[color=rgb(251,]सत्रहवाँ अध्याय: दोस्ती और प्यार[/color]
[color=rgb(97,]भाग - 4[/color]
[color=rgb(44,]अब तक आपने पढ़ा:[/color]
नेहा: ममम...पापा जी आप कहाँ चले गए थे?
नेहा ने मेरी ओर देखते हुए पुछा|
मैं: बेटा..... मैं बाथरूम गया था|
मैंने झूठ बोला, अब उसे कैसे समझताकी मैं कहाँ गया था?!
मैं: क्या हुआ आपने फिर से कोई बुरा सपना देखा?
मैंने नेहा के माथे को चूमते हुए पुछा तो नेहा ने हाँ में सर हिला दिया|
मैं: सॉरी बेटा...मैंने आपको अकेला छोड़ा| आगे से मैं आपको कभी अकेला नहीं छोड़ूँगा!
मैंने नेहा के दोनों गालों की पप्पी ली और फिर उसका मन खुश करने को एक प्याली-प्याली कहानी सुनाई, जिसे सुनते-सुनते नेहा मेरी छाती से चिपकी सो गई!
[color=rgb(226,]अब आगे...[/color]
सुबह जब मेरी आँख खुली तो नेहा अब भी मुझसे चिपकी हुई सो रही थी, मैं us की पीठ थपथपाने लगा और इतने में भौजी आ गई;
भौजी: नेहा...चल उठ जा!
भौजी ने नेहा को उठाना चाहा परन्तु मैंने उन्हें रोक दिया;
मैं: रहने दो, बिचारी कल रात बहुत डर गई थी!
भौजी: क्यों?
भौजी ने भोयें सिकोड़ते हुए पुछा|
मैं: बुरा सपना देख कर उठ गई थी! मैं जब आया तो ये जाग रही थी, जैसे ही मैं लेटा, मुझसे चिपक गई और पूछने पर बताया!
भौजी को ये सुन कर थोड़ा दुःख हुआ और वो बड़े प्यार से उसे उठाने लगीं;
भौजी: ओ गुड़िया... उठो! स्कूल नहीं जाना है!
इस बार भौजी की आवाज सुन नेहा थोड़ा कुनमुनाई;
नेहा: उम्म्म्म....!
मैंने भौजी को हाथ से इशारा किया की आप जाओ मैं उठाता हूँ| मैं बड़ी सावधानी से नेहा को थामे हुए उठा और उसे अपनी छाती से चिपकाए थोड़ा टहलने लगा|
मैं: गुड़िया... ओ ...मेरी गुड़िया!! उठो...आप को स्कूल जाना है न?
मेरी प्यार-भरी आवाज सुन नेहा अपनी आँखें मलते हुए उठी, उसने फ़ौरन मेरी नाक पर kiss किया और मुस्कुरा दी! हम दोनों अपनी नाक एक दूसरे के साथ रगड़ने लगे और नेहा खिलखिला कर हँसने लगी! उधर भौजीबाप-बेटी का दुलार देख रहीं थी और मुस्कुरा रहीं थी| मैंने नेहा को अपनी गोद से उतरा और वो दौड़ती हुई जाके अपनी मम्मी के गले लगी और उनकी नाक पर मेरी ही तरह kiss किया! भौजी नेहा को गोद में लिए हुए अपने घर के भीतर चली गईं और उसे स्कूल जाने के लिए तैयार किया, इधर मैं भी फटाफट तैयार हुआ तथा नेहा को गोद में ले कर स्कूल पहुँचा| नेहा को छोड़ मैं घर लौटने ही वाला था की मुझे हेड मास्टर साहब मिल गए;
हेडमास्टर साहब: अरे भई मानु साहब! भई हमें पता चला वहाँ अयोध्या में क्या-क्या हुआ, जिस तरह आपने नेहा और अपनी भाभी की रक्षा की वो काबिल-ऐ-तारीफ है!
मुझे अपनी तारीफ सुनने का कोई शौक नहीं था सो मैंने एक डीएम से बात घुमा दी;
मैं: हेडमास्टर साहब वो सब छोड़िये! ये बताइये की मेरी गुड़िया रानी पढ़ाई में कैसी है?
हेडमास्टर साहब: भई अंग्रेजी में कहावत है 'Like Father Like Daughter!'
वो आगे कुछ कहते उससे पहले ही मैं एकदम से बोल पड़ा;
मैं: जी अपने सही कहा, नेहा अपनी मम्मी पर गई है! वो भी पढ़ाई में बहुत होशियार थीं!
हेडमास्टर साहब: अच्छा? कितना पढ़ीं हैं वो?
मैं: जी दसवीं तक, फिर उनकी शादी हो गई....और...
मैंने बात अधूरे में ही छोड़ दी! हेडमास्टर साहब समझ गए और उन्होंने बात को आगे कुरेदा नहीं|
हेडमास्टर साहब: आपकी भतीजी पढ़ाई में बहुत होशियार है!
हेडमास्टर साहब मुस्कुरा कर बोले, उनके मुँह से अपनी बेटी की बढ़ाई सुन मेरा सीना गर्व से फूल गया|
खैर मैंने हेडमास्टर साहब से विदा ली और घर पहुँचा| जैसे ही मैं कुएँ के पास वाले आंगन में दाखिल हुआ तो पाया की पिताजी परेशान हैं और दाएँ से बाएँ चक्कर काट रहे हैं| मुझे देखते ही उन्होंने कहा;
पिताजी: आ बेटा बैठ!
मैं फ़ौरन उनके साथ चारपाई पर बैठ गया|
पिताजी: मैंने अभी ठाकुर साहब को यहाँ खबर भिजवाई है, वो अभी अपनी बेटी के साथ आते ही होंगे| तू खुद उनकी बात इत्मीनान से सुन और खुद फैसला कर!
मैं: मैं? पर घर के बड़े तो आप लोग हैं, फिर भला मैं फैसला कैसे करूँ?
मैंने घबराते हुए कहा|
पिताजी: बेटा तु बड़ा हो गया है और समझदार भी, मुझे पूरा यकीन है की तु जो भी फैसला करेगा वो बिलकुल सही फैसला होगा!
पिताजी ने इतने आत्मविश्वास से कहा की मैं उनकी बात में बँध गया! वो मुझसे अपेक्षा रखते थे की मैं सही फैसला लूँ जबकि एक तरफ मेरा प्यार है और दूसरी तरफ मेरी जिंदगी| फिलहाल के लिए मैंने हाँ में सर हिला के उन्हें सहमति दी की मैं सही फैसला ही लूँगा, मैं उनके पास से बिना कुछ कहे बड़े घर आ गया और तैयार हो के आँगन में चारपाई पर बैठ गया| मैंने अपना मन शांत किया और मुझे क्या-क्या तर्क रखने हैं उनके बारे में सोचते हुए आसमान की ओर देखने लगा| अभी मैंने एक-एक कर तर्कों के बाण अपने तर्कश में रखे ही थे की रसिका भाभी आ गईं;
रसिका भाभी: मानु भैया, तुम काहे दीदी को सब कुछ बताये दिये?
वो मुझसे तुनक कर बोलीं, अब मैंने कोई गलती तो थी नहीं की मैं उनकी ये बात सुनते इसलिए मैंने भी तुनक कर जवाब दिया;
मैं: क्योंकि मैं अपने मन में मैल भर के नहीं रख सकता!
मेरी जवाब सुन रसिका भाभी मगरमछ के आँसूँ बहाने लगीं और बोलीं;
रसिका भाभी: अब तो हमार हियाँ कउनो हमदर्द ही नहीं बचा| सबजन मिलके हमका ई घर से निकाल देब!
मुझे उनके इस दिखावटी आँसुओं में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी इसलिए मैंने बड़े रूखेमन से कहा;
मैं: ये सब आपको उस दिन सोचना चाहिए था जब आप पर हैवानियत सवार थी|
ये सुन रसिका भाभी का सर झुक गया|
मैं: खेर आप यहाँ किस लिए आय थे?
उनकी उपस्थिति मुझे चुभ रही थी सो मैंने चिढ़ते हुए कहा|
रसिका भाभी: काका बुलावत हैं|
उन्होंने ने सर झुकाये हुए कहा|
मैं: कह दो आ रहा हूँ|
इतना सुन वो फ़ौरन सर झुकाये लौट गईं| मैं उठा, मुँह अच्छे से धोया और अपने दिल को काबू में कर बड़े घर से निकला| आज मुझे मेरी जिंदगी का सबसे जर्रूरी फ़ैसला लेना था, ऐसा फ़ैसला जिसपर 4-4 जिन्दगियाँ निर्भर थीं| भौजी की, हमारे होने वाले बच्चे की, सुनीता की और मेरी! एक गलत फैसला और ये सब एकसाथ प्रभावित होते! कोई टूट जाता, कोई शायद पैदा नहीं हो पाता, कोई शायद पढ़ नहीं पाता और कोई अपना सब कुछ खो देता!
दो मिनट बाद मैं कुएँ के पास वाले आँगन में पहुँच, वहाँ दो चारपाइयाँ बिछी हुई थीं| एक पर ठाकुर साहब और सुनीता बैठे थे और एक पर पिताजी और बड़के दादा| मैं पिताजी वाली चारपाई पर उनके और बड़के दादा के बीच बैठ गया और तब मैंने सुनीता की ओर देखा, वो बहुत घबराई हुई थी और सर झुका कर बैठी हुई थी|
ठाकुर साहब: तो कहिये भाई साहब (मेरे पिताजी) का शादी की तरीक पक्की करने बुलायो है?
ठाकुर साहब ने हँसते हुए बात शुरू की|
पिताजी: नाहीं ठाकुर साहब! कछु बातें साफ़ करेक आपको कष्ट दिये हैं|
पिताजी ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा|
ठाकुर साहब: कइसन बात?
ठाकुर साहब ने भी थोड़ा गंभीर होते हुए पुछा|
पिताजी: आप हम से कह्यो रहे की सुनीता बिटिया ई सादी के लिए राज़ी है, पर जब मानु ऊ से पूछा रहा तो बिटिया सादी नाहीं करना चाहत रही!
पिताजी ने बिना बात गोल घुमाये सीधा पूछी|
ठाकुर साहब: नाहीं-नाहीं अइसन तो कउनो बात नाहीं! हमार बेटी ई सादी के लिए बिलकुल तैयार है!
ठाकुर साहब ने बड़े गर्व से कहा|
पिताजी: यही बात हम बिटिया के मुँह से सुना चाहित है|
पिताजी ने मुद्दे की बात कही|
ठाकुर साहब: देखिये भाई साहब, ई हमार बिटिया है| हम ई का बड़े नाजों से पलेन है, ई हमरी मर्जी के खिलाफ न जाई! हम जहाँ कहब, जिससे कहब ई चुप्पे उससे सादी कर लेइ! सहर मा जर्रूर पढ़ी है परन्तु हमार कहा कभौं न टाली!
ठाकुर साहब ने पिताजी की बात से बचते हुए कहा, पर उनकी ये बात मुझे बहुत चुभी! आज्ञाकारी तो मैं भी था परन्तु शादी जैसी बात मेरे और सुनीता के जीवन से जुडी थी और इसका फैसला हमें लेना चाहिए न की हमारे माता-पिता को!
पिताजी: ठाकुर साहब, सादी बच्चों का करेक है और इन्हीं दोनों का निभाएक भी है, तो बेहतर होई की हम इनका फ़ैसला करे दें न की आपन फैसला इन पर थोंप दें! एक बार सुनीता बिटिया आपन मन की कह देई तो हम सब का ख़ुशी होइ!
मैं हैरान पिताजी की बातें सुन रहा था, मेरे पिताजी परिवार में दब-दबा बना के रखते थे वो आज हम बच्चों पर फैसला छोड़ रहे हैं? इसकी वजह तो पूछनी बनती है ...पर अभी नहीं! उधर पिताजी की बात सुन सुनीता बेचारी सोच में पड़ गई, उसके लिए तो जैसे आगे कुआँ और पीछे खाईं! लेकिन ठाकुर साहब ने सुनीता को बोलने का मौका नहीं दिया और खुद ही हमसे सवाल पूछ लिया;
ठाकुर साहब: ठीक है...पर पहले हम ई जानना चाहित है की क्या आप सभये को हमार बिटिया पसंद है?
उनकी बात सुन पिताजी फ़ौरन बोले;
पिताजी: जी बिलकुल है! परन्तु बच्ची की बात सुनना भी तो जर्रुरी है!
अब ठाकुर साहब के पास कोई तर्क नहीं था, इसलिए वो बोले;
ठाकुर साहब: चल भई अब तुहुँ बोल दे की तोहरे मन में का है?
ठाकुर साहब ने सुनीता की पीठ थपथपाते हुए कहा, उनका ये पीठ थपथपाना सुनीता के लिए एक चेतावनी थी| ठीक ऐसी ही चेतावनियाँ मुझे बचपन में मिलती थीं जब कोई मेहमान घर पर आता था और जाते समय मुझे पैसे देता था| पिताजी की वो थपकी ऐसा डर पैदा करती थी की मैं चाहते हुए भी कभी किसी से पैसे नहीं लेता था! अब चूँकि में ठाकुर साहब की ये हरकत भाँप चूका था इसलिए मैंने डर से काँप रही सुनीता को होंसला देते हुए कहा;
मैं: डरो मत सुनीता, बोल दो सच! मैं जानता हूँ की तुम आगे पढ़ना चाहती हो....
मैं आगे कुछ बोलता उससे पहले ही ठाकुर साहब हँसते हुए बोले;
ठाकुर साहब: तो हम कहाँ पढ़ने से मना किहिन है?
मैंने ठाकुर साहब की बात पर ध्यान नहीं दिया और सुनीता के चेहरे पर नजरें टिकाये बैठा रहा, लेकिन सुनीता अब भी चुप-चाप थी| अपनी बेटी की ख़ामोशी देख ठाकुर साहब ने उसकी पीठ पर हाथ रखा और उनके हाथ रखते ही सुनीता घबरा कर बोल पड़ी;
सुनीता: जी मुझे... कोई ऐतराज नहीं!
सुनीता ने बिना नजरें उठाये कहा था, वहाँ बैठा कोई भी इंसान सुनीता का डर नहीं देख पा रहा था, लेकिन मैं उसका डर अच्छे से जानता था|
ठाकुर साहब: देखयो भाई साहब! हम कहत रहन की हमार बिटिया हमका कभौं नीरास न करी!
ठाकुर साहब ने बड़े गर्व से कहा, इधर उनकी देखा देखि पिताजी भी बड़े गर्व से मुझसे बोले;
पिताजी: चल भई अब तू भई अपना फैसला सुना दे?
पिताजी ने थोड़ा मजाक करते हुए कहा| वो उम्मीद कर रहे थे की मैं भी शादी के लिए हाँ कहूँगा पर मैं अब बड़ी गहन सोच में पड़ गया था|
अब सारी बात मुझ पर आ टिकी थी, इतने में चन्दर और अजय भैया भी मामा के घर से लौट आये थे और घर में चल रही बैठक में सीधा आके शामिल हो गए| अजय भैया पिताजी की बगल में बैठ गए जबकि चन्दर के लिए एक कुर्सी मँगा दी गई थी| दोनों ही समझ चुके थे की यहाँ मेरी शादी की ही बात चल रही है और सबकी तरह वो भी उम्मीद कर रहे थे की मैं हाँ करूँगा| ठाकुर साहब की पीठ छप्पर की ओर थी जहाँ हमारे घर की सभी स्त्रियाँ बैठीं थीं, मेरा मुँह छप्पर की ओर था और मैंने एक नजर छप्पर के नीचे देखा तो पाया की सभी स्त्रियों की तरह भौजी भी मेरी तरफ देख रहीं हैं, मेरी माँ और बड़की अम्मा मेरा जवाब जानने को व्याकुल थीं! इधर मैं मन ही मन शब्दों का चयन कर रहा था| इन शब्दों के चयन में मुझे पाँच मिनट लग गए, ठाकुर साहब से मेरी चुप्पी नहीं देखि गई तो वो अपनी अधीरता दिखाते हुए बोले;
ठाकुर साहब: मानु बेटा कउनो परेसानी है? हम तोहसे बस ई ही तो कहत हैं की सादी अभयें कर लिहो और फिर तुम दोनोंजन पढ़त रहो! फिर दुई साल बाद गोना कर लिहो|
ठाकुर साहब की बात सुन मुझे मौका और सही शब्द दोनों मिल गए थे!
मैं: क्षमा करें ठाकुर साहब पर मैं अभी ये शादी नहीं कर सकता और न ही मैं रोका करने के हक़ में हूँ| मैं अभी इतना बड़ा नहीं हुआ की दो दिन में किसी भी व्यक्ति को पूरा समझ सकूँ, उसके व्यक्तित्व को जान सकूँ| ऐसा नहीं है की सुनीता अच्छी लड़की नहीं है पर हमें उतना समय नहीं मिला की हम एक दूसरे को जान सकें| हम दोनों अभी और पढ़ना चाहते हैं और ऐसे में ये शादी-ब्याह की बातें हमारे सर पर तलवार की तरह लटक रही हैं! इस उम्र में हमारे सर पर पढ़ाई का बोझ होना चाहिए न की शादी-ब्याह की जिम्मेदारियाँ! अब अगर आपकी बात माने तो अगले दो साल में आप गोना कर देना चाहते हैं, तब तक तो सुनीता और मेरा कॉलेज भी खत्म नहीं हुआ होगा| ऐसे में शादी कर लेना और फिर अपने माँ-बाप पर बोझ बनके बैठ जाना ठीक नहीं होगा| जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता, कमाने नहीं लगता मैं शादी के बारे में सोच भी नहीं सकता|
मेरी बात सुन कर बड़के दादा एकदम से बोले;
बड़के दादा: मुन्ना ई का कहत हो? बच्चे माँ-बाप पर बोझ थोड़े ही होवत हैं?
मैं: दादा शादी करने के बाद अपनी बीवी को अपनी कमाई न खिला पाऊँ तो बोझ ही हुआ न? पढ़ाई के बाद मेरा इरादा जॉब करने का है, ताकि खुद को संभाल सकूँ!
मेरी ये जॉब करने की बात पिताजी को बहुत चुभी, उस वक़्त तो वो कुछ नहीं बोले और ख़ामोशी से बात सह गए!
मैं: अगर मुझे विदेश में अच्छी जॉब मिल गई तो मैं वहाँ कैसे जा पाऊँगा?
बड़के दादा: अरे तो ई मा का बात है? तोहार माँ-पिताजी है न? बहु उनका ख्याल रखेगी!
मैं: मैं कोई महीने-दो महीने के लिए विदेश नहीं जा रहा, वहाँ जिंदगी बसाने में सालों लग जाते हैं!
बड़के दादा: तो तू विदेश में रहिओ? आपन माँ-बाप का छोड़ के?
बड़के दादा ने मेरी बात को खींचते हुए कहा|
मैं: मेरा मतलब था की अगर ऐसा मौका मिला तो! फिर मैं अकेला थोड़े ही अपनी जिंदगी वहाँ बसा लूँगा, माँ-पिताजी भी मेरे साथ ही रहेंगे, उनको थोड़े ही छोड़ दूँगा?!
मैंने बड़े आत्मविश्वास से कहा, जिसे सुन मेरी माँ का सीना गर्व से फूल गया|
मैं: लेकिन अभी शादी कर लेने से ये सारे खाब तहस-नहस हो जाएंगे!
मैंने बात को खत्म करते हुए कहा| उधर ठाकुर साहब जो ख़ामोशी से मेरी बात सुन रहे थे वो मेरी बातों से बहुत प्रभावित थे;
ठाकुर साहब: देखो बेटा तोहार जवाब बिलकुल स्पष्ट है और हम ऊ की कदर करित है! हम तोह पर कउनो जोर जबरदस्ती नाहीं करब, हम ई रिस्ता इसलिए भेजे रहे काहेकी तोहरी उम्र में हियाँ लड़कों का बियाह कर दिया जात है! खेर अब तोहार मर्जी नाहीं है तो ई मा हमारा कउनो जोर नाहीं चली सकत! पर फिर भी अगर तोहार मन बदले तो हम अब भी ई रिस्ते खतिर तैयार हैं|
ठाकुर साहब ने एक आखरी बार कोशिश करते हुए कहा|
मैं: जी मैं सोच कर फैसला करता हूँ, फैसला कर के नहीं सोचता!
मैंने बड़ी हलीमी से ज़वाब दिया|
ठाकुर साहब: जैसी तोहार मर्जी बेटा! तो भाई साहब अब चला जाये?
ठाकुर साहब ने मुस्कुरा कर कहा और उठने को हुए की पिताजी ने उन्हें एकदम से रोक दिया;
पिताजी: अरे ठाकुर साहब तनिक नास्ता-पानी हो जाये!
पिताजी की बात सुन ठाकुर साहब हँस पड़े और बोले;
ठाकुर साहब: अरे नेकी और पूछ-पूछ!
पिताजी ने फ़ौरन माँ को आवाज लगा कर नाश्ता बनाने को बोला| नाश्ते की तैयारी पहले ही की जा चुकी थी क्योंकि सबको उम्मीद थी की मैं इस शादी के लिए हाँ ही करूँगा! खैर इस बातचीत में कहीं भी कोई मन-मुटाव पैदा नहीं हुआ था, मैंने जो कुछ भी कहा उस बात में वजन था और मेरी बात करने का ढंग कहीं से भी गुस्से या उत्तेजना पूर्ण नहीं था! वहीँ दूसरी ओर मेरे लिए इस फैसले से सुनीता खुश थी और मुझे शुक्रिया अदा करना चाहती थी परन्तु सबके सामने झिझक रही थी इसलिए अपनी गर्दन झुकाये बैठी थी|
ठाकुर साहब भी बुरे आदमी नहीं थे, स्वभाव से हँसमुख थे और सभी के साथ आदर से बात करते थे, यही कारन हैं की मैंने उनसे बड़ी हलीमी से बात की थी| हाँ थोड़ा बहुत पिता होने का और अपनी बेटी के लिए खुद फैसले लेने का घमंड उनमें जर्रूर था! वहीं आज मैंने मेरे पिताजी का एक अलग ही पहलु देखा था, इस बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे कहीं भी नहीं टोका था और न ही अपनी बात मुझ पर लादी थी! मुझे मिली इस छूट को लेके मेरे मन में अनेकों सवाल थे जिन्हें मैं उनसे पूछना चाहता था, परन्तु अभी नहीं बाद में!
खैर वहाँ बातों का सिलसिला जारी हुआ, ठाकुर साहब पॉच रहे थे की हम दिल्ली में कहाँ रहते हैं और पिताजी का क्या काम-धँधा है आदि! अब मैं इन बातों में हिस्सा नहीं लेना चाहता था इसलिए मैं चुप-चाप उठ कर बड़े घर आ गया| आँगन में खड़ा हो कर मैंने गहरी साँस ली लेकिन मन अभी भी थोड़ा व्याकुल था, ताज़ी हवा खाने मैं छत पर आ गया और मुंडेर पर बैठा दूर बने मंदिर की ओर देखने लगा| मैं जहाँ बैठा था वहाँ से बड़े घर के प्रमुख दरवाजे पर कौन खड़ा है ये साफ़ दिखता था| दस मिनट बाद भौजी मुझे नाश्ते के लिए बुलाने आईं और नीचे से ही मेरी ओर मुँह कर के बोलीं;
भौजी: चलिए नाश्ता कर लीजिये!
भौजी ने रूँधे गले से कहा|
मैं: आपको क्या हुआ?
उनकी आवाज़ सुन मुझे अचम्भा हुआ की भला अब इन्हें क्या हुआ? मैंने तो शादी के लिए साफ़ मना कर दिया फिर भौजी क्यों उदास हैं?!
भौजी: कुछ नहीं...!
भौजी ने नजरें चुराते हुए कहा|
मैं: रुको मैं नीचे आता हूँ|
इतना कह के मैं तुरंत नीचे की ओर भागा, नीचे आके मैंने उन्हें इशारे से घर के अंदर बुलाया और हम दोनों अब बरामदे में खड़े थे;
मैं: क्या हुआ? आप मेरे फैसले से खुश नहीं?
मैंने हाथ बाँधते हुए कहा|
भौजी: नहीं!
भौजी ने सर झुकाते हुए कहा|
मैं: पर क्यों?
मैंने भौजी की ठुड्डी पकड़ कर ऊपर करते हुए पुछा|
भौजी: माँ-पिताजी कितने खुश थे...उन्हें सुनीता पसंद भी थी.... फिर भी आपने मना कर दिया?
भौजी ने खुद को रोने से रोकते हुए कहा|
मैं: और आप? आपको ये शादी मंजूर थी? मुझे खोने का डर एक पल के लिए भी आपके मन में नहीं आया?
मैंने गुस्स्से से भौजी को देखते हुए कहा|
भौजी: आया था....पर मैं अब और इस सच से भाग नहीं सकती|
भौजी ने हथियार डालते हुए कहा|
मैं: जानता हूँ पर कुछ सालों तक तो हम इस सच से दूर रह ही सकते हैं ना?
मैंने उन्हें हिम्मत बँधानी चाही पर उन्होंने पलट कर मुझसे ही सवाल पूछ लिया;
भौजी: आपने ये निर्णय स्वार्थी हो के किया न?
उनका मुझे यूँ स्वार्थी कहना खल रहा था लेकिन भौजी ने फिर मेरे सर एक आरोप मढ़ दिया;
भौजी: मेरे प्रति आपके मोह ने आपसे एक गलत फैसला करा दिया?
उनके इन सवालों ने मुझे आहत कर दिया था, मैंने गुस्से में भौजी के दोनों कन्धों को पकड़ा और उन्हें तेजी से धकेलते हुए दिवार से भिड़ा दिया! मैं उनके एकदम से नजदीक सट कर खड़ा हो गया, अपने दाहिने हाथ से उनके दोनों गाल पकडे और गुस्से में उनकी आँखों में आँखे डालते हुए बड़े गर्व से बोला;
मैं: हाँ....हूँ मैं स्वार्थी....! और जब-जब आपकी बात आएगी मैं स्वार्थी बन जाऊँगा! अगर स्वार्थी ना होता तो आपको भगा ले जाने की बात ना करता! आपकी एक ख़ुशी के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ...कुछ भी....!!
मैंने दाँत पीसते हुए कहा| उस वक़्त मुझे इतना गुस्सा आ रहा था की मन कर रहा था की एक खींच के लगा दूँ भौजी को पर मैं अपनी मर्यादा जानता था इसलिए भौजी को छोड़ कर बाहर निकल गया| मन तो कह रहा था की कहीं और चल ताकि अकेले में अपने गुस्से को काबू कर सकूँ, पर तभी बड़की अम्मा आ गईं और वो जोर देके मुझे नाश्ता करने के लिए अपने साथ सब के पास ले आईं|
मैं आकर वहीँ बैठ गया जहाँ सब आदमी बैठे थे, सभी स्त्रियाँ अब भी छप्पर के नीचे बैठीं थीं| माँ और बड़की अम्मा ने सबको नाश्ता परोसा, नाश्ते में पूरी और आलू की सब्जी बने थे| सब ने खाना शुरू किया और करीब पंद्रह मिनट बाद भौजी बड़े घर से घूंघट काढ़े लौटीं मैं समझ गया की वो वहाँ अकेले में जर्रूर रो रहीं थीं| मैं आधे खाने पर से उठा और अपनी थाली ले कर सीधा छप्पर के नीचे आया, भौजी वहाँ सर झुकाये तख्त पर बैठीं थीं| उनहोने घूँघट हटा दिया था और मैंने उनकी आँसुओं से नम आँखें देख ली थीं, मैंने उसी गुस्से में अपनी झूठी थाली उनकी ओर बढ़ा दी और गुस्से में बोला; "खाना खा लो!" भौजी ने दर के मारे मेरे हाथ से थाली ले ली और मुझे दिखाते हुए डरते-डरते खाना खाने लगीं| मैं बिना कुछ कहे वापस आ कर पिताजी की बगल में बैठ गया| जब खाना खत्म हुआ तो ठाकुर साहब ने चलने की इजाज़त माँगी, मैंने फ़ौरन उनके पाँव छुए और उन्होंने मुझे कस के गले लग लिया और आशीर्वाद दे कर चल दिए| वहीं सुनीता ने भी जाने से पहले सब को हाथ जोड़ कर नमस्ते की और ठाकुर साहब के पीछे सर झुकाये चल दी|
ठाकुर साहब के जाने के बाद अब बारी थी घर की बैठक में सवालों का जवाब देने की, मैं मानसिक रूप से इन सवालों की पूरी तैयारी कर चूका था| अजय भैया ने आंगन में एक और चारपाई बिछा दी, एक तरफ मैं बैठा था और मेरी अगल-बगल चन्दर और अजय भैया बैठे थे| दूसरी तरफ पिताजी और बड़के दादा बैठे थे| तीसरी तरफ माँ, बड़की अम्मा और हमेशा की तरह घूँघट काढ़े भौजी बैठीं थीं| रसिका भाभी को इस बैठक से कोई सरोकार नहीं था इसलिए उन्होंने इसमें हिस्सा लेने की नहीं सोची| लेकिन इससे पहले की बात शुरू हो, वरुण को लेने रसिका भाभी के मायके से कोई आ गया था| जाने से पहले वरुण दौड़ कर मेरे पास आया, मैंने उसे कस कर अपने गले लगा लिया और वो मुस्कुराते हुए बोला; "टाटा चाचू!" गौर करने वाली बात ये थी की उसने किसी और को कुछ नहीं कहा, न ही उसके जाने से किसी को कोई फर्क पड़ा था क्योंकि सब के सब अपनी बातों में लगे हुए थे! सब के सब ने उस छोटे से बच्चे से नजरें फेर ली थीं!
खैर वरुण के जाने के बाद पिताजी ने बात शुरू की;
पिताजी: बेटा हम तुझे यहाँ डांटने-फटकारने के लिए नहीं बैठे हैं, तु ने जो किया वो अपनी समझ से किया, ये फैसला सही था....
पिताजी आगे कुछ बोलते उससे पहले ही मैंने उनकी बात काट दी;
मैं: आपकी बात काटने के लिए क्षमा चाहता हूँ पिताजी पर मुझे आपको अपनी सफाई देनी है|
ये सुन कर पिताजी समेत सब ने मुझे सवालिया नजरों से से देखा;
पिताजी: हाँ..हाँ बोल!
पिताजी ने मुझे हिम्मत देते हुए कहा|
मैं: मेरा ये फैसला पक्षपाती था!
ये सुन के भौजी की जान हलक़ में आ गई, वो डरी-सहमी सर झुका कर बैठ गईं! जबकि मैंने ये भौजी के उस सवाल का जवाब देने के लिए कहा था जो उन्होंने मुझसे बड़े घर में पुछा था|
मैं: वो इंसान है सुनीता! वो इस शादी के लिए कतई राजी नहीं थी, केवल अपने पिताजी के दबाव में आ कर हाँ कर रही थी| वो आगे पढ़ना चाहती है और उसके पिताजी दो साल में गोना करना चाहते हैं| इसी बात को मद्दे नजर रखते हुए मैंने शादी के लिए न कहा|
मेरा निर्णय बदलने के लिए ये बात पूरी तरह सच नहीं थी, पर सच तो मैं बोल ही नहीं सकता था न!! वहीं भौजी ने जब मेरी ये बात सुनी तो उन्हें उनके सवाल का जवाब भी मिल गया और दिल को चैन भी आ गया की कम से कम मैंने हमदोनों के प्यार का राज किसी के ऊपर जाहिर नहीं किया!
पिताजी: बेटा मुझे तेरे फैसले पर कोई संदेह नहीं था, अभी तुम दोनों की पढ़ाई जर्रूरी है और मैं ये भूल गया था की शादी कर के मैं तुझ पर जिम्मेदारियों का बोझ डाल रहा हूँ!
पिताजी की बात सुन बड़के दादा अचंभित हुए, वो उम्मीद कर रहे थे की पिताजी मुझे डाटेंगे या समझायेंगे पर उन्होंने तो मेरी ही बात में हाँ में हाँ मिला दी!
बड़के दादा: चलो कउनो बात नाहीं! सादी आज नहीं तो कल होइ जाई!
उन्होंने ये बात सिर्फ और सिर्फ अपनी चिढ छुपाने को कही थी, उधर सभी उनकी बात को मजाक में ले कर हँस पड़े थे सिवाय मेरे और भौजी के!
बात ख़त्म हुई और सब अपने-अपने काम में लग गए, पर मुझे पिताजी से अपने सवाल पूछने थे| पिताजी मुझे के खेतों की तरफ जाते हुए दिखाई दिए तो मैं फ़ौरन उनके पीछे दौड़ पड़ा;
मैं: पिताजी...आपसे कुछ पूछना था|
मैंने पिताजी को रोकते हुए कहा|
पिताजी: हाँ बोल|
पिताजी एकदम से रुकते हुए बोले|
मैं: पिताजी मैं जानना चाहता था की आज से पहले तो आपने कभी मुझे इतनी छूट नहीं दी की मैं अपनी मर्जी से फैसला कर सकूँ, फिर आज क्यों?
मेरी बात सुन पिताजी मुस्कुरा दिए और मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए बोले;
पिताजी: वो इसलिए बेटा की अब तु बड़ा हो गए है, पिछले कुछ दिनों में जिस तरह तूने एक समझदार इंसान की तरह फैसले लिए हैं उन्हें देखते हुए ही मैंने तुझे ये फैसला लेने की छूट दी थी! तूने आजतक कोई गलत काम नहीं किया, हमेशा वो किया जो मैंने तुझे कहा! तेरे जैसा आज्ञाकारी बेटा होना एक गर्व की बात है, इसीलिए मैं तुझे अब और बाँध कर रखना नहीं चाहता! लेकिन ध्यान रहे, अगर तू कोई गलत फैसला लेगा तो मैं तुझे जर्रूर रोकूँगा.और कुटूँगा भी!
ये कहते हुए पिताजी ठहाका मार के हँस पड़े|
मैं: जी!
मैंने मुस्कुराते हुए कहा| पिताजी ने मेरे सर पर हाथ फेरा और बोले;
पिताजी: अच्छा मैं चलता हूँ, भाईसाहब (बड़के दादा) के साथ कहीं जाना है|
इतना कह पिताजी चले गए| उनके जाने के बाद मैं छोटे वाले खेत में टहल रहा था और उनकी कही बातों को ही सोच रहा था| गाँव आने से मुझे में बहुत से बदलाव आये थे, मैं समझदार हो गया था, दुनियादारी देखने तथा समझने लगा था और काफी फैसले सोच-समझ कर लेने लगा था! शहर में मुझे कभी इतना कुछ सोचना नहीं पड़ता था, वहाँ मेरा काम सिर्फ पढ़ाई करना था उसके आलावा का सारा काम तो पिताजी देखते थे| इस समझदारी का श्रेय सिर्फ और सिर्फ भौजी को जाता था वरना मुझ जैसे जड़बुद्धि में इतनी समझ कहाँ!
कुछ ही देर बाद नेहा के स्कूल की घंटी बजी तो मैं उसे स्कूल लेने चल दिया, हमेशा की तरह नेहा दौड़ती हुई आई और मैंने उसे गोद में ले कर लाड करने लगा| आज तो मुझे उसपर बहुत प्यार आ रहा था और उसका कारन था सुबह हेडमास्टर साहब ने उसकी जो तारीफ की थी! मैंने नेहा को अपने हाथ की ऊँगली पकड़ाई और हम दोनों घर लौट आये| घर पहुँचते ही मैं उसे ले कर सीधा भौजी के घर में घुस गया, उसे भौजी के कमरे में पड़ी चारपाई पर खड़ा किया और उसके कपडे बदलते हुए उससे बात करने लगा;
मैं: बेरी प्याली-प्याली बेटी, आपको पता है आज सुबह न आपके हेडमास्टर साहब मिले थे| मैंने न उनसे पुछा की मेरी प्याली-प्याली बेटी पढ़ाई में कैसी है तो उन्होंने है न आपकी है न बहुत-बहुत-बहुत तारीफ की! वो बोले की आप है न पढ़ाई में बहुत अच्छे हो!
ये सुन कर नेहा शर्मा गई और अपना मुँह मेरे सीने में छुपा कर खामोश हो गई|
मैं: अरे मेरा बच्चा शर्मा रहा है?
मैंने नेहा को छेड़ते हुए कहा| फिर मैंने नेहा के सर को अनेकों बार चूमा तब जा कर नेहा की शर्म खत्म हुई! मैंने नेहा के बाल बनाने चाहे, लेकिन मुझे उसके बाल ठीक से बाँधने नहीं आते थे, तो मैं किसी अनाड़ी की तरह अलग-अलग प्रयोग करने लगा ताकि उसके बाल बाँध पाऊँ! मैं उस वक़्त दरवाजे की ओर पीठ कर के खड़ा था और नेहा मेरी ओर मुँह कर के खड़ी थी! अब अगर नेहा की पीठ मेरी ओर होती तभी तो मैं उसके बाल ठीक से बाँध पाता, पर मैं ठहरा नौसिखिया तो मैं ऐसे ही उसके बालों को कंघी से खींच कर सीधा किया और सबकी एक साथ पकड़ कर उन्हें गोल-गोल घुमाने लगा ताकि नेहा के सर पर एक bun (जुड़ा) बना सकूँ! लेकिन आता होगा तब न? उधर मेरी ये कोशिशें देख नेहा को बहुत हँसी आ रही थी;
नेहा: पापा ऐसे नहीं..ऐसे!
नेहा ने मुझे अपने हाथ के इशारे से जुड़ा बनाना सिखाया पर वो मेरे पल्ले ही नहीं पड़ा!
नेहा: ओफ्फो.पापा! आप है न वो...वो दो चोटी बना दो! वो आसान है!
नेहा ने हार मानते हुए कहा|
मैं: बेटा मुझसे एक चोटी नहीं बन रही और आप दो बनाने को बोल रहे हो?
मैंने सर पीटते हुए कहा तो ये सुन नेहा खिल-खिलाकर हँस पड़ी| उसकी ये बेबाक हँसी देख मैं भी हँस पड़ा! अब कैसे भी बेटी के बाल तो बनाने थे तो मैंने आसान रास्ता खोज निकाला, मैंने उसके सारे बाल पीछे की तरफ कँघी करने शुरू किये और जब सारे बाल पीछे की ओर कँघी हो गए तो मैंने एक हैरबंद ले कर उसके बालों में ठीक से लगा दिया|
मैं: अब मेरी प्याली-प्याली बेटी सूंदर सी परी लग रही है!
मैंने उसका माथा चूमा, अपनी तारीफ सुन नेहा के गाल लाल हो गए! लेकिन अगले ही पल वो खी... खी...खी...कर हँसने लगी!
मैं: क्या हुआ बेटा आप क्यों हँस रहे हो?
मैंने नेहा से मुस्कुराते हुए पुछा तो उसने अपने होठों पर हाथ रख कर अपनी हँसी रोकनी चाही, मैंने ध्यान दिया तो पाया की वो मेरे पीछे किसी को देख रही है और इसीलिए वो इतना मुस्कुरा रही थी! मैं पीछे मुड़ पाता उससे पहले ही दो जाने-पहचाने हाथ मेरी बगल से होते हुए मेरी छाती पर आ गए, उसके बाद वो बदन जिसकी गर्मी मैं जानता था मेरी पीठ से आ लगा और अंत में वो गर्म सांसें जो मेरे दिल की धड़कनें तेज कर दिया करती थीं वो मुझे मेरी गर्दन पर महसूस हुईं! ये शक़्स कोई और नहीं बल्कि मेरी प्रियतमा भौजी ही थीं!
भौजी: चलो खाना खा लो|
भौजी ने मुस्कुराते हुए कहा|
मैं: हम्म्म ...!
मैं अब भी भौजी की कही बात से नाराज था इसलिए मैंने बस हम्म कह कर जवाब दिया|
भौजी: मेरे साथ खाना खाओगे या अकेले?
ये सवाल उन्होंने इसलिए पूछा था ताकि उन्हें ये पता चल जाए की कहीं मैं उनसे नाराज तो नहीं?!
मैं: आपके साथ!
मैंने रूखे मन से जवाब दिया| भौजी समझ गईं थीं की मैं उनसे गुस्सा हूँ इसलिए उन्होंने मेरी गर्दन के पीछे अपने गीले होंठों से चूमा! उनका ये चुंबन मेरे जिस्म में मादक जहर की तरह फ़ैल गया!
भौजी: आप यहीं रुको, मैं हमारा खाना यहीं ले आती हूँ| फिर मुझे आपसे बहुत सी बातें करनी हैं|
मैं जानता था की बातों से उनका मतलब सफाई देना ही है, पर अपनी बेटी की मौजूदगी में मैं भौजी को डाँट कर उनकी बेइज्जती नहीं करना चाहता था| भौजी खाना हम तीनों का खाना ले आईं, मैंने अपना ध्यान नेहा को खाना खिलाने में लगा दिया, भौजी मेरी बेरुखी समझ गईं थीं और मुझे मनाने के लिए वो मुझे खाना खिलाने लगीं! इधर नेहा का मन भी मुझे खाना खिलाने का किया तो उसने अपने नन्हे-नन्हे हाथों से मुझे खाना खिलाना शुरू किया! बाप-बेटी भौजी को ख़ुशी तो हो रही थी लेकिन मेरी उनके प्रति बेरुखी उन्हें चुभने लगी थी!
[color=rgb(147,]जारी रहेगा भाग - 5 में...[/color]