[color=rgb(243,]सोलहवाँ अध्याय: पति का प्रेम![/color]
[color=rgb(41,]भाग - 2[/color]
[color=rgb(65,]अब तक आपने पढ़ा:[/color]
दो मिनट के रसपान के बाद हम अलग हुए, भौजी के चेहरे पर एक प्यारी से संतोषजनक मुस्कान थी जिसे देख मेरा दिल धक् सा रह गया था! भौजी ने मुस्कुराते हुए दाहिनी ओर करवट ले ली और मैं धीरे से उठा, तथा अपनी चारपाई पर आ कर चुप-चाप लेट गया, मेरे लेटने के 5 सेकंड बाद ही माँ का हाथ मेरी छाती पर आ गिरा| में एकदम से डर गया, मुझे लगा की शायद माँ ने अभी सब कुछ देख लिया! परन्तु जब माँ कुछ नहीं बोलीं तो माने हिम्मत कर के उन्हें थोड़ा गौर से देखा तो पाया की माँ गहरी नींद में थीं, दरअसल उनकी और मेरी चारपाई पास-पास थीं जिस कारन नींद में उनका हाथ मेरी छाती पर आ गिरा था| मेरी जान बाल-बाल बच गई थी, इसलिए मैं चुप-चाप सो गया|
[color=rgb(184,]अब आगे:[/color]
सुबह पाँच बजे एक प्यारी वाली Good morning kiss के साथ भौजी ने मुझे जगाया|
भौजी: How'd you like my Good Morning Kiss?
(कैसी लगी मेरी गुड मॉर्निंग kiss?)
मैं: Awesome!!!
(बहुत बढ़िया)
कल भौजी ने बड़ा ही जर्रूरी सबक सीखा था, वो ये की कभी भी मुझे kiss के लिए नहीं तड़पाना वरना जब मैं सताने पर आता हूँ तो ऊनि हालत खराब हो जाती है! तभी तो आज सुबह-सुबह इतनी प्यारी kissi दे कर उठाया| खैर भौजी तो चली गईं और उनके जाने के बाद मैंने अपनी लाड़ली को गोद में उठाया| नेहा को अब भी नींद आ रही थी, तो मैं उसे गोद में ले कर आंगन में ही टहलने लगा| नेहा ने अपने नन्हे-नन्हे हाथ मेरी गर्दन के इर्द-गिर्द लपेट लिए तथा मेरे दाएँ कंधे पर सर रख कर फिर से सोने लगी| अब उसे स्कूल के लिए तो जगाना था, इसलिए मैंने उसके दाएँ गाल को बार-बार चूमना शुरू कर दिया| मेरे बार-बार चूमने से वो आखिर जाग गई और मेरे दोनों गालों को चूमने लगी| "सॉरी...मेरा मतलब मुझे माफ़ कर दो बेटा! पर आपको स्कूल जाना है, इसलिए आपको उठा रहा हूँ!" ये सुन नेहा के चेहरे पर मुस्कान आ गई और उसने एक बार फिर मेरे दोनों गालों को चूमा और फिर फ्रेश होने चली गई|
अब चूँकि मैं कुछ देर के लिए अकेला था तो अब समय था परसों रात के ख़याली पुलाव में तड़का लगाने का! कौन-कौन से मसाले इस्तेमाल करने हैं, घी कितना डालना है, धनिया-पुदीना सब कुछ सोच लिया था मैंने| मैं जल्दी से तैयार हुआ और रसोई पहुँचा, वहां पहुँचते ही मुझे मेरी लाड़ली तैयार मिली| मैंने उसे गोद में उठाया और उसके प्याले-प्याले गालों को चूमते हुए उसके स्कूल पहुँचा| क्लास में जाने से पहले नेहा ने मेरे माथे पर एक प्याली सी पप्पी दी और मुस्कुराती हुई क्लास में चली गई|
परसों रात को बिस्तर लगाते समय भौजी ने कहा था की काश हम दोनों एक रात साथ बिता पाते, उनकी वो बात मेरे दिमाग में घर कर गई थी और उसी पल से मैंने इस विषय पर काम करना शुरू कर दिया था| खैर जब मैं घर पहुँचा तो मुझे भौजी न तो रसोई में मिलीं और न ही बड़े घर में| तो मैं उन्हें ढूँढ़ते हुए उनके घर के भीतर घुसा| भौजी उस वक़्त अपने कमरे में खड़ीं साडी पहन रही थी| उनके दांतों तले साडी का पल्लू दबा हुआ था, वो दृश्य ऐसा था की मैं सब कुछ भूल कर उनके कमरे की चौखट से सर लगा कर उन्हें देखने लगा|
भौजी: क्या देख रहे हो आप?
भौजी ने लजाते हुए साडी का पालू खोंसते हुए कहा|
मैं: हाय! बड़े सेक्सी लग रहे हो आज, ख़ास कर आपकी नाभि.....सससससस....मन कर रहा है उसे kiss कर लूँ?
मैंने उनके नजदीक पहुँचते हुए कहा|
भौजी: तो आप पूछ क्यों रहे हो?
भौजी ने लजाते हुए नजरें झुका कर कहा|
मैं: नहीं....अभी नहीं.....!
मैंने उनकी ठुड्डी पकड़ कर ऊपर उठा कर कहा|
मैं: फिलहाल मुझे आपसे एक छोटा सा काम था?
ये सुन भौजी उत्सुक हो गईं;
भौजी: हाँ बोलिए|
भौजी फ़टाक से बोलीं|
मैं: आज जो भी बात में पिताजी के सामने आपसे पूछूँ आप बस उसमें हाँ में हाँ मिला देना!
मेरी बात सुन भौजी ने एक क्षण नहीं लिया और फ़ौरन बोलीं;
भौजी: ठीक है, पर बात क्या है?
मैं: सरप्राइज है! अभी नहीं बता सकता|
मैंने मुस्कुराते हुए कहा|
भौजी: हाय! आप फिर से अपने सरप्राइज से तड़पाओगे?
भौजी ने मिन्नत करते हुए कहा|
मैं: थोड़ा तड़प भी लो, लेकिन जब सरप्राइज पता चलेगा तो आपके सारे गीले-शिकवे दूर हो जायेंगे!
भौजी: आपका दिया हुआ हर सरप्राइज मुझे अच्छा लगता है| पर इस बार क्या चल रहा है आपे दिमाग में?
भौजी ने प्यार से पुछा|
मैं: सब अभी बता दूँ?!
मैंने भौजी के गाल खींचते हुए कहा और फिर बाहर चला आया| छप्पर के नीचे माँ और बड़की अम्मा बैठे थे, जब मैंने उनसे पिताजी के बारे में पुछा तो उन्होंने बताया की वो और बड़के दादा पास ही के गाँव में एक ठाकुर साहब के यहाँ गए थे| मैं इतना उतावला था की उन्हें ढूँढ़ते हुए वहाँ जा पहुँचा, पिताजी, बड़के दादा और ठाकुर साहब आप्मने-सामने चारपाई पर बैठ बात कर रहे थे परन्तु मुझे देखते ही सब खामोश हो गए| मेरा पहनावा देख ठाकुर साहब समझ गए की मैं मानु हूँ जिसकी अभी बात चल रही थी, इसलिए वो मुस्कुराते हुए मुझसे बोले;
ठाकुर साहब: अरे आओ मुन्ना! बैठो...अरे सुनत हो? जरा मुन्ना के लिए शरबत ले आओ|
ठाकुर साहब ने अपनी पत्नी को आवाज देते हुए कहा| तत्पश्चात पिताजी ने मेरा उनसे परिचय कराया;
पिताजी: बेटा ये अवधेश जी हैं, इस गाँव के ठाकुर!
पिताजी की बात सुन मैंने उनके पाँव छूटे हुए कहा;
मैं: पांयलागि ठाकुर साहब!
ठाकुर साहब: अरे भाईसाहब, बोली भाषा से तो मुन्ना बिल्कुले शहरी नहीं लगात! बहुत सरल, आज्ञाकारी, कउनो घमंड नाहीं.... वाह! बहुत नीक (अच्छे) संस्कार डाले हो आप|
ठाकुर साहब मेरी तारीफ करते हुए बोले और मैंने खामोश हो कर अपना सर झुका लिया| तभी बड़के दादा बोले;
बड़के दादा: बहुत मेहनती भी है ठाकुर साहब, जब एकर पिताजी नाहीं रहे तो अकेले ही आधा खेत काट डालिस! और तो और अन्याय तनिको बर्दाश्त नाहीं ईका!
ठाकुर साहब: अरे वाह भई वाह!
इतने में ठकुराइन सर पर पल्ला किये मेरे लिए शर्बत ले आईं| मैंने उनके भी पाँव छुए और उन्होंने मुझे आशीर्वाद देते हुए मेरे सर पर हाथ फेरा|
ठाकुर साहब: देखत हो? हम ना कहत रहन मुन्ना बहुत संस्कारी है! चलो मुन्ना सरबत पीयो!
ठाकुर साहब की बात मुझे अटपटी लगी, लेकिन सब मेरी ही तारीफ करने में लग गए तो मैं मजबूरन खामोश रहा| मन में जो पिताजी से बात करने का उत्साह था उसे रोके रखा वरना अभी-अभी जो तारीफ हुई थी वो सारी किरकिरी हो जाती! मैंने अपना ध्यान सरबत पीने में लगाया और इधर-उधर देखते हुए चुप-चाप बैठा रहा| इतने में ठकुराइन ने अपनी बेटी को वहाँ भेज दिया, वो सर झुका कर आई मुझे छोड़ सब को प्रणाम किया और फिर ठाकुर साहब की बगल में बैठ गई| उसके आते ही मेरे दिमाग में शक का साईरन बजने लगे, वो दृश्य था ही ऐसा की मेरा शक करना जायज था! तभी ठाकुर साहब ने उसका तार्रुफ़ हमसे कराया;
ठाकुर साहब: ई हमार बेटी सुनीता, सेहर में पढ़त है ग्यारहवीं कक्षा में|
पिताजी और बड़के दादा के चेहरे पर ख़ुशी झलक आई जो मैंने अभी तक नहीं देखि थी!
ठाकुर साहब: भाईसाहब, अगर आप बुरा ना मानो तो बच्चे तनिक टहल आयें?
ठाकुर साहब मुस्कुराते हुए बोले|
पिताजी: जी इसमें बुरा मानने वाली का बात है, जाओ बेटा!
पिताजी ने मेरी पीठ पर हाथ रख कर मुझे जाने की अनुमति दी| इधर पिताजी की बात सुन मेरी आखें बड़ी हो गईं, आखिर ये हो क्या रहा है? कहीं पिताजी यहाँ मेरा रिश्ता तो लेकर नहीं आये? लेकिन ऐसा होता तो वो मुझसे जर्रूर पूछते! इतने में सुनीता मेरे से दो कदम आगे निकल गई और मैं स्तब्ध से गर्दन झुकाये सोचने लगा|
बड़के दादा: जाओ मुन्ना, सरमाओ नाहीं!
बड़के दादा की बात सुन सारे हँस पड़े, इधर मुझे मेरे ख़याली पुलाव पर पानी फिरता नजर आ रहा था!
ठाकुर साहब: जाओ मुन्ना...ईका आपन ही घर समझो!
बेमन से मैं सुनीता के पीछे चल पड़ा, वो ख़ामोशी से मुझे अपने घर के भीतर ले गई और अपने कमरे के अंदर प्रवेश कर मुझसे बोली;
सुनीता: ये मेरा कमरा है|
मैंने गौर से देखा तो पाया की ठाकुर साहब का घर हमारे मुक़ाबले बहुत बड़ा है, अकेले सुनीता का कमरा ही भौजी के घर जितना बड़ा है| बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ जिससे ठंडी-ठंडी हवा 24 घंटे आती थी, उसका अपना पलंग जो मैने अपने गाँव के घर में तो नहीं देखा था| खिड़की के पास एक दीवान, उसका अपना स्टडी टेबल! मैं बड़े चाव से उसका कमरा देख रहा था|
सुनीता: आपका नाम क्या है?
सुनीता ने बात शुरू करते हुए कहा|
मैं: मानु...और आपका?
मैंने हड़बड़ा कर उससे बेवकूफी भरा सवाल पुछा! जबकि उसका नाम अभी थोड़ी देर पहले ही ठाकुर साहब ने बताया था|
सुनीता: सुनीता!
ये कहते हुए वो मुस्कुराने लगी और मुझे मेरी ही बेवकूफी का एहसास हुआ!
मैं: कौन सी क्लास में पढ़ती हैं आप?
मैंने बात को संभालते हुए कहा|
सुनीता: जी ग्यारहवीं...और आप?
एक और बेवकूफी वाला सवाल! अब मैं भी क्या करता, मेरा दिमाग पहले से ही हिला पड़ा था! कहाँ तो मैं अपना ख़याली पुलाव खाना चाहता था और कहाँ मुझे एक अनजान लड़की के साथ एक आलिशान कमरे में भेज दिया गया था!
मैं: बारहवीं में...सब्जेक्ट्स क्या हैं आपके! मेरा मतलब विषय?
ये सुन सुनीता फिर से मुस्कुराई और बोली;
सुनीता: जी मैं समझ गई...कॉमर्स|
उसने मुस्कुराते हुए ही जवाब दिया| मैंने मन ही मन सोचा की इसे अंग्रेजी आती है...वाओ! जब से मैं गाँव आया था तब से सिवाए भौजी और डॉक्टर साहब के कोई मुझे नहीं मिला जो अंग्रेजी जानता हो| ऐसे में एक और शक़्स को मिल कर थोड़ा अच्छा लगा, वरना मैं तो अपना शहर भूलने ही लगा था!
मैं: cool!
मुझे नहीं पता था की मैं आगे क्या कहूँ, इसलिए मैंने छोटा सा जवाब दिया और फिर सुनीता के टेबल पर पड़ी उसकी एकाउंट्स की किताब उठा ली, इतने में सुनीता ने मुझसे पुछा;
सुनीता: और आपके?
मैं: कॉमर्स!
मैंने संक्षेप में जवाब दिया और अपना ध्यान उसकी किताब में लगा दिया| एकाउंट्स मेरा शुरू से ही मनपसंद विषय रहा है, ग्यारहवीं की T.S. Grewal मेरी मनपसंद किताब थी| आज इतने महीनों बाद उसे देख उसे फिर से पढ़ने का मन किया तो मैं उसी किताब के सुंदर पन्नों में व्यस्त हो गया| करीब 5 मिनट तक मैं उस किताब को बड़ी हसरत से देखने लगा, फिर मुझे एहसास हुआ की इस तरह मौन रहना ठीक नहीं| तो मैंने बात शुरू करने के इरादे से सुनीता से आँख से आँख मिलाते हुए पुछा:
मैं: तो कौन सा सब्जेक्ट बोरिंग लगता है आपको?
सुनीता: जो आपके हाथ में है|
मेरा ध्यान सुनीता की बात पर कम और उसके ऊपर ज्यादा था| अब जा कर मैंने उसे ठीक से देखा था, दिखने में वो बड़ी ही सीधी-सादी थी| फूलों वाला पीले रंग का सूट पहने, बालों में दो छोटी किये हुए, हसमुख सा चेहरा! खैर चूँकि मैं अवाक सा उसे देख रहा था तो उसने मेरा ध्यान भंग किया और इशारे से मेरे हाथ में रखी किताब की तरफ किया तब जा कर मुझे समझ आया|
मैं: एकाउंट्स? This is the easiest subject.
मैंने खुद को संभालते हुए कहा|
सुनीता: That's because you're good in it.
सुनीता ने अपने दोनों हाथ सामने की ओर बाँधते हुए कहा|
मैं: आपको बस Debit - Credit की चीजें पता होनी चाहिए| इसका बहुत ही आसान तरीका है, All you've to do is remember the golden rules of accounting:
1. Debit what Comes in and Credit what goes out!
2. Debit the receiver and credit the giver!
3. Debit all Expenses and Losses and Credit all Incomes and Gains!
मैंने अपना ध्यान किताब की ओर लगाते हुए कहा|
सुनीता: Easy for you to say!
उसने मुँह बनाते हुए कहा|
उसका मुँह बना देख मैं हँस पड़ा और वो भी मेरे संग हँस पड़ी| हमारी इस हँसी ने हमारे बीच में जो थोड़ी बहुत झिझक थी उसे खत्म कर दिया| अब चूँकि हम थोड़ा खुल चुके थे तो समय था अपने मन में उठ रहे सवाल का जवाब जानने का;
मैं: If you don't mind me asking, आपके पिताजी ने मुझे और आपको यहाँ अकेला भेज दिया है, कहीं यहाँ हमारी शादी की बात तो नहीं चल रही?
ये सुन सुनीता सन्न रह गई और बोली;
सुनीता: पता नहीं! पर मैं अभी शादी नहीं करना चाहती|
उसने घबराते हुए कहा|
मैं: मैं भी नहीं करना चाहता!!
उसकी बातों से साफ़ था की उसे इस सब के बारे में कुछ नहीं पता और ना ही वो शादी करने के पक्ष में है, ये जानकार मैंने राहत की साँस ली की ये बस मेरे मन का वहम था! मेरे इस सवाल से वो गंभीर हो गई थी तो मैंने उसका डर दूर करने के लिए इधर-उधर की बातें शुरू कर दी| मैंने उसकी हॉबी के बारे में पुछा तो उसने बताया की उसे 'गाना गाना' पसंद है| स्कूल से आ कर वो अपने घर की छत पर गाते हुए झूमती रहती है| इतने में ठकुराइन हम दोनों के लिए दूध ले आईं, मैं उस वक़्त सुनीता के स्टडी टेबल के पास खड़ा था और वो मुझसे 5 कदम दूर खिड़की के पास वाले दीवान के पास कड़ी थी| हमें खड़ा देख ठकुराइन बोलीं; "ओ लड़की, मेहमान का खड़ा रख के बतुआवा जात है? मुन्ना तुम बैठो और ई लिहो, दूध पियो|" उन्होंने मेरे सर पर हाथ फेरा और फिर बाहर चली गईं| उनके जाने के बाद हम दोनों फिर से स्कूल, सब्जेक्ट्स आदि विषयों पर पर बात करने लगे| बातों-बातों में पता चला की वो दिल्ली में ही पढ़ती है, मैंने भी उसे अपने स्कूल के बारे में बताया| उससे बातें करते हुए जो मैं उसके बारे में जान पाया वो ये था की, वो काफी हद्द तक मेरे टाइप की लड़की है| मतलब बातें काम करती है और हमारी बातों के दौरान उसने एक भी बार सेक्स, गर्लफ्रेंड, बॉयफ्रेंड आदि जैसे टॉपिक नहीं छेड़े| लेकिन मेरे दिल में उसके लिए कोई जज्बात नहीं थे और ना ही मन कुछ कह रहा था, दिल तो मैं पहले ही भौजी को दे चूका था| हाँ सुनीता से दोस्ती करने का मन जर्रूर कर रहा था, आजतक मैंने कोई भी लड़की दोस्त नहीं बनाई थी! खैर अपना दूध खत्म कर हम दोनों बाहर आ गए और वापस अपनी-अपनी जगह बैठ गए| हमारे आने के बाद भी सब अपनी बातों में लगे रहे, ये बातें खेती-पाती को ले कर थी इसलिए हम दोनों ही खामोश सर झुका कर बैठे सब सुनते रहे| करीब एक घंटे बाद पिताजी ने विदा माँगी, हालाँकि ठाकुर साहब बहुत जोर दे रहे थे की हम भोजन कर के जाएँ पर पिताजी ने क्षमा माँगते हुए 'अगली बार' का वादा कर दिया| ठाकुर साहब बातों से तो मुझे नरम दिखाई दिए, इसके आगे का मैं उनके बारे में कुछ नहीं जान सका और वैसे भी मुझे क्या करना था उन्हें जान के|
घर पहुँचे तो नेहा के स्कूल छूटने का समय हो गया था, इसलिए मैं उसे लेने चल दिया| स्कूल की घंटी बजी और नेहा भागती हुई आई, मैंने उसे गोद में ले कर खूब दुलार किया| जैसे सुबह मैं नेहा के गाल चूमते हुए उसे स्कूल छोड़कर आया था, वैसे ही उसके गाल चूमते हुए मैंने उस घर ले कर आया| मुझे नेहा को चूमते हुए देख भौजी मेरे पास आईं और प्यार भरा ताना मारते हुए बोलीं; "कभी हमें भी ऐसे प्यार कर लिया करो?" ये सुन नेहा भौजी को जीभ चिढ़ाने लगी, वो जानती थी की मैं सबसे ज्यादा उसे प्यार करता हूँ| नेहा की जीभ चिढ़ा कर भौजी को प्यार भरा गुस्सा आया और वो बोलीं; "इधर आ...तुझे बताऊँ मैं!" ये सुन नेहा छटपटाई और मैंने उसे नीचे उतार दिया, वो 7-8 कदम दूर भागी और फिर पीछे मुड़ कर भौजी को जीभ चिढ़ाने लगी| भौजी एकदम से उसके पीछे भागीं और दोनों माँ-बेटी घर में घुस गईं| कुछ देर बाद भौजी नेहा के कपडे बदल कर बाहर ले आईं, बाहर आते ही नेहा मेरी गोद में चढ़ गई| वरुण को आज रसिका भाभी ने बहुत डाँटा था, इसलिए वो मेरे पास नहीं आ रहा था बस छप्पर के नीचे तखत पर बैठा मुझे आस भरी नजरों से देख रहा था| मैंने उसे इशारे से बुलाया तो वो डर के मारे अपनी माँ को देखने लगा, मैंने नेहा को गोद से उतरा और उसे बैट-बॉल लाने को कहा| मैं छप्पर के नीचे आया और वरुण को गोद में लेने को अपने हाथ खोले तो रसिका भाभी उसे आँख दिखाते हुए बोलीं; "वरुण!" उनकी गुर्राहट सुन वो सर झुका कर बैठा रहा और मेरी गोद में नहीं आया| भौजी रसोई में घुसने ही वालीं थीं की उन्होंने रसिका भाभी का ये तमाशा देखा तो वो उन पर गुस्से चिल्लाईं; "काहे सुबह से ऊ (वरुण) का डाँटत है? वरुण जा अपने चाचा के पास, हम देखित है कौन तोहका रोकत है!" भौजी की झाड़ सुन रसिका भाभी गुस्से में उठ कर चली गईं| वरुण अपनी काकी (भौजी) की शाय पा कर तख़्त पर उठ खड़ा हुआ और मेरे सीने से लग कर रो पड़ा| मैं उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा ताकि वो चुप हो जाए, इतने में नेहा आ गई और जब उसने अपने छोटे भाई को रोते हुए देखा तो वो भी तख़्त पर कड़ी हो गई और उसके पीठ सहलाने लगी और बोली; "चुप हुई जाओ भैया!" मैंने दोनों बच्चों को एक साथ गोद में लिया और टहलते हुए दूकान आ गया, नेहा को चिप्स और वरुण को चॉकलेट दिलाई और फिर घर लौट आया| दोनों बच्चे पहले की तरह हँसने लगे थे और चॉकलेट तथा चिप्स बाँट कर खा रहे थे| बीच-बीच में दोनों चॉकलेट और चिप्स का एक-एक पीस मुझे भी खिला देते थे|
खाने का समय हुआ हम तीनों, पिता, पुत्री और भतीजे ने एक साथ खाना खाया| अब समय था पिताजी से अपने मतलब की बात करने का, मैंने दोनों बच्चों को चारपाई पर बिठाया और उन्हें वहीं बैठने को कहा, फिर मैंने भौजी को इशारे से अपने पास बुलाया; "याद है न सुबह मैंने क्या कहा था?" भौजी ने हाँ में सर हिलाया| "आप यहीं बच्चों के पास बैठों और यहाँ से उठ कर मत जाना, जब मैं बुलाऊँ तब भी आना| इतना कह मैं पिताजी जहाँ बैठे थे उस ओर चल दिया|
पिताजी और बड़के दादा एक चारपाई पर बैठे बातें कर रहे थे, उन्हें बीच में टोक नहीं सकता था इसलिए मैं भी वहीं बैठ गया| अब पिताजी समझ तो चुके थे की कोई बात अवश्य है पर मेरे कहने का इन्तेजार कर रहे थे| करीब पाँच मिनट बाद बड़के दादा को कोई बुलाने आया और वो चले गए, मैं और पिताजी अकेले बैठे थे इसलिए यही सही समय था बात करने का;
मैं: पिताजी....वो...आपकी मदद चाहिए थी?
मैंने संकुचाते हुए कहा|
पिताजी: हाँ बोल?
मैं: वो पिताजी....मैंने किसी को वादा कर दिया है|
ये सुन पिताजी एकदम से चौंक गए;
पिताजी: कैसा वादा? और किसको कर दिया तूने वादा?
उन्हें लगा की मैंने कहीं किसी को ऐसा-वैसा वादा तो नहीं कर दिया, इसलिए वो थोड़ा चिंतित नजर आये| मैंने फ़ौरन भौजी की तरफ ऊँगली से इशारा करते हुए कहा;
मैं: जी....मैंने उनको वादा किया है की मैं उन्हें और नेहा को अयोध्या घुमाने ले जाऊँगा, अकेले नहीं आपके और माँ के साथ|
पिताजी के सामने मुझे भौजी को भौजी न कहना पड़े, इसीलिए मैंने उन्हें आंगन में बच्चों के पास बिठाया था|
पिताजी: अच्छा तो?
पिताजी मुस्कुराते हुए बोले|
मैं: अब अकेले तो मैं जा नहीं सकता, तो आप ही प्लान बनाइये ना? प्लीज ...प्लीज.... प्लीज!!!
मैंने पिताजी को बाल्टी भर के मक्खन लगाया| पिताजी मेरे इतना मक्खन लगाने से पिघल गए ओर हँसते हुए बोले;
पिताजी: ठीक है, पर पहले अपनी भौजी को बुला, उससे पूछूँ तो सही की तू सच बोल रहा है या झूठ?
मैंने तो पहले से ही सारी तैयारी कर रखी थी, मैंने पिताजी के पास से ही बैठे हुए भौजी को हाथ के इशारे से अपने पास बुलाया| भौजी तो पहले से ही घूंघट काढ़े मुझे ही देख रही थी, जैसे ही मैंने इशारा किया वो तुरंत उठ कर आ गईं;
पिताजी: बहु मैंने सुना है की लाडसाहब ने तुम्हें वादा किया है की वो तुम दोनों माँ-बेटी को अयोध्या घुमाने ले जायेगा, ये सच है?
भौजी पिताजी की बात सुन कर हैरान हुई, वो तो घूंघट था इसलिए पिताजी उनके हाव-भाव नहीं पढ़ पाए|
भौजी: जी....पिताजी|
भौजी ने थोड़ा डरते हुए कहा| पिताजी का शक दूर हो गया था, इसलिए वो मेरी ओर देखते हुए मुस्कुरा कर बोले;
पिताजी: ठीक है बहु, हम सब कल जायेंगे| सुबह सात बजे तैयार रहना|
पिताजी की बात सुन भौजी चुप-चाप चलीं गईं| पर जाते-जाते मुड़ के मेरी ओर घूंघट काढ़े एक बार देखा जैसे पूछ रहीं हों की ये हो क्या रहा है? परन्तु ये समय उन्हें सब बताने का नहीं था, बल्कि मेरे प्लान के सबसे जर्रूरी हिस्से के लिए पिताजी को राजी करने का था|
मैं: पिताजी मैंने पता किया था की वहाँ घूमने के लिए बहुत सी जगहें हैं, कई घाट हैं और बहुत से मंदिर हैं| आप ही कहा करते थे की अयोध्या 14 कोस में फैला हुआ है, तो ऐसे में एक दिन में तो सब कुछ देख नहीं पाएंगे...तो हमें एक रात stay यानी रुकना होगा!
मैंने बड़े उत्साह से कहा|
पिताजी: ह्म्म्म्म्म... आजकल बहुत कुछ पता करने लगा है तू?
पिताजी मुझे चिढ़ाते हुए बोले| मैं झेंप गया और वहाँ से शर्मा कर भाग आया| अब सारा प्लान सेट था, हम रात वहाँ रुकेंगे, तीन कमरे बुक होंगे, एक में पिताजी और माँ, एक मेरा कमरा तथा एक कमरे में भौजी संग नेहा| रात को सब को सोने के बाद मेरा फुल चाँस भौजी के साथ रात गुजारने का| वो पूरी रात हम जी भर कर एक दूसरे को प्यार कर सकेंगे और मुझे आधी रात को उठ कर जाना भी नहीं पड़ेगा| इस तरह से भौजी की wish भी पूरी हो जाएगी और ये यादगार रात हमारे जीवन की सबसे हसीं रात होगी| लेकिन मुझे भौजी को इस रात रुकने की बात के बारे में भौजी को कुछ भी नहीं बताना था|
मैं नहीं जानता था की किस्मत को कहानी में कुछ और ही ट्विस्ट लाना है, ऐसा ट्विस्ट जो मुझे मेरी ही कमियों, मेरे अति आत्मविश्वास को मेरे सामने ला खड़ा करेगा|
मैं वापस आ कर बच्चों के पास बैठा खेल रहा था की भौजी ने मुझे इशारे से अपने घर के भीतर बुलाया| मैं सबकी नजर बचा कर उनके घर में घुसा तो देखा की भौजी आंगन में अपनी कमर पर दोनों हाथ रखे खड़ी हैं;
भौजी: आप जरा ये बताने का कष्ट करेंगे की अभी-अभी जो पिताजी ने कहा वो क्या था? आपने कब मुझसे वादा किया?
भौजी ने प्यार भरे गुस्से से पुछा;
मैं: यार मैं आपको और नेहा को घुमाना चाहता था, तो मैंने थोडा से जूठ बोला| That's it!!
भौजी ने मेरी आधी-अधूरी बात पर यक़ीन कर लिया|
भौजी: ओह्ह्ह्ह! तो ये सरप्राइज था!!! पर आपने ठीक नहीं किया, खुद भी माँ-पिताजी से जूठ बोला और मुझसे भी जूठ बुलवाया|
भौजी ने रूठते हुए कहा| मैं उनके नजदीक गया और उन्हें अपने सीने से लगाते हुए बोला;
मैं: यार कहते हैं ना, everything is fair in Love and War!!!
ये कहते हुए मैंने उन्हें कस कर अपने से चिपका लिया| मेरे जिस्म से लगते ही भौजी पिघलने लगीं पर मौके की नजाकत थी की हम इस वक़्त कुछ कर नहीं सकते थे!
दूसरी ओर पिताजी ने बड़के दादा, बड़की अम्मा और माँ से हमारे कल अयोध्या जाने की बात कर ली थी| पिताजी ने कोशिश की कि सारे चलें पर बड़के दादा और बड़की अम्मा ने मना कर दिया| इधर मैंने भौजी से थोड़ा बात घुमा कर ये कह दिया कि वो एक तौलिया और एक जोड़ी कपडे ले लें ताकि अगर घाट पर नहाना हो तो वो कपडे बदल सकें, उधर घर पर भी माँ ने हम तीनों के एक-एक जोड़ी कपडे ले लिए थे| कल का सरप्राइज खराब न हो, इसलिए मैंने भौजी को बड़े प्यार से समझाया की आज रात मैं और वो अलग-अलग सोयेंगे| ये सुन वो थोड़ा मायूस हुई पर फिर मैंने उन्हें कल मंदिर जाने का तर्क दिया तो वो जैसे-तैसे मान गईं|
शाम हुई और दोनों बच्चे मेरे साथ आँख में चोली खेलने लगे| अभी तक मैंने नेहा को जाने कि बात नहीं बताई थी, वरना वरुण भी जाने कि जिद्द करता| मुझे वरुण को साथ ले जाने में कोई दिक्कत नहीं थी, दिक्कत ये थी की उसके साथ चलने से मेरे और भौजी के प्रेम मिलन में बाधा आ जाती, इसलिए मैंने उसे न लेजाने का फैसला किया था| रात का खाना खा कर मैं आज पिताजी और बड़के दादा के पास सोया था| मेरे पास ही नेहा और वरुण दोनों लेटे थे, वरुण मेरी दाईं बगल लेटा और नेहा मेरी छाती पर सर रख कर लेटी थी| कहानी सुनते-सुनते वरुण तो सो गया पर नेहा अभी नहीं सोइ थी; "बेटा आपको पता है कल न हम अयोध्या घूमने जा रहे हैं|" ये सुन नेहा उठ कर बैठ गई, उसके चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान और दिल में ढेर सारी खुशियों कि फुलझड़ी छूटने लगी थीं| घूमने कि बात से वो इतनी खुश हुई कि उसने मेरे दोनों गालों पर पप्पियों कि बारिश कर दी| फिर मैंने उसे वहाँ देखने लायक सभी जगह के बारे में बताया तो वो बड़े गौर से मेरी बात सुनने लगी| नेहा खुश हो कर मेरी छाती से चिपक गई और मुस्कुराते हुए सो गई|
अगली सुबह 5 बजे मैं सम्भल कर उठा, नेहा अभी तक मेरी छाती पर चढ़ सो रही थी| जब पिताजी ने ये दृश्य देखा तो वो मुस्कुराते हुए मेरे पास आये और बोले; "बेटा रातभर ऐसे ही सोया था?" मैंने नेहा के सर को चूमा और बोला; "पिताजी ये मेरी लाड़ली बिटिया मेरे सीने पर सर रख कर सो गई, फिर मन नहीं किया की इसे उठा दूँ!" ये सुन पिताजी ने मेरे सर पर हाथ फेरा और मुझे तैयार होने को कहा| मैंने नेहा को ले कर भौजी के घर जा रहा था तभी भौजी मुझे खेतों से आती हुई दिखाई दीं| मुझे जल्दी उठा हुआ देख वो मुस्कुराने लगीं| मैंने नेहा के सर को 2-3 बार चूमा और नेहा की नींद खुल गई; "बेटा उठ जाओ आज घूमने जाना है न?!" ये सुनते ही नेहा की नींद काफूर हो गई और उसने मेरे दोनों गालों पर एक-एक पप्पी दी, तथा तैयार होने चली गई| पौने सात तक सारे तैयार हो चुके थे, जैसे ही मैं अपने कपड़े पहन और बैग उठा कर भौजी के घर के बाहर आया की तभी भौजी सर पर पल्ला किये हुए बाहर निकलीं| उन्हें सजा-संवरा देख मेरी आँखें उन्हीं पर तहर गईं, मुँह खुला रह गया और दिल जोरों से धड़कने लगा| सूती नारंगी रंग की साड़ी, माथे पर लाल रंग की बिंदी, माँग में लम्बा खींचा हुआ सिन्दूर, होठों पर मैरून रंग की लिपस्टिक, गले में मेरा पहनाया हुआ वो मंगलसूत्र तथा हाथों में प्लास्टिक की दो लाल चूड़ियां जैसी अगल-बगल सोने का पानी चढ़े हुए दो कंगन|
भौजी की सुंदरता ने मुझे मोहित कर दिया था, उधर भौजी भी मुझे तैयार देख आँखें ठंडी करने में लगी थीं| मैंने एक लाल रंग की चेक शर्ट और जीन्स पहनी थी तथा पाँव में लोफ़र्स पहने थे|
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"हाय!" भौजी ने ठंडी आह भरी तो मेरी तंद्रा भंग हुई| मैं आगे कुछ कहता उससे पहले ही मेरी लाड़ली दौड़ती हुई आ गई| अपनी माँ की ही तरह वो बहुत सूंदर लग रही थी, उसने आज एक सफ़ेद रंग की फ्रॉक पहनी थी जिसमें रंग-बिरंगी फूलों की पत्तियाँ बनी हुई थी| मैंने नेहा को गोद में उठाया और भौजी से बोला; "यार आप मान क्यों नहीं जाते? भाग चलो मेरे साथ, आपको इस तरह देखता हूँ तो मन बेईमान हो जाता है!" ये सुन भौजी लजाने लगीं, इतने में नेहा तपाक से बोल पड़ी; "हाँ मम्मी चलो न! आप मैं और पापा एकसाथ रहेंगे!" उसकी बात सुन मैं हँस पड़ा और भौजी ने उसकी पीठ पर प्यार से चपत लगाई और बोलीं; "चुप कर!" ये सुन नेहा भी खिलखिला कर हँसने लगी| "और आप भी इसके सामने ये सब मत बोला करो!" भौजी ने मुझे प्यार से डाँटा तो मैंने अपना एक कान पकड़ कर उन्हीं सॉरी बोला| मैंने नेहा को गोद में ले कर अभी पलटा ही था की भौजी पीछे से बोलीं; "वैसे भागने का आईडिया बुरा नहीं है!" ये सुन मैंने कदम से पलटा और हम तीनों ठहाका लगा कर हँसने लगे| "वैसे आप कुछ भूल नहीं रहे?" भौजी ने कहा और उनकी आँखों को देखते ही मैं समझ गया की उनका मतलब क्या है| "चलो भीतर!" इतना कह कर मैंने नेहा को गोद से उतारा और उसे बड़े घर भेज दिया| भौजी ने भी इधर-उधर देखा की हमें कोई अंदर जाते हुए न देख ले और फिर एकदम से अंदर आ गईं| उनके अंदर आते ही मैंने उन्हें कस कर अपने सीने से लगा लिया और उनकी आँखों में देखते हुए अपनी गुड मॉर्निंग वाली kiss की माँगी की| भौजी ने दोनों हाथों से मेरा चेहरा थामा और मेरे गाल पर एक छोटा सा kiss किया| "ये क्या? इतना छोटा सा kiss?" मैंने शिकायत करते हुए कहा| "आज मंदिर जा रहे हैं ना? कल सुबह आपको एक जबरदस्त वाली गुड मॉर्निंग वाली kiss दूँगी!" भौजी नहीं जानती थीं की कल सुबह उनकी मेरे ही पहलु में होगी!
तभी नेहा दौड़ी-दौड़ी आई और मुझे अपने साथ बड़े घर ले आई, वहाँ पहुँच माँ ने मुझे संभालने के लिए हजार रूपए दिए| दरअसल मेरी माँ कुछ ज्यादा ही सोचती हैं, जब भी हम किसी भीड़ भाड़ वाली जगह जाते हैं तो वो आधे पैसे खुद रखतीं हैं, आधे पिताजी को देती हैं और थोड़ा बहुत मुझे भी देती हैं, ताकि अगर कभी जेब कटे तो एक की कटे!! खैर अब घर से निकलने का समय हो रहा था, घडी सवा सात बजा चुकी थी तो हमने सबसे विदा ली और प्रमुख सड़क की ओर चल पड़े| माँ-पिताजी आगे-आगे थे, मैं और भौजी पीछे-पीछे थे| मेरी लाड़ली नेहा मेरी गोद में थी और सब से ज्यादा खुश वही थी| हम प्रमुख सड़क पर पहुँचे और वहाँ से जीप की जिसने हमें बाजार छोड़ा| वहाँ से दूसरी जीप की जिसने हमें अयोध्या छोड़ा, कुल मिला के हमें अयोध्या पहुँचने में दो घंटे का समय लगा| वहाँ पहुँच सब से पहले हम मंदिरों में घूमे, वहाँ बहुत भीड़-भडाका था तो मैंने नेहा को कस कर पकड़ रखा था, फिर मैंने नेहा को वहाँ की कथाओ के बारे में बताया जिसे भौजी भी बड़ी गौर से सुन रहीं थीं| जब से स्कूल में संक्षिप्त रामायण पढ़ी थी तब से ही मेरी अयोध्या घूमने में बड़ी रूचि थी|
घूमते-घूमते भोजन का समय हो गया, वहाँ एक ढंग का रेस्टुरेंट था जहाँ हम सब खाना खाने बैठ गए| टेबल पर हम इस प्रकार बैठे थे; एक तरफ माँ और पिताजी और दूसरी तरफ मैं, नेहा और भौजी| खाना आर्डर मैंने किया ओर आर्डर करते समय मैं नेहा से पूछ रहा था की उसे क्या खाना है, पिताजी मेरा बचपना देख हँस रहे थे| खाना आया और मैं नेहा को अपने हाथ से खिलाने लगा, भौजी ने घूंघट के नीचे से इशारे में मुझे कहा की वो नेहा को खाना खिला देंगी पर मैंने गदर्न न में हिला कर उन्हें मना कर दिया| घूँघट किये हुए भौजी के लिए खाना खाना बहुत मुश्किल था, इसलिए माँ उनसे बोलीं;
माँ: बहु घूंघट कर के कैसे खायेगी? सर पर पल्ला कर ले और आराम से खा|
पर भौजी पिताजी की शर्म कर रहीं थीं इसलिए कुछ बोलने से हिचक रही थीं|
पिताजी: देख बहु तू तो बेटी समान है|
पिताजी की बात को भौजी कैसे मना करतीं, उन्होंने घूंघटता लिया और सर पर पल्ला किये, नजरें झुकाये खाना खाने लगीं| अभी खाना चल ही रहा था की मैंने होटल की बात छेड़ दी;
मैं: पिताजी इस रेस्टुरेंट के सामने ही होटल है, चल के वहाँ कमरों का पता करें?
कमरों की बात सुन भौजी के दिल में तरंगे उठने लगीं, शायद वो मेरा पूरा सरप्राइज समझ चुकी थीं लेकिन फिर पिताजी ने कुछ ऐसा कहा की हम दोनों के पेट में उठ रही तितलियाँ एकदम से मर गईं!
पिताजी: नहीं बेटा हम यहाँ नहीं रुकेंगे|
पिताजी की बात सुन मैं अवाक रह गया और उनसे तर्क करने लगा;
मैं: पर क्यों? अभी तो बहुत कुछ देखना बाकी है?
परन्तु मेरे इस तर्क का उनपर कोई असर नहीं पड़ा|
पिताजी: फिर कभी आ जायेंगे!
ये कह कर उन्होंने मेरे ख़याली पुलाव वाला पतीला उल्टा कर दिया! मेरी हालत ऐसी थी मानो जैसे किसी ने मस्ती से तैरती हुई मछली को निकाल कर जलते तवे पर छोड़ दिया हो! मैं उस बेचारी मछली की भाँती मन ही मन छटपटा रहा था और पिताजी को दोष दे रहा था| अगर उन्हें रुकना ही नहीं था तो वो कल ही मुझे कह देते, कम से कम मैं इतने अरमान तो न ले कर आता यहाँ! ऐसा पहलीबार नहीं था की पिताजी ने मेरे अरमान कुचल दिए हों, पहले भी कई बार वो वादा कर के तोड़ दिया करते थे और मैं मन मसोस कर रह जाता था| मेरा सारा प्लान फ्लॉप हो चूका था, मन में बहुत गुस्सा भर आया था और मन कर रहा था की अभी भौजी को लेके भाग जाऊँ! मैंने सारा खाना अपनी बेटी को खिला दिया और खुद भूखा ही अपने गुस्से की आग में जलने लगा| वहीं भौजी मेरे चेहरे पर उड़ रहीं हवाइयाँ समझ चुकीं थीं, पर माँ-पिताजी की मौजूदगी के कारन खामोश थीं|
लेकिन मेरी किस्मत मुझे सबक सिखाने के लिए पूरी तरह तैयार थी|
खाना खा कर हम रेस्टुरेंट से निकले, धुप ज्यादा थी तो पिताजी ने कहा की चल कर घाट पर बैठते हैं| घाट की सीढ़ियों पर सारे बैठ गए, लेकिन मेरा तो मन उचाट हो गया था| अब तो मेरी ये उदासी नेहा ने पढ़ ली थी, उसने अपने नन्हे-नन्हे हाथों से मेरा चेहरा थामा और अपनी नाक मेरी नाक से रगड़ने लगी| उसका ऐसा करने से मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई, मैंने उसके दोनों गाल को चूम उसे प्यार किया| फिर मैं उसे गोद में ले कर उठ गया और टहलते-टहलते कुछ दूर आ गया| पिताजी ने पीछे से बहुत आवाजें दी पर मैंने गुस्से में आ कर उन्हें अनसुना कर दिया और चलते-चलते करीब 15 मिनट दूर आ गया| फिर वहाँ से चक्कर लगा कर जब लौटा तो पिताजी ने बहुत डाँटा पर उनकी इस डाँट का मुझ पर रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा| मेरे इस आधे घंटे के टहलने से समय काफी बर्बाद हुआ था, तभी पिताजी ने एक मंदिर की ओर जाने का निर्णय लिया ओर हम सब उनके पीछे-पीछे चलने लगे| माँ-पिताजी आगे थे तो भौजी को मुझसे बात करने का मौका मिल गया; "क्यों गुस्सा हो रहे हो?" भौजी ने मेरा दायाँ हाथ पकड़ते हुए कहा| मैंने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि मैं गुस्से से भरा हुआ था और उनपर अपना गुस्सा नहीं निकालना चाहता था| भौजी मेरा गुस्सा महसूस कर पा रहीं थीं पर मेरा गुस्सा कम करने को कुछ कर नहीं सकती थीं| हम मंदिर पहुँचे, जूते-चप्पल उतार के हमने दर्शन किये और वापस आ कर पिताजी ने घर चलने के लिए कहा| मंदिर से बस/जीप स्टैंड करीब २० मिनट दूरी पर था, माँ-पिताजी आगे-आगे चल रहे थे और मेरे पैर मुझे वापस ले जाना ही नहीं चाहते थे| इसीलिए मेरी चाल बहुत धीमी हो गई थी, मन कह रहा था जितना टाइम भी हम बाहर रहे उतना अच्छा| अब जाहिर था की मेरी चाल धीमे होने से भौजी को भी धीरे चलना पड़ रहा था, वहीं नेहा जो मेरी गोद में थी वो अपनी गर्दन घूमा-घूमा कर आस-पास लोगों को और गाड़ियों को देख रही थी| "जल्दी चल भई, घर नहीं जाना?" पिताजी पीछे मुड़ कर बोले| उन्हें लगा था की मैं और भौजी बातें करते हुए आ रहे हैं इसलिए हम धीरे चल रहे हैं| अभी तक उन्होंने मेरा सड़ा हुआ चेहरा नहीं देखा था, वरना वो आज अच्छे से झाड़ सुनाते!
उसी दिन वाराणसी में 'संकट मोचन हनुमान मंदिर' और उसके आस-पास बम धमाका हुआ था, अयोध्या से वाराणसी की दूरी यही कोई चार घंटे के आस-पास की होगी, रेल से तो ये और भी काम है| वहाँ जब ये घटना घटी तो उसका सेंक अयोध्या तक आया, खबर फ़ैल गई की वाराणसी में बम धमाका हुआ है और इसके चलते अनेक श्रद्धालु भड़क गए जिस के चलते अयोध्या में चौकसी बढ़ा दी गई| पुलिस ने सबकी चेकिंग शुरू कर दी, भगदड़ के हालत बनने लगे, तभी किसी बेवकूफ ने बम की अफवाह फैला दी| ये अफवाह फैलते ही भीड़ को रोक पाना मुश्किल हो गया, हम जहाँ थे वहाँ भी एक मंदिर था और वहाँ के हालत पलभर में ही बेकाबू हो गए, जितने भई लोग मंदिर में थे या दर्शन कर के आये थे सब एक झुण्ड में दौड़ पड़े| हल्ला मचा, शोर मचा और इस मेरी बेटी बहुत डर गई तथा अपना चेहरा मेरे कंधे पर रख रोने लगी| "बस बेटा, घबराते नहीं! पापा है न आपके साथ!" नेहा को चुप कराने के कारन हमारे और माँ-पिताजी के बीच फासला बढ़ता चला गया| पीछे से आये भीड़ के सैलाब ने हमें अलग कर दिया, फासला इतना भी नहीं था क्योंकि मैं उन्हें कुछ दूरी पर दिक्घ पा रहा था| अगर मैं चाहता तो हम तीनों भीड़ के बीच से निकल कर माँ-पिताजी से वापस मिल सकते थे, पर नाजाने मुझ पर क्या सनक सवार हुई की मैंने भौजी का हाथ कस कर पकड़ लिया और मैं धीरे-धीरे पीछे कदम बढ़ाने लगा| पिताजी ने बड़ी मुश्किल से पीछे मुड़ कर मुझे देखा, उन्हें लगा की भीड़ के बहाव के कारन मैं उनसे दूर होता जा रहा हूँ| वो नहीं जानते थे की मेरे दिमाग में अलग ही सनक चल रही थी, मुझे बस मेरा प्लान successful करना था और कुछ नहीं| इधर भौजी परेशान हो कर मेरा मुँह ताक रहीं थीं, क्योंकि वो भी नहीं समझ पा रहीं थीं की भला मैं क्यों उन्हें आगे ले जाने के बजाए पीछे की ओर कदम बढ़ा रहा हूँ?! हमारे पीछे से भीड़ का एक बहुत बड़ा सैलाब आ रहा था, जैसे ही मैंने उस भीड़ को देखा तो मैंने भौजी का हाथ पकड़ा ओर एक संकरी सी गली में घुस गया| तेजी से चलते हुए हमने वो गली पार की, गली पार कर मैं इधर-उधर देखते हुए कुछ सोचने लगा तभी भौजी ने घबराते हुए सवाल किया;
भौजी: माँ-पिताजी तो आगे रह गए?
मैं: हाँ!
मैंने बिना उनकी तरफ देखे ही कहा| आस-पास सब घर ही थे, सिवाए आगे जाने के और कोई रास्ता नहीं था सो हम आगे बढ़ चले| कुछ दूर पर मुझे कुछ होटल और धर्मशाला के बोर्ड नजर आये तो मैंने भौजी का हाथ पकड़ कर उस ओर जाने का इशारा किया| मुझे लगा था की यहाँ हम सुरक्षित रहेंगे पर तभी एक जवान लौंडों का झुण्ड लठ ले कर उस गली में घुसा| हमारे सामने जो सबसे पहला होटल पड़ा मैंने उसका शटर पीटना शुरू कर दिया पर किसी ने नहीं खोला, मैंने एक बार पलट के उस झुण्ड को देखा तो वो काफी नजदीक आ चूका था| ये दृश्य देख मेरी हालत ख़राब हो गई, पर मैंने अपने हाथ-पैर फूलने नहीं दिए और भौजी का हाथ पकड़ के दूसरे होटल की तरफ दौड़ा| नेहा मेरी घबराहट समझने लगी थी इसलिए वो रोने लगी थी, इधर मैंने दूसरे होटल का दरवाजा पीटा पर यहाँ भी किसी ने दरवाजा नहीं खोला, मैंने वहाँ एक सेकंड और बर्बाद नहीं किया और दौड़ कर तीसरे होटल के दरवाजे को गुस्से से पीटा और चिल्ला कर बोला; "दरवाजा खोला! ...हमारी मदद करो! मेरे साथ मेरे बीवी बच्चे हैं!" मेरे इस चिल्लाने का असर हुआ और एक बुजुर्ग से अंकल जी ने दरवाजा खोला और बोले; जल्दी अंदर आओ!" मैंने भौजी का हाथ थामा और हम उस होटल में घुस गए और अंकल जी ने फटाफट दरवाजा बंद कर लिया|
मैं: Thank You अंकल जी|
मैंने फूलती हुई सांस को काबू में किया और बोला;
मैं: हम यहाँ घूमने आये थे और अचानक भगदड़ में अपने माँ-पिताजी से अलग हो गए, क्या आपके पास फ़ोन है?
मेरी घबराई हालत देख उन्होंने मुझे फ़ोन दिया, तथा अपनी पत्नी को बोल कर पानी मंगवाया| भौजी ने नेहा को अपनी गोद में लिया और उसे पानी पिलाने लगीं, इधर मैंने तुरंत पिताजी का मोबाइल नंबर मिलाया|
मैं: पिताजी...मैं मानु बोल रहा हूँ|
मैंने घबराते हुए कहा| उधर मेरी आवाज सुन उनकी जान में जान आई और वो चिंतित होते हुए बोले;
पिताजी: बेटा...कहाँ है तू बेटा? ठीक तो है ना?
मैं अब फ़ोन ले कर थोड़ा दूर आ गया था;
मैं: पिताजी हमने यहाँ एक धर्मशाला में शरण ली है| आप लोग ठीक तो हैं ना?
मैंने जान बूझ आकर उन्हीं होटल की जगह धर्मशाला कहा|
पिताजी: हम ठीक हैं बेटा...भीड़ के धक्के-मुक्के में हम टैक्सी स्टैंड तक पहुँच गए और यहाँ पुलिस वाले किसी को रुकने नहीं दे रहे| उन्होंने मुझे और तेरी माँ को जीप में बिठा कर भेज दिया है| तु भी जल्दी से वहाँ से निकल!
पिताजी ने बहुत घबरा कर कहा|
मैं: पिताजी ....पूरी कोशिश करता हूँ पर मुझे यहाँ हालत ठीक नहीं लग रहे| भगवान न करे अगर दंगे वाले हालत हो गए तो हम तीनों फँस जाएंगे?.
मेरी बात सुन पिताजी और डर गए|
पिताजी: नहीं...नहीं...नहीं..तुम वहीं रुको और जैसे ही हालत सुधरें वहाँ से निकलो|
मैं: जी|
पिताजी: लेकिन बेटा निकलने से पहले फोन करना|
मैं: जी जर्रूर|
बस इतनी ही बात हुई और फिर फ़ोन काट गया क्योंकि पिताजी के फ़ोन की बैटरी खत्म हो गई थी| मैं फ़ोन ले कर अंकल जी के पास लौटा और उनसे बोला;
मैं: अंकल जी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, आपने ऐसे समय पर हमारी मदद की!
मैंने हाथ जोड़ कर उनका शुर्किया अदा किया|
बुजुर्ग अंकल: अरे बेटा मुसीबत में मदद करना ही तो इंसानियत का धर्म है|
मैं: अच्छा अंकल जी, कल सुबह तक यहाँ कमरा मिलेगा?
बुजुर्ग अंकल: हाँ ..हाँ जर्रूर| ये लो रजिस्टर और अपना नाम पता भर दो|
अंकल जी ने मेरी तरफ अपने होटल का रजिस्टर बढ़ा दिया| मैंने रजिस्टर में Mr. and Mrs. मानु मौर्या लिखा और पता अपना दिल्ली वाला लिखा|
आंटी: और इस प्यारी सी गुड़िया का नाम क्या है?
उन्होंने नेहा की तरफ इशारा करते हुए पुछा|
मैं: जी नेहा!
आंटी ने नेहा के गाल को छु कर अपनी उँगलियाँ अपने होठों पर रख कर उसकी पप्पी ली, इधर मेरी प्यारी गुड़िया जो अभी तक घबराई हुई थी वो हम मुस्कुराने लगी थी| उसने मेरे पास आने के लिए अपने हाथ खोल दिए और मैंने उसे अपनी छाती से लगा कर उसके सर को चूमा| बाप-बेटी का प्यार देख बुजुर्ग अंकल जी मुस्कुरा दिए और मुझे कमरे की चाभी दी| होटल का किराया 400/- था और मेरे पास माँ के दिए हुए 1,000/- रूपए थे| हमारा कमरा सेकंड फ्लोर पर था और एक दम कोने में था| जब हम कमरे में घुसे तो कमरे में एक सोफ़ा था, AC था, TV था और एक डबल बैड था| इतने साल बाद TV देख नेहा खुश हो गई, मैंने उसे कार्टून लगा के दिया, वो सोफे पर आलथी-पालथी मार के बैठ गई और मजे से कार्टून देखने लगी| मैं भी उसकी बगल में बैठ गया और अपने घुटनों पर कोहनी रख के अपना मुँह हथेलियों में छुपा के कुछ सोचने लगा|
हर इंसान के दो व्यक्तित्व (personality) होते हैं, एक अच्छी और एक बुरी| जब हम कोई फैसला लेते हैं तो इन्हें दोनों व्यक्तित्वों में से एक व्यक्तित्व वो फैसला लेता है| जो लोग मन से साफ़ होते हैं, जिन्होंने आज तक कोई गलत काम नहीं किया होता वो जब कोई गलत फैसला लेते हैं या ये कहें की उनका गलत व्यक्तित्व उनसे गलत फैसला करवाता है तो उनका अच्छा व्यक्तित्व एक बार उन्हें टोकता है! जो इस टोकने से सम्भल जाते हैं वो गलत काम करने से बच जाते हैं परन्तु जो अनसुना करते हैं वो बाद में बहुत पछताते हैं| कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ, उस समय जब भगदड़ मची थी तब यदि मैं चाहता तो भौजी को उन हालातों से निकाल कर पिताजी तक पहुँच सकता था, परन्तु मेरे निजी स्वार्थ ने मुझे ऐसा नहीं करने दिया| इस वक़्त मैं अपने उसी फैसले पर अफ़सोस कर रहा था, जिन हालातों से मैं लड़कर भौजी और नेहा को अपने साथ इस होटल के कमरे तक लाया था वो ही मेरी परेशानी का सबब बन रहा था| मैंने अपने निजी स्वार्थ के चलते चार-चार जिन्दगियाँ दाव पर लगा दी थीं, माँ, पिताजी, भौजी और नेहा इनमें से अगर किसी को कुछ हो जाता तो मैं कभी खुद को माफ़ नहीं कर सकता था! माँ-पिताजी तो सुरक्षित घर पहुँच रहे होंगे पर नेहा और भौजी का क्या? अचानक ही मेरे अंतर्मन में एक जंग छिड़ गई, मेरा अहम् मेरे दिमाग के साथ मिल कर तर्क करने लगा की मैंने जो किया वो सही किया परन्तु मेरी अंतरात्मा जानती थी की मैंने जो किया वो कितना बड़ा पाप था!
अहम: क्या गलत किया मैंने? पिताजी से कहा था न रुकने को पर उन्हें तो मेरी बात न मानने में मजा आता है| बचपन में जब भी उनसे किसी खिलोने की माँग करता था तो पहले हाँ कहते और बात में टाल देते!
अंतरात्मा: क्या बचपना कर रहा है! खिलोने और असली जिंदगी में कोई फर्क है या नहीं?
अहम: तो क्या करता? प्यार करता हूँ उनसे (भौजी से) और फिर उन्होंने ही तो कहा था|
अंतरात्मा: उन्होंने (भौजी ने) बस एक इच्छा जाहिर की थी, ये नहीं कहा था की जान का खतरा मोल ले कर मेरी (भौजी की) ख्वाइश पूरी करो!
अहम: दिक्कत क्या है? पहुँच गए न हम होटल!
अंतरात्मा: कैसे पहुँचे वो जानता है न? फटी पड़ी थी तेरी कुछ देर पहले! क्या गारंटी है की कल सुबह तक सब ठीक हो जायेगा? अगर नहीं हुआ तो क्या करेगा तू? कहाँ जाएगा? कैसे संभालेगा अपने प्यार और अपनी बेटी को? बड़ा तीसमारखाँ बनता था न की मैं आपको (भौजी को) भगा कर ले जाऊँगा, जरा सी देर में तो तेरी हालत ख़राब हो गई और जीवन भर उन्हें अपने साथ रखने की बात करता है? आज तो माँ के दिए हुए पैसे हैं पर अगर भगा कर ले जाता तो क्या खिलाता उन्हें? कहाँ रखता? है कोई इन सवालों का जवाब तेरे पास?
इन शूल से पैने शब्दों ने मेरे अहम् को खतम कर दिया था, उस दिन मुझे सच में मेरी औकात पता चली थी! बातें करने और कर्म करने में बहुत फर्क होता है, बातें करने में बस जुबान चलती है और कर्म करने में मेहनत लगती है| वो दिन मेरी जिंदगी का ऐसा दिन था जिसने मुझे असली जिम्मेदारी लेने का मतलब सिखाया था|
इन ख्यालों ने मुझे तोड़ कर रख दिया था, मेरा गर्व और आत्मविश्वास सब चकना चूर हो चूका था| उस समय मुझे एक सहारा चाहिए था, जो मुझे वापस उठ कर खड़ा होने में मदद करे और वो सहारा मेरे पास ही मौजूद था|
भौजी कब दरवाजा बंद करके मेरे सामने बैठीं मुझे पता ही नहीं चला, क्योंकि मैं अपने आप से ही लड़ने में व्यस्त था| उन्होंने मुझे 3-4 बा पुकारा पर मैं कुछ नहीं बोला, हारकर वो मेरी बगल में बैठ गईं, उन्होंने अपना दायाँ हाथ मेरे बाएं कंधे पर रखा और मुझे अपनी ओर खींचा और मैं उनकी गोद में सर रख के एक पल के लिए लेट गया| उनकी गोद में सर रखते ही परेशान दिल को थोड़ा सकून मिला| उस वक़्त मैं भौजी से अपनी ये बेवकूफी छुपाना चाहता था, इसलिए मैंने दो मिनट में उठ बैठा और बात शुरू करते हुए उनसे बोला;
मैं: आप चाय लोगे?
पर भौजी ने मेरी दुखती रग पकड़ ली थी इसलिए वो मेरे झांसे में नहीं आईं और अपना सवाल किया;
भौजी: पहले आप बताओ की क्या हुआ आपको?
पर मैं वहाँ नहीं रुक सकता था, इसलिए मैं उठ खड़ा हुआ;
मैं: कुछ नहीं, मैं अभी चाय बोलके आता हूँ|
इतना कह के मैं दरवाजे की तरफ चल दिया|
भौजी: नहीं चाय रहने दो, रात को खाना खाएंगे|
मैं भौजी की ओर मुड़ा और नकली मुस्कान लिए बोला;
मैं: आप बैठो मैं अभी आया|
मैं कमरे से बाहर आया ओर लम्बी-लम्बी सांसें ली ताकि मैं अपनी ये घबराहट, ये डर भौजी से छुपा सकूँ| मेरी ये घबराहट देख मेरी पत्नी ओर बच्ची दोनों ही हिम्मत छोड़ देते और फिर मेरे लिए उन्हीं संभालना मश्किल हो जाता! मैं नीचे गया और दो कप चाय और ने के लिए एक गिलास दूध बोल आया, वापस कमरे में आके मैंने दरवाजा बंद किया और भौजी से दूर पलंग पर अकेला लेट गया|