अध्याय - 129
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मैं अपने खेतों पर पहुंचा तो भुवन वहीं था। मैंने उसे जीप में बैठाया और वहां से चल पड़ा। रास्ते में मैंने उसे बताया कि हमें कहां और किस काम के लिए जाना है। भुवन ने साथ में भीमा और बलवीर को भी ले चलने की सलाह दी जो मुझे भी उचित लगी। असल में मुझे अंदेशा था कि ये मामला आसानी से निपट जाने वाला नहीं है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों भीमा और बलवीर के घर पहुंचे। वहां से दोनों को जीप में बैठा कर मैं निकल पड़ा।
अब आगे....
सबसे पहले हम मुरारी काका के गांव पहुंचे। मुझे इतने समय बाद आया देख गांव वाले थोड़ा हैरान हुए। मैंने एक बरगद के पेड़ के पास जीप को रोका। पेड़ के चारो तरफ चबूतरा बना हुआ था जिसमें कुछ लोग बैठे हुए थे। हमें देखते ही वो सब चबूतरे से उतर कर ज़मीन में खड़े हो गए और फिर सलाम करने लगे। मैंने भुवन को समझा दिया था कि क्या करना है इस लिए उसने भीमा और बलवीर को इशारा किया। वो दोनों अलग अलग दिशा में चले गए जबकि भुवन उन लोगों से बात करने लगा।
बात करने का तात्पर्य ये पता करना था कि मालती का पति जगन कैसा था और किन लोगों के साथ जुवां खेलता था? जुएं खेलने के लिए उसके पास पैसा किस तरीके से आता था और साथ ही जिन लोगों से उसने कर्ज़ा लिया था वो उससे अपना रुपिया वसूलने के लिए क्या करते थे?
क़रीब बीस मिनट बाद भीमा और बलवीर वापस आए। उन लोगों का काम भी यही था कि वो गांव के अलग अलग लोगों से इस बारे में पूछताछ करें। उन दोनों ने आ कर मुझे वही सब बताया जो भुवन के द्वारा इन लोगों से पता चला था। ये अलग बात है कि अलग अलग लोगों के बताने का तरीका थोड़ा अलग था किंतु मतलब एक ही था।
सारी बातों को समझने के बाद मैंने सबको जीप में बैठने को कहा और फिर चल पड़े हम। मुरारी के गांव से क़रीब डेढ़ दो किलो मीटर पर ही एक दूसरा गांव हिम्मतपुर था। जल्दी ही मेरी जीप हिम्मतपुर में दाख़िल हो गई और उस मकान के सामने रुकी जहां से जगन ने कर्ज़ा लिया था।
हिम्मतपुर गांव ज़्यादा बड़ा नहीं था। आबादी भी ज़्यादा नहीं थी। क़रीब पचास साठ घर थे गांव में। गांव का सबसे संपन्न आदमी था शंकर लाल श्रीवास्तव। गांव में सबसे ज़्यादा उसी के पास ज़मीनें थीं जिनसे उसे खूब पैदावार होती थी। गांव के लोगों को वो उधारी में अनाज देता था और फिर उसके नियम के अनुसार ग़रीब आदमी अपनी ज़मीन से अनाज उगा कर उसका उधार तो चुकाता ही था किंतु ब्याज के साथ। इसके अलावा उसका मुख्य पेशा लोगों को ब्याज में पैसा देना भी था। लोग मज़बूरी में कर्ज़ लेते थे लेकिन कर्ज़ा चुकाना उनके बस से बाहर हो जाता था। ऐसा इस लिए भी कि ग़रीब आदमी अपनी खुद की ज़रूरतें ही ढंग से पूरी नहीं कर पाता था तो कर्ज़ा कैसे चुकाता? इस चक्कर में ब्याज बढ़ता जाता। ब्याज को चुकाते चुकाते इंसान का कचूमर निकल जाता था। जब समय थोड़ा लम्बा हो जाता था तो शंकर लाल नया नियम लागू कर देता। नए नियम में कर्ज़ चुकाने का समय नियुक्त कर देता था और जब ग़रीब आदमी तय समय पर कर्ज़ा न दे पाता तो वो उनकी पहले से ही गिरवी रखी ज़मीन को अपने कब्जे में कर लेता था। ग़रीब आदमी रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। शंकर लाल ने लोगों को डराने धमकाने के लिए बकायदा मुस्टंडे पाल रखे थे।
शंकर लाल के दो बेटे और दो बेटियां थी। दोनों बेटों की शादी हो चुकी थी और दो बेटियों में से एक अभी अविवाहित थी। उसके दोनों बेटे यानि हीरा लाल और मणि लाल अपने बाप के नक्शे क़दम पर ही चल रहे थे।
मकान के सामने एक लंबा चौड़ा मैदान था। उसके बाद पुराने समय का बड़ा सा मकान बना हुआ था जिसकी सामने वाली दीवार पर सिर्फ लकड़ी के मोटे मोटे खम्भे थे जिनमें नक्काशी की हुई थी। उन खंभों के एक तरफ बड़ी सी चौपार थी जिनमें क़रीब पांच मजबूत पलंग बिछे हुए थे जबकि दूसरी तरफ उसका बैठका था। उस बैठके में उसका आसन बना हुआ था जहां पर बैठ कर वो उन लोगों से मिलता था जो लोग उसके पास कर्ज़ लेने आते थे। बैठके से सटी ही एक दीवार थी जिसमें लोहे की मजबूत अलमारी लगभग आधी धंसी हुई थी। उसी अलमारी में उसके बही खातों की जाने कितनी ही मोटी मोटी किताबें रखी हुई थी। उस अलमारी से क़रीब तीन फिट की दूरी पर एक दरवाज़ा था जो एक ऐसे कमरे का था जिसमें उसकी पूंजी रखी हुई होती थी। दरवाज़ा हमेशा एक मजबूत ताले के साथ बंद रहता था जिसकी चाभी सिर्फ उसके पास ही होती थी।
जीप जब मकान के सामने मैदान में पहुंच कर रुकी तो वहां मौजूद उसके मुस्टंडे एकदम से तन कर खड़े हो गए। बैठके में शंकर लाल बैठा हुआ था और उसके पास दो तीन लोग भी थे जो शकल से ही उससे कर्ज़ लेने आए लोग लग रहे थे। शंकर लाल के बगल से उसका बड़ा बेटा हीरा लाल बैठा हुआ था। जीप को देख सबकी नज़रें हमारी तरफ ही केंद्रित हो गईं थी।
शंकर लाल और उसका बेटा उस वक्त चौंके जब उन्होंने जीप से मुझे उतरते देखा। दोनों बाप बेटे एकदम से हड़बड़ा से गए। शंकर लाल ने अपने बेटे को कोई इशारा किया और फिर उठ कर मेरी तरफ लपका। उसका बेटा भी उठ कर मेरी तरफ आने लगा था।
"अरे! छोटे कुंवर आप यहां?" शंकर लाल चेहरे पर खुशी के भाव लाते हुए और ज़ुबान को मीठा बनाते हुए बोला____"धन्य भाग हमारे जो आप खुद चल कर मेरी छोटी सी कुटिया में पधारे। आइए आइए, अंदर आइए।"
"मेरे पास अंदर बैठने का वक्त नहीं है शंकर काका।" मैंने सपाट और स्पष्ट भाव से कहा____"मैं यहां एक ज़रूरी काम से आया हूं और उम्मीद करता हूं कि आप मुझे ज़रा भी निराश नहीं करेंगे।"
"अरे! हुकुम कीजिए छोटे कुंवर।" शंकर लाल फ़ौरन ही अपने दांत निपोरते हुए बोल पड़ा____"मुझे बताइए कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?" कहने के साथ ही वो अपने मुस्टंडों से मुखातिब हुआ____"अरे! बेवकूफों खड़े क्या हो। जाओ चारपाई ले कर आओ छोटे कुंवर के बैठने के लिए और हीरा बेटा तू ज़रा इनके जल पान की फ़ौरन व्यवस्था कर। बड़े लोग हैं ये....बार बार हमारे घर को पवित्र करने नहीं आएंगे।"
शंकर लाल की बात सुनते ही उसका एक मुस्टंडा फ़ौरन ही चारपाई ले आया और चौगान में रख कर उस पर एक गद्दा बिछा दिया। उधर उसका बेटा हीरा भी अंदर की तरफ दौड़ गया था। शंकर लाल ने हाथ जोड़ कर मुझे चारपाई पर बैठने को कहा तो मैं बैठ गया। जबकि भुवन, भीमा और बलवीर मेरे समीप ही बगल से खड़े हो गए।
"और बताइए छोटे कुंवर दादा ठाकुर कैसे हैं?" शंकर लाल ने अपने स्वर को मधुर बनाते हुए पूछा____"काफी समय हो गया उनके दर्शन नहीं हुए। वैसे कुछ समय पहले ख़बर मिली थी आपके साथ हुई दुखद घटना के बारे में।"
"सब किस्मत की बातें हैं काका।" मैंने कहा____"जिसकी किस्मत में जो होना लिखा होता है वो तो होता ही है। आख़िर किसी का अपनी किस्मत पर और ऊपर वाले पर कहां कोई ज़ोर चलता है।"
"हां ये तो सही कहा आपने।" शंकर लाल ने सहसा बेचैन हो कर कहा____"अब क्या कह सकते हैं किंतु जो भी हुआ बहुत बुरा हुआ। अच्छा अगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं आपसे ये पूछने की गुस्ताख़ी कर सकता हूं कि आप यहां मुझ जैसे अदने से व्यक्ति के घर किस उद्देश्य से पधारे हैं?"
शंकर लाल ने ये कहा ही था कि उसका बेटा हीरा आ गया। उसके पीछे एक औरत भी थी। मैंने अंदाज़ा लगाया शायद वो औरत उसकी मां थी। उसने आते ही मुझे सलाम किया। मेरी उम्र से बड़े लोग जब मुझे यूं सलाम करते थे तो मुझे बड़ा अजीब लगता था किंतु क्या कर सकता था। रुद्रपुर के ठाकुरों का इतिहास ही ऐसा रहा है कि लोग झुक कर सलाम किए बिना नहीं रहते थे। ख़ैर हीरा ने बड़े आदर भाव से मुझे जल पान कराया और फिर मेरे साथ आए मेरे लोगों को भी।
मैंने देखा शंकर लाल के चेहरे पर बेचैनी के साथ साथ अब थोड़े चिंता के भाव भी उभर आए थे। शायद वो ये सोच कर चिंता में पड़ गया रहा होगा कि मेरे जैसे चरित्र का लड़का उसके गांव में उसके ही घर आख़िर किस मकसद से आया है? कहीं मेरी नज़र उसकी छोटी बेटी सुषमा पर तो नहीं पड़ गई है? अगर वो वाकई में यही सोच के चिंतित हो उठा रहा होगा तो इसमें उसका कोई दोष नहीं था। मेरे बारे में सब जानते थे इस लिए उनका ऐसा सोच लेना कोई बड़ी बात नहीं थी।
"कहिए छोटे कुंवर और क्या सेवा करें आपकी?" शंकर लाल खुल कर पूछने में शायद झिझक रहा था इस लिए उसने मेरे यहां आने का मकसद जानने के लिए ये तरीका अपनाया।
"सेवा करने की कोई ज़रूरत नहीं है काका।" मैंने उसकी बेचैनी और चिंता को दूर करने के इरादे से कहा____"जैसा कि मैंने आपको बताया था कि मैं यहां एक ज़रूरी काम से आया हूं। असल में मैं आपसे ये जानने आया हूं कि मुरारी के भाई जगन ने कितना कर्ज़ लिया था आपसे? ख़याल रहे, मुझे बिल्कुल सच सच ही बताना क्योंकि झूठ और दोगलापन मुझे ज़रा भी पसंद नहीं है।"
"ज...जगन???" शंकर लाल के साथ साथ उसका बेटा भी ये नाम सुन कर चौका। उधर कुछ पलों तक सोचने के बाद शंकर लाल ने कहा____"अच्छा अच्छा आप उस जगन की बात कर रहे हैं लेकिन....आप उसके कर्ज़ लेने के संबंध में क्यों पूछ रहे हैं कुंवर?"
"क्योंकि आपकी मेहरबानियों के चलते जगन की पत्नी और उसके बच्चे बेघर हो चुके हैं।" मैंने इस बार सख़्त भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"अपना कर्ज़ा वसूलने के चक्कर में आपने ज़रा भी ये सोचना गवारा नहीं किया कि एक असहाय औरत बेघर होने के बाद अपने बच्चों को कहां रखेगी और उन्हें क्या खिला कर ज़िंदा रखेगी? क्या आपको लगता है कि ऐसा कर के आपने कोई महान काम किया है? अगर ये महान काम है तो फिर आपको ये भी समझ लेना चाहिए कि जो मैं करता हूं वो इससे भी ज़्यादा महान काम है। क्या आप चाहते हैं कि मैं अपनी महानता आपके ही घर पर दिखाऊं?"
मेरी बातें सुनते ही शंकर लाल सन्नाटे में आ गया। उधर उसका बेटा और पत्नी भी सन्न रह गई थी। फिर जैसे एकदम से उन्हें होश आया। कुछ दूरी पर खड़े उसके मुस्टंडे भी मेरी बातें सुन चुके थे जिसके चलते उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका हो गई थी। अतः वो पूरी तरह मुस्तैद नज़र आने लगे थे।
"य...ये आप कैसी बातें कर रहे हैं छोटे कुंवर?" शंकर लाल ने बौखलाए हुए लहजे से कहा____"आपको ज़रूर कोई ग़लतफहमी हुई है। हमने ऐसा कुछ भी नहीं किया है।"
"ख़ामोश।" मैं एक झटके में चारपाई से उठ कर गुस्से में गुर्रा उठा____"मैंने पहले ही आपको बता दिया है कि मुझे झूठ और दोगलापन ज़रा भी पसंद नहीं है। इस लिए झूठ बोलने की कोशिश मत करना वरना अच्छा नहीं होगा।"
"ये आप ठीक नहीं कर रहे हैं कुंवर।" हीरा लाल नागवारी भरे लहजे से बोला_____"आप मेरे पिता जी से ऐसे लहजे में बात नहीं कर सकते।"
"अभी तुमने मेरा लहजा ठीक से देखा ही नहीं है हीरा लाल।" मैंने सर्द लहजे में कहा____"मैं अगर अपने लहजे में आ गया तो तुम सोच भी नहीं सकते कि किस तरह का जलजला आ जाएगा तुम सबके जीवन में।"
"च...छोटे कुंवर भगवान के लिए ऐसा न कहें।" मेरी बातों से घबरा कर सहसा उसकी मां बोल पड़ी____"अगर कोई संगीन बात है तो उसे शांति से सुलझा लीजिए।"
"मैं यहां शांति से सुलझाने ही आया था काकी।" मैंने कहा____"लेकिन आपके पति महाशय को शायद शांति से बात करना पसंद नहीं है बल्कि झूठ बोलना पसंद है। इन्हें लगता है कि मुझे कुछ पता ही नहीं है।"
"मु...मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे कुंवर।" शंकर लाल सहसा हाथ जोड़ कर बोल पड़ा____"पता नहीं कैसे मेरे मुंह से झूठ निकल गया? हां, ये सच है कि मुरारी के भाई जगन ने मुझसे कर्ज़ा लिया था और एक बार नहीं बल्कि चार चार बार लिया था। मैंने भी उसकी ज़मीनों को हड़पने की नीयत से कर्ज़ा दे दिया था। दोनों भाईयों की ज़मीनें नहर के पास हैं जिसके चलते उनमें फसल अच्छी होती है। अगर ऐसा न होता तो मैं बार बार उसे कर्ज़ा नहीं देता। मैं जानता था कि जुवां खेलने वाला जगन कभी कर्ज़ा नहीं चुका सकेगा और अंत में वही होगा जो मैं चाहता था। तय समय पर जब उसने कर्ज़ा नहीं लौटाया तो मैंने जबरन उसके खेतों पर कब्ज़ा कर लिया और फिर कागज़ातों पर उसका अंगूठा लगवा लिया।"
"और जब इतने पर भी तुम्हें तसल्ली नहीं हुई तो तुमने उसके बीवी बच्चों को उनके ही घर से निकाल दिया?" मैंने सख़्त नज़रों से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"उसके बीवी बच्चों को मरने के लिए छोड़ दिया तुमने। एक बार भी तुम्हें तरस न आया कि बेसहारा हो जाने के बाद उनका क्या होगा?"
शंकर लाल ने सिर झुका लिया। उसके बेटे हीरा लाल से भी मानों कुछ कहते ना बन पड़ा था। उधर शंकर लाल की पत्नी कभी अपने पति को देखती तो कभी अपने बेटे को। उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे।
"ऐसी ज़मीन जायदाद और धन संपत्ति का क्या करोगे काका जिसे मरने के बाद अपने साथ ले कर ही नहीं जा सकोगे?" मैंने कहा____"लोगों की मज़बूरी का फ़ायदा उठा कर जो तुम पाप कर रहे हो ना असल में यही तुम्हारी कमाई है। इसी कमाई हुई दौलत को ले कर तुम ऊपर वाले के पास जाओगे और इतना तो तुम्हें भी पता है कि पाप की गठरी लिए जब इंसान ऊपर वाले के पास जाता है तो ऊपर वाला उसके साथ कैसा सुलूक करता है। ख़ैर तुम्हें तो ईश्वर ने पहले से ही इतना संपन्न बना रखा है तो फिर क्यों ऐसे कर्म करते हो? ईश्वर ने दिया है तो उससे ग़रीब इंसानों का भला करो। भला करने से ग़रीबों की दुआएं मिलेंगी, पुण्य होगा। वही दौलत ऊपर वाले के पास पहुंचने पर तुम्हारे काम आएगी।"
"आप बिल्कुल सही कह रहे हैं छोटे कुंवर।" शंकर लाल की बीवी ने अधीरता से कहा____"लेकिन इन बाप बेटों को कभी समझ नहीं आएगा। मैं तो इन्हें समझा समझा कर थक गई हूं। ये तो मुझे डरा धमका कर चुप ही करा देते हैं। अच्छा हुआ जो आज आप यहां आ गए और इनकी अकल ठिकाने लगा दी।"
"मैं ये नहीं कहता काकी कि जगन से इन्हें अपना कर्ज़ा नहीं उसूलना चाहिए था।" मैंने कहा____"वो तो इनका हक़ था क्योंकि उन्होंने उसे दिया था लेकिन जगन के गुज़र जाने के बाद उसके बीवी बच्चों को बेघर नहीं करना चाहिए था। ऐसा करना तो हद दर्जे का गुनाह होता है। हम भी ग़रीबों को कर्ज़ा देते हैं लेकिन हमने आज तक कभी किसी को नहीं सताया बल्कि हमेशा ऐसा होता है कि हम कर्ज़ा ही माफ़ कर देते हैं। मेरे पिता जी कभी किसी ग़रीब को तड़पते हुए नहीं देख सकते।"
"मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे कुंवर।" शंकर लाल ने कहा____"अब से ऐसा नहीं होगा। मुझे समझ आ गया है कि मैंने ऐसा कर के अब तक कितना अपराध किया है। मैं आज और अभी जगन का कर्ज़ा माफ़ करता हूं और उसका जो घर मैंने अपने क़ब्जे में लिया है उसे भी मुक्त करता हूं।"
"नहीं काका।" मैंने कहा____"सिर्फ घर ही नहीं बल्कि उसकी ज़मीनें भी। मुझे बताओ कितना कर्ज़ा होता है उसका?"
"अब आपसे झूठ नहीं बोलूंगा।" शंकर लाल थोड़ा झिझकते हुए बोला____"यही कोई इक्कीस हज़ार के क़रीब उसका ब्याज समेत कर्ज़ा होगा।"
"ठीक है।" मैंने अपनी जेब से रुपयों की एक गड्डी निकाली और उसमें से इक्कीस हज़ार निकाल कर शंकर लाल की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये लो इक्कीस हज़ार और इसी वक्त अपने बही खाते से जगन के नाम का खाता खारिज़ करो।"
शंकर लाल ने कांपते हाथों से रुपए लिए और फिर पलट कर बैठके की तरफ चला गया। कुछ ही देर में वो बही खाते की मोटी सी किताब ले कर मेरे पास आ गया। मेरे सामने ही उसने वो किताब खोली। पन्ने पलटते हुए वो जल्द ही जगन के खाते पर पहुंचा और फिर क़लम से उस खाते पर कई आड़ी तिरछी लकीरें खींच दी। यानि अब जगन का खाता खारिज़ हो चुका था। उसके बाद वो फिर से वापस गया और इस बार कोठरी से कागज़ात ले कर आया।
"ये लीजिए कुंवर।" फिर उसने उन कागज़ातों को मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये जगन की ज़मीनों के वो कागज़ात हैं जिनमें मैंने उसका अंगूठा लगवाया था।"
कुछ देर इधर उधर की बातों के बाद मैं अपनी जीप में आ कर बैठ गया। मेरे बैठते ही भुवन, भीमा और बलवीर भी बैठ गए। अगले ही पल जीप लंबी चौड़ी चौगान में घूमने के बाद सड़क की तरफ बढ़ती चली गई।
"मुझे आपसे ये उम्मीद बिल्कुल भी नहीं थी पिता जी कि आप उससे इतना घबरा जाएंगे।" हीरा लाल ने अपने पिता से कहा____"और इतनी आसानी से उसके सामने हथियार डाल कर वही करने लग जाएंगे जो वो चाहता था। आपने ऐसा क्यों किया पिता जी?"
"अगर मैं ऐसा न करता तो बहुत बड़ी मुसीबत हो जाती बेटे।" शंकर लाल ने कहा____"वो दादा ठाकुर का बेटा ज़रूर है लेकिन अपने पिता की तरह वो नर्म मिज़ाज का हर्गिज़ नहीं है। मैंने अक्सर सुना है कि उसके आचरण बिल्कुल बड़े दादा ठाकुर जैसे हैं। जिस लड़के पर उसके अपने पिता का कोई ज़ोर नहीं चलता उस पर किसी और का ज़ोर कैसे चल सकता है? इस लिए ऐसे ख़तरनाक लड़के से दुश्मनी मोल लेना बुद्धिमानी नहीं थी बेटा। क्या हुआ अगर जगन की ज़मीनें हमारे हाथ से निकल गईं, कर्ज़ का रुपिया तो हमें मिल ही गया है उससे। अभी जीवन बहुत शेष है मेरे बेटे और गांव में बहुत से ग़रीब अभी बाकी हैं जिनके पास ज़मीनें हैं और इतना ही नहीं जो किसी न किसी मज़बूरी के चलते हमसे कर्ज़ा लेने आएंगे ही।"
"शायद आप सही कह रहे हैं पिता जी।" हीरा लाल अपने पिता की बातों को समझ कर हौले से मुस्कुराते हुए बोला____"सच में हमें ऐसे ख़तरनाक लड़के से दुश्मनी नहीं मोल लेना चाहिए था।"
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भुवन, भीमा और बलवीर को वापस उनके यथा स्थान पर छोड़ने के बाद मैं सीधा मुरारी काका के घर पहुंचा। घर के बाहर जीप रोक कर मैं उतरा और दरवाज़े के पास आ कर अभी खड़ा ही हुआ था कि तभी दरवाज़ा खुल गया। सामने रूपा नज़र आई जो मुझे देखते ही खुश हो गई।
घर के अंदर दाख़िल हो कर मैं आंगन में आ गया। सब लोग आंगन में ही बैठे हुए थे किंतु मुझे आया देख सब खड़े हो गए। सरोज और मालती के चेहरों पर उत्सुकता के भाव थे। दोनों को बारी बारी से देखने के बाद मैं सीधा मालती के क़रीब पहुंचा।
"काकी, ये रहे तुम्हारी ज़मीनों के वो कागज़ात जिनमें साहूकार शंकर लाल ने तुम्हारे पति जगन से अंगूठा लगवाया था।" मैंने कागज़ातों को मालती की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"चाहो तो इन्हें रखे रहना या फिर जला देना और हां, अब तुम अपने बच्चों के साथ अपने घर में भी रह सकती हो। अब वो लोग तुम्हें कभी परेशान नहीं करेंगे।"
मालती ने ये सुना तो उसकी आंखें छलक पड़ीं। एकाएक वो मेरे पैरों में गिर पड़ी और फिर रोते हुए बोली____"तुम धन्य हो छोटे कुंवर। तुमने इतना कुछ हो जाने के बाद भी मेरा और मेरे बच्चों का भला किया। मैं जीवन भर तुम्हारे पांव धो कर भी पीती रहूं तब भी तुम्हारा ये एहसान नहीं चुका सकूंगी।"
"अरे! ये क्या कर रही हो काकी?" मैं उससे दूर हटते हुए बोला____"तुम्हें ये सब करने और कहने की ज़रूरत नहीं है। अपने घर में अपने बच्चों के साथ बेफ़िक्र हो कर रहो। अब तुम्हारे ऊपर किसी का कोई कर्ज़ा नहीं है इस लिए अपने खेतों पर आराम से फसल उगा कर जीवन यापन करो।"
कहने के साथ ही मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले और उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये कुछ पैसे भी रख लो। इससे अपनी थोड़ी बहुत ज़रूरतें पूरी कर लेना।"
मालती ने कांपते हाथों से पैसे ले लिए। उसकी आंखों में आंसू थे लेकिन खुशी के। वो मुझे इस तरह देखे जा रही थी जैसे मैं कोई फ़रिश्ता था जिसने एक ही पल में उसकी सारी समस्याओं का अंत कर दिया था। ख़ैर मैंने रूपा को चलने का इशारा किया और पलट कर दरवाज़े की तरफ बढ़ा ही था पीछे से सरोज काकी की आवाज़ सुन कर ठिठक गया।
"मुझे माफ़ कर दो वैभव।" फिर वो मेरे सामने आ कर बोली____"पिछले कुछ समय से तुम्हारे प्रति मेरा बर्ताव अच्छा नहीं था। मैंने तुम्हारे बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था और बोल भी दिया था। मेरे मन में जाने कैसे ये बात बैठ गई थी कि तुम मनहूस हो और इसी लिए मेरी बेटी आज इस दुनिया में नहीं है। मैं भूल गई थी कि इंसान का जीना मरना तो ऊपर वाले की मर्ज़ी से होता है। मुझ अभागन को माफ़ कर दो बेटा।"
"तुम्हें माफ़ी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है काकी।" मैंने कहा____"तुमने मेरे बारे में अगर ऐसा सोच लिया था तो ग़लत नहीं सोच लिया था। तुम्हारी जगह कोई भी होता तो शायद ऐसा ही सोचता। ख़ैर, ये मत समझना कि अनुराधा के ना रहने से तुमसे या तुम्हारे घर से मेरा कोई रिश्ता नहीं रहा, बल्कि ये रिश्ता तो हमेशा बना रहेगा। जब तक तुम्हारा बेटा बड़ा हो कर तुम्हारी ज़िम्मेदारी उठाने के लायक नहीं हो जाता तब तक तुम दोनों की ज़िम्मेदारी मेरी ही रहेगी। चलता हूं अब।"
कहने के साथ ही मैं दरवाज़े के बाहर निकल गया। मेरे पीछे पीछे रूपा भी आ गई थी। थोड़ी ही देर में हम दोनों जीप में बैठे अपने मकान की तरफ बढ़े चले जा रहे थे।
"मालती काकी के इस काम में तुम्हें कोई समस्या तो नहीं हुई ना?" रास्ते में रूपा ने मुझसे पूछा____"सब कुछ बिना किसी वाद विवाद के ही हो गया था न?"
"हां।" मैंने कहा____"उनकी इतनी औकात नहीं थी कि वो मुझे खाली हाथ वापस लौटा देते।"
"मुझे तो बड़ी घबराहट हो रही थी कि जाने वहां क्या होगा?" रूपा ने गंभीर हो कर कहा____"जल्बाज़ी में मैं ये भी भूल गई थी कि मुझे इस तरह तुम्हें ख़तरे में नहीं डालना चाहिए था। आख़िर किसी सफ़ेदपोश का ख़तरा तो है ही तुम्हें जो न जाने कब से तुम्हारी जान का दुश्मन बना बैठा है।"
"फ़िक्र मत करो।" मैंने कहा____"सफ़ेदपोश ऐसी चीज़ नहीं है जो सच्चे मर्द की तरह दिन के उजाले में सामने से आ कर मेरा सामना करे।"
"जो भी हो लेकिन हमें बिना सोचे समझे ऐसा क़दम नहीं उठाना चाहिए था।" रूपा ने सहसा भारी गले से कहा____"अगर आज तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा हो जाता तो मैं जीते जी मर जाती।"
"अरे! ऐसा कुछ नहीं होता?" मैंने कहा____"तुम बेकार में ये सब मत सोचो।"
"नहीं, आज के बाद मैं कभी तुम्हें इस तरह के कामों को करने को नहीं कहूंगी।" रूपा ने नम आंखों से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"सारी दुनिया का दुख दूर करने का ठेका नहीं लिया है तुमने। जिसके साथ जो होना है होता रहे, सबको अपने भाग्य के अनुसार ही सुख दुख मिलता है। उसके लिए तुम्हें अपनी जान को मुसीबत में डालने की कोई ज़रूरत नहीं है।"
मैंने इस बार कुछ न कहा। थोड़ी ही देर में जीप मकान के बाहर पहुंच गई। हम दोनों अपनी अपनी तरफ से नीचे उतरे। एकाएक ही मेरी घूमती हुई नज़र एक जगह जा कर ठहर गई।
मकान की चौकीदारी करने वाले दोनों मज़दूर मकान के बाहर खाली मैदान में लकड़ी की चार मोटी मोटी बल्लियां गाड़ रहे थे। मैंने आवाज़ लगा कर पूछा कि वो क्या कर रहे हैं तो दोनों ने जवाब दिया कि वो घोंपा बना रहे हैं ताकि उसमें बैठ कर आस पास नज़र रख सकें। इसी तरह का एक घोंपा मकान के पिछले भाग में भी बना दिया था दोनों ने। मैं ये सोचने पर मजबूर हो गया कि मेरी और मकान की सुरक्षा के लिए वो दोनों क्या क्या सोचते रहते हैं। दोनों की ईमानदारी पर मुझे बड़ा ही फक्र हुआ।
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मैं अपने खेतों पर पहुंचा तो भुवन वहीं था। मैंने उसे जीप में बैठाया और वहां से चल पड़ा। रास्ते में मैंने उसे बताया कि हमें कहां और किस काम के लिए जाना है। भुवन ने साथ में भीमा और बलवीर को भी ले चलने की सलाह दी जो मुझे भी उचित लगी। असल में मुझे अंदेशा था कि ये मामला आसानी से निपट जाने वाला नहीं है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों भीमा और बलवीर के घर पहुंचे। वहां से दोनों को जीप में बैठा कर मैं निकल पड़ा।
अब आगे....
सबसे पहले हम मुरारी काका के गांव पहुंचे। मुझे इतने समय बाद आया देख गांव वाले थोड़ा हैरान हुए। मैंने एक बरगद के पेड़ के पास जीप को रोका। पेड़ के चारो तरफ चबूतरा बना हुआ था जिसमें कुछ लोग बैठे हुए थे। हमें देखते ही वो सब चबूतरे से उतर कर ज़मीन में खड़े हो गए और फिर सलाम करने लगे। मैंने भुवन को समझा दिया था कि क्या करना है इस लिए उसने भीमा और बलवीर को इशारा किया। वो दोनों अलग अलग दिशा में चले गए जबकि भुवन उन लोगों से बात करने लगा।
बात करने का तात्पर्य ये पता करना था कि मालती का पति जगन कैसा था और किन लोगों के साथ जुवां खेलता था? जुएं खेलने के लिए उसके पास पैसा किस तरीके से आता था और साथ ही जिन लोगों से उसने कर्ज़ा लिया था वो उससे अपना रुपिया वसूलने के लिए क्या करते थे?
क़रीब बीस मिनट बाद भीमा और बलवीर वापस आए। उन लोगों का काम भी यही था कि वो गांव के अलग अलग लोगों से इस बारे में पूछताछ करें। उन दोनों ने आ कर मुझे वही सब बताया जो भुवन के द्वारा इन लोगों से पता चला था। ये अलग बात है कि अलग अलग लोगों के बताने का तरीका थोड़ा अलग था किंतु मतलब एक ही था।
सारी बातों को समझने के बाद मैंने सबको जीप में बैठने को कहा और फिर चल पड़े हम। मुरारी के गांव से क़रीब डेढ़ दो किलो मीटर पर ही एक दूसरा गांव हिम्मतपुर था। जल्दी ही मेरी जीप हिम्मतपुर में दाख़िल हो गई और उस मकान के सामने रुकी जहां से जगन ने कर्ज़ा लिया था।
हिम्मतपुर गांव ज़्यादा बड़ा नहीं था। आबादी भी ज़्यादा नहीं थी। क़रीब पचास साठ घर थे गांव में। गांव का सबसे संपन्न आदमी था शंकर लाल श्रीवास्तव। गांव में सबसे ज़्यादा उसी के पास ज़मीनें थीं जिनसे उसे खूब पैदावार होती थी। गांव के लोगों को वो उधारी में अनाज देता था और फिर उसके नियम के अनुसार ग़रीब आदमी अपनी ज़मीन से अनाज उगा कर उसका उधार तो चुकाता ही था किंतु ब्याज के साथ। इसके अलावा उसका मुख्य पेशा लोगों को ब्याज में पैसा देना भी था। लोग मज़बूरी में कर्ज़ लेते थे लेकिन कर्ज़ा चुकाना उनके बस से बाहर हो जाता था। ऐसा इस लिए भी कि ग़रीब आदमी अपनी खुद की ज़रूरतें ही ढंग से पूरी नहीं कर पाता था तो कर्ज़ा कैसे चुकाता? इस चक्कर में ब्याज बढ़ता जाता। ब्याज को चुकाते चुकाते इंसान का कचूमर निकल जाता था। जब समय थोड़ा लम्बा हो जाता था तो शंकर लाल नया नियम लागू कर देता। नए नियम में कर्ज़ चुकाने का समय नियुक्त कर देता था और जब ग़रीब आदमी तय समय पर कर्ज़ा न दे पाता तो वो उनकी पहले से ही गिरवी रखी ज़मीन को अपने कब्जे में कर लेता था। ग़रीब आदमी रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकता था। शंकर लाल ने लोगों को डराने धमकाने के लिए बकायदा मुस्टंडे पाल रखे थे।
शंकर लाल के दो बेटे और दो बेटियां थी। दोनों बेटों की शादी हो चुकी थी और दो बेटियों में से एक अभी अविवाहित थी। उसके दोनों बेटे यानि हीरा लाल और मणि लाल अपने बाप के नक्शे क़दम पर ही चल रहे थे।
मकान के सामने एक लंबा चौड़ा मैदान था। उसके बाद पुराने समय का बड़ा सा मकान बना हुआ था जिसकी सामने वाली दीवार पर सिर्फ लकड़ी के मोटे मोटे खम्भे थे जिनमें नक्काशी की हुई थी। उन खंभों के एक तरफ बड़ी सी चौपार थी जिनमें क़रीब पांच मजबूत पलंग बिछे हुए थे जबकि दूसरी तरफ उसका बैठका था। उस बैठके में उसका आसन बना हुआ था जहां पर बैठ कर वो उन लोगों से मिलता था जो लोग उसके पास कर्ज़ लेने आते थे। बैठके से सटी ही एक दीवार थी जिसमें लोहे की मजबूत अलमारी लगभग आधी धंसी हुई थी। उसी अलमारी में उसके बही खातों की जाने कितनी ही मोटी मोटी किताबें रखी हुई थी। उस अलमारी से क़रीब तीन फिट की दूरी पर एक दरवाज़ा था जो एक ऐसे कमरे का था जिसमें उसकी पूंजी रखी हुई होती थी। दरवाज़ा हमेशा एक मजबूत ताले के साथ बंद रहता था जिसकी चाभी सिर्फ उसके पास ही होती थी।
जीप जब मकान के सामने मैदान में पहुंच कर रुकी तो वहां मौजूद उसके मुस्टंडे एकदम से तन कर खड़े हो गए। बैठके में शंकर लाल बैठा हुआ था और उसके पास दो तीन लोग भी थे जो शकल से ही उससे कर्ज़ लेने आए लोग लग रहे थे। शंकर लाल के बगल से उसका बड़ा बेटा हीरा लाल बैठा हुआ था। जीप को देख सबकी नज़रें हमारी तरफ ही केंद्रित हो गईं थी।
शंकर लाल और उसका बेटा उस वक्त चौंके जब उन्होंने जीप से मुझे उतरते देखा। दोनों बाप बेटे एकदम से हड़बड़ा से गए। शंकर लाल ने अपने बेटे को कोई इशारा किया और फिर उठ कर मेरी तरफ लपका। उसका बेटा भी उठ कर मेरी तरफ आने लगा था।
"अरे! छोटे कुंवर आप यहां?" शंकर लाल चेहरे पर खुशी के भाव लाते हुए और ज़ुबान को मीठा बनाते हुए बोला____"धन्य भाग हमारे जो आप खुद चल कर मेरी छोटी सी कुटिया में पधारे। आइए आइए, अंदर आइए।"
"मेरे पास अंदर बैठने का वक्त नहीं है शंकर काका।" मैंने सपाट और स्पष्ट भाव से कहा____"मैं यहां एक ज़रूरी काम से आया हूं और उम्मीद करता हूं कि आप मुझे ज़रा भी निराश नहीं करेंगे।"
"अरे! हुकुम कीजिए छोटे कुंवर।" शंकर लाल फ़ौरन ही अपने दांत निपोरते हुए बोल पड़ा____"मुझे बताइए कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?" कहने के साथ ही वो अपने मुस्टंडों से मुखातिब हुआ____"अरे! बेवकूफों खड़े क्या हो। जाओ चारपाई ले कर आओ छोटे कुंवर के बैठने के लिए और हीरा बेटा तू ज़रा इनके जल पान की फ़ौरन व्यवस्था कर। बड़े लोग हैं ये....बार बार हमारे घर को पवित्र करने नहीं आएंगे।"
शंकर लाल की बात सुनते ही उसका एक मुस्टंडा फ़ौरन ही चारपाई ले आया और चौगान में रख कर उस पर एक गद्दा बिछा दिया। उधर उसका बेटा हीरा भी अंदर की तरफ दौड़ गया था। शंकर लाल ने हाथ जोड़ कर मुझे चारपाई पर बैठने को कहा तो मैं बैठ गया। जबकि भुवन, भीमा और बलवीर मेरे समीप ही बगल से खड़े हो गए।
"और बताइए छोटे कुंवर दादा ठाकुर कैसे हैं?" शंकर लाल ने अपने स्वर को मधुर बनाते हुए पूछा____"काफी समय हो गया उनके दर्शन नहीं हुए। वैसे कुछ समय पहले ख़बर मिली थी आपके साथ हुई दुखद घटना के बारे में।"
"सब किस्मत की बातें हैं काका।" मैंने कहा____"जिसकी किस्मत में जो होना लिखा होता है वो तो होता ही है। आख़िर किसी का अपनी किस्मत पर और ऊपर वाले पर कहां कोई ज़ोर चलता है।"
"हां ये तो सही कहा आपने।" शंकर लाल ने सहसा बेचैन हो कर कहा____"अब क्या कह सकते हैं किंतु जो भी हुआ बहुत बुरा हुआ। अच्छा अगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं आपसे ये पूछने की गुस्ताख़ी कर सकता हूं कि आप यहां मुझ जैसे अदने से व्यक्ति के घर किस उद्देश्य से पधारे हैं?"
शंकर लाल ने ये कहा ही था कि उसका बेटा हीरा आ गया। उसके पीछे एक औरत भी थी। मैंने अंदाज़ा लगाया शायद वो औरत उसकी मां थी। उसने आते ही मुझे सलाम किया। मेरी उम्र से बड़े लोग जब मुझे यूं सलाम करते थे तो मुझे बड़ा अजीब लगता था किंतु क्या कर सकता था। रुद्रपुर के ठाकुरों का इतिहास ही ऐसा रहा है कि लोग झुक कर सलाम किए बिना नहीं रहते थे। ख़ैर हीरा ने बड़े आदर भाव से मुझे जल पान कराया और फिर मेरे साथ आए मेरे लोगों को भी।
मैंने देखा शंकर लाल के चेहरे पर बेचैनी के साथ साथ अब थोड़े चिंता के भाव भी उभर आए थे। शायद वो ये सोच कर चिंता में पड़ गया रहा होगा कि मेरे जैसे चरित्र का लड़का उसके गांव में उसके ही घर आख़िर किस मकसद से आया है? कहीं मेरी नज़र उसकी छोटी बेटी सुषमा पर तो नहीं पड़ गई है? अगर वो वाकई में यही सोच के चिंतित हो उठा रहा होगा तो इसमें उसका कोई दोष नहीं था। मेरे बारे में सब जानते थे इस लिए उनका ऐसा सोच लेना कोई बड़ी बात नहीं थी।
"कहिए छोटे कुंवर और क्या सेवा करें आपकी?" शंकर लाल खुल कर पूछने में शायद झिझक रहा था इस लिए उसने मेरे यहां आने का मकसद जानने के लिए ये तरीका अपनाया।
"सेवा करने की कोई ज़रूरत नहीं है काका।" मैंने उसकी बेचैनी और चिंता को दूर करने के इरादे से कहा____"जैसा कि मैंने आपको बताया था कि मैं यहां एक ज़रूरी काम से आया हूं। असल में मैं आपसे ये जानने आया हूं कि मुरारी के भाई जगन ने कितना कर्ज़ लिया था आपसे? ख़याल रहे, मुझे बिल्कुल सच सच ही बताना क्योंकि झूठ और दोगलापन मुझे ज़रा भी पसंद नहीं है।"
"ज...जगन???" शंकर लाल के साथ साथ उसका बेटा भी ये नाम सुन कर चौका। उधर कुछ पलों तक सोचने के बाद शंकर लाल ने कहा____"अच्छा अच्छा आप उस जगन की बात कर रहे हैं लेकिन....आप उसके कर्ज़ लेने के संबंध में क्यों पूछ रहे हैं कुंवर?"
"क्योंकि आपकी मेहरबानियों के चलते जगन की पत्नी और उसके बच्चे बेघर हो चुके हैं।" मैंने इस बार सख़्त भाव से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"अपना कर्ज़ा वसूलने के चक्कर में आपने ज़रा भी ये सोचना गवारा नहीं किया कि एक असहाय औरत बेघर होने के बाद अपने बच्चों को कहां रखेगी और उन्हें क्या खिला कर ज़िंदा रखेगी? क्या आपको लगता है कि ऐसा कर के आपने कोई महान काम किया है? अगर ये महान काम है तो फिर आपको ये भी समझ लेना चाहिए कि जो मैं करता हूं वो इससे भी ज़्यादा महान काम है। क्या आप चाहते हैं कि मैं अपनी महानता आपके ही घर पर दिखाऊं?"
मेरी बातें सुनते ही शंकर लाल सन्नाटे में आ गया। उधर उसका बेटा और पत्नी भी सन्न रह गई थी। फिर जैसे एकदम से उन्हें होश आया। कुछ दूरी पर खड़े उसके मुस्टंडे भी मेरी बातें सुन चुके थे जिसके चलते उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका हो गई थी। अतः वो पूरी तरह मुस्तैद नज़र आने लगे थे।
"य...ये आप कैसी बातें कर रहे हैं छोटे कुंवर?" शंकर लाल ने बौखलाए हुए लहजे से कहा____"आपको ज़रूर कोई ग़लतफहमी हुई है। हमने ऐसा कुछ भी नहीं किया है।"
"ख़ामोश।" मैं एक झटके में चारपाई से उठ कर गुस्से में गुर्रा उठा____"मैंने पहले ही आपको बता दिया है कि मुझे झूठ और दोगलापन ज़रा भी पसंद नहीं है। इस लिए झूठ बोलने की कोशिश मत करना वरना अच्छा नहीं होगा।"
"ये आप ठीक नहीं कर रहे हैं कुंवर।" हीरा लाल नागवारी भरे लहजे से बोला_____"आप मेरे पिता जी से ऐसे लहजे में बात नहीं कर सकते।"
"अभी तुमने मेरा लहजा ठीक से देखा ही नहीं है हीरा लाल।" मैंने सर्द लहजे में कहा____"मैं अगर अपने लहजे में आ गया तो तुम सोच भी नहीं सकते कि किस तरह का जलजला आ जाएगा तुम सबके जीवन में।"
"च...छोटे कुंवर भगवान के लिए ऐसा न कहें।" मेरी बातों से घबरा कर सहसा उसकी मां बोल पड़ी____"अगर कोई संगीन बात है तो उसे शांति से सुलझा लीजिए।"
"मैं यहां शांति से सुलझाने ही आया था काकी।" मैंने कहा____"लेकिन आपके पति महाशय को शायद शांति से बात करना पसंद नहीं है बल्कि झूठ बोलना पसंद है। इन्हें लगता है कि मुझे कुछ पता ही नहीं है।"
"मु...मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे कुंवर।" शंकर लाल सहसा हाथ जोड़ कर बोल पड़ा____"पता नहीं कैसे मेरे मुंह से झूठ निकल गया? हां, ये सच है कि मुरारी के भाई जगन ने मुझसे कर्ज़ा लिया था और एक बार नहीं बल्कि चार चार बार लिया था। मैंने भी उसकी ज़मीनों को हड़पने की नीयत से कर्ज़ा दे दिया था। दोनों भाईयों की ज़मीनें नहर के पास हैं जिसके चलते उनमें फसल अच्छी होती है। अगर ऐसा न होता तो मैं बार बार उसे कर्ज़ा नहीं देता। मैं जानता था कि जुवां खेलने वाला जगन कभी कर्ज़ा नहीं चुका सकेगा और अंत में वही होगा जो मैं चाहता था। तय समय पर जब उसने कर्ज़ा नहीं लौटाया तो मैंने जबरन उसके खेतों पर कब्ज़ा कर लिया और फिर कागज़ातों पर उसका अंगूठा लगवा लिया।"
"और जब इतने पर भी तुम्हें तसल्ली नहीं हुई तो तुमने उसके बीवी बच्चों को उनके ही घर से निकाल दिया?" मैंने सख़्त नज़रों से उसकी तरफ देखते हुए कहा____"उसके बीवी बच्चों को मरने के लिए छोड़ दिया तुमने। एक बार भी तुम्हें तरस न आया कि बेसहारा हो जाने के बाद उनका क्या होगा?"
शंकर लाल ने सिर झुका लिया। उसके बेटे हीरा लाल से भी मानों कुछ कहते ना बन पड़ा था। उधर शंकर लाल की पत्नी कभी अपने पति को देखती तो कभी अपने बेटे को। उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव थे।
"ऐसी ज़मीन जायदाद और धन संपत्ति का क्या करोगे काका जिसे मरने के बाद अपने साथ ले कर ही नहीं जा सकोगे?" मैंने कहा____"लोगों की मज़बूरी का फ़ायदा उठा कर जो तुम पाप कर रहे हो ना असल में यही तुम्हारी कमाई है। इसी कमाई हुई दौलत को ले कर तुम ऊपर वाले के पास जाओगे और इतना तो तुम्हें भी पता है कि पाप की गठरी लिए जब इंसान ऊपर वाले के पास जाता है तो ऊपर वाला उसके साथ कैसा सुलूक करता है। ख़ैर तुम्हें तो ईश्वर ने पहले से ही इतना संपन्न बना रखा है तो फिर क्यों ऐसे कर्म करते हो? ईश्वर ने दिया है तो उससे ग़रीब इंसानों का भला करो। भला करने से ग़रीबों की दुआएं मिलेंगी, पुण्य होगा। वही दौलत ऊपर वाले के पास पहुंचने पर तुम्हारे काम आएगी।"
"आप बिल्कुल सही कह रहे हैं छोटे कुंवर।" शंकर लाल की बीवी ने अधीरता से कहा____"लेकिन इन बाप बेटों को कभी समझ नहीं आएगा। मैं तो इन्हें समझा समझा कर थक गई हूं। ये तो मुझे डरा धमका कर चुप ही करा देते हैं। अच्छा हुआ जो आज आप यहां आ गए और इनकी अकल ठिकाने लगा दी।"
"मैं ये नहीं कहता काकी कि जगन से इन्हें अपना कर्ज़ा नहीं उसूलना चाहिए था।" मैंने कहा____"वो तो इनका हक़ था क्योंकि उन्होंने उसे दिया था लेकिन जगन के गुज़र जाने के बाद उसके बीवी बच्चों को बेघर नहीं करना चाहिए था। ऐसा करना तो हद दर्जे का गुनाह होता है। हम भी ग़रीबों को कर्ज़ा देते हैं लेकिन हमने आज तक कभी किसी को नहीं सताया बल्कि हमेशा ऐसा होता है कि हम कर्ज़ा ही माफ़ कर देते हैं। मेरे पिता जी कभी किसी ग़रीब को तड़पते हुए नहीं देख सकते।"
"मुझे माफ़ कर दीजिए छोटे कुंवर।" शंकर लाल ने कहा____"अब से ऐसा नहीं होगा। मुझे समझ आ गया है कि मैंने ऐसा कर के अब तक कितना अपराध किया है। मैं आज और अभी जगन का कर्ज़ा माफ़ करता हूं और उसका जो घर मैंने अपने क़ब्जे में लिया है उसे भी मुक्त करता हूं।"
"नहीं काका।" मैंने कहा____"सिर्फ घर ही नहीं बल्कि उसकी ज़मीनें भी। मुझे बताओ कितना कर्ज़ा होता है उसका?"
"अब आपसे झूठ नहीं बोलूंगा।" शंकर लाल थोड़ा झिझकते हुए बोला____"यही कोई इक्कीस हज़ार के क़रीब उसका ब्याज समेत कर्ज़ा होगा।"
"ठीक है।" मैंने अपनी जेब से रुपयों की एक गड्डी निकाली और उसमें से इक्कीस हज़ार निकाल कर शंकर लाल की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये लो इक्कीस हज़ार और इसी वक्त अपने बही खाते से जगन के नाम का खाता खारिज़ करो।"
शंकर लाल ने कांपते हाथों से रुपए लिए और फिर पलट कर बैठके की तरफ चला गया। कुछ ही देर में वो बही खाते की मोटी सी किताब ले कर मेरे पास आ गया। मेरे सामने ही उसने वो किताब खोली। पन्ने पलटते हुए वो जल्द ही जगन के खाते पर पहुंचा और फिर क़लम से उस खाते पर कई आड़ी तिरछी लकीरें खींच दी। यानि अब जगन का खाता खारिज़ हो चुका था। उसके बाद वो फिर से वापस गया और इस बार कोठरी से कागज़ात ले कर आया।
"ये लीजिए कुंवर।" फिर उसने उन कागज़ातों को मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये जगन की ज़मीनों के वो कागज़ात हैं जिनमें मैंने उसका अंगूठा लगवाया था।"
कुछ देर इधर उधर की बातों के बाद मैं अपनी जीप में आ कर बैठ गया। मेरे बैठते ही भुवन, भीमा और बलवीर भी बैठ गए। अगले ही पल जीप लंबी चौड़ी चौगान में घूमने के बाद सड़क की तरफ बढ़ती चली गई।
"मुझे आपसे ये उम्मीद बिल्कुल भी नहीं थी पिता जी कि आप उससे इतना घबरा जाएंगे।" हीरा लाल ने अपने पिता से कहा____"और इतनी आसानी से उसके सामने हथियार डाल कर वही करने लग जाएंगे जो वो चाहता था। आपने ऐसा क्यों किया पिता जी?"
"अगर मैं ऐसा न करता तो बहुत बड़ी मुसीबत हो जाती बेटे।" शंकर लाल ने कहा____"वो दादा ठाकुर का बेटा ज़रूर है लेकिन अपने पिता की तरह वो नर्म मिज़ाज का हर्गिज़ नहीं है। मैंने अक्सर सुना है कि उसके आचरण बिल्कुल बड़े दादा ठाकुर जैसे हैं। जिस लड़के पर उसके अपने पिता का कोई ज़ोर नहीं चलता उस पर किसी और का ज़ोर कैसे चल सकता है? इस लिए ऐसे ख़तरनाक लड़के से दुश्मनी मोल लेना बुद्धिमानी नहीं थी बेटा। क्या हुआ अगर जगन की ज़मीनें हमारे हाथ से निकल गईं, कर्ज़ का रुपिया तो हमें मिल ही गया है उससे। अभी जीवन बहुत शेष है मेरे बेटे और गांव में बहुत से ग़रीब अभी बाकी हैं जिनके पास ज़मीनें हैं और इतना ही नहीं जो किसी न किसी मज़बूरी के चलते हमसे कर्ज़ा लेने आएंगे ही।"
"शायद आप सही कह रहे हैं पिता जी।" हीरा लाल अपने पिता की बातों को समझ कर हौले से मुस्कुराते हुए बोला____"सच में हमें ऐसे ख़तरनाक लड़के से दुश्मनी नहीं मोल लेना चाहिए था।"
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भुवन, भीमा और बलवीर को वापस उनके यथा स्थान पर छोड़ने के बाद मैं सीधा मुरारी काका के घर पहुंचा। घर के बाहर जीप रोक कर मैं उतरा और दरवाज़े के पास आ कर अभी खड़ा ही हुआ था कि तभी दरवाज़ा खुल गया। सामने रूपा नज़र आई जो मुझे देखते ही खुश हो गई।
घर के अंदर दाख़िल हो कर मैं आंगन में आ गया। सब लोग आंगन में ही बैठे हुए थे किंतु मुझे आया देख सब खड़े हो गए। सरोज और मालती के चेहरों पर उत्सुकता के भाव थे। दोनों को बारी बारी से देखने के बाद मैं सीधा मालती के क़रीब पहुंचा।
"काकी, ये रहे तुम्हारी ज़मीनों के वो कागज़ात जिनमें साहूकार शंकर लाल ने तुम्हारे पति जगन से अंगूठा लगवाया था।" मैंने कागज़ातों को मालती की तरफ बढ़ाते हुए कहा____"चाहो तो इन्हें रखे रहना या फिर जला देना और हां, अब तुम अपने बच्चों के साथ अपने घर में भी रह सकती हो। अब वो लोग तुम्हें कभी परेशान नहीं करेंगे।"
मालती ने ये सुना तो उसकी आंखें छलक पड़ीं। एकाएक वो मेरे पैरों में गिर पड़ी और फिर रोते हुए बोली____"तुम धन्य हो छोटे कुंवर। तुमने इतना कुछ हो जाने के बाद भी मेरा और मेरे बच्चों का भला किया। मैं जीवन भर तुम्हारे पांव धो कर भी पीती रहूं तब भी तुम्हारा ये एहसान नहीं चुका सकूंगी।"
"अरे! ये क्या कर रही हो काकी?" मैं उससे दूर हटते हुए बोला____"तुम्हें ये सब करने और कहने की ज़रूरत नहीं है। अपने घर में अपने बच्चों के साथ बेफ़िक्र हो कर रहो। अब तुम्हारे ऊपर किसी का कोई कर्ज़ा नहीं है इस लिए अपने खेतों पर आराम से फसल उगा कर जीवन यापन करो।"
कहने के साथ ही मैंने अपनी जेब से कुछ पैसे निकाले और उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा____"ये कुछ पैसे भी रख लो। इससे अपनी थोड़ी बहुत ज़रूरतें पूरी कर लेना।"
मालती ने कांपते हाथों से पैसे ले लिए। उसकी आंखों में आंसू थे लेकिन खुशी के। वो मुझे इस तरह देखे जा रही थी जैसे मैं कोई फ़रिश्ता था जिसने एक ही पल में उसकी सारी समस्याओं का अंत कर दिया था। ख़ैर मैंने रूपा को चलने का इशारा किया और पलट कर दरवाज़े की तरफ बढ़ा ही था पीछे से सरोज काकी की आवाज़ सुन कर ठिठक गया।
"मुझे माफ़ कर दो वैभव।" फिर वो मेरे सामने आ कर बोली____"पिछले कुछ समय से तुम्हारे प्रति मेरा बर्ताव अच्छा नहीं था। मैंने तुम्हारे बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था और बोल भी दिया था। मेरे मन में जाने कैसे ये बात बैठ गई थी कि तुम मनहूस हो और इसी लिए मेरी बेटी आज इस दुनिया में नहीं है। मैं भूल गई थी कि इंसान का जीना मरना तो ऊपर वाले की मर्ज़ी से होता है। मुझ अभागन को माफ़ कर दो बेटा।"
"तुम्हें माफ़ी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है काकी।" मैंने कहा____"तुमने मेरे बारे में अगर ऐसा सोच लिया था तो ग़लत नहीं सोच लिया था। तुम्हारी जगह कोई भी होता तो शायद ऐसा ही सोचता। ख़ैर, ये मत समझना कि अनुराधा के ना रहने से तुमसे या तुम्हारे घर से मेरा कोई रिश्ता नहीं रहा, बल्कि ये रिश्ता तो हमेशा बना रहेगा। जब तक तुम्हारा बेटा बड़ा हो कर तुम्हारी ज़िम्मेदारी उठाने के लायक नहीं हो जाता तब तक तुम दोनों की ज़िम्मेदारी मेरी ही रहेगी। चलता हूं अब।"
कहने के साथ ही मैं दरवाज़े के बाहर निकल गया। मेरे पीछे पीछे रूपा भी आ गई थी। थोड़ी ही देर में हम दोनों जीप में बैठे अपने मकान की तरफ बढ़े चले जा रहे थे।
"मालती काकी के इस काम में तुम्हें कोई समस्या तो नहीं हुई ना?" रास्ते में रूपा ने मुझसे पूछा____"सब कुछ बिना किसी वाद विवाद के ही हो गया था न?"
"हां।" मैंने कहा____"उनकी इतनी औकात नहीं थी कि वो मुझे खाली हाथ वापस लौटा देते।"
"मुझे तो बड़ी घबराहट हो रही थी कि जाने वहां क्या होगा?" रूपा ने गंभीर हो कर कहा____"जल्बाज़ी में मैं ये भी भूल गई थी कि मुझे इस तरह तुम्हें ख़तरे में नहीं डालना चाहिए था। आख़िर किसी सफ़ेदपोश का ख़तरा तो है ही तुम्हें जो न जाने कब से तुम्हारी जान का दुश्मन बना बैठा है।"
"फ़िक्र मत करो।" मैंने कहा____"सफ़ेदपोश ऐसी चीज़ नहीं है जो सच्चे मर्द की तरह दिन के उजाले में सामने से आ कर मेरा सामना करे।"
"जो भी हो लेकिन हमें बिना सोचे समझे ऐसा क़दम नहीं उठाना चाहिए था।" रूपा ने सहसा भारी गले से कहा____"अगर आज तुम्हारे साथ कुछ उल्टा सीधा हो जाता तो मैं जीते जी मर जाती।"
"अरे! ऐसा कुछ नहीं होता?" मैंने कहा____"तुम बेकार में ये सब मत सोचो।"
"नहीं, आज के बाद मैं कभी तुम्हें इस तरह के कामों को करने को नहीं कहूंगी।" रूपा ने नम आंखों से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"सारी दुनिया का दुख दूर करने का ठेका नहीं लिया है तुमने। जिसके साथ जो होना है होता रहे, सबको अपने भाग्य के अनुसार ही सुख दुख मिलता है। उसके लिए तुम्हें अपनी जान को मुसीबत में डालने की कोई ज़रूरत नहीं है।"
मैंने इस बार कुछ न कहा। थोड़ी ही देर में जीप मकान के बाहर पहुंच गई। हम दोनों अपनी अपनी तरफ से नीचे उतरे। एकाएक ही मेरी घूमती हुई नज़र एक जगह जा कर ठहर गई।
मकान की चौकीदारी करने वाले दोनों मज़दूर मकान के बाहर खाली मैदान में लकड़ी की चार मोटी मोटी बल्लियां गाड़ रहे थे। मैंने आवाज़ लगा कर पूछा कि वो क्या कर रहे हैं तो दोनों ने जवाब दिया कि वो घोंपा बना रहे हैं ताकि उसमें बैठ कर आस पास नज़र रख सकें। इसी तरह का एक घोंपा मकान के पिछले भाग में भी बना दिया था दोनों ने। मैं ये सोचने पर मजबूर हो गया कि मेरी और मकान की सुरक्षा के लिए वो दोनों क्या क्या सोचते रहते हैं। दोनों की ईमानदारी पर मुझे बड़ा ही फक्र हुआ।