Hindi Xkahani - प्यार का सबूत

अध्याय - 119
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रूपा की मूक सहमति के बाद रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर अपनी जीप में बैठ कर चला गया। उसके जाने के बाद रूपा ने एक गहरी सांस ली और फिर पलट कर मकान के अंदर की तरफ देखने लगी। उसके मन में अब बस यही सवाल था कि आख़िर वो किस तरह से वैभव को राज़ी करे?
अब आगे....


मकान में चौकीदारी करने वाले सभी लोग मुझसे ये कह कर जंगल की तरफ चले गए कि वो मकान के चारो तरफ लकड़ी की बाउंड्री बनाने के लिए बल्लियां लेने जा रहे हैं। मैं मकान के अंदर आया तो देखा अंदर का कायाकल्प हो चुका था। हर जगह बहुत अच्छे से साफ सफाई कर दी गई थी। मैंने सरसरी तौर पर हर जगह निगाहें घुमाई और फिर थैले को अपने कमरे में रख दिया।

जहां एक तरफ मेरे दिलो दिमाग़ में अनुराधा अभी भी छाई हुई थी वहीं ज़हन में रूपा का भी बार बार ख़याल आ रहा था। मेरे लिए ये बड़े ही आश्चर्य की बात थी कि उसका भाई खुद उसे ले कर यहां आया था और बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी बल्कि ये भी थी कि वो अपनी बहन को मेरे पास सिर्फ इस लिए छोड़ कर जाने वाला है ताकि उसकी बहन यहां मेरे साथ रहते हुए मुझे इस मानसिक स्थिति से निकाल सके।

मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि रूपा का भाई इतना बड़ा क़दम कैसे उठा सकता है? यकीनन ये सिर्फ उसकी मर्ज़ी से नहीं हो सकता था। ज़ाहिर है इसमें उसके समस्त परिवार की भी सहमति थी। तभी तो अपनी बातों में उसने इस बात का भी ज़िक्र किया था कि उसके काका यानि गौरी शंकर ने इस मामले में मेरे पिता जी से बातें कर ली हैं। इस बात का ख़याल आते ही मेरे मस्तिष्क में एकदम से झनाका सा हुआ। मुझे सुबह बैठक में पिता जी की कही हुई बातें याद आ गईं। इसका मतलब वो इसी बारे में मुझसे कह रहे थे कि यहां आने पर अगर कोई मुझे मिले और मेरे साथ रहना चाहे तो मैं इसके लिए मना न करूं।

अभी मैं ये सोच ही रहा था कि तभी मुझे किसी के आने का आभास हुआ। मैं पलटा तो मेरी नज़र रूपा पर पड़ी। वो अजीब सी घबराहट और कसमकस में अपने हाथों की उंगलियों को एक दूसरे में उमेठती कभी मुझे तो कभी नीचे ज़मीन पर देखती नज़र आई।

"म...मैं जानती हूं कि तुम अनुराधा से बेहद प्रेम करते हो और उसके इस तरह चले जाने से तुम्हें बहुत धक्का लगा है।" फिर उसने धीर गंभीर भाव से कहा____"सच कहूं तो मुझे भी उस मासूम के इस तरह गुज़र जाने से बहुत दुख हो रहा है। तुम्हारे आने से पहले मैं उसी की चिता के पास बहुत देर तक बैठी रही थी। मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा कि ऐसा कुछ हो चुका है। काश! ये सब न हुआ होता। काश! ऊपर वाला उसकी जगह मुझे अपने पास बुला लेता।"

कहते कहते सहसा रूपा की आवाज़ भारी हो गई और उसकी आंखें भर आईं। इधर उसकी बातें सुन कर मेरे अंदर हूक सी उठी। आंखों के सामने अनुराधा का चेहरा उभर आया।

"तुम्हें पता है वैभव।" उधर रूपा ने किसी तरह खुद को सम्हाल कर फिर से कहा____"अनुराधा को ले कर मैंने जाने कितने ही हसीन सपने सजा लिए थे। शुरुआत में भले ही मुझे इस बात से तकलीफ़ हुई थी कि तुम किसी दूसरी लड़की से प्रेम करते हो मगर फिर एहसास हुआ कि प्रेम किसी के करने से नहीं बल्कि वो तो अपने आप ही हो जाया करता है। जैसे मुझे तुमसे हो गया वैसे ही तुम्हें उस लड़की से हो गया। अगर मैं तुम्हें हमेशा के लिए अपना बना लेना चाहती हूं तो उसी तरह तुम भी तो अपने प्रेम को हमेशा के लिए अपना बना लेना चाहते थे। हर प्रेम करने वाले की यही तो हसरत होती है। यानि इसमें न तो तुम्हारा कोई दोष था और ना ही इसमें मुझे कोई आपत्ति होनी चाहिए थी। बस, जब मुझे ये एहसास हो गया तो जैसे सब कुछ सामान्य हो गया। उसके बाद फिर मेरे मन में लेश मात्र भी अनुराधा के प्रति जलन की भावना न रही थी। वैसे भी तुम्हारी खुशी में ही तो मेरी खुशी थी। अगर तुम ही खुश न रहते तो फिर किसी बात का कोई मतलब ही नहीं रह जाना था। मेरे घर वाले उस मासूम को ले कर जाने क्या क्या सोचने लगे थे। ज़ाहिर है वो सिर्फ मेरी खुशी ही चाहते थे तभी तो उन्होंने ऐसा सोचा था लेकिन मैं जानती थी कि उचित क्या है। मेरी नज़र में सबसे ज़्यादा उचित यही था कि जिसे मैं प्रेम करती हूं वो खुश रहे, फिर भले ही उसकी खुशी के लिए मुझे अपने प्रेम का बलिदान ही क्यों न कर देना पड़े। यकीन करो वैभव, अगर तुम मुझसे ब्याह करने के लिए हां ना भी कहते तो मुझे तुमसे कोई शिकायत न होती। मैंने ये भी सोच लिया था कि तुम्हारे सिवा मैं किसी की दुल्हन भी कभी न बनूंगी। सारा जीवन ऐसे ही तुम्हारी खूबसूरत यादों के सहारे गुज़ार देती। मेरे घर वाले अथवा ये समाज क्या कहता मुझे इसकी कोई परवाह न होती।"

रूपा एकदम से चुप हुई तो कमरे में सन्नाटा छा गया। मेरे दिलो दिमाग़ में एक अजीब सी हलचल शुरू हो गई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहूं? बस ख़ामोशी से अपनी जगह बुत की मानिंद खड़ा था।

"इतने दिनों से बस एक ही बात सोचती आई हूं कि आख़िर ऊपर वाले ने ऐसा क्यों किया?" सहसा रूपा के शब्द एक बार फिर मेरे कानों से टकराए____"हम में से किसी के प्रेम को तो पूर्ण हो जाने दिया होता। आख़िर उस गुड़िया ने किसी के साथ ऐसा कौन सा अपराध किया था जिसके कारण उस निर्दोष को इतनी निर्दयता से मार दिया गया? काश! उसकी जगह मेरे प्राण ले लिए होते उस कंजर ने।"

"उसे मेरी वजह से मार दिया गया।" मैं एकदम हताश भाव से बोल पड़ा____"मेरी अनुराधा को मेरे कुकर्मों की सज़ा दी गई है। उसका हत्यारा चंद्रकांत नहीं बल्कि मैं हूं। हां रूपा मैं....उसका असल हत्यारा मैं ही हूं। अगर मैंने उससे प्रेम न किया होता तो आज मेरी अनुराधा इस दुनिया में ज़िंदा होती।"

"ऐसा मत कहो वैभव।" रूपा तड़प कर मेरे क़रीब आ गई, फिर बोली____"ये सच नहीं है। तुम अनुराधा की मौत के लिए खुद को दोष मत दो। सच तो यही है कि चंद्रकांत पागल हो गया था। अपने पागलपन में पहले उसने अपनी बहू को मार डाला और फिर अनुराधा को।"

"मुझे झूठी दिलासा मत दो।" मैंने खीझते हुए कहा____"सच क्या है ये तुम भी अच्छी तरह समझती हो और सच यही है कि चंद्रकांत ने मुझसे बदला लेने के लिए मेरी निर्दोष अनुराधा को मार डाला। अगर अनुराधा के जीवन में मेरा कोई दखल न होता तो आज वो जीवित होती। उसे मेरे कुकर्मों ने ही नहीं बल्कि मेरे प्रेम ने भी मार डाला रूपा।"

कहने के साथ ही मेरे घुटने मुड़ गए और मैं वहीं पर बिलख बिलख कर रो पड़ा। दिलो दिमाग़ में अचानक से जज़्बातों की ऐसी आंधी चल पड़ी कि मैं चाह कर भी उसे काबू न कर सका। रूपा ने मुझे रोते देखा तो वो बुरी तरह तड़प उठी। झपट कर उसने मुझे अपने सीने से छुपका लिया और फिर खुद भी सिसकने लगी। जाने कितनी ही देर तक मैं उससे छुपका रोता रहा और वो मुझे शांत कराने की कोशिश करती रही।

"त...तुम जाओ यहां से।" अचानक मैं उससे एक झटके से अलग हुआ और फिर बोला____"तुम्हें मेरे क़रीब नहीं रहना चाहिए और ना ही मुझसे प्रेम करना चाहिए। मुझसे प्रेम करने वाला हर व्यक्ति अनुराधा की तरह मार दिया जाएगा। जाओ, चली जाओ यहां से। आज के बाद कभी मेरे क़रीब मत आना और.....और हां...मुझसे ब्याह भी मत करना।"

"य...ये तुम क्या कह रहे हो वैभव?" रूपा बुरी तरह घबरा गई____"शांत हो जाओ मेरे दिलबर।"

"नहीं नहीं।" मैं छिटक कर उससे दूर हट गया____"जाओ यहां से। चली जाओ....मेरे पास रहोगी तो कोई तुम्हें भी मार डालेगा। मेरे कुकर्मों की सज़ा तुम्हें भी मिल जाएगी। जाओ, चली जाओ यहां से।"

"ये कैसी बहकी बहकी बातें कर रहे हो तुम?" रूपा बुरी तरह रोते हुए मेरे चेहरे को अपनी हथेलियों में भर कर बोली____"भगवान के लिए शांत हो जाओ और अपने से दूर मत करो मुझे। किसी को अगर मेरी जान ही लेनी है तो आ कर ले ले मगर मैं कहीं नहीं जाऊंगी। तुम्हारे पास ही रहूंगी, अपने दिलबर के पास। अपने वैभव के पास। मौत आएगी भी तो कम से कम अपने देवता के पास तो मौजूद रहूंगी। अपने महबूब की बाहों में दम निकलेगा तो ये मेरे लिए खुशी की ही बात होगी।"

"बकवास मत करो" मैंने उसे झटक दिया और पूरी शक्ति से चीखा____"मुझ जैसे कुकर्मी के पास तुम हर्गिज़ नहीं रह सकती। मेरी परछाई भी तुम्हारे लिए घातक है।"

"मेरे घर वालों ने विदा कर के मुझे मेरे देवता के पास भेज दिया है।" रूपा ने रुंधे गले से कहा____"मेरा भाई मुझे मेरे होने वाले पति के पास छोड़ गया है। इस वक्त मैं अपने घर में अपने पति के पास हूं। अब इस घर से मेरी अर्थी ही जाएगी।

रूपा की बातें सुन कर जाने क्यों मैं गुस्से से पागल हो उठा। मेरे अंदर अजीब सा झंझावात चालू हो गया था। गुस्से से दांत पीसते हुए मैं अभी कुछ करने ही वाला था कि तभी जाने क्या सोच कर मैं ठिठक गया और फिर पैर पटकते हुए कमरे से बाहर निकल गया। मुझे इस तरह बाहर जाते देख रूपा हड़बड़ा गई और फिर वो भी मेरे पीछे पीछे बाहर की तरफ लपकी।

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रूपचंद्र जब अपने घर पहुंचा तो सबको बैठक में ही बैठा पाया। सभी घर वाले किसी सोच में डूबे हुए नज़र आ रहे थे और उससे भी ज़्यादा चिंतित दिखाई दे रहे थे। रूपचंद्र को आया देख सबके सब चौंके और साथ ही बड़े व्याकुल से नज़र आने लगे।

"अरे! बड़ी जल्दी आ गए तुम?" फूलवती जैसे खुद को रोक न सकी थी, इस लिए मारे उत्सुकता के बोली____"सब ठीक तो है ना बेटा और....और रूपा कैसी है? क्या तुम्हारे होने वाले बहनोई से तुम्हारी मुलाक़ात हुई?"

"एक साथ इतने सारे सवाल मत पूछिए बड़ी मां।" रूपचंद्र ने एक जगह बैठते हुए कहा____"पहले मेरे लिए एक लोटा पानी तो मंगवाइए, प्यास लगी है।"

रूपचंद्र की बात सुनते ही फूलवती ने पास ही खड़ी स्नेहा को पानी लाने के लिए भेज दिया। जल्दी ही स्नेहा पानी ले आई जिसे रूपचंद्र ने पिया और फिर लोटा वापस स्नेहा को पकड़ा दिया।

"अब जल्दी से बताओ बेटा कि वहां सब कैसा है?" फूलवती फिर से मारे व्याकुलता के पूछ बैठी____"कोई गड़बड़ तो नहीं हुई न वहां?"

"फ़िक्र वाली बात नहीं है बड़ी मां।" रूपचंद्र ने गहरी सांस ले कर कहा____"लेकिन जैसा कि आप सबको पहले से ही आशंका थी वैसा ही हुआ।"

"क्या मतलब है तेरा?" ललिता देवी घबराहट के चलते झट से पूछ बैठी____"आख़िर क्या हुआ है वहां?"

रूपचंद्र ने सारी बात बता दी। उसने बताया कि वैभव ने साफ कह दिया है कि रूपा को उसके साथ वहां रहने की कोई ज़रूरत नहीं है। अंत में उसने ये बताया कि वो फिलहाल ये कह कर आया है कि वो किसी ज़रूरी काम से शहर जा रहा है इस लिए तब तक रूपा उसके साथ वहीं पर रहेगी और जब वो शहर से वापस आएगा तो रूपा को अपने साथ ले जाएगा।

"ये क्या कह रहे हो तुम?" गौरी शंकर ने चिंतित भाव से कहा____"इसका मतलब रूपा बिटिया को जिस मकसद से हमने उसके पास रहने भेजा है वो व्यर्थ गया?"

"लगता तो ऐसा ही है काका।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन मैं भी हार न मानने वाली तर्ज़ पर ही रूपा को शहर जाने का बहाना कर के उसके पास छोड़ कर आया हूं। मैं रूपा से साफ शब्दों में कह आया हूं कि अब ये सिर्फ उसी पर है कि वो कैसे खुद को वैभव के पास रहने का कोई मार्ग निकालती है? आप सब तो जानते ही हैं कि हम किसी भी तरह की ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं कर सकते हैं क्योंकि ऐसे में बात बिगड़ सकती है। हमारी किसी भी तरह की बात अथवा तर्क वितर्क की बातों से वैभव आहत अथवा नाराज़ हो सकता है लेकिन अगर रूपा खुद कोई कोशिश करेगी तो बहुत हद तक संभव है कि वो ऐसा न कर सके। आख़िर उसे भी पता है कि रूपा उसे प्रेम करती है और उसने अपने इस प्रेम के चलते क्या कुछ नहीं किया है उसके लिए। वैभव भले ही इस समय ऐसी मानसिक हालत में है लेकिन मुझे यकीन है कि रूपा के प्रति उसका रवैया इस हद तक तो कठोर नहीं हो सकता कि वो उसकी कोई बात ही न सुने।"

"हम्म्म्म सही कह रहे हो तुम।" गौरी शंकर ने सिर हिलाते हुए कहा____"मुझे भी विश्वास है कि वैभव का रवैया हमारी बिटिया के प्रति इतना सख़्त नहीं हो सकता। तुम रूपा को उसके पास छोड़ कर यहां चले आए ये अच्छा किया। तुम्हारी मौजूदगी में वो वैभव से कोई बात भी नहीं कर सकती थी। आख़िर इतना तो क़ायदा है उसमें कि वो अपने बड़े भाई के सामने वैभव से बात न करे। ख़ैर, अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि रूपा बिटिया अपनी कोशिश में कामयाब हो जाए और जल्द ही वैभव की मानसिक अवस्था ठीक हो जाए।"

"ज़रूर ठीक हो जाएगी काका।" रूपचंद्र ने दृढ़ता से कहा____"मुझे अपनी बहन पर और उसके प्रेम पर पूर्ण विश्वास है। ख़ैर आप लोग दोपहर के भोजन की तैयारी कीजिए। मैं औपचारिक रूप से उन दोनों के लिए खाना ले कर जाऊंगा। अगर सब ठीक रहा तो रूपा वहीं रहेगी अन्यथा मजबूरन मुझे उसको अपने साथ वापस ले कर आना ही पड़ेगा।"

रूपचंद्र की बात सुन कर फूलवती ने फ़ौरन ही सबको भोजन बनाने का हुकुम दे दिया। वहां मौजूद कुछ औरतें और लड़कियां फ़ौरन ही हरकत में आ गईं। रूपचंद्र, गौरी शंकर, फूलवती और ललिता देवी इसी संबंध में और भी बातें करती रहीं। उधर वक्त धीरे धीरे गुज़रता रहा।

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मैं आंधी तूफ़ान बना तेज़ क़दमों से जंगल की तरफ बढ़ा चला जा रहा था। दिलो दिमाग़ में भौकाल सा मचा हुआ था। इस वक्त मेरे अंदर गुस्सा भी था और इस बात का अपराध बोझ भी कि मेरे ही कुकर्मों की वजह से अनुराधा को चंद्रकांत ने मार डाला था। यानि अगर मैं उसके जीवन में इस तरह से न आया होता तो आज वो जीवित होती। अपनी अनुराधा का असल हत्यारा मैं ही था।

दिलो दिमाग़ में दोनों तरह के विचारो का भीषण बवंडर चल रहा था जो मुझे पागल भी किए दे रहा था और बुरी तरह रुला भी रहा था। आंखों के सामने बार बार अनुराधा का चेहरा चमक उठता। ख़ास कर उस दिन का मंज़र जिस दिन वो एक लाश के रूप में पेड़ पर रस्सी के सहारे लटकी हुई थी।

मेरे पीछे रूपा भागती हुई चली आ रही थी और मुझे आवाज़ लगाए जा रही थी लेकिन मुझे जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था। मैं अपने दिलो दिमाग़ में चल रही आंधी में खोया बदस्तूर बढ़ता ही चला जा रहा था। जल्दी ही मैं जंगल में दाख़िल हो गया। कुछ दिन पहले तेज़ बारिश हुई थी इस लिए जंगल के अंदर की ज़मीन में हल्का गीलापन था। घने पेड़ पौधों की वजह से सूरज की धूप कम ही आ रही थी वहां।

जंगल के अंदर आने पर भी मेरी रफ़्तार में कोई कमी नहीं आई। जैसे मुझे आभास ही नहीं था कि मैं जंगल के अंदर हूं। पीछे से रूपा की आवाज़ें अब भी आ रही थीं लेकिन मैं कहीं खोया हुआ बढ़ता ही चला जा रहा था। तभी अचानक मेरा पैर किसी पत्थर पर टकरा गया तो मैं बुरी तरह लड़खड़ा गया और झोंक में भरभरा कर सीने के बल गिर पड़ा। मेरे गिरते ही वातावरण में रूपा की चीख गूंज उठी। इधर गिरने की वजह से मैं भी विचारों के बवंडर से बाहर आ गया।

अभी मैं उठ ही रहा था कि तभी भागती हुई रूपा मेरे पास आ गई। उसने जल्दी से मुझे सम्हाला और फिर बड़े ही एहतियात से वहीं बैठा दिया। उसका चेहरा आंसुओं से तर था। वो सिसक रही थी लेकिन इसके बावजूद वो चिंतित अवस्था में मेरे जिस्म के हर हिस्से को टटोल टटोल कर देखे जा रही थी। शायद वो ये देखना चाहती थी कि गिरने की वजह से कहीं मुझे चोट तो नहीं लग गई?

"नहीं...दूर हट जाओ।" उसके इस तरह मुझे टटोलने से मैं एकदम से उसे धक्का दे कर चीखा____"मेरे पास आने की कोशिश मत करो। चली जाओ यहां से....वरना...वरना तुम्हें भी मेरे कुकर्मों की सज़ा मिल जाएगी।"

"अगर मिलती है तो मिल जाए।" वो तड़प कर रोते हुए बोली_____"मुझे अपने मर जाने की कोई परवाह नहीं है। मुझे सिर्फ तुम्हारी परवाह है वैभव।"

"फिर से वही बकवास?" मैं एक बार फिर गुस्से से चीख पड़ा____"मैंने कहा न चली जाओ यहां से। तुम्हें एक बार में मेरी बात समझ में क्यों नहीं आती?"

"हां नहीं आती मुझे।" रूपा की आंखें छलक पड़ीं____"और मैं ऐसी कोई बात समझना भी नहीं चाहती जिसमें मेरे वैभव और मेरे प्रेम पर कोई आंच आए। अपने आपको सम्हालो वैभव और खुद को किसी बात के लिए इस तरह दोष दे कर दुखी मत करो। भगवान के लिए शांत हो जाओ, अपने लिए या मेरे लिए न सही किंतु अपनी अनुराधा के लिए तो शांत हो जाओ। ज़रा सोचो कि इस वक्त तुम्हारी ऐसी हालत देख कर तुम्हारी अनुराधा कितना दुखी होगी। क्या तुम अपनी अनुराधा को उसके मरने के बाद भी खुश नहीं देखना चाहते? क्या तुम अपनी अनुराधा की आत्मा को तड़पाना चाहते हो?"

"न..नहीं नहीं।" मैं पूरी शक्ति से चीख उठा____"मैं अपनी अनुराधा को तड़पाने के बारे में सोच भी नहीं सकता। उसे ज़रा सा भी दुख नहीं दे सकता। मैं तो....मैं तो उसे हमेशा खुशी से शरमाते हुए ही देखना चाहता हूं। हां हां...मेरी अनुराधा जब खुशी से शर्माती है तो मुझे बहुत सुंदर लगती है...बहुत प्यारी लगती है मुझे। मैं एक पल के लिए भी उसके चेहरे पर दुख के भाव नहीं रहने दे सकता।"

"अगर तुम सच में ऐसा चाहते हो।" रूपा ने सहसा मेरे क़रीब आ कर बड़े प्यार से मेरे चेहरे को सहलाते हुए कहा____"तो खुद को इस तरह दुख में मत डुबाओ। हां वैभव, अगर तुम खुद को इसी तरह दुखी रखोगे और उसकी मौत के लिए खुद को दोष देते रहोगे तो वो कभी खुश नहीं रह सकेगी। तुम्हारी अनुराधा तो मुझसे भी ज़्यादा तुमसे प्रेम करती है ना, फिर भला वो ये कैसे देख सकेगी कि उसका महबूब इसके लिए इस तरह खुद को दुखी रखे और सबसे विरक्त हो जाए? वो तो यही चाहेगी न कि उसका महबूब हर हाल में उसे सिर्फ प्रेम करे और प्रेम से ही उसे याद करे? जब तुम उसे प्रेम से याद करोगे तो उसे बहुत ही अच्छा लगेगा। उसकी आत्मा को बड़ा सुकून मिलेगा। क्या तुम नहीं चाहते कि तुम्हारी अनुराधा की आत्मा को सुकून मिले?"

"नहीं नहीं।" मैं एकदम से हड़बड़ा कर बोल पड़ा____"मैं अपनी अनुराधा को हमेशा सुकून में देखना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि मेरी अनुराधा बहुत ज़्यादा खुश रहे।"

"और ऐसा तभी होगा ना जब तुम अपनी ऐसी हालत से बाहर निकल कर उसके लिए कुछ अच्छा करोगे।" रूपा ने बड़े ही प्यार से समझाते हुए कहा_____"हां वैभव, तुम्हें अपनी अनुराधा के लिए कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे कि वो खुश रहने लगे और उसकी आत्मा सुकून और तृप्ति को प्राप्त कर सके।"

"हां सही कह रही हो तुम।" मैं कुछ सोचते हुए झट से बोल पड़ा____"मुझे अपनी अनुराधा के लिए सच में कुछ अच्छा करना चाहिए मगर....।"

"मगर???" रूपा ने उसी प्यार से पूछा।

"मगर मैं ऐसा क्या करूं जिससे मेरी अनुराधा हमेशा खुश रहे और उसकी आत्मा को शांति मिलती रहे?" मैंने सहसा व्याकुल हो कर कहा____"त...तुम मुझे बताओ रूपा...मुझे बताओ कि मुझे अपनी अनुराधा के लिए क्या करना चाहिए?"

"सबसे पहले तो हमें यहां से वापस मकान में चलना चाहिए।" रूपा के चेहरे पर सहसा राहत और खुशी के भाव उभर आए, बोली____"वहीं पर तसल्ली से बैठ कर सोचेंगे कि हम दोनों को अनुराधा के लिए क्या करना चाहिए?"

"ह...हम दोनों को?" मैंने अनायास ही चौंक कर उसकी तरफ सवालिया भाव से देखा।

"हां वैभव हम दोनों को।" रूपा ने खुद को सम्हालते हुए कहा____"माना कि अनुराधा तुम्हारी सब कुछ थी लेकिन वो मेरी भी तो छोटी बहन थी। मैंने तो ये भी सोच लिया था कि मैं अनुराधा को अपनी छोटी गुड़िया बना लूंगी और उसे बहुत सारा प्यार और स्नेह दिया करूंगी लेकिन....ये मेरी बदकिस्मती ही थी कि मेरे नसीब में मेरी छोटी गुड़िया को प्यार और स्नेह देना लिखा ही नहीं था।"

कहने के साथ ही रूपा की आवाज़ भर्रा गई और आंखों से आंसू छलक पड़े। उसकी बातों से मेरे अंदर एक हूक सी उठी। ना चाहते हुए भी मेरे हाथ स्वतः ही ऊपर उठे और फिर उसके गालों पर लुढ़क आए आंसू की दोनों लकीरों को पोंछ दिए। ये देख रूपा की दोनों आंखों से फिर से आंसू के कतरे छलक पड़े और फिर से आंसू की दो लकीर बना गए। उसने बड़ी मुश्किल से खुद को सम्हाला और फिर मुझे ले कर खड़ी हो गई।

कुछ ही देर में वो मुझे मकान में ले आई। मैं महसूस कर रहा था कि अब मेरे अंदर पहले जैसा तूफ़ान नहीं था। थोड़ा हल्का सा महसूस हो रहा था किंतु अब इस बात को जानने की उत्सुकता तीव्र हो उठी थी कि वो ऐसा क्या करने का सुझाव देगी जिससे कि मेरी अनुराधा को खुशी के साथ साथ सुकून भी मिलेगा?​
 
अध्याय - 120
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दोपहर का वक्त था।
हवेली के बैठक कक्ष में दादा ठाकुर के साथ कई लोग बैठे हुए थे। महेंद्र सिंह, ज्ञानेंद्र सिंह, अर्जुन सिंह, गौरी शंकर तथा किशोरी लाल। सभी के चेहरों पर गहन सोचो के भाव गर्दिश कर रहे थे। अभी कुछ देर पहले ही ये लोग यहां आए थे।

"ऐसी परिस्थिति में यूं तो वैभव का उस सुनसान जगह पर अकेले रहना उचित नहीं है।" महेंद्र सिंह ने कहा____"लेकिन क्योंकि उसकी मानसिक हालत ठीक नहीं है इस लिए उस पर किसी तरह की रोक टोक अथवा ज़ोर ज़बरदस्ती करना भी उचित नहीं है। काश! चंद्रकांत ने ऐसा संगीन क़दम न उठाया होता। काश! उस लड़की को इस तरह निर्दयता से मारने से पहले उसके मन में ये ख़याल आया होता कि वो लड़की हर तरह से निर्दोष है।"

"कहना तो नहीं चाहिए लेकिन एक कड़वा सच ये भी है कि उस लड़की की इस तरह से हुई हत्या का ज़िम्मेदार खुद वैभव भी है।" अर्जुन सिंह ने सबकी तरफ निगाह घुमाते हुए गंभीरता से कहा____"चंद्रकांत असल में वैभव को ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझता था। ज़ाहिर है उसकी इस दुश्मनी की वजह उसकी घर की औरतों के साथ वैभव के नाजायज़ ताल्लुक़ात ही थे। हालाकि सारा दोष सिर्फ वैभव पर मढ़ना और फिर ये सब कर गुज़रना कहीं से भी उचित नहीं था लेकिन शायद दोनों बाप बेटों की ऐसी ही मानसिक स्थिति बन चुकी थी। जब अपनों पर कोई बस न चला तो दूसरों पर ही अपने गुस्से और नफ़रत का सारा लावा उड़ेल देना उनकी मानसिक स्थिति बन चुकी थी। इतना कुछ करने के बाद भी जब उसने ये देखा कि उसका असल दुश्मन तो अभी भी जीवित अवस्था में बड़े शान से घूम फिर रहा है तो वो वैभव को तोड़ डालने का यही हौलनाक क़दम उठा बैठा। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं रह गया था कि जिसकी वो हत्या करने जा रहा है उसका कहीं कोई दोष भी है या नहीं। बल्कि उसे तो सिर्फ इस बात से मतलब था कि उसे किसी भी हालत में अपने सबसे बड़े दुश्मन यानि वैभव का अहित करना है। इसमें कोई शक नहीं कि उसने ऐसा कर के सच में वैभव का बहुत बड़ा अहित कर दिया है। इंसान जिस व्यक्ति को दिल की गहराइयों से प्रेम कर रहा होता है उसके साथ अगर कोई ऐसा कर दे तो यकीनन प्रेम करने वाले व्यक्ति की वैसी ही दशा हो जाती है जैसे कि इस समय वैभव की है।"

"माना कि ये एक कड़वा सच है अर्जुन सिंह।" महेंद्र सिंह ने गहरी सांस ली____"लेकिन अब इन सब बातों का कोई मतलब नहीं रहा। अब तो सिर्फ ये सोचना है कि सफ़ेदपोश कौन है? जो रहस्यमय व्यक्ति इसके पहले वैभव का जानी दुश्मन बना हुआ था वो इतने समय बाद अचानक से चंद्रकांत के मामले में कैसे जुड़ गया? उसने चंद्रकांत को उसके बेटे के हत्यारे के बारे में क्यों झूठी कहानी सुनाई? आख़िर क्यों उसने चंद्रकांत के हाथों उसकी अपनी ही बहू को मरवा दिया?"

"क्या रघुवीर के हत्यारे के बारे में अब तक आपको कुछ पता नहीं चला?" दादा ठाकुर ने पूछा____"हैरत की बात है कि बीस दिन होने वाले हैं और अभी तक वो हमें नज़र नहीं आया। हमारे आदमी आज भी मुस्तैदी से उसके आने की प्रतिक्षा कर रहे हैं किंतु वो उस दिन के बाद से अब तक दुबारा नज़र ही नहीं आया। ऐसा लगता है जैसे वो फिर से कहीं ग़ायब हो गया है और अचानक से फिर वो किसी दिन एक नए मामले में जुड़ा हुआ नज़र आएगा।"

"सफ़ेदपोश की तलाश करना तो आपका ही काम है ठाकुर साहब।" महेंद्र सिंह ने कहा____"हालाकि हम भी अपने तरीके से उसका पता करने की कोशिश करते रहते हैं लेकिन हमें ये भी लगता है कि वो हमारी पहुंच से बाहर की ही चीज़ है। इस बीच हमने इस बात की छानबीन ज़रूर की है कि उसने चंद्रकांत को उसके बहू के संबंध में जो कहानी सुनाई थी वो झूठी थी अथवा सच।"

"तो क्या पता चला?" दादा ठाकुर के साथ साथ बाकी लोगों के चेहरों पर भी उत्सुकता के भाव उभर आए थे।

"ये तो आप भी समझते हैं कि ऐसे संबंध ज़्यादा दिनों तक किसी से छुपे नहीं रहते हैं।" महेंद्र सिंह ने कहा____"एक न एक दिन ऐसे संबंधों की भनक लोगों को लग ही जाती है। सबसे पहले तो आस पड़ोस वालों को ही पता लग जाता है। उसके बाद धीरे धीरे ऐसी बातें चारो तरफ फैल जाती हैं। हमारे आदमियों ने आपके गांव के लोगों से ही नहीं बल्कि आस पास के गांवों के लोगों से भी इस बारे में पूछताछ की लेकिन सभी ने यही कहा कि ऐसे किसी भी व्यक्ति से रजनी के संबंधों का उन्हें पता नहीं है। अलबत्ता वैभव से उसके संबंधों का उन्हें ज़रूर शक था। इतनी पूछताछ के बाद हम इसी नतीजे पर पहुंचे हैं कि सफ़ेदपोश ने रजनी के संबंध में चंद्रकांत को जो कुछ बताया था वो सरासर झूठ था। स्पष्ट है कि वो अपने ही किसी मकसद के तहत चंद्रकांत के द्वारा ऐसा करवाना चाहता था। वरना आप ही सोचिए कि चंद्रकांत को अगली रात मिलने का कह कर भी वो क्यों नहीं आया? चंद्रकांत उसका इंतजार करते करते मर भी गया लेकिन उसका अब तक कहीं कोई अता पता नहीं है।"

"इस बात की आशंका तो हमें पहले ही हो गई थी।" दादा ठाकुर ने कहा____"सफ़ेदपोश ने यकीनन ये सब अपने किसी मकसद के तहत ही करवाया है। उसे रजनी के चरित्र का बखूबी पता था जिसके आधार पर उसने ऐसी कहानी बना कर चंद्रकांत को सुनाई। उसे पूरा यकीन था कि चंद्रकांत उसकी कहानी को बिना सोचे समझे इस लिए सच मान लेगा क्योंकि वो खुद भी अपनी बहू के गंदे चरित्र से वाक़िफ है। चंद्रकांत की मानसिक अवस्था का भी उसे बखूबी एहसास था। वो जानता था कि चंद्रकांत अपने बेटे के हत्यारे के बारे में जानने के लिए एकदम से पगलाया हुआ है। ऐसे में अगर उसे कहीं से भी उसके बेटे के हत्यारे के बारे में पता चलेगा तो उसका बर्ताव कुछ इसी तरह का होगा। यानि वो गुस्से में पागल हो जाएगा और फिर बिना सोचे समझे वो अपने बेटे के हत्यारे का खून कर देगा, जैसा कि उसने किया भी। ये सारी बातें साफ ज़ाहिर करती हैं कि सफ़ेदपोश बड़ा ही शातिर है। अब सवाल ये है कि उसकी चंद्रकांत से क्या दुश्मनी थी जिसके चलते उसने इतने शातिराना ढंग से ऐसा काम करवा लिया? एक बात और, अगर चंद्रकांत से उसकी कोई दुश्मनी थी ही तो अब तक उसने ऐसा कुछ क्यों नहीं किया था?"

"बिल्कुल सही कह रहे हैं आप।" महेंद्र सिंह ने कहा____"ये दो तीन सवाल ऐसे हैं जो उस दिन से हमारे मन में खलल डाले हुए हैं। बहुत सोचते हैं लेकिन कुछ भी समझ में नहीं आता। अगर वजह का पता चल जाए तो यकीनन ये भी समझ आ जाएगा कि सफ़ेदपोश कौन है और उसने ऐसा क्यों किया?"

"सबसे बड़ी विडंबना तो यही रही है कि सफ़ेदपोश की हमसे अथवा चंद्रकांत से दुश्मनी की वजह ही समझ नहीं आई कभी।" दादा ठाकुर ने बेचैन भाव से गहरी सांस ली____"उसके जैसा शातिर और दुस्साहसी व्यक्ति अपने जीवन में हमने कभी नहीं देखा। उसका सबसे बड़ा दुस्साहस तो यही था कि उसने हमारी हवेली के बाहर बने एक कमरे से दरबानों की मौजूदगी में जगन को निकाल ले गया था। क्या आप में से किसी को उससे इतने बड़े दुस्साहस की उम्मीद हो सकती थी?"

"नहीं, बिल्कुल नहीं।" अर्जुन सिंह ने इंकार में सिर हिला कर कहा____"सचमुच उसने ये बड़ा ही दुस्साहस का परिचय दिया था। ऐसा तो वही कर सकता है जिसे अपनी मौत का ज़रा भी खौफ़ ना हो।"

"वैसे एक सवाल शुरू से ही मेरे मन में है कि जब चंद्रकांत ने रात अपनी बहू की इतनी निर्ममता से हत्या की थी।" गौरी शंकर ने कहा____"तो उसके घर वालों को पता कैसे नहीं चला? घर के अंदर उसकी बीवी और बेटी भी तो थीं? क्या वो नींद में इस तरह अंटा गाफिल थीं कि उन्हें अपने आस पास ही कहीं पर रजनी की ऐसी भयानक हत्या होने का ज़रा भी आभास नहीं हुआ? भला ऐसा कैसे हो सकता है?"

"हमारे मन में भी ये सवाल उभरा था।" महेंद्र सिंह ने कहा____"किंतु उस समय ऐसे हालात थे कि पूछने का मौका ही नहीं मिला अथवा ये कहें कि पूछने का ध्यान ही नहीं रहा था। उसके बाद फिर अचानक उस लड़की की हत्या का मामला हो गया जिसके चलते माहौल ही अलग हो गया था। हालाकि कुछ दिन पहले ही हम चंद्रकांत के घर इस सारे मामले की पूछताछ करने गए थे।"

"तो क्या पता चला आपको?" दादा ठाकुर ने पूछा।

"यही कि ना तो चंद्रकांत की बीवी को इस भयानक हादसे का आभास हुआ और ना ही उसकी बेटी को।" महेंद्र सिंह ने कहा____"उनका कहना था कि अगर उनमें से किसी को ऐसा कुछ आभास हुआ होता और अगर वो रजनी की चीख सुन कर जाग जाते तो शायद ऐसा हो ही नहीं पाता।"

"हमारा खयाल है कि वो दोनों मां बेटी सच बोल रहीं हैं।" दादा ठाकुर ने कुछ सोचते हुए कहा____"यकीनन अगर उन्हें पता चल जाता तो ऐसा हो ही नहीं सकता था लेकिन उन्हें पता ही नहीं चला। इसका मतलब यही हुआ कि चंद्रकांत ने किसी को पता चलने ही नहीं दिया होगा।"

"बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप।" महेंद्र सिंह ने कहा____"उनकी बातों से हम भी इसी नतीजे पर पहुंचे थे। यानि चंद्रकांत ने ज़रा सा भी उन्हें पता नहीं चलने दिया था। ज़ाहिर है इतना ख़तरनाक काम करने से पहले उसने अपनी बहू का मुंह बंद कर दिया रहा होगा ताकि उसके चीखने की आवाज़ उसके हलक से बाहर निकल ही न सके।"

"या फिर सोते में ही उसने एक झटके में अपनी बहू की गर्दन काट दी होगी।" दादा ठाकुर ने जैसे संभावना ब्यक्त की____"इतना तो वो भी समझता था कि अगर उसके द्वारा किए जा रहे कृत्य का पता उसकी बीवी और बेटी को चल गया तो वो उसे इतना भयानक हत्याकांड नहीं करने देंगी। इस लिए उसने सोते में ही एक झटके में अपनी बहू की गर्दन काट दी होगी। वैसे भी अपने बेटे के हत्यारे के बारे में जानने के लिए वो पहले से ही पगलाया हुआ था और जब उसे हत्यारे का पता चला तो उसने अपना सम्पूर्ण आपा खो दिया होगा। वो अंदर अपनी बहू के कमरे में गया होगा। वहां बिस्तर पर उसने अपनी बहू को बड़े आराम से सोता हुआ देखा होगा। बहू के रूप में उसे अपने बेटे का हत्यारा नज़र आया जिससे उसका खून खौल उठा और फिर उसने एक ही झटके में तलवार से रजनी की गर्दन काट दी होगी। उस एक ही वार में रजनी मर गई होगी लेकिन चंद्रकांत को शायद इतने से भी तसल्ली अथवा शांति न मिली होगी। इस लिए उसने रजनी के शरीर को जगह जगह तलवार से चीर दिया। जैसा कि उसकी लाश देखने से ही पता चल रहा था। रजनी को चीखने चिल्लाने का जब कोई मौका ही नहीं मिला होगा तो भला कैसे उस घर में ही मौजूद उसकी बीवी और बेटी को इस सबका पता चल पाता?"

"वाकई, ऐसा ही हुआ होगा।" महेंद्र सिंह ने गंभीरता से सिर हिलाया____"ख़ैर, अगर सच में सफ़ेदपोश ने चंद्रकांत से ये सब अपनी किसी दुश्मनी के चलते ही करवाया है तो यकीनन ये बड़ा ही हैरतअंगेज कारनामा किया है उसने।"

"हमारा ख़याल तो ये है कि उसका सबसे बड़ा कारनामा ये है कि आज तक हम में से किसी को भी उसके बारे में ज़रा सा भी सुराग़ नहीं मिल सका है।" दादा ठाकुर ने कहा____"हर किसी से अपनी असलियत को छुपाए रख कर बड़ी ही सफाई से इतना कुछ कर गुज़रना किसी चमत्कार से कम नहीं है।"

"सही कह रहे हैं आप।" महेंद्र सिंह ने कहा____"वाकई ये चमत्कार ही है। ना आज तक किसी को उसका मकसद समझ आया और ना ही किसी को उसके बारे में ज़रा सा भी कुछ पता चल सका है। इससे बड़ा चमत्कार वास्तव में कुछ और नहीं हो सकता।"

"जो भी हो लेकिन जब तक वो पकड़ा नहीं जाता।" गौरी शंकर ने कहा____"तब तक किसी न किसी अनहोनी अथवा अनिष्ट की आशंका तो बनी ही रहेगी। इस लिए बेहतर यही है कि उसे हर हाल में खोज कर पकड़ लिया जाए।"

"कहते तो तुम ठीक हो गौरी शंकर।" दादा ठाकुर ने कहा____"लेकिन वो पकड़ में तो तब आएगा न जब वो किसी को कहीं नज़र आएगा। पिछले बीस दिनों से हमारे आदमी अपनी आंखें गड़ाए हुए हैं और उसको पकड़ने के लिए पूरी तरह से मुस्तैद हैं लेकिन वो तो ऐसे ग़ायब है जैसे उसका कहीं कोई वजूद ही नहीं है। उसके बारे में सबसे ज़्यादा हम ही चिंतित हैं और जब तक वो हमारी पकड़ में नहीं आ जाता हमें चैन नहीं मिल सकता।"

कुछ देर और इसी सिलसिले में बातें होती रहीं उसके बाद सब इजाज़त ले कर चले गए। सबसे आख़िर में गौरी शंकर गया क्योंकि बाकी लोगों के जाने के बाद उसने ख़ास तौर पर दादा ठाकुर से अपनी भतीजी रूपा और वैभव के बारे में चर्चा की थी।

✮✮✮✮

मैं और रूपा जब वापस मकान के पास पहुंचे तो देखा मकान के बाहर शेरा खड़ा था। उसके साथ आए कुछ आदमी जीप से सामान निकाल कर मकान के अंदर रख रहे थे। मुझ पर नज़र पड़ते ही शेरा मेरे क़रीब आया और मुझे सलाम किया।

"तुम यहां किस लिए आए हो?" मैंने निर्विकार भाव से उससे पूछा____"और ये लोग मकान के अंदर क्या रख रहे हैं?"

"आपकी ज़रूरत का कुछ सामान है छोटे कुंवर।" शेरा ने कहा____"एक बोरी में चावल दाल और आटा है। एक में फल और सब्जियां हैं। कुछ बिस्तर वाले कपड़े हैं और साथ ही कुछ बर्तन हैं।"

"वो तो ठीक है।" मेरे माथे पर शिकन उभर आई थी____"लेकिन इतना सारा सामान यहां भिजवाने की क्या ज़रूरत थी?"

"अब इस बारे में मैं क्या कहूं छोटे कुंवर?" शेरा ने सिर झुकाते हुए कहा____"मालिक का हुकुम था इस लिए मैं ले आया।"

शेरा की इस बात के बाद मैंने उससे कुछ नहीं कहा। मैं जानता था कि इसमें उसका कोई कसूर नहीं था, बल्कि उसने तो अपने मालिक यानि कि मेरे पिता जी के हुकुम का पालन ही किया था। ख़ैर कुछ ही देर में सारा सामान सलीके से रख दिया गया। उसके बाद शेरा मुझसे इजाज़त ले कर अपने सभी आदमियों के साथ चला गया।

दूसरी तरफ मकान की चौकीदारी करने वाले आदमी मकान के चारो तरफ लकड़ी की बल्लियों द्वारा क़रीब चार फुट ऊंची चारदीवारी बनाने में लगे हुए थे। रूपा मेरे क़रीब ही खड़ी थी और वो भी ये सब देख रही थी। मैंने उस तरफ से ध्यान हटाया और रूपा की तरफ पलटा।

"तुमने कहा था कि हमें अनुराधा के लिए कुछ अच्छा सा करना चाहिए।" फिर मैंने उससे पूछा____"तो अब बताओ कि क्या करना चाहिए?"

"जैसा कि मैंने कहा था कि इसके लिए सबसे पहले तुम्हें खुद को शांत रखना है और खुद को दुखी नहीं रखना है।" रूपा ने संतुलित भाव से कहा____"क्योंकि अगर तुम दुखी रहोगे तो अनुराधा को भी इससे दुख होगा। अब रही बात उसके लिए कुछ करने की तो इस बारे में हम दोनों को ही तसल्ली से सोचने की ज़रूरत है।"

"हां पर क्या सोचूं मैं?" मैं जैसे एकाएक परेशान और हताश हो उठा____"कुछ समझ में नहीं आ रहा मुझे।"

"समझ में तो तब आएगा न जब तुम पूरी तरह से शांत हो जाओगे।" रूपा ने कहा____"तुम अभी भी पूरी तरह से शांत नहीं हो। तुम्हारे अंदर द्वंद सा चल रहा है और जब तक ऐसा रहेगा तब तक तुम ठीक से सोच ही नहीं पाओगे कि तुम्हें अपनी अनुराधा की खुशी के लिए क्या करना चाहिए।"

रूपा की बात सुन कर मैं मूर्खों की तरह उसकी तरफ देखने लगा। मैंने महसूस किया कि सच में मेरे अंदर अभी भी शांति नहीं थी और अजीब सा द्वंद चल रहा था। मैंने अपनी आंखें बंद कर के खुद को शांत करने की कोशिश की मगर कामयाब न हो सका। रूपा बड़े ध्यान से मेरी तरफ देखे जा रही थी। जब उसने मुझे परेशान बेचैन और हताश होता देखा तो उसने बड़े स्नेह से मेरा हाथ पकड़ लिया।

"इतना परेशान मत हो।" फिर उसने बड़े प्यार से कहा____"सब ठीक हो जाएगा। इतना तो तुम भी जानते हो न कि दुनिया में हर चीज़ अपने तय समय पर ही होती है। हम ये सोचते हैं कि सब कुछ हमारे मन के मुताबिक हो और जल्दी हो जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ करता। जैसे बारह घंटे का दिन गुज़र जाने के बाद ही रात होती है उसी तरह इस संसार की बाकी चीज़ों का भी अपना एक समय होता है। इस लिए इतना ज़्यादा हलकान मत हो। हम दोनों मिल कर हमारी अनुराधा के लिए ज़रूर कुछ अच्छा करेंगे और बहुत जल्द करेंगे। तुम्हें मुझ पर भरोसा है ना?"

मैंने हौले से हां में सिर हिलाया। मैं अभी भी थोड़ा परेशान हालत में था किंतु जाने क्यों ये एहसास हो रहा था कि रूपा अनुराधा के लिए यकीनन कुछ अच्छा करने में मेरी मदद करेगी।

"ठीक है फिर।" रूपा ने कहा____"अगर तुम्हें मुझ पर भरोसा है तो अब किसी बात की चिंता मत करो। आओ अंदर चल कर देखें कि तुम्हारे पिता जी ने हमारे लिए क्या क्या भिजवाया है?"

"ह...हमारे लिए मतलब?" मैं अनायास ही चौंका।

"हां हमारे लिए।" रूपा ने धड़कते दिल से मेरी तरफ देखा____"मेरा मतलब है कि मैं भी तो यहां पर तुम्हारे साथ हूं और जब तक तुम यहां रहोगे मैं भी तुम्हारे साथ ही रहूंगी। तभी तो हम दोनों मिल कर ये सोच पाएंगे कि हमें अनुराधा के लिए कुछ अच्छा सा क्या करना चाहिए। क्या तुम्हें मेरे यहां रहने से एतराज़ है?"

उसकी बात सुन कर मैं कुछ बोल ना सका। बस ख़ामोशी से उसके हल्के घबराए चेहरे को देखता रहा। ये सच है कि अब मुझे उसके यहां रहने पर कोई एतराज़ नहीं था। ऐसा शायद इस लिए क्योंकि अब वो मेरी अनुराधा के लिए कुछ अच्छा करने में मेरी मदद करने वाली थी।

"ठीक है।" फिर मैंने धीमें स्वर में कहा____"लेकिन मेरे साथ तुम्हारा यहां रहना क्या उचित होगा? मेरा मतलब है कि क्या तुम्हारे घर वाले इसके लिए मानेंगे?"

"क्यों नहीं मानेंगे?" रूपा ने राहत की सांस लेते हुए कहा____"भला उन्हें इससे क्या आपत्ति हो सकती है? तुम कोई ग़ैर थोड़ी ना हो। उनके होने वाले दामाद हो और सबसे बड़ी बात मेरी जान हो, मेरा सब कुछ हो तुम। अगर उन्हें इस बात से इंकार भी होता तब भी मैं तुम्हारे साथ ही रहती, आख़िरी सांस तक।"

रूपा की आंखों में असीमित प्रेम और अपने प्रति दीवानगी देख मेरे समूचे जिस्म में झुरझुरी सी दौड़ गई। समझ में न आया कि क्या कहूं? वो कुछ देर मेरी तरफ देखती रही उसके बाद हल्के से मुस्कुराते हुए और मेरा हाथ वैसे ही पकड़े मकान के अंदर की तरफ चल पड़ी।

शेरा जो समान ले कर आया था उसे सलीके से ही रख दिया गया था लेकिन फिर भी हर सामान को उसकी उचित जगह पर रखना ज़रूरी था। अब क्योंकि हर सामान आ गया था और मेरे साथ रूपा को भी यहीं रहना था इस लिए हर चीज़ को उचित ढंग से रखना जैसे ज़रूरी हो गया था। मैं अगर अकेला ही यहां रहता तो यकीनन मुझे किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं रहना था।

बेमन से ही सही लेकिन रूपा के ज़ोर देने पर मुझे सारे सामान को उसकी बताई हुई जगह पर रखने में लग जाना पड़ा। वो ख़ुद भी मेरे साथ लग गई थी। कुछ ही देर में अंदर का मंज़र अलग सा नज़र आने लगा मुझे। मैंने देखा रूपा एक तरफ रसोई का निर्माण करने में लगी हुई थी जिसमें एक अधेड़ उमर का आदमी उसकी मदद कर रहा था। वो आदमी बाहर से ईंटें ले आया था और उससे चूल्हे का निर्माण कर रहा था। दूसरी तरफ रूपा रसोई का सामान दीवार में बनी छोटी छोटी अलमारियों में सजा रही थी। ये देख मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हुआ लेकिन मैंने कहा कुछ नहीं और बाहर निकल गया।​
 
अध्याय - 121
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बेमन से ही सही लेकिन रूपा के ज़ोर देने पर मुझे सारे सामान को उसकी बताई हुई जगह पर रखने में लग जाना पड़ा। वो ख़ुद भी मेरे साथ लग गई थी। कुछ ही देर में अंदर का मंज़र अलग सा नज़र आने लगा मुझे। मैंने देखा रूपा एक तरफ रसोई का निर्माण करने में लगी हुई थी जिसमें एक अधेड़ उमर का आदमी उसकी मदद कर रहा था। वो आदमी बाहर से ईंटें ले आया था और उससे चूल्हे का निर्माण कर रहा था। दूसरी तरफ रूपा रसोई का सामान दीवार में बनी छोटी छोटी अलमारियों में सजा रही थी। ये देख मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हुआ लेकिन मैंने कहा कुछ नहीं और बाहर निकल गया।

अब आगे....


दोपहर हो गई थी।
रूपचंद्र अपनी जीप ले कर घर से चल पड़ा था। जीप में उसके बगल से एक थैला रखा हुआ था जिसमें दो टिफिन थे। दोनों टिफिन में उसकी बहन रूपा और उसके होने वाले बहनोई के लिए खाना था। उसके घर की औरतों ने बड़े ही जतन से और बड़े ही चाव से भोजन बना कर टिफिन सजाए थे। रूपचंद्र जब जीप ले कर चल दिया था तो सभी औरतों ने आंखें बंद कर के ऊपर वाले से यही प्रार्थना की थी कि सब कुछ अच्छा ही हो।

रूपचंद्र ख़ामोशी से जीप चला रहा था लेकिन उसका मन बेहद अशांत था। उसके मन में तरह तरह की आशंकाएं जन्म ले रहीं थी जिसके चलते वो बुरी तरह विचलित हो रहा था। चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंची हुईं थी। सबसे ज़्यादा उसे इस बात की चिंता थी कि वैभव जिस तरह की मनोदशा में है उसमें कहीं वो उसकी बहन पर कोई उल्टी सीधी हरकत ना कर बैठे। उल्टी सीधी हरकत से उसका आशय ये नहीं था कि वैभव उसकी बहन की इज्ज़त पर हाथ डालेगा बल्कि ये आशय था कि कहीं वो गुस्से में आ कर उसकी बहन का कोई अपमान न करे जिसके चलते उसकी मासूम बहन का हृदय छलनी हो जाए। वो जानता था कि उसकी बहन ने प्रेम के चलते अब तक कितने कष्ट सहे थे इस लिए अब वो अपनी बहन को किसी भी तरह का कष्ट सहते नहीं देख सकता था।

रूपचंद्र ये भी सोच रहा था कि क्या उसकी बहन ने उसके जाने के बाद वैभव को अपने साथ रहने के लिए राज़ी कर लिया होगा? उसे यकीन तो नहीं हो रहा था लेकिन कहीं न कहीं उसे भरोसा भी था कि उसकी बहन वैभव को ज़रूर राज़ी कर लेगी। यही सब सोचते हुए वो जल्द से जल्द अपनी बहन के पास पहुंचने के लिए जीप को तेज़ रफ़्तार में दौड़ाए जा रहा था। कुछ ही समय में जीप वैभव के मकान के बाहर पहुंच गई। उसने सबसे पहले जीप में बैठे बैठे ही चारो तरफ निगाह घुमाई। चार पांच लोग उसे मकान के बाहर लकड़ी की बल्लियों द्वारा चारदीवारी बनाते नज़र आए। उसकी घूमती हुई निगाह सहसा एक जगह जा कर ठहर गई। मकान के बाएं तरफ उसे वैभव किसी सोच में डूबा खड़ा नज़र आया जबकि उसकी बहन उसे कहीं नज़र ना आई। ये देख रूपचंद्र एकाएक फिक्रमंद हो उठा। वो जल्दी से जीप से नीचे उतरा और लगभग भागते हुए वैभव की तरफ लपका।

✮✮✮✮

मैं मकान के बाएं तरफ खड़ा उस रूपा की तरफ देखे जा रहा था जो कुछ ही दूरी पर बने कुएं से पानी निकाल कर उसे मिट्टी के एक मटके में डाल रही थी। अपने दुपट्टे को उसने सीने में लपेटने के बाद कमर में घुमा कर बांध लिया था। जब वो पानी से भरा मटका अपने सिर पर रख कर मकान की तरफ आने लगी तो सहसा मेरी तंद्रा भंग हो गई और मैं हल्के से चौंका। चौंकने का कारण था मटके से छलकते हुए पानी की वजह से उसका भींगना। खिली धूप में उसका दूधिया चेहरा चमक रहा था किंतु पानी के छलकने से उसका वही चेहरा भींगने लगा था। जाने क्यों उसे इस रूप में देख कर मेरे अंदर एक हूक सी उठी।

रूपा मेरी मनोदशा से बेख़बर इसी तरफ चली आ रही थी। उसके भींगते चेहरे पर दुनिया भर की पाकीज़गी और मासूमियत थी। तभी सहसा मुझे अपने क़रीब ही किसी आहट का आभास हुआ तो मैं हौले से पलटा।

रूपचंद्र को अपने पास भागते हुए आया देख मैं चौंक सा गया। वो मुझे अजीब तरह से देखे जा रहा था। उसकी सांसें भाग कर आने की वजह से थोड़ा उखड़ी हुईं थी।

"र...रूपा कहां है वैभव?" फिर उसने अपनी सांसों को सम्हालते हुए किंतु बेहद ही चिंतित भाव से मुझसे पूछा____"कहीं....कहीं तुमने किसी बात पर नाराज़ हो कर डांट तो नहीं दिया है उसे?"

"अरे! भैया आ गए आप??" मेरे कुछ बोलने से पहले ही रूपचंद्र को अपने पीछे से उसकी बहन की आवाज़ सुनाई दी तो वो फ़ौरन ही फिरकिनी की मानिंद घूम गया।

रूपा के सिर पर पानी से भरा मटका देख और उसका चेहरा पानी से भीगा देख रूपचंद्र बुरी तरह उछल पड़ा। भौचक्का सा आंखें फाड़े देखता रह गया उसे। उधर रूपा भी थोड़ा असहज हो गई। उसने फ़ौरन ही आगे बढ़ कर मटके को अपने सिर से उतार कर मकान के चबूतरे पर बड़े एहतियात से रख दिया। उसके बाद अपने दुपट्टे को खोल कर उसे सही तरह से अपने सीने पर डाल लिया। उसे शर्म भी आने लगी थी। मटके का पानी छलक कर उसके चेहरे को ही बस नहीं भिंगोया था बल्कि बहते हुए वो उसके गले और सीने तक आ गया था। रूपचंद्र को एकदम से झटका सा लगा तो वो लपक कर अपनी बहन के पास पहुंचा।

"य....ये क्या हालत बना ली है तूने?" रूपचंद्र अभी भी बौखलाया सा था, बोला____"और ये सब क्या है? मेरा मतलब है कि सिर पर पानी का मटका?"

"हां तो इसमें कौन सी बड़ी बात है भैया?" रूपा ने शर्म के चलते थोड़ा धीमें स्वर में कहा____"पीने के लिए पानी तो लाना ही पड़ेगा ना?"

"ह...हां ये तो सही कहा तूने।" रूपचंद्र ने अपनी हालत पर काबू पाते हुए कहा____"पर तुझे खुद लाने की क्या ज़रूरत थी भला? यहां इतने सारे लोग थे किसी से भी पानी मंगवा लेती।"

"सब अपने काम में व्यस्त हैं भैया।" रूपा ने कहा____"और वैसे भी अब जब मुझे यहीं रहना है तो अपने सारे काम पूरी ईमानदारी से मुझे ख़ुद ही करने होंगे ना? क्या आप ये समझते हैं कि मैं यहां आराम से रहने आई हूं?"

रूपचंद्र को कोई जवाब न सूझा। उसके कुंद पड़े ज़हन में एकाएक धमाका सा हुआ और इस धमाके के साथ ही उसे वस्तुस्थिति का आभास हुआ। सच ही तो कह रही थी उसकी बहन। यहां वो ऐश फरमाने के लिए नहीं आई है बल्कि अपने होने वाले पति को उसकी ऐसी मानसिक अवस्था से निकालने आई है। इसके लिए उसे क्या क्या करना पड़ेगा इसका तो उसे ख़ुद भी कोई अंदाज़ा नहीं है लेकिन हां इतना ज़रूर पता है कि वो अपने वैभव को बेहतर हालत में लाने के लिए कुछ भी कर जाएगी।

"तू...तूने अभी कहा कि यहीं रहना है तो अपने सारे काम खुद ही करने होंगे इसका मतलब।" रूपचंद्र को अचानक से जैसे कुछ आभास हुआ तो वो मारे उत्साह के बोल पड़ा____"इसका मतलब तूने वैभव को राज़ी कर लिया है। मैं सच कह रहा हूं ना रूपा?"

रूपा ने हौले से हां में सिर हिला दिया। ये देख रूपचंद्र की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। उसका दिल कह रहा था कि उसकी बहन वैभव को राज़ी कर लेगी और उसने सच में कर लिया था। रूपचंद्र को अपनी बहन और उसके प्रेम पर बड़ा गर्व सा महसूस हुआ। उसका जी चाहा कि वो उसे खींच कर अपने गले से लगा ले किंतु फिर वो अपने जज़्बातों को काबू रखते हुए पलटा।

"मुझे माफ़ करना वैभव।" फिर उसने वैभव की तरफ बढ़ते हुए खेदपूर्ण भाव से कहा____"कुछ पल पहले जब मैंने यहां रूपा को नहीं देखा तो एकदम घबरा ही गया था। तुम्हें अकेला ही यहां खड़ा देख मैं ये सोच बैठा था कि तुमने गुस्से में शायद मेरी बहन को डांट दिया होगा और शायद उसे यहां से चले जाने को भी कह दिया होगा।"

"तुम्हें मुझसे माफ़ी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है।" मैंने भावहीन लहजे से कहा____"तुम्हें अपनी बहन की फ़िक्र थी इस लिए उसके लिए फिक्रमंद हो जाना स्वाभाविक था।"

"मैं तो एक भाई होने के नाते अपनी बहन की खुशी ही चाहता हूं वैभव।" रूपचंद्र ने सहसा गंभीर हो कर कहा____"और मेरी बहन को असल खुशी तुम्हारे साथ रहने में ही नहीं बल्कि हमेशा के लिए तुम्हारी बन जाने में है। कुछ समय पहले तक मैं अपनी बहन के इस प्रेम संबंध को ग़लत ही समझता आया था और इस वजह से हमेशा उससे नाराज़ रहा था। नाराज़गी और गुस्सा कब तुम्हारे प्रति नफ़रत में बदल गया इसका पता ही नहीं चला था मुझे। उसके बाद उस नफ़रत में मैंने क्या क्या बुरा किया इसका तुम्हें भी पता है। आज जब अपने उन बुरे कर्मों के बारे में सोचता हूं तो ख़ुद से घृणा होने लगती है मुझे। ख़ैर ये बहुत अच्छा हुआ कि देर से ही सही लेकिन ऊपर वाले ने मेरी अक्ल के पर्दे खोल दिए और मुझे हर बात का शिद्दत से एहसास हो गया। अब तो बस एक ही हसरत है कि मेरी बहन का जीवन तुम्हारे साथ हमेशा खुशियों से भरा रहे और जिसे वो बेइंतेहां प्रेम करती है ऊपर वाला उसे लंबी उमर से नवाजे।"

रूपचंद्र की इतनी लंबी चौड़ी बातों के बाद मैंने कुछ न कहा। ये अलग बात है कि मुझे अपने अंदर एक अजीब सा एहसास होने लगा था। कुछ दूरी पर खड़ी रूपा अपने दुपट्टे से अपनी छलक आई आंखों को पूछने लगी थी।

"अरे! मैं भी न ये कैसी बातें ले कर बैठ गया?" रूपचंद्र एकदम से चौंका और मुस्कुराते हुए बोल पड़ा____"दोपहर हो गई है और तुम दोनों को भूख लगी होगी। जाओ हाथ मुंह धो कर आओ तुम दोनों। तब तक मैं जीप से खाने का थैला ले कर आता हूं।"

कहने के साथ ही रूपचंद्र बिना किसी के जवाब की प्रतीक्षा किए बाहर खड़ी जीप की तरफ दौड़ पड़ा। इधर उसकी बात सुन रूपा ने पहले तो अपने भाई की तरफ देखा और फिर जब वो जीप के पास पहुंच गया तो उसने मेरी तरफ देखते हुए धीमें स्वर में कहा____"ऐसे क्यों खड़े हो? भैया ने कहा है कि हम दोनों हाथ मुंह धो लें तो चलो जल्दी।"

रूपा कहने के साथ ही शरमाते हुए मकान के अंदर बढ़ गई जबकि मैं अजीब से भाव लिए अपनी जगह खड़ा रहा। मुझे बड़ा अजीब सा महसूस हो रहा था। जीवन में ऐसे भी दिन आएंगे मैंने कभी कल्पना नहीं की थी। तभी रूपा अंदर से बाहर आई। उसके हाथ में एक लोटा था। मटके से उसने लोटे में पानी भरा और फिर उसने लोटे को मेरी तरफ बढ़ा दिया। लोटा बढ़ाते वक्त वो बार बार अपने भाई की तरफ देख रही थी। शायद अपने भाई की मौजूदगी में वो ना तो मुझसे कोई बात करना चाहती थी और ना ही मेरे क़रीब आना चाहती थी। ज़ाहिर है अपने भाई की मौजूदगी में शरमा रही थी वो।

रूपचंद्र जल्दी ही थैला ले कर आ गया और फिर वो मकान के बरामदे में रखे लकड़ी के तखत पर जा कर बैठ गया। रूपा उसके आने से पहले ही मुझसे दूर हो गई थी। इधर मैंने लोटे को उठा कर उसके पानी से हाथ धोया और जा कर तखत पर बैठ गया। मेरे बैठते ही रूपचंद्र ने थैले से एक टिफिन निकाल कर थैले को रूपा की तरफ बढ़ा दिया।

कुछ ही देर में रूपचंद्र ने टिफिन को खोल कर मेरे सामने रख दिया और फिर मुझे खाने का इशारा किया तो मैं ख़ामोशी से खाने लगा। दूसरी तरफ रूपा थैला ले कर मकान के अंदर की तरफ चली गई थी। मेरे खाना खाने तक रूपचंद्र ने कोई बात नहीं की। शायद वो नहीं चाहता था कि उसकी किसी बात से मेरा मन ख़राब हो जाए इस लिए वो चुप ही रहा। जब मैं खा चुका तो रूपचंद्र ने टिफिन के सारे जूठे बर्तन को समेट कर थैले में डाल दिया। इधर मैं उठ कर लोटे के पानी से हाथ मुंह धोने लगा।

"अच्छा वैभव अब तुम आराम करो।" मैं हाथ मुंह धो कर जब वापस आया तो रूपचंद्र तखत से उठते हुए बोला____"मैं चलता हूं अब। वो क्या है ना मुझे खेतों पर जाना है। तुम्हें तो पता ही है कि गोली लगने की वजह से गौरी शंकर काका का एक पैर ख़राब हो गया है जिसकी वजह से वो ज़्यादा चल फिर कर काम नहीं कर पाते। अतः सब कुछ मुझे ही देखना पड़ता है। ख़ैर जब भी समय मिलेगा तो मैं यहां आ जाया करूंगा तुम लोगों का हाल चाल देखने के लिए। एक बात और, ये हमेशा याद रखना कि चाहे जैसी भी परिस्थिति हो मैं हर दम तुम दोनों का साथ दूंगा। मैं जानता हूं कि तुमसे मेरा ताल मेल हमेशा ही ख़राब रहा है लेकिन अब ऐसा नहीं है। अपने बुरे कर्मों के लिए मैं पहले भी तुमसे माफ़ी मांग चुका हूं और अब भी मांगता हूं। अब तो मेरी बस एक ही इच्छा है कि तुम जल्द से जल्द पहले की तरह ठीक हो जाओ और अपने तथा अपने घर वालों के लिए अपने कर्म से एक ऐसी मिसाल क़ायम करो जिसे लोग वर्षों तक याद रखें।"

मुझे समझ न आया कि मैं रूपचंद्र की इन बातों का क्या जवाब दूं? अपने अंदर एक अजीब सी हलचल महसूस की मैंने। उधर रूपचंद्र कुछ देर मुझे देखता रहा और फिर मकान के अंदर चला गया। क़रीब दो मिनट बाद वो बाहर आया और फिर अपनी जीप की तरफ बढ़ गया। कुछ ही पलों में वो जीप में बैठा जाता नज़र आया।

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सरोज गुमसुम सी बरामदे में बैठी हुई थी। सूनी आंखें जाने किस शून्य को घूरे जा रहीं थी। कुछ देर पहले उसने अपने बेटे अनूप को खाना खिलाया था। खाना खाने के बाद अनूप तो अपने खिलौनों में व्यस्त हो गया था किंतु वो वैसी ही बैठी रह गई थी।

अनुराधा को गुज़रे हुए आज इक्कीस दिन हो गए थे लेकिन इन इक्कीस दिनों में ज़रा भी बदलाव नहीं आया था। सरोज को रात दिन अपनी बेटी की याद आती थी और फिर उसकी आंखें छलक पड़ती थीं। अगर कहीं कोई आहट होती तो वो एकदम से चौंक पड़ती और फिर हड़बड़ा कर ये देखने का प्रयास करती कि क्या ये आहट उसकी बेटी अनू की वजह से आई है? क्या अनू उसको मां कहते हुए आई है? इस आभास के साथ ही वो एकदम से व्याकुल हो उठती किंतु जब वो आहट बेवजह हो जाती और कहीं से भी अनू की आवाज़ न आती तो उसका हृदय हाहाकार कर उठता। आंखों से आंसू की धारा बहने लगती।

उसका बेटा अनूप यूं तो खिलौनों में व्यस्त हो जाता था लेकिन इसके बाद भी दिन में कई बार वो उससे अपनी दीदी अनुराधा के बारे पूछता कि उसकी दीदी कहां गई है और कब आएगी? सरोज उसके सवालों को सुन कर तड़प उठती। उसे समझ में न आता कि अपने बेटे को आख़िर क्या जवाब दे? बड़ी मुश्किल से दिल को पत्थर कर के वो बेटे को कोई न कोई बहाना बना कर चुप करा देती और फिर रसोई अथवा कमरे में जा कर फूट फूट कर रोने लगती। ना उसे खाने पीने का होश रहता था और ना ही किसी और चीज़ का। जब उसका बेटा भूख लगे होने की बात करता तब जा कर उसे होश आता और फिर वो खुद को सम्हाल कर अपने बेटे के लिए खाना बनाती।

सरोज की जैसे अब यही दिनचर्या बन गई थी। दिन भर वो अपनी बेटी के ख़यालों में खोई रहती। दिन तो किसी तरह गुज़र ही जाता था लेकिन बैरन रात न गुज़रती थी। अच्छी भली नज़र आने वाली औरत कुछ ही दिनों में बड़ी अजीब सी नज़र आने लगी थी। चेहरा निस्तेज, आंखों के नीचे काले धब्बे, होठों में रेगिस्तान जैसा सूखापन। सिर के बालों को न जाने कितने दिनों से कंघा नसीब न हुआ था जिसके चलते बुरी तरह उलझ गए थे।

इसके पहले जब उसके पति मुरारी की मौत हुई थी तब उसने किसी तरह खुद को सम्हाल लिया था लेकिन बेटी की मौत ने उसे किसी गहरे सदमे में डुबा दिया था। पति की मौत के बाद उसकी बेटी ने ही उसे सम्हाला था लेकिन अब तो वो भी नहीं थी। कदाचित यही वजह थी कि वो इस भयावह हादसे को भुला नहीं पा रही थी।

सरोज बरामदे में गुमसुम बैठी किसी शून्य में खोई ही थी कि तभी बाहर का दरवाज़ा किसी ने शांकल के द्वारा बजाया जिसके चलते उसकी तंद्रा भंग हो गई और वो एकदम से चौंक पड़ी।

"अ...अनू???" सरोज हड़बड़ा कर उठी। मुरझाए चेहरे पर पलक झपकते ही खुशी की चमक उभर आई। लगभग भागते हुए वो दरवाज़े की तरफ बढ़ी।

अभी वो दरवाज़े के क़रीब भी न पहुंच पाई थी कि तभी दरवाज़ा खुल गया और अगले कुछ ही पलों में जब दरवाज़ा पूरी तरह खुल गया तो जिन चेहरों पर उसकी नज़र पड़ी उन्हें देख उसका सारा उत्साह और सारी खुशी एक ही पल में ग़ायब हो गई।

खुले हुए दरवाज़े के पार खड़े दो व्यक्तियों को वो अपलक देखने लगी थी। हलक में फंसी सांसें जैसे एहसान सा करते हुए चल पड़ीं थी। उधर उन दोनों व्यक्तियों ने जब सरोज की हालत को देखा तो एक के अंदर हुक सी उठी। पलक झपकते ही उसकी आंखें भर आईं।

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रूपचंद्र को गए हुए अभी कुछ ही समय हुआ था कि रूपा बाहर निकली। मैं चुपचाप तखत पर बैठा हुआ था। दिलो दिमाग़ में अनुराधा का ख़याल था और आंखों के सामने अनायास ही उसका चेहरा चमक उठता था।

"ऐसे कब तक बैठे रहोगे?" रूपा की आवाज़ से मैं ख़यालों से बाहर आया और उसकी तरफ देखा। उधर उसने कहा____"क्या तुमने कुछ भी नहीं सोचा कि आगे क्या करना है?"

"म...मतलब??" मैं पहले तो उलझ सा गया फिर जैसे अचानक ही मुझे कुछ याद आया तो जल्दी से बोला____"हां वो...तुमने कहा था ना कि हम कुछ सोचेंगे? क्या तुमने सोच लिया? बताओ मुझे।"

"तुम अभी भी खुद को शांत करने की कोशिश नहीं कर रहे हो।" रूपा ने जैसे हताश हो कर कहा____"अगर ऐसा करोगे तो कैसे तुम अनुराधा के लिए कुछ कर पाओगे, बताओ?"

"मैं क्या करूं रूपा?" मैं एकदम से दुखी हो गया, रुंधे गले से बोला____"मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा कि मैं अपनी अनुराधा के लिए क्या करूं? हर वक्त बस उसी का ख़याल रहता है। हर पल बस उसी की याद आती है।"

"हां मैं समझती हूं।" रूपा ने अधीरता से कहा____"वो इतनी प्यारी थी कि उसे कोई नहीं भूल सकता। मुझे भी उसकी बहुत याद आती है लेकिन सिर्फ याद करने से ही तो सब कुछ ठीक नहीं हो जाएगा न?"

"फिर कैसे ठीक होगा?" मैंने कहा____"तुमने कहा था कि तुम मेरी मदद करोगी तो बताओ ना कि मैं क्या करूं?"

"अगर तुम सच में अनुराधा के लिए कुछ करना चाहते हो और ये भी चाहते हो कि उसकी आत्मा को शांति मिले।" रूपा ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"तो उसके लिए सबसे पहले तुम्हें खुद को पूरी तरह से शांत करना होगा।"

"मैं कोशिश कर रहा हूं।" मैंने खुद को सम्हालते हुए कहा____"लेकिन उसका ख़याल दिलो दिमाग़ से जाता ही नहीं है।"

"हां मैं जानती हूं कि ये इतना आसान नहीं है लेकिन इसके लिए ज़रूरी यही है कि तुम अपने दिमाग़ को उसके अलावा कहीं और लगाओ।" रूपा ने कहा____"या फिर किसी काम में लगाओ। अगर तुम यूं अकेले चुपचाप बैठे रहोगे तो उसका ख़याल अपने दिलो दिमाग़ से नहीं निकाल पाओगे।"

मैं रूपा की बात सुन कर कुछ बोल ना सका। बस उसकी तरफ देखता रहा। उधर उसने कहा____"अच्छा चलो हम अनुराधा के घर चलते हैं।"

"अ...अनुराधा के घर???" मैं चौंका।

"हां और क्या?" रूपा मेरे इस तरह चौंकने पर खुद भी चौंकी, फिर पूछा उसने____"क्या तुम अनुराधा के घर नहीं जाना चाहते?"

"मगर वहां अनुराधा तो नहीं मिलेगी न।" मैंने उदास भास से कहा।

"हां लेकिन अनुराधा की मां तो मिलेगी न।" रूपा ने कहा____"तुम्हारी तरह वो भी तो अपनी बेटी के लिए दुखी होंगी। क्या ये तुम्हारा फर्ज़ नहीं है कि तुम्हारे रहते तुम्हारी अनुराधा की मां को किसी भी तरह का कोई दुख न होने पाए?"

रूपा की इस बात ने मेरे मनो मस्तिष्क में धमाका सा किया। मैं एकदम से सोच में पड़ गया।

"तुम्हारी तरह अगर अनुराधा की मां भी खुद को दुखी किए होंगी।" उधर रूपा ने कहा____"तो ज़रा सोचो अनुराधा की आत्मा को इससे कितना दुख पहुंच रहा होगा। ये तुम्हारा फर्ज़ है वैभव कि अनुराधा के जाने के बाद तुम उसकी मां और उसके भाई का हर तरह से ख़याल रखो और उन्हें किसी भी तरह का कोई कष्ट न होने दो।"

"स....सही कह रही हो तुम।" मैं एकदम से बोल पड़ा____"म....मैं अपनी अनुराधा की मां को और उसके छोटे भाई को तो भूल ही गया था। वो दोनों सच में बहुत दुखी होंगे। हे भगवान! मैं उन्हें कैसे भूल गया? उन दोनों को दुख में डूबा देख सच में मेरी अनुराधा को बहुत तकलीफ़ हो रही होगी।"

"चलो अब बैठे न रहो।" रूपा ने मेरा हाथ पकड़ कर खींचा____"हमें अनुराधा के घर जाना होगा। वहां पर अनुराधा की मां और उसके भाई को सम्हालना है। अगर वो दुखी हों तो हमें उनका दुख बांटना है। तभी अनुराधा की भी तकलीफ़ दूर होगी।"

"हां हां चलो जल्दी।" मैं झट तखत से नीचे उतर आया।

इस वक्त मेरे दिलो दिमाग़ में एकदम से तूफ़ान सा चल पड़ा था। अपने आप पर ये सोच कर गुस्सा आ रहा था कि मैं अपनी अनुराधा की मां और उसके भाई को कैसे भूल बैठा था?

मैं और रूपा पैदल ही अनुराधा के घर की तरफ चल पड़े थे। मेरे मन में जाने कैसे कैसे विचार उछल कूद मचाए हुए थे। आत्मग्लानि में डूबा जा रहा था मैं। रूपा मेरे बगल से ही चल रही थी और बार बार मेरे चेहरे को देख रही थी। शायद वो मेरे चेहरे पर उभरते कई तरह के भावों को देख समझने की कोशिश कर रही थी कि मेरे अंदर क्या चल रहा है? सहसा उसने मेरे एक हाथ को पकड़ लिया तो मैं चौंक पड़ा और उसकी तरफ देखा।

"इतना हलकान मत हो।" उसने कहा____"देर से ही सही तुम्हें अपनी भूल का एहसास हो गया है। इंसान को जब अपनी भूल का एहसास हो जाए और वो अच्छा कार्य करने चल पड़े तो समझो फिर वो बेकसूर हो जाता है।"

"क्या तुम सच कह रही हो?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए बड़ी अधीरता से पूछा।

"क्या मैंने कभी तुमसे झूठ बोला है?" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा तो मैं कुछ बोल ना सका।

कुछ ही देर में हम अनुराधा के घर पहुंच गए। दरवाज़े के पास पहुंच कर हम दोनों रुक गए। मेरी हिम्मत न हुई कि मैं दरवाज़ा खटखटाऊं। जाने क्यों एकाएक मैं अपराध बोझ से दब सा गया था। शायद रूपा को मेरी हालत का अंदाज़ा था इस लिए उसने ही दरवाज़े को शांकल की मदद से बजाया। कुछ पलों की प्रतीक्षा के बाद भी जब अंदर से कोई आवाज़ न आई तो रूपा ने फिर से दरवाज़े को बजाना चाहा किंतु तभी दरवाज़े पर हल्का ज़ोर पड़ गया जिसके चलते वो हौले से अंदर की तरफ ढुलक सा गया।

ज़ाहिर है वो अंदर से कुंडी द्वारा बंद नहीं था। ये देख रूपा ने दरवाज़े पर हाथ का ज़ोर बढ़ाया तो दरवाज़ा खुलता चला गया। जैसे ही दरवाज़ा खुला तो सामने सरोज काकी पर हमारी नज़र पड़ी। उसकी हालत देख मैं बुत सा बना खड़ा रह गया जबकि उसे देख रूपा की आंखें भर आईं।​
 
अध्याय - 122
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सरोज काकी अपलक हम दोनों को देखे जा रही थी और फिर अचानक ही उसके चेहरे के भाव बदलते नज़र आए। अगले कुछ ही पलों में उसका चेहरा घोर पीड़ा से बिगड़ गया और आंखों ने आंसुओं का मानों समंदर उड़ेल दिया। उसकी ये हालत देख हम दोनों ही खुद को रोक न सके। बिजली की सी तेज़ी से मैं आगे बढ़ा और सरोज काकी को सम्हाला। रूपा तो उसकी हालत देख सिसक ही उठी थी।

"य....ये क्या हालत बना ली है तुमने काकी?" मैं उसे लिए आंगन से होते हुए बरामदे की तरफ बढ़ा।

इधर रूपा भागते हुए अंदर बरामदे में गई और वहां रखी चारपाई को बिछा दिया। मैंने काकी को हौले से चारपाई पर बैठाया और फिर उसके पास ही नीचे ज़मीन पर एड़ियों के बल बैठ गया। उसके दोनों हाथ पकड़ रखे थे मैंने। सरोज काकी के आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। यही हाल रूपा का भी था। हम लोगों को आया देख अनूप भी अपने खिलौने छोड़ कर हमारे पास आ गया था। अपनी मां को रोते देख वो भी रोने लगा था।

"चुप हो जाओ काकी।" मैं दुखी भाव से बोल पड़ा____"ऐसे मत रोओ तुम और....और मुझे माफ़ कर दो। मैंने तुम्हारी ज़रा भी सुध नहीं ली। जबकि ये मेरी ज़िम्मेदारी थी कि मैं तुम्हारा और अनूप का हर तरह से ख़याल रखूं। मुझे माफ़ कर दो काकी।"

कहने के साथ ही मैंने रोते हुए सरोज के घुटनों में अपना सिर रख दिया। सरोज काकी ने सिसकते हुए ही मेरे सिर पर अपना कांपता हाथ रखा और फिर बोली____"मेरी बेटी को ले आओ वैभव। मुझे उसकी बहुत याद आती है। उसके बिना एक पल भी जिया नहीं जा रहा मुझसे।"

"काश! ये मेरे बस में होता काकी।" मैं उसकी अथाह पीड़ा में कही बात को सुन रो पड़ा, बोला____"काश! अपनी अनुराधा को वापस लाने की शक्ति मुझमें होती तो पलक झपकते ही उसे ले आता और फिर कभी उसे कहीं जाने ना देता।"

सरोज मेरी बात सुन और भी सिसक उठी। रूपा से जब ये सब न देखा गया तो वो भी उसके सामने घुटनों के बल बैठ गई और मेरे हाथ से उसका हाथ ले कर करुण भाव से बोली____"मैं आपकी अनुराधा तो नहीं बन सकती लेकिन यकीन मानिए आपकी बेटी की ही तरह आपको प्यार करूंगी और आपका ख़याल रखूंगी। मुझे अपनी बेटी बना लीजिए मां।"

रूपा की बात सुन सरोज उसे कातर भाव से देखने लगी। उसके चेहरे पर कई तरह के रंग आते जाते नज़र आए। रूपा झट से खड़ी हो गई और सरोज के आंसू पोंछते हुए बोली____"मैं भले ही साहूकार हरि शंकर की बेटी रूपा हूं लेकिन आज से आपकी भी बेटी हूं मां। क्या आप मुझे अपनी बेटी नहीं बनाएंगी?"

रूपा की बात सुन सरोज ने मेरी तरफ देखा। मुझे समझ न आया कि उसके यूं देखने पर मैं क्या कहूं। उधर थोड़ी देर मुझे देखने के बाद सरोज वापस रूपा को देखने लगी। रूपा की आंखों में आंसू और अपने लिए असीम प्यार तथा श्रद्धा देख उसकी आंखें एक बार फिर छलक पड़ीं।

"तू मेरी बेटी ही है बेटी।" सरोज रुंधे गले से बोली और फिर झपट कर उसे अपने सीने से लगा लिया____"आ मेरे कलेजे से लग जा ताकि मेरे झुलसते हुए हृदय को ठंडक मिल जाए।"

रूपा ने भी सरोज को कस कर अपने गले से लगा लिया। दोनों की ही आंखें बरस रहीं थी। इधर अनूप बड़ी मासूमियत से ये सब देखे जा रहा था। उसका रोना तो बंद हो गया था लेकिन अब उसकी आंखों में जिज्ञासा के भाव थे। शायद वो समझने की कोशिश कर रहा था कि ये सब क्या हो रहा है?

बहरहाल, काफी देर तक रूपा और सरोज एक दूसरे के गले लगी रहीं उसके बाद अलग हुईं। सरोज अब बहुत हद तक शांत हो गई थी। रूपा अभी भी सरोज की हालत देख दुखी थी किंतु उसके चेहरे पर मौजूद भावों से साफ पता चल रहा था कि उसके मन में बहुत कुछ चलने लगा था। वो फ़ौरन ही पलटी और इधर उधर निगाह घुमाने लगी। जल्दी ही उसकी निगाह रसोई की तरफ ठहर गई। वो फ़ौरन ही उस तरफ बढ़ चली। जल्दी ही वो रसोई में दाखिल हो गई। कुछ देर में वो वापस आई और फिर सरोज से बोली____"उठिए मां और हाथ मुंह धो लीजिए। मैं आपके लिए खाना लगाती हूं और फिर अपने हाथों से आपको खाना खिलाऊंगी।"

रूपा की बात सुन कर सरोज कुछ पलों तक उसकी तरफ देखती रही फिर रूपा के ही ज़ोर देने पर उठी। रूपा को कुछ ही दूरी पर पानी से भरी बाल्टी रखी नज़र आई। बरामदे में एक तरफ लोटा रखा था जिसे वो ले आई और फिर बाल्टी से पानी निकाल कर उसने सरोज को दिया।

कुछ ही देर में आलम ये था कि बरामदे में एक चटाई पर बैठी सरोज को रूपा अपने हाथों से खाना खिला रही थी। सरोज खाना कम खा रही थी आंसू ज़्यादा बहा रही थी जिस पर रूपा उसे बार बार पूर्ण अधिकार पूर्ण भाव से आंसू बहाने से मना कर रही थी। मैं और अनूप ये मंज़र देख रहे थे। जहां एक तरफ अनूप ये सब बड़े ही कौतूहल भाव से देखे जा रहा था वहीं मैं ये सोच कर थोड़ा खुश था कि रूपा ने कितनी समझदारी से सरोज को सम्हाल लिया था और अब वो उसकी बेटी बन कर उसे अपने हाथों से खाना खिला रही थी। इतने दिनों में आज पहली बार मुझे अपने अंदर एक खुशी का आभास हो रहा था।

सरोज के इंकार करने पर भी रूपा ने जबरन सरोज को पेट भर के खाना खिलाया। सरोज जब खा चुकी तो रूपा ने जूठी थाली उठा कर नर्दे के पास रख दिया।

"तू रहने दे बेटी मैं बाद में ये सब धो मांज लूंगी।" सरोज ने रूपा से कहा तो रूपा ने कहा____"क्यों रहने दूं मां? आप आराम से बैठिए और मुझे अपना काम करने दीजिए।"

रूपा की बात सुन सरोज को अजीब तो लगा किंतु फिर उसके होठों पर दर्द मिश्रित फीकी सी मुस्कान उभर आई। उधर रूपा एक बार फिर रसोई में पहुंची और कुछ देर बाद जब वो बाहर आई तो उसके हाथों में ढेर सारे जूठे बर्तन थे। उन बर्तनों को ला कर उसने नर्दे के पास रखा और फिर पानी की बाल्टी को भी उठा कर वहीं रख लिया। इधर उधर उसने निगाह घुमाई तो उसे एक कोने में बर्तन मांजने वाला गुझिना दिख गया जिसे वो फ़ौरन ही उठा लाई। उसके बाद उसने बर्तन मांजना शुरू कर दिया।

सरोज उसे मना करती रह गई लेकिन रूपा ने उसकी बात न मानी और बर्तन धोती रही। इधर मैं भी उसके इस कार्य से थोड़ा हैरान था किंतु जाने क्यों मुझे उसका ये सब करना अच्छा लग रहा था। सरोज को जब एहसास हो गया कि रूपा उसकी कोई बात मानने वाली नहीं है तो उसने गहरी सांस ले कर उसे मना करना ही बंद कर दिया। तभी अचानक वो हुआ जिसकी हममें से किसी को भी उम्मीद नहीं थी।

"अले! ये तुम त्या तल लही हो?" रूपा को बर्तन मांजते देख अनूप एकदम से अपनी तोतली भाषा में बोल पड़ा____"मेली अनू दीदी आएगी तो बल्तन धोएगी। थोलो तुम, मेली दीदी बल्तन धोएगी।"

अनूप की इस बात से रूपा एकदम से चौंक पड़ी। इधर सरोज की आंखें एक बार फिर छलक पड़ीं। उधर कुछ देर मासूम अनूप को देखते रहने के बाद रूपा ने अपनी नम आंखों से उसकी तरफ देखते हुए बड़े प्यार से कहा____"पर ये सारे बर्तन धोने के लिए तो मुझे तुम्हारी अनू दीदी ने ही कहा है बेटू।"

"अत्था।" अनूप के चेहरे पर आश्चर्य उभर आया, फिर उत्सुकता से बोला____"त्या तुम थत कह लही हो? त्या तुम मिली हो मेली अनू दीदी थे? तहां है वो? मुधे देथना है दीदी तो।"

"ठीक है।" रूपा ने अपनी रुलाई को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए कहा____"लेकिन तुम्हारी अनू दीदी ने ये भी कहा है कि वो तुमसे नाराज़ है। क्योंकि तुम पढ़ाई नहीं करते हो न। दिन भर बस खेलते ही रहते हो।"

"नहीं थेलूंगा अब।" अनूप ने झट से अपने हाथ में लिया खिलौना फेंक दिया, फिर बोला_____"अबथे पल्हूंगा मैं।"

"फिर तो ये अच्छी बात है।" रूपा ने प्यार से कहा____"अगर तुम रोज़ पढ़ोगे तो तुम्हारी दीदी को बहुत अच्छा लगेगा।"

"फिल तो मैं जलूल पल्हूंगा।" अनूप ने कहा, किंतु फिर सहसा मायूस सा हो कर बोला____"पल मैं पल्हूंगा तैथे? मेले पाथ पहाला ही न‌ई है।"

"ओह!" रूपा ने कहा____"तो पहले तुम्हारी दीदी कैसे पढ़ाती थी तुम्हें?"

"न‌ई पल्हाती थी।" अनूप ने मासूमियत से कहा____"पहाला ही न‌ई था तो न‌ई पल्हाती थी दीदी।"

रूपा को समझते देर न लगी कि सच क्या है। मतलब कि अनूप सच कह रहा था। पढ़ाई लिखाई तो ऊंचे और संपन्न घरों के बच्चे ही करते थे। ग़रीब के बच्चे तो अनपढ़ ही रहते थे और बड़े लोगों के खेतों में मेहनत मज़दूरी करते थे। यही उनका जीवन था।

"ठीक है तो अब से मैं पढ़ाऊंगी तुम्हें।" फिर रूपा ने कुछ सोचते हुए कहा____"तुम पढ़ोगे न अपनी इस दीदी से?"

"त्या तुम भी मेली दीदी हो?" अनूप ने आश्चर्य से आंखें फैला कर पूछा।

"हां, जैसे अनू तुम्हारी दीदी थी वैसे ही मैं भी तुम्हारी दीदी हूं।" रूपा ने बड़े स्नेह से कहा___"अब से तुम मुझे भी दीदी कहना, ठीक है ना?"

"थीक है।" अनूप ने सिर हिलाया____"फिल तुम भी मुधे दीदी दैथे दुल देना।"

"दुल????" रूपा को जैसे समझ न आया तो उसने फ़ौरन ही सरोज की तरफ देखा।

"ये गुड़ की बात कर रहा है बेटी।" सरोज ने भारी गले से कहा____"जब भी ये रूठ जाता था तो अनू इसे गुड़ दे कर मनाया करती थी।"

सरोज की बात सुन रूपा के अंदर हुक सी उठी। उसने डबडबाई आंखों से अनूप की तरफ देखा। फिर अपनी हालत को सम्हालते हुए उसने अनूप से कहा कि हां वो भी उसे गुड़ दिया करेगी। उसके ऐसा कहने से भोले भाले अनूप का चेहरा खिल गया। फिर वो रूपा के कहने पर अपने खिलौनों के साथ जा कर खेलने लगा।

उसके बाद रूपा ने फिर से बर्तन मांजना शुरू कर दिया। इधर मैं ख़ामोशी से ये सब देख सुन रहा था। मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि साहूकार हरि शंकर की लड़की रूपा एक मामूली से किसान के घर में इतने प्यार से और इतने लगाव से बर्तन मांज रही थी। वाकई उसका हृदय बहुत बड़ा था।

कुछ देर में जब सारे बर्तन धुल गए तो रूपा उन्हें ले जा कर रसोई में रख आई।

"आपके और अनूप के कपड़े कहां हैं मां?" फिर उसने सरोज के पास आ कर पूछा____"लाइए मैं उन सारे कपड़ों को भी धुल देती हूं।"

"अरे! ये सब तू रहने दे बेटी।" सरोज एकदम से हड़बड़ा उठी थी, बोली____"मैं धो लूंगी कपड़े। वैसे भी ज़्यादा नहीं हैं।"

"मैं आपकी बेटी हूं ना?" रूपा ने अपनी कमर में दोनों हाथ रख कर तथा बड़े अधिकार पूर्ण लहजे से कहा____"जैसे अनुराधा आपके और अनूप के सारे कपड़े धोती थी वैसे ही मैं भी धो दूंगी तो क्या हो जाएगा?"

सरोज हैरान परेशान देखती रह गई उसे। हैरत से तो मेरी भी आंखें फट पड़ीं थी लेकिन मैंने कहा कुछ नहीं। मैं तो इस बात से ही चकित था कि रूपा ये सब कितनी सहजता से बोल रही थी। ऐसा लगता था जैसे वो सच में सरोज की ही बेटी हो और जैसे अनुराधा अपनी मां से पूर्ण अधिकार से बातें करती रही थी वैसे ही इस वक्त रूपा कर रही थी।

"और आप इस तरह चुप क्यों बैठे हैं?" तभी रूपा एकदम से मेरी तरफ पलट कर बोली तो मैं बुरी तरह चौंक पड़ा। वो मुझे आप कहते हुए आगे बोली____"ऐसे चुप हो कर मत बैठिए यहां। जाइए और दुकान से कपड़े धोने के लिए निरमा खरीद कर ले आइए।"

रूपा की बात सुन कर पहले तो मुझे कुछ समझ में ही न आया किंतु जल्दी ही मेरे ज्ञान चक्षु खुले। मैं फ़ौरन ही उठा और अभी लाता हूं कह कर दरवाज़े की तरफ बढ़ गया। उधर सरोज अभी भी हैरान परेशान हालत में बैठी थी। फिर जैसे उसने खुद को सम्हाला और फिर रूपा से बोली____"बेटी, ये सब रहने दे ना और क्या ज़रूरत थी वैभव को दुकान भेजने की? मैं कपड़े धो लूंगी।"

"अब से आपको कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है मां।" रूपा ने सरोज के सामने पहले की तरह एड़ियों के बल बैठते हुए गंभीरता से कहा____"अगर सच में आप मुझे अनुराधा की ही तरह अपनी बेटी मानती हैं तो मुझे बेटी का फर्ज़ निभाने दीजिए।"

सरोज की आंखें छलक पड़ीं। जज़्बात जब बुरी तरह मचल उठे तो उसने फिर से रूपा को उठा कर खुद से छुपका लिया और सिसक उठी।

"ऊपर वाला मुझे कैसे कैसे दिन दिखाएगा?" फिर उसने सिसकते हुए कहा____"एक बेटी की जगह और कितनी बेटियां बना कर मेरे सामने लाएगा?"

"ये आप कैसी बातें कर रहीं हैं मां?" रूपा ने उससे अलग हो कर रुंधे गले से कहा।

"यही सच है बेटी।" सरोज ने कहा____"तुझे पता है इसके पहले जब अनु जीवित थी तो एक दिन इस घर में वैभव के साथ दादा ठाकुर की बहू आईं थी। उन्होंने भी यही कहा था कि वो मेरी बड़ी बेटी हैं और अनुराधा मेरी छोटी बेटी है। उस दिन तो बड़ा खुश हुई थी मैं लेकिन नहीं जानती थी कि बड़ी बेटी के मिलते ही मैं अपनी छोटी बेटी को हमेशा के लिए खो दूंगी।"

कहने के साथ ही सरोज फूट फूट कर रो पड़ी। रूपा भी सिसक उठी लेकिन उसने खुद को सम्हाल कर सरोज को शांत करने की कोशिश की____"मत रोइए मां, रागिनी दीदी को भी कहां पता रहा होगा कि ऐसा कुछ हो जाएगा।"

"ईश्वर ही जाने कि वो क्या चाहता है?" सरोज ने कहा____"लेकिन इतना तो अब मैं समझ गई हूं कि जिस दिन वैभव के क़दम इस घर की दहलीज़ पर पड़े थे उसी दिन इस घर के लोगों की किस्मत भी बदल गई थी।"

"ये क्या कह रही हैं मां?" रूपा का समूचा वजूद जैसे हिल सा गया।

"सच यही है बेटी।" सरोज ने दृढ़ता से कहा____"दादा ठाकुर का बेटा हमारे जीवन में क्या आया मानों हम सबकी बदकिस्मती के दिन ही शुरू हो गए। पहले मेरे पति की हत्या हो गई और फिर मेरी बेटी को मार डाला गया। मैं जानती हूं कि मेरी ये बातें तुम्हें बुरी लगेंगी लेकिन कड़वा सच यही है। दादा ठाकुर का बेटा बड़ा ही मनहूस है बेटी। उसी के कुकर्मों की वजह से मैंने अपने पति और बेटी को खोया है। वरना तू खुद ही सोच कि मेरे मरद की और मेरी बेटी की किसी से भला क्या दुश्मनी थी जिससे कोई उन दोनों की हत्या कर दे?"

रूपा अवाक सी देखती रह गई सरोज को। मनो मस्तिष्क में धमाके से होने लगे थे। उसे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि सरोज वैभव के बारे में ऐसा भी बोल सकती है। हालाकि अगर गहराई से सोचा जाए तो सरोज का ऐसा सोचना कहीं न कहीं वाजिब भी था लेकिन इस कड़वी सच्चाई का एहसास होने के बाद भी रूपा उसकी तरह वैभव के बारे में ऐसा ख़याल तक अपने ज़हन में नहीं लाना चाहती थी। आख़िर वैभव से वो बेपनाह प्रेम करती थी। उसे अपना सब कुछ मानती थी। फिर भला कैसे वो वैभव के बारे में उल्टा सीधा सोच लेती?

"ये सब बातें मेरे मन में इसके पहले नहीं आईं थी।" उधर सरोज मानों कहीं खोए हुए भाव से कह रही थी____"ये तो.....ये तो अब जा कर मेरे मन में आईं हैं। अपने मरद की हत्या को मैंने हादसा समझ लिया था और फिर जब बेटी की हत्या हुई तो अभी कुछ दिन पहले ही अचानक से मुझे एहसास हुआ कि मेरी बेटी और मेरा मरद तो असल में वैभव के कुकर्मों की वजह से मारे गए। ना मेरे मरद की किसी से ऐसी दुश्मनी थी और ना ही मेरी बेटी की तो ये साफ ही है ना कि वो दोनों वैभव के कुकर्मों की वजह से ही मौत के मुंह में चले गए। उसी के दुश्मनों ने मेरे मरद और मेरी बेटी की हत्या कर के उससे अपनी दुश्मनी निकाली है।"

रूपा को समझ ना आया कि वो सरोज की इन बातों का क्या जवाब दे? अभी भी उसके समूचे जिस्म में अजीब सी सिहरन दौड़ रही थी। उसे सरोज के मुख से वैभव के बारे में ऐसा सुनने से बुरा तो लग रहा था लेकिन वो ये भी जानती थी कि सरोज की इस सोच को और उसके द्वारा कही गई बातों को नकारा नहीं जा सकता था।

"तू भी वैभव से प्रेम करती है ना?" सहसा सरोज ने जैसे विषय बदलते हुए रूपा की तरफ देखा, फिर बोली_____"वैभव ने बताया था मुझे तेरे बारे में। मुझे तो आज तक समझ नहीं आया कि वैभव जैसे लड़के को मेरी बेटी में ऐसा क्या नज़र आया था जो वो उससे प्रेम करने लगा था और तो और मेरी बेटी भी उससे प्रेम करने लगी थी। जिस दिन उसे पता चला कि वैभव उससे ब्याह करेगा उस दिन बड़ा खुश हुई थी वो। मेरे सामने अपनी खुशी ज़ाहिर करने में शर्मा रही थी इस लिए भाग कर अपने कमरे में चली गई थी। मुझे मालूम है वो अपने कमरे में खुशी से उछलती रही होगी। उस नादान को क्या पता था कि उसकी वो खुशी और वो खुद महज चंद दिनों की ही मेहमान थी? जिसे वो प्रेम करने लगी थी उसी का कोई दुश्मन उसकी बेरहमी से हत्या करने वाला था। आंखों के सामने अभी भी वो मंज़र चमकता है। पेड़ पर लटकी उसकी लहू लुहान लाश आंखों के सामने से ओझल ही नहीं होती कभी।"

कहने के साथ ही सरोज आंसू बहाते हुए सिसक उठी। उसकी वेदनायुक्त बातें रूपा को अंदर तक झकझोर गईं। पलक झपकते ही उसकी आंखें भी भर आईं। उसकी आंखों के सामने भी अनुराधा की लाश चमक उठी। उसने अपनी आंखें बंद कर के बड़ी मुश्किल से अपने मचल उठे जज़्बातों को काबू किया और फिर सरोज को धीरज देते हुए शांत करने का प्रयास करने लगी। सरोज काफी देर तक सिसकती रही। जब उसका गुबार निकल गया तो शांत हो गई।

"तुझे पता है।" फिर उसने अनूप की तरफ देखते हुए अधीर भाव से कहा_____"हर बार मुझे इस नन्ही सी जान का ख़याल आ जाता है इस लिए अपनी जान लेने से ख़ुद को रोक लेती हूं। वरना सच कहती हूं जीने की अब ज़रा सी भी इच्छा नहीं है।"

"ऐसा मत कहिए मां।" रूपा ने तड़प कर कहा____"मैं मानती हूं कि आपके अंदर जो दुख है वो बहुत असहनीय है लेकिन फिर भी किसी न किसी तरह अपने आपको सम्हालना ही होगा। इस नन्ही सी जान के लिए आपको मजबूत बनना होगा। वैसे भी अब से आप अकेली नहीं हैं। आपकी ये बेटी आपको अब दुखी नहीं रहने देगी।"

"फ़िक्र मत कर बेटी।" सरोज ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा____"मैं अपना भले ही ख़याल न रख सकूं लेकिन इस नन्ही सी जान का ख़याल ज़रूर रखूंगी। आख़िर इसका मेरे सिवा इस दुनिया में है ही कौन? इसके लिए मुझे जीना ही पड़ेगा। तू मेरी चिंता मत कर और मेरे लिए अपना समय बर्बाद मत कर। तेरी अपनी दुनिया है और तेरे अपने भी कुछ कर्तव्य हैं। तू अपना देख बेटी....मैं किसी तरह इस नन्ही सी जान के साथ जी ही लूंगी।"

"नहीं मां।" रूपा ने झट से कहा____"मैं आपको अकेला छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी। अगर मैंने ऐसा किया तो मेरी छोटी बहन अनुराधा मुझे कभी माफ़ नहीं करेगी।"

अभी सरोज कुछ कहने ही वाली थी कि तभी मैं आ गया। मेरे हाथ में निरमा का पैकेट तो था ही साथ में कुछ और भी ज़रूरी सामान था। मैंने वो सब सामान रूपा को पकड़ा दिया। एक छोटे से पैकेट में मैं अनूप के लिए गुड़ और नमकीन ले आया था। रूपा ने अनूप को बुला कर उसे वो पैकेट पकड़ा दिया जिसे ले कर वो बड़ा ही खुश हुआ।

रूपा ने बाकी सामान का मुआयना किया और फिर निरमा एक तरफ रख कर बाकी के समान को अंदर रख आई। फिर उसने सरोज से कपड़ों के बारे में पूछा तो सरोज को मजबूरन बताना ही पड़ा। उसके बताने पर रूपा उसके और अनूप के सारे गंदे कपड़े ले कर आंगन में आ गई। कुएं के बारे में जब उसने पूछा तो मैंने उसे दूसरे दरवाज़े से पीछे की तरफ जाने का इशारा किया तो वो कपड़ों के साथ निरमा और बाल्टी ले कर चली गई।

✮✮✮✮

क्षितिज पर मौजूद सूरज पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ रहा था। क़रीब दो या ढाई घण्टे का दिन रह गया था। आसमान में काले काले बादल नज़र आने लगे थे। बारिश होने के आसार नज़र आ रहे थे। मैं वापस अपने मकान में आ गया था जबकि रूपा सरोज के यहां ही रुक गई थी। असल में वो सरोज तथा उसके बेटे के लिए रात का खाना बना देना चाहती थी ताकि सरोज को कोई परेशानी न हो। सरोज ने इसके लिए उसे बहुत मना किया था मगर रूपा नहीं मानी थी। मैं ये कह कर चला आया था कि मैं शाम को उसे लेने आ जाऊंगा।

जब मैं मकान में पहुंचा था तो कुछ ही देर में भुवन भी आ गया था। आज काफी दिनों बाद मैंने उसे देखा था। कुछ बुझा बुझा सा था वो। ज़ाहिर है अपनी छोटी बहन अनुराधा की मौत के सदमे से अभी भी नहीं उबरा था वो।

"मैंने तो किसी तरह खुद को सम्हाल लिया है छोटे कुंवर।" उसने कहा____"आप भी खुद को सम्हाल लीजिए। आख़िर कब तक आप हर किसी से विरक्त हो कर रहेंगे?"

"मेरी अनुराधा मेरी वजह से आज इस दुनिया में नहीं है भुवन।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"मेरे कुकर्मों की वजह से उसकी हत्या हुई है। मैं उसका अपराधी हूं। जी करता है खुदकुशी कर लूं और पलक झपकते ही उसके पास पहुंच जाऊं।"

"भगवान के लिए ऐसा मत सोचिए कुंवर।" भुवन ने हड़बड़ा कर कहा____"माना कि अनुराधा की हत्या के लिए कहीं न कही आप भी ज़िम्मेदार हैं लेकिन ये भी सच है कि हर चीज़ का कर्ता धर्ता ऊपर वाला ही होता है। आपने ये तो नहीं चाहा था ना कि ऐसा हो जाए?"

"तर्क वितर्क कर के सच को झुठलाया नहीं जा सकता भुवन।" मैंने दुखी भाव से कहा____"और सच यही है कि अनुराधा का असल हत्यारा मैं हूं। ना मैं उसके जीवन में आता और ना ही उसके साथ ये सब होता। इतने बड़े अपराध का बोझ ले कर मैं कैसे जी सकूंगा भुवन? मैं तो अब अपनी ही नज़रों में गिर चुका हूं।"

"खुद को सम्हालिए छोटे कुंवर।" भुवन ने अधीरता से कहा____"इस तरह से खुद को कोसना अथवा हीन भावना से ग्रसित रहना उचित नहीं है। अगर आप ये सब सोच कर इस तरह खुद को दुखी रखेंगे तो ऊपर कहीं मौजूद अनुराधा की आत्मा भी दुखी हो जाएगी। कम से कम उसके बारे में तो सोचिए।"

"आज उसके घर गया था मैं।" मैंने एक गहरी सांस ले कर कहा____"उसकी मां अपनी बेटी के लिए बहुत ज़्यादा दुखी है। तुम्हें पता है, वो भी मानती है कि उसकी बेटी की हत्या मेरे ही कुकर्मों की वजह से हुई है। मेरे कुकर्म आज मेरे लिए अभिषाप बन गए हैं भुवन। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन मुझे ये सब देखना पड़ेगा और ये सब सहना पड़ेगा। काश! ऊपर वाले ने मुझे सद्बुद्धि दी होती तो मैं कभी भूल से भी ऐसे कुकर्म न करता।"

"भूल जाइए छोटे कुंवर।" भुवन ने कहा____"जो हो चुका है उसे ना तो वापस लाया जा सकता है और ना ही मिटाया जा सकता है। उस सबके बारे में सोच कर सिर्फ और सिर्फ दुख ही होगा, जबकि आपको सब कुछ भुला कर आगे बढ़ना चाहिए। आख़िर आपका जीवन सिर्फ आपका ही तो बस नहीं है। आपके इस जीवन में आपके परिवार वालों का भी हक़ है। उनके बारे में सोचिए।"

भुवन की बातें सुन कर मैं कुछ बोल ना सका। भुवन काफी देर तक मुझे समझाता रहा और फिर ये भी बताया कि आज कल खेतों में काम काज कैसा चल रहा है। आख़िर में वो ये कहते हुए दुखी हो गया कि जब से अनुराधा गुज़री है तब से वो उसके घर नहीं गया। ऐसा इस लिए क्योंकि उसकी हिम्मत ही नहीं होती सरोज के सामने जाने की। वो सरोज के सवालों के जवाब नहीं दे सकेगा किंतु आज वो जाएगा।

भुवन के जाने के बाद मैं फिर से ख़यालों में गुम हो गया। मेरे ज़हन में जाने कैसे कैसे ख़याल उभर रहे थे जो मुझे आहत करते जा रहे थे। मन बहुत ज़्यादा व्यथित हो गया था। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मैं उठा और अपनी अनुराधा की चिता की तरफ चल पड़ा। वहीं पर मुझे थोड़ा सुकून मिलता था।​
 
अध्याय - 123
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भुवन के जाने के बाद मैं फिर से ख़यालों में गुम हो गया। मेरे ज़हन में जाने कैसे कैसे ख़याल उभर रहे थे जो मुझे आहत करते जा रहे थे। मन बहुत ज़्यादा व्यथित हो गया था। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मैं उठा और अपनी अनुराधा की चिता की तरफ चल पड़ा। वहीं पर मुझे थोड़ा सुकून मिलता था।

अब आगे....


शाम होने में अभी कुछ समय बाकी था। दादा ठाकुर और किशोरी लाल बैठक में बैठे चाय पी रहे थे कि तभी दरबान ने आ कर बताया कि साहूकार गौरी शंकर उनसे मिलने आया है। दादा ठाकुर से इजाज़त ले कर दरबान चला गया।

कुछ ही पलों में गौरी शंकर बैठक कक्ष में दाख़िल हुआ तो दादा ठाकुर ने उसे एक कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और साथ ही एक नौकरानी को गौरी शंकर के लिए चाय लाने का हुकुम भी दे दिया।

"तुम्हारे चेहरे की चमक देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे किसी बात से बेहद प्रसन्न हो तुम।" दादा ठाकुर ने गौरी शंकर के चेहरे पर मौजूद चमक को देखते हुए कहा____"इस प्रसन्नता का कारण कहीं वही तो नहीं जिसका हमें अंदेशा हो रहा है?"

"आपका अंदेशा ग़लत कैसे हो सकता है ठाकुर साहब?" गौरी शंकर ने उसी प्रसन्नता से कहा____"आप बिल्कुल सही सोच रहे हैं। मेरी प्रसन्नता का कारण वाकई में वही है। मेरे भतीजे रूपचंद्र ने मुझे बताया है कि आपकी होने वाली बहू को पहली कामयाबी मिल चुकी है। यानि उसने वैभव को इस बात के लिए राज़ी कर लिया है कि वो उसके साथ वहां पर रह सकती है।"

"ओह! ये तो बहुत अच्छी बात है।" दादा ठाकुर के चेहरे पर भी प्रसन्नता नज़र आई____"हमें तो पहले से ही हमारी होने वाली बहू पर पूर्ण भरोसा था। ख़ैर अब तो हम ऊपर वाले से बस यही दुआ करते हैं कि वो जिस उद्देश्य से वहां गई है उसमें वो जल्द से जल्द सफल हो जाए।"

"ज़रूर सफल होगी ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने पूरे यकीन के साथ कहा____"आप तो जानते हैं कि जब दो व्यक्ति किसी जगह पर एक साथ ही रहने लगते हैं तो उनके साथ रहने का असर ज़रूर होता है। हो सकता है कि थोड़ा वक्त लग जाए लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कुछ ही समय में वैभव अपनी इस मानसिक अवस्था से निजात पा जाएगा।"

तभी नौकरानी चाय ले कर आ गई। गौरी शंकर ने ट्रे में से चाय का प्याला उठा लिया तो नौकरानी वापस चली गई।

"अब जैसा कि हमारे बीच के आपसी संबंध बेहतर हो चुके हैं।" दादा ठाकुर ने कुछ सोचते हुए संतुलित लहजे में कहा____"और अगले साल तो हम दोनों परिवारों के बीच एक घनिष्ट सम्बन्ध भी बन जाएगा। इस लिए हम चाहते हैं कि हम दोनों परिवारों के सुख दुख को तो साझा करें ही किंतु साथ ही दोनों परिवारों की उन्नति के लिए भी कुछ ऐसे क़दम उठाएं जिससे हमारे बीच ही नहीं बल्कि आम लोगों के बीच भी दोनों परिवारों की स्थिति बेहतर हो जाए।"

"आपको जैसा ठीक लगे वैसा कीजिए ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने सहसा हाथ जोड़ते हुए कहा____"मैं और मेरे परिवार के सभी सदस्य आपके किसी भी फ़ैसले पर कोई आपत्ति नहीं जताएंगे। ऐसा इस लिए क्योंकि हमें पूर्ण विश्वास है कि आप जो कुछ भी करेंगे वो हमारी भलाई के लिए ही करेंगे। आप हमारी तरफ से बेफ़िक्र रहें। हम सब तो बस आपके हुकुम का पालन करेंगे।"

"नहीं गौरी शंकर।" दादा ठाकुर ने कहा____"हम ये हर्गिज़ नहीं चाहते कि तुम या तुम्हारे घर वाले हम पर आंख मूंद कर विश्वास करें और ना ही हम ये कहेंगे कि तुम सब वही करो जो करने को हम कहें। जैसे हम और हमारे घर के सदस्य कुछ भी करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं उसी तरह तुम सब भी स्वतंत्र हो। हम किसी पर भी जबरन अपनी इच्छा थोपने का इरादा नहीं रखते हैं।"

"आपको ऐसा कहने की ज़रूरत नहीं है ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने कहा____"क्योंकि हम सब जानते हैं कि आपके मन में हम लोगों के प्रति कभी भी कोई ग़लत भावना नहीं थी और ना ही आपने कभी हमारा अहित चाहा था। वो तो हम ही ऐसे थे जो दुर्भाग्यवश ऐसी बुरी भावनाओं का शिकार थे जिसके चलते जाने कैसे कैसे पाप कर बैठे थे।"

"उस सब को अपने दिलो दिमाग़ से निकाल दो गौरी शंकर।" दादा ठाकुर ने कहा____"अब सिर्फ ये सोचो कि हम सब कुछ ऐसा करें जो हमारे लिए ही नहीं बल्कि हर किसी के लिए बेहतर हो। पिछले कुछ समय से हम दोनों परिवारों की वजह से इस गांव के लोगों पर ही नहीं बल्कि आस पास के गांव के लोगों पर भी जो बुरा असर पड़ा है उसको अब हमें बेहतर करना है। इतना तो तुम भी समझते ही हो कि हमारे कर्मों के अनुसार ही लोग हमारे बारे में अपनी धारणाएं बनाते हैं और फिर उन धारणाओं के चलते वो हमारे साथ वैसा ही आचरण करते हैं। इस लिए अगर हम चाहते हैं कि लोग फिर से हमारे बारे में पहले की ही तरह अच्छी सोच रखें तो उसके लिए हम दोनों को ही कुछ बेहतर कर के दिखाना होगा।"

"आप बस हुकुम कीजिए ठाकुर साहब।" गौरी शंकर ने कहा____"यूं समझ लीजिए कि मैं और मेरे परिवार का हर सदस्य वही करेगा जो आप चाहते हैं और जो लोगों के लिए बेहतर होगा।"

गौरी शंकर की बात सुन कर दादा ठाकुर ने एक गहरी सांस ली फिर थोड़ा धीमें स्वर में गौरी शंकर से काफी देर तक कुछ मुद्दों पर बातें की। सारी बातों के बाद गौरी शंकर के चेहरे पर एक अलग ही तरह के भाव उभर आए थे। उसके बाद गौरी शंकर ने अपनी सहमति जताई और फिर दादा ठाकुर से इजाज़त ले कर चला गया।

✮✮✮✮

सारे मजदूर जब मेरे पास ही आ कर खड़े हो गए तो मैं एकदम से चौंक पड़ा। काफी देर से मैं गहरे ख़यालों में गुम था। मैंने हड़बड़ा कर इधर उधर देखा तो आभास हुआ कि सूरज पश्चिम दिशा में अस्त हो चुका है और अब शाम घिरने लगी है।

"छोटे कुंवर, मकान के तीनों तरफ हम लोगों ने लकड़ी की चारदीवारी बना दी है।" एक अधेड़ उमर के मजदूर ने कहा____"अब जंगली जानवर इस दीवार को फांद कर अंदर नहीं आ सकेंगे। आप यहां पूरी तरह से बेफिक्र हो कर रह सकते हैं। बाकी अगर कुछ कमी रह गई हो तो आप हमें बता दें, हम लोग कल आ कर वो भी कर देंगे।"

"नहीं काका इतना बहुत कर दिया है आप लोगों ने।" मैंने सपाट भाव से कहा____"वाकई में आप सबने बहुत मेहनत की है और बहुत अच्छा इंतज़ाम कर दिया है। अब कुछ और करने की ज़रूरत नहीं है। आप लोग थक गए होंगे इस लिए आप सब अपने अपने घर जाइए और आराम कीजिए, और हां.....हवेली जा कर पिता जी से अपना अपना मेहनताना ले लीजिएगा।"

मेरी बात पर सबने खुशी से सिर हिलाया और फिर मुझे अदब से सलाम कर वो सब चले गए। उन लोगों के जाने के बाद एकदम से चारो तरफ सन्नाटा सा छा गया। मुझे एकदम से याद आया कि मैंने रूपा को लेने आने के लिए बोला था। मैं फ़ौरन ही तखत से नीचे उतरा और फिर मकान का दरवाज़ा बंद कर के मुरारी काका के घर की तरफ चल पड़ा।

कुछ ही समय में मैं मुरारी काका के घर पहुंच गया। दरवाज़ा खुला हुआ था इस लिए मैं अंदर दाख़िल हो गया। आंगन में ही चारपाई पर सरोज काकी और रूपा बैठी बातें कर रहीं थी। अनूप भी चारपाई पर ही एक तरफ बैठा हुआ था। मुझे आया देख रूपा के चेहरे पर खुशी की चमक उभर आई तो वहीं सरोज का चेहरा सामान्य ही रहा। मैंने महसूस किया कि सरोज पहले से अब काफी बेहतर नज़र आ रही थी।

मेरे जाने के बाद शायद बहुत कुछ हुआ था। इसके पहले सरोज को देख कर जहां ये नज़र आया था कि जाने कितने दिनों से उसके सिर के बालों ने कंघी का चेहरा नहीं देखा वहीं अब उसके बाल सलीके से जूड़े की शक्ल में बंधे हुए थे। स्पष्ट नज़र आ रहा था कि पहले उन्हें अच्छे से धोया गया था और फिर कंघी की मदद से संवारा गया था। मुझे समझते देर न लगी कि ये सब रूपा की ही मेहरबानी का नतीजा था। वाकई में उसने बहुत कुछ बदल दिया था।

ख़ैर मेरे आने पर ही दोनों को समय का आभास हुआ तो रूपा झट से उठी। रसोई में जा कर उसने लालटेन जलाई और फिर उसे बरामदे की डेढ़ी में रख दिया। उसके बाद उसने सरोज से कहा कि वो समय पर खाना खा कर सो जाएं। इधर मैं क्योंकि दोपहर में सरोज के मुख से अपने बारे में बहुत कुछ सुन चुका था इस लिए मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या कहूं? मैं आंगन में चारपाई के पास ही खड़ा था। सरोज ने मुझे बैठने तक को नहीं कहा था। इस बात से मुझे थोड़ा बुरा तो लगा था लेकिन समझ सकता था कि मैं इसी बेरुखी के लायक था।

रूपा ने सरोज से जाने की इजाज़त ली और अगले दिन फिर से आने का बोल कर मेरी तरफ देखते हुए दरवाज़े की तरफ बढ़ चली। कुछ ही देर में हम दोनों मकान में वापस आ गए।

शाम का अंधेरा छाने लगा था जिसके चलते मकान में भी अंधेरा नज़र आने लगा था। रूपा ने मकान का दरवाज़ा खोला और अंदर दाख़िल हो गई। थोड़ी ही देर में मुझे अंदर पीला प्रकाश चमकता नज़र आया। ज़ाहिर है उसने लालटेन जलाया था।

"तुम यहीं बैठो।" रूपा एक लालटेन मकान के बाहर बने छोटे से बरामदे की दीवार पर दिख रही खूंटी पर टांगते हुए कहा____"तब तक मैं कुएं से पानी भर लाती हूं। उसके बाद रात के लिए खाना बनाऊंगी।"

कहने के साथ ही रूपा ने पास में ही रखा मटका उठा लिया और फिर जैसे ही बाहर की तरफ जाने लगी तो मैं एकदम से बोल पड़ा____"रुको, तुम मत जाओ। मैं पानी ले कर आता हूं। अंधेरा घिर गया है इस लिए तुम मत जाओ, यहीं रहो।"

"क्या बात है।" रूपा ने पलट कर हल्के से मुस्कुराते हुए कहा____"बड़ी फ़िक्र कर रहे हो मेरी?"

"मेरे कुकर्मों की वजह से एक निर्दोष की जान जा चुकी है।" मैं एकदम से उसके पास पहुंच कर अधीरता से बोल पड़ा____"मैं नहीं चाहता कि मेरे कुकर्मों अथवा मेरी बदकिस्मती के चलते तुम्हारे साथ भी कुछ बुरा हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो जीते जी मर जाऊंगा मैं।"

"शुभ शुभ बोलो वैभव।" रूपा ने घबरा कर झट से मेरे मुख पर हथेली रख दी। फिर संजीदा भाव से बोली____"आज के बाद ऐसी बात कभी न कहना। दुनिया तुम्हारे बारे में भले ही चाहे कुछ भी सोचे लेकिन मैं तुम्हारे बारे में कभी भी ग़लत नहीं सोच सकती। तुम जैसे भी हो मुझे प्राणों से भी ज़्यादा प्यारे हो।"

"मुझ जैसे इंसान के प्रति अपने अंदर ऐसी भावनाएं मत पालो रूपा।" मैंने बेचैन भाव से कहा____"मैं ना तो किसी के दया का पात्र हूं और ना ही किसी के प्रेम का। तुम एक बहुत ही नेकदिल लड़की हो। इस संसार में तुम्हें मुझसे हज़ारों गुना अच्छे लड़के मिल जाएंगे। तुम उन्हीं में से किसी को अपना जीवन साथी चुन लो और खुशहाल जीवन जियो। मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं रूपा। मेरे जिस्म के रोम रोम में सिर्फ और सिर्फ पाप और अपराध भरा हुआ है। मुझ जैसे कुकर्मी इंसान के साथ जीवन गुज़ारने का ख़याल भी तुम्हें अपने मन में नहीं लाना चाहिए।"

"तुमने शायद मेरी बात ठीक से सुनी नहीं है मेरे दिलबर।" रूपा ने दीवानावार हो कर कहा____"मैंने कहा है कि तुम जैसे भी हो मुझे जान से भी ज़्यादा प्यारे हो। मेरे सीने में धड़कते दिल में तुम्हारे प्रति एक ऐसी बेपनाह मोहब्बत मौजूद है जो हर गुज़रते पल के साथ अपने वजूद को और भी ज़्यादा गहरा करती जा रही है। तुम दुनिया में अच्छे लड़कों में से मुझे जीवन साथी चुन लेने की बात कहते हो जबकि सच तो ये है कि मुझे तुम्हारे अलावा किसी की भी चाह नहीं है। ऊपर वाले से बस यही दुआ करती हूं कि मुझे हर जन्म में सिर्फ तुमसे ही प्रेम हो और तुम ही मेरे हमसफ़र बनो।"

ना जाने रूपा की बातों में ऐसी क्या बात थी कि मैं देखता रह गया उसे। मेरे मुख से कोई बोल ना फूट सका। समूचे जिस्म में झुरझुरी सी दौड़ गई। बेबसी के चलते कसमसा कर रह गया था मैं। ख़ैर जब मुझे कुछ भी न सूझा तो मैंने उसके हाथ से मटका लिया और फिर बिना कुछ बोले कुएं की तरफ बढ़ता चला गया।

दिलो दिमाग़ में अजीब सी हलचल मची हुई थी जिसे काबू करना मानो मेरे अख़्तियार में नहीं था। थोड़ी ही देर में मैं पानी ले कर वापस आ गया। रूपा के कहने पर मैंने मटके को अंदर रसोई के पास रख दिया।

मजदूरों ने जंगल से ला कर ढेर सारी लकड़ियां रख दी थी। रूपा ने जल्द ही चूल्हा जला लिया और फिर वो खाना बनाने में लग गई। मेरा मन तो नहीं था लेकिन फिर ये सोच कर उसके पास ही कुछ दूरी पर एक लकड़ी की कुर्सी रख कर बैठ गया कि कहीं उसे अकेलापन न महसूस हो।

शाम का अंधेरा पूरी तरह फैल गया था। चारो तरफ सन्नाटा छा गया था। गांव से दूर एक सुनसान जगह पर बने मकान में हम दो व्यक्ति नियति के जाने किस मकसद के तहत मौजूद थे? हमारे अलावा तीसरा कोई न था। यूं तो मैं इस मकान में अक्सर ही आता रहता था किंतु इस मकान में आज मैं पहली बार रात के समय रुका था, वो भी रूपा के साथ। मैंने ख़्वाब में भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी कभी होगा।

"क्या सोच रहे हो?" सहसा रूपा की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी। मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने कहा____"वैसे एक बात कहूं, अगर ऐसी परिस्थितियां नहीं होती तो आज यहां इस तरह तुम्हारे साथ रहने के चलते मुझे सच में बेहद खुशी होती।"

रूपा की इस बात पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया। वो छोटी सी कढ़ाई में सब्जी छौंक रही थी। जब मैंने कुछ देर तक उसकी बात का कोई जवाब न दिया तो उसने गर्दन घुमा कर मेरी तरफ देखा।

"इतने चुप क्यों हो वैभव?" फिर उसने कहा____"मैंने तुमसे कहा था ना कि तुम्हें खुद को शांत रखना है और जो भी हुआ है उसे भुलाने की कोशिश करनी है। अगर ऐसा नहीं करोगे तो कैसे अनुराधा के लिए कुछ अच्छा कर सकोगे?"

"तुम्हारी बात मान कर मैंने भी यही सोचा था कि अपनी अनुराधा के लिए कुछ अच्छा करूंगा।" मैंने अधीरता से कहा____"यही सोच कर तुम्हारे साथ अनुराधा के घर भी गया था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि सरोज काकी मेरे बारे में ऐसा सोच सकती है और मुझे मनहूस कह सकती है। वैसे सच ही तो कहा था ना उसने? मैं मनहूस ही तो हूं। जब से उनके जीवन में मेरा आगमन हुआ था तब से उन बेचारों के साथ कुछ भी तो अच्छा नहीं हुआ, बल्कि सिर्फ बुरा ही हुआ है। पहले मुरारी काका की हत्या कर दी गई और फिर उनके बाद उनकी बेटी की। मेरी मनहूसियत का साया अगर उन लोगों पर न पड़ता तो आज मुरारी काका भी जीवित होते और मेरी अनुराधा भी।"

"अच्छा तो तुमने सरोज काकी की बातें सुन ली थी?" रूपा ने एकाएक फिक्रमंदी से कहा____"देखो, तुम उनकी बातों के बारे में ये सब सोच कर खुद को दुखी मत करो। वो एक मां हैं और उन्होंने अपनी जवान बेटी को खोया है। ज़ाहिर है उनके मन में कुछ न कुछ तो चलता ही रहेगा। मैं ये मानती हूं कि अनुराधा की हत्या तुमसे अपनी दुश्मनी निकालने के लिए चंद्रकांत ने की थी लेकिन मैं ये नहीं मानती कि तुम्हारी वजह से अनुराधा के पिता की हत्या हुई। मुझे भी पता चला है कि मुरारी काका की हत्या किसने की थी? यानि उसके अपने ही भाई ने। हत्या करने की वजह भी ये कि उसे अपने भाई की ज़मीन जायदाद हड़पना था।"

"हां लेकिन इसके बावजूद उसकी हत्या में सबसे ज़्यादा नाम तो मेरा ही लिया गया।" मैंने हताश भाव से कहा____"मेरे दुश्मन ने भी तो इसी मकसद से उसके हाथों मुरारी काका की हत्या करवाई थी। अब चाहे ये कान पकड़ो या वो बात तो एक ही हुई कि सब कुछ मेरी ही वजह से हुआ है।"

"तुम किसी की सोच को बदल नहीं सकते वैभव।" रूपा ने कहा____"हर व्यक्ति की अपनी एक सोच और विचारधारा होती है जिसके तहत वो चीज़ों के बारे में अपनी राय बनाता रहता है। ज़रूरी नहीं कि एक ने जो राय बनाई वही दूसरा व्यक्ति भी बनाएगा। वैसे भी दुनिया वालों को सबसे ज़्यादा दूसरों पर कीचड़ उछालने में ही आनंद आता है। इंसान भले ही जीवन भर अच्छाईयां करे लेकिन एक मामूली सी बुराई पर उसकी समस्त अच्छाईयां दब जाती हैं और दबाने वाले कोई और नहीं बल्कि यही दुनिया वाले ही होते हैं। मैं पूछती हूं कि क्यों ऐसा करते हैं लोग? आख़िर एक मामूली सी बुराई के आगे किसी की जीवन भर की गई अच्छाईयों को क्यों भूल जाते हैं लोग?"

"पर मैंने कहां अपने जीवन में कोई अच्छा काम किया है रूपा?" मैंने दुखी हो कर कहा____"मैंने तो हमेशा बुरा कर्म ही किया है। अपनी हवस मिटाने के लिए मैंने हमेशा दूसरों की बहू बेटियों को अपने मोह जाल में फांसा और फिर उनकी इज्ज़त से खेला। अपने अब तक के जीवन में मैंने सिर्फ कुकर्म ही किए हैं रूपा और मेरे इन्हीं कुकर्मों की वजह से आज मेरी निर्दोष अनुराधा इस दुनिया में नहीं है। मैं जीवन भर इस अपराध बोझ से जलता रहूंगा और कभी चैन से जी नहीं सकूंगा।"

कहने के साथ ही मेरी आंखों से आंसू का कतरा छलक गया। मेरा गला भर आया। मेरा जी किया कि दहाड़ें मार कर रो पड़ूं लेकिन फिर बड़ी मुश्किल से मैंने अपने मचलते जज़्बातों को रोका। रूपा कलछी छोड़ फ़ौरन ही मेरे पास आ गई और फिर मेरे सिर को पकड़ कर खुद से छुपका लिया।

"खुद को सम्हालो वैभव।" फिर उसने अधीरता से कहा____"खुद को इतना मत तड़पाओ मेरे दिलबर। माना कि तुमने बुरे कर्म किए हैं लेकिन ज़रा ये भी तो सोचो कि इस संसार में ऐसा कौन है जिसने कभी कोई बुरा कर्म ही नहीं किया है? इस युग में कोई भी राजा हरिश्चंद्र नहीं है। इस युग की सच्चाई ही यही है कि लोग पाप कर्म करने से नहीं चूक सकते। फिर चाहे वो खुशी से करें या मजबूरी में। तुमने भी तो इस युग के अनुसार ही सब कुछ किया है। अब रही बात अच्छा कर्म करने की तो जीवन अभी ख़त्म नहीं हुआ है। तुम आज से और अभी से अच्छे कर्म कर सकते हो। मैंने सुना है कि इंसान जब अच्छे कर्म करता है तो उसे असीम सुख और शांति की अनुभूति होती है। जबकि बुरा कर्म करने वाला कभी भी असीम सुख और शांति की अनुभूति प्राप्त नहीं कर सकता। इस लिए सब कुछ भूल जाओ और अब से ये ठान लो कि तुम्हें अच्छे कर्म ही करने हैं। अगर मन में सवाल उठे कि किसके लिए तो जवाब यही है कि अपनी अनुराधा के लिए। क्या तुम ऐसा नहीं करना चाहोगे, बताओ मुझे?"

"मैं करूंगा....मैं करूंगा रूपा।" मैं एकदम से अधीर हो कर बोल पड़ा____"अपनी अनुराधा के लिए ही अब से अच्छे कर्म करूंगा। शायद तभी मेरी अनुराधा भी मुझे माफ़ कर देगी। शुक्रिया....तुम्हारा बहुत बहुत शुक्रिया रूपा। तुमने मेरा मार्गदर्शन किया है...तुम सच में बहुत अच्छी हो। मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मेरे जैसे इंसान के नसीब में इतने अच्छे इंसान कैसे लिखे थे ऊपर वाले ने?"

"शायद इसी लिए कि एक दिन ऐसा वक्त आएगा जब तुम्हें मेरे मार्गदर्शन की ज़रूरत होगी।" रूपा ने सहसा मुझे छेड़ने वाले अंदाज़ से कहा____"ऊपर वाले को पहले से पता था कि एक दिन ठाकुर वैभव सिंह इस तरह की मानसिकता का शिकार हो जाएंगे।"

रूपा की इस बात से मेरे होठों पर फीकी सी मुस्कान उभर आई। रूपा कुछ देर मुझे बड़े ही प्रेम भाव से देखती रही फिर वो वापस चूल्हे के पास जा कर बैठ गई और कलछी से सब्जी को चलाने लगी।

ऐसे ही समय गुज़रा और फिर हम दोनों ने खाना खाया। भोजन करने के बाद हम दोनों अपने अपने कमरे में सोने के लिए चले गए। मकान का मुख्य द्वार अंदर से अच्छी तरह बंद कर दिया था मैंने इस लिए ख़तरे जैसी कोई बात नहीं रह गई थी।​
 
अध्याय - 124
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रूपा अपने कमरे में ज़मीन पर ही एक गद्दा बिछाए लेटी हुई थी। कमरे में लालटेन का धीमा प्रकाश था। काफी देर से वो आंखें बंद किए सोने की कोशिश कर रही थी लेकिन नींद थी कि आने का नाम ही नहीं ले रही थी। कभी वो इस तरफ करवट लेती तो कभी दूसरी तरफ। आंख बंद करते ही उसका मन जाने कैसे कैसे विचारों के भंवर में जा फंसता था जिसके चलते वो बेचैन हो उठती थी।

पूरे कमरे में ही नहीं बल्कि पूरे मकान में सन्नाटा छाया हुआ था। ये सन्नाटा अजीब सा भय भी पैदा कर रहा था जिसके चलते रूपा को घबराहट हो रही थी। बार बार उसका जी कर रहा था कि वो उठे और झट से वैभव के कमरे में उसके पास पहुंच जाए। यूं तो अपने घर के कमरे में वो अकेली ही सोती थी और कभी भी अकेले सोने में उसे कोई भय नहीं लगा था लेकिन यहां उसे भय लग रहा था। कदाचित इस एहसास के चलते कि ये मकान एक ऐसी जगह पर बना हुआ था जिसके चारो तरफ दूर दूर तक कोई दूसरा घर नहीं है और जब कोई दूसरा घर ही नहीं है तो किसी इंसान के रहने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता।

रूपा का मन भय के चलते बार बार उसे वैभव के पास चले जाने के लिए ज़ोर दे रहा था किंतु हर बार वो ये सोच के अपने मन की बात को अनसुना कर देती थी कि अगर उसने ऐसा किया तो वैभव क्या सोचेगा उसके बारे में? कहीं वो ये न सोच बैठे कि ऐसी परिस्थिति में भी वो अपनी हवस या वासना के चलते उसके पास आई है। हालाकि वास्तविकता उसे भी पता थी कि वैभव उसके बारे में कभी ऐसा नहीं सोच सकता था लेकिन जाने क्यों बार बार वो सिर्फ यही सोच बैठती थी। कुछ तो संकोच और कुछ शर्म की वजह से भी वो वैभव के पास नहीं जाना चाहती थी।

रूपा ये सब सोचते हुए बहुत ज़्यादा बेचैन और दुविधा का शिकार हो गई थी। दूसरी तरफ अकेले होने के चलते जो उसे भय लग रहा था उसकी वजह से भी वो सिमटी जा रही थी। इंसान को नींद तो तभी आती है जब उसका मन विकारों से रहित हो और पूर्ण रूप से शांत हो लेकिन रूपा का ना मन विकारों से रहित था और ना ही शांत था। अंततः उसके सारे संकोच और सारी शर्म को भय ने मानो अपनी दहशत के चलते जाने कहां गायब कर दिया।

रूपा हड़बड़ा कर उठी और लालटेन उठा कर कमरे से बाहर निकल गई। उसकी धड़कनें धाड़ धाड़ कर के बज रहीं थी। चेहरे पर पसीना उभर आया था। जल्दी ही वो वैभव के कमरे के पास पहुंच गई। उसने देखा कमरे का दरवाज़ा बंद था। अपनी बढ़ी हुई धड़कनों को काबू करने की नाकाम कोशिश की उसने और फिर कांपते हाथों से उसने दरवाज़े पर दस्तक दी। जब कुछ देर हो जाने पर भी दरवाज़ा न खुला तो रूपा ने घबरा कर इस बार थोड़ा ज़ोर से दस्तक दी। चारो तरफ व्याप्त सन्नाटा प्रति पल उसकी घबराहट में इज़ाफ़ा किए जा रहा था।

रूपा अभी तीसरी बार दस्तक देने ही वाली थी कि तभी अजीब सी आवाज़ के साथ दरवाज़ा खुला। दरवाज़े के बीचों बीच खड़े वैभव पर नज़र पड़ते ही रूपा ने राहत और सुकून की लंबी सांस ली। इससे पहले कि वैभव उससे कुछ कहता उसने बिजली की सी तेज़ी से लालटेन को दरवाज़े के एक तरफ रखा और फिर लपक कर वैभव से जा कर लिपट गई। उसने खुद महसूस किया उसका समूचा जिस्म थरथर कांप रहा था।

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रूपा जब लपक कर मुझसे लिपट गई तो मैं एकदम से पत्थर की बेजान मूर्ति में बदल गया। अगले कुछ पलों तक मुझे कुछ भी महसूस न हुआ किंतु फिर अचानक ही जैसे मेरी चेतना जागृत हुई। रात के इस वक्त रूपा का मेरे पास आना और फिर मुझसे यूं लिपट जाना मुझे थोड़ा अजीब सा लगा और साथ ही मेरे समूचे जिस्म में झुरझुरी सी भी दौड़ गई।

"क...क्या हुआ?" फिर मैंने जैसे खुद को सम्हालते हुए उससे पूछा____"तुम यहां क्यों आई हो? सब ठीक तो है ना?"

"मु...मुझे डर लग रहा था वैभव।" रूपा ने लिपटे हुए ही अटकते स्वर में कहा____"मैंने बहुत कोशिश की कि मैं अपने डर को दबा कर कमरे में सो जाऊं मगर सो नहीं पाई। इस लिए डर के मारे तुम्हारे पास चली आई। मैं दूसरे कमरे में नहीं रहूंगी वैभव। क्या मैं तुम्हारे कमरे में सो जाऊं? म...मैं नीचे ज़मीन पर ही सो जाऊंगी।"

"ठीक है।" मैंने उसे खुद से अलग करते हुए कहा____"जाओ अपना बिस्तर ले आओ और यहीं बिछा कर सो जाओ।"

"व...वो मैं अकेली नहीं जाऊंगी।" रूपा ने हकलाते हुए कहा____"तुम मेरे साथ चलो ना। मुझे बहुत डर लग रहा है।"

रूपा की बात सुन कर मैंने सिर हिलाया और फिर उसके साथ उसके कमरे की तरफ बढ़ गया। थोड़ी ही देर में रूपा अपना बिस्तर मेरे कमरे की ज़मीन पर बिछा कर लेट गई। मेरी चारपाई उससे एक या डेढ़ फिट की दूरी पर थी। एक लालटेन क्योंकि मेरे कमरे में भी थी इस लिए रूपा ने अपनी वाली लालटेन को बुझा दिया।

"वैभव?" कुछ देर बाद सन्नाटे में रूपा की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी____"एक बात पूछूं तुमसे?"

"हम्म्म्म।" मैंने बिना उसकी तरफ देखे ही सहमति में हुंकार भरी।

"जब तुम्हारे पिता जी ने तुम्हें गांव से निष्कासित कर दिया था।" रूपा ने जैसे जिज्ञासा के चलते पूछा____"तब तुम इस सुनसान जगह पर अकेले कैसे रह रहे थे? उस समय तो ये मकान भी नहीं बना हुआ था। मैंने सुना था कि तुम यहां पर एक छोटी सी झोपड़ी बना के अकेले ही रहते थे। सच सच बताओ, क्या तुम्हें यहां पर अकेले रहने में ज़रा भी डर नहीं लगता था?"

"अब से पहले तो बिल्कुल भी डर नहीं लगता था ?" मैंने सपाट लहजे में कहा____"लेकिन अब अपनी परछाई से भी डर लगने लगा है।"

"ऐसा क्यों कह रहे हो तुम?" रूपा ने मेरी तरफ करवट ले कर संजीदा भाव से कहा।

"क्योंकि अब मैं अपनी हकीक़त से परिचित हो गया हूं।" मैंने कहा____"मैं जान चुका हूं कि मैं असल में क्या हूं। इसके पहले जो मेरी हकीक़त थी वो महज मेरा एक भ्रम थी। एक ऐसा भ्रम जिसके नशे में डूबा मैं कभी ये कल्पना भी नहीं कर सका था कि मेरे कर्म एक दिन मुझे एक ऐसी शख्सियत से रूबरू कराएंगे जिसे देख कर मुझे कहीं पर भी अपना मुंह छुपाने की जगह नहीं मिलेगी।"

"भगवान के लिए ऐसी बातें मत करो वैभव।" रूपा ने झट से उठ कर दुखी भाव से कहा____"हर चीज़ के लिए तुम खुद को दोषी क्यों ठहरा रहे हो? इस दुनिया में सब कुछ इंसान के हाथ में नहीं होता। कुछ चीज़ें ऊपर वाले की मर्ज़ी से भी होती हैं।"

"अच्छा! क्या सच में?" मेरे होठों पर फीकी सी मुस्कान उभर आई____"क्या ये भी ऊपर वाले की ही मर्ज़ी थी कि मैं हर किसी की बहन बेटी पर अपनी नीयत ख़राब करूं और फिर उनकी इज्ज़त भी ख़राब कर दूं?"

"किसी की इज्ज़त ख़राब करना उसे कहते हैं वैभव जब कोई व्यक्ति किसी की मर्ज़ी के बिना ज़बरदस्ती उसकी इज्ज़त पर हाथ डाले।" रूपा ने मानो तर्क़ देते हुए कहा____"जबकि तुमने कभी किसी की बहन बेटी के साथ कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो मैं खुद हूं। हां मेरे दिलबर, मैं सच्चे दिल से कहती हूं कि तुमने मेरे साथ कभी किसी तरह की कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की थी। मैंने अपनी मर्ज़ी से और अपनी खुशी से अपना सब कुछ तुम्हें सौंपा था। तुमने जिन जिन लड़कियों या औरतों के साथ संबंध बनाया उन सबकी सहमति से ही बनाया था। किसी के भी साथ तुमने कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं की। किसी के भी साथ तुमने जबरन कोई अत्याचार नहीं किया था। तुम्हारा नियम तो यही था ना कि तुम कभी भी किसी की मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं करोगे तो जब तुमने अपने नियम को कभी तोड़ा ही नहीं तो कैसे ख़ुद को किसी बात के लिए दोष दे सकते हो? जब तुमने कभी किसी की इज्ज़त पर ज़बरदस्ती हाथ डाला ही नहीं तो तुम ये कैसे कह सकते हो कि तुम कुकर्मी हो? नहीं वैभव, सच तो ये है कि अगर इसके बाद भी तुम खुद को दोष देते हो तो दोषी वो लड़कियां और वो औरतें भी हैं जिन्होंने अपने फ़ायदे के लिए तथा अपनी खुशी के लिए तुमसे संबंध बनाया।"

"अगर मेरी तरह वो सब भी दोषी हैं।" मैंने कहा____"तो फिर उनके साथ भी वही सब क्यों नहीं हुआ जो मेरे साथ हुआ है? उनकी हालत भी वैसी ही क्यों नहीं हुई जैसी आज मेरी है?"

"आज नहीं हुई है तो आगे चल कर ज़रूर होगी वैभव।" रूपा ने कहा____"अगर ऊपर वाले ने तुम्हें दोषी मान कर इस हाल में पहुंचाया है तो यकीन रखो एक दिन उन सबको भी ऐसे ही हाल में पहुंचाएगा। उसके घर में देर है लेकिन अंधेर नहीं। सबको अपने कर्मों का हिसाब देना पड़ता है।"

कहने को तो अभी भी बहुत कुछ था मन में लेकिन फिर चुप ही रहा। मैं जानता था कि रूपा ये सब तर्क वितर्क इसी लिए कर रही थी ताकि मैं व्यथित न होऊं। आख़िर वो मुझसे प्रेम करती है, फिर भला वो ये कैसे चाह सकती है कि मैं अंदर ही अंदर घुटता रहूं?

"अच्छा मैंने कुछ सोचा है।" कुछ देर की ख़ामोशी के बाद रूपा ने कहा____"क्यों न हम अनूप का पास के गांव के विद्यालय में दाखिला करवा दें। माना कि ये थोड़ा अजीब है और गांव के लोग पता नहीं क्या सोचेंगे लेकिन अगर ऐसा करने से उसका भविष्य संवर जाएगा तो कितना अच्छा होगा ना?"

"ख़याल तो अच्छा है।" मैंने कुछ सोचते हुए कहा____"लेकिन क्या तुम्हें लगता है कि सरोज काकी इसके लिए राज़ी होगी? मेरा मतलब है कि वो तो अब मुझे मनहूस मानती है। हो सकता है कि अब वो मुझसे किसी भी तरह की सहायता लेना पसंद ही न करे।"

"तुम्हारी सहायता लेना पसंद न करेंगी मान सकती हूं।" रूपा ने कहा____"लेकिन मेरी बात तो मान ही सकती हैं न? वैसे भी मैंने आज उनके सामने ही अनूप को पढ़ाने की बात कही थी जिस पर उन्होंने कोई एतराज़ नहीं किया था। यानि अगर मैं उनसे अनूप को विद्यालय में दाखिला कराने को कहूंगी तो वो इंकार नहीं करेंगी।"

"अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हारे कहने पर वो इसके लिए राज़ी हो जाएगी तो ठीक है।" मैंने कहा____"तुम कल उससे बात कर लेना। अगर वो राज़ी हो जाएगी तो मैं अनूप का दाखिला विद्यालय में करवा दूंगा।"

"ठीक है मैं कल ही इस बारे में उनसे बात करूंगी और उन्हें राज़ी भी कर लूंगी।" रूपा ने सहसा उत्साहित भाव से कहा____"मैं मानती हूं कि इस समय वो अपनी बेटी के गुज़र जाने से दुखी हैं लेकिन हमारी छोटी छोटी कोशिशों के चलते धीरे धीरे ही सही उनका ये दुख थोड़ा कम हो जाएगा। मुझे इस बात का भी यकीन है कि आज भले ही वो तुम्हारे बारे में ऐसा सोचने लगीं हों लेकिन आने वाले समय में तुम्हारे प्रति उनकी ये सोच भी बदल जाएगी।"

रूपा की इन बातों ने मेरे अंदर सुकून का एक हल्का सा एहसास कराया। बहरहाल, उसके बाद हम में से किसी ने कोई बात नहीं की और सोने के लिए अपनी अपनी आंखें बंद कर लीं। पता नहीं कब नींद ने हम दोनों को अपनी आगोश में ले लिया।

✮✮✮✮

अगली सुबह।
नए दिन की शुरुआत हुई।
जब मेरी आंख खुली तो देखा ज़मीन पर रूपा का बिस्तर ग़ायब था। रूपा भी कहीं नज़र ना आई तो किसी अनहोनी की आशंका से मैं एकाएक हड़बड़ा कर उठ बैठा। कमरे से बाहर आया तो मेरी नज़र रूपा पर पड़ी। वो रसोई में थी और चूल्हे की राख निकाल रही थी। उसके एक तरफ झाड़ू रखा हुआ था। मैंने इधर उधर निगाह घुमाई तो समझ गया कि वो सुबह जल्दी उठ कर घर की साफ सफाई में लग गई थी।

रूपा को किसी कुशल गृहणी की तरह काम करते देख मुझे अजीब सा एहसास हुआ। मन में ये ख़याल भी उभरा कि वो कितनी ईमानदारी से अपना काम कर रही थी और अपनी ज़िम्मेदारी निभा रही थी। जाने क्यों उसके लिए मेरे अंदर एक टीस सी उभरी। तभी सहसा उसे जैसे कुछ आभास हुआ तो उसने जल्दी से अपना सिर घुमाया। मुझ पर नज़र पड़ते ही उसका चेहरा मानों खिल उठा और गुलाबी होठों पर मुस्कान उभर आई। फिर एकाएक जाने क्या सोच कर वो शर्मा गई और मेरी तरफ से उसने अपनी नज़रें हटा ली।

"मैं दिशा मैदान के लिए जा रहा हूं।" मैंने थोड़ा झिझकते हुए उससे कहा____"किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बता दो। मैं दिशा मैदान जाने से पहले कर देता हूं।"

"हां वो चूल्हा पोतने के लिए गाय का गोबर चाहिए मुझे।" रूपा ने थोड़ा संकोच के साथ कहा____"लेकिन तुम जाओ। मैं बाहर आस पास ढूंढ लूंगी।"

"नहीं तुम अकेले बाहर कहीं मत जाना।" मैंने कहा____"कुछ देर में मकान की चौकीदारी करने वाले आदमी आ जाएंगे। आज मैं उनसे बोल दूंगा कि वो सुबह सुबह ही गाय का गोबर ला कर यहां रख दिया करें। अभी के लिए मैं देखता हूं। आस पास कहीं मिल ही जाएगा।"

उसके बाद मैं उसकी कोई बात सुने बिना बाहर निकल गया। बाहर मैं इधर उधर देखने लगा। आस पास गोबर पड़ा नज़र तो आया मुझे लेकिन वो सूखा हुआ था इस लिए मैं थोड़ा दूर निकल आया।

ऐसा नहीं था कि इस तरह का काम मैंने किया नहीं था। पिता जी के निस्काषित किए जाने पर जब यहां पर मैं झोपड़ी बना कर रह रहा था तब गोबर से मैं खुद ही अपनी झोपड़ी के अंदर की ज़मीन को पोत लिया करता था। ख़ैर थोड़ी ही देर में एक जगह मुझे गोबर मिल गया। मैंने उसे हाथों से समेट कर उठाया और फिर ले चला।

जब मैं गोबर लिए रूपा के पास पहुंचा तो रूपा मुझे देख कर अपनी मुस्कान दबा ना सकी थी। मेरे द्वारा इस तरह का कार्य करना शायद उसके लिए एक मज़ेदार अनुभव था। मेरे हाथों में गोबर लग गया था इस लिए उसने लोटे में पानी ले कर मेरा हाथ धुलवाया। उसके बाद मैंने उसे दरवाज़ा अंदर से बंद कर लेने को कह कर दिशा मैदान के लिए चला गया।

क़रीब आधे घंटे बाद मैं एकदम स्वच्छ हो कर लौटा। मैंने देखा मकान के बाहर ही दो लोग बैठे हुए थे जो मकान की चौकीदारी करते थे। मुझे देखते ही दोनों ने अदब से मुझे सलाम किया।

"बबलू आए तो उसे कहना कि वो और भीखू काका मुरारी के खेतों की तरफ चले जाएं।" मैंने उन दोनों की तरफ देखते हुए कहा____"आज से वो दोनों मुरारी काका के खेतों पर काम करेंगे। उनके खेतों की फ़सल की देख भाल और साथ ही बाकी का काम भी। ठीक है ना?"

"जी ठीक है छोटे कुंवर।" दोनों ने सिर हिलाया।

"और हां, मैं तुम्हें एक महत्वपूर्ण काम भी दे रहा हूं।" मैंने एक की तरफ देखते हुए कहा____"कल से तुम सुबह सुबह ही यहां आ जाओगे और घर से अपनी गाय का ताज़ा गोबर ले के आओगे।"

"जी ठीक है छोटे कुंवर।" उसने जल्दी से सिर हिलाया।

"आज से यहां पर तुम दोनों ही रहोगे।" मैंने दोनों से कहा____"तुम दोनों का काम फिलहाल यही है कि कोई भी बाहरी और संदिग्ध व्यक्ति इस मकान के क़रीब ना आने पाए। दोपहर में तुम दोनों में से एक ही व्यक्ति अपने घर खाना खाने के लिए जाएगा और दूसरे के लिए उसके घर से खाना ले कर आएगा। बाकी यहां पर चूल्हे में जलाने के लिए लकड़ियों की कमी नहीं होनी चाहिए। एक बात और, इस मकान के एक तरफ नहाने के लिए लकड़ी का एक गुसलखाना भी बनाना है तुम्हें। उम्मीद करता हूं कि शाम होने से पहले पहले ये काम हो जाएगा।"

दोनों ने सहमति में सिर हिलाया और फिर वो दोनों उठ कर चले गए। रूपा ने शायद मेरी आवाज़ सुन ली थी इस लिए उसने दरवाज़ा खोल दिया था।

"मैं नहा कर आती हूं।" मैं जैसे ही अंदर पहुंचा तो उसने कहा____"फिर तुम्हारे लिए नाश्ता बना देती हूं। उसके बाद मैं मां (सरोज) के घर जाऊंगी।"

"ठीक है।" मैंने कहा____"तुम नहा लो और हां तुम्हें मेरे लिए नाश्ता बनाने की ज़रूरत नहीं है, बस चाय बना देना। दोपहर को मैं हवेली जाऊंगा तो वहीं खा लूंगा।"

"क्यों?" रूपा के माथे पर बल पड़ा____"क्या मेरे हाथ का बना खाना अच्छा नहीं लगा तुम्हें?"

"ऐसी बात नहीं है।" मैंने कहा____"वो असल में मैंने कल सुबह आते समय मां को वचन दिया था कि हर रोज़ उनसे मिलने आऊंगा।"

"ओह! ये तो अच्छी बात है।" रूपा ने हौले से मुस्कुराते हुए कहा____"दुनिया में भले ही चाहे सबको नाराज़ या दुखी कर दो लेकिन अपनी जन्म देने वाली मां को कभी दुखी मत करना।"

बहरहाल रूपा नहाने के लिए कुएं पर जा चुकी थी और मैं अनुराधा की चिता के पास जा कर बैठ गया था। इस जगह पर आने से मुझे एक अलग ही तरह की अनुभूति होती थी और मैं दुनिया जहान से बेख़बर हो कर अपनी अनुराधा के ख़यालों में डूब जाता था।

कुछ समय बाद रूपा ने मुझे आवाज़ दी तो मैं ख़यालों के गहरे समुद्र से बाहर आया और फिर उठ कर वापस मकान की तरफ बढ़ गया।

रूपा ने नहाने के बाद दूसरे कपड़े पहन लिए थे और इस वक्त वो बिल्कुल ही तरो ताज़ा नज़र आ रही थी। किसी ताज़े खिले गुलाब की मानिंद उसका चेहरा खिला नज़र आ रहा था। मैंने पहले भी कहीं ज़िक्र किया था कि साहूकारों के घर की लड़कियां बहुत खूबसूरत थीं लेकिन उनकी सबसे बड़ी खूबसूरती उनकी सादगी थी। ना चाहते हुए भी मैं रूपा के रूप सौंदर्य में खो सा गया। कदाचित रूपा को भी इस बात का एहसास हो गया जिसके चलते अनायास ही उसके चेहरे पर लाज की सुर्खी छा गई।

"चाय पीने का इरादा नहीं है क्या?" फिर उसने हौले से मुस्कुराते हुए जैसे मेरा ध्यान भंग किया तो मैं थोड़ा सकपका गया।

रूपा के हाथ से चाय का प्याला ले कर मैं बाहर आ गया और तखत पर बैठ गया। मेरे पीछे रूपा भी आ गई थी। मैंने चाय का घूंट भरा तो मुझे चाय का स्वाद बहुत ही अच्छा लगा। मैंने रूपा की तरफ प्रशंसा की दृष्टि से देखा तो वो फिर से मुस्कुरा उठी। पता नहीं क्या चल रहा था उसके मन में जो सुबह सुबह वो इतना ज़्यादा खुश हो कर मुस्कुरा उठती थी।

बहरहाल, चाय पीने के बाद मैंने रूपा को अपनी मोटर साईकिल से सरोज काकी के घर छोड़ा और फिर वहीं से हवेली के लिए निकल गया। मैं अभी रास्ते में ही था कि सहसा मुझे कुछ याद आया तो मैंने मोटर साईकिल को अपने खेतों की तरफ मोड़ दिया।

खेतों पर मौजूद मजदूरों की जब मुझ पर नज़र पड़ी तो सब बड़ा खुश हुए और लपकते हुए मेरे पास आए। सभी ने मुझे अदब से सलाम किया। मैंने सबका हाल चाल पूछा जिस पर उन्होंने सब अच्छा ही है के रूप में जवाब दिया।

मैंने सोचा जब यहां आ ही गया हूं तो थोड़ा फसलों का भी मुआयना कर लेता हूं। ये सोच कर मैं खेतों की तरफ चल पड़ा। दो तीन मजदूर मेरे पीछे हो लिए। मेरे बिना पूछे ही वो बताते जा रहे थे कि कौन सी फसल का क्या हाल है और कौन सी फसल में अभी किस चीज़ की कमी है जिसके लिए उन्हें जल्द ही उस कमी को दूर करना है।

क़रीब आधा पौन घंटा मैं उन लोगों के साथ खेतों का मुआयना करता रहा। सब कुछ ठीक था। उसके बाद वो लोग मुझे उस तरफ ले गए जहां पर मेरे हुकुम पर उन लोगों ने तरह तरह की सब्जियों के बीज बोए थे। सब्जियों के पौधे लहलहाते हुए नज़र आए मुझे।

जब मैं वापस मकान के पास पहुंचा तो देखा भुवन आ गया था। मुझे यहां पर आया देख वो थोड़ा खुश नज़र आया। कुछ देर इधर उधर की बातों के बाद मैंने उससे कहा कि वो कुछ विश्वासपात्र आदमियों को सरोज काकी के घर की और मेरी ग़ैर मौजूदगी में मेरे उस मकान पर नज़र रखें। मैं नहीं चाहता था कि सरोज अथवा रूपा के साथ किसी भी तरह की अनहोनी हो जाए। भुवन ने मुझे फ़िक्र न करने के लिए कहा और फिर काम में लग गया। उसके जाने के बाद मैं भी हवेली के लिए निकल गया।​
 
अध्याय - 125
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जब मैं वापस मकान के पास पहुंचा तो देखा भुवन आ गया था। मुझे यहां पर आया देख वो थोड़ा खुश नज़र आया। कुछ देर इधर उधर की बातों के बाद मैंने उससे कहा कि वो कुछ विश्वासपात्र आदमियों को सरोज काकी के घर की और मेरी ग़ैर मौजूदगी में मेरे उस मकान पर नज़र रखें। मैं नहीं चाहता था कि सरोज अथवा रूपा के साथ किसी भी तरह की अनहोनी हो जाए। भुवन ने मुझे फ़िक्र न करने के लिए कहा और फिर काम में लग गया। उसके जाने के बाद मैं भी हवेली के लिए निकल गया।

अब आगे....


"अरे! तू आ गया बेटा।" मैं जैसे ही हवेली के अंदर पहुंचा तो मां मुझे देख खुश होते हुए बोलीं____"तुझे देख के मेरे कलेजे को कितनी ठंडक मिली है मैं बता नहीं सकती।"

कहने के साथ ही मां ने मुझे लपक कर अपने कलेजे से लगा लिया। मां की आवाज़ सुन बाकी लोग भी जहां कहीं मौजूद थे फ़ौरन ही बाहर आ गए। कुसुम की नज़र जैसे ही मुझ पर पड़ी तो वो भागते हुए आई और भैया कहते हुए मेरे बगल से छुपक गई। मेनका चाची और रागिनी भाभी के चेहरे भी खिल उठे। वहीं निर्मला काकी के होठों पर भी मुस्कान उभर आई जबकि उनकी बेटी कजरी के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। ज़ाहिर है उस दिन की खातिरदारी के चलते उसके अरमानों के सारे दिए बुझ चुके थे।

"ये क्या बात हुई दीदी?" मेनका चाची ने मेरे क़रीब आ कर मां से कहा____"वैभव सिर्फ आपका ही नहीं मेरा भी बेटा है। मुझे भी तो इसे अपने कलेजे से लगाने दीजिए।"

चाची की बात सुन मां ने मुस्कुराते हुए मुझे खुद से अलग किया और फिर चाची से बोलीं____"हां हां क्यों नहीं मेनका। ये तेरा भी बेटा है।"

मां की बात सुन चाची ने मेरी तरफ देखा। उनकी आंखों में असीम स्नेह झलक रहा था। उन्होंने एक पल भी जाया नहीं किया मुझे अपने कलेजे से लगाने में। अपने लिए सबका ऐसा प्यार और स्नेह देख अंदर से मुझे खुशी तो हुई किंतु फिर तभी अनुराधा की याद आ गई जिसके चलते दिल में दर्द सा जाग उठा। उधर भाभी मुझे ही अपलक देखे जा रहीं थी। जैसे समझने की कोशिश कर रही हों कि रूपा के क़रीब रहने से मुझमें कोई परिवर्तन आया है कि नहीं?

"दीदी आपको नहीं लगता कि मेरा बेटा एक ही रात में कितना दुबला हो गया है?" मेनका चाची ने मुझे खुद से अलग करने के बाद सहसा मां से कहा____"लगता है मेरी होने वाली बहू ने मेरे बेटे का ठीक से ख़याल नहीं रखा है।"

चाची की बात का मतलब ज़रा देर से मां को समझ आया तो उन्होंने हल्के से कुहनी मारी चाची को जिस पर चाची खिलखिला कर हंसने लगीं लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी हंसी को रोक लिया। कदाचित ये सोच कर कि बाकी लोग क्या सोचेंगे और शायद मैं खुद भी? हालाकि मैंने उनकी बात को गहराई से सोचना गवारा ही नहीं किया था।

"जब देखो उल्टा सीधा बोलती रहती है।" मां ने चाची पर झूठा गुस्सा करते हुए कहा____"ये नहीं कि बेटा आया है तो उसके खाने पीने का बढ़िया से इंतज़ाम करे।"

"अरे! चिंता मत कीजिए दीदी।" चाची ने कहा____"अपने बेटे की सेहत का मुझे भी ख़याल है। मैंने तो पहले से ही वैभव के लिए उसकी पसंद का स्वादिष्ट भोजन बनाना शुरू कर दिया है।"

"खाना तो अभी बन रहा है इस लिए उससे पहले मैं अपने सबसे अच्छे वाले भैया को अदरक वाली बढ़िया सी चाय बना के पिलाऊंगी।" कुसुम ने झट से कहा____"देखना मेरे हाथ की बनी चाय पीते ही मेरे भैया खुश हो जाएंगे, है ना भैया?"

"हां सही कह रही है मेरी गुड़िया।" मैंने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा_____"मेरी बहन का प्यार दुनिया में सबसे बढ़ कर है। जा बना के ले आ मेरे लिए चाय।"

मेरी बात सुनते ही कुसुम खुशी से झूमते हुए रसोई की तरफ दौड़ पड़ी। उसके जाने के बाद मैं भी पलटा और आंगन को पार कर के सीढ़ियों से होते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। मुझे इस तरह चला गया देख मां और चाची के चेहरे पर पीड़ा और निराशा के भाव उभर आए थे।

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नहा धो कर अपने कमरे में आने के बाद मैंने कपड़े पहने ही थे कि तभी खुले दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने पलट कर देखा तो मेरी नज़र रागिनी भाभी पर पड़ी। वो दरवाज़े की दहलीज़ पर खड़ीं थी।

"क्या मैं अंदर आ सकती हूं?" मुझे अपनी तरफ देखता देख उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ पूछा।

"आपको मेरे कमरे में आने के लिए मुझसे इजाज़त लेने की कब से ज़रूरत महसूस होने लगी?" मैंने भावहीन स्वर में कहा____"ख़ैर अंदर आ जाइए।"

"क्या करें जनाब समय बदल रहा है।" भाभी ने अंदर आते हुए उसी मुस्कान के साथ कहा____"इजाज़त ले कर कमरे में आने की अभी से आदत डालनी होगी हमें। आख़िर कुछ समय बाद हमारे महान देवर जी एक से दो जो हो जाएंगे। उसके बाद तो बिना इजाज़त के कोई कमरे में आ भी नहीं सकेगा।"

"सबको भले ही मेरे कमरे में इजाज़त ले कर आना पड़े।" मैंने कहा____"लेकिन आपको मेरे कमरे में आने के लिए कभी इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं है।"

"ओहो! भला ऐसा क्यों जनाब?" भाभी की आंखें सिकुड़ गईं।

"बस ऐसे ही।" मैंने संक्षिप्त सा जवाब दिया।

"अरे! ऐसे कैसे बस ऐसे ही?" भाभी ने आंखें फैला कर कहा____"कोई तो ख़ास बात ज़रूर होगी जिसकी वजह से तुम ऐसा कह रहे हो।"

"बस यूं समझ लीजिए कि मैं अपनी भाभी पर अपनी तरफ से किसी भी तरह की पाबंदी नहीं लगाना चाहता।" मैंने कहा____"और ना ही ये चाहता हूं कि मेरी वजह से आपको किसी तरह की असुविधा हो।"

"ऐसी बातें मत करो वैभव जिनके लिए बाद में तुम्हें पछताना पड़े?" भाभी ने कहा____"इंसान शादी हो जाने के बाद ज़्यादातर बीवी के ही कहने पर चलता है। इस लिए ऐसी बातें मत कहो जो बाद में तुम्हारे लिए परेशानी खड़ी कर दें।"

"अगर मैंने पिता जी को रूपा से ब्याह करने के लिए हां नहीं कहा होता तो मैं शादी नहीं करता।" मैंने कहा____"अपनी अनुराधा को खो देने के बाद ऐसा लग रहा है जैसे इस दुनिया में अब मेरे लिए कुछ है ही नहीं। जीवन बेरंग हो गया है। जी करता है जहां मेरी अनुराधा चली गई है वहीं मैं भी चला जाऊं।"

"ख़बरदार वैभव।" भाभी ने एकाएक कठोर भाव से कहा____"आज के बाद ऐसी बात सोचना भी मत। तुम्हें शायद अंदाज़ा भी नहीं है कि तुम्हारे मुख से ऐसा सुनने मात्र से इस घर के कितने लोगों को दिल का दौरा पड़ सकता है और उनकी जान जा सकती है।"

"मैं क्या करूं भाभी?" मैं हताश भाव से पलंग पर धम्म से बैठ गया____"उसकी बहुत याद आती है मुझे। एक पल के लिए भी उसे भूल नहीं पा रहा मैं। आंखों के सामने बार बार पेड़ पर लटकी उसकी लहू लुहान लाश चमक उठती है। उस भयानक मंज़र को देखते ही बस एक ही ख़याल ज़हन में आता है कि मेरी वजह से आज वो इस दुनिया में नहीं है। मुझसे प्रेम करने की कितनी भयंकर सज़ा मिली उसे।"

"शांत हो जाओ वैभव।" भाभी ने झट से मेरे पास आ कर मेरे सिर को बड़े प्यार से अपने हृदय से लगा लिया_____"किसी के इस तरह चले जाने का दोषी भले ही इंसान हो जाता है लेकिन सच तो ये है कि हर इंसान इस दुनिया में अपनी एक निश्चित आयु ले कर ही आता है। दुनिया का सबसे बड़ा सत्य यही है कि जिसने भी इस धरती पर जन्म लिया है उसे एक दिन वापस ऊपर वाले के पास जाना ही पड़ता है। उसके जाने पर तुम इस तरह ख़ुद को दुखी मत करो। क्या इतना जल्दी भूल गए कि आज जिस हालत में तुम हो कुछ समय पहले मैं भी ऐसी ही हालत में थी। उस समय तुम भी मुझे यही सब समझाते थे और मेरे अंदर जीने के लिए नई नई उम्मीदें जगाते थे। आज भी तुम मेरे चेहरे पर खुशी लाने के लिए जाने कैसे कैसे हथकंडे अपनाते हो। अगर अपने दिल का सच बयान करूं तो वो यही है कि आज मैं सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी मेहरबानियों के चलते ही अपने उस असहनीय दुख से बाहर निकल सकी हूं। मुझे खुशी है कि मेरे देवर ने मेरे लिए इतना कुछ सोचा और मेरे दुखों को दूर करने की हर कोशिश की। ऊपर वाले से यही दुआ करती हूं ईश्वर मेरे जैसा देवर हर औरत को दे।"

"ऐसी दुआ मत कीजिए भाभी।" मैंने दुखी भाव से कहा____"मेरे जैसा कुकर्मी इंसान किसी भी औरत का कुछ भी बनने के लायक नहीं हो सकता।"

"अगर तुमने दुबारा ऐसी ऊटपटांग बात कही तो सोच लेना।" भाभी ने जैसे मुझे धमकी देते हुए कहा____"मैं कभी तुमसे बात नहीं करूंगी और तुम्हारी तरह मैं भी वापस अपने उसी दुख में डूब जाऊंगी जिसमें से निकाल कर तुम मुझे यहां लाए हो।"

"नहीं भाभी नहीं।" मैंने भाभी को ज़ोर से पकड़ लिया____"भगवान के लिए ऐसा मत कीजिएगा।"

"हां तो तुम भी अपने मुख से ऐसी फ़िज़ूल की बातें नहीं बोलोगे।" भाभी ने कहा____"तुमने मुझे वचन दिया था कि तुम एक अच्छा इंसान बन कर दिखाओगे और पूरी ईमानदारी से अपनी हर ज़िम्मेदारियां निभाओगे। क्या तुम अपना वचन तोड़ कर मुझे फिर से दुख में डुबा देना चाहते हो?"

"नहीं....हर्गिज़ नहीं।" मैंने पूरी दृढ़ता से इंकार में सिर हिला कर कहा____"मैं खुद को मिटा दूंगा लेकिन अपना वचन तोड़ कर आपको दुखी नहीं होने दूंगा।"

"सच कह रहे हो ना?" भाभी ने जैसे मुझे परखा____"मुझे झूठा दिलासा तो नहीं दे रहे हो ना?"

मैंने इंकार में सिर हिलाया तो भाभी ने कहा____"मेरे प्यारे देवर, मैं जानती हूं कि जब कोई अपना दिल अज़ीज़ इस तरह से रुख़सत हो जाता है तो बहुत पीड़ा होती है लेकिन हमें किसी न किसी तरह उस पीड़ा को सह कर अपनों के लिए आगे बढ़ना ही पड़ता है। जैसे तुम्हारे समझाने के बाद अब मैं अपने अपनों के लिए आगे बढ़ने की कोशिश में लगी हुई हूं। मेरा तुमसे यही कहना है कि तुम इस दुख से बाहर निकलने की कोशिश करो। रूपा के बारे में सोचो, बेचारी कितना प्रेम करती है तुमसे। तुम्हारे दुख से वो भी दुखी है। उसके प्रेम की पराकाष्ठा देखो कि उसने अपने प्रियतम को दुख से बाहर निकालने के लिए एक ऐसा रास्ता अख़्तियार कर लिया जिसके बारे में दुनिया का कोई भी आम इंसान ना तो सोच सकता है और ना ही हिम्मत जुटा सकता है। दुनिया में भला कौन ऐसी लड़की होगी और ऐसे घर वाले होंगे जो ब्याह से पहले ही अपनी बेटी को अपने होने वाले दामाद के साथ अकेले रहने की इस तरह से खुशी खुशी अनुमति दे दें? ये दुनिया किसी एक पर ही बस नहीं सिमटी हुई है वैभव, बल्कि ये दुनिया अनगिनत लोगों के वजूद का हिस्सा है। हमें सिर्फ एक के बारे में नहीं बल्कि हर किसी के बारे में सोचना पड़ता है।"

भाभी की बातों से मेरे अंदर हलचल सी मच गई थी। मैं गंभीर मुद्रा में बैठा जाने किन ख़यालों में खोने लगा था?

"अच्छा अब छोड़ो ये सब।" मुझे ख़ामोश देख भाभी ने कहा____"और ये बताओ कि मेरी होने वाली देवरानी का निरादर तो नहीं किया न तुमने? उस बेचारी पर गुस्सा तो नहीं किया न तुमने?"

मैंने ना में सिर हिला दिया। उसके बाद उनके पूछने पर मैंने उन्हें अपने और रूपा के बीच का सारा किस्सा बता दिया। सब कुछ जानने के बाद भाभी के होठों पर मुस्कान उभर आई थी।

"वाह! मुझे अपनी होने वाली देवरानी से ऐसी ही समझदारी की उम्मीद थी।" फिर उन्होंने खुशी ज़ाहिर करते हुए कहा____"तुम्हारे साथ साथ वो बेचारी अनुराधा की मां का भी दुख दूर करने की कोशिश कर रही है। इतना ही नहीं बेटी बन कर सच्चे दिल से वो अपनी नई मां की सेवा भी कर रही है। इतना कुछ इंसान तभी कर पाता है जब उसके दिल में किसी के प्रति अथाह प्रेम हो और हर इंसान के प्रति कोमल भावनाएं हों। तुम्हें ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने इतनी अच्छी लड़की को तुम्हारी जीवन संगिनी बनाने के लिए चुन रखा है।"

कुछ देर बाद भाभी कमरे से चली गईं। मैं पलंग पर लेटा काफी देर तक उनकी बातों के बारे में सोचता रहा। कुसुम जब मुझे भोजन करने के लिए बुलाने आई तो मैं उसके साथ ही नीचे आ गया।

मेरे पूछने पर मां ने बताया कि पिता जी गौरी शंकर के साथ सुबह नाश्ता कर के कहीं गए हुए हैं। ख़ैर खाना लग चुका था। सचमुच मेनका चाची ने मेरी पसंद का ही भोजन बनवाया था। वो अपने हाथों से मुझे खाना परोस रहीं थी। सबके चेहरों पर खुशी के भाव थे। ज़ाहिर है सब मुझे खुश करने के ही प्रयास में लगे हुए थे। मां मेरे बगल में बैठ कर अपने हाथों से खिलाने लगीं थी। मुझे ये सब पसंद तो नहीं आ रहा था लेकिन ख़ामोशी से इस लिए खाए जा रहा था कि मेरी वजह से उनकी भावनाएं आहत न हों।

भोजन के बाद मैं वापस अपने कमरे में आराम करने के लिए चला आया। मैं बहुत कोशिश कर रहा था कि खुद को सामान्य रखूं और सबके साथ सामान्य बर्ताव ही करूं लेकिन जाने क्यों मुझसे ऐसा हो नहीं पा रहा था।

✮✮✮✮

सरोज अब पहले से काफी बेहतर थी। रूपा के आने की वजह से काफी हद तक उसका अकेलापन दूर हो गया था। रूपा उसे उदास होने का मौका ही नहीं देती थी। सरोज के साथ रूपा का बर्ताव बिल्कुल वैसा ही था जैसे सच में ये उसी का घर है और सरोज उसकी असल मां है। इसके विपरीत सरोज उसके ऐसे बेबाक अंदाज़ पर अभी भी थोड़ा संकोच कर रही थी। शायद अभी वो पूरी तरह से सहज नहीं हो पाई थी।

दोपहर का खाना रूपा ने ही बनाया था। उसके बाद पहले उसने अनूप को खिलाया था और फिर सरोज के साथ बैठ कर उसने खाया था। खाना खाने के बाद उसने सारे जूठे बर्तन भी धो दिए थे। रूपा को किसी मशीन की तरह अपने घर में काम करते देख सरोज मन ही मन हैरान भी होती थी और ये सोच कर उसे थोड़ा खुशी भी महसूस होती थी कि उसके जीवन की नीरसता को दूर करने के लिए वो बेचारी कितना कुछ कर रही थी। अनायास ही उसके मन में सवाल उभरा कि क्या उसे इस तरह से किसी दूसरे की बेटी को अपने लिए यहां परेशान होते देखना चाहिए? अगर गहराई से सोचा जाए तो उससे उसका रिश्ता ही क्या है? आख़िर उसने ऐसा कौन सा गुनाह किया है जिसके लिए उसको ये सब करना पड़े?

सरोज सोचती कि किसी दूसरे की बेटी उसे मां कह रही थी और उसे वैसा ही स्नेह और सम्मान दे रही थी जैसे कोई अपनी सगी मां को देता है। सरोज ये सब सोचते हुए खुद से यही कहती कि ये सब उसकी अपनी बेटी की वजह से ही हो रहा है। अगर उसकी बेटी ने दादा ठाकुर के बेटे से प्रेम न किया होता तो यकीनन एक बड़े घर की लड़की उसे अपनी मां मानते हुए उसके यहां ऐसे काम ना करती। यानि ये सब कुछ उसकी अपनी बेटी के संबंधों के चलते ही हो रहा है।

सरोज को याद आया कि हवेली की ठकुराईन अपनी बहू के साथ खुद चल कर उसके घर आईं थी। इतना ही नहीं उसके दुख दर्द को समझते हुए उसे धीरज दिया था। उनकी बहू ने तो उसे अपनी मां तक बना लिया था। उसकी बेटी को उसने अपनी छोटी बहन बना लिया था। उनमें से किसी को भी इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी कि उसकी बेटी ने इतने बड़े घर के बेटे से प्रेम संबंध बनाया और उसके साथ ब्याह भी करने का इरादा रखती थी। बल्कि हवेली का हर सदस्य उसकी बेटी को अपनी बहू बनाने के लिए खुशी से तैयार था। ये तो उसका और उसकी बेटी का दुर्भाग्य था जिसके चलते ऐसा हो ही न सका था।

सरोज को बड़ी शिद्दत से एहसास हुआ कि सच में किसी का कोई दोष नहीं था। उसकी बेटी का इस तरह से मरना तो नियति का लेख था। सरोज को याद आया कि उसके पति का हत्यारा तो उसका अपना ही देवर जगन था जो अपने ही भाई की संपत्ति हड़पना चाहता था। ज़ाहिर है उसके पति की मौत में भी दादा ठाकुर के लड़के वैभव का कोई हाथ नहीं था। बल्कि उसने तो एड़ी से चोटी तक का ज़ोर लगा कर उसके पति के हत्यारे को उसके सामने ला कर खड़ा कर दिया था।

अचानक ही सरोज की आंखों के सामने गुज़रे वक्त की तस्वीरें किसी चलचित्र की मानिंद चमकने लगीं। उसे नज़र आया वो मंज़र जब उसके पति की तेरहवीं करने के लिए वैभव ने क्या कुछ किया था। तेरहवीं के दिन सुबह से शाम तक वो किसी मजदूर की तरह पूरी ईमानदारी और सच्चे दिल से हर काम में लगा हुआ था। उसके घर के अंदर बाहर भीड़ जमा थी। हर व्यक्ति की ज़ुबान में बस यही बात थी कि मुरारी की तेरहवीं का ऐसा आयोजन आम इंसानों के बस की बात नहीं थी। सरोज को सहसा याद आया कि उसके बाद कैसे वैभव ने उसकी और उसके परिवार की पूरी ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर रख ली थी। किसी भी चीज़ का अभाव नहीं होने दिया था उसने। यहां तक कि उसके खेतों पर काम करने के लिए दो दो आदमियों को लगा दिया था। इतना कुछ तो वही कर सकता है जो उसे और उसके परिवार को दिल से अपना मानता हो और उसका हर तरह से भला चाहता हो।

घर के आंगन में चारपाई पर बैठी सरोज के ज़हन में यही सब बातें चल रहीं थी जिसके तहत उसका मन भारी हो गया था। उसे पता ही न चला कि कब उसकी आंखों ने आंसू के कतरे बहा दिए थे। इस वक्त वो अकेली ही थी। उसका बेटा अनूप अपनी नई दीदी के साथ पीछे कुएं पर गया हुआ था जहां रूपा उसके और अनूप के कपड़े धो रही थी।

"अरे! मां आप अभी तक वैसी ही बैठी हुई हैं?" तभी रूपा दूसरे वाले दरवाज़े से अंदर आंगन में आ कर उससे बोली____"ओह! अच्छा समझ गई मैं। आप फिर से बीती बातों को याद कर खुद को दुखी करने में लगी हुई हैं।"

"नहीं बेटी, ऐसी तो कोई बात नहीं है।" सरोज ने झट से खुद को सम्हालते हुए कहा____"असल में बात ये है कि मैं तेरे आने का इंतज़ार कर रही थी। मैं चाहती थी कि जैसे कल तूने मेरे बालों को संवार कर जूड़ा बना दिया था वैसे ही आज भी बना दे।"

"वाह! आप तो बड़ा अच्छा बहाना बना लेती हैं।" रूपा ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा____"ख़ैर कोई बात नहीं। आप बैठिए, मैं इन गीले कपड़ों को रस्सी में फैला दूं उसके बाद आपके बालों को संवारती हूं।"

कहने के साथ ही रूपा आंगन के दूसरे छोर पर लगी डोरी पर एक एक कर के गीले कपड़े फैलाने लगी। कुछ ही देर में जब सारे कपड़े टंग गए तो वो अंदर गई और फिर कंघा शीशा वाली छोटी सी डलिया ले कर आ गई।

सरोज बड़े ध्यान से उसकी एक एक कार्यविधि को देख रही थी। वैसे ये कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि जब से रूपा यहां आई थी तभी से वो उसकी हर कार्यविधि को देखती आ रही थी। उसके मन में बस एक ही ख़याल उभरता कि ये भी उसकी बेटी अनुराधा की ही तरह है। बस इतना ही फ़र्क है कि ये उसकी बेटी की तरह ज़रूरत से ज़्यादा शर्मीली और संकोच करने वाली नहीं है। बाकी जो भी करती है पूरे दिल से और पूरी ईमानदारी से करती है, जैसे उसकी बेटी करती थी।

"क्या हुआ मां?" सरोज को अपलक अपनी तरफ देखता देख रूपा ने उससे पूछा____"ऐसे क्यों देख रही हैं मुझे? मुझसे कोई भूल हो गई है?"

"नहीं बेटी।" सरोज ने हल्के से हड़बड़ा कर कहा____"तुझसे कोई भूल नहीं हुई है। मैं तो बस ये सोच रही हूं कि कब तक तू मेरे लिए यहां परेशान होती रहेगी? एक दिन तो तुझे अपने घर जाना ही होगा। उसके बाद मैं फिर से इस घर में अकेली हो जाऊंगी।"

"आप तो जानती हैं न मां कि बेटियां पराई होती हैं।" रूपा ने बड़े स्नेह से कहा____"अपने मां बाप के घर में कुछ ही समय की मेहमान होती हैं उसके बाद तो वो किसी दूसरे का घर आबाद करने चली जाती हैं। ख़ैर आप फ़िक्र मत कीजिए, जब तक आपके पास हूं आपकी देख भाल करूंगी।"

"और फिर मुझे अपने मोह के बंधन में बांध कर चली जाएगी?" सरोज ने अधीरता से कहा____"उसके बाद तो मैं फिर से उसी तरह दुख में डूब जाऊंगी जैसे अनू के चले जाने से डूब गई थी, है ना?"

"अगर आप कहेंगी तो आपको छोड़ कर कभी कहीं नहीं जाऊंगी।" रूपा ने सरोज के दोनों कन्धों को पकड़ कर कहा____"हमेशा आपके पास रहूंगी और आपको कभी दुखी नहीं होने दूंगी।"

"ऐसा मत कह मेरी बच्ची।" सरोज के जज़्बात मचल उठे तो उसने तड़प कर रूपा को अपने सीने से लगा लिया, फिर रुंधे गले से बोली____"तुझे मेरे लिए अपना जीवन बर्बाद करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं भी तेरा जीवन बर्बाद कर के पाप की भागीदार नहीं बनना चाहती।"

"ऐसा कुछ नहीं है मां।" रूपा ने कहा____"माता पिता की सेवा में अपना जीवन कुर्बान कर देना तो औलाद के लिए सबसे बड़े गौरव की बात है। मैंने आपको मां कहा है तो अब ये मेरी ज़िम्मेदारी है कि आपको किसी भी तरह का कोई कष्ट अथवा दुख न हो।"

"मुझे अब कोई कष्ट या दुख नहीं रहा बेटी।" सरोज ने रूपा को खुद से अलग कर उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में ले कर कहा____"तेरे इस स्नेह ने मुझे हर दुख से उबार दिया है। अब मैं ये चाहती हूं मेरी ये बेटी अपने बारे में भी सोचे।"

रूपा अभी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी किसी ने बाहर वाला दरवाज़ा खटखटाया जिससे दोनों का ध्यान उस तरफ गया।

"शायद वो (वैभव) आए होंगे मां।" रूपा ने थोड़ा शरमाते हुए कहा और फिर चारपाई से उतर कर दरवाज़े की तरफ बढ़ चली।

रूपा ने जब दरवाज़ा खोला तो उसकी उम्मीद के विपरीत दरवाज़े के बाहर एक औरत और कुछ लड़कियां खड़ी नज़र आईं। रूपा उनमें से किसी को भी नहीं पहचानती थी इस लिए उन्हें देख उसकी आंखों में सवालिया भाव उभर आए। यही हाल उन लोगों का भी था किंतु रूपा ने महसूस किया कि औरत के चेहरे पर दुख और तकलीफ़ के भाव थे। बहरहाल, रूपा ने एक तरफ हट कर उन्हें अंदर आने का रास्ता दिया तो वो सब अंदर आ गईं।

"अरे! मालती तू?" सरोज की नज़र जैसे ही औरत और लड़कियों पर पड़ी तो उसने कहा____"अपनी बेटियों के साथ इस वक्त यहां कैसे? सब ठीक तो है ना?"

सरोज का ये पूछना था कि मालती नाम की औरत झट से आगे बढ़ी और फिर लपक कर सरोज से लिपट कर रोने लगी। ये देख सरोज के साथ साथ रूपा भी चौंकी। मालती को यूं रोते देख उसके साथ आई लड़कियां भी सुबकने लगीं।

"अरे! तू रो क्यों रही है मालती?" सरोज ने एकाएक चिंतित हो कर पूछा____"आख़िर हुआ क्या है?"

"सब कुछ बर्बाद हो गया दीदी।" मालती ने रोते हुए कहा____"मैं और मेरे बच्चे कहीं के नहीं रहे।"

"य...ये क्या कह रही है तू?" सरोज चौंकी____"साफ साफ बता हुआ क्या है?"

"आपके देवर ने जिन लोगों से कर्ज़ा लिया था उन लोगों ने आज हमें हमारे ही घर से निकाल दिया है।" मालती ने सुबकते हुए कहा____"अभी थोड़ी देर पहले ही वो लोग घर आए थे और अपना कर्ज़ा मांग रहे थे मुझसे। मेरे पास तो कुछ था ही नहीं तो कहां से उनका कर्ज़ा देती? एक हफ़्ता पहले भी वो लोग आए थे और ये कह कर चले गए थे कि अगर मैंने एक हफ़्ते के अंदर उन लोगों का उधार वापस नहीं किया तो वो मुझे और मेरे बच्चों को मेरे ही घर से निकाल देंगे और मेरे घर पर कब्ज़ा कर लेंगे।"

मालती की बातें सुन कर सरोज सन्न रह गई। रूपा भी हैरान रह गई थी। उधर मालती थी कि चुप ही नहीं हो रही थी। उसके साथ साथ उसकी बेटियां और छोटा सा उसका बेटा भी रो रहा था।

मालती, मरहूम जगन की बीवी और सरोज की देवरानी थी। जगन को चार बेटियां थी और आख़िर में एक बेटा जोकि उमर में अनूप से बहुत छोटा था।

(यहां पर जगन के परिवार का छोटा सा परिचय देना मैं ज़रूरी समझता हूं।)

✮ जगन सिंह (मर चुका है)
मालती सिंह (जगन की बीवी/विधवा)

जगन और मालती को पांच संताने हुईं थी जो इस प्रकार हैं:-

(01) विद्या (बड़ी बेटी/अविवाहित)
(02) तनु
(03) छाया
(04) नेहा
(05) जुगनू

बटवारे में मुरारी और जगन को अपने पिता की संपत्ति से बराबर का हिस्सा मिला था। जगन अपने बड़े भाई की अपेक्षा थोड़ा लालची और जुआरी था। अपने बड़े भाई मुरारी की तरह जगन भी देशी शराब का रसिया था किंतु जुएं के मामले में वो अपने बड़े भाई से आगे था। मुरारी जुवां नहीं खेलता था और शायद यही वजह काफी थी कि मुरारी अपने छोटे भाई की तरह इतना ज़्यादा कर्ज़े में नहीं डूबा था। बहरहाल, जगन जुएं के चलते ही अपना सब कुछ गंवाता चला गया था।

उसकी बीवी मालती यही जानती थी कि उसके मरद ने घर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही मजबूरी में खेतों को गिरवी किया था जबकि असलियत ये थी कि जगन ने अपने खेत जुएं में गंवाए थे। आज स्थिति ये बन गई थी कि उसके मरने के बाद कर्ज़ा देने वालों ने उसकी बीवी और उसके बच्चों को उसके अपने ही घर से निकाल कर बेघर कर दिया था। उन्हीं से मालती को पता चला था कि उसके पति ने जुएं में ही अपने खेत गंवाए थे।

मालती ने रोते हुए सरोज को सारी कहानी बताई तो सरोज के पैरों तले से मानों ज़मीन खिसक गई थी। एकाएक ही उसे एहसास हुआ कि उसकी देवरानी और उसके बच्चे इस समय कितनी बड़ी मुसीबत में हैं। रहने के लिए कोई घर नहीं है और पेट भरने के लिए जिस अन्न की ज़रूरत होती है उसे उगाने के लिए ज़मीन नहीं है।

रूपा अब तक मालती और उसके बच्चों की हालत समझ गई थी और साथ ही उसे ये भी एहसास हुआ कि इस सबके चलते उन्होंने खाना भी नहीं खाया होगा। उसने चुपके से मालती की एक छोटी बेटी से खाना खाने के बारे में पूछा तो उसने सहमे से अंदाज़ में बताया कि उनमें से किसी ने भी कुछ नहीं खाया है।

रूपा चुपचाप रसोई की तरफ बढ़ गई। उसे पता था कि रसोई में खाना थोड़ा सा ही है जोकि अनूप के लिए बचा के रख दिया था उसने। रूपा ने फ़ौरन ही खाना बनाने के लिए चूल्हा सुलगाना शुरू कर दिया।

आंगन में मालती और सरोज एक दूसरे का दुख बांटने में लगी हुईं थी और इधर रूपा ने फटाफट उन सबके लिए खाना बना दिया था। क़रीब पौन घंटे बाद जब रूपा ने सबसे खाना खाने के लिए कहा तो सरोज ने चौंक कर उसकी तरफ देखा। उसका तो इस तरफ ध्यान ही नहीं गया था। सहसा उसकी नज़र खपरैल पर उठते धुएं पर पड़ी तो उसे समझते देर न लगी कि रूपा ने सबके लिए गरमा गरम खाना बना दिया है। ये देख उसे रूपा पर बहुत प्यार आया और साथ ही उसने रूपा को बड़ी कृतज्ञता से भी देखा।

बहरहाल सरोज के कहने पर मालती और उसके बच्चे खाना खाने को तैयार हुए। थोड़ी ही देर में रूपा ने अंदर बरामदे में सबको बैठाया और सबको खाना परोसा। ये सब देख सरोज को अपने अंदर बड़ा ही सुखद एहसास हो रहा था। वो सोचने लगी कि रूपा ने कितनी समझदारी और कुशलता से सब कुछ तैयार कर लिया था जिसके बारे में किसी को पता भी नहीं चला था।​
 
अध्याय - 126
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मैं हवेली से मोटर साईकिल में निकला। रूपचंद्र के घर के सामने जैसे ही आया तो मेरी नज़र अंदर से सड़क पर आते रूपचंद्र पर पड़ी। इससे पहले कि मैं निकल पाता उसने मुझे आवाज़ दी जिससे मुझे ना चाहते हुए भी रुकना पड़ा।

"तुम हवेली से आ रहे हो क्या?" रूपचंद्र ने मेरे क़रीब आ कर थोड़ी हैरानी से पूछा।

"हां क्यों?" मैंने निर्विकार भाव से उसकी तरफ देखा।

"वो...वो मुझे लगा तुम मेरी बहन के पास होगे।" रूपचंद्र झिझकते हुए बोला____"लेकिन अगर तुम यहां थे तो उसके पास कौन था? क्या वो वहां पर अकेली है? हे भगवान! वैभव तुम उसे वहां पर अकेला कैसे छोड़ सकते हो? क्या तुम्हें मेरी बहन की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है?"

"इस बारे में अपनी बहन से पूछ लेना।" मैंने सपाट लहजे में कहा____"चलता हूं अब।"

कहने के साथ ही मैंने मोटर साईकिल को आगे बढ़ा दिया। पीछे रूपचंद्र हकबकाया सा खड़ा रह गया। उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव नुमायां हो रहे थे और साथ ही चिंता के भाव भी। वो फ़ौरन ही पलटा और भागते हुए अंदर गया। कुछ ही देर में जब वो बाहर आया तो उसके हाथ में मोटर साईकिल की चाभी थी। उसने एक तरफ खड़ी मोटर साईकिल पर सवार हो कर झट से उसे स्टार्ट किया और फिर मेरा पीछा करने लगा।

रूपचंद्र उस वक्त चौंका जब मेरी मोटर साईकिल मेरे मकान की तरफ न जा कर मुरारी काका के घर की तरफ जाने लगी। मोटर साईकिल रोक कर वो कुछ देर मुझे जाता हुआ देखता रहा। चेहरे पर दुविधा के भाव लिए जाने वो क्या सोचता रहा और फिर अपनी मोटर साईकिल को मेरे मकान की तरफ बढ़ा दिया। अचानक ही उसके चेहरे पर थोड़े दुख के साथ नाराज़गी के भाव भी उभर आए थे।

मकान में पहुंच कर जब रूपचंद्र ने मकान के दरवाज़े को बाहर से कुंडी के द्वारा बंद पाया तो उसके चेहरे पर हैरानी के भाव उभर आए। इधर उधर निगाह घुमाई तो उसे कोई नज़र ना आया। ये देख वो एकदम से चिंतित हो उठा। तभी उसे मकान के बगल से ठक ठक की आवाज़ आती सुनाई दी तो वो फ़ौरन ही मोटर साईकिल से उतरा और आवाज़ की तरफ तेज़ी से बढ़ता चला गया।

जल्दी ही वो उस जगह पहुंचा जहां से उसे आवाज़ आ रही थी। उसने देखा दो व्यक्ति मकान के बगल में लकड़ियों द्वारा कुछ बनाने में लगे हुए थे। लकड़ियों पर कुल्हाड़ी से ठोकने से ही आवाज़ आ रही थी। रूपचंद्र को समझ ना आया कि वो लोग ये क्या कर रहे हैं। वो झट से आगे बढ़ा और उनसे पूछने लगा कि ये सब क्या कर रहे हैं वो लोग और साथ ही उसकी बहन कहां है? जवाब में उन्होंने जो बताया उसे सुन कर जहां एक तरफ रूपचंद्र ने राहत की सांस ली तो वहीं दूसरी तरफ उसे थोड़ी हैरानी भी हुई।

वापस आ कर रूपचंद्र मकान के बाहर छोटे से बरामदे में रखे तखत पर बैठ गया। उसे अब ये सोच कर थोड़ी ग्लानि सी हो रही थी कि उसने थोड़ी देर पहले वैभव के बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। जबकि असल में तो ऐसी कोई बात ही नहीं थी। मौजूदा समय में वैभव जिस मानसिक हालत में था उसके चलते उसका इस तरह रूखा ब्यौहार करना स्वाभाविक ही था।

क़रीब पंद्रह मिनट बाद रूपचंद्र के कानों में जब किसी मोटर साईकिल की आवाज़ पड़ी तो उसका ध्यान भंग हुआ। उसने आवाज़ की दिशा में देखा तो वैभव को मोटर साईकिल से इस तरफ ही आता देखा। उसके पीछे अपनी बहन को बैठा देख उसका चेहरा बरबस ही खिल उठा। ये देख कर उसे खुशी हुई कि वैभव उसकी बहन के साथ कोई भी ग़लत बर्ताव नहीं कर रहा है।

✮✮✮✮

लकड़ी की चारदीवारी के अंदर आ कर जैसे ही मोटर साईकिल रुकी तो अचानक ही रूपा की नज़र तखत पर बैठे अपने भाई रूपचंद्र पर पड़ी। ये देख वो बुरी तरह बौखला गई और झट मोटर साईकिल से उतर कर शरमाते हुए मकान के अंदर की तरफ भाग गई। रूपचंद्र अपनी बहन को इस तरह शर्माते देख मन ही मन हंस पड़ा। यूं तो रूपा उससे डेढ़ साल ही छोटी थी और दोनों साथ ही खेल कूद कर बड़े हुए थे इसके बाद भी वो अपने बड़े भाई का पूरा सम्मान करती थी। ये सब सोच कर रूपचंद्र को अपनी बहन पर बड़ा गर्व हुआ। सहसा उसकी नज़र मुझ पर पड़ी तो वो तखत से उठ कर मेरी तरफ बढ़ा।

"मुझे माफ़ करना वैभव।" फिर उसने खेद भरे भाव से कहा____"मैं कुछ देर पहले तुम्हारे बारे में जाने क्या क्या सोच बैठा था।"

"कोई बात नहीं।" मैंने कहा____"मैं समझ सकता हूं कि तुम्हें अपनी बहन की फ़िक्र थी इसी लिए तुमने ऐसा सोचा। ख़ैर अपनी बहन से मिल लो और उसका हाल चाल जान लो। मुझे एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है। शाम होने से पहले ही वापस आ जाऊंगा।"

कहने के साथ ही मैंने मोटर साईकिल को घुमाया और उसकी किसी बात का इंतज़ार किए बिना ही मोटर साईकिल को स्टार्ट कर आगे बढ़ गया। रूपचंद्र कुछ देर तक मुझे देखता रहा।

रूपचंद्र जब वापस आ कर तखत पर बैठ गया तो रूपा अंदर से बाहर आ गई। उसके चेहरे पर अभी भी लाज की हल्की सुर्खी छाई हुई थी।

"घर में सब लोग कैसे हैं भैया?" फिर उसने हिम्मत कर के रूपचंद्र की तरफ देखते हुए पूछा।

"वैसे तो सब लोग ठीक ही हैं रूपा।" रूपचंद्र ने कहा____"लेकिन सब तेरे लिए फिक्रमंद भी हैं। ख़ैर उनकी छोड़ और अपनी बता। तू यहां कैसी है? तुझे कोई परेशानी तो नहीं है ना यहां और....और तू अनुराधा के घर में क्यों थी?"

रूपा ने संक्षेप में सब कुछ बता दिया जिसे सुन कर रूपचंद्र आश्चर्यचकित रह गया। उसे अपनी बहन से ख़्वाब में भी इस सबकी उम्मीद नहीं थी किंतु फिर सहसा उसे एक अलग ही एहसास हुआ। एक ऐसा एहसास जिसने उसे खुशी से भर दिया और साथ ही उसे अपनी बहन पर बड़ा गर्व हुआ। एक बार फिर उसकी बहन ने साबित कर दिया था कि वो कितने विसाल हृदय वाली लड़की थी। ये सब सोच कर रूपचंद्र की आंखें भर आईं।

"मुझे गर्व है कि तू मेरी बहन है।" फिर उसने रूपा से कहा____"और मैं ऊपर वाले को धन्यवाद देता हूं कि उसने तेरे जैसी नेकदिल लड़की को मेरी बहन बना कर हमारे घर में जन्म दिया। मैं ईश्वर से दुआ करता हूं कि वो जीवन में तुझे हर ख़ुशी दे और हर दुख तकलीफ़ से दूर रखे।"

"जिसके पास इतना प्यार और स्नेह करने वाले भैया हों।" रूपा ने नम आंखों से रूपचंद्र को देखते हुए कहा____"उसे भला कैसे कभी कोई दुख तकलीफ़ हो सकती है?"

"ईश्वर से बस यही प्रार्थना करता हूं कि तुझे कभी किसी की नज़र ना लगे।" रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से कहा____"अच्छा ये बता यहां ज़रूरत का सब समान तो है ना? देख, अगर किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो मुझे बेझिझक बता दे।"

"बाकी तो सब है भैया।" रूपा ने कहा____"किंतु चाय बनाने के लिए यहां दूध नहीं है। कल मां ने जो दिया था उसमें से मैंने थोड़ा बचा लिया था जिससे सुबह उनके (वैभव) लिए चाय बना दी थी।"

"ओह! हां।" रूपचंद्र ने सिर हिलाया____"मुझे भी इसका ध्यान नहीं रहा था। ख़ैर तू फ़िक्र मत कर। मैं सुबह शाम के लिए हर रोज़ घर से दूध ले आया करूंगा और आज शाम के लिए मैं शाम होने से पहले ही ले आऊंगा।"

दोनों भाई बहन इधर उधर की बातें करते रहे। इस बीच रूपचंद्र को रूपा के द्वारा और भी दो तीन चीज़ों की कमी का पता चल गया था जिसे उसने ला देने को कह दिया था। क़रीब डेढ़ घंटे बाद रूपचंद्र को वैभव आता नज़र आया तो उसने अपनी बहन से जाने की बात कही। जाते समय ये भी कहा कि वो थोड़ी ही देर में दूध और बाकी का समान यहां ले कर आ जाएगा।

मैं जैसे ही मकान में पहुंचा तो रूपचंद्र को बाहर निकलते देखा। वो मुझे देख हल्के से मुस्कुराया और फिर चला गया।

"छोटे कुंवर।" मैं जैसे ही चारदीवारी के अंदर दाख़िल हुआ तो मकान के बगल में काम कर रहे दोनों मजदूरों में से एक ने आ कर कहा____"हमने गुसलखाना तैयार कर दिया है। आप चल कर एक बार देख लीजिए कैसा बना है?"

"ठीक है।" कहने के साथ ही मैं चल पड़ा।

कुछ ही पलों में मैं मकान के बगल में बनाए गए गुसलखाने के पास पहुंच गया। मैंने देखा दोनों ने मिल कर लकड़ी का एक बढ़िया सा गुसलखाना बना दिया था। ज़मीन पर पत्थर के चौड़े चौड़े दासा बिछाए गए थे जिससे गुसलखाने का फर्श ज़मीन से थोड़ा ऊंचा हो गया था। उसके बाद दो तरफ से लकड़ी की क़रीब छः या सात फीट ऊंची दीवार बनाई गई थी। लकड़ी की दीवारों के बाहरी तरफ तांत की पन्नी इस तरह से चिपका कर बांध दी गई थी कि बाहर से अंदर का एक ज़र्रा भी किसी को नज़र ना आए। गुसलखाने का दरवाज़ा भी लकड़ी का था जिसके बाहरी तरफ तांत की पन्नी लगा दी गई थी। कुल मिला कर दोनों ने बहुत सोच समझ कर गुसलखाने को बनाया था।

"हम्म्म्म अच्छा बनाया है।" मैंने गुसलखाने का मुआयना करने के बाद कहा____"अब एक काम करो, मकान के अंदर जो छोटा सा ड्रम रखा है उसे ले जा कर पानी से अच्छी तरह साफ कर दो। उसके बाद उस ड्रम को ला कर यहां रख देना।"

"जी ठीक है छोटे कुंवर।" दोनों ने सिर हिलाया और फिर उनमें से एक ड्रम लाने के लिए चला गया।

मैं भी पलट घर उस तरफ चल पड़ा जिधर अनुराधा के होने का मुझे भ्रम था। मुझे जाते देख रूपा भी मेरे पीछे पीछे आने लगी।

सूर्य पश्चिम दिशा की तरफ बढ़ता जा रहा था। आसमान में उसका प्रकाश सिंदूरी सा हो गया था। जल्दी ही मैं उस जगह पर पहुंच गया और फिर कुछ पलों तक उस ज़मीन को देखने के बाद वहीं पर बैठ गया। मेरी आंखें अपने आप ही बंद हो गईं और बंद पलकों में अनुराधा का मासूम चेहरा चमक उठा जिसे देख मेरे अंदर एक टीस सी उभरी।

"क्या तुमने अनूप को विद्यालय में दाखिला दिलाने के लिए बात की है किसी से?" सहसा रूपा की आवाज़ मेरे बगल से आई तो मैं हल्के से चौंका और फिर आंखें खोल कर उसकी तरफ देखा। वो सामने की तरफ देख रही थी। चेहरे पर गंभीरता के भाव थे।

"हां उसी के लिए पास के गांव गया था।" मैंने वापस सामने की तरफ देखते हुए कहा____"वहां पर मैं प्रधान शिक्षक से मिला और उससे इस बारे में बात की। उसने बताया कि दाखिला तो हो जाएगा लेकिन बच्चे का दाखिला अगर उस समय करवाया जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा जब छुट्टियों के बाद विद्यालय नए सिरे से खुलते हैं।"

"हां ये भी सही कहा उन्होंने।" रूपा ने सिर हिला कर कहा____"अनूप के लिए यही बेहतर रहेगा। तुम्हारी क्या राय है इस बारे में?"

"मुझे भी यही ठीक लगता है।" मैंने कहा____"बाकी तुम्हें जो ठीक लगे करो।"

"काश! हमारे गांव में भी एक विद्यालय होता।" रूपा ने एक गहरी सांस ली____"जिससे हमारे गांव के बच्चे उसमें पढ़ते तो उनका एक अलग ही व्यक्तित्व बनता। वैसे हैरानी की बात है कि बाकी गावों से ज़्यादा हमारा गांव बेहतर रहा है और तो और आस पास के सभी गांवों के मामलों का फ़ैसला भी तुम्हारे पूर्वज और फिर तुम्हारे पिता जी ही करते आए हैं किंतु किसी ने भी इस बारे में नहीं सोचा कि हमारे गांव में एक विद्यालय होना चाहिए।"

"इस बारे में मेरी बात हो चुकी थी पिता जी से।" मैंने कहा____"और सिर्फ इस बारे में ही नहीं बल्कि इस बारे में भी कि हमारे गांव में एक अस्पताल भी होना चाहिए ताकि आम इंसानों को इलाज़ के लिए शहर जाने का कष्ट न उठाना पड़े।"

"हां ये भी सही कहा तुमने।" रूपा ने कहा____"इस गांव में ही क्या बल्कि किसी भी गांव में अस्पताल नहीं है। लोग वैद्यों से ही उनकी जड़ी बूटियों द्वारा अपना उपचार करवाते हैं और अगर बड़ी बीमारी हुई तो शहर भागते हैं। ग़रीब आदमी को सबसे ज़्यादा परेशानी होती है। कई तो इतने बदनसीब होते हैं कि पैसों की तंगी के चलते इलाज़ भी नहीं करवा पाते और फिर उन्हें अपने अथवा अपने किसी चाहने वाले के जीवन से हाथ धो लेना पड़ता है।"

"अनुराधा के गुज़रने से पहले मैंने अपने इस गांव के विकास के लिए बहुत कुछ सोचा था।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"पिता जी से मेरी कई मुद्दों पर चर्चा हुई थी और फिर ये निर्णय लिया गया था कि जल्द से जल्द इस बारे में प्रदेश के मंत्री विधायकों से बात करेंगे मगर....कुछ अच्छा करने से पहले ही चंद्रकांत ने मेरे जीवन में विष घोल दिया। उसकी दुश्मनी मुझसे थी तो उसको मेरी हत्या करनी चाहिए थी। फिर क्यों उसने एक निर्दोष की इतनी निर्दयता से जान ले ली?"

"वो पागल हो गया था वैभव।" रूपा ने जैसे मुझे समझाते हुए कहा____"इसी लिए उसे अच्छे बुरे का ख़याल ही नहीं रह गया था लेकिन उसे भी तो अपनी करनी की सज़ा मिली। सबसे अच्छी बात यही हुई कि तुमने अपने हाथों से उस नीच को सज़ा दी।"

"लेकिन ऐसा कर के मुझे मेरी अनुराधा तो वापस नहीं मिली न।" मैंने एकाएक दुखी हो कर कहा____"मैंने तो उसे हमेशा हमेशा के लिए खो दिया रूपा। तुम्हें पता है, मैंने तो अभी जी भर के उसे देखा भी नहीं था और ना ही जी भर के उससे दिल की बातें की थी। मैं ये भी जानता हूं कि उसे भी मुझसे अपने दिल की ढेर सारी बातें करनी थी। देखो ना, ऊपर वाला कितना पत्थर दिल बन गया कि हम दोनों को एक दूसरे से अपने दिल की बातें कहने का अवसर ही नहीं दिया उसने। उधर वो अपनी तड़प और तृष्णा लिए चली गई और इधर मैं भी यहां उसी तड़प और तृष्णा में डूबा हुआ मर रहा हूं।"

"ख़ुद को सम्हालों वैभव।" रूपा ने मेरे कंधे को हल्के से दबाया____"तुम भी जानते हो कि इस संसार में किसी को भी सब कुछ नहीं मिला करता। इस धरती पर जन्म लेने वाले हर व्यक्ति की कोई न कोई ख़्वाईश अधूरी रह ही जाती है। इंसान अपने जीवन में चाह कर भी सब कुछ हासिल नहीं कर पाता और फिर एक दिन उसी अधूरी चाहत को लिए इस दुनिया से रुख़सत हो जाता है। अपनी भाभी को ही देख लो, इतनी कम उमर में उन्हें विधवा हो जाना पड़ा। क्या तुम बता सकते हो कि उनके जैसी औरत ने किसी के साथ ऐसा क्या बुरा किया था जिसके चलते उन्हें इतनी कम उमर में ऐसा असहनीय दुख मिला? उन्हीं की तरह मेरी भाभियों के बारे में भी सोचो। मेरे पिता अथवा चाचाओं की बात छोड़ो क्योंकि मुझे भी पता है कि उनके कर्म अच्छे नहीं थे और इसी लिए उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा लेकिन जो निर्दोष थे उनका क्या? उन्हें क्यों ऐसा दुख सहना पड़ा? वैभव, यही जीवन की सच्चाई है और यही नियति का खेल है। इस लिए यही कहूंगी कि खुद को सम्हालो और आगे बढ़ते हुए उनके बारे में सोचो जिनकी खुशियां सिर्फ और सिर्फ तुमसे हैं।"

"कहना आसान होता है।" मैंने कहा____"लेकिन अमल करना बहुत मुश्किल होता है।"

"हां जानती हूं।" रूपा ने मेरी आंखों में देखते हुए कहा____"लेकिन इसके बावजूद लोगों को अमल करना ही पड़ता है। जानती हूं आसान नहीं होता लेकिन किसी न किसी तरह आगे बढ़ कर अमल करना ही पड़ता है। जैसे तुम्हारी भाभी ने अमल किया, जैसे मेरी भाभियों ने अमल किया, जैसे तुम्हारे माता पिता ने अपने बड़े बेटे के दुख से निकलने के लिए अमल किया और जैसे तुम्हारी चाची ने अमल किया। ज़रा सोचो, क्या उन सबके लिए अमल करना आसान रहा होगा? फिर भी उन्होंने अमल किया, अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के लिए।"

"कैसे कर लेती हो इतनी गहरी गहरी बातें?" मैंने सहसा चकित सा हो कर उसे देखा।

"वक्त और हालात इंसान को बहुत कुछ सिखा देते हैं मेरे साजन।" रूपा ने फीकी मुस्कान होठों पर सजा कर कहा____"कुछ तुम्हारे विरह ने और कुछ मेरे अपनों की बेरुखी ने मुझे बहुत सी ऐसी बातों से रूबरू कराया जिन्हें सोच कर अब भी समूचे जिस्म में सर्द लहर दौड़ जाती है। ख़ैर छोड़ो इन बातों को। चलो मैं तुम्हारे लिए बढ़िया सी चाय बनाती हूं। या अभी और यहां बैठने का इरादा है तुम्हारा?"

रूपा जब गहरी नज़रों से मुझे देखने लगी तो मैं उसके साथ जाने से इंकार ना कर सका। उठ कर एक नज़र अपनी अनुराधा के विदाई स्थल पर डाली और फिर पलट कर मकान की तरफ बढ़ चला। रास्ते में रूपा की बातें मेरे मन में गूंज रहीं थी जो रफ़्ता रफ़्ता गहन विचारों का रूप लेती जा रहीं थी।

✮✮✮✮

हम दोनों को मकान में आए अभी कुछ ही समय हुआ था कि तभी रूपचंद्र अपनी मोटर साईकिल से आ गया। उसे देख मेरे चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे। मैं सोचने लगा कि अभी कुछ समय पहले ही तो वो यहां से गया था तो फिर अब किस लिए आया है? मैंने रूपा की तरफ देखा तो उसने जाने क्या सोच कर अपनी नज़रें झुका ली।

रूपचंद्र अपनी मोटर साईकिल से उतर कर हमारे पास आया। उसके हाथ में स्टील का एक डल्लू था। मुझे समझ न आया कि आख़िर माजरा क्या है?

"ये लो रूपा।" उधर रूपचंद्र ने रूपा की तरफ उस डल्लू को बढ़ाते हुए कहा____"इसमें तुम दोनों के लिए ताज़ा दूध लाया हूं।"

रूपचंद्र की ये बात सुन कर मेरी समझ में आ गया कि वो क्यों यहां दुबारा आया था। उधर जैसे ही रूपा ने उसके हाथ से दूध का डल्लू पकड़ा तो रूपचंद्र ने पलट कर मुझसे कहा____"अच्छा अब चलता हूं वैभव। तुम दोनों अपना ख़याल रखना।"

उसकी इस बात पर मैंने कोई जवाब नहीं दिया और शायद वो मेरा कोई जवाब सुनने का इच्छुक भी नहीं था। तभी तो अपनी बात कह कर वो सीधा बाहर खड़ी अपनी मोटर साईकिल की तरफ बढ़ गया था। कुछ ही पलों में वो चला गया।

"तो तुमने अपने भाई से दूध मंगवाया था?" मैंने पलट कर रूपा से कहा।

"हां लेकिन अपने लिए नहीं बल्कि तुम्हारे लिए।" रूपा ने थोड़ा झेंपते हुए कहा____"मैं नहीं चाहती थी कि तुम काली चाय पियो। इस लिए जब भैया ने मुझसे पूछा कि यहां मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है तो मैंने उनसे चाय के लिए दूध न होने की बात कह दी थी।"

"हम्म्म्म।" मैंने धीमें से हुंकार भरी____"ख़ैर मज़दूरों ने आज तुम्हारे नहाने के लिए गुसलखाना बना दिया है। अब तुम्हें खुले में नहीं नहाना पड़ेगा।"

"अच्छा, देखूं तो सही कैसा गुसलखाना बनाया है उन लोगों ने?" रूपा थोड़ा उत्साहित सी हो कर बोली और फिर दूध के डल्लू को मेरे पास तखत में रख कर गुसलखाने की तरफ बढ़ गई।

"काफी बेहतर बनाया है।" कुछ देर में जब वो आई तो मुस्कुराते हुए बोली___"और बहुत सोच समझ कर बनाया है। लकड़ी की दीवार के बाहरी तरफ तांत की पन्नी लगा दी है जिससे ना तो अंदर से बाहर देखा जा सके और ना ही बाहर से अंदर। वैसे उन्हें इस तरह से बनाने के लिए क्या तुमने कहा था?"

"नहीं, उन लोगों ने खुद ही अपने से सोच कर ऐसा बनाया है।" मैंने कहा____"मैंने उनसे इस बारे में कुछ नहीं कहा था।"

"अच्छा, फिर तो बड़ी समझदारी दिखाई उन लोगों ने।" रूपा ने कहा____"ख़ैर, तुम बैठो। मैं तुम्हारे लिए चाय बनाती हूं।"

"पानी है या ले आऊं?" मैंने पूछा।

"थोड़ा है अभी।" उसने बताया____"वैसे लाना ही पड़ेगा क्योंकि रात का खाना भी बनाना होगा इस लिए पानी की ज़रूरत तो पड़ेगी ही।"

"ठीक है।" मैंने तखत से उतरते हुए कहा____"लाओ मटका, मैं कुएं से ले आता हूं पानी।"

रूपा अंदर गई और मटका ला कर मुझे पकड़ा दिया। मैं मटका ले कर कुएं की तरफ बढ़ चला। थोड़ी ही देर में मैं पानी ले आया और अंदर रसोई के पास रख दिया। मेरी नज़र चूल्हा जलाती रूपा पर पड़ी। वो मंद मंद मुस्कुरा रही थी। पता नहीं क्या सोच के मुस्कुरा रही थी वो? मुझे अजीब लगा मगर मैं चुपचाप बाहर आ कर फिर से तखत पर बैठ गया और उसके बारे में सोचने लगा।

नियति का खेल बड़ा ही अजब ग़ज़ब होता है जिसके बारे में हम इंसान कल्पना भी नहीं कर पाते। एक वक्त था जब साहूकारों से हमारे रिश्ते नदी के दो किनारों की तरह थे। बिल्कुल भी यकीन नहीं था कि एक दिन वो किनारे आपस में मिल जाएंगे। किंतु हर उम्मीद के विपरीत वो मिले। ये अलग बात है कि इसके पहले दोनों किनारों का मिलना एक गहरी साज़िश का हिस्सा था जिसका कहीं न कहीं हम सबको अंदेशा भी था। नहीं जानते थे कि उस साज़िश के चलते जो परिणाम सामने आएगा वो इतना दर्दनाक होगा। ख़ैर इस सबके बाद वो दोनों किनारे फिर से अलग हो गए लेकिन नियति अब भी हमारे लिए कोई योजना बनाए हुए थी जिसका परिणाम आज इस सूरत में मेरे सामने था। दोनों किनारे एक बार फिर से मिले लेकिन इस कायाकल्प के बीच मैंने हमेशा के लिए उसे खो दिया जिसे मैं बेपनाह प्रेम करता था। नियति ने एक ऐसी लड़की का जीवन छीन लिया जो बेहद मासूम थी और गंगा की तरह निर्दोष एवं पाक थी।

मेरे मन में विचारों का बवंडर शुरू हुआ तो एकाएक फिर उस ख़याल पर जा ठहरा जिस ख़याल से मुझे बेहद पीड़ा होती थी और मेरी आंखें छलक पड़तीं थी। वो ख़याल था____'मेरी अनुराधा का असल हत्यारा कोई और नहीं बल्कि मैं ख़ुद ही हूं। वो मेरे कुकर्मों की वजह से ही आज इस दुनिया में नहीं है।' बस, इस ख़याल के उभरते ही दिलो दिमाग़ में भयंकर रूप से ज्वारभाटा सा उठ जाता और मैं अत्यधिक पीड़ा में डूब जाता था।

"ये लो।" मैं अभी ये सब सोच ही रहा था कि तभी रूपा की आवाज़ से चौंक कर वास्तविकता के धरातल पर आ गया।

मैंने देखा, रूपा मेरे पास खड़ी थी। उसके हाथ में चाय का प्याला था जिसे उसने मेरी तरफ बढ़ा रखा था। मैंने उसके चेहरे से नज़र हटा कर उसके हाथ से चाय का प्याला ले लिया।

"एक बात पूछूं?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए धीमें स्वर में कहा।

"हां पूछो।" उसने भी उसी अंदाज़ में मेरी तरफ देखा।

"क्या तुम्हें अपने घर वालों की याद नहीं आती?" मैंने पूछा____"मेरा मतलब है कि कल सुबह से तुम अपने घर परिवार से दूर यहां पर हो, तो क्या उनकी याद नहीं आती तुम्हें? क्या उन्हें देखने का मन नहीं करता तुम्हारा?"

"रूप भैया को देख लेती हूं तो फिर किसी से मिलने का मन नहीं करता।" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"वैसे भी मेरे लिए मेरे परिवार वालों से ज़्यादा तुम मायने रखते हो। मेरी ज़िंदगी का हर सुख दुख तुमसे जुड़ा हुआ है। अगर मेरा महबूब किसी तकलीफ़ से ग्रसित होगा तो उसे देख कर मेरा हाल भी उसके जैसा ही हो जाएगा। इस वक्त यहां मैं अपनी जान के पास हूं। मेरे लिए यही सबसे बड़ी बात है। इसके अलावा मुझे किसी भी चीज़ से मतलब नहीं है।"

"मुझे समझ नहीं आता कि मेरे जैसे इंसान से तुम इतना प्रेम कैसे कर सकती हो?" मैंने सहसा आहत हो कर कहा____"बाकी लड़कियों की तरह मैंने तुम्हारी इज्ज़त को भी तो दाग़दार किया था। मैंने कभी तुम्हारी भावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया बल्कि हर बार तुम्हारे द्वारा दी गई प्रेम की दलीलों पर तुम्हारा मनोबल ही तोड़ा था। इस सब के बाद भी तुम्हें मुझसे घृणा नहीं हुई, आख़िर क्यों?"

"सच्चे प्रेम में घृणा का कहीं कोई वजूद नहीं होता साजन।" रूपा ने बड़े प्रेम से कहा____"प्रेम में तो सिर्फ प्रेम ही होता है। प्रेम में अपने प्रियतम की जुदाई का दर्द भले ही असहनीय की सूरत में मिल जाता है लेकिन इसके बावजूद प्रेम अपने प्रेम से लेश मात्र भी घृणा नहीं करता। शायद इसी लिए प्रेम की भावना सबसे पवित्र होती है जिसे ऊपर वाला भी सर्वोपरि मानता है।"

"काश! मुझे प्रेम का ये पाठ वक्त से पहले समझ आ गया होता ।" मैंने गहरी सांस ली____"तो आज मेरी वजह से ना तो किसी को चोट पहुंचती और ना ही किसी की जान जाती।"

"गुज़र गई बातों को बार बार याद करने से सिवाय दुख और तकलीफ़ के कुछ नहीं मिलता जान।" रूपा ने कहा____"इस लिए उस सब को मत याद करो। अपनों की ख़ुशी और भलाई के लिए आगे बढ़ो।"

"मैं चाह कर भी ऐसी बातें भुला नहीं पा रहा।" मैं एकदम से दुखी हो गया____"बार बार मुझे अपने द्वारा किए गए कुकर्म याद आ जाते हैं। ये सब जो हुआ है मेरे ही कुकर्मों की वजह से ही हुआ है। ऊपर वाले ने सभी निर्दोष लोगों की जान ले ली लेकिन मुझ गुनहगार को ज़िंदा रखा है। शायद वो भी अपनी दुनिया में मेरे जैसे इंसान को रखना पसंद नहीं करता है।"

"ईश्वर के लिए ऐसी बातें मत करो वैभव।" रूपा ने तड़प कर कहा____"क्यों खुद को निराशा और हताशा के दलदल में इस तरह डुबाने पर तुले हुए हो? तुमने मुझसे वादा किया था कि तुम खुद को शांत रखोगे और अपनी अनुराधा की आत्मा की शांति के लिए अच्छे काम करोगे। क्या तुम अपना किया वादा इतना जल्दी भूल गए? क्या तुम सच में नहीं चाहते कि अनुराधा की आत्मा को शांति मिले?"

"म...मैं चाहता हूं रूपा।" हताशा के भंवर में फंसा मैं दुखी भाव से बोल पड़ा____"मैं अपनी अनुराधा को कोई तकलीफ़ नहीं देना चाहता लेकिन.....लेकिन मैं क्या करूं? बार बार मेरे दिलो दिमाग़ में वही सब उभर आता है जो मैंने किया है और जो मेरी वजह से हुआ है।"

रूपा ने चाय के प्याले को झट से एक तरफ रखा और फिर झपट कर मुझे खुद से छुपका लिया। मुझे इस तरह दुखी होते देख उसकी आंखें भर आईं थी। उसका हृदय तड़प उठा था। ये सोच कर उसकी आंखें छलक पड़ीं कि जिसे वो इतना प्रेम करती है उसकी तकलीफ़ों को वो इतनी कोशिश के बाद भी दूर नहीं कर पा रही है। मन ही मन उसने अपनी देवी मां को याद किया और उनसे मेरी तकलीफ़ों को दूर करने की मिन्नतें करने लगी।​
 
अध्याय - 127
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रूपा ने चाय के प्याले को झट से एक तरफ रखा और फिर झपट कर मुझे खुद से छुपका लिया। मुझे इस तरह दुखी होते देख उसकी आंखें भर आईं थी। उसका हृदय तड़प उठा था। ये सोच कर उसकी आंखें छलक पड़ीं कि जिसे वो इतना प्रेम करती है उसकी तकलीफ़ों को वो इतनी कोशिश के बाद भी दूर नहीं कर पा रही है। मन ही मन उसने अपनी देवी मां को याद किया और उनसे मेरी तकलीफ़ों को दूर करने की मिन्नतें करने लगी।



अब आगे....





शाम का अंधेरा घिर चुका था।
गौरी शंकर अपने घर की बैठक में बैठा चाय पी रहा था। बैठक में उसके अलावा रूपचंद्र और घर की बुजुर्ग औरतें यानि फूलवती, ललिता देवी, सुनैना देवी और विमला देवी थीं। घर की दोनों बहुएं और सभी लड़कियां अंदर थीं। एक घंटे पहले गौरी शंकर अपने घर आया था। उसने सबको बताया था कि दादा ठाकुर उसे अपने कुल गुरु के पास ले गए थे। उसके बाद वहां पर जो भी बातें हुईं थी वो सब गौरी शंकर सभी को बता चुका था जिसे सुनने के बाद चारो औरतें चकित रह गईं थी। रूपचंद्र का भी यही हाल था।

"बड़े आश्चर्य की बात है कि दादा ठाकुर अपने कुल गुरु द्वारा की गई भविष्यवाणी पर इतना विश्वास करते हैं।" फूलवती ने कहा____"और इतना ही नहीं उस भविष्यवाणी के अनुसार वो ऐसा करने को भी तैयार हैं।"

"कुल गुरु द्वारा की गई भविष्यवाणियां अब तक सच हुईं हैं भौजी।" गौरी शंकर ने कहा____"यही वजह है कि दादा ठाकुर कुल गुरु की बातों पर इतना भरोसा करते हैं। वैसे भी उनके गुरु जी कोई मामूली व्यक्ति नहीं हैं बल्कि सिद्ध पुरुष हैं। इस लिए उनकी बातों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।"

"तो क्या अब हमें भी इस भविष्यवाणी के अनुसार ही चलना होगा?" फूलवती ने कहा____"क्या तुम इस सबके लिए सहमत हो गए हो?"

"सहमत होने के अलावा मेरे पास कोई चारा ही नहीं था भौजी।" गौरी शंकर ने कहा____"आप भी जानती हैं कि इस समय हमारी जो स्थिति है उसके चलते हम दादा ठाकुर के किसी भी फ़ैसले पर ना तो सवाल उठा सकते हैं और ना ही कोई विरोध कर सकते हैं।"

"तो क्या मैं ये समझूं कि दादा ठाकुर हमारी मज़बूरी का फ़ायदा उठा रहे हैं?" फूलवती ने सहसा नाराज़गी अख़्तियार करते हुए कहा____"और चाहते हैं कि हम चुपचाप वही करें जो वो करने को कहें?"

"ऐसी बात नहीं है भौजी।" गौरी शंकर ने दृढ़ता से कहा____"दादा ठाकुर ऐसे इंसान नहीं हैं जो किसी की मज़बूरी का फ़ायदा उठाने का ख़याल भी अपने ज़हन में लाएं।"

"तो फिर कैसी बात है गौरी?" फूलवती उसी नाराज़गी से बोलीं____"उन्हें अपने कुल गुरु के द्वारा पहले ही पता चल गया था इस सबके बारे में तो उन्होंने इस बारे में तुम्हें क्यों नहीं बताया?"

"वो सब कुछ बताना चाहते थे भौजी।" गौरी शंकर ने जैसे समझाते हुए कहा____"किंतु उन्होंने ये सोच कर नहीं बताया था कि मैं और आप सब उनके बारे में वही सब सोच बैठेंगे जो इस वक्त आप सोच रही हैं। इस लिए उन्होंने बहुत सोच समझ कर इसका एक हल निकाला और वो हल यही था कि वो मुझे अपने कुल गुरु के पास ले जाएं और उनके द्वारा ही इस सबके बारे में मुझे अवगत कराएं।"

"वाह! बहुत खूब।" फूलवती ने कहा___"हमें बुद्धू बनाने का क्या शानदार तरीका अपनाया है दादा ठाकुर ने।"

"ऐसी बात नहीं है भौजी।" गौरी शंकर ने कहा____"हम ही नहीं बल्कि दूर दूर तक के लोग जानते हैं कि दादा ठाकुर ऐसे इंसान नहीं हैं। कभी कभी वक्त और हालात ऐसे बन जाते हैं कि हम सही को ग़लत और अच्छे को बुरा समझ लेते हैं। आप हम सबसे बड़ी हैं और इतने सालों से आपने भी दादा ठाकुर के बारे में बहुत कुछ सुना ही होगा। सच सच बताइए, क्या आपने कभी ऐसा सुना है कि दादा ठाकुर ने किसी के साथ कुछ ग़लत किया है अथवा कभी किसी की मज़बूरी का फ़ायदा उठाया है?"

गौरी शंकर के इस सवाल पर फूलवती ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी ख़ामोशी बता रही थी कि दादा ठाकुर के बारे में उसने कभी भी ऐसा कुछ नहीं सुना था।

"उन्हें तो पता भी नहीं था कि वैभव किसी लड़की से प्रेम करता है।" गौरी शंकर ने आगे कहा____"उनके मन में सिर्फ इतना ही था कि हमारी बेटी ही उनकी बहू बनेगी लेकिन जब वो अपने कुल गुरु से मिले और गुरु जी ने उन्हें ये बताया कि वैभव के जीवन में उसकी दो पत्नियां होंगी तो वो बड़ा हैरान हुए। उस वक्त उन्हें समझ ही नहीं आया था कि ऐसा कैसे हो सकता है? हमारी बेटी रूपा को तो उन्होंने बहू मान लिया था किंतु वैभव की दूसरी पत्नी कौन बनेगी ये सवाल जैसे उनके लिए रहस्य सा बन गया था। उधर दूसरी तरफ वो अपनी बहू रागिनी के लिए भी बहुत चिंतित थे। इतनी कम उमर में उनकी बहू विधवा हो गई थी जिसका उन्हें बेहद दुख था। वो चाहते थे कि उनकी बहू दुखी न रहे इस लिए वो उसे खुश रखने के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे। लेकिन उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा वो क्या करें जिससे उनकी बहू का दुख दूर हो जाए। रागिनी का ब्याह वैभव से करने का ख़याल उनके मन में दूर दूर तक नहीं था। कुछ दिनों बाद जब मेरे द्वारा उन्हें ये पता चला कि वैभव किसी और लड़की से प्रेम करता है तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ। उन्हें इस बात पर यकीन नहीं हुआ कि उनका बेटा किसी लड़की से प्रेम भी कर सकता है। उनकी नज़र में तो वैभव एक ऐसे चरित्र का लड़का था जो हद से ज़्यादा बिगड़ा हुआ था और सिर्फ अय्यासिया ही करता था। बहरहाल, देर से ही सही लेकिन उन्हें इस बात का यकीन हो ही गया कि सच में उनका बेटा मुरारी नाम के एक किसान की बेटी से प्रेम करता है। उसी समय उन्हें अपने कुल गुरु की भविष्यवाणी वाली बात याद आई और उन्हें समझ आ गया कि उनके बेटे की दूसरी पत्नी शायद वो लड़की ही बनेगी। अब क्योंकि गुरु जी ने स्पष्ट कहा था कि अगर इस मामले में उन्होंने कोई कठोर क़दम उठाया तो अंजाम अच्छा नहीं होगा इस लिए उन्हें इस बात के लिए राज़ी होना ही पड़ा कि उनके बेटे की दूसरी पत्नी वो लड़की ही होगी। वो भी नहीं चाहते थे कि इतना कुछ हो जाने के बाद उनके परिवार में फिर से कोई मुसीबत आ जाए।"

"और रागिनी का ब्याह वैभव के साथ कर देने की बात उनके मन में कैसे आई?" फूलवती ने पूछा____"क्या गुरु जी ने इस बारे में भी भविष्यवाणी की थी?"

"उन्होंने इसकी भविष्यवाणी नहीं की थी।" गौरी शंकर ने कहा____"किंतु दादा ठाकुर को सुझाव ज़रूर दिया था कि वो अपने छोटे बेटे वैभव के साथ उसका ब्याह कर दें। उनके ऐसा कहने की वजह ये थी कि दादा ठाकुर अपनी बहू को बहुत मानते हैं। उसे अपनी बेटी ही समझते हैं और यही चाहते हैं कि उनकी बहू हमेशा खुश रहे और बहू के रूप में हवेली में ही रहे। अपनी बहू के दुख को दूर कर के उसके जीवन में खुशियों के रंग तो तभी भर सकेंगे वो जब उनकी बहू फिर से किसी की सुहागन बन जाए और ऐसा तभी संभव हो सकता है जब वो वैभव के साथ उसका ब्याह कर दें।"

"बात तो सही है तुम्हारी।" फूलवती ने सोचने वाले अंदाज़ से कहा____"लेकिन क्या उनकी बहू अपने देवर से ब्याह करने को तैयार होगी? जितना मैंने उसके बारे में सुना है उससे तो यही लगता है कि वो इसके लिए कभी तैयार नहीं होगी।"

"भविष्य में क्या होगा इस बारे में कोई नहीं जानता भौजी।" गौरी शंकर ने कहा____"वैसे भी इस संसार में अक्सर कुछ ऐसा भी हो जाता है जिसकी हम कल्पना भी नहीं किए होते। ख़ैर ये तो बाद की बात है। उससे पहले इस बात पर भी ग़ौर कीजिए कि जिस लड़की को दादा ठाकुर अपने बेटे की होने वाली दूसरी पत्नी समझ बैठे थे दुर्भाग्यवश उसकी हत्या हो गई। जबकि कुल गुरु की भविष्यवाणी के अनुसार वैभव की दो पत्नियां ही होंगी। अनुराधा तो अब रही नहीं तो साफ ज़ाहिर है कि वैभव की होने वाली दूसरी पत्नी कोई और नहीं बल्कि दादा ठाकुर की विधवा बहू रागिनी ही है। अनुराधा की हत्या हो जाने के बाद यही बात दादा ठाकुर के मन में भी उभरी थी।"

"बड़ी अजीब बात है।" फूलवती ने कहा____"मुझे तो अब भी इन बातों पर यकीन नहीं हो रहा। ख़ैर, ऊपर वाला पता नहीं क्या चाहता है? अच्छा ये बताओ कि क्या वैभव को भी ये सब पता है?"

"नहीं।" गौरी शंकर ने कहा____"उसे अभी इस बारे में कुछ पता नहीं है। दादा ठाकुर ने मुझसे कहा है कि हम में से कोई भी फिलहाल इस बारे में वैभव को कुछ नहीं बताएगा और ना ही रूपा को।"

"ये आप क्या कह रहे हैं काका?" काफी देर से चुप बैठा रूपचंद्र बोल पड़ा____"इतनी बड़ी बात मेरी मासूम बहन को क्यों नहीं बताई जाएगी? दादा ठाकुर का तो समझ में आता है लेकिन आप अपनी बेटी के साथ ऐसा छल कैसे कर सकते हैं?"

"ऐसा नहीं है बेटा।" गौरी शंकर ने कहा____"मैं उसके साथ कोई छल नहीं कर रहा हूं। उचित समय आने पर उसे भी इस बारे में बता दिया जाएगा। अभी उसे वैभव के साथ खुशी खुशी जीने दो। अगर हमने अभी ये बात उसको बता दी तो शायद वो दुखी हो जाएगी। अनुराधा को तो उसने किसी तरह क़बूल कर लिया था लेकिन शायद रागिनी को इतना जल्दी क़बूल न कर पाए। इंसान जिस पर सिर्फ अपना अधिकार समझ लेता है उस पर अगर बंटवारा जैसी बात आ जाए तो बर्दास्त करना मुश्किल हो जाता है। मैं नहीं चाहता कि वो अभी से दुख और तकलीफ़ में आ जाए। इसी लिए कह रहा हूं कि अभी उसे इस बारे में बताना उचित नहीं है।"

"मैं आपका मतलब समझ गया काका।" रूपचंद्र सहसा फीकी मुस्कान होठों पर सजा कर बोला____"लेकिन मैं आपसे यही कहूंगा कि आप अभी अपनी भतीजी को पूरी तरह समझे नहीं हैं। आप नहीं जानते हैं कि मेरी बहन का हृदय कितना विशाल है। जिसने कई साल वैभव के प्रेम के चलते उसकी जुदाई का असहनीय दर्द सहा हो उसे दुनिया का दूसरा कोई भी दुख दर्द प्रभावित नहीं कर सकता। मैंने पिछले एक महीने में उसे बहुत क़रीब से देखा और समझा है काका और मुझे एहसास हो गया है कि मेरी बहन कितनी महान है। ख़ैर आप भले ही उसे कुछ न बताएं लेकिन मैं अपनी बहन को किसी धोखे में नहीं रखूंगा। उसे बता दूंगा कि वैभव पर अब भी सिर्फ उसका नहीं बल्कि किसी और का भी अधिकार है और वो कोई और नहीं बल्कि वैभव की अपनी ही भाभी है।"

"मैं तुम्हारी भावनाओं को समझता हूं बेटा।" गौरी शंकर ने कहा____"और मुझे खुशी है कि तुम्हें अपनी बहन का इतना ज़्यादा ख़याल है लेकिन तुम्हें ये भी समझना चाहिए कि हर जगह भावनाओं से काम नहीं लिया जाता। सामने वाले की भलाई के लिए कभी कभी हमें झूठ और छल का भी सहारा लेना पड़ता है। दूसरी बात ये भी है कि इस बारे में अभी दादा ठाकुर की बहू रागिनी को भी पता नहीं है। मुझे भी लगता है कि रागिनी अपने देवर से ब्याह करने को तैयार नहीं होगी। ख़ुद ही सोचो कि ऐसे में ये बात रूपा को बता कर बेवजह उसे दुख और तकलीफ़ देना क्या उचित होगा? पहले इस बारे में दादा ठाकुर की बहू को तो पता चलने दो। इस बारे में वो क्या फ़ैसला करती है ये तो पता चलने दो। उसके बाद ही हम अपना अगला क़दम उठाएंगे।"

"ठीक है काका।" रूपचंद्र ने कहा____"शायद आप सही कह रहे हैं। जब तक इस बारे में वैभव की भाभी अपना फ़ैसला नहीं सुनाती तब तक हमें इसका ज़िक्र रूपा से नहीं करना चाहिए।"

कुछ देर और इसी संबंध में बातें हुईं उसके बाद चारो औरतें घर के अंदर चली गईं। इधर गौरी शंकर और रूपचंद्र भी दिशा मैदान जाने के लिए उठ गए।

✮✮✮✮

"मालती काकी के साथ बहुत बुरा हुआ है।" चूल्हे में रोटी सेंक रही रूपा ने कहा____"कंजरों ने उस बेचारी को बेघर कर दिया। अपने पांच पांच बच्चों को अब कैसे सम्हालेंगी वो?"

"ये सब उसके पति की वजह से हुआ है।" मैंने कहीं खोए हुए से कहा____"जुएं में सब कुछ लुटा दिया। शुक्र था कि उसने अपने बीवी बच्चों को भी जुएं में नहीं लुटा दिया था।"

"हमें उनकी सहायता करनी चाहिए।" रूपा ने मेरी तरफ देखते हुए कहा____"नहीं तो मां (सरोज) अकेले उन सबका भार कैसे सम्हाल पाएंगी?"

"हां ये तो है।" मैंने सिर हिलाया____"लेकिन हम कैसे उनकी सहायता कर सकते हैं?"

"अगर उन्हें उनका घर वापस मिल जाए तो अच्छा होगा उनके लिए।" रूपा ने जैसे सुझाव दिया।

"सिर्फ घर वापस मिल जाने से क्या होगा?" मैंने कहा____"घर से ज़्यादा ज़रूरी होता है दो वक्त का भोजन मिलना। अगर भूख मिटाने के लिए भोजन ही न मिलेगा तो कोई जिएगा कैसे?"

"सही कहा।" रूपा ने कहा____"दो वक्त की रोटी मिलना तो ज़रूरी ही है उनके लिए मगर कुछ तो करना ही पड़ेगा ना हमें। ऐसे कब तक वो मां के लिए बोझ बने रहेंगे?"

"दो वक्त की रोटी बिना मेहनत किए नहीं मिलेगी।" मैंने कहा____"इस लिए मेहनत मज़दूरी कर के ही मालती काकी को अपना और अपने बच्चों का पेट भरना होगा। इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है।"

"हां पर सवाल ये है कि एक अकेली औरत अपने पांच पांच बच्चों का पेट भरने के लिए क्या मेहनत मज़दूरी कर पाएगी?" रूपा ने कहा____"दूसरी बात ये भी है कि गांव के आवारा और बुरी नीयत वाले लोग क्या उन्हें चैन से जीने देंगे?"

"इस बारे में कोई कुछ नहीं कर सकता।" मैंने स्पष्ट भाव से कहा____"जिस घर का मुखिया गुज़र जाता है तो लोग उस घर की औरतों अथवा लड़कियों पर बुरी नज़र डालते ही हैं। दुनिया की यही सच्चाई है।"

"हां ये भी सही कहा तुमने।" रूपा ने सिर हिलाते हुए कहा____"इंसान के जीवन में किसी न किसी की समस्या बनी ही रहती है। ख़ैर, हमें इतना तो करना ही चाहिए कि उनका घर उन्हें वापस मिल जाए।"

"कल जब तुम वहां जाना तो उससे पूछना कि ऐसे वो कौन लोग थे जिनसे जगन ने कर्ज़ा लिया था अथवा घर और खेतों को गिरवी किया था?" मैंने कहा____"उसके बाद ही सोचेंगे कि इस मामले में क्या किया जा सकता है?"

"ठीक है, मैं कल ही इस बारे में मालती काकी से बात करूंगी।" रूपा ने कहा____"अच्छा अब जा कर हाथ धो लो, खाना बन गया है। मैं तब तक थाली लगाती हूं।"

रूपा की बात सुन कर मैं उठा और लोटे में पानी ले कर बाहर निकल गया। जल्दी ही मैं वापस आया और दरवाज़ा अंदर से बंद कर के वहीं रसोई से थोड़ा दूर बैठ गया। रूपा ने आ कर मेरे सामने थाली रख दी। उसके बाद वो भी अपने लिए थाली ले कर पास ही बैठ गई। मैं चुपचाप खाने लगा जबकि रूपा बार बार मेरी तरफ देखने लगती थी।

रूपा के साथ आज ये दूसरी रात थी। उसने अब तक जो कुछ जिस तरीके से किया था उस सबको ना चाहते हुए भी मैं सोचने पर मजबूर हो जाता था। मैंने महसूस किया था कि पहले की अपेक्षा मुझमें थोड़ा परिवर्तन आया था। सबसे बड़ा परिवर्तन तो यही था कि मैं उसकी किसी बात से नाराज़ अथवा नाखुश नहीं हो रहा था और ना ही ऐसा हो रहा था कि मैं उसकी किसी बात से अथवा बर्ताव से परेशान होता। मैं समझने लगा था कि रूपा मुझे मेरी ऐसी मानसिक अवस्था से बाहर निकालने का बड़े ही प्रेम से और कुशल तरीके से प्रयास कर रही थी।

बहरहाल, खाना खाने के बाद मैं जा कर लकड़ी की कुर्सी पर बैठ गया था जबकि रूपा जूठे बर्तनों को धोने में लग गई थी। हर तरफ सन्नाटा छाया हुआ था किंतु मेरे मन में विचारों का बवंडर सा चल रहा था। कुछ समय बाद जब रूपा ने बर्तन धो कर रख दिए तो मैं उठ कर कमरे की तरफ बढ़ गया।

रूपा आज अपने कमरे में नहीं गई बल्कि सीधा मेरे कमरे में ही आ कर ज़मीन पर अपना बिस्तर लगाने लगी थी। उधर मैं चुपचाप चारपाई पर लेट गया था। मुझे बड़ा अजीब सा लग रहा था लेकिन इस सबको खुद से दूर कर देना जैसे मेरे बस में नहीं था।

"सो गए क्या?" कुछ देर बाद सन्नाटे में रूपा की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी।

"नहीं।" मैंने उदास भाव से जवाब दिया____"आज कल रातों को इतना जल्दी नींद नहीं आती।"

"क्या मैं कोशिश करूं?" रूपा ने मेरी तरफ करवट ले कर कहा।

"मतलब?" मुझे जैसे समझ न आया।

"मतलब ये कि तुम्हें नींद आ जाए इसके लिए मैं कोई तरीका अपनाऊं।" रूपा ने कहा____"जैसे कि तुम्हारे पास आ कर तुम्हें प्यार से झप्पी डाल लूं और फिर हौले हौले थपकी दे के सुलाऊं।"

"नहीं, ऐसा करने की ज़रूरत नहीं।" मैं उसकी बात समझते ही बोल पड़ा____"तुम आराम से सो जाओ। मुझे जब नींद आनी होगी तो आ जाएगी।"

"कहीं तुम ये सोच कर तो नहीं मना कर रहे कि मैं तुम्हारे साथ कोई ग़लत हरकत करूंगी?" रूपा सहसा उठ कर बैठ गई थी और मुझे अपलक देखने लगी थी।

"मैं ऐसा कुछ नहीं सोच रहा।" मेरी धड़कनें एकाएक बढ़ गईं____"मैं बस तुम्हें परेशान नहीं करना चाहता। वैसे भी तुम दिन भर के कामों से थकी हुई होगी।"

"तुम्हारी तकलीफ़ों को दूर करने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं वैभव।" रूपा ने सहसा अधीर हो कर कहा____"मेरे रहते मेरा महबूब अगर ज़रा भी तकलीफ़ में होगा तो ये मेरे लिए शर्म की बात होगी।"

"मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है।" मैं झट से बोल पड़ा____"तुम बेकार में ही ऐसा सोच रही हो। मैं बिल्कुल ठीक हूं, तुम आराम से सो जाओ।"

मेरी बात सुन कर रूपा इस बार कुछ न बोली। बस एकटक देखती रही मेरी तरफ। कमरे में लालटेन का मध्यम प्रकाश था जिसके चलते हम दोनों एक दूसरे को बड़े आराम से देख सकते थे। रूपा को इस तरह एकटक अपनी तरफ देखता देख मेरी धड़कनें और भी तेज़ हो गईं। मैंने खुद को सम्हालते हुए दूसरी तरफ करवट ले ली ताकि मुझे उसकी तरफ देखना ना पड़े।

मैं जानता था कि मेरे इस बर्ताव से रूपा को बुरा लगा होगा और वो दुखी भी हो गई होगी किंतु मैं इस वक्त उसे अपने क़रीब नहीं आने देना चाहता था। इस लिए नहीं कि उसके क़रीब आने से मैं कुछ ग़लत कर बैठूंगा बल्कि इस लिए कि मैं फिलहाल ऐसी मानसिक स्थिति में ही नहीं था। अनुराधा के अलावा मेरे दिल में अभी भी रूपा के लिए वो स्थान नहीं स्थापित हो सका था जिसके चलते मैं अनुराधा की तरह उसे सच्चे दिल से प्रेम कर सकूं।

जाने कितनी ही देर तक मेरे दिलो दिमाग़ में ख़यालों और जज़्बातों का तूफ़ान चलता रहा। उसके बाद कब मैं नींद के आगोश में चला गया पता ही नहीं चला।​
 
अध्याय - 128
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दूसरे दिन रूपा जब सरोज काकी के घर गई तो उसने वहां मालती से बात की। उसने उससे पूछा कि उसके पति ने किन लोगों से कर्ज़ा लिया था? मालती ने उसके पूछने पर उतना ही बताया जितना उसे पता चला था।

सरोज के घर में मालती और उसकी बेटियां थी इस लिए सरोज ने रूपा को खाना बनाने से मना कर दिया था। असल में वो नहीं चाहती थी कि इतने लोगों का खाना बनाने में रूपा को कोई परेशानी हो। वैसे भी अब उसे रूपा से लगाव सा हो गया था जिसके चलते वो इतने लोगों का भार उसके सिर पर नहीं डालना चाहती थी। मालती ने भी यही कहा था कि वो और उसके बच्चे कोई मेहमान नहीं हैं जो बैठ कर सिर्फ खाएंगे। बहरहाल, रूपा मालती से जानकारी ले कर जल्द ही वापस आ गई थी।

जब वो वापस आई तो उसने देखा वैभव कुएं पर नहा रहा था। धूप खिली हुई थी और इस वक्त वो सिर्फ कच्छे में था। पानी से भींगता उसका गोरा और हष्ट पुष्ट बदन बड़ा ही आकर्षक नज़र आ रहा था। रूपा ये देख मुस्कुराई और फिर कुएं की तरफ ही बढ़ चली।

इधर मैं दुनिया जहान से बेख़बर नहाने में व्यस्त था। कुएं का ठंडा ठंडा पानी जब बदन पर पड़ता था तो अलग ही आनंद आता था। कुएं से बाल्टी द्वारा पानी खींचने के बाद मैं पूरी बाल्टी का पानी एक ही बार में कुएं की जगत पर खड़े खड़े अपने सिर पर उड़ेल लेता था जिसके चलते मुझे बड़ा ही सुखद एहसास होता था।

"मैं भी आ जाऊं क्या?" अचानक रूपा की इस आवाज़ से मैं चौंका और पलट कर उसकी तरफ देखा।

वो कुएं की जगत के पास आ कर खड़ी हो गई थी और मुस्कुराते हुए मुझे ही देखे जा रही थी। इस वक्त मेरे और उसके अलावा दूर दूर तक कोई नहीं था। दयाल और भोला नाम के दोनों मज़दूर चूल्हे में जलाने के लिए लड़की लेने जंगल गए हुए थे। रूपा जिस तरह से मेरे बदन को घूरते हुए मुस्कुराए जा रही थी उससे मैं एकदम से असहज हो गया। ऐसा नहीं था कि उसने मुझे इस हालत में पहले कभी देखा नहीं था, बल्कि उसने तो मुझे पूरी तरह नंगा भी देखा था लेकिन मौजूदा समय में जिस तरह की मेरी मानसिकता थी उसके चलते मुझे उसका यूं देखना असहज कर रहा था।

"क्या हुआ जनाब?" मुझे कुछ न बोलता देख उसने अपनी भौंहों को ऊपर नीचे करते हुए कहा____"मुझे इस तरह क्यों देखे जा रहे हो? डरो मत, मैं तुम्हें इस हालत में देख कर खा नहीं जाऊंगी। मेरे कहने का मतलब तो बस ये है कि आ कर मैं तुम्हें अपने हाथों से नहला देती हूं। अब इतना तो कर ही सकती हूं अपनी जान के लिए।"

"कोई ज़रूरत नहीं है।" मैं एकदम से बोल पड़ा____"असमर्थ नहीं हूं मैं जो ख़ुद नहा नहीं सकता। तुम जाओ यहां से।"

"इतने कठोर न बनो मेरे बलम।" रूपा ने बड़ी अदा से कहा____"मेरे खातिर कुछ देर के लिए असमर्थ ही बन जाओ ना।"

"मैंने कहा न जाओ यहां से।" मैंने थोड़ा सख़्त भाव से देखा उसे।

"इतना गुस्सा क्यों कर रहे हो?" रूपा ने बड़ी मासूमियत से कहा____"सिर्फ नहलाने को ही तो कह रही हूं। क्या तुम मेरी खुशी के लिए मेरी इतनी सी बात नहीं मान सकते?"

"हां नहीं मान सकता।" मैंने दो टूक भाव से कहा____"अब जाओ यहां से।"

पता नहीं क्यों मैं एकदम से उखड़ सा गया था? मेरा ऐसा बर्ताव देख रूपा कुछ न बोली किंतु अगले ही पल उसकी आंखों में मानों आंसुओं का सैलाब उमड़ता नज़र आया। कुछ पलों तक वो डबडबाई आंखों से मुझे देखती रही और फिर चुपचाप पलट कर मकान की तरफ चली गई। उसके जाने के बाद मैंने खाली बाल्टी को कुएं में डाला और फिर पानी खींचने लगा।

कुछ ही देर में मैं नहा धो कर मकान में आया और अपने कमरे में जा कर कपड़े पहनने लगा। रूपा रसोई में खाना बना रही थी। कपड़े पहन कर मैं बाहर आया और वहीं पास ही रखी कुर्सी पर बैठ गया। कुछ ही दूर रसोई में रूपा चूल्हे के पास बैठी खाना बनाने में लगी हुई थी।

मुझे कुर्सी में बैठे क़रीब पांच सात मिनट गुज़र गए थे किंतु रूपा ने एक बार भी मेरी तरफ नहीं देखा था और ना ही कोई बात की थी। पहले तो मैंने ध्यान नहीं दिया किंतु जब काफी देर तक ख़ामोशी ही छाई रही तो सहसा मैंने उसकी तरफ ध्यान से देखा।

चूल्हे में लकड़ियां जल रहीं थी जिनका प्रकाश सीधा उसके चेहरे पर पड़ रहा था। मैंने देखा कि उसके चेहरे पर वेदना के भाव थे। ये देख मैं चौंका और फिर एकदम से मुझे कुछ देर पहले कुएं में उसको कही गई अपनी बातें याद आईं। जल्दी ही मुझे समझ आ गया कि मेरी बातों ने उसे अंदर से आहत कर दिया है।

मुझे याद आया कि मैंने कितनी सख़्ती से और कितनी बेरुखी से उससे बातें की थी। मुझे एकदम से एहसास होने लगा कि मुझे उससे इतनी बेरुखी से बातें नहीं करनी चाहिए थीं। उसने कोई ग़लत बात तो नहीं की थी मुझसे। मुझे बेहद प्रेम करती है जिसके चलते उस समय वो मुझसे थोड़ी नोक झोंक ही तो कर रही थी और फिर अगर वो मुझे नहला भी देती तो भला क्या बिगड़ जाना था मेरा?

"क्या नाराज़ हो मुझसे?" फिर मैंने उसकी तरफ देखते हुए धीमें स्वर में कहा____"देखो, मेरा इरादा तुम्हारा दिल दिखाने का बिल्कुल भी नहीं था। मुझे नहीं पता उस समय मेरे मुख से वैसी बातें क्यों निकल गईं थी? अगर मेरी बातों से सच में तुम्हें तकलीफ़ हुई है तो उसके लिए मैं तुमसे माफ़ी मांगता हूं।"

"तुम मुझसे माफ़ी मांगोगे तब भी तो मुझे तकलीफ़ होगी।" रूपा की आवाज़ सहसा भारी हो गई। मेरी तरफ देखते हुए बोली____"ख़ुशी तो बस एक ही सूरज में होगी जब मेरा प्रियतम ख़ुश होगा।"

"ऐसी बातें मत किया करो।" मेरे समूचे जिस्म में झुरझुरी दौड़ गई____"तुम्हारी ऐसी बातों से मुझे डर सा लगने लगता है।"

"फिर तो ज़रूर मेरे प्रेम में कमी है वैभव।" रूपा ने रुंधे गले से कहा____"और ये मेरी बदकिस्मती ही है कि मेरे प्रेम से मेरे महबूब को डर लगता है। क्या करूं अब? कुछ समझ में नहीं आ रहा मुझे। आख़िर ये कैसी बेबसी है कि अपने महबूब का डर दूर करने के लिए मैं उससे प्रेम करना भी नहीं छोड़ सकती। काश! मेरे बस में होता तो अपने दिल के ज़र्रे ज़र्रे से प्रेम का हर एहसास खुरच खुरच कर निकाल देती। हे विधाता! मुझे भले ही चाहे दुनिया भर के दुख दे दे लेकिन मेरे दिल के सरताज का हर डर और हर दुख तकलीफ़ दूर कर दे।"

रूपा कहने के बाद बुरी तरह सिसक उठी। इधर उसकी बातों ने मुझे अंदर तक झकझोर कर रख दिया। दिल के किसी कोने से जैसे कोई हलक फाड़ कर चीख पड़ा और बोला____'जो लड़की हर हाल में सिर्फ और सिर्फ तेरी ख़ुशी और तेरा भला चाहती है उसको तू कैसे दुखी कर सकता है? जो लड़की तुझे पागलपन की हद तक प्रेम करती है और विधाता से तेरे हर दुख को मांग रही है उसे असहनीय पीड़ा दे कर उसकी आंखों में आंसू लाने का गुनाह कैसे कर सकता है तू? जो लड़की अपने प्रेम के खातिर अपना घर परिवार छोड़ कर तथा सारी लोक लाज को ताक में रख कर सिर्फ तुझे सम्हालने के लिए तेरे पास आई है उस महान लड़की का प्रेम और उसकी पीड़ा क्यों नज़र नहीं आती तुझे?'

मैं भारी मन से कुर्सी से उठा और रूपा की तरफ बढ़ चला। वो चूल्हे के पास बैठी बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई को फूट पड़ने से रोकने का प्रयास कर रही थी। उसका चेहरा चूल्हे में लपलपाती आग ही तरफ था। आग की रोशनी में उसके चेहरे की पीड़ा साफ दिख रही थी मुझे।

मैं कुछ ही पलों में उसके पास पहुंच गया। धड़कते दिल से मैं हौले से झुका और फिर उसके दोनों कन्धों को पकड़ा तो वो एकदम से हड़बड़ा गई। बिजली की तरह पलट कर उसने मेरी तरफ देखा। उफ्फ! उसकी आंखों में तैरते आंसुओं को देख अंदर तक हिल गया मैं। आंसू भरी आंखों से वो मुझे ही देखे जा रही थी। मैंने एक ही झटके में खींच कर उसे अपने सीने से लगा लिया। मेरा ऐसा करना था कि जैसे उसके सब्र का बांध टूट गया और वो मुझे पूरी सख़्ती से जकड़ कर फफक कर रो पड़ी।

"माफ़ कर दो मुझे।" फिर मैंने उसकी पीठ पर हौले से हाथ फेरते हुए कहा____"ये मेरी बदकिस्मती है कि मैं कभी किसी की भावनाओं को नहीं समझ पाया, खास कर तुम्हारी भावनाओं को।"

रूपा अनवरत रोती रही। वो मुझे इस तरह जकड़े हुए थी जैसे उसे डर हो कि मैं उसे अपने सीने से अलग कर दूंगा। इधर मेरे दिलो दिमाग़ में भयंकर तूफ़ान उठ गया था।

"समझ में नहीं आता कि मुझ जैसे इंसान को कोई इतना प्रेम कैसे कर सकता है?" मैंने गहन संजीदगी से कहा____"जबकि सच तो ये है कि मैं किसी के प्रेम के लायक ही नहीं हूं। मैं तो वो बुरी बला हूं जिसका बुरा साया प्रेम करने वालों की ज़िंदगी छीन लेता है।"

"नहीं नहीं नहीं।" रूपा मुझसे लिपटी रोते हुए चीख पड़ी____"मेरे वैभव के बारे में ऐसा मत कहो। मेरे वैभव से अच्छा कोई नहीं है इस दुनिया में।"

रूपा की इन बातों ने एक बार फिर से मुझे अंदर तक झकझोर दिया। मेरे अंदर जज़्बात इतनी बुरी तरह से मचल उठे कि मेरे लाख रोकने पर भी मेरी आंखें छलक पड़ीं। मुझे इस ख़याल ने रुला दिया कि जहां सारी दुनिया मुझे गुनहगार, पापी और कुकर्मी कहती हैं वहीं ये रूपा मेरे बारे में ऐसा कह रही है। यकीनन ये उसका प्रेम ही था जो ख़्वाब में भी मेरे बारे में बुरा नहीं सोच सकता था। इस एहसास ने मुझे तड़पा कर रख दिया। मैंने रूपा को और ज़ोर से छुपका लिया। उसका रोना तो अब बंद हो गया था लेकिन सिसकियां अभी भी चालू थीं।

"बस बहुत हुआ।" मैंने जैसे फ़ैसला कर लिया था। उसे खुद से अलग कर के और फिर उसके आंसुओं से तर चेहरे को अपनी हथेलियों में ले कर कहा____"तुमने बहुत दे लिया अपने प्रेम का इम्तिहान, अब और नहीं। अगर इतने पर भी मैं तुम्हें और तुम्हारे प्रेम को न समझ पाया और तुम्हें क़बूल नहीं किया तो शायद ये मेरे द्वारा किया गया सबसे बड़ा गुनाह होगा।"

"ऐसा मत कहो।" वो भारी गले से बोली।

"मुझे कहने दो रूपा।" मैंने बड़े स्नेह से कहा____"मुझे एहसास हो रहा है कि मैंने तुम्हारे और तुम्हारे प्रेम के साथ बहुत अन्याय किया है। जबकि तुमने एक ऐसे इंसान के लिए ख़ुद को हमेशा प्रेम की कसौटी पर पीसा जो इसके लायक ही नहीं था। ख़ैर बहुत हुआ ये सब। अब मैं ना तो तुम्हें कोई इम्तिहान देने दूंगा और ना ही किसी तरह का दुख दूंगा। मुझे अनुराधा के जाने का दुख ज़रूर है लेकिन अब मैं उसकी वजह से तुम्हें और तुम्हारे प्रेम को कोई तकलीफ़ नहीं दूंगा।"

मेरी बातों ने रूपा के मुरझाए चेहरे पर खुशी की चमक बिखेरनी शुरू कर दी। मैंने उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में भर रखा था। इतने क़रीब से आज काफी समय बाद मैं उसे देख रहा था। उसके हल्के सुर्ख होठ हौले हौले कांप रहे थे। मुझे उस पर बेहद प्यार आया तो मैंने आगे बढ़ कर उसके माथे को प्यार से चूम लिया।

"क्या मैं भी चूम लूं तुम्हें?" उसने बड़ी मासूमियत से पूछा तो मैं पलकें झपका कर उसे इजाज़त दे दी।

जैसे ही मेरी इजाज़त मिली तो वो खुश हो गई और फिर लपक कर उसने मेरे सूखे लबों को अपने रसीले होठों से मानों सराबोर कर दिया। मैं उसकी इस क्रिया से पहले तो हड़बड़ाया किंतु फिर शान्त पड़ गया। मैंने कोई विरोध नहीं किया।

रूपा दीवानावार सी हो कर मेरे होठों को चूमे जा रही थी। मैं उसका विरोध तो नहीं कर रहा था किंतु अपनी तरफ से कोई पहल भी नहीं कर रहा था। क़रीब दो मिनट बाद जब उसकी सांसें उखड़ने लगीं तो उसने मेरे होठों को आज़ाद कर के अपना चेहरा थोड़ा दूर कर लिया। उसकी आंखें बंद थीं और सांसें धौकनी की मानिंद चल रहीं थी। थोड़ी देर के बाद उसने धीरे धीरे अपनी आंखें खोली। जैसे ही उसकी नज़रें मेरी नज़रों से मिलीं तो वो बुरी तरह लजा गई। शर्म से उसका गोरा चेहरा सिंदूरी हो उठा। पूरी तरह गीले हो चुके होठों पर मुस्कान बिखर गई।

"मुझे नहीं पता था कि इजाज़त मिलने पर एक ही बार में इतने समय की वसूली हो जाएगी।" मैंने हल्के से मुस्कुराते हुए उसे देखा तो वो मेरी इस बात से और भी बुरी तरह शर्मा गई।

रूपा के चेहरे पर अभी भी आंसुओं के निशान थे किंतु दो ही मिनट में उसका चेहरा खुशी की वजह से खिल उठा था। मेरे मन में ख़याल उभरा कि इतना कुछ सहने के बाद भी जब किसी इंसान को थोड़ी सी खुशी मिल जाती है तो कैसे उसका चेहरा खिल जाता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे उसे कभी कोई दुख ही न रहा हो। एक अदनी सी खुशी वर्षों से मिले दुख को मानों पल भर में मिटा देती है। वाह रे! प्रेम, अजब फितरत है तेरी।

"तुम ग़लत समझ रहे हो।" फिर उसने हौले से पलकें उठा कर मेरी तरफ देखा____"ये वसूली नहीं है बल्कि प्रेम रूपी थाली में रखे हुए प्रसाद से थोड़ा सा प्रसाद लिया है मैंने। पूरी थाली का प्रसाद लेना तो बाकी है अभी।"

"अच्छा ऐसा है क्या?" मैंने हैरानी ज़ाहिर करते हुए कहा____"मुझे तो पता भी नहीं था कि ऐसा भी कुछ होता है।"

"हां और मैंने यकीन भी कर लिया कि तुम्हें कुछ पता ही नहीं है।" रूपा ने मुस्कुराते हुए सहसा व्यंग्य सा किया____"ख़ैर तुम्हें ख़ुद को अगर नादान और नासमझ बनाए रखना है तो यही सही।"

"बात नादानी अथवा नासमझ बनने की नहीं है।" मैंने कहा____"मैं तो बस अपना पिछला सब कुछ भुला कर तुम्हारे साथ नए सिरे से एक नया अध्याय शुरू करना चाहता हूं। तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्रेम के बारे में पता है और तजुर्बा भी है इस लिए मैं चाहता हूं कि अब तुम ही सब कुछ सिखाओ मुझे।"

"प्रेम की विशेषता ही यही है कि इसमें किसी को कुछ सिखाया नहीं जाता है।" रूपा ने अपलक मेरी आंखों में देखते हुए कहा____"बल्कि इसमें तो इंसान दिल के हाथों मजबूर होता है। जो दिल कहता है अथवा चाहता है इंसान बिना सोचे समझे वही करता रहता है।"

"हम्म्म्म।" मैंने कहा। अचानक ही मुझे कुछ महसूस हुआ तो मैंने रूपा से कहा____"क्या तुम्हें भी ऐसा महसूस हो रहा है जैसे किसी चीज़ की गंध आ रही है?"

मेरी इस बात से रूपा चौंकी। फिर उसने कुछ सूंघने का प्रयास किया। अगले ही पल जैसे उसे कुछ समझ आ गया तो वो हड़बड़ा कर पलटी। नज़र चूल्हे पर टंगे तवे पर गई। तवे पर पड़ी रोटी सुलग कर ख़ाक हो चुकी थी और अब उसमें से निकलने वाला धुवां भी कम हो चला था।

"हाय राम! रूपा लपक कर चूल्हे के पास पहुंची____"तुम्हारे चक्कर में रोटी भी जल कर राख हो गई।"

"हां, ये मेरे ही चक्कर से हुआ है।" मैंने कहा____"मैंने अगर होठों से होठ न मिलाए होते तो शायद रोटी का वजूद न मिटता।"

"चुप करो तुम।" रूपा मेरी बात से शर्मा कर झेंप गई____"बातें न बनाओ और जा कर बाहर बैठो। तवे को मुझे फिर से मांजना होगा, उसके बाद ही रोटी बनेगी अब।"

मैं मन ही मन मुस्कुराया और चुपचाप बाहर आ कर तखत पर बैठ गया। जबकि रूपा तवे को चूल्हे से निकाल कर बाहर ले आई और उसे ठंडा करने के बाद मांजने लगी। मैं तखत पर बैठा उसे ही देखे जा रहा था। अभी थोड़ी देर पहले जो कुछ हमारे बीच हुआ था मैं उसी के बारे में सोच रहा था। मैंने महसूस किया कि अब मुझे बहुत हल्का महसूस हो रहा है।

✮✮✮✮

खाने पीने के बाद मैंने रूपा को सरोज काकी के घर भेज दिया था और ख़ुद हवेली निकल गया था। रूपा से मुझे पता चल चुका था कि मालती के पति ने किन लोगों से कर्ज़ा लिया था। उन लोगों से मिलने से पहले मैं रुपयों का इंतज़ाम करना चाहता था, क्योंकि मेरे पास मौजूदा समय में ज़्यादा पैसे ही नहीं थे। इस लिए मैं हवेली निकल गया था।

हवेली पहुंच कर मैं सबसे पहले मां और चाची लोगों से मिला। मां ने बताया कि सुबह चंदनपुर से भाभी के बड़े भाई साहब यानि वीरेंद्र सिंह आए थे। अभी एक घंटे पहले ही रागिनी भाभी अपने भाई के साथ चंदनपुर चली गईं हैं। मां से जब मुझे भाभी के जाने का पता चला तो मुझे ये सोच कर बुरा लगा कि किसी ने मुझे इस बारे में पहले बताया नहीं। मां ने बताया कि भाभी की मां अपनी बेटी को बहुत याद कर रहीं थी इस लिए वीरेंद्र सिंह लेने आए थे। ख़ैर खाना मैं खा चुका था इस लिए मैं आराम करने अपने कमरे में चला गया। पिता जी दोपहर के समय अपने कमरे में आराम करते थे इस लिए इस वक्त उनसे बात करना उचित नहीं था।

क़रीब साढ़े तीन बजे मैं अपने कमरे से निकला और नीचे आया। कमरे से रिवॉल्वर ले आना नहीं भूला था मैं। कुसुम से पता चला कि पिता जी अभी थोड़ी देर पहले ही गुसलखाने से निकल कर कमरे में गए हैं। शायद कहीं जाना है उन्हें। मैंने कुसुम को चाय बनाने को कहा और बैठक की तरफ बढ़ गया।

थोड़ी देर में पिता जी तैयार हो कर बैठक में आए। किशोरी लाल पहले से ही तैयार हो कर बैठक में बैठे थे। मेरी थोड़ी बहुत उनसे बातें हुईं। पिता जी अपनी ऊंची कुर्सी पर बैठ गए और मेरी तरफ ध्यान से देखने लगे।

"क्या बात है?" फिर उन्होंने मुझसे पूछा____"सब ठीक तो है?"

"जी, सब तो ठीक है।" मैंने धड़कते दिल से कहा____"लेकिन मुझे कुछ रुपयों की ज़रूरत है।"

"हमें एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है।" पिता जी ने कहा____"तुम अपनी मां से ले लो रुपये। वैसे किस चीज़ के लिए चाहिए तुम्हें रुपये?"

"किसी ज़रूरतमंद की सहायता करने के लिए।" मैंने इतना ही कहा।

"हम्म्म्म।" पिता जी ने कहा____"इसका मतलब कुछ ज़्यादा ही रुपयों की ज़रूरत है तुम्हें।" कहने के साथ ही पिता जी मुंशी किशोरी लाल से मुखातिब हुए____"किशोरी लाल जी, जाइए इसे जितने पैसों की आवश्यकता हो आप दे दीजिए।"

"जी ठीक है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने कहा और उठ कर बैठक से बाहर की तरफ चल पड़ा। मैं भी उनके पीछे चल पड़ा।

जल्दी ही मैं किशोरी लाल के साथ अंदर एक ऐसे कमरे में पहुंचा जिसमें वर्षों से रुपए पैसे और कागज़ात वगैरह रखे जाते थे। उस कमरे में कई संदूखें और अलमारियां थीं। किशोरी लाल ने दीवार में धंसी एक पुरानी किंतु बेहद मजबूत अलमारी को खोला और मेरे बताए जाने पर उसमें से पच्चीस हज़ार रुपए निकाल कर मुझे दिए।

रुपए ले कर मैंने उसे अपने एक बैग में डाला और हवेली से बाहर निकल गया। कुछ ही देर में मैं जीप में बैठा उड़ा चला जा रहा था।

मैं अपने खेतों पर पहुंचा तो भुवन वहीं था। मैंने उसे जीप में बैठाया और वहां से चल पड़ा। रास्ते में मैंने उसे बताया कि हमें कहां और किस काम के लिए जाना है। भुवन ने साथ में भीमा और बलवीर को भी ले चलने की सलाह दी जो मुझे भी उचित लगी। असल में मुझे अंदेशा था कि ये मामला आसानी से निपट जाने वाला नहीं है। ख़ैर जल्दी ही हम दोनों भीमा और बलवीर के घर पहुंचे। वहां से दोनों को जीप में बैठा कर मैं निकल पड़ा।​
 
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