कार्य बड़े जोश और जुनून के साथ शुरू हो गया था। गांव के बहुत से लोग इस निर्माण कार्य में लग गए थे। मैं और रूपचंद्र दोनों तरफ का निरीक्षण करते थे। उधर पिता जी ने शहर से हमारे ट्रैक्टरों में ईंट बालू सीमेंट और पत्थर लाने के लिए भीमा और बलदेव को नियुक्त कर दिया था।

अब ये रोज़ाना की दिनचर्या सी बन गई थी। मैं और रूपचंद्र एक साथ दोनों जगह का काम धाम देखने लगे थे। हम दोनों में काफी अच्छा ताल मेल हो गया था। रूपचंद्र पहले थोड़ा संकोच करता था किंतु अब वो पूरी तरह खुल गया था मुझसे। मैंने महसूस किया था कि अब वो मुझसे मज़ाक भी करने लगा था। ज़ाहिर है उसकी बहन से अगले साल मेरा ब्याह होना था जिसके चलते हमारे बीच जीजा साले का रिश्ता बन चुका था और इसी वजह से वो मुझसे मज़ाक करने लगा था। मुझे थोड़ा अजीब तो लगता था लेकिन मैं इसका विरोध नहीं करता था। पिछले पंद्रह बीस दिनों से उसकी बहन रूपा से मेरी मुलाक़ात नहीं हुई थी। इसके लिए ना मैंने कोई पहल की थी और ना ही उसने।

ऐसे ही एक महीना गुज़र गया। इस एक महीने में अस्पताल और विद्यालय के निर्माण कार्य में काफी कुछ नज़र आने लगा था। दोनों तरफ की दीवारें आधी आधी खड़ी हो गईं थी। पहले सिर्फ मंदिर दिखता था और अब मंदिर के दोनों तरफ अस्पताल और विद्यालय की दीवारें नज़र आने लगीं थी। ज़ाहिर है जब दोनों पूरी तरह बन कर तैयार हो जाएंगे तो अलग ही दृश्य नज़र आएगा।

ठंड शुरू हो गई थी। लोगों के घर के बाहर और अंदर अलाव जलने शुरू हो गए थे। लोग अपने मवेशियों को ठंड से बचाने के लिए उचित व्यवस्था करने लगे थे। ठंड का मौसम मुझे हमेशा से पसंद था। चाहे जितना खा पी लो, चाहे जिसके साथ चिपक कर सो जाओ, चाहे जितनी मेहनत कर लो। कुल मिला कर ठंड में कोई भी काम करो उसका अलग ही आनंद मिलता था। हालाकि कभी कभी ठंड इतनी ज़्यादा होने लगती थी कि सुबह बिस्तर से उठने का भी मन नहीं करता था और सबसे ज़्यादा इसका असर काम पर पड़ता था। अक्सर इस चक्कर में जंगली जानवर फसलों को बर्बाद कर देते थे और इंसान ठंड की वजह से बिस्तर में छुपा बैठा रहता था।

रागिनी भाभी को मायके गए दो महीना हो गया था। सच कहूं तो मुझे उनकी बहुत याद आती थी। जब भी अकेले में होता था तो अक्सर उनका ख़याल आ जाता था। उनका मुझे छेड़ना, मेरी टांग खींचना और बात बात पर मुझे आसमान से ज़मीन पर ले आना बहुत याद आता था। मैं हर दिन मां से उनके बारे में पूछता कि उन्हें लेने कब जाऊं लेकिन वो हर बार मना कर देती थीं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर वो भाभी को वापस लाने से मना क्यों कर देती थीं? एक दिन तो मैं मां से इस बात पर नाराज़ भी हो गया था। मुझे भाभी की फ़िक्र तो थी ही लेकिन मैं ये भी चाहता था कि वो हवेली में वापस आएं। मेरे काम के बारे में जानें, और मेरे काम की समीक्षा करते हुए मुझे ये बताएं कि मैं अपना काम ठीक से कर रहा हूं या नहीं? मैं उनकी उम्मीदों पर खरा उतर रहा हूं या नहीं? ऐसा नहीं था कि हवेली में कोई मेरे काम से खुश नहीं था, बल्कि सब खुश थे लेकिन जाने क्यों मैं चाहता था कि मेरे इन कामों को देख कर भाभी भी खुश हों और मेरी तारीफ़ करते हुए मेरा मनोबल बढ़ाएं।

शाम को मैं काम से थका हारा हवेली आया और खा पी कर अपने कमरे में आ गया। हवेली के इस तरफ ऊपरी हिस्से में आज कल सिर्फ मैं ही अपने कमरे में रहता था। कुसुम पिछले एक महीने से अपनी मां के साथ ही नीचे उनके कमरे में सोती थी। दूसरी तरफ हवेली के ऊपरी हिस्से में किशोरी लाल और उसकी बेटी कजरी सोती थी। मेरी तरफ का पूरा हिस्सा वीरान सा रहता था। पिछले कुछ समय से हर दूसरे या तीसरे दिन मां मेरे कमरे में आ जाती थीं और मेरा हाल चाल पूछती थीं।

पलंग पर लेटा मैं अपने कामों के बारे में सोच रहा था। उसके बाद मन जाने कहां कहां भटकते हुए रागिनी भाभी पर जा कर ठहर गया। मैं सोचने लगा कि दो महीने हो गए उन्हें गए हुए और मेरे पास उनके बारे में अब तक कोई ख़बर नहीं है। क्या उन्हें हम सबकी याद नहीं आती होगी? क्या उनका मन नहीं करता होगा वापस आने का? वहां पर उनके अपने उन्हें खुश रखने के लिए क्या करते होंगे? क्या कोई उनका ख़याल रखता होगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि वो हर किसी से अपनी पीड़ा को छुपा कर रखती हों और अंदर ही अंदर दुखी रहती हों? नहीं नहीं, वो लोग ऐसा नहीं कर सकते। भाभी उनकी बहन बेटी हैं, ज़रूर वो अच्छे से उनका ख़याल रखते होंगे।

एकाएक ही मन में उथल पुथल सी मच गई थी। भाभी के लिए पहले भी फ़िक्र थी लेकिन अब और भी ज़्यादा होने लगी थी। एक बेचैनी सी थी जो बढ़ती ही जा रही थी। मैंने फ़ैसला कर लिया कि कल सुबह मैं चंदनपुर जाऊंगा और भाभी को वापस ले आऊंगा।​
 
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