Hindi Antarvasna एक अनोखा बंधन - पुन: प्रारंभ


[color=rgb(51,]छब्बीसवाँ अध्याय[/color][color=rgb(51,]: दुखों का [/color][color=rgb(51,]ग्रहण[/color]
[color=rgb(251,]भाग -6(1)[/color]

[color=rgb(26,]अब तक पढ़ा:[/color]

मैं आँखें बंद किये हुए, सोफे पर बैठा हुआ संगीता के लेख में लिखे हुए शब्दों को पुनः याद कर रहा था| वो दर्द भरे शब्द मेरे दिल में सुई के समान चुभे जा रहे थे और ये चुभन मेरी जान लिए जा रही थी| 2 तरीक को जब चन्दर मेरे घर में घुस आया था, उस दिन का एक-एक दृश्य मेरी आँखों के आगे घूम रहा था| आज मैं उन दृश्यों को संगीता की नजरों से देख रहा था और खुद को संगीता की जगह रख कर उसकी (संगीता की) पीड़ा को महसूस कर रहा था| चन्दर ने जिस प्रकार संगीता की गर्दन दबोच रखी थी उसे याद कर के मेरा खून गुस्से के मारे उबलने लगा था! मेरे भीतर गुस्सा पूरे उफान पर था, मेरी पत्नी को इस कदर मानसिक रूप से तोड़ने के लिए मैं चन्दर की जान लेना चाहता था| इसी गुस्से में बौखलाया हुआ मैं एकदम से उठ खड़ा हुआ, लेकिन अगले ही पल मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया तथा मैं चक्कर खा कर धम्म से नीचे गिर पड़ा और फिर मुझे कुछ होश नहीं रहा की आगे क्या हुआ?!


[color=rgb(255,]Note: यहाँ से संगीता की लेखनी प्रारम्भ होती है![/color]

[color=rgb(97,]अब आगे:[/color]

मैं हमारे कमरे में से निकल रही थी जब मैंने सोफे पर से इन्हें उठ कर खड़ा होते हुए देखा, लेकिन फिर अगले ही पल इन्हें चक्कर आ गया और ये नीचे गिर गए| इनका सर जोर से ज़मीन से टकराया था, जैसे ही मैंने इनहें गिरते हुए देखा मैं दौड़ती हुई आई और इनका सर अपनी गोद में ले कर जोर से चिल्लाकर माँ को पुकारा; "माँ...माँ...जल्दी आओ!" माँ उस समय अपने कमरे में थीं, उन्होंने जैसे ही मेरी दर्द भरी चीख सुनी वो तुरंत कमरे से बाहर आईं| फिर उनकी नजर हम दोनों पति-पत्नी पर पड़ी, इन्हें जमीन पर बेसुध पड़ा देख माँ बहुत घबरा गईं तथा तेजी से मेरे नजदीक आ कर जैसे-तैसे ज़मीन पर बैठने लगीं| "बहु, क्या हुआ मानु को?" माँ ने काँपती हुई आवाज में पुछा| उस समय मैं खुद नहीं जानती थी की इन्हें क्या हुआ है, मैं तो बस डर के मारे काँपने लगी थी| मैंने इनके गाल थपथपाये और इन्हें होश में लाने की कोशिश करने लगी, उधर माँ ने इनके हाथ अपने हाथ से रगड़ने चालु कर दिए| तभी नेहा अपने कमरे से बाहर निकली, उसने जब अपने पापा की ये हालत देखि तो उसकी जान निकलने लगी! वो दौड़ती हुई नजदीक आई और तब मेरी जर उस पर पड़ी; "नेहा, जल्दी से अपनी (doctor) सरिता आंटी को फ़ोन कर और बोल की पापा बेहोश हो गए हैं, वो जल्दी यहाँ आयें!" नेहा ने आव देखा न ताव वो दौड़ती हुई अंदर गई और मेरे फ़ोन से doctor सरिता को फ़ोन कर सब बात बताई, इधर मैं कभी इनके नाक के आगे ऊँगली रख कर इनकी साँस महसूस कर रही थी तो कभी गर्दन के नीचे ऊँगली रख कर इनकी दिल की धड़कन महसूस कर रही थी| इतने में आयुष नहा कर निकला और घर में मची उथल-पुथल सुन बाहर बैठक में आया| अपने पापा की ये हालत देख वो रोने लगा और अपने पापा के बाईं तरफ बैठ गया| मुझे समझ नहीं आ रहा था की क्या करूँ, इन्हें सम्भालूँ या फिर आयुष को? "बेटा...रोते नहीं! आप पाने पापा के पाँव के तलवे रगड़ो!" माँ ने आयुष को प्यार से सँभालते हुए कहा| अपनी दादी जी की बात सुन आयुष ने अपना रोना किसी तरह काबू किया और अपने पापा के पाँव के तलवे रगड़ने लगा मगर उसका सिसकना जारी रहा! तभी नेहा फ़ोन कान पर लगाये हुए मेरे नजदीक आई, उसके हाव-भाव देख कर लग रहा था की बात कुछ चिंता जनक है| मेरे दिमाग ने अटकलें लगानी शुरू कर दी की जरूर कुछ गड़बड़ है और इन्हीं अटकलों के कारण मेरे दिल की धड़कन बेकाबू रूप से दौड़ने लगी!

"मम्मी, डॉक्टर आंटी clinic में नहीं हैं, कहीं बाहर हैं! उन्होंने कहा है की हमें जल्दी से पापा को हॉस्पिटल ले जाना है और साथ में पापा की case history भी ले जानी है|" नेहा फ़ोन काटते हुए रुनवासी होते हुए बोली| नेहा की बात सुन मेरे प्राण सूख रहे थे, मेरे लिए तो जैसे doctor सरिता ही सब कुछ थीं और जब उन्होंने ही हमें अस्पताल जाने को कहा तो मैं बहुत घबरा गई! मेरी घबराहट ने मेरे सोचने की ताक़त को धीमा कर दिया, इससे पहले मैं कुछ सोच पाती और कहती, माँ ही बोल पड़ीं; "नेहा, बेटा अपने दादा जी को फ़ोन कर और बोल की वो जल्दी से ambulance ले कर आयें!" इस वक़्त एक माँ थीं जो इतना घबराने के बावजूद सही फैसला ले पा रहीं थीं वरना मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा था की क्या करें?!

नेहा ने अपनी दादी जी की बात मानते हुए अपने दादा जी को फ़ोन किया और उन्हें सारा हाल सुनाया| पिताजी इस वक़्त नॉएडा में थे और उन्हें घर आने में कमसकम एक घंटा लगता, पिताजी का इंतजार करना व्यर्थ था इसीलिए उन्होंने नेहा से कहा की वो ambulance घर भेज रहे हैं तथा हम मोहल्ले वालों की मदद से इनको ले कर नजदीकी अस्पताल पहुँचे, वे हमें वहीं मिलेंगे! पिताजी ने ambulance वाले को फ़ोन कर दिया और वो ठीक 15 मिनट में घर पहुँच गया| साथ ही पिताजी ने कुछ पड़ोसियों को फ़ोन कर दिया था जो हमारी मदद करने के लिए आ गए थे| हमारा घर गली में पड़ता था, जहाँ एम्बुलेंस घुस नहीं सकती थी| Ambulance वाला अपने साथ stretcher ले कर आया और पड़ोसियों की मदद से हमने इन्हें stretcher पर लिटाया| फिर सभी ने मिलकर stretcher को ambulance में पहुँचा दिया| मैं, माँ, नेहा और आयुष भी इन्हीं के सामने बैठ गए| इन्हें यूँ बेहोश देख हम चारों में ताक़त नहीं बची थी, आयुष मुझसे लिपट कर रोये जा रहा था और नेहा अपने पापा के पास बैठी इनका हाथ अपने हाथों में ले कर रोये जा रही थी| उधर मैं माँ के कँधे पर अपना मुँह रखे रो रही थी, वहीं माँ इस वक़्त पूरे परिवार को सँभालने में लगीं थीं! वो हम तीनों माँ-बेटा-बेटी को हिम्मत देते हुए बोलीं; "बच्चों, रोना नहीं है! आपके पापा को कुछ नहीं हुआ है!" माँ ने दोनों बच्चों के सर पर हाथ फेरते हुए कहा| फिर माँ ने अपना हाथ मेरे कँधे पर रखा और मुझे ढाँढस बँधाने लगीं; "मानु ठीक हो जाएगा, धीरज धर बेटी, चिंता मत कर! सब ठीक हो जायेगा!"

Ambulance अपना siren बजाते हुए तेजी से अस्पताल की ओर बढ़ रही थी और अगले बीस मिनट में हम अस्पताल पहुँच गए| हम जिस अस्पताल में इन्हें ले कर पहुँचे थे वहीं doctor सरिता पहले काम कर चुकीं थीं इसलिए उनकी यहाँ बहुत अच्छी जान-पहचान थी| उन्होंने हमारे अस्पताल पहुँचने से पहले ही इस अस्पताल की senior doctor रूचि को इनकी बिमारी के बारे में जानकारी दे दी थी| Doctor सरिता पिताजी को बहुत मानती थीं इसलिए पिताजी के सरिता जी को किये एक फ़ोन ने हमारी बहुत मदद की थी|

Doctor रूचि अस्पताल के gate पर हमारा इंतजार करती हुईं मिलीं, ward boy की मदद से उन्होंने इन्हें (मेरे पति को) ambulance से उतरवाया| इधर नेहा ने फ़ट से doctor रूचि को अपने पापा की case history वाली file दी| इन्हें फ़ौरन अस्पताल में admit कर लिया गया तथा हमें एक private room allot कर दिया गया| एक junior doctor और nurse ने मिलकर इनका B.P check करना शुरू किया और तब मुझे समझ आया की हो न हो आज इनके अचानक चक्कर खा कर गिरने का कारण इनका B.P बढ़ना होगा! 'हाय राम! कहीं इन्होने दवाई लेना बंद तो नहीं कर दिया था?' मैं मन ही मन बुदबुदाई, लेकिन अब इस बात की चिंता करने के लिए बहुत देर हो चुकी थी|

इनका प्राथमिक उपचार शुरू हो चूका था और हम चारों बस उत्सुक हो कर इन्हें पलंग पर बेहोश पड़ा देखे जा रहे थे| ठीक 20 मिनट बाद doctor सरिता अस्पताल पहुँची और वो सीधा इन्हें देखने के लिए कमरे में आईं| हमें हिम्मत रखने के लिए बोल वो doctor रूचि से इनके बारे में बात करने चली गईं|

आधे घंटे बाद पिताजी भी अस्पताल पहुँचे और इनके सर पर हाथ फेर कर भावुक हो गए| डर और चिंता पिताजी के चेहरे से झलक रही थी मगर वो अपनी ये चिंता हमारे सामने प्रकट नहीं करना चाहता थे| इतने में सरिता जी लौटीं और माँ-पिताजी को अपने साथ doctor रूचि के cabin में ले गईं, जब मैंने साथ चलना चाहा तो मुझे उन्होंने इनके पास रहने को कहा| माँ-पिताजी चले गए तो हम तीनों माँ-बेटा-बेटी इन्हें घेर कर बैठ गए| आयुष को मैंने इनके पाँव के पास बिठा दिया, रो-रो कर आयुष का चेहरा बिगड़ा हुआ था और वो अपने छोटे-छोटे हाथों से अपने पापा के पाँव दबा रहा था, उसे लग रहा था की पाँव दबाने से उसके पापा जल्दी जाग जाएंगे| वहीं नेहा इनके बाईं तरफ पलंग पर बैठी थी और अपने पापा को यूँ चुप देख सिसक रही थी| मैं अस्पताल का वो गोल घूमने वाले स्टूल पर इनके पास बैठी थी, मेरी नजरें इनकी आँखों पर जमी थी और मैं उम्मीद कर रही थी की ये अब आँखें खोलेंगे, अब आँखें खोलेंगे! मेरा दिल उमीदों से भरा हुआ था लेकिन डर अब भी लग रहा था| मेरा दिमाग इस वक़्त कुछ नहीं सोच रहा था, उसे बस इन्हें होश में देखना था|

दस मिनट बाद माँ कमरे में लौटीं, उनके चेहरे पर चिंता झलक रही थी और ये चिंता देख मेरा दिल बैठा जा रहा था! "बेटा, मानु ने आज दोपहर घर लौट कर दवाई खाई थी न?" माँ ने मुझसे सवाल पुछा| माँ का ये सवाल सुन मुझे जैसे कुछ समझ नहीं आया और मैं मुँह बाए माँ को देखने लगी| "प...पता नहीं माँ!" ये शब्द मेरे मुँह से अनायास ही निकले| मेरा जवाब सुन माँ को बहुत हैरानी हुई और उन्हें समझ आ गया की हमारा (मेरा और इनका) रिश्ता किस तनाव से गुजर रहा है| मेरा दिमाग अब चलने लगा था और मुझे एहसास हो रहा था की इनकी ये हालत मेरे कारण ही हुई है! ग्लानि के भाव मेरे चेहरे पर आ गए थे और मेरी नजरें शर्म के मारे झुक गई थीं| माँ हताश हो कर doctor रूचि के cabin में जाने के लिए पलटी की तभी नेहा बोल पड़ी; "दादी जी, पापा जी ने कल से दवाई नहीं ली थी! कल रात मैंने उन्हें याद दिलाया था की वो दवाई ले लें, लेकिन पापा जी ने कहा की मैं ठीक हूँ|" नेहा सिसकते हुए बोली| माँ नेहा के पास आईं और उसका सर अपने पेट से लगा कर उसे सँभालते हुए बोलीं; "बस मेरी बिटिया!" इतना कह माँ वापस चली गईं|

इधर मैं दंग नेहा को आँखें बड़ी कर के देख रही थी की नेहा को अपने पापा की कितनी फ़िक्र थी, शायद इसीलिए ये नेहा को मुझसे भी ज्यादा प्यार करते हैं|

कुछ देर बाद माँ, पिताजी और सरिता जी कमरे में आये, माँ-पिताजी सोफे पर बैठ गए और सरिता जी कुर्सी पर बैठ गईं| मैं और बच्चे उत्सुकता से माँ, पिताजी और सरिता जी को देख रहे थे की वो हमें इनके बारे में जानकारी दें की ये कब होश में आएंगे मगर वो तो खामोश बैठे थे! मैं जान गई की जरूर कुछ बात है जो मुझसे और बच्चों से छुपाई जा रही है, बच्चों से बात छुपाना मैं समझ सकती थी मगर मुझसे बात छुपाने का कारण मुझे समझ नहीं आ रहा था?! जब कोई कुछ नहीं बोला तो मैंने ही अधीर बनते हुए सरिता जी से पूछ लिया; "सरिता जी, आखिर इन्हें हुआ क्या है और इन्हें कब होश आएगा?" सरिता जी कुछ बोलती उससे पहले ही पिताजी बोल पड़े; "बेटा, मानु को थोड़ी देर में होश आ जाएगा, तू चिंता न कर|" पिताजी ने प्यार से मुझे बहलाते हुए जवाब दिया| उनकी बातों से साफ़ था की वो कुछ तो मुझसे छुपा रहे हैं मगर मुझमें उनसे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं थी| मेरे ससुर जी मेरे पिता समान थे इसलिए मैं कुछ नहीं बोली और ये सोच कर खुद को संतुष्ट कर लिया की इन्हें थोड़ी ही देर में होश आ जायेगा तथा ये पूरी तरह से स्वस्थ हो जाएंगे, मेरे लिए इस समय इनका स्वस्थ होना ही मायने रखता था|

पिताजी इनके admit होने की कागजी कारवाही करने के लिए चले गए, सरिता जी doctor रूचि से इनके उपचार के बारे में बात करने चली गईं, बचे हम चार यानी मैं, माँ, आयुष और नेहा तो हम चार अभी भी कमरे में बैठे थे| बच्चे मायूस थे तो माँ ने उन्हें अपने पास बुलाया और दोनों बच्चों को अपने सीने से चिपका कर उन्हें लाड कर बहलाने लगीं| पंद्रह मिनट बाद पिताजी लौटे और मुझसे बोले; "बेटा, मेरे (debit) card का balance खत्म हो गया है और पैसे अब भी कम पड़ रहे हैं! तेरे पास तेरा (debit) card है?" उन दिनों हमारे घर में पैसों को ले कर थोड़ी परेशानी चल रही थी, पिताजी के नॉएडा और गुडगाँव वाले project के कारण पैसे फँसे हुए थे| कुछ छोटे project जो पहले पूरे हुए थे या चल रहे थे उनके पैसे भी फँसे हुए थे| अब चूँकि इन्हें हमने एक निजी अस्पताल में भर्ती करवाया था तो यहाँ बहुत खर्चा होने वाला था इसी कारण पिताजी के पैसे कम पड़ने लगे थे| मेरा अपना कोई bank account नहीं था क्योंकि शादी होने के बाद हमें account खुलवाने जाने का समय ही नहीं मिला था, वो तो इन्होने मुझे अपना debit card दे रखा था जिसकी मुझे सिवाए इन्हें कोई gift देने के अलावा कभी कोई जर्रूरत नहीं पड़ी थी|

खैर, जर्रूरत की इस घडी में जब मुझे सारे परिवार को अपने होंसले से संभालना चाहिए था तब मैं एक के बाद एक बेवकूफियाँ किये जा रही थी| पिताजी का सवाल सुन मुझे मेरी बेवकूफी याद आई की इन्हें अस्पताल लाने की हड़बड़ी में मैंने अपना पर्स उठाया ही नहीं था, वो तो माँ के पास कुछ पैसे थे जो हमने ambulance वाले को दे दिए थे! "वो...पिताजी...debit card मेरे पर्स में है...और मैं अपना पर्स लाना भूल गई!" मैंने सर झुकाते हुए अपना गुनाह कबूला, मुझे लग रहा था की पिताजी मुझे डाटेंगे की मैं कितनी बड़ी बेवकूफ हूँ मगर पिताजी ने मुझे नहीं डाँटा उल्टा मुझे प्यार से समझाते हुए बोले; "बेटा, इस तरह की आपातकालीन हालात में सबसे पहले पैसे पास रखे जाते हैं ताकि जरूरत पर काम आयें|" मेरी गर्दन शर्म के मारे झुकी हुई थी, पिताजी कुछ सोच रहे थे और फिर वो बोले; "बेटा हम सब घर चलते हैं, पैसे ले कर मैं वापस आ जाऊँगा और तुम सब शाम तक आ जाना|" मेरा मन इन्हें इस हाल में छोड़ कर जाने का नहीं था इसलिए मैंने पिताजी से विनती करते हुए कहा; "पिताजी, आप माँ और बच्चों को ले जाइये, तब तक मैं यहाँ रूकती हूँ|" पिताजी को मेरा सुझाव सही लगा इसलिए उन्होंने माँ और बच्चों से घर चलने को कहा| बच्चों ने तो एक साथ अपनी गर्दन न में हिला दी और बोले की वो अपने पापा के पास रहेंगे, वहीं माँ ने भी जाने से मना कर दिया क्योंकि वो भी इनकी तबियत को ले कर बहुत चिंतित थीं| मैंने माँ को उनकी सेहत का वास्ता दिया, ज्यादा बैठने से उनके पाँव में सूजन पढ़ने लगती थी तब कहीं जा कर माँ मानी और पिताजी के साथ घर गईं| माँ को घर छोड़ पिताजी लौटे और अस्पताल में पैसे जमा करा दिए, फिर वो मुझे मिलने आये और मुझे कुछ पैसे देते हुए बोले; "बेटा, मैंने अस्पताल में पैसे जमा करा दिए हैं| तू अपना, मानु का और बच्चों का ख्याल रख और ये कुछ पैसे रख| यहाँ से कुछ खरीद कर तुम तीनों खा लेना, मैं तब तक कुछ लोगों से मिल कर पैसों का इंतजाम करता हूँ| अगर doctor रूचि कुछ बताये तो मुझे तुरंत फ़ोन कर देना, नहीं तो शाम तक मैं और तेरी माँ आ ही जाएंगे, फिर तब तक तो मानु को भी होश आ जाएगा|" पिताजी की बात सुन मैंने बस हाँ में गर्दन हिलाई, इससे ज्यादा कुछ कहने की मुझ में हिम्मत नहीं थी| पिताजी ने दोनों बच्चों के सर पर हाथ फेरा और बोले; "बच्चों आप दोनों को अपने मम्मी-पापा का ध्यान रखना है!" पिताजी ने आयुष और नेहा को जिम्मेदारी देते हुए कहा तथा बच्चों ने भी अपना सर हाँ में हिलाते हुए अपनी जिम्मेदारी स्वीकारी|

पिताजी के जाने के बाद हम तीनों माँ-बेटा-बेटी बेसब्री से इंतजार करने लगे की अब इन्हें होश आएगा...अब ये आँख खोलेंगे| इनकी आवाज सुनने को मेरे कान तरस गए थे, इनके चेहरे को देखते हुए बार-बार मैं उम्मीद कर रही थी की अब इनकी पलकें हिलेंगी और ये मुझे 'जान' बोलेंगे, लेकिन ये थे की मुझसे नाराज हो कर लेटे हुए थे| मेरे भीतर मौजूद ग्लानि के कारण मेरा मन भारी हो चूका था क्योंकि मेरे इनसे रूखे बर्ताव के कारण ही आज इनकी ये हालत हुई थी|

खैर इनके होश में आने का इंतजार करते-करते रात के नौ बज चुके थे, बीच-बीच में माँ-पिताजी के कई बार फ़ोन आये थे और वो मुझसे इनका हाल पूछ रहे थे तथा मैं निराश हो कर उन्हें (माँ-पिताजी को) बस यही कहती की अभी तक इन्हें होश नहीं आया है|

अभी तक घर के किसी भी सदस्य ने कुछ नहीं खाया था, उधर घर में माँ भूखी बैठीं पिताजी के लौटने का इंतजार कर रहीं थीं| वहीं पिताजी खाली पेट एक पार्टी से दूसरी पार्टी के पास दौड़ते हुए पैसों का इंतजाम कर रहे थे| यहाँ हम तीनों माँ-बेटा-बेटी भूखे बैठे थे, मुझे अपनी चिंता नहीं थी बल्कि चिंता थी तो बच्चों की| मैंने नेहा को आवाज दे कर अपने पास बुलाया और पिताजी के दिए हुए पैसे नेहा को देते हुए बोली; "बेटा आप दोनों ने दोपहर से कुछ नहीं खाया इसलिए आप और आयुष जा कर canteen से कुछ खरीद कर खा लो|" ये मेरी दूसरी बेवकूफी थी जो मैं इतने बड़े अस्पताल में बच्चों को canteen अकेले भेज रही थी|

"मम्मी, आपने भी तो कुछ नहीं खाया और पापा जी कहते हैं की इस वक़्त आपको खाना खाने की ज्यादा जर्रूरत है, तो आप भी चलो न हमारे साथ?!" नेहा मुझसे बोली| मेरी बेटी थी तो छोटी मगर बहुत समझदार थी, वो जानती थी की मैं माँ बनने वाली हूँ और ऐसे में मुझे खाना खाने की ज्यादा जर्रूरत है, इसीलिए वो मुझे साथ चलने को कह रही थी| लेकिन मैं पहले इन्हें होश में देखना चाहती थी, तभी मेरे गले से खाने का निवाला नीचे उतरता; "बेटा, मेरा अभी कुछ खाने का मन नहीं है| आप दोनों खा आओ तो मेरा भी पेट भर जायेगा|" मैंने नेहा को प्यार से समझाते हुए कहा| मन तो मेरे दोनों बच्चों का भी कुछ खाने का नहीं था, तभी तो दोनों सर झुकाये खामोश खड़े थे| मैंने नेहा के सर पर हाथ फेर उसे समझना चाहा की तभी आयुष जो अभी तक खामोश था वो अपनी दीदी के साथ हो लिया और मेरे खाना न खाने से नाराज होते हुए बोला; "फिर मैं भी कुछ नहीं खाऊँगा!" अब देखा जाए तो आयुष की नाराजगी जायज थी, वो तो बस अपने दादा जी द्वारा दी गई मेरा और अपने पापा का ध्यान रखने की जिम्मेदारी निभा रहा था| परन्तु वो ये भूल गया की वो किस से बात कर रहा है, मैं उसके पापा की तरह नहीं थी जो उसकी नाराजगी देख कर पिघल जाऊँ! मुझे बच्चों की जिद्द और नाराजगी के नखरे सहने की आदत नहीं थी| आयुष ने जब मुँह फुला कर अपनी बात कही तो ये देख मुझे बहुत गुस्सा आया, घर पर होती तो आज उसे अच्छे से झाड़ देती, वो तो अस्पताल था इस कर के मैंने आयुष को गुस्से से घूर कर देखा और इतने भर से ही आयुष डर गया तथा अपनी दीदी के पीछे जा छुपा| नेहा ने भी जब मेरा गुस्सैल चेहरा देखा तो डर के मारे उसने मेरे से पैसे लिए और आयुष का हाथ पकड़ कर बाहर की ओर जाने लगी|

तभी मुझे एहसास हुआ की नेहा बिलकुल अपने पापा पर गई है, वो खुद कुछ नहीं खायेगी बल्कि आयुष को खिला कर लौट आएगी और मुझसे झूठ बोल देगी की उसने खा लिया है| ये सोच कर मैंने नेहा को आवाज दे कर कहा; "नेहा, रुक जा! मैं भी तेरे साथ चलती हूँ, तुम दोनों का भरोसा नहीं कुछ खाओगे नहीं और मुझसे झूठ बोल दोगे की हमने खा लिया है!" मैंने चिढ़ते हुए कहा| गौर करने वाली बात ये थी की मुझे इस वक़्त बच्चों के अकेले canteen जाते समय खो जाने का डर नहीं था अपितु उनके झूठ बोल कर भूखे रहने पर गुस्सा आ रहा था, ये थी मेरी तीसरी बेवकूफी!

हम तीनों माँ-बेटा-बेटी canteen पहुँचे, मैंने दोनों बच्चों को एक-एक sandwich और frooti खरीद कर खाने के लिए दी, मगर दोनों बच्चे एक दूसरे की शक्ल देखने लगे मानो एक दूसरे को खाने को कह रहे हों| दोनों ने अभी तक खाने को हाथ नहीं लगाया था और ये देख कर मेरा गुस्सा बढ़ने लगा था; "एक दूसरे की शक़्लें क्या देख रहे हो? जल्दी से खाओ और चलो, वहाँ तुम्हारे पापा अकेले हैं!" मेरी गुर्राहट सुन आयुष तो डर के मारे खाने लगा मगर नेहा अब भी खाने को हाथ नहीं लगा रही थी| सर झुकाये हुए वो डर के मारे कुनमुनाते हुए बोली; "मुझे भूख नहीं है, मैं नहीं खाऊँगी!" ये कहते हुए नेहा ने खाने की plate मेरी और खिसका दी| नेहा को मेरी चिंता थी, मेरे न खाने के कारण ही वो खाना नहीं खा रही थी, अगर मैं उस वक़्त एक कौर खा लेती तो नेहा भी खा लेती मगर मेरा इस वक़्त दिमाग खराब हो चला था! नेहा के इस तरह मेरी बात को नकारने से मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं उस पर बहुत गुस्से से चिल्लाई; "बहुत हो गया नेहा, चुप-चाप ये sandwich खा ले!" मेरा गुस्सा देख नेहा बहुत घबरा गई और रोने लगी, वहीं आयुष भी मेरा ये रौद्र रूप देख डर के मारे रोने लगा! आज तक दोनों बच्चे मेरे गुस्से से बहुत डरते हैं, अगर मैं उन्हें डाँट दूँ तो आयुष और नेहा डर के मारे काँपने लगते हैं, वो तो ये हैं जो हमेशा अपने प्यार से बच्चों को सँभाल लेते हैं (थे)!

खैर, नेहा ने पहले अपने आँसूँ पोछे, फिर आयुष के आँसूँ पोछ उसे अपने हाथ से sandwich खिलाने लगी| मेरी बेटी खुद डरी हुई थी मगर फिर भी पहले आयुष को सँभालने में लगी थी, आयुष को खिलाने के बाद उसने खुद भी बेमन से sandwich खाया| हम तीनों अब वापस इनके पास लौटने लगे और रास्ते भर नेहा ने मुझसे कोई बात नहीं की क्योंकि मेरे इस तरह से झिड़कने से वो मेरे प्रति उखड़ चुकी थी! वो अपने छोटे भाई का हाथ पकड़े हुए चुप-चाप चल रही थी|

जैसे ही हम कमरे के नजदीक पहुँचे की हमें डॉक्टरों और नर्सों का जमावड़ा नजर आया! ये दृश्य देख मेरा कलेजा मुँह को आ गया, मेरा दिल बुरी तरह दहल गया! इन्हें खो देने के डर के कारण मन में बुरे-बुरे विचार आने लगे, दिमाग कहने लगा की हमारा (मेरा और इनका) साथ हमेशा-हमेशा के लिए छूट गया मगर मेरा दिल इसकी गवाही नहीं दे रहा था!

मैं आप सभी पाठकों से माफ़ी चाहती हूँ की मैं इनके लिए 'मृत्यु' शब्द का प्रयोग नहीं कर सकती, इस एक शब्द को सोच कर ही मैं आज भी डर जाती हूँ!

इधर माँ-पिताजी भी अस्पताल पहुँच गए थे और डॉक्टरों और नर्सों को देख वो भी बहुत अचंभित थे! "बहु, ये...ये सब क्या हो रहा है?" पिताजी घबराते हुए इनके बारे में मुझसे पूछने लगे| मैं इस वक़्त अपने विचारों और मन में मची उथल-पुथल के कारण निरुत्तर थी! मुझे तो खुद कुछ नहीं मालूम था की यहाँ क्या हो रहा है तो मैं पिताजी के सवाल का जवाब क्या देती?! मैं बस मुँह बाये कमरे को देख रही थी| तभी सरिता जी तेजी से चलती हुईं हमारे पास आईं और माँ-पिताजी का हाथ पकड़ उन्हें मुझसे थोड़ा दूर ले जा कर कुछ बोलने लगीं| ये देख मैं भी माँ-पिताजी के नजदीक जा पहुँची क्योंकि मुझे जानना था की आखिर इन्हें हुआ क्या है मगर मुझे नजदीक देख सरिता जी एकदम से चुप हो गईं! सरिता जी की ये चुप्पी किसी अनहोनी की तरफ इशारा कर रही थी, हैरत से बड़ी आँखों से मैंने माँ-पिताजी की ओर देखा तो उनके चेहरे पर मुझे चिंता दिखाई दी, मतलब की बात बहुत गंभीर है जो की जानबूझ कर मुझसे छुपाई जा रही थी! मुझसे ये ख़ामोशी बर्दाश्त नहीं हुई तो मैं एकदम से बोल पड़ी; "सरिता जी, please मुझे बताइये की मेरे पति को हुआ क्या है? आखिर ऐसी कौन सी बात है जो आप सभी मुझसे छुपा रहे हैं?" मेरी आवाज में दर्द झलक रहा था और इस दर्द को सुन सभी के दिल पसीज गए थे| सरिता जी पिताजी को देखने लगीं और उनसे अनुमति माँगने लगीं की क्या वो मुझे सारी बात बता दें? पिताजी ने गर्दन हाँ में हिला कर अपनी अनुमति दी, तब जा कर सरिता जी ने मुझे सारी बात बताई जिसे सुन कर मेरे होश उड़ गए!

"मानु के दवाई न लेने के कारण उसका BP बहुत बढ़ा हुआ था, आज जब वो चक्कर खा कर गिरा तो उसका सर ज़मीन से टकराने के करण उसके सर में चोट आई| जब आप मानु को यहाँ लाये तो हमने अन्न-फानन में मानु को admit कर उसका basic treatment शुरू कर दिया, initial diagnosis में मानु का BP बढ़ा हुआ था इसलिए उसी को हम मुख्य कारण मान हमने इलाज शुरू किया मगर किसी ने भी मानु के सर में आई चोट की तरफ ध्यान ही नहीं दिया|

अभी कुछ देर पहले nurse मानु का BP check कर रहे थी और तब उसने मानु के सर में पीछे की तरफ आई सूजन पर गौर किया, इसलिए हम फिलहाल मानु को MRI के लिए ले कर जा रहे हैं| आप सभी घबराई मत और उम्मीद बिलकुल मत छोड़िये, मानु को कुछ नहीं होगा!" सरिता जी हमें आश्वस्त करते हुए बोलीं मगर उनके खुद के चेहरे से चिंता झलक रही थी! इधर सरिता जी की बात सुन मुझे बहुत गुस्सा आया, मन किया अभी पूरे अस्पताल पर केस कर दूँ, लेकिन फिलहाल मेरे लिए इनका सही उपचार किया जाना जरूरी था, मेरे केस दायर करने से इनके इलाज में रुकावट आ सकती थी बस इसीलिए मैं चुप रही!

उधर कमरे से इन्हें MRI कराने के लिए ले जाने लगे और सरिता जी खुद डॉक्टरों के साथ गईं| अपने पापा को जाता देख दोनों बच्चे घबराये हुए थे, पिताजी ने उन्हें अपने पास बुलाया और उनके सर पर हाथ फेर उन्हें बहलाने लगे|

मैं और माँ अकेले खड़े थे इसलिए मैंने रुनवासे होते हुए माँ से पुछा; "माँ, आप मुझसे ये बात क्यों छुपा रहे थे?" माँ ने मेरे सर पर हाथ फेरा और मुझे समझाते हुए बोलीं; "बेटी, तू माँ बनने वाली है और मानु ने हमें कसम दी थी की हम तुझे कोई भी ऐसी बात न बताएँ जिससे तेरे दिल को चोट पहुँचे बस इसीलिए हम तुझसे ये बात छुपा रहे थे|" माँ की बात सुन मेरी आँखे भर आई, मुझे एहसास हुआ की एक तरफ मेरे पति हैं जो मेरी ख़ुशी के लिए मुझे दुखों से दूर रखते हैं और दूसरी तरफ मैं हूँ जो इनसे बात न कर के इन्हें बेवजह परेशान कर रही थी| माँ की बात में एक गौर करने वाली बात छुपी थी और वो ये की अभी भी कुछ बातें थीं जो माँ-पिताजी मुझसे छुपा रहे थे लेकिन मुझ में ये सब पूछने की हिम्मत नहीं थी| माँ ने मेरे आँसूँ पोछे और मुझे पुचकारा तथा अपने साथ कमरे के भीतर ले आईं|

कमरे के भीतर पिताजी दोनों बच्चों को सँभाल रहे थे, बच्चों की जुबान पर बस एक ही सवाल था की; 'पापा को क्या हुआ?' पिताजी उन्हें सच नहीं बताना चाहते थे इसलिए वो बस बातें गोल-मोल कर रहे थे; "तुम्हारे पापा को कुछ नहीं हुआ, वो जल्दी ठीक हो जायेगा|" जब मैं और माँ कमरे के भीतर आये तो पिताजी को बात घुमाने का मौका मिल गया; "अच्छा बच्चों, देखो अपनी दादी जी को भी थोड़ा प्यारी करो वरना वो (माँ) बाद में मुझे कहेगी की मैंने आप दोनों की सारी प्यारी ले ली!" आयुष तो अपने दादा जी की बात सुन मुस्कुराया मगर नेहा के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे| दोनों बच्चे आ कर माँ से लिपट गए और माँ ने दोनों के सर पर हाथ रख उन्हें आशीर्वाद दिया| पिताजी उठ कर मेरे पास आये और मेरे सर पर हाथ रख मुझे हिम्मत बँधाने लगे|

इधर हम सभी कमरे के भीतर बैठे इनके लौटने का इंतज़ार कर रहे थे और उधर किसी दूसरे कमरे में इनका MRI किया जा रहा था| घंटे भर बाद सरिता जी और doctor रूचि इनकी MRI की report ले कर हमारे पास आईं| उनके चेहरे पर तनाव की शिकन थी जो ये साफ़ बता रही थी की बात चिंता जनक है| बच्चों को कमरे में ठहरने के लिए बोल मैं, माँ, पिताजी, सरिता जी और doctor रूचि कमरे से बाहर आ गए| "अंकल जी, report अच्छी नहीं है!" Doctor रूचि ने बात शुरू करते हुए कहा| इतना सुनना था की मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा था! "अंकल जी, ये बताइये की मानु ने खाना-पीना क्यों बंद कर रखा था?" सरिता जी ने भोयें सिकोड़ कर पिताजी से सवाल पुछा| "नहीं बेटा ऐसा बिलकुल नहीं है! अक्सर मानु सुबह नाश्ता कर के निकलता है, हाँ काम में व्यस्त रहने की वजह से शायद कभी-कभार दोपहर को खाना न खा पाता हो मगर रात में जब वो घर लौटता था तो बहु ही उसे खाना परोसती थी| तो ऐसा हो ही नहीं सकता की मानु ने खाना-पीना बंद कर रखा हो, है न बहु?" पिताजी ने अपनी बात खत्म करते हुए जब मेरी ओर देखते हुए सवाल पुछा तो मेरी जुबान को लकवा मार गया, मेरा गला सूख गया और हलक़ से शब्द बाहर ही नहीं निकले, मैं तो बस मुँह बाये सरिता जी को देख रही थी!

"बहु, मानु रात को खाना खाता था न?" माँ ने मेरे कँधे पर हाथ रखते हुए मुझे धीरे से हिलाया और पिताजी का सवाल दुहराया मगर मुझे जैसे कोई सुध ही नहीं थी! सभी की नजरें मुझ पर टिकी थीं और सभी मुझसे जवाब की अपेक्षा कर रहे थे| माँ ने मेरा कंधा फिर से दबाया और तब जा कर मुझे जैसे होश आया, आँखों से आँसूँ बाह निकले तथा मैंने सब सच कहा; "माँ, जब से इन्होने दुबई जाने की बात कही थी तब से मैं इनसे बहुत नाराज थी! मैंने अपने गुस्से के चलते इनसे बात करना बंद कर दिया और इन्होने अपने गुस्से में खाना-पीना छोड़ दिया! कल रात जब ये घर लौटे तो मैं इन्हें खाना परोस कर चली गई, इन्होने वो खाना नहीं खाया बल्कि ढक कर fridge में रख दिया| आज सुबह जब मैंने रोटी का tiffin देखा तो मुझे पता चला की कल रात इन्होने कुछ नहीं खाया था| आज सुबह भी ये बिना खाये निकल गए थे...." इतना कहते हुए मेरा सब्र टूट गया और मैं रो पड़ी| "ये...ये सब मेरी गलती है! पिताजी...माँ...मुझे माफ़ कर दीजिये!" मैंने हाथ जोड़ कर माँ-पिताजी से रोते-रोते माफ़ी माँगी| मेरे मुँह से सारा सच सुन मेरे सास-ससुर जी ने मुझे एक शब्द न कहा, बल्कि माँ ने मुझे अपने गले लगा लिया और मेरे सर पर हाथ फेर कर मुझे शांत कराने लगीं| सच मेरे सास-ससुर देवता समना हैं जो मुझे अपने बेटे की ये हालत करने के बाद भी इतना लाड-प्यार कर रहे थे|

मैंने अपना रोना काबू किया और तब सरिता जी ने अपनी बात कही; "अंकल जी, आप तो जानते ही हैं की मानु का metabolism कितना कमजोर है, इसीलिए मैंने आपको कहा था की आप मानु को कभी व्रत आदि न रखने दें| मानु के खाना-पीना छोड़ने, अपनी दवाई न लेने और घर में जो माहौल था उसके कारण मानु बहुत तनाव में था| आज उसका B.P shoot up हुआ जिस कारण मानु को चक्कर आया और वो गिर पड़ा जिस कारण उसके सर में गहरी चोट आई है| मानु को आई इस चोट को यानी brain injury को हम Anoxic Brain Injury कहते हैं| जब मानु को यहाँ admit किया गया था तभी अगर यहाँ के डॉक्टरों ने ये चोट देख ली होती और इसका उपचार शुरू कर दिया होता तो हालात सँभाले जा सकते थे मगर यहाँ के डॉक्टरों की लापरवाही के कारण मानु के दिमाग में सूजन बढ़ गई है...." इतना कह सरिता जी खामोश हो गईं तथा अपनी बात अधूरी छोड़ दी| पिताजी ने जब अस्पताल की लापरवाही की बात सुनी तो उनकी आँखों में खून उतर आया, उनके इकलौते बेटे की जान इस अस्पताल की खराब व्यव्य्स्था के कारण दाव पर लगी थी! पिताजी ने गुस्से से doctor रूचि को देखा और इससे पहले की पिताजी उन पर बरस पड़ते सरिता जी ने अपनी बात पूरी की; "Manu's in COMA!" चूँकि सरिता जी ने ये बात अंग्रेजी में कही थी इसलिए माँ-पिताजी को सरिता जी की ये बात समझ नहीं आई, वहीं सरिता जी की बात सुन कर मेरा मुँह खुला का खुला रह गया, आँखें फटने की हद्द तक बड़ी हो गईं, दिल की धड़कन रुकने लगी और साँसें थमने की कगार पर आ गईं! उधर माँ-पिताजी आँखें बड़ी किये हुए, आँखों में सवाल लिए मुझे देख रहे थे की मैं सरिता जी की कही बात का हिंदी में अनुवाद कर उन्हें बताऊँ? परन्तु मेरे हाव-भाव देख माँ-पिताजी घबरा गए, वो जान गए की जरूर कोई बहुत बुरी खबर है! ठीक तभी सरिता जी ने हिंदी में अपनी बात दुहराई; "मानु coma में है!"

सरिता जी द्वारा दी गई ये खबर हम तीनों के लिए बहुत दुखदाई थी, इस खबर ने हमें सदमें डाल दिया था! पिताजी जो अभी तक अस्पताल प्रशासन पर गुस्सा थे वो अब एक गहन चिंता में डूब गए थे, माँ की हालत और भी बदत्तर थीं, उनके जिगर का टुकड़ा जिसे वो इतना प्यार करती थीं उस बेटे की जान एक पतली सी डोर पर टंगी थी! इधर मेरी हालत ऐसी थी मानो किसी ने मेरे कान के पास कोई बम फोड़ दिया हो और मुझे आगे कुछ सुनाई ही न दे रहा हो, दिल बार-बार कह रहा था की ये कोई बुरा सपना है जो मेरे जागने से टूट जायेगा लेकिन दिमाग सरिता जी की कही बातों को दोहराये जा रहा था जिस कारण मैं हिम्मत छोड़ने लगी थी|

हम सब अस्पताल के गलियारे में खड़े थे और इस वक़्त पूरा गलियारा शांत था, तभी पीछे से नेहा डर के मारे चीखी; "नहीं!" उसकी चीख सुन हमने पलट कर देखा तो पता चला की नेहा ने पीछे छुपकर हमारी सारी बात सुन ली थी, नेहा एकदम से रोती हुई अपनी दादी जी की ओर दौड़ी और अपनी दादी जी की कमर से लिपट कर बदहवास हो कर रोने लगी| नेहा से ये खबर बर्दाश्त नहीं हुई थी इसलिए वो छोटी सी बच्ची आज पूरी तरह टूट गई थी| मैं, माँ और पिताजी इस वक़्त बड़ी ही विचित्र मानसिक स्थिति में थे, हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था की क्या करें? हार मान कर अफ़सोस करें या फिर होंसला बटोर कर हालात का सामना करें? हमारे दिमाग सन्न थे और हमें क्या प्रतिक्रिया देनी है ये हमें मालूम ही नहीं था!

"द...दादी जी...पा...पापा.कब ठीक होंगें?" नेहा रोते हुए माँ से बोली| नेहा का सवाल सुन माँ की आँखें छलक आईं, आज वो अपनी ही पोती के आगे बेबस और निरुत्तर हो गईं थीं| सरिता जी ने बात सँभाली और नेहा को हिम्मत बँधाते हुए बोलीं; "बेटा, आपके पापा जल्दी ठीक हो जायेंगे, लेकिन अभी आपको अपने पापा की बहादुर बेटी बनना होगा| आपको पता है की आपके पापा ने मुझे आपके बारे में क्या बताया था?" सरिता जी ने नेहा को बहलाने के लिए प्यारा सा झूठ बोला| सरिता जी की बात सुन नेहा के दिल में उम्मीद का दीपक जल गया और वो उत्सुक हो कर सरिता जी को देखने लगी| "आपके पापा कहते थे की मेरी बेटी नेहा सबसे बहादुर है, कैसे भी हालात हों वो पूरे घर को सँभाल लेती है and I'm proud of my daughter! अब अगर आप ही इस तरह हार मान जाओगे तो कैसे चलेगा? आप जानते हो न आपकी मम्मी pregnant हैं, तो उन्हें कौन सँभालेगा? आपके दादा-दादी जी का कौन ख्याल रखेगा? आपका छोटा भाई आयुष, उसे कौन देखेगा? सबको आप ही को सँभालना होगा न?!" सरिता जी ने बिलकुल इनकी तरह ही नेहा को जिम्मेदारी दे कर बहला लिया था| सरिता जी की बातों ने हम सभी को भावुक कर दिया था और हम सभी की आँखों से आँसूँ बहने लगे थे|

मेरी बेटी बहुत बहादुर थी, उसने सरिता जी की बात सुन अपनी हिम्मत बटोरी और अपने आँसू पोछे, फिर उसने अपनी दादी जी का हाथ पकड़ उन्हें थोड़ा झुकाया और उनके आँसू पोछे| उसके बाद वो अपने दादा जी के पास आई और उनका हाथ पकड़ नीचे झुका कर उनके भी आँसूँ पोछे| नेहा की हिम्मत देख पिताजी बहुत भावुक हो गए और उन्होंने उसे कस कर अपने गले लगा लिया| "आप चिंता मत करो दादा जी, पापा जल्दी ठीक हो जाएंगे!" नेहा अपने दादा जी की पीठ पर हाथ फेरते हुए उन्हें हिम्मत बँधाने लगी| नेहा को यूँ वयस्कों की तरह बर्ताव करता देख आज मुझे उस पर बहुत गर्व हो रहा था!

खैर, माँ ने नेहा को आयुष को सँभालने के बहाने से कमरे के भीतर भेजा और अपने तड़पते हुए दिल के इत्मीनान के लिए सरिता जी से सवाल पुछा; "बेटी, मानु को होश कब आएगा?" माँ का दिल बड़ा कोमल होता है, उसे बस अपने खून की खैरियत जननी होती है| माँ की जिज्ञासा वाजिब थी परन्तु coma में गया हुआ व्यक्ति कब coma से बाहर आये ये कह पाना नामुमकिन होता है| लेकिन ये बात सरिता जी हम में से किसी से भी नहीं कहना चाहतीं थीं क्योंकि इससे हम सभी नाउम्मीद हो जाते! "आंटी जी, फिलहाल हम कुछ नहीं कह सकते क्योंकि इंसान के दिमाग में आई चोट को ठीक होने में थोड़ा समय लगता है| फिर यहाँ doctors पूरी कोशिश कर रहे हैं, सही दवाइयाँ, आप सभी के प्यार और भगवान की कृपा से मानु किसी भी वक़्त coma से बाहर आ सकता है| आपको बस उम्मीद नहीं छोड़नी है!" सरिता जी ने अपनी तरफ से हमें आश्वस्त करने की कोशिश करते हुए कहा|

पिताजी जी जो अभी तक खामोश थे एक बार फिर उनके चेहरे पर गुस्सा आने लगा था मगर वो कुछ कहते उससे पहले ही सरिता जी बोल पड़ीं; "अंकल जी, मैं आपका गुस्सा समझ सकती हूँ! अस्पताल वालों की लापरवाही के कारण ही हालात इतने खराब हुए हैं और मैंने इस बात को ले कर अस्पताल प्रशासन से पहले ही बहुत बहस की है| मानु को मैंने अपना छोटा भाई बता कर अस्पताल प्रशासन को court में घसीटने की धमकी दी थी, अस्पताल प्रशासन कह रहा है की यदि आप case न करें तो वो आपको हर्जाना देने के लिए तैयार है!" इतना सुनते ही पिताजी एकदम से बोल पड़े; "बेटी, मुझे कोई पैसे नहीं चाहिए, मुझे बस मेरा बेटा चाहिए और वो भी स्वस्थ!" पिताजी ने सख्ती से अपनी बात साफ कर दी| "अंकल जी, मैं आपको आश्वस्त करती हूँ की मानु पूरी तरह ठीक हो जायेगा| हम उसे best care और treatment देंगे, हम अभी उसे special room में shift कर रहे हैं| इस कमरे में ICU की सारी सुविधाएँ हैं तो मानु को कभी कोई तकलीफ नहीं होगी| मैं खुद मानु को personally attend करूँगी और सरिता भी visiting doctor के तौर पर यहाँ होगी| इसके आलावा आपका कोई खर्चा अब नहीं होगा!" Doctor रूचि बोलीं| हमारे लिए इनका ठीक होना ज्यादा जरूरी था, फिर हमें सरिता जी पर पूरा विश्वास था इसलिए हमने कोई कानूनी कारवाही नहीं करने का फैसला लिया| इसके आलावा हमें अस्पताल में 24 घंटे रुकने की भी इजाजत दे दी गई थी|

हमारे पास बस इनके जल्दी ठीक होने की उम्मीद थी और इसी उम्मीद के सहारे हमारे जीवन की ये नाव चलनी थी| सरिता जी और doctor रूचि कुछ बात करते हुए चले गए और हम तीनों अकेले खड़े रह गए| इनके लिए जो special कमरा था हम उसी कमरे की ओर बच्चों संग चलने लगे| नेहा आयुष का हाथ पकड़े हुए आगे-आगे चल रही थी और उसका (आयुष का) मन अपनी बातों से बहलाये हुए थी| इन्हें पहले ही कमरे में पहुँचा दिया गया था और वहाँ एक नर्स बैठी हुई थी| दोनों बच्चों ने जैसे ही अपने पापा को देखा दोनों अंदर दौड़ कर पहुँचे और अपने पापा को घेर कर खड़े हो गए| आयुष ने इनको जगाना चाहा तो नेहा ने उसे रोक दिया और बोली; "नहीं आयुष, पापा को आराम करने दे|" इतना कह नेहा ने आयुष को अपने गले लगा लिया| तभी वो नर्स उठ कर आई और माँ-पिताजी को नमस्ते कह कर बाहर चली गई| मैं, माँ और पिताजी कमरे से बाहर आ गए और तब पिताजी ने मुझे प्यार से समझाया; "बेटी, जो हो गया सो हो गया, मैं ये नहीं कहूँगा की सारी गलती तेरी थी, कुछ गलती उस (इनकी) पागल की भी है| बचपन से मानु ऐसा ही है, ज़रा सी बात उसके दिल को लग जाती थी और वो गुस्सा हो कर खाना नहीं खाता था| तब मानु हर बात अपनी माँ से बताता था, मानु की माँ उसे प्यार से समझा-बुझा कर खाना खिला दिया करती थी| लेकिन अब मानु बड़ा हो चूका है और हमसे बातें छुपाने लगा है! तूने देखा न कैसे मानु ने गाँव में रखी पंचायत की बात हम सभी से छुपाई, ऐसे में बस एक तू ही है बहु जिससे मानु सारी बातें साझा कर सकता है| लेकिन तू ही अगर मानु से नाराज हो जायेगी, बात नहीं करेगी तो वो अपना दुःख-दर्द किस से कहेगा? आखिर वो अपना दुःख-दर्द अपने भीतर संजोये कुढ़ता रहेगा!

मैं मानता हूँ की तुझे मानु के बिना तुझसे पूछे-बताये एकदम से दुबई जा कर बसने का फैसला करना बहुत बुरा लगा मगर बेटी ये भी सोच की आखिर वो ये सब कर किसके लिए रहा था? मानु को सिर्फ और सिर्फ तेरी ख़ुशी चाहिए, वो तेरी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी समझता है तथा इसके अलावा उसे कुछ नहीं चाहिए! तू नहीं जानती बहु मगर कुछ दिन पहले ही मानु ने हम से कहा था की; 'मैं, संगीता को और दुखी नहीं देखना चाहता, फिर चाहे मुझे कुछ भी करना पड़े!' इसलिए मैं कहता हूँ बेटा की अभी भी समय नहीं बीता है, तेरा प्यार मानु को वापस ला सकता है और एक बार मानु पूरी तरह ठीक हो जाए तो उसका अच्छे से ख्याल रखना तथा तुम दोनों सुख से रहना तब ही हम दोनों (माँ-पिताजी) चैन की साँस लेंगे! मुझे पूरा विश्वास है की भगवान हमारे साथ कोई अन्याय नहीं करेंगे, हम सभी को थोड़ा धीरज रखना होगा, सब्र करना होगा|" पिताजी की बात सुन मुझे मेरी गलती समझ आई, मैंने प्रण किया की मैं फिर कभी इनके साथ ऐसा बुरा सलूक नहीं करूँगी| मैंने माँ-पिताजी के पाँव छू कर आशीर्वाद लिया और उन्होंने मुझे "सदा सुहागन" रहने का आशीर्वाद दिया| ये आशीर्वाद पा कर मैं आज धन्य हो गई थी, क्योंकि इस आशीर्वाद ने मेरे मन में इन्हें जल्दी से होश में देखने की उम्मीद की लौ को ज्वाला बना कर जला दिया था|

"बेटा, तुम सब घर जाओ तथा कुछ खाओ, मैं यहीं मानु के पास रुकता हूँ| कल सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ कर तुम दोनों (मैं और माँ) अस्पताल आ जाना|" पिताजी मुझसे बोले| इस समय इन्हें छोड़ कर हम में से कोई घर नहीं जाना चाहता था, मैं कोई बहाना सोचने में लग गई की तभी माँ, पिताजी से बोलीं; "सुनिए, आप भी कुछ खा लीजिये!" माँ को इस वक़्त अपने बेटे के साथ-साथ अपने पति की भी चिंता हो रही थी| "अरे, तुम मेरी चिंता मत करो मानु की माँ, मैं यहाँ से कुछ ले कर खा लूँगा| तुम पहले बहु और बच्चों को कुछ खिलाओ बेचारे सुबह से भूखे-प्यासे हैं|" जब पिताजी ने माँ से मुझे और बच्चों को कुछ खिलाने की बात कही तब मैंने उन्हें कुछ देर पहले की घटना बताई; "पिताजी, 9 बजे के करीब मैंने आयुष और नेहा को डाँट-डपट कर sandwich तथा frooti खिलाने ले गई थी उसी दौरान तो नर्स इनका B.P check करने आई थी!" मेरे बच्चों को डाँटने की बात पिताजी को अच्छी नहीं लगी इसलिए वो मुझे समझाते हुए बोले; "बेटी, इस समय जब मानु बीमार है तो ज़रा अपने गुस्से पर काबू रखा कर| दोनों बच्चे मानु पर गए हैं, जब मैं मानु को बेवजह डाँट देता था तो वो मुझसे नाराज हो कर बात करना बंद कर देता था, उसी तरह आयुष और नेहा भी तुझसे नाराज हो कर तुझसे बात करना बंद कर देंगे! समझी?"

"पिताजी, वो नेहा जिद्द कर रही थी इसलिए मैंने उसे थोड़ा डाँट दिया! आगे से ध्यान रखूँगी!" मैंने जानबूझ कर पिताजी को नेहा के जिद्द करने की वजह नहीं बताई वरना पिताजी आज मुझे डाँट ही देते| इतने में दोनों बच्चे कमरे से बाहर निकले, उन्होंने पिताजी की मुझे अपने गुस्से पर काबू रखने वाली बात सुन ली थी| मैंने बच्चों की ओर देखते हुए फ़ौरन अपने कान पकड़ कर माफ़ी माँगी, मैं बच्चों से माफ़ी माँगूँ ऐसा कभी कभार ही होता था और जब भी ये दृश्य आयुष ने देखा उसे जरूर हँसी आ जाती थी| आज भी मुझे यूँ कान पकड़े देख आयुष हँसने लगा और उसने मुझे झट से माफ़ कर दिया मगर नेहा, उसका गुस्सा बिलकुल मेरे जैसा था उसने मुझे बिलकुल माफ़ नहीं किया! नेहा मुझे नजरअंदाज करते हुए सीधा अपने दादा जी से बोली; "दादा जी, मैं भी आपके साथ यहाँ रुकूँगी!" नेहा अपने दादा जी से विनती करते हुए बोली, हम सभी नेहा का इनके लिए प्यार जानते थे इसलिए पिताजी ने नेहा को बड़े प्यार से समझाते हुए कहा; "बेटा, आपको कल स्कूल जाना है न? फिर मैं तो यहाँ हूँ आपके पापा की देख रेख करने के लिए| अभी आप सब घर जाओ और कल स्कूल से लौट कर सीधा यहीं आ जाना|" अपने दादा जी की बात सुन नेहा ने फिलहाल के लिए उनकी (पिताजी की) बात मान ली थी|

माँ ने मुझे पिताजी के लिए sandwich और चाय लाने को कहा तथा हम चारों (मैं, माँ, नेहा और आयुष) के लिए भी उन्होंने sandwich ले आने को कहा| पिताजी को चाय-sandwich दे हम घर के लिए निकले, मैंने एक ऑटोरिक्षा रुकवाया और हम घर लौट आये| रास्ते भर नेहा मुझसे एक शब्द नहीं बोली, वो तो बल्कि अपनी दादी जी से लिपटी रही| घर आ कर माँ ने सब को sandwich खाने को कहा, बड़े बेमन से मैंने वो सैंडविच अपने गले से उतारा क्योंकि मैं नहीं चाहती थी की मेरे होने वाले बच्चे को कुछ हो! बारह बजने को आये थे और माँ ने सभी को सोने के लिए कहा, आज की रात काँटों भरी रात थी तथा मेरा दिल आज बहुत बेचैन था! आज रात अकेले सोने का सवाल ही नहीं था क्योंकि सभी घबराये हुए थे इसीलिए हम चारों हमारे (मेरे और इनके) कमरे में ही लेट गए| एक किनारे मैं लेटी थी तो दूसरे किनारे माँ| माँ की तरफ नेहा लेटी थी और आयुष मेरी तरफ लेटा था| नेहा का गुस्सा इस वक़्त बहुत तेज था, उसने मुझे फिर नजर अंदाज किया और अपनी दादी जी की ओर करवट ले कर उनसे लिपट गई| नेहा को बस अपने पापा के सीने से लिपट कर नींद आती थी और आज जब वो यहाँ नहीं थे तो ऐसे में नेहा का दिल बहुत बेचैन था इसीलिए उसने आज अपनी दादी जी का सहारा लिया था| उधर आयुष मेरी ओर करवट कर के लेट गया, भले ही मैं उसे बहुत डाँटती हूँ मगर फिर भी वो मुझसे लिपट जाता है| डरता भी मुझसे है और प्यार भी मुझ ही से करता है!

माँ, आयुष और नेहा तो सो गए मगर मेरी आँखों से नींद कोसों दूर थी! आज दोपहर में कहे इनके अंतिम शब्द; "क्यों इतना दर्द अपने भीतर समेटे हुए हो? क्या तुम्हारे दिल में मेरे लिए ज़रा सी भी जगह नहीं" मुझे बार-बार याद आ रहे थे और मैं इन शब्दों को याद कर के खुद को कोसे जा रही थी! मेरा दिल इस कदर बेचैन था की जाने कब मैं डर की खाईं में जा गिरी, मुझे बार-बार लग रहा था की आज दोपहर जो इन्होने मुझसे वो दर्द भरे शब्द कहे थे वो मेरे जीवन के इनके मुँह से सुने आखरी शब्द थे! ये ख्याल मुझे पूरी तरह से झकझोड़ चूका था और मेरा दिल मीलों भागने की रफ़्तार से दौड़ रहा था! सारी रात मैंने अपनी इसी डर और बेचैनी के साथ जागते हुए काटे, पूरी रात मेरी नजरें घडी की टिक-टिक पर टिकी थीं| जैसे ही घडी के काँटों ने 5 बजाये मैं एकदम से उठ बैठी, नहा-धो कर मैं सीधा रसोई में घुस गई, सब के लिए खाना बनाया, बच्चों के स्कूल के लिए tiffin बनाया| सात बजते-बजते मैंने घर के सारे काम निपटा दिए थे और अब बस बच्चों को उठाना था| मैं बच्चों को उठाने आई तो नेहा जाग चुकी मगर माँ और आयुष अब भी सोये हुए थे| मैंने ज्यों ही आयुष को उठाने को हाथ बढ़ाया की नेहा ने एकदम से आयुष को जगाया और जैसे-तैसे उसे गोदी ले कर अपने कमरे में तैयार करने ले गई|

आज मैंने पहलीबार अपनी ही बेटी के दिल में अपने लिए नफरत महसूस की और इस एहसास ने मुझे बहुत दुःख पहुँचाया! मेरे जरा सा डाँटने से नेहा मुझसे न केवल उखड़ चुकी थी बल्कि मुझसे नफरत करने लगी थी!
खैर तभी माँ की जाग खुल गई, मैंने रोज की तरह उनका आशीर्वाद लिया और माँ तुरंत नहाने चली गईं| आज पहलीबार बच्चों को स्कूल जाने में बहुत देर हो गई थी, अगर ये यहाँ होते तो ऐसा कभी नहीं होता!

अगले आधे घंटे में माँ, नेहा और आयुष तैयार हो कर आ गए, मैंने फटाफट तीनों को नाश्ता परोसा| नेहा की रोज की दिनचर्य थी की वो सुबह उठते ही सबसे पहले अपने पापा को good morning kiss देती थी फिर वो स्कूल के लिए तैयार होती थी| आज उसकी ये दिनचर्या टूट गई थी और इसका दुःख नेहा के चेहरे से झलक रहा था| माँ ने नेहा को दुखी तो उन्होंने नेहा को लाड करना शुरू किया और उसे अपने हाथ से नाश्ता कराया| नाश्ता कर मैं दोनों बच्चों को स्कूल छोड़ने जाने लगी तो माँ ने मुझे रोका और बोलीं; "बेटी, तू नाश्ता कर ले तबतक मैं बच्चों को van वाले stand पर छोड़ आती हूँ|" माँ बच्चों को ले कर तो गईं मगर आज बहुत देर हो चुकी थी जिस कारण school van कब की जा चुकी थी इसलिए माँ को बच्चों को छोड़ने के लिए school तक जाना पड़ा| School पहुँच कर भी बच्चों को अंदर नहीं जाने दिया जा रहा था, बड़ी मुश्किल से माँ ने teacher जी को सारी बात बताई तब कहीं जा कर बच्चों को school के भीतर जाने को मिला|

इधर मेरा मन कुछ भी खाने को नहीं कर रहा था इसलिए मैं बर्तन धो कर माँ के घर लौटने का इंतजार करने लगी| माँ को घर लौटने में समय लग गया और इस दौरान इन्हें देखने के लिए मेरा जी मचले जा रहा था, बेसब्री से मेरा बुरा हाल था! पहले सोचा की माँ को फ़ोन कर लूँ, लेकिन फिर जब नजर घडी पर गई तो समझ आ गया की माँ को देर होने का कारन क्या है?! कुछ देर बाद माँ घर लौटीं और मुझे बेसब्री से घडी की ओर देखता हुआ देख बोलीं; "बेटी, चिंता मत कर! मेरा दिल कहता है की सब ठीक हो चूका होगा, मानु को होश आ चूका होगा और वो तेरा ही इंतजार कर रहा होगा| अब चल जल्दी!" माँ ने थोड़ा मुस्कुराते हुए मुझे जो आस बँधाई थी उससे मेरा दिल ख़ुशी से उछलने लगा था| माँ की बातों पर विश्वास कर मेरा मन उमंग से भर उठा था मगर ये आस इतनी जल्दी पूरी नहीं होने वाली थी, शायद इस ही आस के सहारे मुझे अपनी पूरी जिंदगी काटनी थी!

अपनी बेकरारी की पोटली और मन में इनके होश में आने की आस लिए मैं, माँ के साथ अस्पताल पहुँची| रास्त भर मुझे यही लग रहा था की जैसे ही मैं कमरे का दरवाजा खोलूँगी, ये पलंग पर अपनी पीठ टिकाये बैठे होंगें| मुझे देखते ही ये मुस्कुरायेंगे, अपने दोनों हाथ खोल कर ये मुझे गले लगने को बुलाएंगे और मैं दौड़ती हुई जा कर इनके गले लग जाऊँगी| लेकिन मेरी क़िस्मत को मुझ पर जरा सा भी तरस नहीं आया, आता भी क्यों मैंने अपने देवता जैसे पति को इतना दुखी जो किया था! ऐसा लगता था मानो मुझे इनसे माफ़ी माँगने का भी कभी मौका नहीं मिलेगा?!

मैंने कमरे का दरवाज़ा बड़ी उमीदों से खोला मगर जब भीतर का दृश्य देखा तो मेरी सारी उमीदें टूट कर चकना चूर हो गईं! ये अब भी उसी हालत में थे जिस हालत में कल मैं इन्हें छोड़ गई थी, जब उम्मीद टूटी तो होंसला भी टूटने लगा मगर मैं हिम्मत नहीं हारना चाहती थी इसलिए जैसे-तैसे खुद को सँभाला| मैंने रोज की तरह पिताजी के पाँव छुए और उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया, पिताजी ने बताया की उन्होंने कुछ देर पहले मेरे पिताजी से बात कर उन्हें यहाँ के हालात की सूचना दी तथा मेरे पिताजी कल सुबह बस से दिल्ली पहुँच रहे थे| इतने में अनिल का फ़ोन पिताजी के मोबाइल पर आया और उसने बताया की वो भी कल सुबह तक दिल्ली पहुँच रहा है| सच कहूँ तो कल की घटना इतनी अचानक थी की मुझे अपने मायके में खबर देना याद ही नहीं रहा!

बहरहाल, मुझे पिताजी से अब अपने दिल की बात करनी थी| मैंने अपनी सारी हिम्मत जुटाई और पिताजी के सामने सर झुकाये हुए बोली; "पिताजी, मैंने आजतक आपसे कुछ नहीं माँगा, क्योंकि कभी आपसे कुछ माँगने की जर्रूत नहीं पड़ी लेकिन आज मैं आपसे कुछ माँगना चाहती हूँ और आशा करती हूँ की आप मुझे मना नहीं करेंगे|" मेरी बात पूरी हुई तो पिताजी बड़े प्यार से बोले; "बोल बेटी, मैं भला अपनी बेटी को क्यों मना करूँगा?" पिताजी ने मुझ पर पूरा विश्वास जताते हुए कहा| रिश्ते से भले ही पिताजी मेरे ससुर थे मगर वो मुझे हमेशा अपनी बेटी की तरह प्यार करते थे तभी तो जब मेरे कारण इनकी (मेरे पति की) जान पर बन आई तब भी उन्होंने मुझे एक शब्द नहीं कहा|

"पिताजी, मुझसे इनकी ये जुदाई बर्दाश्त नहीं होती| इन्हें अपनी आँखों के सामने देख कर दिल को सुकून मिलता है इसलिए आज से मैं 24 घंटे यहीं रह कर इनकी देख-भाल करना चाहती हूँ|" मैंने पिताजी के आगे हाथ जोड़ते हुए विनती की| मेरे अस्पताल में 24 घंटे रुकने की बात सुन पिताजी चिंतित हुए और बोले; "बेटा, तू माँ बनने वाली है और ऐसे में तू यहाँ रात को अकेली रुकेगी..." इतना कह पिताजी एक पल को खामोश हो गए| उनके चेहरे पर गंभीर चिंता की रेखाएँ थीं! आजकल के समय में जब बहु-बेटियों के साथ अश्लीलता होती है उसका जिक्र पिताजी मेरे सामने करने से क़तरा रहे थे इसलिए उन्होंने बात थोड़ी घुमा कर कही; "बेटी, कुछ ऊँच-नीच हो गई तो हम मानु को क्या जवाब देंगे?" मैंने पिताजी के आगे गिड़गिड़ाते हुए कहा; "आप मेरी बिलकुल चिंता न करें पिताजी, मैं अपना पूरा ध्यान रखूँगी! लेकिन मुझे इनसे दूर मत कीजिये, मुझे पूरा यक़ीन है की मेरे यहाँ होने से, मेरे द्वारा इनकी देखभाल करने से ये जल्दी हमारे पास लौट आएंगे! Please पिताजी, मैं आपसे विनती करती हूँ!" ये कहते हुए मेरी आँखें भीग गईं थीं, मेरी ये दुर्दशा देख माँ को मुझ पर तरस आया और उन्होंने मुझे सँभाला; "बहु की बात मान जाइये, दिन भर हम भी तो यहाँ होंगें ही बहु का ध्यान रखने के लिए और रही रात की बात तो उसका भी हम कोई प्रबंध कर देंगे|" माँ पिताजी से बोलीं| इधर मैं माँ से लिपट कर सिसकने लगी थी; "मुझसे बहु को यूँ तड़पते हुए नहीं देखा जाता, अब बस एक यही तो है..." इतना कहते हुए माँ खामोश हो गईं| माँ की हताशा से भरी बात सुन ऐसा लगता था की वो हिम्मत हार चुकी हैं| मैंने फ़ौरन अपने आँसूँ पोछे और माँ को ढाँढस बँधाते हुए बोली; "माँ, हम ये लड़ाई हारे नहीं हैं और न ही हारेंगे! थोड़ा समय लगेगा मगर सब कुछ ठीक हो जायेगा|" मैंने जिस यक़ीन और विश्वास से अपनी बात कही थी उसे सुन माँ को अपनी गलती महसूस हुई और उनकी आँख भर आई| मैंने माँ की पीठ सहला कर उन्हें रोने से रोका और पिताजी से बोली; पिताजी आप और माँ घर जाइये, घर पर खाना बना हुआ है आप खा कर थोड़ा आराम कर लीजिये तब तक मैं हूँ यहाँ|" माँ-पिताजी दोनों मुझे अकेला छोड़ कर नहीं जाना चाहते थे मगर माँ का अपने बेटे को इस हालत में देख दिल बहुत दुःख रहा था, वो कहीं टूट न जाएँ इसलिए पिताजी उन्हें ले कर घर चले गए तथा दोपहर को खाना ले कर आने का बोल गए|

माँ-पिताजी के जाने के बाद कमरा बिलकुल सुनसान था, मैं इनके बाईं तरफ बैठी थी और इनका बायाँ हाथ अपने हाथों में लिए इनके चेहरे को देख रही थी की काश इनकी पलकें थोड़ी सी हिल जाएँ! 2 जनवरी से आज तक मैंने इनसे ढंग से बात नहीं की थी और आज जब ये बोल नहीं सकते थे तो मेरा मन इनकी आवाज सुनने तथा इनसे बात करने को व्यकुल था| "मैंने आपको बहुत दुःख दिए हैं न?" मैंने बात शुरू करते हुए इनसे कहा और उम्मीद करने लगी की मेरे खुद को दोष देने से ये अभी बोल पड़ेंगे की; 'ऐसा मत कहो' मगर ऐसा नहीं हुआ| "जब से ये हादसा हुआ तब से आप मुझे हँसाने-बुलाने की अनेकों कोशिशें करते रहे मगर मैंने अपना दुःख, अपना दर्द, अपना डर आपसे छुपाया और अनेकों बार आपकी कोशिशों को नाकाम करते हुए जानते-बूझते आपका तिरस्कार किया! आपने माँगा ही क्या था मुझसे, बस इतना ही की मैं हँसूँ, बोलूँ, प्यार से बात करूँ, आपको प्यार करूँ, हमारे घर को सम्भालूँ, हमारे माँ-पिताजी का अच्छे से ख्याल रखूँ, बच्चों को प्यार दूँ और मुझसे इतना भी नहीं हुआ, आपकी कोई ख़ुशी मैं पूरी न कर पाई!" मैंने खुद को दुत्कारते हुए कहा, परन्तु इनके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, ये देख मैं रो पड़ी और इनसे गिड़गिड़ा कर माफ़ी माँगने लगी; "Please...please जानू मुझे माफ़ कर दो! एक आखरी बार मुझे माफ़ कर दो, मैं वादा करती हूँ की आज के बाद आपकी हर बात मानूँगी, कभी उदास नहीं रहूँगी, आपको, माँ को, पिताजी को, बच्चों को सबका प्यार से ख्याल रखूँगी! Please जानू, मेरे पास वापस आ जाओ...please...please...please...मैं...मैं फिर से वही पुरानी वाली संगीता बन जाऊँगी जो आपको बहुत प्यार करती थी...please जानू...please उठ जाओ!" मेरी इतनी सारी मिन्नतों का इन पर रत्तीभर भी असर नहीं हुआ! आज जा कर मुझे एहसास हुआ की कैसा लगता है जब आपको इतना चाहने वाला इंसान आपसे बात करना चाहे और आप उससे मुँह मोड़कर दुत्कार दो! उस पीड़ा को लिख पाना आसान नहीं!

अभी भी इनका जिस्म कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा था जिस कारण मुझे दुत्कारे जाने की अनुभूति हुई थी वरना अगर ये होश में होते तो कभी ऐसा नहीं करते| तो कुछ इस तरह से मैंने आज इनके उस दुःख को महसूस किया जो इन्होने किया था जब मैं इन्हें बिना कोई जवाब दिए, मुँह-मोड़ कर चली जाया करती थी|
मेरे हाथों में इनका हाथ था पर मेरी नजरें इनके चेहरे पर टिकी थीं की शायद ये कुछ प्रतिक्रिया दे दें| इनकी प्रतक्रिया का इंतजार करते-करते दोपहर के दो बज गए, माँ-पिताजी और बच्चे सब एक-एक कर कमरे में घुसे| बच्चों ने तो अपने पापा को घेर लिया, सबसे पहले नेहा ने इनके दाएँ गाल की पप्पी ली क्योंकि ये उसका एक दैनिक कार्य था, फिर नेहा ने आयुष को पलंग पर चढ़ाया तथा उसने भी अपने पापा के बाएँ गाल की पप्पी ली| "दीदी, पापा कब उठेंगे?" आयुष ने भोलेपन से नेहा से सवाल किया| मुझे लगा था की ये सवाल सुन नेहा रो पड़ेगी मगर उसने खुद को सँभाला और आयुष को प्यार से समझाने लगी; "आयुष, मुन्नार से आ कर पापा ने बहुत काम किया न इसलिए वो ज्यादा थक गए हैं इसलिए डॉक्टर आंटी ने कहा है की पापा को ज्यादा से ज्यादा आराम करना है|" अपनी दीदी की बात सुन आयुष ने फिर सवाल पूछने के लिए मुँह खोला मगर तभी पिताजी ने आयुष को आवाज दे कर अपने पास बुलाया और उसका ध्यान भटका दिया| आयुष तो अपने दादा जी की गोदी में बैठ कर सो गया मगर नेहा अब भी अपने पापा के पास बैठी थी तथा मेरी ही तरह टकटकी बाँधें अपने पापा को देखने में लगी थी, इस उम्मीद में की शायद इनके चेहरे पर कोई प्रतक्रिया हो?!

माँ, पिताजी और बच्चों ने घर पर ही खाना खा लिया था तथा मेरे लिए माँ खाना पैक कर के लाईं थीं| मेरी खाना खाने की बिलकुल इच्छा नहीं थी मगर माँ ने प्यार से जोर-जबरदस्ती कर मुझे खाना खिला ही दिया| मेरे खाना खाने के बाद पिताजी ने मुझे थोड़ी चिंताजनक बात बताई; "बेटी, आज नेहा के स्कूल से फ़ोन आया था|" जैसे ही पिताजी ने इतनी बात कही की नेहा का सर झुक गया| "उसकी (नेहा की) क्लास टीचर ने बताया की नेहा आज सारा दिन रो रही थी| जब टीचर ने नेहा से रोने का कारण पुछा तो नेहा ने उन्हें सारी बात बताई की मानु कोमा में है| रोते-रोते नेहा ने टीचर से कहा की जब तक मानु ठीक नहीं हो जाता उसे स्कूल से छुट्टी चाहिए, टीचर ने नेहा को बहुत समझाया मगर नेहा ने जिद्द पकड़ ली की वो मानु के ठीक होने तक स्कूल नहीं आएगी| हारकर नेहा की टीचर ने मुझे फ़ोन किया, मैंने भी नेहा को बहुत समझाया मगर ये मानने को तैयार नहीं, अब तू ही इसे समझा!" ये कहते हुए पिताजी ने नेहा को समझाने की बागडोर मेरे ऊपर छोड़ दी, मैंने जब नेहा की ओर देखा तो वो सर झुकाये सब सुन रही थी| वो जानती थी की इस तरह स्कूल न जाने की उसकी जिद्द गलत है मगर अपने पापा के प्रति उसका मोह इस वक़्त सही गलत में फर्क नहीं करने दे रहा था|

कल से ले कर अभी तक नेहा मुझसे उखड़ी हुई थी, उसके मन में मौजूद मेरे लिए नफरत मैं पहले ही महसूस कर चुकी थी, ऐसे में मुझे जल्दबाजी दिखाना ठीक नहीं लगा| "पिताजी, ठीक ही तो है! कल से मैं ओर नेहा दोनों मिल कर यहाँ इनका ख्याल रखेंगे|" मैंने पिताजी की ओर देखते हुए कहा| मुझे यूँ नेहा का पक्ष लेता देख पहले तो माँ-पिताजी हैरान हुए, लेकिन फिर उन्हें मेरी चतुराई समझ आई और उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा| ऐसा नहीं था की मुझे नेहा का यूँ अपनी पढ़ाई को हलके में लेना सही लग रहा था, मुझे उसे समझाना था लेकिन अभी उसके लिए समय सही नहीं था|

हम चारों कमरे में बैठे थे, माँ-पिताजी की बैठे-बैठे आँख लग गई थी मगर मैं और नेहा अब भी जाग रहे थे| तभी दिषु भैया आ गए, अपने भाई समान दोस्त की ये हालत देख वो बहुत दुखी हुए| दरअसल दिषु भैया ऑडिट के लिए दिल्ली से बाहर गए थे और जब उन्हें इनकी हालत का पता चला तो वो दौड़े-दौड़े दिल्ली लौट आये| "भाभी...ये..." इतना कहते हुए दिषु भैया की आँखें नम हो गईं| माँ ने दिषु भैया के सर पर हाथ फेर उन्हें रोने से रोका| दिषु भैया ने इनकी देख-रेख करने की बात कही तो मैंने उन्हें प्यार से समझाते हुए कहा; "भैया, आप सारा दिन यहाँ रुकेंगे तो आपकी जॉब का क्या होगा? मैं यहाँ हूँ इनकी देख-रेख करने के लिए, फिर मेरा भाई अनिल भी आ रहा है इसलिए आप बिलकुल चिंता मत कीजिये| जैसे ही इन्हें होश आएगा मैं तुरंत आपको फ़ोन कर के बताऊँगी और अगर मुझे किसी भी चीज़ की जरूरत लगी तो मैं आप ही को फ़ोन करूँगी|" मैंने दिषु भाई को आश्वस्त करते हुए कहा| दिषु भैया मेरी बात मान गए, उनके मन में इनकी देखभाल को ले कर कोई चिंता नहीं थी मगर उनकी उत्सुकता ये जानने में थी की आखिर ये सब हुआ कैसे| मैंने खुद ही आगे बढ़कर, नेहा के सामने उन्हें सारी बात बताई और मेरी सारी बात सुन वो दंग रह गए| वो खुद को दोष देने लगे की क्यों वो उस समय यहाँ नहीं थे जब उनका भाई (ये) इस मानसिक तनाव से जूझ रहा था! "बेटा, जो हो गया सो हो गया! अभी जरूरी ये है की मानु पूरी तरह ठीक हो जाए|" पिताजी दिषु भैया को समझाते हुए बोले| इतने में आयुष जाग गया और अपने दिषु चाचू को देख कर उनके पास दौड़ा| दिषु भैया ने उसे लाड किया और थोड़ा घुमा कर ले आये| इनके लिए दिषु भैया ने दिल्ली से बाहर की अपनी सारी ऑडिट कैंसिल कर दी और सुबह-शाम इनका हाल-पता लेने के लिए बराबर आते रहे|

धीरे-धीरे समय बीता और रात के 8 बज गए, पिताजी ने एक बार फिर मुझे प्यार से समझा-बुझा कर माँ के साथ घर जाने को कहा मगर मैंने पिताजी से दुबारा विनती कर उन्हें मेरे रात अस्पताल में रुकने के लिए मना लिया| मुझे और नेहा को अपने पापा के पास अस्पताल में रुकता देख आयुष ने भी रात यहीं रुकने की विनती की मगर नेहा ने उसे अपने पास बुला कर खुसफुसाते हुए समझाया; "देख आयुष, मैं यहाँ रुक रहीं हूँ, तू भी यहीं रुकेगा तो घर पर दादा जी और दादी जी का ख्याल कौन रखेगा?" ये सुन आयुष ने एकदम से अपने दादा-दादी जी की जिम्मेदारी ले ली और मुस्कुराते हुए अपनी दादी जी की टाँगों से लिपट गया|

माँ-पिताजी ने दोनों भाई बहन की बात नहीं सुनी थी उनके लिए तो यही काफी था की आयुष के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान है| अब पिताजी ने नेहा को भी एक बार मनाने की कोशिश की तो नेहा ने सर झुका कर न में गर्दन हिला दी| मैंने माँ को इशारे से कहा की आज रात नेहा को मेरे साथ ही रुकने दो, लेकिन एक प्यारभरी कोशिश माँ को भी करनी थी इसलिए उन्होंने ठंडी आह भरते हुए कहा; "नेहा बेटा, तेरे बिना मुझे नींद नहीं आती तो मैं कैसे सोऊँगी?" अपनी दादी जी की बात सुन नेहा ने बड़े तपाक से जवाब दिया; "दादी जी, आयुष है न आपके पास सोयेगा| एक बार पापा जी ठीक हो जाएँ फिर मैं रोज आप ही के पास सोऊँगी| Promise!" माँ को नेहा के तपाक से जवाब देने पर प्यार आ गया और उन्होंने बड़े प्यार से नेहा के सर पर हाथ फेरते हुए उसे आशीर्वाद दिया| उधर पिताजी, दादी-पोती को देख कर थोड़ा हैरत में थे की भला माँ इतनी जल्दी अपनी पोती के आगे हार कैसे मान बैठीं?! "कोई बात नहीं जी, आज मेरी बिटिया (नेहा) को उसकी माँ के साथ यहीं रहने दो|" माँ ने थोड़ा मुस्कुराते हुए पिताजी से कहा| नेहा ने भी अपने दादा जी के पाँव छुए और अपने दादा जी को घर जाने से मना करने के लिए सॉरी कहा| माँ, पिताजी और आयुष घर चले गए तथा घंटे भर बाद पिताजी हम माँ-बेटी का खाना अस्पताल में दे कर घर लौट गए|

मैंने कमरे का दरवाजा अंदर से बंद किया और हम माँ-बेटी ने चुप-चाप खाना खाया| अब सोने की बारी थी, कमरे में एक सोफे था जिस पर बस एक व्यक्ति सो सकता था| मैंने सोचा की नेहा सोफे पर सो जायेगी और मैं नीचे फर्श पर चादर बिछा कर लेट जाऊँगी, मैं ये बात नेहा से कहती उससे पहले ही नेहा बोल पड़ी; "मैं नीचे सोऊँगी, आप सोफे पर सो जाओ|" इतना कह नेहा अपने पापा के पास गई और उन्हें पप्पी दे कर वापस आ कर लेट गई| आज नेहा ने जो मुझसे थोड़ी सी बात की थी मेरे लिए यही बहुत था|

मैं पिछले 24 घंटे से भी ज्यादा समय से नहीं सोइ थी, उस पर आज दिनभर एक ही जगह बैठे रहने से मेरे ऊपर थकान असर दिखा रही थी इसलिए लेटने के कुछ ही देर में मेरी आँख लग गई| रात के करीब बारह बजे होंगे, कमरे में पूरा अँधेरा था बस इनके पलंग के पास हलकी सी रौशनी थी| अचानक किसी के बात करने की आवाज से मेरी नींद खुल गई, मुझे लगा इन्हें होश आ गया है और ये सोच कर मेरी तो जैसे ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा तथा मैं तुरंत उठ बैठी| जैसे ही मैं उठ कर बैठी तो मैंने आवाज ध्यान से सुनी और तब मुझे पता चला की ये आवाज नेहा की थी जो अपने पापा से बात करने में लगी थी! मैं बिना कोई आवाज किये फिर से लेट गई तथा नेहा की बात सुनने लगी; "पापा जी, आप मुझसे नाराज हो? बोलो न पापा जी?" नेहा बोली और अपने पापा के चेहरे को बड़े गौर से देखने लगी, इस उम्मीद में की शायद ये कोई प्रतक्रिया दे दें| "आप मम्मी से बात नहीं करना चाहते, ठीक है मगर मैंने क्या किया जो आप मुझसे भी बात नहीं कर रहे? आप तो सबसे ज्यादा मुझसे प्यार करते हो न, फिर मुझसे बात क्यों नहीं कर रहे?" नेहा को लग रहा था की चूँकि ये मेरे उखड़े व्यवहार के कारण नाराज थे इसीलिए इन्होने सबसे बात करनी बंद कर रखी है| "पापा जी, अभी है न मम्मी सो रही है तो आप और मैं आराम से बात कर सकते हैं| मैं वादा करती हूँ की मैं किसी को नहीं बताऊँगी की आपने मुझसे बात की, it'll be our secret! Okay?" ये कहते हुए नेहा अपना कान इनके होठों के पास ले आई ताकि ये धीरे से उसके (नेहा के) कान में कुछ बोलें|

नेहा का दिल इतना मासूम था की उसे बस अपने पापा की आवाज सुननी थी, उस छोटी सी बच्ची को सही-गलत समझ नहीं आ रहा था| मुझसे नेहा की ये हालत नहीं देखि जा रही थी, मुझे डर था की कहीं उसे कोई सदमा ने लग जाए इसलिए मैं उठ बैठी और कमरे की लाइट जला दी| लाइट जलते ही नेहा ने मुझे देखा और वो आँखें बड़ी कर के मुझे हैरानी से देखने लगी, वो ऐसे डर रही थी मानो मैंने उसकी कोई चोरी पकड़ ली हो!

"नेहा, बेटा इधर आओ|" मैंने नेहा को अपने पास सोफे पर बैठने के लिए कहा तो नेहा चुपचाप सर झुकाये मेरे पास आ कर खड़ी हो गई| "बेटा, आप कल रात से मुझसे बात नहीं कर रहे हो! I'm really sorry की कल मैंने आपको सबके सामने डाँटा!" मैंने अपने कान पकड़ते हुए नेहा से माफ़ी माँगी मगर नेहा ने कोई प्रतक्रिया नहीं दी! ऐसा लगा मानो उसे मेरा सॉरी चाहिए ही नहीं था! अब जब तक नेहा मुझे माफ़ नहीं करती तब तक मैं उसे स्कूल जाने के लिए नहीं मना सकती थी इसलिए मैंने दुबारा उसे सॉरी कहा; "Seriously sorry बेटा! अब क्या जिंदगी भर आप मुझसे नाराज रहोगे?" ये सुनते ही नेहा की चुप्पी टूटी और उसने अपनी नाराजगी जाहिर की; "मैं आपसे इसलिए नाराज नहीं की आपने कल मुझे डाँटा!" नेहा अभी भी सर झुकाये हुए बोली|

नेहा की बात सुन मेरी उत्सुकता ये जानने के लिए बढ़ गई की आखिर वो मुझसे नाराज क्यों है; "तो?" मैंने कभी नहीं सोचा था की मेरा पुछा ये एक छोटा सा सवाल मेरी बेटी के गुस्से को भड़का देगा| नेहा गुस्से से मेरी नजरों से नजरें मिलाते हुए मुझ पर बरस पड़ी; "आपकी वजह से पापा जी की तबियत खराब हुई!" नेहा मुझ पर गुस्से से आरोप लगाते हुए बोली| "आज जो भी हमारे घर की हालत है ये सब आपकी वजह से हुआ है! आपने कभी पापा को प्यार ही नहीं किया, जबकि पापा आपसे इतना प्यार करते हैं की सिर्फ आपके लिए वो (ये) उससे (चन्दर से) भी लड़ पड़े! लेकिन आपको पापा की कोई कदर ही नहीं क्योंकि आप उनसे प्यार ही नहीं करते!" जिस तरह से नेहा मुझ पर बार-बार इनसे प्यार न करने का आरोप लगा रही थी उससे मेरा दिल बहुत दुःख रहा था मगर आज मैं अपनी ही बेटी के ये गुस्सैल तेवर देख कर डरी हुई थी इसीलिए खामोश थी| "पाँच साल पहले भी आपने पापा को खुद से दूर कर दिया था!" नेहा की ये बात सुन मेरे पाँव तले ज़मीन खिसक चुकी थी! 'पाँच साल पहले नेहा बहुत छोटी थी, तो उसे ये बात कैसे पता?' मन में उठे इस सवाल से मेरे चेहरे पर चिंता की रेखा दिख रही थी| मेरी चिंता समझ नेहा मेरे मन में उठे सवाल का जवाब देते हुए बोली; "उस दिन जब आपने पापा को कुछ काम से घर बुलाया था और पापा मेरे लिए गिफ्ट लाये थे तब मैंने छुपकर आप दोनों की सारी बातें सुन ली थी|"

"बेटा..." मैंने नेहा को पाँच साल पहले की हुई मेरी गलती की सफाई देनी चाही मगर नेहा आज कुछ भी सुनने के मूड में नहीं थी, उसका गुस्सा आज चरम पर था, उसने फ़ौरन मेरी बात काट दी; "आपको कभी किसी की परवाह नहीं थी, मेरी...आपकी बेटी की भी नहीं! क्या सच में आपको नहीं पता था की मेरी स्कूल जाने की उम्र हो गई है? 4 साल अगर मैं गाँव में पढ़ पाई तो सिर्फ मेरे पापा की वजह से वरना आपने तो दिल्ली आने की ख़ुशी में मेरी पढ़ाई ही छुड़वा दी थी! जितना मुझे याद है, उसके अनुसार मेरे अभी तक के जीवन का सबसे सुखद समय और हसीन यादें सिर्फ और सिर्फ उसी समय की हैं जब पापा गाँव आये थे| और अगर मैं गलत नहीं तो आपके जीवन का भी सबसे सुखद समय तभी था जब पापा गाँव आये थे| गाँव में सिवाए पापा के कोई नहीं था जिसने मुझे प्यार किया, किसी को मेरी पसंद न पसंद नहीं पता, यहाँ तक की आपको भी नहीं पता! सिर्फ पापा जानते हैं की मुझे चिप्स कितने पसंद हैं, मीठे में रसमलाई कितनी पसंद है, कहानी सुनना कितना पसंद है मगर आपसे मेरी ख़ुशी बर्दाश्त नहीं हुई तभी तो आपने सब जानते-बूझते पापा को खुद से ही नहीं बल्कि मुझसे भी दूर कर दिया! अरे आपको अपनी ख़ुशी का ख्याल नहीं था तो कम से कम मेरी ख़ुशी का ख्याल किया होता? ओह्ह...हाँ..याद आया, क्या सफाई दी थी आपने पापा को खुद से इतने साल दूर रखने की कि आपकी वजह से उनका career खराब हो जाता, तो आज जो उनकी ये हालत है उसका जिम्मेदार कौन है?

आपने...आपने पापा से बात बंद कर के उन्हें एकदम से अकेला कर दिया था! आखिर उन्होंने ऐसा क्या कहा था आपसे जो आपसे नहीं किया जा रहा था? उन्होंने आपसे बस खुश रहने को कहा था न और आपसे ये भी नहीं हुआ? सिर्फ आपका डर खत्म करने के लिए अगर पापा ने दुबई में बसने की बात कही तो क्या गलत कहा? वहाँ रहने से कम से कम आपका डर तो खत्म हो जाता न? लेकिन नहीं, आपको तो पापा को तकलीफ देने में मज़ा आता है न? देख लो आज आपकी वजह से दादा जी, दादी जी सब परेशान हैं!" इतना कह नेहा ने एक गहरी साँस ली और अपनी हिम्मत बटोरने के लिए रुकी क्योंकि आगे जो वो कहने वाली थी वो इतनी पीड़ा दायक बात थी की मेरे पास उस दर्द को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं!

"एक बात कहूँ, YOU DON'T DESERVE HIM!!! इतना loving और caring husband पाने की आपकी हैसियत नहीं!" नेहा की आवाज में गुस्सा बढ़ता जा रहा था|

"आप जानते हो क्यों मैंने स्कूल जाने से मना किया, क्योंकि जिस दिन पापा को होश आया और उनकी नजर आप पर पड़ी तो उनका गुस्सा फिर फूटेगा! उनको आये इस गुस्से से कहीं वो फिर से बीमार न पड़ जाएँ बस इसीलिए मैंने अपनी क्लास टीचर से स्कूल न आने की बात कही| मैं चाहती हूँ की जब पापा को होश आये तो वो पहले मुझे देखें, मुझे अपने गले लगाएँ, सिर्फ मुझसे बातें करें और तब आप मुझे उनके आस-पास भी नहीं दिखोगे!" इतना कह नेहा ने एक और गहरी साँस ली तथा अपनी अंतिम बात कही; "I HATE YOU.I SERIUOSLY HATE YOU MUMMY!" नेहा मुझे कोसते हुए बोली और गुस्से में फर्श पर बिस्तर पर मेरी ओर पीठ कर के सो गई|

अपनी बेटी के मुँह से इतनी चुभने वाली बातें सुन मैंने उठ कर कमरे की लाइट बुझाई और सोफे पर लेट कर सिसकने लगी! मेरी बेटी ने आज एक भी बात गलत नहीं कही थी, मैं इतनी स्वार्थी थी की मैंने कभी ये देखा ही नहीं की मेरी बेटी बड़ी होने लगी है तथा अपने मम्मी-पापा की बातें छुप कर सुनने और समझने लगी है| हलाँकि ये कभी बच्चों से कोई बात नहीं छुपाते थे मगर वो कुछ निजी बातें जो हमारे बीच हुईं थीं, नेहा ने वो सब सुन ली थी और आज मैं अपनी बेटी के आगे ही दोषी साबित हो चुकी थी| आज जो नेहा ने मुझे असलियत का आइना दिखाया था उस में अपनी ये स्वार्थी छबि देख मुझ खुद पर घिन्न आने लगी थी| अपने बच्चे जब आपसे ही नफरत करने लगते हैं तो जिंदगी में जीने के लिए कुछ नहीं रह जाता| जब नेहा ने अंत में वो कठोर शब्द कहे तो एक माँ का दिल टूट कर चकना चूर हो गया! अब मुझे मेरे किये इस पाप का प्रायश्चित किसी भी हाल में करना था| मैं अपने बच्चों के सर से उनके पापा का साया कभी उठने नहीं देने वाली थी, कम से कम मेरे जीते-जी तो ये नहीं होने वाला था वरना इनके साथ मैं भी अपने प्राण त्याग देती!

वो सारी रात मैंने जागते हुए भगवान से प्रार्थना करते हुए काटी| अगली सुबह सात बजे माँ-पिताजी आयुष को स्कूल छोड़ कर आ गए| माँ-पिताजी सोफे पर बैठे थे और मैं इनके पास स्टूल पर बैठी थी, नेहा अभी सो रही थी इसलिए पिताजी ने मुझसे पुछा की क्या मैंने नेहा को कल रात स्कूल जाने के लिए समझा दिया तो मैंने कहा; "नहीं पिताजी, कल थक गई थी इसलिए बात करने का समय नहीं मिला| आज मैं नेहा को समझा दूँगी और वो कल से स्कूल भी जायेगी|" मैंने नक़ली मुस्कान और झूठे आत्मविश्वास के साथ कहा| कल रात जो नेहा ने मुझे अच्छे से झाड़ा था उसकी बात मैंने माँ-पिताजी से छुपाई वरना नेहा को बहुत डाँट पड़ती| खैर, पिताजी को मेरी बात से आश्वासन मिल गया था और वो अब नेहा को ले कर निश्चिंत हो गए थे|

मैं, माँ और पिताजी अभी चाय पी ही रहे थे की नेहा उठ गई, आँख मलते-मलते हुए वो सीधा अपने पापा के पास पहुँची तथा अपना पापा को सुबह की गुड मॉर्निंग वाली पप्पी दे कर वो बाथरूम चली गई| सुबह की गुड मॉर्निंग वाली पप्पी नेहा बस अपने पापा को देती थी, आयुष ने नेहा को देख कर ये नियम सीखा था मगर वो मुझे और इन्हें दोनों को गुड मॉर्निंग वाली पप्पी देता था|

इधर जैसे ही नेहा बाथरूम से बाहर निकली की मेरा बेटा (छोटा भाई) अनिल आ गया| अपना बैग रख उसने सबसे पहले माँ-पिताजी के पाँव छुए और सीधा अपने जीजू की तबियत के बारे में पूछने लगा; "पिताजी, ये सब कैसे हुआ? जीजू तो एकदम भले चंगे थे?" अनिल चिंतित स्वर में बोला|

इससे पहले की पिताजी जवाब देते, नेहा बाथरूम के पास से ही मेरी ओर ऊँगली से इशारा करते हुए बोल पड़ी; "सब मुम्मी की वजह से हुआ है!" नेहा के चेहरे से उसका गुस्सा झलक रहा था| नेहा की बात सुन अनिल भोयें सिकोड़ कर कभी मुझे देखता तो कभी नेहा को, उसे समझ नहीं आ रहा था की हमेशा शांत रहने वाली उसकी भाँजी आज आग-बबुली कैसे हो गई?! उधर, पिताजी को नेहा का ये बात करने का रवैया गुस्सा दिला गया और आज पहलीबार उन्होंने नेहा को झिड़क दिया; "नेहा! बहुत बद्तमीज हो गई है तू! ऐसे बात करते हैं अपने से बड़ों से?" अपने दादा जी की झिड़की सुन नेहा को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने सर झुका कर अपने कान पकड़े और बोली; "सॉरी दादा जी!" मैं उठ कर नेहा के पास गई और उसे अपने सीने से लगा कर पुचकारने लगी ताकि कहीं वो रो न पड़े मगर नेहा न तो कुछ बोली और न ही रोई, मानो जैसे उसकी आँखों का पानी सूख चूका हो!

उधर ये दृश्य देख अनिल असमंजस में था, उसके मन में अनेकों सवाल उठ रहे थे मगर सबसे पहले उसे ये जानना था की आखिर उसके जीजू को हुआ क्या है इसलिए उसने पुनः अपना सवाल दुहराया; "बताइये पिताजी, जीजू को क्या हुआ है? गाँव से पिताजी ने फ़ोन किया तो बस इतना कहा की तेरे जीजू अस्पताल में भर्ती हैं तू जल्दी से दिल्ली पहुँच, तो मैं उसी वक़्त ट्रैन पकड़ कर चल पड़ा|"

अनिल के सवाल का जवाब देने के लिए मैं अपना इक़बाल-ऐ-जुर्म करने को तैयार थी; "सब मेरी..." बस इतना सुनना था की माँ ने मेरी बात काट दी और सारी बात का रुख पलट दिया; "बेटा, एक तो काम की परेशनी चल रही थी उस पर जो चन्दर यहाँ आया और जो घर में काण्ड हुआ, इसी वजह से ये सब हुआ|" माँ ने बात गोल-मोल कही मगर अनिल उनकी बात पर विश्वास कर बैठा| इधर पिताजी ने अनिल को इनकी मेडिकल कंडीशन समझाई और उधर माँ ने मेरी तरफ देखा तथा अपनी गर्दन न में हिला कर मुझे कुछ भी कहने से रोक दिया, मैंने भी शर्म से अपनी गर्दन झुका ली क्योंकि माँ को मेरी इज्जत बचाते देख मैं बहुत शर्मिंदा हो गई थी|

पिताजी भी मेरी इज्जत बचाने के लिए माँ के साथ हो लिए और बात को बदलते हुए अनिल से अपने समधी-समधन (मेरे माँ-पिताजी) के बारे में पूछने लगे; "बेटा, समधी जी और समधन जी आज आने वाले थे मगर अभी तक आये नहीं गाँव में सब ठीक तो है?" मेरे पिताजी ने कहा था की वो और माँ आज सुबह आ जायेंगे, जब वो नहीं आये तो माँ-पिताजी (मेरे ससुर जी और सासु माँ) को उनकी चिंता हुई| "जी सब कुशल मंगल से हैं| दरअसल मैंने माँ-पिताजी को मुंबई घूमने बुलाया था मगर काम में व्यस्त होने के कारन पिताजी ने आने से मना कर दिया| वो तो मेरे कॉलेज का एक दोस्त लखनऊ का रहने वाला है तो मैंने पिताजी से कहा की माँ को उसी के साथ भेज दो, तब जा कर पिताजी ने माँ को जाने दिया| कल जब आपका फ़ोन गाँव पहुँचा तो पिताजी ने मुझे और माँ को सीधा दिल्ली आने को कहा, मगर माँ गाँव जाने के लिए मेरे दोस्त के साथ ही निकल चुकी थीं| आज दोपहर के आस-पास माँ लखनऊ पहुंचेंगी फिर माँ-पिताजी वहाँ से सीधा दिल्ली के लिए चल पड़ेंगे|" माँ के यूँ घर से बाहर निकल कर घूमने-फिरने की बात सुन मुझे ख़ुशी हुई थी और कहने की जर्रूरत नहीं की ये सब मेरे पति के कारण ही हो पाया है वरना पिताजी तो कभी माँ को घर से अकेले बाहर आने-जाने नहीं देते थे|

अनिल को आये हुए लगभग 1 घंटा हो गया था और उसने अभी तक कुछ खाया नहीं था इसलिए पिताजी ने उसे घर चल कर आराम करने को बोला मगर अनिल ने एकदम से मना कर दिया; "पिताजी, मैं यहाँ आराम करने थोड़े ही आया हूँ! मैं यहीं जीजू के पास रुकता हूँ, आप सब घर जा कर आराम कर लीजिये| अगर कोई जर्रूरत पड़ी तो मैं आपको फ़ोन कर दूँगा|" अनिल ने पूरे आत्मविश्वास से अपने जीजू के देखभाल की जिम्मेदारी लेते हुए कहा| अपने बेटे (भाई) को इस तरह जिम्मेदारी लेता देख मुझे गर्व हो रहा था मगर इनकी जिम्मेदारी तो मैं पहले ही ले चुकी थी इसलिए मैंने अनिल को हुक्म देते हुए कहा; "नहीं बेटा, मैं हूँ यहाँ| तू जा कर कपड़े बदल कर फ्रेश हो जा और फिर यहाँ वापस आ|" चूँकि मैं अनिल की बड़ी बहन थी तो वो बिना किसी बहस के मेरी हर बात मान लेता था|

माँ, पिताजी और अनिल घर के लिए निकले, चलते-चलते माँ मुझे कह गईं की वो अनिल के हाथों हम माँ-बेटी (मेरे और नेहा) के लिए नाश्ता भेज देंगी| जब सब चले गए तो नेहा मेरी जगह स्टूल पर अपने पापा के पास बैठ गई और कल की ही तरह उसने अपने पापा को टकटकी बाँधे देखना शुरू कर दिया, इस उम्मीद में की ये अभी पलकें झपकायेंगे| मैं सोफे पर बैठी सोच रही थी की कैसे नेहा को स्कूल जाने के लिए समझाऊँ, कुछ सोच कर मैंने नेहा को आवाज दी; "नेहा, बेटा मेरे पास आओ|" मेरी आवाज सुन नेहा बेमन से उठी और सर झुकाये मेरे सामने खड़ी हो गई| मैंने अपने हाथ के इशारे से उसे अपने बराबर बैठने को कहा तो नेहा सर झुकाये ही बैठ गई|

"बेटा, मुझे आपसे कुछ बात करनी है|" मैंने बात शुरू करते हुए कहा मगर नेहा मेरी बात काटते हुए बोली; "सॉरी!" नेहा ने सर झुकाये हुए ही मुझे सॉरी कहा| उसका सॉरी सुन मैं सोच में पड़ गई की भला नेहा ने मुझे सॉरी क्यों बोला? लेकिन मुझे नेहा से उसके मुझे सॉरी कहने का कारन पूछने की जर्रूरत नहीं पड़ी क्योंकि वो खुद ही बोल पड़ी; "मैंने आपको सॉरी इसलिए नहीं बोला की मैंने कल रात जो मैंने कहा वो गलत था या फिर मैं कल कही अपनी बातों के लिए शर्मिंदा हूँ! बल्कि मैं आपको सॉरी इसलिए कह रही हूँ की मेरा आपसे बात करने का लहज़ा ठीक नहीं था| आप मेरी मम्मी हो और मुझे इस तरह अकड़ कर आपसे बात नहीं करनी चाहिए थी, इसलिए I'm really very sorry!" नेहा ने मेरी ओर बड़े आत्मविश्वास से देखते हुए अपने कान पकड़ कर मुझे सॉरी कहा|

नेहा की बात सुन मुझे वो दिन याद आ गया जब इन्होने मेरे लिए पहली बार अपने बड़के दादा से बहस की थी| उस दिन को याद करते हुए मेरे चेहरे पर छोटी सी मुस्कान आ गई तथा मैंने नेहा के सर पर हाथ फेरते हुए उसे ये बात बताई; "बेटा आपको एक बात बताऊँ, जब हम गाँव में थे और मुझे पता चला की मैं माँ बनने वाली हूँ उस दिन आपके पापा समेत सब घर में सब बहुत खुश थे| आपके बड़े दादा जी और बड़ी दादी जी को लड़का पैदा होने की आस थी, जबकी हम दोनों (मैं और ये) को आपकी जैसी प्यारी सी लड़की के पैदा होने की आस थी| इसी बात को ले कर आपके पापा और आपके बड़े दादा जी के बीच थोड़ी बहस हो गई, तब आपके पापा ने बिलकुल आपकी ही तरह आपके बड़े दादा जी से माफ़ी माँगी| आपके पापा ने, अपने गलत लहज़े के लिए बप्पा (बड़के दादा) से माफ़ी माँगी मगर अपनी कही सही बात के लिए नहीं!" मेरी बात सुन आखिरकर मेरी बेटी के चेहरे पर मुस्कान आ ही गई| नेहा को इस समय खुद पर बहुत गर्व हो रहा था की वो बिलकुल अपने पापा की ही तरह सोचती है|

मेरी बातों से नेहा नरम पड़ने लगी थी और यही समय था उसके साथ प्यार से तर्क कर उसे स्कूल जाने के लिए मनाने का; "बेटा, मैं आपसे एक सवाल पूछूँ?" मैंने बड़े प्यार से नेहा से पुछा और उसने सर हाँ में हिलाते हुए मुझे अपनी अनुमति दी| "बेटा, मैं जानती हूँ की आप अपने पापा को कितना प्यार करते हो और उनकी देख-रेख करने के लिए आप अपनी पढ़ाई कुर्बान कर रहे हो| लेकिन ज़रा सोचो जब आपके पापा पूरी तरह स्वस्थ हो जाएंगे और उन्हें पता चलेगा की आपने उनके लिए अपनी पढ़ाई का नुक्सान किया है तो सोचो उन्हें कितना बुरा लगेगा?! उनके दिल को कितनी ठेस पहुंचेगी और वो खुद को आपकी पढ़ाई बाधित होने के लिए दोष देंगे जिससे उनकी तबियत फिर खराब हो सकती है|

फिर उधर घर में आपके दादा-दादी जी अकेले हैं, मैं और आप यहाँ रहेंगे तो उनकी देखभाल कौन करेगा? उनकी देखभाल करने के लिए आपका वहाँ रहना जर्रूरी है न? फिर आपका भाई आयुष, उसके स्कूल का होमवर्क कौन करवाएगा?" मेरी कही इन बातों का नेहा पर प्रभाव पड़ने लगा था और वो गहन सोच में पड़ गई थी| वो अपने पापा को बहुत प्यार करती थी और उसके पापा ने ही उसे उनकी गैरहाजरी में घर सँभालने की जिम्मेदारी दी थी| मैंने बस आज नेहा को वही जिम्मेदारियाँ याद दिला दी थी| नेहा अपने दादा-दादी जी और भाई की जिम्मेदारी उठाना चाहती थी मगर उसे अपने पापा की बहुत चिंता थी| वो जानती थी की अगर वो घर गई तो यहाँ मैं अकेली उसके पापा की देखभाल करने के लिए रहूँगी और ऐसे में जब इन्हें होश आएगा और ये मुझे देखेंगे तो इनकी तबियत खराब हो सकती थी| अब मुझे नेहा को उसकी इस चिंता से मुक्त करना था; "बेटा, मैं जानती हूँ की आपको डर है की आपके पापा होश में आने के बाद मुझे देखेंगे तो गुस्से से उनकी तबियत खराब हो जाएगी, तो मैं आपको वचन देती हूँ की आपके पापा के होश में आते ही मैं उनके सामने से चली जाऊँगी और जब तक आप नहीं कहोगे मैं आपके पापा के सामने नहीं आऊँगी|" मैंने नेहा को आश्वस्त करते हुए कहा, मेरी बात सुन नेहा के दिल को चैन मिला और उसने हाँ में अपनी गर्दन हिलाई तथा उठ कर बाथरूम चली गई| मुझे लगा की वो बाथरूम में जा कर रोयेगी मगर भगवान का शुक्र है की ऐसा नहीं हुआ| 'मेरी बेटी अब बड़ी हो चुकी है, समझदार हो चुकी है, अगर मुझे कुछ हो जाए तो वो पूरा घर संभाल सकती है!' नेहा को यूँ सुलझा हुआ देख नजाने मेरे मन में ये ख्याल क्यों आया!

कुछ देर बाद हम माँ-बेटी के लिए नाश्ता ले कर अनिल आया, हमने (मैंने और नेहा ने) नाश्ता किया और नेहा फिर से अपने पापा के पास जा बैठी| इधर मैंने अनिल को अपने सामने बिठाया और उससे मदद माँगी; "बेटा, मुझे तेरी एक मदद चाहिए! कल पिताजी (मेरे ससुर जी) कह रहे थे की एक-दो जगह पैसे फँसें हुए हैं और तेरे जीजू भी दो दिन पहले कह रहे थे की कुछ प्रोजेक्ट्स पूरे होने वाले हैं| अब तू यहाँ आ ही चूका है तो मैं चाहती थी की तू सब काम सँभाल ले, पिताजी कहाँ अकेले भाग-दौड़ कर पाएँगे?!"

"आप चिंता मत करो दीदी|" अनिल आत्मविश्वास से बोला| उसके आने से मेरे दिल को थोड़ी शान्ति मिली थी की कम से कम वो पिताजी के सर से काम का बोझ उतार लेगा| नेहा चुपचाप थी इसलिए उसका मन बहलाने के लिए अनिल उससे बात करने में लग गया| दोपहर को माँ-पिताजी अस्पताल आये, अनिल ने सीधा पिताजी से काम को ले कर पुछा तो पिताजी बोले; "बेटा, अभी तो तू आया है, कुछ दिन आराम कर काम-धाम मैं देख रहा हूँ|"

"पिताजी, मैं यहाँ आराम करने नहीं बल्कि आपका हाथ बँटाने आया हूँ| जीजू के ठीक होने बाद अगर उन्हें पता चला की मैं यहाँ आराम कर रहा था तो वो मेरी क्लास लगा देंगे! हा...हा...हा...!!!" अनिल ने मजाकिया अंदाज में इनके द्वारा उसकी क्लास लगाने की बात कही तो माँ-पिताजी के चेहरे पर थोड़ी मुस्कान आ ही गई| "वैसे पिताजी, जीजू कह रहे थे की कुछ प्रोजेक्ट्स पूरे होने वाले हैं, आप मुझे उनके बारे में बता दीजिये ताकि मैं काम सँभाल लूँ|" अनिल ने जोश में अपनी बात कही और थोड़ा सा झूठ बोला| पिताजी ने जैसे ही प्रोजेक्ट का नाम सुना वो मुझे देखते हुए मुस्कुराये और अनिल से बोले; "ये प्रोजेक्ट पूरे होने वाली बात तुझे इसी शैतान (मैंने) ने बताई होगी?!" पिताजी ने अनिल की होशियारी पकड़ते हुए कहा तो अनिल के चेहरे पर भी मुस्कान आ गई| "अच्छा बेटा, अब तू इतनी जिद्द करता है तो चल मैं तुझे पार्टियों से मिलवा देता हूँ और सारा काम समझा देता हूँ| वैसे तुझे गाडी चलानी आती है न?" गाडी चलाने के सवाल पर अनिल ने गर्दन हाँ में हिलाई और पिताजी ने उसे गाडी की चाभी थमाई|

पिताजी और अनिल काम पर निकले और इधर आयुष के स्कूल की छुट्टी होने का समय हो रहा था| मैंने सोचा की माँ को क्या तकलीफ देना, मैं ही जा कर आयुष को स्कूल से ले आती हूँ| माँ और नेहा को इनके पास छोड़कर मैं आयुष को लेने उसके स्कूल पहुँची, मुझे देख आयुष बहुत खुश हुआ और मेरी टाँगों में लिपट गया| आयुष को ले कर मैं सीधा अस्पताल पहुँची और कैंटीन से हम चारों के लिए सैंडविच ले कर इनके पास कमरे में पहुँची| हम चारों ने दोपहर के खाने में सैंडविच खाये, आयुष अपनी दादी जी की गोदी में सर रख कर सो गया और हम माँ-बेटी इनके अगल-बगल बैठे रहे| जब शाम को आयुष उठा तो नेहा ने उसके स्कूल का होमवर्क कराना शुरू किया|

शाम 7 बजे पिताजी और अनिल वापस लौटे और लौटते ही पिताजी अनिल की तारीफ करने लगे; "बहु, तेरा भाई तो बहुत तेज है, आज उसने पूरे 5,000/- का फायदा करा दिया! मैंने इसे मानु की डायरी दिखाई, डायरी पढ़ते ही अनिल सारा काम समझ गया और जो नए प्रोजेक्ट्स मानु ने उठाये थे उनमें मानु ने काम समय से पहले पूरा करने के लिए 5,000/- एक्स्ट्रा लेने थे| शुक्र है की अनिल ने मानु की वो प्रोजेक्ट रिपोर्ट वाली डायरी पूरी पढ़ी थी!" पिताजी अनिल की पीठ थपथपाते हुए बोले| अपने भाई की तारीफ सुन मेरा सर फक्र से ऊँचा हो गया था| "मैंने आज अनिल को सारा काम समझा दिया है और संतोष से मिलवा दिया है, तो कल से ये दोनों मिलकर काम सँभाल लेंगे|" पिताजी के सर से अब काम का बोझ उतर चूका था, अनिल और संतोष मिल कर काम संभाल सकते थे|

[color=rgb(44,]जारी रहेगा भाग - 6(2) में...[/color]
 
जैसे ही ये गिरे मैं भागती हुई आई और इन्हें उठाया और माँ को पुकारा; "माँ..माँ..जल्दी आइए!!!" माँ उस समय अंदर के कमरे में थी| पिताजी बाहर किसी काम से गए थे| माँ ने जब इन्हें जमीन पे गिरा हुआ पाया तो वो भी घबरा गईं और मुझसे पूछने लगीं; "बहु...मानु को क्या हुआ बहु?" मैं खुद नहीं जानती थी की इन्हें क्या हुआ है? मैं बहुत ज्यादा घबरा रही थी और इनका गाल थप-थापा रही थी और माँ इनके हाथ घिसने लगी थी| इतने में नेहा भी आ गई; "नेहा जल्दी डॉक्टर सरिता को फ़ोन मिला और जल्दी यहाँ बुला, बोल पापा बेहोश हो गए हैं|" नेहा ने तुरंत फ़ोन मिलाया पर उसके चेहरे को देख के आगा की बात कुछ और है और ये देख मेरे दिल की धड़कनें बेकाबू हो गईं!

" मम्मी...डॉक्टर सरिता ने कहा की वो इस वक़्त क्लिनिक में नहीं हैं| उन्होंने कहा की हम पापा को हॉस्पिटल ले जाएं|"

मेरे कुछ कहने से पहले ही माँ बोल पड़ीं; " बेटा जल्दी से अपने दादा जी को फ़ोन मिला वो एम्बुलेंस ले के आ जायेंगे|"

नेहा ने ठीक वैसा ही किया और करीब पंद्रह मिनट में एम्बुलेंस आ गई, पिताजी नॉएडा में थे इसलिए अगर हम उनके आने का इन्तेजार करते तो काफी देर हो जाती, इसलिए उन्होंने फ़ोन कर के बताया की हम हॉस्पिटल पहुंचें और साथ ही साथ उन्होंने कुछ पड़ोसियों को भी फ़ोन मिलाया ताकि वो हमारी मदद करें| ..(दरअसल ये एक प्राइवेट एम्बुलेंस थी) सब ने मिलके इन्हें (मेरे पति) स्ट्रेचर पे लिटाया और चूँकि हमारा घर गली में पड़ता है तो हमें एम्बुलेंस तक इन्हें ले जाना पड़ा| मैं, माँ, आयुष और नेहा एम्बुलेंस में बैठ गए| सारे रास्ते मैं रोये जा रही थी और माँ मुझे ढांढस बंधा रही थी यह कह की; "बेटी कुछ नहीं होगा मानु को| तू चिंता मत कर ...सब ठीक हो जायेगा|" अगले बीस मिनट में हम हॉस्पिटल पहुँच गए| डॉक्टर सरिता ने हॉस्पिटल में अपने जानने वाले को पहले ही फ़ोन कर दिया और वो हमें गेट पर ही मिल गईं|सरिता जी ने इनकी केस हिस्ट्री डॉक्टर रूचि को पहले ही बता दी थी इसलिए तुरंत इन्हें admit कर के उपचार शुरू हो गया| करीब-करीब बीस मिनट बाद डॉक्टर सरिता भी आ गईं और वो सीधा प्राइवेट वार्ड में चली गईं जहाँ हम बैठे थे| अगले आधे घंटे में पिताजी भी आ गए और फिर सरिता जी ने माँ- और पिताजी को अपने साथ केबिन में बुलाया और मुझे वहीँ बैठे रहने को कहा| मैं स्टूल ले के इनके पास बैठ गई इस उम्मीद में की ये अब आँखें खोलेंगे ...अब आँखें खोलेंगे! दस मिनट बाद माँ अंदर आईं और मुझसे पूछने लगी; "बेटा...मानु ने दवाई खाई थी?" मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था, इसलिए मैं अवाक सी उन्हें देख रही थी और फिर मेरे मुँह से निकला; "पता नहीं माँ..." मेरा जवाब सुन के माँ को ये एहसास तो हो गया होगा की हमारे बीच में कुछ सही नहीं चल रहा था...पर उन्हें ये नहीं पता होगा की ये सब मेरी गलती थी! माँ पलट की जाने लगी तो अचानक से नेहा बोल पड़ी; दादीजी... पापा ने दवाई नहीं ली| मैंने कल रात को उन्हें याद दिलाया था पर उन्होंने कहा की मैं ठीक हूँ|" माँ ने उसके सर पे हाथ फेरा और वापस सरिता जी के केबिन में चली गईं| हैरानी की बात थी की नेहा को मुझसे ज्यादा उनकी फ़िक्र थी...शायद इलिये की ये उसे ज्यादा प्यार करते थे...मुझसे भी ज्यादा!

कुछ देर बाद माँ, पिताजी और सरिता जी कमरे में आये पर अभी तक मुझे इनकी तबियत के बारे में कुछ नहीं बताया गया| सब मुझसे छुपा रहे थे ... आखिर मैंने ही डॉक्टर सरिता से पूछा; "सरिता जी आखिर इन्हें हुआ क्या है?" पर उनके कुछ कहने से पहले ही पिताजी बोल पड़े; "बेटा मानु को थोड़ी देर में होश आ जायेगा, तू चिंता मत कर|" वो मेरे पिता सामान थे इसलिए मैं कुछ नहीं बोली और ये सोच के खुद को संतुष्ट कर लिया की ये पूरी तरह ठीक हो जाएं ...बस यही काफी है मेरे लिए|

चूँकि हमें एक प्राइवेट रूम allot किया गया था तो पिताजी को बाकी formalities पूरी करने के लिए जाना पड़ा| पंद्रह मिनट बाद पिताजी वापस आये और बोले; "बेटा ...मेरा डेबिट कार्ड का बैलेंस खत्म हो गया है और पैसे अब भी कम पड़ रहे हैं| तेरे पास तेरा डेबिट कार्ड है?" जल्दी-जल्दी में मैं अपना पर्स नहीं लाइ थी; "पिताजी वो मेरे पर्स में है.." पिताजी कुछ सोचने लगे और फिर बोले; "ऐसा करते हैं की हम सब वापस चलते हैं और पैसे ले के मैं वापस आ जाऊँगा| तुम दोनों शाम को आ जाना?" पर मेरा मन वहां से हिलने को नहीं कर रहा था इसलिए मैंने कहा; "पिताजी मैं यहीं रूकती हूँ आप बच्चों को और माँ को ले जाइए|" पिताजी कुछ सोचने लगे और आखिर में उन्होंने बच्चों ओ साथ चलने को कहा पर उन्होंने ने भी जाने से मन कर दिए और हार कर पिताजी को और माँ को जाना पड़ा| माँ भी जाना नहीं चाहती थी पर चूँकि ज्यादा देर बैठने से उनके पाँव में सूजन बढ़ने लगती है तो मेरे कहने पे माँ चली गईं| उन दिनों घर में पैसों को लेके कुछ परेशानी चल रही थी| पिताजी ने हॉस्पिटल में पैसे जमा करा दिए थे पर उन्हें आगे के बारे में भी सोचना था| पैसे जमा कर के पिताजी वापस आये और मुझे बोले; "बेटा...मैंने पैसे जमा करा दिए हैं| तुम्हें तो पता ही है की हमारी पेमेंट अभी फंसीहुई है| मैं अभी कुछ लोगों से मिल के आता हूँ शायद कोई पेमेंट कर दे! तो तुम और बच्चे यहीं रहो..और अगर डॉक्टर कुछ कहे तो मुझे फोन कर देना| मैं शाम तक तुम्हारी माँ के साथ आ जाऊँगा और तब तक मानु को भी होश आ जायेगा|" मैंने हाँ में सर हिलाया और पिताजी बच्चों को कह गए की अपने मम्मी-पापा का ध्यान रखना| पिताजी के जाने के बाद हम तीनों बेसब्री से इन्तेजार करने लगे की अब इन्हें (मेरे पति को) होश आएगा..अब होश आएगा.. और इन्तेजार करते-करते रात के नौ बज गए थे| घर के किसी भी सदस्य ने कुछ नहीं खाया था| मुझे अपनी चिंता नहीं थी..चिंता थी तो बच्चों की इसलिए मैंने नेहा को आवाज दे के अपने पास बुलाया; "नेहा..बेटा इधर आओ...आप और आयुष जा के कैंटीन से कुछ खा लो| आप दोनों ने दोपहर से कुछ नहीं खाया है|"

"माँ...आपने भी तो कुछ नहीं खाया..और पापा कहते हैं की आपको सबसे ज्यादा जर्रूरत है| तो आप भी चलो हमारे साथ" नेहा बोली|

"बेटा ...मेरा मन नहीं है...आप दोनों खा लोगे तो मेरा पेट भी भर जायेगा|"

"फिर मैं भी नहीं खाऊँगा..." आयुष ने नाराज होते हुए कहा|

ये सुन के तो मुझे गुस्सा आ गया और मैंने आयुष को गुस्से से देखा तो वो सहम गया और जाके नेहा के पीछे छुप गया| नेहा ने मुझसे पैसे लिए जो पिताजी जाते समय मुझे दे गए थे और फिर आयुष का हाथ पकड़ा और बाहर जाने लगी ...मझे एहसास हुआ की नेहा अपने पापा पे गई है| वो खुद कुछ नहीं खायेगी पर आयुष को जर्रूर खिला देगी| इसलिए मैंने उसे आवाज दे के रोक; "नेहा....रुक..मैं भी चलती हूँ तुम दोनों का भरोसा नहीं...कुछ खाओगे नहीं और झूठ बोल दोगे|" मैं उन्हें कैंटीन ले आई और दो सैंडविच और फ्रूटी ले के उन्हें दी| दोनों एक दूसरे की शकल देखने लगे पर कुछ खा नहीं रहे थे; "एक दूसरे की शकल क्या देख रहे हो? जल्दी खाओ...पापा अकेले हैं वहाँ|" आयुष ने तो डर के मारे खाना शुरू किया पर नेहा अब भी वैसे ही खड़ी थी| वो कुनमुनाते हुए बोली; "मैं नहीं खाऊँगी..मुझे भूख नहीं|" और उसने प्लेट मेरी तरफ खिसका दी....मैं जानती थी की वो मेरी वजह से नहीं खा रही...अगर मैं खाती तो वो जर्रूर खा लेती पर मेरा तो दिमाग ख़राब था... मैं उसपे जोर से चिल्ला पड़ी; "नेहा...बहुत हो गया..चुप-चाप ये सैंडविच खा ले|" मेरे गुस्सा करने से उस बेचारी की आँखें भर आईं और आयुष..वो तो दर के मारे रोने लगा| आजक दोनों मेरे गुस्से से बहुत डरते हैं और अगर मैं गुस्सा कर दूँ तो दोनों बहुत घबरा जाते हैं| वो तो ये हैं जो उन्हें संभाल लेते हैं....

खेर मेरे गुस्से के कारन दोनों ने डर के मारे खा लिया... पर नेहा मुझसे उखड चुकी थी और प्राइवेट वार्ड पहुँचने तक उसने मुझसे कोई बात नहीं की| जब हम कमरे में पहुंचे तो वहाँ डॉक्टरों का जमावड़ा लगा हुआ था! ये देख के तो मेरा दिल दहल गया.... इतने में माँ-पिताजी भी आ गए| "ये ....ये सब की हो रहा है?" पिताजी ने मुझसे सवाल पूछा...पर मेरे पास उसका जवाब नहीं था| डर के मारे मेरा बुरा हाल था....मन में गंदे-गंदे ख़याल आ रहे थे| दिमाग कहने लगा था की हमारा साथ छूट गया....पर दिल इसकी गवाही नहीं दे रहा था| तभी डॉक्टर सरिता आईं और माँ-पिताजी को एक तरफ बुला के कुछ कहने लगीं...पर इस बार उत्सुकता वश मैं भी वहाँ जा के उनकी बात सुन्ना चाहती थी पर मुझे अपने पास देख के सब चुपो हो गए| माँ-पिताजी के चेहरे पे गम के बादल साफ़ झलक रहे थे| मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ तो मैं बोल पड़ी; "सरिता जी..प्लीज...प्लीज बताइये की मेरे पति को क्या हुआ है? आखिर ऐसी कौन सी बात है जो आप सब मुझसे छुपा रहे हैं?" डॉक्टर सरिता पिताजी की तरफ देखने लगीं और जब उन्होंने हाँ में सर हिला के अपनी अनुमति दी तब जा के उन्होंने सारी बात बताई जिसे सुन के मेरे होश उड़ गए|

उन्होंने बताया; "हमसे यहाँ बहुत बड़ी गलती हो गई! जब आप मानु को यहाँ लाये थे उस समय मैं यहाँ नहीं थी डॉक्टर रूचि ने मानु को एडमिट किया और बेसिक ट्रीटमेंट शुरू कर दिया| शुरू के डायग्नोसिस में हमें यही पता चला की मानु का blood pressure shoot up हुआ था.... हम में से किसी ने उसकी Head Injury पर ध्यान नहीं दिया! अभी कुछ देर पहले sister Blood Pressure check करने गई तब उसे swelling नजर आई| अभी हम मानु को MRI करने के लिए ले जा रहे हैं|We're hoping for the best! I'm really sorry!"

उनकी बात सुन के मुझे बहुत गुस्सा आया .... मन तो किया की इन सब पर केस कर दूँ पर.....मेरे लिए जर्रुरी ये था की ये पूरी तरह ठीक हो जाएं! इस लिए चुप रही.. सरिता जी के जाने के बाद मैंने माँ से पूछा; "माँ ...आप सब ये मुझसे क्यों छुपा रहे थे?" तो माँ ने मेरे सर पे हाथ फिराते हुए कहा; "बेटी...तू माँ बनने वाली है और मानु ने हमें कसम दी थी की हमलोग तुझसे ऐसी कोई भी बात ना करें जिससे तेरे दिल को चोट पहुंचे... इसलिए हम तुझसे ये बात छुपा रहे थे|" माँ की बात सुन के मेरी आँखें भर आईं और मैं माँ के गले लग क रो पड़ी| माँ ने मुझे बहुत पुचकारा और चुप कराया| माँ-पिताजी मुझे हिम्मत बंधाने लगे और हम लोग इन्तेजार करने लगे की MRI रिपोर्ट आये| एक घंटे बाद डॉक्टर सरिता हमारे पास आईं और हमें रिपोर्ट दी; "अंकल जी...रिपोर्ट अच्छी नहीं है| आप ये बताइये की क्या मानु ने खाना-पीना बंद कर रखा था?"

"नहीं तो बेटा...काम की वजह से वो बहुत बिजी था इसलिए वो रात को घर लेट आता था| फिर बहु उसे खाना परोसती थी .... दिन में हो सकता है की खाना खाने का उसे टाइम ना मिलता हो पर रात को तो अवश्य खाता था..है ना बहु?" पिताजी ने मुझसे सवाल पूछा ...जिसका जवाब देने के लिए मेरे हलक़ से शब्द नहीं निकल रहे थे|"

"बहु...मानु रात को खाना खाता था ना?" माँ ने भी वही सवाल पूछा और सब की नजरें मेरे जवाब पर टिकी थीं| आखों से आँसूं बह निकले और रोते-रोते मैंने सच बोला; " जब से इन्होने दुबई जाने के बात कही थी तब से मैं उनसे नाराज थी..बात नहीं कर रही थी...इसलिए गुस्से में आके बात खाना पीना छोड़ दिया था| कल रात भी जब ये आये तो मैं इन्हें खाना परोस के चली गई पर इन्होने खाना नहीं खाया और वैसा का वैसा ही फ्रिज में रख दिया| सुबह जब मैंने रोटी का टिफ़िन देखा तो पता चला की इन्होने कुछ नहीं खाया है.... ये सब मेरी गलती है पिताजी....माँ ...मुझे माफ़ कर दीजिये....!" माँ मेरे सर पे हाथ फिरते हुए मुझे चुप कराने लगीं|

"अंकल जी.... आप तो जानते ही हैं की मानु का मेटाबोलिज्म कितना weak है! मैंने आपको शुरू में ही advice किया था की आप मानु को fasting वगैरह ना करने दें! अब हुआ ये है की मानु के खाना-पीना छोड़ने की वजह से और कुछ tensions के कारन उसका Blood Pressure बढ़ गया और उसे आज चक्कर आया, जब वो गिरा तो उसका सर फर्श से टकराया जिससे उसे ब्रेन इंजरी हुई, जिसे हम Anoxic Brain Injury कहते हैं| हमारी गलती से Brain में Swelling बढ़ गई...." बस इतना कहने के बाद वो रूक गईं...और एक लम्बी सांस लेते हुए बोली; "He's in COMA!" ये सुन के मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं...साँस जैसे थमने को हो गई.... और माँ-पिताजी मेरी तरफ देखने लगे..क्योंकि उन्हें समझ नहीं आया था की सरिता जी ने क्या कहा| उनकी मनोदशा देख सरिता जी ने हिंदी में अपनी बात दोहराई; "मानु कोमा में है!"

ये खबर ऐसी थी जिसे सुन के हम सब सदमें में थे!!! पूरे गलियारे में सन्नाटा छा गया था..और हम में से कोई नहीं जानता था की पीछे खड़ी नेहा ने सारी बात सुन ली थी और उसकी सिसकियों को सुन हम सब का ध्यान पीछे गया| वो भागी-भागी आई और माँ से लिपट के फुट-फुट के रोने लगी और रोते-रोते पूछने लगी; "दादी जी...पापा कब ठीक होंगे?" पर माँ के पास कोई जवाब नहीं था... बस सरिता जी ने उसे ढांढस बंधने के लिए कहा; "बेटा..आपके पापा जल्दी ठीक हो जायेंगे.... पर इस समय आपको Brave Girl बनना है| पता है आपके पापा ने मुझे आपके बारे में क्या बताया था? उन्होंने कहा था की मेरी बेटी सबसे बहादुर है...कैसी भी situation हो वो सब को संभाल लेती है| I'm Proud of my daughter! और आप ही इस तरह हार मान जाओगे तो कैसे चलेगा? आपको पता है न मम्मी प्रेग्नेंट हैं..तो ऐसे में उन का ध्यान कौन रखेगा? आपके दादा-दादी का ख्याल कौन रखेगा? आयुष तो अभी बहुत छोटा है तो सिर्फ एक आप हो जिससे मुझे उम्मीद है|"

ये बातें सुन के उसने खुद अपने आसूँ पोछे और फिर अपने दादा जी के पास आई और उनके आँसूं पोछे और बोली; " Don't worry दादा जी...पापा जल्दी ठीक हो जायेंगे...!" ये मेरी बेटी की हिम्मत थी जिस पे मुझे बहुत नाज़ है| माँ ने नेहा को किसी बहाने से कमरे से बाहर भेजा और सरिता जी से सवाल पूछा; "बेटी...मानु को कब तक होश आएगा?"

"आंटी जी...हम कुछ नहीं कह सकते...Brain को Heal होने में थोड़ा समय लगता है.. और हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं... सही दवाइयाँ..आप लोगों की Care ... प्यार और भगवान की कृपा से मानु कभी भी कोमा से बाहर आ सकता है| बस उम्मीद मत छोड़िये|"

अब बस एक उम्मीद ही थी जिसके सहारे ये नाव चलनी थी... खेर हम सब बाहर आ गए| पिताजी ने मेरी तरफ देखा और मेरा मन हल्का करने के लिए कहा; "बेटी..जो हो गया सो हो गया... मैं ये नहीं कहूँगा की सारी गलती तुम्हारी है| कुछ गलती उस पागल की भी है| बचपन से वो ऐसा ही है...जरा सी बात उसके दिल को लग जाती है और फिर वो खाना नहीं खाता| वो तो उसस्की माँ थी जो उसे समझा-बुझा के खाना खिला दिया करती थी| तब वो हर बात अपनी माँ से कहा करता था ...पर अब वो बड़ा हो चूका है हमसे बातें छुपाने लगा है... एक सिर्फ तुम हो जिससे वो बातें साँझा करता है| अब अगर तुम भी उससे बात नहीं करोगी तो वो इसी तरह अंदर ही अंदर कुढ़ता रहेगा| मैं समझ सकता हूँ की तुम्हें दुबई जाने की बात सुन के गुस्सा आया पर ये भी तो सोचो की वो ये सब सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ख़ुशी के लिए कर रहा था| वो तुम्हारी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी समझता है और कुछ नहीं... उस ने हमसे एक दिन कहा था की पिताजी संगीता ने अपने जीवन में बहुत दुःख देखे हैं और अब मैं उसे और दुखी नहीं देखना चाहता फिर चाहे उसके लिए मुझे कुछ भी करना पड़े!

बेटा...अब भी समय नहीं गया है... मुझे भगवान पे पूरा विश्वास है वो हमारे साथ कोई अन्याय नहीं करेगा| बस तुम्हें थोड़ा सब्र रखना होगा...धीरज रखना होगा..तुम्हारा प्यार उसे वापस ला सकता है| एक बार वो पूरी तरह ठीक हो जाए तो बस उसे खुश रखना...फिर हम लोग चैन से अपनी आखरी साँस ले सकेंगे|"

मैंने उनके पाँव छू के आशीर्वाद लिया और माँ ने और पिताजी ने अपने हाथ मेरे सर पे रख के "सदा सुहागन" रहने का आशीर्वाद भी दिया| पिताजी बोले; "बेटी तुम, बच्चे और मानु की माँ...आप सब घर जाओ, कुछ खाना खाओ, मैं यहीं रुकता हूँ| कल सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ के यहाँ आ जाना|"

"पर मानु के पिताजी आप भी तो कुछ खा लो...|"

"तुम मेरी चिंता मत करो मानु की माँ ...मैं यहाँ से कुछ खा लूँगा| पहले बच्चों को खिलाओ उन बेचारों ने भी कुछ नहीं खाया है|"

"पिताजी...मैंने दोनों को डाँट-डपट के खिला दिया था...उसी दौरान तो ये सब कुछ हुआ|"

"बेटी...अपने गुस्से पे थोड़ा काबू रख अभी तो मानु भी ठीक नहीं है...ये बच्चे उसी पे गए हैं और तुझ से नाराज होके तुझी से बात-चीत करना बंद कर देंगे! समझी?"

"जी पिताजी...वो नेहा जिद्द करने लगी तो...मैंने थोड़ा डाँट दिया| आगे से ध्यान रखूँगी|" नेहा और आयुष पास ही खड़े थे तो मैंने कान पकड़ के उन्हें सॉरी बोला....आयुष ने तो मुस्कुरा के मुझे माफ़ी दे दी पर नेहा के मुख पे अब भी कोई ख़ुशी नहीं आई थी| वो बोली; "दादा जी... मैं भी आपके साथ रुकूँगी|" पर पिताजी ने उसे समझते हुए कहा; "बेटे..आपको कल स्कूल जाना है और मैं यहाँ हूँ ना? आप सब अब घर जाओ|" कम से कम उस समय तो उसने पिताजी की बात मान ली थी|

चलते समय माँ ने पिताजी को एक कप चाय और एक सैंडविच मंगवा दिया था और रास्ते में माँ ने अपने, मेरे और बच्चों के लिए भी सैंडविच ले लिया| हम घर तो आ गए...माँ ने और बच्चों ने सैंडविच खाया और ना चाहते हुए भी मैंने किसी तरह उस सैंडविच को अपने गले से भी उतार लिया... पर दिल बहुत बेचैन था| घडी में बारह बजने को आये थे तो माँ ने सब को सो जाने को कहा| हम सब हमारे वाले बेडरूम में सोने को चल दिये| नेहा का गुस्सा अब भी साफ़ झलक रहा था... वो मुझसे सारे रात नहीं बोली थी| उसने माँ की तरफ करवट की और सो गई| इधर आयुष ने मेरी तरफ करवट की और कुछ देर बाद वो भी सो गया| पर मेरी आँखों से नींद अब भी कोसों दूर थी| रह-रह के उनकी वो बात "मैंने पढ़ा... आप.... क्यों इतना दर्द समेटे हुए हो? क्या आपके दिल में मेरे लिए जरा सी भी जगह नहीं?" मुझे याद आ रही थी और मैं मन ही मन खुद को कोस रही थी| मेरी अपनी बेटी मुझसे नफरत करने लगी थी...यी सब बातें मुझे बेचैन कर रही थी और सारी रात घडी की टिक-टिक सुनते हुए कट गई| सुबह हुई घडी में पाँच बजे और मैं जल्दी से नहा धो के तैयार हो गई और किचन में घुस गई| सात बजते-बजते मैंने खाना बना लिया था और फिर मैं बच्चों को उठाने गई| देखा तो नेहा तैयार हो छुकी थी पर आयुष और माँ अब भी सो रहे थे| मैं आयुष को उठाने लगी तो नेहा ने आगे बढ़ के उसे गॉड में उठाने लगी और उसे ले के तैयार करने लगी| माँ की बी अकनख खुल गईं और ओ भी नहाने चली गईं| आधे घंटे में सब तैयार हो के आ गए| मैंने माँ और बच्चों को नाश्ता कराया और फिर उन्हें स्कूल छोड़ने जाए लगी तो माँ ने रोक दिया; "बेटी तू नाश्ता कर ले तब तक मैं बच्चों को स्टैंड छोड़ आती हूँ|" भूख तो लगी नहीं थी जो मैं कुछ खाती इसलिए मैं कुर्सी पर बैठ के माँ के आने का इन्तेजार करने लगी|

बेसब्री से मेरा बुरा हाल था.... मन उन्हें देखना चाहता था| थोड़ी देर बाद माँ भी आ गईं और मेरी बसब्री देख के बोली; "बेटी...तू चिंता मत कर...मुझे पूरा यक़ीन है की सब कुछ ठीक हो चूका होगा...मानु को होश आ चूका होगा और वो तेरा इन्तेजार कर रहा होगा| चल जल्दी....|"

मन में एक उमंग से भर उठा और मैं माँ की बातों में विश्वास कर बैठी| एक आस जो मुझे जिन्दा रखने के लिए काफी थी...जिसके सहारे में अपनी जिंदगी काट सकती थी|अपनी बेकरारी की पोटली लिए मैं माँ के साथ हॉस्पिटल आई| इस आस में की जैसे ही मैं कमरे का दरवाजा खोलूँगी ये (मेरे पति) मेरे सामने बैठे होंगे और मुझे अपने गले लगा लेंगे| पर किस्मत को मुझ पे जरा भी रहम नहीं आया ...आएगा भी क्यों..मैंने अपने देवता जैसे पति को इतने दुःख जो दिए थे| मुझे तो माफ़ी मांगने का भी मौका नहीं दिया!

जब कमरे का दरवाजा खुला, तो वैसा कुछ भी नहीं हुआ जिसकी उम्मीद थी| ये (मेरे पति) अब भी उसी हालत में थे जैसा कल मैं इन्हें छोड़ गई थी| मैंने जा के पिताजी के पाँव छुए..और तब उन्होंने बताया की कुछ देर पहले उनकी बात मेरे पिताजी से हुई थी और वे कल सुबह बस से दिल्ली आ रहे हैं| अभी पिताजी ये सब बता ही रहे थे की अनिल का फ़ोन पिताजी के मोबाइल पे आया| अनिल शाम की गाडी से दिल्ली आ रहा था.... वो कल सुबह पहुँचने वाला था| सच कहूँ तो मुझे याद नहीं रहा की मुझे अपने मायके ये खबर दे देनी चाहिए| खेर अब मुझे पिताजी से अपने दिल की बात करनी थी ...इसलिए मैंने बहुत हिम्मत जुटा के उनसे कहा; "पिताजी....मैंने आज तक आपसे कुछ नहीं माँगा...आजतक कुछ माँगने की जर्रूरत ही नहीं पड़ी| पर आज आपसे कुछ माँगना चाहती हूँ और आशा करती हूँ आप मना नहीं करेंगे|"

"बोल बेटी.... मैं कतई मना नहीं करूँगा|" उन्होंने मुझ पे पूरा विश्वास जताते हुए कहा|

"पिताजी... आज से इनकी देख-रेख करने की जिम्मेदारी आप मुझे दे दीजिये| मैं सब कुछ संभाल लूँगी...मुझसे इनसे दूर रहा नहीं जाता...प्लीज पिताजी!" मैंने पिताजी और माँ से हाथ जोड़ के विनती की|

पिताजी ने चिंता जताते हुए कहा; "पर बेटा... तू माँ बनने वाली है...और ऐसे में......बेटी कुछ ऊँच-नीच हो गई तो हम मानु को क्या जवाब देंगे?"

"मुझे कुछ नहीं होगा पिताजी...मैं अपना ध्यान रख लूँगी....पर प्लीज पताजी मुझे इनसे अलग मत कीजिये ...मैं हाथ जोड़के आपसे विनती करती हूँ!" ये कहते-कहते मेरी आँखें भर आईं थी| माँ ने मुझे संभाला और पिताजी से बोलीं; "सुनिए...मान जाइए बहु की बात और फिर हम तो हैं ही इसका ध्यान रखने के लिए| मैं भी इसे इस तरह तड़पते हुए नहीं देख सकती...अब एक यही तो है ..." इतना कहते हुए माँ रूक गईं..... माँ तो लघभग हिम्मत हार ही चुकी थी... उनकी उम्मीद टूट चुकी थी| पर मैंने माँ को ढांढस बंधाया, "माँ हम ये लड़ाई हारे नहीं हैं...और ना ही हारेंगे| सब कुह ठीक हो जायेगा...थोड़ा समय लगेगा बस!" ये सुन के माँ की आँखें भर आईं थी|

"पिताजी आप माँ को लेके घर जाइए ...थोड़ा आराम कीजिये...तब तक मैं हूँ यहाँ|" पिताजी जाना नहीं चाहते थे पर वो जानते थे की ज्यादा देर अगर माँ यहाँ रुकी तो वो रो पड़ेंगी| इसलिए पिताजी उन्हें ले कर चले गए और दोपहर को आने का बोल गए| अब कमरे में बस ये (मेरे पति) और मैं ही बचे थे... इतने दिन से मैंने इनसे कोई बात नहीं की थी...और अब जब ये कुछ बोल नहीं सकते थे तो मन बात करने को आतुर हो रहा था| मैं दाहिने तरफ स्टूल ले कर बैठ गई; "मैंने आपको बहुत दुःख दिए है ना? आप मुझे हँसाने की हर नाकाम कोशिश करते रहे और मैं अपने गुस्से और दर्द को छुपाते हुए आपका तिरस्कार करती रही| आपने मुझसे कुछ भी तो नहीं माँगा था ...बस इतना की मैं हँसू..बोलूँ...बात करूँ...आपको प्यार करूँ...घर को सम्भालूँ.... माँ-पिताजी का ख्याल रखूँ...और मुझसे इतना भी नहीं हुआ! आपकी कोई ख़ुशी मैं पूरी नहीं कर सकी... प्लीज ...प्लीज मुझे माफ़ कर दो ...and I promise की मैं आज के बाद आपकी हर बात मानूँगी..... कभी उदास नहीं हूँगी...सब को खुश रखूँगी....प्लीज ...प्लीज जानू वापस आ जाओ....प्लीज ....मैं फिर से वो पुरानी वाली संगीता बन जाऊँगी...प्लीज ....प्लीज ..... !!!" पर मेरी इतनी मिन्नतों का रत्ती भर भी असर इन पर नहीं हुआ.... आज मुझे एहसास हो रहा था की कैसा लगता है जब कोई आपसे बात करना चाहता हो और आप उसे दुत्कार दो! हालाँकि इन्होने कभी मुझे दुत्कारा नहीं ...अभी भी इनक शरीर respond नहीं कर रहा था तो मुझे वही आभास हुआ जो इन्हें मैंने कराया था और मुझे इनके दुःख से अवगत होने का मौका मिला|

दोपहर दो बजे पिताजी, माँ और बच्चे आये...माँ मेरे लिए खाना पैक कर के लाईं थी पर मेरी खाने की जा भी इच्छा नहीं थी| फिर भी माँ के जोर देने पर मैंने खाना खाया.... खाना खाने के बाद पिताजी ने मुझे थोड़ी चिंता जनक बात बताई; "बेटी आज नेहा के स्कूल से फ़ोन आया था| उसकी क्लास टीचर ने बताया की नेहा आज सारा दिन रो रही थी| जब तेअच्छेर ने उससे कारन पूछा तो उसने टीचर को सब बताया| नेहा टीचर से जिद्द करने लगी की उसे एक महीने की छुट्टी चाहिए| जब तक उसके पापा की तबियत ठीक नहीं होती...वो स्कूल नहीं आएगी| टीचर ने बहुत समझाया पर इसने जिद्द पकड़ ली की मैं कल से स्कूल नहीं आऊँगी| हार कर टीचर ने मुझे फ़ोन किया| हमने तो इसे खूब समझाया ...अब तू ही समझा इसे कुछ!"

"मैंने जब नेहा को देखा तो वो नजरें झुकाये सा सुन रही थी| वो वैसे भी मुझसे बात नहीं कर रही थी...तो ऐसे में जल्दबाजी दिखाना जर्रुरी नहीं था| मैंने बस इतना कहा; "पिताजी ठीक ही तो है... कल से मैं और नेहा दोनों मिल के यहाँ इनका (मेरे पति और नेहा के पापा) का ख्याल रखेंगे|" पिताजी ये सुन के चौंक गए पर अगले ही पल जब उन्हें मेरी बात समझ आई तो वो कुछ नहीं बोले| मुझे नेहा को अपने अनुसार समझाना था..पर ये समय उसके लिए सही नहीं था|

रात के आठ बजे तो पिताजी ने क बार फिर मुझे समझाना चाहा की मैं माँ के साथ घर चली जाऊं पर मैंने इनसे फिर से request की तो उन्होंने मेरी बात मान ली| जब पिताजी ने नेहा को साथ जाने को कहा तो उसने जाने से साफ़ मना कर दिया| मैंने माँ को इशारे से कहा की आज की रात इसे यहीं रहने दो तो माँ ने कहा; "कोई बात नहीं जी ..आज इसे यहीं अपनी माँ के पास रहने दो| पर नेहा बेटी तेरे बिना मुझे नींद नहीं आती ...मैं कैसे सोऊँगी?" माँ ने एक बार कोशिश की कि शायद नेहा मान जाए और उनके साथ घर चले पर नेहा ने तपाक से जवाब दिया; "दादी जी..आयुष है ना| जब पापा ठीक हो जायेंगे तब मैं रोज आपके पास सोऊँगी. Promise" माँ ने और कुछ नहीं कहा और उसके सर पे हाथ रख के आशीर्वाद दिया और आयुष को साथ ले के चली गईं| माँ के जाने के बाद मैंने कमरे का दरवाजा लॉक किया और नेहा के सोने के लिए सोफे को ठीक करने लगी| पर सोफे इतना छोटा था की उसपे सिर्फ एक इंसान ही सो सकता था, तो मैंने सोचा की मैं जमीन पर लेट जाऊँगी पर नेहा बोली; "मैं नीचे सोऊँगी आप ऊपर सो जाओ|" चलो इसी बहाने से वो मुझसे कुछ बोली तो सही| मैं करीब 2 घंटों से नहीं सोई थी और सारा दिन एक ही जगह बैठे रहने से थकावट मुझ पे असर दिखाने लगी थी| लेटने के कुछ देर बाद मेरी आँख लग गई.... रात के बारह बजे होंगे ..कि मुझे लगा कि कोई कुछ बोल रहा है मैं ख़ुशी से उठ बैठी कि इन्हें (मेरे पति को) होश आ गया! पर जब मैंने थोड़ा ध्यान से आवाज सुनी तो पता चला की ये तो नेहा है जो अपने पापा से बात कर रही है| मैं चुप-चाप लेट गई और उसकी बातें सुनने लगी; "पापा आप मुझसे नाराज हो??? आप मम्मी से बात नहीं कर रहे ..ठीक है... पर मैंने क्या किया? आप तो मुझसे सब से ज्यादा प्यार करते हो ना? फिर मुझसे बात क्यों नहीं करते? देखो अभी मम्मी सो रही हैं तो हम आराम से बात कर सकते हैं... I Promise मैं किसी को कुछ नहीं कहूँगी... it'll be our secret!!! ओके आप मेरे कान में बोलो..." नेहा के बचपने को देख मेरी आँखें भर आई..मैं जानती थी की वो अपने पापा को मुझसे ज्यादा प्यार करती है.... पर ये सब सुन मुझे लगा की कहीं उसके दिल को कोई सदमा ना लगे इसलिए मैं उठ बैठी और कमरे की लाइट ओन की| लाइट ओन होते ही नेहा की नजर मुझ पे पड़ी और वो हैरानी से मेरी तरफ देखने लगी|

" नेहा...बेटी इधर आ.." नेहा सर झुकाये मेरे पास आ कर खड़ी हो गई|

"बेटी.... आप कल से मुझसे बात नहीं कर रहे हो! I'm really sorry कल मैंने आपको डाँटा... seriously sorry.... अब क्या जिंदगी भर आप मुझसे नाराज रहोगे?"

"मैं उस वजह से आप से नाराज नहीं हूँ|" नेहा ने सर झुकाये हुए कहा|

"तो?"

"आपकी वजह से पापा की तबियत ख़राब हुई...सब आपकी वजह से हुआ है... आपने कभी पापा को प्यार किया ही नहीं| वो आपसे इतना प्यार करते हैं... उस दिन वो उससे (चन्दर) से लड़ पड़े..सिर्फ आपके लिए और आपको उनकी कोई कदर ही नहीं| 5 साल पहले भी आपे उन्हें खुद से ददोर कर दिया था!"

ये सुन के मेरे पाँव तले जमीन खिसक गई थी| उस समय नेहा बहुत छोटी थी...तो उसे ये बात कैसे पता? मेरी परेशानी देख वो खुद बोली; "उस दिन जब आप और पापा बात कर रहे थे तब मैंने आप दोनों की सारी बात सुन ली थी|" "बेटी....." मैंने उसे समझाना चाहा पर उसने मेरी बात काट दी|

"आपने....आपने पापा को एक दम से isolate कर दिया! उन्होंने आपसे क्या माँगा था जो आप नहीं दे सकते थे? बस आपको खुश रहने को ही तो कह रहे थे.... आपकी वजह से दादा जी दादी जी सब परेशान थे और just आपका डर खत्म करने के लिए अगर पापा दुबई में सेटल होने की बात कह रहे थे तो कौन सी गलत बात कह दी उन्होंने? कम से कम आपका डर तो खत्म हो जाता पर नहीं ...आपको तो पापा को तकलीफ देने में मजा आता है ना?

आपको तो मेरी भी परवाह नही थी! क्या सच में आपको याद नही था की मेरी स्कूल जाने की उम्र हो गई है? जितने भी साल मैं गाँव में पढ़ पाई वो सिर्फ पापा की वजह से! मुझे ठीक से तो याद नहीं पर मेरे बचपन का सबसे सुखद समय वही था जब पापा गाँव आये हुए थे और अगर मैं गलत नही तोि आपका भी सबसे सुखद समय वही था| पूरे परिवार में सिवाय पापा के और कोई नही था जिसे पता हो की मुझे 'चिप्स' बहु पसंद हैं...यहाँ तक की आप को भी नहीं! गाँव में मुझे कोई प्यार नही करता था...सिर्फ पापा थे जो मुझे प्यार करते थे| ये सब जानते हुए भी आपने पापा को खुद से और मुझसे दूर कर दिया? अपनी नहीं तो कम से कम मेरी ख़ुशी का ख्याल किया होता? ओह्ह...याद आया...आपने उस दिन पापा को ये सफाई दी थी की आपकी वजह से उनका career ख़राब हो जाता! वाओ !! और अभी जो उनका ये हाल है उसका जिम्मेदार कौन है?

.................................. एक बात कहूँ You Don't DESERVE HIM! इतना Loving Husband आपके लिए नहीं हो सकता! जिस दिन पापा को होश आया उनकी नजर आप पड़ेगी और कहीं आपको देख उनका गुस्सा फूट पड़ा तो उनकी तबियत और ख़राब हो जाएगी, यही कारन है की मैंने अपनी क्लास टीचर से स्कूल न आने की बात की ताकि जब पापा को होश आये तो सबसे पहले मैं उन्हें दिखाई दूँ..आप नहीं! पापा आपसे नाराज हैं and I know वो आपसे कभी बात नही करेंगे| वो सिर्फ और सिर्फ मुझसे बात करेंगे ....सिर्फ और सिर्फ मुझसे! I Hate you mummy!"" इतना कह के वो लेट गई और मैंने उठ के कमरे की लाइट बंद की और सोफे पे बैठी सिसकने लगी| उसने एक भी बात गलत नही बोली थी... और सच में मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया की मेरी बेटी इतनी बड़ी हो गई की अपने मम्मी-पापा की बातें छुप के सुनने लगी है और समझने भी लगी है| हालाँकि इन्होने (मेरे पति ने) कभी बच्चों से कोई बात नही छुपाई ...पर कुछ पर्सनल बातें हम अकेले में किया करते थे जो सब नेहा सुन चुकी थी|

आज मैं अपनी ही बेटी...अपने ही खून की नजरों में दोषी बन चुकी थी...दोषी! अब मुझे इस पाप का प्रायश्चित करना था....किसी भी हाल में! मैं अपने बच्चों के सर से उनके पापा का साया कभी नही उठने देना चाहती थी...और ऐसा कभी नही होगा, कम से कम मेरे जीते जी तो नही! वो सारी रात मैं ने जागते हुए काटी.... सुबह सात बजे माँ और पिताजी आये, आयुष को सीधा स्कूल छोड़ के.... कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था. नेहा अब भी सो रही थी| पिताजी ने मझसे पूछा की क्या मैंने नेहा को समझा दिया तो मैंने कहा; "यहीं पिताजी...कल बात करने का समय नही मिला| थक गई थी इसलिए सो गई...आज बात करुँगी और कल से वो स्कूल भी जाएगी|" मेरी बात से पिताजी को आश्वासन मिला और वो निश्चिन्त हो गए| हम चाय पी रहे थे की नेहा जाग गई..और आँखें मलती हुई अपने पापा के पास गई और उनके गाल पे Kiss किया और फिर बाथरूम चली गई| ये नेहा का रोज का नियम था .... उसे देख-देख के आयुष ने भी ये आदत सीख ली पर वो मुझे और इन्हें (मेरे पति) को kiss करता था| जैसे ही वो बाथरूम से निकली तभी अनिल (मेरा भाई) आ गया| उसने माँ-पिताजी के पाँव छुए और अपने जीजू की तबियत के बारे में पूछने लगा|

"पिताजी...ये सब कैसे हुआ? जीजू तो एकदम भले-चंगे थे?"

पिताजी के जवाब देने से पहले ही नेहा बोल पड़ी; "मम्मी की वजह से...." सब की नजरें नेहा पर थीं और उसकी ऊँगली का इशारा मेरी तरफ था| नेहा के कुछ बोलने से पहले पिताजी ने उसे झिड़क दिया; "नेहा...आप बहुत बद्तमीज हो गए हो! ऐसे बात करते हैं अपने से बड़ों से?" नेहा का सर झुक गया और उसे अपना सर झुकाये हुए ही माफ़ी मांगी; "sorry दादा जी!" मैं उसके पास गई और उसे अपने सीने से लगा लिया और पुचकारने लगी ... पर वो कुछ नहीं बोली और ना ही रोइ...जैसे उसके आँखों का पानी सूख गया हो! इधर अनिल के मन में उठ रहे सवाल फिर से बाहर उमड़ आये; "पर पिताजी...जीजू को आखिर हुआ क्या है? गाँव से पिताजी का फोन आया तो उन्होंने बस इतना कहा की तेरे जीजू हॉस्पिटल में admit हैं...तू जल्दी से दिल्ली पहुँच और मैं सीधा यहाँ पहुँच गया|"

मैं एक बार फिर से अपना इक़बाले जुर्म करने को तैयार थी..."वो मैं.........." पर मेरे कुछ कहने से माँ ने मेरी बात काट दी; "बेटा काम की वजह से टेंशन चल रही थी... और तुझे तो पता ही है की चन्दर की वजह से क्या हुआ था...इसलिए ये सब हुआ|" माँ ने मेरी तरफ देखा और ना में गर्दन हिला के मुझे कुछ भी कहने से रोक दिया और मैं ने उन्हें सहमति देते हुए अपनी गर्दन झुका ली| पिताजी न उसे घर हल के आराम करने को कहा पर अनिल ने मन कर दिया ये कह के; "पिताजी मैं यहाँ आराम करने नही आया| मैं यहाँ जीजू के पास रुकता हूँ, आप सब घर जाइए और आराम कर लीजिये| अगर कोई जर्रूरत पड़ी तो मैं आपको फ़ोन कर लूँगा|"

"नहीं...मैं यहाँ हूँ...तू जा और कपडे बदल के फ्रेश हो जा और फिर आ...." मैंने उसे हुक्म देते हुए कहा| चूँकि मैं उससे बड़ी थी तो वो बिना किसी बहस के मेरी बात मान लेता था| माँ ने जाते-जाते कहा की वो अनिल के हाथों मेरा और नेहा का नाश्ता भेज देंगी| जब सब चले गए तब मैंने सोचा की मुझे नेहा को प्यार से समझाना चाहिए ताकि वो कल से स्कूल join कर ले| नेहा स्टूल ले के अपने पापा के बाईं तरफ बैठी हुई थी और टकटकी बंधे उन्हें देख रही थी| शायद इस उम्मीद में की वो अब पलकें झपकाएं ...अब पलकें झपकाएं! मैंने उसे पीछे से आवाज दी; "नेहा...बेटा मेरे पास आओ|" वो बेमन से उठ के मेरे पास आई और चुप-चाप खड़ी हो गई| मैंने उसे अपने पास बैठने का इशारा किया और वो सर झुकाये सोफे पे बैठ गई|

"बेटा मुझे आपसे कुछ बात करनी है....|" मेरी बात शुरू होने से पहले ही वो बोल पड़ी; "Sorry .....!" उसका सॉरी सुन के मैं सोच में पड़ गई की भला ये मुझे क्यों सॉरी बोल रही है? पर मुझे उससे कारन पूछने की जर्रूरत नही पड़ी वो खुद ही बोलने लगी; "मैंने आपको सॉरी इसलिए नही बोला की कल मैं ने जो कहा वो गलत था या मैं उसके लिए शर्मिंदा हूँ...बल्कि आपको सॉरी इसलिए बोला की मेरा कल आपसे बात करने का लहज़ा ठीक नही था| आप मेरी मम्मी हो और मुझे इस तरह अकड़ के आपसे बात नही करनी चाहिए थी| इसलिए I'm really very sorry!"

नेहा की बात सुन के मुझे वो दिन याद आगया जब इन्होने (मेरे पति) ने मेरे लिए पहली बार अपने बड़के दादा से लड़ाई की थी| "बेटा आपको एक बात बताऊँ.... जिस दिन मुझे पता चला की मैं माँ बनने वाली हूँ उस दिन घर में सब खुश थे| क्योंकि उन्हें एक लड़के की आस थी और मुझे और आपके पापा को लड़की की वो भी बिलकुल आपके जैसी तब आपके पापा ने अपने बड़के दादा से इस बात पे लड़ाई की कि लड़का हो या लड़की क्या फर्क पड़ता है| उन्होंने ठीक आपकी तरह ही उनसे बात कि...और फिर बाद में नसे माफ़ी माँगी... इसलिए नही की उन्होंने सच बात बोली, बल्कि इसलिए की उनका लहज़ा गलत था|" ये सुन के नेहा के चेहरे पे मुस्कान आ गई|

"बेटा.... मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ?" नेहा ने हाँ में सर हिला के अपनी अनुमति दी|

"बेटा... I know आप अपने पापा से बहुत प्यार करते हो और उनके देख-रेख करने के लिए आप अपनी studies तक कुर्बान कर रहे हो पर जरा सोचो, जब आपके पापा पूरी तरह ठीक हो जायेंगे और उन्हें ये पता चलेगा की आपने उनके लिए अपनी स्टडीज sacrifice की है तो सोचो उन्हें कैसा लगेगा? उन्हें कितना hurt होगा? वो खुद को ही आपकी studies के नुकसान के लिए blame करेंगे और फिर से उनकी तबियत ख़राब हो सकती है! वहां घर पर आपके दादा-दादी अकेले हैं..उनकी देखभाल करने के लिए आपका वहाँ होना जर्रुरी है? और फिर आयुष...उसका स्कूल का homework कौन करायेगा? और फिर मैं यहाँ हूँ ना आपके पापा की देखभाल करने के लिए|" ये सब सुन के भी नेहा के दिल को तसल्ली नही मिली थी इसलिए मैंने उसके दिल को तसल्ली देने के लिए उसे आश्वासन इया; "बेटा... मैं जानती हूँ की आपको डर है की पपा मुझे देखेंगे तो उनकी तबियत ख़राब हो जाएगी.... तो I promise मैं उनके होश में आते ही उनके सामने से चली जाऊँगी... और जबतक आप नही कहोगे मैं सामने नही आऊँगी|" इतना सुनने के बाद उसस्के इल को चैन मिला और उसने हाँ में सर हिलाया और उठ के बाथरूम चली गई| मुझे लगा की वो रोने के लिए बातरूम गई होगी पर भगवान का शुक्र है की ऐसा नही हुआ| मेरी बेटी अब बड़ी हो चुकी थी...इतनी बड़ी की अगर मुझे कुह हो जाए तो वो घर को संभाल सकती थी| नजाने क्यों ये ख़याल मेरे मन में आया ...खेर कुछ देर बाद अनिल नाश्ता ले कर आया और मैंने और नेहा ने नाश्ता किया| नाश्ता करने के बाद मैने अनिल से एक मदद माँगी; "अनिल... बेटा तुझसे एक मदद चाहिए! कल पिताजी ने बताया था की एक-दो जगह पेमेंट फँसी हुई है और दो दिन पहले इन्होने बताया था की कुछ contracts की deadline नजदीक है| मैं चाहती थी की अगर तू कुह दिन काम संभाल ले तो?"

"आप चिंता मत करो दीदी|" मुझे अनिल की बात सुन के थोड़ी शान्ति हुई की कम से कम पिताजी का बोझ कुछ कम हो जायेगा| दोपहर के समय तक पिताजी और माँ आ गए| उनके आने पर अनिल ने काम की बात छेड़ी तो पिताजी बोले; "बेटा..तू यहाँ आया है....कुछ दिन आराम कर... काम-धंदा मैं देख लूँगा|"

"पिताजी...मैं यहाँ आपका हाथ बँटाने आया हूँ, आराम करने नही आया| अगर जीजू को पता लग गया की मैं यहाँ आराम कर रहा था तो वो तो मेरी क्लास ले लेंगे...ही..ही..ही..ही... वैसे जीजू ने कहा था की कुछ contracts deadline पर हैं| प्लीज पिताजी मुझे बताइये ...|"

पिताजी ने डेडलाइन की बात सुनी और मेरी तरफ देख के मुस्कुराये; "ये बात तुझे इसी शैतान ने बताई होगी? ठीक है तू इतनी जिद्द करता है तो चल मेरे साथ मैं तुझे पार्टियों से मिलवा देता हूँ और साइट भी दिखा देता हूँ| वैसे तुझे गाडी चलाना आता है ना?"

अनिल ने हाँ में सर हिलाया और पिताजी ने उसे चाभी दे दी और दोनों निकल गए| आयुष के स्कूल की छुट्टी होने वाली थी इसलिए मैंने सोचा की माँ को क्यों तकलीफ देनी तो मैं ही तैयार होक आई और नेहा को उनके पास बैठा के स्कूल चली गई और आयुष को लेके वापस हॉस्पिटल आ गई| कैंटीन से सैंडविच ला कर हम चारों ने खाए| शाम को सात बजे में पिताजी और अनिल लौटे; "बहु बेटा... तेरा भाई तो बहुत तेज है! आज तो इसने पाँच हजार का फायदा करा दिया| मुझे नहीं पता था की मानु contracts समय से पहले करने पर extra commission लेता था? वो तो अनिल था जिसने मानु की प्रोजेक्ट रिपोर्ट पढ़ी थी और उसे ये clause पता था! खेर मैंने इसे सारा काम समझा दिया है संतोष से मिलवा दिया है औरकल से ये उसके साथ coordinate करेगा|" अपने भाई की तारीफ सुन के मेरा मस्तक गर्व ऊँचा हो गया|

"चलो भाई..अब सब क्या यहीं डेरा डाले रहोगे? घर जाके खाना-वाना नही बनाना? और आयुष बेटा आपने होमवर्क किया या नहीं? यहाँ तो माँ-बेटी रहने वाले हैं!"

"दादा जी... मैंने आयुष का होमवर्क करा दिया है और मैं भी आपके साथ चलूँगी| मुझे कल स्कूल जाना है|" नेहा की बात सुनके पिताजी मुस्कुराये और उसके सर पे हाथ फिराके बोले; "बेटा अपने से बड़ों से हमेशा तमीज़ से बात करते हैं वरना लोगों को लगेगा का आपके मम्मी-पापा ने आपको अच्छे संस्कार नही दिए|"

"सॉरी दादा जी...आगे से ऐसी गलती कभी नही होगी|"

"बिलकुल अपने पापा की तरह...अपनी गलती हमेशा मान जाता था और दुबारा कभी वो गलती नही दोहराता था| खेर...चलो घर चलते हैं और हाँ बहु अनिल तुम्हारा खाना लेके आजायेगा| अपना ख़याल रखना ...|" इतना कह के सब चले गए और finally मैं और ये (मेरे पति) अकेले रह गए| मैं इनके पास स्टूल ले जा के बैठ गई..इनका हाथ अपने हाथों में लिए कुछ पुराने पलों को याद करने लगी और मेरी आँखें भीग गईं|

मुझे एहसास होने लगा जैसे हम दोनों एक बहुत ही शांत से बगीचे में चल रहे हैं| इन्होने मेरा हाथ थामा हुआ है ...शाम का समय है...ठंडी-ठंडी हवा इनके मस्तक छू रही है .... हम दोनों के चेहरों पे मुस्कराहट है... चैन है...सुकून है.... पर तभी अनिल की आवाज कान में पड़ते ही सब उड़न-छू हो गया! दरअसल मेरी आँख लग गई थी! वो मेरे लिए खाना लाया था.... सच कहूँ तो मैं सिर्फ और सिर्फ इनके लिए खा रही थी| मैं ये नहीं चाहती थी की मेरा बेड भी इनकी बगल में लग जाए! अनिल ने बताया की कल सुबह छः बजे माँ-पिताजी आनंद विहार बस अड्डे पहुँच जायेंगे| "दीदी आप घर चले जाओ...मैं यहाँ रूकता हूँ| आप प्रेग्नेंट हो...थोड़ा अपना ख़याल भी रखो! मैं हूँ ना यहाँ...फिर चिंता क्यों करते हो?"

"बेटा.... मेरा यहाँ रहना बहुत जर्रुरी है... ये सब मेरी वजह से हुआ है ना...तो मुझे ही......." आगे कुह बोलने से पहले पिताजी का फ़ोन आ गया और उन्होंने अनिल को किसी पार्टी से मिलने को कहा जो अभी पेमेंट करने वाली थी| रात के दस बजे थे और उस पार्टी को बाहर जाना था| चूँकि वो लोग जानते थे की इनकी (मेरे पति) की तबियत ठीक नहीं है इसलिए वो जल्दी पेमेंट कर रहे थे| अनिल जल्दी-जल्दी निकल गया और एक बार हम दोनों हम उस कमरे में अकेले रह गए| इनका हाथ थामे हुए कब नींद आ गई पता ही नहीं चला| आँख तब खुली जब नर्से इन्हें चेक करने आई...घडी में बारह बजे थे| उस नर्स का नाम " करुणा" था| पिछले दो दिन से वही इन्हें चेक करने आ रही थी| केरल की रहने वाली थी... ईसाई थी... और उसी ने इनके सर में स्वेल्लिंग देखि थी.... खेर आज दो दिन बाद उसने मुझसे बात की; "आप इनका wife है ना?"

मैंने हाँ में सर हिलाया| दरअसल उसकी हिंदी बहुत अच्छी नहीं थी|

"He's a very luky man! मैं देख रहा है की आप दो दिन से यहीं हैं... इनका बहुत care कर रहा हैं|"

मैंने ना में सर हिलाया और मुसकुरते हुए कहा; "नहीं... मैं बहुत lucky हूँ की ये मेरे husband हैं|"

वो मुस्कुराई और बोली; "ओह! ऐसा है! डॉक्टर सरिता ने बोला की आप प्रेग्नेंट हो... इसलिए आपका B.P. भी चेक करने को बोला|" मैंने हाँ में सर हिला के अनुमति दी| मेरा B.P. चेक करते हुए वो फिर बोली; "आपको अपना care करना चाहिए...आपका husband की care के लिए आपके in-laws हैं|"

"हैं तो... पर सबसे ज्यादा मैं इन्हें प्यार करती हूँ| इसलिए मेरा यहाँ रहना बहुत जर्रुरी है| ऐसा नहीं है की मेरे in-laws को मेरी कोई फ़िक्र नहीं, उन्होंने ने तो मुझे आराम करने को बोला था पर मैं बहुत जिद्दी हूँ...इसलिए उन्होंने मुझे यहाँ 24 hrs रहने की परमिशन दी!"

करुणा मुस्कुराई और चली गई| ये तक नहीं बोली की मेरा B.P. कैसा है??? उसके जाने के बाद मैंने दवाजा लॉक किया और वापस स्टूल पे बैठ गई और इनका हाथ थामे मुझे नींद आ गई| सुबह पांह बजे नींद खुली...एक बार इन्हें चेक किया ...वाशरूम गई और वापस आ कर दरवाजा अनलॉक किया और फिर से स्टूल पे बैठ गई| अगले 15 मिनट में आँख फिर से लग गई...और जब आँख खुली तो सामने मेरी माँ खड़ी थी| मैं उनकी कमर पे हाथ डाल के उनसे लिपट गई और मेरे आँसूं निकल पड़े| "बेटी ये सब कैसे हुआ?" पिताजी ने मुझसे सवाल पूछा...और मैंने रोते-रोते उन्हें सारी बात बताई|

"सब मेरी गलती है पिताजी, चन्दर वाले हादसे के बाद मैंने खुद को इनसे काट लिया था| मेरी वजह से घर पे इतनी सारी मुसीबतें आईं.... इतना बवाल हुआ...इसलिए मैं अपना दुःख इनसे छुपाने लगी| कुछ बोलने से डरती थी की कहीं इनको चोट न पहुँचा दूँ...इनका दिल न तोड़ दूँ! और दूसरी तरफ ये जी तोड़ कोशिश करते रहे की मैं पहले की तरह हो जाऊँ... हँसूँ.... बोलूं.... और मैं ना चाहते हुए भी इन्हें दुःख देती गई ...तकलीफ देती गई.... मुझे बार-बार ये डर सता रहा था की मैं आयुष को खो दूँगी... और मुझे इस डर से बाहर निकालने के लिए इन्होने दुबई जा के settle होने का plan बना लिया| इस बात से मुझे इतना गुस्सा आया की मैंने इन से बात करनी बंद कर दी.... इनको मेरी इस हरकत से इतना दुःख हुआ की इन्होने खाना-पीना छोड़ दिया...दिन-रात बस साइट पे रहते थे...जरा भी आराम नही किया...दवाइयाँ तक लेनी बंद कर दी...और नतीजन उस दिन इन्हें हक्कर आया और जब ये गिरे तो इनके सर में छोट आई...जिससे ये कोमा में चले गयी....मुझे माफ़ कर दीजिये पिताजी...प्लीज!" मैं रोती रही और पिताजी..माँ ..अनिल सब खड़े सुनते रहे|

पिताजी ने जोर से अपना सर पीट लिया और मुझ पर बरस पड़े; "[color=rgb(255,]पागल हो गई है क्या? तू उससे अपन दर्द छुपा रही थी? अपने पति से? ...... तुझे पता है ना वो तुझसे कितना प्यार करता है? तेरे लिए सबसे लड्ड चूका है? मैं पूछता हूँ उसने क्या गलत कर दिया? तेरी ख़ुशी ही तो चाही थी? हे भगवान!!! जिस इंसान से हमारा दर्द ना छुपा तू उससे अपना दर्द छुपा रही थी!" ये सुन के मैं थोड़ा हैरान हुई....और आगे की बात सुनके मेरे होश उड़ गए; "जब मानु बेटा पंचायत क काम से गांव आया था तब वापसी में हम से मिल के गया था| वो तो बस हुमा लोगों का हाल- चाल पूछने आया था और मेरी परेशानी देख उसने मुझसे बहुत जोर देके कारन पूछा तो मैंने उसे सब बता दिया|[/color]"

दरअसल अनिल को MBA कराने के लिए पिताजी को अपनी ज़मीन और घर गिरवी रख के बैंक से लोन लेना पड़ा था| बैंक ने घर और ज़मीन की value बहुत कम लगाईं थी इस कारन हमें सिर्फ 3.5 लाख ही लोन मिला बाकी का 1.5 लाख कम पड़ रहा था| हमारी दूसरी ज़मीन से घर का गुजर-बसर हो जाय करता था बस! पिताजी की उम्मीद थी की MBA के बाद अनिल को अच्छी नौकरी मिल जायेगी और वो धीरे-धीरे कर के लोन की किश्त उतारता जायेगा| पर ऐसा ना हो सका..... financially हमारे घर की हालत बहुत कमजोर हो गई थी और बैंक को अपना पिसा डूबता नजर आया तो उसने पिताजी को नोटिस भेज दिया...... सच पूछो तो मैं अपनी इस नई जिंदगी में इस कदर डूब गई की मैं ये बात भूल ही गई थी...और मुझे ये तब याद आया जब आज पिताजी ने ये बात दोहराई!

"[color=rgb(255,]जब मानु को ये बात पता चली तो उसने बिना कुछ सोचे मुझे 5 लाख का चेक फाड़ के दे दिया..... और बस इतना कहा की संगीता को कुछ मत बताना| " ये सुन के मेरे चेहरे पे हवाइयां उड़ने लगीं...क्योंकि मुझे इन्होने कुछ नहीं बताया था| "हाँ...तूने सही सुना...तेरे पति ने...जबकि तुझे तो शायद याद ही नहीं होगा की तेरा बाप कर्जे तले दबा हुआ है! पर मैंने आजतक तुझसे कुछ शिकायत नही की.... पर आज तूने एक देवता सामान इंसान को इस कदर दुखी किया की आज उसकी ये हालत हो गई! और तुझे अगर इतनी ही तकलीफ थी तो क्यों शादी की? ..क्यों मानु की और अपने सास-ससुर की जिंदगी में जहर घोल दिया?क्या तुझे पता नहीं था की जो कदम तू उठाने के लिए उसे मजबूर कर रही है उसका अंजाम क्या होगा? उसने बिना पूछे बिना कहे हर मोड़ पे हमारे परिवार की मदद की...सिर्फ इसलिए की वो तुझे खुश देखना चाहता था और तू....तू उसका मन रखने के लिए खुश होने का दिखावा तक ना कर सकी? मैं पूछता हूँ उसने कौन सा तुझसे सोना-चांदी माँगा था जो तू दे ना पाई? .... उसके बहुत एहसान हैं हम पर...जिन्हें मैं कभी नही उतार सकता| दिल को लगता था की कम से कम तुझे पा कर वो खुश है...पर तूने तो उससे वो ख़ुशी भी छीन ली! .मुझे शर्म आती है तुझे अपनी बेटी कहते हुए![/color]" ये सब सुनने के बाद मेरे पाँव तले की जमीन खिसक चुकी थी...और मुझे खुद से घिन्न आने लगी थी....नफरत हो गई थी खुद से.... मन इस कदर कचोटने लगा की अगर मैं मर जाती तो अच्छा था!

"समधी जी ये आप क्या कह रहे हो? ये बहु है हमारी!" ये कहते हुए मेरी माँ (सासु माँ) तेजी से चल के मेरे पास आईं और मेरे आँसूं पोंछने लगी| "बहुत प्यार करती है ये मानु से! हो गई गलती बच्ची से! ... उसने कुछ जानबुझ के तो नहीं किया? वो भी सिर्फ इसलिए की वो हम लोगों को अकेला छोड़ के नहीं जाना चाहती थी| इसीलिए वो नाराज हुई...मुझे नहीं लगता उसने कुछ गलत किया! आपको पता है मैं और मानु के पिताजी चाहते थे की शादी के बाद ये दोनों अलग settle हो जाएँ इसलिए शादी वाले दिन मैंने बहु को उसके नए घर की चाभी दी तो जानते हैं इसने क्या किया? चाभी मुझे लौटा दी...और बोली माँ मैं इन्हें आप से अलग करने नहीं आई हूँ| हम आपके साथ ही रहेंगे! और तो और अपने हनीमून पर जाने के लिए इसने शर्त राखी की हम सब एक साथ घूमने जाएँ! हर कदम पर इस्सने परिवार को तवज्जो दी है और आप इसकी एक छोटी सी गलती पर....."

"समधन जी...छोटी सी गलती? अगर आप इसे अपनी बेटी मानती हैं तो ये हमारा बेटा है...और आपकी बेटी की वजह से मेरा बेटा इस समय बी बेहोश पड़ा है... सिर्फ और सिर्फ इसकी वजह से!" पिताजी ने मुझ पर गरजते हुए कहा|

"एक बात बताइये समधी जी... अगर यही गलती आपके बेटे ने की होती तो?" माँ ने फिर से मेरा बचाव किया|

"बहनजी.... मानु के बहुत एहसान हैं हम पर...जिसे हम छह के भी नहीं उतार सकते|" पिताजी ने बात को संभालते हुए कहा|

"भाईसाहब.....कैसे एहसान? एहसान तो परायों पर किये जाते हैं और आप तो अपने हैं|" पिताजी (ससुर जी) ने मुस्कुराते हुए कहा| "देखिये जो हुआ सो हुआ...बहु ने कुछ भी जान कर नहीं किया| वो बस मानु को टेंशन नहीं देना चाहती थी| अब आप गुस्सा छोड़िये और अनिल बेटा तुम्हें गुडगाँव दस बजे पहुँचना है| तो मुझे और अपने माँ-पिताजी को घर छोड़ दो| और मानु की माँ..तुम यहीं बहु के पास रहो मैं थोड़ी देर बाद आऊँगा तब तक तुम बहु को नाश्ता करा देना|" बस इतना कह के पिताजी और सब चले गए|

सब के जाने के बाद माँ ने मुझे मुँह-हाथ धो के आने को कहा और फिर नाश्ता परोस दिया| "चल आजा बेटी नाश्ता कर ले! आयुष और नेहा सुबह अपने आप उठ गए और आज खुद तैयार भी हो गए| मैंने सोचा की आज इन्हें स्कूल छोड़ दिया जाए तो आयुष जिद्द करने लगा की पहले पापा से मिलूँगा...उफ्फ्फ्फ़ कितनी मुश्किल से माना वो! खेर तेरे पिताजी (ससुर जी) ने उसे वादा किया की दोनों आज रात यहीं रुकेंगे तब जाके माना वो| अरे! तू वहां कड़ी-कड़ी क्या सोच रही है? चल आजा जल्दी से|" मैं आके उनके सामने बैठ गई पर खाने को हाथ तक नही लगाया और बोली; "माँ...मन नहीं है ...!"

"बेटी..माँ-बाप के कुछ कहने से रूठ थोड़े ही जाते हैं? क्या माँ-बाप को इतना भी हक़ नही की वो अपने बच्चों को डाँट सके?" माँ ने बड़ा सीधा सा सवाल पूछा|

"माँ मैं पिताजी के डाँटने से नही रूठी ... उन्होंने तो कुछ गलत कहा ही नहीं! गलती मेरी थी...सारी की सारी... मुझे तो खुद से घिन्न आ रही है की मैंने इनके साथ ऐसा व्यवहार किया| इन्होने बिना बोले मेरी हर बात समझी.... बिना मेरे कहे पिताजी की ज़मीन बचाई वरना आज वो सब सड़क पे आ जाते और...मैं इनको इस कदर परेशान करती रही!"

"बेटी अगर तेरे खाना ना खाने से मानु की तबियत ठीक हो जाती तो हम सब भूख हड़ताल कर देते और आब तक तो वो भला-चंगा हो जाता| देख तू अपने लिए ना सही उस नए मेहमान के लिए खाना खा ले... अगर उसे कुछ हो गया तो मानु भले ही तुझे माफ़ कर दे पर वो खुद तुझे कभी माफ़ नही करेगा!" इतना कह के माँ ने मुझे जबरदस्ती अपने हाथ से खाना खिलाया|

"बेटी मैं बड़ी किस्मत वाली हूँ.... पहले मानु को अपने हाथ से खिलाती थी.... फिर आयुष को खाना खिलने का मौका मिलाया और आज देख तो किस्मत ने मुझे तुझे भी खिलाने का मौका दिया|"

"इस हिसाब से तो मैं ज्यादा किस्मत वाली हूँ माँ.... बचपन के बाद इतने साल गुजर गए और आज मुझे फिर से अपनी माँ के हाथों खाना खाने का मौका मिल रहा है|"

"अच्छा जी...मानु ने तुझे कभी खाना नहीं खिलाया?" माँ ने जानबूझ के ये शरारती सवाल पूछा, और उनका सवाल सुन के मैं हँस पड़ी! "देखा ....मैं जानती थी!!!" मेरी हँसी छूट गई... और इस तरह हम माँ-बेटी हँस पड़े..... एक मुद्दत बाद! मैं जानती तो थी की माँ मुझसे अपनी बेटी जैसा प्यार करती है...पर उसका एक अनोखा एहसास मुझे उस दिन हुआ!

दोपहर को अनिल बच्चों को स्कूल से सीधा हॉस्पिटल ले आया और वापसी में माँ को अपने साथ घर ले गया| आयुष तो आते ही अपने पापा के पास जा बैठा और उनसे बात करने लगा| नेहा सोफे पे बैठ के अपना होमवर्क निकाल के बैठ गई| आयुष कुछ खुसफुसाने लगा और उसकी इस खुसर-फुसर में हम माँ-बेटी दोनों की दिलचस्पी जाग गई| "आयुष...बेटा पापा से क्या बात कर रहे हो?" इतने में नेहा उठ के अपने पापा के पास स्टूल पर बैठ गई| उसे इतने नजदीक बैठा देख वो बोला; "दीदी....आप उधर सोफे पर बैठो...मुझे पापा से बात करनी है|"

"मैं नहीं जाती... तू बोल जो बोलना है|" नेहा ने अकड़ते हुए जवाब दिया|

"प्लीज दीदी ...प्लीज......" आयुष ने बड़ी भोली सी शकल बनाते हुए कहा| पर नेहा टस से मस नहीं हुई आखिर मुझे ही बात संभालनी पड़ी वरना दोनों लड़ाई शुरू कर देते|

"आयुष....जो सीक्रेट बात तुम करने वाले हो मुझे पहले से पता है!" मैंने थोड़ा सा नाटक किया| (Bluffing)

"आपको कैसे पता?.... ये तो पापा और मेरा सीक्रेट है!" उसने बड़ी हैरानी से पूछा|

"बेटा....मैं आपकी माँ हूँ| उस दिन जब आप पापा से बात कर रहे थे ना, तब मैंने सब सुन लिया था|" मैंने फिर से Bluff किया|

"ठीक है.... !" शर्म से उसके गाल लाल हो गए थे! "वो...... आज उसने मुझसे बात की!" बस इतना कह के आयुष रुक गया और अपने पापा की तरफ देखने लगा| 'उसने' सुन के मुझे थोड़ा शक हुआ की जर्रूर ये कोई लड़की है! दरअसल आयुष अपने पापा पर ही गया है| इन्होने भी स्कूल में कभी किसी लड़की से बात करने की कोशिश नही की...हाँ अगर कोई लड़की सामने से बात करे तभी ये उसका जवाब देते थे|

"अच्छा...wow! क्या बोला उसने?" मैंने पूछा तो आयुष शर्मा गया|

"वो....उसने....पूछा की .....क्या मैंने होमवर्क किया है?" आयुष ने अटकते-अटकते हुए कहा, ये सुनते ही मेरी हँसी छूट गई| पर नेहा के चेहरे पर कोई भाव नही थे| वो अब भी मुझसे नाराज थी और मेरी हँसी उसे रास नही आई थी इसलिए वो चिढ़ते हुए बोली; "तो? तू स्कूल पढ़ने जाता है या girlfriends बनाने? पढ़ाई में ध्यान लगा!" आयुष का मुँह लटक गया तो मैंने उसे अपने साथ चलने को बोला और उसे ले के मैं कैंटीन आ गई|

"बेटा ये लो आपका फेवरट मिल्क शेक.... happy!" उसने कोई जवाब नहीं दिया तो मैंने ही से बात शुरू की; "बेटा....आपकी दीदी पापा को लेके थोड़ा परेशान है| देखो मुझसे भी वो बात नही करती.... जब पापा ठीक हो जायेंगे तब सब ठीक हो जायेगा| तबतक कोशिश करो की आपकी दीदी को गुस्सा ना आये पर उसे अकेला मत छोड़ना, वो आपसे बहुत ज्यादा प्यार करती है...मुझसे भी ज्यादा!" वो प्यार से मुस्कुराया और स्लुर्प...स्लुर्प... कर अपना मिल्क शेक पीने लगा| आज रात को मैं और बच्चे यहीं सोने वाले थे तो खाना खाने के बाद हम सब लेट गए| मैं सोफे पर और बच्चे नीचे| रात के बारह बजे होंगे की मुझे किसी के बोलने की आवाज आई, ये कोई और नहीं नेहा की आवाज थी| वो अपने पापा से कुछ बात कर रही थी|

"पापा ..... मुझे आपको सॉरी बोलना था!" इतना कह के वो चुप हो गई.....लगा जैसे आगे बोलने के लिए हिम्मत बटोर रही हो| कुछ देर बाद फिर से बोली; "i'm sorry पापा! मैंने आपको गलत समझा..... इतने साल मम्मी के साथ रही ना इसलिए उनका रंग मुझ पर भी चढ़ गया..... जब आप हमें गाँव में छोड़के शहर आ गए थे ये तब की बात है| आप कभी-कभी फोन किया करते थे ....पर मुझसे आपकी कभी बात नहीं हुई! मुझे बहुत बुरा लगता था.... जबकि मैं जानती थी की आप मुझे सबसे ज्यादा प्यार करते हो फिर भी आप हमेशा मम्मी से ही बात करते थे| रात को मम्मी मुझे बताती थी की तेरे पापा का फोन आया था और तेरे बारे में पूछ रहे थे| तब मैं उनसे पूछा करती की पापा मुझसे बात क्यों नहीं करते तो मम्मी कहती की बेटा तू घर पर नहीं थी इसलिए तुझसे बात नही हो पाई| ये सुन के मुझे यही लगता की मम्मी आपका बचाव कर रही हैं और मैं चुप हो जाती| पर फिर कुछ दिन बाद आपका फोन आना भी बंद हो गया! मम्मी उदास रहने लगी थी .... अब चूँकि आपने मुझे मम्मी को खुश रखने की जिम्मेदारी दी थी तो मैं मम्मी को हँसाने की कोशिश किया करती| एक दिन रात को मैंने मम्मी से पुछ्ह् की अब पापा का फोन क्यों नहीं आता? तो माँ ने कहा की बेटा पापा पढ़ाई कर रहे हैं...उन्हें बहुत बड़ा आदमी बनना है ....इसलिए अभी उनसे बात नहीं हो रही| इस बार फिर मैंने उनकी बातों पर भरोसा कर लिया| पर मन में कहीं न कहीं ये लगता था की आप को हमारी परवाह नहीं है! आयुष के आने के बाद मुझे लगा था की आप जर्रूर आओगे ....पर आप नहीं आये! मैं बहुत रोई.... पर मम्मी ने मुझे चुप करा दिया, ये कह के की बेटा पापा बिजी हैं ...जल्दी ही आएंगे|

आयुष दो महीने का हो गया था....गर्मी की छुट्टियाँ मजदीक आ गई थीं, तो मैंने मम्मी से फिर पूछा की मम्मी इस बार गर्मियों की छुटियों में पापा आएंगे ना? तो माँ ने झुंझलाते हुए जवाब दिया, जब देखो पापा..पापा...पापा... करती रहती है! उन्हें पढ़ने दे .... उन्हें जिंदगी में कुछ बनना है..... कुछ हासिल करना है... यहाँ के लोगों की तरह खेतों में हल नहीं चलाना! ये सुन के मैं चुप हो गई..... आपके दुबारा आने की जो उम्मीद थी उसे भी बुझा दिया! मेरे मन ने मुझसे मम्मी की बातों का ये अर्थ निकालने पर मजबूर किया की आप हमें भूल चुके हो ..... आप पढ़ाई में इस कदर मशगूल हो गए की आपने हमें भुला दिया है| आपके मन में मम्मी के लिए जो प्यार था वो खत्म हो गया तभी तो आपने फोन करना बंद कर दिया और यही कारन है की मम्मी इतना दुखी और परेशान है और इसीलिए वो मुझ पर बरस पड़ीं| मैंने आगे बढ़ के माँ को अपने हाथों से जकड लिया और हम दोनों रोने लगीं| मैंने उस दिन ठान लिया की मैं माँ को कभी आपकी याद नहीं आने दूँगी और उस दिन से मैंने उनका ख़याल रखना शुरू कर दिया|

मैंने माँ को कभी भनक तक नहीं लगने दी की मैं आपको कितना miss करती हूँ! पूरे घर में सिर्फ एक आप ही तो थे जो मुझसे प्यार करते थे| बाकी तो कभी किसी को मेरी फ़िक्र थी ही नहीं| साल दर साल बीतते गए और फिरर वो दिन आया जब मैं आपसे मिली और आपने मुझे वो ड्रेस गिफ्ट की| उस गिफ्ट पैक में सबसे ऊपर मेरे फेवरट चिप्स का पैकेट था| तब मुझे एहसास हुआ की आप मुझे जरा भी नहीं भूले... आपको मेरी पसंद आज भी याद थी| मेरे मन में इच्छा जाएगी की आखिर ऐसी क्या वजह थी की आप को मुझसे इतने सालों तक दूर रहना पड़ा और तब मजबूरन मैंने छुप के आप दोनों की बात सुनी| सब सुनने के बाद पापा मैंने खुद को बहुत कोसा ...इतने साल मैं आपको कितना गलत समझती रही! मम्मी के साथ रह-रह के मैं भी उन्हीं की तरह हो गई थी...उन्ही की तरह सोचने लगी थी| मैं उस दिन से आपसे माफ़ी माँगना चाहती थी पर कभी हिम्मत नहीं हुई| फिर आप को और मम्मी को इस तरह खुश देख के मैं ये बात कहना ही भूल गई ...पर अब मम्मी ने सारी हद्द पार कर दी| उनकी वजह से आपकी तबियत ख़राब हुई....और अगर इस बार मैंने आपको खो दिया तो i swear पापा मैं उन्हें कभी माफ़ नहीं करुँगी और कभी उनसे बात नहीं करुँगी| प्लीज पापा आप जल्दी से ठीक हो जाओ.....प्लीज ....प्लीज!!!" ये कहते-कहते नेहा रो पड़ी!

ये सब सुनने के बाद मैं रो पड़ी.... मेरी वजह से मेरी बेटी इतने साल अपने पापा के प्यार से महरूम रही! ये बात मुझे अंदर ही अंदर खाने लगी और ये दर लगने लगा की अगर मैंने इनको (अपने पति) को खो दिया तो ये परिवार जिसे आपने इतने प्यार से बाँधा है वो बिखर जाएगा| मुझसे नेहा के आँसूं बर्दाश्त नहीं हुए तो मैं उठ के उसके पास गई और उसके कंधे पे हाथ रख के उसे उठाया और बिस्तर पर ला कर लिटा दिया| ना तो मैं उस समय कुछ कहने की हालत में थी और ना ही नेहा! मैंने उसका सर थप-थापा के सुलाने की कोशिश की तो उसने मेरा हाथ झटक दिया और आयुष की तरफ मुँह कर के लेट गई| मैं अपना मन मसोस कर लेट गई....पर एक पल के लिए भी सो न सकी, सारी रात नेहा की कही बातें दिमाग में गूँजती रही|
 

[color=rgb(51,]छब्बीसवाँ अध्याय[/color][color=rgb(51,]: दुखों का [/color][color=rgb(51,]ग्रहण[/color]
[color=rgb(251,]भाग -7[/color]

[color=rgb(26,]अब तक पढ़ा:[/color]

नेहा अब भी रोये जा रही थी और मुझसे नेहा के ये आँसूँ बर्दाश्त नहीं हो रहे थे, मैं उठी और नेहा के पास जा कर उसके कँधे पर हाथ रख उसे ढाँढस बँधाया| इस समय हम माँ-बेटी, दोनों ही कुछ बोलने की हालत में नहीं थी| नेहा का रो-रो कर बुरा हाल था तो मुझे अपनी ही बेटी से कुछ कहने में डर लग रहा था की कहीं वो प्लीट कर मुझे ही न झाड़ दे! मैंने नेहा के कँधे पर हाथ रखे हुए ही उसे सोने का मूक इशारा किया और उसे ले कर ज़मीन पर बिछे बिस्तर तक ले आई| नेहा चुपचाप बिना कुछ कहे आयुष की बगल में लेट गई, मैं भी सोफे पर लेट गई और उसका सर थपथपा कर उसे सुलाने की कोशिश करने लगी| लेकिन नेहा ने गुस्से में एकदम से मेरा हाथ झटक दिया और अपने भाई आयुष की ओर करवट ले कर सो गई| नेहा के गुस्से से मेरा हाथ झटकने से मुझे दुःख तो बहुत हुआ मगर इसमें नेहा की कोई गलती नहीं थी| वो बेचारी तो पहले ही अपने पापा को इस तरह देख कर टूट रही थी ओर मुझे देख उसे बार-बार गुस्सा आता था| मैं भी मन मसोस कर सोफे पर पड़ी रही मगर एक पल को भी मेरी आँख नहीं लगी, सारी रात नेहा की कही बातें मेरे दिमाग में गूँजती रहीं तथा मेरे दिल को घाव करती रहीं!

अगली सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई तो मैंने अपने सामने बड़की अम्मा को पाया.

[color=rgb(97,]अब आगे:[/color]

बड़की अम्मा के पीछे ही अजय भैया खड़े थे, अम्मा और अजय भैया को अचानक देख मैं हैरान रह गई! मैंने तुरंत बड़की अम्मा के पाँव छुए और उन्होंने मुझे अपने गले लगा लिया तथा इनका हाल-चाल पूछने लगीं| तभी आयुष बाथरूम से निकला और अपनी बड़ी दादी जी को देख वो दौड़ता हुआ आया, अम्मा ने आयुष को गोद में उठा कर गले लगा लिया| नेहा भी अपनी बड़ी दादी जी की आवाज सुन उठ गई मगर वो अपनी बड़ी दादी जी के पास जाने से झिझक रही थी| बहुत छोटे-छोटे कदमों से नेहा आगे आई और अपनी बड़ी दादी जी के पाँव छुए, उस समय बड़की अम्मा का ध्यान आयुष पर था इसलिए वो नेहा को देख नहीं पाईं! नेहा को अपनी बड़की अम्मा द्वारा नजर अंदाज किया जाना बहुत बुरा लगा और वो सर झुकाये सोफे पर चुप-चाप बैठ गई| इधर मैंने माँ (मेरी सासु माँ) को फ़ोन मिला दिया था और उन्होंने फ़ोन उठा लिया था इसलिए मैं बड़की अम्मा से नेहा को आशीर्वाद देने को न कह पाई| अम्मा ने आयुष को अपनी गोदी से उतारा और जा कर इनके पास बैठ गईं| इनके सर पर हाथ फेरते हुए बड़की अम्मा की आँखें भर आईं; "बहु, तुहु हमका मानु की ई हालत का बारे म कछु नाहीं बतायो?" बड़की अम्मा आँखों में आँसूँ लिए हुए बोलीं| बड़की अम्मा का सवाल सुन मेरा सर शर्म से झुक गया, मैं उन्हें क्या कहती की इस हफडादफ्डी में मुझे कुछ याद ही नहीं रहा था| जब मुझे मेरे माँ-पिताजी को कुछ बताना याद नहीं रहा तो मैं बड़की अम्मा को क्या फ़ोन करके बताती| मेरी झुकी हुई गर्दन देख बड़की अम्मा को शायद मेरी मनोदशा समझ आई इसलिए उन्होंने कोई सवाल नहीं पुछा| "भौजी, मानु भैया का भवा?" अजय भैया चिंतित हो कर मुझसे पूछने लगे, तब मैंने रोते हुए बड़की अम्मा और अजय भैया को सारा सच बताया| मेरी बात सुन बड़की अम्मा और अजय भैया स्तब्ध थे, उनके पास बोलने के लिए कोई शब्द नहीं थे! हाँ इतना ज़रूर था की माँ को अपने बेटे चन्दर के किये पर ग्लानि हो रही थी!

आधा घंटा बीत गया था, बड़की अम्मा इनके सर पर प्यार से हाथ फेर रहीं थीं और अजय भैया दरवाजे के पास चुप खड़े थे| तभी दरवाजा खोल कर एक-एक कर मेरे सास-ससुर, मेरे माँ-पिताजी और अनिल दाखिल हुए| ससुर जी ने सीधा अपनी भौजी के पाँव छुए और आशीर्वाद लेना चाहा मगर बड़की अम्मा उनसे कुछ नहीं बोलीं| फिर सासु माँ ने बड़की अम्मा के पैर छुए लेकिन बड़की अम्मा ने अब भी कुछ नहीं कहा| बड़की अम्मा की ये चुप्पी सभी को डरा रही थी, आखिर कर ससुर जी ने ही हिम्मत कर के बड़की अम्मा से उनकी चुप्पी का कारण पुछा; "भौजी, कछु तो कहो?" पिताजी के सवाल को सुन कर मुझे लगा था की मेरे बड़की अम्मा को फ़ोन कर के इनकी इस हालत की खबर न देने के लिए बड़की अम्मा को जो गुस्सा आया होगा वो गुस्सा आज ससुर जी पर निकलेगा मगर शुक्र है की बड़की अम्मा को मेरे कारण गुस्सा नहीं आया था!

'हमार मुन्ना, हियाँ ई हाल म पड़ा रहा और तू हमका कछु नाहीं बतायो? हमका ई बात समधी जी (मेरे पिताजी) बताइन, इतना जल्दी हमका पराया कर दिहो तू?" बड़की अम्मा नम आँखों से ससुर जी से शिकायत करते हुए बोलीं| "नाहीं-नाहीं भौजी, ऐसा न कहो! हम फ़ोन किहिन रहा और भाईसाहब फ़ोन उठाएँ रहे| हम उनका सब बात बतायन मगर भाईसाहब बिना कछु कहे फ़ोन काट दिहिन! फिर हम अजय का फ़ोन किहिन मगर वऊ फ़ोन नाहीं उठाईस, तब हारकर हम समधी जी से कहिन की ऊ आपका लगे खबर पहुँचा आएं!" ससुर जी अपनी भौजी के आगे हाथ जोड़ कर विनती करते हुए बोले| ससुर जी की बात सुन अम्मा को तसल्ली हुई की उनके बेटे समान देवर ने उन्हें पराया नहीं किया है, वो अब भी उन्हें अपनी भौजी समान माँ को अब भी बहुत प्यार करता है| लेकिन अम्मा को बड़के दादा पर गुस्सा भी बहुत आया, क्योंकि उन्होंने सब जानते-बूझते हुए भी अपनी दुश्मनी निकालने के लिए अम्मा को इनकी हालतके बारे में कुछ नहीं बताया|

बातें सुलझ गई थीं तो ससुर जी ने अम्मा से पुछा की वो बड़के दादा को बता कर आईं हैं तो बड़की अम्मा ने बताया की अजय भैया ने बहाना बनाया है की वो अम्मा को ले कर अम्बाला किसी रिश्तेदार को मिलने जा रहे हैं| ऐसा नहीं है की बड़के दादा को शक न हुआ हो मगर फिर भी उन्होंने अम्मा को नहीं रोका|

आज मौका था तो अजय भैया ने ससुर जी से उस दिन इनके ऊपर पुलिस कंप्लेंट करने के लिए माफ़ी माँगी और ससुर जी ने भी अजय भैया को माफ़ कर दिया| आज का पूरा दिन सिर्फ चिंता में बीता, बड़की अम्मा रात होने तक इनके सिरहाने बैठी रहीं और इनके मस्तक पर हाथ फेरती रहीं| आज दिषु भैया शाम को नहीं आ पाए क्योंकि उन्हें मजबूरी में दिल्ली से बाहर ऑडिट के लिए जाना पड़ा क्योंकि उनकी नौकरी का सवाल था! ससुर जी ने उन्हें आश्वस्त किया की वो इनको ले कर चिंता न करें| इधर नेहा बहुत अकेला महसूस कर रही थी, सुबह जब से बड़की अम्मा ने अनजाने में उसे नजर अंदाज किया था तभी से नेहा खामोश बैठी थी| मैंने अनिल से दोनों बच्चों को बाहर घुमा लाने को कहा मगर नेहा ने कहीं भी जाने से मना कर दिया| कल नेहा का स्कूल था और मुझे उसे यूँ गुम-सुम देख कर बहुत दुःख हो रहा था, चूँकि कमरे में सभी लोग मौजूद थे इसलिए मैंने इशारे से नेहा को बाहर टहलने के लिए अपने पास बुलाया| बाहर जाते हुए मैं अपनी सासु माँ से बोली की मैं और नेहा थोड़ा सैर कर के आ रहे हैं|

सैर क्या करनी थी, हम दोनों माँ-बेटी अस्पताल के गलियारे में ही टहल रहे थे| टहलते-टहलते मैंने ही बात शुरू की; " बेटा, मैं आपसे कुछ कहूँ?" मेरे इस सवाल पर नेहा कुछ नहीं बोली मगर मुझे फिर भी अपनी बात तो कहनी थी इसलिए मैं बड़की अम्मा का पक्ष लेते हुए नेहा को समझाने लगी; "बेटा, अम्मा जब सुबह आईं तो उनका ध्यान आयुष में लगा हुआ था इसलिए उन्होंने आपको देखा नहीं|" मेरी बात सुन नेहा सर झुकाये कुछ बुदबुदाने लगी! जब मैंने उससे पुछा की वो क्या बोल रही है तो नेहा उखड़ते हुए बोली; "अगर देखा भी होता तो बड़ी दादी जी मुझे उतना लाड तो नहीं करतीं जितना वो आयुष को करती हैं!" नेहा की बात किसी हद्द तक ठीक थी, बड़की अम्मा आयुष को ज्यादा लाड करती थीं| आयुष के पैदा होने के बाद एक-आध बार ही कोई मौका आया था जब अम्मा, आयुष और नेहा ने एक साथ, एक ही थाली में खाना खाया था| इधर मैं इन बातों को सोच रही थी और उधर नेहा अपनी बात पूरी करने लगी; "ऐसा नहीं है की मुझे आयुष से जलन होती है, मुझे बस बुरा लगता है जब कोई सिर्फ आयुष को प्यार करे और मुझे नजर अंदाज करे! एक बस पापा..." इतना कहते हुए नेहा एकदम से रुक गई क्योंकि उसका दिल आगे कहने वाले शब्दों को सोच कर ही सहम गया था! नेहा की ये हालत देख मेरा दिल काँप गया क्योंकि मैं जानती थी की नेहा क्या सोच कर डरी हुई है! मेरा गला भर आया था मगर मैं अपनी बेटी के सामने रो कर उसे कमजोर नहीं करना चाहती थी इसलिए मैंने खुद को सँभाला और नेहा को हिम्मत बँधाते हुए बोली; "बेटा, आपके पापा को कुछ नहीं होगा! भगवान जी कभी हमारे साथ ऐसा नहीं कर्नेगे, कम से कम आपके साथ तो कतई ऐसा अन्याय नहीं करेंगे|" नेहा की तरह मुझसे भी वो घिनोने शब्द नहीं बोले जा रहे थे|

खैर नेहा ने मेरी बात सुनी मगर वो कुछ नहीं बोली, तो मैंने ही उसे बहलाने के लिए पुछा; "बेटा, आप चिप्स खाओगे?" मेरे पूछे सवाल पर नेहा ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी बल्कि चुपचाप खड़ी हो कर ढलते हुए सूरज को देखने लगी| इस वक़्त नेहा को अकेला छोड़ना ठीक नहीं था इसलिए मैं भी उसी के साथ खड़ी हो कर ढलते हुए सूरज को देखने लगी| कुछ पल खामोश रहने के बाद मुझे नेहा की ये ख़ामोशी चुभने लगी, मुझे डर लगने की कहीं नेहा के दिल में कोई सदमा न बैठ जाए इसलिए उसे बुलवाने के लिए मैंने एक पुरानी याद छेड़ दी; "बेटा आपको याद है वो दिन जब गाँव में आप, मैं और आपके पापा पहली बार फिल्म देखने गए थे?" मेरे पूछे इस सवाल पर नेहा ने सर हाँ में हिला कर अपना जवाब दिया| उसके दिमाग में उस दिन की याद ताज़ा होने लगी थी; "उस दिन हमने कितना मज़ा किया था न? पहलीबार हमने फिल्म देखि, उसके बाद साथ बैठ कर बाहर पहलीबार खाना खाया! आपको याद है, उस दिन आपने पहलीबार अपने पापा को 'पापा' कहा था!" ये सुन नेहा के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान छलक आई| "आपके पापा ने आपको कभी नहीं बताया पर उस दिन उन्हें सबसे ज्यादा ख़ुशी मिली थी, उस दिन आपके पापा इतना खुश थे की वो ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे थे!" ये सुन नेहा का चेहरा आज ख़ुशी से दमकने लगा था, उसकी नजरों के आगे उसके पापा जी का खुश चेहरा आ गया था! "उसी दिन आपके पापा ने मुझे और मैंने उन्हें अपना जीवन साथी स्वीकारा था!" जीवन साथी स्वीकरने से मेरा मतलब था उसी दिन इन्होने पहलीबार मेरे गले में वो चांदी का मंगलसूत्र पहनाया था, जीवन साथी तो हम एक दूसरे को पहले से मानते थे! इधर नेहा को इस बात से उतनी ख़ुशी नहीं हुई जितना उसे खुद के द्वारा इन्हें पापा कहने से हुई थी! नेहा के चेहरे पर आई मुस्कान को और बढ़ाने के लिए मैंने उसे गाँव में उसका स्कूल का पहला दिन याद दिलाया; "और आपको याद है आपका गाँव में स्कूल का पहला दिन?" ये सुन नेहा खुद को आयुष की उम्र में याद करने लगी और उसे अपने पापा से मिला वो प्यार याद आने लगा! "कितना रोये थे आप आपने स्कूल के पहले दिन और कैसे आपके पापा ने आपको समझा-बुझा कर स्कूल छोड़ा था!" मैंने बस इतना ही कहा था की नेहा को उसका स्कूल का पहला दिन याद आ गया| "एक और बात जो आपको नहीं पता वो ये की उस दिन आपके अध्यापक जी ने जब आपसे आपका नाम पुछा तो आपने 'नेहा मौर्या' कहा था, आपके मुँह से नेहा मौर्या सुन आपके पापा का दिल बहुत खुश हुआ था क्योंकि उसी दिन आपके पापा के दिल में पहलीबार आपको अपनी बेटी मानने की तमन्ना ने जन्म लिया था!" ये सुन नेहा का सीना गर्व से फूल गया था| "दिल्ली आने के बाद आपके पापा मुझसे बहुत नाराज़ थे और भूलना चाहते थे मगर आपको वो कभी भुला नहीं सकते थे! सच में, आपके पापा आपको मुझसे भी ज्यादा प्यार करते हैं!" मेरे मुँह से ये शब्द सुन नेहा के दिल को सुकून मिला था और उसकी उम्मीद का चिराग फिर से तेजी से जलने लगा था|

नेहा का मन अब हल्का हो चूका था, इतने में ससुर जी ने हमें कमरे के भीतर बुलाया| अगले दिन दोनों बच्चों का स्कूल था इसलिए सब लोग घर जा रहे थे, चूँकि मैं पिताजी से 24 घंटे अस्पताल में इनके पास रुकने का पहले ही वचन ले चुकी थी इसलिए पिताजी ने मुझे घर चलने को नहीं कहा| हालाँकि बड़की अम्मा ने मुझे घर चलने को बहुत कहा, क्योंकि मैं माँ बनने वाली थी मगर मेरी सासु माँ ने उन्हें मेरे न जाने का कारण समझा दिया|

अगले दो दिन तक मैं इनके जल्दी होश में आने की दुआ माँगती रही और बेसब्री से इनके पलकें हिलाने का इंतज़ार करती रही| दिनभर घर से सभी आ कर इनके पास बैठते थे और रात में बस हम दोनों मियाँ-बीवी ही रह जाते थे! तीसरे दिन की बात है, रात हो चुकी थी और मैं इनका हाथ थामे हुए स्टूल पर बैठी उन पुराने दिनों को याद कर रही थी की तभी अनिल मेरा खाना ले कर आ गया| "दी...खाना!" इतना कह कर अनिल ने खाने का टिफ़िन टेबल पर रख दिया और जा कर सोफे पर बैठ गया तथा अपने मोबाइल में कुछ पढ़ने लगा| जब से मेरे माँ-पिताजी आये थे और मैंने अपना इकबालिया जुर्म किया था तब से अचानक अनिल ने मुझे दीदी की जगह 'दी' कहना शुरू कर दिया था, जबकि वो अच्छे से जानता था की मुझे उसके मुँह से अपने लिए दीदी सुनना कितना अच्छा लगता है| अभी तक तो मैंने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था मगर आज मैंने कौतूहलवश उससे पूछ ही लिया; "क्यों रे, 'दीदी' शब्द की बजाए तूने मुझे 'दी' बोलना शुरू क्यों कर दिया?" मेरे पूछे सवाल पर अनिल मुझसे नजरें चुराए मौन रहा| मैंने अनिल को गौर से दो मिनट देखा मगर उसने मुझे पूरी तरह नजर अंदाज कर अपना ध्यान मोबाइल में लगाये रखा| एक तो मेरे माँ-पिताजी मुझसे पहले ही कन्नी काटे बैठे थे तथा मुझसे कोई बात नहीं करते थे और ऊपर से अनिल ने भी मुझसे बात करनी बंद कर रखी थी| वो मुझसे बस उतनी ही बात करता था जितनी मेरे सास-ससुर जी उसे कहने को कहते थे|

बहरहाल, जब अनिल कुछ नहीं बोला तो मैं ही बेशर्म होते हुए बात बनाते हुए बोली; "अच्छा ये बता तेरे हाथ का दर्द कैसा है?" दरअसल दिल्ली आने से एक दिन पहले ही अनिल के हाथ का प्लास्टर कटा था, सभी ने उसका हाल-चाल पुछा था सिवाए मेरे! आज जब मैंने अनिल से उसके हाथ के बारे में पुछा तो वो अचरज भरी आँखों से मुझे देखने लगा और मुझे ताना मारते हुए बोला; "मेरे हाथ का दर्द पूछने के लिए आप कुछ लेट नहीं हो गए?" मैंने अनिल से इस तरह ताना मारने की कोई उम्मीद नहीं की थी मगर उसके ताने में मेरे अपने परिवार की तरफ लापरवाह होने की बात छुपी थी| मुझे एहसास हुआ की मेरा बेटा (भाई) सही कह रहा है, सच में मुझे अपने परिवार की कुछ पड़ी ही नहीं थी! "हम्म्म...जानती हूँ बहुत लेट हो गई!" मैंने गहरी साँस छोड़ते हुए सर झुका कर कहा|

मैं उम्मीद कर रही थी की मेरा बेटा (भाई) मुझ पर दया करेगा और मुझसे अच्छे से बात करेगा मगर वो मुझ पर आज जीवन में पहलीबार बरस पड़ा; "आपको किसी की भी ज़रा सी भी परवाह नहीं! न अपने भाई की, न हमारे माँ-पिताजी की और न ही जीजू की!" अनिल की झाड़ सुन मुझे ग्लानि होने लगी थी तथा शर्म से मेरा सर और भी झुक चूका था| लेकिन अनिल की भड़ास अभी पूरी नहीं हुई थी; "ये देखो" कहते हुए अनिल ने अपनी कमीज कमर पर से उठाई और मुझे उसकी कमर पर सर्जरी करने के बाद की गई पट्टी नजर आई! "ये...ये क्या? तुझे...कब?" अनिल के सर्जरी की वो पट्टी देख मैं हक्की-बक्की रह गई और मेरे मुँह से शब्द निकलने बंद हो गए!

"मेरा हर्निया का ऑपरेशन हुआ है और मुझे ये बताने की जर्रूरत तो नहीं की ये ऑपरेशन जीजू ने ही करवाया है! और इसे तो अभी ज्यादा दिन भी नहीं हुए, मेरा ऑपरेशन उसी दिन हुआ जिस दिन जीजू मुंबई आये थे! कुछ दिन पहले ही मुझे अचानक कमर में दर्द हुआ, जब चेकअप कराया तो पता चला की मुझे हर्निया का ऑपरेशन करवाना होगा| ऑपरेशन के नाम से ही मैं घबरा गया, किसी से भी बताने से डरता था| दोस्तों के समझाने पर मैंने गाँव में माँ से बात की, पिताजी से इसलिए नहीं की क्योंकि मैं उन्हें और दुखी नहीं करना चाहता था| एक तो मेरी पढ़ाई के लिए जो पिताजी ने बैंक से क़र्ज़ लिया है उसके तले पहले ही पिताजी दबे हुए थे, उस पर उन्हें पहले ही दिल की बिमारी है अब ऐसे में मैं उन्हें अपने हर्निया के बारे में बता कर और परेशान नहीं करना चाहता था| इस बात को गोपनीय बनाने के लिए मैंने माँ से भी कह दिया की वो पिताजी से कुछ न कहें| मैं अपनी इस बिमारी के बारे में किसी को नहीं बताना चाहता था, न पिताजी को और न ही आपको और जीजू को! ऑपरेशन के दिन मेरे साथ किसी बड़े का साथ रहना जरूरी था इसीलिए मैंने माँ-पिताजी का मुंबई घूमने का प्लान अचानक बनाया| मैं जानता था की पिताजी खेतीबाड़ी के काम के कारण नहीं आएंगे इसीलिए मैंने जोर दे कर माँ को अपने पास घूमने के बहाने से मुंबई बुलाया था ताकि ऑपरेशन के समय वो मेरे पास हों|

पर पता नहीं कैसे जीजू को हमारे दुःख-दर्द का पता लग जाता है, वो मुंबई आये तो थे अपने काम से मगर जाते-जाते वो मुझे मिलने को फ़ोन करने लगे| मेरा फ़ोन नहीं मिला तो उन्होंने सुमन को फ़ोन किया और उसने जीजू को मेरे अस्पताल में भर्ती होने की बात बताई| मुझे ज़मीन पर लेटा देख जीजू को बहुत धक्का लगा और उन्होंने फ़ौरन डॉक्टर सुरेंदर को फ़ोन मिलाया और उसी वक़्त सीधा लीलावती अस्पताल में भर्ती करवाया| अगले दिन ऑपरेशन के लिए उन्होंने सारे पैसे जमा कराये और सुमन से जो पैसे मैंने अपने ऑपरेशन के लिए उधार लिए थे वो सभी पैसे जीजू ने चुकता किया| वो तो अगले दिन ऑपरेशन तक रुकना चाहते थे मगर मैंने और माँ ने उन्हें जबरदस्ती दिल्ली भेजा क्योंकि यहाँ आपको उनकी ज्यादा जरूरत थी! तब हमें क्या पता की आप जीजू का इतना तिरस्कार किये जा रहे हो?!" अनिल की बात सुन मैं बस मुँह बाए उसे देखे जा रही थी!

"इतना ही नहीं, मेरा ऑपरेशन होने से कुछ दिन पहले मैं और सुमन रूम में बैठे ड्रिंक कर रहे थे, जब नशे की हालत में सुमन के मुँह से आपके खिलाफ कुछ उल्टा-सीधा निकल गया| वो आपकी शादी में आने के बाद से ही जीजू पर लट्टू हो गई थी और नशे की हालत में उसके मुँह से सच निकल आया; 'यार, तेरे जीजू इतने हैंडसम हैं! उन्हें तेरी दस साल बड़ी, दो बच्चों और तीसरा बच्चा पेट में लिए हुए दीदी से शादी करने की क्यों सूझी जबकि मैं तो अभी भी तैयार खड़ी थी!" ये सुनते ही मेरे तन-बदन में आग लग गई और मैंने उसे खींच कर एक तमाचा जड़ दिया और रात के दो बजे अपना सामान ले कर सुमन का फ्लैट छोड़ कर अपने दोस्त के यहाँ पहुँचा| रात उसी के पास काटी और अगले दिन जीजू को सारी बात बताई, उन्होंने फ़ौरन मेरे अकाउंट में 20,000/- ट्रांसफर किये और मुझे दूसरी जगह कमरा किराए पर ले कर रहने को कहा तथा नई किराए का एग्रीमेंट मेल करने को कहा| उस दिन से मैंने सुमन से अपने सारे रिश्ते खत्म कर दिए, जीजू ने भी उससे बात करनी बंद कर दी थी वो तो मैं फ़ोन नहीं उठा रहा था इसलिए उन्होंने मजबूरी में सुमन को फ़ोन किया था वरना वो कभी उसे फ़ोन नहीं करते!" ये सब बातें जानकर मुझे बहुत धक्का लगा था, मेरे देवता समान पति जिनका मैंने इतना तिरस्कार किया वो मेरे परिवार के लिए इतना कुछ किये जा रहे थे और वो भी बिना मुझे कुछ बताये?! इधर मैं ग्लानि से भरी अफ़सोस किये जा रही थी और उधर अनिल अपनी बात खत्म करते हुए मुझे ताना मारते हुए बोला; "बोलो, पता था आपको ये सब? ओह्ह! पता कैसे होगा, आपने तो आमरण मौन व्रत जो धारण कर रखा था!" अनिल का ये ताना मुझे बहुत दुःखा, इतना दुःखा की मैं रो पड़ी! मेरे पास उसके सवाल का कोई जवाब नहीं था, थे तो बस आँसूँ जिनकी मेरे भाई के लिए कोई एहमियत नहीं थी! इस समय सिवाए पछताने के मैं और कुछ कर नहीं सकती थी|

"खाना ठंडा हो रहा है, खा लो!" अनिल बड़े रूखे ढंग से मुझे खाना खाने की याद दिलाते हुए बोला और घर चला गया| अनिल घर चला गया और मैं रोते हुए इन्हें सॉरी कहती रही; "सॉरी जी...मुझे माफ़ कर दो...प्लीज...रहम करो मुझ पर!" मैं रोते हुए इनसे विनती करती रही मगर इन्होने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी|

अगले दिन सुबह 8 बजे जब सब आये तो मैंने सबको बताया की डॉक्टर सरिता आईं थीं और वो 2 दिन के लिए दिल्ली से बाहर जा रही हैं| ये बात सुन कर किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, इधर मैं इंतज़ार कर-कर के थक चुकी थी और इनके लिए कुछ करना चाहती थी| इस तरह हाथ पर हाथ रखे बैठ कर कुछ होने वाला नहीं था इसलिए मैं ताव में आते हुए अपनी सासु माँ से बोली; "माँ, आखिर हम कब तक इस तरह बैठे रहेंगे?" मेरी ये हालत देख मेरी सासु माँ बोलीं; "बेटा, हम सब सिवाए दुआ करने के और कर ही क्या सकते हैं?! सरिता ने कहा था न की मानु को होश अपने आप आएगा, सिवाए इंतज़ार के हम क्या कर सकते हैं?" माँ मुझे समझाते हुए बोलीं| माँ की बात से मैं आश्वस्त नहीं थी, मेरा दिल इस वक़्त इनके लिए कुछ करना चाहता था; "माँ, मुझसे इन्हें इस कदर नहीं देखा जाता! मैं.......मैं" मैं बेसब्र हो चुकी थी मगर मैं आगे कुछ कहती उससे पहले ही सासु माँ मेरी दशा समझते हुए बोलीं; "बेटी, मैं समझ सकती हूँ की तुझ पर क्या बीत रही है मगर हम डॉक्टर नहीं हैं! तू बस सब्र रख और भगवान पर भरोसा रख!" सासु माँ ने फिर मुझे समझाया, लेकिन एक बेसब्र इंसान कहाँ किसी की सुनता है?! "माँ, मैं बस इतना कहना चाहती हूँ की जैसे आँखों का इलाज करने के लिए eye specialist होता है, दिल की बिमारी का इलाज करने के लिए heart specialist होता है तो क्या इनके इलाज के लिए कोई specialist, कोई ख़ास डॉक्टर नहीं है? कोई क्लिनिक, कोई अस्पताल, कोई वैध, कोई हक़ीम कोई...कोई तो होगा जो इनका इलाज कर सके?!" ये कहते हुए मेरी हिम्मत जवाब देने लगी और मेरी आँखें भीग गईं| मेरी सासु माँ एकदम से उठीं और दौड़-दौड़ी मेरे पास आ कर मुझे अपने सीने से लगा कर चुप कराने लगीं| "माँ (मेरी सासु माँ)...एक second opinion...मतलब किसी दूसरे डॉक्टर से परामर्श लेने में क्या हर्ज़ है?" मैंने रो-रो कर बिलखते हुए कहा| सासु माँ मेरे सर पर हाथ फेरते हुए मेरे ससुर जी को देखने लगीं और उनसे मूक विनती करने लगीं की मेरी ख़ुशी के लिए ससुर जी किसी दूसरे डॉक्टर से परामर्श लें| मेरे ससुर जी ने माँ की मूक विनती सुनी और हाँ में सर हिलाते हुए मुझसे बोले; "बेटी, सरिता को आने दे फिर हम उससे बात कर के किसी दूसरे डॉक्टर से बात करेंगे|" ससुर जी मुझे आश्वासन देते हुए बोले|

इतने में अनिल एकदम से मेरे ससुर जी से बोला; "पिताजी, क्यों न हम डॉक्टर सुरेंदर से पूछ कर देखें?" कोई कुछ कहता उससे पहल ही अनिल ने सुरेंदर जी को फ़ोन मिला दिया और उन्हें अपने जीजू का सारा हाल सुनाया| सारी बात सुन सुरेंदर जी ने कहा की अनिल उन्हें इनके इलाज़ के सारे कागज whats app कर दे और वो अपने डॉक्टर दोस्तों से बात कर के बताएंगे| फ़ोन कटते ही अनिल ने अपने जीजू के सारे कागज सुरेंदर जी को भेज दिए, करीबन दो घंटे बाद सुरेंदर जी का फ़ोन आया और उन्होंने हमें एक उम्मीद की किरण दिखाई| उन्होंने बताया की बैंगलोर में एक specialized अस्पातल है, जिनका दवा है की coma patients का इलाज़ करने में उनका success rate 75% तक है| हमारे लिए ये बात ऐसी थी जैसे किसी ने अँधेरे कमरे में माचिस की तिल्ली जला दी हो, इस छोटी सी उम्मीद की रौशनी के सहारे हम सभी इस अँधेरे कमरे से बाहर निकल सकते थे!

सुरेंदर जी द्वारा मिली जानकारी से मैं इतना उत्साह में आ गई थी की मैं एकदम से अपने ससुर जी से बोल पड़ी; "पिताजी, हमें इनको तुरंत वहाँ उस अस्पताल ले जाना चाहिए!" मेरा उत्साह बड़ा बचकाना था और मेरा ये बचपना देख मेरे पिताजी मुझ पर भड़क उठे; "मानु कउनो नानमून (छोटा बच्चा) है जो कनिया (गोदी) ले के ऊ का दूसर अस्पताल ले जावा जाइ?" पिताजी की बात सुन मुझे मेरी बेवकूफी समझ आई| इस चिंता की घडी में जब मुझे समझदारी से काम लेना चाहिए था मैं अपना बचपना दिखा रही थी| सच में इनकी इस हालत में इनको बैंगलोर ले जाना बहुत मुश्किल काम था! लेकिन इस मुश्किल का इलाज अनिल के पास था; "पिताजी (मेरे ससुर जी), डॉक्टर सुरेंदर जी का कहना है की हम air ambulance के जरिये जीजू को बैंगलोर ले जा सकते हैं मगर ये बहुत महँगा खर्चा है! तक़रीबन 1.5 से 2 लाख तक का खर्चा आ सकता है!" मरीजों को हेलिकोप्टर द्वारा एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल ले जाने के लिए ये सेवा उन दिनों नई-नई शुरू हुई थी इसीलिए उस समय उसके दाम अभी के मुक़ाबले कम थे|

इधर इतने बड़े खर्चे का नाम सुन मैं सोच में पड़ गई, घर के हालात पैसों को ले कर पहले ही थोड़े नाज़ुक थे मगर मेरा मन कहता था की मेरे ससुर जी ये खर्चा करने से नहीं चूकेंगे और हुआ भी यही| ससुर जी ने बिना देर किये कहा; "अनिल बेटा, चूँकि वो प्राइवेट अस्पताल है तो वहाँ खर्चा बहुत होगा, तू ऐसा कर की एक बार बैंगलोर जा कर इस अस्पताल के बारे में पता लगा और तब तक मैं यहाँ पैसों का इंतज़ाम करता हूँ| जब तक तू अस्पताल का पता करेगा और मैं यहाँ पैसों का इंतेज़ाम करूँगा तब तक सरिता भी आ जाएगी तो एक बार उससे भी बात कर लेंगे|" ससुर जी की बात सुन अनिल तो तुरंत निकलना चाहता था मगर ससुर जी ने जैसे तैसे उसे कल सुबह निकलने के लिए मना लिया|

अगले दिन सुबह सभी लोग अस्पताल पहुँच चुके थे तथा बैंगलोर वाले अस्पताल पर ही चर्चा करने में व्यस्त थे| ससुर जी इस वक़्त खासी चिंता में थे क्योंकि पैसों का इंतज़ाम नहीं हो पाया था| उधर अनिल ने सुरेंदर जी से फ़ोन पर बात कर ली थी तथा ये तय हुआ था की वो (सुरेंदर जी) अनिल को सीधा बैंगलोर मिलेंगे तथा दोनों साथ मिलकर वहाँ सब पता करेंगे| डॉक्टर सुरेंदर ने अनिल को अस्पताल के बारे में एक लिंक ईमेल किया था जो अनिल ने मुझे भेज दिया था| मैंने मेल देखा और अस्पताल के बारे में जानकारी इकठ्ठा करने लगी, मैंने सोचा की क्यों न एक बार मैं भी सुरेंदर जी से बात कर लूँ तथा उन से दिल्ली के किसी अस्पताल के बारे में पूछूँ, दिल्ली में ही अगर हमें कोई अच्छा अस्पताल मिल जाता जहाँ इनका अच्छे से इलाज हो जाता तो ससुर जी पर पैसे का बोझ कम हो जाता| अनिल से नंबर ले कर मैं सुरेंदर जी से बात करने कमरे से बाहर अकेली आ गई; "हेल्लो, सुरेंदर जी बोल रहे हैं?" मैंने पुछा|

"हाँ जी, बोल रहा हूँ| आप कौन?" सुरेंदर जी एक अनजान औरत की आवाज सुन बोले|

"जी मैं संगीता, अनिल की बड़ी बहन बोल रही हूँ|" मैंने कहा|

"ओह्ह, जी नमस्ते|" जब उन्हें पता चला की मैं अनिल की बहन हूँ तो वो सहज होते हुए बोले|

"सुरेंदर जी, आ.आ...मुझे आपसे कुछ पूछना था? Actually, आपने जिस अस्पताल के बारे में बताया वो बैंगलोर में है, क्या यहाँ दिल्ली में कोई ऐसा अस्पताल नहीं है?" मुझे ये सवाल पूछने बड़ा संकोच हो रहा था क्योंकि मेरी बातें सुन कर कोई भी ये सोचता की मैं कितनी कंजूस हूँ! जबकि मुझे अपने घर की चिंता थी, पैसों का इंतज़ाम खाली ससुर जी को करना था और अभी तक उन्हें नकामी ही हासिल हुई थी!

"संगीता जी, दरअसल हमारे doctor's journal में इस अस्पताल के बारे में article छपा था| मैंने अपने एक दोस्त से बात की जो बैंगलोर में ही रहता है और उसने बताया की ये अस्पताल बहुत अच्छा है, दिल्ली में मैंने ऐसे किसी अस्पताल के बारे में नहीं पढ़ा न ही वहाँ मेरा कोई दोस्त रहता है| फिर भी मैं अपनी पूरी कोशिश करता हूँ की दिल्ली या आपके आस-पास के किसी शहर में कोई अस्पताल हो| तबतक मेरा सुझाव यही है की हम बैंगलोर के अस्पताल के बारे में एक बार अपनी तफ्तीश कर लेते हैं|" सुरेंदर जी बोले| उनकी बात सही थी, बजाए यहाँ समय बर्बाद करने के जो सुराग हाथ लगा है उसी की तफ्तीश ज़ारी रखनी चाहिए|

"जी| And thank you so much की आप हमारे लिए इतना कर रहे हैं!" मैं सुरेंदर जी को धन्यवाद देते हुए बोली| एक अनजान होते हुए भी वो हमारे लिए इतना कर रहे थे, इसके लिए मैं उन्हें दिल से दुआएँ दे रही थी|

"अरे संगीता जी, थैंक यू कैसा आप अनिल की दीदी हैं तो मेरी भी दीदी जैसी हुई ना| You don't worry." सुरेंदर जी ने मुझसे बहन का रिश्ता बना लिया और मुझे भी एक और भाई मिल गया था! सुरेंदर जी से बात कर के मेरे दिल को तसल्ली हुई थी की ये अब जल्दी स्वस्थ हो जाएँगे| इसी उम्मीद के सहारे मेरे इस जीवन की नैय्या पार होने वाली थी|

फ़ोन रख कर जैसे ही मैं कमरे में जाने को मुड़ी की मैंने देखा की पीछे मेरी 'माँ' यानी नेहा खड़ी थी और उसने मेरी सारी बात सुन ली थी| चेहरे पर नफरत भरा गुस्सा लिए नेहा मुझ पर बरस पड़ी; "हुँह! आप....." नेहा दाँत पीसते हुए इतना बोली और अपने गुस्से को काबू में करने लगी, उसे डर था की कहीं वो अपने गुस्से में मुझसे गलत लहजे में न बात करे जिस कारण उसे बाद में मुझसे माफ़ी माँगनी पड़े| "पापा अगर आपकी जगह होते तो आपको स्वस्थ करने के लिए लाखों क्या करोड़ों रुपये फूँक देते मगर आप, आपको तो पैसे बचाने हैं न की पापा को स्वस्थ करना है! क्या करोगे आप इतने पैसे बचा कर? कौन सा महल बनवाना है आपने?" नेहा मुझे ताना मारते हुए गुस्से से बोली| मैंने नेहा को अपनी बात समझानी चाही; "बेटा ऐसा नहीं है, मैं तो..." मगर मेरी बात पूरी सुने बिना ही नेहा ने अपना 'फरमान' सुना दिया; "मुझे सब पता है! आप..." इतना कहते हुए नेहा फिर दाँत पीसते हुए मुझे गुस्से से घूर कर देखने लगी| एक पल के लिए तो लगा जैसे वो अभी मुझे गाली दे देगी मगर मेरी बेटी मैं इतने गंदे ससंकार नहीं थे, वो बस अपना गुस्सा काबू में कर रही थी; "आप बस पापा को प्यार करने का ढोंग करते हो! आपका ये प्यार-मोहब्बत बस दिखावा है और कुछ नहीं! जो लोग सच्चा प्यार करते हैं उनका हाल पापा जैसा होता है! आपका ये ढकोसला वाला प्यार देख कर मैंने फैसला किया है की मैं कभी शादी नहीं करूँगी!" नेहा ने मेरे प्यार को गाली दी थी मगर मैं उस पर कोई प्रतिक्रिया देती उससे पहले ही नेहा ने अपनी अंतिम बात कह कर मुझे दहला दिया था! "बेटा...ये...ये तू क्या कह रही है?!" मैंने नेहा को समझना चाहा मगर नेहा मेरी बात काटते हुए अपनी बात पूरी करने लगी; "ये प्यार-व्यार कुछ नहीं होता, इसीलिए मैंने फैसला कर लिया है की मैं कभी शादी नहीं करूँगी और सारी उम्र पापा की सेवा करूँगी! आपके कारण जो इतने साल मुझे पापा का प्यार नहीं मिला उसे मैं अपनी बची हुई ज़िन्दगी पापा के साथ गुज़ार कर पाऊँगी!" नेहा की आवाज में मुझे दृढ संकल्प दिख रहा था, इतनी छोटी सी उम्र में उसका ये प्रण करना मुझे डरा रहा था! वो अपने पापा से बहुत प्यार करती है ये तो मैं जानती थी मगर वो अपने पापा को ले कर इतनी possessive है की वो अपनी जिंदगी का एक अहम फैसला इतनी छोटी सी उम्र में ले लेगी इसकी मुझे उम्मीद नहीं थी! दरअसल नेहा इस वक़्त सिर्फ अपने दिल से सोच रही थी और उसका दिल उसे बस उसके पापा के पास खींचे रखना चाहता था! नेहा की अपने पापा को ले कर possessiveness आज खुल कर बाहर आई थी! मैं उसकी मनोदशा समझ रही थी और उसे प्यार से समझाना चाहती थी की उसका लिया ये फैसला बहुत गलत है मगर नेहा कुछ भी सुनने के मूड में नहीं थी|

मैं नेहा को समझाऊँ उससे पहले ही मेरी सासु माँ आ गईं, एक पल के लिए मुझे लगा की शायद नेहा अपना ये फैसला अपनी दादी जी को भी सुनाएगी मगर नेहा में अभी इतनी हिम्मत नहीं थी की वो अपनी दादी से ये सब कह सके| अपनी दादी जी के आते ही उसने एकदम से बात बदल दी और उनसे पूछने लगी; "दादी जी, मामा जी आ गए?" सासु माँ ने उसे नीचे जाने को कहा क्योंकि अनिल नीचे नेहा का इंतज़ार कर रहा था| नेहा बिना कुछ कहे नीचे चली गई और इधर मैं और सासु माँ गलियारे में अकेले रह गए|

अपनी बेटी के मुँह से मेरे प्यार पर लगाई तोहमद के कारण मैं बहुत दुखी थी, मेरे भीतर जो भी हिम्मत बची थी वो टूटकर चकनाचूर हो चुकी थी| आज तक तो नेहा ने मुझे अपने पापा की इस हालत के लिए दोषी बनाया था मगर आज उसने मेरे प्यार पर ऊँगली उठा कर और कभी शादी न करने की बात कह कर मुझे ताउम्र की सजा भी सुना दी थी! मेरा मन अंदर से मुझे धिक्कारे जा रहा था और ग्लानि के भावों ने मुझे तोड़-मरोड़कर रख दिया था! जब ये पीर मैं अपने अंदर न समा पाई तो आखिर मैं फूट-फूट कर रोने लगी! माँ ने जब मुझे यूँ रोते हुए देखा तो वो मुझे ढाँढस बँधा कर मुझे चुप कराने लगीं| "माँ...अब...अब मुझ में...जान नहीं...बची! मैं आज बुरी...तरह टूट चुकी हूँ! मे...मेरी क़िस्मत ऐसी है...न तो मैं अच्छी बेटी साबित हो पाई...न अच्छी पत्नी...और अब तो मैं एक अच्छी माँ भी साबित नहीं पाई! मैं बहुत अभागी हूँ माँ...ऐसा...ऐसा देवता समान पति मिला...और मैंने उसकी भी बेकद्री की! जहाँ एक तरह इन्होने हर कदम पर मेरे साथ चलना चाहा वहीं मैं इनके साथ चलने से कतराती रही! सही कहती है नेहा, मेरे ही कारण इनकी ये हालत हुई है! माँ...आप क्यों मेरी इतनी तरफदारी करते हो? मैं...मैं इस लायक ही नहीं की आपको और पिताजी को छू भी सकूँ...आपको माँ-पिताजी कह सकूँ! मेरे पिताजी सही कहते थे, मुझे ही मर जाना चाहिए! आपके इस हँसते-खेलते परिवार को मेरी ही नज़र लग गई! मेरी ये बुरी क़िस्मत कहीं इस घर को ही न निगल जाए?! मु...मुझे मर जाने दो माँ...मुझे थोड़ा सा ज़हर दे दो...मुझे मर जाने दो...मैं..." मैं रोते हुए बोली| मैं आगे और कहती उससे पहले ही माँ ने मेरे आँसूँ पोछते हुए मेरी बात काट दी; "बस बेटी! मानु तुझसे बहुत प्यार करता है और हम सब मानु से बहुत प्यार करते हैं तो इस हिसाब से सब तुझसे भी बहुत प्यार करते हैं! शादी के बाद जैसे तू मेरी और मानु के पिताजी की बेटी बन गई, तो तेरे पक्ष लेना हमारा हक़ बन गया! उसी तरह शादी के बाद मानु भी तेरे माँ-पिताजी का बेटा बन गया, भगवान न करे उसकी वजह से तुझे कोई तकलीफ हो जाती तो मैं और तेरे ससुर जी मानु का जीना बेहाल कर देते! फिर तेरी तो कोई गलती ही नहीं थी, सारी गलती मानु की थी जो उसने जानते-बूझते दवाइयाँ लेनी बंद कर दी! मैं मानती हूँ की इस वक़्त तेरे माँ-पिताजी और नेहा तुझसे नाराज़ हैं मगर एक बार मानु ठीक हो गया तो उन सबकी नाराज़गी खत्म हो जायेगी और सब तुझसे अच्छे से बात करेंगे| नेहा को भी मैं प्यार से समझाऊँगी की वो तुझसे प्यार से बात करे|

बेटा, तुझे इस वक़्त कोई चिंता नहीं लेनी, अपनी हिम्मत बाँधे रखनी है, बहुत सब्र से काम लेना है और हमेशा ये याद रखना है की तू ही वो 'खूँटा' है जिससे ये सारा परिवार बँधा हुआ है| अगर तूने ही हिम्मत छोड़ दी और कहीं ये 'खूँटा' उखड़ गया तो यहाँ हमारे परिवार को सँभालने वाला कौन है? कौन है जो बच्चों को सँभालेगा? आयुष तो सबसे छोटा है, फिर नेहा से तर्क-वितर्क करने की ताक़त बस तुझमें है! इन बूढी हड्डियों में अब हिम्मत नहीं की वो बेटे के साथ तुझे भी तकलीफ में देखें!" माँ ने मुझे बहुत प्यार से सँभाला था मगर मेरा दिल फिर भी बहुत बेचैन था| मैं अपनी हिम्मत बटोरने की पूरी कोशिश कर रही थी लेकिन मेरी सभी कोशिशें विफल साबित हो रहीं थीं| आज मुझे एहसास हुआ की इन्हें कैसा लगा हुआ जब ये मुझे हँसाने-बुलाने की जी तोड़ कोशिश करते थे और मैं इनकी सभी कोशिशें नकाम कर दिया करती थी! माँ के सामने मैंने जैसे-तैसे खुद को रोने से रोक लिया और ऐसे दिखाया जैसे मैं उनकी सारी बात समझ चुकी हूँ मगर सबके जाते ही रात को मैं फिर रोने लगी| अनिल मेरा खाना रख गया था मगर मैंने खाने को हाथ नहीं लगाया और इनका हाथ पकड़ कर बिलख-बिलख कर रोते हुए बोली; "आप क्यों मुझ पर इतना गुस्सा निकाल रहे हो? इतना ही गुस्सा हो मुझसे तो मेरी जान ले लो मगर इस तरह मुझ पर न बोलकर जुल्म तो न करो! मैं जानती हूँ आप मुझसे बहुत प्यार करते हो फिर इतनी नाराज़गी क्यों? एक बार...बस एक बार...अपनी आँखें खोल दो! Please...I beg of you! Please...I promise...I promise मैं आज के बाद आपसे कभी नाराज़ नहीं हूँगी, कभी आपसे बात करना बंद नहीं करूँगी! Please मान जाओ!" मैंने अपने प्यार का वास्ता दे कर इनसे बतेहरी मिन्नतें कीं मगर इन्होने कोई प्रतक्रिया नहीं दी तो मैंने इन्हें नेहा और आयुष का वास्ता दिया; अच्छा मेरे लिए न सही तो कम से कम अपनी बेटी नेहा के लिए...अपने बेटे आयुष के लिए...उठ जाओ! आप जानते हो की आपकी बेटी नेहा ने प्रण किया है की वो कभी शादी नहीं करेगी, मेरे कारण उसे 5 साल जो आपका प्यार नहीं मिला पाया उसी प्यार को पाने के लिए वो कभी शादी नहीं करना चाहती! प्लीज...कम से कम नेहा के लिए तो उठ जाओ!" मैं फूट-फूट कर रोते हुए बोली मगर मेरी कही किसी बात का इन पर कोई असर नहीं हुआ, ये अब भी वैसे ही मौन लेटे थे|

मैं आज हार चुकी थी, लाचार थी और बस रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकती थी! आज मुझे एहसास हुआ था की मेरे आँसूँ कितने अनमोल हुआ करते थे, मेरी आँख से गिरे एक कतरे को देख ये इतना परेशान हो जाया करते थे की सारा घर-भर अपने सर पर उठा लिया करते थे और आज मैं यहाँ इतना बदहवास हो कर रो रही हूँ, इनसे इतनी मिन्नतें कर रही हूँ मगर आज इनपर कोई असर नहीं हो रहा!

उस रात भगवान को हमारे परिवार पर दया आ गई, भगवान ने मुझ पर तरस खाया या फिर ये कहूँ की भगवान जी ने नेहा की दुआ कबूल कर ली और एक चमत्कार कर हमारे परिवार को खुशियाँ दे दी!

इनका हाथ पकडे, रोते-रोते मेरी आँख लग गई और मैंने एक बड़ा ही दुखद सपना देखा! मेरे सपने में ये मुझसे दूर जा रहे थे और मैं इन्हें रोकने के लिए दौड़ना चाह रही थी मगर मेरा जिस्म मेरा साथ नहीं दे रहा था! मैं बस रोये जा रही थी और इनको रोकने के लिए कह रही थी; "प्लीज...मत जाओ...मुझे अकेला छोड़ कर मत जाओ!" ये सपना इतना डरावना था की मेरी रूह काँप गई थी और मेरी आँख खुलने ही वाली थी की अचानक मुझे लगा किसी ने मेरे हाथों की उँगलियाँ धीरे से दबाई हों! ये एहसास होते ही मैं चौंक कर जाग गई और इनके चेहरे की ओर देखने लगी, इनके चेहरे पर चिंता की शिकन पड़ चुकी थी तथा इनके होंठ काँप रहे थे! मुझे लगा जैसे ये कुछ बोलना चाह रहे हैं, पर आवाज इतनी धीमी थी की मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था इसलिए मैंने तुरंत अपना दाहिना कान इनके होठों के आगे किया| "I.........m........s...o...rry...!" ये बस यही शब्द बुदबुदा रहे थे| मुझे कुछ समझ नहीं आया और मैंने फ़ौरन नर्स को बुलाने के लिए घंटी जोर से बजानी शुरू कर दी! नर्स के आने तक मैं रो-रो कर इन्हें कुछ भी बोलने में अपनी ताक़त व्यर्थ करने से रोकने में लगी हुई थी; "बस...जानू...प्लीज...कुछ मत बोलो! मैं यहीं हूँ आपके पास, आप बिलकुल चिंता मत करो...मैं यहीं हूँ!" इनका हाथ मेरे हाथों में था और उसी कारण इन्हें मेरी मौजूदगी का एहसास हो रहा था| इतने में नर्स करुणा आ गई और इनकी हालत देख उसने तुरंत डॉक्टर रूचि को इण्टरकॉम किया| तब तक मैं इनके माथे पर हाथ फेरते हुए इन्हें शांत करने में लगी थी जबकि मेरा खुद का दिल इनकी हालत देख कर बहुत घबराया हुआ था! 'अगर मेरी वजह से आपको कुछ हो गया न तो मैं भी मर जाऊँगी!' मैं मन ही मन बोली|

इस वक़्त मैं नेहा से किया अपना वादा की, उसके पापा के होश में आते ही मैं उनकी नजरों से दूर चली जाऊँगी, भूल चुकी थी! तभी एक-एक कर दो डॉक्टर कमरे में आये और मुझे बाहर जाने को कहा| कमरे से बाहर आते ही मैंने पिताजी को फ़ोन कर के सारी बात बताई, पिताजी और सभी लोग अस्पताल आने के लिए चल पड़े| इधर करुणा कमरे से बाहर आई और मुझे कमरे के भीतर बुलाया| डरते-डरते मैं कमरे के भीतर घुसी, मेरा दिमाग इस वक़्त कुछ भी बुरा सुनने की हालत में नहीं था! अगर इन्हें कुछ हो जाता तो मैं भी उसी वक़्त अपने प्राण त्याग देती, पर शुक्र है भगवान का की कोई दुखद बात नहीं थी! डॉक्टर ने मुझे बताया की; "मानु आपका नाम लिए जा रहा है, मानु का ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है आप उसके पास रहो!" डॉक्टर की बात सुन मैंने इन्हें देखा तो पाया की ये अब भी मेरा नाम बुदबुदाए जा रहे हैं| मैं फ़ौरन इनका हाथ अपने हाथों में ले कर बैठ गई, जब तक इन्हें मेरे हाथ के स्पर्श का एहसास नहीं हुआ ये मेरा नाम बुदबुदाए जा रहे थे| मेरे हाथ का स्पर्श महसूस होते ही ये शांत हो गए और धीरे से मेरा हाथ दबाने लगे| मन में प्रार्थना करते हुए मुझे वो दिन याद आ रहा था जब मैं पहलीबार नेहा को ले कर दिल्ली आई थी और गाँव वापस जाते समय ऑटो में ये मेरा हाथ इसी तरह दबा रहे थे क्योंकि ये मुझे खुद से दूर नहीं जाने देना चाहते थे| उस दिन की तरह आज भी मैं बहुत डरी हुई थी, मुझे बार-बार लग रहा था की कहीं मैं इन्हें खो न दूँ! मैंने भी धीरे-धीरे उसी दिन की तरह इनका हाथ दबाना शुरू कर दिया और मन ही मन इनसे कहने लगी; 'मैं आपको कुछ नहीं होने दूँगी!" इन्होने मेरे हाथ के स्पर्श से ही मेरे मन की बात पढ़ ली और इनका मन शांत होने लगा| डॉक्टर ने देखा की इनका ब्लड प्रेशर अब नार्मल होने लगा है तो उन्होंने मेरी तरफ देखते हुए कहा; "He's alright! I've given him an injection so he can sleep for now. I'll call Doctor Sarita right now and Doctor Ruchi is on her way here." इतना कह डॉक्टर साहब चले गए, हालाँकि मैं उनसे और भी बहुत कुछ पूछना चाहती थी मगर इन्होने मेरा हाथ नहीं छोड़ा था जिस कारण मैं उठ न पाई| मैं पाँव ऊपर कर के इनके सिरहाने बैठ गई और इनके बालों में प्यार से हाथ फेरती रही|

घडी में इस वक़्त दो बजे थे और इनके बालों में हाथ फेरते हुए मेरी आँख लग गई| करीबन पोन घंटे बाद सभी लोग अस्पताल पहुँचे, दरवाजा खुलने से मेरी आँख खुली और मैंने सभी को हाथों के इशारे से चुप रहने को कहा| बच्चों समेत सभी लोगों ने इनको घेर लिया था| मैंने दबी हुई आवाज में खुसफुसा कर सभी को डॉक्टर द्वारा बताई सारी बात बताई, ये सुन कर सभी के चेहरे पर जो ख़ुशी आई वो देखने लायक थी! आयुष चहकने लगा था, माँ, पिताजी, मेरे सास-ससुर, बड़की अम्मा और अजय भैया हाथ जोड़े भगवान को शुक्रिया कर रहे थे| नेहा ने फ़ौरन इनके गाल पर अपनी पप्पी दी और कुर्सी लगा कर इनका हाथ अपने हाथ में ले कर बैठ गई| आज कितने दिनों बाद अपने पापा का हाथ अपने हाथों में ले कर नेहा के चेहरे पर उमीदों भरी मुस्कान आई थी| नेहा के चेहरे पर ये मुस्कान देख मेरा दिल भाव-विभोर हो उठा तथा मेरी आँखों से फिर आँसूँ छलक आये|

इधर मेरी सासु माँ ने मुझे मुस्कुराते हुए अपने गले लगाया और मेरे सर पर हाथ फेरते हुए मुझे आशीर्वाद देने लगीं; "सदा सुहागन रहो बहु!" कमरे में सभी लोग मौजूद थे सिवाए अनिल के, मैंने जब सासु माँ से अनिल के बारे में पुछा तो माँ ने बताया की अनिल रात की ट्रैन पकड़ कर बैंगलोर निकल गया है| मैं हैरान थी की उसने बताया नहीं की उसे कौन सी ट्रैन मिल गई है पर माँ ने बताया की कर्नाटका एक्सप्रेस साढ़े नौ बजे छूटने वाली थी| अनिल अपने जीजू को बैंगलोर ले जाने के लिए इतना उतावला था की जल्दी-जल्दी में वो बिना टिकट लिए ही ट्रैन में चढ़ गया| मैंने अपनी सासु माँ से कहा की वो अनिल को फ़ोन कर के वापस बुला लें, इतना सुनना था की मेरे पिताजी मुझ पर बिगड़ गए; "नाहीं! जब तक मानु का होस नाहीं आई जात केउ अनिल का फ़ोन न करि! अनिल बिना सब कुछ पता किये वापस आये वाला नहीं!" पिताजी जानते थे की अनिल को इनकी कितनी चिंता है इसलिए उन्हें अनिल पर बहुत गर्व हो रहा था| पिताजी भी इनको ले कर बहुत चिंतित थे इसलिए वो कोई भी जोखिम नहीं लेना चाहते थे, हाँ अगर इनकी जगह अगर मैं अस्पताल में पड़ी होती तो वो फिर भी अनिल को बुला लेते| मेरे ससुर जी ने पिताजी को बहुत समझाया की वो अनिल को वापस बुला लें मगर पिताजी अपनी बात पर अड़े रहे| उनकी ये जिद्द सही भी थी, एक बार अगर थोड़ी जानकारी मिल जाए तो इसमें कोई हर्ज़ भी नहीं था!

थोड़ी देर बाद डॉक्टर रूचि आईं और उनके साथ दूसरे डॉक्टर्स आये और सभी ने मिलकर इनका फिर से पूरी तरह चेकअप किया| उन्होंने हम सभी को पुनः आश्वस्त किया की; "अब चिंता की कोई बात नहीं है, मानु अब रिकवर कर रहा है!" हम सभी ये सुन कर बहुत प्रसन्न हुए और सभी भगवान को धन्यवाद देने लगे| एक जिंदगी के लिए कितने लोग दुआयें माँग रहे थे, ऐसे देवता जैसे पति है मेरे!

वो पूरी रात कोई नहीं सोया, सभी जागते हुए भगवान से प्रार्थना करने में लगे थे| सिर्फ एक आयुष था जो अपनी दादी जी की गोदी में सर रख कर सो चूका था, अब था तो वो छोटा बच्चा ही कब तक जागता?! वहीं नेहा अपना होंसला बुलंद किये हुए अपने पापा का हाथ पकड़े बैठी थी और धीरे-धीरे हाथ सहलाते हुए टकटकी बांधें अपने पापा जी को देखे जा रही थी| मैंने गौर किया तो पाया की उसके होंठ हिल रहे हैं और वो मन ही मन कुछ बुदबुदा रही है| मैंने नेहा के होठों की थिरकन पर गौर किया तो पाया की वो महामृत्युंजय मंत्र बोल रही है| मेरी बेटी अपने पापा के जल्दी में होश आने के लिए भगवान से प्रार्थना करने में लगी थी|

कुछ देर बाद नर्स करुणा इन्हें दुबारा चेक करने आई और इनका ब्लड प्रेशर चेक कर वो मुस्कुरा कर मेरी तरफ देखते हुए हाँ में गर्दन हिलाने लगी, उसका मतलब था की अब इनकी तबियत में सुधार है| जाते-जाते वो माँ-पिताजी को नमस्ते बोल गई और उन्हें बोल गई की; "मानु अब टीक (ठीक) है!" ये सुन सभी को इत्मीनान आया और सभी ने राहत की साँस ली| पाँच बजे मेरे पिताजी सभी के लिए चाय लाये मगर मैंने और नेहा ने चाय नहीं ली क्योंकि हम दोनों इनके होश में आने के बाद ही कुछ खाने वाले थे| हम दोनों माँ-बेटी ने इनका हाथ थाम रखा था, हम में जैसे होड़ लगी थी की कौन इनसे ज्यादा प्यार करता है, जबकि देखा जाए तो इनसे सबसे ज्यादा नेहा ही प्यार करती थी|

सुबह के नौ बजे डॉक्टर सरिता आईं और उन्हीं के साथ डॉक्टर रूचि भी आईं, अभी तक सभी लोग एक कमरे में बैठे हुए थे तथा इनके होश में आने की प्रतीक्षा कर रहे थे| सरिता जी ने इनकी सारी रिपोर्ट्स पढ़ ली थीं और वो काफी खुश भी थीं| उनके अनुसार अब कोई घबराने वाली बात नहीं थी, उन्होंने हमें इनके प्रति बरतने वाली सभी एहतियात बतानी शुरू कर दी| हमने सरिता जी द्वारा दी हुई सभी हिदायतें ध्यान से सुनी और सारी ली जाने वाली एहतियातें मैंने अपने पल्ले बाँध ली! अब हमें इंतज़ार था तो बस इनके होश में आने का, लेकिन हमे इसके लिए और ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा|

कुछ ही देर में इन्हें होश आ गया और इन्होने बहुत धीरे-धीरे अपनी आँख खोली| नेहा इनके सामने बैठी थी और मैं सिरहाने इसलिए इनकी सबसे पहले नजर नेहा पर ही पड़ी| मैंने सभी को इनके होश में आने की बात बताई तो सभी लोग इन्हें घेर कर खड़े हो गए| सब को अपने सामने खड़ा देख इनके चेहरे पर मीठी सी मुस्कान आ गई और क्या मुस्कान थी वो! एक दम क़ातिलाना मुस्कान, हाय! ऐसा लगता था मानो एक अरसे बाद वो मुस्कान देख रही हूँ! वहीं सबने जब इन्हें यूँ मुस्कुराते हुए देखा तो सभी के दिलों को इत्मीनान मिला! मेरी माँ और सासु माँ ने इनकी नजर उतारी और भगवान को शुक्रिया अदा करने लगीं| उधर नेहा सीधा इनके सीने से लग गई और खुद को सँभाल न पाई इसलिए वो रोने लगी तथा रोते-रोते बोली; "I...love...you...पापा जी, I missed you so much!" इन्होने धीरे से अपना दायाँ हाथ नेहा की पीठ पर रखा और धीमी आवाज में बोले; "awwww मेरा बच्चा!" ये नेहा के पसंदीदा शब्द थे और ये शब्द सुन कर नेहा के चेहरे पर मुस्कान आ गई|

अस्पताल का पलंग थोड़ा ऊँचा था इसलिए बेचारा आयुष ऊपर चढ़ नहीं पा रहा था, वो पलंग के हर कोने की तरफ से चढ़ने की भरसक कोशिश करता रहा मगर फिर भी चढ़ नहीं पाया तो अंत में उसने अपने दादा जी का हाथ पकड़ उनका ध्यान अपनी ओर खींचा और अपने दोनों हाथ पंखों के समान खोल कर उन्हें (आयुष के दादाजी को) गोदी उठा कर पलंग पर चढाने को कहा; "दादा जी, मुझे पापा के पास जाना है!" पिताजी, आयुष के बालपन पर मुस्कुराये और आयुष को पलंग पर इनके पाँव के पास उठा कर बिठा दिया| आयुष अपने हाथों और पाँव पर रेंगते हुए इनके पास आया और इनके सीने से चिपक गया! आयुष बहुत बहादुर था इसलिए वो रोया नहीं बल्कि इनके सीने से लग कर ख़ुशी से चहकने लगा| दोनों बच्चे इनके सीने से लगे हुए थे इसलिए अब जा कर इन्होने मेरा हाथ छोड़ा और दोनों बच्चों को अपनी बाहों में जकड़, आँख बंद कर उस अनमोल सुख के सागर में डूब गए!

इन्होने मेरा हाथ छोड़ा था तो मैं उठ कर सरिता जी के पास पहुँची जो सबसे पीछे खड़ी ये मनमोहक दृश्य देख कर भावुक हो चुकी थीं| चूँकि सभी का ध्यान इस वक़्त इन पर था तो इसलिए किसी ने सरिता जी के आँसूँ नहीं देखे| मैंने उनके आगे हाथ जोड़ कर उन्हें दिल से धन्यवाद कहा और जवाब में सरिता जी मेरे दोनों हाथ पकड़ कर ख़ुशी से मुस्कुराने लगीं|

उधर मेरे माँ-पिताजी, सासु माँ-ससुर जी, बड़की अम्मा और अजय भैया सभी इन्हें आशीर्वाद देते हुए इनसे प्यार से बात करने में लगे थे| वहीं आयुष के मन में बहुत जरूरी सवाल था, वो पलंग के ऊपर खड़ा हुआ और सरिता जी की तरफ देखते हुए बोला; "आंटी जी, हम पापा को घर कब ले जा सकते हैं?" आयुष ने बड़े बचकाने ढंग से अपना सवाल पुछा था जिसे सुन सभी एक साथ हँस पड़े| आज इतने दिनों बाद पूरा परिवार एक साथ हँसा था और ये देख मेरे दिल को बहुत सुकून मिल रहा था|

खैर, सरिता जी ने आयुष के सवाल का मुस्कुराते हुए दिया; "बेटा, दो-तीन दिन अभी आपके पापा को हम यहाँ ऑब्जरवेशन के लिए रखेंगे| उसके बाद आप अपने पापा को घर ले जा सकते हो|" ये सुन कर आयुष इतना खुश हुआ की वो पलंग से नीचे कूदा और कमरे में इधर-उधर दौड़ते हुए नाचने लगा| आयुष को यूँ ख़ुशी से नाचते देख इनके साथ-साथ सभी फिर हँस पड़े!

हँसी-ख़ुशी का माहौल बन चूका था, सरिता जी जा चुकी थीं और हमारा पूरा परिवार अब भी कमरे में बैठा हुआ था| ये फिलहाल ज्यादा बात नहीं कर रहे थे क्योंकि इनका शरीर बहुत कमजोर हो चूका था| जब ये बोलते तो बहुत धीरे-धीरे बोलते और आयुष इनकी कही बातों को जोर से बोल कर दुहराता था, ये उसके लिए एक नया खेल था! मैं फिर से इनके सिरहाने बैठी थी और नेहा इनकी कमर के पास बैठी इन्हें देख कर मुस्कुराये जा रही थी| तभी मेरी सासु माँ उठ कर मेरे पास आईं और मेरे सर पर हाथ फेरते हुए बोलीं; "बेटी, तेरी सेवा से मानु अब ठीक हो गया है, अब तो घर चल कर थोड़ा आराम कर ले, जब से मानु अस्पताल में एडमिट हुआ है तब से तू घर नहीं गई|" सासु माँ की बात सुन इनके चेहरे पर परेशानी की शिकन पड़ने लगी, मैं इन्हें कतई परेशान नहीं करना चाहती थी इसलिए मैंने सासु माँ की बात बड़े प्यार से टालते हुए कहा; "माँ (मेरी सासु माँ), अब तो मैं इन्हीं के साथ गृह-प्रवेश करूँगी|" गृह-प्रवेश की बात सुन इनके चेहरे पर मुस्कान आ गई और इनके चेहरे पर आई परेशानी की शिकन धुल गई! उधर आयुष ने जब मेरी बात सुनी तो उसके भोलेपन ने मेरी बात को मज़ाकिया बना दिया; "दादी जी, तो क्या इस बार पापा जी घर में घुसने से पहले चावल वाले लोटे को लात मारेंगे?" शादी के बाद जब मेरा गृह-प्रवेश हुआ था तो मैंने ये रस्म अदा की थी और आयुष को लगता था इनको भी यही रस्म अदा करनी होगी| आयुष की बात सुन सभी लोग जोर से हँस पड़े और पूरे कमरे में हँसी गूँजने लगी!

एक परिवार जो लगभग 20 दिन से मेरे कारण दुःख भोग रहा था वो आज फिर से हँसने-खेलने लगा था और मुझे इससे ज्यादा और कुछ नहीं चाहिए था!
 

[color=rgb(255,]सत्ताईसवाँ अध्याय: विपरीत - पति का प्यार और पत्नी की जलन![/color]
[color=rgb(71,]भाग - 1[/color]
[color=rgb(51,]अब तक आपने पढ़ा:[/color]

एक परिवार जो लगभग 20 दिन से मेरे कारण दुःख भोग रहा था वो आज फिर से हँसने-खेलने लगा था और मुझे इससे ज्यादा और कुछ नहीं चाहिए था!

[color=rgb(44,]अब आगे:[/color]

नेहा और आयुष दोनों इनके अगल-बगल बैठे थे तथा मैं इनके पैरों के पास बैठी थी, बाकी सभी भी कमरे में बैठे हुए थे| अस्पताल के कमरे को हमने अपने घर की बैठक बना दिया था! सभी इनसे बात करने में लगे थे, बात करने का मतलब की सब बोल रहे थे और ये बस हाँ-न में जवाब दे रहे थे| सबके बात करने से मुझे इनसे बात करने का समय नहीं मिल रहा था| बातों ही बातों में नेहा ने जिद्द पकड़ते हुए कहा की वो तब तक स्कूल नहीं जाएगी जबतक ये घर नहीं आ जाते, तीन दिन तक नेहा 24 घंटे इनके पास रहना चाहती थी| सब ने नेहा को प्यार से समझाया मगर नेहा अपनी जिद्द पर क़ायम रही| इन्होने भी नेहा को प्यार से समझाया मगर कोई असर नहीं, दरअसल नेहा को डर था की कहीं मेरे कारण उसके पापा जी का गुस्सा फिर से न लौट आये जिससे उनकी तबियत खराब हो जाए| जब नेहा किसी के मनाने से नहीं मानी तो मेरे पिताजी को गुस्सा आ गया| मेरे पिताजी को जिद्दी बच्चे अच्छे नहीं लगते थे, पिताजी बस एक बार अपनी बात कहते थे और अगर न सुनो तो फिर बहुत डाँट पड़ती थी| आज जब पिताजी ने नेहा को डाँटा तो नेहा सहम गई और अपने पापा के गले लग अपना सर इनके सीने में छुपा लिया|

नेहा के स्कूल न जाने का कारन मैं जानती थी इसलिए मैं ही उसके बचाव में आ गई; "रहने दो पिताजी, मेरी बेटी बहुत होशियार है वो तीन दिन की पढ़ाई बर्बाद नहीं जाने देगी! है न नेहा?" मुझे अपना पक्ष लेता देख नेहा को हैरानी हुई और मेरे पूछे प्रश्न पर वो मेरी तरफ देखते हुए सर हाँ में हिलाने लगी| अब मेरे पिताजी मेरे ऊपर पहले ही खफ़ा थे ऐसे में जब मैंने नेहा की गलत जिद्द पर उसकी तरफदारी की तो पिताजी के गुस्से का सामना मुझे करना पड़ा; "तू बहुत तरफदारी करत हो नेहा की? सर चढ़ाये लिहो है! मानु तनिक बीमार का पड़िस तू दोनों माँ-बेटी आपन मन की करे लागयो!" अब जब मेरी क्लास लगी तो ये मेरे बचाव में आगे आये; "पिताजी........नेहा.....मेरी....लाड़ली है!" बस ये पाँच शब्द सुन पिताजी एकदम से ख़ामश हो गए और मुस्कुराने लगे! मैं आँखें फाड़े इन्हें देखने लगी की भला ये कैसा जादू चलाया इन्होने मेरे पिताजी पर की मेरी इतनी बड़ी दलील सुनने के बाद पिताजी को संतुष्टि नहीं मिली मगर इनके कहे पाँच शब्द सुन पिताजी एकदम से खामोश हो गए?! दरअसल ये इनका मेरे पिताजी पर प्रभाव था जो मेरे पिताजी इनका इतना मान करते थे!

खैर, अगले तीन दिन तक हम दोनों को बात करने का ज़रा सा भी समय नहीं मिला| इनके होश में आने के बाद से ही सभी के भीतर इनको ले कर बहुत सारा प्यार उमड़ आया था| इस वजह से कोई हम दोनों मियाँ-बीवी को अकेला छोड़ता ही नहीं था| दिन भर सभी कमरे में रहते थे और रात में मेरे साथ कभी सासु माँ, कभी बड़की अम्मा तो कभी मेरी माँ रहने लगीं थीं| धीरे-धीरे दिनभर सभी इनके नज़दीक बैठने लगे थे क्योंकि हर किसी को इनसे बात करनी थी, ये भी हर किसी से बात कर रहे थे सिवाए मेरे! जब इन्हें पता चला की अनिल बैंगलोर के लिए निकला है तो इन्होने फ़ौरन उसे फ़ोन करवा कर वापस बुलाया| अनिल सोलापुर पहुँचा था जब पिताजी ने उसे फ़ोन कर के इनके होश में आने की खबर दी और वापस बुलाया| अनिल उसी स्टेशन पर उतरा और अगली गाडी पकड़ कर दूसरे दिन दिल्ली पहुँचा| कमरे में आते ही वो इनके पाँव छू कर इनके गले लग गया| इनके चेहरे पर मुस्कान देख अनिल के दिल को चैन मिला, वहीं इन्होने अनिल को सारा काम संभालने और भागदौड़ करने के लिए धन्यवाद दिया|

होश में आने के बाद, सभी को अपने पास देख इनका मन सभी से बात करने का था| कभी पिताजी से खेती-बाड़ी के बारे में बात करने लगते तो कभी ससुर जी से काम की अपडेट लेने लगते| ससुर जी इन्हें कोई चिंता नहीं देना चाहते थे इसीलिए वो कामकाज की बातें गोलमोल करते थे और अनिल के ऊपर सब छोड़ देते थे| वहीं मेरी माँ के साथ तो इनकी गजब की जोड़ी बन गई थी, माँ को इन्होने experimental cooking का शौक चढ़ा दिया था तो इन्होने माँ से उसी को ले कर बातें करनी शुरू कर दी| जब मैं दोनों सास-दामाद को यूँ जुगलबंदी करते देखती तो मुझे बहुत हँसी आती थी| वहीं मेरी सासु माँ इनके आराम करने को ले कर पीछे पड़ जाती थीं मगर ये हैं की उनसे CID के बारे में पूछ कर व्यस्त कर लेते थे|

उधर आयुष, वो स्कूल से आते ही इनके पास चिपक कर बैठ जाता और बीच-बीच में दोनों बाप-बेटे खुसर-फुसर करने लगते| जानती तो मैं थी ही की दोनों बाप-बेटे क्या बात करते हैं और ये देख कर मुझे बहुत हँसी आती| वहीं दिषु भैया जब इनके होश में आने के बाद मिलने आये तो वो रो पड़े, इन्होने उन्हें प्यार से सँभाला और उनकी पीठ थपथपा कर चुप कराया| "साले, दुबारा ऐसे बीमार पड़ा न तो बहुत मारूँगा!" दिषु भैया इन्हें प्यार से हड़काते हुए बोले और ये दिषु भैया को देख हँसने लगे!

बड़की अम्मा के साथ ये और हम सब एक ही बात करते थे की जल्दी से बड़के दादा का गुस्सा ठंडा हो जाए ताकि दोनों परिवार फिर से एक हो जाएँ| लेकिन बात सुधरने की बजाए बिगड़ती जा रही थी, जिस दिन इन्हें होश आया उसी दिन बड़के दादा ने फ़ोन किया| बड़की अम्मा ने उन्हें फ़ोन पर खूब झाड़ा की उन्होंने उनके बेटे (ये) से इस कदर दुश्मनी निकाली| माँ-पिताजी और इन्होने मिलकर बड़की अम्मा को खूब समझाया की वो गाँव वापस चली जाएँ ताकि उनके और बड़के दादा के रिश्ते न बिगड़ें मगर बड़की अम्मा नहीं मानी| माँ-पिताजी को प्यार से डाँट कर और इनको प्यार से बहला कर वो बात बदल दिया करतीं थीं| वो कहतीं की मैं मानु को घर ले जा कर ही गाँव लौटूँगी!

इधर नेहा सारा दिन अस्पताल रूकती थी बस वो नहाने-धोने सुबह घर जाती और थोड़ी देर बाद वापस आ जाती| जब वो देखती की उसके पापा बहुत ज्यादा बात कर रहे हैं तो नेहा किसी डॉक्टर की तरह अपने पापा को आराम करने को कहती| ये नेहा की बात ऐसे मानते थे जैसे कोई छोटा बच्चा अपनी माँ की बात मानता हो, इनके लेटते ही नेहा इनके सिरहाने बैठ जाती और इनके बालों में हाथ फेरने लगती|

सबको इनसे बात करने का समय मिल रहा था सिवाए मेरे, जब नेहा सुबह नहाने घर जाती थी तब मैं इनके सिरहाने बैठ जाती और ये चुपके से मेरा हाथ थाम लेते मगर हमारी बात कमरे में किसी न किसी के मौजूद होने के कारण नहीं हो पाती! हम तो बस एक दूसरे को देख कर ठंडी आह भर कर रह जाते! इनका तो फिर भी ठीक था की इनसे बात करने को इतने सारे लोग थे मगर मेरे पास तो सिर्फ बात करने के लिए सासु माँ-ससुर जी और ये ही थे| उस पर जब ये होश में आये थे तो सॉरी शब्द बुदबुदा रहे थे और मुझे इनसे उस शब्द को बोलने को ले कर सवाल पूछना था, इसी सवाल ने मेरे भीतर बवंडर मचा रखा था! मैंने कई अटकलें लगाईं और सोचा की आखिर ये मुझे सॉरी क्यों बोल रहे हैं मगर कुछ फायदा नहीं हुआ!

दूसरे दिन की बात है, सुबह का समय था और कमरे में बस ये, मैं, सासु माँ और ससुर जी ही थे| मेरे माँ-पिताजी घर पर थे, नेहा नहाने के लिए घर गई हुई थी और मेरे पिताजी आयुष को स्कूल छोड़ने गए थे| बड़की अम्मा और अजय भैया दिल्ली में रह रहे गाँव के एक जानकार के घर मिलने गए हुए थे| तभी नर्स करुणा इनका चेकअप करने आई, जब से इन्हें होश आया था वो छुट्टी पर गई थी और आज ही वापस आई थी| मैं उस वक़्त इनके सामने एक कुर्सी कर के बैठी थी, तथा सासु माँ और ससुर जी सोफे पर बैठे थे| करुणा ने आ कर पहले सासु माँ और ससुर जी को नमस्ते कहा| उसके बाद जो हुआ वो देख कर मैं दंग रह गई! ये थोड़ा हैरानी से करुणा को देख रहे थे और इनकी ये हैरानी मुझे समझ नहीं आ रही थी! उधर करुणा मुस्कुराते हुए इन्हें देख रही थी, दो सेकंड बाद इनके चेहरे पर मुस्कान आ गई और दोनों ने मुस्कुराते हुए ही एक दूसरे को hi तथा hello कहा! "और कैसे हो?" करुणा ने मुस्कुराते हुए पुछा| ये अलफ़ाज़ सुन मैं आँखें बड़ी कर के उसे देखने लगी मगर तभी मुझे झटका लगा जब ये मुस्कुराते हुए '3 सेकंड का विराम' लेते हुए बोले; "मैं.........ठीक हूँ!" और फिर दोनों ने हँसते हुए बात शुरू की लेकिन सारी बात बस इनके बीमार होने से जुडी थी| ये दृश्य देख मुझे अजीब सा लगा, उस वक़्त मैं इस एहसास को समझ न पाई की ये एहसास और कुछ नहीं 'जलन' है! हाँ इतना ज़रूर था की थोड़ा बहुत गुस्सा मुझे भी आ रहा था मगर मैंने अपने ज़ज़्बात छुपा रखे थे!

अचानक मेरी नजर मेरे ससुर जी पर पड़ी तो मैंने पाया की वो इन्हें करुणा से हँस-हँस कर बात करते देख घूर रहे हैं! पिताजी ने शुरू से ही इनकी लगाम लड़कियों के मामले में खींच कर रखी है, जब ये आज मेरे ही सामने करुणा से इतना हँस कर बात कर रहे थे तो ससुर जी को गुस्सा आना जायज़ था| जैसे ही करुणा इनका चेकअप कर के गई ससुर जी ने इन्हें एकदम से थोड़ा गुस्से में टोका; "क्यों रे, बहु सामने बैठी है फिर भी तू उस नर्स से बड़ा हँस-हँस कर बात कर रहा था?" ससुर जी के टोकने से मुझे लगा था की ये नाराज होंगें या रूठ जायेंगे मगर ये तो हँसने लगे! इन्हें हँसता देख मुझे बड़ा अचरज हुआ और तभी सासु माँ ने बीच में बोल कर सारी उलझन सुलझाई; "अजी, ये नर्स कोई और नहीं करुणा है! उसी ने तो मेरी देखभाल की थी!" जब माँ ने ये कहा तब मुझे बात समझ आई की माँ करुणा को जानती थीं| दरअसल कुछ साल पहले जब ससुर जी गाँव आये हुए थे तब माँ के बीमार पड़ने पर करुणा ने ही माँ की देखभाल की थी और उन्हीं दिनों इनकी दोस्ती करुणा से हो गई थी| "फिर उस दिन जब आपने पूजा रखवाई थी तब करुणा और उसकी बहन आये थे और हमसे मिले भी थे|" माँ ने पिताजी को और एक बात याद दिलाई| पिताजी याद करने लगे और तब उन्हें करुणा याद आई और उनके चेहरे पर भी थोड़ी मुस्कान आ गई| "तभी मैं कहूँ की जब से मानु एडमिट हुआ है ये लड़की हमें नमस्ते क्यों कह रही है?!" पिताजी अपना माथा पीटते हुए मुस्कुरा कर बोले| इधर मैं ये सब बातें सुन कर हैरान थी की भला मुझे ये सब बातें क्यों नहीं पता? ये सब बातें जान कर मुझे जलन महसूस होने लगी थी, वैसे देखा जाए तो मुझे जलन करने की कोई ज़रुरत नहीं थी क्योंकि मेरे पति इतना सीधे हैं की आजतक मेरे अलावा ये कभी किसी दूसरी लड़की के चक्कर में नहीं पड़े! लेकिन औरत ज़ात हूँ जलन कैसे न करूँ?! बहरहाल, फिलहाल के लिए तो मैं ये बात हज़म कर गई क्योंकि मेरी चिंता इन्हें बस घर ले कर जाने की थी! शाम को अनिल साइट से लौटा और इनके पाँव छू कर इनके पास बैठ गया, इन्होने अनिल से सारी अपडेट ली तथा अपनी तरफ से कुछ बातें बताने लगे|

अब मेरे सब्र की इंतेहा होने लगी थी, मेरा मन इनके मुँह से अपने लिए 'जान' सुनने को तरस रहा था! मैं इनके सामने बड़ी आस ले कर बैठती थी की ये कम से कम मुझे 'जान' कहें मगर इनकी ये मजबूरी की सब परिवार वालों के सामने ये मुझे जान कहें कैसे?! मरते क्या न करते, मैं इंतज़ार करने लगी की कब इन्हें अस्पताल से डिस्चार्ज मिले और हम घर पहुँचे|

अगले दिन इन्हें डिस्चार्ज मिला और डिस्चार्ज से पहले डॉक्टर रूचि तथा सरिता जी ने सभी परिवार जनों को इनको ले कर हिदायतें दी| उनका कहना था की हमें घर का माहौल खुशनुमा बनाये रखना है तथा इन्हें किसी भी तरह के मानसिक आघात और तनाव से बचा कर रखना है| खाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई की खाने में फिलहाल हल्का देना है, जिससे इनको कोई अपच न हो| दवाइयों की जिम्मेदारी मुझे और नेहा को दी गई, जिसे नेहा ने बाकायदा एक कागज़ पर फिर से लिख लिया|

शाम 7 बजे हम इन्हें ले कर घर लौटे, माँ ने आरती उतार कर इन्हें घर में आने दिया और फिर सब ने खड़े हो कर भगवान को धन्यवाद दिया| इनका शरीर बहुत कमजोर हो चूका था और इनसे ज्यादा खड़ा रहना मुश्किल हो रहा था इसलिए हम सब हमारे कमरे में आ गए| दिवार से टेक लगाए ये बैठ गए और आस-पडोसी सभी इनसे मिलने आने लगे, मेरे पास तो चैन से बैठ कर इनसे बात करने का समय ही नहीं मिला| रात को सब ने खाना खाया, बाकी सब तो बाहर बैठक में बैठे थे बस ये और बच्चे कमरे में बैठे थे| इनके खाने के लिए मैंने खिचड़ी बनाई थी और खिचड़ी खिलाने का काम दोनों बच्चों ने किया| दोनों बच्चों ने एक-एक कर चम्मच से इन्हें पूरी खिचड़ी खिलाई, अस्पताल में इन्हें खिलाने का मौका मुझे मिलता था मगर घर में मुझसे ये काम बच्चों ने छीन लिया था| खान खा कर सब सोने के लिए चले गए| मेरे माँ-पिताजी बच्चों के कमरे में सोये और आयुष उन्हें के साथ सोने वाला था| नेहा अपने वादे अनुसार अपने दादा-दादी जी के साथ सोने वाली थी| बड़की अम्मा और अजय भैया जगह की कमी होने के कारण किसी रिश्तेदार के पास रात रुक गए तथा अनिल बैठक में सोफे पर सो गया|

घडी में बजे थे दस और नेहा ने इन्हें दवाई दे कर सुला दिया था| रसोई समेट कर जब मैंने कमरे की लाइट जलाई तो देखा ये अभी भी जाग रहे हैं| इस वक़्त हमें बात करने से रोकने वाला कोई नहीं था मगर मैं इनसे कुछ कहती उससे पहले ही ये बोल पड़े; "सॉरी!' इतने दिनों बाद आज मुझे इनके मुँह से सबसे पहले अपने लिए 'जान' शब्द सुनना था ना की 'सॉरी'! इनक सॉरी सुनते ही मन में जो सवाल था की होश में आते समय ये सॉरी क्यों बड़बड़ा रहे थे, वो एकदम से बाहर आ गया; "जानू जब से आपको होश आया है तब से आप मुझे सॉरी क्यों बोले जा रहे हो? क्यों? गलती तो..."मैं आगे कुछ कहती उससे पहले ही ये बोल पड़े; "जान, सॉरी इसलिए बोल रहा हूँ की उस दिन उस कमीने बद्ज़ात की जान नहीं ले पाया! सॉरी इसलिए बोल रहा हूँ की तुम्हारी वो दर्दभरी लेखनी पढ़ कर तुम्हारे दिल के दर्द को महसूस तो किया मगर तुम्हें उस दर्द से बाहर न निकाल पाया! सॉरी इसलिए बोल रहा हूँ की इतने दिन बेहोश पड़ा रह कर तुमसे बात न कर के तुम्हें इतना तड़पाया और वो भी तब जब तुम माँ बनने वाली हो जबकि इस समय तो मुझे तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार करना चाहिए था! सॉरी इसलिए..." ये आगे कुछ बोलते उससे पहले ही मैंने इनकी बात काट दी; "लेकिन आपकी कोई गलती नहीं थी! आप तो मुझे हँसाने-बुलाने के लिए जी तोड़ कोशिश किये जा रहे थे और मैं बुद्धू आप ही से अपना ग़म छुपाने में लगी थी! उस इंसान से अपना दर्द छुपा रही थी जो बिना मेरे बोले मेरे दिल का दर्द भाँप जाता है! सारी गलती मेरी थी, न मैं आप पर इस बच्चे के लिए दबाव डालती और न..." इससे आगे मैं कुछ बोलती उससे पहले ही ये मुझ पर गुस्से से बरस पड़े; "For god's sake stop blaming yourself for everything!" इनका गुस्सा जायज़ था, मैंने जब हमारे बच्चे को एक 'दबाव' का नाम दिया तो इनका मुझ पर चिल्लाना जाहिर था!

खैर, इनका ये गुस्सा देख मैं दहल गई थी! मुझे डर लग रहा था की कहीं मेरे कारण आये गुस्से से इनकी तबियत फिर न खराब हो जाए| इतने में नेहा दरवाज़ा खोलते हुए मुझ पर बरस पड़ी; "मम्मी, फिर से?" नेहा गुस्से और नफ़रत से मुझे घूर रही थी! फिर उसने अपने पापा को देखा और इनके चेहरे पर गुस्सा देख नेहा डर गई, उसे लगा की कहीं उसके पापा फिर से न बीमार हो जाएँ इसलिए वो दौड़ती हुई इनके पास आई तथा इनके सीने से लिपट कर रोने लगी! अपनी बेटी को यूँ रोते हुए देख इनका दिल पसीज गया और मेरे ऊपर आया गुस्सा अब नेहा पर प्यार बन कर बरसने लगा| इन्होने ने नेहा को अपनी बाहों में भरे हुए लाड करना शुरू किया, उसके सर को बार-बार चूम कर उसे चुप कराया और अंत में दोनों बाप-बेटी लेट गए| मैंने लाइट बुझाई और मैं भी इनकी बगल में लेट गई, नेहा हम दोनों के बीच में थी और इनकी तरफ करवट कर के इनसे लिपटी हुई थी| मैंने भी इनकी तरफ करवट ली और अपना हाथ नेहा की कमर पर रख दिया| नेहा ने एकदम से मेरा हाथ दूर झटक दिया और फिर से अपने पापा से लिपट गई| उसके यूँ मेरा हाथ झटकने से मुझे दुःख तो बहुत हुआ मगर मैं फिर भी चुप रही क्योंकि मुझे इस वक़्त एक इत्मीनान था की मेरे पति घर आ चुके हैं और एक उम्मीद थी की ये जल्दी से ठीक हो जाएंगे, इसी उम्मीद के साथ मेरी कब आँख लगी और कब सुबह हुई पता ही नहीं चला|

सुबह के पाँच बजे थे और पूरे घर में ये ही सबसे पहले उठे थे| दिवार से टेक लगा कर बैठे हुए, नेहा का सर अपनी गोदी में रखे और मेरे सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए ये मुस्कुराये जा रहे थे| इनके सर पर हाथ फेरने से मेरी नींद खुली, वो सुखद एहसास ऐसा था की इससे बेहतर सुबह की मैं कल्पना नहीं कर सकती थी| मैं उठने लगी तो इन्होने मुझे समय का वास्ता दे कर सोते रहने को कहा, उधर मेरा मन इन्हें आज कई दिनों बाद सुबह की गुड मॉर्निंग वाली kissi देने का था मगर तभी मेरी 'माँ' नेहा जाग गई क्योंकि उसके स्कूल जाने का समय होने वाला था| नेहा अपनी पढ़ाई को ले कर पहले ही संजीदा थी उस पर जब ये बीमार पड़े तो उसने सुबह जल्दी उठने की आदत बना ली थी|

अपनी लाड़ली को जागा हुआ देख इनका ध्यान मुझ पर से हट कर नेहा पर चला गया| "गुड मॉर्निंग मेरा बच्चा!" इन्होने नेहा के माथे को चूमते हुए कहा, जवाब में नेहा ने इनके दोनों गालों पर अपनी सुबह की गुड मॉर्निंग वाली पप्पी दी तथा इनसे कस कर लिपट गई| अपने वादे अनुसार नेहा को आज स्कूल जाना था इसलिए जब इन्होने नेहा के स्कूल के जाने को ले कर बात शुरू की तो नेहा न-नुकुर करने लगी| मैं जानती थी की नेहा क्यों स्कूल नहीं जा रही, उसे डर था की उसकी गैरहाजरी में मैं कल रात की ही तरह कोई न कोई ऐसी गलती करूँगी जिससे इन्हें गुस्सा आएगा और इनकी तबियत फिर से खराब हो जाएगी| नेहा ये बात इनसे नहीं कह सकती थी क्योंकि वो जानती थी की उसके पापा उसकी मम्मी के खिलाफ ऐसा नहीं सोचते इसी डर से नेहा खामोश थी|

लेकिन इनका भी एक अलग अंदाज है जिसके आगे किसी की नहीं चलती! इन्होने नेहा को लाड-प्यार करते हुए उसे कहा; "मेरा बच्चा अगर स्कूल नहीं जाएगा तो बड़ा कैसे होगा? डॉक्टर, इंजीनियर कैसे बनेगा? मेरा प्यारा-प्यारा बच्चा है न, तो पापा की बात मानेगा न?" ये सब सुन नेहा का दिल पिघल गया और वो स्कूल जाने के लिए राज़ी हो गई मगर उसने स्कूल जाने से पहले एक शर्त रखी; "आप मुझे वादा कीजिये की आप समय से खाना खाओगे, समय पर दवाई लोगे, सिर्फ आराम करोगे..." इतना कह नेहा गुस्से से मेरी ओर देखने लगी और अपनी बात पूरी की; "...और चाहे कोई भी आपको कितना भी गुस्सा दिलाये, आपको 'provoke' करे आप बिलकुल गुस्सा नहीं करोगे!" नेहा ने जिस तरह इन्हें हिदायतें दी थीं उसे सुन कर एक पल को इनके चेहरे पर मुस्कान आ गई और उन्हें मुस्कुराते देख मैं भी मुस्कुराने लगी! "मेरी मम्मी जी, आप बस स्कूल जा रहे हो दूसरे continent नहीं जा रहे जो इतनी सारी हिदायतें मुझे दे रहे हो! यहाँ घर पर इतने सारे लोग हैं, आपकी मम्मी हैं, आपके दादा-दादी जी हैं, आपके नाना-नानी जी हैं, आपके अनिल मामा जी हैं और अजय चाचा हैं तो फिर आपको किस बात की चिंता? और कौन हैं यहाँ जो मुझे provoke करे या गुस्सा दिलाये?" इनके पूछे अंतिम सवाल का जवाब देने के लिए नेहा ने मुँह खोला ही था की मैंने इस विषय पर बाप-बेटी की बात शुरू होने से पहले ही बदल दी क्योंकि मैं जानती थी की नेहा का मुझ पर गुस्सा देख ये नाराज़ होंगें और नेहा को डाँट देंगे! "नेहा बेटा, जल्दी से तैयार हो जाओ वरना स्कूल के लिए लेट हो जाओगे!" अब ये कोई बुद्धू तो थे नहीं जो मेरी होशियारी न पकड़ पाएँ, इन्होने घडी देखते हुए मुझे नजरों ही नजरों से उल्हाना दिया की; 'अभी बस साढ़े पाँच ही हुए हैं!' अब मैं क्या कहती मैं बस शैतानी मुस्कान हँस कर इन्हें भी हँसा दिया!

नेहा उठ कर तैयार होने लगी और थोड़ी देर बाद आयुष आ कर इनकी गोदी में सो गया| उसे भी बड़ी मुश्किल से इन्होने लाड-प्यार करते हुए स्कूल जाने के लिए मनाया| आयुष तैयार हो रहा था जबकि नेहा तैयार हो कर इनके पास बैठ गई थी| तभी सासु माँ इनका हाल-चाल पूछने आईं और नेहा से प्यार से शिकायत करते हुए बोलीं; "नेहा, बेटा तू तो अपने पापा को गुड नाइट वाली पप्पी देने आई थी फिर यहीं सो गई? ये सुन नेहा शर्माने लगी और इनसे लिपट गई! नेहा को शरमाते देख हम तीनों हँस पड़े, तभी आयुष तैयार हो कर आ गया और नेहा ने अपनी दादी जी की ड्यूटी लगाते हुए कहा; "दादी जी, जब तक मैं स्कूल से न आऊँ, तबतक आप पापा जी के पास रहना| उन्हें नाश्ता और दवाई आप दोगे और आराम करने को बोलते रहना|" नेहा की बात सुन माँ हँस पड़ीं और बोलीं; "बेटा ड्यूटी तो तूने मेरी लगा दी मगर मुझे इस ड्यूटी के बदले में क्या मिलेगा?" माँ ने हँसते हुए सवाल पुछा, नेहा जवाब दे उससे पहले ही आयुष बोल पड़ा; "दादी जी, मैं है न आपके लिए चॉकलेट लाऊँगा!" ये सुन कर तो माँ बड़ी जोर से हँसी और मैं आयुष की टाँग खींचते हुए बोली; "लेकिन ये चॉक्लेट तू खायेगा या फिर तेरी दादी जी?" ये सुनते ही आयुष ने फ़ट से अपना हाथ उठाया और उसके इस भोलेपन पर हम सभी हँस पड़े!

खैर बच्चे स्कूल के लिए निकले और जाते-जाते अपने पापा के दोनों गाल अपनी पप्पी से भीगा गए! बच्चों के जाते ही इन्होने हमारे कमरे में सभा का ऐलान कर दिया| बड़की अम्मा और अजय के आते ही सब लोग अपनी चाय का गिलास/कप थामे कमरे में इनको घेर कर बैठ गए| कमरे में हीटर चालु था जिससे कमरे में गर्माहट बनी हुई थी और कमरे का माहौल आरामदायक बना हुआ था| ये दिवार से टेक लगा कर बैठे थे तथा बाकी सभी इनके सामने या अगल-बगल कुर्सी पर बैठे हुए थे| देखने पर ऐसा लगता था मानो अमरीका के राष्ट्रपति अपनी कैबिनेट के लोगों को सम्बोधित करते हुए बजट की चर्चा कर रहे हों! इधर मैं थोड़ी जिज्ञासु थी ये जानने के लिए की भला इनको सभी से एक साथ क्या बात करनी है?!

"मुझे आप सभी से कुछ कहना है|" इतना कह इन्होने सब के आगे हाथ जोड़े और माफ़ी माँगते हुए बोले; "मैं आप सभी से हाथ जोड़ कर माफ़ी माँगता हूँ की मेरे कारण आप सभी को इतनी तकलीफ उठानी पड़ी|" इन्हें हाथ जोड़े हुए देख सभी लोग एक साथ बोलने लगे; 'बेटा, ये तू क्या कह रहा है?!' लेकिन इन्होने अपनी बात आगे जारी रखी; "दो बच्चों का बाप होने के बावजूद मुझे इस तरह की लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए थी!" इतना कह ये मेरी तरफ देखने लगे और बोले; "मैं जानता हूँ की मेरी इस हालत का दोषी संगीता ने खुद को ही माना होगा, क्योंकि ये संगीता की बहुत बुरी आदत है! मेरी हर गलती का जिम्मेदार संगीता खुद को मानती है और मेरे सारे ग़म और बेवकूफियाँ ये अपने सर लाद लेती है!" ये सुन मेरे पिताजी कहने वाले हुए थे की ये तो हर पत्नी का धर्म होता है की वो अपने पति के दुःख-दर्द बाटें मगर इन्होने पिताजी को कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया तथा अपनी बात जारी रखी; "मैं जानता हूँ की ये हर पत्नी की जिम्मेदारी होती है की वो अपने पति के दुःख बाटें मगर ये कहीं नहीं लिखा की पति दवाई न खाये और खुद अपनी तबियत खराब कर ले और पत्नी इसका ठीकरा अपने सर फोड़ ले!" इनकी ये बात सुन पिताजी कुछ नहीं बोल पाए और अब जा कर मुझे इनकी सारी बात समझ आने लगी, दरअसल जब से ये होश में आये थे इन्होने गौर किया की मेरे माँ-पिताजी और अनिल मुझसे ठीक से बात नहीं कर रहे थे इसलिए मेरी इज़्ज़त सब के सामने रखने के लिए ये मेरी तरफदारी करते हुए ये मेरा बचाव कर रहे थे|

"देखिये, जो हुआ उसमें संगीता की कोई गलती नहीं थी और मैं नहीं चाहता की आप मेरी गलतियों की सजा संगीता को दें और उससे नफरत करें या उससे नाराज़ रहे|" ये बात इन्होने मेरे माँ-पिताजी की ओर देखते हुए कही| "दरअसल उस हादसे के बारे में सोच-सोच कर मेरा खून खौलने लगा था, दिल में आग लगी हुई थी और गुस्से से मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा था| अपने गुस्से की आग में खुद जलते हुए मैं पता नहीं क्या-क्या ऊल-जुलूल हरकतें कर रहा था| कभी दुबई जा कर बसने की तैयारी कर रहा था तो कभी संगीता को हँसने के लिए जबरदस्ती पीछे पड़ रहा था, खाना-पीना बंद कर दवाइयाँ बंद कर मैंने अपनी ये दुर्गति कर ली! ऐसा लगता था जैसे मेरे दिमाग ने सोचने समझने की ताक़त खो दी हो! इसलिए आज आप सभी से मैं आज हाथ जोड़ कर अपनी की इन बेवकूफियों की क्षमा माँगता हूँ|" इन्होने आज मेरा मान-सम्मान बचाने के लिए बड़ी आसानी से मेरी सारी गलतियों का बोझ अपने ऊपर ले लिया था| इनकी ये बातें सुन मेरे माँ-पिताजी और अनिल को लगा की मैंने शायद उनकी शिकायत इनसे की है तभी ये इस कदर मुझे बचाने के लिए इतनी सफाई दे रहे हैं मगर इन्होने आगे जो कहा उससे उनके मन में कोई संशय नहीं रहा; "पिताजी, संगीता ने मुझसे किसी की कोई शिकायत नहीं की है, मैं जानता हूँ की आप मुझे ज्यादा प्यार करते हो इसलिए संगीता को सबसे ज्यादा आपने ही डाँटा होगा|" इन्होने मुस्कुराते हुए मेरे पिताजी यानी अपने ससुर जी से कहा| इनकी बात सुन मेरे पिताजी संग सभी मुस्कुराने लगे! तभी इन्होने मुझे मेरे पिताजी के पाँव छूने को कहा, मैंने फ़ौरन अपने पिताजी के पाँव छू कर माफ़ी माँगी और उन्होंने मुझे माफ़ करते हुए कहा; "खुश रहो मुन्नी!" पिताजी की माफ़ी पा कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई, फिर मैं अपनी माँ के पास पहुँची और उनके पाँव छुए तो माँ ने भी मुस्कुराते हुए मुझे माफ़ किया तथा आशीर्वाद दिया| बड़की अम्मा मेरी माँ के बगल में ही बैठीं थीं, जब मैं उनके पाँव छू कर आशीर्वाद लेने लगी तो इन्होने मुस्कुराते हुए बड़की अम्मा से कहा; "मुझे यक़ीन हैं की एक बस मेरी बड़की अम्मा हैं जिन्होंने संगीता को मेरे बीमार होने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया होगा| हैं न अम्मा?" जिस यक़ीन से इन्होने अपनी बात कही थी उससे बड़की अम्मा के चेहरे पर भी मुस्कान आ गई और वो बोलीं; "मुन्ना (ये) तू तो जानत हो, हम अगर बहु का कछु कहित भी तो कउन हक़ से?" बड़की अम्मा अपने खून (चन्दर) के कारण लज्जित महसूस कर रहीं थीं और उन्हें लग रहा था की शायद उनका अब हमारे परिवार पर कोई हक़ नहीं रहा| "ये क्या कह रहे हो अम्मा, आप तो हमारी (मेरी और इनकी) बड़की अम्मा हो! आपका पूरा हक़ है हमें डाँटने का और चाहो तो मार भी लेना|" मैंने इनकी और अपनी ओर से दिल से बात कही| "नहीं बहु, हमार आपन खून का किया धरा है ई सब! हमका तो कछु भी कहे का कउनो हक़ नाहीं!" ये कहते हुए बड़की अम्मा भावुक हो गईं और रो पड़ीं| मैंने फ़ौरन आगे बढ़ कर अम्मा को अपने गले लगाया और उन्हें रोने से रोकते हुए बोली; "अम्मा, रोओ मत! आप रोओगे तो ये भी रो पड़ेंगे और डॉक्टर ने कहा है की इन्हें हमें खुश रखना है|" मैंने खुसफुसाते हुए अम्मा को बात समझाई| अम्मा ने फ़ौरन अपने आँसूँ पोछे और खुद को संभाल लिया जिससे ये इस बात को ले कर चिंतित नहीं हो पाए| मैं जानती थी की अम्मा की बात इन्हें कहीं न कहीं इन्हें लग चुकी है, परन्तु इन्होने खुद को इस बात पर सोचने से रोका तथा बात बनाते हुए माँ-पिताजी (मेरे सास-ससुर जी) से बोले; "और माँ-पिताजी, आपने तो संगीता को कुछ कहा नहीं होगा?!" ये जानते थे की माँ-पिताजी मुझसे इतना प्यार करते हैं की वो मुझे कभी कुछ नहीं कहेंगे इसलिए इन्होने ये सवाल माँ-पिताजी को उल्हना देते हुए पुछा था| "भई गलती तेरी तो हम भला अपनी बहु को क्यों कुछ कहेंगे? हमें तो पहले से पता था की ये सब किया-धरा तेरा है, हमारी बहु तो सीधी-साधी है और तेरे कर्मों की सजा ख़ुद को दे रही है|" सासु माँ इन्हें सुनाते हुए बोलीं| इधर मेरे पिताजी इनका पक्ष लेते हुए बोले; "अरे वाह समधन जी, ई सही कहेऊ! सब खोट हमार मुन्ना में ही हैं?!" पिताजी मेरी सासु माँ को उल्हाना देते हुए मज़ाकिया अंदाज में बोले जिस पर सभी ने हँसी का ठहाका लगाया!

नाश्ते का समय हो रहा था इसलिए सभी बाहर बैठक में बैठ गए, बस एक ये ही कमरे के भीतर रह गए थे क्योंकि बाहर का तापमान कम था और इन्हें सर्दी होने का खतरा था इसलिए ये अंदर कमरे में ही बैठे थे| तभी मेरे पिताजी आ कर इनकी बगल में बैठ गए और इनके कँधे पर हाथ रख कर मेरी ओर देखते हुए बोले; "मुन्नी, तू है नसीब वाली जउन तोहका मानु जइसन पति मिला, जो तोहार सारी गलतियाँ आपन सर ले लेथ है!" पिताजी मुस्कुराते हुए बोले| इतने में मेरी माँ भी आ कर वहीं खड़ी हो गईं, ये फिर मेरा बचाव करते हुए बोले; "पिताजी, ऐसा कुछ नहीं है| सारी गलती मेरी थी!" इन्होने अपनी बात फिर दोहराई, लेकिन इस समय पिताजी इनके साथ तर्क करते हुए बोले; "अच्छा मुन्ना एक बात बतावा, अइसन कौन पत्नी होवत है जउन आपन दुःख-दर्द आपन पति से कहे का डरात है?" पिताजी का ये तर्कपूर्ण सवाल सुन मुझे लगा की इनके पास कोई जवाब नहीं होगा मगर इन्होने बड़े तपाक से पिताजी के सवाल का जवाब मेरी माँ यानी अपनी सासु माँ की तरफ देखते हुए दिया; "वही पत्नी जो ये जानती हो की उसका दुःख-दर्द जान कर उसके पति की तबियत खराब हो जाएगी|" इनका ये जवाब माँ के लिए एक इशारा था की उन्होंने अनिल के हर्निया के ऑपरेशन की बात पिताजी से छुपा कर कोई पाप नहीं किया|

उधर इनका जवाब सुन पिताजी खामोश हो गए थे, वो अनिल के हर्निया के बारे में तो नहीं जान पाए थे मगर उन्हें इनकी बात अच्छी लगी ओर अंततः वो मुस्कुराने लगे| "मुन्ना, तोहसे बतिया करे म कउनो नाहीं जीत सकत, काहे से की तोहरे लगे हर सवाल का जवाब है|" इतना कह पिताजी ने इनके सर पर हाथ रख इन्हें आशीर्वाद दिया और माँ के साथ बाहर बैठक में आ कर बैठ गए| आजतक ऐसा नहीं हुआ की मेरे पिताजी किसी की बात सुन कर निरुत्तर हो गए हों या किसी ने उन्हें यूँ प्यार से चुप करा दिया हो, कम से कम मेरे सामने तो ऐसा नहीं हुआ! दरअसल ये इनका गहन प्रभाव था जो मेरे पिताजी को बहुत प्रभावित कर गया था| इनके इसी प्रभाव के कारण आज माँ और मेरी सासु माँ खुल कर अपनी बात सामने रख पा रहीं थीं!

इधर जिस तरह इन्होने पिताजी के सामने मेरा पक्ष लिया था और मेरी इज़्ज़त, मेरा मान मुझे वापस लौटाया था उससे मेरा दिल भर आया था| मन किया की इनके सीने से लग कर रो पडूँ लेकिन फिर मुझे रोता हुआ देख इनका दिल दुखता इसलिए मैंने खुद को सँभाल लिया| इतने में अनिल कमरे में आया और मुझसे बोला; "दी, नाश्ते के लिए आपको बाहर बुला रहे हैं|" इतना कह अनिल वापस बाहर चला गया| अनिल ने आज मुझे फिर दीदी की जगह 'दी' कह कर बुलाया था जो मेरे दिल को बहुत चुभा था मगर मैं फिर भी चुप रही और अपना दर्द इनसे छुपाने लगी| दरअसल इनकी दी गई मेरे बचाव में दलील सुन कर भी अनिल का मन मेरे प्रति नहीं पिघला था, उसके लिए मैं ही इनके बीमार होने की कसूर वार थी जो की सही भी था| इधर अनिल की बातों से इनको शक हो गया था, शायद ये मेरे दिल का दर्द भाँप चुके थे; "मैं देख रहा हूँ की अनिल तुम्हें दीदी की जगह 'दी' कहने लगा है, क्या ये आज कल कोई नया ट्रेंड है?" इन्होने थोड़ा चिंतित होते हुए पुछा| मुझे इनको चिंता करने से रोकना था इसलिए मैंने इनकी बात को मज़ाकिया मोड़ दे दिया; "हाँ जी, आज कल की नई पीढ़ी है शब्दों को छोटा करने में इन्हें बड़ा कूल लगता है| मैं तो शुक्र मनाती हूँ की इसने दीदी का सिर्फ 'दी' बनाया वरना मुझे तो लगा था की कहीं मुझे दीदी की जगह 'dude' न कहने लगे! ही...ही...ही!!!" मैंने नकली हँसी हँसते हुए कहा| लेकिन इन्हें मुझ पर शक हो चूका था की मैं ज़रूर कोई बात छुपा रही हूँ, लेकिन फिलहाल ये थोड़ा थक गए थे इसलिए मुझसे शिकायती अंदाज़ में बोले; "अच्छा जी? ज़माना इतना बदल चूका है? हम तो जैसे बूढ़े हो गए?!" मैंने अनिल को नई पीढ़ी का कह कर इन्हें बुजुर्ग होने का एहसास करा दिया था इसीलिए ये थोड़ा नाराज़ थे|

मैं नाश्ते बनाने बाहर आई और ये लेट कर आराम करने लगे| नाश्ता बना, मैंने सबको नाश्ता परोसा और हम दोनों मियाँ-बीवी का नाश्ता ले कर मैं अंदर आ गई| बाकी सब के लिए मैंने पोहा बनाया था मगर अपने और इनके लिए मैंने दलिया बनाया था, जो हमने एक अरसे बाद एक दूसरे को खिलाते हुए खाया| मैंने इन्हें कमरे के भीतर ही रोका हुआ था क्योंकि बाहर का कमरा ठंडा था और इनका साइनस इन्हें तंग करने लौट सकता था, यदि एक बार साइनस का अटैक शुरू हो जाता तो इनकी तबियत बहुत खराब हो जाती|

[color=rgb(251,]जारी रहेगा भाग - 2 में...[/color]
 

[color=rgb(255,]सत्ताईसवाँ अध्याय: विपरीत - पति का प्यार और पत्नी की जलन![/color]
[color=rgb(71,]भाग - 2[/color]

[color=rgb(51,]अब तक आपने पढ़ा:[/color]

मैं नाश्ते बनाने बाहर आई और ये लेट कर आराम करने लगे| नाश्ता बना, मैंने सबको नाश्ता परोसा और हम दोनों मियाँ-बीवी का नाश्ता ले कर मैं अंदर आ गई| बाकी सब के लिए मैंने पोहा बनाया था मगर अपने और इनके लिए मैंने दलिया बनाया था, जो हमने एक अरसे बाद एक दूसरे को खिलाते हुए खाया| मैंने इन्हें कमरे के भीतर ही रोका हुआ था क्योंकि बाहर का कमरा ठंडा था और इनका साइनस इन्हें तंग करने लौट सकता था, यदि एक बार साइनस का अटैक शुरू हो जाता तो इनकी तबियत बहुत खराब हो जाती|

[color=rgb(44,]अब आगे:[/color]

सवा
बारह बजे होंगें की ससुर जी, मेरे पिताजी और अजय भैया बाहर टहलने चल दिए| वहीं सासु माँ, मेरी माँ और बड़की अम्मा अंदर कमरे में बैठ बातें करने लगीं| अजय कुछ हिसाब करने बैठक में बैठा था की तभी इन्होने मुझे अनिल को बुलाने को कहा| मुझे लगा की इनको अनिल से काम के बारे में कोई बात करनी होगी इसलिए मैं अनिल को कमरे में जाने को बोल अपना काम करने में जुट गई| तभी अचानक मेरे दिमाग में बिजली कौंधी; 'कहीं ये अनिल से मेरे बारे में तो बात नहीं कर रहे?!' मैं कमरे के नज़दीक पहुँची, अब अंदर जाने की हिम्मत तो थी नहीं इसलिए मैं दरवाज़े से कान भिड़ाये अंदर की बातें सुनने लगी; "अनिल, यार या तो तू थोड़ा मॉडर्न हो गया है या फिर बात कुछ और है?!" इन्होने बात गोलमोल शुरू करते हुए कहा| "मैं कुछ समझा नहीं जीजू!" अनिल ने असमंजस में पूछा|

"यार मैंने गौर किया है की तू आजकल अपनी दीदी को 'दी' कह कर बुलाने लगा है| संगीता को तेरे मुँह से दीदी सुनना अच्छा लगता है न की 'दी', तो उसके लिए न सही कम से कम मेरे लिए ही तू संगीता को 'दीदी' कह कर बुलाया कर|" आज इन्होने मेरी ख़ुशी के लिए अनिल से विनती की और ये सुन कर मैं भावुक हो गई| उधर अनिल इनकी बात सुन खामोश हो गया था, मैं जानती थी की ये उसकी चुप्पी पकड़ लेंगे और हुआ भी वही; "हम्म्म...मतलब की बात कुछ और है|" अनिल अपने भीतर कुछ भी छुपाये नहीं रह सकता था| उसके मन में उठी चहल-पहल उसके चेहरे या उसके बात करने से नज़र आ जाया करती थी| आज जब इन्होने अनिल से मुझे दीदी कह कर बुलाने को कहा तो उसके भीतर मौजूद मेरे प्रति रोष उसके चेहरे पर आने लगा और इसी कारन अनिल खामोश हो गया था| वहीं इन्होने अनिल के भीतर उठी चहल-पहल महसूस कर ली थी और मेरा भाई भी अपने मन की कहने पर आ गया| उसने उस दिन मुझसे हुई सारी बात इन्हें बता दी, ये सब बातें सुन मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा था| मुझे डर लग रहा था की कहीं ये सब बात जानकार इनकी तबियत फिर से न खराब हो जाए, लेकिन इन्होने खुद को सँभाला और एक बार फिर मेरा पक्ष लेते हुए अनिल को समझाने लगे; "यार, तुझे लगता है की तेरी दीदी तुझे भूल गई, ऐसा कभी हो सकता है?! तुझे पता भी है की तेरी दीदी तुम सब के लिए कितनी दुआ करती है?! तेरे पेपर अच्छे से हो जाएँ, माँ-पिताजी (यानि इनके सास-ससुर जी) की लम्बी आयु हो और तेरी जल्दी से शादी हो जाए, यही सब संगीता माँगती रहती है| तू ज़रा सोच कर देख, हमारी शादी के बाद संगीता के सर पर इस परिवार की जिम्मेदारी आ गई, तू जानता है संगीता कैसे ये पूरा घर अकेले सँभालती थी?! फिर उस दिन जब हम दिल्ली आये और वो काण्ड हुआ उसके बाद से संगीता अंदर ही अंदर टूट चुकी थी, तू सोच भी नहीं सकता की वो बेचारी किस दौर से गुज़र रही थी! आयुष को ले कर संगीता हर पल डरी रहती थी, उसे बार-बार ये डर रहता था की हम आयुष को खो देंगे! उसके डर को जानते हुए ही मैंने संगीता से गाँव में पिताजी (यानी इनके ससुर जी) से मिलने की बात छुपाई, मुंबई में तेरे इलाज़ की बात छुपाई और तेरे और सुमन के ब्रेकअप की बात भी छुपाई! बस एक मेरे माँ-पिताजी थे जो सब बात जानते थे मगर उन्हीं भी मैंने संगीता को कुछ भी बताने से मना कर रखा था| लेकिन इतनी बातें छुपाने के बावजूद भी मैं उस पर हँसने-बोलने का दबाव बना रहा था, इस कारण हमारे बीच भी तनाव पैदा हो चूका था और मैं उस तनाव को कम करने की बजाए, संगीता को उसके दुःख से बाहर निकलने की बजाए ऊल-जुलूल हरकतें कर रहा था, तो वो बेचारी क्या करती? गुस्सा ही करती न?! देख मैं संगीता की तरफ से तुझसे माफ़ी माँगता हूँ, उसे माफ़ कर दे और फिर से प्यार से बात किया कर, तू जानता है न तू उसके बेटे समान है?!" इन्होने मेरी ख़ुशी के लिए मेरे ही भाई के आगे हाथ जोड़ कर माफ़ी माँगी थी और यहाँ दरवाजे के इस ओर मैं ये सोच रही थी की क्या मैं ऐसे देवता समान पति के काबिल हूँ?!

वहाँ कमरे के भीतर जैसे ही इन्होने मेरे लिए अनिल के आगे हाथ जोड़े की अनिल ने इनके दोनों हाथ थाम लिए ओर बोला; "जीजू, आप माफ़ी मत मांगो क्योंकि आपने कुछ गलत नहीं किया! मैं दीदी से इसलिए नाराज़ नहीं की वो मुझे या पिताजी को भूल गईं, या वो पिताजी के सर पर चढ़े लोन को भूल गईं! मैं उनसे नाराज़ इसलिए हूँ की उनके कारण आपकी ये हालत हुई, ये बात मैं कभी बर्दाश्त नहीं करूँगा! वो जानती थीं की आप उन्हें कितना प्यार करते हो, उनकी ख़ुशी के लिए आप क्या कुछ करने से नहीं चूकते और ये सब जानते-बूझते हुए भी इन्होने आपके साथ ऐसा सलूक किया?! मैं पूछता हूँ की आपकी गलती क्या थी, अगर आप दीदी की जगह होते और दीदी आपकी जगह होतीं, वो आपको हँसाने-बुलाने की कोशिश करतीं तो क्या आप उनसे नाराज़ हो जाते? उनसे बात करना बंद कर देते? वो भी ये जानते हुए की आपके बात न करने से उन्हें कितनी तकलीफ पहुँचती?!" अनिल ने इनके साथ तर्क करते हुए अपनी बात कही| उसकी बात सही भी थी, कसूरवार तो मैं थी जो मैंने इनके साथ ऐसा उखड़ा हुआ सलूक किया!

उधर ये भी अपनी बातों के धनी थे, इन्होने अनिल के तर्क का जवाब भी अपने तर्क से दिया; "नहीं, मैं संगीता से बिलकुल नाराज नहीं होता! लेकिन अगर मुझे ये पता चलता की मेरा डर मिटाने के लिए वो मुझे ही मेरे परिवार से अलग कर रही है तो मैं ज़रूर नाराज़ होता! संगीता ने मुझसे बात करनी इसीलिए बंद कर दी क्योंकि मैंने उसे मेरे परिवार से अलग करने की बात सोची, मैंने बिना संगीता को बताये दुबई में नौकरी ढूँढी और वहीँ बसने की सारी तैयारी कर ली थी| माँ-पिताजी से मैंने इस बात को ले कर बात की मगर उन्होंने तो जाने से साफ़ मना कर दिया इसलिए हारकर मैंने, अपने, संगीता और बच्चों को ले कर दुबई जाने की सारी की गई तैयारी संगीता को बताई| अब तू बता की अचानक से जब मैंने दुबई जाने का बम फोड़ा तो किसे गुस्सा नहीं आएगा?"

इनकी तर्कपूर्ण बात सुन अनिल इनकी बात का काट करते हुए बोला; "जीजू, आप ये बताओ की आपने ये सब किसके लिए सोचा था? सिर्फ दीदी के लिए ही न तो फिर दीदी को इतनी सी बात समझ नहीं आई?" अनिल मेरी गलती निकालते हुए बोला| उसकी कही इस बात से ये आखिर निरुत्तर हो गए थे, आखिर में इन्होने बात खत्म करते हुए मुस्कुरा कर एक ही बात कही; "देख यार, अब तू मुझसे इस मुद्दे पर बहस कर ले या फिर लड़ाई मगर मेरे लिए संगीता ही सही थी| For me she's always right!" इन्हें मुस्कुराते देख और तर्क में हारते देख अनिल भी मुस्कुरा दिया और इनकी ख़ुशी के लिए बोला; "देखा जीजू, आपके लिए दीदी हमेशा सही हैं मगर उनके लिए आप गलत, क्या जोड़ी बनाई है भगवान जी ने! खैर, आपके लिए मैं उन्हें माफ़ कर देता हूँ मगर मेरी भी एक शर्त है?!" मुझे अनिल से मिली माफ़ी के कारण मैं खुश हो गई थी परन्तु जब उसने शर्त का ज़िक्र किया तो मेरी उत्सुकता जाग गई| वहाँ भीतर कमरे में ये भी अनिल की शर्त रखने की बात से थोड़ा चकित थे; "कैसी शर्त?" इन्होने मुस्कुराते हुए पुछा तो अनिल एकदम से बोल पड़ा; "जैसे दीदी मुझे 'बेटा' कह कर बुलाती हैं वैसे ही आप भी मुझे 'बेटा' कह कर बुलाओगे| माँ कहती हैं की बड़ी बहन माँ समान होती है तो इस हिसाब से आप भी पिता समान हुए न?! फिर मुझे वैसे भी दीदी के मुँह से बेटा सुन्ना अच्छा लगता है और मैं ये सुख आपके मुँह से भी पाना चाहता हूँ|"

अनिल की शर्त जानकार दरवाजे के इस ओर मुझे बहुत गर्व हो रहा था की मेरा बेटा समान भाई इनसे इतना मोह करता है, वहीं कमरे के भीतर ये अनिल की शर्त सुन मुस्कुराने लगे और बोले; "ठीक है बेटा, मुझे तेरी ये शर्त मंज़ूर है मगर तुझे भी अपनी दीदी को मेरे लिए नहीं बल्कि दिल से माफ़ करना होगा|" इतना कह इन्होने मुझे आवाज लगाई और मैं भी बुद्धू एकदम से धड़धड़ाते हुए कमरे के भीतर आ गई, जिससे इन्हें पता चल गया की मैं दरवाजे पर कान लगाये सब सुन रही थी! मुझे मेरी बेवकूफी समझ आई मगर मैं कुछ कर न पाई, मैं तो बस सर झुका कर खड़ी हो गई| मुझे देख अनिल उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर मुझसे बोला; "सॉरी दीदी! मेरे किये बुरे बर्ताव के लिए मुझे माफ़ कर दो! जीजू ने मुझे..." इतना कह अनिल रो पड़ा और उससे आगे बोला नहीं गया| मैंने उसे फ़ौरन गले लगाया और उसके सर पर हाथ फेर उसे चुप कराने लगी ठीक उसी तरह जैसे मैं उसके बचपन में उसे गोद ले कर चुप कराया करती थी| अनिल का रोना अभी भी नहीं रुका था तो इन्होने मज़ाक करते हुए कहा; "बेटा, जब माँ के गले लग कर रो लो तो इधर भी आ जाना, यहाँ भी धरती गीली कर देना|" इनका मतलब था की जब मुझसे लिपट कर अनिल का रोना हो जाए तो वो अपने जीजू से भी लिपट कर थोड़ा रो ले| इनकी कही बात सुन हम दोनों बहन-भाई हँस पड़े और अनिल जा कर इनके गले लग गया|

उधर बाहर कूकर की सीटी बजी तो मैं दौड़ी-दौड़ी बाहर आई और गैस बंद की| कुछ देर में खाना बन गया और अनिल बच्चों को लेने स्कूल चल दिया| दोनों बच्चे अपना बस्ता टाँगें हुए दौड़ते हुए घर में दाखिल हुए और सीधा हमारे कमरे में अपने पापा का हाल-चाल पूछने उनके पास दौड़ गए| दोनों बच्चों का हाल ऐसा था मानो की सालों बाद उन्होंने अपने पापा को देखा हो, ये भी कम नहीं थे इन्होने दूँ बच्चों को खुद से लिपटा लिया और उनके सरों को बार-बार चूमने लगे| खाना खाने के समय तक दोनों बच्चे अपने पापा से लिपटे रहे तथा उनसे आज की दिनचर्या के बारे में पूछते रहे| बीच-बीच में आयुष अपनी स्कूल की दिनचर्या बताता मगर नेहा उसकी बातों को दबा कर अपने पापा के खाने-पीने और दवाई के बारे में पूछने लगती|

खाने का समय हुआ तो बच्चों ने हमेशा की तरह अपने पापा के साथ खाना खाने की जिद्द की, अब इन्हें खानी थी खिचड़ी और बाकी सब के लिए बने थे राजमा, सब्जी, चवल तथा रोटी| तब सासु माँ ने दोनों बच्चों को बहलाते हुए कहा; "बच्चों अपने पापा को तो रोज़ खिलाते हो, आज मुझे भी खाना खिलाओ!" तभी ससुर जी भी सासु माँ के साथ हो लिए और बोले; "अरे भई मेरा मन भी अपने पोता-पोती को खिलाने का करता है, तो मैं कहाँ जाऊँ?" बच्चे अपने दादा-दादी जी को उदास कैसे करते इसलिए वो जैसे-तैसे मान गए| इधर इन जनाब का मूड बाहर बैठने का हो गया तो मैंने इन्हें कमरे से बाहर निकलने पर रोक लगा दी! मेरे इन्हें अंदर रोके रखने के दो कारण थे, एक तो ये की बाहर इन्हें सर्दी लगने तथा साइनस का अटैक शुरू होने का खतरा था और दूसरा कमरे के भीतर हम दोनों मियाँ-बीवी को साथ बैठ कर खाने का मुंडका मिल सकता था| अब आप सभी इसे मेरा स्वार्थी स्वभाव कहो या इनके स्वस्थ होने के लिए मेरी सजकता!

मैं पहले इनके लिए खाना परोसने वाली थी मगर इन्होने मुझे रोकते हुए कहा की मैं सबको खाना परोस दूँ फिर हम दोनों मियाँ-बीवी आराम से बैठ कर खाना खाएंगे| अब जा कर जनाब को मेरी बात समझ आई थी और इनका मन भी मेरे साथ थोड़ा अकेले में समय बीतने का करने लगा था| कुछ देर बाद सबका खाना हो चूका था और सभी आराम करने में लगे थे, नेहा और आयुष अपने कमरे में बैठे पढ़ रहे थे| मैंने हम दोनों के लिए ही खिचड़ी परोसी, मुझे अच्छा नहीं लगता था की मेरे पति खिचड़ी खाएँ और मैं पकवान खाऊँ| इन्होने मुझे बहुत कहा मगर मैं नहीं मानी और अपने लिए भी खिचड़ी परोस ली| आज जिस तरह से इन्होने मेरा मान-सम्मान बचाया था उसे ध्यान करते हुए मैं इनके मुँह का स्वाद बदलने के लिए इनके मन-पसंद दो चम्मच राजमा भी साथ परोस लाइ थी| मैंने सबसे पहले इन्हें एक चम्मच राजमा खिलाये, उस एक चम्मच को खाते ही इनके मुँह पर ऐसी प्यारी मुस्कान आई मानो इन्होने अमृत चख लिया हो! लेकिन तभी नेहा पीछे से कमरे में आ गई, उसने मुझे इन्हें राजमा खिलाते हुए देख लिया था जिससे नेहा के गुस्से की कोई सीमा नहीं थी! वो बड़ी जोर से मुझ पर गरजी; "मम्मी, आप फिर से मेरे पापा जी को बीमार करना चाहते हो? डॉक्टर आंटी ने मना किया था न की पापा जी को हल्का खाना देना है, आपको इतनी सी बात याद नहीं?" नेहा की गुस्से में कही बात सुन मुझे मेरी बेवकूफी याद आई तथा खुद पर शर्म आने लगी, मैं अब कुछ नहीं कर सकती थी इसलिए बस अपना मन मासूस कर रह गई! वहीं इनको नेहा के इस तरह मुझे झिड़कने से बहुत गुस्सा आने लगा था, तभी नेहा की आवाज सुन आयुष दौड़ता हुआ कमरे में आया और मेरे हाथ से राजमा की कटोरी ले कर दूसरे कोने में दौड़ गया| नेहा भी उस के पीछे दौड़ी और मैंने इसी मौके का फयदा उठा कर बात बदल दी; "आयुष बेटा चोट लग जायेगी! नेहा बेटा, आयुष से कटोरी ले कर रसोई में रख आ और जा कर पढ़ाई करो दोनों|" मैंने बिलकुल ऐसे दिखाया जैसे मैंने नेहा के मुझे डाँटने का बुरा न लगाया हो जबकि मुझे कितना दुःख हो रहा था वो बस मैं ही जानती थी|

इधर इन्होने भी अपना गुस्सा काबू किया और हम दोनों ने एक दूसरे को खाना खिलाते हुए खाना खाया| खाना खा कर दवाई ले कर ये बैठे थे, नेहा जानबूझ कर इनके सामने नहीं आई थी क्योंकि उसने भी अपने पापा जी को गुस्सा होते हुए देख लिया था| आखिर इन्होने ही मुझे नेहा को बुलाने को कहा; "नेहा को बुलाओ..." इतना कहते हुए ये एकदम से मुझे रोकते हुए बोले; "नहीं रुको...नेहा!" इन्होने खुद नेहा को आवाज दी और वो इनकी एक आवाज सुनते ही कमरे में दौड़ी-दौड़ी आई| मुझे पता था की अब नेहा की क्लास लगने वाली है और अगर मैं यहाँ रुकी तो नेहा समझेगी की मैंने ही उसकी शिकायत की है इसलिए मैं उठ कर जाने लगी की तभी इन्होने मुझे रोकते हुए बैठे रहने को कहा|

"नेहा, बेटा क्या बात है की आज आप अपनी मम्मी से इतनी बद्तमीजी से पेश आये?" इन्होने नेहा से प्यार से सवाल पुछा मगर नेहा सर झुकाये ख़ामोशी से खड़ी रही| जब नेहा ने कोई जवाब नहीं दिया तो इन्होने मेरी वक़ालत करते हुए कहा; "बेटा, आपकी मम्मी बस मेरी जुबान का स्वाद बदलने के लिए दो चम्मच राजमा खिला रही थी और आप तो उन पर ऐसे चिल्लाने लगे जैसे उन्होंने मुझे ज़हर खिला दिया?! क्या यही सब सिखाया है मैंने आपको?" इनकी कही बातों से नेहा शर्मिंदा महसूस कर रही थी| मैं उसकी तरफदारी करने के लिए कुछ कहने वाली हुई थी की नेहा ने अपनी सारी हिम्मत बटोरी और इनकी आँखों से आँखें मिला कर बड़े आत्मविश्वास से बोली; "इतना सब होने के बाद भी आपने मम्मी को इतनी आसानी से माफ़ कर दिया?" नेहा की बात सुन इन्हें नेहा के मन में मेरे लिए मौजूद नफरत का आभास हुआ, इन्होने फ़ौरन मेरा बचाव करते हुए कहा; "बेटा, आपकी मम्मी की कोई गलती नहीं थी, गलती मेरी थी..." इसके आगे ये कुछ बोल पाते उससे पहले ही नेहा के भीतर मौजूद ज्वालामुखी फ़ट पड़ा; "नहीं पापा जी, सब गलती मम्मी की थी! उन्होंने आप से बात न कर के आपको एकदम से अकेला कर दिया, जिस कारण आपने खाना-पीना व दवाइयाँ लेना छोड़ दिया! आखिर आप मम्मी को बस हँसाना-बुलाना चाहते थे और मम्मी से इतना भी न हुआ! अगर वो हँसती-बोलतीं तो आपकी तबियत कभी खराब नहीं होती| मम्मी की बस इतनी ही गलती नहीं थी, बल्कि उन्होंने पाँच साल मुझे आप से दूर रखा और वो भी मुझसे झूठ बोल कर की आप यहाँ पढ़ाई में मशगूल हो गए हो! आप नहीं जानते की ये सुन कर मुझे कितना दुःख हुआ था की आप इतनी जल्दी 'मुझे' भूल गए?! मम्मी की बात सुन मैं आपसे कितना नाराज़ हुई, कितना गुस्सा था मेरे मन में आपके लिए, जबकि आप तो यहाँ मेरे लिए कितना रो रहे थे! जिस दिन आपने मुझे दिषु चाचू से मिलवाया था उन्होंने मुझे बताया था की आप मुझे याद कर के कितना रोया करते थे! मम्मी अच्छे से जानती थीं की आपके अलावा मुझे कोई प्यार करने वाला नहीं इसके बवजूद उन्होंने मुझे आप से दूर किया! उन्हें क्या हक़ था मुझे आप से दूर करने का? मैंने पाँच साल आपके बिना कैसे काटे वो मैं जानती हूँ, इसीलिए जब आप अस्पताल में थे तब मैंने फैसला किया की मैं कभी शादी नहीं करूँगी और आजीवन आपकी सेवा करूँगी ताकि जो प्यार मुझे तब नहीं मिल पाया वो अब मिल सके| मेरा प्यार मम्मी के प्यार की तरह ढकोसला नहीं है, मेरा प्यार सच्चा है और मैं अपने पापा को फिर नहीं खोना चाहती!" नेहा ने मुझ पर अपने मन की भड़ास निकालते हुए कहा| उसकी सब बातें सही थीं सिवाए एक के की मेरा प्यार ढकोसला है, ये शब्द मुझे बहुत चुभे थे मगर मुझ में मेरी बेटी को सफाई देने की हिम्मत नहीं थी इसलिए मैं सर झुका कर खुद को रोने से रोकती रही क्योंकि अगर मैं रो पड़ती तो आज शायद ये नेहा पर हाथ उठा देते! वहीं नेहा की बातें सुन कर इनका दिल भर आया था मगर इन्होने भी खुद को सँभाला और फिर से मेरा पक्ष लेने लगे; "बेटा, आपकी मम्मी गलत नहीं थीं! जैसा आप सोच रहे हो वैसा नहीं है, आपकी मम्मी मुझे बहुत प्यार करती हैं, आपसे भी ज्यादा! आप नहीं जानते की आपकी मम्मी किस तरह डरी-सहमी थीं! अपने बेटे को खो देने का डर आप नहीं समझ सकते, उन दिनों आपकी मम्मी जिस दर्द से गुज़री थीं उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते!

पाँच साल पहले आपकी मम्मी ने मुझे खुद से दूर सिर्फ मेरे अच्छे भविष्य के लिए किया, ताकि मैं अपनी ज़िन्दगी में कुछ बन जाऊँ, अपनी ज़िन्दगी सँवार लूँ!" इनकी मेरे पक्ष में दी गई दलील से नेहा का मन नहीं पसीजा, वो इनसे बहस करते हुए बोली; "तो क्या मम्मी आप से एक बार पूछ नहीं सकती थीं की उनका लिया फैसला सही है या गलत? क्यों उन्होंने बिना आपसे सलाह-मशवरा किये अपना बेसर-पैर का फैसला आपके सर मढ़ दिया? किस गलती की सज़ा दी मम्मी ने आपको? आप कभी अपनी पढ़ाई की तरफ लापरवाह नहीं थे और मुझे पूरा भरोसा था की आप पढ़ाई और हमें (नेहा और मुझे) सँभाल लेते|" नेहा की ये बातें सुन ये बहुत हैरान हुए क्योंकि ये वही शब्द थे जो इन्होने मुझसे उस दिन कहे थे जब ये बच्चों के लिए गिफ्ट्स लाये थे| इन्हें लगा की मैंने नेहा को सब बताया होगा मगर नेहा ने इनकी हैरानी पढ़ ली थी और वो इनकी हैरानी दूर करते हुए बोली; "जब आप मेरे लिए गिफ्ट लाये थे, उस गिफ्ट पैक में सब से ऊपर ऊपर आपने मेरा पसंदीदा चिप्स का पैकेट रखा था जो ये दर्शाता था की आपको मेरी पसंद आज भी याद है| वो चिप्स का पैकेट देख मेरे मन में सवाल पैदा हुआ की आखिर क्यों आप इतने सालों मुझसे मिलने नहीं आये और मैं आपसे बात करने कमरे से बाहर आ रही थी जब मैंने आपकी सारी बात सुनी|" नेहा बहुत भावुक थी और वो इस समय अपने दिमाग से नहीं दिल से सोच रही थी| उसके लिए उसके पापा जी ही सही थे और मैं गलत, अब देखा जाए तो वो गलत नहीं थी मगर इन्हें उसे समझना था वो भी तर्क के साथ; बेटा, आप मेरे एक सवाल का जवाब दो; अगर आपको कभी सर्दी-खाँसी हो जाए और डॉक्टर आपको कहे की आपको आयुष से दूर रहना है ताकि उसे आपकी बिमारी न लग जाए तो क्या आप आयुष से दूर रहोगे या उसके साथ खेलते रहोगे?" इन्होने बड़े इत्मीनान से नेहा से ये सवाल पुछा| इनका सवाल पूरा होते ही नेहा एकदम से बोली; "बिलकुल नहीं, मैं आयुष से दूर रहूँगी!" नेहा का जवाब सुन इन्होने फिर से नेहा के साथ तर्क किया; "लेकिन क्यों बेटा? आपको तो मामूली सी सर्दी-खाँसी हुई है?! भला आयुष को मामूली सी सर्दी-खाँसी के अलावा और क्या होगा? 2-3 दिन आयुष दवाई लेगा और स्वस्थ हो जायेगा!" इनका सवाल सुन नेहा के भीतर मौजूद बड़ी बहन का प्यार बाहर आया और वो बड़े तपाक से अपने भाई आयुष के लिए चिंता करते हुए बोली; "लेकिन, पापा मेरे साथ खेल कर आयुष को जो बिमारी होगी उससे उसे कष्ट होगा, वो 2-3 दिन स्कूल नहीं जा पायेगा जिससे उसकी पढ़ाई का नुक्सान होगा और मैं उसकी बहन हूँ तो उसका नुक्सान क्यों होने दूँगी?!" नेहा का जवाब सुन ये मुस्कुराये और उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोले; "बेटा, आपने तो मामूली सी सर्दी-खाँसी की बिमारी के चलते आयुष को खुद से दूर कर दिया और मेरा तो CBSE board का पेपर था, वो भी आयुष के पैदा होने के कुछ दिन बाद! अब आप बताओ की क्या आपकी मम्मी ने मुझे खुद से दूर कर के कोई गलती की? अगर आप अपनी मम्मी की जगह होते तो आप क्या करते? क्या अपने स्वार्थ के लिए मेरा एक साल बर्बाद होने का खतरा उठाते?" इनके इस सवाल से नेहा खामोश हो गई थी, उसे इनकी बात समझ आ गई थी की आखिर क्यों मैंने इन्हें खुद से दूर किया| "हाँ, एक गलती आपकी मम्मी से हुई थी और वो ये की उनको मुझसे एक बार बात करनी चाहिए थी तथा मेरी बात सुननी चाहिए थी| मेरे पेपर मार्च में थे और मैं दशहरे की छुट्टियों में गाँव आने वाला था, अगर आपकी मम्मी मेरी ये बात सुन लेती तो आप और मैं यूँ कभी दूर नहीं होते| और एक गलती मुझसे भी हुई, की मुझे आपकी मम्मी की बातों का इतना बुरा मान कर गाँव आने से तौबा नहीं करनी चाहिए थी क्योंकि, आपकी मम्मी के लिए न सही कम से कम मुझे आपके लिए तो गाँव आना ही चाहिए था, इसलिए आज मैं आपसे सॉरी कहता हूँ की मैंने आपके साथ इतना रुखा व्यवहार किया|" इन्होने नेहा से हाथ जोड़ कर माफ़ी माँगी| नेहा ने फ़ौरन इनके दोनों हाथ पकड़ कर अपने पापा को माफ़ी माँगने से रोका|

इनके किये तर्क से नेहा सोच में पड़ चुकी थी, वो अपने पापा की कही बातों को सोचते हुए मौन हो गई थी लेकिन उसके मन में मैं अब भी दोषी थी| जो नफरत की आग नेहा के दिल में जगी थी वो बुझी नहीं थी और इन्हें नेहा के मन में जल रही उस नफरत की आग को आज किसी भी क़ीमत पर बुझाना था ताकि नेहा के मन में मेरे लिए वही प्यार, वही आदर हो जो पहले हुआ करता था| "जिस मम्मी से आप इतनी नफरत कर रहे हो, आप जानते हो आपकी मम्मी ने मेरे लिए कितनी कुर्बानी दी है?" इन्होने नेहा से सवाल पुछा तो नेहा आँखें बड़ी कर के अपने पापा को देखने लगी, उसकी आँखों में उत्सुकता साफ़ झलक रही थी| "आपकी मम्मी ने मेरे लिए अपने माता-पिता यानी की आपके नाना-नानी जी को छोड़ दिया था! क्या आप कभी ऐसी कुर्बानी दे सकते हो?" इनकी बात सुन नेहा सर न में हिलाने लगी| अब जा कर नेहा का दिल पसीजने लगा था, उसकी आँखें भर आईं थीं तथा वो शर्म से अपना सर झुकाये अपने पापा की बातें सुनने लगी थी; "सिर्फ इतना ही नहीं, जब आयुष पैदा होने वाला था तब आपकी मम्मी और मैंने ये सोचा था की आपकी मम्मी की डिलीवरी होने के समय मैं आपकी मम्मी के पास रहूँगा, परन्तु मेरे अच्छे भविष्य के लिए आपकी मम्मी ने ये सुख कुर्बान कर दिया! आयुष के जीवन के वो पाँच साल जो मैं उसे प्यार नहीं दे पाया, उसे गोद में ले कर खिला नहीं पाया, उसका लालन-पालन नहीं कर पाया, उसका मेरी गोदी में सुसु करना आदि सुखों से मैं वंचित रहा क्योंकि आपकी मम्मी की कही बस एक बात को अपने दिल से लगा कर मैं 5 साल आप से दूर रहा| मुझे ये सभी सुख मिलें बस इसी के लिए आपकी मम्मी दुबारा माँ बनना चाहती थीं| तो अब आप बताओ की आपकी मम्मी से ज्यादा मुझे प्यार करने वाला कोई और हो सकता है?" इनकी बातें सुन नेहा की आँखें छलक आईं थीं, उसके मन में बैठी मेरे प्रति नफरत उसके आसुओं से धूल गई थी| "बेटा, आपको अपनी मम्मी से माफ़ी माँगनी चाहिए न?" इतना सुन नेहा उठी और मेरे पाँव छूते हुए बोली; "मुझे माफ़ कर दो मम्मी, मैंने आपको बहुत गलत समझा और आपका बहुत दिल दुखाया| प्लीज मुझे माफ़ कर दो!" मैंने नेहा के आँसूँ पोछे और उसके सर पर हाथ फेरते हुए उसे माफ़ करते हुए बोली; "its okay बेटा! कोई बात नहीं, जो हुआ उसे भूल जाओ!"

नेहा को लग रहा था की उसके पापा कहीं उससे नाराज़ न हों इसलिए वो जा कर अपने पापा के गले लग गई तथा रो पड़ी, नेहा के मन में ग्लानि भरी थी जिस कारण वो बहुत ज़ोर से रोये जा रही थी| इन्होने नेहा को अपनी बाहों में कस लिया तथा अनेकों बार उसके सर को चूमा, तब कहीं जा कर नेहा धीरे-धीरे चुप हुई|

"अच्छा बेटा, आप है न यूँ छुप-छुपकर बातें मत सुना करो, bad manners! मैं आपसे कभी कोई बात नहीं छुपाता न?!" इन्होने नेहा को लाड करते हुए कहा|

"सॉरी पापा जी, आगे से ऐसा नहीं करूँगी!" नेहा शर्माते हुए बोली| अब बेटी के बाद बारी थी माँ की; "और आप भी देवी जी (मैं), आप भी ज़रा कम 'कान लगाया' करो|" इन्होने मुझे प्यार से टोकते हुए कहा, वो दरअसल मैं छुपके अनिल और इनकी बात सुन रही थी न, उसके लिए!
lotpot.gif


अब जा कर सब सामान्य हो चूका था, मेरे माँ-पिताजी ने मुझे माफ़ कर के पुनः अपना लिया था, अनिल के दिल में मेरे लिए फिर वही प्यार और इज़्ज़त थी जो पहले हुआ करती थी तथा मेरी बेटी नेहा भी मुझे पहले की तरह मान-सम्मान देने लगी थी| परन्तु अब भी कुछ था जो छूट गया था और वो था इनका प्यार!

[color=rgb(251,]जारी रहेगा भाग - 3 में...[/color]
 
[color=rgb(255,]संगीता की original लेखनी:[/color]

घडी में करीब सवा बारह बजे होंगे, ससुर जी, अजय और पिताजी बाहर गए थे टहलने और माँ, सासु माँ और बड़की अम्मा अंदर कमरे में बैठीं बातें कर रहीं थी, की इन्होने मुझे कहा की अनिल को बुला दो| मैंने भी बिना कुछ सोचे उसे बुला दिया और मैं अपना काम करने लगी| तभी मेरे दिमाग में बिजली कौंधी और मैं भाग कर कमरे के पास आई और दरवाजे में कान लगा कर सुनने लगी|

"अनिल.... यार या तो तू थोड़ा मोडररन हो गया है या फिर बात कुछ और है?"

"मैं समझा नहीं जीजा जी?" अनिल ने असमंजस में पूछा|

"मैंने notice किया की तू आजकल अपनी दीदी को 'दी...' कह कर बुलाने लगा है! उसे तेरे मुंह से 'दीदी' सुन्ना अच्छा लगता है ना की 'दी...' उसके लिए ना सही कम से कम मेरे लिए ही उसे दीदी कह दिया कर?" इन्होने अनिल से request की वो भी सिर्फ मेरी ख़ुशी के लिए| अनिल चुप हो गया ....और मुझे पता था की ये उसकी चुप्पी जर्रूर पकड़ लेंगे|

"मतलब बात कुछ और है?" इन्होने उसके मन की बात भांप ली थी| आखिर अनिल ने शुरू से ले कर अंत तक की सारी बातें बता दी| मेरा दिल जोर से धड़कनें लगा था क्योंकि मुझे दर लगने लगा थी की कहीं इनकी तबियत फिर से ख़राब न हो जाए! पर इन्होने अनिल को समझाना शुरू किया; "यार ऐसा कुछ नहीं है.... तुझे लगता है की तेरी दीदी तुझे भूल गई? तुझे पता भी है की वो तेरे लिए रोज दुआ करती है, माँ-पिताजी की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करती है! शादी के बाद उसके ऊपर इस घर की भी जिम्मेदारी बढ़ गई है| तू तो जानता ही है की कितनी मुश्किल से ये सब संभला था...फिर स दिन वो सब.....She was emotionally broken ... तू सोच नहीं सकता की उस पर क्या बीती थी! वो बेचारी टूट गई थी.... बहुत घबरा गई थी... आयुष के लिए ... .उसे लगा था की हम आयुष को खो देंगे! घबरा चुकी थी ..... ऐसे में मैं भी उस पर दबाव बना रहा था की हँसो-बोलो ....तो वो और क्या करती? हम दोनों के बीच काफी तनाव आ चूका था.... देख मैं उसकी तरफ से माफ़ी माँगता हुँ!"

"जीजा जी आप माफ़ी क्यों माँग रहे हो.... उन्होंने मुझे नहीं पूछा कोई बात नहीं...वो Loan के बारे में भूल गईं कोई बात नही..... पर उनके कारन आपकी ये हालत हुई ये मुझसे बर्दाश्त नहीं होता! वो जानती हैं की आप उन से कितना प्यार करते हो और फिर भी आपसे ऐसा सलूक किया? मैं पूछता हूँ की गलती क्या थी आपकी? अगर आप दीदी की जगह होते और वो आपको हँसने-बोलने को कहतीं तो क्या आप उन्हीं पर बिगड़ जाते?" अनिल ने बड़े तर्क से उनसे बात की थी|

"नहीं...बिलकुल नहीं| पर अगर मुझे ये पता चलता की वो मुझे मेरे ही परिवार से अलग कर रही है वो भी सिर्फ मेरी तस्सल्ली भर के लिए तो हाँ मैं जर्रूर नाराज होता| उन्हें गुस्सा आया क्योंकि मैंने उन्हें इस परिवार से अलग करने की कोशिश की| मैं चाहता था की हम सब दुबई settle हो जाएं पर माँ-पिताजी ने जाने से मन कर दिया| हारकर मुझे ये तय करना पड़ा की मैं, आयुष, नेहा और संगीता ही दुबई जायेंगे| नौकरी तक ढूंढ ली थी| तो ऐसी बात पर किसी गुस्सा नहीं आएगा?"

"आपने ये सब उनके लिए किया था ना? अपने लिए तो नहीं? फिर?"

"देख भाई...अब या तो तू इस मुद्दे पर बहस कर ले या फिर लड़ाई कर ले....मेरे लिए She is always right!"

"देखा जीजा जी..... आपके लिए वो हमेशा सही हैं और उनके लिए आप गलत? क्या combination है! खेर आपके लिए मैं उन्हें माफ़ कर देता हूँ| पर मेरी एक शर्त है?"

"क्या?"

"आप मुझे बेटा कह कर बुलाओगे? जब दीदी मुझे बेटा कहती हैं तो मुझे अच्छा लगता है आखिर बड़ी बहन माँ सामान ही तो होती है और फिर इस हिसाब से आप तो पिता समा हुए|"

"ठीक है बेटा पर...तुझे अपनी दीदी को दिल से माफ़ करना होगा|" और उन्होंने मुझे आवाज दी और मैं एक दम से अंदर आ गई| मुझे देख के दोनों समझ गए की मैं उनकी सारी बातें सुन रही थी|मुझे देख कर अनिल खड़ा हुआ और बोला; "Sorry दीदी... मेरे बुरे बर्ताब के लिए मुझे माफ़ कर दो| मैं जीजा जी....." बस आगे बोलने से पहले वो रो पड़ा| मैंने उसे गले लगाया और सर पर हाथ फेरा| पर उसका रोना अभी कम नही हुआ था तो इन्होने मजाक में बोला; "बेटा जब माँ के गले लग कर रो लो तो इधर भी आ जाना, इधर भी खेती गीली कर देना|" उनकी बात सुन कर हम दोनों हंस पड़े और अनिल जा कर उनके गले लग गया| कूकर की सीटी बजी तो मं दौड़ी-दौड़ी बाहर आई और गैस बंद की| खाना लघभग बन चूका था और अनिल बच्चों को लेने जा चूका था| स्कूल से आते ही नेहा और आयुष भागे-भागे कमरे में आये और बस्ता पहने हुए ही दोनों आ कर अपने पापा के गले लग गए और उनका हाल-चाल पूछने लगे| काफी लाड-दुलार के बाद बच्चों ने उन्हें छोड़ा| ऐसा लगा जैसे बच्चों ने एक अरसे बाद अपने पापा को देखा हो| खेर अब खाने का समय हो चूका था तो बच्चे जिद्द करने लगे की हमें पापा के साथ खाना खाना है| पर मैंने इन्हें कमरे के अंदर रहने की सलाह दी थी, कारन दो; पहला की इस तरह हम दोनों को साथ रहने का थोड़ा समय मिलता था और दूसरा बाहर का कमरा बहुत ठंडा था और अंदर का कमरा गर्म! अब आप इसे मेरा selfish नेचर कहो या इनके लिए मेरी care!

मैं चाहती थी की पहले ये खाना खा लें पर इन्होने जिद्द की, कि पहले बड़ों को खिलाओ फिर हम दोनों साथ खाएंगे| शायद ये कुछ private पल इन्हें भी पसंद थे! खेर सब को खिलने के बाद मैं हम दोनों का खाना ले कर कमरे में आ गई| उस समय नेहा और आयुष अपने कमरे में पढ़ रहे थे| डॉक्टर साहिबा कि हिदायत थी कि इन्हें खाने के लिए खाना ऐसा दिया जाए जिसे शरीर आसानी से digest कर सके| अब ऐसा खाना स्वाद तो कतई नहीं होता| उस दिन घर पर राजमा बने थे जो इन्हें बहुत पसंद हैं| मुझे पता था कि इन्हें वो बेस्वाद खाना खाने में कितनी दिक्कत हो रही है, इलिये मैं एक कटोरी में उनके लिए राजमा ले आई| अभी मैंने उन्हें एक चम्मच खिलाया ही था कि नेहा कमरे में आ गई और मुझसे कटोरी छीन ली और बड़ी जोर से मुझ पर चिल्लाई; "मम्मी! फिर से पापा को बीमार करना चाहते हो? डॉक्टर आंटी ने मना किया है ना?" मुझे उस समय अपनी बेवकूफी याद आई और शर्म भी आई| शोर सुन आयुष भी अंदर आ गया और नेहा के हाथ से कटोरी छीन के कमरे में इधर-उधर भागने लगा| नेहा भी उसके पीछे भागने लगी.... मैं अपना मन मसोस कर रह गई! मुझे पता था कि इन्हें बहुत गुस्सा आ रहा होगा इसलिए मैंने बात संभाली; "आयुष...बेटा चोट लग जाएगी! नेहा आयुष से कटोरी ले कर किचन में रख आओ|" पता नहीं कैसे पर ये अपना गुस्सा control कर गए! खाना तो इन्होने खा लिया और कुछ देर बाद बोले; "नेहा को बुलाओ.... नहीं रुको... नेहा........|" इनकी एक ही आवाज में नेहा अंदर दौड़ी-दौड़ी आई| मुझे पता था कि आज उसकी क्लास लगने वाली है इसलिए मैं हूप-छाप बाहर जाने लगी वरना नेहा सोचती कि मैंने ही उसकी शिकायत की है| पर इन्होने मुझे रोक लिया और वहीँ बैठ जाने को कहा|

"नेहा...बेटा क्या बात है? आप अपनी मम्मी से बहुत बदतमीजी से पेश आ रहे हो आज कल? वो तो बस मेरे मुँह का टास्ते बदलना चाहती थी इसलिए उन्होंने मुझे राजमा खिलाये! आप तो उन पर ऐसे चिल्लाये जैसे उन्होंने मुझे जहर खिला दिया हो? क्या यही सब सिखाया है मैंने आपको? " ये सुन कर नेहा ने अपना सर झुका लिया और खामोश हो गई|

"इतना सब होने के बाद भी आप ने मम्मी को इतनी जल्दी माफ़ कर दिया?" नेहा ने सवाल पूछा|

"बेटा आपकी मम्मी की कोई गलती नहीं थी.... गलती मेरी थी|" ये सुन कर आखिर नेहा के अंदर दबा हुआ ज्वालामुखी फुट पड़ा और उसने अपने sorry से ले कर मेरे साथ हुई उसकी बात सब उन्हें सुना डाली| ये सब सुन कर इनका दिल भर आया पर फिर भी अपने आपको बहुत अच्छे से संभाल कर बोले; "बेटा आपकी मम्मी गलत नहीं हैं...उन्होंने कुछ नहीं किया? वो मुझसे बहुत प्यार करती हैं! आपसे भी ज्यादा .... मेरे अच्छे future के लिए उन्होंने मुझे खुद से दूर किया था, ताकि मैं अपनी जिंदगी में कुछ बन जाऊँ...... अपनी जिंदगी संवार सकूँ|"

"तो क्या वो बस एक बार आपसे पूछ नहीं सकती थीं? बिना आपसे कुछ पूछे ही उन्होंने अपना फैसला आपको सुना दिया? बिना किसी गलती के आपको सजा दे डाली| मैं जानती हूँ आप बाकियों की तरह नहीं जो अपनी जिम्मेदारियों को नहीं उठाते| मुझे पूरा विश्वास है की आप माँ और अपना career दोनों एक साथ संभाल लेते| क्यों उन्होंने ने मुझे आपसे दूर किया? क्या उन्हें पता नहीं था की आपके आलावा मुझे वहां पर प्यार करने वाला कोई नहीं था?" नेहा ने एक-एक शब्द वही बोला था जो इन्होने मुझसे उस दिन कहा था, इसलिए ये थोड़ा हैरान थे| इन्हें लगा की मैंने नेहा को सब बताया है पर तभी नेहा बोल पड़ी; "उस दिन जब मेरे लिए फ्रॉक लाये थे तब उस gift pack में सबसे ऊपर आपने चिप्स का पैकेट रखा था| मेरी इस पसंद के बारे में आपके इलावा कोई नहीं जानता इसलिए मजबूरन मैं आपसे पूछना चाहते थी की इतने साल आप मुझसे मिलने गाँव क्यों नहीं आये? पर तभी मैंने आपकी और माँ की बातें सुन ली|"

इन्होने बड़े इत्मीनान से नेहा से सवाल किया; "बेटा मेरा भी आपके लिए एक सवाल है? अगर आपको सर्दी-खाँसी हो जाए और डॉक्टर आपको हिदायत दे की आपको आयुष से दूर रहना है ताकि उसे ये infection ना हो जाए तो क्या आप तब भी उसके साथ खेलोगे?"

"बिलकुल नहीं|" नेहा ने जवाब दिया|

"पर क्यों? आपको तो मामूली सा सर्दी-जुखाम है! भला आयुष को सर्दी खाँसी के अलावा क्या होगा? दो-तीन दिन दवाई खायेगा और फिर ठीक हो जायेगा!"

"पर पापा इस बिमारी से उसे थोड़ा बहुत कष्ट तो होगा ही और वो दो-तीन दिन स्कूल नहीं जा पायेगा और उसकी पढ़ाई का नुक्सान होगा! और मैं उसकी बहन हूँ उसका बुरा कैसा चाहूँगी?"

ये थोड़ा सा मुस्कुराये और बोले; "बेटा आपने तो सर्दी-खाँसी जैसी मामूली बिमारी के चलते आयुष को खुद से दूर कर दिया और मेरे तो CBSE Boards के exam थे वो भी आयुष के पैदा होने के ठीक एक महीने बाद! अब बताओ इसमें आपकी मम्मी की क्या गलती? अगर आप मम्मी की जगह होते तो क्या आप अपने स्वार्थ के लिए मेरा एक साल बर्बाद होने देते?" ये सुन कर नेहा एक दम चुप हो गई|

"हाँ एक गलती आपकी मम्मी से हुई, वो ये की उन्हें मुझसे एक बार बात करनी चाहिए थी| मेरे exams मार्च में थे और मैं आप से मिलने अक्टूबर holidays में आ सकता था| और एक गलती मुझसे भी हुई... की मुझे आपकी मम्मी की बात का इतना बुरा नहीं मन्ना चाहिए था की मैं आपसे भी नाराज हो जाऊँ? इसलिए मैं आज आपको SORRY बोलता हूँ की मैंने आपसे भी इतना rude behave किया|

जिस माँ को आप नफरत करते हो आपको पता है की मेरे लिए उन्होंने कितनी कुर्बानी दी हैं? आपके नाना-नानी तक को छोड़ दिया सिर्फ मेरे लिए? आप बोलो क्या कभी आप ऐसा करोगे?" नेहा ने ना में सर हिलाया| उस की आँखें भर आईं थी पर वो सर झुकाये सब सुन रही थी|

"मैंने और आपकी मम्मी ने प्लान किया था की जब उनकी डिलीवरी होगी तब मैं उनके साथ रहूँगा पर मेरी पढ़ाई के लिए उन्होंने ये सब कुर्बान कर दिया और मुझे खुद से अलग कर दिया| पर आयुष के जीवन के वो '*" साल जो मैं नहीं देख पाया....जिन्हें मैं महसूस नहीं कर पाया...उसे गोद में नहीं खिला पाया .... उसका मेरी गोद में सुसु करना...ये सब मैंने miss कर दिया क्योंकि आपकी मम्मी की उस एक बात को मैंने अपने दिल से इस कदर लगा लिया था! उसी कारन आपकी मम्मी को ये बच्चा चाहिए था ताकि मैं उस सुख को भोग सकूँ! सिर्फ मेरे लिए ...वो ये बच्चा चाहती थीं! इससे ज्यादा कोई किसी के लिए क्या कर सकता है?" ये सब सुन नेहा खामोश हो गई थी उस की आँखें छलक आईं थीं.... "बेटा I guess you owe your mummy an apology?" बस ये सुन कर नेहा उठी और मेरे पाँव छुए और बोली; "sorry मम्मी... मैंने आपको बहुत गलत समझा| मुझे माफ़ कर दो प्लीज!" माने उस के सर पर हाथ फेरा और कहा; "its okay बेटा.... कोई बात नहीं!" फिर वो जा कर अपने पापा के गले लगी और रो पड़ी.... बहुत जोर से रोइ... इन्होने उसे बहुत प्यार किया और तब जा कर वो चुप हुई|

"अच्छा बेटा आप है ना ... छुप-छुप कर बातें मत सुना करो! bad manners! मैं आपसे कोई बात नहीं छुपाता ना?" इन्होने कहा|

"sorry पापा! आगे से ऐसा कुछ नहीं करुँगी|"

"और आप देवी जी (अर्थात मैं) आप भी जरा कम कान लगाया करो!" वो कुछ देर पहले मैंने इनकी और अनिल की बातें सुनी थी ये उसी के लिए था ही..ही..ही...

सब कुछ सामान्य हो गया था....पर अभी भी कुछ था जो छूट गया था.....
 

[color=rgb(255,]सत्ताईसवाँ अध्याय: विपरीत - पति का प्यार और पत्नी की जलन![/color]
[color=rgb(71,]भाग - 3[/color]

[color=rgb(51,]अब तक आपने पढ़ा:[/color]

अब जा कर सब सामान्य हो चूका था, मेरे माँ-पिताजी ने मुझे माफ़ कर के पुनः अपना लिया था, अनिल के दिल में मेरे लिए फिर वही प्यार और इज़्ज़त थी जो पहले हुआ करती थी तथा मेरी बेटी नेहा भी मुझे पहले की तरह मान-सम्मान देने लगी थी| परन्तु अब भी कुछ था जो छूट गया था और वो था इनका प्यार!

[color=rgb(44,]अब आगे:[/color]


शाम हुई और आयुष दौड़ता हुआ आ कर इनसे लिपट गया| उसने अपनी स्कूल की सारी दिनचर्या बतानी शुरू कर दी, इधर ये भी कम नहीं थे इन्होने आयुष से उसकी ख़ास दोस्त यानी आयुष की गर्लफ्रेंड के बारे में पूछना शुरू कर दिया| मैं उस वक़्त रसोई में थी मगर मेरा सारा ध्यान दोनों बाप-बेटों की बातों पर था| ये आयुष को अपनी गर्लफ्रेंड को इम्प्रेस करने के अपने टोटके बताये जा रहे थे| कभी कहते की अच्छे से रेडी होकर स्कूल जाना चाहिए तो कभी कहते की आयुष को अपनी गर्लफ्रेंड को कैंटीन से कुछ खरीद कर खिलाना चाहिए| मुझे ये बातें सुन कर बहुत हँसी आ रही थी और मैं अपना काम करते हुए मुस्कुराये जा रही थी| कुछ देर बाद नेहा अपने स्कूल का होमवर्क निपटा कर कमरे में आई तो दोनों बाप-बेटे खामोश हो गए, जाहिर था ये बाप-बेटों का राज़ था!

रात को खाना खा कर ये अनिल के साथ बैठ कर अपने लैपटॉप में हिसाब-किताब कर रहे थे की तभी सभी लोग हमारे कमरे में आ गए तथा कमरे में हँसी-मज़ाक का दौर शुरू हो गया| इसी दौरान मेरे पिताजी ने अपने गाँव वापस जाने की बात चलाई, जैसे ही पिताजी ने अपने गाँव वापस जाने की बात कही ये मुस्कुराते हुए बोले; "इतनी जल्दी वापस जा रहे हैं पिताजी?" मुझे इनकी ये मुस्कान समझ न आई, उधर अनिल मुँह बनाते हुए बोला; "हम सब जा रहे हैं जीजू!" दरअसल अनिल का वापस जाने का मन नहीं था इसलिए वो मुँह बना रहा था| "मुन्ना खेती का काम के देखि, एहि से हमका जाए का पड़ी|" मेरे पिताजी बोले| उनकी बात सही भी थी, उनके यहाँ रहते हुए गाँव में हमारा घर और खेतीबाड़ी चरण काका सँभाल रहे थे| "हाँ मुन्ना, अब तू घर आई गवा है और तंदुरुस्त होत जावत हो, अब हमहुँ का गाँव जाए का पड़ी!" बड़की अम्मा बोलीं|

ये किसी से तर्क नहीं कर सकते थे क्योंकि सभी के पास वापस जाने के वाज़िब कारण थे| लेकिन, मेरे ये बहुत उस्ताद हैं! इन्होने सभी को सरप्राइज देने की तैयारी कर ली थी, लैपटॉप पर कुछ खिटपिट कर ये मुस्कुराते हुए अनिल से बोले; "हम्म्म..ठीक है! बेटा ज़रा अपना मोबाइल तो चेक कर!" इनके चेहरे पर आई ये कुटिल मुस्कान देख हम सभी हैरान थे| वहीं अनिल ने इनकी बात सुन अपना मोबाइल देखा तो वो दंग रह गया और ख़ुशी से चिलाते हुए बोला; "पिताजी, जीजू ने हम सभी के लिए हवाई जहाज की टिकट बुक करा दी हैं!!!" अनिल की बात सुन हम सभी चौंक गए, बस एक ये थे जो मंद-मंद मुस्कुराये जा रहे थे! "मुन्ना.....ई का..."बड़की अम्मा अवाक होते हुए बोलीं और आधी बात बोल कर ही रह गईं| हम सभी अवाक थे क्योंकि किसी ने इसकी आशा नहीं की थी की ये सभी को हवाई यात्रा कराएँगे, वहीं ये मुस्कुराते हुए बड़की अम्मा से बोले; "अम्मा, मैंने अपने माँ-पिताजी को तो हवाई यात्रा करा दी| अब बस मेरे सास-ससुर जी और मेरी बड़की अम्मा बचे हैं, तो मैंने सोचा की नजाने आप सभी को एकसाथ हवाई यात्रा कराने का मौका फिर कब मिले?!" इनकी बात का किसी के पास कोई काट नहीं था, इसलिए इनकी बात सुन बड़की अम्मा मेरे ससुर जी की ओर देखने लगीं की वो कुछ कहें मगर पिताजी को इन पर बहुत गर्व हो रहा था, वो इन्हीं की तरफदारी करते हुए बोले; "भौजी, तोहरे ही लड़िकवा है, अब हम कइसन मना करि ऊ का? अतना ही बड़ा है की जउन काम बाप नाहीं करि सका ऊ बेटा कर दिहिस!" इतना कह ससुर जी इनकी तरफ देखने लगे और बोले; "शाबाश बेटा!" ससुर जी की शय पा कर ये और भी खुश हुए, अब मेरे पिताजी को इनका यूँ पैसे खर्च करना बुरा लग रहा था सो वो बीच में बोले; "समधी जी, हवाई जहाज की टिकट तो बहुत महँगी होवत है?!" मेरे पिताजी को दरअसल अपने ऊपर पैसा खर्च करवाना अच्छा नहीं लगता था, पहले ही इन्होने पिताजी की बहुत मदद की थी और उस पर ऐसे समय में जब हमारे घर के हालत इस वक़्त थोड़े डामाडोल थे तो इनका यूँ हवाई जहाज की टिकते खरीदना पिताजी को उचित नहीं लग रहा था, बस इसी कारण से पिताजी मना कर रहे थे| लेकिन इनकी सोच के आगे किसकी चली है, इन्होने फ़ौरन पिताजी से तर्क करते हुए कहा; "लेकिन पिताजी, टिकट आपसे महँगी तो नहीं है न?" इनका तर्क सुन मेरे पिताजी के चेहरे पर मुस्कान आ गई तथा वो खामोश हो गए| पिताजी के बाद मेरी माँ तथा अजय भैया ने भी अपनी-अपनी कोशिश की कि ये मान जाएँ और टिकट कैंसिल करवा दें मगर ये अपनी बात से टस से मस न हुए, इसलिए अंततः सभी हवाई जहाज से जाने के लिए मान गए! सभी के चेहरे पर ख़ुशी थी और ऐसी ख़ुशी मैंने आज तक किसी के चेहरे पर नहीं देखि थी| मुझे आज इन पर बहुत प्यार आ रहा था, आज इनके कारण ही मेरे माँ-पिताजी को हवाई जहाज कि यात्रा करने का मौका मिल रहा था| वो तो सबकी मौजूदगी थी और इनकी तबियत अभी पूरी तरह ठीक नहीं थी वरना आज तो मैं इन्हें खूब प्यार करती!

चूँकि कल सुबह सभी ने गाँव वापस जाना था इसलिए आज रात बड़की अम्मा और अजय भैया हमारे घर ही रुके थे| माँ-पिताजी के कमरे में माँ, सासु माँ और बड़की अम्मा सोये थे तथा बच्चों के कमरे में पिताजी, अजय भैया और ससुर जी सोये थे| अनिल को सोफे पर सोना था तथा दोनों बच्चे आज अपनी बड़ी दादी जी और नानी जी के पास सोये थे| सभी के सोने के बाद मैं कमरे में आई, आज जा कर हम दोनों मियाँ-बीवी को अकेले में सोने का मौका मिला था| मैंने झट से दरवाजा बंद किया और अपने धड़कते दिल के साथ पलटी, आज वो पल आ गया था जिसका मैंने इतने दिनों से इंतज़ार किया था!

ये तब बाथरूम से निकल रहे थे, दरवाजा अंदर से बंद कर मेरा दिल पहले ही तेजी से धड़क रहा था| जैसे ही मैंने इन्हें देखा, नजाने मुझे क्या हुआ कि मैं तेजी से इनकी तरफ बढ़ी और इनके गले लग गई! इतने दिनों से जो दिल में इन्हें पाने की प्यास मुझे अंदर ही अंदर खाये जा रही थी वो मुझ पर अचानक हावी हो चुकी थी| वहीं इन्होने भी मुझे कस कर अपनी बाजुओं से जकड़ लिया, इनकी मर्दाना ताक़त का एहसास होते ही मेरा जिस्म पिघलने लगा था! इनके जिस्म की वो तपिश मुझे आज जला कर राख कर देना चाहती थी और मैं भी खुद उस अग्नि में जलने को मरी जा रहे थी! "Finally" बस इतना कह मैंने इनके सीने में खुद को छुपा लिया और इनकी मजबूत पकड़ में डूब, मैं पिघलने लगी| उन कुछ पलों के लिए मैं सब भूल चुकी थी, मैं बस इनकी बाहों में सिमटी रहना चाहती थी| इनके बदन की महक मुझे पागल बना रही थी और मन अत्यधिक प्यासा हो चला था!

आखिर कुछ पल बाद एहसास हो ही गया की ये अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं और ऐसे में मैं जो इनसे प्यार चाहती थी उसे पाने के चक्कर में इनका स्वास्थ खराब हो सकता है| ये ख्याल मन में आते ही मैंने अपने दिल में उठी प्यास को दबाया और इनसे दूर होना चाहा मगर अब बहुत देर हो चुकी थी! इन्होने मेरे दिल की प्यास महसूस कर ली थी तथा अपनी पकड़ कसते हुए इन्होने मुझे अपने आलिंगन से आजाद ही नहीं किया, बल्कि और जोर से कस कर अपनी भुजाओं में भींच लिया! फिर अगले ही पल इनमें अचानक से ताक़त आई और इन्होने मुझे अपनी गोद में उठा लिया तथा पलंग पर ला कर लिटा दिया| इनकी ये आकस्मिक ताक़त देख मैं डर गई थी की कहीं मुझे गोद में उठाने के चक्कर में इन्हें कमजोरी न होने लगे, यही सोच कर मेरे चेहरे पर चिंता की रेखाएं खिंच गई थीं| इन्होने जब मेरी चिंता देखि तो ये मुस्कुराये और बोले; "जान, मुझे कुछ नहीं हुआ!" इतना कह ये दिवार का सहारा ले कर बैठ गए, मैं भी उठी और इनके कँधे पर सर रख कर अपनी बाहों को इनकी छाती के इर्द-गिर्द लपेट कर बैठ गई|

"तुम्हें नहीं पता, जब मुझे होश आया तो मेरी ये आँखें खुल ही नहीं रहीं थी, लग रहा था की मैं तुम्हें कभी देख ही नहीं पाऊँगा! फिर मुझे तुम्हारे हाथ का स्पर्श महसूस हुआ, उसके बाद तुम्हारी प्यारी सी आवाज सुनाई दी और तब कहीं जा कर मेरे दिल को थोड़ा सकून मिला की कमसकम तुम मेरे पास मौजूद हो! अपनी सारी ताक़त झौंक कर मैंने आँखें खोलीं और जब तुम्हें अपने सामने देख तो ऐसा लगा मानो तुम्हें सालों बाद देख रहा हूँ! वो तड़प, वो प्यास मैं...मैं ब्यान नहीं कर सकता!" इन्होने बहुत भावुक हो कर अपने जज्बात मेरे सामने रखे| "श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्श!!!!" मैंने इनके होंठों पर ऊँगली रख कर इन्हें खामोश कर दिया क्योंकि मैं इन्हें वो दुःख भरे लम्हे फिर से याद नहीं दिलाना चाहती थी| अब मुझे बात बदलनी थी तो मैंने इनसे कहा; "मुझे आपको थैंक यू कहना था|" ये सुनते ही ये हैरान हो कर मुझे देखने लगे और बोले; ""थैंक यू किस लिए?"

"आज आपने मुझे मेरे माँ-पिताजी, मेरे भाई और मेरी बेटी के सामने खोई हुई इज़्ज़त तथा मेरा मान-सम्मान मुझे वापस दिला दिया| आज जब मेरे पिताजी मुझे देखते हैं तो उनकी आँखों में मेरे लिए वही प्यार, वही गर्व था जो पहले हुआ करता था| माँ ने भी मुझे वैसे ही प्यार से आशीर्वाद दिया जैसे वो पहले दिया करती थीं| आपके ही कारण अनिल मुझे अब फिर से 'दीदी' कहने लगा और नेहा की आँखों में मुझे आज जा कर वही पुराना माँ-बेटी वाला प्यार नज़र आया| ये सब आपकी वजह से हुआ है..." मैं आगे और भी कहती की तभी इन्होने मेरी बात काट दी; "लेकिन जान मैंने कुछ भी नहीं किया! जब से होश आया मैंने माँ-पिताजी (यानी इनके सास-ससुर जी) और अनिल का तुमसे उखड़ा हुआ बर्ताव करते देखा, मैं जान गया की तुमने मेरी गलतियों को छुपाने के लिए खुद को ढाला बना लिया होगा| मैंने तो बस सभी के सामने असली बात ज़ाहिर कर दी!" ये मुस्कुराते हुए बोले, फिर अगले ही पल इनके चेहरे पर गंभीर भाव आ गए और ये अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले; "दरअसल उस दिन तुमने जो मुझे ईमेल भेजा था, उसे पढ़ कर मुझे तुम्हारे भीतर मौजूद डर का पता चला| तुम्हारे जज्बात पढ़ कर मैं अंदर से जलने लगा, मैं तुमसे इस बारे में बात करना चाहता था मगर तुम मेरे दुबई जा कर रहने के फैसले को ले कर पहले ही नाराज़ थी| उस सुबह जब मैं जल्दी साइट से लौट आया था तब मैं तुमसे यही बात करना चाहता था मगर जब तुमने मुझसे बात नहीं की तो मैंने खुद को कोसना शुरू कर दिया! तुम्हारे उस दुःख और तकलीफ को महसूस कर मैं जलता रहा और खुद को कोसता रहा की मैं कैसा पति हूँ जो अपनी पत्नी की रक्षा नहीं कर सका, अपने बच्चों की देख-रेख नहीं कर सकता! काश...काश की मैंने उस दिन उसे (चन्दर को) जान से मार दिया होता तो हमें ये दिन कभी न देखना पड़ता!" ये कहते हुए इनके चेहरे पर गुस्से के भाव आ गए थे, मुझे डर था की कहीं इनका ब्लड प्रेशर न बढ़ जाए और इनकी तबियत खराब न हो जाए इसलिए मैंने इन्हें शांत करते हुए कहा; "नहीं, अगर आप उस आदमी के गंदे खून से अपने हाथ रंग लेते तो मेरा क्या होता? हमारे बच्चों का क्या होता? आप हमेशा-हमेशा के लिए हमसे दूर हो जाते, आपके बिना कैसे जीते हम?" मेरी बात सुन इनका गुस्सा कम होने लगा था| इन्होने आज सब के सामने मेरी गलतियों का टोकरा अपने सर ले लिया था और मुझे इन्हें बताना था की सारी गलती मेरी थी न की इनकी; "मैं जानती हूँ आप मुझसे बहुत प्यार करते हो इसलिए आप कभी मेरी गलती नहीं मानोगे, लेकिन असल में आपकी इस हालत की जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ मैं हूँ! नेहा सही कहती थी, सब गलती मेरी थी..." मैं आगे बोलती उससे पहले ही इन्होने मेरी बात काट दी; "बिलकुल नहीं..." लेकिन ये आगे कुछ बोलते उससे पहले ही मैंने भी इनकी बात काट दी| मैं आज इनकी एक नहीं चलने देने वाली थी, मुझे इन्हें एहसास दिलाना था की कसूरवार मैं हूँ, सारी गलतियाँ मेरी थी न की इनकी; ""नहीं, आज आपको मेरी बात सुननी ही होगी! आपको लगता है की आपकी गलती है परन्तु ऐसा कतई नहीं है! मेरी सबसे बड़ी गलती ये थी की मैंने आपसे, अपने पति परमेश्वर से अपना ग़म छुपाया! वो इंसान जिसे मैं सबसे ज्यादा प्यार करती हूँ, वो इंसान जो मेरे लिए जान देने से नहीं चूकता; उस इंसान से मैंने अपने दिल का हाल छुपाया! जबकि दूसरी तरफ आप मेरे बिना बोले मेरे दिल के हाल को महसूस कर रहे थे और मेरे लाख बार आपके द्वारा मुझे हँसाने-बुलाने की कोशिशें विफल करने के बाद भी आपने हार नहीं मानी तथा मुझे हँसाने-बुलाने की कोशिश करते रहे| लेकिन मैं थी जो खुद को आपसे अलग-थलग किये बैठी थी क्योंकि मुझे हर पल डर था की आप मेरा डर न पढ़ लो?! बस मेरी ख़ुशी के लिए, मेरे दिल से डर भगाने के लिए आप ने ये देश छोड़ कर, माँ-पिताजी को छोड़ कर बाहर बसने की सोच रहे थे, इतनी बड़ी कुर्बानी आप सिर्फ मेरे लिए दे रहे थे और मैं बेवकूफ आपको ही गलत समझ आपसे लड़ रही थी!

इतना ही नहीं, बिना मुझे पूछे बताये आप मेरे परिवार के लिए इतना कुछ किये जा रहे थे| जहाँ कुछ महीने पहले पिताजी को हमारे रिश्ते से ही चिढ थी वहीं आज पिताजी आपसे अपने सभी बच्चों से ज्यादा प्यार करते हैं| जो मान-सम्मान आज मैं अपने पिताजी की आँखों में आपके लिए देखती हूँ, उतना मान-सम्मान मैंने पिताजी को आजतक किसी का करते नहीं देखा| इस सबसे मुझे आप पर कितना गर्व होता है ये मैं बता नहीं सकती| मुझे इतना प्यार करने वाला पति मिला और फिर भी धिक्कार है मुझ पर जो मैंने आपसे इस तरह बोलना-चालना बंद कर दिया जिस कारण आपकी ये हालत हुई! नेहा सही कहती थी, I don't deserve you!" मैंने बड़ी सख्ती से अपनी बात कही | "I'm so sorry जानू! न मैंने वो सब लिखा होता और न ही आपकी ये हालत होती!" मेरे मन में आज तक जो बात दफन थी वो सब इन्हें कह कर मेरे दिल को आज चैन मिला था| अपने मन की बातों को कह मेरा गला भर आया था तथा मेरी आँखों से आँसूँ छलक आये थे, इन्ही आँसुओं के साथ मन में मौजूद सारी ग्लानि बह गई थी| वो तो इनके जिस्म की तपिश थी जिस कारण मैं रोइ नहीं थी|

वहीं इन्होने मुझे मेरी बात रखने का पूरा मौका दिया था और मेरी सारी बात सुन इन्होने मुझे कस कर अपनी बाहों में भर लिया| इनकी इस जकड़न के एहसास से मेरे आँसूँ थम चुके थे और चेहरे पर सुकून के भाव आ गए थे|

अगले कुछ पलों के लिए मैं इनके सीने से सर लगाए बैठी रही, कुछ देर बाद ये बोले; "I love you जान!" ये कहते हुए इन्होने मेरे सर को चूम लिया| इतने दिनों बाद इनके मुँह से I love you सुन मेरा मन प्रसन्न हो गया, दिल में प्यार का सागर उमड़ने लगा| मैं भी इन्हें I love you कहती उससे पहले ही ये एकदम से बोले; "गलती हम दोनों की थी...okay? Matter finish!!!" कितनी आसानी से इन्होने मेरी सारी गलतियाँ बाँट ली थी! दरअसल ये मुझे कभी गलत साबित होते हुए नहीं देख सकते थे, इसीलिए मेरी बेवकूफियाँ अपने सर ले लेते हैं! मेरा इनसे अब तर्क करने का कोई तुक नहीं बचा था इसलिए मैं खामोश रही और मन ही मन बोली;'सच, कभी-कभी लगता है की मैं आपको समझ ही नहीं पाऊँगी!'

मुझे अब नींद आ रही थी और मैं ये पल गँवाना नहीं चाहती थी, मैंने इन्हें पीठ के बल लेटने को कहा तथा इनके दाहिने हाथ को अपना तकिया बना कर रज़ाई हम दोनों पर ओढ़ कर इनसे लिपट गई| इन्होने भी फ़ौरन मेरी तरफ करवट ली और मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया, इस समय इनके होंठ मेरे मस्तक को छू रहे थे और वो तपिश मैं साफ़ महसूस कर पा रही थी| सच आज एक आरसे बाद हम दोनों पति-पत्नी इस तरह एक दूसरे के पहलु में सिमट कर सो रहे थे!

रात के तीन बजे मैंने इनके बारे में एक भयानक सपना देखा, ऐसा डरावना सपना जिसके बारे में मैं लिख भी नहीं सकती| कुछ ऐसा ही सपना मैंने गाँव में देखा था जब ये गाँव आये थे| मैं बुरी तरह घबराई हुई थी और बुरी तरह हाँफते हुए उठ बैठी थी! मेरे इस तरह चौंक कर उठने से इनकी भी आँख खुल गई थी, इन्हें पता चल गया कि मैंने जरूर कोई भयानक सपना देखा होगा| इन्होने फ़ौरन कमरे की बत्ती जलाई और मेरी पीठ को सहलाते हुए मुझे सँभालते हुए बोले; "heyyy जान! मैं यहीं हूँ, तुम्हारे पास!" इनकी आवाज सुन मेरे दिल को इनकी मौजूदगी का एहसास हुआ और मैं डर के मारे इनके सीने से लग गई तथा मेरी आँखों से डर के मारे आँसूँ बह निकले| इन्होने मेरे आँसूँ पोछे और मुझे पुनः कस कर अपने सीने से लगा लिया| मेरे इस तरह दहल जाने से हम दोनों के ही हृदय की गति बढ़ी हुई थी, तभी तो गले लगे हुए हम दोनों को एक दूसरे के हृदय की गति महसूस हो रही थी! मुझे प्यार से बच्चों की तरह पुचकारते हुए इन्होने लिटाया और ये भी मेरी ओर करवट किये हुए लेट गए मगर नींद हम दोनों को ही नहीं आई! हम दोनों पुनः एक दूसरे में सिमटे हुए जागते रहे, ये मेरे बालों से ले कर मेरी पीठ तक हाथ फेर रहे थे जिस से मेरा डर कम होने लगा था|

"जानू, आपको एक बात बतानी थी! जब आप अस्पताल में थे और बड़की अम्मा आईं थीं तब उन्होंने आयुष को तो गले लगा कर अच्छे से लाड-प्यार किया परन्तु उन्होंने नेहा को नहीं देखा जो की उनके पाँव छू कर आशीर्वाद मिलने का इंतज़ार कर रही थी| नेहा को इस बात का बहुत बुरा लगा था, आप पहले ही बेहोश थे और ऐसे में नेहा बहुत ज्यादा दुखी थी| मैंने उसे बहुत समझाया की बड़की अम्मा ने उसे नहीं देखा मगर नेहा के दिल को तसल्ली नहीं मिली थी| आप बड़की अम्मा से कहना की वो थोड़ा सा लाड-प्यार नेहा को भी करें ताकि नेहा भी खुश हो ले|" मैंने जानबूझ कर ये बात शुरू की थी ताकि मेरे बोलने से कमरे में मेरे डर के कारण मौजूद ख़ामोशी टूटे| "ठीक है जान, मैं कल अम्मा से बात करूँगा|" ये बोले और मेरे दिल को इत्मीनान मिला| गाँव में बड़की अम्मा आयुष से ज्यादा लाड करती थीं मगर नेहा को भी उनका थोड़ा बहुत प्यार मिलता ही था, नेहा ने जब मुझसे इस बारे में बात की तो मैंने उसे ये समझाते हुए कहा की; "बेटा छोटे बच्चों से सभी लाड-प्यार करते हैं, अब आप तो बड़े हो गए हो और बड़े बच्चों को अब समझदारी से सभी काम करने होते हैं!" मेरा जवाब सुन नेहा को तसल्ली नहीं हुई थी मगर वो पहले ही अपने पापा जी से गुस्सा थी तो ऐसे में वो मुझसे नाराज़ नहीं हो सकती थी| हाँ इतना अवश्य था की उसे ये भेदभाव बहुत चुभ रहा था और अपने पापा जी की कमी बहुत महसूस हो रही थी|

नेहा की बात करते-करते हम दोनों फिर से सोने की कोशिश कर रहे थे| करीब एक घंटे बाद हमारे कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई, दस्तक सुन पहले तो हम दोनों डर गए क्योंकि इतनी देर रात दस्तक होना किसी अशुभ संकट की निशानी थी! मैं दरवाजा खोलने को उठने लगी तो इन्होने मुझे रोक दिया और खुद उठ कर दरवाजा खोला| दरवाजा खोलते ही नेहा एकदम से इनकी कमर के इर्द-गिर्द हाथ लपेटे हुए इनकी टांगों से आ लिपटी! नेहा डर के मारे रो रही थी और उसे रोता हुआ देख मैं भी झट से उठ बैठी| इन्होने फ़ौरन नेहा को गोदी में उठाया और उसे पुचकारते हुए कमरे में टहलने लगे; "awwwww मेरा बच्चा! क्या हुआ मेरा बच्चा? फिर से बुरा सपना देखा आपने?" अपने पापा का सवाल सुन नेहा सर हाँ में हिलाने लगी तथा इनसे कस कर लिपट गई| नेहा कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी इसलिए वो बस रोये जा रही थी| "बस-बस...मेरा बच्चा! रोते नहीं बेटा, पापा हैं न यहाँ आपके पास? आप तो मेरा सबसे बहादुर बच्चा हो!" ये इस समय नेहा को किसी छोटे से बच्चे की तरह लाड कर रहे थे और ये दृश्य देख कर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई! मैंने नजर घुमा कर दरवाजे की ओर देखा तो पाया की माँ दरवाजे पर खड़ी इन्हें नेहा को दुलार करते देख मुस्कुरा रही थीं| "अब हम जानी काहे नेहा, मानु बेटे से इतना मोहात है!" माँ की बात सुन मैं और ये मुस्कुराने लगे, वहीं नेहा का रोना रुक चूका था और वो इनसे लिपट कर सोने लगी थी| "माफ़ करा मुन्ना, ऊ का है की नेहा एकदम से उठी और पापा-पापा कहे रोये लागि! हमका कछु समझ नाहीं आवा एहि से हम तुम दुनो का जगाये दिहिन!" माँ ने नेहा के रोने का कारण हमें बताया, फिर वो मुझे याद दिलाते हुए बोलीं; "मुन्नी, तू आभायें तक नेहा का कउनो डॉक्टर का नाहीं दिखायो?" दरअसल जब कभी मैं अपने मायके होती थी तब कई बार नेहा ऐसे ही रात-बेरात यूँ डर के जाग जाया करती थी और रोने लगती थी, तब एक बार मेरी माँ ने कहा था की मुझे नेहा को किसी डॉक्टर को दिखाना चाहिए लकिन मेरी लापरवाही की वजह से मैं गाँव में नेहा को कभी किसी डॉक्टर के नहीं ले गई| मुन्नार में भी मैंने दिल्ली लौट कर नेहा को किसी डॉक्टर को दिखाने की बात इनसे कही थी मगर जो काण्ड हुआ उसके कारन हमें नेहा को डॉक्टर के ले जाने का समय ही नहीं मिला|

खैर, जब माँ ने नेहा को किसी डॉक्टर को दिखाने की बात कही तो मेरे जवाब देने से पहले ही ये एकदम से बोल पड़े; "नहीं माँ, मेरी बेटी को कोई बिमारी नहीं है| वो बस मुझसे इतना सारा प्यारा करती है की उसे मेरे बिना नींद नहीं आती|" इन्होने बिलकुल बचकाने अंदाज में नेहा का सर चूमते हुए बात कही| दरअसल, नेहा का यूँ डर जाने की बात को हम नेहा के सामने हमेशा किसी सामन्य बात की तरह लेते थे ताकि कहीं नेहा खुद को बीमार न समझने लगे| लेकिन नेहा इनसे लिपट कर आँखें बंद किये हुए सो गई थी, कम से कम हमें तो यही लग रहा था!

वहीं इनकी बात सुन माँ इन्हें समझाते हुए बोलीं; "लेकिन मुन्ना, तू दुनो आभायें जवान हो! अगर नेहा बिटिया ई तरह तोहरे से लिपटी रही तो तू दुनो का आपस में बात किये का टाइम कैसे मिली?" माँ ने बात थोड़ी गोल घुमाते हुए कही| हम दोनों की तरह आप सभी भी उनकी इस बात का मतलब समझ ही गए होंगें?! लेकिन ये बात नेहा को समझा पाना नामुमकिन था, इन बातों को समझने के लिए वो बहुत छोटी थी, ऊपर से वो अपने पापा से इतना प्यार करती थी की हमारे उसे इस बात को समझाने से वो हमें गलत समझने लगती| फिर ये भी कुछ कम नहीं हैं, इन्हें तो वैसे भी मुझसे ज्यादा नेहा से प्यार है तो ये तो वैसे भी नेहा को ये बात समझाने से रहे!

इधर, माँ की बात सुन हम दोनों पति-पत्नी के पास कोई जवाब नहीं था, हम दोनों तो बस एक दूसरे को देख रहे थे और इस असहज परिस्थिति से बचना चाह रहे थे| मेरी माँ को हम दोनों की मनोदशा समझ आई और बात को खत्म करते हुए बोलीं; "ई देखो, नेहा मुन्नी तो सो गई?! अब तू दुनो भी सोइ जाओ!" इतना कह माँ चली गईं| मैंने खुद उठ कर कमरे का दरवाजा बंद किया, वहीं ये नेहा को अपने सीने से चिपटाये हुए पलंग पर सीधा लेट गए| मेरे लिए इन्होने अपनी दाईं बाँह तकिये के रूप में फैला रखी थी, मैं बिस्तर में घुसी और इनकी बाँह पर सर रख इनसे लिपट गई| मेरा दायाँ हाथ नेहा की पीठ पर था और मैं नेहा की पीठ सहलाते हुए मुस्कुरा रही थी| करीब आधे घंटे बाद हमारी आँख लगी और हम आराम से सो गए|

अगली सुबह 11 बजे सबकी गाँव जाने की फ्लाइट थी और सभी लेट न हो जाएँ इसलिए ससुर जी ने सभी को सुबह 8 बजे तैयार रहने को कहा था| सुबह 5 बजे मेरी आँख खुली और मैं नहा-धो कर रसोई में घुस गई| आज सुबह से ही ठंड बहुत ज्यादा थी, कल रात मेरे और नेहा के कारण इनकी नींद पूरी नहीं हुई थी इसलिए दोनों बाप-बेटी अभी भी सो रहे थे जबकि बाकी सब बैठक में बैठे चाय पी रहे थे| साथ बजते-बजते मैंने सभी को नाश्ता करा दिया था, तभी नेहा अपनी आँख मलते हुए कमरे से बाहर आई| उसे देख मुझे लगा की ये भी अवश्य उठ गए होंगे इसलिए मैं इनकी चाय ले कर कमरे में आई तथा मेरे पीछे-पीछे ही बड़की अम्मा भी आ गईं| अम्मा के हाथ में एक झोला था और चेहरे पर गर्वपूर्ण मुस्कान, अम्मा इनके पास बैठ गईं और इनका हाल चाल पूछ कर इनके गाल पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोलीं; "मुन्ना, तू काहे हमरी कोख से जन्म नाहीं लिहो?" अम्मा इनके बालों में हाथ फेरने लगीं थीं| "अम्मा, सिर्फ कोख से जन्म लेने से कोई बेटा बन जाता है?" इन्होने बड़े प्यार से मुस्कुराते हुए बड़की अम्मा से तर्क किया| इनकी बात सुन बड़की अम्मा का सीना गर्व से चौड़ा हो गया और वो इनका हाथ अपने हाथों में लिए हुए बोलीं; "हमार बच्चे जो कभी हमका रेल से यात्रा नाहीं कराईं और तू हमका आज हवाई जहाज से यात्रा करावत हो! जुग-जुग जियो हमार मुन्ना, दूधो नहाओ पूतो फलो!" अम्मा इनका मस्तक चूमते हुए आशीर्वाद देते हुए बोलीं|

"अच्छा अम्मा, आप बुरा न मानो तो मैं एक बात कहूँ?!" इन्होने झिझकते हुए अपनी बात शुरू करते हुए कहा| "हाँ-हाँ मुन्ना, कहो?" बड़की अम्मा मुस्कुराते हुए बोलीं| "अम्मा, जब आप मुझसे मिलने अस्पताल आये थे तब आप आयुष से गले मिल कर उसे दुलार कर रहे थे मगर बेचारी नेहा को आप नहीं देख पाईं| वो बेचारी आपके पाँव छू कर आपका प्यार तथा आशीर्वाद पाने से वंचित रह गई! मैं जानता हूँ की आप नेहा से भी आयुष के बराबर प्यार करते हो, तो एक बार...." बस इतना बोल इन्होने अपनी बात अधूरी छोड़ दी|

उधर बड़की अम्मा इनकी बात समझ गईं और नेहा को आवाज देते हुए बोलीं; "नेहा, मुन्नी तनिक हियाँ आओ!" अपनी बड़ी दादी जी की आवाज सुन नेहा फुदकती हुई आई और उत्सुकता से अपनी दादी जी को देखने लगी| बड़की अम्मा ने अपने झोले में हाथ डाला और उसमें से एक गुलाबी रंग का कागज निकाला| जब उन्होंने उस कागज को खोला तो उसमें से चाँदी की एक पायल निकली, इतनी सूंदर पायल को बड़की अम्मा ने नेहा को दिया और उसका माथा चूमते हुए बोलीं; "ई हमार मुन्नी खातिर! वइसन ई हम लाइन तो तोहरे माँ खातिर रहन मगर ई तोहरे पाँव पर ज्यादा नीक लागि!" पायल पा कर नेहा अपने पापा को देखने लगी, क्योंकि उसे अपने पापा की इजाज़त चाहिए थी| वहीं इन्होने भी सर हाँ में हिला कर नेहा को पायल ले लेने को कहा तो नेहा ने ख़ुशी-ख़ुशी पायल ले ली| "और मुन्नी हमका माफ़ कर दिहो, हम ऊ दिन अस्पताल में तोहका नाहीं देखेन रहन! तोहार पापा की तबियत का सुनी की हम बहुत बहुत दुखी रहन एहि से हम तोहका आशीर्वाद दिए का भुलाये गयन!" इतना कह बड़की अम्मा ने आज पहली बार अंग्रेजी का शब्द बोला; "सारी (sorry)!!!"

अपनी बड़ी दादी जी की बात सुनते ही नेहा उनसे लिपट गई और मुस्कुराते हुए बोली; "अम्मा, सारी नहीं सॉरी (sorry) कहते हैं! और आपको सॉरी कहने की कोई जर्रूरत नहीं क्योंकि मम्मी ने मुझे समझा दिया था की आप उस समय पापा जी के बीमार होने के कारन कितने दुखी थे! तो its okay अम्मा! And thank you for the पायल!" नेहा की प्यारी सी बात सुन बड़की अम्मा मुस्कुराईं, मुझे ये नहीं पता की अम्मा को नेहा की बोली अंग्रेजी समझ आई या नहीं मगर उन्होंने फिर भी लड़खड़ाते हुए फिर से टूटी-फूटी भाषा में कहा; "थंक ऊ! (thank you)" बड़की अम्मा की टूटी-फूटी अंग्रेजी सुन हम तीनों हँस पड़े, वहीं नेहा अपनी बड़ी दादी जी को सही करते हुए बोली; "अम्मा, थंक ऊ नहीं thank you होता है!" नेहा हँसते हुए बोली तो बड़की अम्मा की भी हँसी छूट गई!

"क्या बात है अम्मा, आप तो अंग्रेजी बोलने लगे?" इन्होने हँसते हुए पुछा तो बड़की अम्मा बोलीं; "तोहरे लड़िकवा (आयुष) सिखाइस है!" ये सुन कर तो हम चारों हँसने लगे| असल में, आयुष जब अपना स्कूल का होमवर्क करता था तो वो अपनी बड़ी दादी जी को पढ़ाने लगता था! अब बाप की आदतें बेटे में आ ही जातीं हैं, जैसे इन्हें पढ़ाने का शौक था वैसे ही आयुष को भी अपनी दादी जी, बड़ी दादी जी और नानी जी को पढ़ाने का शौक था| मुझे तो लगता है की कहीं अगर अम्मा एक महीना रुक जातीं तो आयुष तो अम्मा को सारी अंग्रेजी सीखा देता!

खैर सभी के एयरपोर्ट जाने का समय नजदीक आ रहा था, इन्होने सभी के लिए बड़ी वाली टाटा इन्नोवा बुलवाई ताकि सभी लोग एक साथ एयरपोर्ट जा सकें| ससुर जी खुद सभी को एयरपोर्ट छोड़ने जाने वाले थे, एयरपोर्ट जाने के नाम से आयुष अपने दादा जी की गोदी में चढ़ गया और घुम्मी कराने की रट लगा दी| उधर इन जनाब को चैन नहीं था, ये सभी को मिलने के लिए अंदर के गर्म कमरे से निकल कर बाहर बैठक में आ कर बैठ गए जहाँ काफी ठंड थी| एक-एक कर सभी के पाँव छू कर और अनिल को गले लगा कर इन्होने विदा किया| सभी इन्हें आशीर्वाद दे कर घर से निकले, इस समय घर में केवल मैं, माँ, नेहा और ये ही थे|

चूँकि ये गर्म कमरे से आकर बाहर के ठंडे कमरे में बैठे थे इसलिए सर्द-गर्म होने से इनका साइनस का अटैक शुरू हो गया और इन्हें बेतहाशा छींकें आने लगीं!!! दरअसल इन्हें कभी-कभी ठंडी हवा से, ज्यादा मसालेदार खाने से, कुछ ठंडी चीज खाने-पीने से, नींद पूरी न होने पर, अधिक थकावट होने पर, धुल-मिटटी से या कभी किसी अनजान तेज महक से एलर्जी है और जब ये एलर्जी इन्हें परेशान करने लगती है तो इन्हें छींकें शुरू हो जाती हैं| ये छींकें इतनी तीव्र होतीं हैं की एक के बाद एक आती हैं और इनका पूरा बदन झिंझोड़ कर रख देती हैं! इनका पूरा शरीर पसीने से भीग जाता है और नाक से पानी बहने लगता है तथा नाक से साँस लेने में तकलीफ होने लगती है! नाक से साँस लेने पर ऐसा लगता है मानो पूरी नाक अंदर से छील गई हो तथा कभी-कभी खून की महक भी आती है! शुक्र है की ये समस्या कभी-कभी ही होती है, मैं जब से आई थी मैंने इन्हें कभी इस कदर छींकते हुए नहीं देखा था|

इन्हें साइनस का अटैक न आये इसीलिए मैंने इन्हें कमरे के भीतर रहने को कहा था, लेकिन जनाब को सभी को विदा करना था इसलिए ये ज़िद्द करके बाहर बैठक में आये थे!

खैर, छींक-छींक कर इनकी हालत खराब थी और इनकी ये दशा देख मेरी जान हलक़ में आ गई थी| माँ ने मुझे इशारा किया की मैं भाँप देने के लिए पानी गर्म करूँ| उधर नेहा बहुत घबराई हुई थी, वो अपने पापा को सहारा दे कर कमरे में लाइ और इन्हें दिवार का सहारा ले कर पलंग पर बिठा दिया| मैंने गरमा-गर्म पानी इन्हें ला कर दिया तथा इन्होने भाँप लेना शुरू किया, परन्तु भाँप लेने के दौरान भी इन्हें छींकें आती रहीं अंततः भाँप लेने से भी कोई फायदा नहीं हुआ| मैं पिताजी (मेरे ससुर जी) को फ़ोन करने वाली हुई थी की तभी इन्होने मुझे रोक दिया| माँ ने कितना कहा की पिताजी को सब बता देना चाहिए मगर ये नहीं माने| नेहा ने अपनी सरिता आंटी जी को फ़ोन मिलाया परन्तु उनका फ़ोन नहीं मिला, नेहा अस्पताल जाने के लिए कह रही थी और ये थे की बस हमें रुकने को कह रहे थे| छींक-छींक कर इनके रुमाल पर रुमाल भीगते जा रहे थे, छींकों के दुष्प्रभाव से इनका बदन ठंडा पड़ने लगा था जो की हमारे लिए चिंता का विषय था क्योंकि इनका बदन हमेशा ही गर्म रहता था| नेहा इनकी पीठ सहलाये जा रही थी तथा उसकी आँखों से अपने पापा जी को यूँ तकलीफ में देख आँसूँ बहने लगे थे| शुक्र है की इन्होने नेहा के आँसूँ नहीं देखे थे, क्योंकि ये उस समय भी छींकने में व्यस्त थे वरना ये अति भावुक हो जाते!

कुछ मिनट बाद इन्होने मुझे अपना फ़ोन दिया तथा नर्स 'करुणा' को बुलाने के लिए कहा! करुणा का नाम सुन मैं हैरान रह गई मगर ये समय बर्बाद करने का नहीं था| मैंने इनका फ़ोन लिया और करुणा को नंबर मिलाने जा ही रही थी जब मैंने व्हाट्स अप्प की एक नोटिफिकेशन देखि| मैंने उसी नोटिफिकेशन पर क्लिक किया तो देखा की करुणा ने इन्हें सुबह की 'गुड मॉर्निंग' भेजी थी तथा इनका हाल-चाल पूछ रही थी! ये मैसेज देख तो मैं और भी हैरान रह गई की ये तो उससे व्हाट्स अप्प पर बातें करते हैं, जिसका मुझे पता ही नहीं?!

बहरहाल मैंने फटाफट करुणा को फ़ोन मिलाया और उसके हेल्लो बोलने से पहले ही उसे सारी बात बताई| मेरी सारी बात सुनते ही वो बोली; "मैं आ रे!" फ़ोन रख मैंने माँ को बताया की करुणा आ रही है, करुणा के आने तक मैं, माँ और नेहा इनके पास ही बैठे रहे| इनकी छींकें थोड़ी कम हुईं थीं मगर नाक से पानी बहे जा रहा था| नेहा के आँसूँ थम नहीं रहे थे और ये नेहा को रोता हुए देखें उससे पहले ही मैंने नेहा को इशारे से चुप होने को कहा| इन्हें यूँ छींकों से बेहाल देख हालत तो मेरी भी बुरी थी और मैं भी रोना चाहती थी मगर मैंने खुद को चट्टान के समान मज़बूत कर रखा था ताकि कहीं ये हमें रोता देख हार न मान लें! आखिर छींकतें-छींकतें इन्होने टिश्यू पेपर के दो डिब्बे खत्म कर दिए!

आधे घंटे बाद करुणा घर आई, उसके हाथ में एक मशीन थी जिसे nebulizer कहते हैं| करुणा ने फटाफट मशीन का प्लग बिजली के पॉइंट में लगाया और मशीन में कोई दवाई डाल कर इन्हें मास्क पहना दिया| मशीन के चालु होते ही, भाँप निकलने लगी जो दवाई से मिल कर इन्होने सूँघी और तब जा कर धीरे-धीरे इनकी हालत में सुधार आने लगा| दिवार का सहारा ले कर इन्होने दवाई को मास्क के ज़रिये लम्बी-लम्बी साँस लेते हुए सूँघा, इनकी छींकें बंद हुईं और इन्हें आराम मिला तो मैंने इन्हें रज़ाई ओढ़ा कर लिटा दिया| अब जा कर इनकी तबियत सामान्य लग रही थी और ये देख कर माँ, मुझे और नेहा को सुकून मिला था|

मैंने नेहा को हम तीनों (मैं, माँ और करुणा) के लिए चाय बनाने के लिए कहा, नेहा रसोई में चाय बनाने लगी तथा माँ फ्रेश होने के लिए अपने कमरे में चली गईं| अब कमरे में रह गए हम तीन जन, ये तो आँखें मूंदें आराम करने लगे थे और मैं तथा करुणा खामोश बैठे हुए थे| करुणा ने हिम्मत करते हुए मुझसे बात करनी चाही और पुछा; "आप कैसे हो?" करुणा ने आज इतने प्यार से सवाल पुछा की अगर मैं लड़का होती तो ज़रूर पिघल जाती! लेकिन उसके इस सवाल ने मेरे मन में सवाल खड़े कर दिए थे, इतनी मीठी जुबान वाली लड़की की मेरे पति से दोस्ती कैसे? कहीं दाल में कुछ काला तो नहीं? कहीं ये करुणा की तरफ फिसल तो नहीं गए थे? ये सभी सोचते हुए मैं खामोश थी की करुणा ने अपना सवाल दुहराया; "आप कैसे हो?" उसका सवाल दुबारा सुन मैं नकली मुस्कान लिए हुए बोली; "मैं ठीक हूँ!" इतना कह मैंने इनका फ़ोन उठा लिया और उसमें व्हाट्स अप्प पर इनकी और करुणा की चैट देखने लगी, मैंने देखा की जब से ये अस्पताल से आये थे तभी से ये दोनों व्हाट्स अप्प पर बात कर रहे थे| बातें कुछ ख़ास नहीं थीं, बस हाल-चाल और तबियत से जुडी बातें थी| चैट स्क्रॉल करते हुए मैं ऊपर जाने लगी तो पाया की इनकी बातें तो बहुत होती थीं मगर मैंने उन पुराने मेसेजस को जानकार नहीं पढ़ा क्योंकि मुझे डर लग रहा था की कहीं मैं जो इनके और करुणा के बारे में सोच रही हूँ वो बात सच निकली तो मेरा दिल टूट जायेगा!

उधर चाय बन चुकी थी तो माँ ने हम दोनों को बाहर बैठक में बुला लिया| बैठक में बैठे हम चाय पी रहे थे और करुणा माँ से बहुत अच्छे से बात कर रही थी तथा उनका हाल-चाल पूछ रही थी| तभी नेहा ने टी.वी. चालु कर दिया और सीधा CID लगा दिया, CID के पुराने एपिसोड आ रहे थे जो की माँ के मन पसंद थे| मुझे जो बात अजीब लगी थी वो ये की माँ और मेरे साथ-साथ करुणा भी बड़े गौर से CID देख रही थी, जबकि CID देखना हम सास-बहु का मनपसंद काम था ऐसे में करुणा का यूँ दिलचस्पी लेना मुझे अटपटा लग रहा था! ऐसा लगता था मानो वो मेरे परिवार के बारे में सब जानती हो!

कुछ देर बाद नेहा अचानक उठी और अपने पापा को देखने अंदर गई, ये जाग चुके थे और इन्हें जगा हुआ देख नेहा दौड़ती हुई बाहर आई तथा करुणा से बोली; "आंटी जी, पापा जी उठ गए!" करुणा फ़ौरन उठी और तेजी से कमरे की ओर चल दी, माँ ने मुझे मूक इशारा करते हुए कहा की मैं भी करुणा के साथ जाऊँ| वैसे मैं जाने ही वाली थी, मैं तो बस माँ के उठने का इंतजार कर रही थी, लेकिन माँ के पाँव सूजन बढ़ गई थी इसलिए वो अधिक चलती-फिरती नहीं थीं|

जब मैं कमरे में पहुँची तो ये दिवार का सहारा ले कर बैठे हुए थे और करुणा इनसे पूछ रही थी; "अब कैसे हो मिट्टू?" करुणा के सवाल के जवाब में ये मुस्कुराये और बड़े प्यार से बोले; "मैं..." इतना कह इन्होने तीन सेकंड का cinematic pause लिया और बोले; "...ठीक हूँ!" इनकी इस बात को सुन ये दोनों दोस्त खिलखिलाकर हँसने लगे! इनका ये बदला हुआ बर्ताव मुझे बहुत ही अजीब लग रहा था क्योंकि इस तरह का cinematic pause ले कर इन्होने कभी किसी से बात नहीं की थी! लेकिन मैं फिर भी कुछ नहीं बोली क्योंकि मैं इस वक़्त लड़ाई-झगड़ा करने के मूड में नहीं थी, मेरे लिए इनका स्वस्थ होना ज्यादा ज़रूरी था|

एक सेकंड के लिए मेरा दिमाग बोला; 'तू कुछ ज्यादा सोच रही है!' ये ख्याल दिमाग में आते ही मैं खुद को शांत करने लगी| लेकिन फिर अगले ही पल दिल बोला; 'शायद!' इस एक शब्द ने मन में मौजूद शक की चिंगारी को हलकी सी हवा दे दी!

[color=rgb(251,]जारी रहेगा भाग - 4 में...[/color]
 

[color=rgb(255,]सत्ताईसवाँ अध्याय: विपरीत - पति का प्यार और पत्नी की जलन![/color]
[color=rgb(71,]भाग - 4[/color]


[color=rgb(51,]अब तक आपने पढ़ा:[/color]

जब मैं कमरे में पहुँची तो ये दिवार का सहारा ले कर बैठे हुए थे और करुणा इनसे पूछ रही थी; "अब कैसे हो मिट्टू?" करुणा के सवाल के जवाब में ये मुस्कुराये और बड़े प्यार से बोले; "मैं..." इतना कह इन्होने तीन सेकंड का cinematic pause लिया और बोले; "...ठीक हूँ!" इनकी इस बात को सुन ये दोनों दोस्त खिलखिलाकर हँसने लगे! इनका ये बदला हुआ बर्ताव मुझे बहुत ही अजीब लग रहा था क्योंकि इस तरह का cinematic pause ले कर इन्होने कभी किसी से बात नहीं की थी! लेकिन मैं फिर भी कुछ नहीं बोली क्योंकि मैं इस वक़्त लड़ाई-झगड़ा करने के मूड में नहीं थी, मेरे लिए इनका स्वस्थ होना ज्यादा ज़रूरी था|

एक सेकंड के लिए मेरा दिमाग बोला; 'तू कुछ ज्यादा सोच रही है!' ये ख्याल दिमाग में आते ही मैं खुद को शांत करने लगी| लेकिन फिर अगले ही पल दिल बोला; 'शायद!' इस एक शब्द ने मन में मौजूद शक की चिंगारी को हलकी सी हवा दे दी!

[color=rgb(44,]अब आगे:[/color]

मैं नेहा को इन दोनों के पास छोड़ कर इनके लिए अदरक वाली चाय बनाने चली आई| बाहर आ कर मैं सोच में पड़ गई की आखिर क्यों मैंने नेहा को इन दोनों के पास छोड़ा? ऐसा नहीं था की मुझे इन पर कोई शक हो, दिल को अब भी इन पर भरोसा था की इनका करुणा के साथ कोई 'चक्कर' नहीं है क्योंकि अगर होता तो ये मुझसे ये बात कभी नहीं छिपाते! खैर, मेरे चाय बना कर लाते-लाते माँ भी कमरे में आ चुकी थीं और इन तीनों (ये, माँ और करुणा) की बातें जारी थीं| तभी ये अचानक से मुझसे बोले; "यार भूख लग रही है, ऐसा करो आमलेट बनाओ!" ये सुन कर तो मैं बहुत हैरान हुई क्योंकि डॉक्टर ने अभी भी इन्हें इस तरह का तेल-मसाले वाला खाना खाने की इज़्ज़ाज़त नहीं दी थी| मुझे समझ नहीं आ रहा था की मैं करुणा के सामने इन्हें कैसे मना करूँ, फिर मुझे लगा की चूँकि करुणा नर्स है और वो भी अस्पताल में इनकी देख-रेख कर रही थी तो उसे तो इनकी मेडिकल हिस्ट्री पता होगी ही, तो वो ही इन्हें मना कर देगी! लेकिन करुणा तो दो कदम आगे बढ़ते हुए बोली; "मैं बनाते!" उसके ये कहते ही मेरी भवें तन गईं और मैं आँखें फाड़े उसे देखने लगी, वो तो उसकी नजरें इन पर थीं इसलिए वो मेरे भाव नहीं देख पाई|

दरअसल एक गैर लड़की, ख़ास तौर पर गैर हिन्दू लड़की मेरी रसोई में घुसे ये मुझे नाकाबिले बर्दाश्त था| घर की रसोई की अहमियत एक गृहणी के लिए बहुत होती है, ये एक ऐसी जगह होती है जहाँ उसे किसी भी दूसरे व्यक्ति की दखलंदाजी रास नहीं आती| माँ ने जिस ढंग से अपनी रसोई सजाई थी, चीजों को उनकी जगह विवस्थित किया था मैंने भी आज तक उन चीजों को नहीं छेड़ा था| जो नमक की बर्नी जहाँ माँ ने रखी थी, वो बर्नी आज भी वहीं रखी है| रसोई की चीजों के इधर-उधर होने से एक गृहणी को कितना गुस्सा आता है, कितनी कोफ़्त होती है ये बस एक गृहणी जानती है|

इधर मैं अपनी चीड़ के कारण परेशान थी की तभी नेहा बीच में बोली; "आंटी जी, घर पर अंडे तो है ही नहीं!" नेहा की बात सुन जहाँ मैंने इत्मीनान की साँस ली की बच गई मेरी रसोई वरना यहाँ तो गोबर भी नहीं है जिससे मैं अपनी रसोई लीपती, वहीं इनका मुँह लटक गया था क्योंकि इनकी इच्छा आज आमलेट खाने की थी! नेहा ने जब अपने पापा की उतरी हुई सूरत देखि तो वो फ़ट से बोली; "Don't worry पापा जी, मैं अभी ले आती हूँ!" नेहा का उत्साह देख मैं हैरान हो कर उसे देखने लगी और इंतज़ार करने लगी की वो मेरी ओर देखे और मैं उसे अंडे लाने जाने से रोक सकूँ मगर नेहा तो अलग ही जोश में थी! वहीं इन्होने नेहा को रोकना चाहा; "बेटा, बाहर बहुत ठंड है..." मगर नेहा को रोक पाना नामुमकिन था इसलिए वो अंडे लाने जाने के लिए ज़िद्द करने लगी! अब नेहा गई है बिलकुल इन पर, जैसे ये नेहा की ख़ुशी के लिए कुछ भी करने से नहीं चूकते वैसे ही नेहा थी! अंततः हारकर इन्होने नेहा को अंडे लाने जाने की इजाजत दे दी मगर पहले उन्होंने नेहा को मोटी जैकेट पहनवाई और तब उसे बाहर जाने दिया| नेहा अंडे लेने गई और इधर मेरा मुँह उतर गया क्योंकि अब मेरा एक काम बढ़ गया था, करुणा के जाने के बाद मुझे अब पूरी रसोई साफ़ करनी थी! इस बात का दुःख बस मैं ही जानती थी मगर फिर भी मैं अपने चेहरे को सामान्य बना कर बैठी थी ताकि इन्हें कहीं कुछ पता न चल जाए|

नेहा अंडे ले आई और करुणा रसोई में आमलेट बनाने घुस गई| मैं ये देख कर दंग रह गई की करुणा को मेरी रसोई के बारे में सब पता था, प्याज कहाँ रखे हैं, मसाले कहाँ हैं, बर्तन कहाँ है, तेल कहाँ है सब उसे पता था इसलिए उसने मुझसे एक शब्द नहीं पुछा| मेरे न चाहते हुए भी करुणा ने अपने, नेहा और इनके लिए आमलेट बनाये और वो भी मेरी ही रसोई में! माँ तो आमलेट खाती ही नहीं थी और जब करुणा ने अपना आमलेट मुझे दिया तो मैंने नकली मुस्कान लिए हुए मना कर दिया क्योंकि मैं बस इनके हाथ का बना हुआ आमलेट खाती हूँ|

खैर, दोनों बाप-बेटी ने बड़े चाव से आमलेट खाया और जो ख़ुशी आज मैं इनके चेहरे पर देख रही थी उससे मुझे करुणा से जलन होने लगी थी! एक पराई लड़की के यूँ मेरे घर में, मेरी ही रसोई में घुसने से उठी ये जलन का दर्द मैंने कैसे छुपाया ये बस मैं ही जानती हूँ! मैं बस यही देख कर संतुष्ट थी की कम से कम इनकी तबियत ठीक है|

कुछ देर बाद पिताजी (मेरे ससुर जी) और आयुष एयरपोर्ट से लौटे, उन्हें जब सारी बात पता चली तो वो बहुत नाराज़ हुए! "तुझे मना किया था न बहु ने की कमरे से बाहर नहीं निकलना मगर तूने सुनी है आजतक किसी की? देख तेरे कमरे से बाहर आने से सबको कितनी तकलीफ हुई! पिताजी ने इन्हें डाँट लगाते हुए कहा| इन्होने सर झुका कर पिताजी की डाँट सुनी, माँ ने बीच में पड़ते हुए बात बदल दी तथा पिताजी को ले कर बाहर चली गईं| पिताजी के जाने से इन्होने राहत की साँस ली और फिर से करुणा के साथ बात करने लगे|

लगभग तीन घंटे बाद मेरे पिताजी ने फ़ोन किया क्योंकि वे सभी लखनऊ पहुँच चुके थे, उन्हें जब इनकी तबियत के बारे में पता चला तो वो बहुत घबरा गए और मुझे ऐसा लगा जैसे वो अगली फ्लाइट पकड़ कर ही वापस आ जायेंगे! लेकिन इन्होने बात सँभाली और अपनी बातों से मेरे पिताजी को संतुष्ट कर दिया की अब इनकी तबियत स्वस्थ है! एक-एक कर इन्होने मेरी माँ, बड़की अम्मा और अनिल से भी बात की तथा उन्हें चिंता न करने को कहा|

दोपहर के खाने का समय हो चूका था, करुणा ने जाने की बड़ी कोशिश की मगर ये थे की बिना खाना खाये उसे जाने नहीं दे रहे थे| रसोई अच्छे से साफ़ कर के मैंने सब के लिए खाना बनाया और इस काम में मैंने अपने साथ नेहा को भी लगा लिया| खाना बना और करुणा ने दोनों बच्चों तथा माँ -पिताजी के साथ बैठ कर खाना खाया, वहीं इन्हें मैंने अंदर अपने हाथ से खाना खिलाया था| खाना खा कर जाते-जाते करुणा इनसे कह गई की; "take care मिट्टू!" उसके इन्हें मिट्टू कह कर बुलाने से मेरे तन-बदन में आग लग गई थी! मेरे पति को इस तरह से प्यार से बुलाने का अधिकार सिर्फ मेरा था, जिस तरह से वो इन्हें प्यार से बुला रही थी उससे मेरा जलना स्वाभाविक था मगर मैं जैसे-तैसे ये भी बर्दाश्त कर गई! वहीं ये भी कम नहीं थे, करुणा के सवाल का जवाब इन्होने भी मुस्कुराते हुए दिया; "I will!"

अंत में मैंने भी उसे एक थैंक यू कह दिया की उसने आ कर हमारी मदद की, क्या करती थैंक यू तो बोलना ही था! माँ-पिताजी को नमस्ते कह और दोनों बच्चों को "bye" कह कर करुणा आखिर कर चली ही गई!

दोनों बच्चों ने अपने पापा जी को घेर लिया था, आयुष अपने एयरपोर्ट जाने की कहानी बताने में लगा था और दोनों बाप-बेटी उसकी बात सुन रहे थे; "पापा जी, मैं है न गाडी में सबसे आगे दादा जी की गोदी में बैठा था| पीछे नाना जी, नानी जी और बड़ी दादी जी बैठे थे! सबसे पीछे मामा जी और चाचा जी बैठे थे| जब कोई गढ्ढा आता तो सबसे पीछे बैठे मामा जी और चाचा जी का सर गाडी की छत से लड़ जाता और वो अपने सर पर हाथ फेरने लगते! (हा..हा..हा..) फिर न हम एयरपोर्ट पहुँचे और मैंने है न एक हवाई जहाज को उड़ते देखा! फिर न मैंने है न सबको बताया की अंदर जाने के बाद क्या-क्या होता है, मेरी बात सुन कर नाना जी, नानी जी और बड़ी दादी जी बहुत हैरान हुए और मुझे प्यार करते हुए मुझे है न दस-दस रुपये दिए!" ये कहते हुए आयुष ने इन्हें पैसे दिए जो की इन्होने आयुष के हाथों उसकी गुल्लक में डलवा दिए| फिर तीनों बाप-बेटा-बेटी लिपट कर सो गए|

रात में खाना खा कर पिताजी ने इन्हें सख्ती से हिदायत दी की इन्हें कमरे से बिलकुल बाहर नहीं निकलना है| पिताजी के जाने के बाद आयुष हम दोनों के बीच में आकर लेट गया मगर नेहा ने उसे अपनी दादी जी के पास सोने के लिए मना लिया और अपने साथ उसे ले गई| नेहा का ये व्यवहार थोड़ा अटपटा था क्योंकि वो कभी आयुष को या खुद को अपने पापा जी के पास सोने से रोक नहीं पाती थी| नेहा के जाने के बाद जल्दी ही इनकी आँख लग गई क्योंकि सुबह आई छींकों से इन्हें काफी थकावट हो गई थी| वहीं नेहा, आयुष को अपने दादा-दादी जी के पास न ले जा कर अपने कमरे में ले गई जहाँ आज दोनों बच्चे अकेले सोये|

अगले दिन ये सुबह काफी देर से सो कर उठे, कल आई छींकों से आज इनका पूरा बदन दर्द कर रहा था| बच्चों ने भी इन्हें जगाना ठीक नहीं समझा और धीरे से इनके गाल पर अपनी सुबह की पप्पी दे कर दोनों बच्चे स्कूल चले गए| जब ये उठे तो इन्होने मुझसे बच्चों के बारे में पुछा, मैंने बताया की आप सो रहे थे इसलिए दोनों बच्चे आपको पप्पी दे कर चले गए| ये जानकार ये मुस्कुराये और हँसी-ख़ुशी नाश्ता किया| नाश्ता कर ये लैपटॉप पर फिल्म देखने लगे, मुझे पता था की एक ही कमरे में बैठे या लेटे हुए ये ऊब गए होंगें इसलिए मैंने इन्हें पुनः लिखने के लिए कहा मगर इन्होने मना कर दिया| जब मैंने कारण पुछा तो इन्होने कहा की अब मेरा मन नहीं करता लिखने को! एक कमरे में रहने से ये थोड़े से चिड़चिड़े हो गए थे इसलिए मैंने इन पर ज्यादा दबाव नहीं डाला और बात को छोड़ दिया|

स्कूल से आ कर आयुष तो इनसे लिपट गया मगर नेहा इनसे थोड़ी सी दूरी बनाये हुई थी| अपने पापा को पप्पी दे कर नेहा अपना होमवर्क ले कर अपने कमरे में घुस गई| इन्हें नेहा का व्यवहार अटपटा लग रहा था इसलिए ये नेहा के इस अटपटे व्यवहार को समझने की कोशिश कर रहे थे| शाम हुई और अंत में रात हुई, खाना खा कर आज फिर नेहा ने आयुष को हमारे साथ सोने नहीं दिया और अपने कमरे में ले गई|

जितना प्यार नेहा इनसे करती थी उतना ही प्यार ये नेहा से करते थे| न नेहा को इनके बिना नींद आती थी और न ही इन्हें नेहा के बिना आज नींद आ रही थी| करवटें बदलते-बदलते रात के 12 बज गए मगर इन्हें एक पल को नींद न आई| आखिर ये बेचैन हो कर नेहा को देखने के लिए उठे, इनके उठते ही मैं भी जाग गई| ये दबे पाँव कमरे से निकले और अभी ये बच्चों के कमरे की ओर जा ही रहे थे की इन्हें नेहा के रोने की आवाज आई| नेहा के रोने की आवाज सुन ये तेजी से बच्चों वाले कमरे में घुसे और कमरे की लाइट जलाई| रोने से खराब हुआ नेहा का चेहरा देख इन्होने दौड़ कर नेहा को अपनी गोदी में उठा लिया और उसकी पीठ को सहलाते हुए उसे चुप कराने लगे|

इतने में पीछे से मैं भी आ गई और इन्हें नेहा को अपनी छाती से लिपटाये देख सब बात समझ गई, मैंने इशारे से इन्हें हमारे कमरे में जाने को कहा तथा आयुष को गोदी ले कर मैं भी इनके पीछे-पीछे आ गई| आयुष गहरी नींद में था इसलिए मैंने उसे बिस्तर के बीचों बीच अपनी तरफ लिटा लिया| उधर ये भी नेहा को अपनी छाती से चिपटाये लेट गए, नेहा को रोना थमा तो इन्होने नेहा से पुछा; " बेटा, आप बुरा सपना देख कर डर गए थे तो मेरे पास क्यों नहीं आये?" इनके इस सवाल का जवाब न देने के लिए नेहा ने अपना चेहरा इनके कँधे पर छुपा लिया| ये जान गए की कुछ तो बात है इसलिए इन्होने बड़े प्यार से नेहा के साथ तर्क किया; "मेरा बच्चा, अपने पापा से बात छुपायेगा?" ये सुनते ही नेहा ने अपने दिल की बात कह डाली; "पापा जी...नानी जी...ने आपसे कहा...था न...की मुझे...इस तरह....रात को आपको और मम्मी को तंग....नहीं करना चाहिए!" नेहा सुबकते हुए बोली| उसकी बात सुन ये सब समझ गए, दरअसल गाँव जाने से पहले जब मेरी माँ नेहा के रोने के कारण उसे हमारे पास रात में लाईं थीं तब उन्होंने कहा था की नेहा का इस तरह हमेशा इनसे चिपटे रहने से हम दोनों पति-पत्नी को आपस में बात करने के लिए समय नहीं मिलेगा| नेहा ने उस दिन ये बात सुन ली थी तथा ये बात उसके छोटे से दिल को लग चुकी थी, तभी वो कल रात जानबूझ कर इनसे अलग अपने कमरे में सोइ थी|

"नहीं मेरा बच्चा! ऐसे नहीं सोचते! बेटा आपकी नानी जी का ये मतलब नहीं था, उन्हें आपके यूँ रात को डर जाने से चिंता हो रही थी!" इन्होने नेहा को कस कर अपने सीने से लगाते हुए कहा| नेहा जिस कदर भावुक थी, उस समय उसके लिए ये सब बातें समझना मुश्किल था इसीलिए इन्होने मेरी माँ द्वारा कही बातों को नया मोड़ दे दिया था| उधर नेहा का दिल इनकी बातों पर विश्वास करने लगा था तो इन्होने नेहा को दुलार करते हुए कहा; "अगर आप मुझसे दूर हो जाओगे तो मैं आपके बिना कैसे जीऊँगा?! आप जानते हो न मैं आपसे कितना प्यार करता हूँ, फिर आप मेरे से दूर होने की बात कैसे सोच सकते हो?" इनकी बातों से नेहा का रोना तेज हो गया और वो रोते हुए बोली; "स...सॉरी...प्....पापा जी!" इन्होने नेहा को बहुत प्यार से पुचकारा और उसे चुप कराया| "मेरा बच्चा!" इतना कह इन्होने नेहा के सर को बार-बार चूमा, तब कहीं जा कर नेहा सोइ!

अगले दिन से सब सामन्य हो गया, नेहा का इनसे लाड-प्यार बहुत बढ़ गया था| स्कूल से आते ही वो और आयुष इनसे लिपट जाते, खाना खा कर आयुष तो इनसे लिपट कर सो जाता मगर नेहा अपनी पढ़ाई में लग जाती| शाम को जब ये उठते तब नेहा आ कर इनसे लिपट जाती तथा आयुष पढ़ाई में लग जाता| उधर मेरे पास करने के लिए घर का काम होता था, खाना बनाना, कपड़े मशीन से निकाल कर सूखने डालना और माँ के पाँव में आई सूजन के कारन उनकी टाँगों की मालिश करना| इन सभी कामों के कारन मैं इन्हें कम ही समय दे पाती थी, खाना खाते समय हम साथ बैठे होते थे या फिर रात को सारा काम निपटा कर मैं इनके पास आराम से बैठती थी तथा बातें करती थी| बच्चों के स्कूल जाने के बाद ये या तो अपने फ़ोन में लगे रहते थे या फिर कोई फिल्म देखने लगते थे| जब बच्चे आते तो ये उनके साथ बिलकुल बच्चे बन कर लग जाते थे| कभी आयुष के साथ मिल कर गेम खेलने लगते तो कभी टीचर बन कर आयुष को पढ़ाने लगते| नेहा अपनी पढ़ाई खत्म कर के जब आती तो वो एकदम से छोटी सी बच्ची बन जाती और इनसे लिपट जाती| दोनों बाप-बेटी इतनी बातें करते थे मानो जन्मों-जन्म की बातें करनी हो इन्हें| वो हर एक दिन जो नेहा ने इनके बिना कटा था उसका विवरण इन्हें नेहा से सुनना होता था| परन्तु एक व्यक्ति जो अपने भावों को लिखता हो वो अचानक से लिखना बंद कर दे तो उसके भीतर कहीं न कहीं एक अकेलापन होता है, दुबारा लिखने की तड़प होती है| इनका यही अकेलापन और तड़प मैं महसूस कर रही थी और मैंने निस्चय कर लिया था की मैं इन्हें फिर से लिखने को मना कर रहूँगी क्योंकि एक वही तो जरिया था जिससे ये अपने मन की सारी बातें सभी के साथ बाँट पाते थे|

खैर इन्होने अपनी लाड़ली नेहा में अपना ध्यान लगा लिया और उसे लाड करते हुए उससे उसके सपनों के बारे में पुछा| आज जा कर नेहा ने खुल कर अपने सपनों का बखान अपने पापा के सामने किया; "जब छोटी थी तो मैं कुएँ में गिरने के या छत से गिरने के सपने देखती थी! फिर एक बार मैंने गाँव में साँप देखा और तब से कई बार मैंने सपने में साँप देखा जिससे मैं बहुत डर जाया करती थी| लेकिन फिर जब आप गाँव आये तो मुझे आपको खोने का डर लगता था, बार-बार ऐसा लगता था की आप मुझे छोड़ कर कहीं चले जाओगे! फिर वो दिन आ ही गया जब आप मुझे अकेला छोड़कर दिल्ली आ गए, आपके बिना मैं बहुत रोती थी! जब मम्मी ने मुझे कहा की अब आप कभी गाँव नहीं आओगे तो मेरा डर सच साबित हुआ और मुझसे रात में सोने मुश्किल हो गया| आपके गले लग कर सोते हुए मैं खुद को सुरक्षित महसूस करती थी मगर जब आप गाँव में नहीं थे तब मैं बस डरी-डरी रहती थी! ऐसा लगता था की मेरे देखे हुए सभी बुरे सपने सच हो जाएंगे! मैं ये बातें मम्मी को बता कर उन्हें दुखी नहीं करना चाहती थी इसलिए मैं उनसे अपना ये डर छुपाती थी| मैं आपसे नाराज़ थी मगर फिर भी कोई ऐसा दिन नहीं गया जब मैंने आपको सपने में न देखा हो| मेरे उन सपनों में आप मुझे छोड़ कर जाए रहे होते थे और मैं रोते हुए आपको रोकने के लिए दौड़ना चाहती थी मगर नींद में होने के कारण दौड़ नहीं पाती थी|

जब मैं आपसे दुबारा यहाँ मिली तो आपको खोने का डर फिर सताने लगा जिस कारण आपके मुझे छोड़ कर चले जाने के सपने फिर से आने लगे| जब आप अस्पताल में थे तो मुझे और भी बुरे सपने आने लगे, ऐसे सपने जिनमें आपको कुछ हो गया था और आप हमेशा-हमेशा के लिए मुझसे दूर चले गए थे! बस यही सब सपने देख कर मैं डर जाती हूँ और रोने लगती हूँ!" नेहा की बातें सुन हम दोनों दंग थे! नेहा अपने पापा को बहुत प्यार करती है ये तो मैं जानती थी मगर वो अपने पापा को ले कर इस तरह डरती है ये मैं नहीं जानती थी!

दरअसल, नेहा की इस हालत की ज़िम्मेदार मैं थी! जब नेहा पैदा हुई तो मुझे वो ख़ुशी नहीं हुई जो आयुष के पैदा होने पर हुई थी| इसका कारण नेहा का लड़की होना और आयुष का लड़का होना कतई नहीं था! आयुष मेरे और इनके प्यार की निशानी था, जबकि नेहा, चन्दर द्वारा मेरे साथ किये विश्वासघात का 'नतीजा' थी! उस पर लड़की पैदा होने के नाम से तो घर वालों ने मुझसे कन्नी काट ली थी, जिसका गुस्सा मैंने नेहा पर निकाला! नेहा का जो भी लालन-पालन मैंने किया वो एक मजबूरी, एक कर्तव्य समझ कर किया! कोई चाव, कोई ख़ुशी मुझे कभी हुई ही नहीं! माँ बनने का एहसास मुझे कभी हुआ ही नहीं, मैं तो बस अपने जीवन को कोसती रहती थी की आखिर क्यों मेरे साथ इतना बड़ा विश्वासघात हुआ! उन्हीं दिनों मुझे इनकी बहुत याद आती और मैं उम्मीद लगाए बैठी रहती की कब ये गाँव आएंगे तथा मेरे साथ बैठ कर इत्मीनान से बातें करेंगे!

मेरा कभी नेहा पर ध्यान नहीं होता था, वो चाहे मिटटी में खेले, चाहे धूप में लेटी हो या फिर ज़मीन पर लोट रही हो मैंने कभी उस पर ध्यान ही नहीं दिया! जब रात होती तो मैं नेहा को दूध पिला कर खुद से अलग दूसरी चारपाई पर सुलाती, क्योंकि मेरे साथ सोने से वो मुझसे लिपटती और मुझे उसे अपने इतने नज़दीक रखना अच्छा नहीं लगता था| रात-बेरात अगर नेहा कभी अपने कपड़ों में सुसु कर उठ जाती तो मैं उसे बहुत डाँटती जिससे नेहा सहम जाती तथा अधिक जोर से रोने लगती| जब नेहा बड़ी हुई तो उसे यही डरावने सपने आने लगे जैसे की सभी बच्चों को आते हैं| नेहा रोते हुए उठती और अपने सपनों के बारे में बताती की उसने सपने में देखा की वो छत से गिर गई, कभी सीढ़ी से गिर गई तो कभी कभार भूत-प्रेत देखने की बात कहती| ये सपने नेहा को प्रतिदिन परेशान करते थे और जब वो डर के मारे रात को रोती या मुझे जगाती तो मैं चिढ़ कर उसी पर चिल्ला कर उसे चुप करा देती| मेरे इस तरह डाँटने से नेहा इस कदर डर जाया करती थी की उसने मुझे रात को उठाना बंद कर दिया| अपने सपनो से डर कर वो सहमी हुई सी धीमी आवाज में रोती रहती और अपने इन सपनों को सच मानने लगी|

मैं नेहा को कहीं खेलने जाने नहीं देती थी क्योंकि अगर नेहा कहीं खो जाती तो उसे ढूँढ लाने का जतन कोई नहीं करने वाला था, मेरी इसी रोक-टोक के कारण नेहा का कोई पक्का दोस्त नहीं था| आस-पड़ोस के बच्चे कभी-कभार शाम को हमारे घर आते थे और हमारे ही आँगन में खेलते थे, तब नेहा उनके साथ खेल कर थोड़ा खुश हो लेती थी| घर में उसे प्यार करने वाला कोई नहीं था, बप्पा (बड़के दादा) या अम्मा (बड़की अम्मा) से उसे कोई प्यार नहीं मिला| नेहा अकेली ही आँगन में मिटटी से कुछ आड़े-टेढ़े खिलोने बनाती और उनसे अकेली खेलती रहती| जब कभी मैं अपने मायके जाती तो वहाँ नेहा को अपने नाना-नानी से थोड़ा बहुत प्यार मिलता था| अनिल भी उन दिनों शहर में पढ़ रहा था तो जब कभी वो घर होता नेहा को अपने मामा का थोड़ा सा प्यार मिल जाता| मुझसे तो जैसे नेहा को प्यार की उम्मीद ही नहीं थी!

जब नेहा कुछ बड़ी थी और मैं इनको मनाने के लिए दिल्ली आई थी यानी जिस दिन मैंने इनसे अपने प्यार का इज़हार किया था उसी दिन नेहा के प्रति इनका प्यार खुल कर दिखा था| मुझे बस स्टैंड छोड़ने जाते समय जिस तरह इन्होने प्यार से नेहा को गोदी में उठा कर आइस क्रीम दिलाई थी उस दृश्य को नेहा कभी नहीं भूली थी| उसी दिन से नेहा ठीक मेरी ही तरह इनके प्रति धीरे-धीरे आकर्षित होने लगी थी| जब ये गाँव आये थे, तब तो इनका प्यार नेहा पर बारिश के समान बरसने लगा था| नेहा हमेशा इनके साथ रहती, इन्हीं के साथ खाना खाती, इनके साथ खेलती और रात होने पर इनके सीने से लग कर कहानी सुनते हुए सोती| उस एक महीने में नेहा ने जो इनसे प्यार पाया, वही उसके जीवन का सबसे सुखद समय था| जितने दिन ये गाँव में थे उतने दिन नेहा का रात में डर के उठना लगभग बंद हो चूका था| नेहा तभी डर के उठती थी जब वो इनसे दूर मेरे पास सोती थी, वरना इनके गले लग कर सोने पर वो कभी नहीं डरती थी| इनके सीने से लग कर नेहा को वही तपिश मिलती थी जो मुझे मिलती है जब मैं इनके सीने से लगती हूँ|

सच में, नेहा के लिए मैं कभी एक अच्छी माँ साबित नहीं हुई और इस बात का गिला मुझे सारी उम्र रहेगा!

इधर मैं खुद को मन ही मन कोस रही थी और उधर इन्होने नेहा को छोटे बच्चों की तरह लाड-प्यार करना शुरू कर दिया; "I love you my बच्चा! मैं अपने बच्चे को इतना प्यार दूँगा की आपको कभी किसी चीज़ से डरने की जर्रूरत नहीं होगी|" इतना कह इन्होने नेहा को कस कर अपने गले लगा लिया| नेहा इनके मोह के कारण फिर से मुस्कुराने लगी थी और इनसे कस कर लिपटी हुई थी|

नेहा की बातों से आज हमें उसके डर को जानने का मौका मिला था, वो किस बात से डरती थी ये हम जान गए थे मगर उसके इस डर का कारण और निवारण होना बाकी था| नेहा के जीवन पर से अभी पूरी तरह पर्दा उठना बाकी था!

बहरहाल अगले कुछ दिन प्यार से बीत रहे थे, एक बदलाव जो इनकी दिनचर्या में आया था वो था करुणा का लगभग रोज़ फ़ोन आना| सुबह बच्चों के स्कूल जाने के बाद से ये अकेले ऊब रहे होते थे और ठीक उसी समय करुणा इन्हें फ़ोन करती थी| दोनों दोस्त मिल कर घंटों बात करते थे, एक-आध बार मैंने दोनों की बात छुपकर सुनी तो पाया की ये करुणा से मेरे और नेहा के बारे में बात कर रहे हैं| ये करुणा को बताते की कैसे हम मिले, कैसे हमें एक दूसरे से प्यार हुआ| गाँव का हर एक वाक़्या ये करुणा को सुनाते, बस वो इंटिमेट डिटेल करुणा को नहीं बताते थे| ये बातें सुन कर मुझे एक दिलासा होता था की कम से कम मैं जो सोच रही थी वो सच नहीं है, ये अब तक करुणा की तरफ नहीं फिसले थे!

अब चूँकि इन दोनों की बातें घंटों चलती थीं तो मुझे ये देखना फूटी आँख नहीं भाता था, मैं बस खामोश थी तो इसलिए की कम से कम इनका टाइम-पास हो जाता है| इधर कई बार बात करते-करते इन्हें दोपहर हो जाती थी और खाना खाने के लिए मुझे बार-बार इन्हें कहना पड़ता था; "अच्छा जी बस भी करो, पहले खाना खा लो और फिर आराम से बात करना|" मेरी बात सुन ये मुस्कुराते हुए करुणा से कहते; "अच्छा, मैं अब चलता हूँ वार्डन आ गई है! खाना खा कर कॉल करता हूँ!" अपना मज़ाक उड़ता देख मुझे खीज तो बहुत होती पर मैं कुछ कह नहीं पाती| इन्हें खाना खिला कर मैं अपनी चपलता दिखाती और इन्हें जबरदस्ती सोने को कहती| जब कभी ये सोने के लिए नहीं मानते तो मैं दोनों बच्चों को 'सीखा-पढ़ा' कर इनके पास भेज देती| नेहा और आयुष अपने प्यार से इनका मन पिघला देते और इनसे लिपट कर इन्हें सुला देते|

लेकिन इतने भर से ही ये करुणा नाम की चिपक नहीं रुकी, इसने शाम को और रविवार को हमारे घर आना शुरू कर दिया| नेहा से करुणा की अच्छी दोस्ती हो गई थी और नेहा को जब भी अपने पापा जी की तबियत के बारे में कुछ पूछना होता था तो वो सीधा करुणा को फ़ोन कर देती थी| एक बस आयुष बचा था जिससे करुणा की बात नहीं होती थी मगर जब करुणा घर आने लगी तो आयुष भी जल्दी ही करुणा से घुलने-मिलने लगा| करुणा जब भी घर आती तो कुछ न कुछ लाती थी, इनके लिए फल, माँ के लिए बिना चीनी के बिस्कुट और बच्चों के लिए चर्च वाला केक तो कभी अपने घर की बनी इडली! इन्हें और बच्चों को इडली और केक बहुत पसंद था इसलिए तीनों बाप-बेटा-बेटी बड़े चाव से खाते| करुणा की ये दखलंदाजी मुझे रास नहीं आ रही थी मगर मैं कुछ कर भी नहीं सकती थी| माँ को भी करुणा के आने से कोई आपत्ति नहीं थी वरना मैं उन्हीं से बात करती| पिताजी से कुछ कहने से डरती थी क्योंकि हो सकता था की पिताजी इन्हें डाँट दें और ये मुझसे नाराज़ हो जाएँ इसलिए जैसे-तैसे बस सहे जा रही थी!

दिन पर दिन इनकी सेहत अच्छी होने लगी थी इसलिए पिताजी ने जो इन पर कमरे से बाहर न निकलने की रोक लगाई थी वो रोक हटा दी थी| अब ये बैठक में बैठ कर टी.वी. देखने लगे थे, जब ये टी.वी देख रहे होते तो दोनों बच्चे इनसे लिपट जाते और ये फ़ट से कार्टून लगा देते| बस फिर क्या था तीनों बाप-बेटा-बेटी कभी निंजा हतोड़ी देखते, कभी छोटा भीम तो कभी बेन 10 देखने लगते| जैसे-तैसे ये अपना टाइम-पास करने में लगे रहते थे मगर मैं जानती थी की इनका मन कुछ लिखने का करता है लेकिन फिर भी ये अपना मन मार कर अपना ध्यान दूसरे कामों में लगाने की कोशिश करते रहते| कभी पिताजी के साथ बैठ कर साइट के कामों को ले कर बातचीत करने लगते तो कभी बच्चों को पढ़ाने बैठ जाते| आयुष का होमवर्क कराने में इन्हें बहुत मज़ा आता था, वहीं नेहा इनसे अपने साइंस के सवाल पूछने लगती जिसे ये बड़े चाव से नेहा को समझाते| नेहा की mathematics से इन्हें बहुत भय लगता था और ये कभी उसका mathematics का होमवर्क नहीं कराते!
lotpot.gif


इधर मैंने भी ठान ली थी की मैं इन्हें फिर से लिखने के लिए उकसाऊँगी! उन दिनों मैंने इनसे छुप कर अपनी आप बीती लिखनी शुरू की, मेरा प्लान था की मैं अपनी इस आप बीती के बारे में इन्हें तब बताऊँगी जब मैं इसे पूरा लिख लूँगी| मुझे पूरी उम्मीद थी की मेरी लेखनी पढ़ कर इनका मन बदल जाएगा और ये पुनः लिखना शुरू कर देंगे| मेरा ये गुप्-चुप काम जारी था, मैं अपने खाली समय में इनका लैपटॉप ले कर कुछ न कुछ लिखती रहती| इन्हें मुझ पर इतना विश्वास है की इन्होने मुझसे कभी भी कुछ नहीं पुछा और न ही इन्हें मुझ पर ज़रा सा भी शक हुआ|

ऐसे ही एक दिन की बात है, दोपहर को खाना खा कर मैंने दोनों बच्चों को इन्हें सुलाने भेज दिया था| माँ अपने कमरे में आराम कर रहीं थीं और मैं खाली बैठी थी| मैंने चुप-चाप इनका लैपटॉप उठाया और डाइनिंग टेबल पर बैठ कर अपनी आप बीती लिखने लगी| डाइनिंग टेबल की मुख्य कुर्सी पिताजी की थी और उस पर उनके सिवाए कोई नहीं बैठता था| उनके ठीक सामने की कुर्सी माँ की थी और उस पर भी कोई नहीं बैठता था| पिताजी के दाहिनी तरफ की कुर्सी पर इनका हक़ था और मैं उस कुर्सी पर कभी नहीं बैठती थी| मेरी कुर्सी इनके बगल वाली थी और मैं आज भी उसी कुर्सी पर बैठी अपनी आप बीती लिख रही थी| मेरी पीठ इस वक़्त हमारे कमरे के दरवाजे की तरफ थी, मुझे लगा था की ये बच्चों के साथ झप्पी डाल कर सो रहे होंगे| लेकिन असल में इनकी नींद खुल गई थी और ये मुझे ढूँढ़ते हुए कमरे से बाहर आ गए थे, मुझे पता ही नहीं चला की ये अपने हाथ पीछे बाँधे हुए ये मेरे पीछे चुप-चाप खड़े हो कर मेरी आप बीती पढ़ रहे हैं! जब इनका हाथ मेरे सर पर आया तब मैं चौंकते हुए घूमी और इन्हें अपने पीछे खड़ा पाया, नजाने ये पीछे कब से खड़े थे तथा इन्होने क्या-क्या पढ़ लिया था?! इन्हें यूँ पीछे खड़ा देख मेरी सिट्टी-पिट्टी गुल हो गई थी, ऐसा लगता था मानो इन्होने मेरी कोई बहुत बड़ी चोरी पकड़ ली हो! मुझे लगा शायद ये नाराज़ होंगें या मुझे डाटेंगे मगर ये प्यार से मुस्कुराये और मेरा होंसला बढ़ाते हुए बोले; "keep it up!" इतना कह ये टी.वी देखने लगे और इधर मेरा मुँह उतर गया था क्योंकि मेरा सरप्राइज अब फुस्स हो चूका था!

फरवरी का महीना शुरू हो चूका था तथा इनकी तबियत में बहुत सुधार हुआ था| ये हमेशा कहते की मेरी तबियत इतनी जल्दी तुम्हारे (मेरे) प्यार के कारन ठीक हुई है मगर इसका सारा श्रेय इनके जिस्म को जाता है जो अंदर से काफी मजबूत था| मैं अब भी पूरी सावधानी बरत रही थी, तबियत में सुधार होने पर ये घर से बाहर जाने की बात कहते| कभी छत पर जाने की बात करते तो कभी बाहर चौतरे पर बैठने की बात कहते मगर मैं इन्हें घर से बाहर जाने ही नहीं देती! जानती हूँ मैं इनके साथ थोड़ी जबरदस्ती कर रही थी मगर क्या करूँ, प्यार भी तो इनसे बहुत करती हूँ!

15 फरवरी को आयुष का जन्मदिन था और जैसे-जैसे वो दिन नज़दीक आ रहा था, वैसे-वैसे इन्होने आयुष के जन्मदिन की गुप्-चुप तैयारियाँ शुरू कर दी थी| थोड़ी जासूसी के बाद मुझे पता चला की जनाब आयुष का जन्मदिन बाहर मनाने के चक्कर में हैं इसलिए मैंने इन्हें बहुत समझाया की आयुष का जन्मदिन इस बार हम घर पर ही मनाते हैं मगर इन्होने मेरी एक न सुनी क्योंकि इन्होने अभी तक का सबसे जबरदस्त जन्मदिन की सारी प्लानिंग कर ली थी!

उधर स्कूल में आयुष ने जब अपने दोस्तों को जन्मदिन मनाते सुना तो वो भी इसी रंग में रंग गया और अपने जन्मदिन का राग अल्पना शुरू कर दिया| उसने हम सभी को अपने दोस्तों के जन्मदिन की कहानियाँ सुनानी शुरू कर दी, किसी बच्चे के पापा अपने बच्चे का जन्मदिन मनाने के लिए दिल्ली से बाहर ले जाते तो किसी के पापा अपने बच्चे के जन्मदिन पर सपरिवार किसी रेस्टोरेंट में ले जाते| आयुष को अभी तक ज़रा सी भी भनक थी की उसके पापा जी के दिमाग में जन्मदिन की कितनी बढ़िया प्लानिंग तैयार है!

खैर, उन्हीं दिनों आयुष के एक दोस्त का जन्मदिन पड़ा और उसने आयुष को अपने घर बुलाया, मैं तो आयुष को कहीं ले कर जाने से रही क्योंकि मुझे आती थी शर्म, न ही मैं इन्हें कहीं जाने देने वाली थी! चूँकि आयुष के दोस्त का जन्मदिन था तो माँ-पिताजी का भी जाना नामुमकिन था क्योंकि वे वहाँ किसी को जानते-पहचानते नहीं थे इसलिए वे वहाँ जा कर क्या करते| नेहा ने भी जाने से साफ़ मना कर दिया क्योंकि उसे बाहर अनजान लोगों के साथ घुलना-मिलना अच्छा नहीं लगा था, बिलकुल इनकी तरह! अब आयुष के साथ जाने वाला कोई नहीं था इसलिए आयुष थोड़ा मायूस हो गया था, तब इन्होने आयुष को अपने पास बुलाया और पिताजी से बात की| आखिर में फैसला ये हुआ की पिताजी आयुष को उसके दोस्त के घर छोड़ देंगे और पार्टी खत्म होने के बाद वो ही उसे ले आएंगे| ये सुन कर आयुष बहुत खुश हुआ, जन्मदिन था तो तोहफा खरीदना था इसलिए इन्होने आयुष को समझया की उसे क्या तोहफा खरीदना है|

अच्छे से तैयार हो कर आयुष इनके पास आया, तब इन्होने उठ कर अपना महँगा वाला परफ्यूम आयुष को थोड़ा लगाया और उससे खुसफुसाते हुए बात करने लगे| आयुष इनकी बात बड़ी ग़ौर से सुन रहा था और हाँ में सर हिला रहा था| मैं समझ गई की ज़रूर यहाँ आयुष की गर्लफ्रेंड को इम्प्रेस करने की तैयारी की जा रही है! जब आयुष पिताजी के साथ चला गया तब मैंने इनसे इस खुसर-फुसर के बारे में पुछा तो ये बोले; "भई ये हम बाप-बेटे के बीच की बात है!" इनकी बात पर मैं हँस पड़ी और इनसे बोली; "आपको क्या लगता है की अगर आप मुझे कुछ नहीं बताओगे तो मुझे कुछ पता नहीं चलेगा?!" मेरी बात सुन ये मेरा मतलब समझ गए और हँस पड़े|

रात 7 बजे जब आयुष घर आया तो वो ख़ुशी से झूम रहा था! वो दौड़ता हुआ आया और इनकी गोदी में चढ़ कर खुसफुसाते हुए अपनी गर्लफ्रेंड के साथ बिताये टाइम के बारे में बताने लगा| इतने में माँ-पिताजी भी बैठक में बैठ गए तो आयुष ने ख़ुशी-ख़ुशी सभी को पार्टी के बारे में बताया| पार्टी बहुत छोटी थी तथा वहाँ 4-5 बच्चे ही थे, बच्चों ने कंप्यूटर पर गेम खेली और केक तथा चाऊमीन खा कर सभी अपने घर लौट गए| बच्चों के लिए इतना ही बहुत था और वो सभी बहुत खुश थे|

बहरहाल, मैंने इनका कुछ ज्यादा ही ध्यान रखना शुरू कर दिया था, वहीं इनके भीतर घर से बाहर जाने की बेचैनी बढ़ने लगी थी और मैंने चाह कर भी इन्हें रोक नहीं पा रही थी| मेरा दिल मुझे बार-बार कहता की ये अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं इसलिए जब तक ये पूरी तरह स्वस्थ न हो जाएँ इन्हें घर से बाहर कदम मत रखने दे| मैंने इन्हें प्यार से बहुत समझाया मगर ये कहते की; "जान, मेरी बिमारी की वजह से बहुत खर्चा हुआ है! पहले ही हमारे दोनों प्रोजेक्ट लटके पड़े हैं और ऊपर से पिताजी ने नए काम लेना भी बंद कर दिया है| वो अकेले सब काम नहीं सँभाल सकते इसलिए प्लीज मुझे काम सँभालने दो!" इनकी बात सही थी मगर मेरा दिल तो बेचैन हुए जा रहा था! हारकर मैंने माँ-पिताजी से बात की, माँ-पिताजी ने भी इन्हें बहुत समझाया मगर जनाब अपनी जिद्द पर अड़े रहे| आखिर पिताजी ने इन्हें काम सँभालने की इजाजत दे दी मगर उन्होंने अपनी एक शर्त साफ़ कर दी की इन्हें सुबह 11 बजे से शाम 4 बजे तक ही काम करने की अनुमति दी जायेगी! कोई ओवरटाइम, कोई भागदौड़ ये नहीं करेंगे, बस एक ही साइट का काम देखेंगे! पिताजी की शर्त इन्हें नामंजूर थी इसलिए काफी बहस बाजी करने के बाद इन्होने आखिरकर हमारे आगे हार मान ही ली!

रात में खाना खा कर सोने का समय आया तो नेहा इनकी छाती पर सर रख कर लेट गई, उसे इन्होने बड़ी मुश्किल से कल अपने काम पर जाने के लिए मनाया था| आयुष हम दोनों के बीच में लेटा था और इनकी तरफ करवट कर के लेटे हुए कहानी का इंतज़ार कर रहा था| इन्होने शेर, चीते और भालू की कहानी बना कर बच्चों को सुनाई और उन्हें सुला दिया| बच्चों के सोने के बाद ये मुझसे थोड़ा मायूस होते हुए बोले; "कभी-कभी मैं सोचता हूँ की मुझसे शादी कर के तुम्हें क्या मिला? मेरी BP की समस्या, साइनस की समस्या, मेरा कोमा में जाना, बीमार हो कर यूँ बिस्तर पर पड़ना! हुँह, पहले ही तुम इतना सब सह चुकी हो और ऊपर से तुम्हें मेरी ये बीमारियाँ झेलते हुए मेरी तीमारदारी करनी पड़ती है..." ये आगे और भी कुछ कहना चाह रहे थे मगर इन्होने खुद को रोक लिया| दरअसल ये उस भयानक हादसे (चन्दर का घर में घुस आने) का ज़िक्र करने वाले थे|

इधर मुझे इनकी ये हताशा भरी बातों से गुस्सा आ गया था और मैं इन्हीं के अंदाज में आवाज सख्त करते हुए बोली; "HEY!!!! आप मानोगे नहीं न?" मेरा गुस्सा देख डरने की बजाए ये मुस्कुराने लगे, लेकिन मैं नरम नहीं पड़ी और अपनी बात बोलने लगी; "शादी से पहले ही आपने मुझे आपकी इन बीमारियों के बारे में बताया था न? मुझे अँधेरे में रख कर तो मुझसे शादी नहीं की?! फिर ये बीमारियाँ आप ने खुद तो नहीं लगाई, आपकी BP की समस्या अनुवांशिक है| माँ-पिताजी को ये बिमारी थी इसीलिए ये बिमारी आपको हुई, तो भला इसमें आपकी गलती क्या हुई? रही आपके साइनस की समस्या तो वो मेरे कारण शुरू हुई थी, न मैं आपको खुद से दूर करती न आपको ये समस्या होती, तो इसकी कसूरवार तो मैं हूँ!

आप कहते हो की आप से शादी कर के मुझे क्या मिला, जबकि असल सवाल तो ये है की आपको मुझसे शादी कर के क्या मिला? लेकिन आपको इस सवाल पर मुझसे कुछ नहीं सुनना न?" मेरी आक्रोश भरी बातें सुन इनके पास दलील देने का कोई मौका नहीं था इसलिए इन्होने बात खत्म करते हुए मुझे; "सॉरी जान" कहा| इनका सॉरी सुन मेरा गुस्सा काफूर हो गया और मैं इनके होठों पर एक छोटी सी पप्पी दे कर आयुष संग इनको झप्पी डाल कर सो गई|

अगली सुबह बच्चे स्कूल के लिए तैयार हो कर निकले, उनके जाते ही ये भी नहा धो कर साइट पर जाने के लिए तैयार हुए| फिर मैंने इन्हें छोटे बच्चे की तरह अच्छे से नाश्ता कराया तथा इन्हें बच्चों की तरह हिदायतें देते हुए बोली; "सबसे पहले, साइट पर पहुँच कर मुझे फ़ोन करना| कोई भी स्ट्रेस वाला काम आपको नहीं करना है! कोई भागदौड़ नहीं करनी है, चुपचाप एक जगह बैठ कर काम देखना! लेबर या सप्लायर से कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं करना, सब से आराम से और प्यार से बात करनी है! ज़रा सी भी तबियत खराब लगे तो मुझे तुरंत फ़ोन करना, मैं तुरंत दिषु भैया को आपको लेने के लिए भेज दूँगी| गाडी आराम से चलाना और तबियत खराब लगे तो बिलकुल ड्राइव नहीं करना! मैंने कुछ ड्राई फ्रूट पैक किये हैं इन्हें खाना और बहार से कुछ मत खाना! दोपहर को खाना-खाने घर आना, साइट से निकलते हुए मुझे फ़ोन करना! मैं हर एक घंटे में फ़ोन करुँगी इसलिए मेरे सारे कॉल उठाना वरना मुझे यहाँ आपकी चिंता लगी रहेगी!" मेरी दी गई सभी हिदायतें इन्होने मुस्कुराते हुए सुनी तथा एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह सर हिला कर मानी भी|

अब समय था इनके जाने का, मेरा मन इनको जाने देने के लिए नहीं मान रहा था लेकिन क्या करूँ?! ये और पिताजी एक साथ निकले, पिताजी को नॉएडा वाली साइट पर छोड़ कर ये गुड़गाँव वाली साइट पर पहुँचे| मुझे इनकी तबियत की बहुत चिंता थी इसलिए मैं इन्हें हर एक घंटे में फ़ोन करती तथा इनका हाल-चाल पूछती| सच कहूँ तो इनके घर से बाहर जाने पर मेरी जान निकली जा रही थी!

दोपहर एक बजे मैंने इन्हें फ़ोन किया ताकि ये पूछ सकूँ की ये कहाँ हैं और खाने के लिए कब तक आ रहे हैं? लेकिन फ़ोन बजता रहा, परन्तु इन्होने फ़ोन नहीं उठाया! मैंने दुबारा कॉल मिलाया मगर ये फिर भी कॉल नहीं उठा रहे थे! इनके यूँ फ़ोन न उठाने से मुझे चिंता हो रही थी, माँ मेरी ये चिंता न देख लें इसलिए मैं अपने कमरे में आ गई और दरवाजे की ओर पीठ किये हुए तीसरी बार इन्हें फ़ोन मिलाया| इस बार मुझे इनके फ़ोन घंटी अपने पीछे बजते हुए सुनाई दी, मैं पीछे पलटती उससे पहले ही इन्होने एकदम से मुझे अपनी बाहों में जकड़ लिया तथा मेरे कान में खुसफुसाते हुए बोले; "सरप्राइज मेरी जान!" इनकी आवाज और जिस्म के स्पर्श से मेरी जान में जान आई! परन्तु फिर भी मैं इनके फ़ोन न उठाने से थोड़ा नाराज़ होते हुए बोली; "फ़ोन क्यों नहीं उठाया आपने? जानते हो मेरी जान निकल गई थी! जाओ, मैं आपसे बात नहीं करती!" मैंने अपना झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा|

"जान, ऐसा न कहो वरना अबकी जान मेरी निकल जायेगी!" इन्होने ठंडी आह भरते हुए कहा| इनकी बात सुन मैं घबरा गई, इनसे जुदा होने की कल्पना भी मेरे लिए असहनीय थी| मैं एकदम से पलट कर इनके सीने से कस कर लिपट गई| हमारा ये मिलन बहुत छोटा था क्योंकि अचानक से माँ कमरे में आ गईं थीं, माँ को देखते ही मैं छिटक कर इनसे अलग हो गई| माँ ने हमारा ये प्रेम मिलन देख लिया था तभी उनके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान थी, माँ ने बताया की वो बच्चों को लेने कमला एंटी जी के साथ जा रहीं हैं तथा उन्हें और बच्चों को आने में थोड़ा समय लगेगा क्योंकि उन्हें कमला आंटी जी के साथ टेलर के जाना था| माँ चली गईं और इधर मैं इनसे अलग तो हो गई थी मगर उन चंद पलों में इनके जिस्म की तपिश ने मुझे जला कर राख कर दिया था| मुझे इनके प्यार की सख्त जर्रूरत थी इसलिए मेरे लिए खुद पर काबू रख पाना मुश्किल हो रहा था| अगर माँ उस समय नहीं आती तो मैं इन्हें कब का पलंग पर धकेल कर इनसे प्यार कर रही होती!

खाना लगभग तैयार था, बस मुझे छौंका मारना था और रोटियाँ बेलनी थीं| मैंने खुद को खाना बनाने में व्यस्त कर लिया क्योंकि इनके सामने मुझसे खुद पर काबू नहीं रखा जा रहा था| खाना बनाते समय भी मेरे जिस्म में जली प्रेम की आग ठंडी नहीं हुई, उसे तो बस इनका साथ ही बुझा सकता था| खाना बना कर मैं तुरंत बाथरूम में नहाने घुस गई, सोचा की गर्म पानी से नहाऊँगी तो शायद मेरे दिल को कुछ चैन मिले मगर जब नल खोला तो उसमें से बर्फ सा ठंडा पानी निकला क्योंकि मैं गीजर चलाना भूल गई थी! मुझ में इतना सबर नहीं था की मैं पानी के गर्म होने का इंतज़ार करूँ, फिर एक तरह से ये ठंडा पानी मुझे अच्छा ही लग रहा था क्योंकि ये ठंडा पानी मेरे जिस्म की आग को अच्छे से बुझा सकता था! जब तक बाल्टी भरी मैंने अपने भीतर उठे प्यार की ललक को शांत करना शुरू कर दिया| आज पता नहीं क्यों मेरा जिस्म मुझे प्यार पाने के लिए बार-बार उकसा रहा था, लेकिन इनकी तबियत पूरी तरह से स्वस्थ न होने के कारण ही मैं खुद को शांत करने में लगी थी तथा इनसे दूरी बना रही थी| मेरा दिल जानता था की मेरी ही तरह ये भी मेरे प्यार के लिए बहुत प्यासे हैं, इन्हें भी मेरे प्यार की उतनी ही आवश्यकता है जितना मुझे है लेकिन मैं ये बात इनके सामने ज़ाहिर नहीं करना चाहती थी|

पानी की बाल्टी भरते ही मैंने खुद पर तेजी से पानी डालना शुरू किया ताकि अपने भीतर जल रही कामाग्नि को जल्दी से बुझा सकूँ| लेकिन इस ठंडे पानी का मेरे भट्टी से गर्म जिस्म पर कोई असर ही नहीं हो रहा था, अब सिवाए इसके मेरे पास कोई उपाए भी नहीं था तो मैंने अगले आधे घंटे तक खुद पर ठंडा पानी डाल-डाल कर खुद को बड़ी मुश्किल से शांत किया| अपना बदन पोंछ कर जब मैं बाथरूम से निकली तो ये अपने लैपटॉप पर कुछ काम कर रहे थे, मेरे बाहर आते ही ये उठे और बाथरूम में घुस गए| मैंने अब तक कपड़े बदल लिए थे तथा मैं बाहर जाने के लिए तैयार थी की तभी ये बाथरूम से बाहर निकले और मुझे डाँट लगाई; "ठंडे पानी से क्यों नहाई? बीमार होना है?" इनकी डाँट सुन मुझे ऐसा लगा मानो इन्होने मेरी कोई चोरी पकड़ ली हो इसलिए बचने के लिए मैं इनके सवाल का जवाब सोचने लगी| अब मेरा दिमाग इनकी तरह तेज़ तो चलता नहीं की मैं झट से कोई बहाना मार दूँ इसलिए मैंने बड़ा ही बेकार सा झूठ बोलते हुए कहा; "वो...वो जल्दी-जल्दी में गीजर चलाना भूल गई थी!" मेरा झूठ इन्होने तुरंत पकड़ लिया और मुझे टोकते हुए बोले; "ऐसी भी क्या जल्दी थी की गीजर चलाना भूल गई? खाना बन चूका है, माँ-पिताजी और बच्चे के भी घर आने में समय है!" इनके पूछे सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था इसलिए मैं सर झुकाये खड़ी हो गई| मुझे यूँ सर झुकाये देख ये मेरे दिल का हाल समझ गए, मेरे भीतर मौजूद प्यास को समझ ये मेरे नज़दीक आये और मेरी ठुड्डी पकड़ कर अपने चेहरे की ओर उठाई| मेरी नजरें इनकी नजरों से मिली और मेरी आँखों में प्यार पाने की खुमारी देख ये मुस्कुराते हुए बोले; "मन कर रहा था न?" भले ही इन्होने बात थोड़ी घुमा कर कही थी मगर मैं इनका सारा मतलब समझ गई और मेरे गाल लाज के मारे लाल हो गए! मेरे भावों को पढ़ ये मुझे प्यार से समझाते हुए बोले; "जान, इस तरह ठंडे पानी से नहाओगी तो बीमार पड़ जाओगी|" इनकी बात सुन मेरे अंदर हिम्मत नहीं थी की मैं अधिक देर तक इनसे नजरें मिला कर खड़ी रह सकूँ इसलिए मैंने अपनी नजरें झुकाईं और इनके सीने से लिपट गई| प्रेम की जिस आग को मैंने इतनी मुश्किल से बुझाया था उसे मैंने इनके सीने से लिपट कर फिर भड़का दिया था| मेरा दिल कामाग्नि में जलते हुए तेजी से धड़क रहा था! मैं इस वक़्त बड़ी ही अजीब सी हालत में फँस गई थी, मुझे इनका प्यार भी चाहिए था और ये भी डर लग रहा था की कहीं मेरे इस निजी स्वार्थ को पूरा करते कहीं ये कमजोरी आने से बीमार न पड़ जाएँ क्योंकि इनका जिस्म इतनी मेहनत करने के लिए अब भी पूरी तरह स्वस्थ नहीं था|

इधर मेरा जिस्म मेरा साथ नहीं दे रहा था, मेरी टाँगें काँपने लगी थीं और ऐसा लग रहा था जैसे मैं अभी लड़खड़ा जाऊँगी! इन्होने मेरे दिल को पढ़ लिया था इसलिए बहुत धीरे से खुसफुसाते हुए बोले; "मेरे होते हुए मेरी बीवी ठंडे पानी से नहीं नहाएगी!" इतना कह इन्होने मुझे खुद से दूर किया और कमरे का दरवाजा बंद किया, चूँकि घर में कोई नहीं था तो हमारे पास अच्छा मौका था! दरवाजा बंद कर के ये मेरे पास आये और मुझे एकदम से गोद में उठा लिया तथा मुझे सीधा बिस्तर पर ला कर लिटा दिया| मेरे लिए ये सभी आकस्मिक था, फिर इन्होने रज़ाई खोल दी और हमारे ऊपर ओढ़ ली| मुझे पता था की अब क्या होने वाला है इसलिए मैंने इन्हें रोकना चाहा; "जानू, अभी आप पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो और ऐसे में मेरी वजह से आपको..." इतना कह मैं चुप हो गई| मेरी बात सुन ये मुस्कुराये और बड़े ही आत्मविश्वास से बोले; "मुझे कुछ नहीं होगा!" इनकी बात सुन मेरा दिल खुश हो गया, क्योंकि मैं भी नहीं चाहती थी की आज ये रुकें!

मैं जानती थी की हमारे पास समय कम है क्योंकि माँ-पिताजी और बच्चे किसी भी वक़्त आ सकते थे इसलिए हमें इन चंद लम्हों में ही अपना समागम पूरा करना था| चूँकि मैं इतने दिनों की प्यासी थी तो इनके बदन के सम्पर्क में आते ही मेरी काम ज्वाला धधक उठी और मेरे ऊपर वहशीपना सवार हो गया| अपने इसी वहशीपने में आ कर मैंने अपने नाखूनों से इनकी पीठ को कुरेदना शुरू कर दिया! इसी वहशीपने में डूब कर मैं जल्द ही अपनी मंजिल के नजदीक पहुँच गई और उस समय मेरी उत्तेजना इस कदर बढ़ गई की मैंने इनकी गर्दन से ले कर इनकी छाती पर जगह-जगह काटना शुरू कर दिया! मैंने आज इन्हें इस कदर काट-खाया था की गर्दन से ले कर इनकी छाती लाल हो गई थी तथा मेरे दाँतों के निशान इनके गोरे बदन पर उभर आये थे! उस समय न तो मुझे कुछ होश था और न ही इन्होने कोई ऐतराज जताते हुए कोई प्रतिक्रिया दी!

समागम पूर्ण होने पर जब मैंने इनके बदन को देखा तो मुझे मेरी करनी का एहसास हुआ और अपने बनाये उन वहशियाने निशानों को देख मुझे खुद पर कोफ़्त होने लगी! 'ये क्या जंगलीपना सवार हो गया था मुझ पर जो मैंने अपने ही प्यार को इस कदर नोच खाया?' मैं मन ही मन सोचने लगी| मन में आये इस ख्याल के कारन मुझ में अब इनसे नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी| अपनी देह की ठंडक प्राप्त करने के लिए मैंने आज इनके साथ बहुत ज्यादती की थी इस कारण मुझे खुद से नफरत होने लगी थी! मैं मौन इनसे नजरें चुराए चुप चाप लेटी थी, उधर ये अपनी साँसों को काबू में कर रहे थे| मुझे जब इन्होने खामोश देखा तो ये थोड़ा चिंतित होते हुए बोले; "Heyyy! क्या हुआ जान?" इनके पूछे सवाल के जवाब में मैंने बस न में गर्दन हिलाई और दुबारा नहाने के लिए बाथरूम में घुस गई| जब मैंने बाल्टी भरने के लिए नल खोला तो उसमें से गर्म पानी आने लगा, गर्म पानी महसूस कर मैं मन ही मन बड़बड़ाई; 'इन्हें मेरी हालत के बारे में सब पहले से ही पता था इसलिए इन्होने मेरी इच्छा पूरी करने की तैयारी पहले ही कर ली थी तथा मेरे नहाने के लिए गीजर भी पहले ही चला दिया था!' इन शब्दों को बड़बड़ाने से मेरे चेहरे पर मुस्कान छलक आई थी, पर फिर अगले ही पल मुझे अपने वहशीपने पर ग्लानि होने लगी!

बहरहाल, नहा कर मैं बाहर आई और अपने बाल सूखा रही थी की मुझे यूँ बाल पोंछते देख ये मुस्कुराने लगे| इनकी ये मुस्कान हर पल कामुक होती जा रही थी और मैं इनकी मुस्कान पर मोहित होने लगी थी| तभी ये उठे और मेरे नज़दीक आये, इनके नज़दीक आने से मेरी नज़र इनके जिस्म पर मेरे द्वारा बनाये घावों पर पड़ी और मैं शर्म से पानी-पानी हो गई! मैंने इन्हें देखा तो ये ऐसे बर्ताव कर रहे थे मानो इन्हें कुछ हुआ ही नहीं, ये तो बिलकुल सामान्य थे और मुस्कुरा रहे थे| मेरे सर को चूम ये फ्रेश होने बाथरूम चले गए, मैंने फटाफट कपड़े पहने और मैं रसोई में आ गई| बच्चे और माँ-पिताजी दो मिनट बाद घर आ गए, हमने साथ बैठ कर खाना खाया| खाना खाने के दौरान मैंने खुद को बड़ी मुश्किल से सहेज कर रखा था क्योंकि इनकी बगल में बैठने से मुझे फिर से ग्लानि होने लगी थी!

अब मुझे एक भय और भी लगने लगा था की कहीं मेरे साथ की गई इनकी मेहनत से इनकी तबियत खराब न हो जाए! अपने इसी डर के चलते मैंने आज फिर बच्चों का सहारा ले कर इन्हें सुलाने की सोची मगर बच्चों के पेपर नजदीक थे, साथ ही आयुष का जन्मदिन भी नजदीक आ गया था| आयुष के जन्मदिन के लिए इन्होने जो प्लानिंग की थी वो मुझे नहीं पता थी मगर इतना ज़रूर जानती थी की जो भी होगा कुछ बड़ा होगा और उस दिन आयुष ज़रा भी पढ़ाई नहीं करने वाला इसलिए आयुष को अभी से पढ़ाने की सारी ज़िम्मेदारी मैंने नेहा को दे दी|

बच्चों को पढ़ाई के लिए भेज मुझे ही इनके पास जाना था, कोई और दिन होता तो मैं ख़ुशी-ख़ुशी चली जाती तथा इनसे लिपट कर सो जाती मगर आज मुझे अपनी करनी पर ग्लानि हो रही थी इसलिए ही मैं इनके सामने जाने से कतरा रही थी! पिताजी साइट पर जा चुके थे और माँ बैठक में बैठीं CID देखने में व्यस्त थीं| इधर मैं कमरे में आ कर दिवार का सहारा ले कर पलंग पर बैठी थी की तभी इन्होने मेरी गोद में अपना सर रख दिया तथा चैन से सो गए| इन्हें सोते हुए देख मैं अपनी सोच में डूब गई थी, मुझे समझ नहीं आ रहा था की आज मुझे क्या हो गया था? क्यों मैं इस कदर जंगली हो गई थी, क्या मेरी उत्तेजना बहुत बढ़ चुकी है? क्या मैं अत्यधिक कामुक हो चुकी हूँ? यही सवाल मेरे दिमाग में गूँज रहे थे जिस कारन मुझे शर्म और ग्लानि का मिला-जुला आभास हो रहा था| इस आभास ने मुझे ये प्रण लेने पर मजबूर कर दिया की मैं आज के बाद फिर कभी ऐसा वहशीपना नहीं करुँगी तथा अपनी कामुकता को अपने काबू में रखूँगी!

शाम को जब ये उठे तो इनके चेहरे पर मुस्कान झलक रही थी, मुझे लगा की ये अभी मेरे वहशीपने को ले कर कुछ कहेंगे मगर इन्होने मुझे कुछ नहीं कहा| जब कभी इन्हें अकेले में मौका मिलता तो ये आ कर मेरी कमर थाम लेते और मेरे बदन से पीछे से चिपकते हुए मेरी गर्दन को चूम लेते! कभी मेरे साथ हँसी-ठिठोली करते तो कभी मुझे गुदगुदी करने लगते! मैं भी प्यार से इनकी हँसी-ठिठोली का जवाब देती लेकिन दुबारा इन्हें प्यार करने के लिए मुझ में हिम्मत नहीं बची थी| इनके बदन के स्पर्श से मुझे आज दोपहर में मेरे द्वारा की गई वहशियाना हरकत याद आती और बार-बार ये डर सताता की कहीं उस प्रेम-मिलाप के दौरान इनकी तबियत खराब हो जाती तो मैं क्या करती? बस इसी डर के कारन मैं खुद को इनके जिस्म से मिले ताप से पिघलने से रोकती रहती और बातें घुमाते हुए इनका ध्यान भटकाती रहती|

इसी तरह कुछ दिन बीते थे की आयुष के जन्मदिन में दो दिन रह गए, इन्होने जन्मदिन की सारी तैयारियाँ कर ली थीं| आज सुबह से ये फ़ोन पर व्यस्त थे तथा मुझे कमरे से बाहर रहने को कह दोपहर होने तक नजाने इन्होने कितने ही फ़ोन खनका दिए! जब मैं इन्हें खाना खाने के लिए कहने को आई तब मैंने सुना की ये करुणा से बात कर रहे हैं तथा उसे कुछ समझा रहे हैं| चूँकि कमरे का दरवाजा बंद था और ये दूर खिड़की के पास खड़े हो कर बात कर रहे थे इसलिए मैं इनकी कोई भी बात सुन नहीं पाई|

कुल मिला कर कहूँ तो इन्होने सारी तैयारी कर ली थी और आज ये उसके बारे में मुझे तथा माँ-पिताजी को बताने वाले थे|

[color=rgb(251,]जारी रहेगा भाग - 5 में...[/color]
 

[color=rgb(255,]सत्ताईसवाँ अध्याय: विपरीत - प्यार और जलन![/color]
[color=rgb(71,]भाग - 5[/color]


[color=rgb(51,]अब तक आपने पढ़ा:[/color]

इसी तरह कुछ दिन बीते थे की आयुष के जन्मदिन में दो दिन रह गए, इन्होने जन्मदिन की सारी तैयारियाँ कर ली थीं| आज सुबह से ये फ़ोन पर व्यस्त थे तथा मुझे कमरे से बाहर रहने को कह दोपहर होने तक नजाने इन्होने कितने ही फ़ोन खनका दिए! जब मैं इन्हें खाना खाने के लिए कहने को आई तब मैंने सुना की ये करुणा से बात कर रहे हैं तथा उसे कुछ समझा रहे हैं| चूँकि कमरे का दरवाजा बंद था और ये दूर खिड़की के पास खड़े हो कर बात कर रहे थे इसलिए मैं इनकी कोई भी बात सुन नहीं पाई|

कुल मिला कर कहूँ तो इन्होने सारी तैयारी कर ली थी और आज ये उसके बारे में मुझे तथा माँ-पिताजी को बताने वाले थे|

[color=rgb(44,]अब आगे:[/color]

खाना
खा कर इन्होने दोनों बच्चों को पढने के लिए उनके कमरे में भेजते हुए कहा; "बेटा, आप दोनों जा कर अपनी पढ़ाई करो हम सब बड़ों को यहाँ कुछ जरूरी बात करनी है|" बच्चों ने इनकी बात को गंभीरता से लिया और दोनों अपने कमरे में दरवाजा बंद कर के पढ़ने लगे| इधर इन्होने आवाज धीमी करते हुए हम सभी को अपना आधा प्लान बताया; "पिताजी, आयुष के जन्मदिन वाले दिन हम सब amusement park जाएँगे|" इन्होने amusement park का नाम लिया तो मैं और माँ-पिताजी मुँह बाये इन्हें देखने लगे क्योंकि हमें amusement park का मतलब नहीं पता था| "याद है पिताजी जब मैं छोटा था तब आप मुझे एक बार अप्पू घर ले गए थे? Amusement park ऐसी ही जगह को कहते हैं जहाँ बबच्चों के लिए बहुत सारे झूले होते हैं|" अब जा कर हमें इस शब्द का मतलब पता चला था, लेकिन इन्होने होशियारी करते हुए अभी तक उस जगह का नाम नहीं बताया था जहाँ ये हमें ले जाने वाले थे|

खैर, इनके प्लान को सुन कर माँ-पिताजी और मैंने इन्हें बहुत समझाने की कोशिश की; "बेटा, तू अभी पूरी तरह तंदुरुस्त नहीं हुआ है! तेरी ये मस्ती कहीं आगे तुझे और बीमार न कर दे!" पिताजी चिंतित होते हुए बोले| "हाँ बेटा, पहले पूरी तरह ठीक हो जा, फिर तुम सब कहीं बाहर घूम आना|" माँ इन्हें प्यार से समझाते हुए बोलीं| "माँ और पिताजी ठीक कह रहे हैं, आपके लिए इतना शारीरिक तनाव ठीक नहीं है! आप और बीमार पड़ सकते हो, बेहतर होगा की इस बार हम आयुष का जन्मदिन घर पर मनाएँ|" मैंने भी इन्हें समझना चाहा मगर इनका उत्साह हमारी बातें सुनने नहीं दे रहा था, इन्होने हमारे साथ तर्क करते हुए जिद्द पकड़ ली; "पिताजी, मेरे बेटे का ये पहला जन्मदिन है जो मैं उसके साथ जी भर कर मनाना चाहता हूँ! रही मेरी तबियत की बात तो मैं कोई ढिलाई नहीं बरतूँगा, अगर ज़रा सी भी थकावट लगी तो हम वापस आ जायेंगे|" इनकी जिद्द के आगे किसकी चली है जो हमारी चलती, हार कर माँ-पिताजी मान ही गए मगर उन्होंने अपनी एक बात स्पष्ट कर दी; "बेटा, तुम सब ही जाना, हम बूढा-बूढी को यहीं रहने देना क्योंकि हमारे बस की बात नहीं उन झूलों में बैठने की!" पिताजी ने अपने और माँ के न जाने का कारण प्रस्तुत किया जिसे इन्होने फ़ट से मान लिया| इनके फ़ट से पिताजी की बात मानने का कारण क्या था ये मुझे बाद में पता चला|

रात के समय खाना खाने के बाद इन्होने माँ-पिताजी से अकेले में कुछ बात की जिसका मुझे कुछ भी पता नहीं था| इन्होने माँ-पिताजी को अपने बाकी के आधे प्लान से अवगत करा दिया था जिससे वे बहुत प्रसन्न थे| उधर बच्चों को जरा सी भी भनक नहीं थी की उनके पापा जी ने क्या प्लानिंग की हुई है, वो तो हमेशा की तरह अपने पापा से प्यार और लाड करने में व्यस्त थे| बच्चों के एग्जाम 18 तरीक से थे और यही करना था की इन्होने इतनी बड़ी प्लानिंग की थी, कहीं उनके एग्जाम पहले होते तो ये इतनी प्लानिंग नहीं करते|

अगला दिन शांति से बीता, इन्होने अपना बहुत ख़ास ध्यान रखा था ताकि ये कहीं बीमार न पड़ जाएँ| रात को खाना खा कर दोनों बच्चे अपने कमरे में सोये थे क्योंकि नेहा अपनी पढ़ाई के प्रति कुछ ज्यादा ही संजीदा थी इसलिए वो रात 10 बजे तक पढ़ती थी| जैसे ही रात के बारह बजे इन्होने मुझे और माँ-पिताजी को अपने साथ लिया तथा बच्चों के कमरे में प्रवेश किया| नेहा और आयुष दोनों चैन की नींद सो रहे थे, ये आयुष के सिरहाने पहुँचे और उसके सर को चूमते हुए उसके बालों में हाथ फिरा उसे जगाने लगे| परन्तु आयुष को आई थी जम कर नींद इसलिए वो नहीं उठा, इन्होने आयुष को गोदी में उठाया और उसके कान में धीरे से बोले; "happy birthday बेटा!" इनकी आवाज सुन आयुष कुनमुनाया मगर उसकी नींद अब भी नहीं खुली, बल्कि उसने इनके जिस्म का एहसास पा कर अपनी दोनों बाहें इनके गले में डालकर इनसे लिपट गया| मैंने आगे बढ़कर आयुष के सर पर हाथ फेर उसे जगाने की कोशिश करते हुए कहा; "happy birthday आयुष!" परन्तु नींद के कारन आयुष अब भी कुनमुना रहा था|

मैंने जब इनकी तरफ देखा तो अपने बच्चों को नींद से जगाने की इनकी बेबसी साफ़ नजर आई| इनकी आयुष को नींद से जगाने की बिलकुल इच्छा नहीं थी मगर आयुष के जागे बिना ये आयुष को जन्मदिन की बधाई तथा लाड-प्यार कैसे करते और इनकी सारी तैयारियाँ खराब हो जातीं! "कोई बात नहीं जी, आज आयुष का जन्मदिन है और आपने इतनी तैयारी जो की है उसके लिए?!" मैंने इनका मनोबल बढ़ाते हुए कहा| तब इन्होने आयुष के कान में कुछ खुसफुसाया जिसे सुन आयुष एकदम से जाग गया और चिल्लाते हुए बोला; "thank you पापा जी!" आयुष की नींद एकदम से काफूर हो गई थी और उसका चेहरा ख़ुशी के मारे दमकने लगा था| आयुष इनकी गोदी से उतरा और सबसे पहले अपने दादा-दादी जी के पाँव छुए तथा उनका आशीर्वाद लिया| पिताजी और माँ ने आयुष को बारी-बारी से गोदी लिया और उसे खूब लाड-प्यार किया| फिर आयुष मेरे पास आया और मेरे पाँव छू कर आशीर्वाद लिया, मैंने आयुष को गोदी में उठाया और उसके दोनों गाल चूम उसे जन्मदिन की बधाई दी| अंत में आयुष इनके पास पहुँचा और इनके पाँव छुए, इन्होने फ़ौरन आयुष को गोदी में उठाया और उसे चूमते हुए ये भावुक हो गए| आज इतने सालों बाद इन्हें अपने बेटे को गोद में ले कर उसे जन्मदिन की बधाई देने का मौका मिला था, जिस कारण इनका दिल पिघल गया था| आयुष ने इनके दोनों गाल चूमते हुए इन्हें रोने नहीं दिया और कस कर इनके गले लग गया| नेहा कमरे में शोर सुन कर उठ चुकी थी और हम सभी को आयुष को इस तरह लाड करते हुए देख थोड़ी हैरान थी, लेकिन जब उसे पता चला की हम बस आयुष को उसके जन्मदिन की बधाई दे रहे हैं तो वो भी खुश हो गई और अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगी| आयुष ने जब नेहा को देखा तो वो इनकी गोद से उतरा और नेहा के पास पहुँचा; "happy birthday आयुष!" नेहा खुश होते हुए बोली| अब हैरानी की बात ये थी की आयुष ने नेहा के पाँव छुए! ये दृश्य देख कर हम सभी हैरान थे क्योंकि आयुष ने आज से पहले बस एक बार ही नेहा के पैर छुए थे वो भी भाई-दूज वाले दिन| आयुष का ये बालपन देख हम हँस पड़े क्योंकि वो इस समय बहुत क्यूट लग रहा था| हमेशा अपनी बहन को तंग करने वाला आयुष आज बहुत संस्कारी हो गया था, अब ये कहने की जर्रूरत तो नहीं की ये इनके सिखाये संस्कारों का ही असर था क्योंकि मैंने आयुष को ये संस्कार नहीं दिए थे| हाँ, मैंने आयुष को अपने से बड़ों का आदर करना सिखाया था मगर नेहा के पाँव छूने के संस्कार उसने अपने पापा जी से ही सीखे थे|

खैर, मेरे मन में उत्सुकता इस बात की थी की amusement park होता कैसा है तथा ये हमें सरप्राइज देने के लिए कौन सी जगह ले जाने वाले हैं| परन्तु हमेशा की तरह इन्होने सब कुछ गोपनीय रखा था और किसी को कुछ नहीं बताया था| "आयुष बेटा, अब आप सो जाओ और सुबह 10 बजे तक मम्मी जो कपड़े दें उन्हें पहनकर तैयार हो जाना|" इन्होने आयुष को प्यार से कहा| इनकी बात सुन आयुष उमंग से भर उठा वहीं नेहा के चेहरे पर सवाल थे, उसे लग रहा था की कल उसे स्कूल जाना है और इधर उसके पापा सुबह 10 बजे तैयार होने के लिए कह रहे थे? "पापा जी, हम कहाँ जा रहे हैं?" नेहा ने इनसे अपना सवाल पुछा मगर मेरा अति उत्साही बेटा बीच में बोल पड़ा; "दीदी, कल पापा जी हमें घुम्मी कराने ले जा रहे हैं!" आयुष ख़ुशी से चहकते हुए बोला| आयुष की बात सुन मुझे समझ आया की इन्होने आखिर आयुष के कान में क्या खुसफुसाया था| उधर आयुष की बात सुन नेहा भी खुश हो गई थी, उसकी ख़ुशी इसलिए ज्यादा थी की कल उसे सारा दिन अपने पापा जी के साथ बिताने को मिलेगा|

"अच्छा बच्चों, चलो दोनों सो जाओ!" माँ दोनों बच्चों से बोलीं| इतना सुनना था की आयुष ने सभी को हाथ जोड़ कर "thank you" कहा और तुरंत पलंग पर लेट गया तथा झूठ-मूठ के खरांटें लेने लगा, आयुष का बालपन देख हम सभी हँस पड़े! इन्होने दोनों बच्चों के माथे को चूमा और कमरे की लाइट बंद कर हम सभी बाहर बैठक में आ गए| "तो बेटा कल की सारी तैयारियाँ हो गई न?" पिताजी ने इनसे पुछा तो इन्होने मेरे सामने एक बार फिर अपना आधा प्लान दोहरा दिया; "जी पिताजी, सब कुछ सेट है! सुबह हम दस बजे तक निकलेंगे और शाम होने तक लौटाएंगे|" परन्तु इन्होने जो अपना आधा प्लान छुपाया था वो मेरे लिए बहुत बड़ी बात साबित होने वाली थी|

हम सभी सोने चले गए मगर सुबह के 3 बजे नेहा फिर डर के मारे जाग गई और हमारे कमरे की तरफ आ ही रही थी की उसे उसके दादा जी मिल गए जो रसोई से पानी पी कर निकल रहे थे| नेहा को रोता हुआ देख पिताजी ने एकदम से नेहा को गोदी में उठाया और उसे प्यार से लाड करते हुए अपने कमरे में ले गए| नेहा की सिसकियाँ सुन माँ भी उठ गई थीं, माँ बच्चों के कमरे में गईं और आयुष को भी गोदी ले कर अपने कमरे में आ गईं| पिताजी नेहा के सर पर हाथ फेरते हुए उसे सुलाने में लगे थे तथा नेहा का डर भगाने के लिए उसे भगवान जी कथा सुनाने लगे| कथा सुनते-सुनते नेहा का डर भाग गया और वो आखिर चैन से सो ही गई तथा माँ-पिताजी भी आराम से सो गए|

अगली सुबह आयुष सबसे पहले जगा, उसका उत्साह उसे सोने नहीं दे रहा था| इन्होने आयुष और नेहा के लिए दो जोड़ी कपड़े ऑनलाइन आर्डर कर के मँगाए थे, उन्हीं में से एक जोड़ी कपड़े मैंने आयुष को दिए| मुझसे कपड़े ले कर आयुष फटाफट सबसे पहले तैयार हो कर घर में कूदने लगा| उसका उत्साह इतना था की उसने आज सुबह से सारे घर में हड़कंप मचा दिया था| ख़ुशी के मारे आयुष कूदे जा रहा था, कभी सोफे पर कूदता कभी अपने दादा-दादी जी के पलंग पर कूदता तो कभी एक हाथ अपने सर और एक हाथ अपनी कमर पर रख ठुमके लगाने लगता! आज जिंदगी में पहलीबार मैं आयुष को इतना खुश देख रही थी, ये और नेहा सबसे अंत में उठे थे और नेहा इनकी गोदी में चढ़ी फिर सोने लगी थी मगर आयुष उसे सोने नहीं दे रहा था| जब बारी आई नाश्ते की तो इन्होने आयुष को लाड करते हुए पुछा की उसे क्या खाना है, मेरी तरह आप भी जानते होंगें की आयुष को क्या पसंद है; 'चाऊमीन'!!! इतनी सुबह चाऊमीन कहाँ मिलती इसलिए इन्होने मुझे मैगी बनाने को कहा, मैगी का नाम सुन आयुष फिर से नाचने लगा और उसका ये उत्साह देख हम सभी हँस पड़े| अब तक नेहा की नींद भाग चुकी थी, आयुष ने कार्टून लगाया और इनकी बगल में बैठ गया| तब नेहा ने इनसे पुछा; "पापा जी, आपने आयुष को जन्मदिन की बधाई देने के लिए रात में क्यों जगाया?" नेहा का सवाल सुन ये मुस्कुराये और आयुष के सर पर हाथ फेरते हुए बोले; "बेटा, पहली बात तो ये की जैसे आयुष अभी उत्साह से नाच रहा था न वैसे ही मुझे भी आयुष को जन्मदिन की बधाई देने का उत्साह था| दूसरी बात ये की, रात बारह बजे के बाद दूसरे दिन की शुरुवात होती है तो अपने उत्साह के कारण मैंने आप दोनों की नींद खराब की| जब आपका जन्मदिन आएगा न तब आपको भी ऐसे ही रात को जगा कर जन्मदिन की बधाई दूँगा|" अपने जन्मदिन पर रात में अपने पापा से बधाई पाने के नाम से नेहा बहुत खुश हुई और इनके दोनों गालों पर अपनी पप्पी दे कर तैयार होने चली गई|

नाश्ता कर के घर से निकलते-निकलते हमें साढ़े दस हो गए और जहाँ हमें जाना था वहाँ पहुँचने में अभी डेढ़ घंटा और लगना था| गाडी में मुझे इन्होने अपनी बराबर में आगे बिठाया था तथा दोनों बच्चों को पीछे मगर पीछे बैठ कर भी दोनों बच्चों को चैन नहीं था| आयुष ने पीछे बैठे-बैठे ही शैतानी करनी शुरू कर दी थी, कभी वो गाडी में बज रहे गानों की आवाज तेज कर देता तथा पीछे बैठे-बैठे ही नाचने लगता तो कभी हम दोनों (मेरी और इनकी) सीट के बीच से आगे आते हुए मेरे संग सेल्फी खेंचने लगता| जब गाडी रेड लाइट पर रूकती तो अपने पापा के साथ सेल्फी खींचने लगता, तो कभी इनके फ़ोन पर कोई गेम खेलते हुए चिल्लाने लगता| उसका उत्साह थमने का नाम नहीं ले रहा था, उसने हमारी इतनी फोटो खींची...इतनी फोटो खींची की मेरा फ़ोन गर्म हो कर बंद हो गया! वहीं, नेहा भी कम नहीं थी उसने भी इनके फ़ोन से हम दोनों के साथ बहुत सी सेल्फी खींची और सभी फोटो उसने फटाफट फेसबुक पर अपलोड कर दी! जब उसकी पसंद का गाना आता तो वो खिड़की से बाहर देखते हुए अपनी मीठी आवाज में गाने लगती और कभी-कभी ये भी नेहा के संग गाने लगते| कुल मिला कर कहूँ तो बच्चों का उत्साह चरम पर था!

इधर मैं बैठी-बैठ बस यही सोच रही थी की amusement park होता कैसा है? 'इन्होने कहा था की वहाँ बहुत से झूले होते हैं, कहीं वैसे ही झूले तो नहीं जो मेले में होते हैं?!' मैं मन ही मन सोचने लगी थी, तभी मैंने अपना फ़ोन चालु किया और उसमें इस शब्द का मतलब ढूँढने लगी, मतलब ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मुझे एक वीडियो मिली जो की मुंबई में किसी वाटर पार्क की ad थी| मैंने वो ad वाली वीडियो चलाई तो मुझे पता चला की मैंने ये ad तो टी.वी. पर देखि है! इस ad में लड़कियाँ swim wear पहन कर पानी में कूद रहीं थीं, साथ ही आस-पास बच्चे थे जो पानी पर फिसलने वाले झूले पर ख़ुशी से फिसल रहे थे| अब मुझे ऐसे कपड़ों में आती थी शर्म इसलिए ये video देख मैंने तय कर लिया चाहे कुछ भी हो जाए मैं ये छोटे-छोटे कपड़े नहीं पहनने वाली!

खैर, हँसते-खेलते हुए हम अपनी मंजिल पर पहुँच गए| गाडी से उतरते ही हमने जो नज़ारा देखा उसे देख मैं और बच्चे दंग रह गए! ये amusement park तो बहुत बड़ा और विशालकाय था, बाहर से ही हमें एक बड़ा सा झूला दिख रहा था जिसे आप सभी giant wheel कहते हैं| हमें एक तरफ खड़ा कर इन्होने हम सभी की टिकट ली, इनके टिकट ले कर आने तक दोनों बच्चे ख़ुशी और उत्साह से फूले नहीं समा रहे थे| दोनों बच्चे मेरा हाथ पकड़ कर खींचते हुए गेट पर बने dinosaur की तरफ चलने को कह रहे थे, इतने में ये टिकट लेकर आ गए और हमने गेट से अंदर प्रवेश किया| हमारी चेकिंग के दौरान लेडी गार्ड को मेरे बैग में ड्राई फ्रूट मिले तो मैंने उसे बता दिया की ये मेरे पति के लिए हैं, ये सुन उसने कुछ नहीं कहा| जब हम चेकिंग करवा कर अंदर आये तो अंदर का नज़ारा देख हम माँ-बेटा-बेटी के मुँह से "oh my God" एक साथ निकला! पूरा amusement park एक Jurassic theme park था! घर पर एक बार इन्होने हमें Jurassic park फिल्म दिखाई थी और उस फिल्म में पहलीबार dinosaur देख कर हम तीनों बहुत खुश हुए थे| इस amusement park में हर जगह पर डायनासोर के पुतले लगे थे और इस पार्क को देख कर ऐसा लगता था मानो हम jurassic park फिल्म के set पर आ गए हों!

दोस्तों, जानती हूँ आपको ये सब पढ़ कर लगेगा की मैं बातें बढ़ा-चढ़ा कर कह रही हूँ मगर विश्वास कीजिये हम माँ-बेटा-बेटी ने इस जगह की कभी कल्पना भी नहीं की थी! इतना बड़ा amusement park देख हमारी आंखें जैसे चौंधिया गई थीं! आखरी बार ये हमें दशहरे पर मेला घुमाया था और उस मेले के मुक़ाबले ये जगह बहुत-बहुत बड़ी थी! उस मेले में एक छोटा सा giant wheel था जो सिर्फ बच्चों के लिए था मगर यहाँ जितने झूले थे वो हम बड़ों के लिए भी थे|

आयुष और नेहा amusement park को देख कर बहुत खुश थे और उनके चेहरे पर आई ये ख़ुशी देखते ही बनती थी! "बेटा, कैसा लगा amusement park?" इन्होने दोनों बच्चों से पुछा तो दोनों बच्चे आ कर इनसे लिपट गए| बच्चों के पास कहने के लिए शब्द नहीं थे, उनकी ख़ुशी ही उनका जवाब थी| अब अगले 6 घंटे तक हमने इस पार्क में घूमना था और अलग-अलग झूलों का लुत्फ़ उठाना था! इन्होने दोनों बच्चों का हाथ पकड़ा और हम चारों सीधा giant wheel के पास चल दिए, हमारा नंबर आने पर हम सभी उस झूले में बैठ गए| धीरे-धीरे झूला ऊपर जाने लगा और इस बीच मैं डर के मारे इनसे लिपट गई थी| लेकिन हमारे बच्चे बहुत बहादुर थे वो खुश होते हुए झूले में बैठे हुए इधर-उधर देख रहे थे| अब इन्हें सूझी मस्ती और ये बोले; "अब सब लोग अपनी आँखें बंद करते हुए अपने पाँव ऊपर करो!" हमने इनकी बात मानते हुए वैसे ही किया, जैसे ही हमने पाँव ऊपर किये तो आँख बंद करने की वजह से ऐसा एहसास हुआ मानो पाँव तले ज़मीन गायब हो गई हो! ये एहसास इतना डरावना था की मैं कस कर इनसे लिपट गई और इन्होने इसका भरपूर फायदा उठाया| "I love you जान!" कहते हुए इन्होने मेरे गाल पर धीरे से काट लिया! इनके इस प्यारभरे आक्रमण से मेरा जिस्म झनझना गया, डर एकदम से गायब हो गया और उसकी जगह कामाग्नि जल उठी! इन्होने अपनी बाहों को मेरे जिस्म के इर्द-गिर्द लपेटते हुए कस लिया और मैं भी कस कर इनसे लिपट गई!

आखिर जब झूला बिलकुल ऊपर पहुँचा तो झूले वाले ने अचानक से झूला रोक दिया, झूला रुकने से मेरी तो जान ही अटक गई! मुझे डर लगने लगा की कहीं ये झूला गिर गया तो? कहीं मैं गिर गई तो? इस डर के मारे मेरी हालत पतली थी, जबकि ये और बच्चे बिलकुल निश्चिंत थे| चूँकि हम सबसे ऊपर थे तो यहाँ से जो नज़ारा दिख रहा था वो ऐसा था मानो पूरा शहर दिख रहा हो| नेहा तो हम सबकी तसवीरें खींचने में व्यस्त थी, एक तस्वीर उसने इनकी मेरे गाल पर kiss करते हुए भी खींची| बाकी की फोटो इन्होने सेल्फी के रूप में ली जिसमें हम चारों थे| अपने डर को छोड़ कर मैं इस मनोरम दृश्य का आनंद लेने लगी, इतनी ऊँचाई से आस-पास की इमारतों, गाड़ियों को देखने का मज़ा ही अलग था| वहीं आयुष अपने पापा जी से पूछ रहा था की हमारा घर यहाँ से दिखेगा? उसके सवाल पर हम सभी हँस पड़े!

"जानू....ह...हम नीचे कब ऊ...उतरेंगे?!" मैंने फिर से घबराते हुए पुछा तो ये मुझे होंसला देते हुए बोले; "जान, मैं हूँ न तुम्हारे साथ तो फिर तुम्हें डर किस बात का?" ये कहते हुए इन्होने मेरे सर को चूमा और नेहा ने फ़ट से इस लम्हे की भी तस्वीर खींच ली!

आखिर धीरे-धीरे हम नीचे आ ही गए और ज़मीन पर पाँव रख मुझे इतनी ख़ुशी हुई...इतनी ख़ुशी हुई की क्या बताऊँ?! मेरे कुछ देर पहले के डर का ख्याल रखते हुए ये हम तीनों को mirror house में ले गए जहाँ अलग-अलग तरह के शीशे थे और उनमें हमारा प्रतिबिम्ब आड़ा-टेढ़ा दिखता था| कभी हम बहुत मोटे दीखते, तो कभी इतने पतले जैसे माचिस की तीली हो, कभी हमारा सर हमारे जिस्म के मुक़ाबले बहुत बड़ा दिखता तो कभी हमारा जिस्म बड़ा और सर छोटा सा दिखता! हमारे ये अजीबों-गरीब प्रतिबिम्ब देख हम खूब हँसे, इतना हँसे की हमारे पेट में दर्द हो गया!

एक झूले से दूसरे झूले की ओर जाते हुए हमें हर जगह बस डायनासोर के ही पुतले दिख रहे थे और ये बीच-बीच में हमें एक-आध डायनासोर का नाम भी बताते थे| अब हम पहुँचे bumper cars वाले झूले पर, इन्होने नेहा को गाडी का steering wheel कैसे घूमना है ये बताया और साथ ही ये भी बताया की बच्चों को अपनी bumper car से उतरना नहीं है और अगर कोई अनजान आदमी उनकी bumper car को ठोक दे तो घबराना नहीं है| नेहा ने कहा की वो इनके साथ रहेगी तो इन्होने नेहा को समझाते हुए कहा; "बेटा, आपकी मम्मी को गाडी चलाना नहीं आता, वो तो कंप्यूटर पर गेम खेलते हुए भी गाडी ठीक नहीं चलाती तो यहाँ कैसे चलायेंगी?! एक बस आप और मैं ही हैं जो कंप्यूटर पर गाडी अच्छे से चलाते हैं तो हमारा गाडी चलाना ही ठीक है न?" नेहा को इनकी बात समझ आई और वो आयुष के साथ जाने को मान गई| इधर जब हमारा नंबर आया तो ये और मैं एक bumper car में बैठे और हम कैसे बैठे ये बस मैं ही जानती हूँ| मैं तो फिर भी जैसे-तैसे एडजस्ट हो गई मगर इनके लिए बैठना कतई आरामदायक नहीं था क्योंकि इनकी लम्बी टाँगें इन्हें ठीक से बैठने नहीं दे रहें थीं| इन्होने मुझे steering wheel के सामने बिठाया था और खुद मेरी बगल में बैठे थे, मैंने बहुत कहा की आप steering wheel के सामने बैठो पर इन्होने जबरदस्ती मुझे ही बिठाया| वहीं दोनों बच्चे एक bumper car में मज़े से बैठे थे| खेल शुरू हुआ और बच्चों की bumper car हमसे बहुत आगे थी तो इन्होने steering wheel सँभालने में मेरी मदद की| हम बच्चों तक पहुँचे उससे पहले ही नेहा ने अपनी bumper car हमारी ओर घुमा दी और तेज़ी से आ कर हमारी bumper car ठोक दी! नेहा के हमारी bumper car ठोकते ही हम चारों खूब जोर से हँसे! फिर इन्होने हमारी bumper car मेरे हाथों से घुमाई और ला कर सीधा नेहा वालो bumper car से भिड़ा दी, इस बार फिर हम चारों हँसे! आस-पास जितनी bumper cars थी वो भी एक-एक कर हमारी bumper cars से टकराईं और सभी बहुत हँसे| नेहा ने कुछ देर के लिए steering wheel से हाथ हटाया ताकि आयुष भी कुछ bumper cars ठोक सके, तो आयुष सीधा हमारी bumper car के पीछे पड़ गया! अब इन्होने अपनी जगह बैठे-बैठे steering wheel सम्भाला और हमारी bumper car को बचाते रहे| अंत में इन्होने हमारी bumper car बड़े स्टाइल से घुमाई और सीधा आयुष की bumper car से भिड़ा दी! बस तभी साईरन बजा और हम सभी उतर कर बाहर आ गए| बाहर आते ही दोनों बच्चों ने अपनी-अपनी गाडी चलाने के अनुभव के बारे में बताना शुरू कर दिया|

खाना खाने का समय हो रहा था और हमें भूख लग आई थी इसलिए हम खाना-खाने cafeteria में बैठ गए| ठीक उसी समय इनके फ़ोन पर कॉल आया और ये फ़ोन ले कर हमसे दूर जा कर बात करने लगे| एक तो आज हम सब एक आरसे बाद घर से बाहर आये थे और ख़ुशी से चहक रहे थे उस पर इस अनजान कॉल के आने से मैं थोड़ी चिंतित हो गई थी की नजाने किसका कॉल होगा? 'माँ-पिताजी तो ठीक हैं?' मैं चिंता करते हुए मन ही मन बोली, लेकिन फिर एहसास हुआ की ये फ़ोन ले कर दूर क्यों गए? 'अगर माँ-पिताजी का फ़ोन होता तो ये फ़ोन उठा कर दूर थोड़े ही न जाते?' मेरा दिमाग बोला| मैंने मुड़कर इन्हें देखा तो पाया ये किसी को फ़ोन पर कुछ समझा रहे हैं, परन्तु क्या ये मैं दूर होने की वजह से सुन न पाई बस इनके बात करते समय किये इशारों से ही इतना समझ पाई की ये किसी को कुछ समझा रहे हैं|

5 मिनट बाद जब ये फ़ोन पर बात कर के लौटे तो मैंने इनसे पुछा; "किसका फ़ोन था?" मेरा सवाल सुन इन्होने मुझे शैतानी लहजे में आँख मारी और एकदम से बात घूमते हुए बच्चों से बोले; "बेटा, आप सबने कुछ order किया या नहीं?" इनका यूँ मुझे आँख मारना और बात बदलना मेरे मन में शक पैदा कर चूका था| मैं कुछ पूछती उससे पहले ही आयुष बोल पड़ा; "पापा जी, मैं चाऊमीन खाऊँगा!" आयुष की बात सुन नेहा उसे टोकते हुए बोली; "जब देखो चाऊमीन खानी है तुझे, कभी कुछ और नहीं खा सकता?" आयुष पर नेहा के टोकने का कोई असर नहीं पड़ा, वो मुँह बना कर अपनी बहन को चिढ़ाने लगा| अब इन्होने ही आयुष की तरफदारी करते हुए नेहा से कहा; "कोई बात नहीं बेटा, आज आयुष का जन्मदिन है खा लेने दो उसे जो उसे अच्छा लगता है|" ये सुन आयुष खुश हो गया और अपनी कुर्सी से उतर कर अपने पापा के गले लग गया| इस प्यारभरे दृश्य के कारण मैं इनके दूर जा कर किसी से फ़ोन पर बात करने पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दे पाई! खैर, इन्होने आयुष के लिए चाऊमीन मँगाई और हम सभी के लिए एक-एक प्लेट पाव भाजी| "सब थोड़ा ही खाना वरना झूले में किसी को भी उलटी आ सकती है|" इन्होने सभी को प्यार से समझाया|

पावभाजी का स्वाद सभी को पसंद आया था, मैं इन्हें अपने हाथों से खिला रही थी और ये मुझे तथा नेहा को खिलाने में लगे थे| उधर आयुष ने आधी चाऊमीन खाई और फिर फ़ट से पावभाजी खाने के लिए अपना मुँह खोल दिया| आयुष के हिस्से की बची हुई चाऊमीन मैंने खाई और मेरे हिस्से की बची हुई पाव भाजी इन्होने आयुष को खिलाई| खाना खाने के बाद मैंने घर चलने की बात उठाई क्योंकि मैं नहीं चाहती थी की इनकी तबियत खराब हो मगर घर जाने का नाम सुन आयुष जिद्द करने लगा; "पापा जी, अभी तो बहुत सारे झूलों पर बैठना है!" ये कहते हुए आयुष ने अपनी ऊँगली से सभी झूलों की तरफ इशारा करते हुए गिनाना शुरू कर दिया, तभी नेहा भी उसके साथ हो ली और बोली; "प्लीज पापा जी, अभी बहुत से झूले बाकी हैं!" अब बच्चों की प्यारी विनती के आगे ये न पिघलें ऐसा हो नहीं सकते, इसलिए हारकर हम वापस झूलों की तरफ चल दिए| सबसे पहले बच्चों ने roller coaster की तरफ हमें खींचा, अब दिक्कत ये थी की मैं माँ बनने वाली थी इसलिए मेरे लिए इस तरह के झूलों पर बैठना ठीक नहीं था, मैं इन्हें ये बात कह कर जाने से मना करती उससे पहले ही इन्होने दोनों बच्चों को समझाते हुए कहा; "बेटा, इस झूले पर सिर्फ आप दोनों को बैठना है क्योंकि आपकी मम्मी माँ बनने वाली हैं और ऐसे में वो ऐसे झूले पर नहीं बैठ सकतीं|" बच्चे इनकी बात समझ गए और लाइन में लग गए, जब बच्चों का नंबर आया तो आयुष को roller coaster में कम उम्र की वजह से बैठने नहीं दिया गया| जब आयुष को बैठने की इज़्ज़ज़त नहीं मिली तो नेहा ने भी बैठने से मना कर दिया और दोनों बच्चे मायूस हो कर बाहर आ गए, इन्होने बच्चों से उनकी मायूसी का कारण जाना और फिर उन्हें बहलाने लगे; "कोई बात नहीं बेटा, आप (आयुष) जब बड़ा हो जायेगा न तब हम फिर से आएंगे और हम सब बैठेंगे! अभी के लिए चलो उस तरफ एक बढ़िया झूला है जो बिलकुल इस झूले जैसा है|" बच्चों का ध्यान भटक गया और ये हम सब को ले कर एक झूले के पास पहुँचे जिसे आप सभी cup plate के नाम से जानते हैं| इस झूले की रफ़्तार कम थी और मैं इसमें बैठ सकती थी इसलिए हम चारों बैठ गए| मैं फिर से इनसे कस कर लिपट गई थी और इन्होने अपने एक हाथ से दोनों बच्चों को भी खुद से लिपटा लिया था|

अगली बारी थी एक गोल घूमने वाले झूले की जो की बहुत तेज था, मैं उसमें नहीं जा सकती थी इसलिए इन्होने दोनों बच्चों को भेज दिया| जब बच्चों की बारी आई तो हमने दूर से खड़े हो कर उन्हें गोल-गोल घूमते देखा| 15 मिनट बाद बच्चे चहकते हुए बाहर आये तो चहकते हुए झूले के बारे में बता रहे थे| फिर हम पहुँचे एक झूले के पास जो आगे-पीछे चलता था और बड़ी ऊँचाई तक जाता था, इन्होने बच्चों को उस लाइन में खड़ा किया और हम दूर से खड़े बच्चों को झूले पर आनंद लेते हुए देखने लगे| बच्चे मस्ती और मज़े कर रहे हों तो दिल को बहुत सुकून मिलता है| मैंने भी इस मौके का फायदा उठाते हुए इनका हाथ पकड़ लिया और धीमे-धीमे मीसने लगी!

जब बच्चे झूला झूल कर लौटे तब इनकी नज़र अचानक एक जगह पर पड़ी जहाँ पर couple snow dance हो रहा था| इन्होने मेरा हाथ पकड़ा और तेजी से मुझे खींचते हुए उस तरफ ले चले| एक मशीन से सभी पर नकली बर्फ का चुरा बना कर उड़ाया जा रहा था और स्पीकर पर बहुत जोर से प्यारभरे रोमांटिक गाने बज रहे थे| ये एकदम से रोमांटिक हो गए और मुझे dance करने को कहा, अब मैं ठहरी लाज की गठरी इसलिए मैंने dance करने से मना कर दिया| मेरे मना करने का कारण था की वहाँ dance करने वाले सभी जोड़े कम उम्र के थे और सभी ने टी-शर्ट जीन्स जैसा पहना था जबकि मैं साडी पहने थी| इन्होने नेहा और आयुष से कुछ खुसफुसा कर कहा और दोनों बच्चे सबसे आगे की ओर भाग गए जहाँ कुछ बच्चे ज़मीन पर पड़ी बर्फ से गोले बना कर एक दूसरे को मार रहे थे| दरअसल इन्होने बच्चों को जान कर आगे भेजा था ताकि मेरी शर्म कुछ कम हो सके| बच्चों के आगे जाते ही मौके का फायदा उठा कर इन्होने बिना कुछ कहे मुझे अपनी तरफ घुमाया और मेरी कमर अपने दोनों हाथों से पकड़ कर मुझे खुद से सटा कर खड़ा कर मेरी आँखों में देखते हुए बोले; "जान, नचा कर तो मैं तुम्हें रहूँगा वरना सच कहता हूँ तुमसे बात नहीं करूँगा!" मैं जानती थी की अगर मैंने अपनी लाज के चलते इन्हें खफा किया तो ये बहुत बुरा मान जायेंगे इसलिए मैंने अपने दोनों हाथ इनके गले में डाले और मुस्कुराई| इन्होने धीरे-धीरे दाएँ-बाएँ थिरकना शुरू किया और मैंने भी इनके कदम से कदम मिलाते हुए धीरे-धीरे नाचना शुरू किया! मेरी नजरें इनकी आँखों पर टिकी थीं और इनकी आँखों में मुझे प्यार की खुमारी नजर आने लगी थी| उड़ती हुई बर्फ के नीचे इनके साथ यूँ चिपक कर dance करने से आज गाँव में हमारे बारिश में एक साथ नाचने वाले दिन की याद ताज़ा हो गई थी! उस पर इनके हाथों से निकल रही वो प्यार की गर्म ऊर्जा मेरा जिस्म पिघलाने लगी थी, मेरे होंठ प्यासे हो चले थे लेकिन मैंने किसी तरह से खुद को रोक रखा था वरना अगर मैं कहीं कोई पहल कर देती तो ये बेकाबू हो जाते और मेरे होठों को अपने होठों के आगोश में ले लेते!!!

15 मिनट बाद बच्चे खेल कर हमारे पास लौटे, दोनों बच्चों के हाथ में बर्फ थी जो वो हमारे लिए लाये थे| इन्होने आयुष के हाथ से बर्फ ली और धीरे से मुझे मारी, मैंने भी नेहा के हाथ से बर्फ लेते हुए धीरे से इन्हें मारी और हम चारों ही इस बात पर हँस पड़े, हमने दिल्ली में ही शिमला का मज़ा ले लिया था| हमें आज इतना मज़ा आया था की मैं वो फ़ोन कॉल वाली बात इनसे पूछना ही भूल गई थी!

शाम होने लगी थी और अब घर चलने का समय हो रहा था मगर बच्चे थे की घर जाना ही नहीं चाहते थे| वो essel world की ad याद ही होगी सबको जिसकी टैग लाइन थी; essel world में रहूँगा मैं, घर नहीं-नहीं जाऊँगा मैं!" बस वही हाल इस वक़्त बच्चों का था, दोनों घर जाने को तैयार नहीं थे उन्हें तो बस यहीं रहना था! "बेटा, देखो घर जाने के लिए आपके पापा जी को डेढ़ घंटा ड्राइव करना होगा और आप जनते हो न की आपके पापा जी अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हैं तो ऐसे में उनको इतना तनाव देना ठीक नहीं!" मैंने प्यार से बच्चों को समझाया तो वो मान गए और हम amusement park से बाहर निकलने वाले गेट की ओर चल पड़े| मैं और ये हाथ में हाथ डाले चल रहे थे तथा नेहा और आयुष आगे-आगे बातें करते हुए चल रहे थे|

रास्ते में हमें water park दिखा जिसे देख बच्चों की आँखें टिम-टिमाने लगीं, आँखों में आस लिए बच्चों ने अपने पापा जी को देखा ताकि वो उन्हें एक बार water park में भी खेलने ले चलें! अब दिल तो इनका भी था water park में जाने का मगर ये जानते थे की मैं swim wear नहीं पहनूँगी और मेरे बिना ये water park में जाना नहीं चाहते थे| "बेटा, आज नहीं फिर कभी चलेंगे!" इन्होने दोनों बच्चों की बात प्यार से टालते हुए कहा मगर बच्चों को water park में दूसरे बच्चों को पानी वाले झूले में फिसलते देख कर अंदर जाने का बहुत मन कर रहा था| इन्हें लगा की नेहा इनकी बात समझ गई थी इसलिए इन्होने आयुष को गोदी में उठाकर कुछ दूर जा कर उसे प्यार से समझाना शुरू कर दिया, वहीं नेहा को भी water park में जाना था इसलिए वो ये फ़रियाद ले कर मेरे पास आ गई क्योंकि वो जानती थी की मैं अगर उसके पापा जी को water park में जाने के लिए कहूँगी तो ये बिलकुल मना नहीं करेंगे| नेहा ने मुझे मस्का लगाते हुए water park चलने को कहा तो मैंने उसे प्यार से उसकी उम्र की एक लड़की को swim wear पहने हुए दिखाया और बोली; "उस लड़की को देख, उसके जैसे छोटे कपड़े पहन पाएगी?" मेरा ये सवाल सुन नेहा आंखें बड़ी कर चकित हो कर मुझे देखने लगी| "Water park में अपने ये कपड़े पहन कर तो हम नहीं जा सकते न, तो हमें ये छोटे-छोटे कपड़े पहनने होंगें, अब खुद सोच इतने छोटे-छोटे कपड़ों को पहनने में पानी में भीगने के बाद कितनी शर्म आएगी?" मैंने नेहा को विस्तार से बात समझाई तो उसे सब बात समझ आई| नेहा भी मेरी ही तरह बहुत शर्मीली थी इसलिए उसने water park में कभी न जाने का फैसला कर लिया और फिर से मुस्कुराने लगी तथा मेरे से लिपट गई| "मेरी समझदार बेटी!" मैंने नेहा को थोड़ा लाड करते हुए कहा| इतने में ये भी आयुष को ले कर आ गए, इन्होने आयुष को अगलीबार फिर आने का कह कर बहला लिया था| हम सब फिर से बाहर निकलने वाले गेट की ओर चल पड़े और तभी मैंने इनका हाथ पकड़ कर इनकी हथेली दबाते हुए इन्हें दबी आवाज में "thank you" कहा क्योंकि इन्होने बिना मेरे कहे मेरी बात समझी थी और बच्चों को water park में नहीं जाने के लिए मना लिया था|

हम गाडी के पास पहुँचे तो इन्होने मुझे और बच्चों को गाडी के पास रुकने को कहा तथा फिर से फ़ोन ले कर हमसे कुछ दूर किसी से बात करने लगे! इस बार इन्होने बस दो मिनट ही बात की और मुस्कुराते हुए हमारे पास लौट आये| मैंने भोयें सिकोड़ कर इनके इस अजीब बर्ताव को देख रही थी मगर मैं कुछ बोल न पाई| हम चारों गाडी में बैठे, मैं इनकी बगल वाली सीट पर बैठी थी और बच्चे पीछे बैठे अपनी बातों में मग्न थे| मेरा मुँह इनके इस अजीब बर्ताव के कारण उतर गया था, मुझे बस एक ही सवाल खाये जा रहा था की आखिर ये हम सबसे दूर जा कर बात किससे कर रहे थे? मेरा लटका हुआ मुँह देख इन्होने गाडी में मेरा मन पसंद गाना लगा दिया; "Roar by Katy Perry!!!" इस गाने को सुनते हुए मेरी नाराज़गी फुर्र होने लगी और मैंने भी ये गाना गन-गुनाना शुरू कर दिया;

"I guess that I forgot I had a choice

I let you push me past the breaking point

I stood for nothing, so I fell for everything

You held me down, but I got up (hey)

Already brushing off the dust

You hear my voice, you hear that sound

Like thunder, gonna shake the ground ...

I got the eye of the tiger, a fighter

Dancing through the फायर

cause I am a champion and you're gonna hear me roar

louder, louder than a lion

cause I am a champion and you're gonna hear me roar

oh oh oh oh oh oh oh

oh oh oh oh oh oh oh

oh oh oh oh oh oh oh

you're gonna hear me roar!!!" मेरा मानना है की ये गाना बस मेरे लिए ही बनाया है क्योंकि इसके सारे बोल मेरे जीवन पर उतरते हैं| चन्दर से शादी होने के समय मैं बहुत डरी हुई थी, नई ज़िन्दगी की शुरुआत एक अजनबी इंसान, अजनबी घर और उसके अनजान सदस्यों का डर! डर लगता था की कहीं मुझसे कोई गलती हो गई तो, या मैंने कुछ अनर्थ कर दिया तो? लेकिन फिर शादी के बाद जो मेरे साथ घटित हुआ; चन्दर द्वारा विश्वास घात, उसका शराब पी कर मेरे साथ जबरदस्ती करने की कोशिश करना, मुझे मारना-पीटना आदि से मैं हारा हुआ महसूस करती थी| ऐसा लगता था मानो सिवाए ये सब सहने के मेरे पास कोई रास्ता ही नहीं था, मेरी ये ख़ामोशी चन्दर को बढ़ावा देती थी और वो मुझे डराता-धमकाता तथा पीटता रहता था| मैं टूटने की उस हद्द तक जा पहुँची थी जहाँ पर इंसान के पास सिवाए आत्महत्या के कोई रास्ता नहीं था| चन्दर द्वारा मुझे इस कदर अपने झूठे घमंड और मर्द होने की अकड़ ने मुझे इस कदर दबा रखा था की मुझे साँस लेने में तकलीफ होने लगी थी! फिर मुझे इनका प्यार मिला और मैंने धीरे-धीरे खुद को सँभाला और अपनी आवाज बुलंद कर चन्दर का सामना करना शुरू किया| चन्दर से मेरी ये उठाई आवाज बर्दाश्त नहीं होती और वो मुझे फिर दबाने की कोशिश करता मगर मुझे इनके प्यार का सहारा मिल गया था जिसने मुझे दुबारा दबने नहीं दिया| तभी तो आयुष जब मेरे पेट में था तो मैं चन्दर का सामना करने को तैयार थी तथा उसे पुलिस की धमकी दे उसे भीगी बिल्ली बना दिया था!

खैर, इस गाने ने मेरे अंदर जैसे नई जान फूँक दी थी और मेरा चेहरा फिर से खिल गया था| अभी मैं थोड़ा खुश हुई ही थी की तभी अचानक से गाडी के dashboard पर रखा इनका फ़ोन vibrate करने लगा! मैंने तुरंत इनका फ़ोन उठा लिया, ये फ़ोन किसी और का नहीं बल्कि करुणा का ही फ़ोन था! उसका नाम मोबाइल की स्क्रीन पर देखते ही मेरा खून खौल उठा, मैं फ़ोन काटने ही वाली थी की तभी इन्होने मुझे रोक दिया और इशारे से कॉल उठाने को कहा| इन्होने bluetooth अपने कान में लगा रखा था इसलिए मेरे कॉल उठाते ही ये करुणा से धीमी आवाज में बात करने लगे! इनकी आवाज इतनी धीमी थी की मैं कुछ सुन ही नहीं पाई, अब तो मेरे रोम-रोम में जलन की आग लग चुकी थी और मैंने अपना गुस्सा कैसे काबू किया ये बस मैं ही जानती हूँ| मेरे मन में जिज्ञासा जगी और मैंने इनके फ़ोन की कॉल लिस्ट चेक की तो पाया की पिछली दोनों बार भी इन्होने करुणा से ही बात की थी! 'पता नहीं ऐसा क्या है जो ये मुझसे छुपा रहे हैं?' मैं मन ही मन सोचने लगी मगर अभी तो मुझे सबसे चौकादेने वाला झटका लगना बाकी था, ऐसा झटका जो की बेसब्री से घर पर मेरा इंतज़ार कर रहा था!

कुछ देर बाद हम घर पहुँच ही गए, इन्होने गाडी खड़ी की और हम चारों घर की ओर चल दिए| आयुष आगे-आगे फुदकता हुआ चल रहा था और उसके पीछे मैं, ये तथा इनका हाथ पकड़े नेहा चल रही थी| तभी इन्होने फ़ोन निकाला तथा फिर किसी से बात करने लगे, किसी से क्या करुणा से ही बात कर रहे थे तभी तो इनकी आवाज हलकी थी और ये बस हाँ-न में बात कर रहे थे|

घर पहुँचे तो इन्होने आयुष को दरवाजे की घंटी बजाने को कहा, इनका आयुष को ऐसा कहना मुझे अटपटा लगा क्योंकि घंटी का बटन थोड़ा ऊँचा था और उसे बजाने के लिए आयुष को कूदना पड़ रहा था| आयुष ने कूदते हुए घर की घंटी बजाई और दरवाजा खोला किसने? करुणा ने! दरवाजा खुलते ही, करुणा को देख जहाँ मैं हैरान हुई वहीं ये एकदम से अपने दोनों घुटने टेक कर जोर से चिल्लाये; "SURPRISE AAYUSH!!!! HAPPY BIRTHDAY बेटा!!!!!" इनके इस तरह चिल्लाने से अब मुझे सारा माजरा समझ आया की ये सब इनकी ही प्लानिंग थी| तभी पीछे से माँ-पिताजी और उनके साथ अनिल ने "happy birthday to you" वाला गाना शुरू कर दिया| अनिल को अचानक देख एक माँ का (मेरा) दिल बहुत खुश हुआ था| तभी माँ-पिताजी के अगल-बगल खड़े आयुष के classmates, उनके माता-पिता, आयुष की class teacher, दिषु भैया के माता-पिता तथा इनके और पिताजी के साथ काम करने वाले कुछ लोग यानि मिश्रा अंकल जी समेत कुछ अन्य लोग भी हमें दिखाई दिए, उन सभी ने भी happy birthday वाला गाना शुरू कर दिया! इतने सारे लोगों को घर में देख मैं और नेहा भी "happy birthday to आयुष" गाने लगे|

शोर-गुल सुन आस-पडोसी भी इकठ्ठा हो गए तथा वो भी हमारी खुशियों में शामिल हो गए| आयुष इतने सारे लोगों को देख बहुत खुश था, उसके स्कूल के सारे दोस्त आये थे, दोस्तों के मम्मी-पापा आये थे, आयुष की class teacher जो की आयुष की favorite teacher थीं वो भी आईं थीं और जब आयुष ने अपने मामा जी को देखा तो वो ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा था| इन्होने आयुष को गोद में उठाया और घर के भीतर प्रवेश किया| मैं भी इनके साथ खड़ी हो गई तथा एक-एक कर हमने सभी से मुलाक़ात की और मुझे भी इन्होने सब से मिलवाया| सब से मिलने के बाद इन्होने मुझे दोनों बच्चों को नए कपड़े पहनाने को बोलै तो मैं बच्चों के साथ-साथ खुद भी नई साडी पहन आई! मैंने इशारे से इन्हें भी कपड़े बदल आने को कहा, इनके तैयार हो कर आने तक मैं सभी बच्चों के मम्मी-पापा से बात करने लगी| जब ये तैयार हो कर आये तब हम सब बैठक में इकठ्ठा हो गए, बैठक के बीचों बीच एक बड़ा सा केक रखा था जिस पर happy birthday आयुष लिखा था| केक देख आयुष बहुत खुश हुआ, आयुष ने केक पर लगी मोमबत्तियाँ बुझाईं और सबसे पहले अपने दादा-दादी जी को केक खिलाया| उसके बाद बारी आई मेरी, इनकी और अनिल की तथा अंत में नेहा की|

केक खाने के बाद मुझे पता चला की ऊपर छत पर इन्होने सबके लिए खाने का buffet लगवाया था इसलिए आयुष अपने सभी दोस्तों को ले कर छत की ओर चल दिया| हम सभी के लिए खाना ऊपर से वेटर ला रहा था, हम दोनों को थोड़ा एकांत में मौका मिले इसके लिए मैं इन्हें छत पर ले आई| छत पर आ कर मैंने इनसे पुछा; "जानू, ये सब आपने कैसे प्लान किया और मुझे कुछ बताया भी नहीं?" मेरे सवाल पर ये मुस्कुराये और बोले; "जान मेरे बेटे का आज पहला जन्मदिन था जिसे मैं मना रहा हूँ तो आज के दिन को यादगार बनाना तो बनता था| रही प्लानिंग की बात तो, सबसे पहले तो मुझे एक caterer चाहिए था, जो की करुणा की जान-पहचान वाला निकला इसलिए इसके लिए मैंने करुणा की मदद ली| फिर एक दिन मैं आयुष के स्कूल पहुँचा और उसकी class teacher जी से बात कर के आयुष के सभी दोस्तों के मम्मी-पापा के नंबर ले उनसे मैंने खुद बात कर आयुष के जन्मदिन पर आने का निमंत्रण दिया| याद है उस दिन जब मैं सुबह से फ़ोन मिला कर बात करने में व्यस्त था, वो सब कॉल मैंने आयुष के दोस्तों के मम्मी-पापा को ही किये थे| अनिल को मैंने खासकर तुम्हारे लिए बुलाया क्योंकि मैं जानता था की उसे देख कर तुम्हें बहुत ख़ुशी होगी, आखिर तुम्हारा पहला बेटा तो वही था! वो तो उसकी ट्रैन लेट थी इसलिए सारा इंतज़ाम करुणा को करना पड़ा वरना अनिल ही सब देखने वाला था|" इनकी सारी बात सुन मैं हैरान थी की इन्होने आयुष के जन्मदिन के लिए इतनी अच्छी प्लानिंग की थी|

इतने में करुणा ऊपर आई और caterer से मलयालम में कुछ बोली और उसे हुक्म देने लगी| Caterer ने फटाफट अपने वेटर को नीचे खाना ले जाने को बोला, हम दोनों को छत के एक किनारे देख करुणा ने हमें अपने पास बुलाया और सारा इंतज़ाम दिखाया| Buffet में इन्होने छोले-भठूरे, आयुष की मन पसंद चाऊमीन, समोसे-कचौड़ी, चाय-कॉफ़ी, नेहा की मन-पसंद रसमलाई और इडली-साम्बार रखवाए थे| सारा इंतज़ाम करुणा की देख-रेख में हुआ था और सभी का स्वाद लाजवाब था! सच कहूँ तो मुझे ख़ुशी इस बात की थी की मेरे बेटे का जन्मदिन इतने भव्य रूप से मनाया जा रहा है मगर दुःख बस इस बात का था की ये सारा इंतज़ाम करुणा ने किया था! उसका यूँ मेरे परिवार की खुशियों में घुसना मुझे ठीक नहीं लग रहा था, लेकिन ऐसा नहीं था की वो ये सब इनके लिए कर रही हो बल्कि उसे नेहा और आयुष से बहुत लगाव था| वो जब भी घर आती तो ऐसे समय आती जब बच्चे घर हों तथा वो हमेशा बच्चों के लिए चॉकलेट लाती थी| बच्चों ने करुणा को आंटी कह कर बुलाना शुरू कर दिया था तथा उससे अच्छी तरह घुल-मिल गए थे| यही कारण था की मैं खामोश थी और पार्टी के रंग में रंग रही थी मगर जब भी करुणा को देखती तो मेरे भीतर जलन की आग सुलग जाती!

आयुष के दोस्तों के माता-पिता छत पर आ गए थे तथा खाना खाने में व्यस्त हो गए थे, ये और मैं बार-बार सभी से कुछ न कुछ खाने को पूछते रहते थे| मैं, माँ-पिताजी के खाने के लिए कुछ ले कर नीचे आई तो मुझे दिषु भैया के माँ-पिताजी मिले| "आंटी जी, दिषु भैया कहाँ हैं?" मैंने पुछा तो आंटी जी बोलीं; "बेटा, वो तो एक ऑडिट पर कानपूर गया हुआ है! उसको आने में देर होगी, रात दस बज जाएंगे! लेकिन वो कह रहा था की पहले अपने भतीजे से मिलूँगा फिर घर आऊँगा!" आंटी जी मुस्कुराते हुए बोलीं| अब मुझे समझ आया की क्यों इन्हें करुणा का सहारा लेना पड़ा, अगर अनिल पहले आ जाता या दिषु भैया यहाँ होते तो सब काम वही देखते और तब इस करुणा की जर्रूरत ही न होती!

माँ-पिताजी को खाने के लिए कुछ दे कर मैं आयुष की class teacher जी से मिली तथा उनके साथ बैठ कर आयुष के बारे में बात करने लगी| उन्होंने बताया की आयुष बहुत चुलबुला है और थोड़ी सी शैतानी भी करता है मगर पढ़ाई में अच्छा है| मैंने उन्हें बताया की आयुष को उसके पापा जी पढ़ाते हैं तो teacher जी बहुत खुश हुईं|

इतने में ये मेरे लिए छोले-भठूरे ले कर नीचे आ गए और मुझे प्लेट दे कर जाने लगे| "Excuse me mam!" बोल कर मैं उठी और इनके साथ एक कोने में खड़ी हो कर बात करने लगी; "जानू, ये क्या है?" मैंने पुछा तो इन्होने बताया की ये छोले-भठूरे हैं| "अच्छा जी, तो नेहा इन्हीं की तारीफ करती थी?!" मैंने आँखें नचाते हुए इनसे पुछा तो ये मुस्कुरा दिए| इन्हें मुस्कुराता हुआ देख मुझे भी थोड़ा रोमांस छूटने लगा था इसलिए मैंने पहला कौर खाया और दूसरा इन्हें खिलाया, मेरा ये प्यार देख ये मुस्कुराते हुए आयुष और उसके दोस्तों के पास चले गए| मैं भी माँ के पास बैठ कर ही छोले-भठूरे खाने लगी, उधर ये आयुष और उसकी गर्लफ्रेंड के पास पहुँच गए थे| इन्होने अपने हाथों से दोनों को चाऊमीन की एक-एक प्लेट दी तथा दोनों को अलग टेबल पर बिठा दिया| आयुष अपने पापा की इस बात से बहुत खुश था की उन्होंने आयुष को और उसकी गर्लफ्रेंड को अलग टेबल पर बिठाया था| फिर इन्होने आयुष के बाकी दोस्तों का ध्यान खाने-पीने में लगा दिया जिसमें करुणा भी इनका साथ दे रही थी|

खाना खा कर मैं ऊपर आई और करुणा को इनके साथ बच्चों को खिलाने में व्यस्त देख मैं जलने लगी| मैंने इन्हें बैठने को कहा और इनके लिए खुद छोले-भठूरे ले कर आई| अब इनकी जगह मैंने सभी को खाने के बारे में पूछना शुरू किया| वहीं इनके नजरें नेहा को ढूँढ रहीं थीं, जबकि नेहा नीचे अपने मामा जी के पास बैठी थी| इतने में नेहा छत पर रसमलाई खाने आई तो इन्होने नेहा को पाने पास बुलाते हुए पुछा; "मेरा बच्चा कहाँ था?" इनका सवाल सुन नेहा ख़ुशी से चहकते हुए बोली; "मैं तो मामा जी के पास थी!" नेहा की बात सुन इन्हें इत्मीनान हुआ; "बेटा, ऐसे अपने पापा को बिना बताये कहीं मत जाया करो| जानते हो आपके पापा आपको न पा कर कितना परेशान हो गए थे?!" मैं नेहा को इनके डर का बोध कराते हुए बोली| "Sorry पापा जी!" नेहा थोड़ा चिंतित होते हुए बोली| इन्होने मुस्कुरा कर नेहा को अपने हाथ से छोले-भठूरे का एक कौर खिलाया और उसे रसमलाई लेने भेज दिया|

इधर मैं नेहा के अपने मामा जी के पास जाने का कारण समझ गई थी, दरअसल यहाँ पर सिर्फ आयुष के दोस्त और उनके मम्मी-पापा आये थे| नेहा के किसी दोस्त को इन्होने या तो आमंत्रण नहीं दिया था या फिर ये आमंत्रण देना भूल गए थे| नेहा की गैरहाजरी में जब मैंने इनसे इस बारे में पुछा तो ये बोले; "जान, मैं जिस दिन आयुष की class teacher से मिला था उसी दिन मैं नेहा की class teacher से भी मिला था| मैंने उनसे पुछा की नेहा के दोस्त कौन-कौन हैं ताकि मैं उन्हें भी नेहा के भाई के जन्मदिन पर बुला सकूँ मगर teacher जी ने बताया की नेहा सिर्फ पढ़ाई में मन लगाती हैं, उन्होंने नेहा को किसी और से बात करते नहीं देखा था| मैंने तो नेहा की class teacher को भी आमंत्रण दिया था परन्तु उनके पास न आने के कुछ व्यक्तिगत कारण थे!" घर में उस समय ख़ुशी का माहौल था और हमारे लिए ये पल ऐसा था मानो एक आरसे बाद खुशियों घर लौट कार आईं हों, इसीलिए हमने नेहा की class teacher की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया|

वहीं नेहा अपनी रसमलाई ले कर इनके सामने खड़ी हो गई थी ताकि ये उसे अपने हाथ से रसमलाई खिलाएँ| उधर मेरी नजरें आयुष को ढूँढ रहीं थीं, आयुष को मैंने उसके कुछ दोस्तों तथा एक लड़की के साथ बातें करते हुए पाया| दरअसल आयुष सभी को अपने आज amusement park के किस्से चटखारे ले-ले कर बता रहा था!

खा-पी कर सभी लोग नीचे आ चुके थे, इस वक़्त सभी के हाथ में चाय या कॉफ़ी थी जिसे पीते हुए सभी बातें करने में लगे थे| जितने भी मेहमान आये थे उन्होंने एक-एक कर आयुष को उसके लिए लाये हुए गिफ्ट दिए, आयुष ने भी सभी बड़ों के पाँव-छू कर आशीर्वाद लिया तथा उन्हें "thank you" कहा! मिश्रा जी तथा इनके और पिताजी के साथ काम करने वाले लोग तो आयुष के लिए बहुत बड़े-बड़े gift boxes लाये थे!

मेहमानों की सँख्या करीब 50 लोगों की होगी और बच्चों को गिना जाए तो लगभग 60 एक लोग तो होंगें ही| चूँकि सभी लोग नीचे आ चुके थे तो हमारा घर खचा-खच भरा हुआ था| आयुष के सारे दोस्त, आयुष और नेहा बच्चों वाले कमरे में बैठे थे जहाँ उनकी मीठी-मीठी बातें यानी किस्से सुनाने का काम जारी था| पिताजी के जानने वाले लोग यानी मिश्रा अंकल जी और दिषु भैया के पापा जी, माँ-पिताजी वाले कमरे में बैठे थे जहाँ बातें अधिकतर गाँव की भाषा में हो रही थी| मैंने, माँ, दिषु भैया की मम्मी, मिश्रा आंटी जी आयुष की class teacher जी और सभी बच्चों की मम्मियों ने हमारे कमरे में बैठ कर गप्पें मारनी शुरू कर दी थीं| मेरी तो आयुष की दोस्तों की मम्मियों से अच्छी बनने लगी थी, क्योंकि सभी मम्मियों की एक ही तो समस्या होती है की बच्चे बहुत शैतान हैं! उधर बाहर बैठक में ये, अनिल और बच्चों के सब पापा तथा हमारे कुछ पडोसी पुरुष बैठ कर बातें करने में व्यस्त थे| वहीं करुणा ऊपर caterer वाले से सभी के लिए कुछ मीठा बनवाने में लगी हुई थी|

कुछ ही देर में गरमा-गर्म गाजर का हलवा परोसा गया और सभी ने बड़े चाव से वो खाया| माँ ने करुणा को अभी अपने साथ बिठा लिया तथा सभी से उसकी तारीफ करने लगी; "ये है करूणा, मानु की दोस्त और आज का सारा इंतज़ाम इसी ने किया है| Caterer वाला इसके चर्च में ही काम करता है इसलिए इसी ने ये सारा इंतज़ाम खुद करवाया|" करुणा की तारीफ सुन कर मुझे जलन हो रही थी मगर मैं कर कुछ नहीं सकती थी|

खैर ये पार्टी दस बज तक चली और फिर सभी ने एक-एक कर विदा लेनी शुरू की| तभी दिषु भैया आ पहुँचे और आयुष को गोदी ले कर उसके दोनों गालों को चूमते हुए उसे जन्मदिन की मुबारकबाद दी तथा अपने देर से आने की माफ़ी माँगी| आयुष को कभी किसी बात का बुरा नहीं लगता था इसलिए उसने झट से अपने दिषु चाचू को माफ़ कर दिया; "चाचू, मैं आपसे नाराज़ थोड़े ही हूँ! लेकिन आपको मुझे घुमाने ले जाना होगा!" आयुष की बातें सुन और अंत में उसका बचपना देख हम सभी हँस पड़े| वहीं दोनों चाचा-भतीजा ने मिनटों में एग्जाम खत्म होने के बाद घूमने का प्लान बना लिया|

मैंने दिषु भैया के लिए खाना अलग से रख लिया था तो मैंने उसे फटाफट गर्म कर उन्हें दिया; "देवर जी देख लो, आपकी भाभी ने आपके लिए खाना बचा लिया था वरना आपका भतीजा सब साफ़ कर जाता!" मैंने मज़ाक करते हुए कहा तो आयुष समेत हम सभी हँस पड़े| इधर दिषु भैया खाते हुए बच्चों से बात कर रहे थे उधर सभी मेहमानों ने हमसे विदा ली| अब घर में केवल मैं, ये, अनिल, बच्चे, करुणा, माँ-पिताजी तथा दिषु भैया और उनके माता-पिता रह गए थे| जैसे ही दिषु भैया का खाना हुआ वो भी अपने माता-पिता के साथ चले गए| Caterer भी अपना समान-लपेट कर निकल चुके थे|

सब के जाने के बाद आयुष में गिफ्ट खोलने का उत्साह था इसलिए दोनों भाई-बहन गिफ्ट खोलने लगे| इधर घडी में बजे थे साढ़े दस-पौने ग्यारह और देर हो जाने के कारण करुणा का अकेले घर जाना सही नहीं था इसलिए माँ उसे रोकते हुए बोलीं; "करुणा, बेटी रात बहुत हो गई है, तू ऐसा कर आज रात यहीं रुक जा|" माँ की बात सुन मेरे तो होश फ़ाख्ता हो गए और मैं करुणा पर आये गुस्से से मन ही मन बुदबुदाई; 'लो, अब ये रात को भी यहाँ ठहरेगी?!'
[color=rgb(251,]जारी रहेगा भाग - 6 में...[/color]
 
[color=rgb(255,]संगीता की original लेखनी:[/color]

ऐसे करते-करते आयुष का जन्मदिन आ ही गया| इन्होने adventure park जाने का प्लान बनाया| मुझे चिंता होने लगी थी की इनकी तबियत अभी भी पूरी तरह ठीक नहीं है ऐसे में इनका ये exertion खतरनाक साबित ना हो| मैंने इन्हें बहुत समझाया पर ये अपनी जिद्द पर अड़े रहे| इन्होने सारा प्लान बना रखा था| रात बारह बज ने से पहले इन्होने मुझे, माँ और पिताजी को सारा प्लान बता दिया| इनके प्लान के अनुसार हमने साड़ी तैयारी कर ली थी| जैसे ही बारह बजे ये आयुष के कमरे में घुसे, आयुष और नेह दोनों सो रहे थे| आयुष के सिरहाने जा कर इन्होने उसके माथे को चूमा और उसे प्यार से उठाने लगे| फिर उसे गोद में उठाया और उसके कान में बोले; "Happy Birthday बेटा!" आयुष कुनमुनान लगा और फिर इनसे लिपट गया| मैंने आगे बढ़ कर उसके सर पर हाथ फेरा और कहा; "Happy Birthday बेटा!" पर आयुष अब भी कुनमुना रहा था| इन्होने मेरी तरफ देखा और मुझे इनके चेहरे पर बेबसी साफ़ नजर आ रही थी| ये आयुष को नींद से जगाना नहीं चाहते थे| पर उसके जागे बिना सारी तैयारी ख़राब हो जाती| मैंने इनसे कहा; "कोई बात नहीं...आज उसका जन्मदिन है और अपनी इतनी तैयारी जो की है उसके लिए|" फिर इन्होने आयुष के कान में कुछ खुसफुसाया और वो एक दम से उठ गया और :"Thank You!!!" बोला| वो जल्दी से इनकी गोद से नीचे उतरा और जा कर अपने दादा-दादी के पाँव छूने लगा और उनसे अपने जन्मदिन की बधाई ली| फिर वो मेरे पास आया और मेरे पाँव छू कर आशीर्वाद लिया| आखिर में वो इनके पास गया और इनके पाँव छू कर आशीर्वाद लिया और इन्होने उसे गोद में उठा लिया और बहुत प्यार किया| अब तक नेहा भी जाग चुकी थी और उसने भी आयुष को बधाई दी और हैरानी की बात ये की आयुष ने उसके भी पाँव छुए| सभी ये देख कर हैरान रह गए और हँसने पड़े...क्योंकि आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था| आयुष हमेशा नेहा को तंग ही किया करता था| इतने संस्कार मैंने तो नहीं दिए थे! हाँ मैंने आयुष को बड़ों का आदर करना शिखाया था पर आज जो कुछ हुआ वो देख कर बहुत अच्छा लगा| खेर मुझे ज्यादा सोचने की जर्रूरत नहीं थी....जवाब मेरे सामने खड़ा था| अब तो मैं बस ये सोच रही थी की आज क्या surprise मिलने वाला है हम लोगों को? हमेशा की तरह, इन्होने सबकुछ प्लान कर रखा था| "आयुष बेटा अब सो जाओ कल सुबह दस बजे तक तैयार हो जाना|" इन्होने आयुष से कहा| आयुष ने आगे कुछ नहीं पूछा और सब को Thank You बोल कर एकदम से लेट गया| ये देख कर हम सब हंसने लगे... दोनों बच्चों को माथे पर Kiss कर के इन्होने कमरे की लाइट बंद की और हम सब बाहर बैठक में आ गए| बाहर आ कर पिताजी ने इनसे कल के प्रोग्राम के बारे में पूछा तो इन्होने सारा प्लान बता दिया| परन्तु एक बात नहीं बताई .....जो मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी! अगली सुबह आयुष सब से पहले तैयार हो गया और सारे घर में हड़कंप मचा दिया| सारे घर में कूद रहा था.....आज पहली बार मैंने उसे 'इतना' खुश देखा था! साढ़े दस बजे तक हम सब तैयार हो कर घर से निकले|हमें पूरा डेढ़ घंटा लगा वहां पहुँचने में.... और पूरा रास्ता आयुष शैतानी करता रहा| कभी music high volume में चालता तो कभी इनके फ़ोन पर गेम खेलने लगता| बैठे-बैठे अपनी और हमारी अलग-अलग pictures खींचने लगता| इतनी साड़ी selfie खींचीं की पूछो मत| नेहा भी selfie खींचने में मग्न थी और वो तो Facebook पर पिक्चरें upload करती जा रही थी| मैं बस मन ही मन सोच रही थी की आखिर amusement park होता कैसा है? मैंने तो आजतक टी.वी. पर ad ही देखि थी| उस ad में लड़कियां swim wear पहन के water park में मजे कर रही होतीं थीं| ये ख़याल आते ही मैंने सोच लिया की मैं कभी भी वो छोटे-छोटे कपडे पहनने नहीं वाली!

जब हम park के बाहर पहुंचे तो बाहर से ही जो नजारा दिखा उसे देखते ही मैं और बच्चे हैरान रह गए! 'ये' हमें एक तरफ खड़ा कर के टिकट लेने चले गए| टिकट ले कर जब हम अंदर घुसे तो अंदर का नजारा देख कर हम तीनों के मुंह से निकला; "oh my god!" ये एक jurrasic theme amusement park था| जगह-जगह पर dinosaur के पुतले और तसवीरें थीं| ऐसा लगता था मानों हम jurassic park फिल्म के सेट पर आ गए हो| जानती हूँ दोस्तों आपको सुन कर ये बहुत ज्यादा लगेगा पर मैंने और बच्चों ने अपने जीवन में आजतक ऐसा amusement park नहीं देखा|

इससे ज्यादा हमने कभी नहीं देखा था| आयुष और नेहा बहुत खुश थे...उनकी ख़ुशी उनके चेहरे पर साफ़ दिख रही थी| अगले छः घंटे तक हम पार्क में एक झूले से दूसरे झूले में घूमते रहे| जब कभी भी मुझे डर लगता तो मैं इनसे चिपक जाती और इन्होने उस समय का भरपूर फायदा उठाया! जैसे ही मैं इनसे लिपट जाती ये मेरे कान में कहते; "i love you!" आयुष और नेहा ने बहुत साड़ी फोटो खींचीं और आखिर में जब हम खाना खाने बैठे तभी इनका फ़ोन बज उठा| ज्यादातर तो ये मेरे सामने ही बात कर लिया करते थे पर आज ये फोन ले कर दूसरी तरफ जा कर किसी से बात करने लगे| पाँच मिनट बाद जब ये वापस आये तो मैंने इनसे पूछा; "किसका फोन था?" तो इन्होने मुझे बस आँख मारी और सवाल बदल दिया; "बच्चों कुछ order किया या नहीं?" मुझे कुछ अजीब लगा क्योंकि मैं इनका इशारा समझी नहीं थी|

खाना खाने के बाद आयुष फिर से जिद्द करने लगा और इस बार तो नेहा भी उसी का साथ दे रही थी| हार कर हमें फिर से अंदर जाना पड़ा और सच पूछो तो बहुत मजा आया| इतना मजा की मैं ये फोन वाली बात भी भूल गई| हम water park के सामने थे और बच्चों का और 'इनका' मन भी था अंदर जाने का पर 'इन्होने' जैसे-तैसे बच्चों को समझा दिया| ये जानते थे की मैं अंदर नहीं जाऊँगी.... मैंने इनका हाथ पकड़ लिया और हथेली दबा कर इन्हें thank you कहा| अब शाम होने लगी थी और हमें फिर से डेढ़ घंटा ड्राइव कर के घर जाना था तो मेरे समझाने पर बच्चे मान ही गए| हम निकलने लगे तो इन्होने फिर से किसी को फोन मिलाया और एक तरफ जा कर बात करने लगे| इस बार इन्होने बस दो मिनट बात की और फिर वापस आ कर गाडी में बैठ गए| मेरा मुंह थोड़ा लटक गया था तो मुझे खुश करने के लिए इन्होने मेरा favorite गाना: roar - katty perry चला दिया| गाना सुनते ही मेरी सारी नाराजगी फुर्र्र हो गई! "I got the eye of the tiger, a fighter, dancing through the fire

cause I am a champion and you're gonna hear me roar

louder, louder than a lion

cause I am a champion and you're gonna hear me roar

oh oh oh oh oh oh oh

oh oh oh oh oh oh oh

oh oh oh oh oh oh oh

you're gonna hear me roar" मेरे साथ बच्चे और 'इन्होने' भी गुनगुनाना शुरू कर दिया| ये पूरा गाना जैसे मेरे लिए ही बनाया गया था| lyrics का एक-एक शब्द मेरी जिंदगी के ऊपर based है| वैसे ये पहला अंग्रेजी गाना है जो इन्होने मुझे सुनाया था ये कह कर की; "ये गाना तुम्हारे लिए है!" तब से मैं इस गाने को बहुत दफा सुन चुकी हूँ| जब कभी भी मैं हारा हुआ महसूस करती हूँ ये गाना सुनती हूँ तो मुझे inspiration सी मिल जाती है| THANKS KATTY PERRY जी!

तभी अचानक से dashboard पर रखा इनका फोन विबरते करने लगा| मैंने फ़ौरन इनका फोन उठा लिया और ये किसी और का नहीं बल्कि ' करुणा' का ही फोन था| उसका नाम देखते ही जैसे मेरा खून खौल उठा और मैं disconnect करने ही वाली थी की इन्होने इशारे से मुझे कॉल उठाने को कहा| इन्होने bluetooth लगा रखा था तो मेरे कॉल उठाते ही ये पता नहीं क्या बात करने लगे उससे| आवाज बहुत धीमी थी इसलिए मैं कुछ सुन नहीं पाई| मुझे सच में बहुत गुस्सा आ रहा था और मैंने ये सब कैसे control किया था मैं ही जानती हूँ| मैंने इनके फ़ोन में पुरानी call list चेक की तो पता चला पिछले दो कॉल भी ' करुणा' के ही थे| पर असली धमाकेदार सरप्राइज तो घर पर मिलने वाला था! जैसे ही हम घर पहुँचे, इन्होने गाडी पार्क की और हम घर पहुँच गए| इन्होने फिर से किसी से फ़ोन पर बात करनी शुरू कर दी... किसी और से क्या ' करुणा' से और किससे! इन्होने आयुष को doorbell बजने को कहा और दरवाजा खुलते ही ये पीछे से जोर से चिल्लाये; "SURPRISE आयुष बेटे!!! Happy Bday!!!" अनदर से ' करुणा' माँ और पिताजी भी happy bday वाला गाना गाने लगे| देखा देखि मैंने और नेहा ने भी happy bday गाना शुरू कर दिया| आवाज सुन कर आस-पडोसी भी आ गए और सबने मिलकर आयुष का birthday celebrate किया और केक काटा| पार्टी का सारा अरेंजमेंट ' करुणा' ने किया था! जहाँ एक तरफ मुझे ख़ुशी थी की आयुष का जन्मदिन इतनी धूम-धाम से मनाया जा रहा है वहाँ इस बात का गुस्सा भी की ये सब ' करुणा' मैनेज कर रही है! पर ऐसा नहीं था की ' करुणा' सिर्फ 'इनके' लिए ऐसा कर रही हो| वो जब कभी भी घर आती थी तो वो बच्चों से बहुत प्यार जताती थी| हमेशा उनके लिए चॉकलेट ले कर आती थी, बल्कि आती ही ऐसे समय पर थी जब बच्चे घर पर हों| बच्चे भी उससे बहुत घुल-मिल गए थे| हमेशा उसे 'आंटी' कह कर बुलाते थे| यही कारन था की मैं उस दिन चुप रही और मैं भी पार्टी के रंग में रंग गई......

आज सब बहुत खुश थे..... ऐसा लगा जैसे बरसों बाद खुशियाँ घर आई हों| सबसे बड़ा सरप्राइज तो अनिल ने दिया| या फिर ये कहें की 'इन्होने' ही ये सरप्राइज प्लान किया था| ऑइल को देख कर तो मेरी और आयुष की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था| आखिर वो मेरा पहला बेटा जो है! पार्टी में आयुष के स्कूल के सारे दोस्त और उनके परिवार वाले आये थे| नेहा का कोई भी दोस्त नहीं आया था... शायद किसी को invite नहीं किया गया या फिर 'ये' भूल गए होंगे! 'इनके' और पिताजी के बिज़नेस से जुड़े लोग जो आये थे वो गिफ्टों के बड़े-बड़े बॉक्स ले कर आये थे| कुल-मिलकर करीब 50 लोग आये होंगे| हमारा घर खचाखच भर चूका था.... सारे बच्चे तो आयुष और नेहा के कमरे में बैठे थे, पिताजी के जानने वाले लोग उनके कमरे में बैठे थे| सारी औरतें और माँ हमारे कमरे में और आयुष के दोस्तों के पापा और आस-पडोसी सब बैठक में बैठे थे|

रात दस बजे तक पार्टी चलती रही और साढ़े दस बजे करीब सब लोग चले गए| सब के जाने के बाद तो आयुष गिफ्ट्स खोलने लगा| तभी माँ ने 'इन्हें' याद दिलाया; " करुणा ...बेटा रात बहुत हो गई है| तू आज यहीं सो जा|"
 
Back
Top