छटा अध्याय : इजहार!
पढ़ाई का दबाव मुझ पर बहुत बढ़ने लगा था, सिवाए दिषु के स्कूल में मेरा कोई ख़ास दोस्त नहीं था| पिताजी भी अब मुझे कम ही समय देते थे और मैं थोड़ा अकेला महसूस करने लगा था| कभी-कभार क्रिकेट खेलने को मिलता तो खेल लेता वरना हमेशा किताबों में घुसा रहता| धीरे-धीरे मैं गाँव की सब बातें भूल गया, स्कूल के छिछोरे दोस्तों और दिषु के कारन मेरा परिचय हस्तमैथुन से हुआ| कक्षा के अंदर कई बार छिछोरे लड़के आखरी बेंच पर बैठी हस्तमैथुन करते, ना चाहते हुए भी एक-दो बार मैंने ये होते हुए देखा| एक बार मैं घर पर अकेला था तो मैंने भी हस्तमैथुन करने कि सोची और इस तरह से मैं हस्थमैथुन की कला सिख गया| स्खलित होने के बाद दिमाग जैसे तारो-ताजा हो जाया करता था, इसलिए जब भी मेरा दिमाग पढ़ाई के कारन टेंशन से घिर जाता तो हस्तमैथुन मेरा स्ट्रेस-बस्टर साबित होता| फिर जब घर में डी.वी.डी प्लेयर आया तो दोस्तों से ब्लू फिल्म के जुगाड़ में लग गया और जब भी मौका मिलता उन फिल्मों को देखता और हाटसमैथुन करता| इन्हीं ब्लू फिल्मों के कारन अब मैं सेक्स के बारे में सब जान चूका था और किसी किशोर की तरह कैसे ना कैसे करके किसी भी नौजवान लड़की को भोगना चाहता था| पर दिक्कत ये थी की किसी लड़की से कैसे कहूँगा की मुझे क्या चाहिए? साफ़-साफ़ तो कह नहीं सकते, वरना बदनामी होना तय है! बड़ी अजीब सी कश्मकश थी, बन्दूक चलाना तो आ गया था पर निशाना लगाने के लिए कोई टारगेट नहीं था!
खेर दसवीं की बोर्ड की परीक्षा सर पर पड़ीं और मैंने उन दिनों हस्तमैथुन बंद कर दिया, मैंने बड़ा मन लगा कर बोर्ड कि परीक्षा दी और अच्छे नम्बरों से पास भी हुआ| पिताजी बहुत खुश हुए और उन्होंने मेरे सामने अगला पड़ाव बारहवीं के बोर्ड की परीक्षा को रख दिया| ग्यारहवीं में मैंने कॉमर्स लिया हालांकि मेरा मन था साइंस लेने का पर बाद में पता चला की अच्छा हुआ की मैंने साइंस नहीं ली वरना फिर सारा साल वो मेरी लेती रहती!
नया साल, नई किताबें और नए विषय! एकाउंटेंसी एक ऐसा विषय जिससे मैं शुरू में बहुत डरा पर धीरे-धीरे मैंने उस पर विजय प्राप्त कर ली| कक्षा में अगर किसी के एकाउंटेंसी में सबसे ज्यादा नंबर आते थे तो वो था मैं, एकाउंट्स की अध्यपिका पिताजी से मेरी प्रशंसा करती नहीं थकती थीं| इस कारन अब मुझ में नया आत्मविश्वास पैदा हो चूका था| हमेशा सर झुका कर रहने वाला मानु अब गर्व से अपनी गर्दन उठा कर घूमता था| शिष्टाचार पूरे थे पर कुछ गलत सहना मैंने बंद कर दिया था| मैंने बचपन से माँ को हमेशा दबे हुए देखा था इसलिए मैंने अब उनका पक्ष लेना शुरू कर दिया था| पिताजी की गैरमौजूदगी में मैं माँ को बाहर ले जाने लगा, उनका कहा कोई भी काम मैं मना नहीं करता था|
इधर मुझे गाँव गए हुए दो साल होने को आये थे, मैंने गाँव से मुँह मोड़ लिया था| जब मैं दसवीं में था तब पिताजी ने कहा भी था की गाँव चलते हैं पर मैंने पढ़ाई का बहाना बना दिया| गाँव जा कर मैं करता भी क्या? अब था ही कौन वहां मेरा? जिसे अपना सबसे अच्छा दोस्त माना, उन्हें तो मुझसे ज्यादा घर के हवं में सम्मिलित होने की आग लगी थी! 4-5 दिन बाद भी अगर वो वापस आ जातीं तो मैं इतना नाराज नहीं होता, पर उन्होंने तो अपने घर जा कर डेरा डाल लिया था| खेर समय का पहिया बहुत तेजी से घुमा और अब मेरे सर पर ग्यारहवीं की परीक्षा थी| फरवरी का महीना था और परीक्षा में केवल एक महीना ही शेष था, स्कूल की छुटियाँ चालु थीं| अचानक वो हुआ जिसकी मैं कभी कामना ही नहीं की थी| सुबह का समय था और मैं अपने कमरे में पढ़ रहा था, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई| माँ ने मुझे दरवाजा खोलने को बोला, मैं हाथ में किताब लिए दरवाजे के पास पहुँचा, मुझे लगा की पिताजी होंगे इसलिए मैंने बिना देखे की कौन आया है दरवाजा खोल दिया और वापस अपने कमरे में जाने के लिए मुड़ गया| पर तभी मेरे कान में एक मधुर आवाज पड़ी; "मानु....?!"
ये आवाज मुझे जानी-पहचानी लगी, मैं पीछे घुमा तो देखा लाल साडी में भौजी खड़ी हैं और उनके साथ नेहा जो की अब बड़ी हो चुकी थी, वो भी खड़ी मुस्कुरा रही है| भौजी के चेहरे पर वही प्यारी मुस्कान, आँखों में काजल, गुलाबी होठों और सर पर पल्लू, उन्हें इस तरह देख मेरा मुँह खुला का खुला रह गया! अपने आपको सँभालते हुए मैंने भौजी को अंदर आने को कहा| इतने में माँ भी भौजी की आवाज सुन अपने कमरे से निकल आईं| भौजी ने उनके पैर छुए और माँ ने उन्हें आशीर्वाद दिया| मैंने कभी भी सोचा ही नहीं था की भौजी ढाई साल बाद अकेली आएँगी, लगता है आज मेरी किस्मत मुझपे कुछ ज्यादा ही मेहरबान थी| माँ ने उन्हें अपने कमरे में बैठने को बोला, मैं जानबूझ कर अपने कमरे में आ कर बैठ गया था| मेरे दिल में अचानक ही उथल-पुथल शुरू हो गई थी, मैं अभी इस उथल-पुथल को सुलझाने लगा था की माँ ने मुझे भौजी के पास जाने को कहा ताकि वो अकेला न महसूस करें| मैं भारी कदमों से कमरे में दाखिल हुआ तो देखा भौजी पलंग पर बैठी थी और उनकी बेटी नेहा टी.वी की ओर इशारा कर उनसे कुछ पूछ रही थी| मैंने बिना कुछ कहे टी.वी चालु कर दिया और कार्टून लगा दिया, नेहा बड़े चाव से टी.वी के नजदीक फर्श पर बैठ देखने लगी| फर्श ठंडा था तो मैंने उसे गोद में उठाया और उसे कुर्सी पर बिठा दिया| नेहा मुझे देख कर मुस्कुराई पर बोली कुछ नहीं| फिर मैंने डरते हुए भौजी की तरफ देखा तो पाया की उनकी नज़र कब से मुझपे टिकी हुई थी, मेरे मन में उथल-पुथल मचनी शुरू हो गई थी| दिमाग दो साल पहले हुए उस पल को फिर से याद दिल रहा था और रह-रह के वो दबा हुआ गुस्सा फिर से चहरे पर आने को बेताब था| मैं चाहता था की भौजी को पकड़ कर उनसे पूछूँ की आपने मेरे साथ उस दिन धोका क्यों किया था, पर हिम्मत नहीं हुई!
कमरे में सन्नाटा था केवल टी.वी की आवाज आ रही थी की तभी माँ हाथ में कोका कोला और गिलास लिए अंदर आई| भौजी झट से उठ खड़ी हुई और माँ के हाथ से ट्रे ले ली; "चाची आपने तकलीफ क्यों की मुझे बुला लिया होता?!"
"अरे बेटा तकलीफ कैसी आज तुम इतने दिनों बाद हमारे घर आई हो| और बताओ घर में सब ठीक ठाक तो है???" माँ बोली और इस तरह दोनों महिलाओं की गप्पें शुरू हो गई| मैं दरवाजे के पास खड़ा हुआ अपने दिमाग को टी.वी. में लगाना चाहता था पर दिल उन हसीन पलों को याद कर खुश हो रहा था, जो मैंने भौजी के साथ बिताये थे! उन पलों को याद कर के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं और मन बेकाबू होने लगा पर पता नहीं क्यों हिम्मत नहीं हुई भौजी से बात करने की| एक अजीब सी शक्ति मुझे भौजी के पास जाने से रोक रही थी| एक हिचक थी, मानो वो मेरे लिए कोई अनजान शख्स हों| परन्तु अब मेरा कौमार्य दिमाग चल पड़ा था और अब वो मेरे दिमाग पर हावी होना चाहता था| ब्लू फिल्म वाले सीन अचानक मेरे दिमाग पर हावी होने लगे थे, पर दिमाग ने तर्क देते हुए कह रहा था की बेटा तेरी किस्मत हमेशा ऐन वक्त पे धोका देती है| जब गावों में जहाँ की इतनी खुली जगह है वहाँ पर कुछ नहीं हो पाया तो ये तो तेरा अपना घर है जिसमें केवल तीन कमरे और एक छत हैं| पर कौमार्य कह रहा था की एक कोशिश तो बनती है पर करें क्या?
इधर मैं ये सब सोच रहा था और उधर माँ भौजी से पूछ रही थी;
माँ: बेटा तुम अकेली क्यों आई हो? चन्दर नहीं आय तुम्हारे साथ?
भौजी: चाची नेहा के पापा साथ तो आये थे पर बाहर गावों के मनोहर काका का लड़का मिला था वो उन्हें अपने साथ ले गया और वो मुझे बहार छोड़के उसके साथ चले गए|
माँ: बेटा अच्छा तुम बैठो मैं खाना बनाती हूँ|
भाभी : अरे चाची मेरे होते हुए आप क्यों खाना बनाओगी?
माँ: नहीं बेटा, तुम इतने सालों बाद आई हो, अब तुमसे काम करवाऊँगी तो मानु मुझसे लड़ेगा की मेहमान से काम करवाते हो!
इतना कह माँ हँसते हुए रसोई में चली गई, माँ ने ये बात मुझसे छेड़ने के लिए कही थी| शायद इन दो सालों में वो मेरे गुस्से का कारन समझ गई थीं| भौजी ने आगे जान कर कुछ नहीं कहा और मेरी तरफ देखने लगीं, फिर उन्होंने मुझे इशारे से अपने पास बैठने को बुलाया| मैं उनके पास जाने से डर रहा था क्योंकि शायद अब मैं एक बार फिर अपना दिल टूटते हुए नहीं देखना चाहता था| पर मेरे पैर मेरे दिमाग के एकदम विपरीत सोच रहे थे और अपने आप भौजी की ओर बढ़ने लगे थे| मैं उनके सामने पलंग पर बैठ गया और सरझुका लिया| भौजी ने बड़े प्यार से अपने हाथों से मेरा चेहरा ऊपर उठाया, जैसे की कोई दूल्हा अपनी दुल्हन का सुन्दर मुखड़ा सुहागरात पे अपने हाथ से उठता है| मेरे चेहरे पर सवाल थे और भौजी मेरा चेहरा पढ़ चुकी थी| "मानु अब भी मुझसे नाराज हो?" उनके मुँह से ये सवाल सुन मैं भावुक हो उठा और टूट पड़ा| मेरी आँखों से आसूँ छलक आये, भौजी ने बिना कुछ कहे मुझे अपने सीने से चिपका लिया| उनके शरीर की उस गर्मी ने मुझे पिघला दिया और मेरे आँसू भौजी के कन्धों पर गिर उनके ब्लॉउस को भिगोने लगे| मैं फुट-फुट के रोने लगा और मेरी आवाज सुन भौजी भी अपने आपको रोक नहीं पाईं और वो भी सुबक उठीं और उनके आँसू मुझे मेरी टी-शर्ट पे महसूस होने लगे| मुझे ऐसा लगा जैसे एक अरसे बाद एक गर्म रेगिस्तान पर भरिश की बूंदें पड़ीं हों| ऐसा लगा जैसे आज बरसो बाद मेरा एक हिस्सा जो कहीं गुम हो गया था उसने आज मुझे पूरा कर दिया|
भौजी ने मुझे अपने से अलग किया और अपने हाथ से मेरे आसूँ पोछे, मैंने भी अपने हाथ से उनके आसूँ पोछने लगा| नेहा जो अब बड़ी हो चुकी थी और कुछ ही देर पहले जिसने हम दोनों का रोना सुना था अब अपनी सवालिया नज़रों से हमें देख रही थी| भौजी ने उसे अपने पास बुलाया और अपनी सफाई देते हुए कहा; "बेटा चाचा मुझे और तेरे पापा को बड़ा प्यार करते हैं, इसलिए आज जब इतने साल बाद मिलें तो चाचा को रोना आगया|" ये सुन नेहा पलंग पर चढ़ खड़ी हो गई और मेरे गाल पर एक पापी दी, फिर मेरे गाल पकड़ कर छोटे बच्चे की तरह हिलाने लगी| उसकी इस बचकानी हरकत पर मुझे हँसी आ गई| नेहा वापस टी.वी देखने में मशगूल हो गई और मुझे हँसता देख भाभी बोल पड़ी; "सच मानु तुम्हारी इस मुस्कान के लिए मैं तो तरस गई थी|" उनकी बात सुन मुझे याद आया की मुझे मेरे सवालों का जवाब चाहिए था|
मैं: भाभी मुझे आपसे कुछ बात करनी है|
भाभी: पहले ये बताओ की क्या तुम अब मुझसे प्यार नहीं करते?
मैं: क्यों?
भाभी: तुम तो मुझे भौजी कहते थे ना?
मैं: हाँ...पर मैं भूल गया था|
भाभी: समझी, किसी लड़की का चक्कर है? (भौजी ने थोड़ा चिंतित होते हुए कहा|)
मैं: नहीं!
भाभी: तो मुझे भूल गए?
मैं: नहीं ... भाभी पहले आप मेरे साथ छत पे चलो मुझे आपसे कुछ बात करनी है|
भाभी: फिर भाभी? जाओ मैं नहीं आती| (उन्होंने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा|)
मैं: (अपनी आवाज में कड़ा पन लाते हुए) भाभी मुझे आपसे बहुत जर्रुरी बात करनी है|
ये कहते हुए मैंने उनका हाथ कस कर पकड़ा और उन्हें पलंग पर से खींच दरवाजे की ओर जाने लगा| भाभी मेरे इस बर्ताव से हैरान थी पर फिर भी मेरे पीछे-पीछे चल दीं| हम बैठक में पहुँचे तो देखा माँ रसोई में नहीं थीं| वो बाहर खड़ीं सामने वाली भाभी से बात कर रहीं थीं; "माँ मैं भाभी को छत दिखा के लाता हूँ|" मैंने कहा तो माँ ने हाँ में सर हिलाया और मुझे छत पर जाने की आज्ञा दीं| चूँकि मैंने अब भी भौजी का हाथ पकड़ा हुआ था इसलिए पड़ोस वाली भाभी मुझे बड़े गोर से देख रहीं थी|
भाभी और मैं फटाफट सीढ़ी चढ़ते हुए छत पर पहुँचे, मैंने भौजी का हाथ छोड़ा और एक लम्बी साँस ली फिर भौजी की ओर गुस्से भरी नज़रों से देखते हुए अपना सवाल दागा; "भाभी आपने पूछा था की मैंने आपको भौजी क्यों नहीं कहा? तो मेरे सवाल का जवाब दो, क्यों आप मुझे छोड़के इतने दिनों तक अपने मायके रुकीं रही? आपको मेरा जरा भी ख्याल नहीं आया? आप जानते थे ना गाँव मैं सिर्फ आपके लिए आया था, आपसे मिलने, आपसे बात करने वरना वहाँ कौन सा मेरा कोई दोस्त था? 15 दिन तक अपने मायके में क्या कर रहे थे आप? वहाँ अपने रिश्तेदारों में मुझे भूल गए थे ना? भला उनके आगे मेरा क्या महत्त्व? वो आपके सगे हैं, मैं तो बस आपका देवर हूँ यही सोच कर वहाँ रुक गए थे ना?" ये सब कहने में मुझे बहुत ताक़त लगी थी और मेरी आँखें फिर से भर आईं थी| अब बस मन उनका जवाब सुनने को तड़प रहा था|
भौजी की आँखों में आँसू छलक आय और उन्होंने रोते हुए मेरे सभी सवालों का बस एक जवाब दिया; "मानु तुम मुझे गलत समझ रहे हो, मैंने कभी भी तुम्हें अपने दिल की बात नहीं बताई|" इतना कह कर भौजी रुक गईं और मेरी आँखों में देखते हुए बोलीं; "मैं तुम से प्यार करती हूँ|"
भौजी के मुँह से ये सुन के मैं सन्न रह गया! मुझे अपने कानों पे विश्वास नहीं हुआ, मैं अचरज भरी नजरों से भौजी को देखने लगा| पर भौजी की बात अभी पूरी नहीं हुई थी; "उस दिन जब तुम और मैं खेलते-खेलते इतना नजदीक आ गए थे.....मैं तुम्हें अपनी दिल की बात उसी दिन कह देती पर....तुम्हारा भाई आगया| शायद हमें उतना नजदीक नहीं आना चाहिए था| तुम्हें अंदाजा भी नहीं है की मुझपे क्या बीती उस रात! मैं सारी रात नहीं सोई ओर बस हमारे रिश्ते के बारे में सोचती रही| मुझे मजबूरन अगले दिन अपने मायके जाना पड़ा और यकीन मानो मैंने तुमसे मिलने की जी तोड़ कोशिश की पर तुम्हें तो पता ही है की गाओं में पूजा-पाठ, रस्मों में कितना समय निकल जाता है| अब तुम बताओ मैं वहाँ से क्या कह के आती? की मुझे अपने देवर के पास जाना है! ये सुन कर लोग क्या कहते? और मुझे अपनी कोई फ़िक्र नहीं, फ़िक्र है तो बस तुम्हारी! तुम मेरे देवर हो पर नजाने क्यों मैंने तुम्हें कभी अपना देवर नहीं माना....अब तुम्हीं बताओ इस रिश्ते को मैं क्या नाम दूँ?" भौजी के इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था| जवाब था तो बस ये की मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया था| मैं भौजी के सामने घुटनों पर बैठ गया; "भौजी मुझे माफ़ कर दो मैंने आपको गलत समझा| मुझे उस समय ये नहीं पता था की दुनियादारी भी एक चीज है, और सच मानो तो मैं खुद आपके और मेरे रिश्ते को केवल एक दोस्ती का रिश्ता ही मानता हूँ| अब मेरे सबसे करीबी दोस्त हो, ऐसा दोस्त जिसके ना होने पर मुझे बहुत दुःख होता है और जब आँखों के पास होता है तो दिल जोरों से धड़कनें लगता है| मुझे बिलकुल नहीं पता था की आप मुझसे सच्चा प्यार करते हो!" मेरी बात सुन भौजी को एक अजीब सा डर लगा जो उनके चेहरे से साफ़ झलक रहा था| भौजी ने भरी हुई आँखों से कहा;
भौजी: मानु क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करते? दोस्ती वाला प्यार नहीं, सच्चा प्यार?
मैं: भौजी मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा, मैं तो केवल आपको अपना दोस्त समझता था|
मेरा जवाब सुन उनका दिल टूट गया और वो बोलीं;
भौजी: मुझे माफ़ कर दो मानु, मैं हमारे इस रूठना-मानाने वाले खेल को गलत समझ बैठी!
इतना कहते हुए भौजी छत के दूसरी ओर चली गईं| मुझे न जाने क्यों अपने ऊपर गुस्सा आने लगा, मैं सोच रह था की कम से काम झूठ ही बोल देता तो भाभी का दिल तो नहीं टूटता| मैं भाभी की ओर भागा और उन्हें समझने लगा;
मैं: भौजी मुझे माफ़ कर दो, मेरी उम्र उस समय बहुत काम थी, मैं प्यार क्या होता है ये तक नहीं जानता था| मैं आपसे प्यार करता था, वही प्यार जो दो दोस्तों में होता है| अब मैं बड़ा हो गया हूँ और अच्छे से जानता हूँ की प्यार क्या होता है| मैं आपसे विनती करता हूँ भौजी, आप मत रोऔ, मैं आपको रोते हुए नहीं देख सकता|
ये कहते हुए मैंने उन्हें अपनी ओर घुमा लिया ओर उनके दोनों कन्धों पे हाथ रख उनकी आँखों में देखने लगा| उनकी आँखें आँसुंओं से भरी हुई थी और लाल हो गई थीं| उस वक़्त मैं बता नहीं सकता की मुझ पर क्या बीती| भौजी ने अपने आँसूँ पोछते हुए फिर मुझसे वही सवाल पूछा;
भौजी : मानु क्या तुम अब मुझसे प्यार करते हो?"
मैं: हाँ!!!
मुझे कुछ सुझा ही नहीं, नज़रों के सामने उनका प्यार चेहरा था और पता नहीं कैसे मैंने उन्हें हाँ में जवाब दे दिया| मेरा जवाब सुनते ही भौजी ने मुझे कस के गले लगा ले लिया, उनके इस आलिंगन में अजीब सी कशिश थी| ऐसा लगा जैसे उन्होंने अपने आप को मुझे सौंप दिया हो| भौजी अब मेरी छाती में सर छुपाये सुबक रहीं थी और अचानक ही मुझे ये डर सताने लगा की कहीं कोई अपनी छत से हमें इस तरह देख लेगा तो क्या होगा, या फिर हमें ढूँढती हुई माँ ऊपर आ गई तो? मुझे एहसास होने लगा जैसे मेरे अंदर सुरक्षात्मक प्रवृत्ति जन्म ले चुकी है! ये भौजी के आलिंगन का असर था, जहाँ एक तरफ मैं इस एहसास को सुरक्षात्मक प्रवृत्ति मानने लगा था वहीँ भौजी खुद को महफूस महसूस कर रहीं थीं| उन्हें उनके जीवन का वो बिंदु मिल गया था जहाँ से उनकी नई जिंदगी शुरू हो सकती थी|
कुछ क्षण बाद भौजी ने अपना मुख मेरी छाती से अलग किया और मेरी ओर देख ने लगीं, मेरी नजर उनके चेहरे पर पड़ी तो मैंने देखा उनके होंठ काँप रहे थे| मानो जैसे वो मुझे चूमना चाहती हों और मुझसे अनुमति माँग रही हों! मैंने मौके की नजाकत को समझते हुए उनके कोमल होठों को अपने होंठों की गिरफ्त में ले लिए| आज जिंदगी में पहली बार हम दोनों भावुक हो कर एक दूसरे को Kiss कर रहे थे| भौजी को तो जैसे अब किसी की फ़िक्र ही नहीं थी और उन कुछ क्षण के लिए मैं भी सब कुछ भूल चूका था| हम दोनों की आँखें बंद थी और समय जैसे थम सा गया| मैं बस भौजी के पुष्प से कोमल होठों को अपने होठों में दबा के चूस रहा था| भौजी भी मेरा पूरा साथ दे रही थी, वो बीच-बीच में मेरे होठों को अपने होठों में भींच लेती| इधर उनके दोनों हाथ मेरी पीठ पर चल रहे थे! पर मेरे हाथ उनकी पीठ पर स्थिर थे| उत्तेजना हम दोनों पर सवार हो चुकी थी, पर तभी नीचे से माँ की आवाज आई; "मानु जल्दी से नीचे आ, तेरे पिताजी आ गए हैं|" इस आवाज के विघ्न के कारन भौजी और मैं जल्दी से अलग हो गए| मैंने उन्हें नीचे चलने को कहा, भौजी अपनी प्यासी नज़रों से मुझे देख रही थी; "भौजी चिंता मत करो, कुछ जुगाड़ करता हूँ|" मैं बोलै और हम दोनों नीचे आ गए| भौजी ने सीढ़ियों में ही घूंघट काढ़ लिया था, नीचे आ कर उन्होंने पिताजी की पैर छुए ओर बातों का सिल-सिला चालु हो गया| मैं किताब लेकर भौजी के पास पलंग पर बैठ गया| कमरा ठंडा होने की वजह से मैंने कम्बल ले लिया और भौजी के पाँव भी ढक दिए| अब बारी थी पिताजी को व्यस्त करने की वरना आज मेरी प्यारी भौजी प्यासी रह जाती! मैं उठा और बहाना कर बहार भाग गया, जब मैं वापस आया तो पिताजी से बोला; "पिताजी रोशनलाल अंकल आपको बहार बुला रहे हैं|" मैंने झूठ बोला ताकि पिताजी बाहर चले जाएँ और पिताजी मेरी बात सुन बहार चले गए, माँ रसोई में व्यस्त थी| मौका अच्छा था पर मुझे डर था की पिताजी मेरा झूठ अवश्य पकड़ लेंगे| तभी पिताजी वापस अंदर आये और बोले; "बहार तो कोई नहीं है?"
मैं: शायद चले गए होंगे| (मैंने फिर झूठ बोला|)
पिताजी: अच्छा बहु मैं चलता हूँ शायद रोशनलाल पैसे देने आया होगा| (उन दिनों पिताजी को उनसे पैसे लेने थे इसलिए पिताजी मेरी बात मान गए|) अब कमरे में सिर्फ मैं और भौजी ही बचे थे, नेहा तो टी.वी. देखने में व्यस्त थी| हम दोनों एक ही कम्बल में थे; "भौजी आज भी बचपन जैसे ही सुला दो|" मैंने ये कहते हुए मैंने आज पहलीबार उनके बाएँ स्तन को छुआ| मेरे छूते ही भौजी की सिसकारी निकल गई; "स्स्स्स ..मम्म!!!"
"मानु रुको मैंने अंदर ब्रा पहनी है ओर ब्लाउज का हुक तुमसे नहीं खुलेगा|" भौजी बोलीं और उन्होंने अपने ब्लाउज के नीचे के दो हुक खोले, तथा अपना बायाँ स्तन मेरे सामने झलका दिया| उनके 38 साइज के उरोजों में से एक मेरे सामने था, जिसे देख मेरी हालत खराब हो गई थी! मैंने अपने काँपते हुए हाथों से उनके बाएँ उरोज को अपने हाथ में लिया और एक बार हलके से मसल दिया, भौजी की सिसकारी एक और बार फूट पड़ी; "सिस्स्स् .. अह्ह्हह्ह !!!" मेरा मन मचलने लगा था, मैंने भौजी के स्तन को अपने मुख में भर लिया और उनके निप्पल को अपनी जीभ से छेड़ने लगा| दूध की कुछ बूँदें मेरे मुँह में आईं पर आज मेरा दूध पीने का मन नहीं था! इधर भौजी के मुख के हाव-भाव बदलने लगे और वो मस्त होने लगीं| चूँकि मेरा दिमाग अभी भी सचेत अवस्था में था, इसलिए मैंने सोचा की "सम्भोग के पूर्व आपसी लैंगिक उत्तेजना एवं आनंददायक कार्य" अर्थात "Foreplay" में समय गवाना उचित नहीं होगा| मैं तो बस अब भौजी को भोगना चाहता था इसीलिए मैंने उनके स्तन को चूसना बंद कर दिया और मेरे रुकते ही भौजी बोल पड़ीं;
भौजी: बस मानु? मन भर गया?
मैं: नहीं भौजी!
ये कहते हुए मैंने कम्बल के नीचे उनका हाथ अपने पैंट के ऊपर बने उभार से छुआ दिया| भौजी ने मेरे लिंग को पैंट के ऊपर से ही अपनी मुट्ठी में दबोच लिया, मेरे मुँह से विस्मयी सिसकारी निकली; "स्स्स...!!!"
मैंने एक नजर नेहा पर डाली क्योंकि मुझे डर था की कहीं वो हमें ये सब करते देख न लें| पर नेहा अब भी टी.वी देख रही थी, मैंने उसे व्यस्त करने की सोची, मैं पलंग से उठा और अलमारी खोल के अपने पुराने खिलोने जो मुझे अति प्रिय थे उन्हें मैं किसी से भी नहीं बाँटता था वो निकाल के मैंने नेहा को दे दिया अब वो जमीन पर बिछी चटाई पर बैठ ख़ुशी-ख़ुशी खेलने लगी और साथ-साथ टी.वी में कार्टून भी देख रही थी| जमीन पर बैठे होने के कारन वो ऊपर पलंग पर होने वाली हरकतें नहीं देख सकती थी और इसी बात का मैं फायदा उठाना चाहता था| मैंने पलंग पर वापस अपना स्थान ग्रहण किया और कम्बल दुबारा ओढ़ लिया| फिर मैंने अपनी पैंट की चैन खोल दी और अपना लिंग बाहर निकाल कर भौजी का हाथ उससे छुआ दिया| भौजी ने झट से मेरे लिंग को अपने हाथों से दबोच लिया और उसे धीरे-धीरे ऊपर-नीचे करने लगी| आज पहली बार किसी स्त्री ने मेरा लिंग छुआ था| भौजी चाह रही थी की वो मेरे लिंग की चमड़ी को पूरा नीचे कर दें ताकि मेरा सुपाड़ा बाहर आ जाये, पर मुझे इसमें दर्द होने लगा था| दरअसल मेरे लिंग की चमड़ी कभी पूरा नीचे नहीं होती थी| अर्थात मेरे लंड का सुपर कभी भी खुल के बहार नहीं आया था| जब मैंने अपने मित्रों से ये बात बताई थी तो उन्होंने कहा था की समय के साथ ये अपने आप खुलता जाएगा| इसलिए मैंने भौजी से विनती करते हुए कहा; "भौजी ज़रा आराम से हिलाओ मेरा ये (लिंग) पूरा नहीं खुलता|" नजाने उन्हें क्या सूझी उन्होंने मेरे लिंग का मुँह थोड़ा सा खोला और अपनी ऊँगली से मेरे पेशाब निकलने वाले छेद पर धीरे-धीरे मालिश करना शुरू कर दिया| उनके हर बार छूने से मुझे मानो करंट सा लगने लगा था और मैं बार-बार उचक जाता था| बदकिस्मती से हमारा ये खेल भी ज्यादा देर तक न चला, माँ कमरे में कुछ सामान लेने आई तो भौजी ने चुपके से अपना हाथ मेरे लंड से हटा लिया| मैंने भी अपनी टांग मोड़ के कम्बल के अंदर खड़ी कर दी ताकि माँ को कम्बल में बने उस छोटे तम्बू का एहसास न हो जाए| खेर माँ दो मिनट के भीतर ही बहार चली गईं और इधर भौजी और मैं दोनों गरम हो चुके थे और एक दूसरे के आगोश में सिमटना चाहते थे| मैंने अपनी पैंट की चैन बंद की और पीछे से भौजी की योनि स्पर्श करने के लिए हाथ डाल दिया| भौजी उकड़ूँ हो के बैठ गई जिससे मेरा हाथ ठीक उनकी योनि के नीचे आ गया| मैंने साड़ी के ऊपर से उनकी योनि छूने व पकड़ने की बहुत कोशिश की परन्तु न कामयाब रहा इसलिए भौजी ने मुझे जगह बदलने की सलाह दी| मैं उठ के भौजी के ठीक सामने अपने पैर नीचे लटका के बैठ गया| अब मेरे मन में भौजी के योनि दर्शन की भावना जाग चुकी थी और मैं बहुत ही उतावला होता जा रहा था| मैंने एक-एक कर भाभी की साडी की परतों को कुरेदना चालु किया ताकि मेरी उँगलियाँ उनके योनि द्वार तक पहुँचे| मैं उनकी साडी तो ऊँची नहीं कर सकता था क्योंकि यदि मैं ऐसा करता तो माँ के अचानक अंदर आने से बवाल मच जाता, इसीलिए मैं गुप-चुप तरीके से काम कर रहा था| आखिर कर मेरा सीधा हाथ उनकी योनि से स्पर्श हुआ इतनी मुलायम और कोमल की मुझे विश्वास ही नहीं हुआ| 'आअह्ह्ह' जैसे आप नई गुलाब की काली को अपने हाथ पे महसूस किया हो|
मैंने अपनी ऊँगली से धीरे-धीरे उनकी योनि द्वार को सहलाना शुरू किया और भाभी की सिसकारियाँ फूटने लगीं; "सीइइइइइइइइइइइ....इस्स्स्स!!!" मेरी उँगलियों के स्पर्श से भौजी की योनि फड़कने लगी, उनकी योनि का एहसास बहार से ठंडा था और ऐसा लगा जैसे भौजी की योनि मेरी गर्म उँगलियों के गरम स्पर्श से काँप रही हों| मैंने और देर न करते हुए अपनी बीच वाली ऊँगली उनकी योनि के अंदर धकेल दी, योनि के भीतर का तापमान बाहर के मुकाबले बिलकुल उलट था| अंदर से भौजी की योनि गर्म थी, जैसे की कोई भट्टी! मेरे इस अनुचित हस्तक्षेप से भाभी सिहंर उठी और उनके मुख से एक दबी सी आह निकली; "अह्ह्हह्ह ... सीईईइ!!!" मैंने धीरे-धीरे अपनी बीच वाली ऊँगली को अंदर बहार करना चालु कर दिया और भौजी के चेहरे पर आ रहे उन आनंदमयी भावों को देखने लगा| उन्हें इस तरह देख के मुझे एक अजीब सी ख़ुशी हो रही थी, किसी को खुश करने की ख़ुशी| भौजी की सीतकारें अब लय पकड़ने लगीं थी; "स्स्स्स...आह्ह्ह... स्सीईई ..अम्म्म्म ...!!!" उन्होंने अचानक से मेरा हाथ जो अंदर बहार हो रहा था उसे थाम लिया| मुझे लगा शायद भौजी को इससे तकलीफ हो रही है परन्तु मेरी सोच बिलकुल गलत निकली| उन्होंने मेरा हाथ पकड़ के गति बढ़ाने का इशारा किया| मैं ठहरा एक दम अनाड़ी, मैं अपनी पूरी ताकत से अपनी बीच वाली ऊँगली तेजी से अंदर-बहार करता रहा ये सोच के की भौजी को जल्द ही परम सुख का आनंद मिलेगा| परन्तु मेरी इतनी कोशिश पर भी भौजी के मुख पर वो भाव नहीं आये जिनकी मैं कल्पना कर रहा था| तभी अचानक मुझे पता नहीं क्या सुझा और मैंने अपनी तीन ऊँगली भौजी की योनि में प्रवेश करा दीं और भौजी के चहरे के भाव अचानक से बदल गए| उनके चेहरे पर पीड़ा तथा आनंद के मिलेजुले भाव थे और मैं ये तय नहीं कर पा रहा था की उन्हें पीड़ा अधिक हो रही है या आनंद अधिक प्राप्त हो रहा है? मेरी इस दुविधा का जवाब उन्होंने स्वयं दे दिया; "मानु ... स्स्स्स ....ऐसे ही अह्ह्ह्ह ...और तेज करो...म्म्म्म!!!" मैंने अपनी पूरी शक्ति उँगलियाँ अंदर-बाहर करने में झोंक दी और ऐसा लगा की भौजी चरम पर पहुँच ही गईं, की तभी माँ ने दरवाजा खोला!!!
मेरी हालत खराब हो गई, कान एक दम से सुर्ख लाल हो गए और गला सूख गया| वो तो शुक्र था की माँ थोड़ा ही दरवाजा खोल पाई थी की उसी समय किसी ने मैन गेट की घंटी बजाई जिससे उनका ध्यान भंग हो गया इसलिए माँ ने अंदर कुछ भी नहीं देखा और माँ बहार दरवाजा खोलने चलीं गई| मैंने अपना हाथ भौजी की साडी से बाहर खींच लिया था, भौजी अतृप्त थी पर मैं कुछ नहीं कर सकता था| हम दोनों ही मन मसोस के रह गए| तभी मुझे कुछ सुझा, मैंने अपनी तीनों उँगलियाँ जो भौजी के योनि रस में सरोबोर थीं उन्हें सूँघा| उसमें से मुझे एक अजीब सी अभिमंत्रित गंध आई और मैं जैसे उसके नशे में झूमने लगा| मैँ भौजी की ओर मुड़ा और भौजी को दिखाते हुए अपनी तीनों उँगलियों को बारी-बारी से मुँह में ले के चूसने लगा! ये देख भौजी के चेहरे पर बड़े ही अजीब से भाव थे, वो तो जैसे हैरान थी की मैंने ये क्या कर दिया! मैंने इस बात पर इतना ध्यान नहीं दिया और न ही उनसे कुछ पूछा, मैंने कमरे से बाहर झाँका तो पाया माँ पड़ोस वाली भाभी के यहाँ गई हैं, शायद उन्होंने ने ही घंटी बजाई थी| एक पल के लिए तो मुझे उन भाभी पर बहुत गुस्सा आया की थोड़ी देर पहले आ जाती तो कम से कम भौजी को तो चैन मिल जाता!
फिर मैंने भौजी को इशारे से अपने पास बुलाया और उन्हें बाथरूम की ओर ले गया, मैंने बाथरूम का दरवाजा खुला छोड़ दिया और भौजी की ओर मुँह कर के अपनी पैंट की चैन खोली| फिर अपने अकड़े हुए लिंग को बाहर निकाला और भौजी को दिखा के उनके योनि रस से लिप्त अपनी उँगलियों से अपने लंड को स्पर्श किया और उन्हें दिखा-दिखा के हस्तमैथुन करने लगा| मेरा लिंग देख भौजी का मुख खुला का खुला रह गया, इधर मुझे भी छूटने में ज्यादा समय नहीं लगा| भौजी के देखते ही देखते मैंने अपना वीर्य की बौछार कर दी जो सीधा कमोड में जा गिरी| भौजी मेरी इस वीर्य की बारिश को देख उत्तेजित हो चुकी थी और साथ ही साथ हैरान भी थी परन्तु अब किया कुछ नहीं जा सकता था| चिड़िया खेत चुग चुकी थी !! अर्थात, चिड़िया रुपी मैँ, तो बाथरूम में जाके भौजी को दिखाते हुए अपने शरीर में उठ रही मौजों की लहरों को किनारे ला चूका था परन्तु किसान रूपी भौजी अब भी भूखी थी, प्यासी थी| उनके चेहरे से साफ़ झलक रहा था की वो कितनी प्यासी हैं और शायद मुझे अंदर ही अंदर कोस रही थीं| खेर मैँ बाथरूम से हाथ धोके निकला और मेरे मुख पर सकून के भाव थे और भौजी के मुख पर क्रोध के! परन्तु पता नहीं क्या हुआ उन्हें, मेरे चेहरे के भाव देखते हुए वो मेरे पास आईं और मेरे गाल पर एक पप्पी जड़ दी, फिर मुस्कुराते हुए बाथरूम में चली गईं| मैँ कुछ भी समझ नहीं पाया और भौजी को बाथरूम के अंदर वॉशबेसिन पर खड़ा देखता रहा| मुझे लगा शायद वो अंदर जाके अपने आप को शांत करने की कोशिश करेंगी पर उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया, वो बस ठन्डे पानी से अपना मुँह धो के अपने साडी के आँचल से पोछती हुई बहार आ गईं| इतने में माँ भी पड़ोस वाली भाभी के घर से लौट आईं और हम दोनों को एक साथ बाथरूम के बाहर खड़ा देख पूछने लगीं;
माँ: तुम दोनों यहाँ क्या कर रहे हो?
भौजी: चाची मैंने सोचा आपकी मदद कर दूँ| (भौजी ने बड़ी होशियारी से झूठ बोला|)
माँ: नहीं बहु तुम बैठो खाना तैयार है, मैँ तुम दोनों को परोसने ही जा रही थी की रामा (हमारी पड़ोस वाली भाभी) ने बुला लिया, चलो हाथ मुँह धो लो मैँ अभी खाना परोसती हूँ|
मैँ: (भौजी को छेड़ते हुए) मुँह भौजी ने धो लिया और हाथ मैंने!
भौजी ने चुपके से मुझे कोहनी मारी और अपना नीचे वाला होंठ दबाते हुए हुए झूठा गुस्सा दिखाने लगीं| मैँ और भौजी वापस अपने स्थान पर चल दिए और तभी मेरी और भौजी की नज़र नेहा पर पड़ी, वो खेलते-खेलते चटाई पर ही सो चुकी थी| मैंने एक चैन की साँस ली क्योंकि नेहा को देखने के बाद मेरे मन में ख़याल आया की कहीं इसने वो सब देख तो नहीं लिया? भौजी ने नेहा को फटा-फ़ट चटाई से उठा के पलंग पर सुला दिया और मैंने उसे रजाई उढ़ा दी| इतने में माँ खाना ले कर आ गईं, आज खाने में मेरी पसंदीदा सब्जी थी, मटर पनीर और बैगन का भरता! माँ ने अपने सामने बैठा के भौजी और मुझे खाना खिलाया| खाना खाने के पश्चात मैँ और भौजी सैर करने के लिए वापस छत पर आ गये| मैंने भौजी का हाथ थाम लिया और हम एक कोने से दूसरे कने तक सैर करने लगे|
सैर करते समय भौजी बिलकुल चुप थीं और मैं उनकी इस चुप्पी के कारन से अनविज्ञ था| मन में अब भी उन्हें भोगने की तीव्र इच्छा हिलोरे मार रही थी, पर मैं अपने मन में उठ रही मौजों की लहरों के आगे विवश नहीं होना चाहता था| तभी एक अजीब सा डर सताने लगा की कहीं भौजी गाँव जा कर ये सब भूल गईं तो? या फिर मैं गाँव ना जा पाया तो? ये सोचते हुए अचानक मेरी पकड़ भौजी के हाथ पर सख्त होती गई| भौजी तुरंत मेरी तरफ देखने लगीं पर मेरी नजर सामने की ओर थी और मन में अब भी यही सवाल चल रहे थे| भौजी चलते-चलते रुक गईं और सवालिया नज़रों से मेरी ओर देखने लगीं| मैं उनके चेहरे को देख ये भाँप चूका था की वो मेरे कारन परेशान हैं, परन्तु मुझ में इतनी हिम्मत नहीं थी की मैं उन्हें अपने अंदर उठे तूफ़ान के बारे में कुछ बता सकूँ| दरअसल हर वो नौजवान जिसने अभी-अभी जवानी की दहलीज पर कदम रखा हो और वो सेक्स के बारे में सब कुछ जानता हो उसके अंदर कहीं न कहीं अपने कौमार्य को भंग करने की इच्छा अवश्य छुपी होती है| यही इच्छा अब मेरे अंदर अपना प्रगाढ़ रूप धारण कर चुकी थी और इसीलिए मेरा मन आज इतना विचिलत था| मेरा गला सुख चूका था और मुख से शब्द फुट ही नहीं रहे थे| पता नहीं कैसे परन्तु भौजी मेरे भावों को अच्छे से पढ़ना जानती थी| वो ये समझ चुकी थीं की मेरे मन में क्या चल रहा है और उन्होंने स्वयं चुप्पी तोड़ते हुए कहा; "मानु... मैं जानती हूँ तुम क्या सोच रहे हो| जब तुम गावों आओगे तब तुम्हारी सब इच्छाएं पूरी हो जाएंगी|" भौजी ने मुस्कुराते हुए कहा| उनकी ये बात सुनते ही जैसे मेरी बाछें खिल गईं| मन में उठ रहा तूफ़ान थम गया और मैंने आग बाद कर भाभी के मुख को अपने हाथों से थाम लिया और उनके होठों पर एक चुम्बन जड़ दिया| ये चुम्बन इतना लम्बा नहीं चला क्योंकि हम दोनों बहुत सतर्क थे|
सर्दी के दीं थे तो पता ही नहीं चला की दोपहर कब बीती और सांझ होने को आई| भौजी के विदा लेना का समय था, पर मन में बस उनसे पुनः मिलने की इच्छा जग चुकी थी| तभी चन्दर भैया का फ़ोन आया की मैं भौजी को बस अड्डे छोड़ दूँ, बस अड्डा हमारे घर से करीबन आधा घंटा दूर था ओर भैया वहीं हम से मिलेंगे| मैं, भौजी और नेहा तीनों रिक्शा स्टैंड तक चल दिए और इस बार पिछली बार के उलट हम दोनों खुश थे| मैंने नेहा को अपनी गोद में उठा लिया और हम लोग दिखने में एक नव विवाहित जोड़े की तरह लग रहे थे, ये बात मुझे मेरे दोस्त ने बताई जो मुझे और भौजी को दूर से आता देख रहा था| परन्तु मेरा ध्यान केवल भौजी पर था इस कारन मैं अपने दोस्त को नहीं देख पाया| ऑटो स्टैंड पहुँच के मैंने ऑटो किया और हम तीनों बस अड्डे पहुँच गए| रास्ते भर हम दोनों चुप थे बस दोनों के मुख पर एक मुस्कुराहट छलक रही थी| मन में एक एजीब से प्रसन्त्ता थी, मैंने सोचा की जब तक भैया नहीं आते तब तक भौजी से कुछ बात ही कर लूँ| तो मैंने भौजी से एक वचन माँगा;
मैं: भौजी आप मुझे एक वचन दे सकते हो?
भौजी: वचन क्या तुम मेरी जान माँग लो तो वो भी दे दूँगी|
मैं: भौजी अगर आपकी जान माँग ली तो मैं जिन्दा कैसे रहूँगा|
भौजी: नहीं..... ऐसा मत बोला मानु!
मैं: भौजी वचन दो की आप गाओं में मेरा इन्तेजार करोगी? मुझे भूलोगी नहीं? और छत पे जो आपने बात कही थी उसे भी नहीं भूलोगी?
भौजी: मैं तुम्हे वचन देती हूँ! तुम बस जल्दी से गाओं आ जाओ मैं वहाँ तुम्हारा बेसब्री से इन्तेजार करुँगी|
इतने में वहाँ से एक आइस-क्रीम वाला गुजर रहा था, उसे देख नेहा आइस-क्रीम के लिए जिद्द करने लगी| भौजी उसे डाँटते हुए मना करने लगी| माँ की डाँट सुन नेहा अब मेरी ओर देख रही थी| मैंने भाभी को रोक और नेहा को अपनी ऊँगली पकड़ाई ओर उसे आइस-क्रीम दिल दी| नेहा बड़े चाव से आइस-क्रीम खाने लगी, मेरा नेहा के प्रति प्यार देख भौजी ने मुझसे कहा;
भौजी: मानु....मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूँ| (भौजी संकुचाते हुए बोलीं|)
मैं: हाँ जी बोलो|
भौजी: पता नहीं तुम विश्वास करोगे या नहीं.....(इतना कहते हुए भौजी रुक गईं|)
मैं: भौजी मैं आपकी कही हर बात का विश्वास करूँगा, आप बोलो तो सही| अपने अंदर कुछ मत छुपाओ!
भौजी: मैंने नेहा के मेरे गर्भ में आने के बाद से तुम्हारे भैया के साथ कभी भी शारीरिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किये!!!
ये सुनते ही मैं दंग रह गया, पर अभी भौजी की बात पूरी नहीं हुई थी;
भौजी: यही कारन है की अब तुम्हारे भैया और मेरे बीच में नहीं पटती| कई बार हमारे बीच इसी बात को ले कर लड़ाई होती है| अब तो बस हमारे बीच केवल मौखिक रूप से ही बातचीत होती है| यही कारन है की वो अब मेरे साथ कहीं आते-जाते भी नहीं| जब मैंने दिल्ली आने की जिद्द की तो वे बिगड़ गए, इसीलिए मैंने नेहा को पढ़ाया की वो ससुर जी (बड़के दादा) से जिद्द करे तुम से मिलने की, तुम्हारे भैया ससुर जी का कहना हमेशा मानते हैं| आमतौर पर तो मेरी या नेहा की जिद्द कोई पूरी नहीं करता पर शायद इस बार किस्मत को कुछ और मंजूर था तभी ससुर जी मान गए|
भौजी की बात सुन अब मेरी समझ में आया की आखिर भैया क्यों घर नहीं आये| अब मुझे भौजी के लिए चिंता होने लगी थी, दर लगने लगा था की पता नहीं भौजी कैसे वहाँ दीं गुजारती होंगी! मैं इस बारे में कुछ कह पाता उससे पहले ही मुझे चन्दर भैयाआते हुए नजर आये| भैया मुझसे गले मिले ओर हाल-चाल लिया, जब मैंने उनसे घर ना आने का रन पूछा तो उन्होंने बात टाल दी और मुझसे विदा ली| गाओं जाने वाली बस खचा-खच भरी हुई थी, उसमें मुझे दो औरतों के बीच एक जगह मिली और मैंने वहाँ भौजी को बैठा दिया| भैया अभी भी खड़े थे, मैंने भैया को बाहर बुलाया और कंडक्टर से बात कराई की जैसे ही जगह मिले वो भैया को सीट सबसे पहले दें इसके लिए मैंने कंडक्टर को एक हरी पत्ती भी दे दी| कंडक्टर खुश हो गया और बोला; "सहब आप चिंता मत करो भाईसाहब को मैं अपनी सीट पर बैठा देता हूँ|" भैया ये सब देख के खुश थे उन्होंने टिकट के पैसे देने के लिए पैसे आगे बढ़ाये तो मैंने उन्हें मना कर दिया और कहा; "भैया पिताजी ने कहा था की टिकट मैं ही खरीदूँ| आप ये लो टिकट और अंदर कंडक्टर साहब की सीट पर बैठो|"
कंडक्टर से निपट के मैं अंदर आया और भैया से पूछा की वो कुछ खाने के लिए लेंगे तो उन्होंने मना कर दिया, मैं भौजी की ओर बढ़ा और उनसे पूछा तो उन्होंने भी मना कर दिया पर मैं मानने वाला कहाँ था| मैं झट से नीचे उतरा और दो पैकेट चिप्स और दो ठंडी कोका कोला की बोतल ले आया और एक बोतल और चिप्स भैया को थमा दिया और दूसरी बोतल और चिप्स भौजी को दे दी| भौजी न-नकुर करने लगी पर मैंने उन्हें अपनी कसम दे कर जबरदस्ती की| आखिर भौजी मान गईं फिर मैंने नेहा की एक पप्पी ले कर भौजी को इशारे से कहा की मैं जल्दी आऊँगा| इतने में बस चलने का समय हो गया तो मैं भौजी और नेहा को बॉय कह कर नीचे उतर गया| बस चली गई और मैं गाओं जाने की उम्मीद लिए घर लौट आया|