AntarvasnaX जवानी जानेमन

सरिता ( सविता ) देवी की शादी से पहले की कहानी जानने की उत्सुकता बढ़ते जा रही है। आखिर क्या वजह रही होगी कि उसके मां-बाप धन दौलत से समर्थ होने के बाद भी अपनी एकलौती लाडली की शादी एक ऐसे इंसान से करा दी जो विधुर भी था , शराबी और अय्याश भी था , और उम्र मे उससे दस साल बड़ा भी था ।
सरिता देवी की अपने मां-बाप के प्रति नफरत उनके मृत्यु के पश्चात भी खतम न हो सकी। इससे यही समझ आता है कि उनके साथ काफी गलत किया गया था। शायद उन्हे किसी अन्य जात के लड़के से प्रेम हुआ हो , वो कुंवारी मां बनने वाली हो और इसी कारण उन्हे जबरन शादी करने पर मजबूर कर दिया गया हो। कुछ तो जरूर बड़ी घटना हुई होगी !
लेकिन फिर भी , एक ऐसे आदमी के साथ अपनी लड़की का रिश्ता तय करना जी किसी भी तरह से लड़की के साथ मेल न खाता हो , समझ मे आने लायक नही है।
ऐसा व्यवहार कोई सौतेला या निर्दयी ही कर सकता है।

सरिता देवी के आंख के आंसू यह बयां अवश्य कर रहे है कि उन्हे अपनी मां के मौत से दुख हुआ है लेकिन यह भी इशारा कर रहा है कि वो अबतक उन्हे माफ भी नही कर पाई है।
देखते है गांव की बुज़ुर्ग महिला उनके बारे मे क्या बताती है !

समीर को इस बात का एहसास है कि चन्द्रमा के साथ बहुत कुछ बुरा हुआ है। उसे इस बात का भी एहसास है कि कुछ गलतियाँ उसने खुद भी की है।
चन्द्रमा का क्वोट , " जीवन मे मेरे लिए कभी कुछ स्पेशल नही हुआ " बहुत ही मार्मिक और दर्द से भरे हुए थे।
एक बार फिर से समीर साहब से यही इल्तजा रहेगी कि वो चन्द्रमा के लिए इतने ज्यादा स्पेशल , अच्छे कार्य करे कि वो गिनते गिनते थक जाए !

बहुत ही खूबसूरत अपडेट भाई।
आउटस्टैंडिंग एंड अमेजिंग अपडेट।
( एक सलाह देना चाहता हूं भाई , आप अपडेट को पोस्ट करने से पहले कम से कम दो बार चेक कर लीजिए । अगर कोई शब्दों मे गलती हो , शब्दों के प्रयोग मे गलती हो तो यह सुधारा जा सकता है। अर्थात एकाध बार रिवीजन कर ले फिर पोस्ट करे )
 
मैं जल्दी से राधा का हाथ पकड़ कर घर से बहार निकल आयी, डर था की कहीं मामी रोक ना ले, जब से यहाँ आयी थी घर से एक बार भी बहार नहीं निकली थी। एक दो पड़ोसियों ने बुलाया भी था लेकिन मामी ने टाल दिया था, खैर बहार आकर अच्छा लग रहा था, काफी बड़ा गांव था, शहर के पास होने के कारण सभी सुख सुविधाएँ भी थी, जैसे बिजली पानी आदि, मैं राधा के साथ पूरे गांव में खूब इधर उधर घूमी लेकिन मेरा असली मकसद तो काकी से मिलने का था, मामी ने दूर रहने के लिए बोला था काकी से इसलिए मैं राधा से सीधे उनके घर जाने का नहीं बोल सकती थी, मैं कोई ऐसा तरीका ढूंढ रही थी जिस से मुझे काकी से मिलना मात्र एक संयोग लगे।

मैं अभी कोई तरीका सोच ही रही थी की राधा बोली की दीदी आओ मैं तुम्हे अपन घर दिखाऊ, मैंने मना किया लेकिन राधा नहीं मानी, कहने लगी चल कर तो देखो मेरा घर एक दम नदी के पास है आपको अच्छा लगेगा, नदी का सुनकर मैं हाँ कर बैठी, हम दिल्ली के अस्स पास के रहने वालो को नदी कहा देखने को मिलती है, ले दे के एक युमना है जो अब गन्दा नाला बन चुकी है, हम गांव की गलियों में घूमते घूमते गांव के बहार खेतो के पास आगये, खेतो को पार करके एक ऊँचा बांध जैसा था वहा चढ़ के देखा तो नीचे कल कल करती सोन नदी बह रही थी, नदी के कारण यहाँ का माहोल ठंडा था शायद हवा पानी से टकरा कर ठंडी हो जाती होगी हम दोनों वही बैठ गए, गांव में घूम घूम कर दोनों थक गए थे, नीचे बैठ कर इधर उधर देखा था तो बांध से नीचे कुछ लोग कपडे धो रह थे जैसे धोबी घाट हो। उन्होंने बहुत साडी सफ़ेद चादरे और तोलिये बांध पर सूखने के लिए डाले हुए थे जो हवा के झोको से टकरा कर फरफरा कर उड़ने लगते थे।

मैं और राधा वहा काफी देर बैठे रहे और गांव के बारे में बाते करते रहे, मैंने मोबाइल में टाइम देखा एक बजने वाला था मैं उठने का सोंच ही रही थी की नीचे से एक बुढ़िआ जो अभी कपडे धो रहे धोबी का हाथ बता रही थी रही थी वो धीरे धीरे चलती हुई हमारी ओर आयी। राधा ने उस बुढ़िया को देख के हाथ हिलाया और फिर नज़दीक आने पर प्रणाम किया, मैंने भी राधा की देखा देखि उस बुढ़िया को प्रणाम किया और जैसे यहाँ सब के पैर छूती आयी थी वैसे ही पैर छूने को झुकी ही थी की वो बुढ़िया झट से पीछे हो गयी, मानो उसे अपना पैर छुआ जाना अच्छा ना लगा हो, मैंने ऊपर देखा तो वो बुढ़िया हाथ उठा कर जीती रहो का आशीर्वाद दे रही थी। फिर उस बढ़िया ने एक सवालिया नज़रो से राधा की ओर देखा जैसे पूछ रही हो ये अजनबी लड़की कौन है ? राधा भी एक पल को अचकचा गयी फिर संभल कर बोली " ये शंभु मालिक की भांजी है, दिल्ली से आयीं है मिले खातिर। " ये सुनकर उस बुढ़िया ने एक अजीब सा मुँह बनाया और फिर आगे बढ़ गयी, हम भी उस बुढ़िया के पीछे चल दिए क्यूंकि गांव में जाने का यही रास्ता था, थोड़ा आगे चल कर वो बुढ़िया एक दम ठिठक कर रुक गयी और फिर मेरी ओर गौर से देखते हुए राधा से बोली " ये सविता की बिटिया है क्या ?" हाँ सुम्मु काकी उनकी ही बेटी है बताये ना आप को दिल्ली से आयीं है "

राधा का जवाब सुनकर उस बुढ़िया के चेहरे पर अजीब से भाव आरहे थे, मनो वो कुछ बोलना चाहती हो लेकिन फिर रुक जाती। एक पल तक मेरी ओर देखती रही और फिर तेज़ी से मुड़कर तेज़ कदमो से चलती हुई हमसे दूर निकल गयी। मुझे बुढ़िया के इतना तेज़ चलने पर हैरत थी, मैंने राधा से पूछा की ये बुढ़िया कौन थी? राधा ने लापरवाही से कंधे उचका कर कहा " अरे धोबिन है गांव की सुम्मु काका की पत्नी जो नीचे कपडा धो रहे थे, हम सब इसको भी सुम्मु काकी ही बोलते है, यही सामने ही मकान है इनका।

हम ऐसे ही बाते करते हुए आगे बढ़ रहे थे की वो ही बुढ़िया एक मकान के दरवाजे पर खड़ी दिखाई दी। कच्चा मिट्ठी का मकान था छप्पर वाला ज़ायदा बड़ा नहीं था लेकिन देखने से पता लगता था की लीप का घर को साफ़ सुथरा रखा गया हो। जैसे ही हम उस बुढ़िया के घर के सामने पहुंचे की उस बुढ़िया ने आवाज़ लगायी और रुकने का इशारा किया , राधा अब शायद थक चुकी थी उसने जल्दी से मना कर दिया " नहीं काकी देर हो रहा है मालिक इन्तिज़ार कर रहे होंगे " बुढ़िया ने कुछ मन में बड़बड़या जैसे उसे राधा की बात अच्छी ना लगी हो और फिर रुकने का इशारा करके घर के अंदर चली गयी, मौका देख के राधा ने भी मुझे इशारा किया की निकल चलते है लेकिन पता नहीं क्यों मेरे मन में एक जिज्ञासा सी थी की आखिर ये बुढ़िया क्या चाहती है इसलिए मैंने राधा को रुकने के लिए कहा, कोई २ मिनट भी नहीं गुज़रा होगा की वो बुढ़िया फिर से दरवाज़े में खड़ी नज़र आयी, और मेरे नज़दीक आके मुझे अपनी चुन्नी फ़ैलाने के लिए कहा मैं थोड़ा अचकचा रही थी लेकिन उस बाढ़िया ने मेरी चुन्नी फैला कर उसके आँचल में ढेर सारा भूना (झाल मुड़ी टाइप की चीज़ ) कुछ चावल के आटे का लड्डू और गुड़ रख दिया,

मैं अवाक् सी उस बुढ़िया के देख रही थी समझ नहीं आ रहा था की क्या बोलू ? की वो बुढ़िया खुद बोल पड़ी, गुड़िया तेरा चेहरा कुम्हलाया हुआ लग रहा है कुछ खाया नहीं है सुबह से, ये तुम दोनों खाती हुई घर चली जाना।
घर में और कुछ नहीं है इसलिए जो था वो उठा लायी, अगर तू रुके तो अपने हाथो से खाना बना कर खिलाती, पता नहीं क्या था उस बुढ़िया के बातों में की अचानक मेरी आँखे दबदबा आयी, बढ़ी मुश्किल से मैंने हाथ आगे बढ़ा कर सुम्मु काकी का हाथ थामा " बस काकी यही बहुत है आपने इतने प्यार से दिया है इस से अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता " सुम्मु काकी आगे बढ़ कर अपना हाथ मेरे सर पर रख और और कुछ बड़बड़ई जो मैं समझ नहीं पायी बस अंदाज़ा हो गया था की कोई आशीर्वाद ही दे रही है।

जीवन में इतना प्यार शायद ही कभी मिला हो मुझे, ऐसा लग रहा था की मैं अलग ही दुनिया में घूम रही थी, राधा ने खींचा तो मैं लड़खड़ाते हुए आगे चल पड़ी, कुछ दूर जाकर गली में मुड़ते हुए मैंने सुम्मु काकी के मकान की ओर देखा तो काकी अभी तक वही दरवाज़े पर खड़ी इसी ओर देख रही थी, मैंने हल्का सा हाथ से विदा का इशारा किया और गली में आगे बढ़ गयी।

मैंने राधा की ओर अपनी चुन्नी कर दी जिसमे सुम्मु काकी के दिए हुए लड्डू , भूना आदि थे, उसने एक लड्डू उठाया और चपर चपर खाने लगी, काफी देर के निकले हुए थे तो वास्तव में भूख लग गयी थी, मैंने भी एक लड्डू उठा कर खा लिया, कुछ अलग टेस्ट था लेकिन अच्छा लगा खाने में, लड्डू गुड़ का था, दोनों ने खाने को खा तो लिया लेकिन खाते ही प्यास लग गयी, राधा ने बोला की थोड़ा आगे ही उसका मकान है चलो वहा से पानी पी कर घर चलते है, प्यास तेज़ लगी थी तो मैंने उसका कुछ विरोध नहीं किया और उसके साथ उसके घर की ओर चल पड़ी , एक दो गलियां छोड़ कर ही राधा का मकान आगया, लेकिन घर देखते ही राधा का मुँह लटक गया क्यंकि वहा उसके घर के दरवाजे पर एक बड़ा सा ताला लगा हुआ था,

मैंने राधा को कहा कोई बात नहीं अब घर ही चलते अब वही पिएंगे पानी, राधा थोड़ा झेंपा झेंपा सा महसूस कर रही थी पानी के कारण, फिर एक दम बोली रुको दीदी बुधिया काकी के घर से पानी पी कर चलते है उसकी मटकी अंगना में ही रखी होती है और उसका अंगना खुला रहता है हमेशा। मैंने मना किया की नहीं देर हो जाएगी लेकिन राधा नहीं मानी वापिस गली से निकल कर फिर खेतो के सामने ले आयी और एक मकान के आंगन में घुस गयी। ये मकान अच्छा खास बड़ा था, मामा के घर जितना तो नहीं फिर भी खूब बड़ा था, इसका गेट खेतो की ओर था और आंगन में एक खूब बड़ा पुराना आम का पेड़ था और पेड़ के नीचे एक खटिया पर वही काकी बैठी थी जो मुझे मामा के यहाँ मिली थी और जिस से मिलने के लिए सुबह से यहाँ वह भटक रही थी। मैंने राधा से पूछा ये है बुधिया काकी ? हाँ ये बुधिया काकी है लेकिन सब इनको केवल काकी के नाम से बुलाते है, पुरे गांव की काकी है ये, पूरे गांव इनको जनता है।

बुधिया काकी ने भी हमें देखते ही हाथ हिलने लगी और हाथ के इशारे से अपने पास बुलाया, मैं उनकी खाट की ओर चल दी और राधा भाग के आंगन के ओर में छाँव में रखे मिटटी के मटके की ओर। मैंने बुधिया काकी की पैर छुए और खटिया पर एक साइड बैठ गयी, तबतक राधा पानी ले आयी और मुझे पकड़ा दिया मैंने पानी का गिलास काकी की ओर बढ़ाया तो उन्होंने अपना मुँह खोल के दिखाया काकी ने खैनी गाल के नीचे दबा रखी थी , मैं समझ गयी की वो अभी पानी नहीं पीना चाहती, मैंने और राधा ने पेट भर कर पानी पिया और अब आराम से खटिया पर शांति से बैठ गयी, पेड़ खूब घाना और छायादार था इसलिए वह अच्छा फील हो रहा था, काकी ने देखा की हम दोनों पानी पि कर तृप्त हो गयी है और आराम से बैठ गयी तब काकी ने गाल के नीचे से तम्बाकू निकल के फेका और गिलास में रखे पानी से कुल्ला कर के हमारी ओर देख कर मुस्कुरायी। राधा वही चारपाई के पायताने लेट सी गयी थी, लेटने का तो मेरा भी मन हो रहा था लेकिन मैं ऐसे ही बैठी रही।

बुधिया काकी ने मेरी और देखा और पूछा " कहा से घूम कर आरही हो तुम दोनों छौरी ?"
मैं : कुछ नहीं काकी बस यही सोचा की आये हुए इतने दिन हुए तो गांव घूम लूँ
काकी : अच्छा किया, तेरी माँ का गांव है खूब घूमो खूब खाओ पीओ यहाँ सब तेरे मामा और मासी ही लगेंगे
मैं : मैं हाँ काकी देखो ना घूम भी लिया और और खा भी लिया, इतना कह के मैंने अपनी चुन्नी खोल के काकी के आगे रख दी, अभी भी चुन्नी में सुम्मु काकी का दिया हुआ भूना और लड्डू बचे रखे थे।
काकी : अरे ये तुझे किसने दे दिया ?
मैं : वो एक काकी मिली थी उन्होंने दिया

बुधिया काकी ने चुन्नी पर से एक लड्डू उठाया और नाक के पास ले जाकर हैरत से बोली तू सुम्मु के घर से आरही है ?
अब मैं हैरान रह गयी की मैंने तो नाम भी नहीं लिया और बढ़िया ने केवल लड्डू सूंघ कर बता दिया की ये सुम्मु काकी के घर का है ?

मैं : आपको कैसे पता चला की ये सुम्मु काकी ने दिया है ?
 
काकी : वो छोड़, पहले ये बता तुझे तेरी मामी ने जाने कैसे दिया सुम्मु के घर
मैं : अरे बताया तो की हम उनके घर नहीं गए वो बांध पर मिल गए थी हमे।
काकी : हम्म और कुछ कहा सुम्मु ने ?
मैं : नहीं ! बस खाने के लिए बोल रही थी लेकिन हम भाग आये बोलकर की देर हो रही है
काकी : ठीक है, जो खाना है यही खा लो तुम दोनों या इस राधा के घर में रख देना, घर मत लेके जाना, तेरी मामा - मामी को अच्छा नहीं लगेगा
मैं : वो क्यों काकी ?

काकी ने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला और फिर बंद कर लिया, एक नज़र राधा की ओर डाली और बोली " कुछ खास नहीं बस ऐसे ही "
मैं समझ गयी की काकी राधा के कारण बताना नहीं चाह रही है, लेकिन मुझे आज इतनी मेहनत से मौका मिला था और मैं ये मौका गवाना नहीं चाहती थी इसलिए मैंने राधा का एक कोहनी मारी और एक गिलास और पानी लाने के लिए कहा, इस से पहले राधा उठती काकी ने राधा को रोका " अरे चंदा और कितना पानी पीयेगी, एक काम ठंडा मांगती हूँ वो पीना" ये बोले काकी ने अपने पल्लू में बंधी एक गंध खोलने लगी और उसमे से कुछ पैसे निकले और राधा का थमा दिए। राधा थकी हुई तो थी लेकिन ठंडा पीने के नाम पर उसकी आँख चमक आयी थी

काकी : ये पैसे ले और रामु की दूकान से ठंडा ले लेना तुम दोनों और मेरे लिए तमाखू की एक पुड़िया भी, और ये बचा हुआ भूना और लड्डू ले जा और अपने घर में रख दे "
राधा : वो तो ठीक है पर मेरे घर में ताला लगा हुआ है
काकी : तो फिर एक काम कर पर इसके मामा के घर जा तेरी माँ वही गयी है, इसकी मामी को बता देना की चंदा बिटिया मेरे पास है और और अपनी माँ से चाभी ले आना, वापिस आते समय रामू की दुकान से सामान ले लेना , राधा का मन तो नहीं था इतनी दूर जाने का का लेकिन मेरी शर्म करके चुप रही और फिर धीमे कदम से चलते हुए वापिस उसी गली में चली गयी जहा से कुछ देर पहले हम दोने आये थे।

मैं : हाँ तो काकी आप क्या बता रही थी सुम्मु काकी के बारे में ?
काकी : कुछ नहीं बीटा, छोड़ कुछ नहीं रक्खा इन बातों में, पुरानी बात याद करके दुख ही मिलता है
मैं : नहीं काकी, मैं तो कब से आपसे मिलके जानना चाहती थी सब कुछ, यहाँ कोई ज़्यदा बात नहीं करता माँ के बारे में
काकी : मैं करती हूँ ना तेरी माँ को याद भी और उसके बारे में बात भी लेकिन तेरे मामा मामी को अच्छा नहीं लगता की मैं कुछ बोलू इसलिए मुझसे दूर भागते है
मैं : क्यों काकी ऐसा क्या कारण है जो वो बात नहीं करते मम्मी के बारे में और मम्मी भी कभी बात नहीं न कुछ बताती है
बुढ़िया काकी ने एक लम्बी साँस से और एक पल को चुप रही की मुझे बात बताये या न बताये , लेकिन उनकी आदत ही थी सब की खबर यहाँ वह करने की तो भला कैसे चुप रहती। मेरे 2-३ बार मानाने पर मान गयी और बोली

काकी : चंदा बेटा बात कुछ ऐसी है की जो कहानी मैं बताने जा ही हूँ वो गांव के सभी बड़े बूढ़ो को पता है, आजकल के बच्चों को छोड़ कर, लेकिन अब बहुत समय बीत गया तो लोग बात नहीं करते उस बारे में ।

कहानी तेरी माँ की है जब वो तेरे से भी एक दो साल छोटी थी, तेरे नाना का इस गांव के साथ साथ शहर तक में खूब नाम था, किसी ज़माने में तेरे नाना के पुरखे राजा महाराजा के यहाँ पंडिताई करते थे, तेरे नाना भी प्रकाण्ड पंडित थे, समय के साथ चीज़े बदली थी लेकिन फिर भी तेरे नाना के अंदर श्रेष्ठ कुल से होने का घमंड वैसा ही रहा। तेरे नाना अपने दोनों बच्चों से खूब प्रेम करते थे लेकिन जैसा पुराने टाइम में होता था की तेरे नाना ने तेरी माँ को पढ़ने नहीं भेजा, घर में ही एक अध्यापक बुला कर तेरी माँ को इतना पढ़ा लिखा दिया की वो अपना जीवन आसानी से चला सके, वो औरतो का घर से बहार जा काम करने के विरोधी थे।

खैर तेरी माँ सविता का जीवन मजे से गुज़र रहा था, घर में ज़्यदा कुछ करने को होता नहीं था, घर में नौकर चाकर हमेशा रखते थे घर सँभालने के लिए, तेरे नाना अगर बाहर व्यस्त रहते तो तेरी नानी अपने घर और भगवान में, तेरी नानी ने शायद ही जीवन किसी दिन पूजा छोड़ी हो या कोई व्रत ना रखा हो, माँ बाप की देखा देखी तेरी माँ भी पूजा पाठ करने लगी, तेरा नाना को बहुत ख़ुशी होती थी जब भी तेरी माँ को मंदिर जाते या पूजा करते देखते थे, ये खानदानी असर था शायद की सरिता काम उम्र में ही समझदार हो गयी थी और सयानो जैसी बातें करने लगी थी, तेरा मामा शम्भू तेरी मान से ८ साल छोटा था तो अभी उसका जीवन लाड में ही गुज़र रहा था। सब कुछ अच्छा चल रहा था पंडित राम शरण के परिवार में लेकिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था

उस साल बरसात के दिन में बड़ी भयंकर बारिश हुई, लगातार 6-७ दिन तक सूरज नहीं निकला और सब खेत खलियान में पानी ही पानी, लगता था इंद्र देव किसी बात से रुष्ट हो गए हो, एक शाम थोड़ी बारिश रुकी ही थी की बांध पर से खबर आयी की बांध का एक हिस्सा टूट गया है और पानी खेतो में भर गया है, मेरे घर से सामने के खेतो में लबालब पानी भर गया था, हमारा गांव खेतो से थोड़ा ऊँचा है इसलिए पानी अभी घरो तक नहीं पंहुचा था लेकिन जैसे जैसे रात बीत रही थी मालूम हो रहा था की पानी घर तक ना पहुंच जाये, तेरे नाना और तेरे काका में खूब बनती थी क्यकि तेरे काका सरकारी नौकरी में थे और बिरादरी में भी बराबर तो तेरे नाना ने मुझे एक नौकर बुला भेजा की रात उनके घर में ही बिताये क्यंकि हो सकता है रात में पानी बढ़ जाये और मेरे घर में घुस जाये, मैं कुछ ज़रूरी सामान एक झोले में डाल और अपने घर में ताला मार कर उनके घर चली गयी, लगभग तीन दिन वही रही, तेरी माँ और मैं एक ही कमरे में सोते थे और और सारी रात तेरी माँ मुझे तंग करती कहानी सुनाने के लिए, जब तक मैं उसे कोई अच्छी कहानी नहीं सुनाती तब तक वो नहीं सोती थी, वो शरीर और मन से तो बड़ी हो गयी थी लेकिन शायद अभी भी कही उसमे बचपना बाक़ी था,

खैर ३ दिन बाद जब बारिश रुकी मौसम खुला तो मैं अपने घर वापिस आगयी लेकिन मैं अकेली वापिस नहीं आयी थी मेरे साथ तेरी माँ भी आयी थी, दरअसल जब बांध टूटा था तब गांव के किसान और गांव के जितने के जवान लड़के थे उन सबने अपनी ड्यूटी लगायी थी बाँध को ठीक करने और बांध की रखवाली करने की, क्यंकि डर था की कहीं रात में पानी ज़ायदा बहाव से आया तो हो सकता है की जानवर या गांव का कोई मकान बाढ़ में बह जाये या किसी की जान चली जाये। जब मोसम खुला तो गांव के सब बच्चे और लड़किया बांध पर घूमने भी पहुंचने लगे पानी का बहाव देखने, ये गांव वालो के लिए एक प्रकार का मनोरंजन था। इसलिए सरिता भी मेरे साथ बांध घूमने आगयी थी,

मैंने घर आकर बैठी ही थी की पीछे से राधा की माँ आगयी शायद उसने सरिता को आते हुए देख लिए था मेरे साथ, राधा की माँ तेरे नाना के घर में उस समय भी काम करती थी और उसकी तेरी माँ से खूब बनती थी क्यूंकि दोनों की उम्र में ज़ायदा अंतर नहीं था , कुछ देर बात करके दोनों मुझे बता कर बांध देखने निकल गयी, दोनों सहेलिया बहुत देर तक बांध पर घूमती फिरती रही, पानी पहले के मुकाबले काफी कम था लेकिन फिर भी आम दिनों के अनुपात में नदी उफान पर थी,

थोड़ी देर में काली घटा फिर से घिरने लगी और देखते देखते आसमान फिर से काले बदलो से भर गया ऐसा लगा मानो दिन में ही रात होने को आयी हो, बांध घूम रहे लोग जल्दी जल्दी अपने घर की ओर भागे लेकिन ये दोनों सहेलिया बांध पर ही घूमती रही मेरा घर सामने ही था इसलिए इन दोनों को कोई जल्दी नहीं थी, लेकिन फिर जैसे ही आसमान में बिजली कड़की तो दोनों ने वहा से घर की ओर भागने का इरादा कर लिया, लेकिन बांध से उतरने से पहले पता नहीं सरिता के मन में क्या बात समायी की की वो बांध उतर कर नदी के बिलकुल करीब एक झाड़ी की टहनी पकड़ के अपने कीचड से सने पैर धोने लगी,

राधा की माँ ने मना भी किया लेकिन सरिता ने एक न सुनी, जब पैर अच्छे से धुल गया तब सरिता पलटी और वापिस बांध पर उस झाड़ी के सहारे से चढ़ने लगी, लेकिन कई दिन की बारिश से उस झाड़ी की जड़ ढीली हो गयी थी, सरिता के शरीर का बोझ ना उठा पायी और झाड़ी जड़ समेत उखड गयी और सरिता पीठ के बल धराम से बहती नदी में जा गिरी। सरिता को तैरना नहीं आता था, बस बचपन में कभी कभी किसी तीज त्यौहार पर डुबकी लगा लेती थी लेकिन आज इस उफान कहती नदी में वो डूब रही थी, राधा की माँ ये देख के घबरा गयी और जोर जोर से चिल्लाने लगी लेकिन गांव के जायदातर लोग जा चुके थे जो एक दो थे उनमे से किसी की हिम्मत नहीं हुई उस उफनती नदी से टक्कर लेने की, सरिता पानी के बहाव से लड़ने की बहुत कोशिश कर रही थी लेकिन हर गुज़रते पल के साथ लग रहा था की साँसों की डोरी साथ छोड़ देगी, फिर धीरे धीरे सरिता का शरीर स्थिल पड़ने लगा और हाथ पाव ने काम करना करना बंद कर दिया, नदी का ना कितना पानी उसके पेट में जा चूका था और अब उस पर एक बेहोशी सी छाने लगी थी की तभी सरिता को ऐसा लगा जैसे कोई उसे खींच रहा हूँ लहरों के विपरीत, सरिता का शरीर पहले ही ढीला पड़ चूका था इसलिए बिना किसी विरोध के खींचता चला गया फिर जैसे लगा उसका शरीर हवा में ऊपर उठने लगा हो उसने बड़ी मुश्किल से अपनी बंद होती आँखों को खोल कर देखा सामने एक धुंधली सी छवि थी, कोई था जिसने उसे अपनी मज़बूत बाजुओं में उठा रखा था, लेकिन वो ज़्यादा देर तक अपनी आंखे नहीं खोल पायी, उसकी आंखे बंद होगयी और वो बेहोश हो गयी।
 
मैं किसी काम से आंगन में आयी तो बांध पर राधा की माँ की परछाई देखी और उसको उछलते हुए देख कर ही मैं समझ गयी की ज़रूर कुछ गड़बड़ हुई है मैं फ़ौरन भागी बांध की ओर, जब तक वह पहुँचती तब तक देखा की एक और परछाई है जो किसी लड़की को अपने हाथो में उठाये हुए है, फिर उस परछाई ने धीरे से उस लड़की के शरीर को नीचे जमीन पर रख दिया और लड़की के शरीर पर झुक कर उसके शरीर को दबाने लगा, कुछ मिनट उस लड़के ने पेट और छाती पर दबाया होगा की अचानक जमीन पर लेती लड़की का शरीर हिला और फिर शांत हो गया, मैं लगभग दौड़ती हुई बांध पर पहुंची तब तक उस लड़के ने पास खड़ी राधा से कुछ कहा और फिर तेज़ी से बाँध के दूसरे छोर की ओर दौड़ता हुआ निकल गया।

मैंने पास जा कर देखा सरिता जमीन पर लेटी खांस रही थी और पास में उसने पानी और जो कुछ दिन में खाया था उलटी कर रखा था, मैंने झट से जमीन पर बैठ कर सरिता को गले लगा लिया, मेरी जान ही निकल गयी थी किसी अनहोनी का सोच कर, अब सरिता को होश में देखा तो जान में जान आयी, राधा की मा ने जल्दी जल्दी पूरी बात बताई, फिर हम दोनों सरिता को सहारा दे कर घर ले आये।

मैंने घर आकर राधा की मा को उसके कपडे लेकर आने को बोला और सरिता को अपने घर ले जा कर कपडे उतरने के लिए कहा, पहले तो वो शर्मायी लेकिन फिर उसने कपडे उतार दिए, उसका शरीर अभी भी थर थर काँप रहा था, सरिता के नंगे शरीर को मैंने जल्दी से एक कम्बल में लपेटा और उसको बिस्तर में लिटा दिया फिर जल्दी से स्टोव जला कर एक कटोरी में कडुआ तेल गरम किया और अपनी कुछ जड़ी बूटी डाल कर सरिता के शरीर की मालिश करने लगी इतनी देर में राधा की माँ अपने कपडे ले कर आगयी वो भी कपकपा रही थी लेकिन ये कपकपी ठण्ड से नहीं डर से थे, मैंने उसको जल्दी से स्टोव पर चाय चढाने के लिए बोला और सरिता के शरीर की मालिश करती रही, जब मालिश करते करते उसके पेट पर 4-५ बार दबाव डाला तब एक बार फिर सरिता ने उबकाई ली और और उसके मुंह से थोड़ा पानी निकला जो उसी कम्बल पर गिर पड़ा, लेकिन इस उबकयी ने सरिता को बहुत रहत दी थी, कम्बल और तेल की मालिश ने सरिता के जिस्म को गर्मी दे दी थी जिस से उसे बहुत आराम लगा, तब तक राधा की माँ चाय बना लायी, मैंने सरिता का सर उठा कर उसे गरम चाय के कुछ घूँट पिलाया और वापिस कम्बल में लपेट कर सुला दिया।

मैंने अब राधा की माँ की खबर ली, पहले तो उसे खूब डांटा लेकिन इसमें उस बेचारी क्या गलती थी फिर मैंने उस से पूछा की वहा और कौन कौन था जिसने ये दुर्घटना देखी, राधा की माँ ने जैसा बताया उस हिसाब से उस टाइम केवल धोबियों के 2-४ लड़के थे और कोई नहीं, मैंने राधा की माँ को ज़ुबान बंद रखने के लिए कहा मैं नहीं चाहती थी की तेरे नाना तक बात पहुंचे और कोई बखेड़ा खड़ा हो, साथ में ये भी तसल्ली थी की केवल धोबियों के बच्चो ने देखा था इस घटना को, और धोबियों की इतनी हिम्मत तो थी नहीं की जाकर सीधे इस घटना के बारे में पंडित जी को बता सकें, मैंने राधा की माँ को भी चाय पिलाई और उसको घर भेज दिया,

अभी बारिश शरू नहीं हुई थी, मैंने कमरे का दरवाजा बाहर से बंद किया और जल्दी से धोबियों के घर की ओर चल दी, सुम्मु धोबी की पत्नी मुझे घर के बाहर ही एक गट्ठर लेके जाती हुई मिली, सुम्मु ही सारे धोबियों का मुखिया था, पुराने समय में तेरे नाना के पुरखे इनको गांव में लाये थे तब से ये धोबी यही बस गए थे। अब ये उनका भी गांव था। मैंने जल्दी जल्दी उसको समझाया की वो बच्चो के परिवार वालो को समझा दे की जो हुआ उसकी चर्चा गांव में ना करे किसी से, मैं जानती थी के ये बात छुपने वाली नहीं है फिर भी मैं नहीं चाहती थी की ये खबर गांव में जंगल के आग जैसे फैले।

वहा से मैं जल्दी से वापिस आयी और आते हुए गांव के एक लड़के से तेरे नानी के पास खबर भिजवा दी की आज सरिता मेरे पास रुकेगी, अगर रात में बाढ़ के कारण अगर कुछ दिक्कत होगी तो अँधेरे में सरिता मेरी मदद कर देगी।

मैं सारा काम निबटा कर घर आयी, देखा तो सरिता बेखबर सो रही थी, मैंने जल्दी जल्दी खाना बनाया और सरिता कपडे धो कर कमरे में ही एक ओर सूखने के लिए डाल दिए, फिर मैं भी सरिता के पास ही लेट गयी तब तक बाहर झमझम बारिश पढ़ने लगी, मैंने घडी की ओर देखा शाम के सात बज आया था मैंने सरिता की नब्ज़ देखी, सामान्य चल रही थी मैं उसको उठाना ठीक नहीं समझा और मैं भी कुछ खाये बिना सो गयी।

सुबह कोई ५ बजे कुछ आवाज़ हुई तो मैंने आँख खोल कर देखा सरिता कमरे के बीचो बीच खड़ी इधर उधर देख रही थी, शायद उसका पैर नीचे रखे चाय के कटोरे से टकराया था, मैं उठ कर बैठ गयी। सरिता बिलकुल नंगी अपनी चुत हाथ से दबाए खड़ी थी, कपडे की एक धज्जी भी नहीं थी उसके शरीर पर, मैंने पूछा " क्या हुआ ?" "काकी बहुत तेज़ मूत लगी है, नंगी कैसे बाहर जाऊं ?"
मैंने उसको ठीक ठाक देख कर सुख का साँस लिया और दिवार पर टंगी एक चुन्नी उसको पकड़ा दी " ये लो अभी इतना भी सवेरा नहीं हुआ इसे लपेट ले और हो आ, वो जल्दी से भाग कर लैट्रिन चली गयी शायद उसको बहुत तेज़ आयी थी , कोई १० मं में वापिस आयी तो मैंने उसको राधा की माँ के लाये हुए कपडे दिए, उसने चुपचाप पहन लिए। बाहर बारिश रुक चुकी थी, मैंने उस से खाने का पूछा तो उसने मना कर दिया। वापिस हम दोनों फिर से बिस्तर पर लेट गए, कुछ करने का था नहीं, बादल के कारण बाहर अभी भी अँधेरे जैसा था। हम दोनों बिस्तर में लेटे लेटे उजाला फैलने का इन्तिज़ार करने लगे।
 
कुछ देर ख़ामोशी रही फिर सरिता अचानक पूछ बैठी, "काकी पिताजी को पता चल गया है क्या ? वो तो मुझे मार ही डालेंगे।"
मैंने दिलासा दिलाया की चिंता की कोई बात नहीं है ज़ायदा लोगो ने नहीं देखा और बाकि मैंने सबको मना कर दिया तेरे पिताजी को बताने के लिए, वैसे भी आधा गांव तो तेरे पिताजी से घबराता है , किसकी हिम्मत होगी उनको बताने की । ये सुनकर सरिता को थोड़ी तसल्ली हुई, सरिता कुछ पल चुपचाप सोंचती रही फिर पूछा " काकी वो कौन था जिसने मुझे डूबने से बचाया "
अब ये बात सुन मैं भी सोंच में पड़ गयी, सरिता को घर लाने और इसकी देखभाल के चक्कर में मैं पूछना ही भूल गयी थी,

" पता नहीं बिटिया, मैं दूर थी देख नहीं पायी, आने दे तेरी सहेली को फिर उस से पूछ लेना उसी ने देखा था और कुछ बात भी की थी उस लड़के से।
सरिता : हाँ काकी, मैंने आँख खोलके देखने की कोशिश करि थी लेकिन बस धुंधला दिखा नहीं तो पहचान लेती, काकी अगर वो मुझे नदी से नहीं निकलता तो मैं मर जाती ना,
काकी : शुभ शुभ बोल बिटिया, भगवान ने बड़ी कृपा की तुझपर, अब जब ठीक हो जाएगी तब नदी पार मंदिर में प्रसाद चढ़ा आना, देवी माँ सब ठीक कर देगी।
सरिता : हाँ काकी ज़रूर जाउंगी, मुझे तो रात में सपने में भी देवी माँ दिखाई दे रही थी, जैसे बुला रही हो, तुम ठीक कहती हो काकी मैं ज़रूर जाउंगी चढ़ावा चढाने !

बाहर अब उजाला फ़ैल गया था, मैंने सरिता के चेहरे की ओर देखा वो किसी सोच में थी फिर पता नहीं क्या सोंच कर खुद ही मुस्कुराने लगी।
मैं उठ कर बहार आयी, आसमान थोड़ा खुल गया था, मैंने सरिता के कपडे बाहर सूखने के लिए डाल दिए और चाय बना कर सरिता को दी , घर में रखे बिस्कुट के साथ हमने चाय पि। हम दोनों चाय पि ही रहे थे की राधा की माँ आगयी, वो भी सरिता ठीक देख के खुश हो गयी, मैं घर के बाकी काम में व्यस्त हो गयी तब तक दोनों सहेलिया आपस में बाते करने लगी, कुछ देर में सरिता के कपडे कुछ सुख गए तो उसने गुसलखाने में जाकर नहाया और आपके कपडे पहन कर तैयार हो गयी, हम तीनो ने रात का बचा बसी खाना खाया, खाना खाते खाते मैंने राधा की मा से पूछा " अरे वो छौरा कौन था जो राधा को नदी में से निकला ?" राधा की माँ झट से बोली जैसे वो मेरे पूछने का ही इन्तिज़ार कर रही हो " पता नहीं काकी, किसी और गांव का था शायद "
काकी : अच्छा फिर वो तुझे क्या बात कर रहा था इसको निकलने के बाद ?"
" वो काकी बस ये बोल रहा था की पेट से पानी निकल गया है 1-२ घंटा में ठीक हो जाएगी ये, फिर मैं कुछ पूछती इससे पहले चला गया "
मुझे उसकी बात में पता नहीं क्यों झूट लगा, लेकिन मैंने जायदा बहस नहीं की उस से, थोड़ी देर में दोनों सहेलिया तेरे नाना के घर के लिए निकल गयी, मैंने भी राहत की सांस ली की सरिता ठीक ठाक अपने घर चली गयी।

सब ठीक चल रहा था एक दिन मैं यही इस पेड़ के नीचे बैठी, तब उस टाइम इधर की दिवार नहीं थी तो यहाँ से सारे खेत और धोबियों का घर साफ़ दिखाई देता था , मैंने देखा की सरिता हाथ में एक गठरी लिए सुम्मु धोबी के घर जा रही थी, मुझे पता था की सुम्मु धोबी तेरे नाना के कपडे धोता है, लेकिन कपडे लेने वो या उसका बेटा जाता था, कभी तेरे घर से कोई सुम्मु के घर कपडा देने नहीं आया, और अगर देना ही था तो राधा की माँ भी पंहुचा सकती थी उसका तो रोज़ दिन का जाना आना होता था, मैं चपचाप यही बैठी सरिता के आने का इन्तिज़ार करती रही, लगभग एक घंटे के बाद मुझे सरिता सुम्मु के घर से आती दिखी, मुझे शक हुआ, आखिर इतनी देर सुम्मु के घर ? सरिता ने शाद मुझे इतनी दूर से देखा नहीं था जैसे ही वो थोड़ा पास आयी तो मुझे देख के ठिठक गयी , मैंने उसको आवाज़ देकर बुलाया तो मरे मरे कदमो से मेरे पास आयी।

" अरे बिटिया क्या करने आयी थी सुम्मु के घर "
" वो काकी माँ ने सुम्मु काकी के लिए कुछ घर का सामान भेजा था तो वही देने आयी थी"
" अच्छा क्या सामान दे दिया पण्डितायीं ने ?"
" वो घर में ठेकुआ, पूरी बना था घर में तो माँ ने बोला दे आ , इनके घर में ऐसा नहीं बनता इसलिए।
" वो सब ठीक है लेकिन तूने फिर इतना टाइम क्यों लगाया वहा " मैंने देखा तू एक डेढ़ घंटे से वही थी ?
"अरे काकी कहा टाइम लगा, बस उनको सामान देने लगी तो सुम्मु काकी ने रोक लिया की आज घर में खीर बानी है खा के जाना, तो बस वही खाने में थोड़ा टाइम लग गया"

मैं इस से ज़ायदा क्या पूछती, फिर घर का हाल चाल लेकर सरिता चली गयी, लेकिन मेरे मन में एक गाँठ से बैठ गयी, पंडित रामशरण की बेटी धोबी के घर पकवान लेके जाये और फिर उसके घर की बानी खीर खाये, ये मुझ बुढ़िया से हज़म नहीं हो रहा था। उस दिन से मैं सुम्मु के घर आते जाते नज़र रखने लगी, एक सप्ताह भी नहीं गुज़रा होगा की मैंने सरिता को फिर चुपके चुपके सुम्मु के घर जाते देखा, उस दिन मैं दरवाजे में खड़ी थी तो सरिता मुझे देख नहीं पायी, आज उसके हाथ में कुछ नहीं था, लेकिन फिर वही एक दो घंटा बिता कर छुपते हुए बहार निकली, इस बार मैंने नहीं टोका, फिर तो ये सीलसिला बन गया, सरिता सप्ताह में 2-३ बार सुम्मु के घर जाती और कुछ देर बिता कर वापिस अपने घर निकल जाती, श्रावण बीत रहा था और तीज का त्यौहार आगया, तीज के पर्व पर गांव की औरतों व्रत रखती और और नदी पार (दूसरे गांव ) बने मदिर में माता के दर्शन करने जाती, पंडित रामशरण का परिवार नहीं जाता था, लेकिन मैं चली जाती थी, मेरा इसी बहाने घूमना फिरना हो जाता था।

माता के मंदिर केवल हमारे गांव ही नहीं आसपास के गांव के लोग भी आते थे, खूब भीड़ भाड़ होती थी मेला लगता था और बच्चो को मस्ती करने का मौका मिल जाता था, मैं दर्शन करके वही 2-३ औरतों के साथ बैठ कर बातें करने लगी की तभी मैंने सरिता को देखा, उसने हरे रंग का नया सूट पहना हुआ था, हरे रंग की चुडिया और हाथ में पूजा की थाली लिए चली आरही थी, आज उसके साथ में राधा की माँ नहीं थी,

लेकिन मैंने जो उसके पीछे चलते हुए सुम्मु धोबी के बेटे दीनू को देखा तो जैसे मेरे प्राण ही निकल गए, सरिता आगे आगे चल रही थी और दीनू उसके पीछे पीछे, सरिता के चेहरे पर दुनिया भर की ख़ुशी थी मानो उसकी हर मुराद पूरी हो गयी हो, दीनू भी ऐसे चल रहा था मानो अगर सरिता की तरफ अगर किसी ने टेढ़ी नज़र से भी देखा था वो साडी दुनिया से लड़ जायेगा। मैं हक्का बक्का देखती रही, वो दोनों अपनी दूनिया में इतने खोये हुए थे की उन्होंने मेरी ओर आँख उठा कर भी नहीं देखा, वो दोनों ऐसे ही चलते हुए मेरे सामने से गुज़रे, थोड़ा आगे बढे ही थे की तभी सरिता के बालों में अटका एक फूल निचे गिर पड़ा, इससे पहले की किसी का पैर उस फूल पर पड़ता की दीनू झट से झुका जमीन से फूल उठाने के लिए की तभी बिजली से कौंधी मेरे दिमाग में, हे भगवान ये तो वही है जिसने उस दिन सरिता का नदी से निकला था, मैंने दूर से देखा तो नहीं पहचान पायी, आज जो दीनू को जमीन से फूल उठाते देखा तो एक पल में पहचान गयी।
 
ये देख कर मुझे अब सब समझ आने लगा था, लेकिन मैं जितना सोचती उतना डर से काँप उठती, मैंने अभी दोनों की आँखों में प्रेम देखा था, मैंने बहुत दुनिया देखि थी, मुझे हवस और प्रेम में फर्क मालूम था, हवस कुछ पल या कुछ दिन के लिए होता है लेकिन प्रेम, प्रेम तो जन्मो जन्म का बंधन होता है और ये नया नया परवान चढ़ता प्रेम किसी की नहीं सुनता। मेरा मन आने वाले समय का सोंच कर काँप उठा। मैं वही बैठी रही, उनके आने का इन्तिज़ार करती रही, कुछ देर बाद वो लौटे और मेले की भीड़ में खो गए, मैं भी वहा से उठ कर घर आगयी,

अगले दिन भोर होते ही मैं पंडित रामशरण के घर जा पहुंची, पंडित जी से राम राम करके मैं तेरी नानी के पास जा बैठी, हाल चाल पूछ कर मैंने सरिता का पूछा , तेरी नानी ने बताया की वो पीछे की साइड होगी, आजकल फूल का पेड़ लगाने का धुनकी चढ़ा हुआ है, सारा दिन वही लगी रहती है, आजकल फूल कभी बालो में लगाती है कभी गजरा बनती है, पता नहीं क्या शौक पाल लिया है इस लड़की ने।

मैं वह से उठ कर पीछे की साइड आगयी वहा देखा तो सरिता ने पूरा बगीचा बना दिया था, बरसात के दिन थे तो सरे फूल पौधे खिले पड़े थे
मैं वही एक पटरी पर बैठ गयी और सरिता को भी अपने पास बिठा लिया।
" सरिता बेटा ये कौन सा नया रोग पाल लिया है तूने ?"
"काकी ये रोग थोड़ी ना है, देखो ना सब कितना सुन्दर लग रहा है "
"हाँ वो तो मैं देख ही रही हूँ बेटी, लेकिन अच्छा लगने के चक्कर में जीवन मत बर्बाद कर लेना "
" क्या बात कर रही हो काकी ? भला फूल लगाने से किसी का जीवन थोड़ी बर्बाद होता है "
" मैं फूल की बात नहीं कर रही हु मेरी गुड़िया, मैं प्रेम की बात कर रही हु"

प्रेम का नाम सुनते ही सरिता चौंक गयी, इस से पहले कुछ बोलती मैंने हाथ के इशारे से मना कर दिया " मुझे सब पता है, अब थोड़ी देर में मेरे साथ मेरे घर चलना वही बात करुँगी तेरे से।
 
मैं कुछ देर वह बैठी रही फिर तेरी नानी को बता कर सरिता को अपने साथ अपने घर ले आयी। सरिता ने रास्ते में बात करने की कोशिह की तो मैंने मन कर दिया, मैं नहीं चाहती थी की कोई हमारी बात सुने।

घर पहुंच कर सरिता को मैंने घर में बिठाया और थोड़ी देर बाद मैंने बोलना शुरू किया
काकी : हाँ तो तुझे पता है की तू कर क्या रही है "
सरिता : क्या हुआ काकी मैंने कौन सा पाप किया है जो आप ऐसे बोल रही हो "
काकी : काकी भोली मत बन मुझे सब पता है जो उस दिन तीज के पर्व पर जो तू खेल खेल रही थी।
सरिता : मुझे पता है काकी, मैं उसी बात पर कह रही हूँ की मैंने कोई पाप नहीं किया।
काकी : क्या मतलब, तेरा दीनू के साथ कोई चक्कर नहीं है
सरिता : वो मैंने कब मना किया काकी, मैं बस इतना बता रही हूँ की ऐसा कुछ नहीं है
काकी : चल फिर तू ही बता की क्या है फिर ?
सरिता : देखो काकी मुझे पता है की आपने मुझे उस दिन मंदिर से आते देख लिया था दीनू के साथ, ये भी सच है की उस दिन दीनू ने ही मेरी जान बचायी, लेकिन ये भी उतना ही सच है की मैं दीनू से प्रेम करती हूँ, लेकिन ये बिलकुल गलत है की मैं कोई पाप कर रही हूँ, काकी प्रेम करना पाप तो नहीं है ना।

मैं हैरत में पड़ गयी थी उसी बात सुनकर, उसने ये बात जितने आराम से आत्मविश्वास भरे शब्दों में कही थी मैंने उसकी कल्पना भी नहीं की थी, मुझे लगा था की सरिता झेंपेगी या झूट बोलेगी, लेकिन ये तो आंख से आँख मिलकर बात कर रही थी। मुझे भी थोड़ा गुस्सा आगया, मैंने थोड़ा चीखते हुए बोली

काकी : कब से चल रहा है ये सब, अगर तेरे बाप को पता चला ना तो दीनू क्या दीनू के पुरे कुनबे को गाओं छोड़ के जाना पड़ेगा, तुझे कुछ अंदाजा नहीं है अपने बाप की ताक़त का।

सरिता : ( उसी संयम के साथ ) तो क्या हुआ काकी अगर हुआ तो मैं भी दीनू के पीछे पीछे चली जाउंगी गांव से, जहा दीनू वह मैं ?
काकी : तेरा दिमाग ख़राब हो गया है क्या छौरी, तुझे पता पता भी क्या बक रही है ?
सरिता : सच तो बोल रही हूँ , जब भगवन राम को अयोध्या से से निकला गया था तब भी तो सीता माँ उनके पीछे पीछे वनवास के लिए गयी थी, मैं भी वैसे ही दीनू के साथ साथ चली जाउंगी काकी, सब छोड़ दूंगी मैं दीनू के लिए।
काकी : अरे पागला गयी है क्या बिलकुल ही, तुझे पता भी है दीनू का असली नाम " दीन मुहम्मद " है। मुसलंमान है वो, और ऊपर से धोबी, तेरा बाप तेरे साथ साथ सबको मार देगा लेकिन तेरी बयाह कही दीनू से नहीं होने देगा।
सरिता : मैं जानती हूँ काकी की दीनू मुसलमान है, जिस दिन मैंने पहली बार उसका हाथ पकड़ा था उसी दिन उसने बता दिया था की वो मुसलमान है और मैं किसी धोके में ना रहू। उसने बताय था की गांव में कोई मज्जित नहीं है इसलिए वो अपना नमाज़ नहीं करते लेकिन साल में ईद के दिन दूसरे गांव जाता है वो अपने बाप और रिश्तेदार के साथ, काकी उसने सब सच सच बता दिया मुझे, और मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता काकी की किस जात धर्म का है, पता है क्यों काकी ? क्यंकि उस दिन जब मैं डूब रही थी तब मैंने भगवन को सच्चे मन से आवाज़ दी थी की भगवन मुझे बचा लो, मैं मरना नहीं चाहती, और जब मैं बस मरने ही वाली थी तब दीनू आया मुझे बचने के लिए काकी, दीनू को किसने भेजा ? उसी भगवन ने भेजा ना जिसको मैंने पुकारा था, काकी अब देनु ही मेरा देवता है, वही मेरा पति है फिर धर्म चाहे जो भी हो।

मैं उसकी इतनी परिपक्क बात सुन कर दांग रह गयी , मुझे दूर दूर तक ऐसा गुमान भी नहीं था की इतनी काम उम्र की लड़की ऐसी बात करेगी , मैं गुस्से से पागल हो रही थी, लेकिन अब सरिता का समझाना बेकार था, ये कच्ची उम्र का प्यार था, बहुत उतरा जा सकता है लेकिन कच्ची उम्र का प्यार नहीं। मैंने अपने गुस्से पर काबू किया और अपनी हार मानते हुए कहा,

काकी : तो फिर ठीक है है जो मन आये कर, लेकिन बस इतना बता रही हूँ की इस कहानी का अंजाम अच्छा नहीं होगा।
सरिता : ठीक है काकी, बस आपसे एक ही निवेदन है की थोड़े दिन और शांत रहना किसी को बताना मत, दीनू की शहर में एक जगह कच्ची नौकरी लग गयी गई वहा कोई सरकारी होटल बन रहा है, अगले साल तक होटल में सब रेडी हो जायेगा तब दीनू की नौकरी पक्की हो जाएगी तन्खा भी दुगनी मिलेगी और साथ में दीनू ने बात किया है साहब लोग से उनका कपड़ा यही आता है धूँलने, जब होटल बन जायेगा तब सारा चादर तौलिया सब यही धुलेगा तब सुम्मु काका का भी काम अच्छा हो जायेगा, फिर मैं दीनू के साथ शहर चली जाउंगी फिर पिताजी को भी आपत्ति नहीं रहेगी।

मैं मुँह खोले हैरत से देख रही थी, अभी महीना दो महीना पहले तक मुझसे कहानी सुंनने की ज़िद करती थी लेकिन आज मुझे आने वाले दिन की प्लानिंग ऐसे बता रही थी जैसे कोई कहानी सुना रही हो।

काकी : तुझे ये सब किसने समझाया ? दीनू ने ?
सरिता : (हलकी मुस्कान के साथ) काकी आपने तो बचपन से देखा है दीनू को, आपको लगता है की वो इतना सोंच सकता है, उसने तो बस नौकरी का बताया था फिर मैंने उसको समझा की अपने बाबू से बात करे कपड़ा धोने के लिए, जब बाबू लोग उसके कपड़ा धुलाई से खुश रहेंगे तब उसको होटल का कपड़ा धोने का काम दे देंगे, सब बाबू लोग खुश है उसके काम से, मेहनत तो खूब करता ही और बाबू लोग की सेवा भी करता है इसलिए हमको पूरा विश्वास है सब अच्छा हो काकी, तुम चिंता न करो काकी मैं दीनू के साथ बहुत खुश रहूंगी।

कहा तो मैं सोच के लायी थी की इसको डरा धमका कर समझूंगी की वो दीनू से दूर रहे लेकिन उल्टा सरिता ने ही मुझे समझा दिया था, एक बार तो मुझे भी बात जांच गयी की बात तो सही है, दीनू गांव का सब से सीधा और शरीफ लड़का था, अपने काम से काम, दीनू या तो नदी पर अपने बापू के साथ कपडे धोता दीखता था या घर में अपनी माँ का हाथ बटाते हुए। दीनू का और कोई भाई बहन नहीं था तो उसी को अपनी माँ की मदद करनी पड़ती थी , हर माँ का अपना बेटा प्यारा होता है लेकिन मैं खुद अपने बेटे बाद किसी को सबसे ज़ायदा स्नेह से देखती थी तो दीनू ही था, उसकी कुछ महीने पहले शहर में नौकरी लगी थी उस से पहले वही अक्सर बाजार से मेरा सौदा सर्फ़ लाता था।

काकी : क्या तेरा और दीनू का चक्कर दीनू के माँ बाप को भी पता है ?
सरिता : नहीं काकी, अभी नहीं, जब तक नौकरी पक्की नहीं होगी तब तक नहीं, आप भी मत बताना उनको
काकी : फिर तो क्या करने जाती है उसके घर चोरी चोरी
सरिता : वो हम सुम्मु काकी से झूट बोली की माँ कपड़ा सिलाई सीखने भेजी है, दीनू की मा को सिलाई आता है।
काकी : तो अब तू सिलाई भी सीख रही है
सरिता : हाँ और खाना पकना भी, अपने घर में नौकरानी सब है तो काकी से सीख रही हूँ , और सुम्मु काकी से सीखने का फ़ायदा भी है, इसी बहाने दीनू मेरे हाथ का बना हुआ खाना खा लेता है और अब उसको काकी की मदद भी नहीं करनी पड़ती।
मैं हैरत से मुँह खोले देख रही थी मेरी समझ नहींआ रहा था की क्या बोलू , इस लड़की ने मुझे लाजवाब कर दिया था, मैं जो पुरे गांव की खबर रखती, सब ऊंच नीच पर लोगो को टोकती आज एक जवानी की ओर बढ़ती लड़की से हार गयी थी, मेरे पास उसकी किसी बात की काट नहीं थी, या शायद मेरा प्रेम था सरिता और दीनू के प्रति जो मैं शायद अंदर से उनके प्रेम को परवान चढ़ते देखना चाहती थी।

मैंने सरिता को वचन दे दिया था की मैं किसी को कुछ नहीं बताउंगी, दोनों का प्यार धीरे धीरे परवान चढ़ता गया, मुझे कभी कभार सरिता सुम्मु के घर जाती या आती नज़र आती लेकिन अब मैंने टोकना छोड़ दिया, इसी बीच में तेरा काका गांव आगया था बुरी खबर लेकर की मेरा बेटा विष्णु विदेश चला गया बिना बताये और वह से चिट्ठी भेजी तब पता चला, तेरे काका को सदमा सा लग गे इस घटना से और वो बिस्तर लग गए, दुःख मुझे भी बहुत था आखिर इकलौता बेटा था सारा जीवन हॉस्टल में रहा फिर भी लगता था की अपने देश में है जब चाहे आना जाना हो सकता है, लेकिन अब इतनी दूर विदेश गया तो ऐसा लगा मनो प्राण निकल के ले आगया, तेरे काका को इस लिए भी दुःख गया था क्यूंकि उन्होंने हाथ करके विष्णु को घर से दूर रखा ये सोच कर की गांव के रह कर गवार ना रह जाये, अब ऐसा शहरी बना की अब शहर क्या देश से ही दूर चला गया। तेरे काका इस सदमे से उबार नहीं पाए और चल बसें

उनकी अन्तेष्ठी में सब आये, पंडित जी भी, सुम्मु की पत्नी तेरे काका के श्राद्ध तक मेरे साथ रही लेकिन वो समय ऐसा नहीं था जो मैं उस से सरिता या दीनू के बारे में बात करती।

तेरे काका की मिर्तु ने मुझे अंदर तक तोड़ दिया था, गांव में जब कभी किसी के घर में गमी होती मैं मैं सब को संभालती थी लेकिन खुद को संभालना मुश्किल था, एक दिन भरी दोपहरी में मुझे घबराहट होने लगी तो खेत से सटे बाग़ में चली गयी और वही घंटो अकेले में रोती रही और खुद से बातें करती रही, जब बहुत देर मुझे बैठे बैठे हो गयी तो मैं उठ कर घर की ओर चल दी, मन दुखी था तो मैं बहुत धीरे धीरे चल रही थी की तभी मुझे पुआल की कोठी की पीछे से अजीब सी आवाज़ आयी, मैं दुनिया देखि थी मुझे समझते देर नहीं लगी ये तो रति में डूबी हुई आवाज़ है,

मैं चुपके से पीछे से घूम कर आयी और एक छोटी ढेरी की ओट से देखा की नीचे पुआल के बिस्तर पर एक मरदाना शरीर लेता है और ऊपर एक जवान लड़की का शरीर उछल उछल के कूद रहा, लड़की के शरीर में मनो एक बिजली सी कौंध रही थी और वो किसी रेलगाड़ी की जैसी रफ़्तार से उछल रही थी, नीचे लेटा लड़का भी कभी कभी पूरी शक्ति लगा कर धक्का लगता तो लड़की के मुँह से एक सीत्कार सी निकल जाती, हर धक्को के साथ दोनों के शरीर में एक अजीब सी ऐठन हो रही थी, लड़की तो मनो किसी और ही लोक में थी एक बार जो उसने अपनी भारी कमर ऊपर तक उठा कर जो धाड़ से जो पटका तो लड़का बिलबिला गया और चिल्ला पड़ा, बस कर सविता, सांस तो लेने दे, लेकिन उसपर चढ़ी सरिता जैसे गुर्राई, अभी नहीं दीनू आज मत रोक, आज कोई बहाना नहीं, तुझे पता है की मैं तुझे मन से पति मान चुकी हूँ आज मुझे तन की प्यास भुझा लेने दे, मज़ा आरहा है ना ?, ऐसे ही रोज़ मज़ा दूंगी बस तू मुझसे दूर मत भागा कर,

इतना कह कर सरिता ने वापिस से अपनी कमर उठा उठा कर दीनू के शरीर पर कूदने लगी और अब शायद दीनू को भी समझ आगया था की जो सरिता को चाहिए वो बिना लिए मानेगी नहीं इसलिए उसने भी अब नीचे से रफ़्तार तेज़ कर दी और तेज़ी से अपनी कमर चला चला कर पेलने लगा, दोनों मेरे बच्चे जैसे थे मुझसे आगे देखा ना गया और मैं चुपचाप घर आगयी, तेरी माँ सरिता ने ना केवल अपना मन दीनू को दिया था बल्कि अब तो वो अपना तन भी दीनू के हवाले कर चुकी थी।
 
मैं वह से वापिस आगयी लेकिन मैं जानती थी जिस रास्ते पर अब सरिता चल चुकी है अब इस से वापसी नामुमकिन है। इस रस्ते का अंजाम ने बिरले ही किसी को सुख दिया हो। मेरा मन बार बार कचोट रहा था की अब जब भी सरिता मिले तो उसको समझाउ लेकिन अंदर से मैं भलीभांति जानती थी के वो मानने वाली नहीं है। इस समय वो जो कुछ कर रही थी उसकी वही ठीक लग रहा था और इंसान जब ऐसी इस्तिथि में हो तो उनको समझाना बेकार है।

अब तक तो चोरी चोरी प्रेम था लेकिन जब प्रेम के साथ सम्भोग शामिल हो जाये तब वो अँधा और बहरा हो जाता है, सरिता भी प्रेम और सम्भोग के आनंद में खोयी ये भूल गयी की गांव में केवल वो दोनों ही नहीं और भी लोग रहते है और गांव में रहने वालो की भी आँख और कान है उन्हें सब सुनाई देता है और सब दिखाई भी, मुझे पता था की ये भंडा जल्दी ही फूटेगा और फूटा भी।

मैं एक दोपहर कल्लू हलवाई के घर उसकी पत्नी का हाल चाल लेने गयी थी की राधा की माँ मुझे ढूंढते ढूंढते वह आ पहुंची , हांफते हुए बताया की मालिक ने बुलया है अभी। मेरा मन अंदर से डोल गया फिर भी मैं भगवान के नाम लेती लेती रामशरण जी के घर जा पहुंची, घर का दरवाज़ा बंद था, अंदर से पण्डितायीं ने किवार खोला और मैं अंदर चली गयी, राधा की माँ को बाहर से वापस भेज दिया। अंदर पहुंची तो देखा सरिता आंगन में जमीन पर औंधी पड़ी सुबुक रही थी और पंडित रामशरण एक कुर्सी पर बैठे आग उगलती आँखों से सरिता को घूर रहे थे , मैंने पंडित जी की ओर देख के पूछा "सरिता को क्या हुआ ? "

रामशरण : ( गुर्राते हुए ) ये तो तुम बताओ भाभी, इस गांव की हर खबर तो तुम्हारे पास ही होती है ना
काकी : मैं समझी नहीं भैय्या, क्या बोल रहे हो आप
रामशरण : भोली मत बनो भाभी, सब तुम्हारी नाक के नीचे हुआ और तुमने भनक तक न लगने दी, तुमको पता है ना की मैंने आपको हमेशा परिवार के जैसा माना फिर भी आपने ऐसा किया।
काकी : (अनजान बनते हुए )आखिर बताओ तो भैय्या हुआ क्या है ?
रामशरण : रहने दो काकी तुमने और इस मनहूस ने मिलके मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी, सारे जीवन की तपस्या भांग कर दी, मैंने पुरे जीवन अपने और अपने परिवार पर एक दाग नहीं लगने दिया और इस कलंकिनी ने पुरे गांव समाज के सामने पुरे परिवार के मुँह पर कालिख पोत दी

ऐसा बोलते बोलते रामशरण अपनी कुर्सी से उठ कर सरिता के पास पहुंचे और एक लात उसके पेट पर ज़ोर से मारी, सरिता दर्द से बिलबिला उठी और ज़मीन पर सीधी हो को कर चित लेट गयी। उसका चेहरा लाल भभोका हो रहा था और होंठ फैट के किनारी से खून और लार टपक रहा था, पण्डितायीं से अपनी पति की ये दुर्दशा देखि ना गयी लपक कर बेटी के पास पहुंची लेकिन रामशरण का गुस्सा सातवे आसमान पर था, पण्डितायीं को धक्का दे कर दूर हटाया फिर सरिता की ओर झुक कर देखा देखा और दांत पिस्ता हुआ गुर्राया " बोल फिर मिलने जाएगी तू उस नीच पाखंडी से"। सरिता जो ज़मीन पर चित लेती आसमान की ओर देख रही थी कुछ बड़बड़ायी, रामशरण ने फिर एक चांटा उसके गाल पर ज्यादा और चिल्लाया, जोर से बोल ताकि तेरी माँ और काकी को भी सुनाई दे, ताकि इनको भी पता लगे की तू कितना गिर चुकी है, बोल कुतिया, बता इन सबको भी" कह कर रामशरण ने ससरिता के शरीर को झिंझोर दिया

सरिता : (जोर से ) हाँ हाँ जाउंगी मैं दीनू के पास, रोज़ जाउंगी, आपको जो करना है कर लो लेकिन मैं उसी के पास जाउंगी और उसी के साथ रहूंगी।

ये सुनके फिर रामशरण ने फिर एक जोरदार लात सरिता के कमर पर जड़ दी, सरिता दर्द से दोहरी हो कर चिल्लाने लगी, पण्डितायीं से अब सबर ना हुआ आखिर इकलौती बेटी थी लाढ से पला था, लपक के बेटी के पास गयी और उसका सर अपने गोदी में रख लिया
पण्डितायीं : बस पंडित जी अब मत मारो, मैं समझाउंगी इसको ये नहीं जाएगी फिर कभी
मैं भी जल्दी से पंडित जी के पास पहुंची, " पंडित जी और मत मारो, जवान लड़की है मैं समझा के देखती हूँ "
रामशरण : इसे समझा लो, अगर मान जाये तो ठीक नहीं तो अंजाम अच्छा नहीं होगा।

इतना कह कर पंडित रामशरण अपने कमरे चला गया, हम दोनों औरतो ने मिलकर बड़ी मुश्किल से सरिता को उठाया और दालान में बिछी एक चारपाई पर ला कर उसको लिटा दिया, पण्डितायीं भाग कर पानी ले आयी और कुछ घूँट सरिता को पिलाया और उसका सर गोद में लेके पण्डितायीं वही चारपाई पर बैठ गयी और रोने लगी।

पण्डितायीं : भाभी मेरे तो भाग ही फुट गए, इस करमजली ने कही का न छोड़ा
मैं : आखिर हुआ क्या इसने किया क्या है ?
पण्डितायीं : अरे इस करमजली ने चककर चलाया हुआ है सुम्मु धोबी के लड़के के साथ, हमे तो खबर ही नहीं थी, रोज़ दिन ढले मुझसे बोलके जाती थी की बुधिया काकी के घर जा रही हूँ और फिर ये उस हरामी के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती थी, वो तो हरिया नाई ने देख लिया और आज इनको बताया दिया, अब ये हरिया पुरे गांव में गाता फिरेगा और पूरे गांव समाज में हमारी इज़्ज़त मिटटी में मिलाएगा।
मैं : पण्डितायीं तुम हरिया की चिंता ना करो मैं उसको संभल लुंगी, उसकी खुद की बेटी का चककर चल रहा है दूर गांव में उसको खुद पता नहीं है, मैं उसको समझा दूंगी बात संभल जाएगी,
पण्डितायीं : अरे भाभी आप उसको तो संभल लेंगी लेकिन इसको तो समझाओ ये पगला गयी है अपने बाप से जुबान लड़ा रही है।
मैं : पण्डितायीं बहुत समझा चुकी लेकिन ये कहा सुन्नति है किसी की
पण्डितायीं : हाँ भाभी, मुझे पता लग गया था, मैंने बहुत समझाया लेकिन नहीं मानी, मुझसे वचन ले लिया था की किसी को न बताऊ, लेकिन आज जब आपको पता चल ही गया है तो बता रही हूँ , पंडित जी को मत बताना, साल होने को आया है तब से इन दोनों का चक्कर है।

मैंने और पण्डितायीं ने सरिता को उस दिन लाख समझाया लेकिन सरिता टस से मस नहीं हुई थक हार कर हम दोनों ने पंडित जी को झूट बोल दिया की हाँ बोल रही है अबसे नहीं मिलेगी उस दीनू से।

कुछ देर बाद मैं घर आगयी, रस्ते में मैं हरिया के घर होती हुई आयी और उसे समझा दिया इशारो में, अभी तक हरिया ने एक दो लोगो तक ही बात पहुचायी थी, हरिया समझदार था समझ गया की उसकी भी जवान बेटी है इसलिए बात मान गया, वैसे भी पंडित रामशरण के परिवार की बात थी।

अगली सुबह मैं सबसे पहले सुम्मु के घर जा पहुंची, सुबह सुबह सुम्मु कपडे धोने जाती था, इस टाइम उसकी घरवाली अकेली होती थी, मुझे देख कर उसने मेरा सत्कार किया और चारपाई पर बिठाने के बाद जल्दी से कर एक थाली में लड्डू सजा लायी, " ये लो दीदी मुँह मीठा करो "
मैं अचकचा गयी " किस ख़ुशी में ? "
" अरे आपको नहीं पता अपने दीनू का नौकरी पक्का हो गया है, शहर में सरकारी होटल बना है उसी में"
"ओह्ह अच्छा, बधाई हो अब तेरे भी दुःख दूर होंगे " कब हुआ ये
" अरे क्या बताऊ दीदी बहुत दिन से साहब लोगो की सेवा कर रहा था, अब जाके उन्होंने पक्का किया है, होटल में कमरा का चादर तकिया बदलने का काम है, साहब लोग बोला है बाद में धोने का काम भी इसके बापू को मिलेगा "
" ये तो बहुत अच्छी खबर सुनाई है तूने, लेकिन मैं एक बुरी खबर सुनाने आयी हूँ "
"क्या बुरी खबर दीदी ?" एक दम से उसके चेहरे का रंग उड़ गया था

"यही की पंडित रामशरण को सरिता और दीनू का पता चल गया है "
" मैं समझी नहीं क्या पता चल गया है मालिक साब को "
"अब तू इतनी भोली मत बन यही जो तेरे बेटे और सरिता के बीच चक्कर चल रहा है वो ही पता चल गया है और पंडित जी मार पिट के सरिता का घर में बंद कर दिया है अब तू भी अपने बेटे को संभल नहीं तो अर्थ का अनर्थ हो जायेगा"

"माँ कसम दीद मुझे नहीं पता कुछ भी, मुझे तो लगा था की गुड़िया रानी मेरे पास सिलाई सीखने आती थी, मैं गरीब इसी बात से खुश थी की मालिक की बिटिया हमारे घर बैठ कर हम गरीबो का सम्मान ऊंचा कर रही है, मुझे तनिक भी पता होता तो मैं खुद मालिक को बता कर आती, उनके इतने उपकार है हमारे परिवार पर भला हम ऐसा सोच भी कैसे सकते है "

"हाँ तो मैं तुझे यही समझने आयी थी, इस से पहले मालिक तुझे बुलाये दीनू को साथ ले जा और मालिक से माफ़ी मांग ले नहीं तो बाद में बहुत मुश्किल हो जाएगी, तेरा आदमी सीधा साधा है, पुरखो से मिलजुल कर इस गांव में रहे हो, मैं नहीं चाहती की कोई ऐसा काण्ड हो जिस से किसी प्रकार की मुसीबत तेरे परिवार पर आये। "

" मैं समझ गयी दीदी, आने दो दीनू के बापू को, आज ही मैं दीनू को लेकर जाउंगी और मालिक से हाथ जोड़ कर माफ़ी मांग लेंगे "

मैं सुम्मु की पत्नी को समझा कर घर आगयी, मुझे सरिता की चिंता थी की पता नहीं क्या हुआ होगा उसके साथ, इसी उधेरबुन में शाम हो गयी, अभी अँधेरा नहीं हुआ था इतने में मैंने सुम्मु को दीनू को हाथ पकड़ कर मेरे घर की ओर आते हुए देखा

सुम्मु : दीदी मैं इसको ले के आया हूँ अगर आप भी साथ चलो मेरी हिम्मत नहीं हो रही अकेले मालिक के सामने जाने की

मैं भी चाहती थी कैसे भी हो ये बात अब यही समाप्त हो जाये इसलिए मैं उन्दोनो के साथ पंडित रामशरण के घर जा पहुंची।
 
पंडित रामशरण घर पर ही थे, मेरे साथ सुम्मु धोबी और दीनू को देख कर चिल्लाने लगे लेकिन इस से पहले बात बढ़ती मैंने जल्दी से बात संभाली और बताया की सुम्मु और उसके परिवार को नहीं पता था और सरिता झूट बोल कर इसके घर सिलाई सीखने जाती थी, आज मैंने इसकी घरवाली को बताया तो ये दीनू को लेकर आया है आपसे माफ़ी मगवाने, पंडिताइन भी वही दरवाजे की पीछे कड़ी सुन रही थी लेकिन सरिता का कोई पता नहीं था, सुम्मु ने हाथ जोड़ कर माफ़ी मांगी और अपने बेटे से भी मंगवाई, रात का समय हो चला था शायद पंडित जी भी अब और बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहते थे इसीलिए उन्होंने दीनू को सरिता से दूर रहने की चेतावनी दे कर चलता कर दिया, ये बात पंडित जी भी जानता थे की सुम्मु का परिवार सीधा है और उनकी कभी इतनी हिम्मत नहीं होगी की वो उनकी ओर आँख उठा कर देखे, अब तक जितना भी पता लगा था उस से ये तो साफ़ था की सरिता ही दीनू के प्यार में पागल है, ऐसा नहीं था की दीनू को सरिता से प्यार नहीं था लेकिन उसका प्यार सरिता के प्यार के जैसे दीवानगी की हद तक नहीं पंहुचा था।

घर वापिस आते समय सुम्मु पुरे रस्ते दीनू को समझता रहा ही सरिता से बचपने में ऐसा कुछ हो गया वो इसको प्यार ना समझे और दूर रहे, मालिक साब के बहुत उपकार है हमारे परिवार पर, दीनू हु हां में जवाब दे रहा था लेकिन फिर भी मेरे मन में आशंका थी की सरिता का जादू इस लड़के पर से इतनी आसानी से नहीं उतरेगा।

लगभग एक दो महीने तक सब कुछ ठीक चल रहा था, मुझे कही से भी भनक नहीं मिली सरिता और दीनू के मिलन की, मुझे भी लगा की मामला अब शांन्त हुआ, लेकिन होनी को कौन टाल सकता है भला, फिर वही हुआ जिसकी आशंका मेरे मन में थी, एक सुबह मैं अभी सो कर भी नहीं उठी थी की मेरे दरवाजे पर धर धर करके कोई दरवाज़ा खटखटा रहा था मैंने हड़बड़ा कर दरवाजा खोला तो देखा सामने पंडित जी २ लठैत के साथ खड़े गुस्से लाल हो रहे थे ?

मैं : क्या हुआ पंडित जी इतनी सुबह ?
रामशरण : (गुस्से से ) होना क्या है भाभी, इस रंडी ने मेरे जीवन को कलंकित कर दिया है, आज अगर मिल गयी तो जिन्दा नहीं छोडूंगा
(मैं नींद से उठी थी एक दम से समझ नहीं पायी की किसके बारे में बात हो रही थी, ऊपर से आज पहली बार पंडित जी को ऐसी गन्दी गाली देते हुए खा था ) "ओह्ह सरिता के लिए बोल रहे है क्या पंडित जी ?"
रामशरण : और कौन कुलक्षिणी होगी भाभी, इस बीता भर की कुतिया ने मेरे सारे जीवन की कमाई इज़्ज़त को अपने पैरों से रौंद कर भाग गयी उस मल्लेछ के साथ।
मैं : (हैरत से) कैसे, कब भागी ?
रामशरण : पता नहीं भाभी उस दिन की घटना के बाद से मैंने उसके घर से निकलना बंद करा दिया था और पंडिताइन भी साथ ही सोती थी एक ही कमरे में, लेकिन आज पता नहीं किस टाइम घर की दीवार छड़प के भाग गयी, मैंने पूरा गांव छान मारा लेकिन कहीं नहीं मिली तो हार कर आपके घर आया हूँ, आप ज़रा सुम्मु के घर जाओ और देखो अगर वो दोनो वहा है तो बस इशारा कर देना बाकी ये दोनों संभल लेंगे। मैं सीधा उसके यहाँ नहीं जाना चाहता, एक तो बात फ़ैल सकती है मुझे और इन लठैत को देख कर और दूसरी बात की कही हमारी आहट पा कर छुप ना जाये।

मैं बिना कुछ बोले जल्दी से सुम्मु के घर जा पहुंची, दरवाजा हल्का सा खुला ही हुआ था शायद सुम्मु घाट पर गया होगा,सुम्मु रोज़ मुँह अँधेरे ही कपड़ो का गट्ठर अपने गधे पर लाद कर घाट पर निकल जाता था तब तक उसकी पत्नी और दीनू सोते ही रहते थे, फिर भी दरवाज़ा खुला देख कर मैं दबे पाऊँ सुम्मु के घर के आंगन में प्रवेश कर गयी, सामने एक कमरे से हलकी रौशनी आरही थी, बाहर अभी दिन का उजाला पूरा नहीं फैला था, मैं धीरे से अंदर झाँक कर देखा, अंदर एक चारपाई पर सरिता उन्धी लेती हुई थी उसके जिस्म ऊपर से पूरा नंगा था और सुम्मु की पत्नी उसकी पीठ पर मालिश जैसा कुछ कर रही थी, मेरी समझ में कुछ नहीं आया तो मैं सीधा कमरे में घुस गयी, मुझे देख कर दोनों एक दम से चौंक कई, सुम्मु की पत्नी तो घबरा कर चारपाई से उठ खड़ी हुई और उसका देखा देखि सरिता भी सीधी हो कर चारपाई पर बैठने की कोशिश करने लगी, इस से पहले मैं पूछती की क्या चल रहा है की तभी सरिता के मुँह से दर्द भरी एक सीत्कार सी निकल पड़ी, सामने देखा तो सरिता उठ कर अजीब तरीके से बैठ गयी थी, उसकी पीठ मेरे सामने थी लेकिन वो पीठ नहीं थी वो तो ऐसा लग रहा था जी जैसे मॉस का कोई लोथड़ा हो, लाल भभोका, उसके पीठ की चमड़ी जगह जगह से उधरी पड़ी थी, गले के नीचे से लेकर कमर तक, जैसे बड़ी बेहरमी से किसी बेल्ट या चमड़े के किसी पट्टे से पीटा गया हो, पूरा शरीर उधरा हुआ था।

मुझसे देखा नही गया, मैंने सुम्मी की पत्नी से पूछा "ये क्या हुआ और किसने किया ये इसके साथ "
सरिता : इनसे क्या पूछ रही हो काकी मुझसे पूछो ना मैं बताउंगी
मैं : हाँ तो बता किसने किया तेरे साथ और तू घर से क्यों भागी, तुझे पता है न तेरा बाप ढूंढता फिर रहा है, अगर आज तू उसके हत्थे चढ़ गयी तो जान से मार देगा ?
सरिता : अच्छा है मार ही दे, मैं भी कौन सा जीना चाहती हूँ काकी, उस दिन के बाद तो तुम पलट के नहीं आयी ये भी पूछने की मैं ज़िंदा हूँ या मर गयी, अगर आती तो पता चलता की उस दिन के बाद से ये रोज़ का इनाम है मेरा, प्यार करने का, अपने बाप की इज़्ज़त मिटटी में मिलाने का इनाम है ये, जानती हो काकी रोज़ रात को मेरा बाप मुझे कमरे में बंद करके किसी कुतिया की तरह मारता है, ये एक दिन मिलने वाला इनाम नहीं है काकी, ये हर दिन मिलता है मुझे, क्युकनी मैंने दीनू से प्रेम किया, मैंने क्या गलत किया काकी मैंने दीनू से पहले अपने माँ बाप को ही अपना भगवान माना क्यकि उन्होंने मुझे जीवन दिया था फिर उस दिन दीनू ने मुझे दुबारा जीवन दिया तो मैंने उसे भी अपना भगवान मान लिया और प्रेम किया लेकिन इस प्रेम की इतना बड़ी सजा, मैंने दीनू को तो उस दिन के बाद से देखा भी नहीं फिर क्यों मुझे ये सजा ये इनाम हर दिन क्यों मिलता है काकी ?

आज रात जब मेरा बाप मुझे मार रहा था मैंने तभी फैसला कर लिया था की आज किसी भी तरह इस कैद से निकल भागुंगी और उसी नदी में कूद कर जान दे दूंगी जिसमे उस दिन डूबने से दीनू ने बचाया था। लेकिन अपनी जान देने से पहले मैं दीनू को आखिरी बार देखने यहाँ आयी थी की काकी ने रोक लिया।

मैं : (चारो और देखते हुआ) दीनू कहा है ?
सुम्मु की पत्नी : दीनू यहाँ नहीं है शहर में ही है, उस दिन की घटना के बाद इसके बापू ने उसको गांव आने से माना कर दिया, जब वो गांव में रहेगा ही नहीं तो छोटी मालकिन से मिलेगा कैसे?
मैं : तो तू अभी कर क्या रही थी इसके साथ ?
सुम्मु की पत्नी : ये यहाँ लड़खड़ी हुई आयी थी थो थोड़ी देर पहले, मैंने इसको संभाला तो देखा इसके सारे कपड़ो में खून लगा हुआ था, मैं इसके घाव साफ़ कर रही थी दीदी।

मैंने सरिता के शरीर का निरक्षण किया, उसका शरीर बहुत कमजोर हो गया था, जगह जगह चोट के निशान थे, चेहरा बिलकुल पीला हो रहा था मनो शरीर में खून ही ना हो, पीठ का तो बुरा हाल था ही लेकिन सामने पेट और चूचियों का हाल भी बहुत अच्छा नहीं था, चूचिया भी मार के कारण नीली हुई पड़ी थी, सरिता ने बताया की पीठ जैसा हाल ही उसके कमर और चूतड़ों का है, मैंने जल्दी जल्दी सुम्मु की पत्नी के समान में से कुछ जड़ी बूटी निकल कर दिया और उनका उपाए बताया, उसको समझाया की बिना आवाज़ किये यहाँ पड़ी रहे जब तक मैं ना वापिस आऊं, मुझे सरिता का हाल देख कर दया आगयी थी, आखिर उम्र ही कितनी थी, माना की उस से गलती हुई थी, ये उम्र थी ही ऐसी।

मैंने वापिस जा कर पंडित जी को साफ़ झूट बोल दिया की सरिता वहा नहीं है, अपनी बात को सही साबित करने के लिए मैंने पंडित जी को घाट पर भेज दिया की वो जा कर सुम्मु से पूछ ले, सुम्मु को तो कुछ पता था नहीं क्यंकि वो सरिता के घर में आने से पहले ही निकल चूका था।
मैंने पंडित जी को ये भी बता दिया की दीनू अब गांव में नहीं रहता वो शहर में रहने लगा है इसलिए उसके साथ भागने की सम्भावना कम ही है। पंडित जी ने सुम्मु से पूछ ताछ की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला, फिर किसी से कहने से वो दीनू के होटल का पता लेकर शहर चले गए।
इधर तब तक मैंने जल्दी से कुछ दवाइयों का प्रबंध किया और चुपके से सुम्मु की पत्नी को दे आयी, लेकिन समस्या रात की थी रात में सुम्मु घर आता तो सरिता को घर में देख कर शायद हंगामा कर सकता था या फिर मालिकों के नमक का हक़ चुकाने के चक्कर में पंडित जी को जाकर सब बता सकता था, मैं बहुत देर तक सोंचती रही लेकिन कोई हल नहीं समझ नहीं आ रहा था,

शाम होने को आयी थी मैंने अपनी घर की चाभी उठायी सुम्मु के घर जाने के लिए की तभी मुझे याद आया की रमेश का घर तो खाली पड़ा है कई साल से, और उसकी चाभी मेरे पास ही थी, रमेश का मकान मेरे और सुम्मु के माकन के बीच में ही था, बंद रहने से उसके आंगन के सामने काफी झार झंकार उग आयी थी, अगर कोई उसके माकन में रहता तो जल्दी से पता नहीं चलता, मैं जल्दी से सुम्मु के घर पहुंची, देखा तो सरिता सो रही थी और सुम्मु की पत्नी चूल्हे पर खाना पका रही थी, मैंने उस से सरिता का हाल मालूम किया, उसने बताया की उसकी मेरी दवाई से उसको काफी आराम लगा है, उसने उसको 2-३ बार थोड़ा थोड़ा खाना खिला दिया है और वो दोपहर से सो रही है, मैंने उसको जल्दी जल्दी रमेश के मकान के बारे में बताया और समझाया की वो सुम्मु को कुछ ना बताये और किसी भी तरह सरिता को एक दो घंटे के लिए कही छुपा दे, मैं जैसे ही रात का अँधेरा होगा चुपके से सरिता को ले जाउंगी और सरिता को छुपा दूंगी।

सुम्मु की पत्नी को समझा कर मैं जल्दी से रमेश के बंद पड़े माकन में आयी और ताला खोल कर उसको जल्दी जल्दी रहने लायक ठीक किया, पानी और लालटेन आदि को जला कर मैं अँधेरा होने का इन्तिज़ार करने लगी, हलकी सर्दी शरू हो चुकी थी इसलिए जल्दी ही अँधेरा हो गया और कुछ देर में गांव में सन्नाटा छाने लगा, मैं भी दबे पाऊँ सुम्मु के घर पहुंची देखा तो सुम्मु कमरे में उसी चारपाई पर बैठा हुक्का पी रहा था जिसपर आज दिन में सरिता सो रही थी, मैंने उसकी पत्नी को चारो ओर देखा लेकिन वो नज़र नहीं आयी और ना ही सरिता का कुछ पता था, मेरे समझ नहीं आया की क्या करू की तभी अँधेरे में एक साया मेरे पास आके खड़ा हो गया, उसके बदन से आती दवाई की महक से पहचान गयी ये सरिता ही थी, तभी मुझे अंदर से सुम्मु और उसके पत्नी की आवाज़ आयी, शायद सुम्मु अपनी पत्नी को आज हुई घटना के बारे में बता रहा था ओर डांट रहा था की उसकी लापरवाही से ये सब हुआ, अगर उसने शरू में ही सरिता को घर में नहीं आने दिया होता तो आज इतना सब कुछ नहीं होता।

मैंने सरिता को सम्भाला और और धीरे धीरे सहारा दे कर अपने साथ रमेश के घर ले आयी, वह बिस्तर पर लिटा दिया, पीठ पर चोट ज़ायदा थी इसलिए मैंने उसे उल्टा लिटाया था, यहाँ रौशनी में देखा उसने एक बहुत पतले कपडे का एक सलवार सूट पहना हुआ था, उसने बताया की सुम्मु की पत्नी ने जल्दी जल्दी में अपनी एक साडी फार कर उसके लिए सिया है क्यूंकि ज़खम पर मोटा कपडा खरोंच मार रहा था। उसने बगल में साडी का बचा हुआ कपडा भी दबा रखा था, हम दोनों बहुत देर तक बात करती और मैं उसको दिलासा दे रही थी की चिंता ना करे सब ठीक जो जायेगा, मैं दिलासा तो दे रही थी लेकिन मुझे खुद समझ नहीं आरहा था की आखिर सब ठीक होगा कैसे।

तभी दरवाज़े पर बहुत हल्का सा खटखटाया किसी ने मैंने झाँक कर देखा सुम्मु की पत्नी बाहर खड़ी थी, मैंने उसे अंदर बुला कर दरवाज़ा बंद कर लिया, सुम्मु की पत्नी खाना लायी थी सरिता के लिए और मेरे लिए भी, हम दोनों ने मिलके सरिता को खाना खिलाया और थोड़ा मैंने खुद भी खाया, आज दिन भर की भागदौड़ में खाना खाने का समय ही नहीं मिला था , कुछ देर बाद हम तीनो ने फैसला किया की रात में मैं सरिता के साथ ही सोऊंगी, और जब ३ बजे के अस्स पास सुम्मु घाट पर जायेगा तब सुम्मु की पत्नी यहाँ आजायेगी और मैं अपने घर चली जयुंगी। मुझे डर था की कही पंडित जी ढूंढते हुए फिर मेरे घर ना आजायें। दिन में सरिता अकेली रह सकती थी, बीच बीच में मौका देख कर हम उसके लिए खाना पंहुचा देंगी। सब कुछ वैसे ही हुआ और मैं सुबह आकर अपने घर सो गयी।

लगभग सुबह ७ बजे देखा तो पंडित जी फिर मेरे दरवाज़े पर खड़े थे, मैंने हाल पूछा तो उन्होंने बताया की वो शहर गए थे दीनू के होटल में, दीनू वही मिला और उसने साफ़ माना कर दिया की उसको नहीं पता सरिता के बारे में, उसके मालिक ने भी बताया की वो महीनो से गांव नहीं गया, वही काम करता है और होटल में ही बने सर्वेंट कवाटर में रहता है। बात करते करते वो बार बार मेरे कमरे की ओर देख रहा था, मैं समझ गयी की पंडित जी को मेरे पर भी शक है तो मैंने पंडित जी एक एक कर अपने सारे कमरे दिखा दिए, सरिता वह होती तब न कुछ मिलता थोड़ी देर में पंडित जी चले गए, मैंने सरिता और अपने लिए खाने के लिए कुछ बनाया और जल्दी जल्दी लेकर कर रमेश के घर आगयी, सरिता सो रही थी और सुम्मु की पत्नी वह चारपाई के किनारे बैठी हाथ के पंखे से मखियों को उड़ा रही थी जो बार बार सरिता के अधखुले ज़ख्मो पर बैठ जाती थी, मैंने जल्दी से सरिता को उठा कर चाय नास्ता कराया और सुम्मो की पत्नी को भी ककुछ खिला पीला आकर उसके घर भेज दिया, मुझे पूरा विश्वास था की जल्द ही कोई आएगा पंडित जी के यहाँ से सुम्मु के घर को फिर से तलाशी लेने, मैंने जाते जाते सुम्मु की पत्नी को समजा दिया था सरिता के कपडे जो वो पहन के आयी थी को ठिकाने लगाने के लिए।

मैंने बचा खाने पिने का सामान पानी और कुछ दवाई सरिता के बिस्तर के किनारे रख कर बाहर से ताला लगा कर वापिस अपने घर आगयी, वापिस आते टाइम मैंने चाभी वही आंगन में रखे पत्थर के नीचे छुपा दी, मैंने इस जगह के बारे में सुम्मु की पत्नी और सरिता को रात में ही बता दिया था, साथ में मैंने सुम्मु की पत्नी को भी समझा दिया था की जब तक बहुत बड़ी बात ना हो मेरे घर ना आये और ना सबके सामने मुझसे बात करे। मैं दिन भर यही इसी पेड़ के नीचे बैठी आते जाते लोगो को देखती रही, लगभग दिन के ११ बजे मैंने राधा की मा को एकऔर काम वाली के साथ सुम्मु के घर जाते देखा उसके हाथ में गठड़ी थी, मैं समझ गयी की उन दोनों को पंडित जी ने कपडे देने के बहाने सुम्मु के घर भेजा है।

खैर ये सिलसिला लगभग १० दिन तक चला, सुम्मु की पत्नी ने सरिता की खूब सेवा, मुझे टाइम काम मिल पता था क्यंकि पंडित जी रोज़ किसी ना किसी बहाने से या तो मेरे घर आजाते थे या मुझे अपने घर बुला लेते थे, धीरे धीरे सरिता के ज़ख़्म भरने लगे, पंडित जी ने भी अब आना जाना कम कर दिया था, एक रात हम तीनो फिर साथ बैठे ये विचार करने के लिए की अब सरिता का क्या होगा, सरिता ने साफ़ माना कर दिया था की वो अब पंडित जी के पास किसी हाल में नहीं जाएगी, उसकी तो एक ही ज़िद्द थी की जैसे भी हो उसकी शादी दीनू से करा दो और वो बियाह के सुम्मु के घर आजाये वो फिर बदले में इतनी सेवा करे की शायद कोई बेटी भी न कर पाए, आखिर सुम्मु की पत्नी ने सरिता की इतनी देखभाल जो की थी, लेकिन ये संभव नहीं था

बहुत सोंच विचार के बाद आखिर ये फैसला हुआ की सरिता को कुछ समय के लिए दीनू के मामा के गांव भेज देते है, कुछ दिन बाद अगर बात संभल जाती है तो सरिता की इच्छा अनुसार दीनू से शादी का सोच सकते है या किसी प्रकार से मैं सरिता के नाना नानी के गांव का पता करके देखती हूँ उनके क्या विचार है हो सकता है की वो सरिता को अपने पास रख ले, कम से कम पंडित जी की रोज़ की मार तो नहीं खानी पड़ेगी सरिता को। सरिता इस फैसले से राज़ी थी, सुम्मु की पत्नी ने अपने भाई के पास संदेसा भेज दिया और ये तय हो गया की सरिता को २ दिन बाद चुपके से दीनू के मामा के घर पंहुचा देंगे। लेकिन इस विचार में एक समस्या थी की आखिर सरिता को लेकर जायेगा कौन। हम दोनों में से किसी का जाना भी संभव नहीं था, मैंने उनको तैयार रहने के लिए बोला और मैं तब तक मैं एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में लग गयी जो सरिता को दीनू के मां के गांव पंहुचा दे।
 
मैं और दीनू की माँ किसी विश्वासपात्र व्यक्ति की तलाश में थे जो सरिता को सुरक्षित ले जा सके, लेकिन ये काम सबसे मुश्किल काम था क्यूंकि अब लगभग पुरे गांव को पता चल चूका था की सरिता घर से भाग गयी है और उधर पंडित जी ने गांव और शहर एक कर रखा था। मैं धोबियों में से किसी के साथ भेज सकती थी लेकिन समस्या ये थी की पंडित जी ज़रूर किसी न किसी को धोबियो की तोह में लगा रखा होगा, इसलिए मैं ये रिस्क नहीं ले सकती थी, मेरे लाख दिमाग के घोड़े दौराने के बाद भी अगले 2-३ दिन में भी कोई समाधान नहीं निकला। एक रात हम तीनो फिर बैठे और विचार विमर्श करने लगे की अब बात कैसे आगे बढे, इस तरह से आखिर कितने दिन सरिता को वहा रख सकते थे, अगर किसी प्रकार पंडित जी तक बात पहुँचती तो सरिता के साथ साथ हम दोनों के लिए भी मुसीबत खड़ी हो सकती थी, बहुत दिमाग खपाने के बाद सरिता ने ही समझाया की उसको अकेले जाने दिया जाये, दीनू के मामा का घर लगभग १५ कोस दूर था, हमारे गांव से लगभग ३ कोस चलने के बाद एक दूसरा गांव आता था वह से दीनू के मामा के गांव की सवारी मिल जाती थी, अब अंतिम सहमति ये बनी की एक दिन बाद भोर होने से पहले मैं सरिता को गांव के आखिरी छोर तक छोड़ आउंगी और वहा से वो अकेली आगे चली जाएगी दूसरे गांव जहा से उसे तांगा मिल जायेगा दीनू के मामा के गांव तक का, अगले दिन सुम्मु की पत्नी ने अपने गांव किसी से कहलवा दिया की वो गांव के बाजार में तनगा स्टैंड पर आजायेगा और वह से सरिता को अपने घर ले जायेगा।

अगला दिन तैयारी में निकला, सुम्मु की पत्नी ने 3-४ जोड़ी कपडे सी दिए थे सरिता के लिए और मैंने कुछ पैसे और कुछ खाने पीने का सामान बांध दिया था, पता नहीं दीनू का मामा कितना सक्षम था सरिता जैसे नाज़ो से पली लड़की का खर्च उठा पाने में, रात में हम तीनो फिर इकठ्ठा हुए, उस रात हम तीनो ने साथ खाना खाया, सरिता के ज़ख़्म अब बिलकुल ठीक हो चले थे, उनपर काली खुरंड जम चुकी थी, अब उसको कोई खास दर्द नहीं था उन ज़ख़्मो में, दीनू की मा न अच्छा धयान रखा था खाने पिने में जिससे सरिता के चेहरे की चमक वापिस लौट आयी थी, अगली सुबह मैं और सरिता अंधरे में ही निकल गए, मैं उसे खेतों वाले रास्ते से लेकर निकली थी, हो सकता था की गांव के मुख्य सड़क पर पंडितजी का कोई गुर्गा मिल जाता, लगभग आधे घंटे में हम गांव के अंतिम छोर तक पहुंच गए वहा से आगे का रास्ता सरिता को खुद तय करना था, मैंने सरिता को गले लगा कर विदा किया और वही एक मुंडेर पर बैठ गयी, सरिता गठरी उठाये सुबह की धुंध में ओझल हो गयी।

मैं सूरज निकलने पर घर वापिस आगयी, अगले एक दो घंटे बैचनी से गुज़रे, मन में डर था की कहीं सरिता पकड़ी ना जाये लेकिन शाम तक जब कोई हलचल नहीं हुई तो मन को शांति मिली, रात में मैं फिर रमेश के मकान में दीनू की माँ से मिली उसने बताया की एक दो दिन उसके मायके से कोई आएगा तो खबर मिलेगी सरिता के पहुंचने की, वैसे भी उसके गांव जाने बाद किसी तरह की चिंता नहीं थी, उसने सरिता को अपने परिवार के सदस्यों का नाम पता लिखवा दिया था और ये भी समझा दिया था की अगर गलती से भटक भी गयी तो क्या बोल कर उसके गांव तक पहुंचना है, हम दोनों में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी बाकी अब आगे भगवान की मर्ज़ी।

तीसरे दिन दीनू के मा दोपहर के समय घबराई भागती दौड़ती आयी और बिना सांस लिए बताने लगी की सरिता उसके गांव पहुंची ही नहीं, उसके भाई ने गांव में आने वाले सभी तांगे वालो से पता किया लेकिन कुछ पता नहीं चला, अब हम दोनों को चिंता सताने लगी की भगवान ना करे कोई गड़बड़ हुई हो, कुछ समझ में नहीं आरहा था की अब हम दोनों औरते करे तो करे क्या, फिर भी मैंने दीनू की माँ को झूटी तसल्ली दे कर घर भेजा, मैं नहीं चाहती थी की दीनू की माँ को मेरे यहाँ ज़ायदा देर बैठा देखे और लोग शक करे। लगभग एक सप्ताह ऐसी ही चिंता में गुज़र गया, मैं और दीनू की माँ कभी कभी रमेश के उसी कमरे में मिलते, एक दिन मैं वहा पहुंची तो देखा दीनू की माँ सरिता के पुराने कपडे को सीने से लगाए आंसुओ से रो रही थी, इतना समय गुज़ारा था उसने सरिता के साथ उसको वास्तव में सरिता से लगाव हो गया था, उन्होनी की शंका से तो मेरा भी दिमाग फट रहा था कुछ समझ नहीं आरहा था की क्या करू।

खैर मुझे कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी क्यूंकि नियति ने खुद कर लिया जो करना था, सरिता के जाने के लगभग १० दिन के बाद एक शाम गांव में हंगामा हुआ, राधा की माँ मेरे घर दौड़ती हुई आयी ये बताने के लिए की सरिता मिल गयी है, मेरा दिल धक् से रह गया, सर चकराने लगा, अब क्या करू ? जिस नरक ने निकलने के लिए हमने इतनी कोशिश की आखिर वो वापिस उसी नरक में क्यों वापिस आगयी ?
अभी मैं और चकराती की वो मेरा हाथ पकड़ कर बोली की चलो काकी सब लोग पंडित जी घर जा रहे है हम भी देख कर आते है,

मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी सरिता का सामना करने की फिर भी मैं सरिता को देखने का मोह त्याग नहीं पायी और जल्दी जल्दी राधा की माँ के साथ सरिता के घर की ओर चल दी, सरिता के घर के बहार एक अजीब मेला जैसा लगा था मनो पूरा गांव पंडित के घर जमा हो गया हो, मैं और राधा की मा किसी तरह जगह बना कर पंडित जी के घर में घुसे बहार बैठे लठैत किसी को भी घर के अंदर जाने नहीं दे रहे थे,
अंदर का हाल अजीब था, गांव के कई लोग अंदर आंगन में खड़े थे और पंडित जी अपनी उसी कुर्सी पर बैठे सरिता को खा जाने वाली नज़रो से घर रहे थे, सरिता के दोनों हाथ उसी की चुन्नी से बंधे हुए थे, सारे शरीर पर मिटटी और धूल लगी गई थी, कई जगह से कपडे फट गए थे मनो उसे घसीट कर लाया गया हो, उसके पूरा चेहरा धुल और मिटटी से सना हुआ था लेकिन पता नहीं क्यों उसके चेहरे पर मुझे एक अजीब सी मुस्कान नज़र आयी, टोंट कस्ती हुई मुस्कान, जैसे किसी रेस में जीत कर आयी हो। मैं भी बाकि लोगो के साथ घर में जमा भीड़ में खड़ी हो गयी लेकिन पंडित जी नज़रो ने पहचान लिया और वही से मुझे पुकार कर अपने पास बुलाया, मैं जानती थी की बेइज़्ज़त होने का अगला नंबर मेरा है।

पंडित जी मेरी ओर देख कर गुस्से से गुर्राए
रामशरण : देख लिया भाभी इसको हरकतों को, आज सारा गांव मुझ पर टूक रहा है इस कुटिया की खातिर, क्या इसीलिए मैंने इसको इसी दिन के लिए पला था, मैं जनता हूँ की आपको लगता है की मैं इसपर अत्याचार करता हूँ लेकिन सबसे बड़ा अत्याचार तो इसने किया है मुझपर अब अब आप ही बताओ मैं क्या करू ?
मैं चुपचाप खड़ी रही मैं क्या बोलती, इतने में पीछे भीड़ में से कोई चिल्लाया "अरे पंडित जी ये तो पूछो अपनी बेटी से की किसके साथ मुँह कला करा रहा थी इतने दिन से, अब तो पूरा महीना होने को आया है।"
पंडित जी ने गुस्से से कुछ बोलने के लिए मुँह खोला लेकिन चुप हो गए, इतने में सरिता तो जो जीन पर बैठी इधर उधर देख रही थी एक डैम चिल्ला कर बोली "उनसे क्या पूछते हो मुझसे पूछो, मैं भागी थी घर से तो मुझसे पूछो।
कोई भीड़ से चिल्ला तो बता ना किस के साथ मुँह कला कर के आयी है तू ?

सरिता : अपने पति के साथ काला किया है मुँह तुझे क्या दिक्कत है,
भीड़ : तेरा पति ? कौन है तेरा पति ?
सरिता : ( गर्व से ) दीनू , दीनू धोबी है मेरा पति, मैं अपने पति के पास गयी थी भाग कर
जैसे जैसे सरिता बिना किसी लाज झिझक के बोल रही थी उसे देख कर बेचारी पंडिताइन शर्म से गड़ी जा रही थी, और इधर पंडित जी गुस्से से अपने हाथ मसल रहे थे लेकिन गांव के कुछ लोगो ने उन्हें रोक रखा था, इतनी देर में मुझे ये एहसास हो गया था की सरिता की मदद करने वाली बात पंडित जी पता नहीं है इस से मुझमे थोड़ी जान आयी और फिर मैंने सबसे पहले सरिता को दांत कर चुप कराया और फिर गांव की भीड़ को डांट कर भगा दिया, वैसे भी अब अँधेरा होने लगा था, जल्दी ही भीड़ वह से चाट गयी और अब घर में बस गांव के 4-५ बड़े बुजृग लोग रह गए, पंडिताइन को तो रो रो कर बुरा हाल था, मैंने उनको सहारा दे कर चारपाई पर बिठाने ही लगी थी की पीछे से सरिता के चीखने चिल्लाने की आवाज़ आयी भाग कर आयी तो देखा पंडित जी गुस्से से भरे सरिता पर लात घुसो की बौछार कर रहे है, वह बैठे बड़े बुधो में इतना शक्ति नहीं थी की वो पंडित जी को रोक पाते, मैं पंडित जी को हटाने की भरकस कोशिश कर ही रही थी की पता नहीं कहा से तेरा मामा शम्भू आकर तेरे नाना जी के पैरो में लिपट गया और रोरो कर पंडित जी से दूर हटाने लगा लेकिन जब बेचारे बच्चे को कोई सफलता नहीं मिली तो बाप का पेअर छोड़ सीधा बहन से जा कर लिपट गया और और रोने लगा, सरिता को पीटते हुए एक दो हाथ उस मस्सो को भी पद गया जिस से वो बच्चा चिल्ला उठा और उसकी चिल्लत सुन कर पंडित जी पर जो जूनून सवार था वो एक डैम से भांग हो गया, मैंने किसी तरह से सरिता को शम्भू समेत खींच कर पंडित जी से दूर ले गयी, राधा की माँ भी मेरा साथ दे रही थी।

पंडित जी भी हफ्ते हुए वापिस अपनी कुर्सी पर बैठ गए, कुछ देर बाद जो बिरादरी के बड़े बूढ़े थे उन्होंने पंडित जी को घेर लिया और आपस में बातचीत करने लगे, मैं जब वापिस पंडित जी के पास आयी और पूछा की आखिर पूरी कहानी क्या है और सरिता उनको कहा मिली ?
पंडित जी बताया की जब उन्होंने पुरे गांव और शहर में ढूंढ और सरिता नहीं मिली तो उन्होंने दीनू के साथ काम करने वाले एक लड़के को कुछ पैसे दे कर उसकी जासूसी करने को कहा था, पहले पंद्रह दिन तक तो सरिता दीनू के पास नहीं पहुंची तो उनको लगा की शायद सरिता कही और भाग गयी है, फिर वो लड़का भी किसी कारन से छुट्टी पर चला गया, लेकिन कल जब वो वापिस आया तो उसे पता चला की कोई लड़की दीनू के साथ दस पन्दरह दिन से रह रही है। उसने आज सुबह पंडित जी को खबर दी तो तो पंडित जी ने अपने दो तीन लठैत भेज दिए उसको लाने के लिए, लेकिन लठैत मंदबुद्धि निकले और वो सरिता को इस तरह से हाथ बांध कर लाये की पुरे गांव में तमाशा बन गया,
मैंने डरते डरते पूछा " तो वो पन्दरह दिन कहा थी ?"

रामशरण : पता नहीं भाभी , इस रंडी का क्या पता कितने यार पाल रखे हो इसने ? अब मैं किस किस के पीछे भागता फिरू ? बस आप एक काम करो इसको एक कमरे में बंद कर दो, अब ये मर कर ही इस घर से बाहर कदम निकलेगी।

मैं : इतनी आसानी से वो बंद नहीं होगी कमरे में
रामशरण : हाँ जनता हूँ , आप बस साथ जाओ बाकि ये लठैत कर लेंगे,
इतना बोल कर पंडित जी ने लठैतो को समझाया और मेरे साथ भेज दिया, मैंने सरिता को उसके कमरे में जाने के लिए बोला लेकिन उसने साफ़ मना कर दिया, पंडित जी के घूंसो ने उसका पूरा मुँह सुजा दिया था, माथा कही से फट गया था और उस से खून रिस रहा था जिसको वो बार बार अपनी हथेलियों से पोंछ लेती थी, जब सरिता मेरी बात नहीं मानी तो उन लठैतो ने उसको जबरदस्ती पकड़ कर उसके कमरे तक लेकर गए, मैं और पंडिताइन भी पीछे पीछे ही थे, कमरे के पास पहुंच कर सरिता किसी अड़ियल संध की तरह अड् गयी, लठैत जब उसको जबरदस्ती गोदी में उठाकर कमरे में ला जाने लगे तब उसने अपना खून से सना हाथ जोर से दरवाजे पर अड़ा दिया, किसी तरह लठैतो ने खींच खच कर उसको कमरे में डाला और बाहर से दरवाज़ा बंद कर दिया, किवाड़ के एक पल्ले पर सरिता के खून से सने हातो का निशान छप गया था।

मैं वह बहुत देर रही, किसी तरह पंडिताइन को चुप कराया और वापिस पंडित जी ओर आयी, वह अभी भी पंडित जी उन बुद्धो के साथ गंभीर चर्चा में लगे हुए थे, मुझे देखते ही सारे एकदम चुप हो गए, शायद जो चर्चा हो रही थी वो नहीं चाहते थे की वो मुझे या किसी और को पता चले।
मैं वापिस अपने घर के लिए निकल गयी वह मेरी कोई आवश्यकता नहीं थी , रात बहुत हो चुकी थी, राधा की माँ रास्ते में ही अपने घर रुक गयी थी , मैंने जैसे ही अपने घर का टाला खोला एक अँधेरे में काली परछाई मेरे पास अखाडी हुई, मैंने अंधेरे में भी पहचान लिया ये दीनू की मा थी, मैं उसके जल्दी से घर ले आयी और लालटेन जला कर उजाला किया, देखा तो उसका वो रो रही थी, उसे दुःख था की हमारी लाख कोशिश के बाद भी सरिता वापिस उसी घर में कैद हो गयी, मैंने उसको समझा बुझा कर घर भेज दिया, जाते जाते उसने बताया की दीनू ठीक है जब लठैतो ने सरिता को पकड़ा था तब वो अपने होटल में था, लठैत सरिता को पकड़ कर निकल गए थे तब उसको पता चला, मैंने उसका समझाया की वो दीनू को मना कर दे की वो जब तक सब ठीक नहीं होता गांव में कदम न रखे।

एक सप्ताह तक गांव में चर्चा का विषय रहा, ये बात सच थी की जो लोग पंडित जी का नाम लेते हुए भी डरते थे आज वो सब चटखारे ले लेकर सरिता और दीनू की प्रेम कहानी एक दूसरे को सुना रहे थे। गांव में अनेको तरह की अटकले लग चुकी थी और बहुतो के अनुसार अब तक सरिता के 4-५ यार के नाम तक गढ़ लिए गए थे, लेकिन हकीकत हम तीनो के अलावा केवल भगवान् ही जानता था।
 
Back
Top