[color=rgb(51,]छब्बीसवाँ अध्याय[/color][color=rgb(51,]: दुखों का [/color][color=rgb(51,]ग्रहण[/color]
[color=rgb(251,]भाग -6(1)[/color]
[color=rgb(26,]अब तक पढ़ा:[/color]
मैं आँखें बंद किये हुए, सोफे पर बैठा हुआ संगीता के लेख में लिखे हुए शब्दों को पुनः याद कर रहा था| वो दर्द भरे शब्द मेरे दिल में सुई के समान चुभे जा रहे थे और ये चुभन मेरी जान लिए जा रही थी| 2 तरीक को जब चन्दर मेरे घर में घुस आया था, उस दिन का एक-एक दृश्य मेरी आँखों के आगे घूम रहा था| आज मैं उन दृश्यों को संगीता की नजरों से देख रहा था और खुद को संगीता की जगह रख कर उसकी (संगीता की) पीड़ा को महसूस कर रहा था| चन्दर ने जिस प्रकार संगीता की गर्दन दबोच रखी थी उसे याद कर के मेरा खून गुस्से के मारे उबलने लगा था! मेरे भीतर गुस्सा पूरे उफान पर था, मेरी पत्नी को इस कदर मानसिक रूप से तोड़ने के लिए मैं चन्दर की जान लेना चाहता था| इसी गुस्से में बौखलाया हुआ मैं एकदम से उठ खड़ा हुआ, लेकिन अगले ही पल मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया तथा मैं चक्कर खा कर धम्म से नीचे गिर पड़ा और फिर मुझे कुछ होश नहीं रहा की आगे क्या हुआ?!
[color=rgb(255,]Note: यहाँ से संगीता की लेखनी प्रारम्भ होती है![/color]
[color=rgb(97,]अब आगे:[/color]
मैं हमारे कमरे में से निकल रही थी जब मैंने सोफे पर से इन्हें उठ कर खड़ा होते हुए देखा, लेकिन फिर अगले ही पल इन्हें चक्कर आ गया और ये नीचे गिर गए| इनका सर जोर से ज़मीन से टकराया था, जैसे ही मैंने इनहें गिरते हुए देखा मैं दौड़ती हुई आई और इनका सर अपनी गोद में ले कर जोर से चिल्लाकर माँ को पुकारा; "माँ...माँ...जल्दी आओ!" माँ उस समय अपने कमरे में थीं, उन्होंने जैसे ही मेरी दर्द भरी चीख सुनी वो तुरंत कमरे से बाहर आईं| फिर उनकी नजर हम दोनों पति-पत्नी पर पड़ी, इन्हें जमीन पर बेसुध पड़ा देख माँ बहुत घबरा गईं तथा तेजी से मेरे नजदीक आ कर जैसे-तैसे ज़मीन पर बैठने लगीं| "बहु, क्या हुआ मानु को?" माँ ने काँपती हुई आवाज में पुछा| उस समय मैं खुद नहीं जानती थी की इन्हें क्या हुआ है, मैं तो बस डर के मारे काँपने लगी थी| मैंने इनके गाल थपथपाये और इन्हें होश में लाने की कोशिश करने लगी, उधर माँ ने इनके हाथ अपने हाथ से रगड़ने चालु कर दिए| तभी नेहा अपने कमरे से बाहर निकली, उसने जब अपने पापा की ये हालत देखि तो उसकी जान निकलने लगी! वो दौड़ती हुई नजदीक आई और तब मेरी जर उस पर पड़ी; "नेहा, जल्दी से अपनी (doctor) सरिता आंटी को फ़ोन कर और बोल की पापा बेहोश हो गए हैं, वो जल्दी यहाँ आयें!" नेहा ने आव देखा न ताव वो दौड़ती हुई अंदर गई और मेरे फ़ोन से doctor सरिता को फ़ोन कर सब बात बताई, इधर मैं कभी इनके नाक के आगे ऊँगली रख कर इनकी साँस महसूस कर रही थी तो कभी गर्दन के नीचे ऊँगली रख कर इनकी दिल की धड़कन महसूस कर रही थी| इतने में आयुष नहा कर निकला और घर में मची उथल-पुथल सुन बाहर बैठक में आया| अपने पापा की ये हालत देख वो रोने लगा और अपने पापा के बाईं तरफ बैठ गया| मुझे समझ नहीं आ रहा था की क्या करूँ, इन्हें सम्भालूँ या फिर आयुष को? "बेटा...रोते नहीं! आप पाने पापा के पाँव के तलवे रगड़ो!" माँ ने आयुष को प्यार से सँभालते हुए कहा| अपनी दादी जी की बात सुन आयुष ने अपना रोना किसी तरह काबू किया और अपने पापा के पाँव के तलवे रगड़ने लगा मगर उसका सिसकना जारी रहा! तभी नेहा फ़ोन कान पर लगाये हुए मेरे नजदीक आई, उसके हाव-भाव देख कर लग रहा था की बात कुछ चिंता जनक है| मेरे दिमाग ने अटकलें लगानी शुरू कर दी की जरूर कुछ गड़बड़ है और इन्हीं अटकलों के कारण मेरे दिल की धड़कन बेकाबू रूप से दौड़ने लगी!
"मम्मी, डॉक्टर आंटी clinic में नहीं हैं, कहीं बाहर हैं! उन्होंने कहा है की हमें जल्दी से पापा को हॉस्पिटल ले जाना है और साथ में पापा की case history भी ले जानी है|" नेहा फ़ोन काटते हुए रुनवासी होते हुए बोली| नेहा की बात सुन मेरे प्राण सूख रहे थे, मेरे लिए तो जैसे doctor सरिता ही सब कुछ थीं और जब उन्होंने ही हमें अस्पताल जाने को कहा तो मैं बहुत घबरा गई! मेरी घबराहट ने मेरे सोचने की ताक़त को धीमा कर दिया, इससे पहले मैं कुछ सोच पाती और कहती, माँ ही बोल पड़ीं; "नेहा, बेटा अपने दादा जी को फ़ोन कर और बोल की वो जल्दी से ambulance ले कर आयें!" इस वक़्त एक माँ थीं जो इतना घबराने के बावजूद सही फैसला ले पा रहीं थीं वरना मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा था की क्या करें?!
नेहा ने अपनी दादी जी की बात मानते हुए अपने दादा जी को फ़ोन किया और उन्हें सारा हाल सुनाया| पिताजी इस वक़्त नॉएडा में थे और उन्हें घर आने में कमसकम एक घंटा लगता, पिताजी का इंतजार करना व्यर्थ था इसीलिए उन्होंने नेहा से कहा की वो ambulance घर भेज रहे हैं तथा हम मोहल्ले वालों की मदद से इनको ले कर नजदीकी अस्पताल पहुँचे, वे हमें वहीं मिलेंगे! पिताजी ने ambulance वाले को फ़ोन कर दिया और वो ठीक 15 मिनट में घर पहुँच गया| साथ ही पिताजी ने कुछ पड़ोसियों को फ़ोन कर दिया था जो हमारी मदद करने के लिए आ गए थे| हमारा घर गली में पड़ता था, जहाँ एम्बुलेंस घुस नहीं सकती थी| Ambulance वाला अपने साथ stretcher ले कर आया और पड़ोसियों की मदद से हमने इन्हें stretcher पर लिटाया| फिर सभी ने मिलकर stretcher को ambulance में पहुँचा दिया| मैं, माँ, नेहा और आयुष भी इन्हीं के सामने बैठ गए| इन्हें यूँ बेहोश देख हम चारों में ताक़त नहीं बची थी, आयुष मुझसे लिपट कर रोये जा रहा था और नेहा अपने पापा के पास बैठी इनका हाथ अपने हाथों में ले कर रोये जा रही थी| उधर मैं माँ के कँधे पर अपना मुँह रखे रो रही थी, वहीं माँ इस वक़्त पूरे परिवार को सँभालने में लगीं थीं! वो हम तीनों माँ-बेटा-बेटी को हिम्मत देते हुए बोलीं; "बच्चों, रोना नहीं है! आपके पापा को कुछ नहीं हुआ है!" माँ ने दोनों बच्चों के सर पर हाथ फेरते हुए कहा| फिर माँ ने अपना हाथ मेरे कँधे पर रखा और मुझे ढाँढस बँधाने लगीं; "मानु ठीक हो जाएगा, धीरज धर बेटी, चिंता मत कर! सब ठीक हो जायेगा!"
Ambulance अपना siren बजाते हुए तेजी से अस्पताल की ओर बढ़ रही थी और अगले बीस मिनट में हम अस्पताल पहुँच गए| हम जिस अस्पताल में इन्हें ले कर पहुँचे थे वहीं doctor सरिता पहले काम कर चुकीं थीं इसलिए उनकी यहाँ बहुत अच्छी जान-पहचान थी| उन्होंने हमारे अस्पताल पहुँचने से पहले ही इस अस्पताल की senior doctor रूचि को इनकी बिमारी के बारे में जानकारी दे दी थी| Doctor सरिता पिताजी को बहुत मानती थीं इसलिए पिताजी के सरिता जी को किये एक फ़ोन ने हमारी बहुत मदद की थी|
Doctor रूचि अस्पताल के gate पर हमारा इंतजार करती हुईं मिलीं, ward boy की मदद से उन्होंने इन्हें (मेरे पति को) ambulance से उतरवाया| इधर नेहा ने फ़ट से doctor रूचि को अपने पापा की case history वाली file दी| इन्हें फ़ौरन अस्पताल में admit कर लिया गया तथा हमें एक private room allot कर दिया गया| एक junior doctor और nurse ने मिलकर इनका B.P check करना शुरू किया और तब मुझे समझ आया की हो न हो आज इनके अचानक चक्कर खा कर गिरने का कारण इनका B.P बढ़ना होगा! 'हाय राम! कहीं इन्होने दवाई लेना बंद तो नहीं कर दिया था?' मैं मन ही मन बुदबुदाई, लेकिन अब इस बात की चिंता करने के लिए बहुत देर हो चुकी थी|
इनका प्राथमिक उपचार शुरू हो चूका था और हम चारों बस उत्सुक हो कर इन्हें पलंग पर बेहोश पड़ा देखे जा रहे थे| ठीक 20 मिनट बाद doctor सरिता अस्पताल पहुँची और वो सीधा इन्हें देखने के लिए कमरे में आईं| हमें हिम्मत रखने के लिए बोल वो doctor रूचि से इनके बारे में बात करने चली गईं|
आधे घंटे बाद पिताजी भी अस्पताल पहुँचे और इनके सर पर हाथ फेर कर भावुक हो गए| डर और चिंता पिताजी के चेहरे से झलक रही थी मगर वो अपनी ये चिंता हमारे सामने प्रकट नहीं करना चाहता थे| इतने में सरिता जी लौटीं और माँ-पिताजी को अपने साथ doctor रूचि के cabin में ले गईं, जब मैंने साथ चलना चाहा तो मुझे उन्होंने इनके पास रहने को कहा| माँ-पिताजी चले गए तो हम तीनों माँ-बेटा-बेटी इन्हें घेर कर बैठ गए| आयुष को मैंने इनके पाँव के पास बिठा दिया, रो-रो कर आयुष का चेहरा बिगड़ा हुआ था और वो अपने छोटे-छोटे हाथों से अपने पापा के पाँव दबा रहा था, उसे लग रहा था की पाँव दबाने से उसके पापा जल्दी जाग जाएंगे| वहीं नेहा इनके बाईं तरफ पलंग पर बैठी थी और अपने पापा को यूँ चुप देख सिसक रही थी| मैं अस्पताल का वो गोल घूमने वाले स्टूल पर इनके पास बैठी थी, मेरी नजरें इनकी आँखों पर जमी थी और मैं उम्मीद कर रही थी की ये अब आँखें खोलेंगे, अब आँखें खोलेंगे! मेरा दिल उमीदों से भरा हुआ था लेकिन डर अब भी लग रहा था| मेरा दिमाग इस वक़्त कुछ नहीं सोच रहा था, उसे बस इन्हें होश में देखना था|
दस मिनट बाद माँ कमरे में लौटीं, उनके चेहरे पर चिंता झलक रही थी और ये चिंता देख मेरा दिल बैठा जा रहा था! "बेटा, मानु ने आज दोपहर घर लौट कर दवाई खाई थी न?" माँ ने मुझसे सवाल पुछा| माँ का ये सवाल सुन मुझे जैसे कुछ समझ नहीं आया और मैं मुँह बाए माँ को देखने लगी| "प...पता नहीं माँ!" ये शब्द मेरे मुँह से अनायास ही निकले| मेरा जवाब सुन माँ को बहुत हैरानी हुई और उन्हें समझ आ गया की हमारा (मेरा और इनका) रिश्ता किस तनाव से गुजर रहा है| मेरा दिमाग अब चलने लगा था और मुझे एहसास हो रहा था की इनकी ये हालत मेरे कारण ही हुई है! ग्लानि के भाव मेरे चेहरे पर आ गए थे और मेरी नजरें शर्म के मारे झुक गई थीं| माँ हताश हो कर doctor रूचि के cabin में जाने के लिए पलटी की तभी नेहा बोल पड़ी; "दादी जी, पापा जी ने कल से दवाई नहीं ली थी! कल रात मैंने उन्हें याद दिलाया था की वो दवाई ले लें, लेकिन पापा जी ने कहा की मैं ठीक हूँ|" नेहा सिसकते हुए बोली| माँ नेहा के पास आईं और उसका सर अपने पेट से लगा कर उसे सँभालते हुए बोलीं; "बस मेरी बिटिया!" इतना कह माँ वापस चली गईं|
इधर मैं दंग नेहा को आँखें बड़ी कर के देख रही थी की नेहा को अपने पापा की कितनी फ़िक्र थी, शायद इसीलिए ये नेहा को मुझसे भी ज्यादा प्यार करते हैं|
कुछ देर बाद माँ, पिताजी और सरिता जी कमरे में आये, माँ-पिताजी सोफे पर बैठ गए और सरिता जी कुर्सी पर बैठ गईं| मैं और बच्चे उत्सुकता से माँ, पिताजी और सरिता जी को देख रहे थे की वो हमें इनके बारे में जानकारी दें की ये कब होश में आएंगे मगर वो तो खामोश बैठे थे! मैं जान गई की जरूर कुछ बात है जो मुझसे और बच्चों से छुपाई जा रही है, बच्चों से बात छुपाना मैं समझ सकती थी मगर मुझसे बात छुपाने का कारण मुझे समझ नहीं आ रहा था?! जब कोई कुछ नहीं बोला तो मैंने ही अधीर बनते हुए सरिता जी से पूछ लिया; "सरिता जी, आखिर इन्हें हुआ क्या है और इन्हें कब होश आएगा?" सरिता जी कुछ बोलती उससे पहले ही पिताजी बोल पड़े; "बेटा, मानु को थोड़ी देर में होश आ जाएगा, तू चिंता न कर|" पिताजी ने प्यार से मुझे बहलाते हुए जवाब दिया| उनकी बातों से साफ़ था की वो कुछ तो मुझसे छुपा रहे हैं मगर मुझमें उनसे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं थी| मेरे ससुर जी मेरे पिता समान थे इसलिए मैं कुछ नहीं बोली और ये सोच कर खुद को संतुष्ट कर लिया की इन्हें थोड़ी ही देर में होश आ जायेगा तथा ये पूरी तरह से स्वस्थ हो जाएंगे, मेरे लिए इस समय इनका स्वस्थ होना ही मायने रखता था|
पिताजी इनके admit होने की कागजी कारवाही करने के लिए चले गए, सरिता जी doctor रूचि से इनके उपचार के बारे में बात करने चली गईं, बचे हम चार यानी मैं, माँ, आयुष और नेहा तो हम चार अभी भी कमरे में बैठे थे| बच्चे मायूस थे तो माँ ने उन्हें अपने पास बुलाया और दोनों बच्चों को अपने सीने से चिपका कर उन्हें लाड कर बहलाने लगीं| पंद्रह मिनट बाद पिताजी लौटे और मुझसे बोले; "बेटा, मेरे (debit) card का balance खत्म हो गया है और पैसे अब भी कम पड़ रहे हैं! तेरे पास तेरा (debit) card है?" उन दिनों हमारे घर में पैसों को ले कर थोड़ी परेशानी चल रही थी, पिताजी के नॉएडा और गुडगाँव वाले project के कारण पैसे फँसे हुए थे| कुछ छोटे project जो पहले पूरे हुए थे या चल रहे थे उनके पैसे भी फँसे हुए थे| अब चूँकि इन्हें हमने एक निजी अस्पताल में भर्ती करवाया था तो यहाँ बहुत खर्चा होने वाला था इसी कारण पिताजी के पैसे कम पड़ने लगे थे| मेरा अपना कोई bank account नहीं था क्योंकि शादी होने के बाद हमें account खुलवाने जाने का समय ही नहीं मिला था, वो तो इन्होने मुझे अपना debit card दे रखा था जिसकी मुझे सिवाए इन्हें कोई gift देने के अलावा कभी कोई जर्रूरत नहीं पड़ी थी|
खैर, जर्रूरत की इस घडी में जब मुझे सारे परिवार को अपने होंसले से संभालना चाहिए था तब मैं एक के बाद एक बेवकूफियाँ किये जा रही थी| पिताजी का सवाल सुन मुझे मेरी बेवकूफी याद आई की इन्हें अस्पताल लाने की हड़बड़ी में मैंने अपना पर्स उठाया ही नहीं था, वो तो माँ के पास कुछ पैसे थे जो हमने ambulance वाले को दे दिए थे! "वो...पिताजी...debit card मेरे पर्स में है...और मैं अपना पर्स लाना भूल गई!" मैंने सर झुकाते हुए अपना गुनाह कबूला, मुझे लग रहा था की पिताजी मुझे डाटेंगे की मैं कितनी बड़ी बेवकूफ हूँ मगर पिताजी ने मुझे नहीं डाँटा उल्टा मुझे प्यार से समझाते हुए बोले; "बेटा, इस तरह की आपातकालीन हालात में सबसे पहले पैसे पास रखे जाते हैं ताकि जरूरत पर काम आयें|" मेरी गर्दन शर्म के मारे झुकी हुई थी, पिताजी कुछ सोच रहे थे और फिर वो बोले; "बेटा हम सब घर चलते हैं, पैसे ले कर मैं वापस आ जाऊँगा और तुम सब शाम तक आ जाना|" मेरा मन इन्हें इस हाल में छोड़ कर जाने का नहीं था इसलिए मैंने पिताजी से विनती करते हुए कहा; "पिताजी, आप माँ और बच्चों को ले जाइये, तब तक मैं यहाँ रूकती हूँ|" पिताजी को मेरा सुझाव सही लगा इसलिए उन्होंने माँ और बच्चों से घर चलने को कहा| बच्चों ने तो एक साथ अपनी गर्दन न में हिला दी और बोले की वो अपने पापा के पास रहेंगे, वहीं माँ ने भी जाने से मना कर दिया क्योंकि वो भी इनकी तबियत को ले कर बहुत चिंतित थीं| मैंने माँ को उनकी सेहत का वास्ता दिया, ज्यादा बैठने से उनके पाँव में सूजन पढ़ने लगती थी तब कहीं जा कर माँ मानी और पिताजी के साथ घर गईं| माँ को घर छोड़ पिताजी लौटे और अस्पताल में पैसे जमा करा दिए, फिर वो मुझे मिलने आये और मुझे कुछ पैसे देते हुए बोले; "बेटा, मैंने अस्पताल में पैसे जमा करा दिए हैं| तू अपना, मानु का और बच्चों का ख्याल रख और ये कुछ पैसे रख| यहाँ से कुछ खरीद कर तुम तीनों खा लेना, मैं तब तक कुछ लोगों से मिल कर पैसों का इंतजाम करता हूँ| अगर doctor रूचि कुछ बताये तो मुझे तुरंत फ़ोन कर देना, नहीं तो शाम तक मैं और तेरी माँ आ ही जाएंगे, फिर तब तक तो मानु को भी होश आ जाएगा|" पिताजी की बात सुन मैंने बस हाँ में गर्दन हिलाई, इससे ज्यादा कुछ कहने की मुझ में हिम्मत नहीं थी| पिताजी ने दोनों बच्चों के सर पर हाथ फेरा और बोले; "बच्चों आप दोनों को अपने मम्मी-पापा का ध्यान रखना है!" पिताजी ने आयुष और नेहा को जिम्मेदारी देते हुए कहा तथा बच्चों ने भी अपना सर हाँ में हिलाते हुए अपनी जिम्मेदारी स्वीकारी|
पिताजी के जाने के बाद हम तीनों माँ-बेटा-बेटी बेसब्री से इंतजार करने लगे की अब इन्हें होश आएगा...अब ये आँख खोलेंगे| इनकी आवाज सुनने को मेरे कान तरस गए थे, इनके चेहरे को देखते हुए बार-बार मैं उम्मीद कर रही थी की अब इनकी पलकें हिलेंगी और ये मुझे 'जान' बोलेंगे, लेकिन ये थे की मुझसे नाराज हो कर लेटे हुए थे| मेरे भीतर मौजूद ग्लानि के कारण मेरा मन भारी हो चूका था क्योंकि मेरे इनसे रूखे बर्ताव के कारण ही आज इनकी ये हालत हुई थी|
खैर इनके होश में आने का इंतजार करते-करते रात के नौ बज चुके थे, बीच-बीच में माँ-पिताजी के कई बार फ़ोन आये थे और वो मुझसे इनका हाल पूछ रहे थे तथा मैं निराश हो कर उन्हें (माँ-पिताजी को) बस यही कहती की अभी तक इन्हें होश नहीं आया है|
अभी तक घर के किसी भी सदस्य ने कुछ नहीं खाया था, उधर घर में माँ भूखी बैठीं पिताजी के लौटने का इंतजार कर रहीं थीं| वहीं पिताजी खाली पेट एक पार्टी से दूसरी पार्टी के पास दौड़ते हुए पैसों का इंतजाम कर रहे थे| यहाँ हम तीनों माँ-बेटा-बेटी भूखे बैठे थे, मुझे अपनी चिंता नहीं थी बल्कि चिंता थी तो बच्चों की| मैंने नेहा को आवाज दे कर अपने पास बुलाया और पिताजी के दिए हुए पैसे नेहा को देते हुए बोली; "बेटा आप दोनों ने दोपहर से कुछ नहीं खाया इसलिए आप और आयुष जा कर canteen से कुछ खरीद कर खा लो|" ये मेरी दूसरी बेवकूफी थी जो मैं इतने बड़े अस्पताल में बच्चों को canteen अकेले भेज रही थी|
"मम्मी, आपने भी तो कुछ नहीं खाया और पापा जी कहते हैं की इस वक़्त आपको खाना खाने की ज्यादा जर्रूरत है, तो आप भी चलो न हमारे साथ?!" नेहा मुझसे बोली| मेरी बेटी थी तो छोटी मगर बहुत समझदार थी, वो जानती थी की मैं माँ बनने वाली हूँ और ऐसे में मुझे खाना खाने की ज्यादा जर्रूरत है, इसीलिए वो मुझे साथ चलने को कह रही थी| लेकिन मैं पहले इन्हें होश में देखना चाहती थी, तभी मेरे गले से खाने का निवाला नीचे उतरता; "बेटा, मेरा अभी कुछ खाने का मन नहीं है| आप दोनों खा आओ तो मेरा भी पेट भर जायेगा|" मैंने नेहा को प्यार से समझाते हुए कहा| मन तो मेरे दोनों बच्चों का भी कुछ खाने का नहीं था, तभी तो दोनों सर झुकाये खामोश खड़े थे| मैंने नेहा के सर पर हाथ फेर उसे समझना चाहा की तभी आयुष जो अभी तक खामोश था वो अपनी दीदी के साथ हो लिया और मेरे खाना न खाने से नाराज होते हुए बोला; "फिर मैं भी कुछ नहीं खाऊँगा!" अब देखा जाए तो आयुष की नाराजगी जायज थी, वो तो बस अपने दादा जी द्वारा दी गई मेरा और अपने पापा का ध्यान रखने की जिम्मेदारी निभा रहा था| परन्तु वो ये भूल गया की वो किस से बात कर रहा है, मैं उसके पापा की तरह नहीं थी जो उसकी नाराजगी देख कर पिघल जाऊँ! मुझे बच्चों की जिद्द और नाराजगी के नखरे सहने की आदत नहीं थी| आयुष ने जब मुँह फुला कर अपनी बात कही तो ये देख मुझे बहुत गुस्सा आया, घर पर होती तो आज उसे अच्छे से झाड़ देती, वो तो अस्पताल था इस कर के मैंने आयुष को गुस्से से घूर कर देखा और इतने भर से ही आयुष डर गया तथा अपनी दीदी के पीछे जा छुपा| नेहा ने भी जब मेरा गुस्सैल चेहरा देखा तो डर के मारे उसने मेरे से पैसे लिए और आयुष का हाथ पकड़ कर बाहर की ओर जाने लगी|
तभी मुझे एहसास हुआ की नेहा बिलकुल अपने पापा पर गई है, वो खुद कुछ नहीं खायेगी बल्कि आयुष को खिला कर लौट आएगी और मुझसे झूठ बोल देगी की उसने खा लिया है| ये सोच कर मैंने नेहा को आवाज दे कर कहा; "नेहा, रुक जा! मैं भी तेरे साथ चलती हूँ, तुम दोनों का भरोसा नहीं कुछ खाओगे नहीं और मुझसे झूठ बोल दोगे की हमने खा लिया है!" मैंने चिढ़ते हुए कहा| गौर करने वाली बात ये थी की मुझे इस वक़्त बच्चों के अकेले canteen जाते समय खो जाने का डर नहीं था अपितु उनके झूठ बोल कर भूखे रहने पर गुस्सा आ रहा था, ये थी मेरी तीसरी बेवकूफी!
हम तीनों माँ-बेटा-बेटी canteen पहुँचे, मैंने दोनों बच्चों को एक-एक sandwich और frooti खरीद कर खाने के लिए दी, मगर दोनों बच्चे एक दूसरे की शक्ल देखने लगे मानो एक दूसरे को खाने को कह रहे हों| दोनों ने अभी तक खाने को हाथ नहीं लगाया था और ये देख कर मेरा गुस्सा बढ़ने लगा था; "एक दूसरे की शक़्लें क्या देख रहे हो? जल्दी से खाओ और चलो, वहाँ तुम्हारे पापा अकेले हैं!" मेरी गुर्राहट सुन आयुष तो डर के मारे खाने लगा मगर नेहा अब भी खाने को हाथ नहीं लगा रही थी| सर झुकाये हुए वो डर के मारे कुनमुनाते हुए बोली; "मुझे भूख नहीं है, मैं नहीं खाऊँगी!" ये कहते हुए नेहा ने खाने की plate मेरी और खिसका दी| नेहा को मेरी चिंता थी, मेरे न खाने के कारण ही वो खाना नहीं खा रही थी, अगर मैं उस वक़्त एक कौर खा लेती तो नेहा भी खा लेती मगर मेरा इस वक़्त दिमाग खराब हो चला था! नेहा के इस तरह मेरी बात को नकारने से मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं उस पर बहुत गुस्से से चिल्लाई; "बहुत हो गया नेहा, चुप-चाप ये sandwich खा ले!" मेरा गुस्सा देख नेहा बहुत घबरा गई और रोने लगी, वहीं आयुष भी मेरा ये रौद्र रूप देख डर के मारे रोने लगा! आज तक दोनों बच्चे मेरे गुस्से से बहुत डरते हैं, अगर मैं उन्हें डाँट दूँ तो आयुष और नेहा डर के मारे काँपने लगते हैं, वो तो ये हैं जो हमेशा अपने प्यार से बच्चों को सँभाल लेते हैं (थे)!
खैर, नेहा ने पहले अपने आँसूँ पोछे, फिर आयुष के आँसूँ पोछ उसे अपने हाथ से sandwich खिलाने लगी| मेरी बेटी खुद डरी हुई थी मगर फिर भी पहले आयुष को सँभालने में लगी थी, आयुष को खिलाने के बाद उसने खुद भी बेमन से sandwich खाया| हम तीनों अब वापस इनके पास लौटने लगे और रास्ते भर नेहा ने मुझसे कोई बात नहीं की क्योंकि मेरे इस तरह से झिड़कने से वो मेरे प्रति उखड़ चुकी थी! वो अपने छोटे भाई का हाथ पकड़े हुए चुप-चाप चल रही थी|
जैसे ही हम कमरे के नजदीक पहुँचे की हमें डॉक्टरों और नर्सों का जमावड़ा नजर आया! ये दृश्य देख मेरा कलेजा मुँह को आ गया, मेरा दिल बुरी तरह दहल गया! इन्हें खो देने के डर के कारण मन में बुरे-बुरे विचार आने लगे, दिमाग कहने लगा की हमारा (मेरा और इनका) साथ हमेशा-हमेशा के लिए छूट गया मगर मेरा दिल इसकी गवाही नहीं दे रहा था!
मैं आप सभी पाठकों से माफ़ी चाहती हूँ की मैं इनके लिए 'मृत्यु' शब्द का प्रयोग नहीं कर सकती, इस एक शब्द को सोच कर ही मैं आज भी डर जाती हूँ!
इधर माँ-पिताजी भी अस्पताल पहुँच गए थे और डॉक्टरों और नर्सों को देख वो भी बहुत अचंभित थे! "बहु, ये...ये सब क्या हो रहा है?" पिताजी घबराते हुए इनके बारे में मुझसे पूछने लगे| मैं इस वक़्त अपने विचारों और मन में मची उथल-पुथल के कारण निरुत्तर थी! मुझे तो खुद कुछ नहीं मालूम था की यहाँ क्या हो रहा है तो मैं पिताजी के सवाल का जवाब क्या देती?! मैं बस मुँह बाये कमरे को देख रही थी| तभी सरिता जी तेजी से चलती हुईं हमारे पास आईं और माँ-पिताजी का हाथ पकड़ उन्हें मुझसे थोड़ा दूर ले जा कर कुछ बोलने लगीं| ये देख मैं भी माँ-पिताजी के नजदीक जा पहुँची क्योंकि मुझे जानना था की आखिर इन्हें हुआ क्या है मगर मुझे नजदीक देख सरिता जी एकदम से चुप हो गईं! सरिता जी की ये चुप्पी किसी अनहोनी की तरफ इशारा कर रही थी, हैरत से बड़ी आँखों से मैंने माँ-पिताजी की ओर देखा तो उनके चेहरे पर मुझे चिंता दिखाई दी, मतलब की बात बहुत गंभीर है जो की जानबूझ कर मुझसे छुपाई जा रही थी! मुझसे ये ख़ामोशी बर्दाश्त नहीं हुई तो मैं एकदम से बोल पड़ी; "सरिता जी, please मुझे बताइये की मेरे पति को हुआ क्या है? आखिर ऐसी कौन सी बात है जो आप सभी मुझसे छुपा रहे हैं?" मेरी आवाज में दर्द झलक रहा था और इस दर्द को सुन सभी के दिल पसीज गए थे| सरिता जी पिताजी को देखने लगीं और उनसे अनुमति माँगने लगीं की क्या वो मुझे सारी बात बता दें? पिताजी ने गर्दन हाँ में हिला कर अपनी अनुमति दी, तब जा कर सरिता जी ने मुझे सारी बात बताई जिसे सुन कर मेरे होश उड़ गए!
"मानु के दवाई न लेने के कारण उसका BP बहुत बढ़ा हुआ था, आज जब वो चक्कर खा कर गिरा तो उसका सर ज़मीन से टकराने के करण उसके सर में चोट आई| जब आप मानु को यहाँ लाये तो हमने अन्न-फानन में मानु को admit कर उसका basic treatment शुरू कर दिया, initial diagnosis में मानु का BP बढ़ा हुआ था इसलिए उसी को हम मुख्य कारण मान हमने इलाज शुरू किया मगर किसी ने भी मानु के सर में आई चोट की तरफ ध्यान ही नहीं दिया|
अभी कुछ देर पहले nurse मानु का BP check कर रहे थी और तब उसने मानु के सर में पीछे की तरफ आई सूजन पर गौर किया, इसलिए हम फिलहाल मानु को MRI के लिए ले कर जा रहे हैं| आप सभी घबराई मत और उम्मीद बिलकुल मत छोड़िये, मानु को कुछ नहीं होगा!" सरिता जी हमें आश्वस्त करते हुए बोलीं मगर उनके खुद के चेहरे से चिंता झलक रही थी! इधर सरिता जी की बात सुन मुझे बहुत गुस्सा आया, मन किया अभी पूरे अस्पताल पर केस कर दूँ, लेकिन फिलहाल मेरे लिए इनका सही उपचार किया जाना जरूरी था, मेरे केस दायर करने से इनके इलाज में रुकावट आ सकती थी बस इसीलिए मैं चुप रही!
उधर कमरे से इन्हें MRI कराने के लिए ले जाने लगे और सरिता जी खुद डॉक्टरों के साथ गईं| अपने पापा को जाता देख दोनों बच्चे घबराये हुए थे, पिताजी ने उन्हें अपने पास बुलाया और उनके सर पर हाथ फेर उन्हें बहलाने लगे|
मैं और माँ अकेले खड़े थे इसलिए मैंने रुनवासे होते हुए माँ से पुछा; "माँ, आप मुझसे ये बात क्यों छुपा रहे थे?" माँ ने मेरे सर पर हाथ फेरा और मुझे समझाते हुए बोलीं; "बेटी, तू माँ बनने वाली है और मानु ने हमें कसम दी थी की हम तुझे कोई भी ऐसी बात न बताएँ जिससे तेरे दिल को चोट पहुँचे बस इसीलिए हम तुझसे ये बात छुपा रहे थे|" माँ की बात सुन मेरी आँखे भर आई, मुझे एहसास हुआ की एक तरफ मेरे पति हैं जो मेरी ख़ुशी के लिए मुझे दुखों से दूर रखते हैं और दूसरी तरफ मैं हूँ जो इनसे बात न कर के इन्हें बेवजह परेशान कर रही थी| माँ की बात में एक गौर करने वाली बात छुपी थी और वो ये की अभी भी कुछ बातें थीं जो माँ-पिताजी मुझसे छुपा रहे थे लेकिन मुझ में ये सब पूछने की हिम्मत नहीं थी| माँ ने मेरे आँसूँ पोछे और मुझे पुचकारा तथा अपने साथ कमरे के भीतर ले आईं|
कमरे के भीतर पिताजी दोनों बच्चों को सँभाल रहे थे, बच्चों की जुबान पर बस एक ही सवाल था की; 'पापा को क्या हुआ?' पिताजी उन्हें सच नहीं बताना चाहते थे इसलिए वो बस बातें गोल-मोल कर रहे थे; "तुम्हारे पापा को कुछ नहीं हुआ, वो जल्दी ठीक हो जायेगा|" जब मैं और माँ कमरे के भीतर आये तो पिताजी को बात घुमाने का मौका मिल गया; "अच्छा बच्चों, देखो अपनी दादी जी को भी थोड़ा प्यारी करो वरना वो (माँ) बाद में मुझे कहेगी की मैंने आप दोनों की सारी प्यारी ले ली!" आयुष तो अपने दादा जी की बात सुन मुस्कुराया मगर नेहा के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे| दोनों बच्चे आ कर माँ से लिपट गए और माँ ने दोनों के सर पर हाथ रख उन्हें आशीर्वाद दिया| पिताजी उठ कर मेरे पास आये और मेरे सर पर हाथ रख मुझे हिम्मत बँधाने लगे|
इधर हम सभी कमरे के भीतर बैठे इनके लौटने का इंतज़ार कर रहे थे और उधर किसी दूसरे कमरे में इनका MRI किया जा रहा था| घंटे भर बाद सरिता जी और doctor रूचि इनकी MRI की report ले कर हमारे पास आईं| उनके चेहरे पर तनाव की शिकन थी जो ये साफ़ बता रही थी की बात चिंता जनक है| बच्चों को कमरे में ठहरने के लिए बोल मैं, माँ, पिताजी, सरिता जी और doctor रूचि कमरे से बाहर आ गए| "अंकल जी, report अच्छी नहीं है!" Doctor रूचि ने बात शुरू करते हुए कहा| इतना सुनना था की मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा था! "अंकल जी, ये बताइये की मानु ने खाना-पीना क्यों बंद कर रखा था?" सरिता जी ने भोयें सिकोड़ कर पिताजी से सवाल पुछा| "नहीं बेटा ऐसा बिलकुल नहीं है! अक्सर मानु सुबह नाश्ता कर के निकलता है, हाँ काम में व्यस्त रहने की वजह से शायद कभी-कभार दोपहर को खाना न खा पाता हो मगर रात में जब वो घर लौटता था तो बहु ही उसे खाना परोसती थी| तो ऐसा हो ही नहीं सकता की मानु ने खाना-पीना बंद कर रखा हो, है न बहु?" पिताजी ने अपनी बात खत्म करते हुए जब मेरी ओर देखते हुए सवाल पुछा तो मेरी जुबान को लकवा मार गया, मेरा गला सूख गया और हलक़ से शब्द बाहर ही नहीं निकले, मैं तो बस मुँह बाये सरिता जी को देख रही थी!
"बहु, मानु रात को खाना खाता था न?" माँ ने मेरे कँधे पर हाथ रखते हुए मुझे धीरे से हिलाया और पिताजी का सवाल दुहराया मगर मुझे जैसे कोई सुध ही नहीं थी! सभी की नजरें मुझ पर टिकी थीं और सभी मुझसे जवाब की अपेक्षा कर रहे थे| माँ ने मेरा कंधा फिर से दबाया और तब जा कर मुझे जैसे होश आया, आँखों से आँसूँ बाह निकले तथा मैंने सब सच कहा; "माँ, जब से इन्होने दुबई जाने की बात कही थी तब से मैं इनसे बहुत नाराज थी! मैंने अपने गुस्से के चलते इनसे बात करना बंद कर दिया और इन्होने अपने गुस्से में खाना-पीना छोड़ दिया! कल रात जब ये घर लौटे तो मैं इन्हें खाना परोस कर चली गई, इन्होने वो खाना नहीं खाया बल्कि ढक कर fridge में रख दिया| आज सुबह जब मैंने रोटी का tiffin देखा तो मुझे पता चला की कल रात इन्होने कुछ नहीं खाया था| आज सुबह भी ये बिना खाये निकल गए थे...." इतना कहते हुए मेरा सब्र टूट गया और मैं रो पड़ी| "ये...ये सब मेरी गलती है! पिताजी...माँ...मुझे माफ़ कर दीजिये!" मैंने हाथ जोड़ कर माँ-पिताजी से रोते-रोते माफ़ी माँगी| मेरे मुँह से सारा सच सुन मेरे सास-ससुर जी ने मुझे एक शब्द न कहा, बल्कि माँ ने मुझे अपने गले लगा लिया और मेरे सर पर हाथ फेर कर मुझे शांत कराने लगीं| सच मेरे सास-ससुर देवता समना हैं जो मुझे अपने बेटे की ये हालत करने के बाद भी इतना लाड-प्यार कर रहे थे|
मैंने अपना रोना काबू किया और तब सरिता जी ने अपनी बात कही; "अंकल जी, आप तो जानते ही हैं की मानु का metabolism कितना कमजोर है, इसीलिए मैंने आपको कहा था की आप मानु को कभी व्रत आदि न रखने दें| मानु के खाना-पीना छोड़ने, अपनी दवाई न लेने और घर में जो माहौल था उसके कारण मानु बहुत तनाव में था| आज उसका B.P shoot up हुआ जिस कारण मानु को चक्कर आया और वो गिर पड़ा जिस कारण उसके सर में गहरी चोट आई है| मानु को आई इस चोट को यानी brain injury को हम Anoxic Brain Injury कहते हैं| जब मानु को यहाँ admit किया गया था तभी अगर यहाँ के डॉक्टरों ने ये चोट देख ली होती और इसका उपचार शुरू कर दिया होता तो हालात सँभाले जा सकते थे मगर यहाँ के डॉक्टरों की लापरवाही के कारण मानु के दिमाग में सूजन बढ़ गई है...." इतना कह सरिता जी खामोश हो गईं तथा अपनी बात अधूरी छोड़ दी| पिताजी ने जब अस्पताल की लापरवाही की बात सुनी तो उनकी आँखों में खून उतर आया, उनके इकलौते बेटे की जान इस अस्पताल की खराब व्यव्य्स्था के कारण दाव पर लगी थी! पिताजी ने गुस्से से doctor रूचि को देखा और इससे पहले की पिताजी उन पर बरस पड़ते सरिता जी ने अपनी बात पूरी की; "Manu's in COMA!" चूँकि सरिता जी ने ये बात अंग्रेजी में कही थी इसलिए माँ-पिताजी को सरिता जी की ये बात समझ नहीं आई, वहीं सरिता जी की बात सुन कर मेरा मुँह खुला का खुला रह गया, आँखें फटने की हद्द तक बड़ी हो गईं, दिल की धड़कन रुकने लगी और साँसें थमने की कगार पर आ गईं! उधर माँ-पिताजी आँखें बड़ी किये हुए, आँखों में सवाल लिए मुझे देख रहे थे की मैं सरिता जी की कही बात का हिंदी में अनुवाद कर उन्हें बताऊँ? परन्तु मेरे हाव-भाव देख माँ-पिताजी घबरा गए, वो जान गए की जरूर कोई बहुत बुरी खबर है! ठीक तभी सरिता जी ने हिंदी में अपनी बात दुहराई; "मानु coma में है!"
सरिता जी द्वारा दी गई ये खबर हम तीनों के लिए बहुत दुखदाई थी, इस खबर ने हमें सदमें डाल दिया था! पिताजी जो अभी तक अस्पताल प्रशासन पर गुस्सा थे वो अब एक गहन चिंता में डूब गए थे, माँ की हालत और भी बदत्तर थीं, उनके जिगर का टुकड़ा जिसे वो इतना प्यार करती थीं उस बेटे की जान एक पतली सी डोर पर टंगी थी! इधर मेरी हालत ऐसी थी मानो किसी ने मेरे कान के पास कोई बम फोड़ दिया हो और मुझे आगे कुछ सुनाई ही न दे रहा हो, दिल बार-बार कह रहा था की ये कोई बुरा सपना है जो मेरे जागने से टूट जायेगा लेकिन दिमाग सरिता जी की कही बातों को दोहराये जा रहा था जिस कारण मैं हिम्मत छोड़ने लगी थी|
हम सब अस्पताल के गलियारे में खड़े थे और इस वक़्त पूरा गलियारा शांत था, तभी पीछे से नेहा डर के मारे चीखी; "नहीं!" उसकी चीख सुन हमने पलट कर देखा तो पता चला की नेहा ने पीछे छुपकर हमारी सारी बात सुन ली थी, नेहा एकदम से रोती हुई अपनी दादी जी की ओर दौड़ी और अपनी दादी जी की कमर से लिपट कर बदहवास हो कर रोने लगी| नेहा से ये खबर बर्दाश्त नहीं हुई थी इसलिए वो छोटी सी बच्ची आज पूरी तरह टूट गई थी| मैं, माँ और पिताजी इस वक़्त बड़ी ही विचित्र मानसिक स्थिति में थे, हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था की क्या करें? हार मान कर अफ़सोस करें या फिर होंसला बटोर कर हालात का सामना करें? हमारे दिमाग सन्न थे और हमें क्या प्रतिक्रिया देनी है ये हमें मालूम ही नहीं था!
"द...दादी जी...पा...पापा.कब ठीक होंगें?" नेहा रोते हुए माँ से बोली| नेहा का सवाल सुन माँ की आँखें छलक आईं, आज वो अपनी ही पोती के आगे बेबस और निरुत्तर हो गईं थीं| सरिता जी ने बात सँभाली और नेहा को हिम्मत बँधाते हुए बोलीं; "बेटा, आपके पापा जल्दी ठीक हो जायेंगे, लेकिन अभी आपको अपने पापा की बहादुर बेटी बनना होगा| आपको पता है की आपके पापा ने मुझे आपके बारे में क्या बताया था?" सरिता जी ने नेहा को बहलाने के लिए प्यारा सा झूठ बोला| सरिता जी की बात सुन नेहा के दिल में उम्मीद का दीपक जल गया और वो उत्सुक हो कर सरिता जी को देखने लगी| "आपके पापा कहते थे की मेरी बेटी नेहा सबसे बहादुर है, कैसे भी हालात हों वो पूरे घर को सँभाल लेती है and I'm proud of my daughter! अब अगर आप ही इस तरह हार मान जाओगे तो कैसे चलेगा? आप जानते हो न आपकी मम्मी pregnant हैं, तो उन्हें कौन सँभालेगा? आपके दादा-दादी जी का कौन ख्याल रखेगा? आपका छोटा भाई आयुष, उसे कौन देखेगा? सबको आप ही को सँभालना होगा न?!" सरिता जी ने बिलकुल इनकी तरह ही नेहा को जिम्मेदारी दे कर बहला लिया था| सरिता जी की बातों ने हम सभी को भावुक कर दिया था और हम सभी की आँखों से आँसूँ बहने लगे थे|
मेरी बेटी बहुत बहादुर थी, उसने सरिता जी की बात सुन अपनी हिम्मत बटोरी और अपने आँसू पोछे, फिर उसने अपनी दादी जी का हाथ पकड़ उन्हें थोड़ा झुकाया और उनके आँसू पोछे| उसके बाद वो अपने दादा जी के पास आई और उनका हाथ पकड़ नीचे झुका कर उनके भी आँसूँ पोछे| नेहा की हिम्मत देख पिताजी बहुत भावुक हो गए और उन्होंने उसे कस कर अपने गले लगा लिया| "आप चिंता मत करो दादा जी, पापा जल्दी ठीक हो जाएंगे!" नेहा अपने दादा जी की पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्हें हिम्मत बँधाने लगी| नेहा को यूँ वयस्कों की तरह बर्ताव करता देख आज मुझे उस पर बहुत गर्व हो रहा था!
खैर, माँ ने नेहा को आयुष को सँभालने के बहाने से कमरे के भीतर भेजा और अपने तड़पते हुए दिल के इत्मीनान के लिए सरिता जी से सवाल पुछा; "बेटी, मानु को होश कब आएगा?" माँ का दिल बड़ा कोमल होता है, उसे बस अपने खून की खैरियत जननी होती है| माँ की जिज्ञासा वाजिब थी परन्तु coma में गया हुआ व्यक्ति कब coma से बाहर आये ये कह पाना नामुमकिन होता है| लेकिन ये बात सरिता जी हम में से किसी से भी नहीं कहना चाहतीं थीं क्योंकि इससे हम सभी नाउम्मीद हो जाते! "आंटी जी, फिलहाल हम कुछ नहीं कह सकते क्योंकि इंसान के दिमाग में आई चोट को ठीक होने में थोड़ा समय लगता है| फिर यहाँ doctors पूरी कोशिश कर रहे हैं, सही दवाइयाँ, आप सभी के प्यार और भगवान की कृपा से मानु किसी भी वक़्त coma से बाहर आ सकता है| आपको बस उम्मीद नहीं छोड़नी है!" सरिता जी ने अपनी तरफ से हमें आश्वस्त करने की कोशिश करते हुए कहा|
पिताजी जी जो अभी तक खामोश थे एक बार फिर उनके चेहरे पर गुस्सा आने लगा था मगर वो कुछ कहते उससे पहले ही सरिता जी बोल पड़ीं; "अंकल जी, मैं आपका गुस्सा समझ सकती हूँ! अस्पताल वालों की लापरवाही के कारण ही हालात इतने खराब हुए हैं और मैंने इस बात को ले कर अस्पताल प्रशासन से पहले ही बहुत बहस की है| मानु को मैंने अपना छोटा भाई बता कर अस्पताल प्रशासन को court में घसीटने की धमकी दी थी, अस्पताल प्रशासन कह रहा है की यदि आप case न करें तो वो आपको हर्जाना देने के लिए तैयार है!" इतना सुनते ही पिताजी एकदम से बोल पड़े; "बेटी, मुझे कोई पैसे नहीं चाहिए, मुझे बस मेरा बेटा चाहिए और वो भी स्वस्थ!" पिताजी ने सख्ती से अपनी बात साफ कर दी| "अंकल जी, मैं आपको आश्वस्त करती हूँ की मानु पूरी तरह ठीक हो जायेगा| हम उसे best care और treatment देंगे, हम अभी उसे special room में shift कर रहे हैं| इस कमरे में ICU की सारी सुविधाएँ हैं तो मानु को कभी कोई तकलीफ नहीं होगी| मैं खुद मानु को personally attend करूँगी और सरिता भी visiting doctor के तौर पर यहाँ होगी| इसके आलावा आपका कोई खर्चा अब नहीं होगा!" Doctor रूचि बोलीं| हमारे लिए इनका ठीक होना ज्यादा जरूरी था, फिर हमें सरिता जी पर पूरा विश्वास था इसलिए हमने कोई कानूनी कारवाही नहीं करने का फैसला लिया| इसके आलावा हमें अस्पताल में 24 घंटे रुकने की भी इजाजत दे दी गई थी|
हमारे पास बस इनके जल्दी ठीक होने की उम्मीद थी और इसी उम्मीद के सहारे हमारे जीवन की ये नाव चलनी थी| सरिता जी और doctor रूचि कुछ बात करते हुए चले गए और हम तीनों अकेले खड़े रह गए| इनके लिए जो special कमरा था हम उसी कमरे की ओर बच्चों संग चलने लगे| नेहा आयुष का हाथ पकड़े हुए आगे-आगे चल रही थी और उसका (आयुष का) मन अपनी बातों से बहलाये हुए थी| इन्हें पहले ही कमरे में पहुँचा दिया गया था और वहाँ एक नर्स बैठी हुई थी| दोनों बच्चों ने जैसे ही अपने पापा को देखा दोनों अंदर दौड़ कर पहुँचे और अपने पापा को घेर कर खड़े हो गए| आयुष ने इनको जगाना चाहा तो नेहा ने उसे रोक दिया और बोली; "नहीं आयुष, पापा को आराम करने दे|" इतना कह नेहा ने आयुष को अपने गले लगा लिया| तभी वो नर्स उठ कर आई और माँ-पिताजी को नमस्ते कह कर बाहर चली गई| मैं, माँ और पिताजी कमरे से बाहर आ गए और तब पिताजी ने मुझे प्यार से समझाया; "बेटी, जो हो गया सो हो गया, मैं ये नहीं कहूँगा की सारी गलती तेरी थी, कुछ गलती उस (इनकी) पागल की भी है| बचपन से मानु ऐसा ही है, ज़रा सी बात उसके दिल को लग जाती थी और वो गुस्सा हो कर खाना नहीं खाता था| तब मानु हर बात अपनी माँ से बताता था, मानु की माँ उसे प्यार से समझा-बुझा कर खाना खिला दिया करती थी| लेकिन अब मानु बड़ा हो चूका है और हमसे बातें छुपाने लगा है! तूने देखा न कैसे मानु ने गाँव में रखी पंचायत की बात हम सभी से छुपाई, ऐसे में बस एक तू ही है बहु जिससे मानु सारी बातें साझा कर सकता है| लेकिन तू ही अगर मानु से नाराज हो जायेगी, बात नहीं करेगी तो वो अपना दुःख-दर्द किस से कहेगा? आखिर वो अपना दुःख-दर्द अपने भीतर संजोये कुढ़ता रहेगा!
मैं मानता हूँ की तुझे मानु के बिना तुझसे पूछे-बताये एकदम से दुबई जा कर बसने का फैसला करना बहुत बुरा लगा मगर बेटी ये भी सोच की आखिर वो ये सब कर किसके लिए रहा था? मानु को सिर्फ और सिर्फ तेरी ख़ुशी चाहिए, वो तेरी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी समझता है तथा इसके अलावा उसे कुछ नहीं चाहिए! तू नहीं जानती बहु मगर कुछ दिन पहले ही मानु ने हम से कहा था की; 'मैं, संगीता को और दुखी नहीं देखना चाहता, फिर चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े!' इसलिए मैं कहता हूँ बेटा की अभी भी समय नहीं बीता है, तेरा प्यार मानु को वापस ला सकता है और एक बार मानु पूरी तरह ठीक हो जाए तो उसका अच्छे से ख्याल रखना तथा तुम दोनों सुख से रहना तब ही हम दोनों (माँ-पिताजी) चैन की साँस लेंगे! मुझे पूरा विश्वास है की भगवान हमारे साथ कोई अन्याय नहीं करेंगे, हम सभी को थोड़ा धीरज रखना होगा, सब्र करना होगा|" पिताजी की बात सुन मुझे मेरी गलती समझ आई, मैंने प्रण किया की मैं फिर कभी इनके साथ ऐसा बुरा सलूक नहीं करूँगी| मैंने माँ-पिताजी के पाँव छू कर आशीर्वाद लिया और उन्होंने मुझे "सदा सुहागन" रहने का आशीर्वाद दिया| ये आशीर्वाद पा कर मैं आज धन्य हो गई थी, क्योंकि इस आशीर्वाद ने मेरे मन में इन्हें जल्दी से होश में देखने की उम्मीद की लौ को ज्वाला बना कर जला दिया था|
"बेटा, तुम सब घर जाओ तथा कुछ खाओ, मैं यहीं मानु के पास रुकता हूँ| कल सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ कर तुम दोनों (मैं और माँ) अस्पताल आ जाना|" पिताजी मुझसे बोले| इस समय इन्हें छोड़ कर हम में से कोई घर नहीं जाना चाहता था, मैं कोई बहाना सोचने में लग गई की तभी माँ, पिताजी से बोलीं; "सुनिए, आप भी कुछ खा लीजिये!" माँ को इस वक़्त अपने बेटे के साथ-साथ अपने पति की भी चिंता हो रही थी| "अरे, तुम मेरी चिंता मत करो मानु की माँ, मैं यहाँ से कुछ ले कर खा लूँगा| तुम पहले बहु और बच्चों को कुछ खिलाओ बेचारे सुबह से भूखे-प्यासे हैं|" जब पिताजी ने माँ से मुझे और बच्चों को कुछ खिलाने की बात कही तब मैंने उन्हें कुछ देर पहले की घटना बताई; "पिताजी, 9 बजे के करीब मैंने आयुष और नेहा को डाँट-डपट कर sandwich तथा frooti खिलाने ले गई थी उसी दौरान तो नर्स इनका B.P check करने आई थी!" मेरे बच्चों को डाँटने की बात पिताजी को अच्छी नहीं लगी इसलिए वो मुझे समझाते हुए बोले; "बेटी, इस समय जब मानु बीमार है तो ज़रा अपने गुस्से पर काबू रखा कर| दोनों बच्चे मानु पर गए हैं, जब मैं मानु को बेवजह डाँट देता था तो वो मुझसे नाराज हो कर बात करना बंद कर देता था, उसी तरह आयुष और नेहा भी तुझसे नाराज हो कर तुझसे बात करना बंद कर देंगे! समझी?"
"पिताजी, वो नेहा जिद्द कर रही थी इसलिए मैंने उसे थोड़ा डाँट दिया! आगे से ध्यान रखूँगी!" मैंने जानबूझ कर पिताजी को नेहा के जिद्द करने की वजह नहीं बताई वरना पिताजी आज मुझे डाँट ही देते| इतने में दोनों बच्चे कमरे से बाहर निकले, उन्होंने पिताजी की मुझे अपने गुस्से पर काबू रखने वाली बात सुन ली थी| मैंने बच्चों की ओर देखते हुए फ़ौरन अपने कान पकड़ कर माफ़ी माँगी, मैं बच्चों से माफ़ी माँगूँ ऐसा कभी कभार ही होता था और जब भी ये दृश्य आयुष ने देखा उसे जरूर हँसी आ जाती थी| आज भी मुझे यूँ कान पकड़े देख आयुष हँसने लगा और उसने मुझे झट से माफ़ कर दिया मगर नेहा, उसका गुस्सा बिलकुल मेरे जैसा था उसने मुझे बिलकुल माफ़ नहीं किया! नेहा मुझे नजरअंदाज करते हुए सीधा अपने दादा जी से बोली; "दादा जी, मैं भी आपके साथ यहाँ रुकूँगी!" नेहा अपने दादा जी से विनती करते हुए बोली, हम सभी नेहा का इनके लिए प्यार जानते थे इसलिए पिताजी ने नेहा को बड़े प्यार से समझाते हुए कहा; "बेटा, आपको कल स्कूल जाना है न? फिर मैं तो यहाँ हूँ आपके पापा की देख रेख करने के लिए| अभी आप सब घर जाओ और कल स्कूल से लौट कर सीधा यहीं आ जाना|" अपने दादा जी की बात सुन नेहा ने फिलहाल के लिए उनकी (पिताजी की) बात मान ली थी|
माँ ने मुझे पिताजी के लिए sandwich और चाय लाने को कहा तथा हम चारों (मैं, माँ, नेहा और आयुष) के लिए भी उन्होंने sandwich ले आने को कहा| पिताजी को चाय-sandwich दे हम घर के लिए निकले, मैंने एक ऑटोरिक्षा रुकवाया और हम घर लौट आये| रास्ते भर नेहा मुझसे एक शब्द नहीं बोली, वो तो बल्कि अपनी दादी जी से लिपटी रही| घर आ कर माँ ने सब को sandwich खाने को कहा, बड़े बेमन से मैंने वो सैंडविच अपने गले से उतारा क्योंकि मैं नहीं चाहती थी की मेरे होने वाले बच्चे को कुछ हो! बारह बजने को आये थे और माँ ने सभी को सोने के लिए कहा, आज की रात काँटों भरी रात थी तथा मेरा दिल आज बहुत बेचैन था! आज रात अकेले सोने का सवाल ही नहीं था क्योंकि सभी घबराये हुए थे इसीलिए हम चारों हमारे (मेरे और इनके) कमरे में ही लेट गए| एक किनारे मैं लेटी थी तो दूसरे किनारे माँ| माँ की तरफ नेहा लेटी थी और आयुष मेरी तरफ लेटा था| नेहा का गुस्सा इस वक़्त बहुत तेज था, उसने मुझे फिर नजर अंदाज किया और अपनी दादी जी की ओर करवट ले कर उनसे लिपट गई| नेहा को बस अपने पापा के सीने से लिपट कर नींद आती थी और आज जब वो यहाँ नहीं थे तो ऐसे में नेहा का दिल बहुत बेचैन था इसीलिए उसने आज अपनी दादी जी का सहारा लिया था| उधर आयुष मेरी ओर करवट कर के लेट गया, भले ही मैं उसे बहुत डाँटती हूँ मगर फिर भी वो मुझसे लिपट जाता है| डरता भी मुझसे है और प्यार भी मुझ ही से करता है!
माँ, आयुष और नेहा तो सो गए मगर मेरी आँखों से नींद कोसों दूर थी! आज दोपहर में कहे इनके अंतिम शब्द; "क्यों इतना दर्द अपने भीतर समेटे हुए हो? क्या तुम्हारे दिल में मेरे लिए ज़रा सी भी जगह नहीं" मुझे बार-बार याद आ रहे थे और मैं इन शब्दों को याद कर के खुद को कोसे जा रही थी! मेरा दिल इस कदर बेचैन था की जाने कब मैं डर की खाईं में जा गिरी, मुझे बार-बार लग रहा था की आज दोपहर जो इन्होने मुझसे वो दर्द भरे शब्द कहे थे वो मेरे जीवन के इनके मुँह से सुने आखरी शब्द थे! ये ख्याल मुझे पूरी तरह से झकझोड़ चूका था और मेरा दिल मीलों भागने की रफ़्तार से दौड़ रहा था! सारी रात मैंने अपनी इसी डर और बेचैनी के साथ जागते हुए काटे, पूरी रात मेरी नजरें घडी की टिक-टिक पर टिकी थीं| जैसे ही घडी के काँटों ने 5 बजाये मैं एकदम से उठ बैठी, नहा-धो कर मैं सीधा रसोई में घुस गई, सब के लिए खाना बनाया, बच्चों के स्कूल के लिए tiffin बनाया| सात बजते-बजते मैंने घर के सारे काम निपटा दिए थे और अब बस बच्चों को उठाना था| मैं बच्चों को उठाने आई तो नेहा जाग चुकी मगर माँ और आयुष अब भी सोये हुए थे| मैंने ज्यों ही आयुष को उठाने को हाथ बढ़ाया की नेहा ने एकदम से आयुष को जगाया और जैसे-तैसे उसे गोदी ले कर अपने कमरे में तैयार करने ले गई|
आज मैंने पहलीबार अपनी ही बेटी के दिल में अपने लिए नफरत महसूस की और इस एहसास ने मुझे बहुत दुःख पहुँचाया! मेरे जरा सा डाँटने से नेहा मुझसे न केवल उखड़ चुकी थी बल्कि मुझसे नफरत करने लगी थी!
खैर तभी माँ की जाग खुल गई, मैंने रोज की तरह उनका आशीर्वाद लिया और माँ तुरंत नहाने चली गईं| आज पहलीबार बच्चों को स्कूल जाने में बहुत देर हो गई थी, अगर ये यहाँ होते तो ऐसा कभी नहीं होता!
अगले आधे घंटे में माँ, नेहा और आयुष तैयार हो कर आ गए, मैंने फटाफट तीनों को नाश्ता परोसा| नेहा की रोज की दिनचर्य थी की वो सुबह उठते ही सबसे पहले अपने पापा को good morning kiss देती थी फिर वो स्कूल के लिए तैयार होती थी| आज उसकी ये दिनचर्या टूट गई थी और इसका दुःख नेहा के चेहरे से झलक रहा था| माँ ने नेहा को दुखी तो उन्होंने नेहा को लाड करना शुरू किया और उसे अपने हाथ से नाश्ता कराया| नाश्ता कर मैं दोनों बच्चों को स्कूल छोड़ने जाने लगी तो माँ ने मुझे रोका और बोलीं; "बेटी, तू नाश्ता कर ले तबतक मैं बच्चों को van वाले stand पर छोड़ आती हूँ|" माँ बच्चों को ले कर तो गईं मगर आज बहुत देर हो चुकी थी जिस कारण school van कब की जा चुकी थी इसलिए माँ को बच्चों को छोड़ने के लिए school तक जाना पड़ा| School पहुँच कर भी बच्चों को अंदर नहीं जाने दिया जा रहा था, बड़ी मुश्किल से माँ ने teacher जी को सारी बात बताई तब कहीं जा कर बच्चों को school के भीतर जाने को मिला|
इधर मेरा मन कुछ भी खाने को नहीं कर रहा था इसलिए मैं बर्तन धो कर माँ के घर लौटने का इंतजार करने लगी| माँ को घर लौटने में समय लग गया और इस दौरान इन्हें देखने के लिए मेरा जी मचले जा रहा था, बेसब्री से मेरा बुरा हाल था! पहले सोचा की माँ को फ़ोन कर लूँ, लेकिन फिर जब नजर घडी पर गई तो समझ आ गया की माँ को देर होने का कारन क्या है?! कुछ देर बाद माँ घर लौटीं और मुझे बेसब्री से घडी की ओर देखता हुआ देख बोलीं; "बेटी, चिंता मत कर! मेरा दिल कहता है की सब ठीक हो चूका होगा, मानु को होश आ चूका होगा और वो तेरा ही इंतजार कर रहा होगा| अब चल जल्दी!" माँ ने थोड़ा मुस्कुराते हुए मुझे जो आस बँधाई थी उससे मेरा दिल ख़ुशी से उछलने लगा था| माँ की बातों पर विश्वास कर मेरा मन उमंग से भर उठा था मगर ये आस इतनी जल्दी पूरी नहीं होने वाली थी, शायद इस ही आस के सहारे मुझे अपनी पूरी जिंदगी काटनी थी!
अपनी बेकरारी की पोटली और मन में इनके होश में आने की आस लिए मैं, माँ के साथ अस्पताल पहुँची| रास्त भर मुझे यही लग रहा था की जैसे ही मैं कमरे का दरवाजा खोलूँगी, ये पलंग पर अपनी पीठ टिकाये बैठे होंगें| मुझे देखते ही ये मुस्कुरायेंगे, अपने दोनों हाथ खोल कर ये मुझे गले लगने को बुलाएंगे और मैं दौड़ती हुई जा कर इनके गले लग जाऊँगी| लेकिन मेरी क़िस्मत को मुझ पर जरा सा भी तरस नहीं आया, आता भी क्यों मैंने अपने देवता जैसे पति को इतना दुखी जो किया था! ऐसा लगता था मानो मुझे इनसे माफ़ी माँगने का भी कभी मौका नहीं मिलेगा?!
मैंने कमरे का दरवाज़ा बड़ी उमीदों से खोला मगर जब भीतर का दृश्य देखा तो मेरी सारी उमीदें टूट कर चकना चूर हो गईं! ये अब भी उसी हालत में थे जिस हालत में कल मैं इन्हें छोड़ गई थी, जब उम्मीद टूटी तो होंसला भी टूटने लगा मगर मैं हिम्मत नहीं हारना चाहती थी इसलिए जैसे-तैसे खुद को सँभाला| मैंने रोज की तरह पिताजी के पाँव छुए और उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया, पिताजी ने बताया की उन्होंने कुछ देर पहले मेरे पिताजी से बात कर उन्हें यहाँ के हालात की सूचना दी तथा मेरे पिताजी कल सुबह बस से दिल्ली पहुँच रहे थे| इतने में अनिल का फ़ोन पिताजी के मोबाइल पर आया और उसने बताया की वो भी कल सुबह तक दिल्ली पहुँच रहा है| सच कहूँ तो कल की घटना इतनी अचानक थी की मुझे अपने मायके में खबर देना याद ही नहीं रहा!
बहरहाल, मुझे पिताजी से अब अपने दिल की बात करनी थी| मैंने अपनी सारी हिम्मत जुटाई और पिताजी के सामने सर झुकाये हुए बोली; "पिताजी, मैंने आजतक आपसे कुछ नहीं माँगा, क्योंकि कभी आपसे कुछ माँगने की जर्रूत नहीं पड़ी लेकिन आज मैं आपसे कुछ माँगना चाहती हूँ और आशा करती हूँ की आप मुझे मना नहीं करेंगे|" मेरी बात पूरी हुई तो पिताजी बड़े प्यार से बोले; "बोल बेटी, मैं भला अपनी बेटी को क्यों मना करूँगा?" पिताजी ने मुझ पर पूरा विश्वास जताते हुए कहा| रिश्ते से भले ही पिताजी मेरे ससुर थे मगर वो मुझे हमेशा अपनी बेटी की तरह प्यार करते थे तभी तो जब मेरे कारण इनकी (मेरे पति की) जान पर बन आई तब भी उन्होंने मुझे एक शब्द नहीं कहा|
"पिताजी, मुझसे इनकी ये जुदाई बर्दाश्त नहीं होती| इन्हें अपनी आँखों के सामने देख कर दिल को सुकून मिलता है इसलिए आज से मैं 24 घंटे यहीं रह कर इनकी देख-भाल करना चाहती हूँ|" मैंने पिताजी के आगे हाथ जोड़ते हुए विनती की| मेरे अस्पताल में 24 घंटे रुकने की बात सुन पिताजी चिंतित हुए और बोले; "बेटा, तू माँ बनने वाली है और ऐसे में तू यहाँ रात को अकेली रुकेगी..." इतना कह पिताजी एक पल को खामोश हो गए| उनके चेहरे पर गंभीर चिंता की रेखाएँ थीं! आजकल के समय में जब बहु-बेटियों के साथ अश्लीलता होती है उसका जिक्र पिताजी मेरे सामने करने से क़तरा रहे थे इसलिए उन्होंने बात थोड़ी घुमा कर कही; "बेटी, कुछ ऊँच-नीच हो गई तो हम मानु को क्या जवाब देंगे?" मैंने पिताजी के आगे गिड़गिड़ाते हुए कहा; "आप मेरी बिलकुल चिंता न करें पिताजी, मैं अपना पूरा ध्यान रखूँगी! लेकिन मुझे इनसे दूर मत कीजिये, मुझे पूरा यक़ीन है की मेरे यहाँ होने से, मेरे द्वारा इनकी देखभाल करने से ये जल्दी हमारे पास लौट आएंगे! Please पिताजी, मैं आपसे विनती करती हूँ!" ये कहते हुए मेरी आँखें भीग गईं थीं, मेरी ये दुर्दशा देख माँ को मुझ पर तरस आया और उन्होंने मुझे सँभाला; "बहु की बात मान जाइये, दिन भर हम भी तो यहाँ होंगें ही बहु का ध्यान रखने के लिए और रही रात की बात तो उसका भी हम कोई प्रबंध कर देंगे|" माँ पिताजी से बोलीं| इधर मैं माँ से लिपट कर सिसकने लगी थी; "मुझसे बहु को यूँ तड़पते हुए नहीं देखा जाता, अब बस एक यही तो है..." इतना कहते हुए माँ खामोश हो गईं| माँ की हताशा से भरी बात सुन ऐसा लगता था की वो हिम्मत हार चुकी हैं| मैंने फ़ौरन अपने आँसूँ पोछे और माँ को ढाँढस बँधाते हुए बोली; "माँ, हम ये लड़ाई हारे नहीं हैं और न ही हारेंगे! थोड़ा समय लगेगा मगर सब कुछ ठीक हो जायेगा|" मैंने जिस यक़ीन और विश्वास से अपनी बात कही थी उसे सुन माँ को अपनी गलती महसूस हुई और उनकी आँख भर आई| मैंने माँ की पीठ सहला कर उन्हें रोने से रोका और पिताजी से बोली; पिताजी आप और माँ घर जाइये, घर पर खाना बना हुआ है आप खा कर थोड़ा आराम कर लीजिये तब तक मैं हूँ यहाँ|" माँ-पिताजी दोनों मुझे अकेला छोड़ कर नहीं जाना चाहते थे मगर माँ का अपने बेटे को इस हालत में देख दिल बहुत दुःख रहा था, वो कहीं टूट न जाएँ इसलिए पिताजी उन्हें ले कर घर चले गए तथा दोपहर को खाना ले कर आने का बोल गए|
माँ-पिताजी के जाने के बाद कमरा बिलकुल सुनसान था, मैं इनके बाईं तरफ बैठी थी और इनका बायाँ हाथ अपने हाथों में लिए इनके चेहरे को देख रही थी की काश इनकी पलकें थोड़ी सी हिल जाएँ! 2 जनवरी से आज तक मैंने इनसे ढंग से बात नहीं की थी और आज जब ये बोल नहीं सकते थे तो मेरा मन इनकी आवाज सुनने तथा इनसे बात करने को व्यकुल था| "मैंने आपको बहुत दुःख दिए हैं न?" मैंने बात शुरू करते हुए इनसे कहा और उम्मीद करने लगी की मेरे खुद को दोष देने से ये अभी बोल पड़ेंगे की; 'ऐसा मत कहो' मगर ऐसा नहीं हुआ| "जब से ये हादसा हुआ तब से आप मुझे हँसाने-बुलाने की अनेकों कोशिशें करते रहे मगर मैंने अपना दुःख, अपना दर्द, अपना डर आपसे छुपाया और अनेकों बार आपकी कोशिशों को नाकाम करते हुए जानते-बूझते आपका तिरस्कार किया! आपने माँगा ही क्या था मुझसे, बस इतना ही की मैं हँसूँ, बोलूँ, प्यार से बात करूँ, आपको प्यार करूँ, हमारे घर को सम्भालूँ, हमारे माँ-पिताजी का अच्छे से ख्याल रखूँ, बच्चों को प्यार दूँ और मुझसे इतना भी नहीं हुआ, आपकी कोई ख़ुशी मैं पूरी न कर पाई!" मैंने खुद को दुत्कारते हुए कहा, परन्तु इनके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, ये देख मैं रो पड़ी और इनसे गिड़गिड़ा कर माफ़ी माँगने लगी; "Please...please जानू मुझे माफ़ कर दो! एक आखरी बार मुझे माफ़ कर दो, मैं वादा करती हूँ की आज के बाद आपकी हर बात मानूँगी, कभी उदास नहीं रहूँगी, आपको, माँ को, पिताजी को, बच्चों को सबका प्यार से ख्याल रखूँगी! Please जानू, मेरे पास वापस आ जाओ...please...please...please...मैं...मैं फिर से वही पुरानी वाली संगीता बन जाऊँगी जो आपको बहुत प्यार करती थी...please जानू...please उठ जाओ!" मेरी इतनी सारी मिन्नतों का इन पर रत्तीभर भी असर नहीं हुआ! आज जा कर मुझे एहसास हुआ की कैसा लगता है जब आपको इतना चाहने वाला इंसान आपसे बात करना चाहे और आप उससे मुँह मोड़कर दुत्कार दो! उस पीड़ा को लिख पाना आसान नहीं!
अभी भी इनका जिस्म कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा था जिस कारण मुझे दुत्कारे जाने की अनुभूति हुई थी वरना अगर ये होश में होते तो कभी ऐसा नहीं करते| तो कुछ इस तरह से मैंने आज इनके उस दुःख को महसूस किया जो इन्होने किया था जब मैं इन्हें बिना कोई जवाब दिए, मुँह-मोड़ कर चली जाया करती थी|
मेरे हाथों में इनका हाथ था पर मेरी नजरें इनके चेहरे पर टिकी थीं की शायद ये कुछ प्रतिक्रिया दे दें| इनकी प्रतक्रिया का इंतजार करते-करते दोपहर के दो बज गए, माँ-पिताजी और बच्चे सब एक-एक कर कमरे में घुसे| बच्चों ने तो अपने पापा को घेर लिया, सबसे पहले नेहा ने इनके दाएँ गाल की पप्पी ली क्योंकि ये उसका एक दैनिक कार्य था, फिर नेहा ने आयुष को पलंग पर चढ़ाया तथा उसने भी अपने पापा के बाएँ गाल की पप्पी ली| "दीदी, पापा कब उठेंगे?" आयुष ने भोलेपन से नेहा से सवाल किया| मुझे लगा था की ये सवाल सुन नेहा रो पड़ेगी मगर उसने खुद को सँभाला और आयुष को प्यार से समझाने लगी; "आयुष, मुन्नार से आ कर पापा ने बहुत काम किया न इसलिए वो ज्यादा थक गए हैं इसलिए डॉक्टर आंटी ने कहा है की पापा को ज्यादा से ज्यादा आराम करना है|" अपनी दीदी की बात सुन आयुष ने फिर सवाल पूछने के लिए मुँह खोला मगर तभी पिताजी ने आयुष को आवाज दे कर अपने पास बुलाया और उसका ध्यान भटका दिया| आयुष तो अपने दादा जी की गोदी में बैठ कर सो गया मगर नेहा अब भी अपने पापा के पास बैठी थी तथा मेरी ही तरह टकटकी बाँधें अपने पापा को देखने में लगी थी, इस उम्मीद में की शायद इनके चेहरे पर कोई प्रतक्रिया हो?!
माँ, पिताजी और बच्चों ने घर पर ही खाना खा लिया था तथा मेरे लिए माँ खाना पैक कर के लाईं थीं| मेरी खाना खाने की बिलकुल इच्छा नहीं थी मगर माँ ने प्यार से जोर-जबरदस्ती कर मुझे खाना खिला ही दिया| मेरे खाना खाने के बाद पिताजी ने मुझे थोड़ी चिंताजनक बात बताई; "बेटी, आज नेहा के स्कूल से फ़ोन आया था|" जैसे ही पिताजी ने इतनी बात कही की नेहा का सर झुक गया| "उसकी (नेहा की) क्लास टीचर ने बताया की नेहा आज सारा दिन रो रही थी| जब टीचर ने नेहा से रोने का कारण पुछा तो नेहा ने उन्हें सारी बात बताई की मानु कोमा में है| रोते-रोते नेहा ने टीचर से कहा की जब तक मानु ठीक नहीं हो जाता उसे स्कूल से छुट्टी चाहिए, टीचर ने नेहा को बहुत समझाया मगर नेहा ने जिद्द पकड़ ली की वो मानु के ठीक होने तक स्कूल नहीं आएगी| हारकर नेहा की टीचर ने मुझे फ़ोन किया, मैंने भी नेहा को बहुत समझाया मगर ये मानने को तैयार नहीं, अब तू ही इसे समझा!" ये कहते हुए पिताजी ने नेहा को समझाने की बागडोर मेरे ऊपर छोड़ दी, मैंने जब नेहा की ओर देखा तो वो सर झुकाये सब सुन रही थी| वो जानती थी की इस तरह स्कूल न जाने की उसकी जिद्द गलत है मगर अपने पापा के प्रति उसका मोह इस वक़्त सही गलत में फर्क नहीं करने दे रहा था|
कल से ले कर अभी तक नेहा मुझसे उखड़ी हुई थी, उसके मन में मौजूद मेरे लिए नफरत मैं पहले ही महसूस कर चुकी थी, ऐसे में मुझे जल्दबाजी दिखाना ठीक नहीं लगा| "पिताजी, ठीक ही तो है! कल से मैं ओर नेहा दोनों मिल कर यहाँ इनका ख्याल रखेंगे|" मैंने पिताजी की ओर देखते हुए कहा| मुझे यूँ नेहा का पक्ष लेता देख पहले तो माँ-पिताजी हैरान हुए, लेकिन फिर उन्हें मेरी चतुराई समझ आई और उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा| ऐसा नहीं था की मुझे नेहा का यूँ अपनी पढ़ाई को हलके में लेना सही लग रहा था, मुझे उसे समझाना था लेकिन अभी उसके लिए समय सही नहीं था|
हम चारों कमरे में बैठे थे, माँ-पिताजी की बैठे-बैठे आँख लग गई थी मगर मैं और नेहा अब भी जाग रहे थे| तभी दिषु भैया आ गए, अपने भाई समान दोस्त की ये हालत देख वो बहुत दुखी हुए| दरअसल दिषु भैया ऑडिट के लिए दिल्ली से बाहर गए थे और जब उन्हें इनकी हालत का पता चला तो वो दौड़े-दौड़े दिल्ली लौट आये| "भाभी...ये..." इतना कहते हुए दिषु भैया की आँखें नम हो गईं| माँ ने दिषु भैया के सर पर हाथ फेर उन्हें रोने से रोका| दिषु भैया ने इनकी देख-रेख करने की बात कही तो मैंने उन्हें प्यार से समझाते हुए कहा; "भैया, आप सारा दिन यहाँ रुकेंगे तो आपकी जॉब का क्या होगा? मैं यहाँ हूँ इनकी देख-रेख करने के लिए, फिर मेरा भाई अनिल भी आ रहा है इसलिए आप बिलकुल चिंता मत कीजिये| जैसे ही इन्हें होश आएगा मैं तुरंत आपको फ़ोन कर के बताऊँगी और अगर मुझे किसी भी चीज़ की जरूरत लगी तो मैं आप ही को फ़ोन करूँगी|" मैंने दिषु भाई को आश्वस्त करते हुए कहा| दिषु भैया मेरी बात मान गए, उनके मन में इनकी देखभाल को ले कर कोई चिंता नहीं थी मगर उनकी उत्सुकता ये जानने में थी की आखिर ये सब हुआ कैसे| मैंने खुद ही आगे बढ़कर, नेहा के सामने उन्हें सारी बात बताई और मेरी सारी बात सुन वो दंग रह गए| वो खुद को दोष देने लगे की क्यों वो उस समय यहाँ नहीं थे जब उनका भाई (ये) इस मानसिक तनाव से जूझ रहा था! "बेटा, जो हो गया सो हो गया! अभी जरूरी ये है की मानु पूरी तरह ठीक हो जाए|" पिताजी दिषु भैया को समझाते हुए बोले| इतने में आयुष जाग गया और अपने दिषु चाचू को देख कर उनके पास दौड़ा| दिषु भैया ने उसे लाड किया और थोड़ा घुमा कर ले आये| इनके लिए दिषु भैया ने दिल्ली से बाहर की अपनी सारी ऑडिट कैंसिल कर दी और सुबह-शाम इनका हाल-पता लेने के लिए बराबर आते रहे|
धीरे-धीरे समय बीता और रात के 8 बज गए, पिताजी ने एक बार फिर मुझे प्यार से समझा-बुझा कर माँ के साथ घर जाने को कहा मगर मैंने पिताजी से दुबारा विनती कर उन्हें मेरे रात अस्पताल में रुकने के लिए मना लिया| मुझे और नेहा को अपने पापा के पास अस्पताल में रुकता देख आयुष ने भी रात यहीं रुकने की विनती की मगर नेहा ने उसे अपने पास बुला कर खुसफुसाते हुए समझाया; "देख आयुष, मैं यहाँ रुक रहीं हूँ, तू भी यहीं रुकेगा तो घर पर दादा जी और दादी जी का ख्याल कौन रखेगा?" ये सुन आयुष ने एकदम से अपने दादा-दादी जी की जिम्मेदारी ले ली और मुस्कुराते हुए अपनी दादी जी की टाँगों से लिपट गया|
माँ-पिताजी ने दोनों भाई बहन की बात नहीं सुनी थी उनके लिए तो यही काफी था की आयुष के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान है| अब पिताजी ने नेहा को भी एक बार मनाने की कोशिश की तो नेहा ने सर झुका कर न में गर्दन हिला दी| मैंने माँ को इशारे से कहा की आज रात नेहा को मेरे साथ ही रुकने दो, लेकिन एक प्यारभरी कोशिश माँ को भी करनी थी इसलिए उन्होंने ठंडी आह भरते हुए कहा; "नेहा बेटा, तेरे बिना मुझे नींद नहीं आती तो मैं कैसे सोऊँगी?" अपनी दादी जी की बात सुन नेहा ने बड़े तपाक से जवाब दिया; "दादी जी, आयुष है न आपके पास सोयेगा| एक बार पापा जी ठीक हो जाएँ फिर मैं रोज आप ही के पास सोऊँगी| Promise!" माँ को नेहा के तपाक से जवाब देने पर प्यार आ गया और उन्होंने बड़े प्यार से नेहा के सर पर हाथ फेरते हुए उसे आशीर्वाद दिया| उधर पिताजी, दादी-पोती को देख कर थोड़ा हैरत में थे की भला माँ इतनी जल्दी अपनी पोती के आगे हार कैसे मान बैठीं?! "कोई बात नहीं जी, आज मेरी बिटिया (नेहा) को उसकी माँ के साथ यहीं रहने दो|" माँ ने थोड़ा मुस्कुराते हुए पिताजी से कहा| नेहा ने भी अपने दादा जी के पाँव छुए और अपने दादा जी को घर जाने से मना करने के लिए सॉरी कहा| माँ, पिताजी और आयुष घर चले गए तथा घंटे भर बाद पिताजी हम माँ-बेटी का खाना अस्पताल में दे कर घर लौट गए|
मैंने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद किया और हम माँ-बेटी ने चुप-चाप खाना खाया| अब सोने की बारी थी, कमरे में एक सोफे था जिस पर बस एक व्यक्ति सो सकता था| मैंने सोचा की नेहा सोफे पर सो जायेगी और मैं नीचे फर्श पर चादर बिछा कर लेट जाऊँगी, मैं ये बात नेहा से कहती उससे पहले ही नेहा बोल पड़ी; "मैं नीचे सोऊँगी, आप सोफे पर सो जाओ|" इतना कह नेहा अपने पापा के पास गई और उन्हें पप्पी दे कर वापस आ कर लेट गई| आज नेहा ने जो मुझसे थोड़ी सी बात की थी मेरे लिए यही बहुत था|
मैं पिछले 24 घंटे से भी ज्यादा समय से नहीं सोइ थी, उस पर आज दिनभर एक ही जगह बैठे रहने से मेरे ऊपर थकान असर दिखा रही थी इसलिए लेटने के कुछ ही देर में मेरी आँख लग गई| रात के करीब बारह बजे होंगे, कमरे में पूरा अँधेरा था बस इनके पलंग के पास हलकी सी रौशनी थी| अचानक किसी के बात करने की आवाज से मेरी नींद खुल गई, मुझे लगा इन्हें होश आ गया है और ये सोच कर मेरी तो जैसे ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा तथा मैं तुरंत उठ बैठी| जैसे ही मैं उठ कर बैठी तो मैंने आवाज ध्यान से सुनी और तब मुझे पता चला की ये आवाज नेहा की थी जो अपने पापा से बात करने में लगी थी! मैं बिना कोई आवाज किये फिर से लेट गई तथा नेहा की बात सुनने लगी; "पापा जी, आप मुझसे नाराज हो? बोलो न पापा जी?" नेहा बोली और अपने पापा के चेहरे को बड़े गौर से देखने लगी, इस उम्मीद में की शायद ये कोई प्रतक्रिया दे दें| "आप मम्मी से बात नहीं करना चाहते, ठीक है मगर मैंने क्या किया जो आप मुझसे भी बात नहीं कर रहे? आप तो सबसे ज्यादा मुझसे प्यार करते हो न, फिर मुझसे बात क्यों नहीं कर रहे?" नेहा को लग रहा था की चूँकि ये मेरे उखड़े व्यवहार के कारण नाराज थे इसीलिए इन्होने सबसे बात करनी बंद कर रखी है| "पापा जी, अभी है न मम्मी सो रही है तो आप और मैं आराम से बात कर सकते हैं| मैं वादा करती हूँ की मैं किसी को नहीं बताऊँगी की आपने मुझसे बात की, it'll be our secret! Okay?" ये कहते हुए नेहा अपना कान इनके होठों के पास ले आई ताकि ये धीरे से उसके (नेहा के) कान में कुछ बोलें|
नेहा का दिल इतना मासूम था की उसे बस अपने पापा की आवाज सुननी थी, उस छोटी सी बच्ची को सही-गलत समझ नहीं आ रहा था| मुझसे नेहा की ये हालत नहीं देखि जा रही थी, मुझे डर था की कहीं उसे कोई सदमा ने लग जाए इसलिए मैं उठ बैठी और कमरे की लाइट जला दी| लाइट जलते ही नेहा ने मुझे देखा और वो आँखें बड़ी कर के मुझे हैरानी से देखने लगी, वो ऐसे डर रही थी मानो मैंने उसकी कोई चोरी पकड़ ली हो!
"नेहा, बेटा इधर आओ|" मैंने नेहा को अपने पास सोफे पर बैठने के लिए कहा तो नेहा चुपचाप सर झुकाये मेरे पास आ कर खड़ी हो गई| "बेटा, आप कल रात से मुझसे बात नहीं कर रहे हो! I'm really sorry की कल मैंने आपको सबके सामने डाँटा!" मैंने अपने कान पकड़ते हुए नेहा से माफ़ी माँगी मगर नेहा ने कोई प्रतक्रिया नहीं दी! ऐसा लगा मानो उसे मेरा सॉरी चाहिए ही नहीं था! अब जब तक नेहा मुझे माफ़ नहीं करती तब तक मैं उसे स्कूल जाने के लिए नहीं मना सकती थी इसलिए मैंने दुबारा उसे सॉरी कहा; "Seriously sorry बेटा! अब क्या जिंदगी भर आप मुझसे नाराज रहोगे?" ये सुनते ही नेहा की चुप्पी टूटी और उसने अपनी नाराजगी जाहिर की; "मैं आपसे इसलिए नाराज नहीं की आपने कल मुझे डाँटा!" नेहा अभी भी सर झुकाये हुए बोली|
नेहा की बात सुन मेरी उत्सुकता ये जानने के लिए बढ़ गई की आखिर वो मुझसे नाराज क्यों है; "तो?" मैंने कभी नहीं सोचा था की मेरा पुछा ये एक छोटा सा सवाल मेरी बेटी के गुस्से को भड़का देगा| नेहा गुस्से से मेरी नजरों से नजरें मिलाते हुए मुझ पर बरस पड़ी; "आपकी वजह से पापा जी की तबियत खराब हुई!" नेहा मुझ पर गुस्से से आरोप लगाते हुए बोली| "आज जो भी हमारे घर की हालत है ये सब आपकी वजह से हुआ है! आपने कभी पापा को प्यार ही नहीं किया, जबकि पापा आपसे इतना प्यार करते हैं की सिर्फ आपके लिए वो (ये) उससे (चन्दर से) भी लड़ पड़े! लेकिन आपको पापा की कोई कदर ही नहीं क्योंकि आप उनसे प्यार ही नहीं करते!" जिस तरह से नेहा मुझ पर बार-बार इनसे प्यार न करने का आरोप लगा रही थी उससे मेरा दिल बहुत दुःख रहा था मगर आज मैं अपनी ही बेटी के ये गुस्सैल तेवर देख कर डरी हुई थी इसीलिए खामोश थी| "पाँच साल पहले भी आपने पापा को खुद से दूर कर दिया था!" नेहा की ये बात सुन मेरे पाँव तले ज़मीन खिसक चुकी थी! 'पाँच साल पहले नेहा बहुत छोटी थी, तो उसे ये बात कैसे पता?' मन में उठे इस सवाल से मेरे चेहरे पर चिंता की रेखा दिख रही थी| मेरी चिंता समझ नेहा मेरे मन में उठे सवाल का जवाब देते हुए बोली; "उस दिन जब आपने पापा को कुछ काम से घर बुलाया था और पापा मेरे लिए गिफ्ट लाये थे तब मैंने छुपकर आप दोनों की सारी बातें सुन ली थी|"
"बेटा..." मैंने नेहा को पाँच साल पहले की हुई मेरी गलती की सफाई देनी चाही मगर नेहा आज कुछ भी सुनने के मूड में नहीं थी, उसका गुस्सा आज चरम पर था, उसने फ़ौरन मेरी बात काट दी; "आपको कभी किसी की परवाह नहीं थी, मेरी...आपकी बेटी की भी नहीं! क्या सच में आपको नहीं पता था की मेरी स्कूल जाने की उम्र हो गई है? 4 साल अगर मैं गाँव में पढ़ पाई तो सिर्फ मेरे पापा की वजह से वरना आपने तो दिल्ली आने की ख़ुशी में मेरी पढ़ाई ही छुड़वा दी थी! जितना मुझे याद है, उसके अनुसार मेरे अभी तक के जीवन का सबसे सुखद समय और हसीन यादें सिर्फ और सिर्फ उसी समय की हैं जब पापा गाँव आये थे| और अगर मैं गलत नहीं तो आपके जीवन का भी सबसे सुखद समय तभी था जब पापा गाँव आये थे| गाँव में सिवाए पापा के कोई नहीं था जिसने मुझे प्यार किया, किसी को मेरी पसंद न पसंद नहीं पता, यहाँ तक की आपको भी नहीं पता! सिर्फ पापा जानते हैं की मुझे चिप्स कितने पसंद हैं, मीठे में रसमलाई कितनी पसंद है, कहानी सुनना कितना पसंद है मगर आपसे मेरी ख़ुशी बर्दाश्त नहीं हुई तभी तो आपने सब जानते-बूझते पापा को खुद से ही नहीं बल्कि मुझसे भी दूर कर दिया! अरे आपको अपनी ख़ुशी का ख्याल नहीं था तो कम से कम मेरी ख़ुशी का ख्याल किया होता? ओह्ह...हाँ..याद आया, क्या सफाई दी थी आपने पापा को खुद से इतने साल दूर रखने की कि आपकी वजह से उनका career खराब हो जाता, तो आज जो उनकी ये हालत है उसका जिम्मेदार कौन है?
आपने...आपने पापा से बात बंद कर के उन्हें एकदम से अकेला कर दिया था! आखिर उन्होंने ऐसा क्या कहा था आपसे जो आपसे नहीं किया जा रहा था? उन्होंने आपसे बस खुश रहने को कहा था न और आपसे ये भी नहीं हुआ? सिर्फ आपका डर खत्म करने के लिए अगर पापा ने दुबई में बसने की बात कही तो क्या गलत कहा? वहाँ रहने से कम से कम आपका डर तो खत्म हो जाता न? लेकिन नहीं, आपको तो पापा को तकलीफ देने में मज़ा आता है न? देख लो आज आपकी वजह से दादा जी, दादी जी सब परेशान हैं!" इतना कह नेहा ने एक गहरी साँस ली और अपनी हिम्मत बटोरने के लिए रुकी क्योंकि आगे जो वो कहने वाली थी वो इतनी पीड़ा दायक बात थी की मेरे पास उस दर्द को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं!
"एक बात कहूँ, YOU DON'T DESERVE HIM!!! इतना loving और caring husband पाने की आपकी हैसियत नहीं!" नेहा की आवाज में गुस्सा बढ़ता जा रहा था|
"आप जानते हो क्यों मैंने स्कूल जाने से मना किया, क्योंकि जिस दिन पापा को होश आया और उनकी नजर आप पर पड़ी तो उनका गुस्सा फिर फूटेगा! उनको आये इस गुस्से से कहीं वो फिर से बीमार न पड़ जाएँ बस इसीलिए मैंने अपनी क्लास टीचर से स्कूल न आने की बात कही| मैं चाहती हूँ की जब पापा को होश आये तो वो पहले मुझे देखें, मुझे अपने गले लगाएँ, सिर्फ मुझसे बातें करें और तब आप मुझे उनके आस-पास भी नहीं दिखोगे!" इतना कह नेहा ने एक और गहरी साँस ली तथा अपनी अंतिम बात कही; "I HATE YOU.I SERIUOSLY HATE YOU MUMMY!" नेहा मुझे कोसते हुए बोली और गुस्से में फर्श पर बिस्तर पर मेरी ओर पीठ कर के सो गई|
अपनी बेटी के मुँह से इतनी चुभने वाली बातें सुन मैंने उठ कर कमरे की लाइट बुझाई और सोफे पर लेट कर सिसकने लगी! मेरी बेटी ने आज एक भी बात गलत नहीं कही थी, मैं इतनी स्वार्थी थी की मैंने कभी ये देखा ही नहीं की मेरी बेटी बड़ी होने लगी है तथा अपने मम्मी-पापा की बातें छुप कर सुनने और समझने लगी है| हलाँकि ये कभी बच्चों से कोई बात नहीं छुपाते थे मगर वो कुछ निजी बातें जो हमारे बीच हुईं थीं, नेहा ने वो सब सुन ली थी और आज मैं अपनी बेटी के आगे ही दोषी साबित हो चुकी थी| आज जो नेहा ने मुझे असलियत का आइना दिखाया था उस में अपनी ये स्वार्थी छबि देख मुझ खुद पर घिन्न आने लगी थी| अपने बच्चे जब आपसे ही नफरत करने लगते हैं तो जिंदगी में जीने के लिए कुछ नहीं रह जाता| जब नेहा ने अंत में वो कठोर शब्द कहे तो एक माँ का दिल टूट कर चकना चूर हो गया! अब मुझे मेरे किये इस पाप का प्रायश्चित किसी भी हाल में करना था| मैं अपने बच्चों के सर से उनके पापा का साया कभी उठने नहीं देने वाली थी, कम से कम मेरे जीते-जी तो ये नहीं होने वाला था वरना इनके साथ मैं भी अपने प्राण त्याग देती!
वो सारी रात मैंने जागते हुए भगवान से प्रार्थना करते हुए काटी| अगली सुबह सात बजे माँ-पिताजी आयुष को स्कूल छोड़ कर आ गए| माँ-पिताजी सोफे पर बैठे थे और मैं इनके पास स्टूल पर बैठी थी, नेहा अभी सो रही थी इसलिए पिताजी ने मुझसे पुछा की क्या मैंने नेहा को कल रात स्कूल जाने के लिए समझा दिया तो मैंने कहा; "नहीं पिताजी, कल थक गई थी इसलिए बात करने का समय नहीं मिला| आज मैं नेहा को समझा दूँगी और वो कल से स्कूल भी जायेगी|" मैंने नक़ली मुस्कान और झूठे आत्मविश्वास के साथ कहा| कल रात जो नेहा ने मुझे अच्छे से झाड़ा था उसकी बात मैंने माँ-पिताजी से छुपाई वरना नेहा को बहुत डाँट पड़ती| खैर, पिताजी को मेरी बात से आश्वासन मिल गया था और वो अब नेहा को ले कर निश्चिंत हो गए थे|
मैं, माँ और पिताजी अभी चाय पी ही रहे थे की नेहा उठ गई, आँख मलते-मलते हुए वो सीधा अपने पापा के पास पहुँची तथा अपना पापा को सुबह की गुड मॉर्निंग वाली पप्पी दे कर वो बाथरूम चली गई| सुबह की गुड मॉर्निंग वाली पप्पी नेहा बस अपने पापा को देती थी, आयुष ने नेहा को देख कर ये नियम सीखा था मगर वो मुझे और इन्हें दोनों को गुड मॉर्निंग वाली पप्पी देता था|
इधर जैसे ही नेहा बाथरूम से बाहर निकली की मेरा बेटा (छोटा भाई) अनिल आ गया| अपना बैग रख उसने सबसे पहले माँ-पिताजी के पाँव छुए और सीधा अपने जीजू की तबियत के बारे में पूछने लगा; "पिताजी, ये सब कैसे हुआ? जीजू तो एकदम भले चंगे थे?" अनिल चिंतित स्वर में बोला|
इससे पहले की पिताजी जवाब देते, नेहा बाथरूम के पास से ही मेरी ओर ऊँगली से इशारा करते हुए बोल पड़ी; "सब मुम्मी की वजह से हुआ है!" नेहा के चेहरे से उसका गुस्सा झलक रहा था| नेहा की बात सुन अनिल भोयें सिकोड़ कर कभी मुझे देखता तो कभी नेहा को, उसे समझ नहीं आ रहा था की हमेशा शांत रहने वाली उसकी भाँजी आज आग-बबुली कैसे हो गई?! उधर, पिताजी को नेहा का ये बात करने का रवैया गुस्सा दिला गया और आज पहलीबार उन्होंने नेहा को झिड़क दिया; "नेहा! बहुत बद्तमीज हो गई है तू! ऐसे बात करते हैं अपने से बड़ों से?" अपने दादा जी की झिड़की सुन नेहा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने सर झुका कर अपने कान पकड़े और बोली; "सॉरी दादा जी!" मैं उठ कर नेहा के पास गई और उसे अपने सीने से लगा कर पुचकारने लगी ताकि कहीं वो रो न पड़े मगर नेहा न तो कुछ बोली और न ही रोई, मानो जैसे उसकी आँखों का पानी सूख चूका हो!
उधर ये दृश्य देख अनिल असमंजस में था, उसके मन में अनेकों सवाल उठ रहे थे मगर सबसे पहले उसे ये जानना था की आखिर उसके जीजू को हुआ क्या है इसलिए उसने पुनः अपना सवाल दुहराया; "बताइये पिताजी, जीजू को क्या हुआ है? गाँव से पिताजी ने फ़ोन किया तो बस इतना कहा की तेरे जीजू अस्पताल में भर्ती हैं तू जल्दी से दिल्ली पहुँच, तो मैं उसी वक़्त ट्रैन पकड़ कर चल पड़ा|"
अनिल के सवाल का जवाब देने के लिए मैं अपना इक़बाल-ऐ-जुर्म करने को तैयार थी; "सब मेरी..." बस इतना सुनना था की माँ ने मेरी बात काट दी और सारी बात का रुख पलट दिया; "बेटा, एक तो काम की परेशनी चल रही थी उस पर जो चन्दर यहाँ आया और जो घर में काण्ड हुआ, इसी वजह से ये सब हुआ|" माँ ने बात गोल-मोल कही मगर अनिल उनकी बात पर विश्वास कर बैठा| इधर पिताजी ने अनिल को इनकी मेडिकल कंडीशन समझाई और उधर माँ ने मेरी तरफ देखा तथा अपनी गर्दन न में हिला कर मुझे कुछ भी कहने से रोक दिया, मैंने भी शर्म से अपनी गर्दन झुका ली क्योंकि माँ को मेरी इज्जत बचाते देख मैं बहुत शर्मिंदा हो गई थी|
पिताजी भी मेरी इज्जत बचाने के लिए माँ के साथ हो लिए और बात को बदलते हुए अनिल से अपने समधी-समधन (मेरे माँ-पिताजी) के बारे में पूछने लगे; "बेटा, समधी जी और समधन जी आज आने वाले थे मगर अभी तक आये नहीं गाँव में सब ठीक तो है?" मेरे पिताजी ने कहा था की वो और माँ आज सुबह आ जायेंगे, जब वो नहीं आये तो माँ-पिताजी (मेरे ससुर जी और सासु माँ) को उनकी चिंता हुई| "जी सब कुशल मंगल से हैं| दरअसल मैंने माँ-पिताजी को मुंबई घूमने बुलाया था मगर काम में व्यस्त होने के कारन पिताजी ने आने से मना कर दिया| वो तो मेरे कॉलेज का एक दोस्त लखनऊ का रहने वाला है तो मैंने पिताजी से कहा की माँ को उसी के साथ भेज दो, तब जा कर पिताजी ने माँ को जाने दिया| कल जब आपका फ़ोन गाँव पहुँचा तो पिताजी ने मुझे और माँ को सीधा दिल्ली आने को कहा, मगर माँ गाँव जाने के लिए मेरे दोस्त के साथ ही निकल चुकी थीं| आज दोपहर के आस-पास माँ लखनऊ पहुंचेंगी फिर माँ-पिताजी वहाँ से सीधा दिल्ली के लिए चल पड़ेंगे|" माँ के यूँ घर से बाहर निकल कर घूमने-फिरने की बात सुन मुझे ख़ुशी हुई थी और कहने की जर्रूरत नहीं की ये सब मेरे पति के कारण ही हो पाया है वरना पिताजी तो कभी माँ को घर से अकेले बाहर आने-जाने नहीं देते थे|
अनिल को आये हुए लगभग 1 घंटा हो गया था और उसने अभी तक कुछ खाया नहीं था इसलिए पिताजी ने उसे घर चल कर आराम करने को बोला मगर अनिल ने एकदम से मना कर दिया; "पिताजी, मैं यहाँ आराम करने थोड़े ही आया हूँ! मैं यहीं जीजू के पास रुकता हूँ, आप सब घर जा कर आराम कर लीजिये| अगर कोई जर्रूरत पड़ी तो मैं आपको फ़ोन कर दूँगा|" अनिल ने पूरे आत्मविश्वास से अपने जीजू के देखभाल की जिम्मेदारी लेते हुए कहा| अपने बेटे (भाई) को इस तरह जिम्मेदारी लेता देख मुझे गर्व हो रहा था मगर इनकी जिम्मेदारी तो मैं पहले ही ले चुकी थी इसलिए मैंने अनिल को हुक्म देते हुए कहा; "नहीं बेटा, मैं हूँ यहाँ| तू जा कर कपड़े बदल कर फ्रेश हो जा और फिर यहाँ वापस आ|" चूँकि मैं अनिल की बड़ी बहन थी तो वो बिना किसी बहस के मेरी हर बात मान लेता था|
माँ, पिताजी और अनिल घर के लिए निकले, चलते-चलते माँ मुझे कह गईं की वो अनिल के हाथों हम माँ-बेटी (मेरे और नेहा) के लिए नाश्ता भेज देंगी| जब सब चले गए तो नेहा मेरी जगह स्टूल पर अपने पापा के पास बैठ गई और कल की ही तरह उसने अपने पापा को टकटकी बाँधे देखना शुरू कर दिया, इस उम्मीद में की ये अभी पलकें झपकायेंगे| मैं सोफे पर बैठी सोच रही थी की कैसे नेहा को स्कूल जाने के लिए समझाऊँ, कुछ सोच कर मैंने नेहा को आवाज दी; "नेहा, बेटा मेरे पास आओ|" मेरी आवाज सुन नेहा बेमन से उठी और सर झुकाये मेरे सामने खड़ी हो गई| मैंने अपने हाथ के इशारे से उसे अपने बराबर बैठने को कहा तो नेहा सर झुकाये ही बैठ गई|
"बेटा, मुझे आपसे कुछ बात करनी है|" मैंने बात शुरू करते हुए कहा मगर नेहा मेरी बात काटते हुए बोली; "सॉरी!" नेहा ने सर झुकाये हुए ही मुझे सॉरी कहा| उसका सॉरी सुन मैं सोच में पड़ गई की भला नेहा ने मुझे सॉरी क्यों बोला? लेकिन मुझे नेहा से उसके मुझे सॉरी कहने का कारन पूछने की जर्रूरत नहीं पड़ी क्योंकि वो खुद ही बोल पड़ी; "मैंने आपको सॉरी इसलिए नहीं बोला की मैंने कल रात जो मैंने कहा वो गलत था या फिर मैं कल कही अपनी बातों के लिए शर्मिंदा हूँ! बल्कि मैं आपको सॉरी इसलिए कह रही हूँ की मेरा आपसे बात करने का लहज़ा ठीक नहीं था| आप मेरी मम्मी हो और मुझे इस तरह अकड़ कर आपसे बात नहीं करनी चाहिए थी, इसलिए I'm really very sorry!" नेहा ने मेरी ओर बड़े आत्मविश्वास से देखते हुए अपने कान पकड़ कर मुझे सॉरी कहा|
नेहा की बात सुन मुझे वो दिन याद आ गया जब इन्होने मेरे लिए पहली बार अपने बड़के दादा से बहस की थी| उस दिन को याद करते हुए मेरे चेहरे पर छोटी सी मुस्कान आ गई तथा मैंने नेहा के सर पर हाथ फेरते हुए उसे ये बात बताई; "बेटा आपको एक बात बताऊँ, जब हम गाँव में थे और मुझे पता चला की मैं माँ बनने वाली हूँ उस दिन आपके पापा समेत सब घर में सब बहुत खुश थे| आपके बड़े दादा जी और बड़ी दादी जी को लड़का पैदा होने की आस थी, जबकी हम दोनों (मैं और ये) को आपकी जैसी प्यारी सी लड़की के पैदा होने की आस थी| इसी बात को ले कर आपके पापा और आपके बड़े दादा जी के बीच थोड़ी बहस हो गई, तब आपके पापा ने बिलकुल आपकी ही तरह आपके बड़े दादा जी से माफ़ी माँगी| आपके पापा ने, अपने गलत लहज़े के लिए बप्पा (बड़के दादा) से माफ़ी माँगी मगर अपनी कही सही बात के लिए नहीं!" मेरी बात सुन आखिरकर मेरी बेटी के चेहरे पर मुस्कान आ ही गई| नेहा को इस समय खुद पर बहुत गर्व हो रहा था की वो बिलकुल अपने पापा की ही तरह सोचती है|
मेरी बातों से नेहा नरम पड़ने लगी थी और यही समय था उसके साथ प्यार से तर्क कर उसे स्कूल जाने के लिए मनाने का; "बेटा, मैं आपसे एक सवाल पूछूँ?" मैंने बड़े प्यार से नेहा से पुछा और उसने सर हाँ में हिलाते हुए मुझे अपनी अनुमति दी| "बेटा, मैं जानती हूँ की आप अपने पापा को कितना प्यार करते हो और उनकी देख-रेख करने के लिए आप अपनी पढ़ाई कुर्बान कर रहे हो| लेकिन ज़रा सोचो जब आपके पापा पूरी तरह स्वस्थ हो जाएंगे और उन्हें पता चलेगा की आपने उनके लिए अपनी पढ़ाई का नुक्सान किया है तो सोचो उन्हें कितना बुरा लगेगा?! उनके दिल को कितनी ठेस पहुंचेगी और वो खुद को आपकी पढ़ाई बाधित होने के लिए दोष देंगे जिससे उनकी तबियत फिर खराब हो सकती है|
फिर उधर घर में आपके दादा-दादी जी अकेले हैं, मैं और आप यहाँ रहेंगे तो उनकी देखभाल कौन करेगा? उनकी देखभाल करने के लिए आपका वहाँ रहना जर्रूरी है न? फिर आपका भाई आयुष, उसके स्कूल का होमवर्क कौन करवाएगा?" मेरी कही इन बातों का नेहा पर प्रभाव पड़ने लगा था और वो गहन सोच में पड़ गई थी| वो अपने पापा को बहुत प्यार करती थी और उसके पापा ने ही उसे उनकी गैरहाजरी में घर सँभालने की जिम्मेदारी दी थी| मैंने बस आज नेहा को वही जिम्मेदारियाँ याद दिला दी थी| नेहा अपने दादा-दादी जी और भाई की जिम्मेदारी उठाना चाहती थी मगर उसे अपने पापा की बहुत चिंता थी| वो जानती थी की अगर वो घर गई तो यहाँ मैं अकेली उसके पापा की देखभाल करने के लिए रहूँगी और ऐसे में जब इन्हें होश आएगा और ये मुझे देखेंगे तो इनकी तबियत खराब हो सकती थी| अब मुझे नेहा को उसकी इस चिंता से मुक्त करना था; "बेटा, मैं जानती हूँ की आपको डर है की आपके पापा होश में आने के बाद मुझे देखेंगे तो गुस्से से उनकी तबियत खराब हो जाएगी, तो मैं आपको वचन देती हूँ की आपके पापा के होश में आते ही मैं उनके सामने से चली जाऊँगी और जब तक आप नहीं कहोगे मैं आपके पापा के सामने नहीं आऊँगी|" मैंने नेहा को आश्वस्त करते हुए कहा, मेरी बात सुन नेहा के दिल को चैन मिला और उसने हाँ में अपनी गर्दन हिलाई तथा उठ कर बाथरूम चली गई| मुझे लगा की वो बाथरूम में जा कर रोयेगी मगर भगवान का शुक्र है की ऐसा नहीं हुआ| 'मेरी बेटी अब बड़ी हो चुकी है, समझदार हो चुकी है, अगर मुझे कुछ हो जाए तो वो पूरा घर संभाल सकती है!' नेहा को यूँ सुलझा हुआ देख नजाने मेरे मन में ये ख्याल क्यों आया!
कुछ देर बाद हम माँ-बेटी के लिए नाश्ता ले कर अनिल आया, हमने (मैंने और नेहा ने) नाश्ता किया और नेहा फिर से अपने पापा के पास जा बैठी| इधर मैंने अनिल को अपने सामने बिठाया और उससे मदद माँगी; "बेटा, मुझे तेरी एक मदद चाहिए! कल पिताजी (मेरे ससुर जी) कह रहे थे की एक-दो जगह पैसे फँसें हुए हैं और तेरे जीजू भी दो दिन पहले कह रहे थे की कुछ प्रोजेक्ट्स पूरे होने वाले हैं| अब तू यहाँ आ ही चूका है तो मैं चाहती थी की तू सब काम सँभाल ले, पिताजी कहाँ अकेले भाग-दौड़ कर पाएँगे?!"
"आप चिंता मत करो दीदी|" अनिल आत्मविश्वास से बोला| उसके आने से मेरे दिल को थोड़ी शान्ति मिली थी की कम से कम वो पिताजी के सर से काम का बोझ उतार लेगा| नेहा चुपचाप थी इसलिए उसका मन बहलाने के लिए अनिल उससे बात करने में लग गया| दोपहर को माँ-पिताजी अस्पताल आये, अनिल ने सीधा पिताजी से काम को ले कर पुछा तो पिताजी बोले; "बेटा, अभी तो तू आया है, कुछ दिन आराम कर काम-धाम मैं देख रहा हूँ|"
"पिताजी, मैं यहाँ आराम करने नहीं बल्कि आपका हाथ बँटाने आया हूँ| जीजू के ठीक होने बाद अगर उन्हें पता चला की मैं यहाँ आराम कर रहा था तो वो मेरी क्लास लगा देंगे! हा...हा...हा...!!!" अनिल ने मजाकिया अंदाज में इनके द्वारा उसकी क्लास लगाने की बात कही तो माँ-पिताजी के चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आ ही गई| "वैसे पिताजी, जीजू कह रहे थे की कुछ प्रोजेक्ट्स पूरे होने वाले हैं, आप मुझे उनके बारे में बता दीजिये ताकि मैं काम सँभाल लूँ|" अनिल ने जोश में अपनी बात कही और थोड़ा सा झूठ बोला| पिताजी ने जैसे ही प्रोजेक्ट का नाम सुना वो मुझे देखते हुए मुस्कुराये और अनिल से बोले; "ये प्रोजेक्ट पूरे होने वाली बात तुझे इसी शैतान (मैंने) ने बताई होगी?!" पिताजी ने अनिल की होशियारी पकड़ते हुए कहा तो अनिल के चेहरे पर भी मुस्कान आ गई| "अच्छा बेटा, अब तू इतनी जिद्द करता है तो चल मैं तुझे पार्टियों से मिलवा देता हूँ और सारा काम समझा देता हूँ| वैसे तुझे गाडी चलानी आती है न?" गाडी चलाने के सवाल पर अनिल ने गर्दन हाँ में हिलाई और पिताजी ने उसे गाडी की चाभी थमाई|
पिताजी और अनिल काम पर निकले और इधर आयुष के स्कूल की छुट्टी होने का समय हो रहा था| मैंने सोचा की माँ को क्या तकलीफ देना, मैं ही जा कर आयुष को स्कूल से ले आती हूँ| माँ और नेहा को इनके पास छोड़कर मैं आयुष को लेने उसके स्कूल पहुँची, मुझे देख आयुष बहुत खुश हुआ और मेरी टाँगों में लिपट गया| आयुष को ले कर मैं सीधा अस्पताल पहुँची और कैंटीन से हम चारों के लिए सैंडविच ले कर इनके पास कमरे में पहुँची| हम चारों ने दोपहर के खाने में सैंडविच खाये, आयुष अपनी दादी जी की गोदी में सर रख कर सो गया और हम माँ-बेटी इनके अगल-बगल बैठे रहे| जब शाम को आयुष उठा तो नेहा ने उसके स्कूल का होमवर्क कराना शुरू किया|
शाम 7 बजे पिताजी और अनिल वापस लौटे और लौटते ही पिताजी अनिल की तारीफ करने लगे; "बहु, तेरा भाई तो बहुत तेज है, आज उसने पूरे 5,000/- का फायदा करा दिया! मैंने इसे मानु की डायरी दिखाई, डायरी पढ़ते ही अनिल सारा काम समझ गया और जो नए प्रोजेक्ट्स मानु ने उठाये थे उनमें मानु ने काम समय से पहले पूरा करने के लिए 5,000/- एक्स्ट्रा लेने थे| शुक्र है की अनिल ने मानु की वो प्रोजेक्ट रिपोर्ट वाली डायरी पूरी पढ़ी थी!" पिताजी अनिल की पीठ थपथपाते हुए बोले| अपने भाई की तारीफ सुन मेरा सर फक्र से ऊँचा हो गया था| "मैंने आज अनिल को सारा काम समझा दिया है और संतोष से मिलवा दिया है, तो कल से ये दोनों मिलकर काम सँभाल लेंगे|" पिताजी के सर से अब काम का बोझ उतर चूका था, अनिल और संतोष मिल कर काम संभाल सकते थे|
[color=rgb(44,]जारी रहेगा भाग - 6(2) में...[/color]