☆ प्यार का सबूत ☆
अध्याय - 09
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अब तक,,,,,
"प्रणाम छोटे ठाकुर।" बग्घी मेरे पास आई तो बग्घी चला रहे उस आदमी ने मुझसे बड़े अदब से कहा____"ठाकुर साहब ने आपको लाने के लिए मुझे भेजा है।"
"इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी काका।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"ईश्वर ने मुझे दो पैर दिए हैं जो कि अभी सही सलामत हैं। इस लिए मैं पैदल ही घर आ जाता।"
"ऐसा कैसे हो सकता है छोटे ठाकुर?" उस आदमी ने कहा_____"ख़ैर छोड़िये, लाइए ये थैला मुझे दीजिए।"
बग्घी से उतर कर वो आदमी मेरे पास आया और थैला लेने के लिए मेरी तरफ अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने उसे ख़ामोशी से थैला दे दिया जिसे ले कर वो एक तरफ हट गया। मैं जब बग्घी में बैठ गया तो वो आदमी भी आगे बैठ गया और फिर उसने घोड़ों की लगाम को हरकत दी तो घोड़े आवाज़ करते हुए चल दिए।
अब आगे,,,,,
सारे रास्ते मेरे ज़हन में कई तरह के ख़याल आते जाते रहे। कभी मैं ये सोचता कि मुरारी काका के हत्यारे का पता कैसे लगाऊंगा और मुरारी काका के बाद सरोज काकी और अनुराधा का क्या होगा तो कभी ये सोचने लगता कि जब मैं घर पहुंच जाऊंगा तब सब लोग मुझे देख कर क्या कहेंगे? ख़ास कर पिता जी जब मुझे देखेंगे तब उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी?
आस पास के गांवों में मेरा गांव सबसे बड़ा गांव था। ज़्यादातर मेरे ही गांव में मेरे पिता जी के द्वारा आस पास के गांवों की हर समस्या का फैसला होता था। गांव में कुछ शाहूकार लोग भी थे जो पिता जी की चोरी से ग़रीबों पर नाजायज़ रूप से जुल्म करते थे। ग़रीब लोग उनके डर से उनकी शिकायत पिता जी से नहीं कर पाते थे। यूं तो शाहूकार हमेशा हमसे दब के ही रहे थे किन्तु नई पीढ़ी वाली औलाद अब सिर उठाने लगी थी।
गांव के एक छोर पर हमारी हवेली बनी हुई थी। दादा पुरखों के ज़माने की हवेली थी वो किन्तु अच्छी तरह ख़याल रखे जाने की वजह से आज भी नई नवेली दुल्हन की तरह चमकती थी। हवेली के सामने एक विशाल मैदान था और छोर पर क़रीब पन्द्रह फ़ीट ऊंचा हाथी दरवाज़ा था। जगह जगह हरे भरे पेड़ पौधे और फूल लगे हुए थे जिससे हवेली की सुंदरता और भी बढ़ी हुई दिखती थी। हवेली के अंदर विशाल प्रांगण के एक तरफ कई सारी जीपें खड़ी थी और दूसरी तरफ कुछ बग्घियां खड़ी हुईं थी। जहां पर रास्ता सही नहीं होता था वहां पर बग्घी से जाया जाता था।
(दोस्तों, यहाँ पर मैं अपने ठाकुर खानदान का एक छोटा सा परिचय देना चाहूंगा ताकि कहानी को आगे चल कर पढ़ने और समझने में थोड़ी आसानी रहे।)
☆ ठाकुर सूर्य प्रताप सिंह (दादा ठाकुर/इनका स्वर्गवास हो चुका है)
☆ इन्द्राणी सिंह (दादी माँ/इनका भी स्वर्गवास हो चुका है।)
ठाकुर सूर्य प्रताप सिंह के पहले जो थे उनका इस कहानी में कोई विवरण नहीं दिया जायेगा क्योंकि उनका कहानी में कोई रोले नहीं है। इस लिए वर्तमान के किरदारों को जोड़ने के लिए दादा ठाकुर से परिचय शुरू करते हैं।
ठाकुर सूर्य प्रताप सिंह को यूं तो चार बेटे थे किन्तु सबसे बड़े और तीसरे नंबर वाले उनके बेटे बहुत पहले ईश्वर को प्यारे हो चुके थे। उनकी मौत कैसे हुई थी ये बात ना तो मुझे पता है और ना ही मैंने कभी पता करने की कोशिश की थी। ख़ैर दो तो ईश्वर को प्यारे हो गए किन्तु जो दो बचे हैं उनका परिचय इस प्रकार है।
☆ ठाकुर प्रताप सिंह (मेरे पिता जी/दादा ठाकुर)
☆ सुगंधा सिंह (मेरी माँ/बड़ी ठकुराइन)
मेरे माता पिता की दो ही संतानें हैं।
(१) ठाकुर अभिनव सिंह (मेरे बड़े भाई)
रागिनी सिंह (मेरी भाभी और बड़े भाई की पत्नी)
(२) ठाकुर वैभव सिंह (मैं)
☆ ठाकुर जगताप सिंह (मेरे चाचा जी/मझले ठाकुर)
☆ मेनका सिंह (मेरी चाची/छोटी ठकुराइन)
मेरे चाचा और चाची के तीन बच्चे हैं जो इस प्रकार हैं।
(१) ठाकुर विभोर सिंह (चाचा चाची का बड़ा बेटा)
(२) कुसुम सिंह (चाचा चाची की बेटी)
(३) ठाकुर अजीत सिंह (चाचा चाची का छोटा बेटा)
मेरे चाचा जी ज़मीन ज़ायदाद और खेती बाड़ी का सारा काम काज सम्हालते हैं। उनकी निगरानी में ही सारा काम काज होता है।
☆ चंद्रकांत सिंह (मेरे पिता जी का मुंशी)
☆ प्रभा सिंह (मुंशी की पत्नी)
मुंशी चंद्रकान्त और प्रभा को दो संताने हैं जो इस प्रकार हैं।
(१) रघुवीर सिंह (मुंशी का बेटा)
रजनी सिंह (रघुवीर की बीवी और मुंशी की बहू)
(२) कोमल सिंह (मुंशी की बेटी)
दोस्तों, तो ये था मेरे ठाकुर खानदान का संक्षिप्त परिचय। मुंशी चंद्रकान्त का परिचय भी दे दिया है क्योंकि कहानी में उसका और उसके परिवार का भी रोल है।
"छोटे ठाकुर।" मैं सोचो में गुम ही था कि तभी ये आवाज़ सुन कर मैंने बग्घी चला रहे उस आदमी की तरफ देखा, जबकि उसने आगे कहा____"हम हवेली पहुंच गए हैं।"
उस आदमी की ये बात सुन कर मैंने नज़र उठा कर सामने देखा। मैं सच में हवेली के विशाल मैदान से होते हुए हवेली के मुख्य दरवाज़े के पास आ गया था। चार महीने बाद हवेली में आया था। बग्घी में बैठे बैठे मैं कुछ पलों तक हवेली को देखता रहा उसके बाद बग्घी से नीचे उतरा। हवेली में आस पास मौजूद दरबान लोगों ने मुझे देखते ही अदब से सिर झुका कर मुझे सलाम किया।
मैं अभी बग्घी से नीचे उतरा ही था कि तभी हवेली के मुख्य दरवाज़े से निकल कर मेरी माँ और भाभी मेरी तरफ आईं। उनके साथ में मेरी चाची मेनका और उनकी बेटी कुसुम भी थी। सभी के चेहरे खिले हुए थे और होठों पर गहरी मुस्कान थी। माँ के हाथों में आरती की थाली थी जिसमे एक दिया जल रहा था। मेरे पास आ कर माँ ने मेरी आरती उतारी और थाली से कुछ फूल उठा कर मेरे ऊपर डाल दिया।
"आपको पता है ना कि मुझे ये सब पसंद नहीं है।" मैंने माँ से सपाट लहजे में कहा_____"फिर ये सब क्यों माँ?"
"तू एक माँ के ह्रदय को नहीं समझ सकता बेटे।" मैंने झुक कर माँ के चरणों को छुआ तो माँ ने मेरे सर पर अपना हाथ रखते हुए कहा____"ख़ैर, हमेशा खुश रह और ईश्वर तुझे सद्बुद्धि दे।"
मां से आशीर्वाद लेने के बाद मैंने मेनका चाची का आशीर्वाद लिया और फिर रागिनी भाभी के पैरों को छू कर उनका आशीर्वाद भी लिया। कुसुम दौड़ कर आई और मेरे सीने से लग गई।
"कैसी है मेरी बहना?" मैंने उसे खुद से अलग करते हुए पूछा तो उसने मुस्कुराते हुए कहा____"अब आप आ गए हैं तो अच्छी ही हो गई हूं।"
"चल अंदर चल।" माँ ने कहा तो हम सब हवेली के अंदर की तरफ चल पड़े।
हवेली के अंदर आ कर मैं एक कुर्सी पर बैठ गया। मैंने इधर उधर नज़र दौड़ाई मगर पिता जी और चाचा जी कहीं नज़र न आये मुझे और ना ही मेरा बड़ा भाई नज़र आया। चाचा जी के दोनों बेटे भी नहीं दिखे मुझे।
"बाकी सब लोग कहां हैं माँ?" मैंने माँ से पूछा____"कोई दिख नहीं रहा मुझे।"
"तेरे पिता जी तो शाम को ही किसी ज़रूरी काम से कहीं चले गए थे।" माँ ने कहा____"तेरे चाचा जी दो दिन पहले शहर गए थे किसी काम से मगर अभी तक नहीं आए और तेरा भाई दोपहर को विभोर और अजीत के साथ पास के गांव में अपने किसी दोस्त के निमंत्रण पर गया है।"
"भइया मैंने आपका कमरा साफ़ करके अच्छे से सजा दिया है।" पास में ही खड़ी कुसुम ने कहा____"बड़ी माँ ने मुझे बता दिया था कि आज शाम को आप आ जाएंगे इस लिए मैंने आपके कमरे की साफ़ सफाई अच्छे से कर दी थी।"
"जब से मेरे द्वारा इसे ये पता चला है कि तू आज शाम को आ जाएगा।" माँ ने कहा____"तब से ये पूरी हवेली में ख़ुशी के मारे इधर से उधर नाचती फिर रही है।"
"हां तो नाचने वाली बात ही तो है न बड़ी मां।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"चार महीने बाद मेरे भैया आने वाले थे। ताऊ जी के डर से मैं अपने भैया से मिलने भी नहीं जा सकी कभी।" कहने के साथ ही कुसुम मेरी तरफ पलटी और फिर मासूमियत से बोली____"भइया आप मुझसे नाराज़ तो नहीं हैं ना?"
"तू खुद ही सोच।" मैंने कहा____"कि मुझे नाराज़ होना चाहिए कि नहीं?"
"बिल्कुल नाराज़ होना चाहिए आपको।" कुसुम ने दो पल सोचने के बाद झट से कहा____"इसका मतलब आप नाराज हैं मुझसे?"
"तुझसे ही नहीं बल्कि सबसे नाराज़ हूं मैं।" मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा____"और ये नाराज़गी इतनी जल्दी ख़त्म होने वाली नहीं है। ख़ैर बाद में बात करुंगा।"
कहने के साथ ही मैं किसी की कुछ सुने बिना ही अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। चाची और भाभी रसोई में चली गईं थी। इधर मेरी बातें सुनने के बाद जहां माँ कुछ सोचने लगीं थी वहीं कुसुम के चेहरे पर मायूसी छा गई थी।
हवेली दो मंजिला थी और काफी बड़ी थी। हवेली के ज़्यादातर कमरे बंद ही रहते थे। हवेली के निचले भाग में एक तरफ पिता जी का कमरा था जो कि काफी आलीशान था। दूसरी तरफ निचले ही भाग में चाचा जी का कमरा था। हवेली के अंदर ही एक मंदिर था। हवेली के ऊपरी भाग पर सबसे किनारे पर और सबसे अलग मेरा कमरा था। मेरे कमरे के आस पास वाले सभी कमरे बंद ही रहते थे। दूसरे छोर में एक तरफ बड़े भैया और भाभी का कमरा था। उसके दूसरी तरफ के दो अलग अलग कमरे चाचा जी के दोनों बेटों के थे और उन दोनों के सामने वाला एक कमरा कुसुम का था।
मैं शुरू से ही सबसे अलग और एकांत में रहना पसंद करता था। हवेली के सभी लोग जहां पिता जी की मौजूदगी में एकदम चुप चाप रहते थे वहीं मैं अपने ही हिसाब से रहता था। मैं जब चाहे तब अपनी मर्ज़ी से कहीं भी आ जा सकता था। ऐसा नहीं था कि मैं किसी का आदर सम्मान नहीं करता था बल्कि वो तो मैं बराबर करता था किन्तु जब मुझ पर किसी तरह की पाबंदी लगाने वाली बात आती थी तब मेरा बर्ताव उग्र हो जाता था और उस सूरत में मैं किसी की एक नहीं सुनता था। फिर भले ही चाहे कोई मेरी जान ही क्यों ना लेले। कहने का मतलब ये कि मैं अच्छा तभी बना रह सकता था जब कोई मुझे किसी बात के लिए रोके टोके न और जैसे ही किसी ने रोक टोंक लगाईं वैसे ही मेरा पारा चढ़ जाता था। मुझे अपने ऊपर किसी की बंदिश ज़रा भी पसंद नहीं थी। मेरे इसी स्वभाव के चलते मेरे पिता जी मुझसे अक्सर नाराज़ ही रहते थे।
कमरे में आ कर मैंने थैले को एक कोने में उछाल दिया और पलंग पर बिछे मोटे मोटे गद्दों पर धम्म से लेट गया। आज चार महीने बाद गद्देदार बिस्तर नसीब हुआ था। कुसुम ने सच में बहुत अच्छे से सजाया था मेरे कमरे को। हम चार भाइयों में वो सबसे ज़्यादा मेरी ही लाडली थी और जितना ज़ोर उसका मुझ पर चलता था उतना किसी दूसरे पर नहीं चलता था। उसके अपने सगे भाई उसे किसी न किसी बात पर डांटते ही रहते थे। हालांकि एक भाई अजीत उससे छोटा था मगर ठाकुर का खून एक औरत ज़ात से दब के रहना हर्गिज़ गवारा नहीं करता था।
हवेली मेरे लिए एक कै़दखाना जैसी लगती थी और मैं किसी क़ैद में रहना बिलकुल भी पसंद नहीं करता था। यूं तो हवेली में काफी सारे नौकर और नौकरानियाँ थी जो किसी न किसी काम के लिए यहाँ मौजूद थे किन्तु अपनी तबियत ज़रा अलग किस्म की थी। हवेली में रहने वाली ज़्यादातर नौकरानियाँ मेरे लंड की सवारी कर चुकीं थी और ये बात किसी से छुपी नहीं थी। बहुत सी नौकरानियों को तो हवेली से निकाल भी दिया गया था मेरे इस ब्यभिचार के चक्कर में। मेरा बड़ा भाई अक्सर इस बात के लिए मुझे बुरा भला कहता रहता था मगर मैं कभी उसकी बातों पर ध्यान नहीं देता था। चाचा जी के दोनों लड़के मेरे भाई के साथ ही ज़्यादातर रहते थे। शायद उन्हें ये अच्छी तरह से समझाया गया था कि मेरे साथ रहने से वो ग़लत रास्ते पर चले जाएंगे।
हवेली के अंदर मुझसे सबसे ज़्यादा प्यार से बात करने वाला अगर कोई था तो वो थी चाचा चाची की लड़की कुसुम। वैसे तो माँ और चाची भी मुझसे अच्छे से ही बात करतीं थी मगर उनकी बातों में उपदेश देना ज़्यादा शामिल होता था जो कि अपने को बिलकुल पसंद नहीं था। रागिनी भाभी भी मुझसे बात करतीं थी किन्तु वो भी माँ और चाची की तरह उपदेश देने लगतीं थी इस लिए उनसे भी मेरा ज़्यादा मतलब नहीं रहता था। दूसरी बात ये भी थी कि उनकी सुंदरता पर मैं आकर्षित होने लगता था जो कि यकीनन ग़लत बात थी। मैं अक्सर इस बारे में सोचता और फिर यही फैसला करता कि मैं उनसे ज़्यादा बोल चाल नहीं रखूंगा और ना ही उनके सामने जाऊंगा। मैं पक्का औरतबाज़ था लेकिन अपने घर की औरतों पर मैं अपनी नीयत ख़राब नहीं करना चाहता था इसी लिए मैं हवेली में बहुत कम ही रहता था।
हवेली में पिता जी का शख़्त हुकुम था कि हवेली में काम करने वाली कोई भी नौकरानी मेरे कमरे में नहीं जाएगी और ना ही मेरे कहने पर कोई काम करेगी। अगर मैं किसी के साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करूं तो इस बात की सूचना फ़ौरन ही उन तक पहुंचाना जैसे हर किसी का पहला और आख़िरी कर्त्तव्य था। मेरे कमरे की साफ़ सफाई या तो कुसुम करती थी या फिर मां। कहने का मतलब ये कि हवेली में मेरी छवि बहुत ही ज़्यादा बदनाम किस्म की थी।
अभी मैं इन सब बातों को सोच ही रहा था कि कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई जिससे मेरा ध्यान टूटा और मैंने दरवाज़े की तरफ देखा। दरवाज़े पर कुसुम खड़ी थी। उसे देख कर मैं बस हलके से मुस्कुराया और उसे अंदर आने का इशारा किया तो वो मुस्कुराते हुए अंदर आ गई।
"वो मैं ये पूछने आई थी कि आपको कुछ चाहिए तो नहीं?" कुसुम ने कहा____"वैसे ये तो बताइये कि इतने महीनों में आपको कभी अपनी इस बहन की याद आई कि नहीं?"
"सच तो ये था बहना।" मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा____"मैं किसी को याद ही नहीं करना चाहता था। मेरे लिए हर रिश्ता और हर ब्यक्ति जैसे रह ही नहीं गया था। मुझे हर उस ब्यक्ति से नफ़रत हो गई थी जिससे मेरा ज़रा सा भी कोई रिश्ता था।"
"हां मैं समझ सकती हूं भइया।" कुसुम ने कहा____"ऐसे में तो यही होना था। मैं तो हर रोज़ बड़ी माँ से कहती थी कि मुझे अपने वैभव भैया को देखने जाना है मगर बड़ी माँ ये कह कर हमेशा मुझे रोक देती थीं कि अगर मैं आपको देखने गई तो दादा ठाकुर गुस्सा करेंगे।"
"और सुना।" मैंने विषय बदलते हुए कहा____"मेरे जाने के बाद यहाँ क्या क्या हुआ?"
"होना क्या था?" कुसुम ने झट से कहा____"आपके जाते ही बड़े भैया तो बड़ा खुश हुए थे और उनके साथ साथ विभोर भैया और अजीत भी बड़ा खुश हुआ था। सच कहूं तो आपके जाने के बाद यहाँ का माहौल ही बदल गया था। भैया लोग तो खुश थे मगर बाकी लोग ख़ामोश से हो गए थे। दादा ठाकुर तो किसी से बात ही नहीं करते थे। उनके इस ब्योहार से मेरे पिता जी भी चुप ही रहते थे। किसी किसी दिन दादा ठाकुर से बड़ी माँ आपके बारे में बातें करती थी तो दादा ठाकुर ख़ामोशी से उनकी बातें सुनते और फिर बिना कुछ कहे ही चले जाते थे। ऐसा लगता था जैसे वो गूंगे हो गए हों। मेरा तो पूछिए ही मत क्योंकि आपके जाने के बाद तो जैसे मुझ पर जुल्म करने का बाकी भाइयों को प्रमाण पत्र ही मिल गया था। वो तो भाभी थीं जिनके सहारे मैं बची रहती थी।"
"तुझे मेरे लिए एक काम करना होगा कुसुम।" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"करेगी ना?"
"आप बस हुकुम दीजिये भइया।" कुसुम ने मेरे पास आते हुए कहा____"क्या करना होगा मुझे?"
"तुझे मेरे लिये।" मैंने धीमी आवाज़ में कहा____"यहां पर हर किसी की जासूसी करनी होगी। ख़ास कर दो लोगों की। बोल करेगी ना?"
"क्या ऐसा कभी हुआ है भैया कि आपके कहने पर मैंने कोई काम ना किया हो?" कुसुम ने कहा____"आप बताइए किन दो लोगों की जासूसी करनी है मुझे और क्यों करनी है?"
"तुझे दादा ठाकुर और ठाकुर अभिनव सिंह की जासूसी करनी है।" मैंने कहा____"ये काम तुझे इस तरीके से करना है कि उनको तुम्हारे द्वारा जासूसी करने की भनक तक ना लग सके।"
"वो तो ठीक है भइया।" कुसुम ने उलझन भरे भाव से कहा____"मगर आप इन दोनों की जासूसी क्यों करवाना चाहते हैं?"
"वो सब मैं तुझे बाद में बताऊंगा कुसुम।" मैंने कहा_____"हालाँकि मेरा ख़याल है कि जब तू इन सबकी जासूसी करेगी तो तुझे भी अंदाज़ा हो ही जायेगा कि मैंने तुझे इन लोगों की जासूसी करने के लिए क्यों कहा था?"
"चलिए ठीक है मान लिया।" कुसुम ने सिर हिलाते हुए कहा____"लेकिन मुझे ये तो बताइए कि मुझे जासूसी करते हुए पता क्या करना है? आख़िर मुझे भी तो पता होना चाहिए ना कि मैं जिनकी जासूसी करने जा रही हूं उनसे मुझे जानना क्या है?"
"तुझे बस उनकी बातें सुननी है।" मैंने सपाट भाव से कहा____"और उनकी बातें सुन कर वो सब बातें हूबहू मुझे आ कर सुरानी हैं।"
"लगता है आप मेरी पिटाई करवाना चाहते हैं उन सबसे।" कुसुम ने मासूमियत से कहा____"क्योंकि अगर उन्हें पता चल गया कि मैं उनकी बातें चोरी छुपे सुन रही हूं तो दादा ठाकुर तो शायद कुछ न कहें मगर वो तीनों भाई तो मेरी खाल ही उधेड़ देंगे।"
"ऐसा कुछ नहीं होगा।" मैंने कहा____"मेरे रहते तुझे कोई हाथ भी नहीं लगा सकता।"
"हां ये तो मुझे पता है।" कुसुम ने मुस्कुराते हुए कहा____"ठीक है, तो मैं आज से ही जासूसी के काम में लग जाती हूं। कुछ और भी हो तो बता दीजिए।"
"और तो फिलहाल कुछ नहीं है।" मैंने कहा____"अच्छा ये बता भाभी मुझसे नाराज हैं क्या?"
"जिस दिन वो आपसे मिल कर आईं थी।" कुसुम ने कहा____"उस दिन वो बहुत रोईं थी अपने कमरे में। बड़ी माँ ने उनसे जब सब पूछा तो उन्होंने बता दिया कि आपने उन्हें क्या कहा था। उनकी बातें सुन कर बड़ी माँ को भी आप पर गुस्सा आ गया था। उधर भाभी ने तो दो दिनों तक खाना ही नहीं खाया था। हम सब उन्हें कितना मनाए थे मगर वो अपने कमरे से निकलीं ही नहीं थी। मुझे लगता है भैया कि आपको उनके साथ ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए था। भला इस सबमें उनकी क्या ग़लती थी? उन्हें तो किसी ने कहा भी नहीं था कि वो आपसे मिलने जाएं। बल्कि वो तो काफी समय से खुद ही कह रहीं थी कि उन्हें आपसे मिलने जाना है। मुझसे भी कई बार कहा था उन्होंने मगर दादा ठाकुर के डर से मैं उनके साथ नहीं जा सकती थी। उस दिन उन्होंने जब देखा कि हवेली में माँ और बड़ी माँ के सिवा कोई नहीं है तो वो चुप चाप पैदल ही हवेली से निकल गईं थी। मुझसे कहा कि वो मंदिर जा रही हैं। हालांकि मैं समझ गई थी कि वो आपके पास ही जा रहीं थी पर मैंने उन्हें कुछ नहीं कहा।"
"इसका मतलब मुझे भाभी से माफ़ी मांगनी चाहिए?" मैंने गहरी सांस ले कर कहा।
"हां भइया।" कुसुम ने सिर हिलाया____"आपको भाभी से माफ़ी मांगनी चाहिए। आपको पता है एक दिन बड़े भैया उन पर बहुत गुस्सा कर रहे थे।"
"क्यो?" मैंने पूछा।
"वो इस लिए कि भाभी उनसे कह रही थी कि कैसे भाई हैं वो?" कुसुम ने कहा____"जो अपने छोटे भाई के लिए ज़रा भी चिंतित नहीं हैं। जबकि इतने महीने में उन्हें कम से कम एक बार तो आपसे मिलने जाना ही चाहिए था। भाभी की इन बातों से बड़े भैया उन पर बहुत गुस्सा हुए थे और फिर गुस्से में हवेली से चले गए थे।"
कुसुम की बातें सुन कर मैं एकदम से सोचने पर मजबूर हो गया था। इन चार महीनों में मेरे घर का कोई भी सदस्य मुझसे मिलने नहीं आया था किन्तु भाभी अपनी इच्छा से मुझसे मिलने आईं थी जबकि उन्होंने मुझसे ये कहा था कि माँ जी ने उन्हें भेजा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि भाभी मेरे लिए इतना चिंतित क्यों थी? क्या ये सिर्फ एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी या फिर इसके पीछे कोई दूसरी वजह थी? ख़ैर जो भी वजह रही हो मगर ये तो सच ही था ना कि वो मुझसे मिलने आईं थी और मैंने उन्हें बुरा भला कह कर अपने पास से जाने को बोल दिया था। मेरे मन में ख़याल उभरा कि मुझे भाभी के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था। कुसुम की बातों से मुझे पता चला कि वो भाई से भी मेरे बारे में बातें करती थी जिस पर मेरा बड़ा भाई उन पर गुस्सा करता था।
कुसुम को मैंने जाने को बोल दिया तो वो कमरे से चली गई। उसके जाने के बाद मैं काफी देर तक भाभी के बारे में सोचता रहा। कुछ देर बाद मैं उठा और भाभी के कमरे की तरफ बढ़ चला। मेरा ख़याल था कि वो शायद इस वक़्त अपने कमरे में ही होंगी। बड़े भाई के आने से पहले मैं उनसे मिल लेना चाहता था।
मैं भाभी के कमरे में पंहुचा तो देखा भाभी कमरे में नहीं थीं। रात हो गई थी और मुझे याद आया कि इस वक़्त सब खाना पीना बनाने में लगी होंगी। मैं नीचे गया और कुसुम को आवाज़ लगाईं तो वो मेरे पास भाग कर आई। मैंने कुसुम से कहा कि वो भाभी को बता दे कि मैं उनसे मिलना चाहता हूं इस लिए वो ऊपर आ जाएं। मेरी बात सुन कर कुसुम सिर हिला कर चली गई जबकि मैं वापस भाभी के कमरे की तरफ बढ़ चला।
भाभी के कमरे में रखी एक कुर्सी पर मैं बैठा उनके आने का इंतज़ार कर रहा था। मेरे मन में कई सारी बातें भी चलने लगीं थी और मेरे दिल की धड़कनें अनायास ही तेज़ हो गईं थी। थोड़ी देर में मुझे कमरे के बाहर पायलों की छम छम बजती आवाज़ सुनाई दी। मेरी धड़कनें और भी तेज़ हो गईं। तभी कमरे के दरवाज़े से भाभी ने कमरे में प्रवेश किया। भाभी का चेहरा रामानंद सागर कृत श्री कृष्णा की जामवंती जैसा था। भाभी जैसे ही कमरे में दाखिल हुईं तो मैं फ़ौरन ही कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया जबकि वो मुझे देख कर कुछ पल के लिए रुकीं और फिर कमरे में रखे बिस्तर पर बैठ गईं।
"आज सूर्य पश्चिम से कैसे उदय हो गया वैभव?" भाभी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"आज छोटे ठाकुर ने अपनी भाभी से मिलने का कष्ट क्यों किया?"
"मुझे माफ़ कर दीजिए भाभी।" मैंने गर्दन झुका कर धीमी आवाज़ में कहा____"मैं उस दिन के अपने बर्ताव के लिए आपसे माफ़ी मांगने आया हूं।"
"बड़ी हैरत की बात है।" भाभी ने जैसे ताना मारते हुए कहा____"किसी के भी सामने न झुकने वाला सिर आज अपनी भाभी के सामने झुक गया और इतना ही नहीं माफ़ी भी मांग रहा है। कसम से देवर जी यकीन नहीं हो रहा।"
"आपको जो कहना है कह लीजिए भाभी।" मैंने गर्दन को झुकाए हुए ही कहा____"किन्तु मुझे माफ़ कर दीजिए। मैं अपने उस दिन के बर्ताव के लिए बेहद शर्मिंदा हूं।"
"नहीं तुम शर्मिंदा नहीं हो सकते वैभव।" भाभी की आवाज़ मेरे करीब से आई तो मैंने गर्दन सीधी कर के उनकी तरफ देखा। वो बिस्तर से उठ कर मेरे पास आ गईं थी, फिर बोलीं____"इस हवेली में दादा ठाकुर के बाद एक तुम ही तो हो जिसमें ठाकुरों वाली बात है। तुम इस तरह गर्दन झुका कर शर्मिंदा नहीं हो सकते।"
"ये आप क्या कह रही हैं भाभी?" मैं भाभी की बातें सुन कर बुरी तरह हैरान हो गया था।
"मैं वही कह रही हूं वैभव।" भाभी ने कहा____"जो सच है। माना कि कुछ मामलों में तुम्हारी छवि दाग़दार है किन्तु हक़ीक़त यही है कि तुम दादा ठाकुर के बाद उनकी जगह लेने के क़ाबिल हो।"
"मुझे उनकी जगह लेने में कोई दिलचस्पी नहीं है भाभी।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"पिता जी के बाद बड़े भैया ही उनकी जगह लेंगे। मैं तो मस्त मौला इंसान हूं और अपनी मर्ज़ी का मालिक हूं। इस तरह के काम काज करना मेरी फितरत में नहीं है। ख़ैर मैं आपसे अपने उस दिन के बर्ताव के लिए माफ़ी मांगने आया हूं इस लिए आप मुझे माफ़ कर दीजिए।"
"उस दिन तुम्हारी बातों से मेरा दिल ज़रूर दुखा था वैभव।" भाभी ने संजीदगी से कहा____"किन्तु मैं जानती हूं कि जिन हालात में तुम थे उन हालातों में तुम्हारी जगह कोई भी होता तो वैसा ही बर्ताव करता। इस लिए तुम्हें माफ़ी मांगने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि मैं तो खुश हू कि जो इंसान मेरे सामने आने से भी कतराता था आज वो मुझसे मिलने आया है। मैंने तो हमेशा यही कोशिश की है कि इस हवेली की बहू के रूप में हर रिश्ते के साथ अपने फ़र्ज़ और कर्त्तव्य निभाऊं किन्तु मुझे आज तक ये समझ नहीं आया कि तुम हमेशा मुझसे किनारा क्यों करते रहते थे? अगर कोई बात थी तो मुझसे बेझिझक कह सकते थे।"
"माफ़ कीजिएगा भाभी।" मैंने कहा____"किन्तु कुछ बातों के लिए सामने वाले से किनारा कर लेने में ही सबकी भलाई होती है। आपसे कभी कोई ग़लती नहीं हुई है इस लिए आप इस बात के लिए खुद को दोष मत दीजिए।"
"भला ये क्या बात हुई वैभव?" भाभी ने मेरी आँखों में झांकते हुए कहा____"अगर तुम खुद ही मानते हो कि मुझसे कोई ग़लती नहीं हुई है तो फिर तुम मुझसे किनारा कर के क्यों रहते हो? आख़िर ऐसी कौन सी वजह है? क्या मुझे नहीं बताओगे?"
"कुछ बातों पर बस पर्दा ही पड़ा रहने दीजिए भाभी।" मैंने बेचैनी से कहा____"और जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दीजिए। अच्छा अब मैं चलता हूं।"
इससे पहले कि भाभी मुझे रोकतीं मैं फ़ौरन ही कमरे से निकल कर अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। अब भला मैं उन्हें क्या बताता कि मैं उनसे किस लिए किनारा किये रहता था? मैं उन्हें ये कैसे बताता कि मैं उनकी सुंदरता से उनकी तरफ आकर्षित होने लगता था और अगर मैं खुद को उनके आकर्षण से न बचाता तो जाने कब का बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता।
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